पउड़ी: 22
पाताला
पाताल लख आगासा
आगास।
ओड़क ओड़क भालि
थके वेद कहनि
इक बात।।
सहस
अठारह कहनि
कतेबा असुलू इकु
धातु।
लेखा
होइ त लिखीऐ
लेखै होइ विणासु।।
नानक
बडा आखीए
आपे जाणै आपु।।
पउड़ी: 23
सालाही सालाहि एती सुरति
न पाइया।
नदिआ अतै वाह पवहि समुंदि
न जाणी
अहि।।
समुंद
साह सुलतान गिरहा
सेती मालुधनु।
कीड़ी तुलि न होवनी
जे तिसु
मनहु न वीसरहि।।
एक
वैज्ञानिक
प्रयोगशाला
में एक बड़ी
अनूठी घटना
घटी। उस
प्रयोगशाला
में सभी तरह
के जहर, पायजन मौजूद थे।
उन्हीं का
अध्ययन उस
प्रयोगशाला का
लक्ष्य था।
फिर उस
प्रयोगशाला
में बहुत से
चूहे बढ़ गए।
उन चूहों को
मारने के लिए
बहुत उपाय
किए। लेकिन
मारना आसान न
हुआ। क्योंकि
जो भी जहर डाला
जाता, चूहे
उसे खाने के
पहले से ही
आदी थे। चूहे इम्यून हो
गए थे। जहर ही
जहर थे
प्रयोगशाला
में। जहर डाला
जाता, चूहे
मरते तो न, जहर
खा जाते। उसे
भोजन बना
लेते।
तब
किसी ने सुझाव
दिया कि
पुराना ही
रास्ता अख्तियार
करना ठीक है।
चूहे पकड़ने
की जो पुरानी
व्यवस्था है, चूहे की
जाली, उसी
में उनको
फांसना उचित
होगा। चूहे की
जालियां
लायी गयीं, उनमें चीज
के टुकड़े डाले
गए, रोटी
के टुकड़े डाले
गए। लेकिन
चूहों ने कोई
ध्यान न दिया।
वे जहर खाने
के इतने आदी
हो गए थे कि
रोटी और चीज
उन्हें जंची
ही नहीं। एक
भी चूहा न
फंसा।
तब
किसी ने सुझाव
दिया कि अब एक
ही उपाय है कि
चीज और रोटी
के ऊपर जहर की
पर्त लगा दो, तभी ये चूहे
जाल में
फंसेंगे। यही
किया गया। और
रास्ता
कामयाब सिद्ध
हुआ। चीज पर
और रोटी के टुकड़ों
पर जहर लगा
दिया गया। जहर
के कारण चूहे
जाल के भीतर
गए और फंसे।
कहानी
बड़ी अजीब लगती
है, लेकिन सच
है। ऐसा एक
प्रयोगशाला
में हुआ। आदमी
की हालत भी
करीब-करीब ऐसी
ही है। मनुष्य
शब्द का इतना
आदी हो गया है
कि अगर मौन भी
उसे समझाना हो,
तो शब्द में
ही समझाना
पड़े। भोजन
देना हो, तो
भी जहर में
लपेटना पड़े।
और मौन समझाना
हो तो शब्द
में लपेटना
पड़े।
अनंत
की तरफ इशारा
करना हो, तो
भी क्षुद्र
शब्दों का
उपयोग करना
पड़ता है। शून्य
में ले जाना
हो, तो भी
शब्द का उपयोग
करना पड़ता है।
सागर की बात
कहनी हो, तो
भी बूंद का
उपयोग करना
पड़ता है। अब
बूंद की चर्चा
से सागर की
तरफ कोई इशारा
नहीं जाता। जा
भी नहीं सकता।
कहां बूंद, कहां सागर!
कहां शब्द, कहां शून्य!
कहां क्षुद्र
मनुष्य की
बुद्धि और
कहां अमाप
विस्तार! आकाश
ही आकाश, पाताल
ही पाताल--जो
कहीं समाप्त
नहीं होते।
लेकिन
उनका
लेखा-जोखा भी
बड़ी छोटी सी
बुद्धि में
बांधना पड़ता
है। क्योंकि
आदमी बुद्धि
का आदी हो गया
है। हम जिस
बात के आदी हो
जाते हैं, उसके बाहर
जाना सबसे
कठिन बात है।
सत्य दूर नहीं
है, हमारी
आदतों की बाधा
है। सत्य
बिलकुल पास
है। हृदय की
धड़कन से भी
ज्यादा पास; श्वासों से
भी ज्यादा पास;
तुमसे भी
तुम्हारे
ज्यादा पास
परमात्मा है।
लेकिन
आदतों का एक
जाल है। और
आदतें बीच में
खड़ी हैं। और
उन आदतों के
कारण देखना
मुश्किल हो
जाता है। आदत
ही तो
तुम्हारा मन
है। इसलिए सारे
संतों की एक
ही चेष्टा है, कैसे मन छूट
जाए! कैसे तुम
उन्मन हो जाओ!
कैसे नो-माइंड
की अवस्था आ
जाए!
जैसे
ही मन छूटा, वैसे ही
किनारा छूट
गया। तुम सागर
में उतर गए।
और दूसरा कोई
उपाय नहीं है
सागर को जानने
का। सागर ही
होना पड़ेगा।
उससे कम में
काम न चलेगा।
किनारे पर खड़े
रह-रह कर तुम
कितनी ही सागर
की चर्चा करो,
तुम कितने
ही सागर के
बखान करो, सब
व्यर्थ है।
तुम किनारे पर
खड़े हो, यही
बता रहा है कि
तुम्हारी
पहचान सागर से
नहीं हुई।
क्योंकि जो
सागर को पहचान
गया वह क्यों
किनारे खड़ा
रहेगा? जिसे
उस अनंत की
पहचान आ गयी, वह क्यों
रुकेगा
किनारे पर? फिर उसे कौन
सी शक्ति
किनारे पर रोक
सकेगी? अनंत
का आकर्षण उसे
खींच लेगा।
उससे बड़ी कोई
चुंबक तो नहीं
है। फिर सभी
आकर्षण टूट
जाएंगे। अनंत
उसे खींच
लेगा।
लेकिन
हम चर्चा कर
रहे हैं। घरों
के भीतर बंद, खुले आकाश
की बात कर रहे
हैं।
अपने-अपने पिंजड़ों
में बंद, स्वतंत्रता
की चर्चा कर
रहे हैं।
अपने-अपने
शब्दों में
बंद, निराकार
का बखान कर
रहे हैं।
नानक
के ये सूत्र
बड़े कीमती
हैं। इन्हें
समझने की
कोशिश करें।
कहते हैं
नानक--
पाताला
पाताल लख आगासा
आगास।
आकाश
ही आकाश हैं।
एक ही आकाश
अनंत हो जाता
है। क्योंकि
आकाश की कोई
सीमा तो नहीं
है। एक ही
आकाश असीम है।
और नानक कहते
हैं, आकाश ही
आकाश हैं। अनंतानंत!
इनफिनिट इनफिनिटीज।
एक ही इनिफिनिट
नहीं है, एक
ही अनंत नहीं
है, अनंत
अनंत हैं।
आकाश ही आकाश
हैं। जहां भी
तुम जाओ, वहीं
तुम असीम को
पाओगे। जिस
दिशा में बढ़ो,
वहीं असीम
को पाओगे। जो
भी तुम छुओगे,
वही असीम
है। सब तरफ
असीम है।
इस
असीम के बीच
तुम शब्दों के
छोटे-छोटे पिंजड़े
ले कर
परमात्मा को पकड़ने की
कोशिश कर रहे
हो। तुम उसे
किताबों में
बंद कर रहे
हो। तुम उसे
वेद और कुरान
में लिखने की कोशिश
कर रहे हो। यह
ऐसे ही है
जैसे कोई
मुट्ठी में
आकाश को बंद
कर लेना चाहे।
और बड़े मजे की
बात तो यह है
कि जब मुट्ठी
खुली होती है
तो आकाश होता
है। जब मुट्ठी
बंद होती है
तो जो होता है
वह भी निकल
जाता है। खुली
मुट्ठी में तो
आकाश होता है।
क्योंकि खुली
मुट्ठी आकाश
में होती है।
लेकिन जितना
जोर से तुम
मुट्ठी बांधते
हो उतना ही
आकाश बाहर हो
जाता है।
बिलकुल बंद
मुट्ठी में
कोई आकाश नहीं
होता, मुट्ठी
ही रह जाती
है।
शब्दों
का भी ऐसा
प्रयोग करना
जो खुली
मुट्ठियों
जैसे हों। बंद
मुट्ठियों
जैसे शब्दों
का उपयोग मत
करना। लेकिन
खुली मुट्ठी
जैसे जो शब्द
हैं, वे
तर्कयुक्त
नहीं रह जाते।
जितना
तर्कयुक्त
बनाना हो शब्द
को, उतना
उसे बंद करना
पड़ता है।
परिभाषित, सीमित!
उसकी डेफिनीशन
बनानी पड़ती
है। और जब भी
किसी चीज की
परिभाषा बनती
है, वह
सीमित हो जाता
है। उसके
चारों तरफ एक
दीवाल खड़ी हो
जाती है।
जितना
तर्कयुक्त
शब्द होगा उतना
ही परमात्मा
को सूचन करने
में असमर्थ हो
जाएगा।
मुट्ठी बंध
गयी। जितना तर्कयुक्त
शब्द होगा
उतना कहता तो
मालूम पड़ेगा,
लेकिन
कहेगा कुछ भी
नहीं। कंठ दब
गया। और जितना
तर्कमुक्त
शब्द होगा
उतना कहता कम
मालूम पड़ेगा,
लेकिन
कहेगा।
इस
फर्क को खयाल
में ले लें।
नानक के शब्द
किसी
तर्कशास्त्री
के शब्द नहीं
हैं। वे तो एक
कवि के शब्द
हैं, एक
गीतकार के
शब्द हैं। एक
सौंदर्य-प्रेमी
के शब्द हैं।
इन शब्दों से
नानक कोई
परिभाषा नहीं
दे रहे हैं
परमात्मा की।
ये खुली
मुट्ठी की तरह
हैं। इन
शब्दों से
इशारा कर रहे
हैं। ये शब्द
कुछ कह नहीं
रहे हैं, बल्कि
जो नहीं कहा
जा सकता उसकी
तरफ सिर्फ
इंगित कर रहे
हैं। तुम
शब्दों को मत
पकड़ लेना, अन्यथा
चूक जाओगे।
जैसे
मैं चांद को दिखाऊं
अंगुली से और
तुम मेरी
अंगुली पकड़ लो, तो तुम चांद
को कैसे देख
पाओगे? अंगुली
का तो कोई
अर्थ ही न था।
वह तो सिर्फ
चांद की तरफ
इशारा करती
थी। अंगुली को
तो छोड़ देना
है, चांद
को देखना है।
लेकिन लोग
अंगुलियों को
पकड़ लेते हैं।
इसीलिए
तो किताबों की
पूजा शुरू हो
जाती है। कोई
वेद को पूजता
है, कोई
कुरान को, कोई
गुरुग्रंथ को
पूजता है।
पूजा किताब की
शुरू हो जाती
है। अंगुली को
लोग पकड़ लेते
हैं। और जिस
तरफ इशारा था,
उस तरफ आंख
उठती ही नहीं।
और जितने जोर
से तुम किताब
को पकड़ लोगे, उतने ही दूर
तुम सत्य से
हो जाओगे।
मुट्ठी बंध
गयी। शब्द
बहुत
महत्वपूर्ण
हो गया।
शब्द
की कोई महत्ता
नहीं है।
महत्ता तो
निःशब्द की
है। क्योंकि
निःशब्द से ही
पता चल सकता है।
पाताला
पाताल लख आगासा
आगास।
ओड़क ओड़क भालि
थके वेद कहनि
इक बात।।
'और
सारे वेद
सिर्फ एक ही
बात कहते हैं
कि लाखों
खोज-खोज कर थक
गए, लेकिन
खोज नहीं पाए।'
सारे
वेद एक ही बात
कहते हैं। और
वह बात है कि मनुष्य
असमर्थ है।
सारे वेद एक
ही बात कहते
हैं कि बुद्धि
से खोजा तो
कभी वह खोजा
नहीं गया।
खोजने वाले ही
खो गए और वह
नहीं मिला।
उसकी कोई थाह
न मिली। जो
थाह लेने गए, वे पिघल गए, विलीन हो
गए। खोजी तो
मिट गए, लेकिन
जिसे खोजने
निकले थे उसकी
कोई थाह न मिली।
सारे
वेद मनुष्य की
बुद्धि की
असमर्थता की
कहानी हैं। सब
धर्मशास्त्र
एक संबंध में
राजी हैं कि
आदमी कुछ भी
करे, उसके किए
का जाल इतना
छोटा है कि उस
किए के जाल में
परमात्मा
नहीं पकड़ा जा
सकता। और
जितना ही तुम पकड़ने की
कोशिश करते हो,
उतना ही तुम
पाते हो, मुट्ठी
खाली रह गयी।
परमात्मा
को पाने के
ढंग अलग हैं।
वहां तुम्हारी
पकड़ से काम न
चलेगा, वहां
सब पकड़ छोड़
देनी पड़ेगी।
वहां
तुम्हारे सोच-विचार
से रास्ता न
मिलेगा। वहां
तो सब सोच-विचार
छोड़ देना
पड़ेगा। वहां
तुम्हारे
तर्क मार्ग पर
काम न आएंगे, वही तो
बाधाएं हैं।
वहां बुद्धि
सीढ़ी न बनेगी,
वही दीवाल
है। जितना तुम
अपनी बुद्धि
पर भरोसा
रखोगे, उतना
ही तुम पाओगे
कि तुम भटकते
हो। वहां तो
सारा भरोसा
उसी पर छोड़
देना है।
बुद्धि
पर भरोसा भी
अहंकार है।
बुद्धि के भरोसे
का अर्थ है कि
मैं खोज
लूंगा। लेकिन
क्या तुमने
कभी सोचा कि
जिसे तुम खोज
लोगे वह तुमसे
छोटा हो जाएगा
या नहीं? जिसे
मैं खोज लूंगा
वह मुझसे छोटा
हो जाएगा।
जिसे मैं पा
लूंगा वह
मुझसे छोटा हो
जाएगा। जो
मेरी मुट्ठी
में आ जाएगा
वह मुझ से छोटा
हो जाएगा।
परमात्मा को
तुम कैसे पा
सकोगे? अगर
तुमने पा लिया
तो वह
परमात्मा ही न
रहेगा।
तो फिर
परमात्मा को
कैसे पाएं? उसे पाने का
ढंग बड़ा उलटा
होगा। जो आदमी
अपने को खोने
को राजी है, वह उसे पाता
है। क्योंकि
उसके पाने का
एक ही रास्ता
होता है, और
वह यह है कि
तुम उसकी
मुट्ठी में हो
जाओ। हमारी
चेष्टा है कि
वह हमारी
मुट्ठी में हो
जाए। हम उसे
भी घर बांध कर
ले आएं। और हम
लोगों को दिखा
सकें कि देखो,
परमात्मा
को भी हमने पा
लिया है।
यह
कोशिश असफल
होने ही वाली
है। क्योंकि
विराट को घर
बांध कर नहीं
लाया जा सकता।
आकाश को पोटलियों
में बांध कर
नहीं लाया जा
सकता। पोटलियां
घर आ जाएंगी, आकाश नहीं
आएगा। उसे
पाने का
रास्ता तो यह
है कि तुम
अपने को उसकी
मुट्ठी में
छोड़ दो।
इसलिए
तो नानक
बार-बार कहते
हैं कि हजार
बार निछावर
होऊं तुझ पर, तो भी कम है।
और जो तेरी
मर्जी, वही
शुभ है। जो तू
कराए, वही
मार्ग है। जो
तू बता दे, वही
सत्य है।
इस
सारे कथन का
एक ही अर्थ है
कि मैं अपने
को हटाता हूं।
मैं अपने को
तुझ पर नहीं थोपूंगा।
मेरी कोई
मर्जी नहीं है, न मेरा कोई
लक्ष्य है, और न मेरा
कोई प्रयोजन
है। मैं तुझ
में बहूंगा।
इसीलिए
श्रद्धा
मूल्यवान है
और तर्क घातक
है। तर्क का
अर्थ है कि
निर्णायक मैं
हूं। तर्क का
अर्थ है, न्यायाधीश
मैं हूं।
श्रद्धा का
अर्थ है, न्यायाधीश
तू है।
'लाखों
पाताल हैं, लाखों आकाश
हैं। उसके अंत
की खोज
करते-करते
अनेकों थक गए।
वेद यही एक बात
कहते हैं।'
वेद
शब्द बड़ा
कीमती है। वेद
से कुछ
हिंदुओं की
चार किताबों
का ही संबंध
नहीं है। वेद
शब्द से अर्थ
है, जिन्होंने
भी जाना, उनके
शब्द। वेद
शब्द का अर्थ
है, ज्ञानियों
के शब्द। वेद
बनता है विद
से। विद का अर्थ
होता है, जानना।
और वेद का
अर्थ होता है,
उसके वचन, जिसने जान
लिया।
बुद्धों के
वचन, जिनों
के वचन, ऋषियों
के वचन। वेद
से कुछ ऋग्वेद,
अथर्ववेद, इनका कोई
संबंध नहीं
है। वे भी
ज्ञानियों के
वचन हैं।
लेकिन जहां भी
किसी ने जाना
है। वहीं वेद
निर्मित हो
जाता है। तुम
जान लोगे तो
तुम्हारा वचन
वेद हो जाएगा।
वेद की कोई
सीमा नहीं है।
जितने जानने
वाले हैं, उतना
वेद बढ़ता जाता
है। जितने
जानने वाले
अतीत में हुए
हैं, आज
हैं और भविष्य
में होंगे, उन सब के वचन
वेद हैं। वेद
का अर्थ है, सारभूत
ज्ञान।
नानक
कहते हैं, 'सारे वेद एक
ही बात कहते
हैं कि उसके
अंत की खोज
करते-करते अनेकों
थक गए...।'
इसे
थोड़ा खयाल में
ले लें।
क्योंकि साधक
के जीवन में
इस थकने
का बड़ा मूल्य
है। जब तक तुम
थक न जाओगे, तब तक तुम
मिटने को राजी
न होओगे। जब
तक तुम बिलकुल
ही न थक जाओगे,
तब तक तुम
खुद को पकड़े
ही रहोगे। एक
ऐसी घड़ी आ
जाएगी जब
तुम्हारा कोई
प्रयास सार्थक
न मालूम
पड़ेगा। जब तुम
कुछ भी करोगे,
तो भी तुम
जानोगे, इससे
कुछ होने वाला
नहीं। जहां
तुम्हारे कर्ता
का भाव आखिरी पड़ाव पर आ
जाएगा। कि जो
भी मैं करता
हूं, व्यर्थ!
जो भी मैं खोज
लेता हूं, व्यर्थ!
जो भी मैंने
पा लिया है, वह व्यर्थ!
जो मेरी
वासनाएं कह
रही हैं, वह
व्यर्थ! पा भी
लूंगा तो क्या
होगा? जिस
दिन तुम इतने
गहन विषाद में
भर जाओगे कि मेरा
किया कुछ भी
नहीं होता।
उसी दिन तुम
अहंकार को छोड़ोगे,
उसके पहले
नहीं।
उसके
पहले छोड़ोगे
भी कैसे? उसके
पहले आशा बनी
रहती है कि
कुछ न कुछ पा
लूंगा। और
थोड़े प्रयास
की जरूरत है।
अगर नहीं मिला
अब तक, तो
गलत खोज रहा
हूं। विधि
बदलूं, गुरु
बदलूं, शास्त्र
बदलूं, मिल
जाएगा। मंदिर
से मस्जिद चला
जाऊं, मस्जिद
से चर्च चला
जाऊं, चर्च
से
गुरुद्वारा
चला जाऊं, बदलाहट
कर लूं। जब तक
तुम बिलकुल नहीं
थक गए हो, पूर्ण
नहीं थक गए हो,
विषाद
समग्र नहीं हो
गया, तब तक
तुम अहंकार को
पकड़े ही
रहोगे।
बुद्ध
के जीवन में
घटना है कि
बुद्ध ने छह
वर्ष तक बड़ी
खोज की। शायद
ही किसी
मनुष्य ने
इतनी त्वरा से
खोज की हो। सब
कुछ दांव पर
लगा दिया। जो
भी जिसने
बताया उसे
पूरा-पूरा
किया। तो कोई
भी गुरु बुद्ध
को यह न कह सका कि
तू पहुंच नहीं
रहा है, क्योंकि
तेरी चेष्टा
कम है। यह तो
असंभव था। यह
तो कहना ही
संभव न था।
क्योंकि
चेष्टा तो उनकी
इतनी समग्र थी
कि उस संबंध
में कोई भी
शिकायत न की
जा सकती थी।
जो जिसने कहा,
वह
उन्होंने
पूरी तरह
किया।
किसी
गुरु ने कहा
कि सिर्फ एक
चावल के दाने
पर--रोज एक
चावल का दाना
ही भोजन में
ले कर--तीन महीने
तक रहो, तो
वे वैसे ही
रहे। सूख कर
हड्डी-हड्डी
हो गए। पीठ
पेट एक हो गए।
श्वास लेना तक
मुश्किल हो गया।
क्योंकि इतनी
कमजोरी आ गयी।
जो
जिसने बताया, वह उन्होंने
पूरा किया। सब
कर डाला, ज्ञान
नहीं हुआ।
क्योंकि किए
से कभी ज्ञान
नहीं होता। सब
कर डाला, लेकिन
उसमें भी
कर्ता का भाव
तो बना ही
रहा। उपवास
किया, जप
किया, तप
किया, योग
साधा, लेकिन
भीतर एक
सूक्ष्म
अहंकार तो बना
ही रहा कि मैं
कर रहा हूं।
मुट्ठी बंधी
रही। मैं
मौजूद रहा।
और उसे
पाने की तो
शर्त एक ही है
कि मैं खो
जाए। इससे
क्या फर्क
पड़ता है कि
तुम दूकान चला
रहे हो कि
पूजा कर रहे
हो? दोनों
हालत में मैं
तो बना रहता
है। दूकान भी तुम
चलाते हो, पूजा
भी तुम ही
करते हो।
दोनों
दूकानें हैं।
जहां तक
अहंकार है, वहां तक दूकान
है। जहां तक
अहंकार है, वहां तक
व्यवसाय है, वहां तक
संसार है। जिस
क्षण अहंकार
गिरता है, उसी
क्षण
परमात्मा
शुरू होता है।
इधर तुम गिरे,
उधर वह हुआ।
तुम गए बाहर, वह आया
भीतर। और
दोनों एक साथ
न रह सकोगे।
वहां दुई नहीं
चल सकती। वहां
एक ही रह सकता
है--या तो तुम
या वह!
अंततः
बुद्ध थक गए।
सब कर लिया, कुछ भी न
पाया। हाथ
खाली के खाली
रहे। निरंजना
नदी में स्नान
कर के निकलते
थे, वे
इतने कमजोर थे
कि निकल न
सके। नदी
बहाने लगी।
तैरने की भी
क्षमता नहीं।
सिर्फ किनारे
से लटकी एक
वृक्ष की शाखा
को पकड़ कर
लटके रहे। उस क्षण
उन्हें विचार
आया कि मैंने
सब कर लिया और
कुछ न पाया।
सच तो यह है कि
यह सब करने
में मैंने अपनी
सारी शक्ति भी
गंवा दी। और
जब मैं इतना
कमजोर हो गया
कि इस छोटी सी
नदी को पार
नहीं कर पाता,
तो भवसागर
को कैसे पार
कर पाऊंगा?
यह
कर-कर के इतना
ही हाथ लगा।
संसार तो पहले
ही व्यर्थ हो
गया था। वह तो
दौड़ बेकार हो
गयी थी।
राजमहल पहले
ही व्यर्थ हो
गया था। धन मिट्टी
हो चुका था।
उस क्षण थकान
इतनी गहरी हो
गयी भीतर कि
अध्यात्म भी
व्यर्थ हो
गया। मोक्ष भी
व्यर्थ हो
गया। बुद्ध के
मन में उस
क्षण उठा कि न
तो संसार में
कुछ पाने
योग्य है, न मोक्ष में
कुछ पाने
योग्य है, और
न कोई और कुछ
पा सकता है।
यह सारी कथा
ही व्यर्थ है।
यह सारी
दौड़-धूप
व्यर्थ है।
किसी
तरह बाहर
निकले। वृक्ष
के नीचे बैठ
गए। और उस
क्षण
उन्होंने
सारी चेष्टा
छोड़ दी, क्योंकि
अब कुछ पाने
को ही न रहा।
और पा-पा कर, सब प्रयास कर
के देख लिया, कुछ मिलता
भी नहीं।
विषाद
परिपूर्ण हो
गया--फ्रस्ट्रेशन
टोटल; अब
रत्तीभर आशा न
रही। जब तक
आशा है तब तक
अहंकार बना
रहेगा। उस रात
उस वृक्ष के
नीचे वे सो गए।
यह पहली रात
थी
जन्मों-जन्मों
के बाद, जब
पाने को कुछ
भी नहीं था, जाने को
कहीं नहीं था।
कुछ बचा नहीं
था। अगर
मृत्यु उसी
वक्त आ जाती, तो बुद्ध यह
न कहते मृत्यु
से कि एक क्षण
रुक जा।
क्योंकि
रुकने की कोई
जरूरत न थी।
सब आशाएं टूट
गयीं।
थकान
का अर्थ है, जहां सब आशा
के इंद्रधनुष
गिर गए। सब
सपने बिखर गए।
उस रात बुद्ध
सो गए। उस रात
कोई सपना भी न उठा।
जब पाने को ही
कुछ न रहा तो
सपने उठने बंद
हो जाते हैं।
उस रात कोई
विचार भी मन
में न आया।
क्योंकि सब
विचार
वासनाओं के
अनुचर हैं। वे
वासनाओं के
पीछे चलते
हैं। वासना
आगे चलती है, विचार पीछे
छाया की तरह
चलते हैं। वे
वासना के चाकर
हैं। जब कोई
वासना नहीं, तो विचार भी
कोई नहीं।
सुबह
नींद खुली।
रात का आखिरी
तारा डूबने के
करीब था।
बुद्ध की
आंखें खुलीं।
उठ कर भी करने को
कुछ नहीं था।
आज सब व्यर्थ
हो गया था। कल
तक तो दौड़ थी, धर्म पाना
था, आत्मा
पानी थी, परमात्मा
पाना था। आज
कुछ भी पाना
नहीं था। अब
अपने किए कुछ
होता ही नहीं;
तो पड़े रहे।
आखिरी तारा
डूबता गया और
वह चुपचाप
देखते रहे। और
कथा है कि उसी
क्षण में
ज्ञान उपलब्ध
हुआ।
क्या
हुआ उस क्षण
में? जो इतना
पा कर न मिला, जो इतनी
कोशिश से न
मिला, जो
इतने दौड़ने से
न मिला, उस
रात क्या घटा?
उस सुबह कौन
सी अनूठी बात
हुई कि उस वृक्ष
के नीचे
लेटे-लेटे
बुद्ध परम
ज्ञान को उपलब्ध
हो गए?
घटना
यह घटी, जिसकी
नानक बात कर
रहे हैं, थकान
आ गयी, अहंकार
बिलकुल ही
बिखर गया।
मेरे किए कुछ
भी न होगा, सब
प्रयास छूट
गए। और जैसे
ही प्रयास
छूटता है, प्रसाद
उपलब्ध होता
है। जैसे ही
तुम्हारी आशा
खतम हो जाती
है, जैसे
ही तुम्हारी
दौड़-धूप रुक
जाती है, आपाधापी
बंद होती है, जैसे ही
तुम्हारा
अहंकार गिर
जाता है, मुट्ठी
खुल जाती है।
खयाल
तुमने किया कि
मुट्ठी को
खोलना नहीं
पड़ता, बांधना
पड़ता है। बंधी
मुट्ठी में
श्रम होता है।
जब तुम मुट्ठी
बांधे हो, तो
मेहनत करनी
पड़ती है। अगर
तुम कुछ न
करोगे तो
मुट्ठी अपने आप
खुल जाएगी।
क्योंकि खुला
होना स्वभाव
है। बंद
मुट्ठी
चेष्टा से
होती है, प्रयास
करना पड़ता है।
खुलती अपने आप
है। खोलने के
लिए थोड़े ही
कुछ करना पड़ता
है। बस, बांधो मत; खुल
जाती है।
बांधने के लिए
कुछ करना पड़ता
है, खोलने
के लिए कुछ भी
करना नहीं
पड़ता। उस सुबह
बिना कुछ किए
मुट्ठी खुल
गयी।
कबीर
ने कहा है, अनकीए सब होय। उस
क्षण कुछ भी
नहीं किया था
और सब हो गया।
थक गए! थक गए, अहंकार गिर
गया। इधर गया
अहंकार बाहर
घर के, उधर
परमात्मा का
प्रवेश है!
नानक
कहते हैं, 'वेद एक ही बात
कहते हैं कि
उसके अंत की
खोज करते-करते
अनेकों थक गए।'
और जब
थके, बस, तभी
ज्ञान उपलब्ध
हो गया। तुम
अगर थक जाओ, तो ही उसे पा
सकोगे।
तुम्हारी
थकान से ही
उसका आगमन
होगा। जब तक
तुम थके नहीं
हो, तब तक
तुम उसे न पा
सकोगे।
इसलिए
सारे योग--एक
ही लक्ष्य है
उनका, कैसे
तुम्हें थका
दें। योग से
परमात्मा
नहीं मिलता, योग से
सिर्फ अहंकार
थकता है।
विधियों से
परमात्मा
नहीं मिलता, विधियों से
केवल तुम थकते
हो। और एक ऐसी
थकान की, परिपूर्ण
विश्रांति की
अवस्था आ जाती
है, जब
मुट्ठी खुल
जाती है। तुम
इतने थक होते
हो कि मुट्ठी
बांध भी नहीं
सकते।
खोजते-खोजते
अनेकों थक गए।
और वेद एक ही
बात कहते हैं, जब कोई थक
जाता है, तभी
उपलब्धि हो
जाती है।
इसीलिए तो सदगुरुओं
ने कहा है कि
परमात्मा
प्रसाद से
मिलता है, प्रयास
से नहीं। कृपा
से मिलता है, उसकी
अनुकंपा से
मिलता है, तुम्हारी
चेष्टा से
नहीं। अगर
तुम्हारी
चेष्टा से
मिलेगा तो
तुमसे छोटा हो
जाएगा।
अनुकंपा से
मिलता है।
तुमसे छोटा नहीं
है, तुमसे
बड़ा है। और
जैसे ही तुम
खाली होते हो,
तुम भर दिए
जाते हो।
वर्षा
होती है; पहाड़
पर भी होती है,
झील में भी
होती है। झील
में तो भर
जाता है पानी,
पहाड़ खाली
का खाली रह
जाता है। पहाड़
पहले से ही
भरा हुआ है, जगह ही नहीं
कि वर्षा भर
सके। झील खाली
है। तो गङ्ढों
में तो जल भर
जाता है और
झील बन जाती
है। पहाड़ जो
भरे ही हुए
हैं, खाली
के खाली रह
जाते हैं।
परमात्मा
तो सब पर एक सा
बरसता है।
उसके लिए कोई
भेदभाव नहीं।
अस्तित्व सब
के लिए एक सा
है। वहां
रत्ती भर का
अंतर नहीं है।
वहां
योग्य-अयोग्य
का भी हिसाब
नहीं है। पापी
और
पुण्यात्मा
का भी कोई
हिसाब नहीं
है। परमात्मा
सभी पर बरसता
है, जैसे सभी
के ऊपर आकाश
का साया है।
लेकिन जो खुद
से भरे हैं, वे वंचित रह
जाते हैं।
क्योंकि उनके
भीतर जगह नहीं
है। और जो खुद
से खाली हैं, वे भर जाते
हैं। क्योंकि
उनके भीतर जगह
है। खुदी
मिटते ही खुदा
हो जाता है।
और खुदी तब तक
नहीं मिटती, जब तक आशा है
कि पा लूंगा।
'कतेबों--इंजील, कुरान,
तुरेत--का कहना है
कि अठारह हजार
आलम हैं।
लेकिन तत्वतः
एक ही सत्ता
है।'
सहस
अठारह कहनि
कतेबा असुलू इकु
धातु।
लेकिन
इस सारे अनंत
विस्तार में
छिपा है एक। विस्तार
अनंत हैं, अनंत रूप
हैं, लेकिन
जो छिपा है, वह एक है। और
अगर तुमने
विस्तार पर
ध्यान दिया, तो तुम
संसार में भटक
जाओगे। और अगर
तुमने एक पर
नजर रखी, तो
तुम परमात्मा
को पहुंच जाओगे।
इसे
ऐसा समझो, एक माला है, उसमें मनके
हैं। मनके
अनेक हैं, हर
मनके के भीतर
लेकिन एक ही
धागा पिरोया
हुआ है, अनुस्यूत
एक ही धागा
है। अगर तुमने
मनके पकड़े,
तो तुम
संसार में भटक
जाओगे। अगर
तुमने धागा पकड़
लिया, तो
तुम परमात्मा
को उपलब्ध हो
जाओगे।
सतह पर
सागर के अनेक
लहरें हैं, अनंत लहरें
हैं। अगर
तुमने सागर पर
ध्यान न दिया
और लहरों का
खयाल किया, तो तुम
भटकते ही चले
जाओगे।
क्योंकि
लहरें बनती ही
रहेंगी, मिटती
ही रहेंगी।
उनका कोई
पारावार नहीं
है। एक लहर
दूसरे में ले
जाएगी, दूसरी
तीसरे में ले
जाएगी। तुम
लहरों पर
भटकती हुई एक
क्षुद्र कागज
की नाव के
जैसे हो जाओगे।
जो इस लहर से
उस लहर में
जाएगी। इस लहर
में डूबेगी,
उस लहर में डूबेगी।
इधर दुख पाएगी,
उधर दुख
पाएगी। तुम
मंजिल पर न
पहुंच पाओगे।
क्योंकि
लहरों में
मंजिल नहीं हो
सकती। लहरों में
तो परिवर्तन
है। और मंजिल
तो शाश्वत
होगी। लहरों
में विश्राम
नहीं हो सकता।
विश्राम तो
वहां होगा, जहां सब
लहरें शांत हो
जाती हैं।
जहां तुम उसे
पा लेते हो, जो बदलता ही
नहीं।
तुमने
खयाल किया? जितनी
तुम्हारे
जीवन में
बदलाहट होती
है, उतनी
ही अशांति
होती है।
इसलिए तो आज
की दुनिया में
बहुत अशांति
बढ़ गयी है।
क्योंकि
बदलाहट बहुत
बढ़ गयी है।
बदलाहट
प्रतिपल हो
रही है।
वैज्ञानिक हिसाब
लगाते हैं कि
ईसा के पहले
पांच हजार साल
में जितनी
बदलाहट होती
थी, ईसा के
बाद हजार साल
में उतनी
बदलाहट होने
लगी। फिर ईसा
के हजार साल
बाद दो सौ
वर्षों में उतनी
बदलाहट होने
लगी। इस सदी
में
पहुंचते-पहुंचते,
ईसा के पहले
पांच हजार साल
में जितनी
बदलाहट होती
थी, उतनी
अब पांच साल
में होती है।
इस सदी के
पूरे होते-होते
उतनी बदलाहट
पांच महीनों
में होने लगेगी।
बदलाहट इतनी
तीव्रता से हो
रही है कि तुम
ठहर ही नहीं
पाते एक लहर
पर कि दूसरी
लहर आ जाती
है।
अगर
तुम बूढ़े
आदमियों से
गांव में जा
कर पूछो, तो
वे कहेंगे, उनका गांव
करीब-करीब
वैसा ही रहा
है, जैसा
था। जब वे
जन्मे थे तब
भी ऐसा था, अब
भी वैसा है।
लेकिन
तुम्हारे शहर,
जो कि
भविष्य के
नक्शे हैं, वहां कुछ भी
दूसरे दिन
वैसा नहीं है।
सब बदल रहा
है। और पश्चिम
में तो बदलाहट
बड़ी भयंकर हो
गयी है।
अमरीका
में कोई भी
आदमी तीन साल
से ज्यादा एक गांव
में नहीं
रहता। औसत
आदमी के रहने
की व्यवस्था
तीन साल हो
गयी है। हर
तीन साल में
दूसरे गांव
में पहुंच
जाता है। और
यह तो औसत
आदमी की बात
है। इसमें
पचास प्रतिशत
तो ऐसे लोग
हैं, जो काफी
देर तक रुकते
हैं, उनका
भी हिसाब जोड़ा
हुआ है। कुछ
लोग तो हर दो-चार
महीने में बदल
रहे हैं। गांव
बदलता है, हवा
बदलती है, मौसम
बदलता है, कपड़े
बदलते हैं, कार बदलती
है, खाना
बदलता है, लहरें
बढ़ती जाती
हैं। और
तुम्हारे मन
को ऐसा लगता
है, जितनी
बदलाहट होती
है, उतना
तुम सुख पा
रहे हो।
जितनी
बदलाहट होती
है, उतना तुम
दुख पा रहे
हो। क्योंकि
हर बार जैसे पौधे
को उखाड़ना
पड़े उसकी जड़ों
से, फिर
नयी जगह लगाना
पड़े, फिर उखाड़ना
पड़े, फिर
नयी जगह लगाना
पड़े--तुम लग भी
नहीं पाते, तुम्हारी
जड़ें बैठ भी
नहीं पातीं एक
लहर में कि
दूसरी लहर आ
जाती है।
जितना
परिवर्तन
होगा, उतना
जीवन नारकीय
हो जाएगा।
इसलिए पश्चिम
में नर्क बहुत
सघन हो गया
है। प्राचीन
दिनों में
पूरब बड़ा शांत
था, क्योंकि
परिवर्तन न के
बराबर था।
चीजें ठहरी हुई
थीं। और उस
ठहराव से सागर
में उतरना
आसान था।
क्योंकि जड़ें
जमी हुई थीं।
और गहरे उतरने
की हिम्मत
होती थी।
ध्यान
रखना एक बात; लहर के साथ
अगर बहते रहे
तो तुम
सांसारिक हो। और
अगर लहर में
तुमने
धीरे-धीरे
सागर को खोजना
शुरू कर दिया,
तुम
संन्यासी हो
गए। परिवर्तन
में शाश्वत की
खोज संन्यास
है। बदलते हुए
में न बदलते
हुए को पकड़
लेने की कला
संन्यास है। वही
धर्म है। वही
सार है सब
वेदों, सब कुरानों, सब इंजीलों
का।
नानक
कहते हैं, 'कतेबों का कहना है
कि अठारह हजार
आलम हैं।
अठारह हजार
अस्तित्व
हैं। लेकिन
तत्वतः एक ही
सत्ता है।'
तुम
किसको पकड़ोगे, इस पर
निर्भर
करेगा। दोनों
खुले हैं।
चाहो तो
परिवर्तनशील
को पकड़ लो, जो
आता है, जाता
है। और चाहो
तो उसे पकड़ लो,
जो न कभी
आता है और न
कभी जाता है, सदा है। और
जिसकी छाती पर
सब परिवर्तन
होते हैं और
घटते हैं। और
जो
अपरिवर्तित
बना रहता है।
जिसने
उस एक को पकड़
लिया, उसके
जीवन में आनंद
की वर्षा हो
जाती है। और
जिसने अनेक को
पकड़ा, वह
एक दुख से
दूसरे दुख में
जाता है। उसे
सुख कभी मिलता
नहीं। बस, सुख
का उसे आभास
मालूम होता
है। जब एक दुख
से दूसरे दुख
में जाता है, तो बीच में
जो थोड़ा सा
अंतराल होता
है बदलाहट का,
उसमें उसे
सुख की आशा
होती है।
तुमने
कितनी बार
मकान बदले!
कितनी बार कार
बदली! जब तुम
पुरानी कार को
बदलते हो नयी
कार से, तो
बदलाहट के बीच
में थोड़ा सा
अंतराल होता
है, जिसमें
तुम्हें लगता
है, बड़ा
सुख मिलने
वाला है।
लेकिन ऐसा ही
तुम्हें पहले
भी लगा था, जब
तुमने पहले
कार बदली थी।
और ऐसा ही
तुम्हें फिर
लगेगा, जब
तुम फिर कार
बदलोगे। एक
पत्नी से
दूसरी पत्नी
को बदल लो, एक
पति को दूसरे
पति से बदल लो;
बस, बीच
में एक आशा की
किरण मालूम
होती है। ऐसे
ही, जैसे
तुमने देखा हो,
लोग मरघट ले
जाते हैं किसी
की लाश को
कंधों पर, तो
रास्ते में
कंधा बदलते
हैं। एक कंधे
पर वजन बढ़
जाता है, उठा
कर दूसरे पर
रख लेते हैं।
बस थोड़ी देर
को लगता है कि
राहत मिली।
क्योंकि वजन
तो वही का वही
है। राहत तो
मिलेगी कैसे?
बस, कंधा
थोड़ी देर में
फिर थक जाता
है, फिर
कंधा बदल लेते
हैं।
तुम
कंधे बदल रहे
हो। बस बीच
में थोड़ा सा
आसार लगता है
कि सुख मिला।
सुख तुम्हें
कभी मिला
नहीं। लौट कर
तुम देखो, तुम्हें एक
क्षण भी ऐसा
नहीं मालूम
पड़ेगा जब तुमने
सुख को जाना
हो, जिसके
लिए तुम
परमात्मा को
धन्यवाद दे
सको। दुख ही
दुख है। और
लोग एक दुख से
दूसरे दुख में
बदलते रहते
हैं। पुराना
दुख छोड़ते हैं,
नया पकड़ते
हैं। थोड़े दिन
में यह भी
पुराना हो
जाता है। फिर इसे
छोड़ते हैं, फिर नया पकड़ते
हैं। आशा बनी
रहती है कि
शायद कभी सुख
मिलेगा।
यह
रास्ता सुख को
पाने का नहीं।
क्योंकि तुम लहरों
से लहरों को
बदल रहे हो।
सुख को पाने
का रास्ता है, लहर से सागर
में उतरना।
लहरें अनेक, सागर एक।
अठारह हजार
होंगे
अस्तित्व, लेकिन
सत्ता एक है।
सब के भीतर एक
ही छिपा है। सारे
जीवन की कला
इस एक छोटे
सूत्र में
पूरी हो जाती
है कि तुम एक
को खोज लो।
तुम धागे को
पा लो।
'यदि
उसका लेखा हो
तो लिखें; लेकिन
सब लेखा-जोखा
मिट जाने वाला
है। नानक कहते
हैं, वह सबसे
महान है और वह
अपने को आप ही
जानता है।'
लेखा
होइ त लिखीऐ
लेखै होइ विणासु।।
नानक
बडा आखीए
आपे जाणै आपु।।
उसके
संबंध में कुछ
लिखा नहीं जा
सकता, क्योंकि
लिखा हुआ तो
मिट जाता है।
और वह कभी मिटता
नहीं। तो जो
कभी मिटता
नहीं उसके
संबंध में
मिटने वाली
चीज कैसे खबर
देगी? सब
लेखे खो जाते
हैं। कितने
शास्त्र खो
चुके हैं।
जितने
शास्त्र आज
हैं, वे भी
कभी खो
जाएंगे।
कितने शब्द
पैदा हुए जगत
में और लीन हो
गए, लेकिन
सत्य तो बना
हुआ है।
तो
दोनों का
गुणधर्म अलग
है, क्वालिटी
अलग है। जो
लिखा जाता है,
वह तो मिट
जाएगा। जो
बिना लिखा
है...। अगर तुम
कोरे कागज को पढ़ना सीख
लो तो तुम
परमात्मा को
समझ पाओगे।
ऐसा
हुआ, महाराष्ट्र
में ही हुआ।
तीन संत हुए। एकनाथ हुए,
निवृत्तिनाथ हुए और एक
फकीर औरत हुई,
मुक्ताबाई। एकनाथ
ने पत्र लिखा निवृत्तिनाथ
को। लेकिन
पत्र कोरा कागज
था। उसमें कुछ
लिखा नहीं था।
बस, खाली
कागज
संदेशवाहक के
हाथ भेजा था। निवृत्तिनाथ
के हाथ में
कागज गया, उन्होंने
बड़े रस से
पढ़ा। लिखा
उसमें कुछ भी
नहीं था। पर
बड़े गौर से
पढ़ा। और पढ़ कर
फिर मुक्ताबाई
को दिया कि
तुम भी पढ़ो।
फिर मुक्ताबाई
ने भी उसे बड़े
गौर से पढ़ा।
और फिर दोनों आनंदभाव
से प्रसन्न
हुए। और
संदेशवाहक को
कहा कि हमारा
पत्र ले जाओ
उत्तर में। और
वही कोरा कागज
वापस दे दिया।
संदेशवाहक
बड़ी मुश्किल
में पड़ा। पहले
जब लाया था, तब तो उसे
पता नहीं था
कि कागज कोरा
है। लिफाफे
में बंद था।
अब तो उसने
देख लिया था
कि उसमें कुछ
लिखा नहीं।
उसने कहा, महाराज,
इसके पहले
कि मैं जाऊं, एक छोटी सी
जिज्ञासा
मेरी भी पूरी
कर दें। लिखा
कुछ भी नहीं
है, तो पढ़ा
कैसे? और न
केवल आपने पढ़ा,
मुक्ताबाई ने भी पढ़ा।
और आप दोनों
प्रसन्न भी
हुए। और इतने
गौर से पढ़ा कि
जरूर कुछ पढ़ा!
मुझे भी लगा।
क्या पढ़ा? और
फिर यही कागज
आप वापस भेज
रहे हैं बिना
कुछ लिखे!
निवृत्तिनाथ
ने कहा कि एकनाथ
ने खबर भेजी
है कि अगर 'उसे'
पढ़ना है, तो
खाली कागज पर पढ़ना
पड़ेगा। और भरे
कागज पर तुम
जो भी पढ़ोगे
वह 'वह' नहीं
है। हम राजी
हैं। हम समझ
गए बात। यही
उत्तर है
हमारा कि हम
समझ गए। हम
राजी हैं। बात
बिलकुल ठीक
है।
किताबें
तो लिखी हुई
हैं, परमात्मा
अनलिखा
है। किताबें
कैसे उसे
कहेंगी? अनलिखे
को पढ़ना
सीखना हो तो
वेद पढ़ो, गुरुग्रंथ पढ़ो, कुरान
पढ़ो, लिखे
हिस्से को छोड़
देना।
गैर-लिखे
हिस्से को पढ़
लेना। लिखे
हिस्से को छोड़
देना, गैर-लिखे
को सम्हाल
लेना।
पंक्तियों के
बीच में, शब्दों
के बीच में
जहां-जहां
खाली जगह हो, उसको पढ़
लेना। उसको
गुन लेना।
अगर
तुमने लिखे को
पढ़ा तो तुम
पंडित हो
जाओगे, अगर
तुमने अनलिखे
को पढ़ा तो
ज्ञानी हो
जाओगे। अगर
लिखे को याद कर
लिया तो
तुम्हारे पास
बड़ी सूचनाएं
इकट्ठी हो
जाएंगी, और
अगर अनलिखे
को याद कर
लिया तो तुम
छोटे बच्चे की
तरह सरल हो
जाओगे। और अनलिखे
से द्वार है।
इसलिए
नानक कहते हैं, उसका कोई
लेखा है जो
लिखा जा सके? किसी ने कभी
उसके संबंध
में कुछ जाना
है, जिसको
जानकारी
बनाया जा सके?
कोई
सूचना उसकी
सूचना नहीं बन
सकती।
जिन्होंने
जाना है वे तो
चुप हैं। अगर
वे कुछ कहते
भी हैं, तो
केवल चुप्पी
की तरफ इशारा
करने को कहते
हैं। अगर
उन्होंने कुछ
लिखा भी है, तो इसलिए
लिखा है ताकि
तुम अनलिखे
को पढ़ना
शुरू करो।
न उसका
कोई लेखा है
जो लिखा जा
सके। और जो
लिखा गया है
वह सब तो मिट
जाने वाला है।
कितना ही
सम्हालो
किताबों को, वे खो ही
जाएंगी। कागज
की किताबें
हैं। स्याही
से लिखे अक्षर
हैं। इससे
ज्यादा
परिवर्तनशील
कुछ और तुम
पाओगे? कागज
की नाव है
समझो!
जो लोग
शास्त्रों पर
सवार हो कर
परमात्मा तक पहुंचने
की कोशिश कर
रहे हैं, वे
कागज की नाव
पर सवार हैं।
नावें तो डूबेंगी
ही, उनके
साथ यात्री भी
डूबेंगे।
तुम कागज की
नाव पर मत
जाना। बच्चों
के खेलने के
लिए ठीक हैं
कागज की नावें,
यात्रा
करने के लिए
उचित नहीं
हैं। और यह
यात्रा महान
है। इससे बड?ी कोई
यात्रा नहीं
है। क्योंकि
इससे महा कोई
सागर नहीं है।
नहीं, शास्त्र से
काम न चलेगा।
शास्त्र का
इंगित समझ
लेना। और
इशारा एक ही
है कि तुम
खाली हो जाओ। लेकिन
आदमी की मूढ़ता
का कोई अंत
नहीं। जो हमसे
कहते हैं, खाली
हो जाओ; हम
उन्हीं को पकड़
कर अपने को भर
लेते हैं। हम
उन्हीं को
अपनी खोपड़ी
में सम्हाल कर
रख लेते हैं।
फिर हम
परिवर्तनशील
के चक्कर में
पड़ जाते हैं।
और हमारी आकांक्षाएं
और हमारी
बुद्धि--जिसको
हम बुद्धि
कहते हैं--जरा
भी
बुद्धिमानी
की खबर नहीं
देती।
मैंने
सुना है कि
सिकंदर उस जल
की तलाश में
था, जिसे
पीने से लोग
अमर हो जाते
हैं। बड़ी
प्रसिद्ध
कहानी है उसके
संबंध में।
अमृत की तलाश
में था। कहते
हैं कि दुनिया
भर को जीतने
के उसने जो
आयोजन किए, वह भी अमृत
की तलाश के
लिए। और कहानी
है कि आखिर
उसने वह जगह
पा ली। वह उस
गुफा में
प्रवेश कर गया,
जहां अमृत
का झरना है।
आनंदित हो
गया। जन्मों-जन्मों
की, जीवन-जीवन
की आकांक्षा
की तृप्ति का
क्षण आ गया।
सामने कल-कल
नाद करता हुआ
झरना है। इसी
गुफा की तलाश
थी।
झुका
ही था कि
अंजलि में भर
ले अमृत को और
पी जाए, अमर
हो जाए, कि
एक कौवा बैठा
हुआ था गुफा
के भीतर। वह
जोर से बोला, ठहर, रुक!
यह भूल मत
करना। सिकंदर
ने कौवे की
तरफ देखा। बड़ी
दुर्गति की
अवस्था में था
कौवा। पहचानना
मुश्किल था कि
कौवा है--पंख
झड़ गए थे, पंजे
गिर गए थे, आंखें
अंधी हो गयी
थीं--ऐसा
जीर्ण-शीर्ण
उसने कौवा ही
नहीं देखा था।
बस, कंकाल
था। सिकंदर ने
पूछा, रोकने
का कारण? और
रोकने वाला तू
कौन?
कौवे
ने कहा, मेरी
कहानी सुन लो।
मैं भी अमृत
की तलाश में
था। और यह गुफा
मुझे भी मिल
गयी थी। और
मैंने यह अमृत
पी लिया। और
अब मैं मर
नहीं सकता। और
अब मैं मरना
चाहता हूं।
देखो मेरी
हालत! आंखें
अंधी हो गयी
हैं, देह
जराजीर्ण हो
गयी है, पंख
झड़ गए हैं, उड़
नहीं सकता, पैर गिर गए
हैं, गल गए
हैं, लेकिन
मर नहीं सकता।
एक दफा मेरी
तरफ देख लो। फिर
तुम्हारी
मर्जी हो तो
अमृत पी लो।
लेकिन अब मैं
चिल्ला रहा
हूं, चीख
रहा हूं कि
मुझे कोई मार
डाले। लेकिन
मैं मारा नहीं
जा सकता। जी
भी नहीं सकता,
क्योंकि
जीने के सब
उपकरण क्षीण
हुए जा रहे हैं।
और मर भी नहीं
सकता, क्योंकि
यह अमृत
दिक्कत हो गया
है। और अब
प्रार्थना एक
ही कर रहा हूं
परमात्मा से
कि मुझे मार डालो, मुझे
मार डालो।
बस, एक ही
आकांक्षा है
कि किसी तरह
मर जाऊं। अब
मर नहीं सकता।
रुक जाओ; सोच
लो एक दफा, फिर
तुम्हारी
मर्जी!
और
कहते हैं, सिकंदर
सोचता रहा। और
चुपचाप गुफा
से बाहर वापस
लौट आया। उसने
अमृत पिया
नहीं।
तुम जो
भी चाहते हो, अगर वह पूरा
हो जाए तो भी
तुम मुश्किल
में पड़ोगे।
अगर वह पूरा न
हो, तो तुम
मुश्किल में
पड़ते हो। तुम
मरना नहीं चाहते।
अगर यह हो जाए,
गुफा
तुम्हें मिल
जाए और तुम
अमृत पी लो, तो तुम
मुश्किल में
पड़ोगे।
क्योंकि
तब--तब तुम
पाओगे अब जी
कर क्या करें?
और जब जीवन
तुम्हारे हाथ
में था, जब
तुम जी सकते
थे, तब तुम
आकांक्षा
करते थे कि
अमृत मिल जाए।
क्योंकि जब
मृत्यु है, तो जीएं
कैसे? न
मृत्यु के साथ
जी सकते हो, न अमृत के
साथ जी सकते
हो। न गरीबी
में जी सकते
हो, न
अमीरी में जी
सकते हो। न
नर्क में, न
स्वर्ग में।
और फिर भी तुम
अपने को
बुद्धिमान
समझते हो!
सूफी
फकीर हुआ, बायजीद। वह
अपनी
प्रार्थना
में परमात्मा
से कहता था, मेरी
प्रार्थनाओं
का खयाल मत
करना। तू
उन्हें पूरी
मत करना।
क्योंकि मेरे
पास इतनी
बुद्धिमत्ता
कहां है कि
मैं वही मांग
लूं जो शुभ है!
आदमी
बिलकुल
बुद्धिहीन
है। वह जो भी
मांगता है, उसी के जाल
में भटकता है।
अगर पूरा हो
जाता है, तो
मुश्किल खड़ी
हो जाती है।
पूरा नहीं
होता, तो
मुश्किल खड़ी
होती है। तुम
सोच कर देखो, अतीत में लौटो।
अपनी जिंदगी
का एक दफा
लेखा-जोखा
करो। तुमने जो
मांगा, उसमें
से कुछ पूरा
हुआ है, उससे
तुम्हें सुख
मिला? तुमने
जो मांगा, उसमें
से कुछ पूरा
नहीं हुआ है, उससे
तुम्हें सुख
मिला? तुम
दोनों हालत
में दुख पा
रहे हो। जो
मांगा है, उससे
उलझ गए। जो
मिला है, उससे
उलझ गए। जो
नहीं मिला है,
उससे उलझे
हुए हो।
बुद्धिमानी
क्या है? बुद्धिमत्ता
का लक्षण क्या
है? बुद्धिमत्ता
का लक्षण है, उस सूत्र को
मांग लेना
जिसे मांग
लेने से फिर दुख
नहीं होता।
इसलिए
धार्मिक
व्यक्ति के अतिरिक्त
कोई
बुद्धिमान
नहीं है।
क्योंकि सिर्फ
परमात्मा को
मांगने वाला
ही पछताता
नहीं। बाकी
तुम जो भी
मांगोगे, पछताओगे।
इसे तुम गांठ
बांध कर रख
लो। तुम जो भी
मांगोगे, पछताओगे।
सिर्फ
परमात्मा को
मांगने वाला
कभी नहीं
पछताता। उससे
कम में काम भी
नहीं चलेगा।
वही जीवन का
गंतव्य है।
लेकिन
क्या तुम उस
परमात्मा को
शास्त्रों में
पा सकोगे?
नानक
कहते हैं, वहां तुम
उसे न पा
सकोगे। वहां
तुम्हें शब्द
मिल जाएंगे, सिद्धांत
मिल जाएंगे, सत्य नहीं
मिलेगा। सत्य
कहां मिलेगा?
सत्य, नानक
कहते हैं--
'वह
सबसे महान है।
और वह अपने को
आप ही जानता
है।'
तुम
उसे दूर-दूर
रह कर न जान
सकोगे। तुम जब
उसमें डूब जाओगे, तभी उसे जान
सकोगे। सत्य
का वही एक
मार्ग है। परमात्मा
के साथ एक हुए
बिना कोई सत्य
को नहीं जान
सकता।
हम
पदार्थ के
संबंध में
जानकारी ले
सकते हैं। विज्ञान
इसी तरह की
जानकारी है।
दूर खड़े हो कर, बाहर खड़े हो
कर वैज्ञानिक
परीक्षण करते
हैं, पदार्थ
के संबंध में ज्ञान
हो जाता है।
लेकिन
परमात्मा के
संबंध में कोई
ज्ञान बाहर से
नहीं हो सकता।
वहां तो भीतर
ही जाना होगा।
वहां तो इतने
भीतर जाना होगा
जहां कि
तुम्हारी और
उसकी सीमा खो
जाती है। तुम
उसके हृदय की
धड़कन बन जाते
हो, वह
तुम्हारे
हृदय की धड़कन
बन जाता है।
जहां इतनी एकता
सध जाती है, वहीं ज्ञान
है।
शास्त्रों
से यह कैसे
होगा? शब्दों
से यह कैसे
होगा? यह
तो प्रेम से
ही हो सकता
है।
इसलिए
नानक कहते हैं, बस, प्रेम
कुंजी है। और
अगर उसके नाम
का प्रेम जग जाए,
अगर उसकी
धुन तुम्हारे
भीतर बजने लगे,
और तुम उसके
प्रेम में
पागल हो जाओ, तो तुम जान
सकोगे।
शास्त्रों
से तुम
बुद्धिमानी
मत समझना, कि तुम
बुद्धिमानी
कर रहे हो। वह
नासमझी है। वहां
तुम्हें बहुत
से तर्क और
सिद्धांत मिल
जाएंगे।
लेकिन असली
चीज चूक
जाएगी। तुम न
तो अपने को
जान सकोगे और
न परमात्मा
को। क्योंकि
दोनों को
जानने का एक
ही मार्ग है।
अगर तुम स्वयं
को जानना
चाहते हो तो परमात्मा
के साथ एक हो
जाओ। क्योंकि
उसके साथ एक
होने पर ही वह
प्रज्ञा
उपलब्ध होती
है जिसको
जानकारी हो
सके, जानना
हो सके। अगर
तुम परमात्मा
को जानना चाहते
हो तो भी उसके
साथ एक हो
जाओ। क्योंकि
जब तुम उसके
साथ एक हो जाओगे
तभी उसे पहचान
सकोगे। स्वाद
लिए बिना कोई
रास्ता नहीं
है। अन्यथा
तुम्हारे सब
तर्क बचकाने
रहेंगे और मूढ़तापूर्ण
रहेंगे।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
अस्सी साल का
हो गया। और तब
अचानक एक दिन
उसने अपने
बेटे को बुला
कर कहा--बड़े
बेटे को, जिसकी
उम्र कोई साठ
साल होगी--कि
मैंने फिर से
विवाह का तय
कर लिया है। तेरी
मां को मरे
काफी महीने हो
गए और अब मैं
बिना स्त्री
के नहीं रह
सकता हूं।
बेटा
थोड़ा चिंतित
हुआ, क्योंकि
अस्सी साल में
अब शादी? उसने
कहा, लेकिन
किससे शादी का
इरादा है? कौन
लड़की है?
नसरुद्दीन
ने कहा कि
सामने पड़ोसी
की लड़की है।
लड़का
हंसने लगा।
उसने कहा, आप भी मजाक
करते हैं! या
सिर फिर गया? उसकी उम्र
अठारह साल से
ज्यादा नहीं
है।
नसरुद्दीन
ने कहा, सिर
फिर गया? जब
मैंने तेरी
मां से शादी
की थी, तब
उसकी उम्र भी
अठारह साल ही
थी। तो फर्क
क्या है? अठारह
साल से क्या
फर्क पड़ता है?
मनुष्य
जितने तर्क
खोजता है
परमात्मा के
संबंध में, वे ऐसे ही
हैं, बाहर-बाहर
हैं। बाहर से
तो कोई फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन यह तो
याद ही नहीं
आती कि मैं
अस्सी साल का
हो गया हूं।
परमात्मा के
संबंध में
तर्क और
सिद्धांत तुम
बाहर से पकड़ने
की कोशिश करते
हो। तुम अपना
स्मरण ही नहीं
करते कि
तुम्हें भीतर
प्रवेश होना
है। और
तुम्हें
सिद्धांत का
हिस्सा बनना
है।
पंडित
बाहर रहता है।
ज्ञान उसके
लिए सामग्री है
जिसको वह
जमाता है।
लेकिन खुद
बाहर रहता है।
ज्ञानी भीतर
चला जाता है।
पंडित ज्यादा
चालाक है, ज्यादा
होशियार है।
भीतर में नहीं
पड़ता।
बाहर-बाहर से
हिसाब रखता है।
लेकिन यह
होशियारी मूढ़ता
सिद्ध होती
है। क्योंकि
भीतर गए बिना
कोई रास्ता
नहीं।
यह ऐसे
ही है, जैसे
कोई प्रेम के
संबंध में
किताबें पढ़ ले
और सोचे कि
मैंने प्रेम
को जान लिया।
कोई सुबह के
संबंध में
किताबों में
पढ़ ले, और
सोच ले कि
मैंने सुबह को
जान लिया। कोई
फूलों के
संबंध में
चित्र देख ले,
और समझे कि
मैंने फूलों
को जान लिया।
जानकारी
हो जाएगी।
लेकिन फूलों
का साक्षात, सुबह उगते
सूरज का
साक्षात--वह
साक्षात, जिसमें
तुम भी एक हो
जाते हो! सूरज
बाहर नहीं रहता,
अलग नहीं
रहता। तुम और
सूरज दोनों का
मिलन हो जाता
है। जहां तुम
दोनों थोड़ी
देर के लिए
साथ-साथ धड़कते
हो। फूल का
साक्षात, जहां
उसकी सुगंध और
तुम्हारा
जीवन-अस्तित्व
ओतप्रोत हो
जाता है।
एक-दूसरे में
लीन हो जाता
है, एक-दूसरे
को छूता है, आनंदित होता
है। एक-दूसरे
के साथ हवा
में थिरकता है
और नृत्य करता
है। वह क्षण
तो किताब से
नहीं मिल
सकता।
और जब
साधारण फूलों
के साथ एक
होने का क्षण
किताब से नहीं
मिल सकता, तो परम फूल
जीवन का, जो
परमात्मा है,
उसके साथ तो
कैसे शब्द और
सिद्धांत का
नाता जोड़ा जा
सकता है? उससे
तो नाता जोड़ना
हो तो तुम्हें
भीतर प्रवेश
करना पड़े।
इसलिए
पागल ही
प्रवेश करते
हैं, बुद्धिमान
वंचित रह जाते
हैं। क्योंकि
बुद्धिमानी
तुम्हारी, चालाकी
तुम्हारी, वस्तुतः
बुद्धिमानी
नहीं है।
इसलिए बहुत बार
ऐसा हुआ
है--बहुत बार
कहना ठीक नहीं,
सदा ही ऐसा
हुआ है--कि
पागलों ने उसे
पा लिया, समझदार
पीछे रह गए।
नानक
कहते हैं, बस एक ही
उपाय है, और
वह है यह
जानना--
नानक
बडा आखीए
आपे जाणै आपु।।
'वह
महान है। और
वह स्वयं ही
अपने को जान
सकता है।'
तुम
उसे बाहर से न
जान सकोगे, जब तक कि तुम
उसकी
स्वयं-सत्ता
में लीन न हो
जाओ। तुम भी
उसके साथ एक
हो जाओ।
परमात्मा को
जानना हो तो
परमात्मा हुए
बिना और कोई
उपाय नहीं।
उसी ऊंचाई पर,
उसी गहराई
में, तुम
भी पहुंच जाओ,
तो ही उसे
जान सकोगे।
उसके साथ एक
हो जाना पड़ेगा।
'स्तुति
करने वाले
उसकी स्तुति
करते हैं, लेकिन
उन्हें उसकी
स्मृति नहीं
मिली।'
सालाही सालाहि एती सुरति
न पाइया।
कितनी
ही स्तुति
करते रहो, और कहो कि तू
महान है, लेकिन
तुम स्तुति
करके भी दूर
ही बने रहोगे।
फासला कायम
रहेगा। वह
भगवान होगा, तुम भक्त
होओगे। तुम
बोलते रहोगे
शब्द; और
शब्दों से बीच
की दूरी घटेगी
नहीं, बढ़ेगी।
तुम्हारी
प्रार्थनाएं
वक्तव्य नहीं, श्रवण बनाना
चाहिए। तुम
सुनो, तुम
बोलो मत। तुम
चुप होओ, ताकि
वह बोल सके।
तुम चुप होओ, ताकि तुम
उसे सुन सको।
लेकिन
तुम बोलते हो।
इतने जोर-जोर
से बोलते हो
कि कबीर को
कहना पड़ा कि
क्या
तुम्हारा
खुदा बहरा हो
गया है कि तुम
इतने जोर-जोर
से चिल्लाते
हो? क्या उसके
कान नहीं हैं?
तुम किसके
लिए चिल्ला
रहे हो? और
जोर-जोर से
चिल्लाने से
क्या
तुम्हारी आवाज
जल्दी पहुंच
जाएगी?
'स्तुति
करने वाले
उसकी स्तुति
करते हैं, लेकिन
उन्हें उसकी
सुरति नहीं
मिली।'
सुरति
शब्द बड़ा
कीमती है। यह
नानक के
जीवन-साधना का
सार शब्द है।
और सभी संत
सुरति में लीन
हो जाते हैं।
सुरति शब्द आता
है बुद्ध से।
बुद्ध स्मृति
शब्द का उपयोग
करते
हैं--उसका
स्मरण। जिसको
गुरजिएफ ने
सेल्फ रिमेंबरिंग
कहा है--आत्मस्मरण।
जिसको
कृष्णमूर्ति
अवेयरनेस
कहते हैं--एक जागरूक
भाव। उसको
नानक सुरति
कहते हैं।
सुरति
बहुत बारीक
शब्द है। और
समझने के लिए
थोड़े से
परोक्ष में से
उतरना जरूरी
है। एक मां
खाना बना रही
है। वह खाना
बनाती रहती है, उसका छोटा
सा बच्चा खेल
रहा है
आस-पास। वह
खाना बना रही
है। जहां तक
ऊपर से देखो, उसका सारा
ध्यान खाना
बनाने में लगा
है। लेकिन
उसकी सुरति
बच्चे में लगी
है। वह बच्चा
कहीं गिर न
जाए! वह कहीं
सीढ़ी के करीब
तो नहीं पहुंच
गया? वह
कहीं झूले से
नीचे तो नहीं
उतर गया? उसने
कोई चीज हाथ
में तो नहीं
ले ली, जो
नहीं खानी है?
काम में लगी
है। लेकिन
सारे काम में
ओतप्रोत एक
स्मरण है, वह
बच्चे का है।
मां
रात सोती है।
आकाश में बादल
गरजें, बिजली कड़के,
तो भी नींद
नहीं टूटती
उसकी। और
बच्चा थोड़ा सा
कुनमुनाए,
और उसकी
नींद टूट जाती
है। तूफान
गुजरता रहे घर
के ऊपर से, मां
गहरी नींद में
पड़ी रहती है।
लेकिन बच्चा थोड़ी
सी करवट ले, तो जल्दी
उसका हाथ उठ
जाता है। नींद
में भी सुरति
है। स्मरण
बच्चे का बना
है।
सुरति
का अर्थ है, एक सातत्य
स्मरण
का--मनकों में
धागे की तरह।
सब तुम करते
रहो संसार में,
सुरति उसकी
बनी रहे। उठो,
बैठो, जो
करने योग्य है
करो। भागने से
तो कुछ होगा नहीं।
दूकान पर
जाओगे, दफ्तर
में जाओगे, फैक्टरी में
काम करोगे, गङ्ढा खोदोगे,
धन भी कमाना
होगा, बच्चों
की चिंता भी
लेनी होगी, सारा जाल
है। इस सारे
जाल के बीच, लेकिन स्मरण
उसका बना रहे।
यह सब ऊपर-ऊपर
हो, भीतर-भीतर
वह हो। यह सब
तुम्हारे
बाहर-बाहर रहे,
वह
तुम्हारे
भीतर रहे।
नाता उससे
जुड़ा रहे।
इसलिए
नानक कहते हैं, संसार छोड़
कर जाने की
कोई भी जरूरत
नहीं। सुरति
को पा लो कि
तुम संन्यासी
हो गए। सुरति
सम्हल गयी कि
सब सम्हल गया।
और तुम जंगल
भी भाग जाओगे
तो क्या फायदा
है, अगर
सुरति संसार
की बनी रही!
और
अक्सर ऐसा
होता है। लोग
जंगल में बैठ
जाते हैं जा
कर, फिर यहां
की याद करते
हैं। और मन का
तो यह ढंग ही
है कि तुम
जहां होते हो,
वहां की
फिक्र ही नहीं
करता। जहां
नहीं होते, वहां की
फिक्र करता
है। जब तुम
यहां हो तब
तुम्हें लगता
है, हिमालय
में बड़ा आनंद
होगा। फिर तुम
हिमालय पहुंच
गए, तब तुम
सोचते हो, पता
नहीं उधर बहुत
आनंद आ रहा हो,
पूना में।
और पता नहीं
हम भटक गए, सारी
दुनिया तो
वहीं है। सभी
तो गलत नहीं
हो सकते। अब
हम यहां
बैठे-बैठे
क्या कर रहे
हैं झाड़ के
नीचे? वहां
भी तुम रुपए गिनोगे।
वहां भी तुम
हिसाब
लगाओगे। वहां
भी पत्नी और
बच्चों के
चेहरे
तुम्हारे
आसपास घूमेंगे।
तुम रहोगे
हिमालय में, लेकिन सुरति
तो तुम्हारी
यहां लगी
रहेगी।
नानक
कहते हैं, रहो तुम
कहीं भी, सुरति
परमात्मा में
हो।
स्तुति
से कुछ न होगा, सुरति से
होगा।
क्योंकि
स्तुति तो
ऊपर-ऊपर होती
है। सुरति
भीतर-भीतर
होती है। यह
चिल्ला कर
कहने की जरूरत
नहीं कि तुम
महान हो, कि
मैं पापी हूं
कि तुम पतितपावन
हो, कि मैं
भिखारी हूं और
तुम दाता हो; यह कहने की
क्या जरूरत? इसको
चिल्लाने से
क्या होगा? इसको तुम
किसको बता रहे
हो? किसको
तुम यह समझा
रहे हो?
नहीं!
सुरति की
जरूरत है, स्तुति की
नहीं। याद रखो
उसकी। वह भूले
न! उसे तुम
सम्हाले रहो
भीतर। जैसे कि
तुम्हें कोहिनूर
हीरा मिल जाए,
तुम उसे
जल्दी से अपने
खीसे में रख
लो, गांठ
में बांध लो।
फिर तुम बाजार
जाओगे, सब्जी
खरीदोगे,
घर लौटोगे,
पत्नी से
बात करोगे, लेकिन सुरति
हीरे की बनी
रहेगी। वह
तुम्हारी गांठ
में बंधा हुआ
है। याददाश्त
वहां लगी रहेगी।
याददाश्त की
चोट वहां पड़ती
रहेगी। एक
धीमी-धीमी भनक
भीतर आती
रहेगी कि हीरा
खीसे में है।
तुम बीच-बीच
में उसे टटोल कर
भी देख
लोगे--है या
नहीं! खो तो
नहीं गया!
ऐसे ही
तुम परमात्मा
को सम्हालते
रहो। और बीच-बीच
में टटोल कर
देखते रहो।
रास्ते पर
चलते एक क्षण
को चौंक कर
खड़े हो कर देख
लो कि भीतर
सुरति का धागा
चल रहा है कि
नहीं? खाना
खाते वक्त एक
क्षण रुक जाओ,
आंख बंद
करके देख लो
कि भीतर उसकी
याद चल रही है
या नहीं?
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, अभ्यास गहन
होता जाता है।
फिर तुम सोए
भी रहो, तो
भी उसकी याद
चलती रहती है।
और जब उसकी
याद चौबीस
घंटे चलने लगती
है, तब
तुमने अपने और
उसके बीच
रास्ता बना
लिया। तब
तुम्हारे और
उसके बीच सेतु
बन गया। अब
तुम जब चाहो
आंख बंद करो
और उसमें लीन
हो जाओ। एक क्षण
में रास्ता
तैयार है। इधर
तुमने आंख बंद
की कि तुम
उसमें लीन
हुए। और जब
तुम उससे
लौटोगे वापस
संसार में, तो ताजे, परिपूर्ण
शक्ति से भरे,
नए स्नान
किए हुए, सद्यस्नात!
इसलिए नानक
कहते हैं, हजारों
तीर्थों का
स्नान सुरति
में हो जाता है।
'स्तुति
करने वाले
उसकी स्तुति
करते हैं, लेकिन
उन्हें उसकी
सुरति नहीं
है। नदी और
नाले समुद्र
में गिरते हैं,
लेकिन वे
उसको जान नहीं
सकते।'
नदी-नाले
समुद्र में
गिर जाते हैं।
लेकिन इतना थोड़े
काफी है कि
समुद्र में
गिरने से कोई
जान लेगा? नदी-नाले को
कोई होश नहीं।
गिरते समुद्र
में हैं, लेकिन
होश न होने से
कुछ भी पता
नहीं। हम भी
चौबीस घंटे
परमात्मा में
ही गिर रहे
हैं। लेकिन हमें
कोई होश नहीं
है। चौबीस
घंटे हम उसी
के आसपास घूम
रहे हैं।
बार-बार उसमें
गिरते हैं। हर
मृत्यु में हम
उसी में गिरते
हैं और हर
जन्म में हम
उसी से पैदा
होते हैं, लेकिन
सुरति नहीं
है।
तो हम
भी नदी-नालों
की भांति हैं।
सागर में भी गिर
जाते हैं तो
पता नहीं चलता
कि क्या हो
रहा है! होश
नहीं है; बेहोश
हैं, मूर्च्छित
हैं। एक नशे
में चल रहे
हैं। जागे नहीं
हैं, सोए
हुए हैं। एक
तंद्रा पकड़े
हुए है। नदी
और नाले विराट
सागर में गिर
कर भी वैसे ही
दीन बने रहते
हैं। उन्हें
पता ही नहीं
चलता कि क्या
हो गया!
हम भी
प्रतिक्षण
उसी में जाते
हैं और आते हैं।
अगर गौर करोगे
और धीरे-धीरे
सुरति जगेगी, तुम पाओगे
हर श्वास उसी
में जाती है
और उसी से वापस
लौटती है।
श्वास बाहर
जाती है, तब
तुम परमात्मा
में गए। श्वास
भीतर लौटती है,
तब
परमात्मा तुम
में आया।
प्रतिपल
श्वास-प्रश्वास
में वही छा
जाता है। और
तब आनंद का
कोई पारावार
नहीं है। तब
तुम्हारे
जीवन में पहली
बार धन्यता की
प्रतीति
होगी। और तब
तुम कह पाओगे
परिपूर्ण भाव
से, तेरी
अनुकंपा है।
तब तुम कह
पाओगे कि धन्यभागी
हूं मैं। और
तब तुम्हारे
जीवन में
आस्तिकता की
पहली आभा
उतरेगी।
स्तुति
करने से कोई
आस्तिक नहीं
होता है, सुरति
से कोई आस्तिक
होता है।
'समुद्र
के जैसे
बादशाह और
सुलतान, जिनके
पास पहाड़
जितने माल-धन
हों, उस कीड़ी
की बराबरी
नहीं कर सकते
जो तुझे मन से
नहीं बिसुरती
है।'
समुंद
साह सुलतान गिरहा
सेती मालुधनु।
कीड़ी तुलि न होवनी
जे तिसु
मनहु न वीसरहि।।
एक
छोटी सी कीड़ी
भी, एक चींटी
भी, जो
तुझे याद रखती
है; बड़े से
बड़े सम्राट, जिनके पास
समुद्र जैसा
विशाल धन हो, पर्वतों के
अंबार हों
वैभव के, वे
भी एक छोटी सी कीड़ी का
मुकाबला नहीं
कर सकते।
क्योंकि उसने
परम धन पा
लिया। उसने
सुरति पा ली।
दरिद्र से
दरिद्र, सुरति
के मिलते ही
महान से महान
सम्राट हो
जाता है। और
महान से महान
सम्राट भी
सुरति के बिना
दीन और दरिद्र
बना रहता है।
एक ही
दरिद्रता है, परमात्मा को
भूल जाना। और
एक ही समृद्धि
है, उसकी
याद को उपलब्ध
हो जाना।
जिसको उसकी
सुरति जग गयी,
उसने सब पा
लिया, जो
पाने जैसा है।
चाहे उसके पास
कुछ भी न हो, एक लंगोटी न
हो, सिर पर
छाया न हो, लेकिन
जिसने उसकी
याद को पा
लिया, उसने
सब पा लिया।
उसके लिए पाने
को कुछ भी न बचा।
और चाहे
तुम्हारे पास
कितने ही महल
हों, धन का
अंबार हो, पद
हो, प्रतिष्ठा
हो, भीतर
तुम दरिद्र और
भिखारी ही
रहोगे। भीतर
तुम जानते ही रहोगे
उस पीड़ा को, जो दरिद्रता
की है।
नानक
कहते हैं, एक ही धन है।
और वह है, उसकी
याद। और एक ही
निर्धनता है।
और वह है, उसका
विस्मरण।
तुम
सोच लेना ठीक
से। तुम धनी
हो या गरीब? और जब तुम
सोचो धनी या
गरीब, तो
अपने बैंक के
खाते के हिसाब
से मत सोचना।
वह धोखा है। तब
तुम भीतर के
खाते को खोलना,
और वहां
देखना कि
कितनी सुरति
लिखी है? बस,
उसी मात्रा
में तुम अमीर
हो। और अगर
जरा भी सुरति
न हो, तो
समझना कि अभी
तो धन की खोज
भी शुरू नहीं
हुई। और तुम
बाहर कितना ही
इकट्ठा कर लो,
उससे अंततः
कोई फर्क न
पड़ेगा।
सिकंदर
मरा तो उसने कहा, मेरी अरथी
को जब ले जाओ, तो मेरे
दोनों हाथ
अरथी के बाहर
लटके रहने देना।
उसके वजीरों
ने पूछा, हम
समझे नहीं
कारण। और ऐसा
रिवाज नहीं
है। हाथ तो
अरथी के भीतर
ही छिपाए जाते
हैं। सिकंदर ने
कहा, लेकिन
रिवाज हो या न
हो, तुम
मेरे हाथ बाहर
लटके रहने
देना। उन्होंने
पूछा, कारण?
तो उसने कहा,
मैं चाहता
हूं कि लोग
देख लें कि
मैं भी खाली हाथ
मर रहा हूं।
मेरे हाथों
में कोई संपदा
नहीं है।
सिकंदर
भी दीन-हीन मर
जाते हैं। बड़े
शक्तिशाली
अंततः नपुंसक
सिद्ध होते
हैं। लेकिन एक
कीड़ी भी
उसकी याद से
भर जाए तो
सिकंदरों को
फीका कर देती
है।
नानक
कौन हैं? न
धन है, न पद
है, न कोई
साम्राज्य है,
लेकिन
कितने सम्राट
फीके पड़ गए! और
नानक उसकी सुरति
के कारण
बहुमूल्य हो
गए। सम्राट
आते-जाते
रहेंगे, नानक
टिकेंगे। पद-प्रतिष्ठाएं
बनेंगी और मिटेंगी,
नानक का
मिटना
मुश्किल है।
क्योंकि
जिसने उसका
सहारा ले लिया
जो कभी नहीं
मिटता, उसका
मिटना असंभव
हो जाता है।
तुम एक
छोटी कीड़ी
भी बने रहो तो
कोई हर्जा
नहीं; बस, उसकी याद न
भूले। तुम बड़े
सम्राट होने
के पागलपन में
मत पड़ना।
क्योंकि
अक्सर ऐसा
होता है कि
जितना तुम बाहर
का धन इकट्ठा
करते हो, उतनी
ही उसकी याद
भूलती है।
क्योंकि बाहर
का धन इकट्ठा
करने में भी उसको
भूलना जरूरी
है। तुम उसे
याद रखोगे तो
बाहर का धन
तुम इकट्ठा
कैसे करोगे? बाहर का धन
मिट्टी मालूम
पड़ेगा।
मिट्टी को कोई
इकट्ठा करता
है? जिसके
पास उसकी याद
है, वह
बाहर की
प्रतिष्ठा की
चिंता ही न
करेगा। क्योंकि
उसमें कुछ सार
ही नहीं है।
जैसे
छोटे बच्चे कंकड़-पत्थर
इकट्ठा करते
हैं। तुम उनसे
कहते हो, क्या
पागलपन कर रहे
हो? फेंको!
ये सब कंकड़-पत्थर
हैं। लेकिन
उनको वे बड़े
बहुमूल्य
मालूम पड़ते
हैं। वे
चोरी-छिपे फिर
उनको घर के
भीतर ले आते
हैं। रात मां
को फिर उनके
खीसे में से
वे ही पत्थर
निकालने पड़ते
हैं। लेकिन
यही बच्चा कल
बड़ा हो जाएगा,
इसकी समझ
जगेगी, प्रौढ़ता आएगी, फिर
यह पत्थरों को
इकट्ठा नहीं
करेगा। यही बात
वह अपने
बच्चों को
कहेगा, फेंको
ये पत्थर!
संसार
में तुम जो
इकट्ठा कर रहे
हो, वह तभी तक
बहुमूल्य है,
जब तक सुरति
की समझ नहीं
जगी। जैसे ही
सुरति जगी, तुम प्रौढ़
हो गए। तब एक
समझ का दीया
जला। उस दीए
में तुम पाओगे,
यह सब तो कूड़ा-करकट
है, कचरा
है। यह मैं
क्यों इकट्ठा
कर रहा था? तुम
हैरान होओगे
कि मैं क्यों
पागल था इन
सबके पीछे? यह सब पा कर
मैंने क्या
पाया?
यह सब
अचानक ही
व्यर्थ और
असार हो
जाएगा। सुरति
के जगते ही
जीवन रूपांतरित
हो जाता है।
एक क्रांति
घटित होती है।
पुराना
तुम्हारा जो
व्यक्तित्व
था वह मर जाता
है। नए का
जन्म होता है।
इस नए के जन्म
की तलाश ही
धर्म है।
इसको
तुम सोचना।
इसको तुम मनन
करना। इसको
तुम विचारना
कि तुम्हारे
भीतर कहीं भी
सुरति के लिए
थोड़ी सी कोई
जगह है? कोई
कोना? तुम्हारे
भीतर कोई
मंदिर है जहां
सुरति गूंजती
है? तुम्हारे
भीतर सुरति का
सुर चलता है? तुम्हें
उसकी याद बनी
रहती है? या
तुम भूल-भूल
जाते हो? या
तुम उसे याद
ही नहीं करते?
इसका
अगर तुम विचार
भी करने लगे, इस पर अगर
तुम सोचने भी
लगे, तो यह
सोचना और
विचारना भी
उसकी सुरति
बनने में कारण
हो जाएगा।
क्योंकि
जैसे-जैसे तुम
विचारोगे,
आखिर तुम
उसी को विचारोगे!
जैसे-जैसे तुम
याद करोगे, उसी की याद
करोगे। तुम यह
भी अगर सोचोगे
कि मुझ में
उसकी याद नहीं
है, तो भी
उसकी याद आएगी।
और यह
याद आती रहे, धीरे-धीरे
तुम्हारे
भीतर यह चोट
पड़ती रहे, तो
निशान गहरा बन
जाता है। और
पत्थर पर भी
निशान बन जाते
हैं, तो यह
तो हृदय है, इस पर तो
निशान बन ही
जाएगा।
कबीर
ने कहा है, रसरी आवत
जात है, सिल
पर पड़त
निशान।
रस्सी
भी आती-जाती
है कुएं की
सिल पर तो
निशान बन जाता
है। तो सुरति
की रस्सी अगर
तुम्हारे
हृदय पर
आती-जाती
रहेगी, तो
पत्थर पर
निशान बन जाते
हैं, हृदय
पर क्यों न
बनेगा? हृदय
पर भी निशान
बन जाएंगे। और
हृदय से कोमल तो
इस जगत में
कुछ भी नहीं
है। बस! चाहिए
इतना कि सुरति
की रस्सी
आती-जाती रहे।
आज इतना
ही।
thank you guruji
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