पउड़ी: 24
अंतु
न सिफती कहणि न अंतु।
अंतु न करणै देणि
न अंतु।।
अंतु
न वेखणि सुणणि न अंतु। अंतु
न जापै किआ मनि
मंतु।।
अंतु
न जापै कीता आकारु।
अंत न जापै
पारावारु।।
अंत
कारणि केते बिललाहि।
ताके अंत
न पाए जाहि।।
एहु
अंत न जाणै
कोइ।
बहुता कहिऐ
बहुता होइ।।
वडा
साहिबु ऊचा थाउ।
ऊचे उपरि ऊचा नाउ।।
एवडु ऊचा होवे
कोइ। तिसु
ऊचे कउ
जाणै
सोइ।।
जेवड आपि जाणै
आपि आप। 'नानक'
नदरी करमी
दाति।।
पउड़ी: 25
बहुता
करम लिखिआ
न जाइ।
बडा दाता तिलु
न तमाइ।।
केते मंगहि जोध
अपार। केतिआ
गणत नही वीचारु।।
केते खपि तुटहि
वेकार।
केते लै लै मुकरु पाहि।
केते
मूरख खाही
खाहि।।
केतिआ दूख भूख सद
मार। एहि
भी दाति तेरी दातारि।।
बंदि
खलासी भाणै
होइ। होरु
आखि न सकै
कोइ।।
जे
को खाइकु आखणि पाइ। ओहु जाणै
जेतिआ मुहि खाइ।।
आपे
जाणै आपे देइ। आखहि
सि भि केई
केइ।।
उसकी
महिमा का कोई
अंत नहीं है।
जो भी हम कहें
वह थोड़ा है।
और जो भी हम
कहें उससे
हमारी असमर्थता
पता चलती है।
रवींद्रनाथ
मरणशय्या
पर थे। एक
पुराने मित्र
ने उनसे कहा
कि आप तो प्रसन्न
भाव से विदा
हो सकते हैं।
क्योंकि जो करना
था आपने कर
लिया। खूब
सम्मान पाया, गीत लिखे, सारे जगत
में ख्याति
पायी, महाकवि
की तरह लाखों
लोगों ने
भक्ति दी; आप
तो निश्चिंत
मन से जा सकते
हैं। कुछ
अधूरा नहीं
छोड़ा।
रवींद्रनाथ
ने आंख खोली
और उन्होंने
कहा कि मत कहो
ऐसी बात।
क्योंकि मैं
तो परमात्मा
से यही
प्रार्थना कर
रहा था कि जो
मैं गाना
चाहता था, वह तो अभी तक
गा नहीं पाया।
जो कहना चाहता
था, वह तो
अभी तक कहा
नहीं। और अभी
तक तो केवल
साज बिठाने
में ही समय
बीत गया। अभी
तेरी महिमा का
गान शुरू कहां
हुआ था! और यह
तो विदा का
क्षण आ गया।
रवींद्रनाथ
ने छः हजार
गीत लिखे हैं।
और रवींद्रनाथ
के सारे गीत
ही परमात्मा
की महिमा के गीत
हैं। फिर भी
रवींद्रनाथ
कहते हैं कि
अभी साज ही
बिठा पाया था।
अभी संगीत
शुरू कहां हुआ
था? और यह
जाने का वक्त
आ गया।
यही
नानक कहते
हैं। यही सभी
ऋषियों का
अनुभव है कि
जो भी हम कहें, वह साज का
बिठाना ही
सिद्ध होता
है। उसका गीत गाया
ही नहीं जा
सकता।
कौन गाएगा
उसका गीत? हम इस छोटे
से
व्यक्तित्व
में कैसे उस
विराट को समाएंगे?
मुट्ठी में
आकाश को
बांधने की
कोशिश कैसे
पूरी होगी? हमारे सारे
प्रयास
व्यर्थ हो
जाते हैं। और
सब कर के ही
हमें सिर्फ
अपनी
असमर्थता का
पता चलता है।
पर वही
पता चल जाए तो
समझ का जन्म
हुआ। यह खयाल में
आ जाए कि मैं
बहुत छोटा हूं, तो ही उसके
बड़े होने का
खयाल पैदा
होगा। नासमझों
को लगता है कि
हम काफी बड़े
हैं।
समझदारों को
लगता है कि हम
बहुत छोटे
हैं।
जैसे-जैसे समझ
बढ़ती है
वैसे-वैसे हम
छोटे होते
जाते हैं, जैसे-जैसे
हम छोटे होते
हैं, उसका
विराट प्रकट
होता है। एक
ऐसी घड़ी भी
आती है इस खोज
में, जब कि
तुम बिलकुल ही
खो जाते हो और
वही शेष रह जाता
है।
कहने
वाला खो जाता
है, कहेगा
क्या? सिर्फ
वही रह जाता
है। उसकी
महिमा, उसका
अहर्निश नाद।
देखने वाला खो
जाता है, दृश्य
ही रह जाता
है। तुम तो
मिट ही जाते
हो, कौन
उसकी खबर देगा?
कौन उसके
संबंध में कुछ
कहेगा?
इसलिए
जो भी आदमी ने
कहा है, वह
सारी चर्चा
असमर्थता की
चर्चा है।
असहाय अवस्था
की, हेल्पलेसनेस की। जैसे
कोई बहुत बड़ी
घटना के करीब
आ कर अवाक हो
जाता है, वैसे
ही परमात्मा
के करीब आ कर
आदमी अवाक हो
जाता है। अवाक
का अर्थ है, जहां 'वाक',
वहां वाणी
खो जाती है।
जहां बोलना
नहीं होता। हतप्रभ!
वाणी रुद्ध, सांस तक ठहर
जाती है। उसके
जानने के क्षण
में तुम
बिलकुल ही रुक
जाते हो। न
विचार की गति
होती है, न
शब्द की गति
होती है, न
श्वास की गति
होती है। हृदय
भी नहीं धड़कता।
क्योंकि उतनी
धड़कन भी चूकना
हो जाएगी।
उतना कंपन भी
बिछुड़ना हो
जाएगा।
उस
अवाक क्षण में
नानक ने ये
वचन कहे हैं।
ये वचन किसी
को समझाने को
नहीं, अपनी
व्यथा को
प्रकट करने को
कहे हैं।
नानक
कहते हैं, 'अंत नहीं
उसके गुणों
का। न ही उसके
कथन का अंत है।'
अंतु
न सिफती कहणि न अंतु।
अंतु न करणै देणि
न अंतु।।
अंतु
न वेखणि सुणणि न अंतु। अंतु
न जापै किआ मनि
मंतु।।
अंतु
न जापै कीता आकारु।
अंतु न जापै पारावारु।।
'उसके
गुणों का अंत
नहीं है, न
उसके कथन का
ही अंत है।
उसके कामों का
अंत नहीं, और
उसके दानों का
भी अंत नहीं।
न उसके दर्शन
का अंत है, और
न उसके श्रवण
का अंत है।
उसके मन के
रहस्यों का भी
अंत नहीं जाना
जा सकता। उसके
किए हुए सृष्टि-प्रसार
का कोई अंत
नहीं। उसके
ओर-छोर का अंत
नहीं। उसका
अंत जानने के
लिए कितने बिल्लाते
हैं, तो भी
उसका अंत नहीं
पाया जा सकता।
कोई भी उसका
अंत नहीं
जानता है।'
इन
वचनों में तीन
बातें खयाल
में ले लेने
जैसी हैं। एक, जब तक
तुम्हें लगता
है कि तुमने
परमात्मा को जाना
तब तक तुम
भ्रांति में
हो। तब तक तुम
किसी भूल में
हो। क्योंकि
जिसे तुम ने
जान लिया, वह
परमात्मा न
होगा। जिसे
तुमने नाप
लिया, वह
परमात्मा न
होगा। जिसकी
थाह तुम ने पा
ली, वह
परमात्मा न
होगा।
तुम
किसी तालत्तलैया
में डुबकी लगा
रहे होओगे, तुम सागर के
करीब नहीं
पहुंचे। तुम
किसी
छोटी-मोटी
घाटी में उतर
गए होओगे। तुम
ने उसके
अंतहीन खड्ड
को नहीं जाना,
जहां गिरना
शुरू होता है
तो अंत नहीं
आता। तुमने
कोई छोटी-मोटी
ऊंचाई पा ली
होगी। गांव के
पास का कोई
टीला तुम चढ़
गए होगे।
लेकिन तुमने उसका
गौरीशंकर
नहीं जाना
जहां चढ़ने
का कोई उपाय
नहीं है।
हिमालय के गौरीशंकर
पर तो हम चढ़
जाते
हैं--देर-अबेर,
कठिनाई से,
मुसीबत से।
उसके गौरीशंकर
पर हम कभी न चढ़
पाएंगे। यह
असंभव है।
यह
असंभव क्यों
है? इसे थोड़ा
समझ लें।
यह
असंभव इसलिए
है कि हम उसके
ही अंग हैं।
और अंग अंगी
को कैसे
जानेगा? यह
मेरा हाथ है, यह मुझे
कैसे जानेगा?
और इस हाथ
से मैं दुनिया
की सब चीजें
पकड़ लूं, लेकिन
इस हाथ से मैं
अपने को कैसे
पकड़ पाऊंगा? यह मेरी आंख
है। यह आंख सब
कुछ देख ले, यह मुझे
कैसे देख
पाएगी? और
पूरा-पूरा
कैसे देख
पाएगी? यह
आंख मेरा ही
हिस्सा है।
अंश
कभी अंशी को नहीं
जान सकता।
झलकें
मिलेंगी, लेकिन
पूर्णता कभी न
होगी। हम इस
विराट के अंश
हैं, इसलिए
कठिनाई है।
अगर हम अलग
होते
परमात्मा से,
तो हम उसे
जान लेते। हम
अगर भिन्न
होते, तो
हम उसे पकड़
लेते। हम अगर
पृथक होते, तो हम उसके
चारों ओर
चक्कर लगा कर
परिक्रमा कर
लेते। लेकिन
हम उसके ही
हिस्से हैं।
उसकी ही धड़कन
हैं हम। उसकी
ही
श्वास-प्रश्वास
हैं। कैसे
उसका चक्कर
लगाएं? कैसे
उसकी
परिक्रमा
करें? कैसे
उसे पकड़ें?
मनुष्य
एक कण है उस
विराट में। एक
बूंद है उस सागर
में। तो यह
छोटी सी बूंद
कैसे सागर को
पकड़ ले? यह
छोटी सी बूंद
कैसे पूरे
सागर को जान
ले?
यह बड़े
मजे की बात
है। यह बूंद
सागर में है।
और यह बूंद
सागर ही है।
तो एक अर्थ
में तो सागर
को जानती है।
बड़े गहन अर्थ
में सागर को
जानती है।
क्योंकि सागर
इससे भिन्न
नहीं है।
लेकिन फिर भी
एक अर्थ में
सागर को नहीं
जान सकती, क्योंकि
सागर अभिन्न
है।
यह
धार्मिक जीवन
का सब से बड़ा पैराडाक्स
है, सब से बड़ा
विरोधाभास
है। परमात्मा
को हम जानते
भी हैं एक
अर्थ में, क्योंकि
हम कैसे बिना
जाने रहेंगे?
वह हममें धड़कता है, हम उसमें धड़कते
हैं। हम उससे
दूर नहीं हैं।
इंच भर का
फासला नहीं
है। इसलिए हम
उसे जानते भी हैं
एक अर्थ में, पहचानते भी
भलीभांति
हैं। और फिर
भी बिलकुल नहीं
जानते।
क्योंकि हम तो
अंश हैं। अंश
पूर्ण को कैसे
जान सकेगा? हम उसमें
डूबते हैं, तैरते हैं।
हम उसमें रह
कर कभी उसे
विस्मरण भी
करते हैं, कभी
उसका स्मरण भी
करते हैं। कभी
हम पास लगते हैं,
कभी दूर लगते
हैं। और
कभी-कभी
किन्हीं
स्पष्टता के
क्षणों में
ऐसा लगता है, जान लिया।
हृदय आपूर हो
जाता है, पहचान
लिया। रिकग्निशन
हो गया। आ गयी
प्रज्ञा, बोध
हुआ। फिर बोध
खो जाता है।
फिर गहन
अंधकार हो
जाता है। फिर
हम डगमगाने
लगते हैं।
लेकिन जानने
और न जानने के
मध्य का यह जो
क्षण है, यही
धार्मिक
व्यक्ति की
स्थिति है।
बुद्ध
से कोई पूछता
है परमात्मा
के संबंध में, वे चुप रह
जाते हैं।
क्या कहें
उसके संबंध
में? विरोधाभास
कहे नहीं जा
सकते। अगर
बुद्ध कहें, मैं जानता
हूं, तो
भूल हो गयी।
क्योंकि कौन
कह सकता है कि
जानते हैं? और बुद्ध
अगर कहें कि
नहीं जानता, तो गलत बात
है, क्योंकि
जानते हैं।
एक दिन
सुबह-सुबह एक
पंडित ने
बुद्ध को पूछा, बुद्ध चुप
ही रहे। वह
चला गया तो
आनंद ने बुद्ध
को कहा कि आप
कुछ तो बोलते!
वह बहुत बड़ा
पंडित है। वह
बड़ा जानकार है
और योग्य
अधिकारी आदमी
था। आपको उसे
कुछ कहना था।
बुद्ध
ने कहा, क्योंकि
वह अधिकारी था
इसलिए बोलना
और भी मुश्किल
हो गया। यदि
मैं कहूं है, तो गलत है।
क्योंकि जब तक
पूरा न जान
लिया जाए, किस
तरह कहो कि है?
किस तरह कहो
कि मैंने जान
लिया? कौन
कहे कि मैंने
जान लिया? सब
दावे अहंकार
के हैं। और
अहंकार तो उसे
कभी भी नहीं
जान सकता। और
अगर मैं कहूं कि
नहीं है, या
कहूं कि मैंने
नहीं जाना, तो भी गलत है,
क्योंकि
मैं जानता
हूं। और वह
आदमी योग्य था,
समझदार था,
इसलिए चुप
रह जाना पड़ा।
और वह आदमी
मेरी चुप्पी
का अर्थ समझा,
क्योंकि वह
आदमी झुक कर
प्रणाम करके
गया।
तभी
आनंद को खयाल
आया कि वह
आदमी बहुत
अहोभाव से झुक
कर प्रणाम कर
के गया है। तो
आनंद ने पूछा
कि हैरानी की
बात है, यह
मेरे खयाल में
न आया। क्या
वह समझ गया?
तो
बुद्ध ने कहा
कि घोड़े तीन
तरह के होते
हैं। एक; तुम
उन्हें मारो
तभी वे
इंच-इंच कर के सरकेंगे।
दूसरे; उन्हें
मारने की उतनी
जरूरत नहीं, धमकाना काफी
है। और तीसरे;
उन्हें
धमकाने की भी
जरूरत नहीं, कोड़ा बताने की भी
जरूरत नहीं, कोड़े की छाया
काफी है--शैडो
आफ दि व्हिप!
यह तीसरी तरह
का घोड़ा था।
इसे न मारने
की जरूरत थी, न धमकाने की
जरूरत थी, इसे
सिर्फ छाया
बता दी कोड़े
की और वह समझ
गया और यात्रा
पर निकल गया।
शब्द
तो कोड़ा
है, मौन छाया
है। शब्द की
जरूरत पड़ती है,
क्योंकि वह
घोड़ा पास नहीं,
जो कोड़े
की छाया मात्र
से यात्रा पर
निकल जाए।
बुद्ध ने कहा,
वह आदमी समझ
गया।
यही तो
स्थिति है कि
जो जान लेता
है, वह कह
नहीं सकता कि
मैं जानता हूं;
और यह भी
नहीं कह सकता
कि मैं नहीं
जानता हूं। दोनों
के मध्य में
वैसी घटना
घटती है।
नानक
कहते हैं, अंत नहीं
उसका।
जितना
कहो थोड़ा है।
कहते चले जाओ
और तुम पाते हो
कि वह तो सदा
शेष है। तुमने
कुछ भी कहा
नहीं। कथन
हमेशा अधूरा
है। सभी
शास्त्र
अधूरे हैं।
कोई पूरा
शास्त्र
पृथ्वी पर
नहीं है। हो
नहीं सकता।
क्योंकि पूरे
शास्त्र का
अर्थ ही यह होगा, जिसने
परमात्मा को
पूरा कह दिया।
सभी शास्त्र
अधूरे हैं। और
सभी शास्त्र
उन घोड़ों
के लिए हैं जो कोड़ों की
छाया नहीं समझ
सकते।
'न
अंत है उसके
गुणों का, न
उसके कथन का अंत
है; न उसके
कामों का, न
उसके दानों
का।'
जैसे-जैसे
व्यक्ति के
जीवन में धर्म
की गहराई बढ़ती
है, वैसे-वैसे
उसके काम तो
दिखायी पड़ते
ही हैं, उसके
दान दिखायी
पड़ने शुरू
होते हैं।
यह
दूसरी बात है।
काम तो चारों
तरफ फैला हुआ
है। लेकिन
अधिक लोगों को
तो काम भी
दिखायी नहीं
पड़ता। वे कहते
हैं, कहां है
परमात्मा? वे
पूछते हैं, कौन है
स्रष्टा? सृष्टि
को देख कर भी
उन्हें इशारा
नहीं मिलता।
यह चारों तरफ
इतना विस्तार
है, यह
उन्हें
दिखायी ही
नहीं पड़ता। वे
पूछते हैं, किसने बनाया?
कौन है
बनाने वाला? है भी कोई
बनाने वाला? इतने विराट
कार्य-जाल के
पीछे उन्हें
कोई हाथ नहीं
दिखायी पड़ता।
और मजे की बात
है, यही वे
लोग हैं, जो
दूसरी दिशाओं
में अंधों की
तरह मान लेते
हैं।
आज तक
किसी
वैज्ञानिक ने इलेक्ट्रान
नहीं देखा।
विद्युत का
आखिरी कण, जिसको
विज्ञान कहता
है, जिसके
आधार से सारा
जगत बना है। इलेक्ट्रान
के ही संगठन
से सारा जगत
निर्मित है।
लेकिन आज तक
किसी
वैज्ञानिक ने इलेक्ट्रान
देखा नहीं। और
न आशा है कभी
देख पाने की।
फिर वैज्ञानिक
कैसे यह मान
लेता है कि इलेक्ट्रान
है? वह
कहता है, उसके
परिणाम
दिखायी पड़ते
हैं।
कारण
सूक्ष्म हैं, परिणाम
स्थूल हैं।
हाथ नहीं
दिखायी पड़ते
परमात्मा के,
लेकिन
कृत्य दिखायी
पड़ता है। इलेक्ट्रान
को तो मान
लेते हैं हम, क्योंकि
परिणाम
दिखायी पड़ते
हैं।
परमात्मा को
इनकार करते
हैं। परिणाम
चारों तरफ
मौजूद हैं।
फूल
खिलता है, यह परिणाम
है। लेकिन कोई
हाथ छिपे उसे
खिलाते हैं, अन्यथा कैसे
फूल खिलेगा? बीज टूटता
है, यह
परिणाम है।
लेकिन कोई बीज
को तोड़ता
है, अंकुरित
करता है। और
जहां पत्थर
जैसा लग रहा था
बीज, वहां
सुकोमल फूल खिलने
शुरू हो जाते
हैं।
सब तरफ
उसके
हस्ताक्षर
हैं, लेकिन
हाथ नहीं
दिखायी पड़ते।
हाथ दिखायी
पड़ेंगे भी
नहीं।
क्योंकि जीवन
सूक्ष्म और
स्थूल का
संतुलन है।
कारण सदा सूक्ष्म
होता है, कार्य
सदा स्थूल
होता है। कारण
दिखायी नहीं पड़ते।
परमात्मा महाकारण
है। लेकिन
कार्य तो
चारों तरफ
दिखायी पड़ रहे
हैं।
तो तीन
तरह के लोग
हैं जगत में।
तीन तरह के
घोड़े, जिनको
बुद्ध ने कहा।
एक, जिनको
उसके काम भी
दिखायी नहीं
पड़ते। बिलकुल
अंधे! वे
पूछते हैं, कैसा
परमात्मा? कैसा
स्रष्टा? क्या
सबूत है? इतनी
बड़ी सृष्टि
सबूत नहीं है!
वे और कोई
सबूत चाहते
हैं। इतना बड़ा
प्रमाण
प्रमाण नहीं
है, वे और
कोई प्रमाण
चाहते हैं! और
जिनको इतना बड़ा
प्रमाण नहीं
दिखता, उन्हें
कोई और प्रमाण
समझ में आ
सकेगा? इससे
बड़ा और क्या
प्रमाण हो
सकता है कि
जीवन एक
क्रमबद्ध गति
से, संतुलित
गति से चल रहा
है।
विराट-लीला
में कहीं भी
कोई विच्छेद
नहीं है। धारा
अनवरत है। अहर्निश
एक संगीत बज
रहा है। जैसा
होना चाहिए
वैसा ही हो
रहा है। यह
जगत कोई केयास
नहीं, कासमास है। यह कोई
ऐसा ही
संयोगवशात घट
रहा है, ऐसा
नहीं है। इसके
पीछे
सुनिश्चित
नियम काम कर
रहा है।
उसी
नियम को हम ने
धम्म कहा है, धर्म कहा
है। लाओत्से
ने ताओ कहा
है। नानक ने हुक्म
कहा है--उस
नियम का नाम
है। जब नानक
कहते हैं, सब
उसके हुक्म से
हो रहा है, तो
तुम ऐसा मत
समझना कि वह
कहीं खड़ा है
हेड कांस्टिबल
की तरह और कह
रहा है, करो!
हुक्म का मतलब
है कि जगत एक
आर्डर है। एक
व्यवस्था है।
एक अराजकता
नहीं है। यहां
कुछ भी नहीं
हो रहा है।
होने के पीछे
सुनियोजित
हाथ है।
सुनियोजित
व्यवस्था है।
होने के पीछे
प्रयोजन है।
जो हो रहा है
वह एक लक्ष्य
की तरफ, एक
अंत की तरफ
विकासमान है।
अगर
तुम्हें
सृष्टि नहीं
दिखायी पड़ती
तो तुम बिलकुल
अंधे हो। बहुत
लोग हैं जिनको
सृष्टि के
पीछे कोई सृजन
का हाथ नहीं
दिखायी पड़ता।
एक छोटी सी
मूर्ति रखी हो, तो तुम
तत्क्षण
पूछते हो, किसने
बनायी? एक
छोटा सा चित्र
टंगा हो
दीवाल पर, तो
तुम तत्क्षण
पूछते हो, कौन
है चित्रकार?
तुम कभी भी
नहीं सोचते कि
अनायास, संयोगवशात
यह मूर्ति बन
गयी होगी।
अनायास, संयोगवशात,
प्राकृतिक
कारणों से यह
चित्र टंग गया
होगा।
लेकिन
इतना विराट
चित्र टंगा
है चारों तरफ, पत्ती-पत्ती
पर उसकी कला
है, और
तुम्हें
परमात्मा
दिखायी नहीं
पड़ता! तुमने
जैसे पक्का ही
कर रखा है
उसकी तरफ पीठ
रखने का। जैसे
तुम न देखने
की जिद कर रहे
हो। जैसे तुम
देखना ही नहीं
चाहते। जैसे
कि देखने में
तुम्हें खतरा
मालूम पड़ रहा
है। जैसे कि
देखने से तुम
डरे हुए हो।
निश्चित
ही डर है।
क्योंकि जैसे
ही तुम्हें उसका
हाथ दिखायी
पड़ेगा, तुम
जैसे हो वैसे
ही न रह
सकोगे। जिसको
भी परमात्मा
के कृत्य की
भनक पड़ जाएगी,
उसे पूरी
जिंदगी बदलनी
पड़ेगी।
क्योंकि अगर उसका
हाथ सब तरफ है,
तो तुम जैसा
कर रहे हो अभी
तक, वैसा
ही न कर
पाओगे। तुम्हारा
सारा आचरण गलत
हो जाएगा। अभी
तुम ऐसे चल रहे
हो जैसे कोई
परमात्मा
नहीं है। करो दर्ुव्यवहार,
करो पाप, करो अनाचरण।
अभी जो भी
करना है करो, क्योंकि कोई
परमात्मा
नहीं है। अभी
तुम्हें जैसे
पूरी छूट है।
जैसे
ही तुम्हें
उसका हाथ
दिखायी पड़ेगा, तुम्हारी
छूट समाप्त हो
जाएगी। तब
तुम्हें सोच
कर करना
पड़ेगा। तब
तुम्हें
विचार कर करना
पड़ेगा। तब
तुम्हें ज्यादा
ध्यान और
सुरति रखनी
पड़ेगी।
क्योंकि वह देख
रहा है।
क्योंकि वह
मौजूद है।
क्योंकि सब जगह
वह छिपा है।
और तुम किसी
के साथ भी कुछ
करो, तुम
उसी के साथ कर
रहे हो। जेब
काटो किसी की,
उसी की ही कटेगी।
चोरी करो किसी
की, उसी की
ही होगी।
हत्या करो
किसी की, तुम
उसे ही
मारोगे।
इसलिए
आदमी का एक
बड़ा वर्ग उसे
देखना ही नहीं
चाहता। उसको
देखने में
झंझट है। उसकी
मौजूदगी--तुम
वही न रह
सकोगे, जो
तुम हो।
तुम्हें आमूल
क्रांति से
गुजरना पड़ेगा।
तुम्हें
जड़-मूल बदल
जाना पड़ेगा।
और यह बदलाहट इतनी
बड़ी है कि इस
झंझट से बेहतर
यही है कि तुम उसे
इनकार करते
चले जाओ।
नीत्से
ने सौ साल
पहले कहा है
कि गाड इज
डेड एंड नाउ
मैन इज टोटली
फ्री--ईश्वर
मर गया है और
आदमी अब
परिपूर्ण स्वतंत्र
है। वही
परिपूर्ण
स्वतंत्रता
चाहने के लिए
तुम ईश्वर को
इनकार करते
हो। तब तुम्हें
छूट है। तब
तुम कुछ भी
चाहो, करो।
तब कोई नहीं
है जिसके हाथ
में निर्णय
है। तब तुम
स्वच्छंद हो।
जो स्वच्छंद
रहना चाहता है,
वह
परमात्मा को न
देखने की जिद
करता रहेगा।
तुम उसे कितना
ही दिखाओ, वह
इनकार करता
रहेगा।
और
इनकार किया जा
सकता है।
क्योंकि
स्थूल कृत्य
दिखायी पड़ता
है, सूक्ष्म
कर्ता तो
दिखायी नहीं
पड़ता। तो लोग
कहते हैं, सृष्टि
अपने आप चल
रही है। सब
अपने आप हो
रहा है। लेकिन
यही तो
परमात्मा की
परिभाषा है कि
जो अपने आप चल
रहा है और
अपने आप हो
रहा है। जो
स्वयंभू है।
दूसरा
वर्ग है, जो
परमात्मा के
काम तो देख
लेता है और
उसके छिपे हाथ
को भी स्वीकार
कर लेता है, लेकिन वह
स्वीकृति
बौद्धिक है।
वह धमकी में आ गया
है। वह डरा
हुआ है। वह
भयभीत है। तुम
ऐसे ही आदमी
को मंदिर में,
गुरुद्वारे
में, मस्जिद
में प्रार्थना
करते पाओगे।
नंबर दो का
आदमी। वह भय के
कारण वहां गया
है। वह धमकी
में आ गया है।
जिंदगी का कोड़ा
उस पर जोर से
पड़ गया है। वह
डरा है। वह
प्रार्थना कर
रहा है। वह
मांग रहा है
सुरक्षा, आश्वासन,
धन, प्रतिष्ठा,
पद। वह कुछ
मांग ले कर
गया है।
भय
हमेशा भिखारी
है। और भय
हमेशा मांगता
है, कुछ मिल
जाए, कुछ
मिल जाए। वह
कामों की थोड़ी
सी भनक उसके
कान में पड़ी
है। और उसे
थोड़ा सा एहसास
हुआ है भय के
कारण, कि
परमात्मा है,
तो वह डरा
हुआ है। लेकिन
उसे तीसरी बात
का कोई पता
नहीं चल रहा
है--परमात्मा
के दानों का।
इसलिए तो वह
मांग रहा है।
तीसरा
आदमी
है--जिसको
नानक भक्त
कहेंगे--उसे कृत्य
दिखायी पड़ रहे
हैं, चारों
तरफ सृष्टि
उसका हाथ बता
रही है, और
कृत्य ही नहीं
दिखायी पड़ रहे,
उसे
परमात्मा का
दान, उसका
प्रसाद भी
दिखायी पड़ रहा
है। प्रसाद को
देखना
सूक्ष्म बात
है। वह कोड़े
की छाया को
देखना है। उसे
दिखायी पड़ रहा
है कि अहर्निश
उसका दान मिल
रहा है।
मांगने को और
बचा क्या है? मांगना क्या
है! सिर्फ उसे
धन्यवाद देना
है।
इसलिए
परम भक्त
मंदिर
धन्यवाद देने
जाता है, मांगने
नहीं। उसकी
कोई मांग ही
नहीं है। अगर
परमात्मा
सामने खड़ा हो
कर भी उसको
कहे कि तू कुछ
मांग ले, तो
भी वह मांगेगा
नहीं।
क्योंकि वह
कहेगा, सब
दिया ही हुआ
है। सब पहले
से ही जरूरत
से ज्यादा
दिया हुआ है।
मेरी योग्यता
से ज्यादा तुमने
मुझे पहले ही
दिया हुआ है।
किस मुंह से मांगूं! और
मांगने में तो
शिकायत होगी
कि तुमने कुछ
कम दिया है।
तुम्हें
जीवन मिला है, यह क्या कम
है? लेकिन
जीवन की तुम
कोई कीमत नहीं
करते।
मैंने
सुना है कि एक
कंजूस--महाकंजूस--की
मौत करीब आयी।
उसने करोड़ों
रुपए इकट्ठे
कर रखे थे। और
वह सोच रहा था
कि आज नहीं कल
जीवन को भोगूंगा।
लेकिन इकट्ठा
करने में सारा
समय चला गया; जैसा कि सदा
ही होता है।
जब मौत ने
दस्तक दी, तब
वह घबड़ाया कि
समय तो चूक
गया। धन भी
इकट्ठा हो गया,
लेकिन भोग
तो मैं पाया
नहीं। सोच ही
रहा था कि भोगना
है। यह तो वह
जिंदगी भर से
सोच रहा था और स्थगित
कर रहा था कि
जब सब हो
जाएगा तब भोग
लूंगा।
उसने
मौत से कहा कि
मैं एक करोड़
रुपए दे देता
हूं; सिर्फ
चौबीस घंटे
मुझे मिल
जाएं।
क्योंकि मैं
भोग तो पाया
ही नहीं। मौत
ने कहा कि यह
सौदा नहीं हो
सकेगा। उसने
कहा कि मैं
पांच करोड़
दे देता हूं, मैं दस करोड़
दे देता
हूं--एक चौबीस
घंटे! आखिर वह
इस बात पर राजी
हो गया कि मैं
सब दे देता
हूं--सिर्फ चौबीस
घंटे!
यह सब
उसने इकट्ठा
किया पूरा
जीवन गंवा कर।
अब वह सब देने
को राजी है
चौबीस घंटे के
लिए। क्योंकि
न तो उसने कभी
खुले मन से
सांस ली, न
कभी फूलों के
पास बैठा, न
उगते सूरज को
देखा, न चांदत्तारों
से बात की, न
खुले आकाश के
नीचे हरी दूब
पर कभी क्षण
भर लेटा। जीवन
को देखने का
मौका न मिला।
धन इकट्ठा करता
रहा और सोचता
रहा, आज
नहीं कल, जब
सब मेरे पास
होगा, तब
भोग लूंगा। सब
देने को राजी
है!
लेकिन
मौत ने कहा कि
नहीं। कोई
उपाय नहीं।
तुम सब भी दो, तो भी चौबीस
घंटे मैं नहीं
दे सकती हूं।
कोई उपाय नहीं,
समय गया।
तुम उठो, तैयार
हो जाओ।
तो उस
आदमी ने कहा, एक क्षण! वह
मेरे लिए नहीं,
मैं लिख दूं,
मेरे पीछे
आने वाले
लोगों के लिए।
मैंने जिंदगी गंवायी इस
आशा में कि
कभी भोगूंगा,
और जो मैंने
कमाया उससे
मैं मृत्यु से
एक क्षण भी
लेने में
समर्थ न हो
सका।
उस
आदमी ने यह एक
कागज पर लिख
दिया और खबर
दी कि मेरी
कब्र पर इसे
लिख देना।
सभी कब्रों पर
यही लिखा हुआ
है। तुम्हारे
पास पढ़ने की
आंखें हों तो
पढ़ लेना। और
तुम्हारी
कब्र पर भी यही
लिखा जाएगा, अगर चेते
नहीं। अगर तुम
देखो, तो
तुम्हें जो
मिला है वह
अपरंपार है।
जीवन
का कोई मूल्य
है? एक क्षण
के जीवन के
लिए तुम कुछ
भी देने को
राजी हो
जाओगे। लेकिन
वर्षों के
जीवन के लिए
तुमने परमात्मा
को धन्यवाद भी
नहीं दिया।
मरुस्थल में
मर रहे होगे
प्यासे, तो
एक घूंट पानी
के लिए तुम
कुछ भी देने
को राजी हो
जाओगे। लेकिन
इतनी सरिताएं
बह रही हैं, वर्षा में
इतने बादल
तुम्हारे घर
पर घुमड़ते
हैं, तुमने
एक बार उन्हें
धन्यवाद नहीं
दिया। अगर सूरज
ठंडा हो जाएगा
तो हम सब यहीं
के यहीं मुर्दा
हो जाएंगे, इसी वक्त!
लेकिन हमने
कभी उठ कर
सुबह सूरज को
धन्यवाद न
दिया!
असल
में आदमी का
एक बड़ा अदभुत
तर्क है। जो
उसके पास होता
है वह उसे
दिखायी नहीं
पड़ता। जो नहीं
होता है वह
दिखायी पड़ता
है। जब
तुम्हारा
दांत एक टूट
जाएगा, तब
तुम्हारी जीभ
बार-बार उसी
जगह जाएगी। जब
तक दांत था तब
तक कभी न गयी।
खाली जगह को टटोलेगी।
तुम चेष्टा भी
करोगे कि जीभ
को वहां न ले
जाएं, क्या
सार है? लेकिन
जीभ वहीं-वहीं
जाएगी।
आदमी
का मन खाली
जगह को टटोलता
है। भरी जगह
के प्रति अंधा
है, खाली के
प्रति आंखें
हैं। जो
तुम्हारे पास
है, तुमने
कभी उसका
हिसाब लगाया
है? और जब
तक तुम्हें वह
हिसाब साफ न
हो जाए, तुम
परमात्मा के
दानों का
हिसाब न लगा
पाओगे। वे
अनंत हैं।
लेकिन
कम से कम जो
तुम्हें मिला
है, वहां से
तो तुम सोचो।
जो तुमने पाया
है, उसे
तुम देखो। और
चारों तरफ
उसके दानों की
वर्षा हो रही
है। जैसे हर
कृत्य के पीछे
उसका हाथ है, वैसे ही हर
कृत्य के पीछे
उसका दान है।
यह पूरा
अस्तित्व
तुम्हारे लिए
खिल रहा है।
यह पूरा अस्तित्व
उसकी भेंट है।
और जब कोई
इसको देख पाता
है, तब एक
नयी तरह की
भक्ति का जन्म
होता है।
एक है
नास्तिक, वह
अकड़ा हुआ है
अहंकार से। एक
है आस्तिक, वह कंप रहा
है भय से। वे
दोनों ही
धार्मिक नहीं
हैं। धार्मिक
है तीसरा
व्यक्ति, जो
नाच रहा है
अहोभाव से। जो
आनंदमग्न है
कि जो मिला है
वह अपरंपार
है।
नानक
कहते हैं, 'न उसके
कृत्यों का
कोई अंत है, न उसके
दानों का कोई
अंत है। और
उसके मन के
रहस्यों का भी
अंत जाना नहीं
जा सकता। उसके
किए हुए
सृष्टि-प्रसार
का कोई अंत
नहीं। उसके
ओर-छोर का अंत
नहीं। उसका
अंत जानने के
लिए कितने बिल्लाते
हैं, तो भी
उसका अंत नहीं
पाया जाता।
कोई भी उसका अंत
नहीं जानता।
जितना अधिक
उसको कहिए, उतना ही
अधिक वह होता
जाता है। वह
साहब महान है
और उसका स्थान
ऊंचा है, उससे
भी ऊंचा उसका
नाम है।'
यह जरा
कठिन लगेगा
समझने में।
'उससे
भी ऊंचा उसका
नाम है।'
नाम
कैसे उससे
ऊंचा होगा? हमारे लिए, यात्रियों
के लिए उसका
नाम उससे ऊंचा
है। क्योंकि
उसके नाम के
द्वारा ही हम
उस तक
पहुंचेंगे।
नाम छूट जाए
तो उस तक
पहुंचने का
रास्ता टूट
गया, सेतु
गिर गया। तो
हमारे लिए तो
उसका नाम ही
उससे महान है।
यात्रा-पथ
मंजिल से
महत्वपूर्ण है।
क्योंकि यात्रा-पथ
के बिना मंजिल
तक पहुंचना
असंभव है।
इसलिए
नानक कहते हैं
कि उसका एक
नाम जो जान लेता
है उसे कुंजी
मिल गयी।
कुंजी महल से
भी बड़ी है।
कुंजी महल में
छिपी संपदा से
ज्यादा मूल्यवान
है। ऐसे तो
दिखायी पड़ती
है लोहे का
टुकड़ा। लेकिन
वही लोहे का
टुकड़ा अनंत खजाने को
खोलेगा।
उसका
नाम, जिसको
नानक ओंकार
कहते हैं, वही
कुंजी है। उस
कुंजी से उसका
द्वार खुलेगा।
और अगर ओंकार
की सुरति
तुम्हारे
भीतर बैठने लगी,
तो वह कुंजी
तुम अपने भीतर
ढाल लोगे। वह
कुंजी कुछ ऐसी
नहीं है कि
कोई तुम्हें
दे दे। वह तुम्हें
ढालनी
पड़ेगी।
तुम्हें ही वह
कुंजी बन जाना
पड़ेगा। तुम ही
धीरे-धीरे ओंकार
की ध्वनि में गूंजते-गूंजते
कुंजी बन
जाओगे। तुम
में ही वह
क्षमता प्रकट हो
जाएगी कि उसके
द्वार को तुम
खोल लो।
मनुष्य
की दो
अवस्थाएं
हैं। एक
अवस्था है विचार
की। और एक
अवस्था है
निर्विचार
की। विचार की
अवस्था में तुम
हो। जहां मन
में तूफान
चलते ही रहते
हैं। मन का
आकाश सदा
बदलियों से
भरा रहता है।
ऊहापोह, अनंत
विचार! एक भीड़
मन में लगी
रहती है। एक
बाजार भरा हुआ
है। यह
विक्षिप्त
जैसी दशा है।
एक दूसरी
अवस्था है
निर्विचार
की। जहां
बाजार खाली हो
गया, दुकानें
बंद हो गयीं, विचार जा
चुके। हाट उजड़
गयी। सन्नाटा
हो गया।
चुप्पी हो
गयी। जब तक तुम
विचार से भरे
हो, तब तक
तुम संसार से
जुड़े रहोगे।
जैसे ही तुम निर्विचार
हुए कि तुम
परमात्मा से
जुड़ गए। तुम खाली
हुए कि द्वार
खुला।
विचार
से निर्विचार
तक जाने की जो
कुंजी है, वह उसका नाम
है। ओंकार की
धुन तुम्हारे
भीतर समा जाए।
पहले तो ओंकार
का जप। सुबह
उठ आए, या
रात कभी एकांत
अंधेरे में
बैठ गए अपने
कमरे में, और
जोर से ओंकार
का उच्चार
किया कि
तुम्हारे चारों
तरफ ओंकार की
धुन गूंजने
लगे। और ओंकार
का बड़ा मधुर
संगीत है।
क्योंकि वह
अनंत का संगीत
है। ओंकार कोई
मनुष्य
निर्मित
ध्वनि नहीं
है। वह अस्तित्व
में गूंजती
हुई लयबद्धता
है। तुम जैसे
ही ओंकार की
ध्वनि जोर से
करोगे, तुम्हारे
चारों तरफ
तुम्हारे
रोएं-रोएं पर
उसकी छाप
अंकित होने
लगेगी। यह जाप
की स्थिति है--जप।
फिर
धीरे-धीरे ओंठ
बंद कर लेना
और जिस तरह बाहर
गुंजा रहे थे
ओंकार को, वैसे ही
भीतर गुंजाना।
तब ओंठ बंद
रहेंगे। जीभ
शांत रहेगी।
कंठ चुप
रहेगा। सिर्फ
मन में ही
गूंज होगी। यह
जाप और अजाप
के बीच की
मध्य कड़ी है।
यह
गूंज भीतर
बढ़ती जाए, बढ़ती जाए, बढ़ती जाए, तो
धीरे-धीरे तुम
इस गूंज को
करना भी और
सुनना भी। दो
काम करना।
भीतर ओंकार की
गूंज भी करना
और सुनना भी
कि यह गूंज हो
रही है। फिर
धीरे-धीरे करने
को छोड़ते जाना
और सुनने को
बढ़ाते जाना।
और एक ऐसी घड़ी
आती है जब
करना तुम बंद
कर देते हो और
गूंज अपने से
होती है। तुम
सिर्फ सुनते
हो। तब
अजपा-जाप शुरू
हो गया।
और जब गूंज
अपने से होती
है, तब असली
ओंकार प्रकट
हुआ। अब यह
तुम नहीं कर रहे
हो। अब यह
तुम्हारे
होने में से
ही प्रकट हो
रही है। अब यह
तुम्हारे
जीवन के भीतर
बहते हुए झरने
का नाद है। और
जिस दिन तुम
इसे सुन लोगे,
फिर तुम उसे
चौबीस घंटे
सुन सकते हो।
क्योंकि यह तो
हो ही रहा है।
इसे करने की
जरूरत नहीं
है। तुम जब भी
जरा भीतर आंख
बंद करोगे, वहां यह नाद
सुनायी पड़ने
लगेगा।
जब भी
चिंता पकड़े, तनाव पकड़े,
बेचैनी हो,
क्रोध आए, तुम आंख बंद
कर के जरा ही
इस नाद को सुन
लेना। एक नाद
की भनक--क्रोध
तिरोहित हो
जाएगा। नाद का
जरा सा बोध--घृणा
समाप्त हो
जाएगी। नाद का
जरा सा स्मरण
और तुम पाओगे
चित्त, जो
तुम्हें
बेचैन किए था,
तत्क्षण हट
गया। यह ऐसे
ही हो जाता है,
जैसे
अंधेरा घर में
भरा हो और तुम
टार्च का बटन
दबाओ, प्रकाश
हो जाता है, अंधेरा खो
जाता है। ऐसे
ही भीतर के
नाद को तुम सुनो,
क्षणभर को भी
सुन लो, तो
बाहर का जो भी
अंधकार था, उसी वक्त
टूट जाता है।
इसलिए
तो नानक इतना
जोर देते हैं, एक ओंकार
सतनाम। सारी
साधना उनकी इस
वास्तविक
ओंकार के नाद
को पा लेने की
है। इसी को
उन्होंने सबद
कहा है। इसी
को वे नाम
कहते हैं। और
नानक कहते हैं,
तुझ से भी
बड़ा तेरा नाम
है। तू अंतहीन
है। तू विराट
है, तुझसे
भी बड़ा तेरा
नाम है।
क्योंकि
हमारे लिए तो
नाम का सहारा
है। नाम से ही
हम तुझ से जुड़ेंगे।
तू है भी, हमें
पता नहीं। नाम
से ही हमें
तेरी खबर
आएगी। नाम से
ही हम
धीरे-धीरे
तेरी तरफ खिंचेंगे।
और एक ऐसी घड़ी
आती है कि जब
नाद अपने आप
गूंजता है, तो तुम खींच
लिए जाते हो
परमात्मा की
तरफ।
वैज्ञानिक
कहते हैं, एक ऊर्जा है
जिसका नाम ग्रेवीटेशन,
गुरुत्वाकर्षण
है। हम जमीन
पर इसीलिए हैं
कि जमीन हमको
खींचे हुए है।
अगर जमीन हमें
छोड़ दे, हम
आकाश में खो
जाएं। जमीन
हमें अपनी तरफ
खींचे है। इसलिए
तो पत्थर को
हम फेंकते हैं,
वह वापस
जमीन पर गिर
जाता है। जमीन
उसे खींच रही
है। हर चीज को
जमीन खींचे
हुए है। इसका
नाम ग्रेवीटेशन
है।
इस युग
में एक बहुत
महत्वपूर्ण
महिला हुई, सिमन वैल। उसने
कहा कि जिस
तरह ग्रेवीटेशन
है, उसी
तरह एक और
शक्ति है, उसका
नाम है ग्रेस।
उसने एक बड़ी
महत्वपूर्ण
किताब लिखी है,
ग्रेस एंड ग्रेवीटेशन।
न तो ग्रेवीटेशन
दिखायी पड़ता
है, जमीन
का
गुरुत्वाकर्षण
दिखायी तो
पड़ता नहीं, लेकिन फिर
भी खींचे हुए
है।
अभी
वैज्ञानिक
चिंतित हो रहे
हैं। क्योंकि
कल ही अखबारों
में खबर थी कि
गुरुत्वाकर्षण
कम हो रहा है।
बहुत छोटी
मात्रा में कम
हो रहा है, लेकिन कम हो
रहा है। और
अगर कम होता
गया तो जमीन
बिखर जाएगी।
क्योंकि जमीन
उसी शक्ति की
वजह से चीजों
को पकड़े
हुए है। वृक्ष
जमीन में गड़े
हैं, आदमी
जमीन पर चल
रहा है, पक्षी
आकाश में उड़
रहे हैं, जानवर
चल रहे हैं, वह सब
गुरुत्वाकर्षण
से। जमीन का
गुरुत्वाकर्षण
कम हो जाए, चुंबक
उसकी कम हो
जाए, सब
चीजें बिखर
जाएंगी, अनंत
में खो
जाएंगी। पर
गुरुत्वाकर्षण
दिखायी नहीं
पड़ता, जो
जमीन से बांधे
हुए है।
सिमन
वैल ने बड़ी
अच्छी बात कही
है कि ठीक ऐसे
ही ग्रेस
भी दिखायी
नहीं पड़ती। ग्रेस, जिसको नानक
प्रसाद कहते
हैं, उसकी
अनुकंपा कहते
हैं। जमीन
हमें बांधे
हुए है नीचे
की तरफ, वह
हमें बांधे
हुए है ऊपर की
तरफ। जैसे ही
जैसे
तुम्हारे
भीतर ओंकार का
नाद बढ़ता है, वैसे ही
वैसे जमीन की
कशिश कम हो
जाती है और उसकी
कशिश बढ़ती
जाती है। एक
ऐसी घड़ी आती है
कि तुम बिलकुल
निर्भार हो
जाते हो।
इसलिए तो
योगियों को
बहुत बार ऐसा
अनुभव होता
है।
यहां
मेरे पास जो
लोग गहरा
ध्यान कर रहे
हैं, उनमें से
अनेकों को
अनुभव हुआ है
कि अचानक ध्यान
करते-करते, उन्हें लगा
कि वे जमीन से
उठ गए। बाहर
से दिखायी भी
नहीं पड़ता
किसी को कि वे
उठ गए हैं। वे
भी अपनी आंख
खोल कर देखते
हैं, तो
उठे नहीं हैं,
अपनी जगह पर
बैठे हैं।
लेकिन आंख बंद
करते हैं तो
भीतर से लगता
है कि जमीन से
उठे हैं।
वह
भ्रांति नहीं
है। जैसे ही
चित्त
निर्भार हो
जाता है, उसकी
ध्वनि गूंजती
है, वैसे
ही वेटलेसनेस
का अनुभव होता
है। तुम्हारा
यह शरीर तो
जमीन पर ही
बना रहता है, लेकिन
तुम्हारा
भीतर का शरीर
जमीन से हट
जाता है, ऊपर
उठ जाता है।
और अगर यह
यात्रा जारी
रहे तो एक दिन
तुम पाओगे कि
तुम्हारे दो
शरीर हो गए। एक
शरीर जमीन पर
बैठा है, दूसरा
शरीर ऊपर उठ
गया है और नीचे
जमीन पर बैठे
शरीर को देख
रहा है। उन
दोनों के बीच
एक पतला सा
धागा प्रकाश
का है, जो
जोड़े हुए है।
इसलिए
ध्यान रखना, अगर कोई भी
ओंकार का
प्रयोग कर रहा
हो और ध्यान
में बैठा हो, तो उसे
चौंका कर मत
हिलाना। उसे
कभी धक्का दे कर
मत उठाना।
क्योंकि उससे
कभी भी खतरे हो
सकते हैं। अगर
उसके दोनों
शरीरों के बीच
फासला हो उस
समय, सूक्ष्म
शरीर और स्थूल
शरीर थोड़े अलग
हो गए हों, और
भीतर का शरीर
ऊपर उठ गया हो,
और तुम
धक्के दे दो, तो उन दोनों
का संतुलन सदा
के लिए बिगड़
जाएगा। उन
दोनों के बीच
जो तालमेल है,
वह सदा के
लिए
अस्तव्यस्त
हो जाएगा। वह
तालमेल बहुत
सूक्ष्म है।
ठीक
ध्यान की
अवस्था में
व्यक्ति इस
शरीर के बाहर
निकलता है, फिर वापस
लौट आता है।
और जब तुम इस
कला में पूरे
पारंगत हो
जाते हो कि
कैसे बाहर निकलें,
कैसे भीतर आ
जाएं; तुम
जान गए कि
कैसे
परमात्मा में
प्रवेश करें और
कैसे वापस लौट
आएं। तब इस
संसार और
परमात्मा में
कोई विरोध
नहीं रह जाता।
तुम रहो इस
शरीर में और उसकी
सुरति बनी
रहती है। मन
का धागा वहां
जुड़ा रहता है।
नानक
कहते हैं, 'उसका नाम
उससे भी महान
है। जितना बड़ा
वह है, वह
आप ही अपने को
जान सकता है।
यदि कोई उतना
ऊंचा हो तो वह
उस ऊंचे को
जान सकता है।
नानक कहते हैं,
जिस पर उसकी
कृपा-दृष्टि
होती है, उसी
पर उसकी देन, उसका दान
उतरता है।'
यह जरा
समझने जैसा है
और जटिल है।
क्योंकि जगत
में दो
साधना-पद्धतियां
हैं, सिर्फ दो!
एक
साधना-पद्धति
का आधार
संकल्प है, और एक
साधना-पद्धति
का आधार
समर्पण है।
दोनों पहुंचा
देती हैं।
लेकिन मार्ग
दोनों बड़े
विपरीत हैं।
महावीर, पतंजलि, गोरख,
उनकी
साधना-पद्धति
संकल्प की है।
प्रयास करना
है। और
संपूर्ण जीवन
की शक्ति को
प्रयास बना
देना है। जिस
दिन तुम्हारे
भीतर रत्ती भर
भी बची हुई
शक्ति न रह
जाएगी, जिस
दिन तुम अपने
को पूरा दांव
पर लगा दोगे, उसी दिन
घटना घट
जाएगी। जिस
दिन संकल्प
पूरा हो जाएगा,
भीतर कोई
भाग न बचेगा, कोई भी चीज
तुमने बचायी
न होगी, सभी
कुछ दांव पर
रख दिया होगा,
उसी दिन
संकल्प पूरा
हो जाएगा। उसी
दिन तुम परमात्मा
से मिल जाओगे।
उसी दिन घटना
घट जाएगी।
दूसरा
मार्ग है
समर्पण का।
नानक, मीरा,
चैतन्य, उन
सबका मार्ग
बिलकुल भिन्न
है। और वह
मार्ग यह है
कि हमारे
प्रयास से
उपलब्धि नहीं
होती, उसके
प्रसाद से
उपलब्धि होती
है। हमारी
चेष्टा से कुछ
न होगा, उसकी
अनुकंपा से सब
कुछ होगा।
इसका यह मतलब
नहीं कि तुम
प्रयास मत
करना, इसका
मतलब इतना ही
है कि तुम
प्रयास पर
भरोसा मत
रखना। अकेले
प्रयास पर
भरोसा मत
रखना। प्रयास
तो तुम करना, लेकिन यह
बात जानते
रहना कि होगा
उसकी अनुकंपा
से।
यह बड़ा
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
अगर प्रयास का
ही भरोसा हो
तो अहंकार के जन्मने की
संभावना है।
इसलिए यह हो
सकता है कि
योगी अकड़ जाए
और समझने लगे
कि सब मेरे
कारण हो रहा
है। जो भी हो
रहा है, मैं
कर रहा हूं।
और यह अहंकार
अगर बन जाए तो
इससे छुटकारा
बहुत मुश्किल
है। धन का
अहंकार छोड़ना
आसान है। पद
का अहंकार
छोड़ना आसान
है। लेकिन
प्रयास का अहंकार
छोड़ना बड़ा
कठिन है।
तो
संकल्प के
मार्ग पर जो
सब से बड़ा
खतरा है, वह
यह है कि कहीं
प्रयास
करते-करते
अहंकार मजबूत
न हो जाए।
कहीं ऐसा न
लगे कि सब मुझ
से हो रहा है, मैं कर रहा
हूं इसलिए हो
रहा है। तो
मैं महत्वपूर्ण
हो जाऊंगा,
परमात्मा
भी गौण हो
जाएगा। तब सब
करने के बाद, सब द्वार
खोलने के बाद
आखिरी द्वार
पर मैं अटक जाऊंगा।
यह खतरा है
संकल्प के
मार्ग का।
इसलिए
महावीर, पतंजलि,
गोरख, उस
वर्ग के
यात्री एक बात
पर बहुत जोर
देते हैं कि
अहंकार छोड़ो,
अहंकार छोड़ो।
प्रयास करो और
अहंकार छोड़ो।
कहीं प्रयास
अहंकार के साथ
चला तो हर
प्रयास
अहंकार को
मजबूत कर देता
है। तुम जो भी
करते हो उससे
लगता है, मैं
मजबूत हो रहा
हूं। मैंने
किया जप, तप,
योग, मैंने
सिद्धियां पायीं। और
यह अकड़ अगर
साथ आ गयी तो
सब व्यर्थ हो
गया।
इसलिए
नानक कहते हैं, प्रयास करो,
लेकिन याद
रखो मन में कि
होगा उसकी
अनुकंपा से।
तो वह
आखिरी खतरा जो
संकल्प में
आता है, नहीं
आएगा। लेकिन
तब दूसरा खतरा
है। संकल्प के
मार्ग पर आखिर
में खतरा आता
है और समर्पण
के मार्ग पर
पहले ही खतरा
है। और पहले
ही खतरे से निपट
लेना बेहतर
है।
पहला
खतरा यह है कि
कहीं ऐसा न हो
जाए कि तब तुम सोचो
कि कुछ करने
की जरूरत ही
नहीं है। होगा
जब उसकी ही
कृपा से, तो
हम क्या करें?
तो यह न
करने का बहाना
बन जाए! तब तुम
सोचते रहोगे,
होगा उसकी
कृपा से जब
होना है, हमारे
करने से क्या
होता है! और
तुम जिंदगी की
जो व्यर्थता
है, उसमें
ही उलझे रहो।
क्योंकि जब वह
चाहेगा, तब
होगा। जब उसकी
मर्जी होगी, होगा। हम
क्या करें? यह कहीं
संसार में
भटकने के लिए
आधार न बन जाए।
यह कहीं
क्षुद्र को
करने का
रास्ता न बना
रहे। और यह
कहीं तरकीब न
हो, बहाना
न हो टालने का,
कि जब उसको
करना होगा
करेगा, हम
क्या कर सकते
हैं? समर्पण
के मार्ग पर पहले
ही खतरा है कि
कहीं तुम
आलस्य में न
डूब जाओ।
इसलिए
प्रयास तो
पूरा करना है।
और फल सदा
उसकी कृपा से
मिलेगा, यह
स्मरण रखना
है। तो नानक
बार-बार
दोहराते हैं
कि जिस पर
उसकी
कृपा-दृष्टि
होती है, उसी
पर उसकी देन, उसका दान
उतरता है।
लेकिन
कृपा-दृष्टि
उसकी किस पर
होती है? उसी
पर होती है, जो प्रयास
से अपने को
तैयार करता
है।
इसे
थोड़ा समझें।
क्योंकि
सामान्य जीवन
में कृपा-दृष्टि
का बड़ा अलग
अर्थ है।
कृपा-दृष्टि का
मतलब यह है कि
क्या वह भी
पक्षपाती है, कि अपनों कर
कृपा करता है
और दूसरों को
छोड़ देता है, कि किसी को
चुन लेता है
और उसी पर
कृपा करता है,
और किसी को
छोड़ देता है।
यह तो अन्याय
होगा। परमात्मा
के साथ अन्याय
को तो हम जोड़
ही नहीं सकते।
फिर तो कोई
सार ही न रहा।
फिर तो पापी
पर उसकी कृपा
हो सकती है और
पुण्यात्मा
पर न हो। फिर
तो सब करना
व्यर्थ है।
नहीं, उसकी
कृपा-दृष्टि
का यह अर्थ
नहीं है कि वह
किसी को अकारण
चुन लेता है, कि खुशामदियों
को चुन लेता
है, कि
स्तुति करने
वालों को चुन
लेता है। उसकी
कृपा-दृष्टि
तो सभी पर बरस
रही है। वर्षा
उसकी सभी पर
हो रही है।
लेकिन कुछ लोग
अपनी मटकी को
उलटा किए बैठे
हैं। जिनकी
मटकी उलटी है,
कृपा-दृष्टि
तो उन पर भी हो
रही है, लेकिन
उनकी मटकी भर
नहीं पाती।
कुछ लोग अपनी
मटकी सीधी किए
बैठे हैं।
उनकी मटकी भर
जाती है।
तुम्हारी
मटकी सीधी
होने से वर्षा
नहीं हो रही
है। वर्षा तो
हो ही रही है।
लेकिन
तुम्हारी मटकी
सीधी होगी तो
भर जाएगी। और
तुम कितनी ही मटकी
सीधी करो, अगर
वर्षा नहीं हो
रही, तो
कैसे भरेगी?
इसलिए
नानक कहते हैं, भरना तो
उसकी
कृपा-दृष्टि
से होता है, लेकिन इतना
तो प्रयास
तुम्हें करना
पड़ेगा कि मटकी
को तुम सीधी
रखो। इतना
ध्यान
तुम्हें रखना
पड़ेगा कि मटकी
में तलहटी है
या नहीं! फूटी
तो नहीं है!
इतना ध्यान
तुम्हें रखना
पड़ेगा कि मटकी
उलटी तो नहीं
रखी है! तिरछी
तो नहीं रखी
है! कि कृपा
बरसे भी तो भी
भर न पाए।
अनुकंपा आए भी
तो भी बह जाए।
हर
आदमी पर उसकी
अनवरत वर्षा
हो रही है।
परमात्मा
अनवरत वर्षा
है। लेकिन तुम
कुछ उलटे-सीधे, आड़े-तिरछे
हो। तुम वंचित
रह जाते हो
अपने कारण।
इसे
समझ लेना। यह
बड़ा उलटा
दिखायी
पड़ेगा। वंचित
रहते हो तुम
अपने कारण, पाओगे उसके
कारण। मिलेगा
उसके प्रसाद
से, खोओगे अपने कारण।
समर्पण के
मार्ग पर यह
स्मरण रखना
जरूरी है कि
अगर मैं खो
रहा हूं तो
मैं ही कुछ उलटा
हूं। अगर
पाऊंगा तो
उसकी अनुकंपा
है। अगर तुम
यह याद रख सको
तो अहंकार के
सघन होने की
कोई जगह न रह
जाएगी।
तुम्हारे
भीतर कोई स्थान
न बचेगा जहां
अहंकार मजबूत
हो जाए। और जिसके
पास अहंकार
नहीं, उसके
पास परमात्मा
है।
'उसकी
महान कृपा का
वर्णन नहीं हो
सकता। वह दाता
इतना महान है
कि उसमें बदले
में पाने की
तिल मात्र भी
लालच नहीं।'
और दान
का अर्थ समझ
लेना। तुम भी
दान देते हो, लेकिन उसमें
पाने की कोई
आकांक्षा
छिपी रहती है।
तुम अगर
भिखारी को दो
पैसे भी देते
हो तो भी पाने
की आकांक्षा
रहती है कि
शायद स्वर्ग
में इसका
प्रतिकार
मिलेगा। और न
सही स्वर्ग
में, कम से
कम
मोहल्ले-पड़ोस
के लोग देख
लेंगे कि मैं
दानी हूं।
इज्जत बढ़ेगी,
प्रतिष्ठा
मिलेगी।
एक
अंधा आदमी एक
चर्च में जाता
था। अंधा भी
था, बहरा भी
था। बहुत जोर
से कोई
चिल्लाए तो
बामुश्किल
सुन सकता था।
तो चर्च में न
तो प्रवचन पुरोहित
का उसे सुनायी
पड़ता था, न
चर्च में चलता
भजन-संगीत उसे
सुनायी पड़ता
था। न वह कुछ
देख सकता था।
पर जाता नियम
से था। एक दिन
एक आदमी ने
उससे पूछा कि
हमारी कुछ समझ
में नहीं आता,
तुम किसलिए
यहां आते हो? न तुम देख
सकते, न
तुम सुन सकते
हो, तो किसलिए
इतनी परेशानी
उठाते हो? उस
आदमी ने कहा, मैं इसलिए
आता हूं ताकि
दूसरे देख लें
कि मैं चर्च
आने वाला
धार्मिक आदमी
हूं। और
तुम्हारे पास
भला आंखें हों,
लेकिन आते
तुम भी इसीलिए
हो। और भला
तुम्हारे पास
कान हों, आते
तुम भी इसीलिए
हो।
मंदिर, गुरुद्वारा,
मस्जिद
जाना भी
सामाजिक
कृत्य हो गया
है। एक औपचारिकता
है, जो
निभानी पड़ती
है। तुम अगर
दो पैसे दान
भी देते हो तो
भी प्रतिकार
छिपा है। तुम
कुछ पाना चाहते
हो। वह दान न
रहा, सौदा
हो गया।
सौदा
और दान में
यही तो फर्क
है। जब तुम
कुछ वापस पाना
चाहते हो, तब सौदा। तब
तो बड़ा कठिन
हो जाएगा। तब
तो तुमने कभी
दान नहीं
दिया। तुमने सदा
सौदा ही किया
है। और लोग जो
तुम्हारा
शोषण करते हैं,
भलीभांति
समझ गए हैं कि
तुम सौदा ही
करते हो। तो
वे तुम्हें
समझाते हैं कि
यहां दो एक, वहां
मिलेंगे लाख।
यहां दो
ब्राह्मण को,
वहां
पाओगे। यहां चढ़ाओ, वहां
फल मिलेगा। करोड़ गुना
प्राप्त होगा
स्वर्ग में।
जो तुम्हारा शोषण
करते हैं, वे
भी समझ गए हैं
कि तुम सौदागर
हो! दान तो तुम
दे नहीं सकते।
क्या
तुम ऐसे मंदिर
में भी दान
दोगे, जहां
कहा जाए कि
तुम दान दो
भला, मिलेगा
कुछ भी नहीं? दो, तुम्हारी
मर्जी, तुम्हारी
खुशी; वापस
कुछ न पाओगे।
उस मंदिर में
दान देने वाला
खोजना
मुश्किल हो
जाएगा। वह
मंदिर गिर ही
जाएगा। उसका
बनना ही
मुश्किल है।
वैसा मंदिर
कहीं भी नहीं
है।
जब तुम
परमात्मा के
दान की बात
सोचो तो तुम
अपनी भाषा का
हिसाब मत
रखना। तुम यह
मत सोचना कि जैसा
दान तुम देते
हो। नानक कहते
हैं कि वह
देता है और
तुम से कुछ
पाना नहीं
चाहता। तुम्हारे
पास है भी
क्या जो तुम
दोगे? उसका
दान शुद्ध है,
अनकंडीशनल
है। उसमें कोई
शर्त नहीं है,
बेशर्त है।
तुमने
वापस क्या
दिया है? जीवन
तुमने पाया
था! और
तुम्हारे
जीवन में प्रेम
आया, तुमने
वापस क्या
दिया है? और
तुमने कुछ
हलकी झलकें भी
पायीं
अगर
स्वास्थ्य की,
सौंदर्य की,
सत्य की, तो तुम ने
वापस क्या
दिया है? बड़े
आश्चर्य की
बात है कि हम
कभी इस भांति
सोचते ही नहीं
कि हमें जो
मिला है, उसके
उत्तर में
हमने क्या
दिया है?
तुम्हें
जो मिला है, अगर तुम्हें
खयाल आ जाए, तो तुम अनंत
तक नाचते
रहोगे उत्सव
में। तुम उसका
गुणगान करते
रहोगे। यह
गुणगान किसी
भय से पैदा न होगा।
यह गुणगान
सिर्फ अहोभाव
होगा, कि
जो दिया है, वह इतना
ज्यादा है। और
बिना कारण
दिया है। न कोई
योग्यता है, न कोई
लौटाने का
उपाय है। पिता
के ऋण से
मुक्त हुआ जा
सकता है, मां
के ऋण से
मुक्त हुआ जा
सकता है, परमात्मा
के ऋण से कैसे
मुक्त होओगे?
वह दान
बेशर्त है।
तो
नानक कहते हैं, 'वह दाता
इतना महान है
कि उसमें बदले
में पाने की
तिल मात्र भी
लालच नहीं है।'
बहुता
करम लिखिआ
न जाइ।
बडा दाता तिलु
न तमाइ।।
'कितने
ही बड़े योद्धा
हों, उससे
मांगते ही
रहते हैं।'
और
हमारे भिखारी
तो मांगते ही
हैं, हमारे
योद्धा भी
मांगते हैं।
हमारे भिखारी
और हमारे
सम्राटों में
बहुत फर्क
नहीं है। मात्रा
का ही फर्क
होगा।
क्योंकि
मांगते तो
दोनों ही रहते
हैं।
और
ध्यान रखना, जब मांग मिट
जाती है, तभी
तुम्हें उसका
दान दिखायी पड़ना शुरू
होता है।
तुम्हारी
मांग के धुएं
के कारण दान
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ता। तुम
मांगे ही चले
जाते हो।
तुम्हें
फुर्सत नहीं
कि तुम देख लो
जो मिल रहा
है। जिस दिन
मांग बंद होती
है, उस दिन
दान दिखायी
पड़ता है। जिस
दिन मांग बंद होती
है, उस दिन
प्रार्थना का
गलत रूप गिर
जाता है, सही
रूप प्रकट
होता है।
'मांगने
वालों की
गिनती का
विचार भी नहीं
किया जा सकता।
कितने ही
विकारों में
खप कर नष्ट हो जाते
हैं।'
नानक
यहां बड़ी
महत्वपूर्ण
बात कह रहे
हैं। वे यह कह
रहे हैं कि
तुम्हारा
मांगना भी ऐसा
अंधा है कि
तुम जो मांगते
हो उसको पा कर
ही नष्ट होते
हो। तुम
मांगते भी गलत
हो।
तुम
गौर से देखो, तुम्हारी
जिंदगी जितने
कष्ट में है, उस कष्ट का
कारण अगर तुम खोजोगे, तो कहीं न
कहीं
तुम्हारी
अपनी ही मांग
पाओगे। तुम
बड़े पद पर
होना चाहते
हो। फिर बड़े
पद की चिंताएं
हैं। रात नींद
नहीं आती। दिन
चैन नहीं
मिलता। पश्चिम
में वे कहते
हैं कि अगर
चालीस साल की
उम्र
होते-होते
तुम्हें
हार्ट अटैक
का पहला दौरा
न पड़े, तो
उसका मतलब साफ
है कि तुम असफल
आदमी हो।
चालीस साल की
उम्र तक हार्ट
अटैक का
दौरा पड़ना
ही चाहिए। सफल
आदमी का लक्षण
वह है। अगर
पेट में अल्सर
न हो जाएं, तो
तुम गरीब आदमी
हो। क्योंकि
अमीर को अल्सर
होना ही
चाहिए।
चिंताएं इतनी
होंगी कि
अल्सर होना
जरूरी है।
सफल
आदमी सफलता की
मांग कर-कर के
पाता क्या है? और जो उसने
मांगा, मिल
जाता है। बड़े
मजे की बात तो
यह है कि तुम
जो मांगोगे, मिल जाएगा।
देर-अबेर मिल
ही जाएगा।
इसलिए मांगना
थोड़ा सोच-समझ
कर। क्योंकि
फिर पछताना
मत। पहले
मांगने में
समय गंवाया, फिर पछताने
में समय गंवाओगे।
तुम
गौर से अगर
अपनी जिंदगी का
विश्लेषण करो
तो तुम पाओगे
कि तुम अपने
ही हाथ मुसीबत
में फंसे हो।
तुम ने जो-जो
मांगा था, वही पा कर
फंस गए हो। वह
मिल गया।
तुम्हें धन चाहिए
था, धन मिल
गया। पर धन के
साथ धन की
चिंता भी आती
है। और धन के
साथ आत्मा का सिकुड़ाव
भी आता है। और
धन के साथ
हजार तरह के
रोग भी आते
हैं। और धन के
साथ हजार तरह
का अभिमान, अहंकार भी
आता है। वह सब
भी उसके साथ
है। जुड़ा हुआ
है। उसे तुम
छोड़ न सकोगे।
तुम जो मांगते
हो, मिल
जाता है। और
फिर तुम
पछताते हो।
तो
नानक कहते हैं, 'कितने ही
विकारों में
खप कर नष्ट हो
जाते हैं।'
अपनी
ही मांग! अपनी
ही
प्रार्थनाएं!
'कितने
ही ऐसे हैं, जो ले-ले कर
मुकर जाते
हैं।'
एहसान
भी नहीं मानते
हैं। मांग कर
लेते हैं, मिल जाता
है। धन्यवाद
भी नहीं देते।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
रोज सुबह नमाज
के वक्त जोर
से चिल्ला कर
कहता था, हे
परमात्मा! एक
बात खयाल रख; जब भी लूंगा,
पूरे सौ
रुपए लूंगा।
कम मैं न
लूंगा। जब भी
तुझे देना हो,
सौ की पूरी
थैली गिरा
देना। और
ध्यान रख, निन्यान्नबे
भी न लूंगा।
पड़ोस
का एक आदमी
रोज यह सुनता
था। उसे मजाक
सूझी! उसने
कहा कि रोज यह
एक ही बात किए
जा रहा है। और
निन्यान्नबे
तो यह लेगा नहीं।
तो खतरा भी
नहीं है। तो
उसने एक थैली
में
निन्यान्नबे
रुपए रख कर, जब दूसरे
दिन वह नमाज
पढ़ रहा था, उसके
छप्पर में से
नीचे गिरा दी।
उसने
नमाज बीच में
ही छोड़ कर
पहले रुपए
गिने और फिर
कहा, वाह रे
वाह! एक रुपया
थैली का काट
ही लिया!
आदमी
धन्यवाद भी
देने को राजी
नहीं है। उसने
फिर भी शिकायत
ही की कि वाह
रे वाह! एक
रुपया काट ही
लिया थैली का!
सुना
है मैंने कि
एक बहुत बड़ा
धनपति
समुद्र-यात्रा
से वापस लौट
रहा था। भयंकर
तूफान उठा। जहाज
अब डूबा तब
डूबा, ऐसी
हालत हो गयी।
पहले तो वह
कोरी-कोरी
प्रार्थना
करता रहा।
लेकिन जब
जिंदगी
बिलकुल मौत के
करीब आ गयी, तब उसने कहा
कि अगर आज बच
गया, अगर
तूने आज बचा
लिया
परमात्मा, तो
मेरा जो महल
है राजधानी
में, उसे
बेच कर गरीबों
को बांट
दूंगा। तूफान
शांत हो गया।
नाव किनारे लग
गयी। अब वह
अमीर मुश्किल
में पड़ा।
पछताने लगा कि
यह तूफान तो
शांत हो ही
जाना था। मैं
नाहक फंस गया।
लेकिन लोगों
ने भी सुन
लिया। उसने
इतने जोर से
कह दिया, वह
भी एक गलती हो
गयी। इसलिए तो
लोग चुप-चुप
प्रार्थना
करते हैं।
सारे जहाज के
लोगों ने सुन लिया।
और लोग जहाज
से उतरे नहीं
कि सारे नगर में
खबर फैल गयी
कि धनपति ने प्रार्थना
की है कि उसके
महल को बेच
देगा और गरीबों
को बांट देगा।
वह बहुत झंझट
में पड़ा। बहुत
सोच-विचार
किया।
आखिर
एक दिन उसने
गांव में खबर
कर दी कि ठीक
है, मकान
बेचना है, जिनको
भी खरीदना हो,
आ जाएं। दस
लाख का मकान
था। बड़े
खरीददार
इकट्ठे हुए।
बड़ा महल था।
राजधानी में
उससे
महत्वपूर्ण
कोई मकान न
था। सब बड़े
हैरान हुए जब
उस अमीर ने
घोषणा की कि
यह मकान और यह
बिल्ली, जो
दरवाजे पर
बंधी है, दोनों
साथ ही बिकेंगे।
बिल्ली का दाम
दस लाख रुपया
और मकान का
दाम एक रुपया।
मगर दोनों
साथ!
लोग
बहुत हैरान
हुए कि यह
क्या पागलपन
है? और
बिल्ली का दाम
कभी सुना दस
लाख? और इस
महल का दाम
सिर्फ एक
रुपया? लेकिन
लोगों ने कहा
कि हमें इससे
क्या प्रयोजन!
खरीददार मिल
गए। दस लाख का
मकान था ही, और बिल्ली
भी एक रुपए की
थी। इसमें कुछ
ऐसी अड़चन न
थी। तो दस लाख
में बिल्ली
खरीद ली और एक
रुपए में
मकान। उसने दस
लाख जेब में
रख लिए और एक
रुपया गरीबों
में बांट
दिया।
क्योंकि जो
वचन दे चुका
था कि महल को
बेच कर गरीबों
में बांट
दूंगा!
परमात्मा
के साथ भी लोग लीगल, कानूनी
संबंध रखते
हैं। वहां से
भी तो हिसाब...निकाल
ही लेते हैं
रास्ता।
मिल
जाए तो, नानक
कहते हैं, बहुत
ऐसे हैं जो
ले-ले कर मुकर
जाते हैं।
मिल
जाता है तब
कहते हैं, संयोग की
बात है। यह तो
होने ही वाला
था। हो गया।
बहुत से तो
ऐसे हैं जो
इतना भी नहीं
कहते। बात ही
भूल जाते हैं
कि मांगा और
मिला। हमने कभी
मांगा भी था, यह भी भूल
जाते हैं।
एहसान, उसका
अनुग्रह भी नहीं
मानते।
'कितने
ऐसे हैं जो
मांगते रहते
हैं, और वह
देता रहता है,
और वे खाते
रहते हैं।'
और कभी
उस मांगने और
खाने की
वृत्ति के ऊपर
नहीं उठते
हैं। भोगते
रहते हैं। और
भोग करीब-करीब
ऐसा है कि
उससे कोई कहीं
पहुंचता
नहीं। कुछ पाता
नहीं। सिर्फ
समय गंवाता
है। कितना ही
खाओ, क्या
मिलेगा? कितना
ही पहनो, क्या
मिलेगा? कितने
ही
हीरे-जवाहरात
से सजा लो
शरीर को, क्या
मिलेगा? जीवन
के बहुमूल्य
क्षण ऐसे ही
जा रहे हैं, जिनमें
प्रार्थना हो
सकती थी, जिनमें
ध्यान का धन
मिल सकता था।
जीवन ऐसे ही जा
रहा है, कंकड़-पत्थरों के
इकट्ठा करने
में।
नानक
कहते हैं, 'और कितने
ऐसे भी हैं, जिन पर सदा
दुख और भूख की
मार पड़ती रहती
है, फिर भी
जिन्हें
स्मरण नहीं
आता।'
खुद की
ही मांगों
के कारण दुख
की मार पड़ती
रहती है फिर
भी जागते नहीं
कि हम जो
मांगते हैं
उसी से दुख
पाते हैं।
हमारे कष्ट
हमारी ही
आकांक्षाओं
के फल हैं। और
हमारे नर्क
हमारी ही
वासनाओं से
आते हैं। पर
हम संबंध ही
नहीं जोड़ते।
हम दोनों को
अलग ही कर के
देखते हैं।
तुम सदा सुख
मांगते हो, लेकिन कभी
तुम ने यह
देखा कि
तुम्हारी
सारी वासनाएं
तुम्हें दुख
में ले जाती
हैं? और
फिर भी तुम
कहते हो, सुख
क्यों नहीं
मिलता? जैसे
कोई आदमी सूरज
की तरफ पीठ
करके चलता हो
और कहता हो कि
मुझे प्रकाश
क्यों नहीं
मिलता? सूरज
के दर्शन
क्यों नहीं
होते?
सूरज
के दर्शन तो
अभी हो सकते
हैं, लेकिन
वासना में
जाता हुआ
चित्त दुख में
जाएगा, नर्क
में जाएगा, अंधेरे में
जाएगा। और
तुम्हारी प्रार्थनाएं
भी तुम
वासनाओं में
ही रंग लेते हो।
भक्त अपनी
वासना को भी
प्रार्थना के
प्रति
समर्पित करता
है। तुम अपनी
प्रार्थना को
भी अपनी वासना
की सेवा में
लगा देते हो।
तो
नानक कहते हैं, कितने ही
ऐसे हैं, जिन
पर दुख की मार
पड़ती रहती है,
फिर भी
जागते नहीं।
कितने
जन्मों से तुम
पर दुख की मार
पड़ रही है! नहीं, बुद्ध का
हिसाब ठीक
नहीं है। घोड़े
चार तरह के होते
हैं। एक, जिनको
मारो तो भी
इंच नहीं
हिलते। जिनको
मार-मार कर
मार डालो--असली
अड़ियल घोड़े!
वे हटते ही
नहीं। तुम
जितना मारो, उतना मजबूती
से वे रुक
जाते हैं।
क्योंकि
कितने दुख की
मार पड़ रही है, फिर भी तुम
सचेत नहीं
होते। तुम
झेले चले जाते
हो। तुम आदी
हो गए हो। तुम
धीरे-धीरे मान
ही लिए हो कि
दुख ही जीवन
का ढंग है।
तुम भूल ही गए
हो कि जीवन
परमानंद है।
जीवन परम
उत्सव है। और
अगर तुम दुखी
हो, तो
अपनी किसी भूल
के कारण हो।
'हे
दाता, ये
भी तेरे ही
दान हैं।'
और
नानक कहते हैं
कि ये भी तेरे
ही दान हैं।
लोग मांगते
हैं और तू दिए
चला जाता है।
ध्यान रखना, तुम ने अगर
गलत मांगा, तो गलत भी
मिल जाएगा।
क्योंकि
अस्तित्व
तुम्हें देने
को बेशर्त
राजी है। तुम
ने अगर गलत मांगा,
तो गलत भी
मिल जाएगा।
क्योंकि
परमात्मा
देता है और
तुम्हारी
स्वतंत्रता
में कोई बाधा
नहीं डालता।
तुम ने अगर
भटकाव मांगा,
तो भटकाव
मिल जाएगा।
इसे
थोड़ा समझें।
क्योंकि इससे
एक सवाल उठता
है कि
परमात्मा तो
जानता है कि
क्या गलत है।
हम गलत मांगते
हों। वह गलत
क्यों दे?
अगर
परमात्मा
तुम्हारी
मांग को पूरा
न करे तो
तुम्हारी स्वतंत्रता
समाप्त हो
जाती है। तब
तुम धागों से बंधी
कठपुतलियां
हो जाते हो।
फिर वह जो
चाहे वह
तुम्हें दे।
तुम्हारी
मांग की भी
स्वतंत्रता न
रह जाए, तब
तो मनुष्य की
सारी गरिमा खो
जाती है।
मनुष्य की
गरिमा यही है
कि वह गलत भी
जा सकता है।
सही जाना चाहे,
सही जा सकता
है। गलत जाना
चाहे, गलत
जा सकता है।
स्वतंत्रता
की संभावना
है। तुम
बिलकुल जकड़े
नहीं हो जंजीरों
में। तुम्हें
सचेतन अवसर है
चुनाव का। तुम
जहां जाना
चाहो।
तुम्हें
परमात्मा
कहीं से अवरोध
नहीं देता। वह
तुम्हारा
विरोध नहीं
करता। वह
तुम्हारे बीच
में खड़ा नहीं
होता। वह सब
तरफ तुम्हें
मार्ग देता
है। सब तरफ दिशाएं
खुली हुई हैं।
तुम चाहो तो
गिर जाओ आखिरी
नर्क तक, तो
भी तुम्हें वह
रोकेगा नहीं।
तुम चाहो तो
तुम उठ जाओ
आखिरी स्वर्ग
तक, तो भी
वह तुम्हें
रोकेगा नहीं।
हर हालत में
उसकी शक्ति
तुम्हें
मिलती रहेगी।
उसका दान बेशर्त
है। और उसके
दान में
तुम्हें
परतंत्र बनाने
की चेष्टा
नहीं है। वह
तुम्हें देता
है और तुम
जैसा भी उपयोग
करना चाहो कर
लो।
इसलिए
नानक कहते हैं
कि 'हे दाता, ये भी तेरे
ही दान हैं।
बंधन और
मुक्ति तेरी ही
आज्ञा से होते
हैं।'
लेकिन
मांगते हम
हैं। हम बंधन
मांगते हैं तो
बंधन घट जाता
है। आज्ञा
उसकी है।
हुक्म उसका है।
कानून उसका
है। नियम उसका
है। जैसे तुम
वृक्ष पर चढ़
जाओ और कूद पड़ो, तो हड्डी
टूट जाएगी। जो
जमीन का
गुरुत्वाकर्षण
तुम्हें
संभालता था और
गिरने नहीं
देता था, वही
हड्डी टूटने
का कारण हो
जाएगा। तुम
जमीन पर सीधे चलो,
गुरुत्वाकर्षण
तुम्हारे
चलने में
सहारा देता
है। तुम
इरछे-तिरछे
चलो तो गिर
जाते हो, फ्रैक्चर हो जाता है।
शक्ति वही है।
शक्ति
निरपेक्ष है, तटस्थ है।
परमात्मा
बिलकुल
निरपेक्ष और
तटस्थ है। तुम
अगर ठीक से
उपयोग कर लो, तो तुम परम
अनुभव को
उपलब्ध हो
जाते हो। तुम
अगर गलत भटको,
तो तुम जीवन
के गहन से गहन
गर्त में गिर
जाते हो। नानक
कहते हैं, सब
तुझ से ही
मिलता है, स्वर्ग
भी, नर्क
भी, लेकिन
मांग हमारी है
पीछे। कानून
तेरा काम करता
है, लेकिन
हम मांग-मांग
कर खुद फंस
जाते हैं।
मैंने
सुना है कि एक
राजनीतिज्ञ
मरा। बड़ा नेता
था। और बड़ा
होशियार आदमी
था। पुराना खिलाड़ी
था। और सब तरह
के दांव-पेंच
जानता था। जब
वह स्वर्ग के
द्वार पर
पहुंचा, तो
उसने कहा कि
पहले मैं
स्वर्ग और
नर्क दोनों
देख लेना
चाहता हूं।
फिर मैं चुनाव
करूंगा कि
कहां रहना है।
स्वर्ग
दिखाया गया।
उसे स्वर्ग
थोड़ा उदास
लगा--राजनीतिज्ञ
था, दिल्ली
में रहने का
आदी था।
स्वर्ग जरा
उदास लगा। जो
लोग सदा
उत्तेजना में
रहे हैं, उन्हें
स्वर्ग उदास
लगेगा ही!
क्योंकि वहां
लोग शांत थे।
न कोई शोरगुल
था, न कोई
उपद्रव था। न
कोई झगड़ा-झांसा
था। न कोई
आंदोलन हो रहा
था। न कोई
घेराव हो रहा
था। कुछ भी
नहीं हो रहा
था।
पूछा, अखबार?
तो कहा, अखबार यहां
छपता नहीं।
क्योंकि
अखबार तभी छपे
जब कोई न्यूज
हो, जब कोई
समाचार हो।
समाचार ही कुछ
नहीं है। यहां
बस सब शांति
है। समाचार का
मतलब ही
उपद्रव होता
है। कुछ उपद्रव
हो तो समाचार!
तुम अगर
समाचार बनना
चाहो, तो
कुछ उपद्रव
करो। तुम
समाचार बन
जाओगे। खाली
बैठे रहो अपने
झाड़ के नीचे
बुद्ध बने, कोई समाचार
नहीं है।
उसने
कहा कि यह तो
बड़ा उदास-उदास
सा, फीका-फीका
सा लगता है।
मैं नर्क भी
देख लेना चाहता
हूं। पहुंचा
नर्क। जंचा
बहुत। दिल्ली
को भी मात
करता था। कई
अखबार छपते
थे। बड़े
आंदोलन, बड़ा
शोरगुल, बड़ी
रौनक, चहल-पहल,
होटलें,
संगीत, बाजे,
वह जंचा।
उसने कहा कि
यह बात जंचती
है। लेकिन हम
तो सदा पृथ्वी
पर उलटा ही
सुनते रहे कि
स्वर्ग में
बड़ा आनंद है
और नर्क में
बड़ा कष्ट है।
यह हालत उलटी
है। शैतान से
कहा--जो कि
द्वार पर
स्वागत करने
आया था--कि
मामला क्या है?
पृथ्वी पर
तो लोग उलटा
ही समझे बैठे
हैं। मैं भी
अगर चुपचाप
स्वीकार कर
लेता तो
स्वर्ग में फंस
जाता। हम तो
जो मरता है, उसको कहते
हैं, स्वर्गवासी
हुआ। यहां आना
चाहिए। यह आने
योग्य जगह है।
जिंदगी मालूम
पड़ती है, रंग
है, रौनक
है, वैभव
है! पृथ्वी पर
उलटी खबर
क्यों है?
शैतान
ने कहा, कारण
है। मेरी वहां
कोई सुनता
नहीं। और
विपरीत पक्ष
के लोगों ने
प्रचार कर रखा
है। ये धार्मिक
लोग स्वर्ग का
प्रचार कर रखे
हैं सदा से। और
मेरी कोई
सुनता नहीं।
और मैं अगर
किसी को कहूं
भी, तो लोग
कहते हैं कि
शैतान है, सावधान!
तो मेरे साथ
बड़ा अन्याय
हुआ है। और अब आप
अपनी आंखों से
देख लो।
राजनीतिज्ञ
ने लौट कर
देवदूत से
कहा--जो स्वर्ग
से यहां तक
पहुंचाने आया
था--कि मैंने
चुन लिया। तुम
वापस लौट जाओ।
मैं नर्क में
ही रहूंगा।
जैसे
ही उसने चुना, दरवाजा बंद
हुआ, और
एकदम नर्क की
शकल बदल गयी।
जैसे कि
फिल्मों में
चित्र एकदम से
बदल जाता है।
और अनेक लोग उस
पर टूट पड़े।
और घूंसा-बाजी,
और उसको पटकने
लगे जलते कड़ाहों
में। उसने कहा
कि यह क्या कर
रहे हो? और
अब तक सब ठीक
था। शैतान ने
कहा कि वह विजिटर्स
के लिए था। अब
असली नर्क
शुरू होता है।
वह तो ऐसे ही, जो टूरिस्ट,
विजिटर्स,
उनको
दिखाने के लिए
बना रखा था।
अब असली चीज! एक
दफा चुन लिया,
अब आप
निवासी हो गए।
अब आप मजा देखोगे।
नर्क
भी लोग चुनते
हैं। क्योंकि
हर वासना का शुरू
का हिस्सा विजिटर्स
के लिए है। हर
वासना का
प्राथमिक चरण
लुभाने के लिए
है। वह
शो-विंडो है।
वह असली चीज
नहीं है। वह
सिर्फ
प्रलोभन है।
वह विज्ञापन
है। एक बार
चुन ली वासना, फिर असली
नर्क शुरू
होता है। तुम
चुन-चुन कर अपने
ही हाथ नर्क
में पड़े हो।
और
स्वर्ग शुरू
में बे-रौनक
है। क्योंकि
आनंद शुरू में
बे-रौनक होगा
ही। क्योंकि आनंद
परम शांति है।
और दुख शुरू
में बड़ा रंग-रौनक
वाला मालूम
पड़ता है, क्योंकि
उत्तेजना है।
तुम उत्तेजना
को चुनते हो, दुख पाते
हो। जिस दिन
तुम शांति को
चुनोगे, उस
दिन तुम आनंद
पाओगे। होता
सब उसके हुक्म
से है, उसके
कानून से।
लेकिन उसका
कानून तुम
जैसी मांग करते
हो, वैसा
ही तुम्हारे
अनुकूल ढल
जाता है। वह
तटस्थ है। वह
अपनी मांग को
तुम्हारे ऊपर
नहीं थोपता।
और थोप भी दे, तो भी तुम
राजी न होगे।
क्योंकि
स्वर्ग अगर तुम्हें
जबर्दस्ती दे
दिया जाए तो
नर्क से भी बदतर
मालूम पड़ेगा।
नर्क भी तुम
अपनी मौज से
चुनो, तो
स्वर्ग है।
क्योंकि
तुम्हारी
स्वतंत्रता
अक्षुण्ण
रहनी चाहिए।
यह एक
बारीक से
बारीक सवाल है
मनुष्य के
दर्शन-शास्त्र
का कि
परमात्मा और
मनुष्य की
स्वतंत्रता
साथ-साथ कैसे
हो सकती है?
इसलिए
महावीर ने
परमात्मा को
इनकार कर
दिया। क्योंकि
उससे
स्वतंत्रता
समाप्त हो
जाएगी। अगर सब
उसी के हुक्म
से हो रहा है
तो आदमी की
स्वतंत्रता
का अंत हो
गया। और जब
स्वतंत्रता न
रही, तो आत्मा
का क्या मूल्य?
इसलिए
महावीर ने कहा,
कोई
परमात्मा
नहीं, स्वतंत्रता
है। ऐसे लोग
हुए
जिन्होंने
कहा कि कोई
स्वतंत्रता
नहीं है, भाग्य
है। परमात्मा
है, कोई
स्वतंत्रता
नहीं है।
नानक
दोनों के मध्य
में हैं। वे
कहते हैं, मनुष्य की
स्वतंत्रता
है और
परमात्मा भी
है। स्वतंत्रता
मांग की है।
तुम जो चाहो
मांगो। उसके
लिए प्रयास
करो, वह
मिलेगा।
लेकिन मिलता
परमात्मा की
अनुकंपा से
है। दुख मांगो
तो भी मिल
जाता है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि तुम
दुख क्यों
मांगे चले
जाते हो? और
अगर तुम ही
सुख नहीं मांग
रहे हो, तो
परमात्मा लाख
उपाय करे, तुम्हें
सुख नहीं दे
सकता।
ऐसा
हुआ। सूफी
फकीर जुन्नैद
हुआ। वह कहता
था, किसी को
जबर्दस्ती
सुख नहीं दिया
जा सकता। किसी
को जबर्दस्ती
शांति नहीं दी
जा सकती।
मैं भी
राजी हूं।
बहुत लोगों को
मैंने भी कोशिश
कर के देख ली
कि जबर्दस्ती
भी दे
दो...असंभव है।
तुम जितना
देने की
जबर्दस्ती
करोगे, उतना
आदमी चौंक कर
भागता है कि
कोई खतरा है।
आनंद भी नहीं
दे सकते किसी
को। क्योंकि
कोई लेने को
राजी नहीं है।
तो एक
दिन एक भक्त
ने कहा कि यह
बात मैं मान
ही नहीं सकता।
तो हम एक
प्रयोग करें।
वह एक आदमी को
लाया और उसने
कहा कि यह
आदमी बिलकुल
दीन-दरिद्र
है। और सम्राट
आपके भक्त
हैं। आप उनसे
कहें कि इसको
एक करोड़
स्वर्ण-अशर्फियां
दे दें। फिर
हम देखें कि
कैसे यह आदमी
दीन-दरिद्र
रहता है। कैसे
दुखी रहता है।
जुन्नैद ने
कहा, ठीक!
एक दिन
प्रयोग किया
गया। और एक करोड़
अशर्फियां
एक बहुत बड़े
मटके में भर
कर एक नदी के
पुल के बीच
में रख दी
गयीं। पुल पर
आवागमन बंद कर
दिया गया। और
वह आदमी रोज
शाम को टहलने
उस पुल पर से
निकलता था।
ठीक उस वक्त
आवागमन बंद कर
दिया, भरा
हुआ मटका अशर्फियों
का रख दिया
बीच पुल पर, कोई नहीं
है। और दूसरी
तरफ सम्राट, जुन्नैद और
उसके साथी, जो प्रयोग
कर रहे थे, वे
चुपचाप खड़े हो
गए।
तो कोई
अड़चन नहीं है
इस आदमी को।
कोई पुलिस नहीं
है, कोई जनता
नहीं है, खाली
पुल पर मटका
रखा हुआ है, खुला हुआ।
स्वर्ण की अशर्फियां
चमक रही हैं
सूरज की धूप
में। और वह
आदमी चला आ रहा
है उस तरफ से।
पर बड़ी
हैरानी की बात
है! वह आदमी
मटकी के पास से
गुजर गया और
दूसरी तरफ आ
गया। उसने
मटकी को न तो
देखा, न
छुआ। जुन्नैद
और उसके साथियों
ने उसे पकड़ा
और कहा कि
तुम्हें मटकी
दिखायी नहीं
पड़ी?
उसने
कहा कि कैसी
मटकी? जब
मैं पुल पर
आया तब मुझे
एक खयाल उठा
कि आज पुल पर
कोई भी नहीं
है। कई दिन से
खयाल उठता था,
लेकिन कर
नहीं सकता था।
आज प्रयोग कर
लूं। कई दिन
से सोचता था
कि आंख बंद कर
के पुल पार कर
सकता हूं कि
नहीं! लेकिन
भीड़-भाड़ रहती
थी, तो कभी
कर नहीं पाया।
आज सन्नाटा
देख कर मैंने
कहा कि अब कर
लेना चाहिए।
तो मैं आंख
बंद कर के गुजर
रहा था। कैसी
मटकी? किस
मटकी की बात
कर रहे हो? और
प्रयोग सफल
रहा। आंख बंद
किए पुल पार
किया जा सकता
है।
जुन्नैद
ने कहा, यह
देखो! जिसे
चूकना है वह
कोई खयाल पैदा
कर लेगा और
चूक जाएगा। जो
चूकने के लिए
ही तैयार है, तुम उसे बचा
न सकोगे।
परमात्मा
भी तुम्हें वह
नहीं दे सकता, जिसे लेने
के लिए तुम
तैयार नहीं हो
गए हो। तुम
अगर दुख के
लिए तैयार हो,
दुख। तुम
अगर सुख के
लिए तैयार हो,
सुख। तुम
वही पाते हो
जो तुम्हारी
तैयारी है। मिलता
उसकी अनुकंपा
से है। पाते
तुम अपनी तैयारी
से हो। बरसता
वह सदा है।
भरते तुम तभी
हो, जब तुम
तैयार होते हो,
उन्मुख
होते हो।
'बंधन
और मुक्ति
तेरी ही आज्ञा
से है। हे
दाता, ये
भी तेरे ही
दान हैं। कोई
दूसरा इसमें
कुछ भी नहीं
कर सकता। जो
कोई गप्प
हांकने वाला
इसमें कुछ
कहने जाता है,
उसे अपनी
मूर्खता का
पता तब चलता
है, जब
उसके मुंह पर
मार पड़ती है।
वह आप ही
जानता है और
आप ही देता
है। उसका
वर्णन भी
विरला ही कर सकता
है। वह जिसे
भी चाहे अपनी
स्थिति का गुण
प्रदान कर
सकता है। नानक
कहते हैं, वह
बादशाहों का
भी बादशाह है।'
'कोई
गप्प हांकने
वाला...।'
और
बहुत हैं धर्म
के जगत में
गप्प हांकने
वाले।
क्योंकि
जितनी सुविधा
गप्प हांकने
की धर्म के
जगत में है, उतनी और
कहीं भी नहीं
है। क्योंकि
सारा मामला ही
अलौकिक है। और
सारा मामला ही
रहस्यपूर्ण
है। और सारा
मामला अंधकार
में है। प्रमाण
तो कुछ है
नहीं। इसलिए
बहुत गप्पें
धर्म के नाम
पर चलती हैं।
इसलिए
तो दुनिया में
तीन सौ धर्म
हैं। नहीं तो
तीन सौ धर्म
हो सकते हैं? धर्म होता
तो एक ही होता,
तीन सौ धर्म
कैसे हो सकते
हैं। और इन
तीन सौ धर्मों
के भी तीन
हजार
संप्रदाय हैं
छोटे-मोटे।
निश्चित ही
सत्य के संबंध
में बहुत सी गप्पें हांकी गयी
हैं। और
रास्ता तो कुछ
भी नहीं है जांचने
का कि क्या
गप्प है और
क्या सही है!
और गप्प हांकने
वाले बहुत
कुशल हैं।
महावीर
सात नर्कों
की बात करते
थे कि सात
नर्क हैं।
कैसे प्रमाण
लगाओगे? कैसे
पता लगाओगे कि
सात हैं? महावीर
का विरोधी था मक्खली गोसाल नाम
का एक आदमी।
जब उसके
शिष्यों ने
उसे जा कर कहा
कि तुम्हें भी
पता है? कि
महावीर कहते
हैं, सात
नर्क हैं!
उसने कहा कि
महावीर को
पूरा पता नहीं,
नर्क सात सौ
हैं।
अब
क्या करोगे? यह मक्खली
गोसाल
ठीक कहता है
कि महावीर ठीक
कहते हैं? रास्ता
क्या है दोनों
के बीच तय
करने का कि कौन
सही है?
लेकिन
वही हुआ, जो
नानक कहते
हैं। मक्खली
गोसाल के
जीवन में वही
हुआ। उसने
जीवन भर गप्पें
हांकीं, मरते वक्त
पछताया।
क्योंकि जब
मौत करीब आयी
तब वह घबड़ाया
कि अब क्या
होगा? जब
मौत करीब आयी
तब वह कंपने
लगा। जब मौत
करीब आयी तब
उसने अपने
भक्तों से कहा
कि जो भी मैंने
कहा है, वह
सब झूठ था। और
तुम मेरी लाश
को सड़कों पर घसीटो। जब
मैं मर जाऊं
तो तुम मेरी
लाश को सड़कों
पर घसीटना और
लोगों से कहना
मेरे मुंह पर
थूकें। क्योंकि
इस मुंह से
मैंने सिवाय
झूठ के और कुछ
भी नहीं बोला।
पर मक्खली
गोसाल भी
आदमी हिम्मत
का रहा होगा, नहीं तो यह
भी कौन करे! और
यह आदमी भी
ईमानदार रहा
होगा। नहीं तो
जिंदगी भर झूठ
बोलता रहा, एक क्षण भर
के लिए और साध
लेता चुप्पी,
और मर जाता।
तो शायद मक्खली
गोसाल का
धर्म होता।
क्योंकि उसके
बड़े भक्त थे
और उसके कई
मानने वाले
थे। वह महावीर
के बड़े से बड़े
प्रतियोगियों
में से एक था।
पहले महावीर
का शिष्य था।
फिर जब उसने
कुछ थोड़ा सा
सीख लिया, तो
उसने अलग
संप्रदाय खड़ा
करने की कोशिश
की।
निश्चित
ही गप्प
हांकने वाला
होगा। क्योंकि
जब महावीर को
पता चला, तो
महावीर ने कहा
कि यह तो बड़ी
हैरानी की बात
है, उसे तो
अभी पहली
झलकें भी नहीं
मिली थीं।
लेकिन वह
महावीर के
पास--जो वे
कहते थे, समझाते
थे--वह सब उसने
समझ लिया।
होशियार आदमी
था, कुशल
आदमी था, बोल
सकता था, लिख
सकता था, पंडित
था। उसने अपना
संप्रदाय खड़ा
कर लिया।
महावीर
जब गांव में
आए, जिस गांव
में मक्खली
गोसाल
ठहरा था, तो
उन्होंने कहा
कि मैं मक्खली
गोसाल को
मिलूंगा।
क्योंकि वह
मेरा पुराना
शिष्य है। और
उससे पूछूंगा,
पागल! तू यह
क्या कर रहा
है? तुझे
खुद भी पता
नहीं है। मक्खली
गोसाल से
मिलना हुआ। तो
झूठ बोलने
वाले का तुम
भरोसा ही नहीं
कर सकते। उसने
महावीर को ऐसा
देखा जैसा कभी
देखा ही न हो।
महावीर
ने कहा कि
क्या तू
बिलकुल भूल
गया कि तू
वर्षों मेरे
साथ रहा?
मक्खली गोसाल ने
कहा, आप
भ्रांति में
हैं। जो आपके
साथ था वह
आत्मा तो जा
चुकी। इस शरीर
में, उसी
शरीर में यह
नयी आत्मा
तीर्थंकर की
प्रवेश कर गयी
है। मैं वह
नहीं हूं जो
आपके साथ था।
यह देह भर
आपके साथ थी, यह मुझे पता
है। सुना है।
लेकिन वह आदमी
मर चुका, जो
तुम्हारा
शिष्य था।
इसलिए भूल कर
अब किसी से यह
मत कहना कि मक्खली
गोसाल
मेरा शिष्य
था। यह तो एक
तीर्थंकर की
आत्मा मुझ में
प्रवेश कर गयी
है।
महावीर
चुप रह गए
होंगे। अब इस
आदमी से क्या
कहना! और उसका
बड़ा प्रभाव
था। उसके
हजारों भक्त
थे। लेकिन फिर
भी आदमी अच्छा
रहा होगा।
मरते वक्त उसे
यह एहसास तो
हो गया!
वही
नानक कह रहे
हैं कि जो कोई
गप्प हांकने
वाला इसमें
कुछ कहने जाता
है, तो उसे
अपनी मूर्खता
का पता तब
चलता है, जब
उसके मुंह पर
मार पड़ती है।
जब मौत
की मार पड़ती
है, और जब
जिंदगी हाथ से
छूटने लगती है,
तब उसे पता
चलता है कि
मैं व्यर्थ ही
बातें करता
रहा स्वर्गों-नर्कों
की। और मुझे
कुछ भी पता
नहीं। और जिंदगी
हाथ से बीत
गयी। मैं
जिंदगी के कोई
आधार न रख
पाया। कागज की
नावें बहाता
रहा। अब डूबने
का वक्त आया, तब पता चलता
है।
सम्हलना!
कभी भी धर्म
के संबंध में
जो पता न हो, भूल कर मत
कहना। पता हो
तो ही कहना, अन्यथा चुप
रहना।
क्योंकि मन
बड़े अन्वेषण
कर लेता है।
मन बड़े
आविष्कार कर
लेता है। मन
खोजने में बड़ा
कुशल है। और
एक दफा
तुम्हारा मन
खोजने लगे और
बातें करने
लगे और चर्चा
चल पड़े, तो
एक जाल शुरू
हो जाता है जो
अपने आप बढ़ता
है। तुम्हें
फिर कुछ करना
नहीं पड़ता। एक
शब्द दूसरे को
पैदा कर देता
है। एक बात
दूसरी बात को
पैदा कर देती
है। फिर तुम
आगे बढ़ने लगते
हो।
ऐसा
हुआ कि एक
धर्मगुरु एक
सराय में आ कर
ठहरा। उसने
अपना घोड़ा झाड़
के नीचे
बांधा।
मुल्ला नसरुद्दीन
यह देख रहा
था। घोड़ा बड़ा
प्यारा था और
बड़ा कीमती था।
और धर्मगुरु
प्रसिद्ध था, और अपने
घोड़े से उसका
बड़ा लगाव था।
वह दूर-दूर की
यात्रा अपने
घोड़े पर करता
था। वह दोपहर
के विश्राम के
लिए रुका।
मुल्ला
नसरुद्दीन
घोड़े के पास
गया। घोड़े को
सहलाया। जब वह
घोड़े को सहला
रहा था और खुश
हो रहा
था--घोड़ा सच
में बड़ा
बहुमूल्य
था--तभी एक
घोड़े का
खरीददार पास
से निकलता था।
उसने नसरुद्दीन
से कहा, तुम्हारा
घोड़ा है?
अब
इतना शानदार
घोड़ा! कहना
मुश्किल हो
गया कि अपना
नहीं है।
नसरुद्दीन
ने कहा, हां,
अपना ही
घोड़ा है।
उस
आदमी ने कहा, बेचते हो? बात में बात
बढ़ गयी।
नसरुद्दीन
ने कहा, खरीदने
की हिम्मत है?
हजार
रुपए का घोड़ा
था, नसरुद्दीन ने दो हजार
दाम मांगे। न
कोई देगा, न
कोई बात उठेगी,
बात खतम हो
जाएगी। वह
आदमी दो हजार
देने को तैयार
हो गया। अब
बात यहां तक
बढ़ गयी थी कि
पीछे लौटना
मुश्किल हो
गया। तो उसने
बेच दिया। फिर
उसने सोचा, ऐसा कुछ
हर्जा भी क्या
है? दो
हजार मुफ्त
हाथ लग रहे
हैं। और धर्मगुरु
सोया हुआ है।
वह जब
दो हजार गिन
कर खीसे में
रख ही रहा
था--खरीददार
तो घोड़ा ले कर
जा चुका--
धर्मगुरु
बाहर आया।
भागने का मौका
न मिला। तो
रुपए तो उसने
खीसे में रख
लिए, अब क्या
करे? कुछ सूझा नहीं,
तो जहां
घोड़ा खड़ा था, वहां घोड़े
की रस्सी अपने
गले में डाल कर
और घास का एक
टुकड़ा मुंह
में ले कर खड़ा
हो गया।
धर्मगुरु
खुद भी बहुत
घबड़ाया। देखी
उसने यह हालत, तो उसके भी
हाथ-पैर कांप
गए कि यह हुआ
क्या है? यह
मामला क्या है?
उसने कहा, भाई यह क्या
कर रहे हो? बात
क्या है!
नसरुद्दीन
ने कहा, अब
आपसे क्या
छिपाना! सच
बात कह दूं?
उस
धर्मगुरु ने
कहा कि मुझे
तुम्हारी सच
बात जानने का
कोई प्रयोजन
नहीं। मैं यह
पूछता हूं, वह मेरा
घोड़ा कहां है?
क्योंकि
तुम तो मुझे
आदमी पागल
मालूम पड़ते हो।
मेरा घोड़ा
कहां है?
नसरुद्दीन
ने कहा कि
आपके घोड़े की
बात और मेरी
बात दो अलग-अलग
बातें नहीं
हैं। मैं ही
आपका घोड़ा
हूं।
धर्मगुरु
ने कहा कि यह
तुम क्या कह
रहे हो? होश
में हो? शराब
पीए हो? क्या
मामला है?
नसरुद्दीन
ने कहा कि आप
पूरी कहानी
सुन लें। बीस
साल पहले एक
स्त्री के साथ
मैंने
व्यभिचार
किया, पाप
किया।
परमात्मा
बहुत नाराज हो
गया और उसने
गुस्से में
मुझे घोड़ा बना
दिया--आपका
घोड़ा। ऐसा
मालूम होता है
कि मेरा दंड
पूरा हो गया
है और मैं
वापस आदमी हो
गया हूं। मेरा
नाम नसरुद्दीन
है।
धर्मगुरु
भी घबड़ा गया।
परमात्मा की
ऐसी नाराजगी
कि आदमी को
घोड़ा बना
दिया! एकदम
घुटने पर टिक
गया। खुद भी
परमात्मा से
प्रार्थना की
उसने कि क्षमा
कर, पाप तो
मैंने भी बहुत
किए हैं। मगर
दया कर। तेरी
अनुकंपा का
सहारा मांगता
हूं। फिर उसने
नसरुद्दीन
से कहा, भाई,
यह तो ठीक
है, अब
मुझे आगे जाना
है। अब जो हुआ,
हुआ। तुम
अपने घर जाओ
और मैं बाजार
जा कर घोड़ा खरीद
लूं।
वह
बाजार गया तो
घोड़े बेचने
वाले की दूकान
पर उसने अपने
घोड़े को खड़ा
पाया। तो और
उसकी छाती
घबड़ा गयी। वह
पास गया घोड़े
के और कान में
बोला, नसरुद्दीन फिर से? इतनी
जल्दी?
एक दफा
मन शुरू कर दे
झूठ, तो जैसे झाड़ों में
पत्ते लगते
हैं, ऐसे
फिर झूठ में
और झूठ लगते
जाते हैं। एक
झूठ को बचाना
हो तो फिर हजार
झूठ बोलने
पड़ते हैं। फिर
झूठ इतने हो
जाते हैं कि
तुम भूल ही
जाते हो कि वे
झूठ हैं। फिर बार-बार
बोलने से वे
सच जैसे मालूम
पड़ने लगते हैं।
फिर तुम झूठ
से सम्मोहित
हो जाते हो।
और
हजारों ऐसे
झूठ हैं जो
प्रचलित हैं।
जिनका कोई
सत्य से संबंध
नहीं है। और
धर्म के संबंध
में सब से
ज्यादा आसानी
है। क्योंकि वहां
कोई परीक्षण
का उपाय नहीं; कोई
प्रयोगशाला
नहीं जिसमें
जांच हो सके; कौन सही है, इसके निर्णय
का कोई आधार
नहीं। धर्म तो
भरोसे पर जीता
है। वहां कोई
वैज्ञानिक
परीक्षण तो हो
नहीं सकता।
इसलिए स्मरण
रखना, अन्यथा
पछताओगे। एक
शब्द भी झूठ
मत बोलना। झूठ
बोलने की मन की
बड़ी गहरी आदत
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। कहते हैं
कि हम दस साल से
विपश्यना कर
रहे हैं, बौद्ध-ध्यान
कर रहे हैं।
मैं उनसे
पूछता हूं कि
कुछ हुआ? और
उनके चेहरे पर
तत्क्षण भाव आ
जाता है कि कुछ
नहीं हुआ।
लेकिन वे कहते
हैं कि हां, बहुत कुछ हो
रहा है, कई
अनुभव हो रहे
हैं। अब मैं
उनका चेहरा
देख रहा हूं
कि कुछ भी
नहीं हुआ है।
कहते हैं, अनुभव
हो रहे हैं।
फिर थोड़ी देर
बात यहां-वहां
की करके मैं
उनसे पूछता
हूं कि सच-सच
कहो, कुछ
हुआ? अगर
हुआ हो, तो
फिर मुझसे बात
करने की कोई
जरूरत नहीं, आगे बढ़ो।
अगर न हुआ हो
तो पहले तो यह
पक्का करो कि
नहीं हुआ है, तब मैं आगे
हाथ लूं। तो
वे कहते हैं
कि ऐसे अगर आप
पूछते हैं, तो कुछ हुआ
तो नहीं है।
अब दो
क्षण पहले ही
यह आदमी कहता
था, बहुत कुछ
हो रहा है।
क्योंकि यह
मानने का भी मन
नहीं होता कि
दस साल से कुछ
कर रहा हूं और
कुछ भी नहीं
हुआ।
मन
बहुत बेईमान
है। उससे
सावधान रहना।
और जितना तुम
मन के जाल में
पड़ जाओगे, उतना एक दिन
पछताओगे।
क्योंकि जीवन
चुक जाएगा, और जब मौत
सिर पर आ खड़ी
होगी, तब
तुम पछताओगे
कि क्यों
व्यर्थ मैं
झूठ में अपने
को गंवाता
रहा?
'जो
कोई गप्प
हांकने वाला
इसमें कुछ
कहने जाता है,
उसे अपनी
मूर्खता का
पता तब चलता
है, जब
उसके मुंह पर
मार पड़ती है।
वह आप ही
जानता है और
आप ही देता
है।'
परमात्मा
आप ही जानता
है, आप ही
देता है।
जानना उसका है,
देना भी
उसका है। हमें
तो सिर्फ
पात्र होना काफी
है। ज्ञान
उसका है।
अस्तित्व
उसका है।
दोनों हमें
मिल जाएंगे।
सिर्फ हमें
राजी होना
जरूरी है। उन्मुख
होना जरूरी
है। उसकी तरफ
आंखें उठाना
जरूरी है। मन
के जाल में
पड़ने की कोई
भी जरूरत नहीं।
न तो मन ज्ञान
दे सकता है, न अस्तित्व
दे सकता है।
मन तो सिर्फ
झूठ दे सकता
है। मन की जो
सुनता है, वह
झूठ में उतर
जाता है। मन
कुछ भी नहीं
दे सकता।
तुमने
शायद एक
पुरानी कहानी
सुनी होगी कि
एक आदमी ने
बड़ी भक्ति की।
और देवता
प्रसन्न हो
गए। तो देवता
ने उस आदमी को
एक शंख दिया।
शंख की खूबी
यह थी कि जो
तुम उससे
मांगो, मिल
जाए। कहो एक
महल, तो तत्क्षण
महल तैयार हो
जाए। कहो
सुस्वादु
भोजन, तत्क्षण
थाली लग जाए।
बड़ा कीमती शंख
था। वह आदमी
बड़ा आनंदित
हुआ। वह आदमी
बड़े महलों में,
बड़े सुख से
रहने लगा।
फिर एक
दिन एक
धर्मगुरु
यात्रा करते
हुए उस महल
में रुका।
उसने भी इस
शंख के बाबत
बात सुनी। लालच
पकड़ा। उसके पास
भी एक शंख था।
उस शंख का नाम
महाशंख था।
उसने इस आदमी
को कहा कि
क्या तुम शंख
के पीछे पड़े हो!
मैंने भी
भक्ति की
बहुत। मैंने
महाशंख पाया।
इस महाशंख की
बड़ी खूबी है।
तुम मांगो एक
महल, यह देता
है दो।
उस
आदमी का लोभ
जागा। उसने
कहा कि बताओ!
उसने महाशंख
निकाला। बड़ा
शंख था। उस
धर्मगुरु ने
उसे नीचे रखा
और कहा कि भाई, एक महल बना
दे। उसने कहा,
एक क्यों? दो क्यों
नहीं?
जंच
गयी बात। उस
आदमी ने अपना
शंख गुरु को
दे दिया, धर्मगुरु
को। महाशंख ले
लिया। फिर
बहुत खोजा उस
गुरु को, उसका
पता न चला।
क्योंकि वह
महाशंख सिर्फ
बोलता था। तुम
कहो, दो, तो वह कहे, चार क्यों
नहीं? तुम
कहो, चार, तो वह कहे, आठ क्यों
नहीं? मगर
बस, इसी
तरह बात चलती
थी। लेने-देने
का कोई काम ही न
था। वह बिलकुल
महाशंख था।
मन
महाशंख है। जो
कुछ मिलता है
परमात्मा से, मन तो सिर्फ
कहता है, इतना
क्यों नहीं? और ज्यादा क्यों
नहीं? मन
तो बातचीत है।
मन तो एक झूठ
है। मन से कुछ
भी नहीं घटता।
और तुम
परमात्मा को
छोड़ कर मन को
पकड़ लिए हो। वह
दोहरे की बात
करता है। उससे
लोभ जगता है।
लेकिन कभी तुम
सोचो, मन ने
कभी कुछ दिया?
मन से कुछ
मिला?
नानक
कहते हैं, 'वह आप ही
जानता और आप
ही देता है।
उसका वर्णन भी
विरला कर सकता
है। वह जिसे चाहे
अपनी स्तुति
का गुण प्रदान
कर सकता है। नानक
कहते हैं, वह
बादशाहों का
बादशाह है।'
और एक
बात आखिरी, जो इस सूत्र
में बहुत
कीमती है।
झुन-नुन
एक फकीर हुआ
इजिप्त में।
और जब उसे
परमात्मा की
प्रतीति हुई, तो उसने यह उदघोष
सुना।
परमात्मा ने
कहा कि इसके
पहले कि तू मुझे
खोजने निकलता,
मैंने तुझे
पा लिया था।
और अगर मैंने
तुझे न पाया
होता, तो
तू मुझे खोजने
ही न निकलता।
नानक
यही कह रहे
हैं कि वह
जिसे चाहे उसे
स्तुति का गुण
प्रदान कर
सकता है।
सच तो
यह है, तुम
उसे खोजने ही
तब निकलते हो,
जब उसने
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक दे दी।
तुम अपने आप
उसे खोजने भी
कैसे निकलोगे?
तुम्हें
उसकी खोज का
बोध भी कैसे
आएगा? तुम्हें
उसका स्मरण भी
कैसे भरेगा? उसकी स्तुति
भी कैसे पैदा
होगी?
फिर
कितनी ही देर
लग जाए खोजने
में, असल में
उसने तुम्हें
पा ही लिया
है। इसलिए तुम
खोजने निकले
हो। वह आ ही गया
है तुम्हारे
जीवन में, इसलिए
तो खोज शुरू
हुई है। उसकी
प्यास जग गयी है।
नानक कहते हैं,
वह भी उसी
ने ही जगायी
है।
नानक
का मार्ग यह
है--सब उसी पर
छोड़ देना है।
अपने हाथ में
कुछ मत रखना।
क्योंकि अकड़
बड़ी सूक्ष्म
है। तुम यह भी
कहोगे कि मैं
खोजी, मैं
साधक, मैं
जिज्ञासु, मैं
मुमुक्षु
हूं। मैं
परमात्मा को
खोज रहा हूं।...
यह मैं
कहीं से भी
निर्मित न हो, इसलिए नानक
कहते हैं, तेरी
मर्जी से ही
स्तुति का गुण
मिलता है। हम तो
तेरी महिमा भी
तभी गा सकेंगे
जब तू गवाए।
तेरे बिना हमसे
तेरी स्तुति
भी न हो
सकेगी। और तो
बात करनी
फिजूल है। हम
तेरी तरफ आंख
भी नहीं उठा
सकेंगे, अगर
तू ही हमारी
आंखों को
सहारा न दे।
हमारे पैर
तेरी तरफ न जा
सकेंगे, अगर
तू ही उन्हें
उस तरफ न ले
जाए। हम तेरी
धारणा का, तेरे
विचार का भी, तेरा सपना
भी न देख
सकेंगे, अगर
तूने पहले ही
हमें चुन न
लिया हो।
नानक
इस भांति
अहंकार की
सारी जड़ काट
देते हैं। और
जहां अहंकार
नहीं, वहां
उसका द्वार
खुला है। जहां
अहंकार नहीं,
वहां ओंकार
का नाद अनायास
शुरू हो जाता
है। तुम्हारे
अहंकार के
शोरगुल के
कारण ही वह
धीमी और छोटी
आवाज सुनायी
नहीं पड़ती।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं