ध्यान
योग शिविर,
माउंट
आबू,
राजस्थान।
सूत्र :
ओम पूर्णमद:
पूर्णमिदं
पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य
पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यते।।
ओम
शांति: शांति:
शांति:।
ओम वह
पूर्ण है और
यह भी पूर्ण
है; क्योंकि
पूर्ण से
पूर्ण की ही
उत्पत्ति
होती है। तथा
पूर्ण का
पूर्णत्व लेकर
पूर्ण ही बच
रहता है।
ओम
शांति, शांति, शांति।
जीवन
का शाश्वत
नियम है, जहां से
होता है
प्रारंभ, वहीं
होती है
परिणति। जो है
आदि, वही
है अंत। जीवन
के इसी शाश्वत
नियम के
अंतर्गत
ईशावास्य जिस
सूत्र से शुरू
होता है, उसी
सूत्र पर
पूर्ण होता है।
इसके
अतिरिक्त और
कोई उपाय नहीं
है। सभी
यात्राएं
वर्तुल में
हैं। दि
फर्स्ट स्टेप
इज दि लास्ट
आलसो। पहला
कदम आखिरी कदम
भी है।
जो
ऐसा समझ लेते
हैं कि पहला
कदम आखिरी कदम
भी है, वे
व्यर्थ की दौड़—
धूप से बच
जाते हैं। जो
जानते हैं, जो प्रारंभ
है वही अंत भी
है, वे
व्यर्थ की
चिंता से बच
जाते हैं। पहुंचते
हैं हम वहीं, जहां से हम
चलते हैं।
यात्रा का जो
पहला पड़ाव है,
वही यात्रा
की अंतिम
मंजिल है।
इसलिए बीच में
हम बिलकुल
आनंद से चल
सकते हैं।
क्योंकि
अन्यथा कोई
उपाय नहीं है।
हम वहां नहीं
पहुंचेंगे
जहां हम नहीं
थे। हम वहां
पहुंचने की
कितनी ही
चेष्टा करें,
हम वहां
नहीं
पहुंचेंगे
जहां हम नहीं
थे। हम वहीं
पहुंचेंगे, जहां हम थे।
इसे
ऐसा समझें कि
हम वही हो
सकते हैं, जो हम हैं
ही। अन्यथा
कोई उपाय नहीं
है। जो हममें
छिपा है, वही
प्रगट होगा।
और जो प्रगट
होगा, वह
वापस लुप्त हो
जाएगा। बीज
वृक्ष बनेगा,
वृक्ष फिर
बीज बन जाते
हैं। ऐसा ही
जीवन का
शाश्वत नियम
है। इस नियम
को जो समझ
लेते हैं, उनकी
चिंता क्षीण
हो जाती है।
उनके त्रिविध
ताप शांत हो
जाते हैं। कोई
फिर कारण नहीं
है। न दुख का, न सुख का।
दुखी होने का
कोई कारण नहीं
है, क्योंकि
हम अपनी मंजिल
अपने साथ लेकर
चलते हैं।
सुखी होने का
कोई कारण नहीं
है, क्योंकि
हमें ऐसा कुछ
भी नहीं मिलता,
जो हमें सदा
से मिला हुआ
ही नहीं है।
इसलिए
इस महानियम की
सूचना के लिए
ही उपनिषद शुरू
होता है
ईशावास्य के
जिस मंत्र से, उसी
मंत्र पर पूरा
होता है। बीच
में हमने जो
यात्रा की, वे भी उसी
मंत्र तक
पहुंचने के
अलग—अलग द्वार
थे। प्रत्येक
मंत्र पुनः—पुन:
उसी महासागर
की स्मृति को
जगाने के लिए
सूचना थी। और
प्रत्येक घाट
और प्रत्येक
तीर्थ उसी
सागर में नाव
छोड़ देने के
लिए पुकार, आमंत्रण, आह्वान था।
इस सूत्र को
अगर आपने खयाल
रखा हो, तो
हर सूत्र के प्राणों
में यही
अनुस्यूत था।
इसीलिए इसे
पहले ही घोषणा
कर दी थी और अब
अंत में उसकी
निष्पत्ति की
घोषणा है।
मैंने पहले ही
दिन इस सूत्र
का अर्थ आपको
कहा था, आज
इसका
अभिप्राय
कहूंगा।
पूछेंगे
आप, अर्थ
और अभिप्राय
में क्या फर्क
होता होगा?
अर्थ
तो बहुत प्रगट
बात है, अभिप्राय
बहुत गुप्त।
अर्थ तो शरीर
है, अभिप्राय
आत्मा। अर्थ
तो बुद्धि से
भी समझा जा
सकता है, अभिप्राय
सिर्फ हृदय से।
स्वभावत:
प्राथमिक रूप
से अर्थ ही
कहा जा सकता
था, अभिप्राय
नहीं। लेकिन
अब हमने बहुत—बहुत
द्वारों से भी
झांककर देखा
उस मंदिर में,
जिस मंदिर
के लिए यह
सूत्र घोषणा
करता है। न
केवल हमने
समझा, बल्कि
ध्यान में
उतरकर भी
देखने की
कोशिश की।
एक
अर्थ में यह
घटना अनूठी है।
उपनिषद पर
बहुत टीकाएं
हुई हैं।
लेकिन ध्यान
के साथ कभी
कोई टीका हुई
हो, यह
पृथ्वी पर
पहला मौका है।
उपनिषद के
शब्दों का
अर्थ हुआ है, लेकिन अभिप्राय
में छलांग
लगाने की
जीवंत चेष्टा
भी हुई हो, यह
पहला मौका है।
अभिप्राय में
अर्थ लगाने की
जीवंत
चेष्टाएं भी
हुई हैं।
लेकिन अर्थ के
साथ अभिप्राय
की दोहरी खोज
एक साथ हुई हो,
यह पहला
मौका है।
मेरी
दृष्टि में, जो मैं
बोल रहा था, वह सिर्फ
इसीलिए था कि
जब आप छलांग
लगाएंगे, तो
उसके लिए
जंपिंग बोर्ड
बन जाए। लेकिन
प्रयोजन
छलांग ही था।
इसलिए हर
सूत्र के बाद
हम ध्यान में
कूदते रहे।
शब्द जिसे
जाना था, उसे
छलांग लगाकर
अनुभव से भी
जानने की
चेष्टा की।
इसलिए अब मैं
अभिप्राय कह
सकता हूं।
क्योंकि अब
आपने शब्द भी
सुन लिए हैं
और शब्द को
समझकर
पर्याप्त
नहीं माना, शब्द के बाद
कुछ और भी
किया है —
निःशब्द में
पहुंचने के
लिए। अर्थ तो
केवल वे ही
जान पाते हैं,
वे भी जान
लेते हैं, जो
शब्द को जानते
हैं। लेकिन
अभिप्राय
केवल वे ही
जानते हैं और
जान पाते हैं,
जो निःशब्द
को जान लेते
हैं। अगर थोड़ी
भी झलक
निःशब्द की
मिली होगी, तो अब मैं जौ
अभिप्राय
कहता हूं वह
समझ में आ सकेगा।
इस
सूत्र का
अभिप्राय
क्या है? इस सूत्र के
अभिप्राय में
पहली बात तो
आपसे यह कह
दूं यह सूत्र
घोषणा करता है
कि जीवन अतर्क्य
है, इल्लाजिकल
है। कहीं भी
इस सूत्र में
कहा नहीं है
कि जीवन
अतर्क्य है।
इशारा है यह।
जो कहा है, उसका
अर्थ मैंने कह
दिया। जो नहीं
कहा है, उसका
अर्थ आप से
कहता हूं। जो
सिर्फ इशारा
है।
विट्गिस्टीन
ने इस सदी में
लिखी गई
संभवत: सर्वाधिक
कीमती किताब
में.. इन पूरे
सौ वर्षों में
लाखों
किताबें लिखी
गई हैं, लेकिन
विट्गिस्टीन
की किताब
अनूठी है।
किताब का नाम
है —
ट्रेक्टेटस।
इस
ट्रेक्टेटस
में
विट्गिस्टीन
ने एक बात कही
है — दैट व्हिच
कैन नाट बी
सेड, मस्ट
नाट बी सेड।
जो नहीं कहा
जा सकता, उसे
कभी नहीं कहना
चाहिए। उसे
अनकहा छोड़
देना चाहिए।
एक बात और कही
है कि दैट
व्हिच कैन नाट
बी सेड, कैन
बी शोड। जो
नहीं कहा जा
सकता है, वह
भी बताया जा
सकता है।
ऐसा
समझें, जो नहीं कहा
जा सकता है, उसकी तरफ भी
इशारा किया जा
सकता है। जो
कहा जा सकता
था, वह
मैंने पहले
सूत्र के अर्थ
में आपसे कहा।
जो नहीं कहा
जा सकता है और
न ही कहे जाने
का जिसका उपाय
है, वह इस
सूत्र का
अभिप्राय है।
वह मैं अब
आपसे इशारा
करता हूं।
पहला इशारा
जीवन अतर्क्य
है। इसलिए जो
लोग तर्क से
जीवन को खोजने
जाएंगे, वे
केवल मृत्यु
के आसपास
भटकेंगे, जीवन
को कभी नहीं
जान पाएंगे।
क्यों, इस
सूत्र से
अतर्क्य की
तरफ, इररेशनल
की तरफ इशारा
क्यों मिलता
है?
क्योंकि
सूत्र कहता है, पूर्ण से
पूर्ण निकल
आता है।
पहली
तो बात पूर्ण
से पूर्ण
निकलेगा कैसे? क्योंकि
पूर्ण के बाहर
कोई जगह भी
नहीं होती, जिसमें
पूर्ण निकल आए।
पूर्ण का मतलब
ही है
एब्लोल्युट, जिसके पार
कुछ भी नहीं
है। अगर कुछ
भी हो, तो
उतना तो
अपूर्ण हो
जाएगा इसके
भीतर। पूर्ण
के बाहर कुछ
भी नहीं होता।
जगह भी नहीं
होती, स्पेस
भी नहीं होती,
आकाश भी
नहीं होता। तो
पूर्ण के बाहर
पूर्ण
निकलेगा कैसे?
निकलेगा तो
कहां जाएगा
निकलकर? निकलने
की कोई भी सुविधा
नहीं है।
लेकिन
यह सूत्र कहता
है, पूर्ण
से पूर्ण
निकाल लो। न
केवल इतना
कहता है, बल्कि
और एक अतर्क्य
बात कहता है
कि फिर पीछे पूर्ण
शेष रह जाता
है।
एक
तो निकल नहीं
सकता पूर्ण से
पूर्ण, क्योंकि
निकलेगा कहां?
और अगर निकल
आए, पूर्ण
ही निकल आए, तो पीछे शेष कैसे
रह जाएगा? पीछे
तो सब शून्य
हो जाएगा।
यह
तथ्य तर्क का
नहीं है, तर्क से कोई
सोचेगा तो यह
किसी पागल का
वक्तव्य है।
गणित से कोई
सोचेगा, तो
यह सूत्र
बिलकुल गलत है।
यह किसी ने
होश में नहीं
लिखा है, कोई
नशे में रहा
होगा।
मस्तिष्क ठीक
न रहा होगा, तब कहा होगा।
अगर कोई तर्क
और गणित से
सोचेगा तब।
लेकिन
जो तर्क और
गणित से सोचता
है, वह
वैसी ही भूल
करता है, जैसी
एक बार एक
बगीचे में हो
गई।
एक
माली ने अपने
एक मित्र को
निमंत्रण दे
दिया कि गुलाब
में बहुत
खूबसूरत फूल
आए हैं। आओ
बगीचे में!
लेकिन मित्र
तो था सुनार।
तो वह अपने
सोने के कसने
की कसौटी साथ
ले आया। और जब
गुलाब के फूल
उसने देखे, तो उसने
कहा, ऐसे
मैं न मानूंगा।
मुझे तुम धोखा
न दे पाओगे।
मैं कोई बच्चा
नहीं हूं। मैं
सोने तक को
परख लेता हूं
इस फूल का
क्या वश! इसको
भी परख लूंगा।
उस माली ने
कहा, फूल
को परखोगे कैसे?
उसने कहा, मैं सोने को
कसने की कसौटी
साथ ले आया
हूं। माली
घबराया कि
गलती हो गई इस
आदमी को
निमंत्रण
देकर। लेकिन
तब तक तो उस
आदमी ने फूल
को तोड़कर और
पत्थर की
कसौटी पर घिस
डाला था।
घिसकर फूल को
नीचे फेंक
दिया था और
कहा कि सब झूठ
है। फूल सच
नहीं है।
कसौटी कहती है।
जैसा
उस माली को
लगा होगा, वैसे ही
अगर कोई तर्क
और गणित से इस
सूत्र को समझने
जाए, तो इस
सूत्र के ऋषि
को लगेगा। फूल
सोने को कसने
की कसौटियों
पर नहीं कसे
जाते। और कसे
जाएं तो इसमें
फूलों की गलती
नहीं है, कसने
वाले की
नासमझी है।
यह
सूत्र — इस
ईशावास्य में
कहे गए सभी
सूत्र, और विशेषकर
यह सूत्र —
आत्म— अनुभव
में खिला हुआ
फूल है। इसे
तर्क की कसौटी
पर नहीं कसा
जा सकता। और
इस सूत्र में
पूरी खबर है
कि तर्क की
कसौटी पर कसना
मत, क्योंकि
सूत्र इशारा
कर रहा है। वह
यह कह रहा है
कि हम कुछ ऐसी
बात कहने जा
रहे हैं, जो
अतर्क्य है।
जो हो नहीं
सकती है, लेकिन
होती है। जो
होनी नहीं
चाहिए, फिर, गई घटित
होती है।
जिसके घटने का
कोई आधार नहीं
मिलता, खोजने
से कोई उपाय
नहीं मिलता, फिर भी है।
जीवन
अतर्क्य है, इसका
क्या अर्थ हुआ?
इसका अर्थ
हुआ कि जो
जीवन को नियम,
गणित, तर्क,
न्याय, विधि,
व्यवस्था
से सोचेंगे, वे जीवन के
रहस्य, मिस्ट्री
से वंचित रह
जाएंगे। एक
फूल को सुनार
ने कस लिया
पत्थर पर। इसी
फूल को अगर
वैज्ञानिक की
प्रयोगशाला
में ले जाएंगे
और कहेंगे, बहुत सुंदर
है, तो वह
भी इस फूल के
एक—एक टुकड़े
को काटकर
देखेगा कि
सौंदर्य कहां
है? वह भी
इस फूल के एक—एक
तत्व को
निकालकर
बिखरा लेगा, एक—एक
केमिकल को अलग
कर लेगा और
कहेगा, सौंदर्य
कहा है? इसमें
रस है, खनिज
हैं, केमिकल
है, सब है, सौंदर्य
कहीं भी नहीं
है। वह एक—एक
बोतल में
निकालकर अलग—अलग
चीजें रख देगा
और कहेगा कि
ये सब चीजें
हो गईं, फूल
पूरा हो गया, सब बोतलों
में सब चीजों
के लेबल लगा
दिए, लेकिन
सौंदर्य कहीं
भी मिलता नहीं
है।
फूल
का कोई कसूर
नहीं है कि
वैज्ञानिक की
प्रयोगशाला
में सौंदर्य न
मिले।
वैज्ञानिक का
भी कसूर नहीं
है, क्योंकि
उसके पास जो
प्रयोगशाला
है, वह
सौंदर्य को
मापने के लिए
नहीं है।
सौंदर्य को
मापने का आयाम
दूसरा है।
जीवन
को जो लोग
गणित की तरह
सोचते हैं, वे लोग
जीवन को कभी
नहीं माप पाते।
क्योंकि जीवन
मूलत: एक
रहस्य है।
कितना ही हम
जान लें, हमारा
सब जाना हुआ, और गहरे
अज्ञान पर खड़ा
होता है।
कितना ही हम
जान लें, हमारा
सब जाना हुआ, और भी जानने
को शेष है, उसकी
तरफ इंगित
मात्र करता है।
कितना ही हम
जान लें। और
जितना हम
जानते हैं, उतना ही पता
चलता है कि
आदमी का
अज्ञान गहन है।
जीवन
को हम खोल
नहीं पाते हैं।
खोलते हैं तो
और उलझ जाता
है। हमारे
जीवन को खोलने
की सब कोशिश
वैसी ही है, जैसा
मैंने सुना है,
ईसप ने एक
कहानी कही है।
कहा है कि एक
सेंटीपीड, एक
शतपदी जानवर
गुजरता है एक
रास्ते से। एक
खरगोश ने देखा,
बहुत चकित
हुआ। खरगोश की
दिक्कत यह हुई
— खरगोश किसी
तर्क की
पाठशाला में
शिक्षा पाया
होगा — उसकी
कठिनाई यह हुई
कि यह शतपदी
जानवर, सौ
पैर वाला जानवर,
पहले कौन सा
पैर उठाता
होगा? फिर
कौन सा उठाता
होगा? फिर
कौन सा उठाता
होगा? कैसे
हिसाब रखता
होगा कि कौन
सा पैर उठ गया,
कौन सा नहीं
उठा! सौ पैर
हैं लड़खड़ा
जाते होंगे, दिक्कत में
पड़ जाता होगा!
चलता कैसे
होगा?
रोका।
कहा कि रुको!
एक जवाब देते
जाओ। मैं जरा एक
तर्क का
विद्यार्थी
हूं। मैं बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया हूं।
चार पैर चलाते
हैं हम, तब तो समझ
में आता है, हिसाब रह
जाता है। सौ
पैर चलाते
होओगे, हिसाब
कैसे रखते हो? शतपदी
जानवर ने कहा,
अब तक चलता
रहा हूं
भलीभांति, हिसाब
रखने की जरूरत
नहीं पड़ी। अब
तक कभी सोचा भी
नहीं इस भांति
कि कौन सा पैर
पहले उठता है,
कौन सा पीछे
उठता है।
लेकिन तुम
कहते हो तो अब
मैं सोचकर
तुम्हें बताऊंगा।
खरगोश
वहीं बैठा रहा।
शतपदी मे पैर
उठाने की
कोशिश की, लड़खड़ाकर
गिर गया। सौ
पैर, कौन
सा उठाऊं! वह
भी मुश्किल
में पड़ गया।
दयनीय मन से
उसने खरगोश से
कहा, मेरे
मित्र!
तुम्हारे
तर्क ने मुझे
मुश्किल में
डाल दिया है।
तुम कृपा करके
अपने तर्क को
अपने पास रखना।
और शतपदी यहां
से कोई गुजरे
तो तुम यह
प्रश्न मत
पूछना। हम बड़े
मजे से जी रहे
थे। कभी पैरों
ने कोई दिक्कत
न दी थी। कभी
पैरों ने कोई
सवाल न उठाया
और कोई तर्क
खड़ा न किया था।
और कभी हमने
सोचा न था कि
कौन सा पहले
उठता है, कौन
सा पीछे उठता
है। पता नहीं,
कौन पहले
उठता था, कौन
पीछे उठता था।
इतना तय है कि
हम अब तक चले
हैं। अब तुमने
मुझे मुश्किल
में डाल दिया।
आदमी
की सबसे बड़ी
मुश्किल यही
है कि वह
शतपदी जानवर
की हालत में
है और सवाल
किसी खरगोश ने
नहीं पूछा, आदमी खुद
ही पूछ लेता
है। खुद ही
पूछ—पूछकर
उलझता चला
जाता है। खुद
ही सवाल पूछ
लेता है और
खुद ही जवाब
निर्मित कर
लेता है। सवाल
तो गलत होते
ही हैं, जवाब
उनसे भी गलत
हो जाते हैं।
हर जवाब नए
सवाल उठा देता
है। फिर सवालों
की भीड़ और
जवाबों की भीड़
और आदमी उलझता
चला जाता है।
और वह घड़ी आ
जाती है, जब
उसे कुछ भी
पता नहीं रहता
है कि क्या—क्या
है — व्हाट इज
व्हाट। हम सब
उस हालत में
हैं।
संत
अगस्तीन से
किसी ने पूछा
कि एक सवाल
मेरे मन को
बड़ा परेशान
करता है। मुझे
जवाब दे दें
तो मुझे बड़ी
राहत मिले।
सुना है, आप ज्ञानी
हैं। अगस्तीन
ने कहा कि
सुना होगा
तुमने कि
ज्ञानी हूं
लेकिन जब से
मैंने सुना है,
तब से मैं
जरा मुश्किल
में पड़ गया
हूं। उस आदमी
ने पूछा कि
आपकी क्या
मुश्किल है? मुश्किल हम
अज्ञानियों
की होती है।
अगस्तीन ने
कहा, मैं
इसलिए
मुश्किल में
पड़ गया हूं कि
जब से मैं सुन
रहा हूं कि
मैं इतनी हूं
तब से मैं
बहुत खोजता
हूं अपने भीतर
कि ज्ञान कहां
है, कहीं
पाता नहीं।
पहले तो भूल—चूक
से मैं भी
मानता था। अब?
अब मानना
कठिन है। फिर
भी तुम्हारा
सवाल क्या है?
जब तुम इतनी
दूर चलकर आ गए
हो तो सवाल
पूछ ही लो।
भला मैं जवाब
न दे सकूं, तुम्हें
कम से कम राहत
तो रहेगी कि
सवाल पूछ लिया
है। और चाहे
मैं जवाब दे
भी दूं जवाब
कोई दे दे, सवालों
के जवाब कहीं
किसी को मिलते
हैं? इसलिए
तुम पूछ तो लो
ही।
उस
आदमी ने पूछा
कि मैं यही
जानना चाहता
हूं कि समय
क्या है —
व्हाट इज टाइम? अगस्तीन
ने कहा कि बस, वही सवाल
पूछ लिया, जो
मैं सोचता था
और डरता था कि
तुम पूछ न लो।
कुछ ऐसे सवाल
हैं कि जब तक
तुम न पूछो, हमें पता
होता है —
अगस्तीन ने
कहा — कि मतलब
क्या है। और
पूछा कि हम
मुश्किल में
पड़े। मुझे
पक्की तरह पता
है कि समय
क्या है।
लेकिन तुमने
पूछा कि
मुश्किल में
डाला।
आपसे
भी कोई पूछे
कि समय क्या
है? भलीभांति
आप जानते हैं।
वक्त पर ट्रेन
पकड़ लेते हैं,
बस पकड़ लेते
हैं, दफ्तर
पहुंच जाते
हैं, दफ्तर
से घर आ जाते
हैं। समय का
आपको
भलीभांति पता
है, लेकिन
कोई पूछे भर न
आपसे कि समय
क्या है, नहीं
तो शतपदी
जानवर की हालत
हो जाए।
समय
क्या है? जन्मे, तारीखें
पता हैं, घड़ियां
पास में हैं, कैलेंडर
लटके हैं, सब
पता है, फिर
भी समय क्या
है? अभी तक
कोई उत्तर
नहीं दे सका
है। और जितने
उत्तर दिए गए
हैं, वे सब
अंधेरे में
टटोलने जैसे
हैं, जिनसे
कुछ हल नहीं
होता है।
पूछे
कोई, आत्मा
क्या है? है
आपके पास।
जन्मे, उस
दिन से है। जो
जानते हैं, वे कहते हैं,
जन्मे उसके
पहले से है।
इतने दिन हो
गए, आत्मा
आपके पास है, अभी तक पता
नहीं लगा पाए
कि क्या है।
कोई न पूछे तो
सब ठीक है।
कोई पूछे तो
अड़चन खड़ी हो
जाती है।
प्रेम
क्या है, कोई पूछे।
करते हैं सब।
नहीं भी करते,
तो भी करते
हुए बताते हैं।
कितनी प्रेम
की कहानियां
हैं! सभी
कहानियां प्रेम
की हैं। और
इसीलिए प्रेम
की हैं, क्योंकि
प्रेम आदमी अब
तक कर नहीं
पाया। कहानी
लिख—लिखकर मन
को समझाता है।
सब कविताएं
प्रेम की हैं।
जिस आदमी की
भी जिंदगी में
प्रेम नहीं
होता, वह
प्रेम की
कविता लिखने
लगता है।
कविता लिखना
बहुत आसान है,
प्रेम करना
बड़ा कठिन है।
कविता तो तुक
बांध लेने से
बंध जाती है, प्रेम तो सब
तुक तोड़ने से
बनता है।
कविता के तो
छंद और नियम
हैं, प्रेम
तो बिलकुल
निश्छंद है —
छंदहीन। कहां
शुरू होता है,
कहां अंत
होता है, कुछ
पता नहीं। कोई
मात्रा नहीं,
कोई ठिकाना
नहीं। तो
कविता तो सीखी
जा सकती है, बनाई जा
सकती है।
प्रेम को
बनाने और
सीखने का कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन प्रेम
की हम चौबीस
घंटे बात करते
हैं और कोई
पूछ ले कि
प्रेम क्या है?
इस
सदी के एक
बहुत बड़े
विचारक, और कहना
चाहिए सबसे
बड़े तार्किक
आदमी जी.ई.मूर
ने एक किताब
लिखी है। इन
पचास वर्षों
में जिस आदमी
ने मनुष्य
जाति के मन को
सर्वाधिक
तार्किक रूप
से प्रभावित किया
है, वह जी.ई
मूर है। उसने
एक किताब लिखी
है। किताब का
नाम है, प्रिंसिपिया
इथिका — नीति—शास्त्र
के सिद्धांत।
बड़ी किताब है,
बड़ी मेहनत
की है। और एक
ही सवाल पर
मेहनत की है —
व्हाट इज गुड?
शुभ क्या है,
अच्छाई
क्या है, भलाई
क्या है न:
और
इस बड़े ग्रंथ
में इतना श्रम
किया है कि
मैं मानता हूं
कि किसी दूसरे
आदमी ने
मनुष्य जाति के
पूरे इतिहास
में किसी
प्रश्न पर
इतना श्रम नहीं
किया है। और
इतनी मेहनत के
बाद यह
तर्कशास्त्री, आक्सफोर्ड
युनिवर्सिटी
का सबसे
ज्यादा विचारशील
व्यक्ति, इतनी
बड़ी किताब को,
वर्षों की
मेहनत के बाद —
एक—एक इंच
सरककर किताब
लिखी गई है, और एक—एक
शब्द तौलकर
लिखा गया है —
आखिर के नतीजे
में कहता है, गुड इज
इनडिफाइनेबल।
वह जो शुभ है, उसकी कोई
व्याख्या
नहीं हो सकती।
और आखिर में
कहता है कि
शुभ ऐसा ही है,
जैसा कि कोई
मुझसे पूछे, व्हाट इज
यलो — पीला रंग
क्या है? तो
मैं क्या कहूं?
पीला रंग
पीला है, यलो
इज यलो! और
क्या कहिएगा?
कि पीला रंग
पीला है।
लेकिन
यह कोई कहना
हुआ! यह तो
हमें भी पता
है कि पीला
रंग पीला है।
हम यह पूछते
हैं कि पीला
रंग है क्या? आप क्या
करोगे? तोड़कर
ले आना एक फूल।
कहना कि यह है।
लेकिन वह
जी.ई.मूर कहता
है कि यह पीला
फूल है, पीला
रंग नहीं। एक
पीली दीवार है
रंगी हुई।
लेकिन वह पीली
दीवार है, पीला
रंग नहीं। एक
पीला कपड़ा है।
लेकिन वह पीला
कपड़ा है, पीला
रंग नहीं है।
हम यह पूछते
हैं कि पीले
फूल में, पीले
कपड़े में, पीली
दीवार में जो
पीलापन है, वह क्या है —
व्हाट इज
यलोनेस? आप
क्या कहिएगा?
आप कहेंगे
कि यह रही, इससे
ज्यादा और
बकवास न करो।
मूर
भी यही कहता
है। मूर भी
यही कहता है
इतनी मेहनत के
बाद कि ज्यादा
से ज्यादा हम
कह सकते हैं
कि दिस इज
यलोनेस। हम
इशारा कर सकते
हैं, व्याख्या
नहीं कर सकते।
क्या
व्याख्या
करिएगा? अगर
पीले रंग की
व्याख्या
नहीं हो सकती तो
परमात्मा की
करिएगा? कोई
जी.ई.मूर से
जाकर कहे — अब
तो वह मर गया
बेचारा, जिंदा
होता तो मैं
सोचता था उससे
कहूं; या
फिर कभी आगे
यात्रा में
मिल जाए, तो
उससे कहूं — कि
जब पीले रंग
को भी तुम
पाते हो कि
उसकी व्याख्या
नहीं हो सकती,
तो
परमात्मा की
व्याख्या हो
सकेगी रा
जीवन
के क्षुद्रतम
तथ्य भी
अव्याख्य हैं।
जब मैं कहता
हूं जीवन
अतर्क्य है, तब मैं कह
रहा हूं कि
जीवन
अव्याख्य, इनडिफाइनेबल
है। आप उसकी
व्याख्या
नहीं कर सकते।
जी सकते हैं, कह नहीं
सकते, क्या
है। और जब भी
कहने जाएंगे,
तो ऐसी ही
गलती हो जाएगी,
जैसी इस सूत्र
का ऋषि कहकर
पड़ गया गलती
में। कहता है,
पूर्ण से
पूर्ण निकल
आता है, पीछे
पूर्ण शेष रह
जाता है। यह
तो पहेली हुई।
यह
तो पहेली ऐसी
हुई, जैसा
कि एक झेन
फकीर था
रिंझाई। और ये
फकीरों को बड़ा
मजा आता है
पहेलियां खड़ी करने
में। क्योंकि
उनसे इशारे
किए जा सकते
हैं। जब भी
कोई उसके पास
आता सत्य की
खोज करने, तो
वह कहता, सत्य
पीछे खोज लेना।
मैं जरा एक
मुश्किल में
पड़ा हूं। पहले
वह तुम मेरी
हल कर दो। तो
कोई भी पूछता
कि क्या
मुश्किल है? जो सत्य
खोजने आया था,
वह भी यह
भूल जाता कि
मैं सत्य
खोजने आया हूं
मैं दूसरे की
मुश्किल क्या
हल करूंगा!
लेकिन जब
रिंझाई कहता
कि तुम जरा
पीछे पूछ लेना,
मेरी जरा एक
मुसीबत है, वह तुम हल कर
दो। तो वह भी
आदमी पूछता कि
आपकी क्या
मुश्किल है?
शिष्य
बनने आया आदमी
भी गुरु बनने
की कोशिश करता
है। वह भूल ही
गया कि हम
पूछने आए थे।
कहना था कि हम
पूछने आए हैं, हम
तुम्हारी
मुश्किल क्या
हल करेंगे!
हम
खुद मुसीबत
में पड़े हैं।
लेकिन रिंझाई
ने लिखा है कि
जिंदगी में
हजारों लोगों
से मैंने यह
कहा और हर बार
यही हुआ कि उस
आदमी ने पूछा, कौन सी
मुश्किल है, बोलिए? कि
यह आदमी खोजने
मेरे पास आया।
पर उसने तरकीब
बना रखी थी। मुश्किल
ऐसी थी कि वह
हल होने वाली
नहीं थी।
असल
में तो सभी
मुश्किलें
ऐसी हैं कि हल
होने वाली
नहीं हैं। कोई
मुश्किल हल
होने वाली
नहीं है।
क्योंकि
मुश्किल कोई
आदमी की बनाई
हुई नहीं है, एक्सिस्टेंशियल
है, अस्तित्व
में है। आदमी
की बनाई हुई
हो, तो हम
हल कर लें। पहेलियां
आदमी की बनाई
हुई हों, तो
हम हल कर लें।
बच्चों
की किताब होती
है गणित की, तो ऊपर
सवाल लिखा
रहता है, पन्ना
उलटाकर पीछे
जवाब लिखा
रहता है।
जिंदगी में
ऐसा कहीं
किताब उलटाने
का उपाय नहीं
कि उलटा लो
जिंदगी की
किताब, पीछे
देख लो कि
उत्तर क्या है।
इसीलिए तो
जिंदगी में
नकल नहीं चलती।
जिंदगी में
नकल का कोई
उपाय नहीं है।
करिएगा कहां?
किसकी नकल
करिएगा? और
उलटाकर देखने
की कोई स्थिति
नहीं है कि
जिंदगी की
किताब को उलटा
लो और देख लो
कि उत्तर क्या
है! प्रश्न ही
हैं, उत्तर
कुछ है नहीं।
उसने
एक सवाल बना
रखा था। वह
कहता कि सुनो, मेरी
तकलीफ हल कर
दो, तो मैं
तुम्हारी कर
दूंगा। आदमी
आश्वस्त होता
कि चलो ठीक है,
एक आदमी तो
मिला, जो
कहता है, मैं
तुम्हारी हल
कर दूंगा।
लेकिन उसे पता
नहीं कि वह एक
बड़ी कंडीशन
साथ में रख
रहा है कि
पहले तुम मेरी
तकलीफ हल कर
दो, तो मैं
तुम्हारी कर
दूंगा।
तकलीफ
यह थी, रिंझाई
कहता है कि
मैंने एक बोतल
में एक मुर्गी
का अंडा रख
दिया था। अंडा
फूट गया।
मुर्गी बड़ी
होने लगी। मैं
उसको बोतल के
मुंह से खाना
खिलाता रहा।
अब मुर्गी
बहुत बड़ी हो
गई है। बोतल
का मुंह छोटा
है। मुर्गी को
बाहर निकालना
है और बोतल को
तोड़ना नहीं है।
कुछ रास्ता
बताओ। बोतल
तोड़नी नहीं है,
बोतल कीमती
है। और मुर्गी
बड़ी हो गई है, फंस गई है
बोतल में
बिलकुल। और
मुंह बड़ा छोटा
है। मुंह से
निकल नहीं
सकती, ध्यान
रखना। मुंह
बहुत छोटा है।
वह हम सब
कोशिश कर चुके,
इसलिए यह मत
कहना कि मुंह
से निकाल लो।
मुंह से
निकलती नहीं
है, बोतल
तोड़नी नहीं है।
और मुर्गी अगर
ज्यादा देर रह
गई तो मर
जाएगी, जिम्मेदार
तुम रहोगे। है
कोई उत्तर? वह आदमी
कहता कि आप
कैसी बातें कर
रहे हैं!
अगर
कोई आदमी कहता
कि मैं कोशिश
करूंगा, सोचता हूं
विचारता हूं
तो रिंझाई
कहता कि बगल के
कमरे में चले
जाओ। ध्यान
करो — मेडीटेट।
मुर्गी बंद है,
जान संकट
में है, देर
मत लगाना।
ध्यान तेजी से
करना, गहरा
करना।
क्योंकि जान
संकट में है, मुर्गी किसी
भी क्षण मर
सकती है। मुंह
छोटा है, बोतल
तोड़नी नहीं
है! ध्यान करो।
कमरे
के उस तरफ भी
उसने एक
दरवाजा रख छोड़ा
था। जब आधा
घंटे बाद वह
दरवाजा खोलता, तो दूसरे
दरवाजे से
आदमी भाग गया
होता। उनकी भी
मजबूरी है।
लौटकर रिंझाई
दूसरों से
कहता, दि
गज इज आउट।
मुर्गी भाग गई।
मुर्गी बोतल
के बाहर निकल
गई। बोतल खाली
पड़ी है।
सिर्फ
एक आदमी ने
रिंझाई को एक
दफा उत्तर
दिया। लेकिन
वह आदमी वह
नहीं था, जो रिंझाई
से कुछ पूछने
आया हो। एक
दिन सुबह एक
आदमी आकर बैठ
गया रिंझाई के
पास। रिंझाई
ने कहा, कुछ
पूछना है? उस
आदमी ने कहा
कि तुम्हें
कुछ बताना है?
रिंझाई
थोड़ा डरा।
उसने कहा, हमें
कुछ नहीं
पूछना। हम तो
उस आदमी की
तलाश में हैं,
जो कोई कुछ
बताने को
उत्सुक हो तो
बता दे।
रिंझाई डरा, यह आदमी
खतरनाक है। या
तो मुर्गी मार
डालेगा या
बोतल तोड़ देगा।
फिर भी कोई
उपाय न था।
रिंझाई की
इतनी पुरानी
आदत थी कि
उसने कहा, नहीं,
कुछ बताना
नहीं है। हम
खुद एक मुसीबत
में हैं। उसने
कहा, बोलो!
कही अपनी कथा
उसने पूरी। जब
पूरी कह चुका,
तो उस आदमी
ने रिंझाई की
गर्दन पकड़ ली।
रिंझाई ने कहा
कि मुर्गी
मेरे भीतर
नहीं है, मुर्गी
बोतल के भीतर
है। उस आदमी
ने कहा, मैं
मुर्गी को
निकाले देता
हूं। उस आदमी
ने कहा, मुर्गी
बोतल के बाहर
है, बोलो!
रिंझाई ने कहा,
है।
जीवन
कोई पहेली
नहीं है। जो
उसे पहेली
बनाते हैं, वे ही
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
जिंदगी कोई
प्रश्न नहीं
है। जो प्रश्न
बनाते हैं, उन्हें
उत्तर खोजना
पड़ता है। सब
उत्तर उलझाते
चले जाते हैं।
जीवन
एक खुला रहस्य
है — ओपन
सीक्रेट।
ध्यान रहे, दोहरे
शब्द उपयोग
करता हूं ओपन
सीक्रेट —
खुला रहस्य।
जीवन बिलकुल
खुला है, आंख
के सामने है, चारों तरफ।
कहीं भी छिपा
नहीं है। कोई
पर्दा नहीं है।
फिर भी रहस्य
है।
रहस्य
और पहेली में
फर्क होता है।
पहेली का मतलब
होता है, जो खुल सकती
है। रहस्य का
मतलब होता है,
जो खुला हुआ
है और फिर भी —
फिर भी खुला
हुआ नहीं है।
रहस्य का मतलब
है, जो
बिलकुल खुला
हुआ है और फिर
भी इतना गहरा
है कि तुम
अनंत—अनंत
यात्रा करो, फिर भी
पाओगे कि सदा
शेष रह गया।
पूर्ण से
पूर्ण बाहर भी
निकल आए, तो
भी पीछे पूर्ण
शेष रह जाता
है। पूर्ण में
पूर्ण लीन भी
हो जाए, तो
भी, तो भी
पूर्ण उतना ही
रहता है, जितना
था।
इस
रहस्यमयता, इस
मिस्टीरियसनेस
की सूचना देने
वाला यह सूत्र
है। यह इशारा
है। यह इशारा
है इस बात का
कि जो इस
सूत्र को राजी
हो जाएगा, वह
जीवन में
प्रवेश कर
सकता है। जो
इस सूत्र को
कहेगा कि नहीं,
यह नहीं हो
सकता, वह
दरवाजे के
बाहर ही रह
जाएगा। वह
दरवाजे के
भीतर प्रवेश
नहीं कर सकता।
रहस्य
है जीवन।
रहस्य का मतलब
है तर्कातीत।
तर्क के नियम
आदमी ने अपनी
बुद्धि से
खोजे हैं।
तर्क के नियम
कहीं प्रकृति
में लिखे हुए
नहीं हैं।
प्रकृति तर्क
के नियम
सप्लाई नहीं
करती।
प्रकृति कोई
तर्क का नियम
नहीं देती।
तर्क के नियम
आदमी निर्मित
करता है।
कामचलाऊ हैं।
लेकिन भूल
जाते हैं हम
कि कामचलाऊ
हैं।
हमारे
सब नियम ऐसे
ही हैं, जैसे हमारे
खेल के नियम
होते हैं —
रूल्स आफ दि
गेम। शतरंज का
खेल है — घोड़ा
है, हाथी
है, सब हैं।
सबकी चालें
बंधी हैं।
भारी गंभीरता
से खिलाड़ी
खेलते हैं। सच
तो यh है कि
शतरंज के खेल
में जितने
गंभीर लोग
दिखाई पड़ते
हैं, उतने
शायद असली
जिंदगी में भी
दिखाई नहीं
पड़ते।
तलवारें खिंच
जाती हैं।
लकड़ी के घोड़े
बिछाए हुए हैं।
लकड़ी के हाथी
बनाए हुए हैं।
लकड़ी के
प्यादे, राजा
बनाए हुए हैं।
मगर जब खेल
में लीन होते
हैं, तो यह
बिलकुल भूल
जाते हैं कि
यह बच्चों का
काम कर रहे
हैं। कोई घोड़ा
नहीं है, कोई
हाथी नहीं है,
कोई राजा
नहीं है, कोई
प्यादा नहीं
है, सब
माना हुआ है।
सब अज़भ्यांस
हैं।
ठीक
जिंदगी के भी
सब तर्क के
नियम ऐसे ही
हैं। सब माने
हुए नियम हैं।
कोई नियम नहीं
है, जो
प्रकृति ने
हमें दिया है,
जो जीवन ने
हमें दिया है।
हमने थोपे हैं।
हमारे नियम
वैसे ही हैं, जैसे सड़क पर
चलने के, ट्रेफिक
के नियम होते
हैं। बाएं चलो,
कि दाएं चलो।
हिंदुस्तान
में लोग बाएं
चलते हैं, अमरीका
में लोग दाएं
चलते हैं।
उनका नियम है
कि दाएं चलो।
अमरीका में
बाएं चलो तो
पुलिस का आदमी
पकड़कर थाने ले
जाएगा। इधर
दाएं चले तो
पुलिस का आदमी
पकड़कर...। बड़े
अजीब लोग हैं।
लेकिन एक बात
पक्की है कि
कहीं न कहीं
चलना पड़ेगा, दाएं चलो कि
बाएं चलो। कोई
भी नियम बनाओ।
लेकिन एक नियम
बनाना पड़ेगा,
क्योंकि
रास्ते पर भीड़
है और चलना है।
धीरे— धीरे, बाएं चलते—चलते
ऐसा लगता है
कि बाएं चलने
में कोई
अल्टीमेटनेस,
कोई
आत्यतिकता है;
कि बाएं
चलने में कोई
बड़ी गहरी कोई
व्यवस्था है।
कोई व्यवस्था
नहीं है।
हमारी
व्यवस्था है।
झूमन
अरेंजमेंट है।
हमारे
सब तर्क के
नियम भी ऐसे
ही हैं। हमारी
व्यवस्था है।
काम चलाने के
लिए बिलकुल
जरूरी हैं, यूटिलिटेरियन
हैं। लेकिन
धीरे— धीरे हम
इतने फंस जाते
हैं उनमें कि
उनको पूरी
जिंदगी के
रहस्य पर
फैलाने की
कोशिश करते हैं।
कोशिश करते
हैं इस बात की
कि जिंदगी
हमारे नियम
मानकर चले। और
जिस दिन कोई
आदमी जिंदगी
को अपने नियम
मनवाने लगता है,
उसी दिन
पागल हो जाता
है। पागलपन का
एक ही लक्षण
है।
स्वस्थ
मनुष्य मैं
उसे कहता हूं
जो जिंदगी के रहस्य
को मानकर चलता
है। और पागल
आदमी उसको
कहता हूं जो
अपने नियमों को
जिंदगी पर
थोपने की
कोशिश कर रहा
है। फिर कठिनाई
खड़ी होनी शुरू
होती है। हमने
सब थोपे हुए
हैं हमारे
नियम। तर्क के
एक—दो नियमों
को हम समझ लें, तो इस
सूत्र को
समझने में
आसानी हो
जाएगी।
तर्क
के कुछ
बुनियादी
नियम हैं, जिसमें
एक नियम
उदाहरण के लिए।
तर्क का एक
बुनियादी
नियम है, अ
अ है और अ ब
नहीं हो सकता —
ए इज ए, ए
कैन नाट बी बी।
ठीक है।
बिलकुल ठीक है।
अ अ है, अ ब
नहीं हो सकता।
लेकिन जिंदगी
में ऐसी कोई
चीज नहीं है, जो अपने से
भिन्न में न
बदल जाती हो।
और जिंदगी में
ऐसी कोई चीज
नहीं है, जो
अपने से
विपरीत में भी
न बदल जाती हो।
जिंदगी में सब
चीजें
लिक्विड हैं,
फिक्क नहीं
हैं, सब
चीजें बदलती
हैं। रात दिन
बन जाती है, दिन रात हो
जाता है। बचपन
जवानी बन जाता
है, जवानी
बुढ़ापा हो
जाती है।
जिंदगी मौत बन
जाती है। जहर
अमृत हो जाता
है कभी। सब
औषधियां जहर
हैं। बीमार के
लिए अमृत बन
जाती हैं।
जिंदगी
में तरलता है, नियमों
में होती है
सख्ती।
क्योंकि नियम
जिंदा तो होते
नहीं। अगर एक..
इस कमरे में
हम इतने लोग
बैठे हैं। अगर
घंटेभर बाद
मैं आऊं और
मैं यह आशा
करूं कि आप
मुझे वहीं
बैठे मिलेंगे
जहां छोड़ गया
था, तो या
तो मैं पागल
हूं या आप
पागल होंगे।
अगर लौटकर मैं
आपको वहीं
बैठा पाऊं, तो कुछ गड़बड़
है। या तो
मुर्दा आदमी
बैठे होंगे।
जिंदा आदमी तो
बदल गए होंगे।
एक
गांव में ऐसी
एक बार दिक्कत
हो गई। एक
तर्कशास्त्री
— और तर्क शास्त्रियों
से जैसी
दिक्कतें
होती हैं उनके
हिसाब लगाने
बड़े मुश्किल
हैं — गया था
सुबह—सुबह नाई
की दुकान पर
बाल बनवाने।
बाल तो बनवा
लिए। रुपया
पूरा था। आठ
आने दाम होते
थे। नाई ने
कहा कि कल ले
जाना।
तर्कशास्त्री
ने सोचा कि कल!
अगर यह आदमी
बदल जाए, तो प्रमाण
क्या है? स्वभावत:
तर्कशास्त्री
प्रमाण...। अगर
यह आदमी कल
बदल जाए, तो
प्रमाण क्या
है? अगर यह
आदमी कल अपना
धंधा ही बदल
ले, समझ लो
कि मिठाई की
दुकान खोल ले,
नाईबाड़ा
बंद कर दे, तो
अगर मैं किसी
से कहूं भी कि
मैंने इस आदमी
से बाल बनवाए
थे, तो लोग
हंसेंगे, कहेंगे
कि यह मिठाई
वाला है! तो
कुछ ऐसी तरकीब
करूं कि यह
आदमी न बदल
पाए।
उसने
बहुत खोजबीन
की। देखा कि
एक भैंस
नाईबाड़े के
सामने बैठी है।
उसने कहा कि
ठीक है। भैंस
को समझाना
बहुत मुश्किल
है। भैंस काफी
थिर चीज है।
तर्क के
नियमों जैसी।
जमकर बैठती है।
सड़क के कानून
नहीं मानती, कोई नियम
नहीं मानती।
इसको नाई शायद
ही समझा पाए।
तर्कशास्त्री
नहीं समझा पाए,
तो नाई क्या
समझा पाएगा!
ठीक, पक्का
निशान लगाकर
कि भैंस सामने
बैठी है, चला
गया।
दूसरे
दिन आया। देखा, अपनी
भैंस खोजी, भैंस बैठी
थी। सामने
देखा, बोला
कि हो गई वही
शरारत, जो
होनी थी।
सामने मिठाई
की दुकान थी।
दौड़कर मिठाई
वाले की गर्दन
पकड़ ली और कहा
कि मुझे कल ही
शक हो गया था, इसलिए
इंतजाम मैं
पक्का करके
गया था। हद कर
दी तूने भी, आठ आने के
पीछे जाति तक
बदल डाली!
तर्कशास्त्री
को पता नहीं
कि भैंस तर्क
के नियम नहीं
मानती, फिक्स नहीं
है, रातभर
में चल गई, मिठाई
वाले के सामने
बैठ गई। भैंस
को क्या पता?
तर्क
के नियम तो
मुर्दा हैं।
मरे हुए हैं।
जिंदगी जीवंत
धारा है। जो
उनको, तर्क
के नियमों को,
ऊपर बिछाकर
जिंदगी को
पकड़ने की
कोशिश करता है,
उसके हाथ
में मरी हुई
चीजें आती हैं।
गलत चीजें आ
जाती हैं।
नहीं, तर्क के
जाल को तोड़कर
जो जिंदगी में
कूदता है, वही
जिंदगी के
रहस्य को जान
पाता है, नहीं
तो नहीं जान
पाता। इसलिए
यह सूत्र कहता
है, तर्क
के सब जाल तोड़
दो। यह सूत्र
का इशारा मैं
कह रहा हूं —
अभिप्राय —
अर्थ नहीं कह
रहा हूं। अर्थ
तो मैंने आपसे
कहा।
अभिप्राय है
कि तर्क के सब
नियम तोड़ दो।
तर्क के नियम
मानना हो, तो
जिंदगी में
जाना मुश्किल
होगा।
प्लेटो, यूनान का
बहुत बड़ा
तर्कशास्त्री
हुआ। कहना
चाहिए पिता।
बड़ी एकेडेमी
थी उसकी, जहां
वह लोगों को
तर्क सिखाता
था। डायोजनीज
नाम का एक
फकीर — बहुत
मस्त फकीर, कम ही लोग..
महावीर जैसा
आदमी, नग्न
ही रहता था — वह
भी एक दिन
घूमता हुआ
एकेडेमी में
पहुंच गया।
वहां क्लास
चलती थी।
प्लेटो समझा
रहा था।
प्लेटो बड़ा
तर्कशास्त्री
था।
हमारे
मुल्क में
प्लेटो के लिए
जो नाम प्रचलित
है, वह
है अफलातून।
इसलिए अगर कोई
आदमी बहुत
तर्क—वर्क की
बात करने लगे,
तो लोग कहते
हैं कि बड़े
अफलातून हो गए।
अफलातून
प्लेटो का नाम
है। प्लेल से
अफलातून बन
गया। बड़े
अफलातून हो गए
आप। प्लेटो
इतना बड़ा
तार्किक था कि
अगर कोई भी तर्क
करे — गांव में
भी — तो लोग कह
देते हैं कि
बड़े अफलातून
हो गए हो। उसे
भी पता नहीं
कि अफलातून
किसका नाम है।
वह तो एथेंस
में हुआ है, ढाई हजार
साल पहले।
डायोजनीज
पहुंच गया एक
दिन घूमता हुआ
प्लेटो की
एकेडेमी में, जहां वह
तर्कशास्त्र
पढ़ाता था। वह
पढ़ा रहा था।
एक
विद्यार्थी
ने खड़े होकर
पूछा —
डायोजनीज
पीछे खड़ा सुन
रहा था — एक
विद्यार्थी
ने खड़े होकर
पूछा कि आदमी
की परिभाषा
क्या है? हाऊ
यू डिफाइन मैन?
आदमी की
क्या
व्याख्या
करते हैं? तो
प्लेटो ने कहा
कि आदमी बिना
पंखों वाला दो
पैर का जानवर
है, टू
लेग्ड एनिमल
विदाउट
फीदर्स।
व्याख्या तो
हो गई। पंख
नहीं हैं, दो
पैर वाला
जानवर है, बिना
पंख के।
डायोजनीज
खिलखिलाकर
हंसा। प्लेटो
ने पूछा कि आप
क्यों हंस रहे
हैं? उसने
कहा कि मैं
अभी तो इस
परिभाषा का
उत्तर भेजता
हूं। वह बाहर
गया। उसने एक
मुर्गे को
पकड़ा। उसके
सारे पंख
नोचकर अलग
फेंक दिए।
मुर्गे को भेज
दिया और कहा
कि दिस इज योर
डेफिनीशन आफ
मैन — टु लेग्ड
एनिमल विदाउट
फीदर्स। पंख
नहीं हैं, दो
पैर का जानवर
है। प्लेटो से
कहा उसने, परिभाषा
फिर बदलो। और
जब तुम दूसरी
परिभाषा बनाओ
तो मुझे भेज
देना। मैं
दूसरी
परिभाषा का
उत्तर
भेजूंगा। तुम
परिभाषा बनाओ
मैं उत्तर
भेजूंगा।
कहते
हैं, प्लेटो
ने फिर
परिभाषा नहीं
बनाई। यह झंझट
का आदमी, मुर्गे
के पंख तोड़कर
भेज दिए, और
पता नहीं क्या
करे! डायोजनीज
कई बार उसके दरवाजे
पर दस्तक देता
था कि प्लेटो,
कोई
परिभाषा बनी?
प्लेटो
कहता, भई!
अभी नहीं बना
पाया। आखिर एक
दिन प्लेटो
घबरा गया और
डायोजनीज से कहा
कि मुझे माफ
करो, गलती
हो गई कि
मैंने वह
परिभाषा की।
तुम कब तक
मेरा पीछा
करोगे!
डायोजनीज
ने कहा, मैं यही
सुनना चाहता
था कि माफी
मांग लो। आदमी
की क्या, पत्थर
के टुकड़े की
भी परिभाषा
नहीं हो सकती,
इनडिफाइनेबल।
जीवन
अव्याख्य है।
इसमें किसी
चीज की कोई
व्याख्या
नहीं हो सकती।
इतना तुम
स्वीकार कर लो,
मैं जाऊं।
नाहक मुझे भी
परेशान होना
पड़ रहा है
तुम्हारी
व्याख्या की
वजह से।
तर्क
के नियम तो
होते हैं थिर, फिक्स्ड।
जीवन होता है
तरल, बहता
हुआ। एक तरंग
दूसरी तरंग
में बदल जाती
है। जब तक तुम
व्याख्या करो,
तब तक कुछ
और हो गया।
जिस आदमी को
तुमने क्रोधी
कहा, जब तक
तुमने क्रोधी
कहा, वह
क्षमा कर रहा
है। फिर क्या
करोगे? सच
तो यह है कि जब
तक तुमने कहा,
यह आदमी
क्रोधी है, तब तक क्रोध
जा चुका होगा।
इस जिंदगी में
टिकता क्या है? तब तक क्रोध
उतार पर होगा।
तुम्हारी
व्याख्या गलत
हो जाएगी।
व्याख्या
सब अतीत की
होती है और
जिंदगी सदा वर्तमान
है। जिंदगी
सदा बदल जाती है।
सदा बदल जाती
है। प्रतिपल
बदल रहा है सब।
और
व्याख्याएं
तो ठहर जाती
हैं जमकर।
व्याख्याओं
में कोई ग्रोथ
तो होती नहीं, कोई
बदलाहट तो
होती नहीं।
व्याख्याएं
तो ऐसी हैं, जैसे हम
फोटोग्राफ ले
लेते हैं।
मेरा किसी ने
फोटोग्राफ ले
लिया, तो
व्याख्या
फोटोग्राफ
जैसी चीज है।
मैं तो का
होता जाऊंगा,
फोटोग्राफ
वैसा का वैसा
ही बना रहेगा।
जिंदगी तो
जिंदा आदमी
जैसी है, बदलती
जाएगी। और
व्याख्या
पकड़कर जकड़ बन
जाती है। वह
रुक जाती है।
यह
सूत्र कहता है, नहीं कोई
व्याख्या है
जीवन की, नहीं
कोई तर्क है
जीवन का। जीवन
एक रहस्य है।
तर्तूलियन
एक ईसाई फकीर
हुआ। तो किसी
ने तर्तूलियन
को पूछा कि
तुम ईश्वर को
क्यों मानते
हो? तुम्हारा
कारण क्या है?
तर्तूलियन
ने कहा, कारण!
जब मैंने
जिंदगी में
देखा कि कोई
कारण किसी चीज
के लिए नहीं
है, तब
मैंने सोचा कि
ईश्वर को
मानने में अब
कोई हर्जा
नहीं रहा।
अकारण जब
जिंदगी है
पूरी, तो
ईश्वर को भी
अकारण माना जा
सकता है। और
अगर तुम नहीं
मानते, पूछते
ही हो मुझसे, तो मैं
ईश्वर को
इसलिए मानता
हूं कि ईश्वर
बिलकुल
तर्कशून्य है,
एब्सर्ड है।
जो शब्द उसने
उपयोग किया।
उसने कहा कि
ईश्वर बिलकुल
एब्सर्ड है, इसलिए मैं
भरोसा करता
हूं कि वह ठीक
होगा।
क्योंकि
मैंने सब नियम
देखे छान—बीनकर,
गलत पाए। सब
तर्क के मैंने
हिसाब देखे, गलत पाए।
जितनी
व्याख्याएं
खोजीं, गलत
पाईं। जिन—जिन
बातों को
मैंने बुद्धि
से समझा, ठीक
हैं, आखिर
में गलत
निकलीं। अब
मैंने बुद्धि
छोड़ दी। अब
मैं
निर्बुद्धि
होकर मानता
हूं।
श्रद्धा
का यही अर्थ
है। यह सूत्र
श्रद्धा का
सूत्र है, श्रद्धा
का, फेथ का।
श्रद्धा का
अर्थ है, जंपिंग
इनटु दि अननोन।
श्रद्धा का
अर्थ है, अज्ञात
में छलांग।
श्रद्धा का
अर्थ है, समस्त
नियमों, समस्त
व्याख्याओं, समस्त
परिभाषाओं को,
समस्त
गणनाओं को
छोड्कर अमाप
में, इम्मेजरेबल
में, असीम
में छलांग।
बुद्धि को
छोड्कर
निर्बुद्धि
में छलांग।
ध्यान
रहे, जीवन
का सत्य
जिन्होंने
बुद्धि से
खोजा, वे
तो हैं
फिलासफर्स, दार्शनिक।
वे कुछ नहीं
खोज पाए आज तक।
हजारों
किताबें लिखी
हैं
दार्शनिकों
ने, कोरे
शब्दों का जाल।
कुशल हैं वे
शब्दों में।
वे जाल भी
फैलाते हैं
कुशलता से। वे
जाल इतना बड़ा
फैलाते हैं कि
आपको मुश्किल हो
जाता है उसके
बाहर निकलना।
लेकिन कुछ भी
उन्हें पता
नहीं है — कुछ
भी उन्हें पता
नहीं है।
जिन्होंने
जीवन के सत्य
को जाना, वे दूसरे
लोग हैं — वे
हैं संत, वे
हैं ऋषि। वे
वे लोग हैं, जिन्होंने
कहा कि शब्द
में हम नहीं
उतरते, हम
तो अस्तित्व
में ही उतरते
हैं। क्यों हम
जाएं पता
लगाने कि गंगा
क्या है? जब
गंगा बह रही
है, तो हम
गंगा में ही
क्यों न डूबकर
देख लें कि गंगा
क्या है? शास्त्र
में लिखा होगा
कि गंगा क्या
है। ग्रंथालय
में किताबें
रखी होंगी, जिनमें लिखा
होगा कि गंगा
क्या है।
लेकिन हम गंगा
को ग्रंथालय
में खोजने
क्यों जाएं? जब गंगा ही
मौजूद है, तो
हम गंगा में
ही उतरकर
स्नान क्यों न
कर लें! हम
गंगा को गंगा
में ही क्यों
न जान लें!
दो
रास्ते हैं
जानने के। अगर
मुझे प्रेम के
संबंध में
जानना हो, तो मैं
पुस्तकालय
में भी जा
सकता हूं।
वहां प्रेम के
संबंध में
बहुत कुछ लिखा
हुआ रखा है।
वह सब मैं जान
ले सकता हूं।
एक रास्ता और
है कि मैं
प्रेम में ही
उतरूं।
निश्चित ही
पहला रास्ता
सुगम है।
इसलिए कमजोर
लोग
पुस्तकालय का
रास्ता पकड़ लेते
हैं। सुगम है।
किताब में
प्रेम को पढ़ना,
कोई बड़ी
कठिन बात है? बच्चे भी पढ़
सकते हैं।
लेकिन प्रेम
को जानना तो
बड़ी आग से
गुजरना है —
बड़ी
तपश्चर्या से,
बड़ी अग्नि—परीक्षा
से।
पर
प्रेम को
जानना एक बात
है और प्रेम
के संबंध में
जानना बिलकुल
दूसरी बात है।
दोनों का कोई
संबंध नहीं है।
प्रेम को
जानना एक बात
है, प्रेम
के संबंध में
जानना बिलकुल
दूसरी बात है।
सत्य को जानना
एक बात है, सत्य
के संबंध में
जानना बिलकुल
दूसरी बात है।
सत्य के संबंध
में जो भी
जाना जाता है,
सब उधार, सब बासा है।
सत्य को जानना
एक और ही बात
है। सत्य को
जिन्हें
जानना है, उन्हें
अपनी बुद्धि
से छलांग
लगानी पड़ेगी।
एक
मित्र दो दिन
पहले मेरे पास
आए। उन्होंने
कहा कि मैं जो
भी — जो भी चीज
सुनता हूं उस
पर ही मुझे शक
होता है, संदेह होता
है। आप भी जो
कहते हैं, मुझे
संदेह होता है।
आप आगे भी जो
कहेंगे, मैं
अभी से कह
देता हूं कि
मुझे उस पर
संदेह होगा।
फिर भी मैं
कुछ प्रश्न
लाया हुआ हूं
इनके आप उत्तर
दें।
मैंने
कहा कि फिर
उत्तर लेकर
क्या करोगे? क्योंकि
तुम कहते हो
कि जो भी मैं
कहूंगा, उस
पर तुम्हें
संदेह होगा।
तुम अपने
संदेह से
रत्तीभर
हिलोगे नहीं,
तो मुझे
क्यों परेशान
करते हो? तुम
अपने संदेह
में जीयो।
मुझसे पूछने
क्यों आए हो? अगर संदेह
ही करना है, तो किसी से
पूछने मत जाओ।
क्योंकि
दूसरे से
पूछोगे, तो
दूसरा अपना
जानना कहेगा,
वह
तुम्हारा
जानना बन नहीं
सकता, उस
पर तुम्हें
संदेह होगा।
तुम मुझसे
पूछने क्यों
आए हो? जिंदगी
चारों तरफ
फैली है — फूल
खिले हैं, पक्षी
नाच रहे हैं, आकाश में
बादल उड़ रहे
हैं, सूरज
निकला है, तुम्हारे
भीतर प्राण
धड़क रहे हैं —
बाहर जीवन का
अनंत विस्तार
है। कूदो, जाओ,
वहां जानो।
मुझसे पूछने
क्यों आए हो? और जब तुम
कहते हो कि
पूछकर भी
संदेह तो मैं
करूंगा ही, तो पूछना
व्यर्थ है।
और
एक बात कहना
चाहूं उनसे कि
संदेह करते
रहोगे, बहुत अच्छा
है। लेकिन वह
दिन कब आएगा, जब अपने
संदेह पर
संदेह करोगे g:
जब यह संदेह
आएगा कि यह
संदेह कहीं ले
जाएगा कि नहीं?
जिस आदमी को
संदेह ही करना
है, तो फिर
पूरा कर ले —
देन डाउट दि
डाउट इटसेल्फ।
तब आखिर में
अपने संदेह पर
भी संदेह करो
कि यह जो मैं
संदेह कर रहा
हूं इससे कुछ
मिलेगा? छोड़ो,
मिलेगा कि
नहीं। इतने
दिन संदेह
किया है, कुछ
मिला? अगर
इतने दिन
संदेह करके
कुछ नहीं मिला
और संदेह पर
संदेह पैदा
नहीं होता, तो फिर
संदेह पूरा
नहीं कर रहे
हो।
और
ध्यान रहे, श्रद्धा
दो तरह से आती
है। या तो
संदेह ही मत
करो, जो कि
अति कठिन है।
या फिर संदेह
पर भी संदेह
करो। दो ही
रास्ते हैं।
या तो संदेह
ही मत करो, कूद
आओ। और या फिर
संदेह ही करते
हो, तो
गहरा संदेह
करो कि संदेह
पर भी संदेह आ
जाए। संदेह
संदेह को काट
दे और तुम
संदेह से खाली
हो जाओ। लेकिन
किसी भी तरह— चाहे कोई
संदेह न करके,
या कोई
संदेह बहुत
करके — जिस दिन
भी संदेह के
बाहर जाता है,
उसी दिन
बुद्धि के
बाहर जाता है।
बुद्धि संदेह
का सूत्र है।
ऐसा
नहीं है कि
आपकी बुद्धि
संदेह करती है।
बल्कि ऐसा है
कि आपकी
बुद्धि संदेह
है। इट इज नाट
दैट योर
इंटलेक्ट
डाउट्स, योर
इंटलेक्ट इज
दि डाउट। वह
बुद्धि ही
संदेह है।
जो
सरल हों, वे इस सूत्र
को समझकर
संदेह न करें।
जो जटिल हों, वे इस सूत्र
को समझकर पूरा
संदेह करें —
टोटल डाउट।
दोनों
स्थितियों
में श्रद्धा
उपलब्ध हो जाएगी।
दोनों
स्थितियों
में छलांग लग
जाएगी और फेथ,
श्रद्धा का
जन्म हो जाएगा।
यह
सूत्र
श्रद्धा का
सूत्र है। इसे
वे समझेंगे, जो
श्रद्धा को
समझेंगे। जो
तर्क को
समझेंगे, वे
नहीं समझ
पाएंगे, क्योंकि
तर्क तो इसमें
कहीं बैठेगा
नहीं। पूर्ण
से पूर्ण निकल
आता है, पीछे
पूर्ण बच जाता
है! यह नहीं हो
सकता। यह कैसे
होगा? तर्क
नहीं मानेगा
कि यह हो सकता
है। हां, श्रद्धा
मान लेगी।
पर
श्रद्धा बड़ी
सरलता है।
श्रद्धा अति
सरलता है।
श्रद्धा
ट्रस्ट है, अस्तित्व
के ऊपर भरोसा
है। कि जिस
अस्तित्व ने
मुझे जन्म
दिया, जिस
अस्तित्व ने
मुझे बड़ा किया,
जिस
अस्तित्व ने
मुझे शक्ति दी,
सोच—विचार
दिया, प्रेम
दिया, हृदय
दिया; जिस
अस्तित्व ने
मुझे इतना
दिया, उस
अस्तित्व पर
थोड़ा भरोसा
मैं भी दे
सकता हूं या
नहीं! जिस
अस्तित्व ने
मुझे जीवन
दिया, उसको
मैं श्रद्धा
भी नहीं दे
सकता?
जिसने मुझे
प्राण दिए, जिसने मुझे
होश दिया, जिसने
मुझे चेतना दी,
उसको मैं
थोड़ा सा
मैत्रीपूर्ण
भरोसा भी नहीं
दे सकता? एक
फ्रेंडली
ट्रस्ट भी
नहीं दे सकता?
तो फिर
कृतध्नता की
सीमा आ गई। तो
फिर
अनग्रेटफुलनेस
की सीमा आ गई।
फिर अकृतज्ञ
होने की हद हो
गई।
यह
सूत्र पढ़कर
जिसको यह खयाल
न आए कि यह
श्रद्धा की
मांग करता है, इशारा
करता है कि
श्रद्धा से ही
वह जीवन का अनंत
द्वार खुलेगा,
श्रद्धा से
ही उस जीवन के
शिखर पर
पहुंचना होगा।
यह इसका
अभिप्राय है।
इसका अंतिम
सूत्र
अभिप्राय का।
क्यों, पूर्ण की
क्यों बात? शुरू में
पूर्ण की बात,
अंत में
पूर्ण की बात,
पूर्ण की यह
बात क्यों? जिंदगी में
तो सब अपूर्ण
मालूम पड़ता है,
सब अपूर्ण।
अच्छा होता कि
अपूर्ण की बात
करते, तो
वह तथ्य होता —
रिअलिस्ट, यथार्थवादी
होता। जीवन
में तो कहीं
कुछ पूर्ण
मिलता नहीं। न
कोई व्यक्ति
पूर्ण दिखाई
पड़ता है, न
कोई प्रेम
पूर्ण दिखाई
पड़ता है, न
कोई शक्ति
पूर्ण दिखाई
पड़ती है, न
कोई आकार
पूर्ण दिखाई
पड़ता है। जीवन
में तो सब
अपूर्ण है। और
ईशावास्य के
ऋषि को क्या
सूझा कि पूर्ण
से चर्चा शुरू
करता है और
पूर्ण पर ही
चर्चा पूरी
करता है!
इसलिए जो
यथार्थवादी
हैं, वे
कहेंगे, अनरियलिस्टिक,
यह कोई यथार्थवादी
बात नहीं है।
यह काल्पनिक
आदर्श में, आकाश में
उड़ने वाले
लोगों की
बातें हैं।
कहां है पूर्ण?
नहीं, लेकिन यह
इशारा है। यह
इशारा इस बात
का है कि जहा
भी आपको
अपूर्ण दिखाई
पड़ता हो, अपूर्णता
आपकी दृष्टि
में होगी, अपूर्ण
कहीं भी नहीं
है। अपूर्ण
कहीं है ही नहीं।
और अपूर्ण
हमें सब जगह
दिखाई पड़ता है।
अपूर्णता
हमारी दृष्टि
में है।
हमारी
हालत ऐसी है, जैसे कोई
आकाश को एक
खिड़की से देखे,
अपने घर की
खिड़की से। हम
सभी देखते हैं।
घर की खिड़की
से कोई आकाश
को देखे, तो
आकाश भी खिड़की
के आकार में
कटा हुआ मालूम
होगा।
स्वभावत:, खिड़की
का ढांचा आकाश
का ढांचा हो
जाएगा।
स्वभावत:, खिड़की
की सीमा आकाश
की सीमा बन
जाएगी। और अगर
किसी ने खिड़की
के बाहर
निकलकर, द्वार—दरवाजे
के बाहर
निकलकर कभी
खुले आकाश को
न देखा हो, तो
अगर वह यह कहे
कि आकाश चौखटा
है, तो कुछ
गलती है? कोई
गलती तो नहीं
है। सदा आकाश
चौखटा दिखाई
पड़ा है। अपनी
खिड़की से देखा
तभी चौखटे में
कसा हुआ दिखाई
पड़ा।
लेकिन
यह खयाल आपको
आना मुश्किल
होगा कि आकाश पर
कोई चौखटा
नहीं है।
चौखटा आपकी
खिड़की पर है।
आकाश के ऊपर
कोई फ्रेम
नहीं है।
फ्रेम आपका
दिया हुआ है।
आकाश तो
बिलकुल
निराकार है।
लेकिन
नहीं, मकान
के बाहर जाकर
भी आकाश
निराकार कहां
दिखाई पड़ता
है! चौखटा जरा
बड़ा हो जाता
है, पूरी
पृथ्वी का हो
जाता है। घर
के बाहर भी
निकलकर आकाश
निराकार नहीं
दिखाई पड़ता।
सिर्फ चौखटा
बड़ा हो जाता
है, पृथ्वी
का हो जाता है,
इसलिए आकाश
चारों तरफ
पृथ्वी को
घेरे हुए गोल दिखाई
पड़ता है —
गुंबज की
भांति।
मंदिरों
के गुंबज उसी
आधार पर बनाए
गए हैं। फिर
चौखटा। अब भी
आप खिड़की के
भीतर खड़े हैं।
खिड़की बड़ी हो
गई, पृथ्वी
की हो गई।
जाएं, बढ़े
आगे, आकाश
कहीं पृथ्वी
को छूता नहीं।
घूमें पूरी
पृथ्वी के
चारों ओर, आकाश
कहीं पृथ्वी
को छूता नहीं।
कहीं कोई गोल
चौखटा नहीं है।
कोई क्षितिज,
कोई
हॉराइजन है
नहीं।
हॉराइजन
बिलकुल वैसा
ही झूठ है, जैसे
कि आपकी खिड़की
का चौखटा आकाश
का चौखटा नहीं
है, झूठ है।
पर
छोड़े पृथ्वी
को भी।
अंतरिक्ष यान
में ऊपर उठ
जाएं। तब भी
जो आप देखेंगे, वह भी एक
स्थिति का
दर्शन होगा —
फ्राम ए स्टेट।
एक जगह से
देखेंगे आप।
वह जगह ही
उसकी सीमा बन
जाएगी। वह जगह
कितनी ही बड़ी
हो, वह जगह
उसकी सीमा बन
जाएगी।
फिर
कहां जाएं, जहां से
निराकार का
दर्शन हो, पूर्ण
का दर्शन हो?
उपनिषद
के ऋषि कहते
हैं, एक
ही जगह है, वह
अपने भीतर, जहां कोई
खिड़की नहीं है,
जहां कोई
चौखटा नहीं है।
छोड़े सब
इंद्रियों को,
क्योंकि
जहां
इंद्रियां
रहेंगी, वहां
चौखटा रहेगा।
क्योंकि
इंद्रियां
चौखटा
निर्मित करती
है।
इंद्रियां
खिड़कियां हैं।
उन खिड़कियों
से हम देखेंगे
कहीं भी, खिड़की
कितनी ही बड़ी
कर लो, आंख
के ऊपर चश्मा
लगा लो, चश्मे
के ऊपर दूरबीन
लगा लो, सब
कुछ करो, लेकिन
खिड़की बड़ी
होती जाती, खिड़की
समाप्त नहीं
होती। लेकिन आंख
बंद कर लो।
भीतर चले जाओ।
आंख को छोड़ो, रहित हो जाओ
ऑख के। कान को
छोड़ो, रहित
हो जाओ कान के।
छोड़ो हाथ—पैर
को, रहित
हो जाओ शरीर
के। भीतर चले
जाओ, वहां
भीतर फिर निराकार,
पूर्ण का
अनुभव होता है।
यह
ऋषि ने जो
पूर्ण की बात
कही है, यह भीतर के
पूर्ण को
जानकर ही पता
चलता है कि सही
है। और जिसे
भीतर का पूर्ण
पता चल गया, फिर वह कहीं
भी चला जाए, कैसी ही
खिड़कियों के
भीतर चला जाए...।
जिसने बाहर
निकलकर आकाश
एक दफा देख लिए, एक दफा, वह
कैसी ही छोटी
खिड़की के पीछे
खड़ा हो जाए, वह भलीभांति
जानता है कि जो
आकाश चौखटे
में दिखाई पड़
रहा है, वह
चौखटा मेरी
खिड़की का है, आकाश का
नहीं है। एक
बार जिसने
भीतर के पूर्ण
को देख लिया, उसे सब जगह
पूर्ण दिखाई
पड़ने लगता है।
कितने ही
चौखटों में
बंद, कितने
ही कारागृहों
में बंद। वह
जानता है कि
कारागृह ऊपर
से बैठे हुए
हैं, भीतर
निराकार
मौजूद है।
इसलिए
ऋषि पूर्ण से
बात शुरू करता
है और पूर्ण
पर ही समाप्त
करता है।
लेकिन हम तो
अपूर्ण में ही
जीते हैं, अपूर्ण
में ही शुरू
करते, अपूर्ण
में ही समाप्त
करते हैं।
इसलिए हमारा
इस सूत्र से
तालमेल कहां
बैठेगा! हम तो
पीठ करके खड़े
हैं, छत्तीस
के आंकड़े की
तरह। उपनिषद
के ऋषि खड़े
हैं, उनसे
हम पीठ लगाए
हुए खड़े हैं।
उनके शब्द
हमें सुनाई पड़
जाते हैं, उनके
शब्द हम
कंठस्थ कर
लेते हैं। लोग
सुबह उठकर
सूत्र पढ़ लेते
हैं। मगर पीठ
ऋषि से लगी
रहती है। फिर
जो अर्थ
निकलते हैं, वे व्यर्थ
हो जाते हैं।
मैं
अंतिम बात
आपसे यह कहना
चाहता हूं कि
यह पूर्ण की
बात ठीक ही
कही है। यही
है सच, यही
है सत्य।
पूर्ण ही है
सब ओर। सभी
कुछ पूर्ण है।
अपूर्ण के
होने का उपाय
नहीं है।
अपूर्ण होगा
कैसे? अपूर्ण
करेगा कौन? वही है
अकेला, कोई
दूसरा नहीं है,
जो अपूर्ण
कर सके। वही
है अकेला, सीमित
कोई करेगा कौन?
सीमा सदा
दूसरे से बनती
है। आपके घर
की सीमा, आप
सोचते होंगे,
आपके घर से
बनती है। तो
समझ लेना, गलत
सोचते हैं।
आपके घर की
सीमा आपके
पड़ोसी के घर
से बनती है, आपके घर से
नहीं बनती।
सीमा सदा
दूसरे से बनती
है। चूंकि
परमात्मा
अकेला।
अस्तित्व एक।
जीवन की धारा
एक। अन्य तो
कोई भी नहीं
है। दूसरा कोई
भी नहीं है।
कौन बनाएगा
सीमा? कौन
करेगा अपूर्ण?
नहीं, असीम है
अस्तित्व, पूर्ण
है अस्तित्व —
एब्लोल्युट, निरपेक्ष।
पर इसे हम जान
पाएंगे तभी, जब भीतर इस
पूर्ण की झलक
मिल जाए। तब
इसकी झलक सब
जगह मिलने
लगती है। एक
बूंद को भी
जिसने अपने
भीतर जान लिया
उस पूर्णता की,
वह फिर उसके
अनंत—अनंत
सागरों के
रहस्य को पा
जाता है।
पूर्ण
से निकलता है
पूर्ण। पूर्ण
में ही लीन हो
जाता है। बीच
में आता है
अपूर्ण, हमारी
बुद्धि के
चौखटों, इंद्रियों
के चौखटों से
निर्मित होकर।
छोड़े उन
चौखटों को।
हटें थोड़ा
उनके पार।
पीछे सरके, दूर, अतीत
हों, ट्रांसेंड
करें, अतिक्रमण
करें, और
पूर्ण में
प्रतिष्ठा हो
जाती है। और
जिसकी है
पूर्ण में
प्रतिष्ठा, वही समझ
पाएगा अर्थ
ईशावास्य का कि
सब कुछ प्रभु
है, सब कुछ
प्रभु का है।
मैं नहीं हूं
तू ही है।
आज इतना ही।
अब
हम अंत में
भीतर की
यात्रा पर
निकलेंगे। दो
मिनट रुक जाएं।
दो—तीन बातें —
अंतिम दिन है —
इसलिए ध्यान
के लिए आपसे
कह दूं। आखिरी
दिन है, दो—तीन
बातें।
एक
तो, छह
दिन के प्रयोग
ने उस जगह
आपको ला दिया
है कि आज मैं
इस प्रयोग में
एक छोटी सी
बात और जोड़ना
चाहता हूं।
उसके जोड़ते ही
बहुत विस्फोट
होगा। बहुत
एक्सप्लोजन
होगा। उसके
लिए तैयार
रहें। वह छोटी
सी बात है, आज
जब आप मेरी
तरफ देखेंगे,
तो मेरी तरफ
देखें भी —
अपलक, पलक
नहीं झपनी है —
नाचे भी, और
हू हू हू की
हुंकार भी
करें।
यह
हुंकार आपके
भीतर सोई हुई
कुंडलिनी पर
गहरी चोट करती
है। सूफियों
ने अल्लाहू का
बड़ा गहरा
प्रयोग किया
है। अल्लाहू
से शुरू
करेंगे वे, फिर धीरे—
धीरे अल्ला
छूट जाएगा और
हू हू हू रह
जाएगा।
इतने
जोर से हू
कहें.. खयाल
करें, जैसे
ही आप हू
कहेंगे, वैसे
ही आपकी नाभि
सिकुड़ जाएगी
और नाभि के
नीचे जोर से
चोट पड़ेगी। हू
— पूरी नाभि
सिकुड़कर चोट
करेगी। वहीं
कुंडलिनी का
वास है। उस पर
जोर से धक्का
पड़ेगा।
अब
हम इस हालत
में हैं — करीब—करीब
नब्बे
प्रतिशत
मित्र — कि
उन्होंने
इसकी चोट की, कि उनके
भीतर से ऊर्जा
तेजी से
ज्योति की लपट
की तरह ऊपर की
ओर उठेगी। जब
लपट की तरह
ऊपर की ओर
उठेगी ज्योति,
तब मैं आपको
हाथ से इशारा
करूंगा।
मेरे
इशारे के साथ
बिलकुल पागल
हो जाना है।
जब मैं नीचे
से ऊपर की तरफ
हाथ ले जाऊं, तब अपने
भीतर अनुभव
करना कि ऊर्जा
उठती है, लपट
की तरह आग ऊपर
जा रही है।
सारे प्राण
ऊपर उठ रहे
हैं।
ऊर्ध्वगमन हो
रहा है।
चिल्लाना हू
नाचना, कूदना,
पूरी शक्ति
लगाना।
और
जब मुझे लगेगा
कि आप उस जगह आ
गए बहुत से
मित्र, जहां से
शक्तिपात हो
सकता है, कि
परमात्मा की
शक्ति भी आप
पर उतर सकती
है, तब मैं ऊपर
हाथ उठाकर
नीचे की तरफ
करूंगा। जब
मैं ऊपर हाथ
उठाकर नीचे की
तरफ करूं, तब
जितनी
सामर्थ्य
आपमें हो, उसमें
से रत्तीभर
बचाना मत, पूरी
लगा देना।
जो
मित्र ऊपर
बैठे रहते हैं, उनको
बैठे नहीं
रहना है, उनके
बैठने से हमें
बाधा पड़ती है।
क्योंकि
उन्हें बैठे
देखकर बाकी
लोग शिथिल होते
हैं।
ओम
शांति शांति
शांति,
ईशावास्य
उपनिषद
समाप्त।
माउंट आबू
राजस्थान।
ओशो
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