ध्यान
योग शिविर,
माउंट
आबू,
राजस्थान।
सूत्र :
अग्ने
नय सुपथा राये
अस्मान्
विश्वानि
देव वयुनानि
विद्वान्।
युयोध्यस्मच्चहुराणमेनो
भूयिष्ठां
ते नमउक्तिं
विधेम।। 18।।
हे अग्ने।
हमें कर्म फल
भोग के लिए
सन्मार्ग से ले
चल। हे देव! तू
समस्त
ज्ञान और
कर्मों को
जानने वाला
है। हमारे
पाखंडपूर्ण
पापों
को नष्ट
कर। हम तेरे
लिए अनेकों
नमस्कार करते हैं।।
18।।
पर्वतों
से उतरते हुए
झरनों को हमने
देखा है। सागर
की ओर बहती
हुई नदियों से
हम परिचित हैं।
जल सदा ही
नीचे की ओर
बहता है — और
नीची जगह, और नीची
जगह खोज लेता
है। गड्डों
में ही उसकी
यात्रा है।
अधोगमन ही
उसका मार्ग है।
उसकी प्रकृति
है नीचे, और
नीचे, और
नीचे। जहां
नीची जगह मिल
जाए वहीं उसकी
यात्रा है।
अग्नि
बिलकुल ही
उलटी है। सदा
ही ऊपर की तरफ
बहती है।
ऊर्ध्वगामी
उसका पथ है।
आकाश की ओर ही
दौड़ती चली
जाती है। कहीं
भी जलाएं उसे, कैसे भी
रखें उसे, उलटा
भी लटका दें
दीए को, तो
भी ज्योति ऊपर
की तरफ भागना
शुरू कर देती
है।
अग्नि
का यह
ऊर्ध्वगमन
अति प्राचीन
समय में भी
ऊर्ध्वगामी
चेतनाओं को
खयाल में आ
गया। चेतना
दोनों तरह से
बह सकती है।
पानी की तरह
भी और अग्नि
की तरह भी।
साधारणत: हम
पानी की तरह
बहते हैं।
साधारणत: हम
भी नीचे गड्डे
और गड्डे
खोजते रहते
हैं। हमारी
चेतना नीचे
उतरने को
रास्ता पा जाए
तो हम ऊपर की
सीढ़ी तत्काल
छोड़ देते हैं।
साधारणत: हम
जल की तरह हैं।
होना चाहिए
अग्नि की तरह
कि जहां जरा
सा अवसर मिले
ऊपर बढ़ जाने
का, हम
नीचे की सीढ़ी
छोड़ दें।
जहां जरा सा
मौका मिले पंख
फैलाकर आकाश
की तरफ उड़
जाने का, हम
तैयार हों।
अग्नि
इसलिए प्रतीक
बन गया, देवता बन
गया। ऊर्ध्वगमन
की जिनकी
अभीप्सा थी, ऊपर जाने का
जिनका इरादा
था, आकांक्षा
थी जिनकी
निरंतर
श्रेष्ठतर
आयामों में
प्रवेश करने
की, उनके
लिए अग्नि
प्रतीक बन गया,
देवता बन
गया।
एक
और कारण से
अग्नि प्रतीक
बना और देवता
बना। जैसे ही
व्यक्ति ऊपर
की यात्रा पर
निकलता है, ऊपर की यात्रा
साथ ही साथ
भीतर की
यात्रा भी है।
और ठीक वैसे
ही नीचे की
यात्रा साथ ही
साथ बाहर की
यात्रा भी है।
गहरे अर्थों
में बाहर और
नीचे
पर्यायवाची
हैं। भीतर और
ऊपर
पर्यायवाची
हैं। जितने
भीतर जाएंगे,
उतने ऊपर भी
चले जाएंगे।
जितने बाहर
जाएंगे, उतने
नीचे भी चले जाएंगे।
या जितने नीचे
जाएंगे, उतने
बाहर चले
जाएंगे।
जितने ऊपर
जाएंगे, उतरे
भीतर चले
जाएंगे।
अस्तित्व
की दृष्टि से
ऊपर और भीतर
एक ही अर्थ
रखते हैं, भाषा की
दृष्टि से
नहीं। अनुभव
की दृष्टि से
बाहर और नीचे
एक ही अर्थ रखते
हैं, भाषा
की दृष्टि से
नहीं।
पर्यायवाची
हैं। जिन
लोगों ने भी
ऊपर की यात्रा
करनी चाही, उन्हें भीतर
की यात्रा
करनी पड़ी। और
जैसे—जैसे
भीतर प्रवेश
हुआ, वैसे—वैसे
अंधेरा कम हुआ
और ज्योति बढ़ी,
प्रकाश बढ़ा।
अंधकार क्षीण
हुआ और आलोक
बढ़ा। अग्नि
इसलिए भी
प्रतीक बन गई
अंतर्यात्रा
की।
और
भी एक कारण से
अग्नि प्रतीक
बन गई और उसका
स्मरण बड़ी ही
श्रद्धा से
किया जाने लगा।
वह था यह कि
अग्नि की एक
और खूबी है, उसका एक
और स्वभाव है।
शुद्ध को बचा
लेती है, अशुद्ध
को जला देती
है। डाल दें
सोने को तो
अशुद्ध जल
जाता है, शुद्ध
निखर आता है।
तो अग्नि—परीक्षा
बन गई — अशुद्ध
को जलाने के
लिए और शुद्ध
को बचाने के लिए।
अग्नि—परीक्षा,
वस्तुत: कोई
सीता को किसी
अग्नि में डाल
दिया हो, ऐसा
नहीं है।
अग्नि—परीक्षा
एक प्रतीक बन
गया। वह
प्रतीक हो गया
इस बात का कि
अग्नि उसको
जला देगी जो
अशुद्ध है और
उसे बचा लेगी
जो शुद्ध है।
वह अग्नि का
स्वभाव है।
शुद्ध को बचा
लेने की उसकी
आतुरता है।
अशुद्ध को
नष्ट कर देने
की उसकी
आतुरता है।
बहुत
कुछ है जो
अशुद्ध है
हमारे भीतर।
इतना ज्यादा
है कि सोने का
तो पता ही
नहीं चलता।
कहीं होगा
छिपा हुआ। कोई
ऋषि कभी घोषणा
करता है
स्वर्ण की। हम
तो मिट्टी और
कचरे को ही
जानते हैं।
कोई इतनी कभी
पुकारता है कि
भीतर स्वर्ण
भी है
तुम्हारे। हम
तो खोजते हैं, तो कंकड़—पत्थर
के सिवाए कुछ
पाते नहीं हैं।
तो स्वर्ण को
भी अग्नि में
डालना है।
स्वर्ण
को अग्नि में
डालना ही तप
का अर्थ है।
तप ताप से ही
बना है, अग्नि से ही
बना है। तप का
अर्थ ऐसा नहीं
है कि कोई धूप
में खड़ा हो
जाए, तो तप
कर रहा है। तप
का अर्थ है, इतनी अंतर—अग्नि
से गुजरे कि
उसके भीतर जो
भी अशुद्ध है,
वह जल जाए; और जो भी
शुद्ध है, वह
रह जाए।
अग्नि
में एक—दो
बातें और खयाल
में ले लेनी
जरूरी हैं, तब उसके
दिव्य रूप का
स्मरण करना
आसान हो जाएगा।
तब उस ऋषि की
बात समझनी
सुविधाजनक हो
जाएगी कि हे
देवता, हे
अग्नि, मुझे
सन्मार्ग पर
ले चल। यह
खयाल में आ
सकेगा कि
अग्नि से ऐसी
प्रार्थना
क्यों की जा
सकी।
अग्नि
को देखा है।
पानी को भी
देखा है। पानी
कितने ही नीचे
उतरे, मौजूद
रहता है। पहाड़
से उतर आए खाई
में, मिट
नहीं जाता।
अग्नि उठती है
आकाश की तरफ, लेकिन जरा ही
उठी कि विलीन
हो जाती है।
असल में जो भी
ऊपर की तरफ
जाएगा, वह
विलीन भी होगा।
वह विलीन भी
होता जाएगा।
वह प्रतिपल
लीन होगा।
जल्दी ही उसकी
अस्मिता खो
जाएगी, वह
नहीं होगा।
आकाश के साथ
एक हो जाएगा।
अग्नि थोड़ी
दूर तक ही
दिखाई पड़ती है।
अग्नि का पथ
थोड़ी दूर तक
ही दृश्य है, फिर अदृश्य
हो जाता है।
आप देख भी नहीं
पाते कि गई, शून्य में
खो गई। पानी
कितना ही नीचे
उतरे, मौजूद
रहेगा। नीचे
की यात्रा पर
अस्मिता
मौजूद ही
रहेगी। और अगर
बहुत नीचे उतर
जाए, तो
पानी बर्फ बन
जाएगा। और अगर
अहंकार बहुत
नीचे उतर जाए,
तो पत्थर की
तरह सख्त हो
जाएगा।
ध्यान
रखें, जितना
नीचे उतरते
हैं, उतना
अहंकार मजबूत,
फ्रोजन, सख्त,
क्रिस्टलाईज
होता है।
जितने ऊपर
जाते हैं, उतना
विरल, क्षीण,
विलीन।
अग्नि की
ज्योति को देखते
रहें, थोड़ी
देर में पता
चलेगा कि गई।
कहां गई रू' बुद्ध से
ठीक उनके
महानिर्वाण
के समय में न
कोई पूछता है
कि जब आप नहीं
होंगे — अभी
थोड़ी देर बाद
आप कहते हैं, आप नहीं हो
जाएंगे — तो
फिर आप कहां
होंगे? तो
बुद्ध कहते
हैं, दीए
को देखना। और
जब दीए की ज्योति
आकाश में खो
जाए, तो
पूछना कि
ज्योति कहां
चली गई। ऐसे
ही मैं भी
थोड़ी देर में
खो जाऊंगा। अब
आ गई है वह घड़ी,
जहां से
ज्योति
महाआकाश में
लीन हो जाएगी।
एक
और भी गहरा
रहस्य अग्नि
के साथ है। और
वह रहस्य यह
है कि अग्नि
सब कुछ जला
देती है। सब
कुछ जलाती है, अंत में
स्वयं को भी जला
लेती है। ईंधन
को जलाती है, फिर ईंधन जल
जाता है, तो
अग्नि बचती
नहीं ईंधन को
जलाकर। ईंधन
जला — अग्नी
भी जली। सब
कुछ जल जाता
है। अंतत:
अग्नि पीछे बच
नहीं रहती, अग्नि भी खो
जाती है।
दूसरे
को जलाकर जो
बच रहे, तब तो हिंसा
है। लेकिन
दूसरे को
विलीन करके जब
स्वयं भी कोई
लीन हो जाए, तो प्रेम है।
दूसरे को
जलाकर कोई बच
रहे, तो
वाय। न?।
लेकिन दूसरे
को शून्य करके
स्वयं भी
शून्य हो जाए,
तो प्रेम है
— तो ही प्रेम
है।
तो
अग्नि दुश्मन
नहीं है ईंधन
की, प्रेमी
है। नहीं तो
ईंधन को तो
जला डाल(ाr।
खुद बच जाती।
जलाती ही इसलिए
है कि खुद बच
जाए। लेकिन
ईंधन को जलाकर
स्वयं भी
जलती है और
शांत हो जाती
है। मजे की
बात है कि
ईंधन तो जलकर
भी पीछे राख
की तरह बच
रहता है, अग्नि
उतनी भी नहीं
बच रहती। इतनी
शुद्ध है कि
पीछे कोई राख
नहीं छोड़ती।
असल में राख
अशुद्धि से
बनती हूँ।
अग्नि
शुद्धतम
अस्तित्व
मात्र है।
पीछे कुछ
रूपरेखा भी
नहीं छूट जाती।
ये
सारे खयाल, यह सारी
स्मृति जिन
ऋषियों को आई,
वे किसी
प्रतीक की
तलाश में थे।
बड़ी कठिन खोज
है। भीतर जो
घटित होता है
साधक को, उसके
लिए बाहर
प्रतीक खोजना
बड़ी कठिन खोज
है। लेकिन अब
तक जो श्रेष्ठतम
प्रतीक खोजा
जा सका है वह अग्नि
है। वह चाहे
पारसियों के
मंदिर में सतत
जलती हो, चाहे
ऋषियों के
यज्ञ में जलती
हो, चाहे
हवन में जलती
हो, चाहे
मंदिर के दीए
में जलती हो।
लेकिन अब तक
जो श्रेष्ठतम
प्रतीक खोजा
जा सका है, निकटतम
भीतर की घटना
के, ऊर्ध्वगमन
की घटना —के, वह अग्नि है।
इसलिए अग्नि
को देवता कह
सके वे लोग।
देवता
किसे कहते हैं? देवता
सिर्फ उसे
नहीं कहते जो
दिव्य है, क्योंकि
इस अर्थ में
तो सभी देवता
हैं। सभी कुछ
दिव्य है, क्योंकि
सभी कुछ दिव्य
से निकला है।
साधारणत:
शब्दकोश में
खोजने जाएंगे
तो देवता का
अर्थ होगा — जो
दिव्य है — वन
हू इज डिवाइन,
जो दिव्य है।
लेकिन दिव्य
तो सभी हैं।
किन्हीं को
पता होगा, किन्हीं
को पता नहीं
होगा। दिव्य
कौन है जो
नहीं है।
पत्थर भी
दिव्य है।
वृक्ष भी
दिव्य है। नदी,
पहाड़, आकाश
सभी दिव्य हैं।
कण—कण दिव्य
है। फिर देवता
का यह मतलब
नहीं हो सकता
कि जो दिव्य
है। क्योंकि
दिव्य तो सभी
हैं। फिर
विशेष रूप से
किसी को देवता
कहने का क्या अर्थ
है?
देवता
कहने का अर्थ
है, जो
दिव्य है इतना
ही नहीं, जो
दिव्य की ओर
ले जाता है।
दिव्य है इतना
ही नहीं, दिव्य
तो प्रत्येक
वस्तु है। जो
दिव्य की ओर
ले जाता है, जो दिव्य की
ओर उन्मुख
करता है — वह
देवता है। जो
दिव्य की ओर
फिराता है, जो दिव्य की
ओर इंगित करता
है, जो
दिव्य की ओर
इशारा करता है,
जो दिव्य की
ओर मुख को मोड़
देता है, जो
दिव्य की ओर
गति दे देता
है — वह देवता
है।
इसीलिए
तो ऋषि कह सके
कि गुरु देवता
है। और कोई
कारण नहीं है।
दिव्य तो सभी
हैं। इसलिए
जहां—जहां से
दिव्यता की ओर
इशारा मिले
सके, वह
सब देवता हो
गया। अगर आकाश
की तरफ देखकर
निराकार का
स्मरण आ जाए, तो आकाश
देवता हो गया।
हमें
कठिनाई होती
है। जो लोग
पढ़ते हैं.. आज
वेद को पढ़ेंगे, तो
उन्हें बड़ी
कठिनाई होती
है कि आकाश
देवता है, इंद्र
देवता है, सूरज
देवता है! यह
सब क्या
पागलपन है! और
जब पश्चिम के
लोगों ने पहली
बार वेद के
अनुवाद किए, तो उनको बड़ी
कठिनाई पड़ी।
उन्होंने कहा,
यह पैथिइज्म
है। यह
सर्वेश्वरवाद
है। हर चीज
में देवता को
देखने की वृत्ति
है।
नहीं, ऐसा नहीं
है। जहा से भी
दिव्यता की ओर
स्मरण मिलता
है, जहां
से भी चोट
पड़ती है, आघात
पड़ता है, जहां
से भी हृदय की
वीणा का तार
झंकृत हो जाता
है और दिव्य
की ओर यात्रा
शुरू होती है —
वही देवता है।
देखें
आकाश को थोड़ी
देर तक। तो
आकाश को देखते—देखते, देखते—देखते
आकार क्षीण
होगा, निराकार
प्रगाढ़ हो
जाएगा। तो
निराकार की ओर
आकाश ने इशारा
किया। तो क्या
इतने कृतघ्न
होंगे कि
धन्यवाद भी न
दें कि हे
देवता, धन्यवाद!
कि तूने
निराकार की ओर
स्मरण दिलाया!
अग्नि
को देखते रहें
बैठकर। यश का
वही अर्थ था।
हवन का वही
अर्थ था। करना
उतना
महत्वपूर्ण
नहीं है हवन
में कि आप कुछ
कर रहे हैं, कि कुछ
डाल रहे हैं
कि नहीं डाल
रहे हैं, यह
उतना
महत्वपूर्ण
नहीं है।
बल्कि अग्नि
के निकट बैठकर,
अग्नि की
ऊर्ध्वगमन की
यात्रा के साथ
आत्मसात हो
रहे हैं। और
आग भागी जा
रही है ऊपर की
तरफ, उसकी
लपट खोई जा
रही है
महाशून्य में।
आप भी उसके
पास बैठकर
एकाग्रचित्त
हो, ध्यानमग्न
हो, उस लपट
के साथ एक हो
निराकार की
तरफ भाग रहे
हैं, खो
रहे हैं, शून्य
में जा रहे
हैं। तो फिर
अग्नि देवता
हो गया।
जहां
से भी दिव्यता
की ओर इशारा
है, पुकार
है, जहां से
भी दिव्यता की
ओर भीतर की
प्यास को चोट
है; जहां
से भी दिव्यता
की ओर भीतर
सोए हुए बीज
को तोड़ने की
चेष्टा है —
वहीं देवता है।
इसलिए
ऋषि कहता है
कि हे देव, हे अग्नि,
मुझे
सन्मार्ग पर
ले चल। मुझे
कुछ पता नहीं
कि क्या
रास्ता है!
मुझे कुछ पता
नहीं कि क्या
रास्ता है!
मुझे यह भी
पता नहीं है
कि क्या शुभ
है, क्या
अशुभ है! मैं
अज्ञानी हूं।
तू मुझे ले चल।
एक
बात यहां बहुत
गहरे में खयाल
में ले लेने जैसी
है, वह
यह है कि
जिसने यह
पुकारा कि
मुझे
सन्मार्ग की
तरफ ले चल — यह
पुकार ही
सन्मार्ग की
तरफ जाने का
मूल आधार बन
जाती है। यह
पुकार साधारण
नहीं है, यह
पुकार बहुत
असाधारण है।
क्योंकि
हमारी
प्रत्येक
वृत्ति, हमारी
प्रत्येक
वासना, हमारी
प्रत्येक
इच्छा असद
मार्ग की तरफ
ले जाती है।
उसके लिए
प्रार्थना
नहीं करनी
पड़ती है। उसके
लिए पुकारना
भी नहीं पड़ता।
उसके लिए
प्रकृति ने
हमें काफी
उपकरण दिया है,
वह अपने आप
हमें ले जाती
है। नीचे की
तरफ उतरना हो
तो किसी पुकार
की, किसी
प्रार्थना की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
अंधेरे की तरफ
जाना हो तो
प्रकृति आपको
ले ही जाती है,
ले ही जा
रही है। आपके
ही अपने कर्म
लिए जा रहे
हैं। आपकी ही
अपनी आदतें और
संस्कार लिए
जा रहे हैं।
सब लिए जा रहा
है।
यह
बड़े मजे की
बात है कि आज
तक पृथ्वी पर
किसी ने यह
प्रार्थना
नहीं की कि हे
प्रभु, मुझे असद
मार्ग पर ले
चल। इसमें
प्रभु की कोई
जरूरत नहीं
पड़ी। आदमी खुद
ही काफी समर्थ
है। इसमें
प्रभु की
सहायता की कोई
भी जरूरत नहीं
है। इसमें तो
प्रभु को भी
असद मार्ग पर
ले जाना हो तो
आदमी ले जा
सकता है। और
बड़े मजे की
बात है कि असद
मार्ग बहुत
संकटपूर्ण है।
फिर भी कोई
प्रार्थना
नहीं करता।
करनी चाहिए।
कि मैं असद
मार्ग पर जा
रहा हूं हे
प्रभु! सहायता
करना, सुरक्षा
करना। असद
मार्ग बहुत
संकट की
अवस्था है।
बहुत पीड़ा में,
बहुत दुख
में जाना है।
बहुत
विक्षिप्तता
में, पागलपन
में उतरना है।
अपने ही हाथों
उपद्रव को
निमंत्रण है।
तो प्रभु की
सहायता
मांगनी चाहिए
कि मेरा खयाल
रखना, लेकिन
कोई नहीं
मांगता।
क्योंकि
प्रत्येक
जानता है कि
हम पर्याप्त हैं।
हम ही निपट
लेंगे।
आदमी
असद में इतना
समर्थ है!
लेकिन जहां
सन्मार्ग का
सवाल है, जहां सद की
यात्रा है, वहां आदमी
अचानक पाता है
कि असमर्थ हूं।
उसकी
असमर्थता का
कारण है। सारी
वासनाएं उसे
खींचती हैं
नीचे की तरफ
और कोई बिल्ट
इन, कोई
प्रकृति की
तरफ से दी गई
ऐसी वासना नहीं
है, जो उसे
सहज ऊपर की
तरफ ले जाती
हो। अगर वह
कुछ न करे और
खड़ा रहे, तो
अपने आप नीचे
जाता रहेगा।
अगर वह कुछ न
करे, खड़ा
रहे, तो
अपने आप उतरता
रहेगा। उतार
से, ढलान
से नीचे
लुढ़कता रहेगा।
प्रकृति की
कशिश काफी है,
वह उसे
खींचती जाएगी —
नीचे, और
नीचे, और
नीचे। और हर
कदम पर लगेगा
कि और थोड़ा
नीचे उतर जाऊं।
यह पूरे प्राण
कहेंगे कि और
थोड़े नीचे उतर
चलो। और सुख
है नीचे। अगर
दुख पा रहे हो
तो इसीलिए पा
रहे हो कि और
थोड़े नीचे
नहीं उतर पा
रहे हो।
तथाकथित
ईमानदार आदमी
मुझे मिलते
हैं, तो
वे कहते हैं
कि देख रहे
हैं आप, बेईमान
कितना सुख उठा
रहे हैं!
तथाकथित
ईमानदार कहता
हूं मैं
उन्हें।
क्योंकि
जिसको बेईमान
में सूख दिखाई
पड़ता है, वह
ज्यादा देर
ईमानदार रह
नहीं सकता।
गहरे में तो
होगा ही नहीं।
अगर ईमानदार
दिखाई पड़ता है,
तो सिर्फ
भयभीत होगा, इसलिए दिखाई
पड़ता है।
बेईमान
होने के लिए
भी साहस चाहिए।
बेईमान होने
के लिए भी
हिम्मत
चाहिए। वह हिम्मत
उसमें नहीं है।
कमजोर आदमी है, कायर है।
बेईमानी कर
नहीं सकता, लेकिन
बेईमान रस ले
रहे हैं, बेईमान
सफल हो रहे
हैं, बेईमान
सुख पा रहे
हैं, यह
जरूर उसकी
पूरी वासनाएं
उससे कहे जा
रही हैं कि तू चूक
रहा है।
नीचे
की पुकार सब
ओर से है।
भीतर से भी
प्रकृति का
सारा उपकरण
कहता है, नीचे उतरो।
क्यों रू
क्योंकि
जितने आप नीचे
उतरते हैं, उतने
प्राकृतिक हो
जाते हैं।
जितने ऊपर
उठते हैं, उतने
प्रकृति के
अतीत होते हैं,
उतने
प्रकृति के
पार होते हैं।
स्वाभाविक है कि
प्रकृति कहे
कि और नीचे
उतर आओ, यहां
बहुत विश्राम
है। अगर
बिलकुल पत्थर
हो जाओ, तो
पूरा विश्राम
है। उतर आओ, छोड़ दो
चेतना। चेतना
ही तुम्हारा
दुख है।
वृत्तियां
कहती हैं, वासनाएं
कहती हैं कि
छोड़ दो चेतना।
चेतना ही
तुम्हारा दुख
है, मूर्च्छित
हो जाओ। इसलिए
आदमी शराब
खोजता है, नशे
खोजता है।
बेहोश होने की
हजार तरकीबें
खोजता है कि
उतर जाए नीचे,
और नीचे।
तो
नीचे उतरने का
तो पूरा
इंतजाम है, ऊपर उठने
का कोई इंतजाम
नहीं है। और
ऊपर उठे बिना
कोई आनंद नहीं,
कोई शांति
नहीं। यह
दुविधा है।
कहें कि यह
धमन
पैराडाक्स, यह धमन
डायलेमा है।
यह मनुष्य का
द्वंद्व है कि
नीचे जाने का
सब उपाय है और
ऊपर जाए बिना
कोई उपाय नहीं
है। ऊपर
पहुंचे बिना
कोई प्रयोजन
सिद्ध नहीं
होता, कोई
अर्थ सिद्ध
नहीं होता।
नीचे जाने के
लिए सब
सुविधाएं
उपलब्ध हैं, ऊपर जाने के
लिए कोई मार्ग
नहीं। और ऊपर
जाए बिना
सिवाय भटकाव
के कुछ हाथ
में लगता नहीं।
तो ऐसी असहाय
अवस्था है
आदमी की, ऐसी
हेल्पलेसनेस।
इस
हेल्पलेसनेस
से उठती है
प्रार्थना।
इस असहाय
अवस्था के बोध
से उठती है
प्रार्थना।
तो
ऋषि कह रहा है
कि हे देवता, मुझे
सन्मार्ग की
तरफ ले चल।
ऐसा
नहीं है कि
कोई देवता
आपको
सन्मार्ग की
तरफ ले जाएगा।
यह भी समझ लें।
क्योंकि उससे
बड़ी
भ्रांतियां
फैली हैं। ऐसा
नहीं है कि
कोई देवता
आपको
सन्मार्ग की तरफ
ले जाएगा।
सन्मार्ग की
तरफ तो जाना
है आपको ही।
लेकिन यह
प्रार्थना
आपको जाने में
समर्थ बनाएगी।
यह प्रार्थना आपके
भीतर एक ब्रेक
थ्रू,
एक द्वार तोड़
देगी। आपके
भीतर यह
प्रार्थना
अगर सघन हो
जाए, घनीभूत
हो जाए, अगर
प्यास और
पुकार बन जाए
और रोया—रोया
चिल्लाने लगे,
श्वास—श्वास
कहने लगे कि
ले चल मुझे
प्रभु, हे
दिव्य अग्नि,
मुझे ले चल
ऊर्ध्वगमन
में ऊपर, जहां
सब खो जाए, मैं
भी खो जाऊं, वही रह जाए, जो मैं नहीं
था तब था और जब
मैं नहीं
रहूंगा तब रहेगा।
यह प्रार्थना —
देवता नहीं
कोई — यह
प्रार्थना ही
जब आपके भीतर
सघन होनी शुरू
होती है, तो
आपको
सन्मार्ग पर
ले जाने का
कारण बनती है।
क्योंकि हम
वहीं चले जाते
हैं, जहां
जाने की हम
तीव्र
आकांक्षा
पैदा कर लेते
हैं। हमारे
विचार ही
हमारे कृत्य
बन जाते हैं।
एडिंग्टन
ने एक बहुत
अदभुत वाक्य
लिखा है, और एडिंग्टन
जैसे आदमी ने
लिखा है, इसलिए
और अदभुत है।
एडिंग्टन
पिछले पचास
वर्षों के
श्रेष्ठतम वैज्ञानिकों
में एक, नोबल
प्राइज विनर।
जीवन के अंतिम
समय में अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि जब मैंने
वैज्ञानिक
खोज शुरू की
और जब मैं
युवा था, तो
मैं सोचता था,
जगत
वस्तुओं का
समूह है।
लेकिन जैसे—जैसे
मैं खोज में
गहरा गया और
जैसे—जैसे मैं
प्रकृति के
रहस्यों का
साक्षात्कार
किया, अब
मैं अपने जीवन
के अंत में
टेस्टामेंट
करता हूं इस
बात की वसीयत
करता हूं कि
दि युनिवर्स रिजेम्बल्स
मोर ए थाट दैन
ए थिंग। यह जो
विश्व है, यह
एक विचार की
तरह ज्यादा है,
बजाय एक
वस्तु की तरह।
रिजेम्बल्स
मोर ए थाट, एक
विचार की
भांति ज्यादा।
बुद्ध
ने धम्मपद के
पहले वचन में
कहा है, तुम जो
सोचोगे, वही
हो जाओगे।
इसलिए सोच—समझ
कर सोचना।
क्योंकि कल
किसी और को
जिम्मेदार
नहीं ठहरा पाओगे।
और जो तुम आज
हो गए हो, वह
तुमने कल सोचा
था, उसका
परिणाम है।
हमारी ही
नासमझियां
फलीभूत हो
जाती हैं।
हमारे ही गलत
भाव सघन होकर
आचरण बन जाते
हैं। हमारे ही
विचार
केंद्रीभूत
होकर जीवन बन
जाते हैं।
उठती है विचार
की सूक्ष्म
तरंग, चल
पड़ी यात्रा पर,
आज नहीं कल
वस्तु बन
जाएगी। सभी
वस्तुएं
विचार के सघन
रूप हैं, कंडेस्ट
थाट्स हैं। हम
जो हैं, हमारे
विचार का फल
हैं।
तो
अगर कोई
प्रार्थना
इतनी सघन हो
जाए कि प्राण
का रोया—रोया
कंपित होने
लगे, हृदय
की धड़कन— धड़कन
आंदोलित होने
लगे; रात
के स्वप्न भी
उससे
प्रभावित हो
जाएं, दिन
की विचारणा भी
उसमें डूबे; रात की
निद्रा में भी
वह आपके
प्राणों में
सरकने लगे; वह आपके
जीवन की धुन
बन जाए, तो
परिणाम आ
जाएगा। कोई
देवता नहीं
आएगा आपकी
सहायता को।
लेकिन दिव्य
जहां—जहा हमें
दिखाई पड़ता है,
उससे की गई
प्रार्थना
हमें तैयार
करेगी।
इस
भेद को समझ
लेना जरूरी है।
अगर आपके खयाल
में यह है कि
हम प्रार्थना
करें और
निश्चिंत हो
गए, क्योंकि
अब देवता
सम्हालेगा।
जैसा कि अधिक
लोग समझ बैठे
हैं कि ठीक है,
हमने
प्रार्थना कर
दी, अब काफी
ओब्लाइज कर
दिया देवता को,
काफी
अनुग्रह किया
कि हमने
प्रार्थना कर
दी, अब
बाकी तुम करो।
न करो, तो
कल हम शिकायत
लेकर खड़े हो
जाएंगे। अगर
और बिलकुल न
किया, तो
कल हम कहेंगे
कि कोई देवता
नहीं है। सब
झूठ है।
नहीं, प्रार्थना
का यह अर्थ
नहीं है कि हम
किसी और पर
छोड़ रहे हैं
काम।
प्रार्थना का
यही अर्थ है
कि हम
प्रार्थना के
बहाने —
प्रार्थना एक
डिवाइस है — हम
प्रार्थना के
बहाने अपने
रोएं—रोएं तक
को कंपित कर
रहे हैं। और
ध्यान रहे, प्रार्थना
सर्वाधिक
रोओं तक
प्रवेश पाती
है। अगर कोई
पूरे भाव से
प्रार्थना
में रत हो जाए,
तो कण—कण
शरीर का
पुकारने लगता
है। कोई विचार
इतना गहरा
नहीं जाता, जितनी
प्रार्थना
गहरी जाती है।
कोई वासना भी
इतनी गहरी
नहीं जाती, जितनी
प्रार्थना
जाती है।
लेकिन
प्रार्थना
करने की
क्षमता...।
ऐसी
कोई भी वासना
नहीं है जिसके
बाहर आप न छूट जाते
हों। आप बाहर
छूट ही जाते
हैं। सेक्स
जैसी
कामवासना, जो कि
गहनतम वासना
है, उसके
भी बाहर आप
छूट जाते हैं।
उसके भीतर भी
आप पूरे नहीं
होते। उसके भी
आप बाहर होते
हैं। कोई
हिस्सा — गहन
हिस्सा तो
चेतना का बाहर
ही रह जाता है।
कामवासना में
भी ज्यादा से
ज्यादा शरीर
प्रवेश करता
है। जो बहुत
कामातुर हैं,
उनके मन का
छोटा सा
हिस्सा
प्रवेश करता
है। लेकिन
चेतना और
आत्मा तो
बिलकुल बाहर
रह जाती है।
टोटल आप उसमें
नहीं हो पाते।
वही तो
कामवासना की
पीड़ा है।
कामवासी मन
कहता है कि
पूरा इसमें
डूब जाऊं और
रस ले लूं
लेकिन पूरा
कभी डूब नहीं
पाता। हमेशा
पाता है कि
डूबा, नहीं
डूब पाया। गया
एक सीमा तक, और वापस लौट
आया। डूबने का
क्षण आया था
कि टूटने का
क्षण आ गया।
प्रार्थना
अकेली एक घटना
है, जिसमें
आदमी पूरा डूब
पाता है — पूरा।
जिसमें कुछ भी
बाहर शेष नहीं
रह जाता।
प्रार्थना
करने वाला भी
बाहर शेष नहीं
रह जाता, तभी
प्रार्थना
पूरी होती है।
अगर
प्रार्थना
करने वाला
मौजूद है और
प्रार्थना आप
कर रहे हैं, तो
प्रार्थना एक
बाहरी कृत्य
है। वह आपको
छुएगा नहीं।
आप अछूते रह
जाएंगे।
लेकिन
प्रार्थना
इतनी गहरी हो
जाती है — हो
सकती है — कि
प्रार्थना
करने वाला
पीछे बचता ही
नहीं, प्रार्थना
ही बचती है।
तब उस
प्रार्थना के
आंदोलन में, उस
प्रार्थना के
कंपन में घटना
घटती है और
सन्मार्ग की
यात्रा शुरू
हो जाती है।
रुख बदल जाता
है। नीचे की
यात्रा की तरफ
से चेहरा फिर
जाता है, ऊपर
की तरफ चेहरा
हो जाता है।
अग्नि
को इसीलिए
पुकारते हैं
कि वह
ऊर्ध्वगामी
है। अग्नि को
इसीलिए
पुकारते हैं
कि वह अशुद्धि
को जला देने
वाली है।
अग्नि को
इसीलिए
पुकारते हैं
कि उसमें कोई
अस्मिता नहीं
है, वह
बहुत जल्दी
आकाश में लीन
हो जाती है।
जब
कोई
प्रार्थना से
भरता है पूरा, तो अग्नि
की एक लपट बन
जाता है — ए
फ्लेम। और एक
ऐसी लपट, जिसमें
धुआ नहीं होता।
पहले तो होता
है। पहले जब
कोई
प्रार्थना
शुरू करता है,
तो अग्नि
सीधी नहीं
होती, धुआ
बहुत होता है।
क्योंकि ईंधन
हमारा बड़ा
गीला होता है।
जितनी ज्यादा
वासनाएं होती
हैं, उतना
ईंधन गीला
होता है। जैसे
लकड़ी पर पानी
पड़ा हो, तो
आग लग भी जाए
तो धुआ ही धुआ
पैदा होता है।
इसलिए घबरा मत
जाना।
प्रार्थना की
यात्रा पर
निकले
व्यक्ति को पहले
अग्नि का
साक्षात्कार
नहीं होता, धुएं का ही
साक्षात्कार
होता है।
क्योंकि
हमारे पास
ईंधन बहुत
गीला है।
इसलिए
दूसरी बात ऋषि
ने उसमें कही
है कि मेरे पिछले
किए हुए कर्म, उनको भी
तू जला दे।
क्योंकि
वे पिछले किए
हुए कर्म ही
हमारा ईंधन है।
और वे बड़े
गीले हैं।
कर्म
सूखा कब होता
है और गीला कब
होता है? किस कर्म को
गीला कहें और
किस कर्म को
सूखा कहें?
सूखा
कर्म अगर हो
तो ऊपर की
यात्रा बड़ी
आसान हो जाती
है, क्योंकि
वह ठीक ईंधन
बन जाता है।
और गीला कर्म
अगर हो तो ऊपर
की यात्रा
मुश्किल हो
जाती है।
क्योंकि गीला
ईंधन कैसे
जले! धुआं ही
पैदा होता है।
सूखा कर्म
क्या है? गीला
कर्म क्या है?
जिस कर्म को
करके आप उसके
बिलकुल बाहर
हो जाते हैं, वह कर्म
सूखा होता है।
जिस कर्म को
करके भी आप उसके
भीतर जुड़े रह
जाते हैं, वह
गीला होता है।
जिस कर्म को
करते समय आप
साक्षी हो
पाते हैं, विटनेस
हो पाते हैं, वह सूखा हो
जाता है। और जिस
कर्म को करते
वक्त आप
साक्षी नहीं
हो पाते, कर्ता
बन जाते हैं, वह गीला हो
जाता है। जिस
कर्म के करते
वक्त अहंकार
खड़ा हो जाता
है और कहता है,
मैं कर रहा
हूं कर्म गीला
हो जाता है।
जिस कर्म को
करते वक्त आप
कहते हैं, परमात्मा
करवा रहा है, प्रकृति
करवा रही है; मैं तो देख
रहा हूं — ऐसा
कहते ही नहीं
हैं, ऐसा
जानते हैं, ऐसा जीते
हैं, ऐसा
अनुभव करते
हैं — तो कर्म
सूखा हो जाता
है।
जिनके
पास सूखे
कर्मों का
ईंधन है, उनकी जीवन
की ज्योति, उनकी जीवन
की लपट तत्काल
ब्रह्म में
छलांग लगा
लेती है।
जिनके पास
गीले कर्मों
का ईंधन है, उन्हें
कठिनाई होती
है। ऋषि जानता
है कि बहुत
कर्म गीले हैं।
बहुत कर्म
गीले हैं। हम
सबके बहुत
कर्म गीले हैं।
तो
एक तो कर्म को
सूखा करने की
कोशिश करना, क्योंकि
अकेली
प्रार्थना से
कुछ भी न होगा।
कर्म को सूखा
करने की कोशिश
करना। अतीत के
कर्मों से भी
अपने अहंकार
को तोड़ लेना।
आज के कर्मों
से तो तोड़ ही
डालना। आने
वाले कल के
कर्मों से तो
अपने को जोड़ना
ही मत। तो
कर्म सूखे हो
जाएंगे। और
अगर
प्रार्थना की
लपट जोर से
पकड़ ले, तो
प्रार्थना की
अग्नि उन्हें
जला देगी, भस्मीभूत
कर देगी।
लेकिन
आप यह स्मरण
सदा ही रखना
कि कोई और आकर
आपकी
प्रार्थना को
पूरा नहीं कर
जाएगा। आपकी
प्रार्थना के
करने में ही
आप बदल जाते हैं।
प्रार्थना
करना ही
रूपांतरण है।
रूपांतरण
पीछे से आता
नहीं।
प्रार्थना
में ही फलित
हो जाता है।
इसलिए
प्रार्थना का
फल मत देखना, प्रार्थना
स्वयं फल है।
प्रार्थना
करके चुपचाप
भूल जाना।
प्रार्थना
स्वयं ही फल
है। आप कर सके,
यही बड़ी बात
है।
लेकिन
हमारे खयाल
गलत हैं। हम
सोचते हैं कि
प्रार्थना कर
दी हमने, अब कोई
प्रार्थना को
पूरा करेगा।
तो अब हमें
प्रतीक्षा
करनी है। तो
हमने कह दिया,
अब हमें
प्रतीक्षा
करनी है।
प्रार्थना
बहुत जीवंत
क्रिया है — आग
ही जैसी।
प्रार्थना के तीन
पहलू हैं, वह मैं
आपको कह दूं
तभी खयाल में
आ सकेगा। एक, जब आप
प्रार्थना
करते हैं, तब
आप अहंकार को
विदा देते हैं।
क्योंकि
अहंकार के
रहते
प्रार्थना
नहीं हो सकती।
जब ऋषि कहता
है, हे
अग्नि, हे
देवता, मुझे
सन्मार्ग
दिखा, क्योंकि
मुझे कुछ पता
नहीं है, तब
उसने अपने
अहंकार को
विदा दे दी।
तो जब तक आपका
अहंकार है, आप
प्रार्थना न
कर पाएंगे। तो
जब आप
प्रार्थना
करेंगे, तब
आपको अहंकार
को विदा देनी
पड़ेगी।
प्रार्थना
अपनी
द्युमिलिटी, अपनी
विनम्रता की
पूर्ण
स्वीकृति है।
आप प्रार्थना
नहीं कर सकते,
प्रार्थना
करने में आपको
मिटना पड़ेगा।
आप मिटेंगे तो
ही प्रार्थना
हो सकेगी।
तो
पहली बात, प्रार्थना
करना इस बात
की सूचना है
कि मैं अपनी
हंबलनेस को, अपनी
विनम्रता को
स्वीकार करता
हूं। अपनी
असहाय अवस्था
को, हेल्पलेसनेस
को स्वीकार
करता हूं। मैं
कहता हूं कि
मुझसे कुछ
नहीं हो सकता।
मैं घोषणा
करता हूं कि
मैं कुछ भी
करने में
समर्थ नहीं।
मैं अंगीकार
करता हूं कि
जो भी मैंने
किया वह नीचे
ले गया। जो भी
मैंने किया
उससे मैं उलझा
और उलझन में पड़ा।
मेरा किया हुआ
ही मेरा नर्क
बन गया है।
मेरे
किए हुए
कर्मों के जाल
ने ही मेरी
छाती के ऊपर
पत्थर रख दिए हैं।
अब मैं और
नहीं करता। अब
मैं कहता हूं
हे देवता, हे प्रभु,
अब तू ही कर।
अब तू मुझे ले
चल।
फिर
भी मैं कहता
हूं कि इसका
यह मतलब नहीं
है कि देवता
आपको ले जाएगा।
यह प्रार्थना
ही अगर पूरे
हृदय से की गई
और अहंकार
निशेष हो गया, तो ले
जाएगी। यह
प्रार्थना ही
ले जाएगी।
तो
पहला सूत्र
अहंकार नहीं।
दूसरा
सूत्र. अपने
पर भरोसा बहुत
कर लिया...।
एक
आदमी किसी
फकीर के पास
जाकर, इकहार्ट
के पास जाकर
कह रहा था, इकहार्ट
से कह रहा था
कि आई एम ए
सेल्फमेड मैन।
मैं ऐसा आदमी
हूं जिसने खुद
ही अपने को
निर्मित किया
है। इकहार्ट
ने उसकी बात
सुनी, आकाश
की तरफ हाथ
जोड़े और कहा, हे परमात्मा,
बहुत सी
जिम्मेदारियों
से तू मुक्त
हो गया — यू आर
फ्री आफ मच
रिस्पासिबिलिटी।
यह आदमी
सेल्पमेड है,
यह अच्छा है।
नहीं तो मैं
यही सोच रहा
था कि हे
भगवान, ऐसे—
ऐसे आदमी तू
कैसे बना देता
है! लेकिन तू
सेल्पमेड है,
तेरी बड़ी
कृपा है। कम
से कम भगवान
अपराधी होने
से बच गया।
नहीं तो
जिम्मा भगवान
पर ही जाता।
हम
सब अपने पर
बहुत भरोसा
करते हैं।
हममें से अधिक
लोग अपने को
सेल्फमेड
मानते हैं।
अपने को
सेल्पमेड
मानना, अपने को
अपने द्वारा
निर्मित
मानना वैसे ही
है, जैसे
कोई अपना बाप
होने की कोशिश
करे। करते हैं
सभी लोग। पूरी
जिंदगी यही
चेष्टा है कि
हम सिद्ध कर
दें कि हम
अपने बाप हैं।
या ऐसी चेष्टा
है कि कोई
अपने जूते के
बंद को पकड़कर
अपने को उठाने
की कोशिश करे।
करते हैं हम
सब। थक जाते
हैं, बंद
टूट जाते हैं,
हाथ—पैर टूट
जाते हैं। कोई
उठा नहीं पाता
अपने को। जूते
के बंद से
पकड़कर अपने को
उठाना!
लेकिन
यह अपने पर
भरोसा छोड़ना
प्रार्थना है।
छोड़े यह भरोसा
कि मैं खुद ही
उठा लूंगा।
छोड़े यह भरोसा
कि मैं खुद ही
उठा लूंगा।
छोड़े यह भरोसा
कि मैं खुद ही
खोज लूंगा।
छोड़े यह भरोसा
कि सन्मार्ग
मैं बना लूंगा, मैं
पहुंच जाऊंगा।
छोड़े यह भरोसा
कि मंदिर की
यात्रा मुझसे
हो सकती है।
फिर भी मैं
कहता हूं
यात्रा आपसे
ही होगी। कोई
और यात्रा
करवाने वाला
नहीं है।
लेकिन इस
भरोसे के
छोड़ते ही
यात्रा शुरू
हो जाती है।
यह भरोसा ही
बाधा है।
जटिल
मालूम पड़ेगा
थोड़ा सा। जटिल
जरा भी नहीं
है। यह भरोसा
ही बाधा है।
यह अपने पर
भरोसा छोड़े।
और अपने पर
भरोसा छोड़ते
ही आपकी ऊर्जा
मुक्त हो जाती
है। अपने पर
भरोसा छोड़ते
ही आपकी ऊर्जा
परमात्म—प्रतिष्ठित
हो जाती है।
अपने पर भरोसा
छोड़ते ही आप
ही देवता हो
जाते हैं।
अपने पर भरोसा
छोड़ते ही। कोई
और
अग्निदेवता
नहीं है, जो आपको ले
जाएगा। आपके
ही भीतर छिपी
हुई अग्नि
काफी है। आपके
भीतर ही
दिव्यता काफी
छिपी है, वही
यात्रा शुरू
कर देगी।
लेकिन
जितना अहंकार
उतनी ही वह
दिव्यता संकुचित
हो जाती है।
जितना अहंकार
उतना ही उस
दिव्यता को
मार्ग नहीं
मिलता। जितना अहंकार
उतने ही द्वार—दरवाजे
बंद।
जितना
अहंकार उतनी
ही वह दिव्यता
लाख उपाय करे
तो ऊपर नहीं
जा सकती।
क्योंकि
अहंकार पत्थर
की तरह गले
में लटका होता
है। और अहंकार
डुबाता है नदी
में। छोड़े
भरोसा। उस
पत्थर को, जिसको
गले में बांधे
हैं, उसे
अलग करें। आप
तैर जाएंगे।
आप ही तैर
जाएंगे।
कभी
आपने देखा है, नदी में
एक बड़ी अदभुत
घटना घटती है।
लेकिन हम अंधे
हैं, हम
कुछ देखते ही
नहीं। नदी में
जिंदा आदमी
डूब जाते हैं,
मुर्दा तैर
जाते हैं।
मुर्दा बड़ा
अदभुत है।
जिंदा तो डूब
गया और मुर्दा
ऊपर है।
मुर्दे को
जरूर कोई
सीक्रेट पता
है, जो
जिंदे को पता
नहीं है। कोई
राज, कोई
रहस्य, कोई
कुंजी तैरने
की, पानी
की छाती पर
होने की, न
डूबने की।
मुर्दे को
डुबाए नदी तो
हम जानें!
मुर्दे को कोई
नदी नहीं डुबा
पाती। बड़े—
बड़े सागर नहीं
डुबा पाते।
मुर्दा लहरों
पर आ जाता है।
राज क्या है? मुर्दे को
कौन सी बात
पता है, जो
जिंदों को पता
नहीं?
मुर्दे
को कुछ पता
नहीं है।
सिर्फ मुर्दा
नहीं है। वही
राज है। और जब
कोई जिंदा
रहते हुए
मुर्दे की तरह
हो जाता है, तो डूबना
असंभव है।
नीचे उतरना
असंभव है। तैर
जाता है। कोई
देवता नहीं
तैरा जाता, आपके अहंकार
का पत्थर ही
हट जाता है, तो आप हल्के
हो जाते हैं, वेटलेस हो
जाते हैं, निर्भार
हो जाते हैं।
फिर कोई डुबाए
भी तो कैसे
डुबाए! डूबते
हम अपने हाथों
से हैं। अपने
पर भरोसा ही
डुबाता है।
अपने अहंकार
का ही आग्रह
डुबाता है।
मैं ही सब कर
लूंगा, बस,
यात्रा हो
गई नर्क की।
एक ही यात्रा
हो पाएगी, नर्क
पहुंच जाएंगे।
इसलिए
ये
प्रार्थनाएं
बड़ी अदभुत हैं।
ध्यान
रहे, मेरी
अपनी कठिनाई
है। जब मैं इस
ऋषि की
प्रार्थना को
अदभुत कहता हूं
तो आप जो
प्रार्थनाएं
घरों में करते
रहते हैं, चाहे
ईशावास्य
पढ़कर ही करते
हों, उनको
अदभुत नहीं कह
रहा हूं।
बिलकुल बोगस
हैं। अग्नि
जलाए हुए लोग
बैठे हैं, हवन—कीर्तन
कर रहे हैं —
बिलकुल
नानसेंस है।
कोई अर्थ नहीं,
कोई
अभिप्राय
नहीं।
क्योंकि कहीं
भी तो, वह
जो अग्नि को
जलाकर बैठा
हुआ आदमी है, रूपांतरित
नहीं होता।
वही तो प्रमाण
है, और तो
कोई प्रमाण
नहीं है।
वह
जिंदगीभर से
एक आदमी हवन
कर रहा है, चालीस
साल से हवन कर
रहा है, वह
आदमी वही का
वही है। कहीं
कोई फर्क नहीं
पड़ा। हवन हुआ
ही नहीं। एक
आदमी रोज
मंदिर जा रहा
है, मस्जिद
जा रहा है, रोज
प्रार्थना कर
रहा है, रोज
आ रहा है।
आदमी वही का
वही है।
मस्जिद को भला
थोड़ा—बहुत नुकसान
पहुंचा हो, उनको कोई
नुकसान नहीं
हुआ। मस्जिद
भला उनसे डरने
लगी हो कि ये
सज्जन चालीस
साल से परेशान
कर रहे हैं, लेकिन वह
जरा परेशान
नहीं हैं। वह
वही के वही
हैं।
नहीं, प्रार्थना
हो नहीं रही
है। मस्जिद
में प्रवेश
नहीं हो रहा
है, मंदिर
में प्रवेश
नहीं हो रहा
है। वह प्रवेश
इतना स्थूल
नहीं है, जैसा
हम सोचते हैं।
ऋषि
की प्रार्थना
को मैं कह रहा
हूं कि सार्थक
है। बड़ी
विनम्र है, बड़ी सरल
है, बड़ी
सहज है।
हे
अग्नि, ले चल मुझे
सन्मार्ग पर,
क्योंकि
मुझे पता नहीं।
बस, इतना
जो कह सके
पूरे भाव से।
हे आकाश, ले
चल मुझे निराकार
की तरफ, क्योंकि
मुझे पता नहीं।
और
अचानक आप
पाएंगे कि
मार्ग खुल गया।
जिसने कहा, मुझे पता
नहीं, उसके
ज्ञान का
मार्ग खुला।
जिसने कहा, मैं अज्ञानी
हूं उसने शान
की तरफ पहला
कदम उठाया।
जिसने कहा, मैं ज्ञानी
हूं उसने कहीं
और थोड़ा रंध—वंध्र
रहा हो, मकान
में कोई छेद—वेद
रहा हो, जहां
से रोशनी आ
जाए, उसको
भी बंद किया।
प्रार्थना
सिर्फ अपने
अज्ञान की
स्वीकृति है।
सिर्फ अज्ञान
की ही नहीं, असहाय
अवस्था की भी।
अज्ञान ही
नहीं है, बड़े
असहाय हैं।
कोई फूल नहीं
दिखता, कोई
किनारा नहीं
दिखता, कोई
नाव नहीं
दिखती, कुछ
नहीं दिखता।
सागर अनंत
दिखता है।
गहराई भयंकर
है। सामर्थ्य
नहीं है
बिलकुल। आंख
बंद करके समझे
चले जाते है
कि नाव में
हैं — कागज की
नावें हैं! आंख
बंद करके समझे
चले जाते हैं
कि ठीक है सब, तट पर खड़े
हैं। बड़ी
असहाय —
बिलकुल
हेल्पलेस है।
प्रार्थना
में अज्ञान की
स्वीकृति है, साथ ही
स्वीकृति है
इस बात की कि
मैं असहाय हूं।
कोई उपाय नहीं,
निरुपाय
हूं। और जिसने
यह की घोषणा
कि मैं
निरुपाय हूं
उसके हाथ आया
उपाय। यह
निरुपाय होने
की घोषणा ही
उपाय है। यह
असहाय होने की
पूर्ण
स्वीकृति ही
परम सहारे को
उपलब्ध हो
जाना है।
जिसने छोड़ा अपने
को, उसने
पाया प्रभु को।
जिसने
कहा, अब
से तू ही चला
तो मैं चलूंगा,
तू ही उठा
तो मैं उठूंगा,
अब तू जहां
ले जाए वहीं
मैं जाऊंगा।
जिसने इतनी
सरलता से, अनकंडीशनल,
बेशर्त
समर्पण से, सरेंडर से
अनंत के प्रति
ज्ञापन किया,
उसके भीतर
का द्वार खुला।
ये
प्रार्थनाएं
द्वार खोलने
की कुंजियां
हैं। ये छोटी—छोटी
प्रार्थनाएं
बड़ी गहरी हैं।
ये बड़ी
दूरगामी हैं।
इस
प्रार्थना को
स्मरण रखें।
उठते, बैठते,
सोते, चलते,
क्षणभर को
मौका मिले, तो कहें
अपने से, नहीं
कुछ जानता हूं
असहाय हूं।
प्रभु, तू
ले चल।
फिर
भी मैं कहता
हूं जोर देकर
कहता हूं कि
कोई आपको ले
जाने वाला
नहीं आएगा।
लेकिन यह
प्रार्थना
आपको ले जाएगी।
आप ही समर्थ
हो जाएंगे
प्रार्थना के
करते ही।
प्रार्थना
शक्ति है, बड़ी महत
शक्ति है।
छोटे
से अणु में
अगर विराट
ऊर्जा छिपी है, तो छोटी
सी प्रार्थना
में अनंत
अणुओं से भी
ज्यादा विराट
ऊर्जा छिपी है।
करें और देखें।
तत्क्षण
परिणाम है, तत्क्षण।
एकदम हल्के हो
जाएंगे। पंख
निकल आएंगे और
उड़ने की
तैयारी हो
जाएगी। भार
गया। भार है
ही हमारी
अस्मिता में,
अहंकार में,
ईगो में। और
हम ऐसे कुशल
हैं कि हम
प्रार्थना तक
से अहंकार को
भर लेते हैं।
देखें, मंदिर एक
आदमी
प्रार्थना
करके लौटता है,
तो चारों
तरफ देखता
लौटता है कि
पापी जा रहे हैं।
क्योंकि वह
प्रार्थना
करके आ रहा है।
मोहम्मद
एक दिन एक
युवक को कहे
कि कभी मेरे
साथ
प्रार्थना को
चल। मोहम्मद
ने कहा था तो
वह टाल न सका।
जैसे कि मैं
आपसे कभी कहता
हूं कुछ, तो आप नहीं
टाल पाते हैं।
नहीं टाल सका।
मोहम्मद ने
कहा, सोचा
कि चलो, नहीं
मानते, चले
चलें। पहुंच
गया सुबह।
मोहम्मद तो
नमाज में खड़े
हो गए, वह
भी अपना कुछ—कुछ
गुन—गुन करता
रहा खड़ा होकर।
गुन—गुन ही कर
सकता था।
मोहम्मद बड़े
बेचैन हुए कि
इस आदमी को
गलत ले आए।
लेकिन अब कोई
उपाय न था।
नमाज
पूरी की, वापस लौटे।
सुबह का वक्त,
गर्मी के
दिन हैं, लोग
अभी भी सोए
हुए हैं। उस
युवक ने
मोहम्मद से
कहा, देखते
हैं हजरत, इन
लोगों का क्या
होगा? नमाज
का वक्त, अभी
तक बिस्तरों
पर पड़े हैं!
क्या खयाल है
आपका? ये
लोग नर्क
जाएंगे?
मोहम्मद
ने कहा, भाई, ये
कहां जाएंगे
मुझे पता नहीं,
मुझे वापस
मस्जिद जाना
है। तो क्या
हो गया आपको? उन्होंने
कहा, मेरी
पहली नमाज तो
बेकार गई।
तुझे मैंने
नुकसान
पहुंचाया।
तुझे मैंने
नुकसान
पहुंचाया।
नमाज नहीं
करने के पहले
तू कम से कम
विनम्र था, कम से कम
इनको पापी
नहीं समझता था।
यह तो और
उपद्रव हो गया।
तू मुझे माफ
कर और दुबारा
मस्जिद मत आना।
और मैं जाऊं, फिर से नमाज
पढूं, वह
पहली नमाज तो
बेकार गई।
मैंने तुझे
नुकसान
पहुंचाया।
तेरी अकड़ और
भारी हुई।
प्रार्थना से
अकड़ टूटनी
चाहिए। तो वह
और भारी हो गई।
तिलक, चंदन—वंदन
लगाकर देखा, आदमी कैसा
अकड़कर चलता
है! चोटी—वोटी
बढ़ाकर देखा
आदमी...! जैसे
परमात्मा से
कोई लाइसेंस
उनको मिल गया
है। वे कुछ
सगे—संबंधी हो
गए, अब वह
भाई— भतीजों
में उनकी
गिनती है
परमात्मा के।
अब वे सारी
दुनिया को
नर्क भेजे
बिना नहीं मानेंगे।
प्रार्थना
भी अहंकार को
भर जाती है, तो आदमी
अदभुत है।
चालाकी की कोई
सीमा नहीं है।
प्रार्थना की
शर्त ही
अहंकार—विसर्जन
है। धार्मिक
आदमी कह भी न
सकेगा अपने
मुंह से कि मैं
धार्मिक हूं।
क्योंकि इतने
अधर्म का उसे
बोध होगा अपने
में कि वह
कहेगा कि
मुझसे
अधार्मिक और
कौन है? धार्मिक
आदमी कह भी न
सकेगा कि मैं
पुण्यात्मा
हूं। क्योंकि
पुण्य में भी
उसे पाप की
रेखा दिखाई पड़ेगी,
वह अहंकार
खड़ा हुआ दिखाई
पड़ेगा। वह
कहेगा, मुझसे
पापी और कौन?
इसलिए
वह ऋषि कहता
है कि न मालूम
कितने कर्म किए
हैं, जो
भारी पड़ेंगे।
न मालूम कितने
पाप किए हैं, जो भारी पड़ेंगे।
योग्य तो मैं
बिलकुल नहीं
हूं। पात्र तो
मैं बिलकुल
नहीं हूं।
दावेदार मैं
हो नहीं सकता।
क्लेम मैं कर
नहीं सकता कि
मुझे मिल जाए।
सिर्फ
प्रार्थना कर
सकता हूं।
ध्यान
रहे, इसलिए
तीसरा सूत्र
आपसे कहता हूं
: प्रार्थना दावा
नहीं है, क्लेम
नहीं है, पात्रता
की घोषणा नहीं
है, अपात्रता
की स्वीकृति
है। मैं कुछ
हकदार हूं ऐसा
भाव भी आ गया, तो
प्रार्थना
विषाक्त हो गई।
मैं हकदार तो
बिलकुल नहीं
हूं।
इसीलिए
प्रार्थना
करने वाले को
जब मिलता है कुछ, तो वह
कहता है कि
तेरी कृपा से
मिला, मेरी
योग्यता से
नहीं। इसलिए
प्रार्थना
करने वालों ने
प्रभु—प्रसाद
शब्द खोजा है।
वे
कहते हैं, जो मिलता
है वह प्रभु—प्रसाद
है, डिवाइन
ग्रेस। हम
कहां पात्र थे।
हमसे ज्यादा
अपात्र तो
खोजना
मुश्किल था।
फिर
भी मैं कहता
हूं कि मिलता
है आपकी
पात्रता से।
आपकी
अपात्रता से
नहीं मिलता।
लेकिन अपनी
अपात्रता का
बोध ही
प्रार्थना की
पात्रता है।
अपनी
अपात्रता का
बोध ही
प्रार्थना की
पात्रता है।
अपने ना—कुछ
होने का बोध
ही प्रार्थना
का दावा है।
दावा न करना
ही प्रार्थना
का रहस्य है।
प्रार्थना
भेजती है। न
आए, तो
हम कहेंगे, हम इस योग्य
कहां थे कि आए।
आ जाए, तो
हम कहेंगे, उसकी कृपा
है।
यद्यपि
उसकी कृपा से
नहीं मिलता, क्योंकि
उसकी कृपा सब
पर बराबर है।
अगर उसकी कृपा
से मिलता हो, तो उसका
मतलब यह हुआ
कि वहां भी
भाई— भतीजावाद
कुछ चलता होगा।
क्योंकि एक
आदमी ने घंटे
बजाकर मंदिर
में प्रार्थना
कर ली और कहा
कि हे भगवान, तू पतित—पावन
है कि तू महान
है...। जैसे कोई
राजा के दरबार
में कुछ कह
देता हो —
दरबारी लोग
होते हैं न — और
राजा प्रसन्न
हो जाता हो।
ऐसे ही लोग
प्रार्थना
किए चले जाते
हैं कि शायद
परमात्मा
प्रसन्न हो
जाए। इसलिए
हमने सब
प्रार्थनाएं
राजाओं के
दरबारों में
बोले गए वचनों
के आधार पर
निर्मित की हैं
— दरबारी! ही
दरबारी भी
कहीं कोई
प्रार्थना हो सकती
है? खुशामदें
हैं। खुशामद
को संस्कृत
में कहते हैं
स्तुति।
खुशामद है।
नहीं, परमात्मा
महान है, यह
नहीं कहना है,
यह तो खुशामद
हो जाएगी। मैं
कुछ नहीं हूं
इतना निवेदन
काफी है। तू
महान है, यह
नहीं।
क्योंकि मैं
कितना ही महान
कहूं मुझ
क्षुद्र से
तेरी महानता
की घोषणा भी
कैसे हो
सकेगी! और मेरे
द्वारा बताई
गई तेरी
महानता कितनी
महानता होगी!
और मैं कितना
तुझे नाप
पाऊंगा! कितनी
तेरी महानता
का हिसाब लगा
पाऊंगा! नहीं,
तेरी
महानता के लिए
मेरे पास कोई
मापदंड नहीं हो
सकता। मैं
अपनी
क्षुद्रता को
ही माप लूं
उतना काफी है।
इतना ही मैं
कह पाऊं
प्रार्थना के
क्षण में कि
मैं कुछ भी
नहीं हूं काफी
है।
और
उसकी कृपा से
नहीं मिलता
कुछ, यह
मैं आपसे कह
दूं। यद्यपि
जब भी किसी को
मिलता है, तो
वह जानता है, उसकी कृपा
से मिला है।
जब भी किसी को
मिला है, तो
उसने घोषणा की
है
हृदयपूर्वक, नाचकर गांव—गांव
खबर कर दी है
लोगों को कि
उसकी कृपा से
मिला है। उसका
प्रसाद है।
यद्यपि उसकी
कृपा से किसी
को कुछ नहीं
मिलता है।
क्योंकि कृपा
तो वही कर
सकता है जो
अकृपा भी कर
सकता हो। उसकी
कृपा तो
शाश्वत है।
उसकी कृपा तो
बरस ही रही है।
बुद्ध
कहते थे, बरस रहा है
अमृत, लेकिन
कुछ हैं, जो
अपने घड़ों को
उलटा रखे बैठे
हैं। जिस दिन
घड़ा सीधा होगा,
उस दिन अमृत
बरसने लगेगा,
ऐसा नहीं है।
अमृत तो उस
दिन भी बरस
रहा था, जिस
दिन आप घड़ा
उलटा किए थे।
वहां भी बरस
रहा था, जहां
कोई घड़ा न था।
कोई आप पर
विशेष कृपा
नहीं हो जाएगी
कि जब आप अपनी
मटकी सीधी
करेंगे, तो
कोई अमृत आप
पर बरसने आ
जाएगा कि चलो
इसकी मटकी
सीधी है, बरस
जाएं! अमृत तो
बरस ही रहा है।
परमात्मा
की कृपा उसका
स्वभाव है।
अस्तित्व का
अमृत उसका
स्वभाव है। वह
बरस ही रहा है।
वह सतत बरस
रहा है। हमारी
मटकी उलटी हम
रखकर बैठे हैं।
अहंकार
मटकी को उलटा
रखकर बैठता है
और भरने की
कोशिश करता है।
मटकी को सीधी
रखने का मतलब
है, मैं
ना—कुछ हूं? इसकी घोषणा।
जब मटकी सीधी
होती है, तो
उसके भीतर का
खालीपन ही तो
प्रगट होता है,
और क्या
प्रगट होता है?
जब मटकी
उलटी होती है,
तो खालीपन
छिपा होता है,
और क्या
होता है?
उलटी
मटकी अपने भरे
होने का भ्रम
पैदा कर लेती
है, क्योंकि
खालीपन दिखाई
नहीं पड़ता, एंपटीनेस
दबी होती है।
इसीलिए तो हम मटकी
को उलटा रखे
रहते हैं।
सीधी होकर
मटकी को पता
चलता है कि
मैं तो सिवाय
खालीपन के और
कुछ भी नहीं
हूं। सिर्फ एक
जगह हूं
जिसमें कुछ भर
सकता है। भरा
हुआ मुझमें
कुछ भी नहीं
है।
जिसने
जाना कि मैं
ना—कुछ हूं
उसकी मटकी हो
गई सीधी।
जिसने अपनी
मटकी की सीधी, गया प्रार्थना
में, कृपा
बरस रही है, वह भर जाएगी।
जब भरेगी, तब
वह कहेगा कि
उसकी कृपा।
यद्यपि आप
मटकी सीधी न
करते, तो
उसकी कृपा हो
नहीं सकती थी।
आपकी ही कृपा
है कि आपने
मटकी सीधी रखी।
अपने
पर कृपा करना
प्रार्थना है।
अपने पर करुणा
करना
प्रार्थना है।
अपने
पर कूर होना
अहंकार है।
अपने साथ
ज्यादती करना
अहंकार है।
अपने साथ
हिंसा करना
अहंकार है।
इतना
ही सुबह के
लिए। फिर हम
सांझ...।
अब
हम चलें, कृपा करें, मटकी सीधी
रखें।
thank you guruji
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