पउड़ी:
35
धरम
खंड का एहो
धरमु।
गिआन
खंड का आखहु
करमु।।
केते
पवन पाणि
वैसंतर केते
कान महेस।
केते
बरमे घाड़ति
घड़िअहि रूप
रंग के वेस।।
केतीआ
करम भूमी मेर
केते केते धू
उपदेस।
केते
इंद चंद सूर
केते केते
मंडल देस।।
केते
सिध बुध नाथ
केते केते
देवी वेस।
केते
देव दानव मुनि
केते केते रतन
समुंद।।
केतीआ
खाणी केतीआ
वाणी केते पात
नरिंद।
केतीआ
सुरती सेवक
केते 'नानक'
अंतु न
अंतु।।
पउड़ी:
36
गिआन
खंड महि गिआनु
परचंड।
तिथै
नाद विनोद कोउ
अनंदु।।
सरम
खंड की वाणी
रूपु।
तिथै
घाड़ति घड़ीऐ
बहुतु
अनूपु।।
ताकीआ
गला कथीआ ना
जाहि।
जे
को कहै पिछै
पछुताइ।।
तिथै
घड़ीऐ सुरति
मति मनि बुधि।
नानक
ने अस्तित्व
और उसकी खोज
को चार खंडों
में बांटा है।
उन चार खंडों
को थोड़ा समझ
लें। उनका
विभाजन बहुत
वैज्ञानिक
है। पहले खंड
को वे
धर्म-खंड कहते
हैं, दूसरे को
ज्ञान, तीसरे
को लज्जा और
चौथे को कृपा।
धर्म
से अर्थ है, दि ला, नियम;
जिससे
अस्तित्व
चलता है।
जिसको वेद ने
ऋत कहा है। ऋत
के कारण ही तो
हम बदलाहट को
मौसम की ऋतु कहते
हैं। उन दिनों
जब वेद लिखे
गए तो ऋतुएं
बिलकुल
निश्चित थीं।
रत्ती-पल फर्क
न पड़ता था। हर
वर्ष वसंत उसी
दिन आता था
जिस दिन सदा
आता रहा था।
हर वर्ष वर्षा
उसी दिन शुरू
होती थी जिस
दिन सदा होती
रही थी। आदमी
ने प्रकृति को
अस्तव्यस्त
कर दिया है।
इसलिए ऋतुएं
भी अब ऋतुएं
नहीं हैं।
क्योंकि ऋतु
शब्द ही हमने
इसलिए दिया था
कि
अपरिवर्तित
नियम के अनुसार
जो चलती थीं।
एक अनुशासन
था। आदमी की
तथाकथित
समझदारी के
कारण सब
अस्तव्यस्त
हो गया है। ऋतुओं
ने भी अपनी
पटरी छोड़ दी।
अब
पश्चिम में इस
पर बहुत चिंता
पैदा हुई है। एक
नया आंदोलन
चलता है, इकॉलाजी।
वे कहते हैं
कि प्रकृति को
मत छुओ। हमने
बहुत नुकसान
कर दिया है। और
प्रकृति को उस
पर ही छोड़ दो।
उसमें किसी तरह
का मानवीय
हस्तक्षेप
खतरनाक है।
उससे न केवल
प्रकृति, बल्कि
अब मनुष्य का
भी अंत करीब
है।
वेद ने
जब मौसम के
परिवर्तन को
ऋतु कहा, तो
ऋत शब्द के
कारण कहा। ऋत
का अर्थ होता
है, अपरिवर्तित
नियम, अनचेंजिंग
ला; जिसको
लाओत्से ने
ताओ कहा है।
उस
नियम को जानने
की जो विधि है, वह धर्म है।
जीवन का जो
परम नियम है, जो उसका
गहनतम
अनुशासन है, डिसिप्लिन
है, उसे
पहचान लेने की
कला का नाम
धर्म है।
बुद्ध ने तो
धम्म या धर्म
शब्द का अर्थ
नियम की ही
तरह उपयोग
किया है। तो
जब
बौद्ध-भिक्षु
कहते हैं, धम्मं
शरणं गच्छामि,
तब वे ये कह
रहे हैं कि अब
हम नियम की
शरण जाते हैं।
अब हम अपने को
छोड़ते हैं। और
हम उस परम नियम
की शरण गहते
हैं, जिससे
हम पैदा हुए
और जिसमें हम
लीन हो जाएंगे।
अब हम उसी के
सहारे
चलेंगे। सत्य
को जान लेना, उस नियम को
जान लेना ही
है।
जीवन
का जो मूल
आधार है, उसको
पहचान लेने को
नानक कहते हैं,
धर्म-खंड।
हम
जीते हैं; लेकिन हम
विचार से जीते
हैं। हम
सोच-सोच कर कदम
रखते हैं। और
जितना सोच-सोच
कर हम कदम
रखते हैं, उतने
ही हमारे कदम
गलत पड़ते हैं।
जो-जो हम बिना
सोचे करते हैं,
वही-वही ठीक
कदम पर ले
जाता है।
तुम
खाना खाते हो।
फिर उसे पचाने
के लिए तो तुम
नहीं सोचते।
फिर तो नियम
उसे पचाता है।
किसी दिन
कोशिश कर के
देखो। भोजन कर
लो, फिर सोचो
कि अब कैसे
शरीर पचाएगा?
फिर चौबीस
घंटे पेट का
खयाल रखो कि
पच रहा है कि
नहीं पच रहा
है? अपच हो
जाएगी उसी
दिन। क्योंकि
जैसे ही विचार
अचेतन नियम
में बाधा
डालता है, वैसे
ही उपद्रव हो
जाता है। तुम
रोज सोते हो सांझ,
एक दिन सोते
वक्त सोच कर
सोओ कि किस
तरह सोता हूं?
किस तरह
नींद आती है? विचार करो।
उस रात नींद
खो जाएगी।
इसलिए ज्यादा
विचार करने
वाले लोगों को
अगर अनिद्रा
का रोग हो
जाता है तो
कुछ आश्चर्य
नहीं है।
जीवन
तो चल रहा है।
वृक्ष फूल को
खिलाते वक्त सोचता
थोड़े ही है कि
कब खिलाऊं? कि समय पक
गया या नहीं? मौसम आ गया
है या नहीं? वृक्ष जानता
है अपनी जड़ों
से, सोच कर
नहीं। यह
उसमें अंतर्भावित
है। नदियां
सागर की तरफ
बहती हैं। उन्हें
कुछ दिशा का
बोध है? उनके
पास कोई नक्शा
है कि सागर
कहां है? लेकिन
एक अचेतन नियम
उन्हें सागर
की तरफ ले जाता
है।
यह
इतना विराट
जगत चल रहा है
बिना विचार
के। और इस
विराट जगत में
कहीं भी कोई
गलती नहीं हो
रही है। कहीं
कोई भूल-चूक
नहीं हो रही, सब बिलकुल
ठीक है। सिर्फ
आदमी गलत हो
गया है। क्योंकि
आदमी नियम से
नहीं चल रहा
है, विचार
से चल रहा है।
आदमी सोचता है,
करूं या न
करूं? ठीक
है या गलत? उचित
होगा कि
अनुचित? परिणाम
क्या होंगे? फल मिलेगा
या नहीं
मिलेगा? लाभ
होगा या हानि?
लोग क्या
कहेंगे? हजार
विचार करता
है। और इस
हजार विचार के
धुएं में ही
जीवन के नियम
की सीधी रेखा
उलझ जाती है और
खो जाती है।
निर्विचार से
जो चलने लगा, वही सिद्ध
है।
निर्विचार से
जो जीने लगा, वही आ गया
शरण धर्म की।
तो
धर्म कोई
बुद्धिमानी
नहीं है और न
तुम्हारी
बुद्धि का कोई
निर्णय है।
धर्म तो बुद्धि
से थक गए आदमी
की--जो बुद्धि
से परेशान हो
गया है, जिसने
अपनी तरफ से
सभी हाथ-पैर
मार लिए और
कुछ परिणाम न
हुआ, जो सब
तरफ से थक गया
और असहाय हो
गया--उस आदमी
की खोज है
धर्म। वह छोड़
देता है
बुद्धि को। वह
कहता है, अब
तू जैसा चलाए।
उसको ही नानक
हुक्म कहते
हैं। वे कहते
हैं, अब
उसके हुक्म से
चलूंगा।
इससे
तुम यह न
समझना कि वहां
बैठा हुआ कोई
महापुरुष, कोई परमपिता,
कोई
परमात्मा
हुक्म दे रहा
है। वहां कोई
बैठा हुआ नहीं
है। हुक्म चल
रहा है बिना
हुक्मी के।
नियम चल रहा
है। नियम ही
परमात्मा है।
हमें भाषा ऐसी
उपयोग करनी
पड़ती है जिसे
आदमी समझ ले।
तो हमें
प्रतीक बनाने पड़ते
हैं। कई बार
नासमझ आदमी
प्रतीकों को
जकड़ कर बैठ
जाता है। वह
सोचता है कि
परमात्मा का कोई
मुंह है, या
हाथ-पैर हैं।
वह किसी
सिंहासन पर
बैठ कर हुक्म
चला रहा है।
हम हुक्म को
मानें या न
मानें! न
मानें तो
अधार्मिक, मान
लें तो
धार्मिक।
नहीं मानेंगे
तो परमात्मा
नाराज होगा, क्रुद्ध
होगा, दंड
देगा।
मानेंगे तो
पुरस्कृत
करेगा।
ये सब
व्यर्थ की
बातें हैं। यह
तुम प्रतीक को
जरूरत से
ज्यादा खींच
लिए। नियम है।
कोई व्यक्ति
वहां बैठा हुआ
नहीं है। उस
नियम की शरण
जब तुम चले
जाते हो तो तुमसे
गलत होना बंद
हो जाता है।
क्योंकि वह
नियम गलत करना
जानता ही
नहीं। और जब
तुमसे ठीक होने
लगता है तो
सुख का संगीत
बजने लगता है।
ठीक का अर्थ
ही यही है कि
जब सब ठीक
होगा तो
तुम्हारे
चारों तरफ सुख
की सुगंध
होगी। वह ठीक
होने की खबर
है। जब कुछ
गलत होगा, तब तुम्हारे
पास दुख की
छाया होगी।
जितना गलत होता
जाएगा, उतनी
चिंता गहन
होगी। दुख, पीड़ा होगी।
तुम दुख को
दंड मत समझना।
कोई दंड नहीं
दे रहा है।
तुम दुख को तो
सिर्फ गलत
होने का सूचन
समझना।
जैसे
कोई आदमी
सीधे-सादे
रास्ते को छोड़
कर जंगल में
भटक जाए, कांटे
चुभने लगें, तो समझ लेता
है कि यह
रास्ता
रास्ता नहीं
है। इस पर कभी
कोई चला नहीं।
कांटे कोई दंड
नहीं हैं।
जहां कभी कोई
नहीं चला है, वहां चलने
से कांटे
स्वभावतः
गड़ेंगे। वह
आदमी रास्ता
खोज कर ठीक
जगह लौट आता
है। जैसे ही ठीक
जगह लौटता है,
कांटे
चुभने बंद हो
जाते हैं।
वहां कांटे
नहीं हैं। तुम
जब दीवाल से
टकराते हो तो
सिर में चोट
लगती है। कोई
दीवाल
तुम्हें दंड
नहीं दे रही
है। दीवाल को
तुम से
प्रयोजन क्या
है? जब तुम
दरवाजा खोज
लेते हो, चोट
नहीं लगती, तुम बाहर
निकल जाते हो।
बस ऐसा
ही है। जिस
दिन तुम नियम
को पहचानने
लगते हो, तुम्हें
दरवाजा मिल
गया। और जब तक
तुम नियम को
नहीं पहचानते
तब तक तुम
दीवाल से
टकराते रहते
हो। कितनी
चोटें हैं
तुम्हारे सिर
पर! कितने घाव
जन्मों-जन्मों
में तुमने
इकट्ठे कर लिए
हैं! और सभी
घाव रिसते
हैं। सभी घाव
पीड़ा देते
हैं। और तुम
सोचते हो, कोई
तुम्हें दंड
दे रहा है।
कोई
तुम्हें दंड
नहीं दे रहा
है। तुम अपना
किया ही, तुम
अपना बोया ही
काटते हो। और
अगर यह
तुम्हें समझ
में आ जाए कि
जब भी दुख हो
तो समझ लेना
कि कहीं तुम
प्रकृति से
हटे। जब भी
कोई बीमारी
तुम्हें पकड़े
तो उसका अर्थ
यह है कि तुम
प्रकृति से
कुछ यहां-वहां
गए। बीमारी
केवल सूचक है।
और सूचक होने
के कारण हितकर
है, कल्याणदायी
है। क्योंकि
अगर तुम्हें
बीमारी ही न
हो, तो तुम
जान ही न
पाओगे कि तुम
नियम से हट गए
हो। और अगर
तुम्हें दुख न
हो तो तुम जान
ही न पाओगे कि
तुम जीवन की
शाश्वत-व्यवस्था
से विपरीत जा
रहे हो। तब तो
तुम भटकते ही
चले जाओगे।
तुम्हारे
लौटने का कोई
उपाय नहीं
होगा। दुख
तुम्हें
लौटाता है।
इसलिए तो दुख
में परमात्मा
की याद आती
है। सुख में
तुम भूल जाते
हो।
संत
प्रार्थना
करते रहे हैं
कि हे
परमात्मा, थोड़ा दुख तो हमेशा
ही देते रहना।
ताकि याद बनी
रहे। और हम तुझे
भूल न जाएं।
और प्रार्थना
जारी रहे। हम
तुझे पुकारते
रहें। अगर दुख
न हुआ, तो
हम तुझे
पुकारेंगे
कैसे? सुख
में हम भूल
जाएंगे और खो
जाएंगे।
दुख का
एक ही अर्थ है
कि तुम धर्म
से कहीं डगमगा
गए हो। न तो
दूसरे पर दोष देना, न भाग्य को
दोष देना, न
परमात्मा पर
नाराज होना।
इसको तुम सूचक
समझना और खोज
करना कि तुम
प्रकृति से
कहां विपरीत
चले गए हो? और
अनुकूल आने की
कोशिश करना।
प्रकृति के
अनुकूल आना
धर्म है।
नानक
पहले खंड को
धर्म-खंड कहते
हैं। दूसरे खंड
को ज्ञान-खंड
कहते हैं।
धर्म
तो है। जिस
दिन तुम उसे
पहचान लेते हो, उस दिन
ज्ञान। धर्म
तो मौजूद है, लेकिन तुम
आंख बंद किए
हो। सूरज तो
निकला है, लेकिन
तुम द्वार बंद
किए बैठे हो।
दीया तो जल रहा
है, लेकिन
तुमने पीठ कर
ली है दीए की
तरफ। वर्षा तो
हो रही है, लेकिन
तुम भीगने से
वंचित हो। तुम
किसी अंधेरी
गुहा में छिपे
बैठे हो। धर्म
तो चल रहा है, लेकिन तुम
कहीं दूर हट
गए हो।
वापस
लौट आने का
नाम ज्ञान है।
और हर मनुष्य
को वापस लौटना
पड़ेगा।
क्योंकि
मनुष्य की यह
क्षमता है कि
वह दूर जा
सकता है।
पशुओं में कोई
धर्म नहीं है।
पौधों में, पक्षियों में
कोई धर्म नहीं
है। क्योंकि
वे दूर जा ही
नहीं सकते। वे
कुछ भी
अप्राकृतिक
करने में असमर्थ
हैं। वे जो भी
करते हैं वही
प्राकृतिक
है। उनमें
इतना भी बोध
नहीं है कि वे
भटक सकें। भटकने
के लिए भी
थोड़ी समझ
चाहिए। गलत
जाने के लिए
भी थोड़ी
हिम्मत
चाहिए। मार्ग
से उतरने के
लिए भी थोड़ा
होश चाहिए।
उतना होश तुम
में है। पर
मार्ग पर आने
के लिए वापस
फिर, और भी
ज्यादा होश
चाहिए।
तो पशु
हैं, वे भटक
नहीं सकते, इसलिए ठीक
जगह हैं। वह
कोई बहुत गौरव
की स्थिति
नहीं है। वह
मजबूरी है।
फिर सामान्य
मनुष्य है; उसमें थोड़ा
बोध है, वह
भटक सकता है, इसलिए भटक
गया है। फिर
बुद्धपुरुष
हैं। नानक और
कबीर हैं।
उनके पास परम
होश है। वे
वापस लौट आए
हैं।
पशुओं
को जो सहज
उपलब्ध है वह
तुम्हें
साधना से
उपलब्ध करना
पड़ेगा। बुद्ध
वहीं लौट आते
हैं जहां पौधे
सदा से हैं।
वही परम आनंद
जो साधारण
पौधे को
उपलब्ध है, बुद्ध को भी
उपलब्ध होता
है। लेकिन एक
बुनियादी
फर्क होता है।
वह फर्क यह है
कि बुद्ध को
वह आनंद परम
बोधपूर्वक
होता है। वे
होश से भरे हुए
उस आनंद को
भोगते हैं।
पौधे पर वह
आनंद बरस रहा
है। वह भटक भी
नहीं सकता, लेकिन उसके
पास बोध भी
नहीं है।
तो
प्रकृति
अचेतन है। और
बुद्धपुरुष
सचेतन रूप से
प्राकृतिक हैं।
और दोनों के
बीच में हम
हैं। प्रकृति
अचेतन है।
वहां सुख सहज
है। वहां सुख
हो ही रहा है। लेकिन
वहां कोई
जानने वाला
नहीं। उस सुख
की प्रतीति और
साक्षात करने
वाला कोई भी
नहीं है। जैसे
तुम बेहोश पड़े
हो और
तुम्हारे चारों
तरफ रत्नों की
वर्षा हो रही
है। पत्थर बरस
रहे हैं या
रत्न, कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
क्योंकि तुम
बेहोश पड़े हो।
फिर तुम आंख
खोलते हो। फिर
तुम होश से
भरते हो। और
तब तुम पहचान
पाते हो कि
कैसी अपरंपार वर्षा
तुम्हारे
चारों तरफ हो
रही थी।
बुद्ध
वही पाते हैं
जो प्रकृति
में सहज ही
उपलब्ध है, पत्थरों को
मिला हुआ है।
वहीं लौट आते
हैं। लेकिन
लौट आना बड़ा
नया है। जगह
तो वही है
जहां चट्टानें
खड़ी हैं। जिस
वृक्ष के नीचे
बुद्ध को ज्ञान
हुआ, वह
वृक्ष भी वहीं
है जहां बुद्ध
हैं। होगा ही,
क्योंकि
परमात्मा
कण-कण में
छिपा है।
लेकिन उस
बोधिवृक्ष
में और बुद्ध
में क्या फर्क
है? फर्क
महान है। जगह
तो एक है और
अंतर अनंत है।
अंतर यह है कि
बुद्ध सजग हो
कर, होशपूर्वक
उस आनंद का, उस अपरंपार
महिमा का
अनुभव कर रहे
हैं। वह महिमा
वृक्ष पर भी
बरस रही है, लेकिन उसे
कुछ पता नहीं।
वह महिमा तुम
पर भी बरस रही
है, लेकिन
तुम पीठ किए
खड़े हो। वृक्ष
का मुंह है उसकी
तरफ, लेकिन
वृक्ष उसे जान
नहीं सकता।
तुम जान सकते हो,
लेकिन तुम
पीठ किए खड़े
हो। जिस दिन
तुम सम्मुख हो
जाओगे, जिस
दिन तुम्हारी
आंखें उस
महिमा की तरफ
उठेंगी और तुम
पहचानोगे, उसे
नानक ज्ञान
कहते हैं।
ज्ञान-खंड
मनुष्य की
उपलब्धि है।
अगर मनुष्य न हो
तो धर्म तो
होगा, ज्ञान
नहीं होगा।
जगत धर्म से
चलता रहेगा।
लेकिन ज्ञान
नहीं होगा।
इसका यह अर्थ
हुआ कि अस्तित्व
ने मनुष्य के
भीतर से ज्ञान
को खोजने की
कोशिश की है।
इसलिए मनुष्य
बड़े शिखर पर
है। तुम्हें
पता ही नहीं
कि तुम्हें
कितनी महिमा
सहज उपलब्ध
होने की संभावना
है। तुम्हारे
द्वारा
परमात्मा सजग होना
चाहता है।
तुम्हारे
माध्यम से
जागना चाहता
है।
प्रकृति
में परमात्मा
सोया है।
मनुष्य में उसने
करवट बदली है।
वह मनुष्य में
होश में आना चाहता
है। प्रकृति
में आधी
अंधेरी रात है, गहन नींद
है। मनुष्य
में सुबह होने
के करीब का
क्षण है। तुम
अगर चूको तो
तुम अंधेरी
रात में रहे
आओगे। तुम आंख
खोल कर देख लो
तो तुम भी बुद्ध,
नानक और
कबीर हो
जाओगे। और जब
तक तुम हो न
जाओ, तब तक
पीड़ा बनी
रहेगी। इसको
तुम शाश्वत
नियम समझना कि
जो तुम हो सकते
हो अगर न हुए, तो दुख में
रहोगे। तुम जो
हो सकते हो
अगर हो गए, तो
तुम्हारे
जीवन में आनंद
हो जाएगा।
आनंद
का अर्थ है, फुलफिलमेंट।
वह उसे पा
लेना है, जो
पाने की
तुम्हारी
क्षमता थी। जो
तुम्हारे बीज
में छिपा था, वह जब तक फूल
तक न पहुंच
जाएगा, तब
तक भीतर एक
तनाव बना
रहेगा। जिस
गीत को गाने
के लिए तुम
पैदा हुए हो, अगर बिना
गाए मर गए, तो
तुम दुख में
मरोगे। और उस
गीत को गाने
के लिए
तुम्हें
बार-बार जन्म
लेना पड़ेगा।
क्योंकि प्रकृति
अधूरे को
स्वीकार नहीं
करती। जिस दिन
तुम पूरे हो
जाओगे उसी दिन
स्वीकार हो
जाओगे।
इसलिए
हिंदू कहते
हैं कि जो
पूर्ण हो गया, उसका कोई
आवागमन नहीं
है। आवागमन
इसलिए नहीं कि
उसने वह गीत
गा लिया जो
गाना था। उसने
वह आनंद पा
लिया जो पाना
था। उसकी
सरिता सागर
में पहुंच
गयी। अब लौटने
की कोई वजह न
रही। तुम लौटते
हो बार-बार
क्योंकि तुम
बार-बार असफल
हो रहे हो।
तुम्हारी
असफलता के
कारण तुम्हें
वापस लौटना
पड़ता है। और
प्रकृति
तुम्हें
भेजती जाएगी।
उसे कोई जल्दी
नहीं है।
प्रकृति को
कोई भी जल्दी
नहीं है। अनंत
समय है उसके
पास। तुम कितने
ही टकराते रहो,
वह तुम्हें
वापस भेजती
रहेगी।
मैंने
सुना है, एक
ट्रेन में एक
बंबई के सज्जन
और एक बिहारी
सज्जन की
मुलाकात हुई।
पूछा बिहारी
ने, आपका
नाम? तो
बंबई के सज्जन
ने कहा, वीनू।
पूछा बिहारी
से, आपका
नाम? उन्होंने
कहा, श्री
श्री सत्यदेव
नारायण
प्रसाद
सिन्हा। बंबईया
की तो आंखें
खुली रह गयीं।
उसने कहा, इतना
बड़ा नाम!
बिहारी ने कहा,
हम बंबई के
रहने वाले
नहीं हैं।
हमारे पास
एक-दूसरे का
नाम बुलाने के
लिए काफी समय
है।
परमात्मा
बंबई का
निवासी नहीं
है। वहां काफी
समय है।
प्रकृति को
कोई जल्दी
नहीं है। तुम
हजार बार
व्यर्थ हो जाओ, असफल हो जाओ,
वापस भेज
दिए जाओगे।
लेकिन तुम
अनंत दुख भोगोगे,
जितनी देर
तुम असफल
लौटोगे। जब तक
तुम्हें जो
गीत गाना है
तुमने नहीं गा
लिया, जब
तक तुमने अपनी
नियति को पूरा
नहीं कर लिया,
तब तक तुम
अंगीकार न
होओगे। और एक
ही तो दुख है।
एक ही दुख है, एक पीड़ा है
कि यह
अस्तित्व
तुम्हें
अंगीकार नहीं
करता, वापस
लौटा देता है।
जब यह अंगीकार
कर लेता है, तब उसमें
लीन हो जाते
हो। फिर कोई
वापसी नहीं है।
नानक
दूसरे खंड को
ज्ञान-खंड
कहते हैं। जाग
कर जान लेना, जो है। दैट
व्हिच इज, जो
है चारों तरफ
मौजूद, उसे
होशपूर्वक
जान लेने का
नाम ज्ञान है।
तीसरे
खंड को नानक
लज्जा-खंड
कहते हैं।
क्योंकि जो
जान लेता है, उसे ही पता
चलता है कि
कितना मैं
अज्ञानी हूं! इसलिए
लज्जा-खंड।
अज्ञानी तो
अकड़े फिरते
हैं। उन्हें
तो कोई लज्जा
ही नहीं है।
उन्हें तो पता
ही नहीं है कि
वे कैसे
अज्ञान से भरे
हैं। अज्ञानी
तो अपने को
ज्ञानी समझ कर
जीता है। सिर्फ
ज्ञानी ही जान
पाता है कि
कैसा महान
अज्ञान है!
क्या मैं
जानता हूं? कुछ भी तो
नहीं।
सुकरात
ने कहा है कि
जब मैंने जाना
तो एक ही बात
जानी कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं। जब
ज्ञान पूरा
होता है, तब
तुम यही जानते
हो कि मैं कुछ
भी नहीं जानता
हूं। न केवल
यही, बल्कि
मैं कुछ भी
नहीं हूं। मैं
ना-कुछ हूं।
तुम एक शून्य
हो जाते हो।
उस शून्य को
नानक कहते हैं,
लज्जा-खंड।
तब तुम बड़ी
शर्म से भर
जाते हो कि मैं
कुछ भी तो
नहीं हूं।
कितना अकड़ा
फिरता था! पानी
का बबूला
कितना
फूला-फूला
फिरता था!
कितनी
अतिशयोक्ति
कर रखी थी
तुमने अपने
संबंध में! और
अतिशयोक्ति
करने के लिए
हम हजार-हजार
उपाय खोज लेते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने बाप से
कह रहा था।
नदी से यात्रा
कर के लौटा
था। और कहने
लगा कि सुनो, ऐसा तूफान
आया कि नदी
में पचास-पचास
फीट लहरें
उठने लगीं।
नसरुद्दीन के
बाप ने कहा, थोड़ी
अतिशयोक्ति
इतनी ज्यादा
मत कर! मैं भी
उस नदी से
परिचित हूं।
पचास साल मैंने
भी उस नदी में
यात्रा की है।
ऐसी लहरें
उठती मैंने
कभी नहीं
देखीं। और
पचास फीट
लहरें नदी में
उठती भी नहीं।
नसरुद्दीन ने
कहा, अजी, होश की बात
करो! हर चीज
बढ़ती जा रही
है। अनाज के ही
दाम देखो
कितने बढ़ गए
हैं!
आदमी अपनी
अतिशयोक्ति
को सब तरह के
सहारे खोजता
रहता है। और
इन सहारों के
आधार पर सबसे
बड़ी अतिशयोक्ति
खड़ी होती है
और वह है कि
मैं हूं। मेरा
होना इस जगत
में सबसे बड़ा
झूठ है।
परमात्मा का
होना अगर सबसे
बड़ा सच है, तो मेरा
होना सबसे बड़ा
झूठ है।
क्योंकि यहां
दो मैं तो हो
ही नहीं सकते।
अस्तित्व तो
एक है। एक ही
मैं हो सकता
है। पूरा
अस्तित्व अगर
एक है तो इसका एक
ही केंद्र हो
सकता है।
लेकिन हर
व्यक्ति, हर
बूंद घोषणा
करती है अपने
मैं की।
ज्ञानी
को यही शर्म
आती है। वह
लज्जा से भर
जाता है।
कितनी
अतिशयोक्ति
की! कितनी
अपनी घोषणा की, जहां कुछ भी
न था। पानी का
बबूला था, जरा
सा छुआ कि टूट
गया। कागज की
नाव थी, बही
नहीं कि डूब
गयी। ताश के
पत्तों का घर
था, हवा
आयी नहीं कि
गिर गया। पर
कितने-कितने
दावे किए!
कितनी
घोषणाएं कीं!
एक
अदालत में
मुल्ला
नसरुद्दीन को
पकड़ कर लाया
गया। क्योंकि
गांव के नेता
को उसने
अपशब्द बोल
दिए थे। कह
दिया था कि
तुम महा गधे
हो।
मजिस्ट्रेट
ने पूछा कि यह
उचित नहीं है।
गांव के
सम्मानित
आदमी को, जो
नेता है, जिसको
हजारों लोग
वोट देते हैं,
उसको तुमने
इस तरह के
अपमानजनक
शब्द बोले? नसरुद्दीन
ने कहा, मैं
क्या करूं!
मेरा कोई कसूर
नहीं। इसी
आदमी ने मुझ
से कहा था कि
जानते हो मैं
कौन हूं? जब
इसी ने पूछा, तो हमें
कहना पड़ा।
तुम्हारी
नजर पूछती है
लोगों से, जानते हो
मैं कौन हूं? देखा, जरा
किसी के पैर
पर चोट पड़ जाए,
किसी को जरा
धक्का लग जाए,
वह लौट कर
कहता है कि
जानते हो मैं
कौन हूं? खुद
भी नहीं
जानता। कौन
जानता है! जो
जानते हैं
उनका तो मैं
मिट जाता है।
जब तक नहीं
जानते तभी तक
तो मैं है।
तुम उससे यह
पूछना कि तुम
जानते हो कि
तुम कौन हो?
लेकिन
वह अकड़ की बात
कर रहा है। वह
यह कह रहा है कि
मेरा पद पता
है? मेरा धन
पता है? मेरी
प्रतिष्ठा
पता है? वह
यह कह रहा है
कि मैं
तुम्हें
नुकसान
पहुंचा सकता
हूं। वह यह कह
रहा है कि मैं
खतरनाक सिद्ध
हो सकता हूं।
पता है? तुम्हारा
होना सिर्फ
नुकसान
पहुंचाने का
दावा है। वह
हिंसा की एक
घोषणा है। तुम
उसी वक्त कहते
हो--कि मैं कौन
हूं जानते
हो--जब तुम
दावा करना चाहते
हो कि मैं
चाहूं तो
विध्वंस कर
सकता हूं।
तुम्हारी
सारी अकड़
हिंसा है।
अहंकार हिंसा
का सूत्र है।
जानने वाला तो
कहता है, मैं
कहां हूं! पता
ही नहीं चलता।
मैं कौन हूं! कुछ
पता नहीं
चलता। जानने
वाला तो खो
जाता है। अज्ञानी
अकड़ा रहता है।
जो नहीं है वह
तो कहता है, मैं हूं। और
जो हो जाता है,
वह यह भाषा
बोलना बंद कर
देता है।
तो
नानक इस तीसरे
खंड को
लज्जा-खंड
कहते हैं। वे
कहते हैं कि
ज्ञानी को
लज्जा आती है
बड़ी कि क्या
कहूं? किससे
कहूं? कुछ
कहने को नहीं,
कोई दावा
नहीं। वह
परमात्मा के
सामने भी लज्जा
से भर जाता है
कि कितने झूठे
दावे किए
मैंने
जन्मों-जन्मों
में। तेरे
सामने भी अकड़
कर खड़ा रहा।
तेरे सामने भी
मेरी अकड़ यह
थी कि तू भी
मुझे स्वीकार
कर। अगर मैंने
तेरी
प्रार्थना भी
की तो इसीलिए
कि तू भी मुझे
स्वीकार कर।
अगर मैंने
पुण्य किया तो
भी इसीलिए, दान दिया तो
भी इसीलिए, मंदिर बनाए,
मस्जिद खड़ी
की, गुरुद्वारे
बनाए, तो
भी इसीलिए कि
तू भी जान ले
कि मैं कौन
हूं।
बड़ी
लज्जा से
ज्ञानी भर
जाता है। बड़ी
शर्म आती है।
कैसे मुंह
दिखाएं!
परमात्मा जब
सामने आता है
तो कौन सा
मुंह दिखाएं? तुम्हारे
सभी मुंह तो
झूठे हैं।
तुम्हारे सभी
चेहरे झूठे
हैं। दूसरों
को दिखाने के
लिए तुमने
रंग-रोगन लगा
कर खड़ा कर रखा
था।
थोड़ा
सोचो! अगर आज
परमात्मा
मिलता हो तो
तुम कौन सा
चेहरा उसके
पास ले कर
जाओगे? वह,
जो तुम अपनी
पत्नी को
दिखाते हो? कि वह, जो
तुम अपने
मालिक को
दिखाते हो? या वह, जो
तुम अपने नौकर
के सामने ओढ़
लेते हो? या
वह, जो तुम
प्रेयसी को
प्रकट करते हो?
या वह, जो
तुम दीन, दरिद्र,
गरीब के
सामने दिखाते
हो? या वह, जो तुम
शक्तिशाली के
सामने दिखाते
हो? कौन सा
चेहरा तुम
परमात्मा को
दिखाओगे?
शक्तिशाली
के सामने
तुम्हारी
पूंछ हिलती रहती
है। तुम उसकी
खुशामद करते
रहते हो।
तुम्हारे
चेहरे पर बड़ी
खुशामद का भाव
होता है। गरीब
के सामने तुम
ऐसे अकड़ कर
खड़े हो जाते
हो। क्योंकि
गरीब से तुम
वही खुशामद की
अपेक्षा करते
हो जो तुम
अमीर के सामने
प्रकट करते
हो। तुम चाहते
हो वह पूंछ
हिलाए। जो
आदमी किसी की
खुशामद चाहता
है, वह आदमी
खुशामदी
होगा। जो किसी
की स्तुति
मांगता है, वह आदमी
कहीं न कहीं
स्तुति कर ही
रहा होगा। वह
असल में बदला
चाहता है।
लेकिन जिस
आदमी ने ठीक
से अपने को
देखा, न वह
स्तुति करता
है किसी की, न स्तुति
चाहता है। एक
ही परमात्मा
है, उसी की
स्तुति हो जाए
तो काफी है।
वह किससे स्तुति
मांगे? क्योंकि
वही चारों तरफ
है।
नानक
कहते हैं, बड़ी लज्जा
आती है। सत्य
के सामने जब
आदमी खड़ा होता
है, तो
पाता है, अपने
कोई भी चेहरे
तो काम के
नहीं। सभी
गंदे हैं और
सभी झूठे हैं।
झेन
फकीर कहते हैं
अपने शिष्यों
को कि अगर तुमने
अपना ओरिजनल
फेस, मौलिक चेहरा
खोज लिया, तो
खोज पूरी हो
गयी। वे कहते
हैं कि खोजो
उस चेहरे को, जो जन्म के
पहले
तुम्हारे पास
था। खोजो उस
चेहरे को, जो
मरने के बाद
तुम्हारे साथ
होगा। बीच के
सब चेहरे तो
झूठे हैं।
छोटे-छोटे
बच्चे तक झूठे
चेहरे ओढ़ लेते
हैं, छोटे-छोटे
बच्चे भी!
मनस्विद कहते
हैं कि आदमी
अगर लौट कर
याददाश्त को
जगाए तो चार
साल या तीन
साल के करीब
याददाश्त रुक
जाती है। तुम
भी याद करोगे
तो बस, पांच
साल, चार
साल, या
तीन साल--वहां
जा कर रुक
जाओगे। तीन
साल तक की कोई
याददाश्त
नहीं होती, जन्म से ले
कर तीन साल तक
की। क्यों? क्योंकि उस समय
तुम इतने सरल
होते हो कि
तुम्हारे पास
कोई चेहरा
नहीं होता है।
याददाश्त
किसकी बनानी है?
कोई दावा ही
नहीं होता।
अहंकार
याददाश्त
बनाता है। सब
याददाश्त अहंकार
की है। वह
स्मरण रखता है, वह
हिसाब-किताब
रखता है। तीन
साल तक तुम
भोले-भाले
होते हो।
तुम्हें पता
ही नहीं होता
है कि तुम कौन
हो! दावा क्या?
तुम्हारा
कोई दावा ही
नहीं होता है।
तीन साल का
बच्चा स्कूल
से प्रसन्न भी
लौट आता है, किंडर
गार्डन स्कूल
से, हंसता
हुआ, चिल्लाता
हुआ आता है, कि मैं
क्लास में
सबसे आखिरी
आया। उसको कुछ
पता ही नहीं
है कि आखिरी
का क्या मतलब
है? अभी
अहंकार
निर्मित नहीं
हुआ है। अभी
जाति-पांति का
पता नहीं है, घर-द्वार का
पता नहीं है, कुलीनता-अकुलीनता
का पता नहीं
है। ब्राह्मण है
कि शूद्र, पता
नहीं है। अभी
कुछ भी पता
नहीं है। अभी
चेहरा साफ है।
यही चेहरा तुम
परमात्मा के
सामने ले जा
सकोगे।
लेकिन मां-बाप
झूठ को ओढ़ाना
शुरू कर देते
हैं पहले ही
दिन से। पहले
ही दिन से मां
चाहती है कि
जब वह बच्चे
की तरफ देखे, तो वह
मुस्कुराए।
बच्चे को अगर
मुस्कुराहट नहीं
आ रही है तो भी
मुस्कुराए।
अगर बच्चा
नहीं
मुस्कुरा रहा
है तो मां
नाराज होती है,
मुस्कुरा
रहा हो तो प्रसन्न
होती है। थोड़े
ही दिनों में
बच्चा समझने
लगता है कि
चाहे
मुस्कुराहट
भीतर हो या न
हो, जब मां
देखे तो
मुस्कुराओ।
झूठ शुरू हो
गया। चेहरा
ओढ़ना शुरू हो
गया। फिर झूठ
पर झूठ इकट्ठी
होती जाती है।
इन
झूठे चेहरों
को ले कर तुम
परमात्मा के
सामने जाओगे? नानक कहते हैं,
बड़ी शर्म
आती है। जब
कोई जानता है
तब लज्जा से भर
जाता है। तब
वह खोजता है, खोजता है और
पाता भी नहीं
कि कौन सा
चेहरा असली
है। और जितना
वह खोजता है
उतना ही पाता
है, जैसे
कोई प्याज को
छीलता जाए, जैसे-जैसे
पर्त उतरती है,
नयी पर्त
सामने आ जाती
है। एक झूठ को
निकालो, दूसरा
झूठ; क्योंकि
पर्त दर पर्त
झूठ जमा है।
जन्मों-जन्मों
का झूठ जमा
है। तुमने
इकट्ठा ही झूठ
किया है, कुछ
और तो इकट्ठा
किया नहीं है।
लेकिन जब तुम पर्त-पर्त
निकालते जाते
हो, तब
आखिर में तुम
पाते हो कि
कुछ बचता ही
नहीं, प्याज
की सब पर्तें
निकल जाती हैं,
शून्य हाथ
आता है। नानक
कहते हैं, वह
जो शून्य हाथ
आता है तो बड़ी
लज्जा आती है।
कि ना-कुछ था
और सब कुछ
होने के दावे
किए। इसे वे तीसरा
खंड कहते हैं।
और
चौथा खंड वे
कहते हैं, कृपा-खंड! वे
कहते हैं कि
जब तुम लज्जा
से भर जाते हो
तब उसकी कृपा
बरसती है। जब
तुम शून्य हो
जाते हो तब
पूर्ण उतरता
है; उसके
पहले नहीं।
तुम्हारी अकड़
उसकी कृपा में
बाधा है। तुम
जब तक अकड़े हो,
तब तक तुम
उसकी कृपा न
पा सकोगे। वह
तुम्हें जरूरत
ही नहीं है।
तुम अपने ही
पैरों पर खड़े
हो। तुम्हें
सहारे की
जरूरत ही नहीं
है। तुम प्रार्थना
भी कर रहे हो
और अपने पैरों
पर खड़े हो।
तुम मांग भी
उससे रहे हो, लेकिन वह भी
तुम्हारी और
बहुत सी
चेष्टाओं में
एक चेष्टा है,
कि शायद कौन
जाने, कुछ
सहारा उधर से
भी मिल जाए।
और जब कुछ मिल
जाएगा, तब
तुम दावा यही
करोगे कि
मैंने पाया।
मुल्ला
एक वृक्ष पर
चढ़ रहा था।
बेर पक गए थे।
और जैसे-जैसे
मुल्ला ऊपर
चढ़ने लगा उसे
डर लगने लगा।
क्योंकि बेर
बिलकुल ऊपर की
शाखा पर थे।
तो उसने
परमात्मा से
कहा कि देख, अगर मैं
बिना गिरे इन
बेरों को तोड़
पाया, तो
एक पैसा
मस्जिद में
चढ़ाऊंगा। तू
बिलकुल पक्का
भरोसा रख।
जैसे-जैसे
करीब पहुंचने
लगा डाल के, उसने सोचा
कि इतने से
बेरों के लिए
एक पैसा जरा
ज्यादा है। और
मैं अपनी ही
चेष्टा से
पहुंचा जा रहा
हूं। नाहक मैं
परमात्मा को
बीच में लाया।
जब बेरों पर
उसका हाथ ही
पड़ गया तो
उसने कहा, एक
पैसे में तो
इससे ज्यादा
बेर मैं बजार
में खरीद
लूंगा। और
तूने तो कुछ
किया ही नहीं
है। कुछ बेर
ही चढ़ा दूंगा।
जब वह ऐसा सोच
ही रहा
था--सोचने में
हाथ चूक गया, पैर सरक गया
और धड़ाम से
नीचे गिर गया।
वे बेर हाथ आए
नहीं। नीचे
गिर कर उसने
ऊपर चिल्ला कर
कहा, क्या
मामला है? क्या
तू जरा सी
मजाक भी नहीं
समझ सकता? जरा
धैर्य रखता तो
मैं एक पैसा
चढ़ाता ही।
तुम
प्रार्थना भी
करो, तुम पूजा
भी करो, तो
भी तुम्हारी
अकड़ का ही
शृंगार है
तुम्हारी पूजा।
तुम्हारे
अहंकार का ही
आभूषण है। और
पूजा तो तब ही
होती है, जब
तुम नहीं हो।
जब पुजारी मिट
जाता है, तभी
पूजा शुरू
होती है। नानक
कहते हैं, लज्जा
में तुम तो
पिघल जाते हो,
लज्जा में
तुम तो मिट
जाते हो, तुम
तो बचते नहीं।
और तब अचानक, जैसे ही तुम
यहां खोते हो,
तुम पाते हो
कि वहां से
वर्षा हो रही
है आनंद की।
वह सदा ही हो
रही थी। तुम
अपनी अकड़ से
इतने भरे थे
कि तुम्हारे
भीतर कोई जगह
नहीं थी कि वह प्रवेश
पा सके। कोई
ऐसा नहीं है
कि तुम जब
लज्जा से भरते
हो तब उसकी कृपा
तुम पर बरसती
है। कृपा तो
बरस ही रही
है। तुम जब
लज्जा से भरते
हो तब तुम
खाली होते हो
और तुम्हारे
भीतर प्रवेश
हो सकता है।
ये चार
खंड हैं नानक
के। और यह
चारों का
विभाजन बड़ा
बहुमूल्य है।
आज दूसरे खंड
की बात है।
धरम
खंड का एहो
धरमु। गिआन
खंड का आखहु
करमु।।
केते
पवन पाणि
वैसंतर केते
कान महेस।
केते बरमे
घाड़ित घड़िअहि
रूप रंग के
वेस।।
केतीआ
करम भूमी मेर
केते केते धू
उपदेस। केते इंद
चंद सूर केते
केते मंडल
देस।।
केते
सिध बुध नाथ
केते केते
देवी वेस।
केते देव दानव
मुनि केते
केते रतन
समुंद।।
केतीआ
खाणी केतीआ
वाणी केते पात
नरिंद। केतीआ
सुरती सेवक
केते नानक
अंतु न अंतु।।
जैसे
ही कोई
व्यक्ति
जागता है
अस्तित्व के
प्रति, परम
विस्मय से भर
जाता है। महान
आश्चर्य घेर लेता
है। तुम्हें
तो कोई विस्मय
पकड़ता ही नहीं।
तुम तो ऐसे
चलते हो जैसे
तुम जानते हो।
पंडित को
विस्मय होता
ही नहीं। वह
सभी चीजों के
उत्तर जानता
है, विस्मय
कैसा? विस्मय
तो बालक को
होता है। चलता
है तो हर चीज के
संबंध में
सवाल पूछता
है। तुम यह मत
समझना कि वह
जवाब पाने के
लिए सवाल
पूछता है।
सवाल तो केवल
उसके विस्मय
को प्रगट करने
का ढंग है।
इसलिए
तुम्हारे
जवाब के लिए रुकता
भी नहीं।
दूसरा सवाल
खड़ा कर देता
है। तुम्हारे
जवाब की फिक्र
भी नहीं करता।
क्योंकि जवाब
की उत्सुकता
ही नहीं है।
तितली
निकल जाती है।
और वह पूछता
है कि तितली पर
इतने रंग
क्यों? वह
यह नहीं कह
रहा कि तुम
जवाब दो।
तितली पर इतने
रंग क्यों? वह सिर्फ
इतना कह रहा
है कि मैं
अवाक हूं। मैं
विस्मय से भर
गया हूं। ये
वृक्ष हरे
क्यों? फूल
रंगीन क्यों?
आकाश में
बादल क्यों? सूरज सुबह
रोज क्यों
निकल आता है
समय पर? यह
बच्चा पूछ रहा
है। यह सिर्फ
विस्मय खड़े कर
रहा है। इसके
प्रश्न उत्तर
की मांग नहीं
रखते। यह तो
पूछ रहा है
इसलिए, क्योंकि
हर चीज इसे
आश्चर्य से भर
देती है।
पंडित
कोई नहीं
पूछता प्रश्न, क्योंकि
उसके पास सभी
चीज के उत्तर
हैं। पंडित का
अर्थ है, जिसके
पास प्रश्न
हैं ही नहीं, उत्तर हैं।
और ज्ञानी का
अर्थ है, जिसके
पास प्रश्न हैं
और उत्तर नहीं
हैं।
इसे
थोड़ा खयाल से
समझ लेना।
ज्ञानी
बच्चों जैसा
अवाक रह जाता
है। और भी
ज्यादा अवाक।
क्योंकि
बच्चे क्या!
तितली देख
सकते हैं, फूल देख
सकते हैं!
ज्ञानी देखता
है पूरे अस्तित्व
को। बच्चों की
नजर कितनी दूर
जाती है! ज्ञानी
की नजर जाती
है आर-पार। और
वह जो देखता
है, वह उसे
विस्मय-विमुग्ध
कर देता है।
नानक
के ये वचन
उनके विस्मय
के सूचक हैं।
वे कहते हैं, 'कितने पवन, कितने पानी,
कितने
अग्नि के
देवता, कितने
कृष्ण, कितने
महेश, कितने
ब्रह्मा, कितनी
उनकी रचनाएं,
कितने
रंग-रूप-वेश, कितनी
कर्म-भूमियां,
कितने
सुमेरु पर्वत,
कितने
ध्रुव, कितने
उपदेश, कितने
इंद्र, चंद्र,
सूर्य, कितने
मंडल, कितने
देश, कितने
ही सिद्ध, कितने
ही बुद्ध, कितने
ही नाथ, कितने
ही देवियों के
वेश, कितने
ही देवता, कितने
ही दानव, कितने
ही मुनि, कितने
ही रत्न, कितने
समुद्र, कितनी
योनियां, कितनी
वाणियां, कितने
बादशाह, कितने
बादशाहों के
बादशाह, शहंशाह,
कितनी ही
सुरतियां, कितने
ही सेवक; नानक
कहते हैं, इसका
अंत नहीं है, इसका अंत
नहीं है।'
यह
विस्मय-बोध
है। नानक कहते
हैं, इसका
उत्तर मेरे
पास नहीं है।
यह ज्ञानी का
लक्षण है। तुम
तो ज्ञानी का
लक्षण तब
समझोगे जब
तुम्हें नानक
उत्तर दें।
तुम तो लौट ही
गए होते नानक
के पास से कि
इसको कुछ आता
ही नहीं।
कितने-कितने
का क्या राग
लगा रखा है? कुछ उत्तर
दो! तुम पूछने
आए हो, क्यों
है? और वे
गिना रहे हैं,
कितने हैं!
तुम
उत्तर चाहते
हो, तुम
जानकारी
चाहते हो, क्योंकि
जानकारी के
तुम मालिक हो
सकते हो। विस्मय
के तुम मालिक
नहीं हो सकते
हो। आश्चर्य से
तो तुम भर
जाओगे।
आश्चर्य तो
तुम्हारा
मालिक हो
जाएगा।
आश्चर्य में
तुम घिर जाओगे,
आश्चर्य
तुम्हें डुबो
लेगा।
आश्चर्य में
तुम बचोगे न, मिट जाओगे।
उत्तर चाहते
हो तुम, क्योंकि
उत्तर को तुम
अपनी मुट्ठी
में रख सकते
हो। उत्तर का
तुम उपयोग कर
सकते हो।
उत्तर से तुम दूसरों
को हरा सकते
हो, पराजित
कर सकते हो।
उत्तर से तुम
दूसरों के प्रश्न
चुप कर सकते
हो। उत्तर से
तुम्हारी अकड़
बढ़ेगी। लोग
ज्ञान की खोज
में नहीं हैं,
लोग
उत्तरों की
खोज में हैं।
लोग चाहते हैं
कि सब उत्तर
हमें पता चल
जाएं, तो
हम ज्ञानी हो
जाएं।
और
ध्यान रखना, ज्ञानी
उत्तरों की
खोज से होता
ही नहीं कोई
कभी। ज्ञानी
तो प्रश्न में
गहरे उतरने से
होता है। और
जितना ही कोई
प्रश्न में
गहरा उतरता है,
उतने ही
विस्मय के
द्वार खुलते
जाते हैं। एक
द्वार तुम
प्रवेश करते
हो और हजार द्वार
खुल जाते हैं।
नानक उसी
विस्मय की बात
कर रहे हैं।
नानक
तो ग्रामीण
हैं। वे तो
गांव के अपढ़
आदमी हैं।
इसलिए उनकी
भाषा की चिंता
मत करना। मगर
ग्रामीण भी जब
उस विस्मय के
जगत में जाता
है, तो मुखर
हो जाता है।
इतने विस्मय
में वे यही कह
रहे हैं--
केते
पवन पाणि
वैसंतर केते
कान महेस।
कितने
कृष्ण! जब
तुम्हें
दिखायी पड़ेगा, तब तुम
पाओगे कितनी
बांसुरियां
बज रही हैं! कितनी
गोपियों का
रास चल रहा
है। अनंत है
यह अस्तित्व।
तुम्हारी
पृथ्वी पर यह
सीमित नहीं है।
और तुम तो इस
अकड़ में भरे
हो कि शायद यह
तुम पर ही
सीमित है। तुम
तो सोचते हो, शायद सारा
नाच तुम्हारे
लिए चल रहा
है।
ऐसा
हुआ कि एक
ट्रेन में एक
देहाती पकड़
लिया गया बिना
टिकट के। और
वह जो
टिकट-चैकर था, अड़ियल था।
बहुत
गिड़गिड़ाया
ग्रामीण, मुझ
पर कुछ है
नहीं, अपनी
पोटली खोल कर
बता दी। तब
टिकट-चैकर ने
वहीं चेन खींच
दी बीच जंगल में
और कहा, फिर
तुम यहीं उतर
जाओ। उसने
बहुत हाथ-पैर
जोड़े कि मुझे
स्टेशन पर
उतार देना
आगे। जो भी
स्टेशन आए, उतार देना।
यहां बीच जंगल
में तो मत
उतारो। लेकिन
वह अड़ियल था।
उसने कहा, उतरना
ही पड़ेगा।
अपनी पोटली
संभाल कर, कंधे
पर रख कर
ग्रामीण उतर
गया और जिस
तरफ ट्रेन को
जाना था, उसी
पटरी पर चलने
लगा। ड्राइवर
ने देखा कि एक आदमी
पोटली लिए और
पटरी पर ही
चला जा रहा है,
तो वह
सीटियां
बजाने लगा।
ग्रामीण ने
पीछे लौट कर
जोर से कहा, अब कितनी ही
सीटियां बजाओ,
मैं चढूंगा
नहीं। पहले ही
क्यों उतारा
था?
ग्रामीण
सोच रहा है कि
शायद सीटियां
उसे चढ़ने के
लिए बजायी जा
रही हैं!
सीटियां हटने
के लिए बजायी
जा रही हैं।
ग्रामीण सोच
रहा है कि
चढ़ने के लिए
बजायी जा रही
हैं। तुम हटो, लेकिन तुम
सोच रहे हो कि
जमे रहो और चढ़
जाओ। तुम मिटो,
इसलिए
सीटियां
बजायी जा रही
हैं। तुम
मार्ग में न
आओ, इसलिए
सीटियां
बजायी जा रही
हैं।
लेकिन
हर आदमी यही
सोचता है कि
सभी गीत उसके
लिए चल रहे
हैं। हर आदमी
सोचता है, मैं केंद्र
हूं और पूरा
अस्तित्व
मेरे आसपास घूम
रहा है। इसलिए
तो पुराने
दिनों में
लोगों को पसंद
था कि पृथ्वी केंद्र
है और सूरज
आस-पास घूम
रहा है।
बर्नार्ड
शा ने पीछे एक
मजाक किया। और
उसने कहा कि
मैं यह
सिद्धांत मान
नहीं सकता कि
पृथ्वी सूरज
का चक्कर
लगाती है। मान
ही नहीं सकता!
यह सिद्धांत
गलत है। किसी
ने सभा में
खड़े हो कर पूछा
कि बीसवीं सदी
में छोटे-छोटे
बच्चे भी
जानते हैं कि
पृथ्वी चक्कर
लगा रही है।
और आपके पास
क्या प्रमाण
है? विज्ञान
ने यह सिद्ध
कर दिया है।
बर्नार्ड शा ने
कहा, प्रमाण
की कौन फिक्र
करता है? प्रमाण
यह है कि
बर्नार्ड शा
जहां रहता है,
वह पृथ्वी
किसी चीज के
चक्कर नहीं
लगा सकती। सूरज
ही चक्कर लगा
रहा है।
वह
मजाक हम सभी
के अहंकार की
तरफ कर रहा
है। तुम भी
मान नहीं पाते
कि तुम्हारी
पृथ्वी और चक्कर
लगा सकती है!
इसलिए आदमी ने
बड़ा उपद्रव
मचाया, चर्चों
ने बड़ा विरोध
किया, पादरी
बड़े खिलाफ हुए,
पोपों ने
बड़ा इनकार
किया कि नहीं!
यह सिद्धांत
हम मान नहीं
सकते। गैलेलियो
से कहा कि
क्षमा मांगो।
गैलेलियो की
क्षमा भी बड़ी
अदभुत है।
उसने क्षमा
मांगी। वह बड़ा
होशियार आदमी
था। बड़ा सच्चा
आदमी था। और
शहीद होने की
व्यर्थ उसे
कोई चिंता
नहीं थी। न
शहीद होना
चाहता था और न
डरता था कि
शहीद हो जाऊं
तो कोई हर्जा
है। उसने कहा,
अगर आप कहते
हैं, तो
मैं कहे देता
हूं कि पृथ्वी
चक्कर नहीं
लगाती, सूरज
ही पृथ्वी का
चक्कर लगाता
है। लेकिन मेरे
कहने से कुछ
भी न होगा।
चक्कर तो
पृथ्वी ही सूरज
का लगाती है।
मेरे कहने से
क्या होने
वाला है? इससे
क्या! तुम कहो
तो मैं कहे
देता हूं, लिख
कर दस्तखत किए
देता हूं।
लेकिन मेरी
कोई चलती है? और यह कोई
सिद्धांत
मैंने गढ़ा
थोड़े ही है कि
मैं इनकार कर
दूं कि
सिद्धांत टूट
जाएगा। ऐसा हो
रहा है। इसमें
हजार
गैलेलियो भी
कह दें कि नहीं
हो रहा, तो
कोई फर्क न
पड़ेगा।
कारण
यही था कि
आदमी ने सदा
यही सोचा है।
और क्रिश्चिएनिटी
इस संबंध में
हिंदू-विचार
से बहुत
दीन-दरिद्र
है। हिंदुओं
की बड़ी पुरानी
धारणा यही है
कि अनंत पृथ्वियां
हैं। कोई
हमारी पृथ्वी
ने ठेका नहीं
ले रखा है। अब
तो विज्ञान भी
कहता है कि कम
से कम पचास
हजार
पृथ्वियां
हैं, जिन पर
जीवन की
संभावना है।
पर हिंदू सदा
से कहते रहे
हैं, अनंत
पृथ्वियां
हैं, अनंत
योनियां हैं।
और यहीं सब
कुछ समाप्त
नहीं हो जाता
है। यह पृथ्वी
तो ना कुछ है।
सूरज इससे साठ
हजार गुना बड़ा
है। और सूरज
और दूसरे सूरजों
के सामने न
कुछ है। उससे
करोड़ों-करोड़ों
गुने बड़े सूरज
हैं। अब तो
विज्ञान भी
स्वीकृति देता
है कि हमारा
सूरज बहुत
मीडियाकर है।
बहुत
मध्यमवर्गीय
है। कोई बहुत
बड़ा सूरज नहीं
है। तो हमारी
पृथ्वी की
क्या गणना!
रसेल
ने एक छोटी सी
कहानी लिखी है
कि एक पादरी ने
रात सपना देखा
कि वह मर गया
है। तो उसने
जा कर स्वर्ग
के द्वार पर
दस्तक दी।
लेकिन वह बड़ा चकित
हुआ। उसने सोचा
था कि वह इतना
धर्मात्मा, इतनी सेवा
की उसने
अस्पतालों
में, स्कूलों
में, हजार
तरह के मरीजों
के पैर दबाए, तो परमात्मा
दरवाजे पर खड़ा
होगा स्वागत
के लिए। वहां
कोई भी नहीं
था। दरवाजा
बंद था और दरवाजा
इतना बड़ा था
कि उसने बहुत
देखने की
कोशिश की तो
उसका ओर-छोर न
दिखायी पड़े।
वह बहुत
चिल्लाया।
लेकिन दरवाजा
इतना बड़ा था
कि उसको साफ
हो गया कि
मेरी आवाज
भीतर पहुंच
नहीं सकती, इतना बड़ा
दरवाजा है!
खुद को ही
उसकी आवाज
लौटती हुई
मालूम न पड़े, प्रतिध्वनि
वापस ही न
लौटे। सिर
मार-मार कर थक
गया। जैसे कोई
चींटी
तुम्हारे
दरवाजे पर सिर
मार कर थक जाए,
कहीं आवाज
पहुंचती है? सब अहंकार
धूल में मिल
गया। सोचा था,
स्वर्ग के
द्वार पर
परमात्मा
स्वागत के लिए
मिलेगा। इतना
मैंने दान
किया, पुण्य
किया, सेवा
की, धर्म
किया, पूजा-प्रार्थना
की, हजारों
लोगों को ईसाई
बनाया और इधर
कोई पूछताछ ही
नहीं है! यह
क्या गजब हो
रहा है!
बामुश्किल, अनंत वर्ष
बीत जाने के
बाद--तब तक तो
वह भूल ही चुका
था, सिकुड़ा-मुकड़ा
वहीं बैठा
रहा--दरवाजा
खुला। और एक
हजार आंख वाला
आदमी बड़े गौर
से उसे देखने
लगा, जैसे
कोई दूरबीन से
किसी
कीड़े-मकोड़े को
देखे। वह और
भी सिकुड़ गया।
उसने समझा कि
यही परमात्मा
है। और कहा कि
हे परमात्मा,
इतने जोर से
मत देखो। और
आंखें
तुम्हारी
मुझे डराती
हैं। क्योंकि
एक-एक आंख
सूरज की भांति
थी। देखना
मुश्किल था।
वह आदमी हंसा
और उसने कहा, मैं
परमात्मा
नहीं, यहां
का पहरेदार
हूं। और तुम
यहां क्या कर
रहे हो?
उसकी
तो हिम्मत ही
टूट गयी। यह
पहरेदार है!
वह तो समझा कि
परमात्मा है।
अब परमात्मा
का सामना करना
तो मुश्किल ही
मामला है।
हजार सूरज
आंखों वाला आदमी, हजार आंखों
वाला आदमी यह
पहरेदार है!
उसने कहा कि
मैं पृथ्वी से
आया हूं। और
पृथ्वी पर
मेरे चर्च की
बड़ी महिमा है।
मैं जीसस का
मानने वाला
हूं, भक्त
हूं। हिम्मत
टूटी जा रही
थी उसकी, क्योंकि
उसके चेहरे पर
कोई भाव ही
नहीं आ रहा था।
वह कह रहा था, जीसस, पृथ्वी...?
उसने
कहा, तुम किस
पृथ्वी की बात
कर रहे हो? इंडेक्स
नंबर? पृथ्वियां
अनंत हैं। किस
पृथ्वी से आ
रहे हो? और
किस जीसस की
बात कर रहे हो?
हर
पृथ्वियों के
अपने-अपने
जीसस हैं।
सोचो
तुम, उस पादरी
की गति कैसी
हो गयी होगी!
उसने कहा कि मैं
उसी जीसस की
बात कर रहा
हूं जो एकलौता
बेटा है
परमात्मा का।
उसने कहा कि
तुम पागल हुए
हो? सभी
पृथ्वियों पर
ऐसे अनंत जीसस
पैदा होते
हैं। और उनके
भक्त सभी जगह
ऐसा दावा करते
हैं। लेकिन
हिसाब मिल
जाएगा, तुम
पहले नंबर
बताओ। उसने
कहा, हम तो
कभी सोचे ही
नहीं नंबर। हम
तो समझते रहे कि
एक ही पृथ्वी
है।
'तो
तुम अपने सूरज
का नंबर बताओ
कि तुम किस
सौरमंडल से आ
रहे हो?'
उसने
कहा कि हम तो
एक ही सूरज को
जानते रहे हैं।
उसने
कहा, बड़ी
कठिनाई है।
लेकिन फिर भी
तुम रुको।
खोज-बीन करने
से पता चल
सकेगा।
फिर
कहते हैं अनंत
काल बीत गया, वह आदमी
लौटा ही नहीं।
क्योंकि
खोज-बीन कोई
छोटी है! वह
पता लगाएगा, जा कर
लाइब्रेरियन
को मिलेगा, इंडेक्स
नंबर खोजेगा।
और इसको कुछ
भी पता नहीं, यह आदमी आया
है। पर इसकी
आशा तो धूमिल
हो गयी कि अब
यहां कुछ
प्रवेश वगैरह,
स्वागत, बैंड-बाजा
जो उसने सब
सोच रखा था, और परमात्मा
के बिलकुल बगल
में बैठूंगा,
सब जा चुका।
इसी घबड़ाहट
में और पसीने
से बहता हुआ, उसकी नींद
खुल गयी। सपना
था यह तो। पर
उस दिन के बाद
उसकी हिम्मत
टूट गयी।
और यह
सपना सच है।
इसी सपने की
सचाई की बात
नानक कर रहे
हैं।
नानक
कहते हैं, 'कितने पवन, कितने पानी,
कितनी
अग्नियां, कितने
उनके देवता, कितने कृष्ण,
कितने
महेश।'
अगर
नानक से पूछा
होता उस पादरी
ने, तो वे
कहते, कितने
जीसस!
'कितने
कृष्ण, कितने
महेश, कितने
ब्रह्मा, कितनी
रचनाएं, कितने
रंग-रूप-वेश, कितनी
कर्म-भूमियां,
कितने
सुमेरु पर्वत,
कितने
ध्रुव, कितने
उपदेश, कितने
चंद्र, कितने
सूर्य, कितने
इंद्र, कितने
मंडल, कितने
देश! कितने
सिद्ध-बुद्ध,
कितने नाथ,
कितनी
देवियों के
वेश! कितने
देवता-दानव, कितने मुनि,
कितने रत्न,
समुद्र!
कितनी ही
योनियां।
कितनी ही
वाणियां।
कितने बादशाह,
कितने
सम्राट, कितनी
श्रुतियां, कितने ही
सेवक! नानक
कहते हैं, इसका
अंत नहीं है, अंत नहीं
है।'
केतीआ
सुरती सेवक
केते नानक
अंतु न अंतु।।
नानक
सिर्फ अपने
विस्मय को
प्रकट कर रहे
हैं। इसी
विस्मय में से
लज्जा पैदा
होगी, दावे
मिट जाएंगे।
क्या दावा करो?
बड़ी
प्रसिद्ध
घटना है कि एक
अमीर आदमी, बहुत अमीर
आदमी, यूनान
का सबसे बड़ा
अमीर आदमी, सुकरात से
मिलने गया। तो
वही अकड़!
स्वाभाविक थी
उसकी अकड़ तो।
जिनके पास कुछ
नहीं है, वे
अकड़ते हैं, उसके पास तो
बहुत कुछ था।
एथेन्स में वह
सबसे बड़ा अमीर
था। सुकरात ने
जैसे कुछ
ध्यान ही न दिया।
तो उसने कहा, जानते हो
मैं कौन हूं? सुकरात ने
कहा, बैठो,
समझने की
कोशिश करें।
उसने सारी
दुनिया का नक्शा
सामने रखवा
लिया।
और उस अमीर
से कहा, एथेन्स
कहां है? तो
एथेन्स तो एक
बिंदु है
दुनिया के
नक्शे पर।
अमीर ने
खोज-बीन करके
एथेन्स के
बिंदु पर अंगुली
रखी और कहा, यह रहा
एथेन्स!
इस
एथेन्स में
तुम्हारा महल
कहां है?
वह तो
बिंदु ही था, उसमें महल
कहां बताए!
उसने कहा, इसमें
कहां महल
बताऊं? सुकरात
ने कहा, इस
महल में तुम
कहां हो? और
यह नक्शा केवल
पृथ्वी का है।
अनंत पृथ्वियां
हैं, अनंत
सूर्य हैं, तुम हो कौन? कहते हैं जब
वह जाने लगा, तो सुकरात
ने वह नक्शा
उसे भेंट कर
दिया कि इसे
सदा अपने पास
रखो। और जब भी
अकड़ पकड़े कि
मैं कौन हूं, नक्शा खोल
कर देख
लेना--कहां
एथेन्स? कहां
मेरा महल? मैं
कौन हूं? अपने
से पूछ लेना।
हम ना
कुछ हैं। सब
कुछ होने की
अकड़ हमें पकड़े
है। वही हमारा
दुख है, वही
हमारी नरक है।
जिस दिन तुम
जगोगे और
देखोगे चारों
तरफ, क्या
कह सकोगे कौन
हो तुम? तुम
खोते जाओगे, खोते जाओगे।
तुम इधर छोटे
होओगे, उधर
परमात्मा की
विराटता
प्रकट होगी।
उधर उसका
विराट रूप
प्रकट होगा, इधर तुम
शून्य होते
जाओगे। वह तभी
प्रगट होगा, जब तुम
बिलकुल शून्य
हो जाओगे।
और
विस्मय
तुम्हें
मिटाएगा।
विस्मय
आत्मघात है।
शरीर का ही
नहीं, पूरा
ही आत्मघात
है। पूरी
अस्मिता की
मृत्यु हो
जाती है।
इसलिए तुम
उत्तर चाहते
हो। और ज्ञानी
तुम्हें
प्रश्न देते
हैं। और
ज्ञानी तुम्हें
ऐसे प्रश्न
देते हैं, जिनके
उत्तर हो ही
नहीं सकते।
ताकि तुम कभी
अकड़ न उठा
सको।
थोड़ा
जाग कर, आंखों
की धूल झाड़ कर
देखो चारों
तरफ, क्या
उत्तर आदमी के
पास हैं? विज्ञान
ने इतने उत्तर
खोजे हैं, लेकिन
कौन सा उत्तर
उत्तर है? कोई
उत्तर उत्तर
नहीं है। सब
उत्तर प्रश्न
को एक कदम और
पीछे हटा देते
हैं और कुछ भी
नहीं होता।
एक
बच्चे ने पूछा
डी.एच.लारेन्स
से बगीचे में घूमते
वक्त, व्हाय
दीज ट्रीज आर
ग्रीन? ये
वृक्ष हरे
क्यों हैं? डी.एच.लारेन्स
को उत्तर नहीं
पता था, ऐसा
नहीं है।
उत्तर साधारण
है। विज्ञान
से पूछो तो वह
कहता है, क्लोरोफिल
के कारण हरे
हैं। लेकिन यह
कोई उत्तर है?
सवाल तो
वहीं का वहीं
खड़ा है। पूछा
जा सकता है कि
क्लोरोफिल
क्यों है
वृक्षों में?
क्या जरूरत
है क्लोरोफिल
को वहां होने
की? तुम जो
भी उत्तर दोगे,
प्रश्न
उसके पीछे हट
जाता है। कुछ
फर्क नहीं पड़ता
है।
डी.एच.लारेन्स
निश्चित ही
बहुत बुद्धिमान
आदमी था। नानक
से उसकी बैठ
जाती। उसने कहा
कि अगर तुम
सही उत्तर
चाहते हो
तो--ट्रीज आर ग्रीन,
बिकाज दे आर
ग्रीन। वृक्ष
हरे हैं
क्योंकि हरे हैं।
ज्यादा बकवास
में मैं नहीं
पड़ता।
यह एक
कवि का उत्तर
है। यह एक ऋषि
का उत्तर है। जो
तुम्हारे
विस्मय को
नष्ट नहीं
करता, सिर्फ
विस्मय को
बढ़ाता है। यह
कोई उत्तर है!
यह उत्तर है
ही नहीं।
लारेन्स यह कह
रहा है कि मैं
खुद ही
विस्मय-विमुग्ध
हूं कि ये हरे
क्यों हैं? इतना ही कह
सकते हैं कि
हरे हैं
क्योंकि हरे हैं।
और ज्यादा
क्या कहें? और कोई उपाय
भी तो नहीं है
जानने का कि
हरे क्यों हैं?
जिस
दिन तुम उत्तर
की खोज छोड़
दोगे...क्योंकि
सभी उत्तर की
खोज सिर्फ
प्रश्न को
पीछे हटाती है।
इसीलिए तो
दर्शनशास्त्र
कहीं भी नहीं
पहुंचता।
पूछता जाता है, उत्तर खोजता
जाता है, हर
उत्तर नए
प्रश्न खड़े कर
देता है।
बर्ट्रेंड
रसेल ने लिखा
है कि जब मैं
बच्चा था, तो
मैं
विश्वविद्यालय
में पढ़ने गया,
तो मैंने
दर्शनशास्त्र,
फिलासफी
चुनी। सिर्फ
इसलिए, ताकि
मुझे जीवन के
सभी प्रश्नों
के उत्तर मिल जाएं।
और अब मरते
वक्त इतना ही
कह सकता हूं
कि उत्तर तो
मुझे एक न
मिला, प्रश्न
मेरे हजार
गुने हो गए।
तो एक
तो
दर्शनशास्त्री
है, वह उत्तर
की खोज में
जाता है। हर
उत्तर नए प्रश्न
खड़े करता है।
उनमें जो बहुत
कमजोर होते हैं,
वे यात्रा
रोक देते हैं।
उत्तरों को
पकड़ कर बैठ
जाते हैं। जो
सच में
हिम्मतवर
होते हैं, वे
आखिरी तक पीछे
जाते हैं। और
अगर कोई भी
व्यक्ति
दर्शनशास्त्र
में अंत तक
पीछे जाए, तो
एक न एक दिन
उसे यह भूल
दिखायी पड़
जाएगी कि यह
यात्रा
व्यर्थ है। और
तभी धर्म का
जन्म होता है।
और तभी रहस्य
पकड़ता है। यह
नानक
रहस्य-अभिभूत
हो कर कह रहे
हैं कि इसका
कोई अंत नहीं
है।
नानक
कहते हैं, 'इसका अंत
नहीं है, इसका
अंत नहीं है।'
गिआन
खंड महि गिआनु
परचंड। तिथै
नाद विनोद कोउ
अनंदु।।
सरम
खंड की वाणी
रूपु। तिथै
घाड़ति घड़ीऐ
बहुतु अनूपु।।
ताकीआ
गला कथीआ ना
जाहि। जे को कहै
पिछै
पछुताइ।।
तिथै
घड़ीऐ सुरति
मति मनि बुधि।
तिथै घड़ीऐ सुरा
सिधी की
सुधि।।
'ज्ञान
के जगत में
जागरण की
प्रचंडता है।'
गिआन
खंड महि गिआनु
परचंड।
वह जो
ज्ञान का आयाम
है, वहां होश,
जागरण की
प्रचंडता है।
उसका बाहुल्य
है। उत्तर का
नहीं, शास्त्र
का नहीं, सिद्धांत
का नहीं, होश
का। ज्ञान का
अर्थ ही होश
है। ज्ञान का
अर्थ
शास्त्रीय
ज्ञान नहीं, सूचनाएं
नहीं, शब्द
नहीं। ज्ञान
का अर्थ है, होश।
'ज्ञान
के खंड में
ज्ञान की
प्रचंडता है।
वहां नाद है, विनोद है, कौतुक है, आनंद है।'
शास्त्र
की तो बात ही
नहीं उठाते।
सिद्धांत की
तो बात ही
नहीं है वहां।
वहां उत्तर
नहीं है। क्या
है वहां? नाद
है। नाद एक
अनुभव है।
जैसे-जैसे तुम
जागते हो, जैसे
सुबह तुम सोए
थे गहरे
निद्रा में, पक्षी गीत
गाते रहे, और
तुम्हें
सुनायी न पड़े।
और फिर तुम
जागने लगे, नींद टूटने
लगी और होश
आने लगा और
तुमने करवट
बदली--आंखें
अभी भी बंद
हैं--लेकिन
पक्षियों के
गीत सुनायी
पड़ने लगे।
सुबह की ताजी
हवाएं तुम्हें
छूने लगीं।
चारों तरफ जो
नाद है, वह
तुम्हें
स्मरण आने
लगा।
जैसे-जैसे तुम
जागोगे, वैसे-वैसे
ही अस्तित्व
का एक नाद है, जो तुम्हें
दिखायी
पड़ेगा।
ठीक
ऐसे ही एक और सुबह
है। और एक और
जागरण है। अभी
तो तुम्हारा सारा
जीवन सोया हुआ
है। अभी तो
तुम नींद में
चल रहे हो।
अभी तो तुम जो
भी कर रहे हो
वह बेहोशी में
है। लड़ रहे हो
बेहोशी में, प्रेम कर
रहे हो बेहोशी
में। मिलन, जुदाई सब
बेहोशी में हो
रहा है।
ऐसा
हुआ, एक गांव
के अखबार के
संपादक ने
शराबियों के
खिलाफ एक लेख
लिख दिया।
शराबी बहुत
नाराज हो गए।
एक लठैत शराबी
लट्ठ ले कर
चला संपादक की
तलाश करने। वह
जा कर अंदर
संपादक के
कमरे में घुस
गया।
दुबला-पतला संपादक
और यह मुस्टंड
लठैत शराबी!
डोल रहा है। उसने
कहा, कहां
है संपादक का
बच्चा? उस
संपादक ने कहा,
आप बैठिए, अभी आते
हैं। वह बाहर
आया, देखा
कि दूसरा लठैत
चला आ रहा है।
उसने पूछा, कहां हैं वह
संपादक जी? उसने कहा, अंदर बैठे
हैं, आप
अंदर चले
जाइए। फिर जो
अंदर हुआ, आप
जानते हैं।
वही हो
रहा है। कोई
होश में नहीं
है। क्या तुम कर
रहे हो, इसका
तुम्हें
ठीक-ठीक पता
नहीं है।
क्यों कर रहे
हो, करने
वाले का ही
तुम्हें कोई
बोध नहीं है।
पर तुम किए जा
रहे हो। एक
निद्रा में
चलते हुए लोगों
की भीड़ है। इस
भीड़ में दुख न
हो तो और क्या
होगा? इस
भीड़ के
अंतर-संबंधों
में नरक न आ
जाए तो और क्या
होगा?
नानक
कहते हैं, 'ज्ञान के
खंड में होश
की प्रचंडता
है।'
तुम
अभी अज्ञान के
खंड में हो।
वहां बेहोशी
की प्रचंडता
है। वहां नींद
असली तत्व है।
वहां
नाद है। जो
पहली घटना
घटती है
ज्ञानी को, वह नाद है।
जिसको ओंकार
कहा
उन्होंने।
जिसको नानक
कहते हैं, एक
ओंकार सतनाम।
वह नाद का नाम है।
यह ओंकार तो
सिर्फ प्रतीक
है उसको बताने
के लिए।
क्योंकि
अस्तित्व एक
गहन संगीत से
निर्मित है।
अस्तित्व
संगीत है। और
बड़ा गहन संगीत
है। अनाहत
संगीत है। कोई
उसे पैदा नहीं
कर रहा है।
किसी चीज से
पैदा नहीं हो
रहा है। उसका कोई
कारण नहीं है।
अस्तित्व के
होने का ढंग
संगीत है।
इसलिए तो
संगीत में तुम
लीन हो जाते
हो। और अगर
संगीत में तुम
लीन होते हो, तो उसका
केवल इतना ही
अर्थ होता है
कि उस संगीत
में कहीं नाद
की थोड़ी सी
ध्वनि, कहीं
नाद की थोड़ी
परछाईं है।
महान
संगीतज्ञ का
एक ही अर्थ है
कि वह उस नाद को
वाद्य में पकड़
ले। उस ओंकार
को थोड़ा सा
तुम्हारे लिए, तुम्हारी
नींद की
दुनिया में
उतार लाए।
संगीत का अर्थ
तुम्हारी
वासनाओं को
उत्तेजित करना
नहीं है।
दुनिया
में दो तरह के
संगीत हैं। एक
पूर्वीय संगीत
है, जिसकी
गहरी से गहरी
खोज हिंदुओं
ने की है। उन्होंने
नाद पर उसको
आधारित किया।
जब संगीत नाद
की तरफ ले
जाता है, तो
संगीत को
सुनते-सुनते
ध्यान
निर्मित होने लगता
है।
और
फर्क समझ
लेना। ध्यान
का अर्थ है, तुम ज्यादा
जागने लगोगे।
तुम परिपूर्ण
होश से भर
जाओगे। जैसे
एक दीया अचानक
भीतर जल जाए। तुमने
सुना है कि
संगीतज्ञ
अपने संगीत से
बुझे दीए जला
सकता है। तुम
बाहर के दीयों
का खयाल मत करना।
बाहर के दीयों
से इसका कुछ
लेना-देना नहीं
है। तुम बुझे
हुए दीए हो।
और अगर
संगीतज्ञ खुद
भी समाधिस्थ
है तो ही!
क्योंकि वह
समाधिस्थ हो,
तो ही ओंकार
की ध्वनि को
संगीत में
पिरो पाएगा और
तुम्हारे जगत
में ला पाएगा।
थोड़ी सी भी
झलक ले आए, एक
बूंद ले आए उस
अमृत की तो
तुम पाओगे कि
तुम जाग गए हो,
तुम होश से
भरे हो, तुम्हारी
नींद से किसी
ने तुम्हें
झकझोर दिया
है। और यह
संगीत ध्यान
बन जाएगा।
फिर एक
दूसरा संगीत
है ठीक इसके
विपरीत, जो
सुलाता है। जो
तुम्हें और
तंद्रा में ले
जाता है। उस
संगीत को सुन
कर तुम्हारी
वासना जगेगी।
इस्लाम ने उसी
संगीत के कारण
संगीत को वर्जित
कर दिया।
क्योंकि
इस्लाम को पता
ही न था कि
हिंदुओं ने एक
और संगीत खोज
लिया है, जो
सहस्रार से
संबंधित है।
दो
संगीत हैं। एक
तो कामवासना
से, सेक्स
सेंटर से
संबंधित है।
और एक संगीत
है, जो
सहस्रार से
संबंधित है।
सहस्रार से
संबंधित
संगीत तो नाद
है। सेक्स
सेंटर से, कामवासना
से संबंधित
संगीत तो केवल
वासना को फुसलाना
है। इस्लाम को
वही पता था।
जहां इस्लाम
पैदा हुआ, वहां
एक ही संगीत
का बोध था कि
संगीत लोगों
को वासना में
ले जाता है, कामवासना
में ले जाता
है, राग-रंग
में ले जाता
है। इसलिए
इस्लाम ने तो
बिलकुल इनकार
ही कर दिया कि
संगीत को जगह
ही नहीं है।
मस्जिद के
सामने
बैंड-बाजा तक
मत बजाना।
और यह
भी ठीक है।
क्योंकि
दुनिया में चल
रहा निन्यानबे
प्रतिशत
संगीत तो ऐसा
ही है, जो
तुम्हें
मंदिर में
नहीं ले जा
सकता। मंदिर
से दूर ले जाएगा।
पश्चिम में
संगीत की
हजारों नयी
धाराएं हैं।
वे सब की सब
विकृत हैं। उस
संगीत में तुम
अपना होश खो
दोगे। वह शराब
जैसा है। उससे
तुम जागोगे
नहीं, तुम
उससे और वासना
में लीन हो
जाओगे।
वेश्या उस
संगीत का
उपयोग करती
है। संतों ने
भी उस संगीत
का उपयोग किया
है। संगीत वही
है। लेकिन वही
व्यक्ति उसको
नाद बना सकता
है, जिसको
नाद का अनुभव
हुआ हो।
नानक
तो संगीतज्ञ
हैं। वे तो
बोलते नहीं, गाते हैं।
वे तो उत्तर
भी देते हैं, तो गीत गा कर
देते हैं। और
ये गीत कोई
बनाए हुए गीत
नहीं हैं। ये
सहज हैं। किसी
ने कुछ पूछा
और नानक मरदाना
को इशारा
करेंगे, और
वह बजाने लगता
है। और नानक
गीत गाने लगते
हैं। गा कर ही
उन्होंने कहा
है। क्योंकि
पूरा अस्तित्व
गीत की भाषा
को समझता है।
और जब कोई व्यक्ति
खुद समाधिस्थ
हो, तो
उसके संगीत
में नाद उतर
आता है।
नाद का
अर्थ है, वह
परम ध्वनि, जो अस्तित्व
में चुपचाप
पैदा हो रही
है। जैसे कभी
रात के
सन्नाटे में
तुम्हें
सुनायी पड़ती है
सन्नाटे की
आवाज। ठीक
वैसा ही चौबीस
घंटे एक नाद
चल रहा है। एक
रिदम
अस्तित्व का
है। जब कुछ भी
नहीं हो रहा
है, तब भी
वह चल रहा है।
पर उसके लिए
तुम्हें बड़ा
शांत हो जाना
पड़े, तब
तुम समझ
पाओगे।
तुम्हारी
भीतर की सब
आवाज बंद हो
जाए, तब
तुम समझ
पाओगे। अभी तो
तुम हजार तरह
के बाजार से
भरे हो। अभी
तुम्हारे
भीतर बड़ा
शोरगुल है।
इसी शोरगुल
में तुम्हें
जो पसंद पड़ता
है संगीत, वह
भी शोरगुल को
बढ़ाने वाला ही
हो, तो ही
पसंद पड़ता है।
वह भी अराजक
हो, उपद्रव
हो, तुम्हारी
विक्षिप्तता
को प्रकट करता
हो, तो ही
पता चलता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
पड़ोस में एक
आदमी आलाप भर
रहा था। आधी
रात को
नसरुद्दीन
उसके पास गया और
उसने कहा कि
आपको तो अपने
संगीत का
कार्यक्रम
लंदन, मास्को,
पेकिंग, वहां
देना चाहिए।
उस आदमी ने
कहा कि
नसरुद्दीन, मैंने कभी
सोचा भी नहीं
कि तुम संगीत
के इतने प्रेमी
हो। क्या
तुम्हें मेरा
संगीत इतना पसंद
आता है? उसने
कहा कि नहीं, कम से कम
वहां से
तुम्हारी
आवाज हमें
सुनायी न
पड़ेगी।
तुम्हारे
चारों तरफ जो
चल रहा है संगीत
के नाम से, वह विसंगीत
है। उसकी आवाज
तुम्हें
सुनायी ही न
पड़े तो अच्छा
है। तुम वैसे
ही विसंगीत से
भरे हो। काफी
वैसे ही जहर
तुममें भरा
है। और उस जहर
को उठाने की
सब चेष्टाएं
चल रही हैं।
नाच रहे हैं
लोग, तो
वासना को
जगाने के लिए।
गा रहे हैं
लोग, तो
वासना को
जगाने के लिए।
पर जिस
चीज से भी
वासना जग सकती
है, उसी चीज
से वासना सो
भी सकती है।
इसको याद रखना।
जो चीज जहर है,
वही अमृत हो
सकती है, इसको
याद रखना।
उपयोग पर
निर्भर है।
उपयोग पर ही
परिणाम
निर्भर है।
जहर औषधि बन
जाती है। और
जहर मृत्यु भी
बन जाती है।
जहर मौत से
बचाता भी है, मौत में ले
भी जा सकता
है।
नानक
कहते हैं, जो पहला
अनुभव होता है
ज्ञान-खंड में
वह नाद है।
दूसरा अनुभव
विनोद है। यह
बड़ी समझ लेने
की बात है।
क्योंकि तुम
सोच ही नहीं
सकते कि संत और
विनोद का क्या
संबंध? विनोद
का मतलब है कि
जिंदगी गंभीर
नहीं रह जाती
है। एक
हंसी-खुशी हो
जाती है।
विनोद का अर्थ
है, जिंदगी
एक हल्का आनंद
हो जाती है।
निर्भार, जिसमें
कोई वजन नहीं।
तुम
साधु-संतों को
देखते हो, जो
गंभीर हैं, बड़े चेहरे
वाले हैं।
जिनके चेहरे
पर ऐसा लगता है
कि जैसे
दुनिया भर की
मुसीबत
इन्हीं के ऊपर
आ पड़ी है।
नानक
कहते हैं, जिसने नाद
सुन लिया, वह
कैसे उदास
होगा? उसके
जीवन में
उदासी नहीं
होगी, विनोद
होगा। वह
हंसेगा। वह
हंस सकेगा।
वही हंस सकता
है। तुम तो
हंसोगे कैसे?
तुम्हारी
तो हंसी भी
झूठी है।
तुम्हारे
प्राणों में
प्रफुल्लता
नहीं है।
तुम्हारे
होठों पर हंसी
कैसे होगी? जिसने जाना,
वह हंस सकता
है। वह ही हंस
सकता है।
और
नानक कहते हैं, जिसने नाद
को पहचान लिया
उसके जीवन का
ढंग विनोद का
होगा। उसके
जीवन में तुम
गंभीरता न
पाओगे।
प्रामाणिकता
पाओगे, गंभीरता
न पाओगे। उसके
जीवन में तुम
हंसी-खुशी
पाओगे, उदासी
न पाओगे। उसकी
आंखों में
कालिमा न
होगी। उसकी
आंखों में एक
उत्सव होगा।
तीसरी
चीज है कौतुक।
उसके जीवन में
विस्मय होगा, उत्तर नहीं।
उत्तर वह
जानता नहीं।
जो उत्तर दूसरे
भी जानते हैं,
वह भी उसके
लिए उत्तर न
रहे। उसका
कौतुक जग गया
है। वह
आश्चर्य से
भरा है। वह
छोटे बच्चे कि
भांति पुलकता
है। हर चीज
रहस्य बताती
है। वह जहां
भी देखता है, पाता है
अनंत रहस्य
है। कहीं कोई
उत्तर नहीं है।
कहीं भी उत्तर
मिल जाए, अहंकार
को पैर रखने
की जगह मिल
गयी। और जब
कहीं भी कोई
उत्तर नहीं
मिलता तो
अहंकार अपने
आप विसर्जित
हो जाता है।
जगह न बची खड़े
होने की।
रहस्य
है! रहस्य का
अर्थ हुआ कि
तुम्हारे हाथ के
भीतर, तुम्हारी
मुट्ठी के
भीतर कुछ भी
नहीं आ सकता है।
हां, तुम
चाहो तो रहस्य
के भीतर जा
सकते हो।
रहस्य को तुम
मुट्ठी में
कब्जा नहीं कर
सकते। तिजोड़ी
में बंद नहीं
कर सकते।
शास्त्र में
कैद नहीं कर
सकते। रहस्य मुट्ठी
में नहीं आता।
उस पर कोई
नियंत्रण नहीं
हो सकता। हां,
तुम चाहो तो
उसमें जा सकते
हो। जैसे कोई
सागर में उतर
जाए, ऐसा
कोई रहस्य में
उतर सकता है।
लेकिन मुट्ठी में
बंद नहीं होता
रहस्य। रहस्य
आकाश जैसा है।
तो
नानक कहते हैं, पहला तो नाद,
विनोद, कौतुक
और आनंद।
विनोद
आनंद की सतह
है। और आनंद
विनोद की
गहराई है।
विनोद सतह है, जैसे लहरें
उठती हैं सागर
में। और आनंद
सागर की गहराई
है।
मुस्कुराहट, प्रसन्नता,
उस आनंद की
पुलकें हैं जो
तुम्हारे
ओंठों तक आ
जाती हैं। तुम
हंस सकते हो, क्योंकि
तुम्हारे
भीतर परम आनंद
भरा है। विनोद
सतह है; आनंद
गहराई है। और
जब आनंद विनोद
से जुड़ता है तो
जीवन में परम
धन्यता आ जाती
है।
तुम्हारा
विनोद भी
रुग्ण है। जब
तक कोई गंदी मजाक
न करे, तुम
हंस भी नहीं
सकते।
तुम्हें
हंसने के लिए
भी कोई गंदगी
चाहिए। इसलिए
तो दुनिया में
नब्बे, बल्कि
निन्यानबे प्रतिशत
मजाक सेक्स से
संबंधित होती
हैं, गंदी
होती हैं, अश्लील
होती हैं। जब
तक कोई अश्लील
बात न कहे, तुम
हंस भी नहीं
सकते।
तुम्हारी
हंसी भी रुग्ण
है। जब तक कोई
आदमी रास्ते
पर गिर ही
नहीं पड़े, पैर
न फिसल जाए
केले के छिलके
पर, तब तक
तुम हंस ही
नहीं सकते।
जहां करुणा
चाहिए थी, वहां
तुम्हें हंसी
आती है। जहां
उस आदमी को सहारा
देना था, वहां
तुम व्यंग
करते हो।
तुम्हारा
हंसना रुग्ण
है। तुम्हारा
हंसना स्वस्थ
नहीं है।
एक
आदमी अगर गिर
पड़ा है तो
हंसने जैसा
क्या है? उसको
सहारा चाहिए,
लेकिन तुम
हंस रहे हो।
क्यों? क्योंकि
तुम्हारे
भीतर तुम
दूसरों को
गिराना चाहते
हो हर हालत
में। और जिनको
तुम ज्यादा
गिराना चाहते हो,
अगर वे
गिरेंगे तो
तुम ज्यादा
हंसोगे। समझो
कि एक भिखारी
गिर जाए, तुम
ज्यादा न
हंसोगे।
इंदिरा गांधी
गिर जाए तो
तुम बहुत
खिलखिला कर
हंसोगे। एक
भिखारी गिरा,
इसमें क्या
हंसने की बात
है? गिरा
ही हुआ था।
उसको तुमने
गिराने का कभी
सोचा ही न था।
लेकिन एक
अचेतन वासना
है कि इंदिरा गिर
जाए; तो
तुम्हें हंसी
आएगी। नौकर
गिरे तो
ज्यादा न हंसोगे,
मालिक गिर
जाए तो
हंसोगे।
तुम्हारी
अचेतन हिंसा
ही तुम्हारी
हंसी तक में
भरी है।
तुम्हारा
हंसना तक जहर
है। इसलिए तुम्हारा
विनोद विनोद
नहीं है, व्यंग
है। और व्यंग
और विनोद का
वही फर्क है। कडुवा
है तुम्हारा
विनोद। उसमें
दंश है। कांटे
हैं, फूल
नहीं हैं।
एक संत
भी हंसता है।
उसकी हंसी में
दंश नहीं है, कांटे नहीं
हैं। और अक्सर
तो वह अपने पर
हंसता है।
क्योंकि वह
अपनी ही हालत
को देखता है।
जब वह तुम पर
भी हंसता है
तब भी वह अपने
पर ही हंसता
है। क्योंकि
तुममें भी वह
अपनी ही झलक
देखता है। जब
एक आदमी गिरता
है, तब वह
आदमियत को
गिरते देखता
है, आदमी
को गिरते
नहीं। तब वह
जानता है कि
आदमी असहाय है,
हंसी योग्य
है, रिडिक्युलस
है। कितनी अकड़
कर चला जा रहा
था, टाई-वाई
लगायी हुई थी।
सब तरह
सजा-बजा था।
और एक छिलके
ने गिरा दिया!
एक केले के
छिलके ने मजाक
कर दी!
अगर वह
इस आदमी को
देखता है, तो उसे
दिखायी पड़ती
है आदमी की
असहाय, हेल्पलेसनेस
की अवस्था। कि
कितना कमजोर
है आदमी और
अकड़ कितनी! एक
केले का छिलका
गिरा देता है,
और हिमालय
पर चढ़ने की
अकड़ ले कर
चलता है आदमी।
परमात्मा को
पराजित करने
का खयाल रखता
है, केले
का छिलका गिरा
देता है। वह
अगर हंसता है,
तो
मनुष्यता की
असहाय अवस्था
पर हंसता है।
अपनी असहाय
अवस्था पर हंसता
है, लज्जा
से। लेकिन
किसी की निंदा
से, किसी
को गिराने के
भाव से नहीं।
उसका विनोद है।
वह भीतर
आनंदित है। और
उसके आनंद की
लहरें, उसके
ओठों तक आ
जाती हैं।
'लज्जा
या शील, ज्ञान-खंड
की वाणी रूप
है।'
जितना-जितना
ज्ञान गहन
होता है, जागरूकता
बढ़ती है, उतनी-उतनी
लज्जा।
नानक
कहते हैं, सरम खंड की
वाणी रूपु। और
वह जो लज्जा
है, वही
वाणी है।
बुद्धपुरुष
झिझक कर बोलते
हैं। बुद्धू
टेबल ठोंक कर
बोलते हैं।
इसलिए बुद्धू
बहुत से अनुयायी
इकट्ठे कर
लेते हैं।
क्योंकि ये
अनुयायी तो
देखते हैं कि
कौन कितने जोर
से बोल रहा
है। अगर कोई
आदमी झिझक कर
बोल रहा है, तो तुम उसके
पीछे जाओगे ही
नहीं। कि यह
आदमी अभी खुद
ही संदिग्ध है,
तुम
समझोगे। वह
संदेह के कारण
नहीं झिझक रहा
है, वह
लज्जा के कारण
झिझक रहा है।
वह इसलिए झिझक
रहा है कि
कहना कितना
मुश्किल है!
बुद्ध
के पास बहुत
लोग आते थे
नए-नए सवाल, अलग-अलग
सवाल ले कर।
बुद्ध जवाब तो
कम देते थे।
बहुत थोड़े
सवालों के
जवाब देते थे।
खास सवालों के
तो जवाब देते
ही नहीं थे।
क्योंकि खास सवालों
का कोई जवाब
ही नहीं।
सिर्फ गैर-खास
सवालों का
जवाब हो सकता
है। जो मुसीबत
आदमी ने खुद
पैदा की है, उसका जवाब
हो सकता है।
लेकिन जो
रहस्य परमात्मा
का है, उसका
कोई जवाब
नहीं।
तो
बुद्ध चुप रह
जाते। बहुत
लोग यही सोच
कर लौट जाते
कि अभी इसे ही
पता नहीं है, पता होता तो
बोलता। तुम
चुप्पी को समझ
ही न पाओगे।
वह लज्जा जो
बुद्ध में है,
बहुत कम
लोगों में रही
है। तो बुद्ध
के समय भी
बहुत से
मतवादी थे, जो अकड़ कर
जवाब देते थे।
लोग उनके पीछे
इकट्ठे हो
जाते। वे भी
समझाते थे
लोगों को कि
पूछ लो यह
सवाल जा कर।
अगर ज्ञान हो
गया है तो
जवाब चाहिए।
तुम भी सोचते
हो यही कि
जिसको ज्ञान
हो गया, उसके
पास सब जवाब
होने चाहिए।
जिसको
ज्ञान हो जाता
है, उसके सब
जवाब खो जाते
हैं। उसके पास
कोई जवाब नहीं
बचता। उसे बड़ी
लज्जा जाती है
कि क्या तुमसे
कहे? उसे
लज्जा आती है
कि क्या तुम
पूछ रहे हो, इसका भी
तुम्हें पता
नहीं।
रास्ते
पर चलते आदमी
ने मुझे पकड़
लिया है कई बार, और कहा कि
ईश्वर है? रास्ते
पर मैं चला जा
रहा हूं।
ट्रेन पकड़ने
के लिए
प्लेटफार्म
पर हूं। कोई
आदमी बीच में
रोक लेता है, जरा एक
मिनट। ध्यान
क्या है?
इनको
क्या कहा जाए? ये क्या पूछ
रहे हैं, इसका
इन्हें पता
नहीं है! ये
उत्तर चाहते
हैं। अगर
इन्हें उत्तर
दे दिया जाए
तो उत्तर ये
ऐसा चाहते हैं,
जैसे दो और
दो चार।
काश, जिंदगी गणित
होती! बड़ा
आसान हो जाता।
जिंदगी गणित
नहीं है।
जिंदगी एक
काव्य है, जिसको
समझने की
क्षमता
चाहिए। जिसे
मौन में सुनने
की योग्यता
चाहिए। और
काव्य के
उत्तर गणित
जैसे दो और दो
चार जैसे नहीं
हैं। काव्य तो
विस्मय जगाता
है। वह
तुम्हें
उठाता है तुम
जहां हो वहां
से। वह
तुम्हें
उत्तर दे कर
वहीं स्थापित
नहीं करता। वह
तुम्हारी
जड़ों को उखाड़ता
है और तुम्हें
नयी यात्रा पर
ले जाता है।
विस्मय से और
विस्मय की ओर।
नानक
कहते हैं, 'इसका अंत ही
नहीं, अंत
ही नहीं है।'
'लज्जा
या शील वाणी
रूप हैं।'
बुद्ध
चुप रह जाते
हैं। जब कोई
पूछता है, ईश्वर है? तो बुद्ध
चुप रह जाते
हैं। इस कारण
दो भ्रांतियां
पैदा हुईं।
हिंदुओं ने तो
समझा कि इस
आदमी को पता
ही नहीं है।
क्योंकि पता
होता...गांव के साधारण
पंडित से पूछो,
वह कहता है
कि हां, ईश्वर
है। और प्रमाण
देता है। जब
हमारा पंडित प्रमाण
दे देता है, तो यह आदमी? गांव का
साधारण पंडित
जानता है!
मैंने
सुना कि ऐसा
हुआ कि एक मूढ़
देश में एक महामूढ़
नेता हो गया।
वह
प्रधानमंत्री
बन गया। वह
बोल लेता था।
भाषण करने में
तेज था। नेता
होने के लिए
उतनी ही जरूरत
है। और कोई
योग्यता
चाहिए भी
नहीं। वह काफी
चिल्ला-चिल्ला
कर बोलता था
और प्रभावित
कर देता था
आवाज से। और
जब कोई इतना
चिल्ला कर बोलता
है, तो लोगों
को भरोसा आ
जाता है कि
इतना चिल्ला कर
बोल रहा है, तो कुछ पता
ही होगा।
पढ़ा-लिखा
बिलकुल नहीं
था।
मुसीबत
तो तब आयी जब
वह
प्रधानमंत्री
हो गया।
क्योंकि नियम
यह था कि
प्रधानमंत्री
भाषण न दे, पढ़ कर बोले।
तो पढ़ तो सकता
ही नहीं था, और आदमी
होशियार था, और नेता
होने के लिए
चालाकी तो
चाहिए ही। तो
उसने सोचा, कोई हर्जा
नहीं! तो वह
कोई भी कागज
रख लेता था। अखबार
की कटिंग काट
ली, रख ली।
भाषण तो जो
उसे देना था
वही देता था, लेकिन वह
उसमें से पढ़
कर देता था।
पढ़ा-लिखा तो था
नहीं, तो
अक्सर कभी
उलटा भी पकड़
लेता था।
ऐसा
हुआ कि कोई
परदेश से आदमी
आया था, किसी
का मेहमान, उसने इसका
व्याख्यान
सुना। वह
हैरान हुआ। क्योंकि
एक तो अखबार
की कटिंग रखे
हुए था पुरानी
कोई। और वह भी
उलटी पकड़े था।
तो उसने खड़े
हो कर कहा कि
यह तो हद हो
गयी! यह आदमी, उसमें जो
लिखा है, वह
तो पढ़ ही नहीं
रहा है। और पढ़
भी नहीं सकता,
क्योंकि
उसको उलटी रखे
हुए है।
पर
नेता, जैसे
कि नेता चालाक
होते हैं।
गांव के लोगों
को बात जंची।
उन मूढ़ों को
बात जंची कि
अरे! यह
बिलकुल
बेपढ़ा-लिखा
आदमी है। इसको
यह भी पता
नहीं कि
सीधा...नेता ने
कागज नीचे रख
कर कहा कि
सुनो, जिसको
पढ़ना आता है
उसको क्या
सीधा और क्या
उलटा? यह
गांव के लोगों
को बिलकुल
जंची कि बात
बिलकुल ठीक है,
जिसको पढ़ना
ही आता है। उस
नेता ने कहा, तुमने सुनी
है कहावत--नाच
न आवै आंगन
टेढ़ा। अरे
आंगन टेढ़ा
होने से क्या
होता है? नाच
आना चाहिए।
पढ़ना आना
चाहिए, कागज
कैसा ही हो!
मैं उसको किसी
भी तरह रखूं, हर हालत में
पढ़ सकता हूं।
यह आदमी गैर
पढ़ा-लिखा है।
और वह आदमी अब
भी नेता है।
गांव के लोगों
को जंच गयी
बात।
बुद्ध
से लोग पूछते, ईश्वर है? वह चुप रह
जाते। तो एक
तो यह भ्रांति
पैदा हुई कि
इन्हें पता
नहीं है। और
दूसरी यह
भ्रांति पैदा
हुई कि ईश्वर
है, नहीं
इसलिए बुद्ध
चुप हैं।
हिंदुओं ने
समझा, इस
आदमी को पता
नहीं है। और
बौद्धों ने
समझा, जो
बुद्ध के
अनुयायी थे, कि ईश्वर है
नहीं, इसलिए
बुद्ध चुप
हैं। नहीं तो
क्यों चुप
रहें? इसलिए
बुद्ध को लोग
नास्तिक
समझते हैं।
खुद उनके
मानने वाले
बुद्ध को
नास्तिक
समझते हैं। और
इससे महान
आस्तिक कभी
जमीन पर हुआ
नहीं।
नानक
की बात से
तुम्हें समझ
में आ जाएगा:
लज्जा वाणी
है। जब तुम
पूछते हो, ईश्वर है? तो बुद्ध
चुप रह जाते
हैं। चुप रह
जाते हैं कि कैसे
कहें? किस
मुंह से कहें?
कौन कहे? रहस्य इतना
बड़ा है कि कहा
नहीं जा सकता
है। बुद्ध चुप
रह कर कुछ कह
रहे हैं और
तुम समझ ही
नहीं पा रहे
हो। या तुम जो
भी समझ पा रहे
हो, वह गलत
है।
नानक
कहते हैं, 'उसमें जो
रचना होती है,
वह अत्यंत
अनूप और अनुपम
है।'
उस
लज्जा में जो
बोध की
नयी-नयी
रचनाएं होती हैं, नयी-नयी
तरंगें आती
हैं, वे
अनुपम हैं।
अत्यंत अनूठी
हैं। उनका कोई
जोड़ नहीं, अद्वितीय
हैं।
'उसकी
चर्चा शब्दों
में नहीं की
जा सकती। और
जो ऐसा करने
का प्रयास
करता है, वह
पीछे पछताता
है।'
क्यों
पीछे पछताता
है, जो
प्रयास करता
है? क्योंकि
जैसे ही शब्द
में कोई बात
बोली जाती है,
वैसे ही
लगता है कि जो
कहना था वह तो
कहा नहीं गया,
यह तो कुछ
और हो गया। जो
कहना था वह तो
पीछे छूट गया।
और जब वह सुनने
वाले की आंखों
को देखता है, तब उसे लगता
है, जो
कहना था वह तो
पहुंचा ही
नहीं। नब्बे
प्रतिशत तो
पहले ही छूट
गया, शब्द
जब बनाया। और
दस प्रतिशत जो
थोड़ा बहुत शब्द
में था, वह
भी सुनने वाले
को नहीं
पहुंचा। उसने
कुछ और ही
सुना है।
तुमने कुछ और
ही कहा था।
बुद्ध कुछ और
ही कहते हैं, अज्ञानी कुछ
और ही सुनते
हैं। और जो
अज्ञानी सुनते
हैं, उस पर
संप्रदाय
निर्मित होते
हैं। इसलिए
बुद्धों से उन
संप्रदायों
का बिलकुल
संबंध टूट जाता
है। कोई संबंध
नहीं रह जाता।
इसलिए
पीछे पछताता
है। कि जो
कहेगा, वह
पछताएगा।
इसलिए
जिन्होंने कहने
की भी कोशिश
की है, उन्होंने
भी निरंतर साथ
में यह कहा है
कि तुम शब्द
को मत पकड़
लेना।
अब
नानक ने ही यह
कहा, अब वे
पछता रहे
होंगे।
सिक्खों को
देखेंगे, पछताएंगे।
यह कभी सोचा
भी न होगा कि
यह जमात खड़ी
होगी। बुद्ध
पछता रहे हैं
कि जो बौद्धों
की जमात खड़ी
हुई है, यह
कभी सोचा ही न
होगा। महावीर
पछता रहे हैं।
ये लोग सब
मोक्ष में
मिलते होंगे
और अपना-अपना
रोना रोते
होंगे।
रोएंगे ही।
क्योंकि
सुन कर वह बात
समझी नहीं जा
सकती। सुनने
वाला शब्द पकड़
लेता है। फिर
शब्द को ढोता
है। फिर शब्द
के आसपास
संप्रदाय खड़ा
होता है। फिर
वह संप्रदाय
चलता है
हजारों-हजारों
साल तक। और हजारों
तरह की भूलें
उस संप्रदाय
के कारण पैदा
होती हैं और
हजारों तरह की
विकृतियां।
वह जमीन पर एक
घाव की तरह
छूट जाता है, मनुष्य की
चेतना पर एक
बीमारी की
तरह।
'जो
ऐसा कहने का
प्रयास करता
है, वह
पीछे पछताता
है। वहीं
स्मृति, मति,
मन और
बुद्धि की
रचना होती है।'
उस
ज्ञान-खंड में, जहां होश
जगता है, वहीं
से स्मृति की
धाराएं, मति,
मन और
बुद्धि की
रचना होती है।
वहीं चेतना के
सभी रूप ढलते
हैं।
'वहीं
देवता और
सिद्ध की सुधि
या मनीषा गढ़ी
जाती है।'
उस होश
में यह सब
दिखायी पड़ता है।
ये सारे रूप।
जैसे मिट्टी
से कोई हजारों
चीजें बनाए, मूर्तियां
बनाए, ऐसे
ही चेतना के
सब रूप हैं।
बुद्धि, मन,
सुधि, स्मृति,
मनीषा, प्रतिभा
सब चेतना के
रूप हैं।
लेकिन
जब तुम जाग कर
इनके ऊपर उठते
हो, तब
तुम्हें पता
चलता है कि ये
सब तो चेतना
के ही रूप
हैं। और इनसे
जो भी जाना
जाता है, वह
सीमित होगा।
क्योंकि रूप
से तुम अरूप
को नहीं जान
सकते। मति, बुद्धि, सुधि,
प्रतिभा इन
सब के पीछे जो
अरूप छिपा है,
वह है
जागरण। वह है
बोध। वह है
होश। वह है
चेतना।
उस
अरूप को तुम
पकड़ो और इन
रूपों को भीतर
छोड़ दो। जैसे
ही तुम उस अरूप
का धागा भीतर
पकड़ लेते हो, वैसे ही
सारे जगत में
निराकार की
पहचान शुरू हो
जाती है।
बुद्धि से तुम
जो भी जानोगे,
वह सीमित
होगा। साकार
होगा। बुद्धि
तो ऐसे ही है
जैसे कोई घर
की खिड़की पर
खड़ा हो कर
आकाश को देखे।
तो खिड़की का
जो चौखटा है, आकाश उतना
ही दिखायी
पड़ेगा, जितना
चौखटा है।
चेतना
बहुत रूप लेती
है। जैसे
पदार्थ ने
बहुत रूप लिए
हैं, कहीं
चट्टान है, कहीं बादल
है, कहीं
बर्फ है, कहीं
आकाश है। जैसे
पदार्थ ने
अनंत रूप लिए
हैं, ऐसे
ही चेतना ने
भी अनंत रूप
लिए हैं। कहीं
बुद्धि है, कहीं सुधि
है।
बुद्धिमान
में बुद्धि है,
पंडित में
बुद्धि है।
सुधिमान में,
साधु में
सुधि है।
स्मरण है, सुरति
है। जो लोग
बड़ी याददाश्त
रखते हैं, चाहे
उनमें बुद्धि
न हो, स्मृति
होती है।
अक्सर
ऐसा होता है
कि बहुत
बुद्धिमान
लोगों में
स्मृति नहीं
होती। और बहुत
स्मृतिवान
लोगों में
बुद्धि नहीं
होती। ऐसे
बहुत से
प्रमाण हैं, जहां बड़ी
स्मृति के लोग
बड़े बुद्धू
पाए गए। क्योंकि
स्मृति का काम
अलग है। जो है
उसे जान लिया,
उसकी
याददाश्त।
बुद्धि का काम
दूसरा है। जो
नहीं जाना है,
जिससे कोई
पहचान नहीं, उसमें से
रास्ता
बनाना। दोनों
अलग-अलग हैं।
स्मृति अतीत
है, और बुद्धि
की खोज भविष्य
में है।
और अब
तो वैज्ञानिक
कहते हैं कि
बहुत स्मृति हो
तो सारी चेतना
उसी में जकड़
जाती है। तो
बुद्धि
ज्यादा नहीं
हो पाती। और
अभी सारी
शिक्षण-संस्थाएं
स्मृति पर ही
बल देती हैं।
इसलिए अगर दुनिया
में बड़ा
बुद्धूपन है
तो कोई
आश्चर्य नहीं।
क्योंकि
स्मृति का
शिक्षण होता
है।
बुद्धिमत्ता
का कोई शिक्षण
नहीं होता। तो
एक बच्चा
पढ़-लिख कर लौट
आता है, बिलकुल
जड़ हो कर लौट
आता है।
सौभाग्यशाली
हैं वे लोग, जो
विश्वविद्यालय
से अपनी
बुद्धि बचा कर
लौट आते हैं।
नहीं तो नष्ट
हो ही जाती
है। याद करते-करते,
करते-करते
याद ही पकड़
जाती है।
स्मृति
अलग है, बुद्धि
अलग है।
प्रतिभा और ही
अलग बात है।
प्रतिभा का
अर्थ है, सहज
जीवन को जानने
और पहचानने की
क्षमता। बिना
किसी तर्क के
जीवन के उत्तर
की झलक पा
लेने की
क्षमता का नाम
प्रतिभा है।
अगर तुम बड़े
से बड़े
वैज्ञानिक
आइंस्टीन से
पूछो तो वह
यही कहेगा, जो भी मैंने
जाना वह
बुद्धि से
नहीं जाना; प्रतिभा से।
उसके लिए कोई
उत्तर नहीं
है। अनेक-अनेक
रूपों में वह
प्रतिभा घटित
होती है।
मैडम
क्यूरी खोज कर
रही थी--जिसके
लिए उसको नोबेल
प्राइज
मिला--वह थक
गयी वर्षों तक
खोज करते, कुछ न हुआ।
और एक रात
नींद में उठ
कर टेबल पर जा
कर नींद में
ही उसने उत्तर
लिख दिया। फिर
वापस सो गयी।
सुबह तो वह
हैरान ही हुई
कि उत्तर आया
कहां से? क्योंकि
जब तक उसे याद
है, शाम तक
वह परेशान थी,
उत्तर नहीं
था। तब उसे
धीरे-धीरे याद
आया कि जैसे
उसने रात एक
सपना देखा। वह
उठी और सपने
में उसने कुछ
लिखा था। तब
उसे अपने
अक्षर भी
पहचान आ गए।
और रात में
उसने उत्तर
लिख दिया, जो
दिन में
खोज-खोज कर थक
गयी थी। यह
प्रतिभा है।
सभी कवियों का
यह खयाल है कि
जब तक तुम
कोशिश करो, कुछ नहीं
होता। गीत
उतरता है। वह
प्रतिभा का हिस्सा
है।
लेकिन
नानक कहते हैं, ये सब--मति, स्मृति, मन,
बुद्धि, प्रतिभा,
सुधि--सब
खेल हैं चेतना
के। अलग-अलग
ढांचे हैं। इन
ढांचों से तुम
जो भी जानोगे,
वह सीमित
होगा। इन
ढांचों के भी
ऊपर जाना है। एक
को ही जानना
है बाहर, एक
को ही जानना
है भीतर। और
जब तुम एक को
भीतर पहचानोगे,
तभी तुम एक
को बाहर
पहचानोगे।
क्योंकि भीतर
जब तुम एक
होओगे, तभी
बाहर की एक की
पहचान आ सकती
है।
और जब
तुम एक भीतर, एक बाहर को
पहचान लेते हो,
तो दो नहीं
बनते। अचानक
तुम पाते हो
कि जो भीतर है,
वही बाहर
है। तुम अचानक
पाते हो कि
बाहर भीतर भी
फासला हमारा
निर्मित किया
हुआ है। जो
आकाश बाहर है
तुम्हारे घर
के, वही
भीतर है।
दीवालें
तुमने बना रखी
हैं। द्वार-दरवाजे
तुमने लगा रखे
हैं। आकाश को
तुम खंडित
नहीं कर पाते।
तुम सोचते हो
कि आकाश खंडित
हो गया? कि
तुमने दीवाल
खड़ी कर ली तो
आकाश दो
टुकड़ों में हो
गया? आकाश
अखंड है।
तुम्हारी दीवाल
बने न बने; आज
है, कल गिर
जाएगी, आकाश
जैसा है वैसा
ही रहेगा।
जैसे
ही तुम एक को
भीतर, एक को
बाहर पहचानते
हो, दोनों
गिर जाते हैं।
अद्वैत का
जन्म होता है।
ज्ञान-खंड की
जो आखिरी
ऊंचाई है, वह
अद्वैत का
अनुभव है। एक
का अनुभव है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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