पउड़ी:
37
करम
खंड की वाणी
जोरु। तिथै
होरु न कोई
होरु।।
तिथै
जोध महाबल
सूर। तिन महि
राम रहिआ
भरपूर।।
तिथै
सीतो सीता
महिमा माहि।
ताके रूप न
कथने जाहि।।
न
ओहि मरहि न
ठागे जाहि।
जिनकै राम बसै
मन माहि।।
तिथै
भगत वसहि के
लोअ। करहि
अनंदु सचा मनि
सोइ।।
सच
खंडि वसै
निरंकारु।
करि करि वेखै
नदरि निहाल।।
तिथै
खंड मंडल
बरमंड। जे को
कथै त अंत न
अंत।।
तिथै
लोअ लोअ आकार।
जिव जिव हुकमु
तिवै तिव कार।।
वेखै
विगसे करि
वीचारु। 'नानक'
कथना करड़ा
सारु।।
मनुष्य
असहाय है।
लेकिन तभी तक, जब तक
परमात्मा से
दूर है।
मनुष्य
दुर्बल है, दरिद्र है, दीन है, लेकिन
तभी तक, जब
तक परमात्मा
से दूर है।
उससे हमारी
दूरी ही हमारी
दरिद्रता है।
और जितने हम
उससे दूर होते
जाते हैं, उतना
ही जीवन
अर्थहीन होता
जाता है।
पश्चिम
में इस सदी
में बहुत से
विचारक हुए, जिनकी ऐसी
प्रतीति है कि
जीवन में न
कोई अर्थ है, न कोई
प्रयोजन है, न कोई नियति
है। जीवन एक
व्यर्थ की कथा
है। ए टेल
टोल्ड बाई एन
ईडियट, फुल
आफ फ्यूरी एंड
न्वायज
सिग्नीफाइंग
नथिंग--जैसे
कोई मूढ़ कहे
एक कहानी, शोरगुल
बहुत मचाए
लेकिन अर्थ
उसमें बिलकुल
न हो।
ऐसा
लगेगा ही। ऐसी
प्रतीति
होगी। तुम
अपने ही जीवन
को देखो, शोरगुल
बहुत है। बड़े
काम में तुम
संलग्न हो। चल
ही नहीं रहे, दौड़ रहे हो।
लेकिन कभी
पूछा अपने से,
कहां पहुंच
रहे हो? दौड़-दौड़
कर भी वहीं
खड़े हो जहां
जन्म के बाद
तुमने अपने को
पाया था।
रत्ती भर तो
उपलब्धि नहीं
हुई। पाया
क्या है? अगर
हाथ देखोगे तो
खाली है।
तिजोड़ी भर गयी
हो भला। लेकिन
तिजोड़ी यहीं
पड़ी रह जाएगी।
तुम खाली हो।
और तुम जितने
भी भरेपन के
सपने देख रहे हो,
उनमें
सच्चाई जरा भी
नहीं है।
तुम
कितना ही
इकट्ठा कर लो
संसार का, लेकिन मरते
क्षण संसार
छूट जाएगा। और
जो छूट ही
जाना है, वह
तुम्हारा हो
कर भी
तुम्हारा
नहीं हो पाता।
जिन्होंने इस
जगत की संपदा
को अपना आधार
बनाया
उन्होंने रेत
पर महल खड़े
किए हैं, वे
गिरेंगे। और
तुम कितनी देर
अपने को धोखा
दे पाओगे? कभी
तो जागोगे, कभी तो होश
आएगा, कभी
तो तुम विचार
करोगे कि चला
इतना, पहुंचा
कहीं भी नहीं।
तुम्हारी
अवस्था कोल्हू
के बैल जैसी
है। चलता बहुत
है। चलता ही
रहता है।
दिन-भर शोरगुल
भी बहुत होता
है उसके आसपास।
क्योंकि तेल
पिरता है, घानी
चलती है।
पहुंचता कहां
है? सांझ
वहीं पाता है
जहां सुबह
अपने को पाया
था। फिर कल
सुबह वहीं से
यात्रा होगी।
तुम्हारा
जीवन भी
कोल्हू के बैल
जैसा है। तुम कितना
ही सजाओ, तुम
कितना ही
छिपाओ, तुम
कितने ही ऊपर
से रंग-रोगन
करो, भीतर
तुम्हें भी
पता है कि
भिखारी का
पात्र है
तुम्हारा
हृदय। मांगता
है और खाली
है। और भरता
कभी भी नहीं।
जितना दूर
आदमी होता जाता
है परमात्मा
से, उतना
ही दरिद्र
होता जाता है।
स्वामित्व तो
उसके साथ है।
और हम
केवल दूर ही
होते तो भी
ठीक था, हम
उसके विपरीत
हैं। दूर होना
भी इतना बुरा
नहीं जितना
विपरीत होना
है। हम जो भी
कर रहे हैं, उससे विपरीत
है। दूर हो कर
भी अगर हम
उसके साथ हों,
तो तत्क्षण
क्रांति हो
जाए।
जैसे
कोई आदमी नदी
में उलटी धार
में बह रहा हो, स्रोत की
तरफ तैरने की
कोशिश कर रहा
हो--लड़ रहा है; नदी से दूर
ही नहीं है, दुश्मन है।
और मजा यह है
कि तुम जितना
लड़ोगे, उतना
ही तुम पाओगे
कि नदी
तुम्हारी
दुश्मन है।
नदी को क्या
लेना-देना? तुम पहुंचो
या न पहुंचो, नदी को क्या
प्रयोजन है? नदी दुश्मन
नहीं है। नदी
तो अपनी धार
में बही जा
रही है, अपनी
मस्ती में।
उसे अपना सागर
खोजना है। तुम
उससे उलटे बह
रहे हो।
तुम्हारे
कारण ही नदी
तुम्हें
दुश्मन मालूम
होती है।
तुम्हारे
कारण ही
तुम्हें
संसार में सब
तरफ शत्रु
दिखायी पड़ते
हैं। और जीने
का मौका कहां
मिले? शत्रुओं
से सुरक्षा
करने में ही
समय व्यतीत हो
जाता है। कैसे
अपने को बचाएं,
इसी में
अवसर खो जाता
है।
परमात्मा
से दूर तो
जीवन अर्थहीन
होगा ही। परमात्मा
से विपरीत न
केवल अर्थहीन
होगा, बल्कि
एक दुःस्वप्न
भी होगा। दूर,
सपना होगा;
विपरीत, दुख
का सपना हो
जाएगा। और तुम
जिसे जीवन
कहते हो, वह
एक नाइटमेयर
है, एक
दुःस्वप्न
है।
तुमने
कभी
दुःस्वप्न का
विचार किया? दुःस्वप्न
का अर्थ होता
है, तुम
जागना चाहते
हो, जाग
नहीं सकते।
दुःस्वप्न का
अर्थ होता है,
छाती पर कोई
चढ़ा है। तुम
हटाना चाहते
हो, लेकिन
हाथ नहीं
हिलते। तुम
उसे हटाना
चाहते हो, लेकिन
कोई शक्ति
नहीं है। सब
शक्ति खो गई।
तुम पाते हो
कि कोई
तुम्हें
पहाड़ों से
गिरा रहा है।
लेकिन
तुम्हारे पास
कुछ भी उपाय
नहीं कि तुम
अपने को बचा
सको। तुम आंख
खोलना चाहते
हो और आंख
नहीं खुलती
है। तुम हाथ
हिलाना चाहते
हो कि रोक दो, लेकिन हाथ
नहीं उठता है।
तुम चीखना
चाहते हो और
कंठ से आवाज
नहीं निकलती
है। ऐसी जो
स्वप्न की दशा
है, वह
दुःस्वप्न है,
नाइटमेयर
है।
परमात्मा
से दूर जो है, वह सपने में
है; विपरीत
जो है, वह
दुख के सपने
में है। तुम
अपने जीवन को
देखोगे, तो
ऐसा ही पाओगे।
न आंख खोले
खुलती है, न
हाथ हिलाए
हिलता है, न
छाती से वजन
हटता है। और
फिर भी जी रहे
हो। तो फिर
तुम्हारा
जीवन सिवाय
संताप के और
कुछ भी नहीं
हो सकता।
कीर्कगार्ड, सार्त्र, मार्सेल, हायडेगर, पश्चिम के
बड़े विचारक
कहते हैं कि
जीवन संताप है,
एंग्विश
है। इसमें
चिंता से
मुक्ति का कोई
उपाय नहीं है।
उनकी बात बहुत
दूर तक सच है।
जैसा तुम्हारा
जीवन है, अगर
उसका ही
अध्ययन किया
जाए तो जीवन
एक संताप है।
लेकिन
एक और जीवन भी
हमने जाना है, नानक का, कबीर
का, बुद्ध
का, कृष्ण
का, क्राइस्ट
का। हमसे
बिलकुल
विपरीत। जहां
हम संताप से
दबे हैं, वहां
उनके जीवन में
एक नृत्य है।
और जहां हमारे
भीतर सिवाय
दुख के और कुछ
भी नहीं
गूंजता, वहां
उनके जीवन में
एक संगीत है, एक नाद है।
जहां हम ऐसे
चलते हैं जैसे
पैरों में
भयंकर भारी
जंजीरें बंधी
हों, वहां
उनके पैरों
में नृत्य है
और पुलक है।
जहां हमें देख
कर ऐसा लगता
है कि होना एक
महापाप का फल
है, वहां
उन्हें देख कर
लगता है कि
होना एक
आशीर्वाद है।
एक और
भी ढंग है
जीने का। उस
ढंग की कुंजी
है, ईश्वर से
दूर नहीं, ईश्वर
के पास। और
ईश्वर के
विपरीत नहीं,
ईश्वर के
अनुकूल। जो
धर्म के
अनुकूल बहने
लगता है, उसके
जीवन में
रूपांतरण हो
जाता है।
जरूरत भी नहीं
है कि तुम
विपरीत लड़ो।
लेकिन अहंकार
लड़ाता है।
क्योंकि
अहंकार मानता
है, जितना
तुम जीतोगे
उतने ही तुम
बड़े हो जाओगे।
और मजा
यही है कि हो
उलटा रहा है।
जितने तुम जीतते
हो उतने तुम
छोटे होते
जाते हो। गरीब
आदमी के पास
तुम बड़ा हृदय
भी पा लो, अमीर
आदमी के पास
उतना बड़ा हृदय
भी नहीं रह जाता।
और छोटा हो
गया है।
दरिद्र दान भी
दे दे, अमीर
की देने की
हिम्मत ही खो
जाती है। गरीब
थोड़ा प्रेम भी
कर ले, अमीरों
के जीवन से
प्रेम की धुन
भी खो जाती है।
प्रार्थना तो
बहुत दूर, परमात्मा
तो बहुत दूर, साधारण
प्राकृतिक
प्रेम की धुन
भी खो जाती है।
जितना
तुम इस संसार
में इकट्ठा
करते हो, लगता
है उतने ही
सिकुड़ते जाते
हो, छोटे
होते जाते हो।
यह बड़ा
विरोधाभास
है। जितना
तुम्हारे पास
होता है, उतने
ही तुम छोटे
होते हो। तुम्हारे
भीतर का आकाश
सिकुड़ जाता
है। और जो तुम्हारे
पास है, तुम
उसी के लिए
डरे होते हो।
तुम उसी से
परेशान होते
हो।
नानक
कहते हैं कि
शक्ति का
सूत्र है, उसकी कृपा।
और उसकी कृपा
तब उपलब्ध
होती है, जब
तुम अपने को
बिलकुल असहाय
समझ लेते हो।
बिलकुल! टोटल!
रत्ती भर भी
चालाकी वहां न
चलेगी। तुम
ऐसा ऊपर-ऊपर
से कहो कि मैं
असहाय हूं, इससे कुछ न
होगा।
यह
प्रतीति गहरे
में प्रविष्ट
हो जाए। यह
प्रतीति
तुम्हारे
हृदय के गहनतम
में पहुंच
जाए। यह
प्रतीति
तुम्हारे
रोएं-रोएं में
गूंजे। यह
ओंठों की
प्रार्थना न
हो, यह कंठ का
उदगार न हो, यह हृदय की
प्रतीति हो।
यह तुम्हारे
आंसुओं से
जाहिर हो। यह
तुम्हारे
शब्द-शब्द में
समा जाए, यह
तुम्हारे
निःशब्द में
भी गूंजती
रहे। तुम उठो,
बैठो, और
तुम ऐसे जैसे
कि तुम परम
असहाय हो।
तुम कर
क्या सकते हो? तुम्हारा
किया कुछ भी
तो नहीं होता।
तुम्हारे किए
अनकिया ही
होता है। तुम
जो करते हो, उससे जो
नहीं घटना
चाहिए, वही
घटता है।
तुम्हारे किए
कुछ भी नहीं
होता।
बड़ी
प्रसिद्ध
कहावत है। और
उस तरह की
कहावतें सारी
दुनिया की
अलग-अलग
भाषाओं में
हैं। लोग कहते
हैं, मैन
प्र्रपोजेज
एंड गाड
डिस्पोजेज।
इससे गलत कोई
कहावत नहीं हो
सकती कि
मनुष्य
प्रस्तावना
करता है और
ईश्वर इनकार
कर देता है।
हालत बिलकुल
उलटी है। गाड
प्रपोजेज एंड
मैन
डिस्पोजेज।
परमात्मा प्रस्ताव
करता है और
आदमी इनकार
करता रहता है।
परमात्मा
तुम्हें सभी
कुछ दे डालना
चाहता है।
यह
अस्तित्व लुट
जाना चाहता है
तुम्हारे लिए।
लेकिन
तुम्हारे
द्वार बंद
हैं। यह
अस्तित्व तुम
पर बरसना
चाहता है।
लेकिन
तुम्हारा घड़ा
उलटा रखा है।
यह अस्तित्व
सब तरफ से
तुम्हारे
भीतर आना
चाहता है।
लेकिन भय के
कारण तुमने संध
भी नहीं छोड़ी
कि कोई भीतर
प्रवेश कर
सके। और भीतर
तुमने इतना
कूड़ा-करकट और
कबाड़ इकट्ठा
कर रखा है कि
वहां भी जगह
नहीं है कि
कोई प्रवेश भी
करे तो बैठ
सके।
परमात्मा के
बैठने लायक
स्थान भी
तुम्हारे
भीतर नहीं।
उसकी
कृपा तो तब
उपलब्ध होती
है जब तुम
बिलकुल असहाय
हो जाते हो।
और असहाय
अवस्था की
परिपूर्ण
प्रतीति ही
लज्जा है। तब
तुम शर्माते
हो। तुम मैं
कहने तक में
शर्माते हो।
तुम कहते हो, किस आधार पर
कहूं कि मैं
हूं? किस
बुनियाद पर
कहूं कि मेरे
किए कुछ होता
है?
सारा
जीवन तो उलटी
ही बात कह रहा
है। तुमने जो किया
सब असफल हुआ।
तुमने जो किया
सब हार गया, सब मिट गया।
तुम्हारे
बनाए सब महल
गिर गए। फिर
भी तुम चेतते
नहीं, फिर
भी तुम कर्ता
को पकड़े चले
जाते हो। फिर
भी तुम कहते
हो, मैं
करने वाला
हूं। जब तक
तुम कहते हो, मैं करने
वाला हूं, तब
तक तुम लज्जा
से न भरोगे।
और नानक कहते
हैं, लज्जा
प्रार्थना
है। तुम कहते
हो, मैं
जानने वाला
हूं, तब तक
तुम झुकोगे
नहीं। पंडित
कहीं झुक सकता
है? उसका
माथा झुक नहीं
सकता। शरीर को
भला ही झुका
ले, माथा
अकड़ कर खड़ा
रहता है।
बड़ी
प्रसिद्ध
घटना है। सूफी
उस कहानी का
उपयोग किए
हैं। कि दो
मित्र एक
स्कूल में साथ
ही साथ पढ़े और
बड़े हुए। फिर
संयोग और
भाग्य, और
जीवन की
यात्रा
उन्हें
अलग-अलग ले
गयी। एक तो
बड़ा सम्राट हो
गया और दूसरा
एक बड़ा फकीर
हो गया।
सम्राट
राजमहल में
रहने लगा और
फकीर नग्न
गांव-गांव
भटकने लगा।
सम्राट की भी
बड़ी ख्याति थी,
फकीर की भी
कुछ कम न थी।
आखिर एक बार
फकीर राजधानी
आया तो सम्राट
ने बड़ा आयोजन
किया। उसने गांव
भर को दीयों
से सजा दिया, फूल बरसा
दिए। उसका
मित्र आ रहा
है!
फकीर
जब आ रहा था, तो रास्ते
में कुछ
यात्रियों ने
उससे कहा कि तुम्हें
कुछ पता है? वह सम्राट
अपना वैभव
दिखाना चाहता
है; अहंकारी
है। उसने सारे
रास्ते फूलों
से भर दिए
हैं। घर-घर पर,
इंच-इंच पर
दीए लगा दिए
हैं। सारा
गांव दीवाली
मना रहा है।
वह तुम्हें
दिखाना चाहता
है। जिन
सीढ़ियों से
तुम महल में
जाओगे, उन
सीढ़ियों को
उसने स्वर्ण
से मढ़ दिया
है। और उन पर
बहुमूल्य
हीरे-जवाहरात
जड़ दिए हैं।
वह अपनी अकड़
दिखाना चाहता
है। वह
तुम्हें
दिखाना चाहता
है कि देखो
तुम क्या हो? एक नंगे फकीर!
और मैं क्या
हूं! उस फकीर
ने कहा, देख
लेंगे उसकी
अकड़।
फिर
दिन आया, फकीर
गांव में
पहुंचा। सारी
राजधानी उसे
लेने पहुंची।
लेकिन सम्राट
चकित हुआ।
वर्षा के दिन
नहीं हैं, और
फकीर के घुटने
तक कीचड़ लगी
है! यहां तो
पूछना अशोभन
मालूम होता है,
इतने लोगों
के सामने। जब
वे सीढ़ियां
पार करके महल
के एकांत में
पहुंच गए, और
जो बहुमूल्य
गद्दे-गलीचे
बिछाए गए थे
वे सब उस फकीर
ने अपने पैर
की कीचड़ से
गंदे कर दिए, तब सम्राट
ने पूछा कि
मैं बहुत
हैरान हूं!
क्योंकि
वर्षा का कोई
समय नहीं, रास्ते
सूखे पड़े हैं।
और तुम्हारे
पैर में इतनी
कीचड़ कैसे लग
गयी? क्या
हुआ? उस
फकीर ने कहा
कि अगर तुम
अपनी अकड़
दिखाना चाहते
हो, तो हम
भी अपनी फकीरी
दिखाना चाहते
हैं।
तो
सम्राट
खिलखिला कर
हंसने लगा और
उसने कहा कि
फिर आओ हम गले
लग जाएं।
क्योंकि न मैं
कहीं पहुंचा, न तुम कहीं
पहुंचे। हम
दोनों वहीं के
वहीं हैं, जैसे
हम स्कूल से
विदा हुए थे।
मैं भी कहीं
नहीं पहुंचा,
तुम भी कहीं
नहीं पहुंचे।
और
ध्यान रखो, यह सम्राट
तो कहीं पहुंच
जाएगा किसी
दिन, इस
फकीर का
पहुंचना बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि
सम्राट को यह
साफ हो रहा है
कि मैं कहीं
नहीं पहुंचा।
तुम धन
से भी अकड़ से
भरते हो। तुम
त्याग से भी
अकड़ से भर
जाते हो। और
अकड़ ही बाधा
है। अकड़ मिट
जाए, उसका नाम
लज्जा है।
तो
नानक कहते हैं, जो लज्जा से
भर गया उस पर
परमात्मा की
अनुकंपा
बरसने लगती
है। लज्जा
पात्रता है।
जब तक तुम अकड़
से भरे हो तब
तक तुम्हें
परमात्मा की
जरूरत ही नहीं।
और जिसकी
तुम्हें
जरूरत नहीं, वह तुम्हें
कैसे मिल
सकेगा? उसे
कभी तुमने
बुलाया नहीं,
तुमने कभी
उसे मांगा
नहीं, तुमने
कभी उसे चाहा
नहीं। और कभी
तुमने उसे बुलाया
भी तो कुछ और
चाहने के
लिए--कि बच्चा
बीमार है, कि
अदालत में
मुकदमा है।
तुमने उसे कभी
नहीं मांगा, कि हम तुझे
ही चाहते हैं।
न अदालत, न
बाजार, न
दूकान, न
बीमारी, न
शरीर, हम
किसी और कारण
से नहीं चाहते,
हम तुझे ही
चाहते हैं।
जब तक
तुम उसे ही न
पुकारोगे, सिर्फ उसके
लिए ही, तब
तक तुम्हारी
प्रार्थना
झूठी है।
तुम्हारी
प्रार्थना भी
संसार के लिए
है। उस प्रार्थना
का दिव्यता से
कोई लेना-देना
नहीं है। तुम
कुछ मांग रहे
हो, जो
संसार का है।
शायद
परमात्मा से
मिल जाए।
एक
अमीर आदमी मर
रहा था। जैसा
उसका जिंदगी
भर का गणित था
कि हर चीज धन
से मिल जाती
है, तो उसने
अपने पुरोहित
को बुलाया और
कहा कि मैं
अगर दस करोड़
रुपए तुम्हारे
मंदिर को दान
दूं तो क्या
मुझे स्वर्ग
में प्रवेश
मिल सकेगा?
उस
पुरोहित ने
कहा, चेष्टा
कर लेने में
कुछ हर्ज नहीं
है, लेकिन
भरोसा मैं
नहीं दिला
सकता।
क्योंकि मैंने
कभी सुना नहीं
कि कोई धन से
स्वर्ग में प्रवेश
पा सका हो।
लेकिन कोशिश
कर लेने में
कुछ हर्ज नहीं
है। धन तो छूट
ही जाएगा। एक
आखिरी कोशिश
कर के देख लो।
तुमने
अगर धन से सब
पाया है, तो
तुम कहीं न
कहीं मन में
यह भाव संजोए
ही बैठे होओगे
कि प्रार्थना
भी, पूजा
भी, ध्यान
भी उसी से पा
लेंगे। धन तो
अहंकार से मिलता
है। वह तो
महत्वाकांक्षा
से मिलता है।
और पूजा, प्रार्थना,
ध्यान
लज्जा से
मिलता है। वह
मिलता है जहां
सब
महत्वाकांक्षाएं
गिर गयीं, और
जहां तुमने
अपने को सब
भांति व्यर्थ
पाया, जहां
तुम्हारा
किया कुछ भी
नहीं होता, जहां तुम
बिलकुल असहाय
हो, जहां
तुम पाते हो
कि मैं क्या
कर पाऊंगा! बस,
उसी क्षण।
और
करने का ही
अहंकार नहीं, जानने का
अहंकार भी गिर
जाना चाहिए।
तुम वेद के
ज्ञाता हो, तुम
चतुर्वेदी हो,
तुम चारों
वेद जानते हो,
कि तुम
कुरान को
कंठस्थ किए हो,
कि बाइबिल
का तुमसे बड़ा
कोई ज्ञाता
नहीं! नहीं, इस ज्ञान से
भी तुम उसे न
पा सकोगे।
क्योंकि ज्ञान
भी सूक्ष्म
कर्ता का ही
भाव है--मैं
जानता हूं। न
तुम्हारा
जानना, न
तुम्हारा
कृत्य। वे
दोनों ही
तुम्हारे अहंकार
के पहलू हैं।
जहां दोनों
गिर जाते
हैं...।
क्या
जानते हो तुम? कभी तुमने
इसे बहुत
होशपूर्वक
पूछा कि क्या
जानता हूं मैं?
द्वार पर
पड़े पत्थर को
भी तुम ठीक से
नहीं पहचानते
और दूर
परमात्मा को
जानने का तुम
दावा करते हो।
एक फूल को भी
कोई जान नहीं
सका है अब तक।
अंग्रेज
कवि टेनीसन ने
बहुत
महत्वपूर्ण
बात कही है।
उसने कहा है
कि अगर मैं एक
छोटे से फूल को
पूरा जान लूं, तो जानने को
शेष क्या बचता
है? सभी
कुछ जान लिया।
एक फूल के
खिलने को
तुमने जान
लिया, तो
तुमने इस पूरे
अस्तित्व की
खिलावट पहचान
ली। एक फूल के
सौंदर्य को
तुमने पहचान
लिया, तो
तुमने इस सारे
जगत के
सौंदर्य को
पहचान लिया।
एक फूल के
सत्य में तुम
उतर गए, तो
बचता क्या है?
जिसने बूंद
जान ली, उसने
सागर जान
लिया।
क्योंकि गुणधर्म
तो दोनों का
एक ही है।
बूंद में सब
कुछ तो समाया
हुआ है। वह
सागर का ही तो
संक्षिप्त
संस्करण है।
जिसने एक अणु
जान लिया, उसने
सब जान लिया।
लेकिन
हम जानते क्या
हैं? हमारी
जानकारी क्या
है? उधार
है, बासी
है, परायी
है। हजारों
हाथों से चल
कर आयी है।
अगर कोई हजारों
लोग जूतों को
पहन चुके हों
तो तुम उन जूतों
में पैर डालने
को राजी न
होओगे। लेकिन
तुम्हारा
ज्ञान ऐसा ही
है। पैर ही
नहीं डाले हैं
तुमने, उसमें
तुमने सिर डाल
दिया है। उधार
है, बासा
है। किन्हीं
ने जाना होगा
कि नहीं जाना
होगा, तुम्हें
कुछ पक्का पता
नहीं है। बस, तुम किताब
से पढ़ते हो।
तुम शास्त्र
से पढ़ते हो।
तुम किसी से
सुन लेते हो।
जिसने सुना है,
उसका भी
तुम्हें
पक्का पता
नहीं है कि वह
जान कर कह रहा
है, कि
उसने खुद जाना
है। वह भी हो न
हो, उसने
भी किसी से
सुना हो।
एक
फिल्म
अभिनेत्री के
बाबत मैंने
सुना है कि रात
जब वह अपने
गहने उतार कर
रखती--तो बड़ी
होशियार थी, चालाक थी--एक
चिट गहनों के
पास रख देती, कि ये गहने
नकली हैं।
असली गहने तो
बैंक में हैं।
लेकिन एक सुबह
जागी तो पाया
कि गहने नदारद
हैं। और टेबिल
पर एक दूसरी
चिट रखी है, जिस पर लिखा
है कि मुझे
नकली ही गहनों
की जरूरत है।
क्योंकि मैं
नकली चोर हूं।
असली तो जेल
में है।
तुम
जिससे सुन रहे
हो, तुम
जिससे समझ रहे
हो, तुम
जिसके शब्दों
को उधार ले
रहे हो, वह
भी असली है? तुम्हारे
पास कोई भी तो
उपाय नहीं
जानने का। कोई
भी तो कसौटी
नहीं जिससे
तुम परख लो कि
कौन असली है।
और कसौटी तो
तभी होगी जब
तुम्हारा
अनुभव होगा।
लेकिन जब
अनुभव होगा तब
तो तुम्हें
किसी से सुनने
की जरूरत भी न
रह जाएगी।
यही तो
मुसीबत है। जब
हाथ में सोना
होता है तो कसौटी
नहीं, जब
कसौटी आती है
तब सोने के
कसने की कोई
जरूरत ही नहीं
रह जाती है।
जब तुम्हारे
पास अनुभव होता
है जिस पर तुम
कस सको, तब
कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
और जब तक तुम
कस नहीं सकते
तब तक बड़ी गहन
जरूरत है। और
तुम अपने अज्ञान
को उधार ज्ञान
से ढांकते
रहते हो। फिर
इससे अकड़ पैदा
होती है कि
मैं जानता
हूं। वही अकड़
बाधा है।
ज्ञान
भी नहीं, कर्तृत्व
भी नहीं; तुम
मिट गए।
तुम्हारे
दोनों आधार
गिर गए। भवन भूमिसात
हो गया। इस
भूमिसात
अवस्था को
नानक कहते हैं,
लज्जा। और
जब लज्जा सघन
हो जाती है तो
उसकी कृपा की
वर्षा शुरू हो
जाती है।
तुम्हारी
लज्जा में ही
उसकी अनुकंपा
उतरेगी।
तुम्हारी
लज्जा ही उसकी
अनुकंपा से
मिल सकेगी। उन
दोनों का
ताल-मेल है।
लज्जा गङ्ढे
की भांति है
और उसकी
अनुकंपा
वर्षा की
भांति। वर्षा
तो पहाड़ों पर
भी होती है
लेकिन पहाड़
खाली रह जाते
हैं। गङ्ढों
में पानी भर
जाता है।
झीलें बन जाती
हैं। वर्षा तो
सभी पर हो रही
है। उसकी वर्षा
में कोई
भेद-भाव नहीं।
नानक
कहते हैं, उसके लिए न
कोई नीच है, न कोई ऊंच
है। न कोई
पात्र है, न
अपात्र है। वह
तो बरस रहा है
सभी पर। लेकिन
कुछ गङ्ढों की
भांति हैं, वे भर जाते
हैं। कुछ
पहाड़ों के
शिखरों की
भांति हैं, वे खुद अपने
से इतने भरे
हैं कि जगह
कहां?
तुम
गङ्ढे की
भांति हो जाओ
तो नानक की
लज्जा को
उपलब्ध हुए।
इधर लज्जा बनी, गङ्ढा तैयार
हुआ, वर्षा
तो हो ही रही
थी। तुम झील
बन जाओगे। तुम
जानने की झील
बन जाओगे, तुम
चैतन्य की झील
बन जाओगे।
तुम्हारे
होने का सारा
ढंग बदल
जाएगा। तुम
रहोगे नहीं।
गङ्ढे का मतलब
है तुम मिट गए।
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा हो
गया। तब तुम
असहाय नहीं
हो। तब तुमसे
ज्यादा
शक्तिशाली
कोई भी नहीं।
'कृपा-खंड
की वाणी शक्ति
है।'
करम
खंड की वाणी
जोरु। तिथै
होरु न कोई
होरु।।
तिथै
जोध महाबल
सूर। तिन महि
राम रहिआ
भरपूर।।
'कृपा
का जो खंड है, वहां की
वाणी शक्ति
है। इसको छोड़
कर उसमें
दूसरा कुछ भी
नहीं है। उसमें
महाबली
शूरवीर हैं, जिन सब में
राम ही भरपूर
समाया हुआ है।'
जैसे
ही कोई
व्यक्ति
लज्जा को
उपलब्ध हुआ, कृपा शुरू
हुई बरसनी, भरनी। दीन
जो था वह
सम्राट हो
जाता है।
संतों ने कहा
है, उसकी
कृपा से लंगड़े
पहाड़ पार कर
गए। उसकी कृपा
से अंधों ने
देखा। ये
साधारण अंधों
और लंगड़ों की
बातें नहीं
हैं। ये
तुम्हारे संबंध
में बातें
हैं। बहरे
सुनने लगे।
जब तक
तुम अपने
अहंकार से भरे
हो, तुम्हारे
कान बहरे
रहेंगे, आंखें
अंधी रहेंगी,
तुम्हारा
हृदय पथरीला
रहेगा--पाषाण।
उसमें कुछ भी
प्रतीति न
होगी। उसमें
कोई संवेदना न
होगी। तब तक
तुम करीब-करीब
मृत रहोगे।
तुम्हारा
जीवन ऐसा रहेगा
जैसे दीया
बुझा-बुझा
जलता हो।
आखिरी तेल चुका
जाता हो। तुम
भभक कर न
जीओगे।
तुम्हारा जीवन
ऐसा न होगा कि
जिसमें एक
त्वरा हो, जिसमें
एक सघनता हो, जिसमें
संवेदना की एक
गहराई हो।
जिसमें हृदय
ऐसे मुर्दे की
भांति न धड़कता
हो। जहां जीवन
में एक बाढ़
हो। तुम न
केवल भरे-पूरे
हो, बल्कि
बांट भी सको
इतना
तुम्हारे पास
हो। तुम्हारे
भीतर एक
आंतरिक वैभव
हो, एक
सुगंध हो, जो
तुम कितना ही
बांटो और चुके
न। और तुम
कितना ही दो, बढ़ती जाए।
तुम्हारे पास
एक जीवन का
अनंत स्रोत
हो।
कृपा
के साथ यह
घटित होता है।
यह बड़ी उलटी
पहेली है। यह
बड़ी उलटबांसी
है। और इसलिए
संतों के वचन
बड़े
रहस्यपूर्ण
मालूम पड़ते
हैं। सीधे-सादे, पर
रहस्यपूर्ण।
क्योंकि बड़ी
उलटी बातें
कहते मालूम
पड़ते हैं। वे
कहते हैं, मिटो!
ताकि हो सको।
वे कहते हैं, खो दो अपने
को! ताकि तुम
पाने के हकदार
हो जाओ। मर
जाओ! ताकि
तुम्हें अमृत
जीवन उपलब्ध
हो सके।
तुम
बचाते हो, इसीलिए तुम
नहीं हो। तुम
जितना अपने को
पकड़ते हो, उतने
ही दीन, दरिद्र,
उतने ही
अर्थहीन। तुम
जितना अपने को
संभालोगे
उतने ही
भटकोगे। बड़ी
उलटी बातें
हैं। एकदम से
पकड़ में नहीं
आतीं। क्योंकि
हमारे तर्क के
बिलकुल
विपरीत हैं।
हमारा तर्क
कहता है, बचना
है तो अपने को
बचाओ। संतों
का तर्क कहता है,
बचना है? अपने को खो
दो। बचाने
वाला कभी अपने
को बचा पाया
है? हमारा
तर्क कहता है,
कहीं मौत न
आ जाए। इसलिए
हम जीवन को
जोर से पकड़े
हैं। और संत
कहते हैं, जिन्होंने
जोर से पकड़ा, उनकी मौत तो
पहले आ गयी।
और भी पहले आ
गयी। और जिन्होंने
मरने को खुद
अपनी
स्वीकृति दे
दी, जो खुद
मौत से मिलने
चले गए हैं, उन्होंने
अमृत को जाना।
उन्होंने
पाया, मौत
तो केवल चेहरा
था, पीछे
तो अमृत छिपा
है। भय के
मारे भागते थे,
मौत से
भागते थे, अमृत
से वंचित रह
जाते थे। मौत
से जा कर गले
मिल गए, अमृत
से मिलन हो
गया।
कृपा, अनुकंपा का
जो जीवन में
हिस्सा है, वहां शक्ति
लक्षण है।
कार्लोस
केस्टिनेडा
की चौथी
पुस्तक मैं पढ़
रहा हूं।
पुस्तक का नाम
है, टेल्स आफ
पावर। वह इसी
चौथे खंड के
संबंध में लिखी
गयी पुस्तक
है। जैसे ही
तुम्हारे
जीवन में प्रभु
की किरण उतरती
है, तुम
अनंत
शक्तिशाली हो
जाते हो।
तुम्हारे ऊपर
अपरंपार
शक्ति की
क्षमता आ जाती
है। तुम मिट्टी
छुओ, सोना
होने लगता है।
पहले
ठीक उलटा था।
तुम सोना छूते
थे और मिट्टी
हो जाता था।
क्योंकि तुम
थे। अब तुम
जिस तरफ देखो, वहीं स्वर्ग
नजर आता है।
पहले बिलकुल
उलटा था।
तुम्हारी नजर
जहां जाती थी,
वहीं नर्क
हो जाता था।
जहां
तुम्हारे पैर
पड़ जाते थे, वहीं अपशगुन
हो जाते थे।
जो तुम करते
थे, वहीं
विषाद हाथ में
आता था। तुम
प्रेम भी करने
जाते थे, तो
घृणा हो जाती
थी। तुम मित्र
बनाने जाते थे
और शत्रु
निर्मित हो
जाते थे। तुम
जो भी करते थे,
क्योंकि
तुम गलत थे, इसलिए
विपरीत
परिणाम होते
थे। और तुम
परमात्मा के
विपरीत चल रहे
थे। वहीं
शक्ति का
स्रोत है। तुम
उसकी तरफ पीठ
किए थे। तुम्हारे
कारण कुछ भी
नहीं हो पा
रहा था। अब
तुम नहीं हो।
अब सब हो सकता
है। अब
तुम्हारी
छाया में जादू
होगा।
तुम्हारी आंख
जिस तरफ पड़ेगी
वहां स्वर्ग
के द्वार खुल
जाएंगे। तुम
जहां जाओगे, तुम जहां
उठोगे-बैठोगे,
वहां की
सुवास बदल
जाएगी।
तुम्हारे
संग-साथ जो
खड़ा हो जाएगा
वह भी
तुम्हारी
महिमा से
मंडित हो
जाएगा। वह भी
थोड़ी सुगंध
तुमसे ले
जाएगा।
इसलिए
तो नानक कहते
हैं, साध-संगत।
वे कहते हैं, साधुओं के
संग रहो।
जिनको शक्ति
का स्रोत मिल गया
है उनके साथ
रहो, उनके
पास बैठो।
उनका सत्संग
महिमावान है।
क्योंकि उनके
पास बैठने से
ही...।
शक्ति
संक्रामक है।
स्वास्थ्य
संक्रामक है।
बीमारी ही
नहीं पकड़ती, ध्यान रखना,
स्वास्थ्य
भी पकड़ता है।
बुराई ही नहीं
पकड़ती दूसरे
से, भलाई
भी अवतरित
होती है
तुममें और बह
जाती है। ताजे
आदमी के पास
तुम भी ताजगी
अनुभव करते हो।
बासे, उदास,
मुर्दा
आदमी के पास थोड़ी
देर में तुम
भी मुर्दा
होने लगते हो।
दस-पच्चीस
लंबी शकल वाले
लोग उदास बैठे
हों, उनके
पास जरा जा कर
बैठो। थोड़ी
देर में ही
तुम पाओगे कि
तुम आए कुछ और
थे, तुम हो
कुछ और गए।
तुम भी उदास
हो। तुम भी रो
रहे हो। जहां
लोग हंस रहे
हों, जहां
लोग खिल रहे
हों, उनके
पास थोड़ी देर
बैठो। तुम
शायद उदास आए
हो, रोते
हुए आए हो, आंसू
सूख
जाएंगे--मुस्कुराहट
आ जाएगी।
आदमी
इतना अलग-अलग
थोड़े ही है! हम
सब भीतर से जुड़े
हैं। और हम सब
भीतर से
एक-दूसरे में
बह रहे हैं।
साध-संगत
पर नानक का
बड़ा जोर है।
वे कहते हैं, तुम्हारे
किए क्या होगा?
तुम उनके
पास रहो
जिन्होंने
उसका सहारा पा
लिया है। उनके
माध्यम से उस
परमात्मा का
हाथ तुमको भी
छुएगा। उनके
माध्यम से
उसकी हवाएं
तुम्हारे
हृदय तक भी
पहुंच
जाएंगी। फूल
के बगीचे से
कोई ऐसे भी
गुजर जाए तो
भी थोड़ी सी
सुगंध उसके
वस्त्रों में
समा जाती है।
बुद्धों के
पास से कोई
ऐसे भी गुजर
जाए, अकारण
भी, संयोगवशात
भी, तो भी
बुद्धत्व की
सुगंध कपड़ों
को पकड़ जाती
है। वह आदमी
वही नहीं, कुछ
बदल जाता है।
साध-संगत
बड़ी कीमती है।
परमात्मा से
संबंध जोड़ना
तो आज मुश्किल
है। मुश्किल
इसलिए है कि
तुम्हें उसका
कुछ भी तो पता
ठिकाना मालूम
नहीं। संत
उसके प्रतीक
हैं। उनका
तुम्हें
पता-ठिकाना
मालूम हो सकता
है। तुम
उन्हें आसानी
से खोज ले
सकते हो।
परमात्मा को
तुम कहां
खोजोगे? और
संत का अर्थ
है, जिसमें
परमात्मा सघन
है। जहां
परमात्मा की किरणें
सघन हो कर पड़
रही हैं। जहां
ताप गहन है। संत
ने अपने
व्यक्तित्व
में परमात्मा
को इस तरह
इकट्ठा किया
है, जैसे
कांच के एक
टुकड़े में से
तुम किरणों को
पार करो और वे
इकट्ठी हो
जाएं, एकाग्र
हो जाएं।
परमात्मा
तुममें भी है, लेकिन विरल
है। उससे आग
पैदा नहीं
होती। बस, कुनकुनापन--तुम
किसी तरह जी
लेते हो। संत
में आग है। वह
अग्नि है।
उसके पास
तुम्हें भी
ताप लगेगा।
उसके पास
तुम्हारे
भीतर भी कुछ
जलेगा और
मिटेगा।
जिस
दिन उसकी कृपा
मिलनी शुरू
होती है उसी
दिन तुम
शक्तिशाली हो
जाते हो।
लेकिन ध्यान
रखना, वह
शक्ति
तुम्हारी
नहीं है। अगर
तुम्हें यह अकड़
आ गयी कि वह
शक्ति
तुम्हारी है,
तो मिली हुई
कृपा भी खो
जाती है।
और अंत
तक गिरने का
डर है।
क्योंकि अंत
तक सूक्ष्म
अहंकार पीछा
करता है। वह
आखिरी चीज है, जो मनुष्य
का छुटकारा
होता है जिससे,
वह आखिरी है,
अंतिम है।
वह छाया की
तरह तुम्हारे
पीछे आता है।
न तो उसकी
पग-ध्वनि
सुनायी पड़ती
है। न कोई आवाज
होती है। और
वह तुम्हारे
पीछे होता है
इसलिए
तुम्हें
दिखायी भी
नहीं पड़ता। वह
छाया की भांति
तुम्हारे
पीछे चल रहा
है।
जैसे
शरीर की छाया
है, ऐसे ही
चेतना की छाया
अहंकार है।
इसलिए तुमने सुनी
होगी यह बात
कि जो व्यक्ति
परमात्मा को पा
लेता है उसकी
छाया नहीं
बनती। इससे
तुम यह मत
समझना कि जब
वह जमीन पर
चलता है और
सूरज उगा होता
है तो जमीन पर
उसकी छाया
नहीं बनती। वह
छाया तो बनती
है, क्योंकि
शरीर की छाया
बनेगी। लेकिन
उसके भीतर की
छाया खो जाती
है। वह चलता
है, उठता
है, बैठता
है, करता
है, बोलता
है, सब
जीवन की
क्रिया चलती
रहती है, लेकिन
अब कोई छाया
नहीं बनती। अब
चेतना पारदर्शी
हो गयी। अब वह
है ही नहीं।
ध्यान
रखना, तुम
यह मत सोचना
कि तुम
शक्तिशाली हो
जाओगे। उसकी
अनुकंपा
गिरेगी, बरसेगी--तुम
तो होओगे ही
नहीं। वही
होगा तुम्हारे
द्वारा
शक्तिशाली।
तुम निमित्त
हो जाओगे। यह
निमित्त शब्द
बड़ा
महत्वपूर्ण
है। जैसे बांसुरी
से स्वर
निकलता है
किसी गायक का;
बांसुरी
केवल निमित्त
है। स्वर
बांसुरी का नहीं
है। स्वर तो गायक
का है। और
बांसुरी की
खूबी क्या है,
कभी तुमने
खयाल किया? बांसुरी की
खूबी इतनी है
कि वह पोली
है। उसका पोलापन,
उसकी
शून्यता ही
उसकी खूबी है।
उसी खूबी के
कारण स्वर
प्रवाहित
होता है। जिस
दिन भी परमात्मा
की अनुकंपा
तुम पर बरसती
है, तुम
बांसुरी की
भांति हो जाते
हो।
कबीर
ने कहा है कि
मैं तो बांस
की पोंगरी
हूं। गीत सब
उसके हैं। वही
गाता है। मैं
तो केवल माध्यम
हूं, वाहन
हूं। और वाहन
की भी खूबी
इतनी कि मैं
पोला--पोली
बांस की
पोंगरी हूं।
'कृपा-खंड
की वाणी शक्ति
है। वहां
शक्ति बोलती है।'
वहां
परम-ऊर्जा
बोलती है। एक
बड़ा सघन
मैग्नेटिज्म
जिस व्यक्ति
को उसकी अनुकंपा
मिली है, उसको
उपलब्ध हो
जाता है। तुम
उसकी तरफ
खींचे जाते
हो। तुम अपने
को रोको तो भी
नहीं रुक पाते
हो। तुम उससे
बचना चाहो तो
बचा नहीं पाते
हो। तुम खींचे
जाते हो। कोई
अलौकिक
आकर्षण तुम्हें
उस व्यक्ति की
तरफ बांधे
रखता है। तुम
अपनी सारी
चेष्टाओं के
बावजूद भी
पाते हो कि
तुम खींचे
जाते हो।
शक्ति
के बोलने का, शक्ति के
वाणी होने का
यही अर्थ है।
'इसको
छोड़ कर उसमें
दूसरा कुछ भी
नहीं है।'
परमात्मा
की शक्ति को
छोड़ कर उसमें
दूसरा कुछ भी
नहीं है।
'उसमें
महाबली
शूरवीर हैं, जिन सबमें
राम ही भरपूर
समाया हुआ है।'
जैसे
ही इस घड़ी को
कोई उपलब्ध
होता है, वह
महावीर हो
जाता है। वह
महायोद्धा हो
जाता है। अपने
सहारे हम
दीन-हीन थे, परमात्मा के
सहारे हम
महावीर हो
जाते हैं। लेकिन
वह सारी ऊर्जा
उसकी है। वह
सभी कुछ उसका
है। हम बीच से
बिलकुल हट
जाते हैं। हम
मार्ग दे देते
हैं।
'जिन
सब में राम ही
भरपूर समाया
हुआ है।'
तिथै
जोध महाबल
सूर। तिन महि
राम रहिआ
भरपूर।।
'उसमें,
उसकी महिमा
में सीता ही
सीता समायी
है।'
तिथै
सीतो सीता
महिमा माहि।
ताके रूप न
कथने जाहि।।
इस वचन
को गहनता से
समझना जरूरी
है। क्योंकि
वैसा व्यक्ति
जिसमें उसकी
शक्ति उतरती
है, एक दोहरी
ऊर्जा से
आप्लावित हो
जाता है, आविष्ट
हो जाता
है--दोहरी
ऊर्जा से।
उसमें सिर्फ
राम ही नहीं
उतर आता, उसमें
सीता भी उतर
आती है।
ये तो
प्रतीक
हैं--राम और
सीता। लेकिन
ये प्रतीक बड़े
गहन हैं।
क्योंकि अगर सिर्फ
राम ही उतरे
तो व्यक्ति
अधूरा होगा।
आधा होगा। तो
उसमें पुरुष
की शक्ति तो आ
जाएगी, लेकिन
पुरुष की
शक्ति अधूरी
हो कर
विध्वंसक है।
उसमें स्त्री
की महिमा न
उतरेगी। और
स्त्री का
सौम्य रूप न
उतरेगा। राम
अकेले बिलकुल
अधूरे हैं।
राम की मूर्ति
को अकेली खड़े
करके देखना, बहुत अधूरे
लगेंगे। राम
को सीता के
साथ खड़े कर के
देखना, तभी
वे पूरे
लगेंगे।
क्यों? क्योंकि
स्त्रैण
शक्ति एक
दूसरा आयाम है
शक्ति का, जो
संतुलन देता
है। पुरुष की
शक्ति अकेली
हो तो हिटलर
पैदा होगा, जिससे
विध्वंस
होगा।
क्योंकि उसे
संतुलित करने
के लिए विपरीत
शक्ति मौजूद
नहीं है। सीता
मौजूद नहीं है।
स्त्री
सृजनात्मक
शक्ति है। वह
मां है, वह
जन्मदात्री
है। वह जीवन
के मूल स्रोत
से जुड़ी है और
सौम्य है।
उसकी शक्ति
करुणा है।
उसकी शक्ति
ममता है। उसकी
शक्ति सूरज
जैसी नहीं है।
उसकी शक्ति
चांद जैसी है,
शीतल है।
शक्ति है, फिर
भी शीतल है।
और जहां सूरज
और चांद दोनों
मिल जाते हैं,
जहां
प्रगाढ़ता और
सौम्यता
दोनों मिलते
हैं, जहां
प्रचंडता और
विनम्रता
दोनों मिल
जाते हैं, वहां
राम और सीता
हैं।
यह बड़ी
हिंदू-विचार
की गहन खोज है
और बहुतों की
समझ में नहीं
आयी है। ईसाई, मुसलमान, जैन, बौद्ध
सभी इस
हिंदू-विचार
की गहनता को
समझने में
असमर्थ रहे
हैं। जैन तो
इसीलिए राम को
भगवान नहीं
मान सकता
क्योंकि सीता
खड़ी है। ये
कैसे भगवान
हैं, जिनके
पास स्त्री
खड़ी है? उसका
तर्क है कि
भगवान को
अनासक्त होना
चाहिए, वीतराग
होना चाहिए।
तो महावीर तो
भगवान हैं, क्योंकि
वीतराग हैं।
कोई स्त्री
आसपास नहीं है,
दूर-दूर तक।
यह
मामला यहां तक
खींचा जैनों
ने कि
उन्होंने यह
भी इनकार कर
दिया कि
महावीर की कभी
कोई पत्नी थी।
उन्होंने यह
भी इनकार कर
दिया कि कभी उनको
बच्चे पैदा
हुए थे, कि
उनका लड़का था,
या लड़की
थी--सब इनकार कर
दिया।
उन्होंने
इतिहास भी बदल
डाला।
महावीर
की पत्नी थी।
उनको एक लड़की
भी हुई। जैन
शास्त्रों
में उसका
उल्लेख भी है।
उस लड़की का
विवाह भी हुआ।
महावीर का
दामाद भी था।
लेकिन सब पोंछ
डाला। सबको
इनकार कर
दिया।
क्योंकि यह
बात ही उनके
सोचने के बाहर
हो गयी कि
महावीर और
कैसे स्त्री
के साथ! कैसे
उनको बच्चा पैदा
हो! महावीर और
संभोग करते
हुए! यह सोचना
ही कठिन हुआ।
कहानी को ही
बदल डाला।
महावीर को निपट
अकेला खड़ा कर
दिया।
तो
महावीर में
प्रचंडता तो
मालूम होती
है। लेकिन
अकेले
सौम्यता नहीं
हो सकती। जीवन
का एक छोर कम
है। इसलिए
जैन-विचार
बहुत दूरगामी
न हो सका। और
जैन-विचार के
माध्यम से कोई
संस्कृति खड़ी
न हो सकी।
सिर्फ एक
आइडियॉलाजी
रही। एक कल्चर
खड़ा नहीं हुआ।
अगर जैनों से
कहो कि तुम एक
गांव बसा कर बता
दो--सिर्फ
जैनों का, तो वे नहीं
बसा सकते।
क्योंकि कौन
चमार का काम
करेगा? कौन
भंगी का काम
करेगा? कौन
सड़क साफ करेगा?
कौन नाई का
काम करेगा? संस्कृति
नहीं है। एक
गांव नहीं बसा
सकते अपना।
किस तरह की
संस्कृति है?
दूसरों पर
निर्भर रहना
पड़ता है।
सिर्फ आइडियॉलाजी
है, एक
विचार है।
पंगु है।
और वह
पंगुता का गहन
से गहनतम कारण
यह है कि स्त्री
अस्वीकार है।
उससे पंगुता
पैदा हुई है।
स्त्री को
जैन-विधान में
मोक्ष जाने की
सुविधा नहीं है।
उसे पहले
पुरुष होना
पड़ेगा एक जन्म
में, तब वह
स्वर्ग जा
सकती है। पहले
पुरुष का
पर्याय लेना
पड़ेगा।
स्त्री को
समानता नहीं
है जैन विचार
में, हो
नहीं सकती।
पुरुष ही पा
सकता है।
और तुम
हैरान होओगे
अगर खोजने
जाओगे, तो
कारण क्या है?
क्योंकि
कारण यह है कि
पुरुष तो
ब्रह्मचर्य को
उपलब्ध हो
जाता है, लेकिन
स्त्री का
मासिक-धर्म तो
रोका नहीं जा
सकता। तो वह
ब्रह्मचारिणी
भी हो जाए, तो
भी मासिक-धर्म
तो नहीं रुक
सकता। और जब
तक संपूर्ण रूप
से
ब्रह्मचर्य
उपलब्ध न हो
जाए, तब तक
कोई कैसे
मुक्त हो सकता
है?
जैन
समझ ही न पाए।
राम को समझना
मुश्किल है, कृष्ण को तो
समझना बिलकुल
असंभव है।
बौद्ध न समझ
पाए। फिर
इस्लाम और
ईसाइयत तो
बहुत दूर है।
उनको भी पहचान
न हो सकी।
लेकिन
हिंदू-विचार
की बड़ी गहनता
है।
हिंदू-विचार
यह कह रहा है, शक्ति के दो
रूप हैं। एक
रूप स्त्री की
तरह प्रकट
होता है, एक
रूप पुरुष की
तरह। स्त्री
और पुरुष
महत्वपूर्ण
नहीं हैं, शक्ति
के दो रूप हैं,
जो एक-दूसरे
का संतुलन
करते हैं।
पुरुष में प्रचंडता
है, सौम्यता
नहीं है।
इसलिए सभी
सौम्य गुण स्त्रैण
हैं। शब्द भी
स्त्रैण
हैं--करुणा, ममता, दया--शब्द
भी स्त्रैण
हैं। होना भी
चाहिए।
इसलिए
जब कोई
व्यक्ति ठीक
परम स्थिति को
उपलब्ध होता
है, तब उसमें
स्त्री और
पुरुष दोनों
का मिलन हो जाता
है। वह प्रचंड
होता है।
सौम्य भी होता
है। वहां
सूर्य और चांद
दोनों मिल
जाते हैं।
वहां उत्ताप
भी होता है और
बड़ी गहन
शीतलता भी
होती है। और
जब ये दोनों
रूप संगृहीत
हो जाते हैं, एक हो जाते
हैं, इंटिग्रेटेड
हो जाते हैं, तो परम
पुरुष का जन्म
होता है। वह
परम जो अवस्था
है, स्त्री-पुरुष
के पार है।
क्योंकि उन
दोनों की ऊर्जा
का मिलन है।
वहां एक पैदा
होता है, लेकिन
जब दो बड़े गहन
मिलन में डूब
जाते हैं।
इसलिए
सूत्र नानक का
कहता है कि
राम ही अकेले काफी
नहीं। राम
भरपूर समाया
हुआ है उसमें।
उसकी महिमा
में सीता भी
समायी हुई
हैं।
तिन
महि राम रहिआ
भरपूर।।
तिथै
सीतो सीता
महिमा माहि।
ताके रूप न कथने
जाहि।।
और फिर
उसका रूप कहना
असंभव है।
क्योंकि तुम स्त्री
के रूप की
चर्चा कर सकते
हो, पुरुष के
रूप की चर्चा
कर सकते हो, लेकिन जहां
राम और सीता
का मिलन हो
गया, वहां
चर्चा
मुश्किल हो
जाती है।
क्योंकि विपरीत
गुण मिल गए।
अब तुम यह कहो,
तो उससे
विपरीत भी मौजूद
है। तुम वह
कहो, उसका
भी विपरीत
मौजूद है।
जापान
में एक मूर्ति
है, जिसका
आधा चेहरा
बुद्ध का है।
और उस चेहरे
के पास जो हाथ
है, उस हाथ
में एक जलता
हुआ दीया है।
उस दीए की रोशनी
बुद्ध के आधे
चेहरे पर पड़ती
है। वह बड़ा
सौम्य चेहरा
है--स्त्रैण।
दूसरे हाथ में
एक तलवार है।
और उस तलवार
की चमक चेहरे
पर पड़ती है।
चेहरा वही है,
लेकिन वह
ऐसा है, जैसा
अर्जुन का
चेहरा रहा
हो--योद्धा
का।
और
इसको जापान
में समुराई
पूजते हैं।
समुराई वहां
के योद्धाओं
का वर्ग है।
वहां के
क्षत्रियों
का वर्ग है।
वे इस मूर्ति
को पूजते हैं।
आधी बुद्ध की, आधी अर्जुन
की। स्त्रैण,
पुरुष
दोनों मिल रहे
हैं।
नीत्से
ने आलोचना की
है बुद्ध की
कि बुद्ध स्त्रैण
हैं। उसकी
आलोचना में
थोड़ी सचाई है।
क्योंकि
बुद्ध में
सारी स्त्री
का समग्र रूप
प्रकट हुआ है।
लेकिन बुद्ध
में वह जो
पुरुष की ऊर्जा
है, उसके
लक्षण नहीं
मिलते हैं।
बिलकुल शांत
हो गए हैं।
करुणापूर्ण हैं।
चांद हो गए
हैं। बड़े शीतल
हैं। लेकिन
सूर्य खो गया
है।
हिंदू, राम और सीता
को साथ खड़ा
करता है।
कृष्ण और राधा
को साथ खड़ा
करता है। न
केवल साथ, बल्कि
जब भी वह नाम
लेता है, पहले
सीता को कहता
है--सीताराम।
राधाकृष्ण। क्योंकि
स्त्री जननी
है। वह प्रथम
है। पुरुष द्वितीय
है, प्रचंडता
द्वितीय है।
करुणा प्रथम
है। और जब करुणा
में आविष्टित
प्रचंडता
होती है तब
उसका सौंदर्य
अपरंपार है।
और जब ममता
में छिपी हुई
ऊर्जा होती है
तब कैसे उसका
वर्णन करें? जैसे ठंडी
आग हो, कैसे
उसका वर्णन
करें? विपरीत
जहां मिल जाते
हों वहां
वर्णन असमर्थ हो
जाता है।
इसलिए
नानक कहते हैं, ताके रूप न
कथने जाहि।
'उसके
रूप का वर्णन
नहीं हो सकता।
जिनके मन में
राम बसते हैं,
न वे मरते
हैं और न ठगे
जाते हैं।
वहां अनेक लोकों
के भक्त बसते
हैं। सच्चे
नाम को मन में
बसाए हुए वे
आनंद मनाते
हैं।'
न ओहि
मरहि न ठागे
जाहि। जिनकै
राम बसै मन
माहि।।
तिथै
भगत वसहि के
लोअ। करहि
अनंदु सचा मनि
सोइ।।
जिनके
मन में राम बस
गया, जिनके मन
में परमात्मा
आ गया, और
जिनका हृदय
आपूर भर गया
उससे, उसकी
कोई मृत्यु
नहीं है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
तुम्हारी
मृत्यु है।
परमात्मा की
कोई मृत्यु
नहीं। लहरें
बनती हैं, मिटती हैं।
सागर सदा है।
जब तक तुम लहर
के साथ अपना
तादात्म्य
किए हो तब तक
मरोगे। इसलिए
तो हम इतने
भयभीत हैं
मृत्यु से।
क्योंकि लहर
से अपने को एक
माने हुए हैं।
मृत्यु
सुनिश्चित
है। लहर तो
मरेगी, तुम्हारा
तादात्म्य
मरेगा, तुम्हारी
आइडेंटिटी
मरेगी। तुमने
गलत संबंध जोड़
रखा है।
लेकिन
अगर तुम राम
से जुड़ गए, तुम
परमात्मा से
जुड़ गए, फिर
कैसी मौत? इसलिए
ज्ञानी मरने
के पहले मर
जाता है। वह
अपना संबंध
खुद ही तोड़
लेता है। वह
तादात्म्य को
अलग कर लेता
है। वह जान लेता
है कि न मैं
शरीर हूं, न
मैं मन हूं।
ये दोनों
मरेंगे। न मैं
अहंकार हूं।
वह भी मरेगा।
वह मरणधर्मा
है। वह तो
छोटा सा लहरों
में उठा हुआ
रूप है। और
लहर कितनी ही सुंदर
मालूम पड़े और
कितनी ही ऊंची
उठ जाए, एक
क्षण में आकाश
को छूने का
दंभ भरे, दूसरे
ही क्षण विघटन
शुरू हो जाता
है। जवानी में
सभी लहरें
आकाश को छूने
का दंभ भरती
हैं। बुढ़ापे
में उन्हीं से
पूछो।
मैंने
सुना है कि एक
लोमड़ी
सुबह-सुबह
उठी। सुबह के
नाश्ते की
तलाश में
निकली। सूरज
पीछे उग रहा
था। बड़ी लंबी
छाया पड़ी। उस
लोमड़ी ने अपनी
छाया देखी और
उसने कहा कि
आज तो नाश्ते
में कम से कम
एक ऊंट की
जरूरत पड़ेगी।
इतनी लंबी
छाया! तो
जितनी लंबी
छाया, उतना
बड़ा मैं। और
लोमड़ी के पास
और कोई उपाय
भी तो अपने को
जानने का नहीं
है। छाया ही
दर्पण है। कि
इतना बड़ा मेरा
शरीर, एक
ऊंट चाहिए नाश्ते
में!
खोजती
रही। दोपहर हो
गयी, सूरज सिर
पर आ गया।
छाया सिकुड़ कर
छोटी हो गयी।
बिलकुल न के
बराबर हो गयी।
दोपहर तक ऊंट
को न खोज
पायी। खोजती
भी कैसे? लोमड़ी
ऊंट को पाती
भी कैसे? और
पा भी लेती तो
कैसे नाश्ता
करती? भूख
बढ़ गयी। नीचे
झुक कर देखा, छाया बड़ी
छोटी हो गयी
है। उसने कहा
कि अब तो एक चींटी
भी मिल जाए तो
भी काम चल
जाएगा।
जवानी
में लहर बड़ी
ऊपर होती है।
इसलिए तो जवानी
मूढ़ है। इसलिए
पूर्व ने
जवानी पर कभी
भरोसा नहीं
किया। पश्चिम
ने भरोसा किया
है। तो मुसीबत
है। मुसीबत
रोज बढ़ती जाती
है। पूर्व ने जवानी
पर कभी भरोसा
नहीं किया। और
जवानी को कोई
बहुत
महत्वपूर्ण
स्थान नहीं
दिया। क्या मूढ़ता
को स्थान देना
है? वह तो लहर
की ऊंचाई है।
छाया बड़ी पड़ती
है उस समय। उस
छाया के बड़े
पड़ने में
बड़े-बड़े सपने
उठते हैं। हर
आदमी
क्या-क्या
नहीं होना
चाहता है! पूर्व
ने बुढ़ापे को
आदर दिया है, जब छाया
बिलकुल सिकुड़
जाती है। और
अगर बुढ़ापे में
भी तुम न जागे
अहंकार से, तो फिर तुम
कब जागोगे? जवानी में
जाग जाओ, तुम
महिमाशाली
हो। बुढ़ापे
में न जागो, तो तुम
महामूढ़ हो।
जवानी में
क्षम्य है न
जाग सको, बुढ़ापे
में क्षमा भी
नहीं की जा
सकती।
जैसे
ही कोई जाग कर
जीवन को देखना
शुरू करता है, वैसे ही
पाता है कि
मैंने गलत से
संबंध जोड़ रखा
है--शरीर से।
अगर तुम शरीर
को देखो तो हर
सात साल में
बदल जाता
है--पूरा का
पूरा। तुम तो
फिर भी रहते
हो। एक दिन
मां के पेट
में इतना छोटा
था कि बड़ी
खुर्दबीन से
देखते तो ही
देख पाते, वह
भी तुम्हारा
शरीर था। फिर
एक दिन जब तुम
मर जाओगे, राख
की छोटी सी
पोटली ले कर
तुम्हारे
परिवार के लोग
गंगा जाएंगे
फूल चढ़ाने, वह भी
तुम्हारा ही
शरीर होगा।
फिर बीच में
कितने
उतार-चढ़ाव
देखे! इस शरीर
के साथ तुम
अपने को एक कर
लोगे तो
मृत्यु से कंपोगे,
डरोगे, भयभीत
रहोगे। इसलिए
ज्ञानी मरने
के पहले मर जाता
है। वह खुद ही
अपने हाथ मर
जाता है।
नानक
के जीवन में
ऐसा उल्लेख है
कि एक रात वे घर
से उठे और
मरघट पहुंच
गए। खोजते हुए
घर के लोग
पहुंचे।
उन्होंने कहा, यह कोई जगह
है? अगर
ध्यान ही करना
हो तो घर में, मंदिर जाते।
मरघट आए! नानक
ने कहा कि
मैंने सोचा, जहां आखिर
में जाना है, किसी के
कंधे पर चढ़ कर
क्या जाना!
अपने हाथ ही चला
आया। और जहां
अंत में
पहुंचना है, उसको पहले
ही ठीक से देख
लेना चाहिए।
यहीं ध्यान
करूंगा।
क्योंकि मौत
ही ध्यान है।
और क्या ध्यान
है?
अगर तुम
मृत्यु पर
ध्यान कर लो
तो धीरे-धीरे
मृत्यु हट
जाती है।
जैसे-जैसे
तुम्हारा
ध्यान गहरा घुसता
है, वैसे-वैसे
मृत्यु की
ऊपरी पर्त हट
जाती है। भीतर
तुम अमृत को
छिपा हुआ पाते
हो। लहर खो
जाती है, सागर
मिलता है।
बुद्ध
अपने
भिक्षुओं को
मरघट भेजते थे
कि वहां चले जाओ
अगर बुद्धत्व
पाना है। जलते
हुए देखना लोगों
को। हड्डियों
को राख होते
देखना। चमड़ी
से धुआं उठते, लपटें उठते
देखना। देखना,
अपने ही
सगे-संबंधी आ
कर सिर फोड़
जाते हैं। देखना,
जिन पर इतना
भरोसा किया था,
मरते ही एक
क्षण देर नहीं
करते। जल्दी
अरथी उठाते
हैं और भागते
हैं। क्योंकि
कौन घर में
रखेगा मुर्दे
को? जिन्होंने
कहा था, सदा-सदा
साथ रहेंगे, वे भी चार
दिन के बाद ऊब
जाते हैं, रोने
से ऊब जाते
हैं। वे फिर
अपने काम में
संलग्न हो
जाते हैं। और
जब सब छोड़ कर
चले जाएं किसी
मुर्दे को, तो तुम शांत
उस मुर्दे को
जलते हुए देखना।
यही तुम्हारी
भी स्थिति
होगी। आज नहीं
कल, समय का
फासला है।
बुद्ध पहले
भिक्षुओं को
भेज देते कि
पहले तुम मरघट
से गुजर जाओ।
वे इसलिए भेजते
कि पहले तुम
मर कर आ जाओ, तो काम एकदम
आसान हो जाए।
एक तीन
महीने भिक्षु
मरघट पर दिन
और रात देखता
मौत--और मौत--और
मौत! मौत सघन
हो जाती चारों
तरफ। सब तरफ
से मौत दिखायी
पड़ने लगती। हर
चीज जलती हुई
मालूम पड़ती।
फिर भी वह
पाता कि भीतर
कोई सजगता है, जिसके जलने
का कोई उपाय
नहीं। जो जल
नहीं सकती। आग
चैतन्य को छू
भी तो नहीं
सकती। चेतना
और अग्नि का
कोई लेना-देना
भी तो नहीं हो
सकता। कहीं
रास्ता भी तो
एक-दूसरे का
नहीं कटता। वह
ज्यादा सचेतन
हो कर लौटता
है। वह अपने
पुराने तादात्म्य
को तोड़ देता
है। तब बुद्ध
कहते हैं, अब
आसान है।
इब्राहिम
एक सूफी फकीर
हुआ। वह पहले
सम्राट था।
फिर जब फकीर
हो गया, तो
गांव के बाहर
ही रहता था
अपनी राजधानी
के। अक्सर
यात्री वहां
से आते-जाते
पूछते उससे कि
बस्ती का
रास्ता कहां
है? तो वह
कहता, बाएं
चले जाओ, भूल
कर दाएं मत
जाना। कई लोग
दाएं जा कर
भटक जाते हैं।
बाएं बस्ती है,
दाएं मरघट
है। लोग जाते
बाएं, उसका
मान कर।
दो-चार मील चल
कर पाते कि
मरघट में
पहुंच गए। बड़े
नाराज हो कर
वापस लौटते कि
तुम्हारा
दिमाग तो ठीक
है? फिर जब
दाएं जाते तो
बस्ती पाते।
तो
इब्राहिम
उनसे कहता कि
मैं भी उस
बस्ती में था।
लेकिन यह मुझे
समझ में आ गया
कि यह मरघट है।
यहां सभी मरने
की प्रतीक्षा
कर रहे हैं।
जहां लोग मरने
की प्रतीक्षा
कर रहे हों, जो मृत्यु
का
प्रतीक्षालय
हो, उसको
बस्ती क्या
कहना! जहां
सभी उजड़ेंगे,
आज नहीं कल,
उसको बस्ती
क्या कहना! और
जहां मरघट है,
जहां लोग
मरघट कहते हैं,
वहां बसा
हुआ फिर कभी
भी नहीं
उजड़ता। वहां
जो बस गया, बस
गया। उसको मैं
बस्ती कहता
हूं।
हमारी
बस्तियां
मरघट हैं, हमारे मरघट
आखिरी
बस्तियां
हैं। ज्ञानी
मरने के पहले
मर जाता है।
और अज्ञानी
मरते-मरते तक
आखिरी चेष्टा
करता है--बचा
रहूं, बचा
रहूं, बचा
रहूं। ज्ञानी
एक ही बार
मरता है।
अज्ञानी लाखों
बार मरता है।
क्योंकि
जितना तुम
बचाते हो, फिर
मरना पड़ता है।
फिर-फिर मरना
पड़ता है। जब तक
तुम यह पाठ
सीख ही न लो तब
तक तुम्हें
बार-बार मरना
पड़ेगा।
मृत्यु
एक शिक्षण है।
जैसे कोई
बच्चा स्कूल जाए
और एक ही
क्लास में
बार-बार
अनुत्तीर्ण
होता रहे, फेल होता
रहे, तो
बार-बार उसी
क्लास में भेज
दिया जाता है।
वैसे मृत्यु
एक महाशिक्षण
है। उसके
द्वारा जब तक
तुम अमृत को न
पहचान लोगे, तब तक
बार-बार लौटते
रहोगे।
एक
संगीतज्ञ गीत
गा रहा था।
हाल बार-बार
कहता, फिर
से! वन्स मोर!
सारी भीड़ जोर
से कहती, फिर
से! वह फिर
गाता। ऐसा
होते-होते
आठवीं बार आ
गयी। उसका गला
तक रुंधने लगा,
थक गया।
उसने कहा, भाइयो,
बहुत-बहुत
धन्यवाद कि
तुमने इतनी
बार मेरे गीत
की मांग की।
लेकिन अब मैं
थक गया हूं।
आखिरी बार गाए
देता हूं। फिर
मत कहना। फिर
और दुबारा मत
कहना वन्स मोर!
एक आदमी ने
खड़े हो कर कहा
कि कौन
तुम्हारे गीत
के लिए कह रहा
है वन्स मोर।
जब तक तुम ठीक
से न गाओगे तब
तक हम कहते ही
रहेंगे। तुम
बिलकुल गलत गा
रहे हो। और जब
तक तुम रास्ते
पर न आओगे तब
तक हम बार-बार
मांग करते
रहेंगे।
आवागमन
परमात्मा की
बार-बार तुमसे
मांग है कि ठीक
से गाओ। वह
प्रशिक्षण का
हिस्सा है।
उससे गुजरना
जरूरी है। जो
समझ जाता है, वह मृत्यु
से अपना
तादात्म्य
तोड़ लेता है।
नानक
कहते हैं, 'जिनके मन
में राम बस
गया, न वे
मरते हैं और न
ठगे जाते हैं।'
मरते
नहीं। ठगे भी
नहीं जाते
हैं। और तुम
कितनी ही
होशियारी करो, तुम कितनी
ही कुशलता करो,
तुम ठगे ही
जाओगे।
क्योंकि कोई
दूसरा थोड़े ही
तुम्हें ठग
रहा है! तुम
खुद ही ठग रहे
हो। कोई दूसरा
थोड़े ही
तुम्हें लूट
रहा है। कोई
दूसरा तुम्हें
लूट ही नहीं
सकता। तुम गलत
से अपने को
जोड़े हो, इसलिए
दूसरा लूट
पाता है। और
तुम्हारी
दृष्टि ऐसी
भ्रांति से
भरी है कि उस
भ्रांति के
कारण तुम्हें
चारों तरफ
दुश्मन
दिखायी पड़ते
हैं। हर एक
तुम्हें
लूटने को
तैयार है।
रामकृष्ण
कहते थे कि एक
चील एक मांस
के टुकड़े को
ले कर उड़ी।
बहुत सी चीलों
ने उसका पीछा
किया। चीलें
उसे चोंच
मारने लगीं।
उस पर झपट्टे
मारने लगीं।
वह भी अपने
मांस के टुकड़े
को बचाने के
लिए बड़ी कोशिश
करने लगी।
लेकिन चीलों
की बड़ी भीड़
थी। पंख उसके
लहूलुहान हो
गए। और सभी
उसके मांस को
छीन लेने की
कोशिश में थीं।
अंततः उसने
मांस का टुकड़ा
छोड़ दिया।
मांस का टुकड़ा
छोड़ते ही सारी
चीलें उसे छोड़
कर चली गयीं।
वह अपने वृक्ष
पर बैठ कर
विश्राम करने
लगी।
रामकृष्ण
कहते थे, जिस
दिन मैंने उसे
देखा, मैंने
भी मांस का
टुकड़ा छोड़
दिया। फिर
मेरा कोई
दुश्मन न रहा।
दुश्मन मेरा
कोई था नहीं।
वह मांस का
टुकड़ा ही
उपद्रव था।
तुम जब
तक धन को पकड़े
हो, तब तक कोई
दुश्मन होगा।
जब तक तुम पद
को पकड़े हो, तब तक कोई
दुश्मन होगा।
दुश्मन नहीं
है असली में, तुम्हारी
पकड़ में कहीं
भूल है। और जब
तक तुम कुछ
पकड़े हो, तुम्हें
हर एक--मित्र
भी--दुश्मन
जैसा दिखायी पड़ेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी बहुत
नाराज थी। और
अनर्गल बक रही
थी। मुल्ला
सीधा-सादा, अपने पैंट
के दोनों
खीसों में हाथ
डाले खड़ा था, जैसा कि
अक्सर पति खड़े
रहते हैं!
पत्नी ने अंततः
काफी
गाली-गलौज
करने के बाद
कहा कि बंद
करो यह! क्यों
अपने खीसे में
मुट्ठियां
ताने मेरी तरफ
खड़े हो?
खीसे
में
मुट्ठियां
ताने? वह
बेचारा सिर्फ
अपने बचाव के
लिए चुपचाप
खड़ा है। लेकिन
अगर तुम नाराज
हो तो सभी
मुट्ठियां तनी
हुई मालूम
पड़ती हैं।
खीसे में पड़े
हुए हाथ भी
मुट्ठियों
जैसे दिखायी
पड़ते हैं।
तुम्हारी
दृष्टि ही
तुम्हारी
सृष्टि बनती
है। तुम जैसा
देखते हो...और
मांस का टुकड़ा
तुम पकड़े हो, तो तुम ठगे
जाओगे। मांस
का टुकड़ा यानी
शरीर। जब तक
तुम शरीर को
पकड़े हो, तब
तक ठगे जाओगे।
तब तक बचने का
कोई उपाय नहीं।
कितनी ही
कुशलता करो।
कबीर
कहते हैं, काहे की
कुशलात, कर
दीपक कुंभे
पड़े।
तुम्हारी
कुशलता का कोई
भी मूल्य
नहीं। दो कौड़ी
की तुम्हारी
कुशलता नहीं
है। क्योंकि
तुम कहते हो
हाथ में दीया
है, फिर भी
कुएं में
गिरते हो। कर
दीपक कुंभे
पड़े--कैसी
तुम्हारी
कुशलता है कि
चेतना का दीपक
है, गिरते
कुएं में हो?
नहीं, ठगे ही
जाओगे।
क्योंकि तुम
ठगे जाने की
ही तैयारी कर
रहे हो। तुम
गलत से संबंध
जोड़ते हो। जिसने
गलत से संबंध
जोड़ा, उसने
अपना ही
रास्ता बना
दिया कि ठगा
जाए। मांस के
टुकड़े को
पकड़ते हो, फिर
चीलें
झपटेंगी।
'जिसके
मन में राम
बसे हैं, न
वह मरता न ठगा
जाता। यह जो लोक
है--कृपा का
लोक--कृपा का
खंड, वहां
अनेक लोकों के
भक्त बसते
हैं। सच्चे
नाम को मन में
बसाए हुए वे
आनंद मनाते
हैं।'
सच
खंडि वसै
निरंकारु।
करि करि वेखै
नदरि निहाल।।
तिथै
खंड मंडल
बरमंड। जे को
कथै त अंत न
अंत।।
तिथै
लोअ लोअ आकार।
जिव जिव हुकमु
तिवै तिव कार।।
वेखै
विगसे करि
वीचारु। नानक
कथना करड़ा
सारु।।
ये चार
खंड यात्रा के, मार्ग के।
धर्म--प्रकृति।
ज्ञान--होश, जागरण उस
प्रकृति का।
जो है, उसके
प्रति जागना।
लज्जा--अपनी
स्थिति समझ कर
विनम्र हो
जाना, असहाय,
शून्य। और
कृपा--उसकी
अनुकंपा को
अपने भीतर उतरने
देना। बाधा न
खड़ी करना। ये
चार यात्रा के
खंड, पांचवां
मंजिल है। वह
है सत्य।
'सत्य-खंड
में निराकार
परमात्मा का
निवास है।'
वह
मंजिल है।
'वह
सृष्टि रचना
कर उसको अपनी
दृष्टि से
निहाल करता
रहता है।'
उसे
मार्ग के
खंडों में
बांटने की कोई
जरूरत नहीं
है। यहां
मार्ग समाप्त
हो जाता है।
जब अनुकंपा
तुममें उसकी
पूरी भर जाती
है, तुम पूरे
धुल जाते हो, तुम्हारे
पास अपनी कुछ
भी स्थिति
नहीं बचती। तुम
बह ही जाते हो
पूरे। तुम
खोजते हो और
पाते नहीं कि
मैं कहां हूं।
तुम्हें कुछ
पता नहीं चलता
कि मैं कहां
खो गया हूं।
तुम्हें अपना
ही कोई भान
नहीं होता है
कि मैं कहां
हूं। बोध पूरा
होता है और
अपना कोई पता
नहीं चलता है।
खोजते हो, खोजते
हो, और
पाते हो कि
वही है, मैं
नहीं हूं। ऐसी
प्रतीति जहां
समग्र हो जाती
है। जहां तुम
निमित्त
मात्र भी नहीं
रह जाते।
अनुकंपा के
खंड में तुम
निमित्त
मात्र रहोगे--बांसुरी।
गीत उसके। अब
बांसुरी भी
नहीं रह जाती
है। अब तुम
बिलकुल नहीं
हो, वही
है। अब यह
कहने वाला भी
कोई नहीं बचता
है कि तू ही
है। क्योंकि
जब तक तुम
कहते हो तू ही
है, तब तक
थोड़े-बहुत तुम
बचे हो।
अन्यथा कौन
कहेगा?
'यह
सत्य-खंड है।
यहां निराकार
परमात्मा का निवास
है। वह सृष्टि
रचना कर उसको
अपनी दृष्टि
से निहाल करता
है। उसमें खंड,
मंडल और
ब्रह्मांड
हैं, जिनके
वर्णन का अंत
नहीं है। वहां
लोक के बाद लोक
हैं। सृष्टि
के बाद
सृष्टियां
हैं। उसका जो
हुक्म है, उसके
अनुसार सारा
काम चलता है।
उसका विचार कर
वह देखता है
और प्रसन्न
होता है। नानक
कहते हैं, उसका
वर्णन करना
लोहे के चने
चबाने जैसा
है।'
एक अति
महत्वपूर्ण
बात; उसे गांठ
बांध कर रख
लेना। नानक उस
पर बार-बार जोर
देते हैं। और
वह यह है कि
परमात्मा
सृष्टि को बना
कर पृथक नहीं
हो गया है।
परमात्मा सृष्टि
को बना कर
विमुख नहीं हो
गया है।
परमात्मा
सृष्टि को बना
कर विश्राम
में नहीं चला
गया है।
परमात्मा
सृष्टि को बना
कर भूल नहीं
गया है।
परमात्मा
सृष्टि को प्रतिपल
बना रहा है।
बनाने की घटना
कभी घटी और बंद
नहीं हो गयी
है, सृजन
शाश्वत चल रहा
है। असल में
सृजन परमात्मा
के होने का
ढंग है। वह
प्रतिपल बना
रहा है। वह
बनाता ही चला
जा रहा है। और
वह दूर नहीं
हो गया है। वह
जो बनाता है, उसमें उसका
रस है।
अब यह
बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है। साधक
को हम कहते
हैं, तुम
अनासक्त हो
जाओ तो
परमात्मा
मिलेगा। लेकिन
परमात्मा
स्वयं
अनासक्त नहीं
है। अनासक्त
हो तो सृष्टि
का क्रम टूट
जाए। सब रुक
जाए। क्यों
जीवन चले? हम
साधक को कहते
हैं, तुम
अनासक्त हो
जाओ। क्योंकि
जब तक तुम
आसक्त हो, तुम
परमात्मा को न
जान सकोगे।
जैसे ही तुम
परमात्मा के
साथ एक हो
जाते हो, तब
एक नयी आसक्ति,
एक नए रस का
उदय होता है।
जहां विराग और
राग में कोई
भेद नहीं है।
जहां
अनासक्ति और
आसक्ति में कोई
भेद नहीं है, जहां सारे
भेद गिर जाते
हैं।
परमात्मा
बनाता है।
परिपूर्ण
आसक्त, फिर
भी अनासक्त।
इसे तुम कैसे
समझोगे? क्योंकि
यह कठिन है।
इसलिए नानक
कहते हैं, लोहे
के चने चबाने
जैसा है।
परमात्मा बना
रहा है, इसलिए
उसका लगाव तो
है ही। लेकिन
उस लगाव में
वैसा अंधापन
नहीं है जैसा
हमारे लगाव
में होता है।
उस लगाव में
पजेसिवनेस
नहीं है। उस
लगाव में मालकियत
का दावा नहीं
है। वह बनाता
है और तुम्हें
स्वतंत्र
छोड़ता है।
इसलिए तो तुम
भटक सकते हो, पाप कर सकते
हो, बुराई
की तरफ जा सकते
हो। वह
तुम्हें खींच
नहीं लेता
बुराई की तरफ
से। उसका लगाव
है, लेकिन
तुम्हारी
स्वतंत्रता
में वह बाधा
नहीं डालता
है। तुम परम
स्वतंत्र हो।
ऐसा भी नहीं
है कि वह
तुम्हारी तरफ
विमुख है। यही
जरा कठिनाई
है।
समझो!
एक मां है जो
अपने बेटे में
लगाव रखती है।
लगाव रखती है
तो
स्वतंत्रता
को मार डालती
है। क्योंकि
वह कहती है, वहां मत जाओ,
यह मत करो, ऐसे उठो, ऐसे
बैठो, क्योंकि
उसका लगाव है।
वह उसकी गर्दन
दबाती जाएगी।
प्रेम में वह
उसको मिटा
डालेगी। वह
उसे इतनी भी
स्वतंत्रता न
देगी कि वह
अपने पैरों पर
खड़ा होना सीख
जाए। वह इसे
इतने भी दूर न
जाने देगी
जहां वह जीवन
का खुद अनुभव
ले सके। वह उस
बच्चे को पंगु
कर देगी। इस
मां के रहते
वह युवक कभी
भी प्रौढ़ न हो
पाएगा। और अगर
यह मां चली भी
जाए दुनिया से,
तो भी उस
युवक की
प्रौढ़ता में
बड़ी
कठिनाइयां होंगी।
वह किसी दूसरी
स्त्री के
प्रेम में न
गिर पाएगा।
कठिन होगा।
क्योंकि मां
उसको पीछे से
खींचेगी। वह
मां के
अतिरिक्त
किसी को भी
प्रेम करने
में अपराध
अनुभव करेगा।
इस मां
में लगाव तो
था, लेकिन
लगाव अंधा था,
आंख वाला न
था। क्योंकि
आंख वाला लगाव
तुम्हारी
सुरक्षा भी
करता है, लेकिन
तुम्हारी
स्वतंत्रता
का अंत नहीं
करेगा।
सुरक्षा ही
इसलिए करता है
ताकि तुम
स्वतंत्र हो
सको। और ये
दोनों बड़ी विपरीत
बातें हैं।
तुम्हें
रोकता भी
इसलिए है ताकि
तुम जाने के
योग्य हो सको।
तुम्हें मजबूत
करता है।
तुम्हें
धीरे-धीरे
सहारा देता है।
लेकिन सहारा
इसीलिए देता
है ताकि कल तुम
अपने सहारे
खड़े हो सको।
सहारे को
पंगुता नहीं
बनाता।
फिर एक
दूसरी मां है।
जिसको अगर हम
समझाएं कि यह
तो खतरनाक है
तुम्हारा
लगाव, तो वह
लगाव अलग कर
लेती है।
लेकिन लगाव
अलग करते ही
वह
स्वच्छंदता
दे देती है।
स्वतंत्रता नहीं,
स्वच्छंदता।
अब लड़का जहां
जाए, जो करे।
शराब पीए तो
क्या कर सकते
हैं? स्वतंत्रता
देनी है।
वेश्या के घर
जाए, तो
स्वतंत्रता
देनी है। जुआ
खेले, चोरी
करे, हत्या
करे; स्वतंत्रता
देनी है। यह
मां विमुख हो
गयी। इसने पीठ
फेर ली। पहले
लगाव था, वह
अंधा था। अब
उपेक्षा है, जो अंधी है।
और संतुलन
दोनों के बीच
में है।
वही
संतुलन
परमात्मा का
स्वभाव है।
उसकी सृष्टि
की तरफ वही
उसकी दृष्टि
है। तुम्हारी
सुरक्षा करता
है ताकि तुम
स्वतंत्र हो
सको। तुम्हें
स्वतंत्रता
देता है ताकि
तुम एक दिन
समर्पण कर
सको। ये बड़ी
विपरीत बातें
हैं। तुम्हें मौका
देता है ताकि
तुम दूर जाओ।
क्योंकि तुम
दूर न जाओगे
तो तुम पास
कैसे आ सकोगे? तुम्हें
मौका देता है
ताकि तुम थोड़ा
भटको। क्योंकि
तुम भटकोगे
नहीं तो तुम
प्रौढ़ कैसे
होओगे? तुम्हें
मौका देता है
ताकि तुम
गिरो। क्योंकि
तुम गिरोगे
नहीं तो तुम
सम्हलोगे
कैसे?
और फिर
भी तुम्हारी
सुरक्षा करता
है। और फिर भी
तुम्हारा
पीछा करता है।
सब तरफ उसकी
नजर है। सब
तरफ उसकी छाया
है। सब तरफ से
वह तुम्हें
घेरे हुए है।
तुम कितने ही
दूर चले जाओ
तो भी वह
तुम्हारे पास
बना रहता है।
ताकि जब भी
तुम्हें
जरूरत हो, तुम मुड़ो, और तुम उसे
उपलब्ध कर लो।
जब जरा गर्दन
झुकाई...जब भी
तुमको जरा सी
गर्दन झुकाने
की याद आ जाए, तभी तुम उसे
देख ले सकते
हो।
दिल के
आईने में है
तस्वीरे-यार
जब जरा
गर्दन झुकाई
देख ली।
तुम
कितने ही दूर
जाओ, वह
तुम्हारे
पीछे-पीछे
चलता है।
तुम्हें बाधा
भी नहीं डालता,
तुम्हें
रोकता भी
नहीं। तुमसे
कहता भी नहीं
कि यह गलत है, यहां मत
जाओ। तुम्हें
गलत तक होने
देता है। फिर
भी अपनी ऊर्जा
को तुमसे खींच
नहीं लेता। और
प्रतीक्षा
करता है, और
बाट जोहता है,
कि तुम लौट
आओगे। जब तुम
लौट आते हो, तब प्रसन्न
होता है।
नानक
कहते हैं, 'उसका विचार
कर वह देखता
है और प्रसन्न
होता है। उसका
वर्णन करना
लोहे के चने
चबाने जैसा
है।'
निश्चित
ही! क्योंकि
वहां सभी
विपरीत
विश्राम पाते
हैं। वहां सभी
कंट्राडिक्शंस
एक हो जाते
हैं। हम एक
में से कुछ भी
कर सकते हैं।
मैंने बहुत
लोगों के जीवन
को अध्ययन कर
के नतीजा पाया
कि हम कोई भी
एक अति कर
सकते हैं। और
हर अति खतरनाक
है।
एक पति
है; वह अतिशय
पजेसिव है।
अपनी पत्नी के
पीछे वह छाया
की तरह नहीं, भूत-प्रेत
की तरह लगे
हैं। पत्नी
किससे बोलती है?
हंसती तो
नहीं है किसी
से? कहीं
जाती तो नहीं?
दफ्तर में
भी वह यही सोच
रहे हैं।
बीच-बीच में घर
आ जाते हैं।
पत्नी अगर किसी
के साथ हंस भी
ले, तो
उनके लिए भारी
कष्ट हो जाता
है। वह यह सोच
ही नहीं सकते
कि मेरी पत्नी
और मेरे बिना
कैसे हंस सकती
है? यह
असंभव है। वह
तो मान कर यही
चलते
हैं--जैसे कालिदास
वर्णन करते
हैं--अगर वे गए
पंद्रह दिन के
लिए बाहर, पत्नी
को सूख कर
हड्डी हो जाना
चाहिए उनकी
याद में। और
मेघों से
संदेश भिजवाना
चाहिए।
उनका
पत्नी के
चारों तरफ यह
जो घेराव है, इस घेराव ने
पत्नी को उनके
प्रेम से नहीं
भरा है, बल्कि
बड़ी तीव्र ऊब
और सूक्ष्म
घृणा से भर
दिया है। और
पत्नी उनके
प्रेम में थी।
लेकिन प्रेम
मर जाता है, जब
स्वतंत्रता मरती
है। उन दोनों
का
प्रेम-विवाह
हुआ था। मैं
उन्हें
भलीभांति
अध्ययन करता
रहा हूं। दोनों
बड़े प्रेम में
थे एक-दूसरे
के। लेकिन जब
प्रेम पति का
इतना अतिशय हो
गया कि गले का
हार न रहा और
फंदा बनने
लगा। कभी भी
हार फंदा बन
सकता है, ध्यान
रखना।
हीरे-जवाहरात
का हार भी
फंदा बन सकता
है, फांसी
लग सकती है।
जब फंदा सिकुड़
कर फांसी बनने
लगा, तो
पत्नी का
प्रेम शून्य
होता गया।
पत्नी स्वतंत्र
होने की
आकांक्षा
करने लगी।
जितनी पत्नी
ने स्वतंत्र
होने की
आकांक्षा की,
पति उतना
पागल हो कर
चारों तरफ से
घेरे बांधने
लगा।
मैंने
पति को बहुत
समझाया कि यह
पागलपन है।
तुम प्रेम को
मार ही डाल
रहे हो। प्रेम
को भी
स्वतंत्रता
चाहिए, श्वास
लेने का मौका
चाहिए। प्रेम
को भी थोड़ी दूरी
चाहिए। थोड़ा
अकेलापन
चाहिए। प्रेम
को भी थोड़ी
निजता चाहिए।
तुम इतने
ज्यादा पीछे
मत पड़ो। तुम
अपने ही हाथ
से आत्मघात कर
रहे हो।
बहुत
समझाने से समझ
में आया। जब
से उनकी समझ में
आया, तब से
उन्होंने
उपेक्षा शुरू
कर दी। अब
पत्नी अगर
किसी दूसरे
पुरुष के साथ
सो भी रही है, तो उन्हें
मतलब नहीं। अब
वे कहते हैं
कि मैंने
पजेसन का भाव
ही छोड़ दिया।
अब मुझे कुछ
लेना-देना नहीं
है। अब जो उसे
करना हो, करे।
अब मेरा कोई
नाता ही नहीं
है उससे। वे
एक ही नाता
जानते
हैं--फंदे का।
स्वाभाविक
है मनुष्य के
लिए यही। या
तो हम पूरी
स्वतंत्रता
दे देते हैं, जो
स्वच्छंदता
बन जाए; जैसा
पश्चिम में हो
रहा है। या हम
पूरी
परतंत्रता
खड़ी कर देते
हैं, जो कि
मौत बन जाए; जैसा कि
पूर्व में हुआ
है।
परमात्मा
के संबंध में
कहना लोहे के
चने चबाने
जैसा ही कठिन
है। क्योंकि
वह दोनों है।
वह तुम्हें
पूरी
स्वतंत्रता
देता है। और
प्रेम इस
स्वतंत्रता
के कारण रत्ती
भर कम नहीं होता।
वह तुम्हें
मुक्त करता
है। और प्रेम
वही, जो मुक्त
करे। उसके
प्रेम में और
उसकी स्वतंत्रता
में, तुम्हें
स्वतंत्रता
देने के भाव
में, कहीं
कोई
विरोधाभास
नहीं है। वह
तुम्हें रोकता
भी नहीं। तुम
बुरे की तरफ
जाते हो तब भी
वह प्रतीक्षा
करता है कि
तुम लौट आओगे।
जब तुम लौट
आते हो, तब
वह प्रसन्न
होता है।
नानक
कहते हैं, वेखै विगसे
करि वीचारु।
वह
तुम्हारे
संबंध में
चिंता करता
है। तुम्हारे
संबंध में
विचार करता
है। वह
तुम्हारे जीवन
में जब फूल
खिलते हैं तो
प्रसन्न होता
है। वह
निरपेक्ष
नहीं खड़ा है।
उसकी
अनासक्ति उसके
बड़े गहरे
आसक्त-रस से
भरी है। वह
दूर है और फिर
भी पास है।
उसने तुम्हें
छोड़ा है
स्वतंत्रता के
लिए, फिर भी
कभी छोड़ा नहीं
है। फिर भी वह
सदा साथ खड़ा
है। तुम्हारा
दुख, तुम्हारी
पीड़ा, उसे
छूती है।
तुम्हारी
प्रसन्नता, तुम्हारा
आनंद भी उसे
आह्लादित
करता है। तुम इस
जगत में अजनबी
नहीं हो। यह
तुम्हारा घर
है। इस जगत
में तुम अकेले
नहीं हो।
परमात्मा
तुम्हारे साथ
है।
भक्त
के लिए यह
आश्वासन बड़ा
गहरा है। नहीं
तो कुछ भी तो
पता नहीं
चलता। अगर तुम
परमात्मा के
खयाल को छोड़
दो, तो जगत
तटस्थ हो जाता
है। तुम क्या
करते हो, जगत
को कुछ
लेना-देना
नहीं। जिंदा
हो कि मरते हो,
कुछ मतलब
नहीं। तूफान
आए, मिट
जाओ, कुछ
मतलब नहीं।
कोई है ही
नहीं वहां। तो
तुम एक संयोग
हो।
लेकिन
भक्त के लिए
बड़ा आश्वासन
है। वह संयोग
नहीं है।
परमात्मा
प्रसन्न
होगा। घर लौट
कर कोई है, जो उसकी
प्रतीक्षा
करता है। घर
को खाली नहीं
पाया जाएगा।
जब तुम लौटोगे
स्वभाव में, तो तुम
परमात्मा को
वहां
प्रतीक्षा
करते पाओगे। न
केवल
प्रतीक्षा
करते, बल्कि
तुम्हारे लौट
आने से समारोह,
उत्सव
होगा।
जीसस
की कहानी समझ
लेने जैसी है।
जीसस ने बार-बार
कहानी दोहराई
है कि एक धनी
बाप के दो
बेटे थे। एक
बेटा बिगड़
गया। जवान हुआ, तो उसने
अपनी आधी
संपत्ति मांग
ली। संपत्ति ले
कर वह शहर चला
गया। क्योंकि
गांव में खर्च
करने के उपाय
भी न थे। न
जुआघर थे, न
शराबगृह था, न वेश्याएं
थीं। शहर में
उसने सब बरबाद
कर दिया। सड़क
का भिखारी हो
गया। बाप को
खबर मिलती रही।
बाप दुखी और
पीड़ित भी हुआ,
क्योंकि यह
नहीं सोचा था।
लेकिन बाप
जानता था कि
जबर्दस्ती तो
की भी नहीं जा
सकती। जब वह
समझेगा तब लौट
आएगा। उसकी
समझ ही लौटा
सकती है। बाप
प्रतीक्षा कर
सकता है, आग्रह
नहीं कर सकता
है। आग्रह
खतरनाक है।
आग्रह और दूर
ले जाएगा।
बड़ा
बेटा घर पर
रहा। जो
संपत्ति उसे
मिली थी उसने
दुगुनी कर दी।
वह खेत में
काम करता, बगीचों में
अंगूर लगाता,
बड़ी मेहनत
करता। सुबह से
सांझ तक जुटा
रहता।
फिर एक
दिन भिखारी
बेटे को खयाल
आया कि ऐसे तो मैं
भीख मांग-मांग
कर मर जाऊंगा।
मैं घर लौट सकता
हूं। मेरा
पिता अभी भी
जिंदा है। और
पिता के प्रेम
पर मैं भरोसा
कर सकता हूं।
और जिसने मुझे
इतनी
स्वतंत्रता
दी, और जिसने
कभी यह भी न
कहा, यह
गलत है मत करो;
जिसने मुझे
मौका दिया
ताकि मैं खुद
ही जान लूं कि
क्या गलत है, उसकी करुणा
मुझे इनकार न
करेगी, स्वीकार
कर लेगी। उसे
अपने बाप पर भरोसा
है।
उसने
एक दिन खबर दी
कि मैं वापस आ
रहा हूं। बाप ने
समारोह आयोजन
किया। जो
स्वस्थ से
स्वस्थ भेड़ें
थीं, उसने
कटवायीं।
सुंदर
सुस्वादु
भोजन बनवाए। बेटा
घर आ रहा है!
गांव में
फूल-वंदनवार
लगवाए। सारे
गांव के
मित्रों को
आमंत्रित
किया कि मेरा
बेटा घर आ रहा है।
बड़े
बेटे को खेत
में खबर लगी।
किसी ने बताया
कि हद हो गयी।
तुम तो जीवन
भर इस बूढ़े की
सेवा करते रहे, कभी उसके
विपरीत न गए, कभी तुमने
उसकी आज्ञा का
उल्लंघन न
किया, धन
को तुमने
दुगुना कर
दिया, लेकिन
तुम्हारे
स्वागत में
कभी भी कोई
समारोह न हुआ।
कभी भेड़ें न काटी
गयीं, कभी
सुस्वादु
भोजन न बने, कभी गांव
निमंत्रित न
किया गया। और
आज वह भ्रष्ट
लड?का वापस
लौट रहा है, जिसने सब
बरबाद कर दिया
वेश्याओं में,
शराबगृह
में, जुआघरों
में, उसके
स्वागत का
आयोजन हो रहा
है! यह अन्याय
है।
बड़े
बेटे को भी
लगा कि यह
अन्याय है। वह
उदास और दुखी
घर वापस लौटा।
यह
स्वागत-समारोह
देख कर, जलते
दीए देख कर, फूल लगे देख
कर, उसकी
छाती पर बड़ा
भारी बोझ हो
गया। वह जा कर
अपने बाप के
पास पहुंचा।
और उसने कहा, यह अन्याय
है। मैं
तुम्हारी
सेवा कर रहा
हूं। मेरे लिए
कभी कोई
वंदनवार न लगे,
बैंड-बाजे न
बजे। और वह
भ्रष्ट वापस
लौट रहा है, उसके स्वागत
की ये
तैयारियां
हैं! मैं अपनी
आंखों पर
भरोसा नहीं कर
सकता।
बाप ने
कहा, तुम मेरे
पास ही हो।
तुम कभी बिगड़े
ही न। तुम कभी
गलत रास्ते पर
न गए।
तुम्हारे
स्वागत का कोई
सवाल नहीं
उठता। तुम
मेरे पास ही
हो। हर घड़ी तुम्हारा
स्वागत है।
तुम मेरे हृदय
के करीब हो।
लेकिन जो बिगड़
गया, भ्रष्ट
हो गया, जिसके
लिए मैंने
बहुत चिंताएं
कीं--तुम्हारे
लिए कभी चिंता
का कोई कारण न
रहा, तुमसे
मैं सदा
प्रसन्न हूं,
इसलिए
अतिरिक्त
प्रसन्नता की
कोई भी जरूरत
नहीं है--और
जिसके लिए मैं
चिंतित हुआ, रात सो न सका,
वह वापस लौट
रहा है। उसको
स्वागत की
जरूरत है।
जब
भूला-भटका
वापस आता है
तो समारोह की
जरूरत होती
है। जीसस कहते
थे, पुण्यात्मा,
साधु और संत
बड़े बेटे की
भांति हैं। जो
भटक गए हैं, दूर निकल गए
हैं, पापी
हैं, अपराधी
हैं, वे
छोटे बेटे की
तरह। और जीसस
ने एक बड़ा
अदभुत
सूत्रपात
किया। और यहीं
यहूदी धर्म से
उनका विरोध हो
गया। क्योंकि
यहूदी मानते
थे, जिसने
गलती की है, परमात्मा
उसे दंड देगा।
और जीसस ने
कहा, वह
उसका स्वागत
करेगा, क्योंकि
उसका प्रेम
है। तुम कितना
ही गलत करो, तुम उसके
प्रेम को नष्ट
नहीं कर सकते
हो। तुम कितने
ही दूर जाओ, तुम उसके
हृदय से दूर
नहीं जा सकते
हो। तुम पीठ
कर सकते हो, वह पीठ नहीं
करेगा। वह
पिता है।
अस्तित्व
से हमारा एक
गहन संबंध है।
और अस्तित्व
प्रसन्न
होगा। हिंदू
इस बात को
बहुत प्राचीन
समय से जानते
रहे। हमने तो
कहा है, जब
बुद्धत्व को
कोई उपलब्ध
होता है, तो
असमय में फूल
खिल जाते हैं।
जहां से बुद्ध
निकलते हैं, वहां असमय
में--अभी फूल
खिलने का मौका
न था--और फूल
खिल जाते हैं।
क्योंकि
अस्तित्व
प्रसन्न होता
है।
नानक
वही कह रहे
हैं, वेखै
विगसे करि
वीचारु।
और बड़ा
प्रसन्न होता
है परमात्मा, जब कोई लौटता
है।
स्वतंत्रता
और प्रेम का
संयोग! तुम कुछ
भी करो, तुम
उसे नाराज न
कर सकोगे।
उसका लगाव
तुम्हारे सब
करने से गहरा
है। लेकिन
उसकी आसक्ति
हमारी आसक्ति
नहीं है, कि
तुम्हारी
गर्दन को पकड़
ले, कि
तुम्हारे लिए
बंधन बन जाए।
परमात्मा
कारागृह नहीं
है, परमात्मा
प्रेम है।
प्रेम+स्वतंत्रता।
बड़ी कठिन बात
है कहनी, क्योंकि
दोनों विपरीत
बातें हैं। या
तो तुम प्रेम
करते हो तो
तुम
स्वतंत्रता
छीन लेते हो, तुम
स्वतंत्रता
देते हो तो
तुम प्रेम को
विदा कर देते
हो। आसक्त और
अनासक्त
दोनों; राग
और विराग
दोनों; जहां
सभी विपरीत
संयुक्त हो
जाते हैं, वह
महासंगम है।
इसलिए
नानक कहते हैं, नानक कथना
करड़ा सारु।
'उसके
संबंध में कुछ
भी कहना लोहे
के चने चबाने
जैसा है।'
आज
इतना ही।
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