अध्याय
38 : खंड 1
अधःपतन
श्रेष्ठ
चरित्र वाला
मनुष्य अपने
चरित्र
के प्रति
अनजान है;
इसलिए
वह चरित्रवान
है।
घटिया
चरित्र वाला
मनुष्य
चरित्र
बचाए रखने पर
तुला है;
इसलिए
वह चरित्र से
वंचित है।
श्रेष्ठ
चरित्र वाला
मनुष्य
कभी
कर्म नहीं
करता है;
या
करता भी है, तो
कभी
किसी
बाह्य
प्रयोजन से
नहीं।
घटिया
चरित्र वाला
व्यक्ति कर्म
करता है;
और
ऐसा सदा किसी
बाह्य
प्रयोजन से ही
करता है।
श्रेष्ठ
दया वाला
मनुष्य कर्म
करता है;
लेकिन
ऐसा वह बाह्य
प्रयोजन से
नहीं करता है।
श्रेष्ठ
न्याय वाला
मनुष्य कर्म
करता है;
और
ऐसा वह बाह्य
प्रयोजन से ही
करता है।
लेकिन
जब श्रेष्ठ
कर्मकांड
वाला
मनुष्य
कर्म करता है
और
प्रत्युत्तर
नहीं पाता,
तब
वह अपनी
आस्तीन चढ़ा कर
दूसरों
पर
कर्मकांड
लादने की
ज्यादती करता
है।
लियो टाल्सटाय
के संबंध में
मैंने सुना है, एक
संध्या जब
सूरज डूबता था
और आकाश डूबते
सूरज के रंगों
से भरा था, सांझ
की शीतल हवा
बहती थी, और
एक वृक्ष की
छाया में टाल्सटाय
ने एक सर्प को
विश्राम करते
देखा; चट्टान
पर, काई
जमी हुई
चट्टान पर
परिपूर्ण
विश्राम की अवस्था
में लेटे हुए
देखा। टाल्सटाय
सर्प के पास
पहुंचा। और
ऐसा कहा जाता
है कि उसने
सर्प से कहा
कि सूरज की
डूबती हुई
किरणों के
नृत्य के बीच
ठंडी बहती हवा
में तुम जीवित
हो, श्वास
ले रहे हो, और
इतना ही
तुम्हारे
आनंदित होने
के लिए काफी है;
तुम आनंदित
हो। लेकिन मैं,
मैं आनंदित
नहीं हूं।
सूरज की
किरणें काफी
नहीं, सांझ
की शीतल हवा
काफी नहीं, चलती हुई
श्वास, जीवन
का वरदान काफी
नहीं। तुम
आनंदित हो और
मैं आनंदित
नहीं हूं।
मनुष्य
को छोड़ कर
सारा जगत
आनंदित है।
मनुष्य किस
रोग से ग्रस्त
है कि आनंदित
नहीं है? और
ऐसा अगर किसी
एक मनुष्य के
साथ होता तो
हम कहते कि वह
बीमार है, और
उसका इलाज कर
लेते। ऐसा
पूरी
मनुष्यता के साथ
है। इसलिए
आसान नहीं
कहना कि पूरी
मनुष्यता ही
बीमार है। तब
तो उचित होगा
यह कहना कि
मनुष्य का
गुणधर्म ही
दुखी होना है।
मनुष्य जैसा है
वैसा दुखी ही
हो सकता है।
मनुष्य के लिए
आनंद का द्वार
खुल सकता है, मनुष्य जैसा
है उसके
अतिक्रमण से,
उसके ट्रांसेंडेंस
से, उसके
पार जाने से।
लाओत्से
ने सुनी होती
यह घटना टाल्सटाय
की तो वह राजी
हुआ होता।
क्योंकि
लाओत्से तो सर्प
जैसा मनुष्य
था। श्वास
लेना काफी
आनंद है। जीवन
अपने आप में
इतना बड़ा
वरदान है कि कुछ
और मांगने की
जरूरत नहीं।
होना ही बड़ी
अनुकंपा है।
जो
दुखी हो रहा
है;
शायद उसके
जीवन से संबंध
टूट गए हैं।
मनुष्य का
जीवन से संबंध
टूट गया है--या
बहुत क्षीण हो
गया है। जड़ें
उखड़ गई हैं।
भूमि से जुड़ा
भी है तो भी
जुड़ा नहीं है।
शायद यह
अनिवार्य है,
शायद मनुष्य
के होने की यह
अनिवार्यता
है, यह
नियति है, कि
मनुष्य टूटे
प्रकृति से और
फिर से जुड़े।
यहां
चेतना के धर्म
को थोड़ा हम
समझ लें तो
फिर इस सूत्र
में प्रवेश
आसान हो जाए।
संस्कृत
बड़ी अनूठी
भाषा है। शायद
पृथ्वी पर वैसी
दूसरी भाषा
नहीं।
क्योंकि जिन
लोगों ने संस्कृत
को विकसित
किया वे लोग
मनुष्य की
चेतना के अंतर-अनुसंधान
में गहरे रूप
से लीन थे।
जैसे आज पश्चिम
में पश्चिम की
चेतना
विज्ञान के
साथ बड़े गहरे
रूप से डूबी
है तो पश्चिम
की भाषाओं में
विज्ञान की
छाप है। और तब
पश्चिम की
भाषाएं
रोज-रोज
वैज्ञानिक
होती चली जाती
हैं।
अनिवार्य है।
क्योंकि भाषा
वही हो जाती
है जो भाषा
में किया जाता
है।
जिन्होंने
संस्कृत को
विकसित किया
वे चेतना के अंतस्तलों
की खोज में
लगे थे; वह
सारी की सारी
खोज संस्कृत
में प्रविष्ट
हो गई।
संस्कृत
में शब्द है
दुख के लिए
वेदना। वेदना अनूठा
शब्द है। उसके
दोहरे अर्थ
हैं। उसका एक
अर्थ दुख है
और एक अर्थ ज्ञान
है। वेदना उसी
धातु से बना
है जिससे वेद, विद।
वेद का अर्थ
है--ज्ञान, परम
ज्ञान। विद का
अर्थ है--बोध, विद्वान, विद्वत्ता।
वेदना भी उसी
धातु से बना
है। वेदना का
एक अर्थ है
ज्ञान, बोध;
लेकिन
वेदना का
दूसरा अर्थ है
दुख। ज्ञान और
दुख में कोई
गहरा संबंध है।
यह शब्द अकारण
नहीं है।
असल
में,
ज्ञान न हो
तो दुख नहीं
हो सकता।
इसलिए अगर सर्जन
को आपका अंग
काट डालना है
तो पहले आपका
ज्ञान छीन
लेना जरूरी
है। आप बेहोश
हो जाएं, फिर
आपके शरीर की
काट-पीट की जा
सकती है। क्योंकि
जहां ज्ञान
नहीं वहां दुख
नहीं। जहां
ज्ञान है वहां
दुख होगा।
वह जो टाल्सटाय
जिस सर्प से
बात कर रहा है, वह
निश्चित ही
दुखी नहीं है।
टाल्सटाय
दुखी है।
लेकिन सर्प को
ज्ञान नहीं है,
इसलिए दुख
भी नहीं है। टाल्सटाय
को ज्ञान है, और इसलिए
दुख है। और तब
एक बड़ी अनूठी घटना
घटती है कि
मनुष्य-जाति
में जो लोग
सर्वाधिक
ज्ञानपूर्ण
हैं वे
सर्वाधिक दुख
से भर जाते
हैं।
मनुष्य-जाति
में भी वे लोग,
जो ज्ञान की
दिशा में बहुत
आगे नहीं गए
हैं, बहुत
दुखी नहीं
होते। इसलिए
दूर जंगल में
रहता हुआ
आदिवासी बहुत
दुखी नहीं है।
ज्ञान की मात्रा
के साथ दुख बढ़
जाता है।
इसलिए
वेदना अनूठा
शब्द है।
दुनिया की
किसी भाषा में
ज्ञान और दुख, दोनों
के लिए एक
शब्द नहीं है।
ज्ञान होगा तो
दुख होगा।
उलटी बात भी
सच है। दुख
होगा तो ज्ञान
होगा। आपके
सिर में दर्द
होता है तभी
आपको पता चलता
है कि सिर है।
जब दर्द नहीं
होता तो पता
नहीं चलता कि
सिर है। असल
में, जब
आपको अपने
शरीर का पता
चलने लगे तब
समझना कि आप
बीमार हैं।
बीमारी का यही
लक्षण है। जब
आपको शरीर का
अंग-अंग पता
चलने लगे तो
समझना कि आप
वृद्ध हो गए, बूढ़े हो गए।
जहां-जहां दुख
होगा
वहां-वहां बोध
होगा। पैर में
कांटा गड़ेगा
तो पता चलेगा
कि पैर है।
अगर दुख न हो
तो ज्ञान भी
नहीं होगा, बोध भी नहीं
होगा।
मनुष्य
बोधपूर्ण है।
पूरी प्रकृति
में मनुष्य
अकेला
बोधपूर्ण है, जो
सोचता है, विचारता
है, विमर्श
करता है; जो
राजी नहीं
होता। चीजें
जैसी हैं, उनके
प्रति सोचता
है, उनमें
बदलाहट चाहता
है, या
अपने में
बदलाहट चाहता
है।
लेकिन
मनुष्य विचार
कर रहा है
प्रतिपल। जो
भी हो रहा है, वह
उससे टूटा हुआ
है विचार के
कारण। जब भी
आप विचार करते
हैं किसी चीज
का, आप
उससे टूट जाते
हैं। विचार
बीच में स्थान
बना देता है।
विचार
डिस्टेंस
पैदा करता है,
फासला
बनाता है।
फासले के बिना
विचार हो भी
नहीं सकता।
इसलिए विचारक
कहते हैं कि
जब भी आप
सोचते हों तो
पहले फासला
बना लेना। अगर
फासला न होगा
तो आप सोच भी न
सकेंगे।
जितना फासला
होगा उतना
सोचना सही
होगा। जितना
फासला कम होगा
उतना सोचना
मुश्किल हो
जाएगा।
एक
मजिस्ट्रेट
है। उसका लड़का
चोरी करके
अदालत में आ
जाए तो फिर वह
नहीं सोच
पाता। फासला
बहुत कम है; लड़का
बहुत करीब है।
एक डाक्टर है।
उसकी पत्नी बीमार
हो जाए तो वह
निदान नहीं कर
पाता। फासला
बहुत कम है।
एक सर्जन है, बड़ा से बड़ा
सर्जन। उसके
खुद के बेटे
का आपरेशन
करना हो, वह
किसी और सर्जन
को बुलाता है।
फासला बहुत कम
है। फासला
जितना हो उतना
विचार
निष्पक्ष हो
पाता है।
फासला जितना
कम हो उतना
विचार धूमिल
हो जाता है।
इसलिए
एक अनूठी बात
रोज देखने में
आती है कि अगर
दूसरा मुसीबत
में हो तो आप
बड़ी नेक सलाह
दे पाते हैं; वही
मुसीबत आप पर हो
तो कोई सलाह
आप अपने को
नहीं दे पाते।
फासला बिलकुल
नहीं है।
विचार
अवरुद्ध हो
जाता है।
विचार
फासला पैदा
करने की विधि
है। मनुष्य टूट
गया है स्वभाव
से,
क्योंकि
सोचता है; हर
चीज पर सोचता
है। जहां-जहां
सोचना
प्रविष्ट हो
जाता है
वहां-वहां से
टूटता चला
जाता है।
अब एक
ऐसी अवस्था है
मनुष्य की
जहां दो ही
उपाय हैं--कि
वह वापस
प्रकृति से
जुड़ जाए, क्योंकि
प्रकृति से
बिना जुड़े
आनंद नहीं है।
विचार आनंद को
जानता ही नहीं;
जान भी नहीं
सकता। विचार
दुख का मूल
है। विचार
स्वयं दुख है,
वेदना है।
तो दो ही उपाय
हैं मनुष्य के
लिए। एक तो यह
उपाय है कि वह
गिर जाए विचार
से नीचे; जहां
पशु जीते हैं,
वृक्ष जीते
हैं, आकाश
में बदलियां
चलती हैं, उस
लोक में गिर
जाए।
इसीलिए
शराब का इतना
प्रभाव है।
मादक द्रव्यों
की इतनी गहरी
पकड़ है आदमी
के ऊपर कि
दुनिया के
सारे धर्म
चिल्लाते हैं, सारे
राज्य कोशिश
करते हैं, लेकिन
आदमी को बेहोश
होने से नहीं
रोका जा सकता।
यह केवल शराब
की ही बात
होती तो आसान
था। यह शराब
की ही बात
नहीं है। न
कानून रोक
सकता है, न
साधु रोक सकते
हैं, क्योंकि
मनुष्य की
बहुत गहरी पकड़
है। और वह पकड़
यह है कि शराब
के गहरे नशे
में थोड़ी देर
को वह आनंदित
हो पाता है, दुख मिट
जाता है। शराब
से दुख नहीं
मिटता, दुख
मिटता है
विचार के खो
जाने से। शराब
माध्यम बन
जाती है। तो
जहां भी आपका
विचार खो जाता
है वहीं आपको
आनंद की झलक
मिलने लगती
है।
तो एक
तो उपाय है कि
आदमी नीचे गिर
जाए। लेकिन यह
उपाय बहुत
कारगर नहीं
है। क्योंकि
जहां हम पहुंच
गए हैं वहां से
वस्तुतः नीचे
गिरना असंभव
है। जगत में
पतन होता ही
नहीं। यह ऐसे
ही है कि एक
बच्चा मैट्रिक
की कक्षा में
पहुंच गया; आप
चाहे उसे आप
पहली कक्षा
में फिर से
भेज दें, लेकिन
पहली कक्षा
में उसे भेजा
नहीं जा सकता।
ज्ञान से नीचे
गिरना असंभव
है। जो आपने
जान लिया उसे आप
अनजाना नहीं
कर सकते; जो
आपका ज्ञान बन
गया उससे आप
वापस नहीं लौट
सकते।
इसलिए
श्री अरविंद
के विचार में
थोड़ा सा बल है।
श्री अरविंद
पहले विचारक
हैं भारत में
जिन्होंने
जोर दिया इस
बात पर कि कोई
भी मनुष्य एक बार
मनुष्य योनि
में पैदा होकर
वापस पशुओं
में नहीं जा
सकता। इसमें
सचाई है। चाहे
कितना ही पाप
करे! पशुवत हो
जाएंगे, लेकिन
पशु नहीं हो
सकते। कोई
उपाय नहीं है
नीचे गिरने
का। क्योंकि
जो जान लिया
है उसे अनजाना
कैसे किया जाए?
जो चेतन हो
गया, वह
अचेतन नहीं हो
सकता। क्षण भर
को हम भुलावा
पैदा कर सकते
हैं। शराब
भुलावा पैदा
करती है; आपकी
स्थिति नहीं
बदलती।
एक ही
उपाय
है--दूसरा--वह
यह है कि हम
विचार के पार
चले जाएं।
विचार के नीचे
चले जाएं तो
भी विचार से
मुक्ति हो
जाती है; उसी
के साथ दुख से
मुक्ति हो
जाती है।
बेहोशी में
कोई दुख नहीं
है। और या फिर
इतने परम होश
से भर जाएं, विचार के
पार चले जाएं,
इतने चेतन
हो जाएं कि
चेतना तो हो, विचार न रह
जाए; होश
तो हो, लेकिन
विचारणा खो
जाए; आकाश
रह जाए चेतना
का, बादल
विचार के न रह
जाएं। इस
अतिक्रमण में,
ध्यान में,
समाधि में,
फिर पुनः हम
प्रकृति के
साथ एक हो
जाते हैं।
तो एक
तो असाधु का
ढंग है
प्रकृति के
साथ एक होने
का: शराब, वासना,
कुछ भी; खोने
के उपाय, विस्मरण
के उपाय। वह
असाधु का ढंग
है समाधि को
पाने के लिए।
सफल उसमें वह
नहीं होता। एक
साधु का ढंग
है: ध्यान, उस
अवस्था में आ
जाना जहां
विचार खो जाते
हैं। नीचे उतर
कर...अगर टाल्सटाय
को लगा कि
सर्प आनंद में
है, तो यह
भी टाल्सटाय
को लग रहा है, सर्प को
नहीं। सर्प को
यह भी नहीं लग
सकता कि टाल्सटाय
दुख में है, और न सर्प को
यह लग सकता है
कि वह आनंद
में है। यह भी टाल्सटाय
की चिंतना है।
सर्प का इससे
कुछ लेना-देना
नहीं है। सर्प
सिर्फ होश में
ही नहीं है।
जो भी हो रहा
है, हो रहा
है; सर्प
उसमें बह रहा
है। रत्ती
मात्र भी
फासला नहीं है
जहां वह विचार
कर सके। न उसे
दुख का पता है,
और न उसे
आनंद का पता
है। वह हमें
आनंद में प्रतीत
होता है; उसे
कुछ पता नहीं
है।
लेकिन
बुद्ध को आनंद
का पता है। तो
बुद्ध सर्प
जैसे हैं एक
अर्थ में और
एक अर्थ में
हम जैसे हैं।
उन्हें पता है
आनंद का, जैसे
हमें पता है
दुख का। इस
अर्थ में वे
मनुष्य जैसे
हैं। और इस
अर्थ में वे
सर्प जैसे हैं
कि वे आनंद
में इतने लीन
हैं कि उसकी
कोई विचारणा
नहीं बनती। वे
आनंद के साथ
एक हैं। वह
उनका स्वभाव
है। इसलिए
बुद्ध अगर
बैठे हैं
बोधिवृक्ष के
नीचे और हम
जाकर उन्हें
कहें कि आप
बड़े आनंद में
हैं। तो यह भी
हमारा विचार
है। बुद्ध तो
आनंद के साथ
इतने लीन हैं
कि हम कहेंगे
तो उन्हें
खयाल आएगा, अन्यथा
उन्हें खयाल
भी नहीं आएगा।
हम ही उन्हें
स्मरण दिलाएंगे।
असल में, हमारे
चेहरे का दुख
ही उनके लिए
स्मरण का कारण
बनेगा कि वे
आनंद में हैं।
एक
अवस्था है
अतिक्रमण की।
लाओत्से के
सूत्र को
समझने के लिए
यह खयाल में
रखना जरूरी
है। प्रकृति
का पहला संबंध
तो टूट गया; उसे
वापस वैसा ही जोड़ने का
कोई उपाय नहीं
है। लेकिन अगर
हम यह समझ
पाएं कि इस
संबंध के
टूटने में दुख
निर्मित हुआ
है तो हम इसको
अतिक्रमण कर
सकते हैं और
पार जा सकते
हैं। लाओत्से
उस अवस्था की
चर्चा कर रहा
है, जब हम
प्रकृति के
साथ पुनः मिल
गए; वर्तुल
पूरा हो गया।
हम उसी मूल
स्रोत में फिर
से डूब गए इस
ज्ञान की
यात्रा के
बाद। वापस नहीं
गिरे; पुनः
पूरी यात्रा
के बाद वर्तुल
पूरा हुआ। और ध्यान
रहे, हम
जहां हैं, आधा
वर्तुल हो गया
है। यहां से
अगर हम पीछे
भी गिरें
तो भी उतनी ही
यात्रा करनी
पड़ेगी जितना
हम आगे बढ़ें।
मैं एक
विश्वविद्यालय
में था। और
रोज सुबह
घूमने जाता
था। एक बड़ा
बगीचा, उसके
चारों तरफ एक
चक्कर मार आता
था। एक बूढ़े मित्र
से रोज
नमस्कार होती
थी। कभी-कभी
उनसे मैं
कुशल-क्षेम
पूछ लेता था।
एक दिन उनसे
पूछा कि ठीक
तो हैं? उन्होंने
कहा, और तो
सब ठीक है, लेकिन
अब शरीर काम
नहीं देता।
पहले तो मैं
पूरा एक चक्कर
लगा लेता था; अब आधे पर ही
आकर थक जाता
हूं और वापस
लौटना पड़ता
है। मैंने
उनसे कहा, इसमें
फर्क क्या है?
आधे पर ही
आकर थक जाता
हूं और वापस
लौटना पड़ता है।
चाहे पूरा
चक्कर लगाओ और
चाहे आधे से
वापस लौटो,
तुम्हारा
घर बराबर दूरी
पर है।
कुछ
लोग उन बूढ़े
सज्जन जैसी ही
चेष्टा करते
रहते हैं; आधे
से वापस लौटने
की कोशिश करते
हैं। उतनी ही
यात्रा में तो
वर्तुल पूरा
हो जाएगा। और
जीवन जो
सिखाने के लिए
है वह शिक्षा
भी मिल जाएगी;
जो बोध जीवन
की नियति है, वह भी हाथ
में आ जाएगा।
विचार का कचरा
भी छूट जाएगा
और बोध की
पवित्रता भी
उपलब्ध हो
जाएगी।
पीछे
गिरने की
चेष्टा जो छोड़
देता है, उसने
धार्मिक होना
शुरू कर दिया।
पीछे गिरने की
चेष्टा ही
अधर्म है। और
पीछे कोई गिर
नहीं सकता; वह असंभावना
है। इसलिए मैं
निरंतर कहता
हूं कि
अधार्मिक
आदमी असंभव
कोशिश में लगा
है; जो सफल
हो ही नहीं
सकता।
अधार्मिक
इसलिए असफल
नहीं होता कि
बुरा है; अधार्मिक
इसलिए असफल
होता है कि वह
जो चाहता है
वह हो ही नहीं
सकता। वह
प्रकृति के
नियम में नहीं
है। धार्मिक
इसलिए सफल
नहीं होता कि
भला है; धार्मिक
इसलिए सफल
होता है कि वह
जीवन के नियम
के अनुकूल चल
रहा है। वह
सफल होगा ही।
बुरे-भले
की कोई फिक्र
प्रकृति को
नहीं है; प्रकृति
को फिक्र सही
और गलत की है।
बुरा-भला आदमी
की धारणाएं
हैं। जीवन के
परम नियम बुरे
और भले की
भाषा में नहीं
सोचते; जीवन
के परम नियम
ठीक और गलत की
भाषा में सोचते
हैं। बुद्ध
अपनी हर विधि
के सामने सम्यक,
राइट शब्द
जोड़ देते थे।
उन्होंने
अपने भिक्षुओं
को कहा कि
ध्यान भी करो
तो उन्होंने
कहा सम्यक
ध्यान, राइट
मेडिटेशन।
बड़ी सोचने की
बात है कि
ध्यान भी क्या
असम्यक हो
सकता है? गलत
ध्यान भी हो
सकता है? जरूर
हो सकता है।
तभी बुद्ध जोर
देकर कहते हैं
कि ठीक ध्यान,
सम्यक
ध्यान।
कोई
बुद्ध से
पूछता है कि
आप ध्यान में
भी सम्यक
क्यों जोड़ते
हैं?
तो बुद्ध
कहते हैं, वह
भी ध्यान है
जो बेहोशी से
उपलब्ध होता
है, गिर कर
जो उपलब्ध
होता है वापस।
वह असम्यक है।
वह भी ध्यान
है जो आगे बढ़
कर उपलब्ध
होता है, अतिक्रमण
से उपलब्ध होता
है। वह सम्यक
है।
बुद्ध
कहते हैं, सम्यक
समाधि, ठीक
समाधि।
यह
आपने कभी खयाल
न किया होगा।
गैर-ठीक समाधि
भी होती है।
और दुनिया के
बहुत से
धार्मिक लोग
भी गैर-ठीक
समाधि की
कोशिश में लगे
रहते हैं। अगर
आप बेहोश हो
गए तो गैर-ठीक
समाधि मिली।
अगर आप आनंद
से भरे और होश
में भी रहे तो
ठीक समाधि
मिली। फर्क
वही है पीछे
गिरने का, या
आगे निकल जाने
का। पीछे गिर
जाना आसान
दिखता है; लेकिन
असंभव है।
आसान दिखने के
कारण बहुत लोग
कोशिश करते
हैं; लेकिन
असंभव होने के
कारण कोई भी
सफल नहीं हो पाता।
ठीक ध्यान, ठीक समाधि
कठिन मालूम पड़ती
है, लेकिन
संभव है। कठिन
होने के कारण
बहुत कम लोग
प्रयास करते
हैं; लेकिन
जो भी प्रयास
करते हैं वे
सफल हो जाते हैं।
अब हम
इस सूत्र को
समझने की
कोशिश करें।
यह उन ध्यानियों
के बाबत खबर
देता है
जिन्होंने प्रकृति
के साथ पुनः
अपने को एक कर
लिया है।
"श्रेष्ठ
चरित्र वाला
मनुष्य अपने
चरित्र के
प्रति अनजान
है।'
अगर
आपको चरित्र
का बोध है तो
वह बोध ही बता
रहा है कि
चरित्र में
कहीं कोई खटकने
वाली बात है, कोई
चीज खटक रही
है। नहीं तो
बोध होगा कैसे?
बीमारी का
बोध होता है; स्वास्थ्य
का बोध नहीं
होता। अगर
चरित्र सच में
स्वस्थ है तो
आपको खटकेगा
ही नहीं कुछ; आपको यह भी
पता नहीं
चलेगा कि मैं
चरित्रवान हूं।
अगर आपको पता
चलता है कि आप
चरित्रवान
हैं तो अभी
चरित्र बहुत
दूर है। यह
आरोपित होगा;
ठोंक-पीट कर
आपने किसी तरह
अपने को
चरित्रवान बना
लिया होगा।
लेकिन आप अभी
तक चरित्र की
योग्यता नहीं
पा सके हैं; अभी चरित्र
आपके भीतर से
खिला नहीं है।
ये फूल आपकी
ही आत्मा में
नहीं लगे हैं;
ये आप कहीं
से खरीद लाए
हैं। ये उधार
हैं। इन्हें
आपने ऊपर से
चिपका लिया
है।
तो
चाहे आप
दुनिया को
धोखा दे दें, लेकिन
आप अपने को
कैसे धोखा दे
सकते हैं? आप
अपने को धोखा
नहीं दे सकते,
यह इस बात
से पता चलेगा
कि आप सदा इस
खयाल में रहेंगे
कि मैं
चरित्रवान
हूं; आप अकड़े
हुए रहेंगे।
आपको सदा यह
कांटे की तरह
चुभता रहेगा
कि आप
चरित्रवान
हैं।
आप
देखें, चारों
तरफ
चरित्रवान
लोग हैं।
कांटे की तरह
उनको चुभता ही
रहता है कि वे
चरित्रवान
हैं। वे अकड़े
ही रहते हैं।
चलते भी हैं
तो और ढंग से; बैठते भी
हैं तो और ढंग
से। और पूरे
वक्त उनकी आंखें
तलाश करती हैं
कि कोई समझे
कि वे चरित्रवान
हैं; कोई
पहचाने कि वे
चरित्रवान
हैं; चार
लोग उनसे कहें
कि आपका शील, आपका चरित्र,
आपकी महिमा!
आश्वस्त नहीं
हैं वे। अभी
किसी और के
सहारे की
जरूरत है। अभी
अकड़ के सहारे
ही वे
चरित्रवान
हैं। यह भी अहंकार
का ही हिस्सा
है। अभी
चरित्र इतना
सहज नहीं हो
गया है कि वे
भूल जाएं, कि
उन्हें पता न
रहे, कि वे
इसकी
प्रतीक्षा न
करें कि कोई
सहारा दे, कि
कोई प्रशंसा
करे, कि
दूसरे की आंख
में जो झलक
पैदा होती है
उससे उन्हें
भोजन मिले, कि दूसरे के
शब्द जो
खुशामद करते
हैं उससे उन्हें
शक्ति मिले।
नहीं, अब
उन्हें कुछ भी
पता नहीं है।
चरित्र
स्वास्थ्य हो
गया है।
जब भी
कोई चीज
स्वस्थ हो
जाएगी तो आपको
उसका पता नहीं
चलेगा। इसे आप
एक कसौटी मान
लें। और जीवन
की साधना में
जो लगे हैं, उनके
लिए यह कसौटी
बड़ी मूल्यवान
है। जिस चीज का
भी आपको पता
चलता हो, समझना
कि अभी, अभी
वह आपको नहीं
मिली।
मेरे
पास लोग आते
हैं;
वे कहते हैं
कि हम बिलकुल
शांत हो गए।
फिर वे मेरी
तरफ देखते हैं
कि मैं कहूं
कि हां, आप
शांत हो गए।
अगर मैं कह
दूं कि आप
नहीं हुए तो
उनकी सब शांति
खो जाती है।
तो वे तत्क्षण
अशांत हो जाते
हैं। मैं उनसे
यही कहता हूं
कि अगर शांत
ही हो गए तो अब
इस अशांति को
क्यों ढोते हो
कि मैं शांत
हूं! इसे भी छोड़ो।
अब पूरे ही
शांत हो जाओ।
नहीं, वे
कहते हैं, पूछने
आपसे आए, ताकि
पक्का हो जाए।
आप
मुझसे पूछने
नहीं आते कि
आप जीवित हैं
या नहीं। वह
पक्का है।
लेकिन आप
पूछने आते हैं
कि मैं शांत
हो गया कि
नहीं। वह
पक्का नहीं
है। आप थोपना
चाह रहे हैं।
आप अपने को
समझाना चाह रहे
हैं कि शांत
हो गए। शांत
होना कठिन है; समझा
लेना बहुत
आसान है। और
अगर दूसरे
प्रशंसा करने
लगें तब तो
समझा लेना
बहुत आसान है।
इसलिए
हमारे मुल्क
में,
जहां साधु
की प्रशंसा है,
अगर झूठे
साधु बड़ी
संख्या में
पैदा होते हों
तो साधुओं का
कसूर तो है ही,
हमारा कसूर
बहुत बड़ा है।
वह प्रशंसा ही
रोग का आधार
हो गया। उस प्रशंसा
के मोह में
आदमी शांत भी
हो जाता है, आनंदित भी
हो जाता है।
और भीतर कोई
घटना नहीं घटती।
लाओत्से
कहता है, "श्रेष्ठ
चरित्र वाला
मनुष्य अपने
चरित्र के प्रति
अनजान है।'
उसे
कुछ भी पता
नहीं है। उसे
यह भी पता
नहीं है कि
मैं अच्छा हूं
और आप बुरे
हैं। ध्यान
रहे,
मैं अच्छा
हूं, जिसको
भी पता होगा, उसे यह भी
पता होता है
साथ ही साथ कि
आप बुरे हैं।
जब भी आप
दूसरे को इस
भांति देखते
हैं कि दूसरा
बुरा है, तब
आप गौर करके
देखना कि
दूसरे को बुरा
देखने की
चेष्टा
वस्तुतः
दूसरे से
संबंधित नहीं
है, स्वयं
को अच्छा
देखने से संबंधित
है। और जब हम
दूसरे को बुरा
देख लेते हैं
तो स्वयं को
अच्छा देखना
आसान होता है।
अगर सभी लोग
अच्छे हैं तो
स्वयं को
अच्छा देखना बहुत
कठिन हो
जाएगा।
कबीर
ने कहा है, जो
मैं खोजने चला
कि कौन है
बुरा आदमी तो
मुझसे बुरा
मुझे कोई भी न
मिला।
अगर आप
खोजने जाएंगे
तो आपसे अच्छा
आदमी मिल ही
नहीं सकता। असंभव
है। अगर आपको
कहीं भूल-चूक
से कोई अच्छा
आदमी मिल भी
जाए तो ज्यादा
देर अच्छा
नहीं रह सकता।
आप कुछ न कुछ
उपाय खोज ही
लेंगे जिससे
आप उसे बुरा
कह सकें।
कभी
आपने खयाल
किया है कि जब
भी आप किसी को
बुरा सिद्ध कर
पाते हैं तो
आपकी छाती से
बोझ उतर जाता
है। जब भी आप निंदा
करते हैं, गाली
देते हैं, किसी
के दोषों का
वर्णन करते
हैं, तब
आपने कभी अपना
चेहरा आईने
में देखा? कैसे
प्रसन्न आप
मालूम होते
हैं, जैसे
बड़ा बोझ छाती
से उतर गया।
यह एक आदमी और
नीचे आ गया।
एक आदमी से आप
और ऊपर आ गए।
निंदा का रस
इतना ज्यादा
किसी और कारण
से नहीं है।
निंदा का रस
सिर्फ इसीलिए
है कि उसमें
आपको अच्छा
होने का खयाल
पैदा होता है।
एक अर्थ में
अच्छा लक्षण
है कि आप
अच्छा होना चाहते
हैं। कम से कम
इतनी चेष्टा
तो जारी है कि
अच्छा होना
चाहते हैं।
लेकिन आप जो विधि
चुन रहे हैं, वह गलत है, आत्मघाती
है। इस भांति
आप कभी अच्छे
न हो पाएंगे।
दूसरे
में बुराई
देखने की अथक
चेष्टा चलती
रहती है। अगर
कोई आपसे
प्रशंसा करे
किसी की तो आप
हजार तर्क
उपस्थित करते
हैं,
आप हजार
उपाय करते हैं
कि सिद्ध कर
दें कि वह प्रशंसा
करने वाला गलत
है। लेकिन जब
कोई किसी की
निंदा करता है
तो आप कोई
तर्क उपस्थित
नहीं करते। आप
बड़े सदभाव
से स्वीकार कर
लेते हैं।
थोड़ा जाग कर
देखेंगे तो
समझ में आएगा
कि यह किस
तृष्णा का
हिस्सा है। आप
अच्छे होना
चाहते हैं। यह
सस्ता उपाय है।
यह सस्ता उपाय
है।
एक
लकीर खिंची है; उसके
सामने एक छोटी
लकीर खींच दें,
वह बड़ी हो
जाती है--बिना
कुछ किए। उस
लकीर को छूना
भी नहीं पड़ता।
बड़ी लकीर खींच
दें, वह
छोटी हो जाती
है। आप हर
आदमी की लकीर
अपने से छोटी
खींचने की
कोशिश में लगे
हैं, ताकि
आपकी लकीर बड़ी
मालूम पड़ती
रहे। लेकिन यह
प्रयास आत्मघाती
है। इससे आप
कभी भी बड़े न
हो पाएंगे। यह
छोटा रहने का
बड़ा अदभुत
उपाय है; सदा
सफल होता है।
लाओत्से
कहता है कि
चरित्र उसी के
पास है जो चरित्र
के प्रति
अनजान है; इसीलिए
वह चरित्रवान
है। घटिया
चरित्र वाला मनुष्य
चरित्र बनाए
रखने पर, बचाए
रखने पर तुला
रहता है।
जो
व्यक्ति भी
अपने चरित्र
को बचाने की
कोशिश में लगा
रहता है वह
घटिया है, मीडियाकर है। उसे
चरित्र के
अदभुत आकाश का
कोई पता ही नहीं।
उसे चरित्र की
स्वतंत्रता
का कोई पता नहीं।
चरित्र उसके
लिए एक बंधन
और कारागृह
है। आप देखते
हैं साधुओं
को! स्त्री न
दिख जाए, आंख
नीचे रखते
हैं। यह
साधुता कितने
कीमत की है? स्त्री छू न
जाए, अपने
वस्त्रों को
सम्हाल कर
चलते हैं।
अभी एक
साधु मुझे
मिलने आए। तो
जहां मैं बैठा
था,
जिस फर्श पर,
उस पर दो
स्त्रियां भी
बैठी थीं। तो
वह फर्श के
नीचे ही रुक
गए। तो मैंने
कहा, आप आ
जाएं पास; उतनी
दूर से तो बात
करना बहुत
मुश्किल
होगा। तो
उन्होंने कहा,
जरा अड़चन है;
एक ही फर्श
पर, जिस पर
स्त्रियां
बैठी हैं, मैं
नहीं बैठ
सकता।
कोई
उनसे
स्त्रियों की
गोद में बैठने
को नहीं कह
रहा है। फर्श
पर नहीं बैठ
सकते, क्योंकि
फर्श पर
स्त्रियां
बैठी हुई हैं।
वह फर्श
स्त्रियों को
छू रहा है, स्त्रैण
हो गया। उसमें
स्त्रियों की ध्वनित्तरंगें
व्याप्त हो
गईं। उससे
साधु को कष्ट
है; उससे
साधु भयभीत
है। यह साधुता
कितने मूल्य की
है? इसका
कोई भी तो
मूल्य नहीं
है। इतनी
कमजोर साधुता
का मूल्य क्या
हो सकता है?
लेकिन
हम भी कहेंगे
कि हां, यह
साधु है।
क्योंकि हम भी
क्षुद्र
चरित्र को ही
पहचान पाते
हैं। क्षुद्र
बुद्धि
क्षुद्र चरित्र
को ही पहचान
भी सकती है।
इस साधु को हम भी
साधु कह
पाएंगे, क्योंकि
हमारी बुद्धि
से भी इसका
तालमेल बैठता
है। मगर हम
नहीं समझ पा
रहे हैं कि जो
इतना ज्यादा
अपने चरित्र
को बचाने पर
तुला है, उसके
पास कितना
चरित्र होगा?
है भी
चरित्र या
नहीं है? क्योंकि
जो हमारे पास
होता है उसे
बचाने की कोई
चिंता नहीं
होती; जो
हमारे पास
नहीं होता उसे
बचाने की बड़ी
चिंता होती
है। हम बचाते
ही उसको फिरते
हैं जिसका हमें
खुद ही भय है
कि उघड़ न
जाए और पता न
चल जाए कि वह
हमारे पास
नहीं है। अगर
आप अपने
चरित्र को
बचाए रखने की
कोशिश में लगे
रहते हैं तो
समझना कि वह
चरित्र किसी
काम का है
नहीं। किसी और
चरित्र को
खोजें जिसे
बचाना नहीं
पड़ता। चरित्र
आपको बचाएगा
या आप चरित्र
को बचाएंगे? सत्य आपको बचाएगा या
आप सत्य को
बचाएंगे? परमात्मा
आपको बचाएगा
या आप
परमात्मा को
बचाएंगे?
जिस
परमात्मा को
आपके लिए
बचाना पड़ता है, वह
कचरे की टोकरी
में डाल देने
जैसा है। उसका
क्या मूल्य? और जिस
चरित्र को आप
बचाते हैं, वह आपकी ही
कृति है; वह
आपसे बड़ी नहीं
हो सकती। उस
चरित्र को
खोजें जो आकाश
की तरह आपको
घेर लेता है।
फिर आप कहीं
भी जाएं वह
आपको घेरे ही
रहता है। आप नरक
में उतर जाएं
तो भी घेरे
रहता है। आप
कहां हैं, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। और उस
चरित्र के प्रति
आपको होश भी
नहीं रखना
पड़ता; वह
है ही। वह
आपकी श्वास बन
गया।
ऐसा
चरित्र भी
खोजा जा सकता
है। ऐसे
चरित्र की खोज
ही साधना है।
मगर कठिन है
यात्रा ऐसे
चरित्र को खोजना
जो आपको बचाए।
आसान है ऐसे
चरित्र को
चिपका लेना
अपने चारों
तरफ जिसको
आपको बचाना
पड़े। वह
वस्त्रों की
भांति है जो
आपने ओढ़ लिए
हैं। घाव भीतर
होता है; आपने
मलहम-पट्टी ऊपर
से कर ली।
इलाज नहीं
हुआ। और तब
आपको बचाना पड़ता
है।
मैंने
सुना है, एक
छोटे बच्चे को
हाथ में चोट आ
गई थी। और
डाक्टर उसके
हाथ पर पट्टी
बांध रहा था।
उसके बाएं हाथ
में चोट थी।
तो उसने कहा
कि मेरे दाएं
हाथ में पट्टी
बांध दें।
तो उस
डाक्टर ने कहा
कि बेटे, तू
पागल तो नहीं
है? चोट
तेरे बाएं हाथ
में लगी है, पट्टी
बांधना जरूरी
है, ताकि
बच्चे स्कूल
के कोई धक्का
न मार दें।
उसने
कहा,
आप बच्चों
को जानते नहीं
हैं; इसीलिए
तो मैं कह रहा
हूं कि आप
दाएं हाथ में
बांधें।
क्योंकि जहां
पट्टी होगी
वहीं वे लोग धक्का
मारेंगे। अगर
बायां बचाना
है तो दाएं
में पट्टी बांधनी
जरूरी है।
वह ठीक
कह रहा है।
पट्टी बांधने
से कोई घाव तो मिट
नहीं जाता, सिर्फ
ढंक जाता है।
हमारा सारा
चरित्र पट्टी बांधने
जैसा है।
इसलिए आपके
चरित्र पर कोई
जरा सी बात
करे तो कैसी
चोट लगती है, खयाल किया
आपने? जरा
सा कोई इशारा
कर दे आपके
चरित्र पर तो
कैसी चोट लगती
है तीर की
तरह। वह चोट
कहां लगती है?
वह उसकी बात
से नहीं लग
रही है, वह
आपके घाव से
लग रही है जो
पट्टी के भीतर
छिपा है। जब
कोई आपके
चरित्र की
आपसे चर्चा
करने लगे और
आपको कोई चोट
न लगे तो
समझना कि घाव
भर गया, चरित्र
उपलब्ध हुआ
है।
लेकिन
चोट लगती है।
चोट लगती ही
इसलिए है कि बात
सच होती है।
नहीं तो चोट
नहीं लगेगी।
जो आदमी चोर
नहीं है उसे
कोई चोर भी कह
दे तो चोट नहीं
लगेगी। वह
हंसेगा। वह
समझेगा कि यह
आदमी पागल है।
लेकिन कोई चोट
नहीं लगेगी।
चोर से चोर कह
दें तो चोट लगती
है,
क्योंकि
पट्टी के नीचे
घाव है। आपकी
चोट से पहचान
आ जाती है कि
घाव कहां है।
किस बात पर आप
क्रोधित होते
हैं, उससे
आपके घाव की
खबर मिलती है।
किस बात से आप बेचैन,
परेशान
होते हैं, उससे
घाव की खबर
मिलती है। और
लोगों को भी
पता है कि
जहां-जहां पट्टियां
हैं वहां-वहां
घाव हैं।
बच्चों को ही
पता नहीं है, बड़ों को भी
पता है। और वे
भी जहां-जहां पट्टियां
हैं वहां-वहां
चोट करते रहते
हैं।
लाओत्से
कहता है कि
चरित्र घटिया
है,
अगर उसे
बचाए रखने की
चेष्टा करनी
पड़ती है। जिस
चरित्र को
बचाने की
चेष्टा करनी
पड़ती है वह चेष्टा
से पैदा हुआ
चरित्र है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
चरित्र दो
प्रकार का है।
एक तो
आविर्भाव है।
एक तो सहज, अपके
भीतर की
खिलावट है। और
एक आरोपण है; आविर्भाव
नहीं। आप भीतर
कुछ और होते
हैं, बाहर
से आप कुछ और
थोप लेते हैं।
एक तो चरित्र है
धर्म, और
एक चरित्र है
नीति। वह नीति
घाव वाला
चरित्र है।
नीति
उपयोगिता का दृष्टिकोण
है; जो
उपयोगी है, जिससे समाज
में चलने में
सुविधा होगी,
जिससे सफल
होने में
आसानी होगी, जिससे
महत्वाकांक्षा
सुगमता से
तृप्त होगी, जिससे लोगों
से टकराहट कम
होगी, वह
चालाकी है।
नीति चालाकी
है। वे जो
होशियार लोग
हैं वे सब तरह
की नीति अपने
चारों तरफ खड़ी
कर लेते हैं।
उससे उनको
अनैतिक होने
की सुविधा मिल
जाती है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
अगर आपको चोरी
ही करनी है तो
आपको मंदिर
जरूर जाना
चाहिए। उससे
लोग कम शक कर
सकेंगे कि यह
आदमी, और चोर
हो सकता है!
अगर आपको
बेईमानी ही करनी
है तो आपको
ईमानदारी का
खूब गुणगान
करना चाहिए; उसमें
कंजूसी नहीं
करनी चाहिए।
और जब भी कभी ऐसा
मौका मिले, लोक-प्रदर्शन
का, तो
ईमानदारी का
प्रदर्शन भी
करना चाहिए; बात ही
नहीं।
छोटे-मोटे
मौके जो भी
मिल जाएं ईमानदारी
प्रदर्शित
करने के, वह
जरूर उनका
उपयोग कर लेना
चाहिए। तो आप
बड़ी बेईमानी
करने के लिए
मुक्त हो जाते
हैं। कोई शक
भी नहीं कर
सकेगा कि यह
आदमी और
बेईमान! इस
आदमी ने इतना
दान दिया है अस्पताल
के लिए, इतना
स्कूल के लिए,
इतना
आदिवासी
बच्चों की
शिक्षा के लिए,
यह आदमी और
बेईमान! अगर
लाख, दो
लाख दान में
खर्च करने
पड़ें तो करने
चाहिए, अगर
आपको करोड़,
दो करोड़
का शोषण करना
हो। तो आप
सुरक्षित
हैं।
नीति
आपकी रक्षा
है। तो
अंग्रेजी में
जो वे कहते
हैं कि आनेस्टी
इज़ दि
बेस्ट पालिसी, वे
ठीक कहते हैं।
वह पालिसी ही
है; आनेस्टी नहीं है। आनेस्टी
का पालिसी से
क्या
लेना-देना! होशियारी
है, कुशलता
है, चालाकी
है, गणित
है, हिसाब
है।
और
निश्चित ही, जो
होशियार हैं
वे ईमानदारी
के द्वारा
बेईमानी करते
हैं। जो नासमझ
हैं वे सीधी
बेईमानी करते
हैं और फंस
जाते हैं।
बेईमान फंसते
हैं, ऐसा
मत समझना; सिर्फ
नासमझ बेईमान फंसते
हैं। समझदार
बेईमान नहीं फंसते, क्योंकि
वे जो करते
हैं उससे बचने
का पूरा उपाय
कर लेते हैं।
उन्हें पकड़ना
अति कठिन है।
उन पर ध्यान
भी जाना अति
कठिन है कि वे
ऐसा कर रहे
होंगे।
चरित्र--नैतिक
चरित्र, ऊपरी
चरित्र--जो
समाज में
कुशलता से
जीने की कला
है, वह ऊपर
से थोपा हुआ
है। भीतर आदमी
बिलकुल उलटा
होगा। तो जो
आदमी बहुत
ब्रह्मचर्य
की चर्चा करे,
समझना कि
कामवासना
भीतर गहरे में
खड़ी है। जो आदमी
सत्य की बहुत
बात करे, समझना
कि झूठ बोलने
की तैयारी कर
रहा है। उलटे
का ध्यान
रखना। उलटा
जरूर भीतर
होगा, उसी
को छिपाने के
लिए इतना
आयोजन किया जा
रहा है; उसी
को भुलाने के
लिए। हो सकता
है आपको ही
धोखा देने की
चेष्टा न हो, खुद को धोखा
देने की
चेष्टा हो। वह
खुद ही भूल जाना
चाहता हो।
पश्चिम
के मनसविद, जिन्हें
आप
साधु-संन्यासी
कहते हैं, उनके
संबंध में बड़ी
हैरानी से
सोचते हैं।
क्योंकि आपके
साधु-संन्यासी
ब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्य,
ब्रह्मचर्य
की रट लगाए
रखते हैं।
पश्चिम के मनसविद
कहते हैं कि
इतनी रटन का
एक ही अर्थ हो
सकता है कि
भीतर
कामवासना जोर
से धक्के मार
रही है। नहीं
तो यह रटन खो
जाएगी।
कामवासना
भीतर न होगी तो
यह
ब्रह्मचर्य
की रटन किस
चीज को छिपाने,
किस चीज को मिटाने,
किस चीज के
ऊपर आवरण खड़ा
करने के लिए
होगी? यह
भी खो जाएगी।
जब
चरित्र पूरा
होता है तो
नीति खो जाती
है,
धर्म ही रह
जाता है। नीति
है दूसरे को
देख कर अपने
व्यवहार को
अनुशासित
करना, और
धर्म है जीवन
के परम नियम
के साथ बहना।
दूसरे को
देखने का कोई
सवाल नहीं।
इसलिए
धार्मिक आदमी
अक्सर
विद्रोही
होगा; और
नैतिक आदमी
अक्सर कंजर्वेटिव
होगा, व्यवस्था
के साथ हमेशा
राजी होगा।
क्योंकि उसकी
सारी नीति
व्यवस्था के
साथ अनुरूप
होने की है।
वह व्यवस्था
से जरा भी
इधर-उधर नहीं
जाना चाहता।
क्योंकि
व्यवस्था में
रह कर ही शोषण हो
सकता है, व्यवस्था
में रह कर ही
सफलता हो सकती
है, व्यवस्था
में रह कर ही
अहंकार की
तृप्ति हो सकती
है। धार्मिक
आदमी अक्सर
व्यवस्था के
अनुकूल नहीं
पड़ेगा।
क्योंकि वह एक
महान नियम के
अनुकूल हो रहा
है। मनुष्यों
के बनाए हुए
नियम अब छोटे
पड़ गए। उनसे
ताल-मेल बैठ
भी सकता है, नहीं भी
बैठे।
मैं
इसको कसौटी
मानता हूं कि
जब बुद्ध जैसे
या जीसस जैसे
व्यक्ति का
जन्म हो, या
कृष्ण या
लाओत्से जैसे
व्यक्ति का
जन्म हो, तो
लाओत्से या
कृष्ण या
बुद्ध के साथ
जिस समाज का
तालमेल बैठ
जाए वह समाज
धार्मिक है, और अगर न
बैठे तालमेल
तो वह समाज
अधार्मिक है।
आपका तथाकथित
साधु-महात्मा,
उसका
तालमेल समाज
से बिलकुल
बैठा होता है।
वह तो बिलकुल
ऐसा बनता है
जैसे कि बिजली
का प्लग बिलकुल
बैठ जाता है।
बनाया ही गया
है जैसे समाज
के लिए।
बिलकुल बैठ
जाता है।
सांचे में
ढाला हुआ है।
जो महात्मा
समाज के साथ
ऐसा बैठ जाता
है जैसा सांचे
में ढाला हो, उसका धर्म
से कोई संबंध
नहीं है; नीति
से जरूर संबंध
है। उसने सब
भांति अपने को
काट-छांट कर
नीति के
अनुकूल बना
लिया। समाज उसे
सिर पर लेगा, समाज उसका
आदर करेगा, सम्मान
करेगा, प्रतिष्ठा
देगा।
क्योंकि वह
समाज का अनुचर
है, छाया
है। लेकिन अगर
कोई व्यक्ति
जीवन के परम
नियम के साथ
अपनी एकता साध
लेगा तो समाज
के और उसके बीच
कई अड़चनें
खड़ी हो
जाएंगी। जो
स्वाभाविक
हैं। क्योंकि
समाज अभी साधु
होने के स्तर
पर नहीं है।
यदि आप
चरित्रवान
हैं समाज को
देख कर, तो
ध्यान रखना, यह चरित्र
बहुत काम न आएगा।
एक सामाजिक
उपयोगिता है,
एक
औपचारिकता है,
एक
व्यवहार-कुशलता
है। उस चरित्र
की खोज करें, जिससे आप
प्रकृति के
साथ एक हों।
ये दो बातें ध्यान
में रखें।
समाज के साथ
एक होने की जो
चेष्टा है
उससे एक
चरित्र
मिलेगा, लेकिन
वह चरित्र
ढकोसला होगा,
पाखंड
होगा। और उसे
बचाए रखने की
निरंतर
चेष्टा करनी
पड़ेगी। क्योंकि
वह आपके जीवन
में सीधा नहीं
आया है, ऊपर
से लादा गया
है। वह एक बोझ
है जिसे ढोना
पड़ रहा है; जिसे
आप किसी भी
क्षण उतार कर
हलके होना
चाहेंगे।
लेकिन मजबूरियां
हैं। उसे
उतारने में
महंगा पड़ता
है। बड़े न्यस्त
स्वार्थ हैं, वे
टूटते हैं, जिंदगी में
असुरक्षा आती
है, इसलिए
उसे ढोए रखना
उचित है। और
फिर धीरे-धीरे
आप बोझ के आदी
हो जाते हैं।
फिर तो अगर
कोई कहे भी कि
यह बोझ उतार
दो तो दुश्मन
मालूम पड़ता है।
क्योंकि बोझ
लगता है
संपत्ति है।
जो
चरित्र आपने
समाज को ध्यान
में रख कर पैदा
कर लिया है, वह
संपत्ति नहीं
है, बोझ
है। उस चरित्र
की तलाश करनी
जरूरी है जो जीवन
की धारा के
साथ एकता
खोजता है।
लाओत्से उसी
जीवन के नियम
को ताओ कहता
है।
"घटिया
चरित्र वाला
मनुष्य
चरित्र बचाए
रखने पर तुला
है, इसलिए
वह चरित्र से
वंचित है।
श्रेष्ठ
चरित्र वाला
मनुष्य कभी
कर्म नहीं
करता है।'
श्रेष्ठ
चरित्र का
अर्थ ही है, जो
आपके भीतर
जन्म गया। आप
इसलिए सच नहीं
बोलते कि सच
बोलने से समाज
में
प्रतिष्ठा
होगी; इसलिए
भी सच नहीं
बोलते कि सच
बोलने वाला
कभी जेल नहीं
जाएगा; इसलिए
भी सच नहीं
बोलते कि नरक
से बच जाएंगे,
स्वर्ग
जाएंगे।
बल्कि इसलिए
सच बोलते हैं
कि सच बोलने
में आपने जीवन
का आनंद अनुभव
किया है--भविष्य
में नहीं, अभी,
इसी क्षण।
जब आप सत्य
बोलते हैं तो
आप जीवन के निकटतम
होते हैं, उसकी
धारा के साथ
एक होते हैं।
जब भी झूठ
बोलते हैं तब
धारा से टूट
जाते हैं।
यह एक
भीतरी
अनुसंधान है।
जब भी आप सत्य
बोलते हैं तब
आप निर्बोझ
होते हैं, निर्दोष
होते हैं, हलके
होते हैं, मुक्त
होते हैं। न
कोई अतीत होता
है, न कोई
भविष्य होता
है। जब भी आप
झूठ बोलते हैं
तो अतीत होता
है, भविष्य
होता है; समाज
होता है। फिर
इस झूठ को
बचाए रखना
पड़ेगा। एक झूठ
के लिए फिर
हजार झूठ
बोलने पड़ेंगे
और उसके लिए
निरंतर खयाल
रखना पड़ेगा कि
आपने कहां झूठ
बोला, क्या
झूठ बोला। फिर
उस झूठ से
विपरीत कुछ न
बोल जाएं, इसकी
सतत जागरूकता
रखनी पड़ेगी।
तो झूठ एक चिंता
बन जाएगी। लाभ
उसमें हो सकता
है। लेकिन वह लाभ,
जो चिंता
उससे पैदा
होती है, उसके
समक्ष कुछ भी
नहीं। वह
चिंता बहुत
भयंकर है। और
बड़ा जो उपद्रव
है वह यह है कि
जितना इस झूठ
में आप
व्याप्त होते
जाएंगे उतना
जीवन की धारा
से दूर हटते
जाएंगे।
क्योंकि जीवन
की धारा सत्य
है।
तो जब
कोई सत्य
बोलता है समाज
को ध्यान में
रख कर, तब उसके
सत्य का कोई
मूल्य नहीं
है। वह भी एक प्रकार
का झूठ है।
इसे थोड़ा
समझने में
कठिनाई होगी।
इसे इस तरह
समझना जरूरी
है कि आप झूठ
क्यों बोलते
हैं? इसीलिए
कि उससे कुछ
लाभ होगा। अगर
लाभ सच बोलने
से होता हो तो
आप सच भी
बोलते हैं।
लेकिन ध्यान
लाभ पर है। तो
झूठ और सच में
बहुत फर्क
नहीं है। अगर
आपको लगता है
कि हां झूठ
बोल कर निकल जाऊंगा
उपद्रव से तो
आप झूठ बोलते
हैं। अगर आपको
लगता है कि सच
बोल कर निकल जाऊंगा
उपद्रव से तो
आप सच बोलते
हैं। लेकिन
दोनों ही हालत
में दृष्टि
आपकी उपद्रव
के बाहर होने
की है। दोनों
समान हैं।
सत्य भी एक
साधन है, झूठ
भी एक साधन
है। लक्ष्य एक
है।
लेकिन
जो व्यक्ति
इसलिए सत्य
बोलता है--न तो
हानि का सवाल
है,
न लाभ का।
और ध्यान रहे,
जरूरी नहीं
है कि सत्य
में सदा लाभ
ही हो। जो लोग
यह सिखलाते
हैं कि सत्य
में सदा लाभ
ही होगा, वे
भी आपके लाभ
को ही ध्यान
में रख कर ये
बातें कह रहे
हैं।
भारत
ने अपना
राष्ट्रीय
प्रतीक बना
रखा है: सत्यमेव
जयते!
सत्य सदा
जीतता है। ऐसा
कहीं दिखाई
नहीं पड़ता।
लेकिन लोग जीत
में उत्सुक
हैं,
सत्य में
उत्सुक नहीं
हैं। अगर सत्य
जीतता हो तो
लोग सत्य में
भी उत्सुक हो
सकते हैं। नहीं
तो उसमें उनकी
कोई उत्सुकता
नहीं है। अगर
पक्का पता चल
जाए कि असत्य
ही जीतता है
तो लोग असत्य
बोलेंगे।
लोगों का रस
जीत में है, सत्य में
नहीं है।
तो मैं
नहीं कहता
आपसे कि सत्य
सदा जीतेगा।
जरूरी नहीं
है। बहुत बार
हारेगा। सच तो
यह है कि ज्यादा
हारेगा बजाय
जीतने के।
क्योंकि
जिनके बीच आप
रह रहे हैं वे
सब झूठ हैं।
मैं नहीं कहता
कि सत्य सदा
जीतेगा।
लेकिन यह मैं
जरूर कहता हूं
कि सत्य सदा
आनंदित होगा।
जीत तो दूसरों
से संबंधित है; आनंद
भीतर की बात
है। सफलता तो
दूसरों की बात
है।
जीसस
को सूली लगी; वह
झूठ बोलने से
बच सकती थी।
इतना ही कहना
काफी था...।
जीसस कहते थे
कि मैं ईश्वर
का पुत्र हूं।
यह उनकी
प्रतीति थी, यह उनका
सत्य था, यह
उनका अनुभव था
कि वह ईश्वर
के साथ इतने
एक हैं जैसे
बाप और बेटे
के साथ एक
होता है। जैसे
बेटा बाप का
विस्तार है
ऐसा ही जीसस
को बोध था कि
मैं उसी परमात्मा
का विस्तार
हूं। यह बोध
इतना प्रगाढ़
था कि यह उनका
सत्य था। यह
इतनी सी बात
कहने से जीसस
बच सकते थे कि
नहीं, यह
तो सिर्फ एक
प्रतीक है। यह
कोई, मैं
ईश्वर का
पुत्र हूं, यह कोई
ऐतिहासिक बात
नहीं है। यह
कोई सत्य नहीं
है, यह तो
सिर्फ एक पैरेबल,
एक बोध-प्रसंग,
एक समझाने
का ढंग। इतना
कहने से बच
सकते थे। इतना
ही उनके
विरोधी सुनना
चाहते थे कि
वे साफ-साफ कह
दें कि ईश्वर
के बेटे नहीं
हैं। पर जो उनका
सत्य था, वे
उससे जरा भी
नहीं हटेंगे।
सूली
असफलता है जगत
की दृष्टि
में। जगत की
ही दृष्टि में
नहीं, जीसस के
जो निकटतम
अनुयायी थे, उनको भी लगा
कि यह तो सब
खत्म हो गया।
आखिरी क्षण तक
जीसस के
अनुयायी भीड़
में खड़े यह
देख रहे थे कि
आखिरी क्षण
में कोई न कोई
चमत्कार होगा और
सत्य जीतेगा।
लेकिन जीसस
सूली पर चढ़ गए,
समाप्त हो
गए। तो शिष्य
भी घबड़ा गए।
यह तो सत्य की
मौत हो गई, सत्य
सूली पर लटक
गया। और सोचा
था सत्य
जीतेगा, अंततः
जीत जाएगा।
बीच में
छोटी-मोटी हार
हो सकती हैं, लेकिन अंततः
जीत जाएगा।
मैं
नहीं कहता कि
सत्य जीतेगा।
सच तो यह है, ज्यादा
संभावनाएं
सत्य के हारने
की हैं। क्योंकि
हार और जीत
बाहर से संबंध
है। एक बात
निश्चित है कि
सत्य सदा
आनंदित होगा।
हारे तो भी, सूली लग जाए
तो भी, असफल
हो जाए तो भी, तिरस्कृत हो
जाए तो भी।
असत्य सदा दुख
है। सफल हो
जाए तो भी, सिंहासन
पर पहुंच जाए
तो भी। असत्य
सदा दुख है।
असत्य सफल
होगा। होता
है।
मैक्यावेली
ने राजाओं को
सलाह दी है कि
वे सत्य तो
अपने निकटतम
मित्र को भी न
कहें।
क्योंकि जो
अभी मित्र है, क्षण
भर बाद शत्रु
हो सकता है; इसे ध्यान
में रखना।
मैक्यावेली
राजाओं को सलाह
दे रहा है कि
इसे ध्यान में
रखना कि जो
मित्र है वह
कल शत्रु हो
सकता है, इसलिए
सत्य तो उसे
भी मत कहना।
कल की शत्रुता
को ध्यान में रख
कर ही बोलना।
अभी वह शत्रु
है नहीं, मित्र
है; लेकिन
कल की शत्रुता
संभावी है, उसे ध्यान
में रखना। और
वही बोलना जो
कल वह शत्रु
भी हो जाए तो
भी नुकसान न
पहुंचा सके।
इसलिए
सम्राटों का
कोई मित्र
नहीं हो सकता।
मित्र होने का
कोई उपाय
नहीं। जिनके
हाथ में शक्ति
है वे किसी के
भी मित्र नहीं
हो सकते। उनकी
मित्रता धोखा
होगी।
राजनीति में
कोई दोस्ती
नहीं है, सब
दुश्मन हैं।
कुछ दुश्मन
हैं जो जाहिर
हो गए; कुछ
जो अभी जाहिर
नहीं हुए। मगर
वे कभी भी जाहिर
हो सकते हैं।
इसलिए उनके
साथ भी सच
नहीं हुआ जा
सकता।
जीवन
झूठ का एक जाल है, जैसा
हमने उसे बना
लिया। उसमें
झूठ जीतता है;
उसमें झूठ
सफल होता है।
उसमें झूठ
सिंहासनों पर
विराजमान
होता है।
लेकिन झूठ का
लक्षण उसके
भीतर गहन दुख
की कालिमा है;
अंधेरी रात
की तरह वहां
दुख है। इसलिए
सिंहासनों पर
भी दुख की
गठरियां ही
बैठती हैं।
सत्य
आनंद है। अगर
आपको आनंद की
सुराग मिल गई, सुगंध
मिल गई, और
आप इसलिए सत्य
बोलते हैं कि
यही बोलने में
आप निकटतम
होते हैं
निसर्ग के, तो आपको
चरित्र--वास्तविक
चरित्र--से
संबंध जुड़ना
शुरू हो गया।
ऐसा जो मनुष्य
है, जिसको
ऐसा चरित्र
उपलब्ध हो गया,
वह कर्म
नहीं करता, उससे कर्म
होता है। यह
फर्क समझ लेना
चाहिए। वह कुछ
करता नहीं। वह
कुछ जान-बूझ
कर करने नहीं
जाता। अब उसको
कोई जरूरत
नहीं रही। अब
तो उसकी भीतर
की अंतरात्मा
जो कराती है, वह होता है।
अब जैसे परम
नियति के हाथ
में उसने अपने
को सौंप दिया।
अब जहां हवाएं
उसे ले जाती
हैं परमात्मा
की, वह
जाता है। वह
अब यह भी नहीं
पूछता कि क्या
है दिशा? क्या
है गंतव्य? क्या है
लक्ष्य? कहां
तुम मुझे
पहुंचाओगे? अब तो उसको
कोई लक्ष्य
नहीं है, कोई
पहुंचने की
जगह नहीं है।
अब तो सहज
होना ही, स्वाभाविक
होना ही, स्व-स्फूर्त
होना ही उसका
भाग्य है।
तो वह
जो भी करता है
वह करना वैसे
ही है जैसे
वृक्षों पर
पत्ते खिलते
हैं। कोई नहीं
कहेगा कि वृक्ष
ने पत्ते खिलाए; कोई
नहीं कहेगा कि
वृक्ष ने फूल
लगाए। क्योंकि
कोई चेष्टा
नहीं है।
वृक्ष का
स्वभाव है कि पत्ते
लगते हैं, फूल
खिलते हैं।
वृक्ष बढ़ता है,
आकाश में
सुगंध फेंकता
है। बस ऐसा ही
चरित्रवान
व्यक्ति है।
उसके भीतर से
भी जो होता है
वह होता है।
वह कोई चेष्टा
ऊपर से नहीं
करता।
मैंने
सुना है, लाओत्से
का एक भक्त लीहत्जू
एक गांव से
गुजर रहा था।
लाओत्से के
निकटतम पहुंचने
वाले थोड़े से
लोगों में लीहत्जू
भी है। एक
गांव से जब वह
गुजर रहा था
तो उसने देखा
कि राजा के घुड़सवार
उसके पीछे
दौड़ते चले आ
रहे हैं। वह
अपने गधे पर
सवार था। घुड़सवारों
ने उसे रोका।
राजा का बड़ा
मंत्री भी आया
और उसने कहा
कि सम्राट की
आज्ञा है कि
आप चलें और सम्राट
के प्रधान
सलाहकार आप हो
जाएं। सम्राट
को बड़ी उलझनें
हैं, उन्हें
हल करना है। लीहत्जू
ने कहा, अगर
कभी मेरे भीतर
का सम्राट
मुझे वहां ले
आया तो मैं आ जाऊंगा, और दूसरा
कोई उपाय नहीं
है। नहीं लाया,
नहीं आऊंगा।
अब मैं नहीं
हूं। अब वह
भीतर वाला ही
मुझे चलाता
है।
वे
राज्य मंत्री
और उनके साथी, पता
नहीं उसकी बात
समझे या नहीं,
लेकिन वे
वापस चले गए।
जैसे ही वे
लौट गए वापस, लीहत्जू एक कुएं पर
रुका और उसने
अपने कान पानी
से धोए।
गांव के लोग
इकट्ठे हो गए
और उन्होंने
कहा कि तुम यह
क्या करते हो?
तब लीहत्जू
ने अपने गधे
के कान भी
पानी से धोए।
तो उन्होंने
कहा कि तुम
बिलकुल पागल
तो नहीं हो गए
हो? लीहत्जू ने कहा कि
सत्ता का शब्द
भी कान में पड़
जाए तो करप्ट
करता है, तो
व्यभिचार
पैदा होता है,
इसलिए
मैंने अपने
कान धोए।
पर लोगों ने
कहा, इस
गधे के क्यों
धो रहे हो? उसने
कहा, जब
मुझे तक करप्ट
करता है तो
गधे की हालत!
और गधे तो
वैसे ही राजनीति
में बड़े
उत्सुक होते
हैं। इसका तो
दिमाग ही खराब
हो जाएगा।
इसने सुन ली
है। यह बिलकुल
कान खड़े किए
हुए था जब वे
लोग कह रहे
थे। और मैंने
इसके भीतर देख
ली कि बिजली
दौड़ रही थी और
यह बिलकुल
तैयार था। यह
कह रहा था
धीरे, लीहत्जू,
हां भर दो।
यह तो मुझ पर
नाराज है कि
कहां महल छोड़
कर, कहां
गांव में और
जंगलों में
भटका रहे हो!
इसके कान धो
देना भी ठीक
है, नहीं
तो यह भी पाप
मेरे ऊपर पड़
जाएगा।
एक्टन ने, लार्ड
एक्टन ने
कहा, पावर करप्ट्स, एंड करप्ट्स
एब्सोल्यूटली;
सत्ता
व्यभिचारी है,
और पूर्ण
रूप से
व्यभिचारी
है।
लेकिन
हम सब सत्ता
की खोज में
हैं। सत्य की
खोज में नहीं
हैं,
शक्ति की
खोज में हैं।
उस शक्ति की
खोज में हम जो
चरित्र
निर्मित करते
हैं, वह
धोखा है, प्रवंचना
है। सत्य की
जो खोज करता
है उसके जीवन
में एक चरित्र
आना शुरू होता
है। जैसे
फूलों में
सुगंध है, वैसा
ही उसका जीवन
होता है।
उसमें
कर्तृत्व खो
जाता है; वह
कुछ करता नहीं,
उससे कुछ
होता है।
झेन
फकीर रिंझाई
कहा करता था
कि बुद्ध को
जब ज्ञान हुआ, उसके
बाद उन्होंने
कुछ भी नहीं
किया। पर कहानी
तो साफ है कि
चालीस साल तक
वे गांव-गांव
गए, लोगों
को समझाया, ज्ञान के
लिए जगाया। न
मालूम कितनों
की प्यास
तृप्त की। न
मालूम कितनों
में सोई प्यास
को जगाया और
अतृप्त किया। और
न मालूम कितने
लोग
रूपांतरित
हुए। चालीस वर्ष
अथक भटकन थी, श्रम था। और
रिंझाई कहता
था कि बुद्ध
ने ज्ञान के
बाद कुछ भी
नहीं किया। तो
उसके भक्त
उससे पूछते थे
कि आप बार-बार
ऐसा क्यों
कहते हो? हमें
पता है कि
बुद्ध चालीस
साल तक अथक
श्रम में लगे
रहे। तो
रिंझाई कहता
था, वह
तुम्हें लगता
है कि श्रम था,
वह बुद्ध की
सुगंध थी।
उन्होंने कुछ
किया नहीं, उनसे हुआ; ज्ञान के
बाद उनसे कुछ
हुआ। ज्ञान के
पहले उन्होंने
कुछ किया; ज्ञान
के बाद उनसे
कुछ हुआ।
इस
करने और होने
में सारा फर्क
है। एक तो है
जब आप करते
हैं कुछ; सोचते
हैं, योजना
बनाते हैं, व्यवस्था
जुटाते हैं, फिर करने
में लगते हैं।
वह आपकी
अहंकार की ही यात्रा
है। और एक जब
आप खुले हैं; और जहां भी, जो भी जीवन
की धारा आपसे
करवा ले, करवा
ले। आप सिर्फ
तैयार हैं
बहने को। न
आपकी कोई मंजिल
है, न कोई
प्रयोजन है, न कोई आग्रह
है कि ऐसा हो।
फिर आपको कोई
दुखी भी नहीं
कर सकता, क्योंकि
जिसका कोई
आग्रह नहीं, उसे कोई
विफलता
उपलब्ध नहीं
होती। और जो
कहीं पहुंचना
ही नहीं चाहता
वह कहीं भी
पहुंच जाए, वहीं मंजिल
है। कहीं न भी
पहुंचे तो भी
मंजिल है।
उसकी मंजिल
उसके साथ ही
है। उसे कहीं
अब असफलता नहीं
हो सकती।
बुद्ध के जीवन
में कुछ हो
रहा है, वह हैपनिंग
है, डूइंग नहीं है। वह
होना है। वह
एक नैसर्गिक
प्रवाह है।
जिस दिन
चरित्र का
जन्म होता है
उसी दिन कर्ता
खो जाता है।
हमारा
तो मजा यह है
कि हम अपने
चरित्र के भी
कर्ता हैं। वह
भी हम कोशिश
कर-करके
आयोजित करते हैं।
उसे भी हम
बिठाते हैं।
जैसा मकान
बनाते हैं
एक-एक ईंट रख
कर,
ऐसा ही हम
अपना चरित्र
भी बनाते हैं।
लाओत्से
की चरित्र की
धारण सहजता की
धारणा है।
सारा जगत सहज
है। न तो चांदत्तारे
शोरगुल करते
हैं कि हम
कितनी मेहनत
उठा रहे हैं।
सूरज रोज सुबह
आकर आपके
दरवाजे पर
दस्तक भी नहीं
देता और कहता
भी नहीं कि कम
से कम धन्यवाद
तो दो! कितना
जगत का अंधकार
मिटा रहा हूं, और
कितने समय से
मिटा रहा हूं!
मैंने
एक कहानी सुनी
है कि एक बार
अंधकार ने
परमात्मा को
जाकर कहा कि
यह सूरज मेरे
पीछे क्यों
पड़ा है? आखिर
मैंने इसका
कुछ बिगाड़ा
नहीं। याद भी
नहीं आता कि
कभी मैंने कोई
नुकसान इसे
पहुंचाया हो।
और यह रोज
सुबह हाजिर
है! मैं रात भर
विश्राम भी
नहीं कर पाता;
इसके भय से
ही पीड़ित होता
हूं। सुबह फिर
हाजिर है, फिर
भाग-दौड़ शुरू
हो जाती है।
दिन भर भागता
हूं, रात
विश्राम
नहीं। आखिर यह
मेरे पीछे
क्यों पड़ा है?
तो
परमात्मा ने,
कहानी है कि
सूरज को
बुलाया और
पूछा कि तुम
अंधेरे के
पीछे क्यों
पड़े हो? सूरज
ने कहा, यह
अंधेरा कौन है?
इसे मैं
जानता ही
नहीं। इससे
मेरी कोई
मुलाकात ही अब
तक नहीं हुई।
आप उसे मेरे
सामने ही बुला
दें, ताकि
मैं उसे पहचान
लूं और फिर
कभी ऐसी भूल न
करूंगा।
वह अब
तक नहीं हो
सका;
क्योंकि
अंधेरे को
सूरज के सामने
कैसे लाया जाए!
कहते हैं, भगवान
सर्व
शक्तिशाली
है। हो नहीं
सकता। अंधेरे
को सूरज के
सामने वह भी
ला नहीं सकता।
वह बात वहीं
की वहीं फाइल
में पड़ी है।
वह मुकदमा हल
नहीं होता; वह होगा भी
नहीं।
जिस
सूरज को पता
ही नहीं कि
अंधेरा है, उसको
क्या अहंकार
होगा कि मैं
अंधेरे को
हटाता हूं।
सूरज अपने
स्वभाव से
प्रकाशित है।
अंधेरा अपने
स्वभाव से
भागा हुआ है।
ठीक
जीवन की धारा
में अपने को
छोड़ देने वाला
व्यक्ति--ताओ
को,
धर्म को
उपलब्ध
व्यक्ति--कुछ
करता नहीं; उससे जो
होता है, होता
है। फिर कुछ
बुरा भी नहीं
है और भला भी
नहीं है।
क्योंकि जब हम
करते हैं तब
बुरा और भला होता
है। फिर कोई
पुरस्कार और
हानि का सवाल
नहीं है। क्योंकि
हमने कुछ किया
नहीं है। और
जिस जीवन ने हमारे
भीतर से किया
है वही
पुरस्कार का
हिसाब रखे और
वही हानियों
का हिसाब रखे।
हम बीच से हट
गए। और जब
कर्तृत्व का
भाव खो जाता
है तो अस्मिता
नहीं रह जाती।
जहां अहंकार
नहीं है, वहां
ब्रह्म, वहां
परम ऊर्जा
प्रकट होती है।
"श्रेष्ठ
चरित्र वाला
मनुष्य कभी
कर्म नहीं करता।
या करता भी है
तो कभी किसी
बाह्य
प्रयोजन से
नहीं।'
या
करता भी है, यह
भी हमारे लिए
कहा गया है।
क्योंकि हमें
वह कर्म करता
हुआ दिखाई
पड़ेगा। हमें
दिखाई पड़ते हैं
कृष्ण; मानना
मुश्किल है कि
वे कर्म नहीं
करते। क्योंकि
ऐसा भी क्षण आ
जाता है कि
उन्होंने कहा
भी है कि मैं
अस्त्र नहीं
उठाऊंगा, शस्त्र
नहीं उठाऊंगा,
और फिर वे
सुदर्शन चक्र
हाथ में ले
लेते हैं। कर्म
में खड़े हुए
मालूम पड़ते
हैं। कहना
कठिन है कि
कर्म नहीं
करते। अपनी
तरफ से न करते
हों, हमारी
तरफ से तो
दिखाई पड़ता है
कर्म, काफी
दिखाई पड़ता
है।
जीसस
का कर्म काफी
दिखाई पड़ता
है। कितना ही
वे कहते हों, और
अपनी तरफ से
उनके लिए कर्म
न भी हो, लेकिन
हमने भी उनको
देखा है। तो
मंदिर में लोगों
ने उन्हें
देखा है कि
उन्होंने
ब्याज लेने वाले
लोगों के
तख्ते उलट दिए,
और हाथ में
एक कोड़ा
उठा लिया और
ब्याज लेने
वाले लोगों को
कोड़ों से
मार कर बाहर
निकाल दिया।
एक आदमी ने सैकड़ों
दुकानदारों
को खदेड़
दिया, यह
भी बड़ी हैरानी
की बात है।
निश्चित ही, वह आदमी
आदमी नहीं रहा
होगा उस क्षण
में, कोई
और विराट
शक्ति उसके
भीतर से काम
कर रही होगी।
तभी तो सारे
लोग डर गए, भयभीत
हो गए, भाग
गए। बदला लिया
उन्होंने
पीछे, लेकिन
उस क्षण में
एक जवान आदमी,
अकेला आदमी,
उसने लोगों
की दुकानें
उलट
दीं--सदियों
से दुकानें
वहां लगी
थीं--और कोई
उसे रोक न सका!
कोई बड़ी शक्ति
उसे पकड़े
होगी। लेकिन
फिर भी हमारे
लिए तो दिखाई
पड़ता है कि
कर्म हुआ; कोड़ा
हाथ में लिया,
लोगों को डरवाया, लोगों को
धक्का मारा, लोगों के
तख्ते उलटे।
कर्म साफ है।
तो
लाओत्से कहता
है,
या करता भी
है। क्योंकि
नहीं तो हमें
मुश्किल हो
जाएगा, हम
फौरन मान
लेंगे कि जो
ज्ञान को
उपलब्ध हो जाता
है वह कुछ भी
नहीं करता। और
हम उस घटना को
तो जानते नहीं,
जहां कर्म
सहज होता है; वह हमसे
अपरिचित है।
तो लाओत्से
कहता है, एक
बात ध्यान
रखना कि या
करता भी है तो
भी कभी किसी
बाह्य
प्रयोजन से
नहीं। उसका
कोई बाह्य प्रयोजन
नहीं होता।
कोई अंतर-उदभावना
होती है, लेकिन
बाह्य
प्रयोजन नहीं
होता।
अगर इस
बात को हम समझ
लें तो कृष्ण
के चरित्र में
जो एक उलझाव
है वह साफ हो
जाए। क्योंकि
कृष्ण ने वचन
दिया कि
शस्त्र नहीं
उठाएंगे, फिर
शस्त्र उठा
लिया। तो
हमारे लिए तो
बात बड़ी गड़बड़
हो गई। यह तो
आदमी वचन का
भी मालूम नहीं
होता। इसका
भरोसा ही नहीं
किया जा सकता।
इसके आश्वासन
का क्या मूल्य
है? और
जिसके
आश्वासन में
वचन का मूल्य
न हो उसको पूर्ण
अवतार कहने
वाले हिंदू
पागल मालूम
होते हैं। और
जब कृष्ण की
यह अवस्था है
तो फिर बाकी
हिंदुओं की
क्या हालत
होगी? बड़ी
कठिन बात है।
कृष्ण ने वचन
दिया है, फिर
शस्त्र कैसे
उठा लिया?
अगर इस
सूत्र को हम
समझें तो खयाल
में आ जाएगा।
वचन देना एक
परिस्थिति की
सहज उदभावना
है। जब वचन
दिया है, तब
परिस्थिति और
है। उस
परिस्थिति
में यही फूल
खिला कि वचन
कृष्ण ने
दिया। अपनी
तरफ से देते
तो वे सोच कर
देते कि देना
कि नहीं देना।
क्योंकि कल
परिस्थिति बदल
सकती है, और
मैं वचन का
आदमी हूं। तो
अगर वे देते
तो भी लीगल
ढंग से देते, उसमें कुछ
शर्त रखते। वे
कहते, यदि
ऐसा हुआ, यदि
ऐसा न हुआ।
तो आप
जैसा देखते
हैं न, जब वकील डाक्यूमेंट
लिखता है तो
उसको इतना
लंबा लिखना
पड़ता है, एक
बात को कहने
के लिए वह कोई
पचास लाइन का
उपयोग करता
है। वह इसीलिए
कि उसमें जगह
है; उसमें
पच्चीस जगह
बनाता है। कल
स्थिति बदल जाएगी।
तो इसमें जगह,
इसमें
छिद्र होने
चाहिए, जिनसे
उपाय किया जा
सके, और
कोई यह न कहे
कि आपने वचन
तोड़ दिया। वचन
ही इस ढंग से
देना है कि
उसको तोड़ने का
उपाय उसके भीतर
रहे। लीगल
डाक्यूमेंट
में यह जरूरी
है।
लेकिन
कृष्ण ने सीधा
कह दिया कि
हां,
मैं शस्त्र
न उठाऊंगा। यह
वचन किसी
कानूनी आदमी
का वचन नहीं
है। यह एक
साधु का वचन
है, जिसको
न भविष्य का
विचार है, न
अतीत का हिसाब
है। जो चालाक
नहीं है। यह
एक भोले आदमी
का, एक
बच्चे का, एक
सरलता से
निकला हुआ वचन
है कि हां, नहीं
उठाऊंगा। इसे
कुछ पता नहीं
है कि जो इससे
वचन ले रहे
हैं वे चालबाज
हैं, जो
इससे वचन ले
रहे हैं वे
होशियार हैं,
वे कुशल हैं,
जो इससे वचन
ले रहे हैं वे
इसे बांधने की
कोशिश कर रहे
हैं, वे
इसके हाथ-पैर
बांध देना
चाहते हैं। कृष्ण
को इसका कुछ
पता नहीं है।
उन्होंने वचन दे
दिया। और फिर
एक घड़ी आई, तब
उन्होंने
शस्त्र भी उठा
लिया। अब नीतिशास्त्री
को बड़ी अड़चन
है कि कृष्ण
को कैसे
बिठाया जाए। वचन
टूट गया। यह
आदमी धोखेबाज
है।
मुझे
इसमें जरा भी
धोखा नहीं
मालूम पड़ता।
यह आदमी
धोखेबाज होता
तो पहली बात
वचन न देता।
यह आदमी
धोखेबाज होता
तो वचन इस ढंग
से देता कि
तोड़ने की
सुविधा रखता।
यह आदमी इतना
सरल है कि वचन
भी दे दिया और वक्त
आया तो तोड़ भी
दिया। और इसको
कोई अड़चन न मालूम
पड़ी। एक दूसरी
परिस्थिति
में यही स्वाभाविक
लगा कि शस्त्र
हाथ में उठा
लिया जाए। ये
दो अलग क्षण
हैं। चालाक
आदमी दोनों को
साथ जोड़ कर
सोचता है; सरल
आदमी
क्षण-क्षण में
जीता है। उसके
क्षणों के बीच
जोड़ नहीं होता;
सिवाय उसकी
सहजता के और
कोई कंटिन्यूटी,
और कोई
सातत्य नहीं
होता। इसलिए
कृष्ण मुझे अनूठी
सरलता के आदमी
मालूम पड़ते
हैं। आपके दूसरे
महात्मागण
उतने सरल नहीं
हैं, बड़े
चालाक हैं। वे
बड़े दूर का
हिसाब रखते
हैं। उनको
परमात्मा भी
जब पूछेगा तो
उनको फांस न पाएगा।
वे सब कानूनन
ढंग से चलते
हैं। लेकिन कृष्ण
बिलकुल सरल
हैं।
यह
सरलता ऐसी है
जैसे बच्चे की
है। अभी प्रेम
कर रहा है
आपको और क्षण
भर बाद आग हो
गया और आपकी
जान लेने को
तैयार है, और
क्षण भर बाद
शांत हो गया
और फिर आपकी
गोदी में आकर
बैठ गया। आप
कभी बच्चे को
नहीं कहते कि धोखेबाज
है। अभी क्षण
भर पहले तू कह
रहा था कि दुश्मनी
है, और अभी
क्षण भर बाद
दोस्ती! लेकिन
आप बच्चे को कभी
धोखेबाज नहीं
कहते, क्योंकि
आप जानते हैं
वह सहज है।
धोखा आप दे सकते
हैं; वह
नहीं दे सकता।
हर क्षण में
वह सच्चा है।
और दो क्षणों
का हिसाब नहीं
है। क्योंकि
वह चालाक आदमी
का गणित है।
क्षण-क्षण में
सच्चा है, और
क्षण के प्रति
जो सचाई है वह
प्रकट कर रहा
है।
एक
क्षण है जहां
कृष्ण कहते
हैं कि हां, शस्त्र
नहीं
उठाऊंगा। और
एक क्षण है जब
वे शस्त्र
उठाते हैं। इन
दोनों क्षणों
में हमारे लिए
हिसाब है, कृष्ण
के लिए सिर्फ
एक ही सहजता
है। उस क्षण में
यही सहज था; इस क्षण में
यही सहज है।
और इन दोनों
में कोई कंट्राडिक्शन,
कोई विरोध
नहीं है। लेकिन
हमें विरोध
दिखाई पड़ता
है। और जिस
दिन आपको
विरोध न दिखाई
पड़े, समझना
कि आप में भी
चरित्र का
जन्म हुआ है।
और जब तक
विरोध दिखाई
पड़े तब तक
समझना कि आपका
चरित्र हिसाब
है।
लेकिन
हिंदू भी
कृष्ण को ठीक
से समझा नहीं
पाते। उनको भी
अड़चन है।
क्योंकि उनके
पास भी बुद्धि
तो नैतिक
चरित्र की है।
और जब दूसरे
धर्मों के लोग
कृष्ण पर
आक्षेप उठाते
हैं तो हिंदू विचारक
को टालमटोल
करनी पड़ती है।
फिर उसे कुछ बातें
जबरदस्ती
प्रस्तावित
करनी पड़ती
हैं। या तो वह
कहता है कि यह
अवतार का
चरित्र है, अबूझ
है। अबूझ
बिलकुल नहीं
है, सीधा-साफ
है। चरित्र का
जरा भी रहस्य
नहीं है
इसमें। यह सीधी-साफ
बात है। एक
बच्चे जैसा
चरित्र है, इनोसेंट। इसमें
क्या अबूझ है?
लेकिन वे
कहते हैं, अवतार
का जीवन तो
समझा नहीं जा
सकता; वह
बड़ा
रहस्यपूर्ण
है। उन्होंने
किसी मतलब से
उठाया होगा जो
हमें पता नहीं
है।
उन्होंने
बिलकुल मतलब
से नहीं
उठाया। अगर
मतलब से उठाया
है तो वे
चरित्र के
व्यक्ति ही
नहीं हैं; फिर
प्रयोजन है।
सुदर्शन उठ
गया है। इसे
कृष्ण ने
उठाया नहीं
है। इसमें जरा
भी सोच-विचार
नहीं है।
सोचने में और
कृत्य में जरा
सा भी फासला
नहीं है।
आपके
कृत्य में और
आपके विचार
में फासला
होता है। आप
पहले सोचते
हैं,
फिर करते
हैं। या कभी
आप कर लेते
हैं तो फिर पीछे
बहुत पछताते
हैं कि सोचा
क्यों नहीं!
सोच लेते तो
ऐसा कभी न
होता। आपका
सोच-विचार और
आपका कृत्य
बड़े फासले पर
हैं। कृष्ण का
कृत्य ही उनकी
चेतना है।
उसमें कहीं
कोई सोच-विचार
नहीं है। जो
हो गया है, वह
उनकी
परिपूर्णता
से हो गया है।
न तो इसे सोचा
है; न इसके
पीछे वे
सोचेंगे।
इसलिए
कृष्ण के जीवन
में कोई
पश्चात्ताप
नहीं है। न
कोई पूर्व
योजना है, न
कोई
पश्चात्ताप
है। कृत्यों
की एक शृंखला
है। और कृष्ण
हर क्षण में
सच्चे हैं। और
एक क्षण
उन्हें दूसरे
क्षण के लिए
बांध नहीं
पाता। अतीत
बंधन नहीं है;
उनकी
ईमानदारी हर
क्षण में सहज
प्रवाहित है। जीवन
जहां ले जाए, वे जाने को
तैयार हैं।
चूंकि मैंने
कभी ऐसा कहा
था, इसलिए
जीवन की धारा
को वे न मोड़ेंगे।
वे कहेंगे, उस क्षण
जीवन की धारा
पूरब की तरफ
बहती थी और अब
उसने एक मोड़
लिया और
पश्चिम की तरफ
बहने लगी।
आप नदी
से नहीं कहते
जाकर--या गंगा
से कहते हैं जाकर--कि
तेरी चाल ठीक
नहीं है, तेरा
चाल-चलन ठीक
नहीं है; कभी
इस तरफ, कभी
उस तरफ। अगर
तुझे सीधा
सागर ही जाना
है तो स्ट्रेट,
सीधा जाना
चाहिए! कभी
देखते हैं कि
तू इस तरफ बह
रही है, कभी
देखते हैं उस
तरफ बह रही है;
तेरी चाल से
पक्का पता
नहीं चलता कि
तेरी दिशा
क्या है।
न, गंगा
को कोई भी
नहीं कहेगा कि
तू धोखेबाज
है। जहां धारा
जाती है, जहां
गङ्ढ मिल
जाता, जहां
द्वार मिल
जाता, जहां
राह बन जाती, नदी वहां
बहती चली जाती
है। कभी पूरब
भी मुड़ती
है, कभी
पश्चिम भी मुड़ती
है। कई धाराओं
में कई दफे
मोड़ लेती है, सागर पहुंच
जाती है। सागर
पहुंचना
लक्ष्य भी नहीं
है, यह सहज
स्वभाव की
अंतिम परिणति
है। कोई ऐसा
झंडा लेकर
नहीं चली है
गंगा कि सागर
पहुंच कर रहेंगे!
कि नहीं
पहुंचे तो
जीवन बेकार
है! कि पहुंच
गए तो कोई बड़ा
उत्सव मनाना है!
जैसे सागर की
तरफ बहती हुई
नदी की सहज
धारा है ऐसे
ही स्वभाव को
उपलब्ध
व्यक्ति की
जीवन की सहज
धारा होती है।
"श्रेष्ठ
चरित्र वाला
मनुष्य कभी
कर्म नहीं करता;
या करता भी
है तो किसी
बाह्य
प्रयोजन से
नहीं।'
वह जो भी
करता है, उसकी
अंतर्भावना
से, बाह्य
प्रयोजन से
नहीं। उसके
कर्म बाहर से
खींचे हुए
नहीं हैं, भीतर
से आविर्भूत
हैं।
"घटिया
चरित्र वाला
व्यक्ति कर्म
करता है; और
ऐसा सदा किसी
बाह्य
प्रयोजन से
करता है।'
घटिया
चरित्र वाला
व्यक्ति
हमेशा कर्ता
बना रहता है, और
जो भी वह करता
है उसमें नजर
रखता है कि
बाहर क्या हो
रहा है। भीतर
क्या हो रहा
है, इसकी
उसे फिक्र ही
नहीं है। और
भीतर से ही
जीवन का संबंध
है; बाहर
तो सब नाटक है,
खेल है।
घटिया चरित्र
वाला व्यक्ति
खेल को बड़ा
मूल्य दे देता
है। वह सदा
देखता है:
बाहर क्या हो
रहा है, बाहर
क्या परिणाम
होगा; मैं
ऐसा करूंगा तो
ऐसा होगा; मैं
ऐसा करूंगा तो
ऐसा होगा।
घटिया
चरित्र वाला
व्यक्ति
शतरंज के खिलाड़ी
की तरह है। वह
पांच चालें
आगे की सोच कर
रखता है कि
अगर मैं ऐसा
चलूंगा तो
दूसरा क्या
करेगा, फिर
मैं ऐसा
करूंगा तो
दूसरा क्या
करेगा। शतरंज
के जो बड़े खिलाड़ी
हैं, अंतर्राष्ट्रीय,
वे कहते हैं
कि जो व्यक्ति
पांच चालें एक
साथ सोच लेता
है, वही
शतरंज में जीत
पाता है। पांच
चालों का हिसाब
दिमाग में
होना
चाहिए--कम से
कम। ज्यादा का
हो सके, तब
तो फिर उतनी
कुशलता बढ़ती
जाएगी। घटिया
चरित्र वाला
व्यक्ति जीवन
को शतरंज का
खेल समझ रहा
है। वह अपनी
पत्नी से भी
बोलता है तो
पहले से सोच
लेता है कि मैं
यह कहूंगा तो
पत्नी क्या
कहेगी, उसका
उत्तर क्या
देना है। उसके
लिए जिंदगी एक
अदालत है, आनंद
नहीं है। वह
पूरे वक्त लगा
हुआ है कि कौन...मैं
ऐसा कहूं, इसका
यह परिणाम होगा।
वह परिणाम को
पहले से सोच
कर, फिर
कदम उठाता है।
इसको
हम बुद्धिमान
आदमी कहते
हैं। इससे
ज्यादा
बुद्धू आदमी
खोजना
मुश्किल है।
क्योंकि वह
भला बाहर कुछ
लाभ पा ले, लेकिन
वह जो गंवा
रहा है उसका
उसे कोई पता
ही नहीं है।
"श्रेष्ठ
दया वाला
मनुष्य कर्म
करता है, लेकिन
ऐसा वह बाह्य
प्रयोजन से
नहीं करता।
श्रेष्ठ
न्याय वाला
मनुष्य कर्म
करता है, और
ऐसा वह बाह्य
प्रयोजन से
करता है।'
इसलिए
दया धर्म है, और
न्याय नीति
है। न्याय
सामाजिक है, दया आंतरिक
है। जब आप दया
करते हैं तो
जरूरी नहीं है
कि आप न्याय
पर ध्यान
रखें। सच तो
यह है, न्याय
पर ध्यान रखें
तो दया हो ही
नहीं सकती।
जीसस
ने एक कहानी
कही है। एक
धनपति ने अपने
अंगूर के बगीचे
में कुछ लोग
काम करने
बुलाए। कुछ
सुबह आए; कुछ
को दोपहर खबर
मिली, वे
दोपहर आए; कुछ
को शाम खबर
मिली, वे
शाम आए; कुछ
तो तब आए जब कि
काम बंद होने
जा रहा था।
जैसे-जैसे खबर
मिली, लोग
आते गए। और
सांझ को उस
धनपति ने सभी
को बराबर
पुरस्कार
दिया। लोग बड़े
नाराज हो गए
जो सुबह से आए
थे। उन्होंने
कहा, यह
अन्याय है! हम
सुबह से जीत्तोड़
मेहनत कर रहे
हैं; कुछ
लोग दोपहर आए,
उनको भी
उतना; कुछ
सांझ आए, उनको
भी उतना; कुछ
अभी आए ही हैं,
उन्होंने
कुछ किया ही
नहीं, उनको
भी उतना; यह
कैसा अन्याय
है!
उस
धनपति ने कहा, मैं
न्याय से नहीं
देता, मैं
दया से देता
हूं। तुम आए
सुबह, तुम्हें
मैंने जो दिया
है, तुम
मुझे कहो, तुमने
जितना श्रम
किया उससे
क्या कम है? उन्होंने
कहा, उससे
तो कम नहीं है।
तो धनपति ने
कहा, तुम
प्रसन्न होकर
घर जाओ। लेकिन
उन्होंने कहा,
वह तो ठीक
है, लेकिन
ये जो अभी आए? धनपति ने
कहा, उनसे
तुम्हारा कोई
प्रयोजन नहीं
है। धन मेरा है,
मैं लुटाता
हूं। तुमने
जितना श्रम
किया, तुम्हें
मिल गया; उससे
ज्यादा मिल
गया है। लेकिन
फिर भी वे लोग
कहते गए कि
अन्याय हुआ।
जीसस
कहते हैं, परमात्मा
भी, तुम
क्या करते हो,
उस हिसाब से
नहीं देगा।
तुम आए, यही
काफी है। उस
धनपति ने दिया
कि तुम आए, यही
काफी है।
तुम्हारी
मंशा तो पूरी
थी काम करने
की, समय
चुक गया; इसमें
तुम्हारा
क्या कसूर? तुम्हें जब
खबर मिली, तब
तुम आए। इससे
क्या फर्क
पड़ता है? किन्हीं
को खबर सुबह
मिल गई, वे
जरा जल्दी आ
गए।
कुछ
चरित्रवान
आपसे पहले हो
गए हैं, आप
थोड़ी बाद में
हुए। ऐसा मत
सोचना कि
परमात्मा
कहेगा कि यह
महात्मा काफी
पुराना है, और तुम तो
अभी-अभी हुए
थे। जीसस की
कहानी बड़ी अर्थपूर्ण
है। परमात्मा
अपनी दया से
देगा, प्रेम
से देगा, अंतर्भाव
से देगा। उसके
पास है, इसलिए
देगा। तुम आए,
इतना काफी
है। तुमने
सुना, और
जब तुमने सुना
तभी तुम आ गए, इतना काफी
है।
श्रेष्ठ
दया वाला
मनुष्य कर्म
करता है, लेकिन
किसी बाह्य
प्रयोजन से
नहीं, अंतर्भाव
से। तुम्हारे
पास है, इसलिए
तुम देते हो।
किसी को जरूरत
है, इसलिए
नहीं। एक
भिखारी को तुम
देते हो। दो
कारण हो सकते
हैं। भिखारी
को जरूरत है, इसलिए। तब
तुम
न्यायपूर्ण
आदमी हो, लेकिन
तुम्हारा
कृत्य बाहरी
है। तुम इसलिए
देते हो कि
तुम्हारे पास
ज्यादा है। तब
तुम दयावान हो,
तुम्हारा
कृत्य आंतरिक
है। और दोनों
कृत्यों का
गुणधर्म
बिलकुल अलग
है। जब तुम
किसी को देते
हो इसलिए कि
उसके पास नहीं
है, तब तुम
किसी से छीन
भी सकते हो, क्योंकि
उसके पास
ज्यादा है।
तुम खतरनाक भी
हो सकते हो।
तुम भिखारी को
दे सकते हो, धनपति से
छीन सकते हो।
कम्युनिस्ट
न्यायपूर्ण
हैं। उनके
न्याय में कोई
शक नहीं है।
दया बिलकुल
नहीं है, न्याय
पूरा है।
माक्र्स कहता
है, जिनके
पास है उनसे छीनो और
उन्हें दो
जिनके पास
नहीं है।
इसमें कहां गलती
है? न्यायपूर्ण
है। लेकिन दया
बिलकुल नहीं
है। दया इसलिए
नहीं देती कि
उसके पास नहीं
है। दया का
मूल प्रयोजन
और ही
है--क्योंकि
मेरे पास है
और इतना
ज्यादा है।
जब तुम
किसी गरीब को
इसलिए देते हो
कि उसके पास
नहीं है, तब
तुम चाहोगे कि
वह तुम्हें
धन्यवाद दे।
न्याय
धन्यवाद मांगेगा।
न्याय चाहेगा
कि वह आभारी
हो। लेकिन जब
तुम इसलिए
देते हो कि तुम्हारे
पास इतना
ज्यादा है कि
तुम क्या करो
अगर न दो, तब
तुम उससे
धन्यवाद न
मांगोगे।
बल्कि तुम उसे
धन्यवाद दोगे
कि तूने मुझे
मेरे बोझ से
हलका किया; तू राजी हुआ
लेने को।
क्योंकि तू न
भी कर सकता था।
देना आसान है,
लेकिन अगर
लेने वाला न
ले तो! लेने
वाला इनकार कर
सकता है। और
तब आपका सारा
धन निर्धनता
मालूम पड़ेगी।
तूने स्वीकार
किया, इसलिए
मैं अनुगृहीत
हूं।
इस
मुल्क में हम
साधु को
भिक्षा देते
हैं। और जब वह
भिक्षा ले
लेता है तो
उसको दक्षिणा
देते हैं।
दक्षिणा
इसलिए कि तूने
भिक्षा
स्वीकार की; वह
धन्यवाद है।
वह साधु धन्यवाद
नहीं दे रहा
है; धन्यवाद
गृहस्थ दे रहा
है कि तेरी
कृपा, अनुग्रह
कि तूने
स्वीकार
किया। भिक्षा
स्वीकार कर ली,
अब यह
दक्षिणा है, यह धन्यवाद
है। इनकार भी
किया जा सकता
था। तो साधु
को हम इसलिए
नहीं दे रहे
हैं कि उसके
पास नहीं है; हम इसलिए दे
रहे हैं कि
हमारे पास
बहुत है और हम
किसी को
भागीदार
बनाना चाहते
हैं, कोई
शेयर करे।
तो दया
वाला व्यक्ति
कर्म नहीं
करता, और उसका
कोई बाह्य
प्रयोजन नहीं
है। लेकिन न्याय
वाला व्यक्ति
कर्म करता है,
और ऐसा वह
बाह्य
प्रयोजन से
करता है। और
न्याय से भी
नीचे गिरे हुए
व्यक्ति का
अस्तित्व है।
उसको
लाओत्से कहता
है,
"कर्मकांड
वाला मनुष्य
कर्म करता है,
बाह्य
प्रयोजन से
करता है। और
अगर
प्रत्युत्तर
नहीं पाता, तब वह अपनी
आस्तीन चढ़ा कर
दूसरों पर
कर्मकांड लादने
की ज्यादती भी
करता है।'
ये तीन
तरह के मनुष्य
हैं। एक, धर्म
को उपलब्ध, वह इसलिए करता
है क्योंकि
उसके पास इतना
ज्यादा है कि
वह बांटता है।
दूसरा
न्यायपूर्ण, वह इसलिए
करता है कि
कहीं जरूरत है,
कोई बाह्य
प्रयोजन है, जिसे पूरा
करना है। और
तीसरा
कर्मकांड
वाला व्यक्ति;
वह न केवल
करता है बाह्य
प्रयोजन से, लेकिन अगर
आप न करने दें
उसे तो वह
जबरदस्ती भी
करेगा, लेकिन
करके रहेगा।
यह
आपकी समझ में
नहीं आएगा, इसमें
हम बहुत से
लोग ऐसा कर
रहे हैं। आप
कई बार अच्छा
करने में बुरे
सिद्ध होते
हैं, क्योंकि
आप अपने को
इतना सही मान
कर बैठे हुए हैं
और आपका
अहंकार इतना
मजबूत हो गया
है कि अगर
आपको दूसरे को
चोट और नुकसान
भी पहुंचाना
पड़े तो भी आप
दया करके
रहेंगे, आप
दया नहीं छोड़
सकते। अब जैसे
समझें।
मुसलमानों ने
हिंदुस्तान
में न मालूम
कितने मंदिर तोड़
डाले, कितनी
मूर्तियां
गिरा दीं इन
हजार सालों
में।
उन्होंने किस
कारण ऐसा किया?
वह तीसरी
कोटि का
कर्मकांड
वाला
व्यक्तित्व।
मुसलमान
मानता है कि
परमात्मा की
कोई प्रतिमा
नहीं है। इस
मानने में जरा
भी बुराई नहीं
है। एकदम सही
है बात। लेकिन
जब पागल इस
बात को मान
लेता है कि
परमात्मा की
कोई प्रतिमा
नहीं है तो वह
समझाने तक ही
राजी नहीं
रहेगा, अगर
आप न समझे तो
आस्तीन चढ़ा
लेगा। अगर आप
फिर भी न माने
तो आपको ठीक
करने के लिए
तलवार भी उठा
लेगा वह। आपकी
मूर्ति तोड़ कर
रहेगा। अच्छा
करने की
आतुरता इतनी
ज्यादा है कि
अगर बुराई भी
करना पड़े उस
अच्छा करने के
लिए तो भी वह
करेगा।
इसलिए
दुनिया में
धर्म के नाम
पर जितने पाप
होते हैं, और
किसी चीज के
नाम पर नहीं
होते।
क्योंकि
अच्छा करने का
इतना भाव रहता
है कि फिर
बुराई बुराई
नहीं दिखाई
पड़ती और लगता
है यह तो हम
अच्छा करने के
लिए कर रहे
हैं। जब आप
अपने छोटे
बच्चे को
चांटा मारते
हैं तब आप यही
कहते हैं कि
तेरी भलाई के
लिए हमें ऐसा
करना पड़ रहा
है। चांटा मार
रहे हैं आप, और तेरी
भलाई के लिए!
और बड़ा मजा यह
है कि हो सकता
है, आप
इसलिए मार रहे
हों कि उस
बच्चे ने और
छोटे बच्चे को
पीटा है। और
आप कहते हैं
कि हजार दफे कह
दिया है कि
मार-पीट नहीं
होनी चाहिए।
और पिटाई कर
रहे हैं।
बच्चे
की समझ में
बिलकुल नहीं
आता कि यह किस
जगत का काम हो
रहा है। जिस
कसूर के लिए
उसको मारा जा
रहा है, वही
कसूर है। और
बाप बेटे से
कह रहा है, अपने
से छोटे को
नहीं मारना
चाहिए! और बाप
बेटे को मार
रहा है। वह
अपने से छोटा
है। इसलिए बच्चे
बड़े
कनफ्यूज्ड हो
जाते हैं, आपके
साथ बढ़ते-बढ़ते
करीब-करीब
उनका दिमाग खराब
हो जाता है।
उनकी समझ के
बाहर हो जाता
है कि क्या हो
रहा है! नियम
क्या है यहां,
कुछ समझ में
नहीं आता। अगर
छोटे को नहीं
मारना है तो
मुझे क्यों
मारा जा रहा
है? अगर
छोटे को मारना
पाप है तो फिर
मुझे मारने से
रुकना चाहिए।
लेकिन आप उसके
भले के लिए ही
मार रहे हैं।
ऐसा नहीं कि
आपके मारने से
वह छोटे को
मारने से रुक
जाएगा। वह भी
उसके भले के
लिए ही उसको...।
बस इतना ही
शिक्षा का
परिणाम होने
वाला है।
ये तीन
तरह के मनुष्य
हैं और आप खोज
लेना कि आप किस
तरह के मनुष्य
हैं। क्योंकि
मन की सदा यह इच्छा
होती है कि जब
भी इस तरह का
कोई विचार
सुने तो
दूसरों के
बाबत सोचे कि
अच्छा, तो
ठीक फलां आदमी
इस तरह का
मनुष्य है।
नहीं, यह
दूसरों से
इसका कोई
संबंध नहीं
है। लाओत्से
आपसे बात कर
रहा है। और
मैं भी आपसे
बात कर रहा
हूं। आप अपने
लिए सोचना कि
आप तीन में
किस तरह के
मनुष्य हैं।
सौ में नब्बे
मौके तो इसी
बात के हैं कि
आप तीसरी तरह के
मनुष्य
हों--कर्मकांड
वाला मनुष्य।
सौ में नौ
मौके इस बात
के हैं कि आप
दूसरी तरह के
मनुष्य
हों--न्याय, नीति
वाला मनुष्य।
सौ में एक ही
मौका है कि आप उस
तरह के मनुष्य
हों जैसा कि
मनुष्य होना
चाहिए--धर्म
वाला, ताओ
वाला मनुष्य।
वह
अपने लिए
सोचना। और
पहले तरह के
मनुष्य होने
की तरफ ध्यान
सजग रहे, तो
कठिनाई तो है
वहां तक
पहुंचने में,
लेकिन
असंभावना
नहीं है।
आज
इतना ही।
पांच
मिनट रुकेंगे, कीर्तन
के बाद जाएं।
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