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सोमवार, 10 नवंबर 2014

महावीर वाणी (भाग--2) प्रवचन--05

ये चार शत्रु—(प्रवचन—पांचवां) 

दिनांक 17 सितम्बर, 1972;
द्वितीय पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर हाल, बम्बई

कषाय-सूत्र:

कोहो य माणो य अणिग्गहीया,
माया य लोभो य पवङ्ढमाणा।
चत्तारि एए कसिणा कसाया,
सिंचन्ति भूलाइं पुण्णब्भवस्स।।
पुढवी साली जवा चेव,
हिरण्णं पसुभिस्सह।
पडिपुण्णं नालमेगस्स,
इह विज्जा तवंचरे।।

अनिगृहित क्रोध और मान तथा बढ़ते हुए माया और लोभ, ये चारों काले कुत्सित कषाय पुनर्जन्मरूपी संसार-वृक्ष की जड़ों को सींचते रहते हैं।
चावल और जौ आदि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथ्वी भी लोभी मनुष्य को तृप्त कर सकने में असमर्थ है, यह जानकर संयम का ही आचरण करना चाहिए।


सूत्र के पूर्व कुछ प्रश्न।

महावीर ने अप्रमाद को साधना का आधार कहा है, होश को, सतत जागृति को। एक मित्र ने पूछा है कि जो होश के बारे में कहा गया है वह हम अपने काम-काज में, आफिस में, दुकान में कार्य करते समय कैसे आचरण में लायें? होश में रहने पर ध्यान जाये तो काम कैसे हो? काम में होते हुए होश का क्या स्थान और साधना हो सकती है?
दो तीन बातें खयाल में लेनी चाहिए।
एक-- होश कोई अलग प्रक्रिया नहीं है। आप भोजन कर रहे हैं, तो होश कोई अलग प्रक्रिया नहीं है कि भोजन करने में बाधा डाले। जैसे मैं आपसे कहूं कि भोजन करें और दौड़ें। तो दोनों में से एक ही हो सकेगा, दौड़ना या भोजन करना। आपसे मैं कहूं कि दफतर जायें, तब सोयें, तो दोनों में से एक ही हो सकेगा, सोयें या दफतर जायें।
होश कोई प्रतियोगी प्रक्रिया नहीं है। भोजन कर सकते हैं, होश को रखते हुए या बेहोशी में। होश भोजन के करने में बाधा नहीं बनेगा। होश का अर्थ इतना ही है कि भोजन करते समय मन कहीं और न जाये, भोजन करने में ही हो। मन कहीं और चला जाये तो भोजन बेहोशी में हो जायेगा। आप भोजन कर रहे हैं, और मन दफतर में चला गया। शरीर भोजन की टेबल पर, मन दफतर में, तो न तो दफतर में हैं आप, क्योंकि वहां आप हैं नहीं, और न भोजन की टेबल पर हैं आप, क्योंकि मन वहां नहीं रहा। तो वह जो भोजन कर रहे हैं, वह बेहोश है, आपके बिना हो रहा है।
इस बेहोशी को तोड़ने की प्रक्रिया है होश, भोजन करते वक्त मन भोजन में ही हो, कहीं और न जाये। सारा जगत जैसे मिट गया, सिर्फ यह छोटा-सा काम भोजन करने का रह गया। पूरी चेतना इसके सामने है। एक कौर भी आप बनाते हैं, उठाते हैं, मुंह में ले जाते हैं, चबाते हैं, तो यह सारा होशपूर्वक हो रहा है। आपका सारा ध्यान भोजन करने में ही है, इस फर्क को आप ठीक से समझ लें।
अगर मैं आपसे कहूं कि भोजन करते वक्त राम-राम जपें, तो दो क्रियाएं हो जायेंगी। राम-राम जपेंगे तो भोजन से ध्यान हटेगा। भोजन पर ध्यान लायेंगे तो राम-राम का ध्यान टूटेगा। मैं आपको कहीं और ध्यान ले जाने को नहीं कह रहा हूं, जो आप कर रहे हैं उसको ही ध्यान बना लें। इससे आपके किसी काम में बाधा नहीं पड़ेगी, बल्कि सहयोग बनेगा। क्योंकि जितने ध्यानपूर्वक काम किया जाये, उतना कुशल हो जाता है।
काम की कुशलता ध्यान पर निर्भर है। अगर आप अपने दफतर में ध्यानपूर्वक कर रहे हैं, जो भी कर रहे हैं तो आपकी कुशलता बढ़ेगी, क्षमता बढ़ेगी, काम की मात्रा बढ़ेगी और आप थकेंगे नहीं। और आपकी शक्ति बचेगी। और आप दफतर से भी ऐसे वापस लौटेंगे जैसे ताजे लौट रहे हैं। क्योंकि जब शरीर कुछ और करता है, मन कुछ और करता है तो दोनों के बीच तनाव पैदा होता है। वही तनाव थकान है। आप होते हैं दफतर में, मन होता है सिनेमागृह में। आप होते हैं सिनेमा में, मन होता है घर पर, तो मन और शरीर के बीच जो फासला है वह तनाव ही आपको थकाता है और तोड़ता है।
जब आप जहां होते हैं वहीं मन होता है। इसलिए आप देखें, जब आप कोई खेल-खेल रहे होते हैं तो आप ताजे होकर लौटते हैं। खेल में शक्ति लगती है, लेकिन खेल के बाद आप ताजे होकर लौटते हैं। बड़ी उल्टी बात मालूम पड़ती है। आप बेडमिंटन खेल रहे हैं कि आप कबड्डी खेल रहे हैं, या कुछ भी, या बच्चों के साथ बगीचे में दौड़ रहे हैं। शक्ति व्यय हो रही है, लेकिन इस दौड़ने के बाद आप ताजे होते हैं। और यही काम अगर आपको करना पड़े तो आप थकते हैं।
काम और खेल में एक ही फर्क है, खेल में पूरा ध्यान वहीं मौजूद होता है, काम में पूरा मौजूद नहीं होता। इसलिए अगर आप किसी को नौकरी पर रख लें खेलने के लिए, तो वह खेलने के बाद थककर जायेगा। क्योंकि वह फिर खेल नहीं है, काम है। और जो होशियार हैं, वे अपने काम को भी खेल बना लेते हैं। खेल का मतलब यह है कि आप जो भी कर रहे हैं, इतने ध्यान, इतनी तल्लीनता, इतने आनंद से डूबकर कर रहे हैं कि उस करने के बाहर कोई संसार नहीं बचा है। आप इस करने के बाहर ज्यादा ताजे, सशक्त लौटेंगे। और कुशलता बढ़ जायेगी।
जो भी हम ध्यान से करते हैं, उसकी कुशलता बढ़ जाती है। लेकिन, अनेक लोग ध्यान का मतलब समझते हैं, जोर जबर्दस्ती से की गयी एकाग्रता। तो आप थक जायेंगे। अगर आप जबर्दस्ती अपने को खींचकर किसी काम पर मन को लगाते हैं, तो आप थक जायेंगे। तब तो यह ध्यान भी एक काम हो गया। जो भी जबर्दस्ती किया जाता है, वह काम हो जाता है।
ध्यान को भी आनंद समझें। इसको भी बेचैनी मत बनायें। यह आपके सिर पर एक बोझ न हो जाये कि मुझे ध्यानपूर्वक ही काम करना है। इसको चेष्टा और प्रयत्न का बोझ न दें, हल्के-हल्के इसे विकसित होने दें, इसको सहारा दें। जब भी खयाल आ जाये, तो होशपूर्वक करें। भूल जाये, तो चिंता न लें। जब खयाल आ जाये, फिर होशपूर्वक करने लगें।
अगर आपने तय किया है कि अब मैं काम अपना होशपूर्वक करूंगा, तो आप कर पायेंगे आज ही, ऐसा नहीं है; वर्षों लग जायेंगे। क्षणभर भी होश रखना मुश्किल है। तय करेंगे कि होश पूर्वक चलूंगा, दो कदम नहीं उठा पायेंगे और होश कहीं और चला जायेगा, कदम, कहीं और चलने लगेंगे। उससे चिन्तित न हों, पश्चात्ताप न करें। लाखों-लाखों जीवन की आदत है बेहोशी की, इसलिए दुखी होने का कोई कारण नहीं है। हमने ही साधा है बेहोशी को, इसलिए किससे शिकायत करने जायें? और परेशान होने से कुछ हल नहीं होता।
जैसे ही खयाल आ जाये कि पैर बेहोशी में चलने लगे, मेरा ध्यान कहीं और चला गया था, आनंदपूर्वक फिर ध्यान को ले आयें। इसको पश्चात्ताप न बनायें। इससे मन में दुखी न हों, इससे पीड़ित न हों, इससे ऐसा न समझें कि यह अपने से न होगा। यह भी न समझें कि मैं तो बहुत दीन-हीन हूं, कमजोर हूं, मुझसे होनेवाला नहीं है। होता होगा महावीर से, अपने वश की बात नहीं है। बिलकुल न सोचें। महावीर भी शुरू करते हैं तो ऐसा ही होगा। कोई भी शुरू करता है तो ऐसा ही होता है। महावीर इस यात्रा का अंत हैं, प्रारम्भ पर वे भी आप जैसे हैं। अंत आपको दिखायी पड़ा है, महावीर के प्रारम्भ का आपको कोई पता नहीं है। प्रारम्भ में सभी के पैर डगमगाते हैं।
छोटा बच्चा चलना शुरू करता है, अगर वह आपको देख ले चलता हुआ, और सोचे कि यह अपने से न होगा। आप भी ऐसे ही चले थे, आपने भी ऐसे ही कदम उठाये थे और गिरे थे, और दो कदम उठाने के बाद बच्चा फिर चारों हाथ पैर से चलते लगता है, सोचकर कि यह अपने वश की बात नहीं। यह अब भूल ही जाता है कि दो कदम से चलना था, फिर चारों से घिसटने लगता है।
बढ़ेगी, क्षमता बढ़ेगी, काम की मात्रा बढ़ेगी और आप थकेंगे नहीं। और आपकी शक्ति बचेगी। और आप दफतर से भी ऐसे वापस लौटेंगे जैसे ताजे लौट रहे हैं। क्योंकि जब शरीर कुछ और करता है, मन कुछ और करता है तो दोनों के बीच तनाव पैदा होता है। वही तनाव थकान है। आप होते हैं दफतर में, मन होता है सिनेमागृह में। आप होते हैं सिनेमा में, मन होता है घर पर, तो मन और शरीर के बीच जो फासला है वह तनाव ही आपको थकाता है और तोड़ता है।
जब आप जहां होते हैं वहीं मन होता है। इसलिए आप देखें, जब आप कोई खेल-खेल रहे होते हैं तो आप ताजे होकर लौटते हैं। खेल में शक्ति लगती है, लेकिन खेल के बाद आप ताजे होकर लौटते हैं। बड़ी उल्टी बात मालूम पड़ती है। आप बेडमिंटन खेल रहे हैं कि आप कबड्डी खेल रहे हैं, या कुछ भी, या बच्चों के साथ बगीचे में दौड़ रहे हैं। शक्ति व्यय हो रही है, लेकिन इस दौड़ने के बाद आप ताजे होते हैं। और यही काम अगर आपको करना पड़े तो आप थकते हैं।
काम और खेल में एक ही फर्क है, खेल में पूरा ध्यान वहीं मौजूद होता है, काम में पूरा मौजूद नहीं होता। इसलिए अगर आप किसी को नौकरी पर रख लें खेलने के लिए, तो वह खेलने के बाद थककर जायेगा। क्योंकि वह फिर खेल नहीं है, काम है। और जो होशियार हैं, वे अपने काम को भी खेल बना लेते हैं। खेल का मतलब यह है कि आप जो भी कर रहे हैं, इतने ध्यान, इतनी तल्लीनता, इतने आनंद से डूबकर कर रहे हैं कि उस करने के बाहर कोई संसार नहीं बचा है। आप इस करने के बाहर ज्यादा ताजे, सशक्त लौटेंगे। और कुशलता बढ़ जायेगी।
जो भी हम ध्यान से करते हैं, उसकी कुशलता बढ़ जाती है। लेकिन, अनेक लोग ध्यान का मतलब समझते हैं, जोर जबर्दस्ती से की गयी एकाग्रता। तो आप थक जायेंगे। अगर आप जबर्दस्ती अपने को खींचकर किसी काम पर मन को लगाते हैं, तो आप थक जायेंगे। तब तो यह ध्यान भी एक काम हो गया। जो भी जबर्दस्ती किया जाता है, वह काम हो जाता है।
ध्यान को भी आनंद समझें। इसको भी बेचैनी मत बनायें। यह आपके सिर पर एक बोझ न हो जाये कि मुझे ध्यानपूर्वक ही काम करना है। इसको चेष्टा और प्रयत्न का बोझ न दें, हल्के-हल्के इसे विकसित होने दें, इसको सहारा दें। जब भी खयाल आ जाये, तो होशपूर्वक करें। भूल जाये, तो चिंता न लें। जब खयाल आ जाये, फिर होशपूर्वक करने लगें।
अगर आपने तय किया है कि अब मैं काम अपना होशपूर्वक करूंगा, तो आप कर पायेंगे आज ही, ऐसा नहीं है; वर्षों लग जायेंगे। क्षणभर भी होश रखना मुश्किल है। तय करेंगे कि होश पूर्वक चलूंगा, दो कदम नहीं उठा पायेंगे और होश कहीं और चला जायेगा, कदम, कहीं और चलने लगेंगे। उससे चिन्तित न हों, पश्चात्ताप न करें। लाखों-लाखों जीवन की आदत है बेहोशी की, इसलिए दुखी होने का कोई कारण नहीं है। हमने ही साधा है बेहोशी को, इसलिए किससे शिकायत करने जायें? और परेशान होने से कुछ हल नहीं होता।
जैसे ही खयाल आ जाये कि पैर बेहोशी में चलने लगे, मेरा ध्यान कहीं और चला गया था, आनंदपूर्वक फिर ध्यान को ले आयें। इसको पश्चात्ताप न बनायें। इससे मन में दुखी न हों, इससे पीड़ित न हों, इससे ऐसा न समझें कि यह अपने से न होगा। यह भी न समझें कि मैं तो बहुत दीन-हीन हूं, कमजोर हूं, मुझसे होनेवाला नहीं है। होता होगा महावीर से, अपने वश की बात नहीं है। बिलकुल न सोचें। महावीर भी शुरू करते हैं तो ऐसा ही होगा। कोई भी शुरू करता है तो ऐसा ही होता है। महावीर इस यात्रा का अंत हैं, प्रारम्भ पर वे भी आप जैसे हैं। अंत आपको दिखायी पड़ा है, महावीर के प्रारम्भ का आपको कोई पता नहीं है। प्रारम्भ में सभी के पैर डगमगाते हैं।
छोटा बच्चा चलना शुरू करता है, अगर वह आपको देख ले चलता हुआ, और सोचे कि यह अपने से न होगा। आप भी ऐसे ही चले थे, आपने भी ऐसे ही कदम उठाये थे और गिरे थे, और दो कदम उठाने के बाद बच्चा फिर चारों हाथ पैर से चलते लगता है, सोचकर कि यह अपने वश की बात नहीं। यह अब भूल ही जाता है कि दो कदम से चलना था, फिर चारों से घिसटने लगता है।
ठीक, प्रमाद को तोड़ने में भी ऐसा ही होगा। दो कदम आप होश में चलेंगे, फिर अचानक चार हाथ-पैर से आप बेहोशी में चलने लगेंगे। जैसे ही होश आ जाये, फिर खड़े हो जायें। चिंता मत लें इसकी कि बीच में होश क्यों खो गया। इस चिंता में समय और शक्ति खराब न करें। तत्काल होश को फिर से साधने लगें। अगर चौबीस घंटे में चौबीस क्षण भी होश सध जाये, तो आप महावीर हो जायेंगे। काफी है, इतना भी बहुत है। इससे ज्यादा की आशा मत रखें, अपेक्षा भी मत करें। चौबीस घंटे में अगर चौबीस क्षणों को भी होश आ जाये तो बहुत है। धीरे-धीरे क्षमता बढ़ती जायेगी। और वह जो बच्चा आज सोच रहा है कि अपने वश के बाहर है दो पैर से चलना, एक दिन वह दो पैर से चलेगा और कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा, कोई प्रयास नहीं रह जायेगा।
तो यह ध्यान रख लें, ध्यान को काम नहीं बना लेना है। नहीं तो बहुत से धार्मिक लोग ध्यान को ऐसा काम बना लेते हैं कि उनके सिर पर पत्थर रखा है। उसकी वजह से उनका क्रोध बढ़ जाता है। क्योंकि फिर जिससे भी उन्हें बाधा पड़ जाती है, उस पर वे क्रोधित हो जाते हैं। जो काम में उनका ध्यान नहीं टिकता, वह उस काम को छोड़कर भागना चाहते हैं। जिनके कारण असुविधा होती है, उनका त्याग करना चाहते हैं। यह सब क्रोध है। इस क्रोध से कोई हल नहीं होगा।
साधक को चाहिए धैर्य, और तब दुकान भी जंगल जैसी सहयोगी हो जाती है। साधक को चाहिए अनंत प्रतीक्षा, और तब घर भी किसी भी आश्रम से महत्वपूर्ण हो जाता है। निर्भर करता है आपके भीतर के धैर्य, प्रतीक्षा और सतत, सहज प्रयास पर। प्रयास तो करना ही होगा, लेकिन उस प्रयास को एक बोझिलता जो बनायेगा, वह हार जायेगा।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह प्रतीक्षा से, सहजता से, बिना बोझ बनाये प्रयास से उपलब्ध होता है। सच तो यह है कि हम कोई भी चीज आज भी कर सकते हैं, लेकिन अधैर्य ही हमारा बाधा बन जाता है। उससे उदासी आती है, निराशा आती है, हताशा पकड़ती है, और आदमी सोचता है, नहीं, यह अपने से न हो सकेगा। यह जो बार-बार हताशा पकड़ती है, यह अहंकार का लक्षण है।
आप अपने से बहुत अपेक्षा कर लेते हैं पहले, फिर उतनी पूरी नहीं होती। वह अपेक्षा आपका अहंकार है। एक क्षण भी होश सधता है तो बहुत है। एक क्षण जो सधता है, कल दो क्षण भी सध जायेगा। और ध्यान रहे, एक क्षण से ज्यादा तो आदमी के हाथ में कभी होता नहीं। दो क्षण तो किसी को इकट्ठे मिते नहीं। इसलिए दो क्षण की चिन्ता भी क्या? जब भी आप के हाथ में समय आता है, एक ही क्षण आता है। अगर आप एक क्षण में होश साध सकते हैं, तो समस्त जीवन में होश सध सकता है। इसका बीज आपके पास है। एक ही क्षण तो मिलता है हमेशा, और एक क्षण का होश साधने की क्षमता आप में है।
आदमी एक कदम चलता है एक बार में, कोई मीलों की छलांग नहीं लगाता। और एक-एक कदम चलकर आदमी हजारों मील चल लेता है। जो आदमी अपने पैर को देखेगा और देखेगा, एक कदम चलता हूं, एक फीट पूरा नहीं हो पाता; हजार मील कहां पार होने वाले हैं! यहीं बैठ जायेगा। लेकिन जो आदमी यह देखता है कि अगर एक कदम चल लेता हूं, तो एक कदम हजार मील में कम हुआ। और अगर जरा-सा भी कम होता है तो एक दिन सागर को भी चुकाया जा सकता है। फिर कुछ भी अड़चन नहीं है। इतना चल लेता हूं तो एक हजार मील भी चल लूंगा। दस हजार मील भी चल लूंगा। लाओत्से ने कहा है, पहले कदम को उठाने में जो समर्थ हो गया, अंतिम बहुत दूर नहीं है। कितना ही दूर हो।
जिसने पहला उठा लिया है, वह अंतिम भी उठा लेगा। पहले में ही अड़चन है, अंतिम में अड़चन नहीं है। जो पहले पर ही थक कर बैठ गया, निश्चित ही वह अंतिम नहीं उठा पाता है। पहला कदम आधी यात्रा है, चाहे यात्रा कितनी ही बड़ी क्यों न हो। जिसने पहले कदम के रहस्य को समझ लिया, वह चलने की तरकीब समझ गया, विज्ञान समझ गया। एक-एक कदम उठाते जाना है, एक-एक पल को प्रमाद से मुक्त करते जाना है। जो भी करते हों, होशपूर्वक करें। होश अलग काम नहीं है, उस काम को ही ध्यान बना लें। महावीर और बुद्ध इस मामले में अनूठे हैं।
दुनिया में और जो साधन पद्धतियां हैं, वे सब ध्यान को अलग काम बनाती हैं, वे कहती हैं, रास्ते पर चलो तो राम को स्मरण करते रहो। वे कहती हैं कि बैठे हो खाली, तो माला जपते रहो। कोई भी पल ऐसा न जाये जो प्रभु स्मरण से खाली हो। इसका मतलब हुआ कि जिन्दगी का काम एक तरफ चलता रहेगा और भीतर एक नये काम की धारा शुरू करनी पड़ेगी।
महावीर और बुद्ध इस मामले में बहुत भिन्न हैं। वे कहते हैं कि यह भेद करने से तनाव पैदा होगा, अड़चन होगी।
मेरे पास एक सैनिक को लाया गया था। सैनिक था, सैनिक के ढंग का उसका अनुशासन था मन का। फिर उसने किसी से मंत्र ले लिया। तो जैसा वह अपनी सेना में आज्ञा मानता था, वैसे ही उसने अपने गुरु की भी आज्ञा मानी। और मंत्र को चौबीस घण्टे रटने लगा। अभ्यास हो गया। दो तीन महीने में मंत्र अभ्यस्त हो गया। तब बड़ी अड़चन शुरू हुई, उसकी नींद खो गयी। क्योंकि वह मंत्र तो जपता ही रहता। धीरे-धीरे नींद मुश्किल हो गयी, क्योंकि मंत्र चले तो नींद कैसे चले। फिर धीरे-धीरे रास्ते पर चलते वक्त उसे भ्रम पैदा होने लगे। कार का हार्न बज रहा है, उसे सुनायी न पड़े, क्योंकि वहां भीतर मंत्र चल रहा है। वह इतना एकाग्र होकर मंत्र सुनने लगा कि कार का हार्न कैसे सुनाई पड़े। उसकी मिलिट्री में उसका केप्टिन आज्ञा दे रहा है, बायें घूम जाओ, वह खड़ा ही रहे। भीतर तो वह कुछ और कर रहा है।
उसे मेरे पास लाये। मैंने पूछा कि तुम क्या कर रहे हो? इसमें तुम पाग हो जाओगे। उसने कहा, अब तो कोई उपाय नहीं है। अब तो मैं न भी जपूं राम-राम, भीतर का मंत्र न भी जपूं तो भी चलता रहता है। मैं अगर उसे छोड़ दूं, तो मेरा मामला नहीं अब, उसने मुझे पकड़ लिया है। मैं खाली भी बैठ जाऊं तो कोई फर्क नहीं पड़ता है, मंत्र चलता है।
इस तरह की कोई भी साधना पद्धति जीवन में उपद्रव पैदा कर सकती है। क्योंकि जीवन की एक धारा है, और एक नयी धारा आप पैदा कर लेते हैं। जीवन ही काफी बोझिल है। और एक नयी धारा तनाव पैदा करेगी। और अगर इन दोनों धाराओं में विरोध है, तो आप अड़चन में पड़ जायेंगे।
महावीर और बुद्ध अलग धारा पैदा करने के पक्ष में नहीं हैं। वे कहते हैं, जीवन की जो धारा है, इसी धारा पर ध्यान को लगाओ। इसमें भेद मत पैदा करो, द्वैत मत पैदा करो। ध्यान ही चाहिए न, तो राम-राम पर ध्यान रखते हो, क्या सवा हुआ? सांस चलती है, इसी पर ध्यान रख लो। ध्यान ही बढ़ाना है तो एक मंत्र पर ध्यान बढ़ाते हो, पैर चल रहे हैं, यह भी मंत्र है। इसी पर ध्यान को कर लो। भीतर कुछ गुनगुनाओगे उस पर ध्यान करना है, बाजार पूरा गुनगुना रहा है, चारों तरफ शोरगुल हो रहा है, इसी पर ध्यान कर लो। ध्यान को अलग क्रिया मत बनाओ, विपरीत क्रिया मत बनाओ। जो चल रहा है, मौजूद है उसको ही ध्यान का आब्जेक्ट, उसको ही ध्यान का विषय बना लो। और तब इस अर्थों में, महावीर की पद्धति जीवन विरोधी नहीं है, और जीवन में कोई भी अड़चन खड़ी नहीं करती।
महावीर ने सीधी सी बात कही है, चलो, तो होशपूर्वक। बैठो, तो होशपूर्वक। उठो, तो होशपूर्वक। भोजन करो, तो होशपूर्वक। जो भी तुम कर रहे हो जीवन की क्षुद्रतम क्रिया, उसको भी होशपूर्वक किये चले जाओ। क्रिया में बाधा न पड़ेगी, क्रिया में कुशलता बढ़ेगी और होश भी साथ-साथ विकसित होता चला जायेगा। एक दिन तुम पाओगे, सारा जीवन होश का एक द्वीप-स्तम्भ बन गया, तुम्हारे भीतर सब होशपूर्ण हो गया है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि कल आपने कहा, प्रत्येक व्यक्ति की परम स्वतंत्रता का समादर करना ही अहिंसा है। दूसरे को बदलने का, अनुशासित करने का, उसे भिन्न करने का प्रयास हिंसा है। तो फिर गुरजिएफ और झेन गुरुओं द्वारा अपने शिष्यों के प्रति इतना सख्त अनुशासन और व्यवहार और उन्हें बदलने के तथा नया बनाने के भारी प्रयत्न के संबंध में क्या कहिएगा? क्या उसमें भी हिंसा नहीं छिपी है?
दूसरे को बदलने की चेष्टा हिंसा है। अपने को बदलने की चेष्टा हिंसा नहीं है। दूसरे की जीवन पद्धति पर आरोपित होने की चेष्टा हिंसा है। अपने जीवन को रूपांतरण करना हिंसा नहीं है, और यहीं फर्क शुरू हो जाता है।
जब भी एक व्यक्ति किसी झेन गुरु के पास आकर अपना समर्पण कर देता है तो गुरु और शिष्य दो नहीं रहे। अब यह दूसरे को बदलने की कोशिश नहीं है। झेन गुरु आपको आकर बदलने की कोशिश नहीं करेगा, जब तक कि आप जाकर बदलने के लिए अपने को उसके हाथ में नहीं छोड़ देते हैं। जब आप बदलने के लिए अपने आपको उसके हाथ में छोड़ देते हैं, समग्ररूपेण समर्पण कर देते हैं, यह सरेंडर टोटल, पूरा है, तो अब गुरु आपको अलग नहीं देखता, अब आप उसका ही विस्तार हैं, उसका ही फैलाव हैं। अब वह आपको ऐसे ही बदलने में लग जाता है, जैसे अपने को बदल रहा हो। इसलिए झेन गुरु सख्त मालूम पड़ सकता है बाहर से, देखनेवालों को। शिष्यों को कभी सख्त मालूम नहीं पड़ा है।
हुई हाई ने कहा है कि जब मेरे गुरु ने मुझे खिड़की से उठाकर बाहर फेंक दिया, तो जो भी देखनेवाले थे, सभी ने समझा कि यह गुरु दुष्ट है, यह भी कोई बात हुई। शिष्य को खिड़की से उठाकर बाहर फेंक देना, यह भी कोई बात हुई! और यह भी कोई सदगुरु का लक्षण हुआ!
लेकिन हुई हाई ने कहा है कि सब ठीक चल रहा था मेरे मन में, सब शांत होता जा रहा था, लेकिन मैं का भाव बना हुआ था। मैं शांत हो रहा हूं, यह भाव बना हुआ था। मेरा ध्यान सफल हो रहा है, यह भाव बना ही हुआ था। मैं बना हुआ था। सब टूट गया था, सिर्फ मैं रह गया था, और बड़ा आनन्द मालूम हो रहा था। और उस दिन जब अचानक मेरे गुरु ने मुझे खिड़की से उठाकर बाहर फेंक दिया, तो खिड़की से बाहर जाते और जमीन पर गिरते क्षण में वह घटना घट गयी, जो मैं नहीं कर पा रहा था। वह जो मैं था, उतनी देर को मुझे बिलकुल भूल गया। वह जो खिड़की के बाहर जाकर झटके से गिरना था, वह जो शाक था, समझ में नहीं पड़ा। मेरी बुद्धि एकदम मुश्किल में पड़ गयी। कुछ समझ न रही कि यह क्या हो रहा है। एक क्षण को "मैं' से मैं चूक गया और उसी क्षण में मैंने उसके दर्शन कर लिए जो मैं के बाहर है।
हुई हाई कहता था कि मेरे गुरु की अनुकंपा अपार थी। कोई साधारण गुरु होता तो खिड़की के बाहर मुझे फेंकता नहीं। और जिस काम में मुझे वर्षों लग जाते वह क्षण में हो गया।
आप जानकर हैरान होंगे कि झेन गुरु के शिष्य जब ध्यान करने बैठते हैं तो गुरु घूमता रहता है, एक डन्डे को लेकर। झेन गुरु का डन्डा बहुत प्रसिद्ध चीज है। वह डन्डे को लेकर घूमता रहता है। जब वह, लगता है कि कोई भीतर प्रमाद में पड़ रहा है, होश खो रहा है, झपकी आ रही है, तभी वह कन्धे पर डन्डा मारता है। और बड़े मजे की बात तो यह है कि जिनको वह डन्डा मारता है, वे झुककर प्रणाम करते हैं, अनुग्रहीत होते हैं। इतना ही नहीं, जिनको ऐसा लगता है कि गुरु उन्हें डन्डा मारने नहीं आया और भीतर प्रमाद आ रहा है तो वे दोनों अपने हाथ छाती के पास कर लेते। वह निमन्त्रण है कि मुझे डन्डा मारें, मैं भीतर सो रहा हूं।
तो साधक बैठे रहते हैं, गुरु घूमता रहता है या बैठा रहता है। जब भी कोई साधक अपने दोनों हाथ छाती के पास ले आता है उठाकर, पैरों से उठाकर छाती के पास ले आता है, वह खबर दे रहा है कि कृपा करें, मुझे मारें, भीतर मैं झपकी खा रहा हूं। जिन लोगों ने झेन गुरुओं के पास काम किया है, उनका अनुभव यह है कि गुरु का डन्डा बाहर के लोगों को दिखायी पड़ता होगा, कैसी हिंसा है! लेकिन गुरु का डन्डा जब कन्धे पर पड़ता है, कन्धे पर हर कहीं नहीं पड़ता, खास केनदर हैं जिन पर झेन गुरु डन्डा मारते हैं। उन केनदरों पर चोट पड़ते ही भीतर का पूरा स्नायु तन्तु झनझना जाता है। उस स्नायु तन्तु की झनझनाहट में निद्रा मुश्किल हो जाती है, झपकी मुश्किल हो जाती है, होश आ जाता है।
तो हमें बाहर से दिखायी पड़ेगा। बाहर से जो दिखायी पड़ता है, उसको सच मत मान लेना। जल्दी निष्कर्ष मत ले लेना। भीतर एक अलग जगत भी है। और गुरु और शिष्य के बीच जो घटित हो रहा है वह बाहर से नहीं जाना जा सकता। उसे जानने का उपाय भीतरी ही है। उसे शिष्य होकर ही जाना जा सकता है। उसे बाहर से खड़े होकर देखने में आपसे भूल होगी। निर्णय गलत हो जायेंगे, निष्पत्तियां भ्रांत होंगी। क्योंकि बाहर से जो भी आप नतीजे लेंगे-- अगर आप एक रास्ते से गुजर रहे हैं और एक मठ के भीतर एक झेन गुरु किसी को बाहर फेंक रहा है खिड़की के, तो आप सोचेंगे, पुलिस में खबर कर देनी चाहिए। आप सोचेंगे, यह आदमी कैसा है। अगर आप इस आदमी से मिलने आये थे तो बाहर से ही लौट जायेंगे। लेकिन, भीतर क्या घटित हो रहा है, वह है सूम। और वह केवल हुइ हाई और उसका गुरु जानता है कि भीतर क्या हो रहा है।
पश्चिम में शाक ट्रीटमेंट बहुत बाद में विकसित हुआ है। आज हम जानते हैं, मनसविद, मनोचिकित्सक जानते हैं कि अगर व्यक्ति ऐसी हालत में आ जाये पागलपन की कि कोई दवा काम न करे, तो भी शाक काम करता है। अगर हम उसके स्नायु तंतुओं को इतना झनझना दें कि एक क्षण को भी सातत्य टूट जाये, कन्टीन्युटी टूट जाये।
एक आदमी अपने को नैपोलियन समझ रहा है, या अपने को हिटलर माने हुए है। इसके सब इलाज हो चुके हैं, लेकिन कोई उपाय नहीं होता। जितना इलाज करो वह उतना और मजबूत होता चला जाता है। क्या करो? इसके मन की एक धारा बंध गयी है, एक सातत्य हो गया है। एक कन्टीन्युटी हो गयी है, यह दुहराये चला जा रहा है कि मैं हिटलर हूं, आप कुछ भी करो, यह उस सबसे यही नतीजा लेगा कि मैं हिटलर हूं। इसे समझाने का कोई उपाय नहीं है। समझाने की सीमा के बाहर चला गया है यह।
मैं निरंतर कहता हूं कि एक आदमी को अब्राहम लिंकन होने का खयाल पैदा हो गया। नाटक में काम मिला था उसको अब्राहम लिंकन का। और अमरीका अब्राहम लिंकन की कोई विशेष जन्मतिथि मना रहा था। इसलिए एक वर्ष तक उसको अमरीका के नगर-नगर में जाकर लिंकन का पार्ट करना पड़ा। उसका चेहरा लिंकन से मिलता-जुलता था। एक वर्ष तक निरंतर अब्राहम का, लिंकन का पार्ट करते-करते उसे यह भ्रांति हो गयी कि वह अब्राहम लिंकन है। फिर नाटक खत्म हो गया, पर उसकी भ्रांति खत्म न हुई। उसकी चाल अब्राहम लिंकन की हो गयी। अब्राहम लिंकन जैसा हकलाता था बोलने में, वैसा वह हकलाने लगा। सालभर लंबा अभ्यास था। मुस्कुराये तो लिंकन के ढंग से, छड़ी उठाये तो लिंकन के ढंग से, बैठे उठे तो लिंकन के ढंग से।
थोड़े दिन घर के लोगों ने मजाक लिया, फिर घबराहट हुई। वह अपना नाम भी अब्राहम लिंकन बताने लगा। घर के लोगों ने बहुत समझाया कि तुम्हें क्या हो गया है, तुम पागल तो नहीं हो गये हो? लेकिन जितना उसे समझाया, उतना ही वह उन पर मुस्कुराता था। लोग उससे पूछते थे कि तुम क्यों मुस्कुरा रहे हो, तो वह कहता, तुम सब पागल हो गये, क्या हुआ? मैं अब्राहम लिंकन हूं। हालत यहां तक पहुंची कि लोग कहने लगे, कि जब तक इसको गोली न मारी जाये, तब तक यह मानेगा नहीं। अब्राहम लिंकन को गोली मारी गयी तब तक यह चैन नहीं लेगा। चिकित्सकों ने समझाया, मनो-विश्लेषण किया, कोई उपाय नहीं था।
अमरीका में एक लाई डिटेक्टर उन्होंने एक छोटी मशीन बनायी है जिसमें झूठ आदमी बोले तो पकड़ जाता है। क्योंकि जब आप झूठ बोलते हैं तो हृदय में सातत्य टूट जाता है। आपसे मैंने पूछा, आपका नाम? आपने कहा, राम। आपकी उम्र? आपने कहा, ४५ साल। आज की तारीख? आपने कहा यह, दिन? सब ठीक बोला। तब मैंने अचानक आपसे पूछा, आपने चोरी की? तो आपके भीतर से तो आयेगा, हां। क्योंकि आपने की है। और उसको आप बदलेंगे बीच में। भीतर से--उठेगा हां, गले तक आयेगा, हां। फिर हां को आप नीचे दबायेंगे और कहेंगे--नहीं। यह पूरा का पूरा झटका जो है, नीचे जो मशीन लगी है, उस पर आ जायेगा। जैसे कि अपके हृदय की धड़कन का ग्राफ आता है, वैसे ही ग्राफ में ब्रेक आ जायेगा, झटका आ जायेगा। वह झटका बतायेगा कि किस प्रश्न को आपने झूठा उत्तर दिया है।
तो इन सज्जन को लाई डिटेक्टर पर खड़ा किया गया, कि अगर यह आदमी झूठ बोल रहा है तो पकड़ जायेगा। यह भीतर गहन में तो जानता ही होगा कि मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं। वह आदमी भी परेशान हो गया था, यह सब इलाज, चिकित्सा, समझाने से। उसने आज तय कर लिया था कि ठीक है, आज मान लूंगा। जो कहते हो, वही ठीक है।
पूछे बहुत से प्रश्न। फिर पूछा गया कि तुम्हारा नाम क्या अब्राहम लिंकन है? उसने कहा, नहीं। और मशीन ने नीचे बताया कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। तब तो मनोचिकित्सक ने भी सिर ठोंक लिया। उसने कहा, अब कोई उपाय ही न रहा। आखिरी हद्द हो गयी। वह लाई डिटेक्टर कह रहा है कि यह झूठ बोल रहा है। क्योंकि भीतर तो उसे आया हां, लेकिन कब तक इस उपद्रव में पड़ा रहूं, एक दफा न कहकर झंझट छुड़ाऊं। उसने ऊपर से कहा कि नहीं, मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं।
इस आदमी के लिए क्या किया जाये? तो शाक ट्रीटमेंट है, अब कोई उपाय नहीं। ऐसे आदमी के मस्तिष्क को बिजली से धक्का पहुंचाना पड़ेगा। धक्के का एक ही उपयोग है कि वह जो सतत धारा चल रही है कि मैं अब्राहम लिंकन हूं, मैं अब्राहम लिंकन हूं, उस धारा को समझाने से कोई उपाय नहीं है, क्योंकि धारा उससे टूटती नहीं। बिजली के धक्के से वह धारा टूट जायेगी, छिन्न-भिन्न हो जायेगी। एक क्षण को, इस आदमी के भीतर का जो सातत्य है वह खण्डित हो जायेगा, गैप, अंतराल हो जायेगा। शायद उस गैप के कारण दुबारा इसको खयाल न आये कि मैं अब्राहम लिंकन हूं। इसलिए मनोविज्ञान अब शाक ट्रीटमेंट का उपयोग करता है। अंतिम उपाय वही है। धक्का पहुंचाकर स्नायु तंतुओं की धारा को तोड़ देना। झेन गुरु बहुत प्राचीन समय से, हजार साल से, डेढ़ हजार साल से उसका उपयोग कर रहे हैं। यह जो शिष्य के साथ झेन गुरु का इतना तीव्र हिंसात्मक दिखायी पड़नेवाला व्यवहार है, यह तो कुछ भी नहीं है।
एक झेन गुरु बांकेई की आदत थी कि जब भी वह ईश्वर के बाबत कुछ बोलता तो एक उंगली ऊपर उठाकर इशारा करता। जैसा कि अकसर हो जाता है, जहां गुरु और शिष्य, एक दूसरे को प्रेम करते हैं, शिष्य पीठ पीछे गुरु की मजाक भी करते हैं। यह बहुत आत्मीय निकटता होती है, तब ऐसा हो जाता है। इतना परायापन भी नहीं होता कि
तो वह जो उसकी आदत थी उंगली ऊपर उठाकर बात करने की सदा, यह मजाक का विषय बन गयी थी, जब कोई बात कहता शिष्यों में, तो वह उंगली ऊपर उठा देता। उसमें एक छोटा बच्चा भी था, जो आश्रम में झाडू-बुहारी लगाने का काम करता था। वह भी बड़े-बड़े साधकों के बीच कभी-कभी ध्यान करने बैठता था, और जो बड़ों से नहीं हो पाता था, वह उससे हो रहा था। क्योंकि छोटे बच्चे अभी सरल हैं, बूढ़े जटिल हैं। बूढ़े काफी बीमारी में आगे जा चुके हैं, बच्चे अभी बीमारी की शुरुआत में हैं। उसे ध्यान भी होने लगा था, और वह अपनी उंगली को उठाकर गुरु जैसी चर्चा भी करने लगा था।
एक दिन सब बैठे थे और बांकेई ने कहा, "ईश्वर के संबंध में कुछ बोल'--उस बच्चे से। उसने कहा, ईश्वर। उसकी उंगलियां अनजाने ऊपर उठ गयीं। वह भूल गया कि गुरु मौजूद है। मजाक पीछे चलता है, सामने नहीं। जल्दी से उसने उंगली छिपाई, लेकिन गुरु ने कहा, नहीं, पास आ।
चाकू पास में पड़ा था, उठाकर उसकी उंगली काट दी। चीख निकल गयी उस बच्चे के मुंह से। हाथ में खून की धारा निकल गयी। बांकेई ने कहा, अब ईश्वर के संबंध में बोल! उस बच्चे ने अपनी टूटी हुई उंगली वापस उठायी, और बांकेई ने कहा कि तुझे जो पाना था, वह पा लिया है।
वह दर्द खो गया, वह पीड़ा मिट गयी। एक नये लोक का प्रारंभ हो गया। बड़ा गहन शाक ट्रीटमेंट हुआ। आज शरीर व्यर्थ हो गया।
जो उंगली नहीं थी, वह भी उठाने की सामर्थ्य आ गयी। अब उंगली के होने में, न होने में कोई फर्क न रहा। जो उंगली कट गयी थी, हाथ से खून बह रहा था, लेकिन बच्चा मुस्कुराने लगा। क्योंकि जब गुरु ने उंगली कटने पर फिर दुबारा पूछा कि ईश्वर के संबंध में? तो जैसे शरीर की बात भूल ही गया वह। एक क्षण में गुरु की आंखों में झांका, और उसके मुंह पर हंसी फैल गयी। वह बच्चा, जिसको झेन में सतोरी कहते हैं, समाधि, उसको उपलब्ध हो गया। उस बच्चे ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि चमत्कार था उस गुरु का कि उंगली ही उसने नहीं काटी, भीतर मुझे भी काट डाला। लेकिन बाहर जो बैठे थे, बाहर से जो देख रहे होंगे, उनको तो लगा होगा कि यह तो पक्का कसाई मालूम होता है।
तो झेन गुरु की जो हिंसा दिखायी पड़ती है, वह दिखायी ही पड़ती है, उसकी अनुकंपा अपार है। और जिस साधना पद्धति में गुरु की इतनी अनुकंपा न हो, वह साधना पद्धति मर जाती है। हमारे पास भी बहुत साधना पद्धतियां हैं, लेकिन करीब-करीब मर गयी हैं। क्योंकि न गुरु में साहस है, न इतनी करुणा है कि वह रास्ते के बाहर जाकर भी सहायता पहुंचाये। नियम ही रह गये हैं। नियम धीरे-धीरे मुर्दा हो जाते हैं। उनका पालन चलता रहता है, मरी हुई व्यवस्था की तरह। हम उन्हें ढोते रहते हैं। लेकिन उनमें जीवन नहीं है।
दूसरे को बदलने की चेष्टा नहीं है झेन गुरु की, लेकिन जिसने अपने को समर्पित किया है बदलने के लिए, वह दूसरा नहीं है, एक। दूसरे को बदलने में कोई अपने अहंकार की तृप्ति नहीं है। जिसने समर्पित कर दिया है--यह बहुत मजे की बात है, जब कोई व्यक्ति किसी के प्रति पूरा समर्पित हो जाता है तो उन दोनों के बीच जो सीमाएं तोड़ती थीं, अलग करती थीं अहंकार की, वे विलीन हो जाती हैं। यह मिलन इतना गहरा है जितना पति-पत्नी का भी कभी नहीं होता। प्रेमी और प्रेयसी का भी कभी नहीं होता, जितना गुरु और शिष्य का हो सकता है। लेकिन अति कठिन है, क्योंकि पति और पत्नी का मामला तो बायोलाजिकल है, शरीर भी साथ देते हैं। गुरु और शिष्य का संबंध सिपरचुअल है, बायोलाजिकल नहीं है। जैविक कोई उपाय नहीं है। तो पति और पत्नी तो पशुओं में भी होते हैं, प्रेमी और प्रेयसी तो पक्षियों में भी होते हैं, कीड़े-मकोड़ों में भी होते हैं। सिर्फ गुरु और शिष्य का एकमात्र संबंध है जो मनुष्यों में होता है। बाकी सब संबंध सब में होते हैं।
इसलिए जो व्यक्ति गुरु-शिष्य के गहन संबंध को उपलब्ध न हुआ हो, एक अर्थ में ठीक से अभी मनुष्य नहीं हो पाया है। उसके सारे संबंध पाशविक हैं। क्योंकि वे सब संबंध तो पशु होने में भी हो जाते हैं। कोई अड़चन नहीं है। कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन पशुओं में गुरु और शिष्य का कोई संबंध नहीं होता, हो नहीं सकता। यह जो संबंध है, इस संबंध के हो जाने के बाद फासला नहीं है--कि हम दूसरे को बदल रहे हैं, हम अपने को ही बदल रहे हैं। इसलिए बुद्ध का जब कोई शिष्य मुक्त होता है, तो बुद्ध कहते हुए सुने गये कि आज मैं फिर तेरे द्वारा पुनः मुक्त हुआ।
महायान बौद्ध धर्म एक बड़ी मीठी कथा कहता है। वह कथा यह है कि बुद्ध का निर्वाण हुआ, शरीर छूटा, वे मोक्ष के द्वार पर जाकर खड़े हो गये, लेकिन उन्होंने पीठ कर ली। द्वारपाल ने कहा, आप भीतर आयें, युगों-युगों से हम प्रतीक्षा कर रहे हैं आपके आगमन की, और आप पीठ फेरकर क्यों खड़े हो गये हैं! तो बुद्ध ने कहा, "जिन-जिन ने मेरे प्रति समर्पण किया, जिन-जिन ने मेरा सहारा मांगा, जब तक वे सभी मुक्त नहीं हो जाते, तब तक मेरा मोक्ष में प्रवेश कैसे हो सकता है? तब तक मैं कहीं न कहीं बंधा ही हुआ रहूंगा। इसलिए मैं अकेला नहीं जा सकता हूं।'
इसलिए महायान बौद्ध धर्म कहता है कि जब तक पूरी मनुष्यता मुक्त न हो जाये, तब तक बुद्ध द्वार पर ही खड़े रहेंगे। यह कहानी मीठी है, कहानी सूचक है। यह कहानी बहुत गहरे अर्थ लिए हुए है। कहीं कोई बुद्ध खड़े हुए नहीं हैं। हो भी नहीं सकते। खड़े होने का कोई उपाय भी नहीं है। मुक्त होते ही तिरोहित हो जाना पड़ता है। कहीं कोई द्वार नहीं है। लेकिन यह एक मीठे सूत्र की खबर देती है कि गुरु शिष्य के द्वारा पुनः-पुनः मुक्त होता है। और यह संबंध इतना आत्मीय और निकट है कि वहां पराया कोई भी नहीं है।
इसी संदर्भ में पूछा है कि यह भी समझायें कि हिंसक वृत्ति के कारण निकले आदेश, और करुणा के कारण निकले उपदेश में साधक कैसे फर्क कर पाये?
साधक फर्क कर ही नहीं पायेगा। करना भी नहीं चाहिए। साधक को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसे ठीक से समझ लें।
गुरु ने चाहे हिंसा भाव से ही साधक को आदेश दिया हो। यह हिंसा अगर होगी तो गुरु के सिर होगी। साधक को तो आदेश का पालन कर लेना चाहिए। वह तो रूपांतरित होगा ही, चाहे आदेश करुणा से दिया गया हो और चाहे आदेश हिंसक भाव से दिया गया हो। चाहे मैं किसी को बदलने में इसलिए मजा ले रहा हूं कि बदलने में तोड़ने का मजा है, मिटाने का मजा है। चाहे मैं इसलिए दूसरे को आदेश दे रहा हूं कि नये के जन्म का आनन्द है, नये के जन्म की करुणा है। पुराने को मिटाने में हिंसा हो सकती है, नये को बनाने में करुणा है। मैं किसी भी कारण से आदेश दे रहा हूं, यह मेरी बात है। लेकिन जिसको आदेश दिया गया है, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक मकान को गिराना है और नया बनाना है। हो सकता है मुझे गिराने में ही मजा आ रहा हो, इसलिए बनाने की बातें कर रहा हूं। इसलिए उसको तोड़ने में मुझे रस है। या मैं बनाने में इतना उत्सुक हूं कि तोड़ना मजबूरी है, तोड़ना पड़ेगा। लेकिन यह मेरी बात है। मकान के बनने में कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसलिए साधक को यह चिन्ता नहीं करनी चाहिए कि गुरु ने जो खिड़की के बाहर फेंक दिया है, यह तोड़ने का रस था, कोई हिंसा थी या कोई महाकरुणा थी।
और अगर साधक यह फर्क करता है, तो समर्पित नहीं है। शिष्य नहीं है। यह तो उसे पहले ही गुरु के पास आने के पहले सोच लेना चाहिए। यह समर्पण के पहले सोच लेना चाहिए। गुरु के चुनाव की स्वतंत्रता है, गुरु के आदेशों में चुनाव की स्वतंत्रता नहीं है। मैं "अ' को गुरु चुनूं कि "ब' को, कि "स' को, मैं स्वतंत्र हूं। लेकिन "अ' को चुनने के बाद स्वतंत्र नहीं हूं कि "अ' का--"अ' आदेश मानूं कि "ब' आदेश मानूं, कि "स' आदेश मानूं।
गुरु को चुनने का अर्थ समग्र चुनना है। इसलिए झेन ने, सूफियों ने, जहां बहुत गहन गुरु की परम्परा विकसित हुई है, और बड़े आन्तरिक रहस्य उन्होंने खोले हैं।
सूफी शास्त्र कहते हैं कि गुरु को चुनने के बाद खण्ड-खण्ड विचार नहीं किया जा सकता कि वह क्या ठीक कहता है और क्या गलत कहता है। अगर लगे कि गलत कहता है, तो पूरे ही गुरु को छोड़ देना तत्काल। ऐसा मत सोचना कि यह बात न मानेंगे, यह गलत है। यह बात मानेंगे, यह सही है। इसका तो मतलब हुआ कि गुरु के ऊपर आप हैं, और अन्तिम निर्णय आपका ही चल रहा है कि क्या ठीक है और क्या गलत है। तो परीक्षा गुरु की चल रही है, आपकी नहीं। और इस तरह के लोग जब मुसीबत में पड़ते हैं तो जिम्मा गुरु का है।
सूफी कहते हैं कि जब गुरु को चुन लिया तो पूरा चुन लिया। यह टोटल एक्सेप्टेन्स है। अगर किसी दिन छोड़ना हो तो टोटल छोड़ देना, पूरा छोड़ देना। हट जाना वहां से। लेकिन आधा चुनना और आधा छोड़ना मत करना। बहुत कीमती बात है कि यह ठीक लगता है, इसलिए चुनेंगे। तो आखिर में आप ही ठीक हैं। जो ठीक लगता है वह चुनते हैं। जो गलत लगता है, वह नहीं चुनते हैं। तो आपको ठीक और गलत का तो राज मालूम ही है। अब बचा क्या है चुनने को? जब आप यह भी पता लगा लेते हैं कि क्या ठीक है और क्या गलत है, तो आपको बचा ही क्या है? शिष्य होने की कोई जरूरत ही नहीं है। लेकिन अगर शिष्य होने की जरूरत है तो आपको पता नहीं है कि क्या ठीक है और क्या गलत है।
गुरु का चुनाव समग्र है। छोड़ना हो तो सूफी कहते हैं, पूरा छोड़ देना। बड़ी मजे की बात सूफियों ने कही है। बायजीद ने कहा है कि अगर गुरु को छोड़ना हो तो जितने आदर से स्वीकार किया था, जितनी समग्रता से, उतने ही आदर से, उतनी ही समग्रता से छोड़ देना। कठिन है मामला। किसी को आदर से स्वीकार करना तो आसान है, आदर से छोड़ना बहुत मुश्किल है। हम छोड़ते ही तब हैं जब अनादर मन में आ जाता है। लेकिन बायजीद कहता है, जिसको तुम आदर से न छोड़ सको, समझ लेना आदर से चुना ही नहीं था। क्योंकि यह तुमने चुना था। तुम निर्णायक न थे कि गुरु ठीक होगा कि गलत होगा। यह चुनाव तुम्हारा था। आदरपूर्वक तुमने चुना था। अगर तुम मेल नहीं खाते तो बायजीद ने कहा है कि समझना कि यह गुरु मेरे लिए नहीं है। ठीक और गलत तुम कहां जानते हो? तुम इतना ही कहना कि इस गुरु से मैं जैसा हूं, उसका मेल नहीं खा रहा है।
बायजीद का मतलब यह है कि जब भी तुम्हें गुरु छोड़ना पड़े तो तुम समझना कि मैं इस गुरु का शिष्य होने के योग्य नहीं हूं। छोड़ देना। लेकिन हम गुरु को तब छोड़ते हैं, जब हम पाते हैं कि यह गुरु हमारा गुरु होने के योग्य नहीं है।
मैं शिष्य होने के योग्य नहीं हूं, इसका यही भाव हो सकता है, शिष्यत्व का। गुरु के शिखर को नहीं समझा जा सकता है। अब यही, हुई हाई को फेंक दिया है खिड़की के बाहर। यह समग्र स्वीकार है। इसमें भी कुछ हो रहा होगा, इसलिए गुरु ने फेंक दिया है, इसलिए हुई हाई स्वीकार कर लेगा।
गुरजिएफ के पास लोग आते थे, तो गुरजिएफ अपने ही ढंग का आदमी था। सभी गुरु अपने ढंग के आदमी होते हैं, और दो गुरु एक से नहीं होते। हो भी नहीं सकते। क्योंकि गुरु का मतलब यह है कि जिसने अपनी अद्वितीय चेतना को पा लिया--बेजोड़। तो वह अलग तो हो ही जायेगा।
गुरजिएफ के पास कोई आता तो वह क्या करेगा, इसके कोई नियम न थे। हो सकता है वह कहे, एक वर्ष तक रहो आश्रम में, लेकिन मुझे देखना मत। मेरे पास मत आना। यह काम है सालभर का। यह काम करना। कि सड़ँक बनानी है, कि गिट्टी फोड़नी हैं, कि गङ्ढा खोदना है, कि वृक्ष काटने हैं, यह काम सालभर करना। और सालभर के बीच एक बार भी मेरे पास मत आना।
एक रूसी साधक हार्टमेन गुरजिएफ के पास आया। एक वर्ष तक--पहले दिन जो पहला सूचन मिला वह यह कि एक वर्ष तक मेरे पास दुबारा मत आना। रहना छाया की तरह। सुबह चार बजे से हार्टमेन को काम दे दिया गया सालभर के लिए। वह करेगा दिन-रात काम। गुरजिएफ के मकान में रात रोज दावत होगी, सारा आश्रम आमंत्रित होगा, सिर्फ हार्टमेन नहीं। रात संगीत चलेगा दो-दो बजे तक। गुरजिएफ के बंगले की रोशनी बाहर पड़ती रहेगी और हार्टमेन अपनी कोठरी में सोया रहेगा। सभाएं होंगी, लोग आयेंगे, भीड़ होगी, अतिथि आयेंगे, चर्चा होगी, प्रश्न होंगे, हार्टमन नहीं होगा। सालभर !
जिस दिन सालभर पूरा हुआ, उस दिन गुरजिएफ हार्टमेन के झोपड़े पर गया और गुरजिएफ ने हार्टमेन से कहा कि अब तुम जब भी आना चाहो, आधी रात भी जब मैं सो रहा हूं तब भी, जिस क्षण, चौबीस घंटे तुम आ सकते हो। अब तुम्हें किसी से पूछने की जरूरत नहीं है, कोई आज्ञा लेने की जरूरत नहीं है।
और हार्टमेन ने उसके चरण छुए और कहा कि अब तो जरूरत भी न रही। यह सालभर दूर रखकर तुमने मुझे बदल दिया। यह कहा नहीं जा सकता, लेकिन यह मुश्किल मामला है। हार्टमेन सोच सकता था, यह भी क्या बात हुई, एक प्रश्न का उत्तर नहीं मिला, कुछ चर्चा नहीं, कुछ बात नहीं, यह क्या एक साल! दिन दो दिन की बात भी नहीं है। लेकिन गुरु को चुनने का मतलब है, पूरा चुनना, या पूरा छोड़ देना। फिर गुरु क्या करता है, वह तभी कर सकता है जब इतना समर्पण हो, अन्यथा नहीं कर सकता है।
एक मित्र ने पूछा है कि आप महावीर, बुद्ध, लाओत्से पर न बोलकर अपनी निजी और आंतरिक बातें बतायें। और यह भी लिखा है--बिना दस्तखत किये--कि आपको मैं इतना कायर नहीं मानता हूं कि आप अपनी निजी बातें नहीं बतायेंगे।
आप तो नहीं मानते हैं मुझे इतना कायर, लेकिन मैं आपको इतना बहादुर नहीं मानता हूं कि मेरी निजी बातें सुन पायेंगे। और जिस दिन तैयारी हो जाये निजी बातें सुनने की, उस दिन मेरे पास आ जाना। क्योंकि निजी बातें निजता में ही कही जा सकती हैं, पब्लिक में नहीं। मगर उसके पहले कसौटी से गुजरना पड़ेगा। बहादुरी की मैं जांच कर लूंगा। चूंकि क्या मैं आपको दूं, यह आपके पात्र की क्षमता पर निर्भर है।
मेरे निजी जीवन में कुछ भी छिपाने जैसा नहीं है, लेकिन आप देख भी पायेंगे, समझ भी पायेंगे, उसका उपयोग भी कर पायेंगे, आपके जीवन में वह सृजनात्मक भी होगा, सहयोगी भी होगा, यह सोचना जरूरी है। क्योंकि जो भी मैं कह रहा हूं, वह आपके काम पड़ सके, तो ही उसका कोई अर्थ है।
तो जिसकी भी तैयारी हो मेरे निजी जीवन में उतरने की, वह जरूर मेरे पास आ जाये। लेकिन उसे तैयारी से गुजरना पड़ेगा, यह खयाल रखकर आये। अभी तो दस्तखत करने की भी हिम्मत नहीं है।
अब हम सूत्र लें।
"क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों काले कुत्सित कषाय पुनर्जन्मरूपी संसार वृक्ष की जड़ों को सींचते रहते हैं।'
"चाव और जौ आदि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथ्वी भी लोभी मनुष्य को तृप्त कर सकने में असमर्थ है, यह जानकर संयम का आचरण करना चाहिये।'
चार कषाय महावीर ने कहे--क्रोध, मान, माया, लोभ। ये चारों शब्द हमारे बहुत परिचित हैं--शब्द। ये चारों बिलकुल अपरिचित हैं। शब्द के परिचय को हम भूल से सत्य का परिचय समझ लेते हैं। हम सभी को मालूम है, क्रोध का क्या मतलब है? और क्रोध से हमारा मिलना हुआ नहीं। हालांकि क्रोध हम पर हुआ है बहुत बार, हमसे हुआ है। क्रोध में हम डूबे हैं। लेकिन क्रोध इतना डुबा लेता है कि जो देखने की तटस्थता चाहिए, जो क्रोध को समझने की दूरी चाहिए वह नहीं बचती। इसलिए क्रोध हमसे हुआ है लेकिन क्रोध को हमने जाना नहीं। हमारे क्रोध को दूसरों ने जाना होगा, हमने नहीं जाना। इसलिए मजे की घटना घटती है। क्रोधी आदमी भी अपने को क्रोधी नहीं समझता। सारी दुनिया जानती है कि वह क्रोधी है, लेकिन वह भर नहीं जानता है कि मैं क्रोधी हूं। क्या मामला है? सब देख लेते हैं क्रोध को, वह खुद क्यों नहीं देख पाता?
असल में क्रोध की घटना में वह मौजूद ही नहीं रहता। वह जो आब्जर्वर है, निरीक्षक है, वह डूब जाता है। उसका कोई पता ही नहीं रहता। बाकी तो कोई क्रोध में नहीं है इसलिए वे लोग देख लेते हैं कि यह आदमी क्रोध में है। आपको पता नहीं चलता। यह बात इतनी भी दब सकती है गहन, कि कई तथ्य जो वैज्ञानिक हो सकते थे वे भी खो गये हैं।
मैं कल ही एक लियोनल टाइगर की एक किताब देख रहा था। उसने बड़ी महत्वपूर्ण खोज की है। उसने काम किया है स्त्रियों के मासिक-धर्म पर। तो वह कहता है कि जब मासिक-धर्म के चार-पांच दिन होते हैं, तब स्त्रियां ज्यादा क्रोधी होती हैं। ज्यादा चिड़चिड़ी होती हैं, ज्यादा परेशान होती हैं, ज्यादा हिंसक हो जाती हैं। उनकी सारी वृत्तियां निम्न हो जाती हैं। न केवल इतना, बल्कि उन पांच दिनों में उनका बौद्धिक स्तर भी गिर जाता है, उनकी इन्टैलिजेंस भी गिर जाती है। उनका आई-क्यू, उनका जो बुद्धि-माप है वह नीचे गिर जाता है, पंद्रह प्रतिशत।
इसलिए परीक्षा के समय स्त्रियों के लिए विशेष सुविधा होनी चाहिए। मेंसेस में किसी लड़की की परीक्षा नहीं होनी चाहिए, अकारण पिछड़ जायेगी। ठीक पीरिएड के मध्य में, पिछले पीरिएड और दूसरे पीरिएड के ठीक बीच में चौदह दिन के बाद स्त्रियों के पास सबसे ज्यादा प्रसन्न भाव होता है और उस समय वे कम क्रोधी होती हैं, कम चिड़चिड़ी होती हैं। और उस समय उनका बुद्धि-माप पंद्रह प्रतिशत बढ़ जाता है। इसलिए अगर मध्य पीरिएड में लड़की हो और लड़के के साथ परीक्षा दे तो वह फायदे में रहेगी, पंद्रह प्रतिशत ज्यादा।
अगर मेंसेस में हो तो नुकसान में रहेगी पंद्रह प्रतिशत कम। और दोनों मिलकर तीस प्रतिशत का फर्क हो जाता है। जो कि बड़ा फर्क है।
इस पर जितना काम चलता है उससे धीरे-धीरे यह भी खयाल में आना शुरू हुआ। लेकिन इतने हजार साल लग गये और खयाल में नहीं आया कि स्त्री और पुरुष दोनों एक ही जाति के पशु हैं। तो स्त्रियों में ही मासिक-धर्म हो, यह आवश्यक नहीं है, कहीं न कहीं पुरुष में भी मासिक धर्म जैसी कोई समान घटना होनी चाहिए। लेकिन पुरुषों को अब तक खयाल नहीं आया। होनी चाहिए ही, क्योंकि दोनों की शरीर रचना एक ही ढांचे में होती है। दोनों की सारी व्यवस्था एक जैसी है। जो भेद है वह थोड़ा-सा ही भेद है, और वह भेद इतना है कि स्त्री ग्राहक है और पुरुष दाता है, जीवाणुओं के संबंध में। बाकी तो सारी बात एक है। तो स्त्री में अगर मासिक-धर्म जैसी कोई घटना घटती है तो पुरुष में भी घटनी चाहिए।
सौ वर्ष पहले एक आदमी ने इस संबंध में थोड़ी खोज-बीन की है, एक जर्मन सर्जन ने। और उसे शक हुआ कि पुरुष में भी मासिक-धर्म होता है। लेकिन चूंकि कोई बाहय घटना नहीं घटती रक्तस्राव की, इसलिए आदमी भूल गया है। तो उसने आदमी के क्रोध और चिड़चिड़ेपन के रिकार्ड बनाये और पाया कि हर अट्ठाइसवें दिन पुरुष भी चार-पांच दिन के लिए उसी तरह अस्त-व्यस्त होता हैं, जैसे स्त्री अस्त-व्यस्त होती है। और अभी, एक दूसरे विचारक ने एक नये विज्ञान को जन्म दे दिया है--पैट्रिक विनियम्स उसका नाम है, बायो डायनेमिक्स। और उसने समस्त रूप से वैज्ञानिक अर्थों में सिद्ध कर दिया है कि पुरुष का भी मेंसेस होता है। कोई बाहर घटना नहीं घटती, लेकिन भीतर वैसी ही घटना घटती है, जैसी स्त्री को घटती है। और उन चार-पांच दिनों में आप क्रोधी, चिड़चिड़े, परेशान, नीचे गिर जाते हैं चेतना में।
यह हर महीने हो रहा है। जिस दिन आदमी पैदा होता है, उसको पहला दिन समझ लें, तो उसके हिसाब से हर अट्ठाइसवें दिन का पूरा कलेंडर बना सकते हैं जीवन का। वह पहला दिन है, फिर हर अट्ठाइसवें दिन पुरुष का कलेंडर बन सकता है। और जब आपके कलेंडर में आपका मेंसेस आ जाये तो दूसरे को भी बता दें और खुद भी सावधान रहें। और आज नहीं कल, हमें स्त्री-पुरुष का विवाह करते वक्त ध्यान रखना चाहिए कि दोनों का मेंसेस साथ न पड़े। ऐसा लगता है स्त्री-पुरुषों को, पति-पत्नियों को देखकर कि बहुत मात्रा में साथ पड़ता होगा। क्योंकि दोनों का मेंसेस साथ पड़ जाये तो भारी उपद्रव और कलह होने वाली है।
यह इसलिए संभव हो सका कि आज तक खयाल नहीं आया कि पुरुष का भी मासिक-धर्म होता है, क्योंकि हम क्रोध से परिचित ही नहीं हैं, नहीं तो यह खयाल आ जाता। इसलिए मैं कह रहा हूं। अगर हम क्रोध की धारा का निरीक्षण करते तो हमको भी पता चल जायेगा कि हर महीने आपका बंधा हुआ दिन है, बंधा हुआ समय है जब आप ज्यादा क्रोधी होते हैं। और हर महीने आपके बंधे हुए दिन हैं, जब आप कम क्रोधी होते हैं। लेकिन यह तो बड़ी यांत्रिक बात हुई, यह तो आप मशीन की तरह घूम रहे हैं। आपकी मालकियत नहीं मालूम पड़ती।
जैसा क्रोध है, वैसा ही लोभ भी है, वैसी ही माया भी है, वैसा ही मोह भी है। उन सबमें आप बंधे हुए हैं। और यह जो बंधन हैं, यह बड़ा अदभुत है। आपको खयाल, सिर्फ भ्रम रहता है कि आप मालिक हैं।
अभी चूहों पर बहुत वैज्ञानिकों ने प्रयोग किये। छोटा-सा हामान जो पुरुष में होता है, पुरुष चूहे में--जरा-सी मात्रा उसकी अगर मादा चूहे को इन्जेक्ट कर दी जाये, तो बड़ी हैरानी की बात है, मादा चुहिया जो है, वह पुरुष चूहे की तरह व्यवहार करना शुरू कर देती है। वही अकड़, वही चाल, जो पुरुष चूहे की होती है वही झगड़ालू वृत्ति, हमले का भाव, वह सब आ जाता है। इतना ही नहीं, पुरुष हामान के इंजेक्शन के बाद मादा चुहिया जो है, पुरुष चुहिया पर चढ़कर संभोग करने की कोशिश करती है, जो कि वह कर नहीं सकती। पुरुष चूहों को स्त्री हामान के इंजेक्शन देकर देखा गया, वे बिलकुल स्त्रैण हो जाते हैं, दब्बू हो जाते हैं, भागने लगते हैं, भयभीत हो जाते हैं और होने का कोई पता ही नहीं है। समय आपको क्षमा नहीं करता। समय आपको सुविधा नहीं देता। समय लौटकर नहीं आता। समय से आप कितनी ही प्रार्थना करें, कोई प्रार्थना नहीं सुनी जाती। समय और आपके बीच कोई भी संबंध नहीं है। मौत आ जाये द्वार पर और आप कहें कि एक घड़ी भर ठहर जा, अभी मुझे लड़के की शादी करनी है, कि अभी तो कुछ काम पूरा हुआ नहीं, मकान अधूरा बना है।
एक बूढ़ी महिला संन्यास लेना चाहती थी, दो महीने पहले। उसकी बड़ी आकांक्षा थी संन्यास ले लेने की। मगर उसके बेटे खिलाफ थे कि संन्यास नहीं लेने देंगे। मैंने उसके एक बेटे को बुलाकर पूछा कि ठीक है, संन्यास मत लेने दो, क्योंकि बूढ़ी स्त्री है, तुम पर निर्भर है और इतना साहस भी उसका नहीं है। लेकिन कल अगर इसे मौत आ जाये तो तुम मौत से क्या कहोगे, कि नहीं मरने देंगे।
जैसे कि कोई भी उत्तर देता, बेटे ने उत्तर दिया। कहा कि मौत कब आयेगी, कब नहीं आयेगी, देखा जायेगा। मगर संन्यास नहीं लेने देंगे। और अभी दो महीने भी नहीं हुआ और वह स्त्री मर गयी। जिस दिन वह मर गयी, उसके बेटे की खबर आयी कि क्या आप आज्ञा देंगे, हम उसे गैरिक वस्त्रों में माला पहनाकर संन्यासी की तरह चिता पर चढ़ा दें!
"काल निर्दयी है।' लेकिन अब कोई अर्थ भी नहीं है, क्योंकि संन्यास कोई ऐसी बात नहीं है कि वह ऊपर से डाल दिया जाये। न जिन्दा पर डाला जा सकता है, न मुर्दा पर डाला जा सकता है। संन्यास लिया जाता है, दिया नहीं जा सकता। मरा आदमी कैसे संन्यास लेगा? दिया जा सके तो मरे को भी दिया जा सकता है।
संन्यास दिया जा ही नहीं सकता, लिया जा सकता है। इन्टेंशनल है, भीतर अभिप्राय है। वही कीमती है, बाहर की घटना का तो कोई मूल्य नहीं है। भीतर कोई लेना चाहता था। संसार से ऊबा था, संसार की व्यर्थता दिखायी पड़ी थी, किसी और आयाम में यात्रा करने की अभीप्सा जगी थी, वह थी बात। अब तो कोई अर्थ नहीं है, लेकिन अब ये बेटे अपने मन को समझा रहे हैं। मौत को तो न समझा पाये, अपने मन को समझा रहे हैं। मौत को तो नहीं रोक सकते कि रुको, अभी हम न जाने देंगे। मां को रोक सकते थे। मां भी रुक गयी क्योंकि उसे भी मौत का साफ-साफ बोध नहीं था। नहीं तो रुकने का कोई कारण भी नहीं था। मां डरी कि बेटों के बिना कैसे जीयेगी! और अब, अब बेटों के बिना ही जीना पड़ेगा। अब इस लम्बे यात्रापथ पर बेटे दुबारा नहीं मिलेंगे। और मिल भी जायें तो पहचानेंगे नहीं।
हर छोटी चीज से कंपने लगते हैं।
क्या इसका यह अर्थ हुआ कि छोटे-छोटे हार्मोन इतने प्रभावी हैं और आपकी चेतना इतनी दीन है कि एक इंजेक्शन आपको स्त्री और पुरुष बना सकता है! और एक इंजेक्शन आपको बहादुर और कायर बना सकता है! तो फिर जिसको आप कहते हैं कि भयभीत है, कायर है, जिसको आप कहते हैं, बहादुर है, हिम्मतवर है, जिसको आप कहते हैं साहसी है, दुस्साहसी है, इनके बीच जो फर्क है, वह छोटे-से हार्मोन का है।
आमतौर से यही है बात। आपकी कुछ ग्रंथियां निकाल ली जायें, आप क्रोध नहीं कर पायेंगे। कुछ ग्रंथियां निकाल ली जायें, आपकी कामवासना तिरोहित हो जायेगी। तो क्या यह शरीर आप पर इतना हावी है और आपकी आत्मा की कोई स्वतंत्रता नहीं है?
इसीलिए महावीर इनको चार शत्रु कहते हैं, क्योंकि जब तक कोई इन चार के ऊपर न उठ जाये, तब तक उसको आत्मा का कोई अनुभव नहीं होता। जब तक क्रोध के हार्मोन आपके भीतर मौजूद हैं और फिर भी आप क्रोध नहीं करते, और कामवासना के हार्मोन आपके भीतर मौजूद हैं और फिर भी आप ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाते हैं, लोभ की सारी की सारी रासायनिक प्रक्रिया भीतर है और फिर भी आप अलोभ को उपलब्ध हो जाते हैं, तभी आपको आत्मा का अनुभव होगा।
आत्मा का अर्थ है--शरीर के पार सत्ता का अनुभव।
लेकिन हम तो शरीर के पार होते ही नहीं, शरीर ही हमें चलाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि आप सोचते हैं कि आप पार हो गये। सुबह उठते हैं, पत्नी कुछ बोल रही है कि बच्चे कुछ गड़बड़ कर रहे हैं कि नौकर कुछ उपद्रव कर रहा है और आप हंसते रहते हैं। तो आप सोचते हैं कि मैंने तो क्रोध पर विजय पा ली। यही घटना सांझ को घटती है तो आप विक्षिप्त हो जाते हैं। सुबह हार्मोन ताजे हैं, शरीर थका हुआ नहीं है। आप ज्यादा आश्वस्त हैं। सांझ थक गये हैं, हार्मोन टूट गये हैं, शक्ति क्षीण हो गयी है। सांझ आप वल्नरेबल हैं, ज्यादा खुले हैं। जरा-सी बात आपको पीड़ा और चोट पहुंचा जायेगी। तो सुबह जिसको आपने सह लिया, सांझ को नहीं सह पाते हैं। लेकिन सुबह भी आप आत्मा को नहीं पा गये थे, सुबह भी शरीर ही कारण था। सांझ भी शरीर ही कारण है।
आत्मा को पाने का अर्थ तो यह है कि शरीर कारण न रह जाये। आपके जीवन में ऐसे अनुभव शुरू हो जायें, जिनमें शरीर की रासायनिक प्रक्रियाओं का हाथ नहीं है, उनके पार। इसीलिए इन चार को शत्रु कहा है। और महावीर ने कहा है, इन चारों से ही हम पुनर्जन्म रूपी संसार के वृक्ष की जड़ों को सींचते रहते हैं। इन चारों से ही हम फिर से अपने जन्म को निर्मित करने का उपाय करते रहते हैं। जो इन चार में फंसा है, उसका अगला जन्म उसने बना ही लिया।
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, कैसे आवागमन से छुटकारा हो? छुटकारा भी मांगते हैं और जड़ों को अच्छी तरह पानी भी सींचते चले जाते हैं। इस वृक्ष से कैसे छुटकारा हो? सांझ को कहते हैं और सुबह वहीं पानी सींचते पाये जाते हैं। उनको पता ही नहीं कि वृक्ष की जड़ों में पानी सींचना और वृक्ष के पत्तों का आना एक ही क्रिया के अंग हैं। यह एक ही बात है। कभी मत पूछें कि आवागमन से कैसे छुटकारा हो, पूछें ही मत, यही पूछें कि क्रोध, माया, मोह और लोभ से कैसे छुटकारा हो। आवागमन से छुटकारा पूछने की बात ही गलत है। यही पूछें कि कैसे मैं अपने को वृक्ष को पानी देने से रोकूं। वृक्ष कैसे न हो, यह मत पूछें। क्योंकि अगर ध्यान आपने वृक्ष के पत्तों पर रखा और हाथ पानी देते रहे वृक्ष को--वृक्ष के साथ हम ऐसा नहीं करते, क्योंकि हमें पता है कि यह पानी देना और वृक्ष में पत्तों और फूलों का आना, एक ही क्रिया का अंग है।
आपको अपने जीवन वृक्ष का कोई पता नहीं है कि उसके साथ आप क्या कर रहे हैं। इधर कहे चले जाते हैं, दुख मुझे न हो, और सब तरह से दुख को सींचते हैं। हर उपाय करते हैं कि दुख कैसे हो और हर वक्त चिल्लाते रहते हैं कि दुख मुझे न हो। शायद आपको
जीवन वृक्ष आप खुद हैं, इसलिए अपनी जड़ों और अपने पत्तों को जोड़ नहीं पाते। समझ नहीं पाते कि क्या मामला है। जब दुख हो, तब दुख के पत्ते को पकड़कर पीछे उतरना चाहिए जड़ तक, कि कहां से दुख हुआ, और जड़ को काटने की चिंता करनी चाहिए।
इसलिए महावीर कहते हैं, ये चार हैं जड़ें--क्रोध, मान, माया, लोभ। चारों इतने अलग-अलग नहीं हैं, एक ही चीज के चार चेहरे हैं--एक ही चीज के, एक ही घटना के। बुद्ध ने उस घटना को नाम दिया है, जीवेषणा, लस्ट फार लाइफ।
अब यह बड़ी कठिन बात है। लोग कहते हैं, आवागमन हमारा कैसे रुके। पूछो, क्यों? किसलिए, आवागमन से दिक्कत क्या हो रही है आपको? चले जाओ मजे से, पैदा होते जाओ बार-बार, हर्ज क्या है?
नहीं, पैदा होने से उन्हें भी तकलीफ नहीं है। जीवन से उन्हें भी कोई कठिनाई नहीं है, लेकिन जीवन में दुख मिलता है, उससे कठिनाई है। दुख न हो और जीवन हो, दुख कट जाये और जीवन हो। हम ऐसी दुनिया चाहते हैं जिसमें रातें न हों, दिन ही दिन हों। हम ऐसी दुनिया चाहते हैं, जहां जवानी ही जवानी हो, बुढ़ापा न हो। स्वास्थ्य हो, बीमारी न हो। मित्र ही मित्र हों, शत्रु न हों। प्रेम ही प्रेम हो, घृणा न हो।
इस दुनिया में एक हिस्सा काट देना चाहते हैं और एक को बचा लेना चाहते हैं। और मजा यह है कि वह दूसरा हिस्सा इसीलिए बचा हुआ है कि हम इस एक को बचाना चाहते हैं, हम चाहतें हैं दुनिया में मित्र ही मित्र हों। इसलिए शत्रु ही शत्रु हो जाते हैं। हम चाहते हैं, दुनिया में सुख ही सुख हों, इसलिए दुख ही दुख हो जाता है। सुख को बचाना चाहते हैं, दुख को हटाना चाहते हैं, लेकिन सुख जड़ है और दुख पत्ता है। जिसे हम बचाना चाहते हैं, उसी को बचाने में उसे बचा लेते हैं जिसे हम बचाना नहीं चाहते हैं, जिससे हम छूटना चाहते हैं।
आदमी जब कहता है, कि आवागमन से मुक्ति हो, तो वह यह नहीं कहता कि मैं समाप्त हो जाऊं। वह कहता है, मैं मोक्ष में रहूं, मैं स्वर्ग में रहूं। दुख न हो वहां दुख से छुटकारा हो जाये। तो बुद्ध ने कहा है, जीवेषणा, होने की वासना कि मैं रहूं, यही तुम्हारे समस्त दुखों का मूल है।
महावीर कहते हैं कि ये जो चार शत्रु हैं, ये भी जीवेषणा से पैदा होते हैं।
क्रोध क्यों आता है? जब कोई आपके जीवन में बाधा बनता है, तब। जब कोई आपको मिटाना चाहता है, या आपको लगता है कि कोई मिटाना चाहता है तब, जब आपको कोई बचाना चाहता है, तब आपको क्रोध नहीं आता।
अगर मैं एक छुरा लेकर आपके पास जाऊं तो आप डरेंगे। छुरे से नहीं डर रहे हैं आप, क्योंकि सर्जन उससे भी बड़ा छुरा लेकर आपके पास आता है। तब आप निश्चिंत टेबलकि वृक्ष की जड?ो में पानी सींचना और वृक्ष के पत्तों का आना एक ही क्रिया के अंग हैं। यह एक ही बात है। कभी मत पूछें कि आवागमन से कैसे छुटकारा हो, पूछें ही मत, यही पूछें कि क्रोध, माया, मोह और लोभ से कैसे छुटकारा हो। आवागमन से छुटकारा पूछने की बात ही गलएक ही गहरे में भय है, कहीं मैं न मिट जाऊं।
तो जहां लगता है कि कोई मुझे मिटाने आ रहा है, वहां क्रोध खड़ा होता है। जहां लगता है कि कोई मुझे बचाने आ रहा है, वहां मोह खड़ा होता है। जहां लगता है कि मैं बच न सकूंगा, तो बचाने की जो हम चेष्टा करते हैं, वह सब हमारा लोभ है। जब मुझे लगता है कि मैं अच्छी तरह बच गया हूं और अब मुझे कोई नहीं मिटा सकता, तो वह जो अहंकार पैदा होता है, वह हमारा मान है।
लेकिन ये चारों के चारों जीवेषणा के हिस्से हैं। यह चतुर्मूर्ति इनके भीतर जो छिपी है, वह है जीवेषणा। ये चारों चेहरे उसी के हैं। अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग चेहरे दिखायी पड़ते हैं, लेकिन भाव एक है कि मैं बचूं। तो जब तक जो आदमी स्वयं को बचाना चाहता है, वह आदमी आत्मा को न पा सकेगा। इसे थोड़ा और हम समझ लें।
जो आदमी स्वयं को बचाना चाहता है, वह दूसरों को मिटाना चाहेगा। क्योंकि स्वयं को बचाने का दूसरे को मिटाये बिना कोई उपाय नहीं है। महावीर का अहिंसा पर इतना जोर इसीलिए है। वे कहते हैं, दूसरे को मिटाने की बात ही छोड़ दो, और ध्यान रखना, दूसरे को मिटाने की बात वही छोड़ सकता है, जो स्वयं को बचाने की बात छोड़ दे।
जब आप दूसरे को, किसी को भी नहीं मिटाना चाहते, तब एक बात पक्की हो गयी, कि आपको अपने को बचाने का कोई मोह नहीं है। अगर अपने को बचाने का कोई भाव नहीं बचा है, तो फिर कोई क्रोध नहीं है, फिर कोई मोह नहीं, कोई माया नहीं, कोई मान नहीं। इसका यह मतलब नहीं कि जो अपने को बचाने का भाव छोड़ देता है वह नहीं बचता है। मामला उल्टा है। जो नहीं बचाता अपने को, वही बचता है और जो बचाता है, वह बार-बार मरता है।
जीसस ने कहा है, "जो बचायेगा वह मिटेगा, और जो अपने को खोने को तैयार है, उसको कोई भी मिटा नहीं सकता है।' लेकिन ऐसा मत सोचना कि अगर ऐसा है कि खोने की तैयारी से हम सदा के लिए बच जायेंगे, इसलिए हम खोने को तैयार हैं, तो आप न बचेंगे। आपका मनोभाव बचने के लिए ही है। वही वासना, जन्मों का कारण है।
कोई आपको जन्म देता नहीं, आप ही अपने को जन्म देते हैं। आप ही अपने पिता हैं, आप ही अपने माता हैं, आप ही अपने को जन्म दिये चले जाते हैं। यह जन्म का जो उपद्रव है, इसके कारण आप ही हैं। इसलिए तो मौत से इतनी घबराहट होती है, इतनी बेचैनी होती है। और मरते वक्त भी आदमी कहता है कि जन्म-मरण से छुटकारा हो जाये। लेकिन मतलब उसका इतना ही होता है कि मरण से छुटकारा हो जाये। जन्म तो वह भाषा की भूल से कह रहा है, फिर से सोचेगा तो नहीं कहेगा।
सोचें, जन्म से छुटकारा चाहते हैं? जीवन से छुटकारा चाहते हैं? जिस दिन आप जन्म से छुटकारा चाहते हैं, उस दिन मरण से छुटकारा हो जायेगा। हम सब मरण से छुटकारा चाहते हैं इसलिए नये जन्म का सूत्रपात हो जाता है। हम छोर से बचना चाहते हैं, जड़ से नहीं। मरण है पत्ता आखिरी, जन्म है जड़। तो जड़ ही काटनी होगी।
संन्यास का अर्थ है--जड़ को काटना। संसार का अर्थ है--पत्तों को काटना, काटते दोनों हैं। संन्यासी बुद्धिमान है। वह वहां से काटता है जहां से काटना चाहिए। संसारी मूढ़ है। वह वहां काटता है, जहां काटने का कोई अर्थ नहीं है, बल्कि खतरा है। क्योंकि पत्ते समझते हैं कि कलम की जा रही है। तो एक पत्ता काटो, चार निकल आते हैं।
महावीर कहते हैं कि इन जड़ों को सींचते रहने से तो होगा बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु। और घूमोगे चक्र में, नीचे-ऊपर, सुख में, दुख में, हार में, जीत में, और यह चक्र है अनन्त। और ऐसा मत सोचना कि दुख इसलिए है कि मुझे अभी अभाव है। सब मिल जाये तो दुख न रहेगा।
तो महावीर कहते हैं कि तुम्हें अगर सभी मिल जाये स्वर्ण पृथ्वी का, सभी मिल जाये धन-धान्य, हो जाये समस्त पृथ्वी तुम्हारी दास तो भी तुम्हें तृप्त करने में असमर्थ है।
तृप्ति का संबंध क्या तुम्हारे पास है, इससे नहीं है, क्या तुम हो, इससे है। और जो अतृप्त है उसके पास कुछ भी हो तो अतृप्त होगा। और जो तृप्त है उसके पास कुछ हो या कुछ भी न हो तो भी तृप्त होगा।
तृप्ति या अतृप्ति अंतर्दशाएं हैं। बाहर की वस्तुओं से उनका कोई भी संबंध नहीं है। इसलिए महावीर कहते हैं, सब तुम्हारे पास हो जाये तो भी तुम तृप्त न होओगे। क्योंकि न हमने सिकन्दर को तृप्त देखा, न हमने नेपोलियन को तृप्त देखा, न राकफेलर तृप्त है, न मार्गन तृप्त है, न कार्नेगी तृप्त है। सब उनके पास है, जो हो सकता है। शायद नेपोलियन के पास भी नहीं था जो राकफेलर के पास है। लेकिन तृप्ति? तृप्ति का कोई पता नहीं।
और महावीर जो कहते हैं, अनुभव से कहते हैं। उनके पास भी सब था। इसलिए यह कोई सड़क पर खड़े भिखारी की बात नहीं है। सड़क पर खड़े भिखारी की बात में तो धोखा भी हो सकता है, सांत्वना भी हो सकती है। अकसर होती है। सड़क का भिखारी कहता है, क्या मिलेगा यदि सारी पृथ्वी भी मिल जाये? उसका यह मतलब नहीं कि वह सारी पृथ्वी नहीं पाना चाहता। वह यह कह रहा है कि हम पाने योग्य ही नहीं मानते। इसलिए नहीं कि पाने योग्य नहीं मानता, इसलिए कि जानता है कि पाने योग्य मानो तो भी कोई सार नहीं है। छाती पीटनी पड़ेगी, रोना पड़ेगा। होनेवाला नहीं है। अंगूर खट्टे हैं, क्योंकि दूर हैं।
भिखारी भी कहता है, अपने मन को समझाने के लिए कहता है। इसलिए अध्यात्म के इतिहास में एक बड़ी विचित्र घटना घटती है। सम्राट भी कहते हैं, भिखारी भी कहते हैं। वचन एक ही हो सकता है, अर्थ एक ही नहीं होते। जब सम्राट कहते हैं, कि नहीं है कोई सार सारी पृथ्वी में, तो यह एक अनुभव का वचन है। और जब भिखारी कहता है तब अकसर, हमेशा नहीं, अकसर अनुभव का वचन नहीं, सांत्वना की चेष्टा है। समझाना है अपने को, बेकार है। कुछ होगा नहीं। तृप्ति होनेवाली नहीं, पूरी पृथ्वी मिल जाये तो भी। यह अपने को संतुष्ट करने की चेष्टा है।
महावीर जो कह रहे हैं, यह संतुष्ट करने की चेष्टा नहीं है, यह असंतोष के गहन अनुभव का परिणाम है। तो महावीर कहते हैं, सब भी तुम्हें मिल जाये, तो भी कुछ न होगा। क्योंकि सबके मिलने से भी तुम, तुमको नहीं मिलोगे। सब भी मिल जाये, पूरी पृथ्वी भी मिल जाये तो अपने से मिलन नहीं होगा।
और तृप्ति है अपने से मिलन का नाम। दूसरे से मिलने में सिवाय अतृप्ति के कुछ भी पैदा नहीं होता। वह धन हो, कि व्यक्ति हो, कि कुछ भी हो, दूसरे से मिलन, अतृप्ति का ही जन्मदाता है। और अतृप्ति होगी, और मिलने की आकांक्षा होगी, और भ्रम पैदा होगा कि और मिल जाये तो शायद सब ठीक हो जाये।
अपने से ही मिलने पर तृप्ति होती है, क्योंकि फिर खोजने को कुछ भी नहीं रह जाता। लेकिन अपने से वह मिलता है, जो जीवेषणा छोड़ देता है। अपने से वह मिलता है जो काम, क्रोध, लोभ, मोह के पागलपन को छोड़ देता है। क्योंकि यह पागलपन दूसरे में ही उलझाये रखते हैं। यह अपने पास आने ही नहीं देते।
क्रोध का मतलब है--दौड़ गये आग में दूसरे की तरफ। अक्रोध का अर्थ है--लौट आये आग से अपनी तरफ। मोह का अर्थ है--जुड़ गये दूसरे से पागल की तरह। अमोह का अर्थ है, लौट आये बुद्धिमान की तरह, अपनी तरफ। अहंकार का अर्थ है--दूसरे की आंखों में दिखने की चेष्टा। पागलपन है, क्योंकि सब दूसरे भी इसी कोशिश में लगे हैं। मान अहंकार छोड़ देने का अर्थ है, अपनी ही आंख में अपने को देखने की चेष्टा, आत्मदर्शन। अहंकार का अर्थ है--दूसरे की आंखों में दिखने की चेष्टा। निर-अहंकार का अर्थ है--अपना दर्शन। अपनी आंखों में अपने को देखने की चेष्टा। अपने को मैं देख लूं, अपने को मैं पा लूं, अपने साथ मैं हो जाऊं, अपने में मैं जी लूं, तो है परम तृप्ति। दूसरे में मैं दौड़ता रहूं, दौड़ता रहूं, दौड़ है जरूर, पहुंचना बिलकुल नहीं है। यात्रा बहुत होती है, मतलब कुछ नहीं निकलता।
इसलिए महावीर कहते हैं कि इन चार को ठीक से पहचान लेना। और जब ये चार तुम्हें पकड़ें, तो एक बात का ध्यान रखना, स्मरण रखना कि समस्त पृथ्वी को पा लेने पर भी कुछ होता नहीं है।
"जानकर संयम का आचरण करना।'
संयम का क्या अर्थ है? संयम का अर्थ है, यह जो चार पगलपन हैं हमारे बाहर ले जानेवाले, इनसे बचना। संयम का अर्थ है सन्तुलन। क्रोध में सन्तुलन खो जाता है। आप वह करते हैं जो नहीं करना चाहते थे। वह करते हैं जो नहीं कर सकते थे, वह भी कर

लेते हैं। लोभ में संतुलन टूट जाता है। मोह में ऐसी बातें निकल जाती हैं, संतुलन छूट जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था, और उसने कहा, "अगर तुमने मुझसे विवाह न किया, तो पक्का जान रखो, आत्महत्या कर लूंगा।' उस स्त्री ने पूछा, "सच?' वह डर गयी, "सच आत्महत्या कर लोगे?' मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा-- दिस हैज बीन माई यूजुअल प्रोसीजर। यह मैं सदा ऐसा ही करता रहा हूं। जब भी किसी स्त्री के प्रेम में पड़ता हूं, तो सदा यही करता हूं, आत्महत्या!'
जब आप भी प्रेम में होते हैं तो आप ऐसी बातें कहते हैं, जो आप न करते हैं, न कर सकते हैं। वह पागलपन है--एक हारमोनल डिसीज। आपके भीतर ऐसे रासायनिक तत्व दौड़ रहे हैं कि अब आप होश में नहीं हैं। जो आप कह रहे हैं, उसका कोई मतलब नहीं है ज्यादा।
मुल्ला नसरुद्दीन अपनी प्रेयसी से कहता है कि कल तो मैं आऊंगा। न पहाड़ मुझे रोक सकते हैं, न आग की वर्षा। भगवान भी बीच में आ जाये, तो मुझे रोक नहीं सकता। फिर जाते वक्त कहता है कि अगर पानी न गिरा तो पक्का आऊंगा।
अपनी एक प्रेयसी से बिदा ले रहा है। बिदा लेते वक्त उससे कहता है, तेरे बिना मैं जी न सकूंगा। तुझ से ज्यादा सुंदर स्त्री इस पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। शरीर ही जा रहा है, आत्मा यहीं छोड़े जा रहा हूं। फिर सीढ़ियां उतरते कहता है; लेकिन कुछ ज्यादा इसका खयाल मत करना, ऐसा मैं बहुत स्त्रियों से पहले भी कह चुका हूं, आगे भी कहूंगा।
जब आप मोह में हैं--जिसको आप प्रेम कहते हैं, और प्रेम शब्द को खराब करते हैं--तब आप जो बोल रहे हैं, वह बेहोशी है। जब आप क्रोध में हैं, तब आप जो कह रहे हैं, वह भी बेहोशी है।
संयम का अर्थ है--होश। ये बेहोशियां न पकड़ें, आदमी संतुलित हो जाये, संयमी हो जाये, अपने में खड़ा हो जाये। ऐसी बातें न करे, ऐसा व्यवहार न करे, ऐसा जीवन चेतना का, समय का उपयोग न करे, जिसके लिए वह खुद भी होश में आने पर कहेगा, पागलपन था।
इसलिए सभी बूढ़े जवानों पर नाराज दिखायी पड़ते हैं। इसका और कोई कारण नहीं है, अपनी जवानी का दुख। सभी बूढ़े जवानों को शिक्षा देते दिखायी पड़ते हैं। असल में अगर उनको मौका मिलता अपनी जवानी को शिक्षा देने का, जो किसी को मिलता नहीं, वह दूसरों पर निकाल रहे हैं। लेकिन वे भूल कर रहे हैं। उनके मां-बाप भी उनको ऐसी शिक्षा दिये थे, कोई कभी सुनता नहीं। जवानों को बड़ा गुस्सा आता है कि क्या बकवास लगा रखी है, लेकिन बूढ़े बेचारे अनुभव से कह रहे हैं। उन्होंने ये दुख उठा लिए हैं और ये पागलपन कर लिए हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन बैठा है एक बगीचे की बेंच पर अपनी पत्नी के साथ। सांझ हो गयी है। वृक्षों की छाया में कोई नया युगल, एक नया युवक और नयी युवती प्रेम की बातें कर रहे हैं। पत्नी बेचैन हो गयी है। आखिर पत्नी ने मुल्ला से कहा कि ऐसा मालूम पड़ता है कि यह लड़का और यह लड़की शादी करने की तैयारी कर रहे हैं। तुम जाकर कुछ रोकने की कोशिश करो। जरा खांसो खंखारो।
मुल्ला ने कहा, "मुझको किसने रोका था? सब अपने अनुभव से सीखते हैं, बीच में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है।'
वह जब काम पकड़े, क्रोध पकड़े, मोह पकड़े, मान पकड़े तब खयाल करना, कितने अनुभव से सीखिएगा! काफी अनुभव नहीं हो सका है, नहीं हो चुका है। कितना अनुभव हो चुका है? पुनरुक्ति कर रहे हैं। हां, एक अनुभव जरूरी है, लेकिन पुनरुक्ति मूढ़ता है। एक भूल आवश्यक है, लेकिन उसी को दुबारा दोहराना मूढ़ता है।
मूढ़ वे नहीं हैं, जो भूलें करते हैं, और बुद्धिमान वे नहीं हैं, जो भूलें नहीं करते। बुद्धिमान वे हैं जो एक ही भूल दुबारा नहीं करते। मूढ़ वे हैं जो एक ही भूल को अभ्यास से बार-बार करते हैं।
तो ये चार जब पकड़ें तो थोड़ी बुद्धिमानी बरतना और जरा होश रखना कि बहुत बार यह हो चुका है। क्या है परिणाम? क्या है निष्पत्ति? और अगर कोई परिणाम, कोई निष्पत्ति न दिखायी पड़े तो संयम रखना। ठहराना अपने को, खड़े हो जाना, मत दौड़ पड?ना पागल की तरह। जो इन विक्षिप्तताओं से अपने को रोक लेता है, वह धीरे-धीरे उसको जान लेता है, जो विक्षिप्तताओं के पार है। उसका नाम ही आत्मा है।

आज इतना ही।
पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें और फिर जायें।


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