अध्याय
38 : खंड 2
अधःपतन
इसलिए:
जब
ताओ का लोप
होता है,
तब
मनुष्यता का
सिद्धांत
जन्म लेता है;
और
जब मनुष्यता
का लोप होता
है,
तब
न्याय का
सिद्धांत
जन्म लेता है।
और
जब न्याय का
भी लोप होता
है,
तब
कर्मकांड का
सिद्धांत
पैदा होता है।
अब
यह कर्मकांड
हृदय की
निष्ठा
और
ईमानदारी का
विरल हो जाना
है।
और
वही अराजकता
की शुरुआत भी
है।
पैगंबर
ताओ के पूरे
खिले फूल हैं।
और
उनसे ही
मूर्खता की
शुरुआत भी
होती है।
इसलिए
आर्य पुरुष
सघनता (नींव)
में बसते हैं;
विरलता
(अंत) में वे
नहीं बसते।
वे
फल में बसते
हैं; फूल की
खिलावट
(अभिव्यक्ति)
में वे नहीं
बसते।
इसलिए
वे एक को
इनकार और
दूसरे
को स्वीकार
करते हैं।
मनुष्य
दो भांति जी
सकता है: अंतस
से या व्यवहार
से;
या तो भीतर
से और या बाहर
से।
बाहर
से जो जीवन
होगा, झूठा, थोथा और
पाखंडी होगा--अच्छा
भी हो तो भी।
अच्छा होने से
ही कोई आचरण
आंतरिक नहीं
हो जाता।
अच्छा और बुरा
दोनों ही बाहर
से संबंधित
हैं। बुरा हम
कहते हैं उसे,
जिससे समाज
को नुकसान
पहुंचे, दूसरों
को नुकसान
पहुंचे; अच्छा
कहते हैं उसे,
जिससे समाज
को लाभ हो, दूसरों
को लाभ हो।
दोनों ही
बाहरी घटनाएं
हैं। साधु और
असाधु दोनों ही
बाहर हैं।
भीतर
का जीवन संत
का जीवन है।
अच्छे और बुरे
की चिंतना संत
नहीं करता।
सहज उसका
लक्ष्य है; स्वाभाविक
होना उसका
ध्येय है।
स्वाभाविक होना
ही उसके लिए
अच्छा होना है;
अस्वाभाविक
होना ही उसके
लिए बुरा होना
है।
इस बात
को थोड़ा ठीक
से समझ लें।
क्योंकि
हमारी चिंतना
नीति से
प्रभावित
होती है, और
समाज हमें
नैतिक बनाने
की कोशिश करता
है। समाज के
लिए जरूरी भी
है। समाज बिना
नीति के जी भी
नहीं सकता।
इसलिए हर
व्यक्ति को
अनिवार्य रूप
से समाज नैतिक
बनने की
शिक्षा देगा;
अनैतिक
होने का भय
पैदा करेगा।
ये जीवन की अनिवार्यताएं
हैं। लेकिन
अच्छा होकर ही
कोई सत्य को
उपलब्ध नहीं
होता। विपरीत
हो सकता है।
सत्य को उपलब्ध
होकर कोई
अच्छा हो, इसमें
कोई अड़चन नहीं
है। लेकिन
अच्छा होकर ही
कोई सत्य को
उपलब्ध हो
जाता है, ऐसा
जरूरी नहीं
है। समाज इससे
ज्यादा चिंता
नहीं करता कि
आप अच्छे हों।
अच्छे हों, समाज के लिए
पर्याप्त है।
आपके लिए
पर्याप्त नहीं
है। अगर अच्छा
होना भी आपके
लिए अड़चन है तो
दुख का कारण
होगा।
इसलिए
एक अनूठी घटना
घटती है।
कभी-कभी
अपराधी भी
सुखी देखे
जाते हैं, और
कभी-कभी
जिन्हें हम श्रेष्ठ,
सज्जन कहते
हैं, वे भी
दुखी देखे
जाते हैं।
अक्सर ऐसा ही
होता है कि जो
अपने ऊपर
अच्छाई को
आरोपित करता
है वह सुखी
नहीं हो पाता।
आरोपण में
पीड़ा है, बंधन
है, कारागृह
है; और उसे
लगता है कि
जबरदस्ती हो
रही है; परतंत्रता
उसके ऊपर थोप
दी गई है।
इसलिए अच्छा आदमी
भी नाचता हुआ
मालूम नहीं
होता, प्रसन्न
नहीं मालूम
होता; उसके
जीवन में भी
उत्सव की कोई
वर्षा नहीं
दिखाई पड़ती; कोई संगीत, कोई नृत्य
उसकी आत्मा
में फूटता हुआ
दिखाई नहीं
पड़ता। अच्छा
आदमी उदास
मालूम पड़ता
है। उसकी
उदासी को हम
गंभीरता कहते
हैं। उदासी
बीमारी है, और स्वभाव
से उसका कोई
संबंध नहीं
है। गंभीरता
रोग है; सहजता
से उसका कोई
संबंध नहीं
है।
सहजता
तो
प्रफुल्लता
ही होगी।
सहजता में तो
आनंद ही होगा।
लेकिन गंभीर
लोगों ने हमें
बड़ी उलटी शिक्षाएं
दी हैं।
आनंदित
व्यक्ति को वे
उथला कहते हैं; प्रफुल्लित
व्यक्ति को वे
ऊपरी कहते हैं;
गंभीर आदमी
को वे गहरा
कहते हैं; उदास
आदमी को वे
ऊंचा मानते
हैं
प्रफुल्लित आदमी
से।
मूलतः
भ्रांत है
दृष्टि।
गंभीरता
विकृति है।
जहां रोग होगा
वहां गंभीरता
होगी।
प्रफुल्लता
सहज
अभिव्यक्ति
है। जहां भी
जीवन की धारा बहेगी
बिना अवरोध के, वहां
नृत्य होगा, गीत होगा, उत्सव होगा।
धर्म
जब पैदा होता
है तब उत्सव
होता है, और
धर्म जब जड़ हो
जाता है और
संप्रदाय बन
जाता है तो
गंभीरता पकड़
लेती है। धर्म
जब जन्मता है
तब वह कृष्ण
की बांसुरी की
तरह ही जन्मता
है--एक गीत की
तरह। लेकिन जब
संगठित होता
है तब उदास हो
जाता है। धर्म
के जन्म के
समय तो सहजता
होती है, और
धर्म के संगठन
के समय नीति
प्रविष्ट हो
जाती है।
क्योंकि धर्म
तो जन्मता है
व्यक्ति की आत्मा
में, और
संप्रदाय
निर्मित होता
है समाज के
भीतर।
जिस
दिन महावीर को
ज्ञान होता है, या
बुद्ध को परम
प्रज्ञा की
उपलब्धि होती
है, उस दिन
उनके जीवन में
उत्सव उतरता
है। लेकिन यह
अकेले
व्यक्ति के
जीवन में घटी
घटना है। बुद्ध
अकेले हैं
बोधिवृक्ष के
नीचे; महावीर
वन में एकांत
में खड़े हैं।
समाज नहीं है,
नीति नहीं
है, आचरण
नहीं है; शुद्ध
आंतरिकता है।
उस शुद्ध
आंतरिकता में
तो परम आनंद उपलब्ध
होता है।
लेकिन जब
महावीर के
आस-पास जैन
धर्म खड़ा होता
है तब समाज के
भीतर यह घटना
घटती है। जब
बुद्ध के पास
बुद्ध धर्म
खड़ा होता है, तो बुद्ध
धर्म सामाजिक
घटना है।
समाज
नीति पर जोर
देता है। समाज
का आग्रह है दूसरे
के साथ ठीक
व्यवहार, और
धर्म का आग्रह
है अपने साथ
ठीक व्यवहार।
ये दोनों
बुनियादी भिन्न
बातें हैं।
दूसरे के साथ
ठीक व्यवहार
करके भी आप
अपने साथ बुरा
व्यवहार कर
सकते हैं। तब
आप उदास होंगे,
गंभीर
होंगे, पीड़ित
होंगे। आपका
अच्छा होना भी
आपकी अभिव्यक्ति
नहीं बनेगी।
आपका जीवन का
फूल खिलेगा नहीं,
मुर्झाया
ही रहेगा।
लेकिन जब आप
अपने साथ भी
अच्छे होते
हैं तब आपके
जीवन में
उत्सव उतरता
है। और जो
अपने साथ
अच्छा है वह
किसी के साथ
बुरा नहीं हो
सकता। पर
दूसरे के साथ
बुरा न होना
गौण है, छाया
है। जब कोई
व्यक्ति अपने
भीतर आनंदित
होता है तो
किसी को दुख
नहीं दे सकता।
क्योंकि जो
स्वयं के पास
नहीं उसे
दूसरे को देने
का कोई उपाय
नहीं है।
हम
दूसरे को वही
दे सकते हैं, जो
हमारे पास है।
और हमारी मनोकांक्षाएं
कितनी ही
विपरीत हों, दुखी आदमी
कितना ही चाहे
कि दूसरे को
सुख दे, सुख
दे नहीं सकता।
क्योंकि जो
पास नहीं है
उसे देंगे कैसे?
आनंदित
आदमी कोशिश भी
करे किसी को
दुख देने की
तो भी उससे
सुख ही जाता
है। कोई और
उपाय नहीं है।
धर्म
का जोर
है--अपने साथ सदव्यवहार।
और जो अपने
साथ सदव्यवहार
करना सीख गया, और
जिसने अपने
जीवन को सहज
और नैसर्गिक
बना लिया, उसके
द्वारा किसी
के प्रति भी
बुरा व्यवहार
नहीं होगा।
लेकिन वह गौण
है, वह
विचारणीय भी
नहीं है।
यह
लाओत्से की
प्रस्थापना
है। यह उसका
मूल बिंदु है, जहां
से वह
प्रस्थान
करता है। इसे
हम खयाल में
ले लें, फिर
सूत्र को
समझें।
"इसलिए:
जब ताओ का लोप
होता है, तब
मनुष्यता का
सिद्धांत
जन्म लेता है।'
नेता
हैं,
गुरु हैं।
वे लोगों को
समझाते हैं कि
मनुष्य बनो।
मनुष्यता
जैसे परम धर्म
है। लेकिन
लाओत्से कहता
है, जब
धर्म का लोप
हो जाता है
तभी मनुष्यता
की बातें शुरू
होती हैं।
इसे हम
ऐसा समझें कि
जब भी कोई
आपसे कहता है
कि मनुष्य बनो, तो
एक बात तो
पक्की है कि
आप मनुष्य
नहीं रहे हैं।
तभी मनुष्य
बनने की शिक्षा
में कोई सार
है। कोई जाकर
गाय को नहीं
कहता कि गाय
बनो। गाय गाय
है। कोई पशुओं
को, पक्षियों
को नहीं कहता;
तोतों को
कोई नहीं कहता
कि तोते बनो।
क्योंकि तोते
तोते हैं।
सिर्फ मनुष्य
को शिक्षा दी
जाती है कि
तुम मनुष्य बनो।
इसका अर्थ हुआ
कि मनुष्य
सिर्फ दिखाई
पड़ता है कि
मनुष्य है, मनुष्य है
नहीं।
और
सिर्फ मनुष्य
में ही इस तरह
के वचन सार्थक
हो सकते हैं
कि कोई बड़ा
मनुष्य है, कोई
छोटा मनुष्य
है। दो तोतों
में कौन बड़ा
तोता है कौन
छोटा तोता है?
दोनों
बराबर तोते
हैं। उनका तोतापन
जरा भी भिन्न
नहीं है। दो
कुत्तों में
कौन कुत्ता
बड़ा है और कौन
कुत्ता छोटा
है? जहां
तक कुत्तापन
का सवाल है, दोनों में
बराबर है।
लेकिन
दो आदमियों
में हम कह
सकते हैं एक
आदमी बड़ा और
एक आदमी छोटा, और
एक आदमी महान
और एक आदमी
क्षुद्र, और
एक आदमी पूरा
मनुष्य और एक
आदमी अधूरा
मनुष्य। इस
तरह के शब्द, इस तरह के
वचन केवल
मनुष्य पर ही
सार्थक हो सकते
हैं। इसका
अर्थ यह हुआ
कि मनुष्य
मनुष्य की तरह
पैदा नहीं हो
रहा है, सिर्फ
संभावना लेकर
पैदा होता है।
फिर कोई बन पाता
है, कोई
नहीं बन पाता;
कोई अधूरा
बन पाता है, कोई विकृत हो
जाता है; कोई
भटक जाता है, कोई रास्ते
से उतर जाता
है। हजार लोग
चलते हैं
मनुष्य होने
की राह पर, कभी
कोई एक मनुष्य
हो पाता है।
होना तो नहीं
चाहिए ऐसा।
इससे विपरीत
हो तो समझा जा
सकता है कि
हजार लोग पैदा
हों और एक
आदमी कभी आदमी
न हो पाए तो
समझ में आ
सकता है--रुग्ण
हो गया, बीमार
हो गया, कुछ
भूल हो गई।
लेकिन जहां
हजार आदमी
पैदा होते हों
और एक मुश्किल
से कभी आदमी
बन पाता हो, और नौ सौ
निन्यानबे
भटक जाते हों,
तब तो मानना
पड़ेगा कि भटकन
ही रास्ता है।
यह एक आदमी इस
भटकने वाले
रास्ते से
किसी तरह भूल-चूक
से बच गया। यह
एक आदमी अपवाद
हो गया, नियम
न रहा।
लाओत्से
कहता है, जब
धर्म का लोप
हो जाता है, तब मनुष्यता
का धर्म, मनुष्यता
की बातें, ह्यूमैनिटी,
ह्यूमैनिटेरियनिज्म पैदा होता
है। तब लोग
कहते हैं
मनुष्य बनो। लाओत्से
कहता है, मूल
खो गया हो तब
इस तरह की
छोटी शिक्षाएं
पैदा होती
हैं। लाओत्से
कहता है, तुम
सिर्फ
प्राकृतिक
बनो।
सारी
प्रकृति
प्राकृतिक है, सिर्फ
मनुष्य
अप्राकृतिक
है। सिर्फ
मनुष्य अपने
स्वभाव से
इधर-उधर हटता
है। कोई अपने
स्वभाव से
नहीं हटता।
अग्नि जलाती
है। पुराने शास्त्र
कहते हैं, जलाना
अग्नि का
स्वभाव है।
पानी नीचे की
तरफ बहता है।
पुराने
शास्त्र कहते
हैं, पानी
का नीचे की
तरफ बहना
स्वभाव है। और
पुराने
शास्त्र कहते
हैं कि
मनुष्यता
मनुष्य का स्वभाव
है। लेकिन कभी
आपने देखा है
कि आग न जलाती
हो? या कभी
आपने देखा कि
पानी अपने
आपसे ऊपर की
तरफ चढ़ता
हो? लेकिन
फिर मनुष्य
कैसे, अगर
मनुष्यता
उसका स्वभाव
है, तो
जैसे आग जलाती
है, वैसे
ही मनुष्य को
स्वाभाविक
रूप से मनुष्य
होना चाहिए!
भला मनुष्य
होना मनुष्य
का स्वभाव हो।
लेकिन स्वभाव
से हम कहीं
छिटक गए हैं, हट गए हैं।
इस
विचार पर बड़ी
खोज चलती रही
है,
हजारों साल
में न मालूम
कितने चिंतकों
ने
कितनी-कितनी प्रस्तावनाएं
पेश की हैं कि
आदमी विकृत
क्यों है? अभी
नवीनतम एक
प्रस्तावना
है आर्थर कोयस्लर
की। बहुत घबड़ाने
वाली भी। कोयस्लर
का खयाल है--और कोयस्लर
एक वैज्ञानिक
चिंतक है--कोयस्लर
का खयाल है कि
मनुष्य-जाति
के प्राथमिक
क्षणों में ही,
मनुष्य के
मूल उदगम में
ही मनुष्य के
मस्तिष्क में
कुछ विकृति हो
गई, और हम
विकृत
मस्तिष्क को
लेकर ही पैदा
होते हैं।
इसलिए कभी
भूल-चूक से
कोई बुद्ध हो
जाता है, कभी
भूल-चूक से
कोई क्राइस्ट
हो जाता है।
वह भूल-चूक
है। लेकिन
नियम से
मनुष्य विकृत
पैदा होता है।
इससे
कुछ लोगों को
सांत्वना भी
मिलेगी--इस
विचार से--कि चलो, हमारी
झंझट समाप्त
हुई। मूल में
ही कोई उपद्रव
है; मेरा
निजी कोई दोष
नहीं है। और
पश्चिम में इस
तरह के विचार
प्रभावी हो
जाते हैं।
प्रभावी हो
जाने का कारण
यह है कि जो
बात भी आपको
सुविधा देती
है गलत होने
की, वह प्रभावी
हो जाती है।
उससे आप
रिलैक्स होते
हैं, उससे
तनाव कम हो
जाता है। आप
आराम से
कुर्सी पर बैठ
जाते हैं कि
ठीक है, कहीं
मूल में, करोड़ों
वर्ष पहले
इतिहास के साथ
ही कुछ भूल हो
गई है; मनुष्य
विकृत पैदा ही
होता है, तो
व्यक्तिगत
दोष समाप्त हो
गया। और जहां
व्यक्तिगत
दोष समाप्त हो
जाता है वहीं
आपको बुरे होने
की पूरी
सुविधा और छूट
मिल जाती है।
लेकिन कोयस्लर
का खयाल कुछ
नया नहीं है, उसकी
भाषा भला नई
हो। ईसाइयत तो
बहुत समय से कह
रही है कि
आदमी मूल पाप
में पैदा हुआ।
अदम ने जो भूल
की थी, उस
भूल का फल
सारे लोग भोग
रहे हैं। अदम
ने जो पाप
किया था उससे
मनुष्य बहिष्कृत
हो गया स्वर्ग
के राज्य से, सुख के
राज्य से, और
दुख के जीवन
में प्रविष्ट
हो गया। अदम
ने जो भूल की
थी, अदम के
बेटों को, आदमी
को भोगनी
पड़ रही है। तो
बहुत पुराना
खयाल है। इसकी
भाषा हम बदल
दें, वैज्ञानिक
कर दें, कि
मनुष्य के मन
में कोई
रुग्णता हो गई
मूल में।
पुरानी कथा
पुराने ढंग से
कहती है यही
बात कि कहीं
कोई भूल हो गई
पहले आदमी के
साथ, अदम
के साथ, और
उस भूल का हम
सब फल भोग रहे
हैं। इस विचार
ने पश्चिम को
विकृति का
द्वार
उन्मुक्त कर
दिया। तब आदमी
कुछ भी करे, दोष अदम का
है। और वह
दोषी आदमी
इतना दूर है
कि अब उसको
बदलने का कोई
उपाय भी नहीं,
वह कहीं है
भी नहीं। तो
हमें तो इसी
पीड़ा में जीना
ही पड़ेगा।
लेकिन
लाओत्से ऐसा
नहीं मानता।
और न पूरब के किसी
और मनीषी की
ऐसी मान्यता
है। पूर्वीय
मान्यता
बिलकुल भिन्न
है। और वह यह
है कि मनुष्य
पैदा तो
बिलकुल
स्वभाव में ही
होता है, सब
मनुष्य
स्वाभाविक
पैदा होते हैं,
कोई मनुष्य
विकृत पैदा
नहीं होता; लेकिन
विकृति की एक
प्रक्रिया से
उसे गुजरना पड़ता
है। और वह
गुजरना
शिक्षण के लिए
जरूरी है। कुछ
लोग उस
प्रक्रिया
में ही अटक
जाते हैं और
पार नहीं हो
पाते। कुछ लोग
प्रक्रिया को
पूरा कर लेते
हैं; शिक्षण
पूरा हो जाता
है और पार हो
जाते हैं।
इसे हम
ऐसा समझें।
सभी लोग बच्चे
की तरह पैदा होते
हैं;
कोई आदमी
बुजुर्ग की
तरह पैदा नहीं
होता।
सुना
है मैंने, एक
गांव में किसी
यात्री ने
गांव के एक
बूढ़े आदमी से
पूछा--यात्री
पर्यटक था और
गुजरता था
गांव से, गांव
के संबंध में
जानकारी
चाहता
था--उसने पूछा
कि तुम्हारे
गांव के
इतिहास के
संबंध में कुछ
मुझे बताओ; कभी कोई बड़ा
आदमी यहां
पैदा हुआ है? उस बूढ़े ने
कहा, नहीं,
यहां तो सभी
बच्चे पैदा
होते हैं।
यहां कोई बड़ा
आदमी कभी पैदा
नहीं हुआ।
सभी
बच्चे पैदा
होते हैं।
लेकिन बचपन एक
अवस्था है
जिससे गुजर
जाना चाहिए, जिससे
पार हो जाना
चाहिए। बहुत
कम लोग पार हो पाते
हैं। पिछले
महायुद्ध में
अमरीकी सैनिकों
का परीक्षण
किया गया
मनोवैज्ञानिक।
उनकी औसत
मानसिक उम्र
तेरह वर्ष पाई
गई। तेरह वर्ष
मानसिक उम्र!
शरीर आगे निकल
जाता है, मन
कहीं अटक जाता
है पीछे।
सामान्य आदमी
की मानसिक
उम्र तेरह
वर्ष है, चाहे
उसके शरीर की
उम्र सत्तर
वर्ष हो। जैसे
ही मनुष्य
कामवासना से
पीड़ित होता है,
लगता है, उसकी
प्रतिभा रुक
जाती है।
क्योंकि चौदह
वर्ष के करीब
आदमी कामवासना
से पीड़ित होता
है, और
जैसे उसके
जीवन की सारी
ऊर्जा
मस्तिष्क से हट
कर काम-केंद्र
की तरफ
प्रवाहित हो
जाती है।
इसलिए अगर
पूरब के मनीषी
इस चेष्टा में
रहे कि पच्चीस
वर्ष तक युवक
वनों में रहें
और कामवासना
उन्हें न पकड़े,
और अगर
उन्होंने इस
अनुभव और इस
प्रयोग के
द्वारा ऐसा
पाया था कि
पच्चीस वर्ष
तक अगर युवकों
को कामवासना
से पार रखा जा
सके तो उनकी
प्रतिभा पूरी
विकसित हो
जाती है। वह
जो ऊर्जा
कामवासना बन
कर बहती है वह
ऊर्जा पूरी की
पूरी उनके
जीवन के फूल
को खिला देती
है।
अभी, आपको
शायद पता न हो,
अमरीका में
हर वर्ष
बच्चों की
कामुकता की
उम्र कम होती
चली जाती है।
कुछ वर्षों
पहले तक
पंद्रह वर्ष
कामवासना के
जन्म की उम्र
थी। फिर चौदह
वर्ष हो गई, फिर तेरह
वर्ष हो गई।
अब बारह वर्ष
औसत उम्र हो
गई। अमरीका के
मनोवैज्ञानिक
चिंतित हैं कि
अगर इस तरह
गिराव हुआ तो
कोई आश्चर्य
नहीं है कि यह
और नीचे गिर
जाए। और जितना
यह गिराव होता
चला जाता है
उतनी ही
मानसिक उम्र
भी कम होती
चली जाती है।
तो अगर आज
अमरीका के
युवक विक्षिप्त
मालूम पड़ रहे
हैं तो उसका
एक कारण तो यह
भी है कि उनकी
मानसिक उम्र
नीचे गिरती जा
रही है।
सभी
बच्चे की तरह
पैदा होते हैं, लेकिन
बच्चा होने के
लिए पैदा नहीं
होते। बच्चे
के पार जाना
है।
आपको
खयाल शायद न
हो कि आम आदमी
पांच प्रतिशत बुद्धि
का उपयोग करता
है पूरे जीवन
में। जो आंकड़ा
सौ तक पहुंच
सकता था वह
केवल पांच तक
ही उपयोग किया
जाता है। आप
सौ कदम चल
सकते थे
प्रतिभा के, आप
पांच कदम ही
चलते हैं। और
जिनको हम बहुत
प्रतिभाशाली
कहते हैं वे
भी पंद्रह
प्रतिशत
प्रतिभा का
उपयोग करते
हैं। जिनको
नोबल प्राइज
मिलती हैं वे
भी पंद्रह
प्रतिशत
उपयोग करते हैं।
मनुष्य की
संभावना अनंत
मालूम पड़ती
है। अगर हमारे
प्रतिभाशाली
लोग भी पंद्रह
कदम ही चलते
हैं, जब कि
जन्म से सौ
कदम चलने की
क्षमता लेकर
आए थे, तो
लगता है
मनुष्यता
बहुत अधूरे
में जी रही है;
अधूरे में
भी कहना ठीक
नहीं, बहुत
छोटे से खंड
में जी रही
है। आपके
मस्तिष्क के
अधिकांश
हिस्से बिना
उपयोग के पड़े
रह जाते हैं।
आधा मस्तिष्क
तो वैज्ञानिक
कहते हैं समझ
में ही नहीं
आता कि क्यों
है। क्योंकि उसका
कोई उपयोग ही
नहीं करता है।
मनुष्य तो पूरी
क्षमता लेकर
पैदा होता है,
लेकिन उस
क्षमता का
शायद पूरा
उपयोग नहीं हो
पा रहा है।
मनुष्य
की शिक्षा में
कहीं भूल है, स्वभाव
में नहीं।
मनुष्य के
समाज में कहीं
भूल है, क्योंकि
समाज मनुष्य
के द्वारा
निर्मित है; मनुष्य की
प्रकृति में
कहीं भूल
नहीं। क्योंकि
वह प्रकृति तो
जागतिक है, परमात्मा की
है। भूल
स्वभाव में
नहीं है; भूल
समाज में है, व्यवस्था
में है।
समझें
कि एक बीज हम
बोते हैं। और
बीज सौ फीट ऊंचा
वृक्ष हो सकता
था जो आकाश
में बदलियों
को चूमता।
लेकिन उसे ठीक
पानी नहीं
मिलता, क्योंकि
पानी देना
माली के हाथ
में है। बीज
परमात्मा ने
दिया है; पानी
देना माली के
हाथ में है।
उसे ठीक खाद
नहीं मिलता, उसे ठीक
सुरक्षा नहीं
मिलती। या
माली पागल है और
माली उसे बढ़ने
नहीं देता। या
माली को इस
तरह का सपना
मन में है कि
इस पौधे को
छोटा रखा जाए
तो ज्यादा
सुंदर मालूम
पड़ेगा। तो वह
उसको काटता
रहता है, वह
उसकी जड़ों को
काटता रहता है,
उसके
पत्तों को, शाखाओं को
काटता रहता
है। उसे बढ़ने
नहीं देता। या
माली को खयाल
है, या
समाज में ऐसा
फैशन है कि
वृक्ष को उसके
स्वाभाविक
ढंग से बढ़ने
दिया जाए तो
वह कुरूप हो
जाएगा, इसलिए
माली उसे एक
ढांचा पहना
देता है तारों
का, ताकि
वह वैसा बढ़े
जैसा समाज
कहता है
सौंदर्य है; समाज की
धारणा जो
सौंदर्य की है
वैसा बढ़े। तो फिर
पौधा बढ़ता है,
लेकिन पौधा
वैसा नहीं
बढ़ता जैसा बीज
लेकर आया था।
और फिर अगर
पौधा प्रसन्न
न हो पाए और
खुले आकाश में
न उठ पाए और
बदलियों को न
छू सके और पौधे
के जीवन में
गीत पैदा न हो,
तो हम
कहेंगे कि बीज
में कुछ भूल
थी।
करीब-करीब
स्थिति ऐसी
है। प्रत्येक
मनुष्य बुद्ध
होने की
क्षमता लेकर
पैदा होता है।
बुद्धत्व
प्रत्येक मनुष्य
का जन्मसिद्ध
अधिकार है। जो
बुद्ध नहीं
पाता तो समझना
चाहिए, कहीं
शिक्षा में, यात्रा में,
मार्ग में,
माली ने, पिता ने, मां
ने, शिक्षकों
ने, गुरुओं
ने, धर्मों
ने, कहीं न
कहीं कोई
उपद्रव खड़ा
किया है।
लाओत्से
इसी उपद्रव की
तरफ इशारा कर
रहा है। वह
कहता है, जब
धर्म का लोप
हो जाता है, स्वभाव का, ताओ का, तब
मनुष्यता का
सिद्धांत
जन्म लेता है।
और जब मनुष्यता
का भी लोप हो
जाता है, तब
न्याय का
सिद्धांत
जन्म लेता है।
और जब न्याय
का भी लोप हो
जाता है, तो
कर्मकांड
पैदा होता है।
स्वभाव
के लिए फिर
कोई नियम नहीं
है;
न कोई
मनुष्यता है,
न कोई न्याय
है, न कोई
कर्मकांड है।
स्वभाव
पर्याप्त है।
इसलिए हमने
उपनिषदों में
कहा है कि जो
व्यक्ति स्वभाव
को उपलब्ध हो
जाए वह फिर
सारे सामाजिक
नियमों के पार
हो गया। फिर
उस पर कोई
बंधन नहीं है।
फिर उससे हम
नहीं कह सकते
कि तुम ऐसा
करो। फिर हम
यह नहीं कह
सकते कि ऐसा
करना उचित है
और ऐसा करना
अनुचित है।
उपनिषदों ने
कहा है, जो
व्यक्ति
स्वभाव को
उपलब्ध हो गया
वह जो भी करता
है वही उचित
है, और वह
जो नहीं करता
वही अनुचित
है। हमारी
परिभाषाएं उस
पर लागू नहीं
होतीं; उसका
आचरण ही हमारी
परिभाषाएं
बनता है।
बुद्ध
को देखें। और
बुद्ध जैसा
चलते हैं, जैसा
व्यवहार करते
हैं, वही
हमारे लिए
नियम है। हम
उनसे नहीं कह
सकते कि हमारे
नियम के
विपरीत आप न
चलें।
इसलिए
एक
महत्वपूर्ण
घटना भारत में
घटी कि हमने
किसी बुद्ध या
कृष्ण को जीसस
की तरह सूली पर
नहीं लटकाया।
जीसस अगर भारत
में पैदा होते
तो हमने
उन्हें
अवतारों की एक
गणना में
गिनती की
होती। अगर
बुद्ध जेरुसलम
में पैदा होते
तो सूली पर
लटकते। कोई
जीसस का ही
सवाल नहीं है।
क्योंकि जेरुसलम
में जो समाज
था वह सोचता
है कि जो उसके
नियम हैं वह
प्रत्येक को
पालन करने
चाहिए। चाहे
कोई कितने ही
ज्ञान को
उपलब्ध हो जाए, नियम
के बाहर नहीं
जाता। इसलिए
जीसस को भी
उनके नियम के
अनुसार चलना
चाहिए। लेकिन
हम इस देश में
मानते रहे हैं
कि जो ज्ञान
को उपलब्ध हो
जाए वह हमारे
नियम के पार
चला जाता है।
और हम अपने को
उसके अनुसार
ढालें, यह
तो हो सकता है;
हम उसे अपने
अनुसार ढालें,
यह नहीं हो
सकता। अगर हम
अपने को उसके
अनुसार न ढाल
सकें तो यह
हमारी मजबूरी
है; उसका
दोष नहीं।
इसलिए
बुद्ध को भारत
ने स्वीकार
नहीं किया। हिंदू
विचारधारा को
बुद्ध की
विचारधारा
पसंद नहीं
पड़ी। लेकिन एक
बड़ी मीठी घटना
है। बुद्ध को
अस्वीकार कर
दिया, भारत का
समाज उनके
पीछे नहीं चला;
लेकिन फिर
भी हिंदुओं ने
उन्हें अपना
एक अवतार
माना। यह बड़ी
अनूठी बात है।
बुद्ध का धर्म
हिंदुस्तान
में नहीं फैल
पाया; उखड़
गया। बुद्ध ने
जो जीवन के
सूत्र दिए थे
वे लोग मानने
को राजी न
हुए। यह बड़ा
अनूठा मालूम पड़ता
है कि जिसको
मानने वाला इस
मुल्क में एक
न रहा, फिर
भी हिंदुओं ने
अपने एक अवतार
में बुद्ध की
गिनती की।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता; यह हमारी
मजबूरी है कि
हम तुम्हारे
पीछे न चल सके।
यह तुम्हारा
कसूर नहीं, यह हमारी
भूल है। और
हमारी अपनी कमियां
हैं, सीमाएं
हैं। हमारे
पैर उतने
मजबूत नहीं कि
तुम जिस
पर्वतीय मार्ग
पर जा रहे हो, हम तुम्हारे
पीछे आएं।
इसलिए हम
तुम्हारे पीछे
तो नहीं आ
सकते, तुम
अकेले जाओ।
लेकिन यह हम
जानते हैं कि
तुमने जो पाया
है वह सही है।
गलत होंगे तो
हम होंगे।
इसलिए बुद्ध
को हमने
अवतारों में
तो गिन लिया; बुद्ध के
पीछे हम नहीं
चले।
अगर
बुद्ध जेरुसलम
में पैदा
होते--या कहीं
भी,
मक्का में
या मदीना में
पैदा होते--तो
सूली उनकी
निश्चित थी।
मोहम्मद को
जिस तरह
परेशान किया
अरब ने, इस
मुल्क ने कभी
किसी
तीर्थंकर को,
किसी
पैगंबर को इस
भांति परेशान
नहीं किया। अस्वीकार
किया हो, इनकार
किया हो, कह
दिया हो कि हम
तुम्हारे
पीछे नहीं आते,
लेकिन
अनादर नहीं
किया। सूत्र
यही है कि तुम
ताओ को, स्वभाव
को उपलब्ध हो
गए; तुम्हारे
लिए कोई नियम
नहीं। हम
अंधेरे में, घाटी में
भटकते हुए लोग
हैं, स्वभाव
का हमें कोई
पता नहीं; हम
नियम से जीते हैं।
हमारेत्तुम्हारे
बीच बड़ा फासला
है। उस फासले
को हम पूरा
करें, ऐसी
हमारी
आकांक्षा है।
न कर पाएं, ऐसी
हमारी मजबूरी
है, कमजोरी
है।
जब
स्वभाव का लोप
होता है तब
मनुष्यता का
सिद्धांत
जन्म लेता है।
इसलिए
मनुष्यता का
सिद्धांत कोई
बड़ा ऊंचा
सिद्धांत
नहीं है। लेकिन
उससे भी नीचे
की स्थितियां
हैं। जब
मनुष्यता भी
लोप हो जाती
है तब न्याय के
सिद्धांत का
जन्म होता है।
जब हम लोगों
से कहते हैं, न्यायपूर्ण
व्यवहार करो।
तो उसका मतलब
यह है कि अब
मनुष्य होना
भी आसान नहीं
रहा। मनुष्य तो
न्यायपूर्ण
व्यवहार
करेगा ही। यह
सवाल नहीं है
कि दूसरे के
साथ न्याय
होना चाहिए; यह उसके
मनुष्य होने
में ही निहित
है कि वह न्यायपूर्ण
व्यवहार
करेगा। लेकिन
जब मनुष्यता
भी खो जाती है,
जब मनुष्य
होने का प्रेम
भी खो जाता है,
तो फिर हमें
कहना पड़ता है
कि अन्याय मत
करो। न्याय की
सारी
व्यवस्था
निषेधात्मक है।
इसलिए न्याय
हमेशा नकार की
भाषा में होता
है। जीसस ने
पुराने
बाइबिल से दस
महा आज्ञाओं का
उल्लेख किया
है, टेन कमांडमेंट्स।
लेकिन सभी
नकारात्मक
हैं--ऐसा मत
करो, ऐसा
मत करो, ऐसा
मत करो।
क्योंकि
न्याय यह नहीं
कह सकता कि
क्या करो; न्याय
इतना ही कह
सकता है कि ऐसा
मत करो, ताकि
अन्याय न हो।
चोरी मत करो, व्यभिचार मत
करो, हत्या
मत करो; ये
सब
निषेधात्मक
हैं।
मनुष्यता
विधायक है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
परम सहजता न
तो विधायक है, न
निषेधात्मक
है। वहां कोई
नियम नहीं।
वहां तो जो
तुम्हारे
भीतर से आए
वही नियम है।
वहां न करना
और करने का
कोई सवाल नहीं
है। परम धर्म
में प्रतिष्ठित
व्यक्ति तो
कुछ करता ही
नहीं; इसलिए
विधायक और
निषेध की बात
नहीं हो सकती।
उससे जो होता
है, होता
है। वह तो
हवा-पानी की
तरह है। उस पर
हम न दोष दे
सकते और न
उसकी प्रशंसा
कर सकते।
अगर
लाओत्से से
जाकर हम कहें
कि तुम बड़े
सच्चरित्र हो!
तो वह हंसेगा; वह
कहेगा, इसमें
मेरा कोई गुण
नहीं; इसमें
मेरा कोई भी
गुण नहीं है।
अगर हम लाओत्से
से कहें कि
तुम बड़े शांत
हो! तो वह
कहेगा, इसमें
मेरा कोई गुण
नहीं; झीलें
शांत हैं, पहाड़
शांत हैं, आकाश
शांत है, ऐसा
ही मैं भी
शांत हूं।
इसमें कुछ
गुण-गौरव नहीं
है।
परम
धर्म में
प्रतिष्ठित, जिसको
हम संत कहते
हैं, उसके
लिए कोई कर्म
नहीं है। उससे
नीचे उतर कर मनुष्यता
है। मनुष्यता
के लिए विधायक
कर्म है। क्या
करो? प्रेम
करो, दया
करो, करुणा
करो। कुछ करने
पर जोर है।
उससे भी नीचे उतर
कर न्याय है।
वहां न करने
पर जोर है।
हिंसा मत करो।
प्रेम तुम नहीं
कर पा सकते हो,
छोड़ दो; लेकिन
कम से कम किसी
की हत्या मत
करो, किसी
को दुख मत
पहुंचाओ। दान
नहीं कर सकते
हो, छोड़ो;
चोरी मत
करो। न्याय "न
करने' पर
उतर आता है।
परम
अवस्था
है--निषेध-विधेय
के पार। एक
सीढ़ी नीचे
मनुष्यता
है--विधायक।
अगर हम बुद्ध
के धर्म को
लें तो वह
विधायक है।
लाओत्से की
बात परम है।
बुद्ध का धर्म
विधायक
है--करुणा।
महावीर का
धर्म विधायक
है--दया। जीसस
का धर्म
विधायक
है--प्रेम। उससे
भी नीचे न्याय
का जगत है, जहां
जोर इस बात पर
है कि तुम कम
से कम दूसरे
को चोट, नुकसान,
पीड़ा मत
पहुंचाओ।
इतना भी काफी
है। लेकिन वह
भी अंतिम पतन
नहीं है। उससे
भी नीचे
कर्मकांड का
जगत है, जहां
सब पाखंड है; जहां दूसरे
का तो कोई
सवाल ही नहीं
है। जहां अगर
न्याय भी करना
है तो इसीलिए,
ताकि न्याय
के द्वारा भी
शोषण हो सके।
जहां अगर चोरी
करने से रुकना
है तो भी
इसलिए, ताकि
बड़ी चोरी की
व्यवस्था हो
सके। जहां सब
धोखा है। जहां
सिर्फ अपना
स्वार्थ ही सब
कुछ है। और
अपने स्वार्थ
के लिए सभी
कुछ समर्पित
है। और उस
स्वार्थ में
कठिनाई पड़ती
है। क्योंकि आप
स्वार्थी हैं,
अकेले नहीं,
और भी सभी
लोग स्वार्थी
हैं। तो उन सब स्वार्थियों
के बीच में
कैसे
व्यवस्था से
आप अपनी नौका
को बचा कर पार
कर लें, बस
वही धर्म है।
इस भांति चलो
कि तुम्हें
कोई नुकसान न
पहुंचा पाए, और तुम
नुकसान
पहुंचाने में
सदा अग्रणी
रहो। लेकिन
तुम्हें कोई
पकड़ भी न पाए।
कर्मकांड का जगत
है।
एक
आदमी मंदिर
जाता है।
मैंने सुना, एक
आदमी रोज चर्च
जाता था। बहरा
था, तो कुछ
सुन तो सकता
नहीं था। न
चर्च में होने
वाले भजन सुन
पाता, न
प्रवचन सुन
पाता। लेकिन
नियमित रूप, हर रविवार
ठीक समय पर
सबसे पहले
चर्च में मौजूद
होता और सबसे
बाद तक बैठा
रहता।
आखिर
पुरोहित भी जिज्ञासु
हो गया और
उसने एक दिन
जैसे ही आया
बहरा आदमी, अकेला
ही था, उसने
पूछा कि एक
प्रश्न मेरे
मन में सदा
उठता है। लिख
कर ही पूछा, क्योंकि वह
सुन नहीं सकता
है। वह यह कि
जब तुम सुन ही
नहीं सकते--न
तुम गीत सुन
सकते, न
भजन, न
संगीत, न
प्रवचन--तो
तुम इतने
निष्ठावान
क्यों हो कि
नियम से तुम
पहले आकर
बैठते हो और
नियम से तुम
अंत में जाते
हो? तो उस
बहरे आदमी ने
कहा कि मैं
चाहता हूं कि
लोग मुझे देख
लें कि मैं
धार्मिक हूं;
और कोई
प्रयोजन नहीं
है।
यह भी इनवेस्टमेंट
है,
लोग जान लें
कि मैं
धार्मिक हूं। क्रियाकांडी
आदमी की
उत्सुकता
धार्मिक होने
में नहीं है, जनाने में
है कि मैं
धार्मिक हूं।
क्योंकि इसके
सहारे बहुत सा
अधर्म किया जा
सकता है। अगर अधर्म
ठीक से करना
हो तो धार्मिक
होने की धारणा
लोगों में
चाहिए। अगर
आपको झूठ
बोलना है तो आपको
सत्य बोलने का
प्रचार करना
चाहिए। क्योंकि
झूठ केवल उसी
से बोला जा
सकता है जो
सत्य पर भरोसा
करता हो। नहीं
तो कोई झूठ
बोल नहीं सकता;
कोई फायदा
भी नहीं है।
अगर सभी लोग
मानते हों, झूठ बोलना
ही धर्म है, फिर बड़ी
मुसीबत हो
जाए। फिर आप
झूठ में कभी
सफल नहीं
होंगे। आपका
झूठ सफल होता
है सच में श्रद्धा
रखने वाले
लोगों की वजह
से। आप
बेईमानी में
सफल हो जाते
हैं, क्योंकि
कुछ लोग अभी
भी ईमानदारी
का भरोसा किए
बैठे हैं।
आपकी बेईमानी
सफल नहीं होती;
उनकी
ईमानदारी
आपकी सफलता
बनती है।
इसलिए क्रियाकांडी
व्यक्ति को उन
सारी चीजों की
प्रचारणा
करते रहना
चाहिए जिनके
विपरीत उसे
कुछ करना है।
मैंने
सुना है, एक
चोर एक बैंक
में रात
प्रविष्ट
हुआ। साज-सामान
लेकर गया था, डायनामाइट
लेकर गया था
कि तिजोड़ी
को तोड़
डालेगा।
लेकिन तिजोड़ी
के सामने ही
एक छोटी सी
तख्ती उसने
लगी देखी। बहुत
चकित हुआ।
तख्ती पर लिखा
था: डोंट यूज
डायनामाइट; दि सेफ इज़
नाट लॉक्ड,
जस्ट पुश दि
बटन।
डायनामाइट का
उपयोग मत करो,
ताला है
नहीं तिजोड़ी
पर, सिर्फ
बटन दबाओ। वह
चकित हुआ कि
बड़े अदभुत लोग
हैं! उसने बटन
दबाई। लेकिन
बटन दबाते ही
एक बहुत बड़ा
रेत का थैला
उसके ऊपर
गिरा। सारे
बैंक में बल्ब
जल गए; घंटियां बजने लगीं।
पुलिस भीतर आ
गई। स्ट्रेचर
पर उसे बाहर
ले जाया गया। जब
वह होश में
आया और जब उसे
एंबुलेंस में
रखा जा रहा था
तब उसके मुंह
से ये शब्द
सुने गए: माय फेथ इन ह्यूमैनिटी
हैज बीन शेकन वेरी
डीपली; मेरा भरोसा
मनुष्यता में
बुरी तरह
जर्जरित हो
गया।
चोर को
भी आपके भरोसे
पर ही भरोसा
है। और तो कोई
उपाय नहीं है।
चौथी
जो स्थिति है, वहां
धर्म भी शोषण
का आधार है।
इसलिए अगर
आपको शोषक, बेईमान, चार
सौ बीस, सब
मंदिरों में,
मस्जिदों में, गुरुद्वारों में इकट्ठे
मिलते हैं तो
चकित होने की
कोई जरूरत
नहीं। वे वहीं
मिलेंगे।
सारा आयोजन
उनके लिए ही
हो रहा है और
उनके हित में
है। यह जो
कर्मकांडी
मनुष्य है, इसकी
जीवन-व्यवस्था
का मूल आधार
समझ लेना जरूरी
है। क्योंकि
हम में से
अधिक उसी चौथी
श्रेणी में
होंगे। उसका
मूल आधार क्या
है?
समझें, समाज
में गरीबी है।
तो यह जो
कर्मकांडी है,
यह गरीबी
मिटाने के
पक्ष में नहीं
होगा कभी भी, यह दान के
पक्ष में
होगा। गरीबी
का मूल आधार मिट
जाए, इसके
पक्ष में कभी
नहीं होगा।
गरीब तो बने
रहें, लेकिन
दान बड़ा धर्म
है, इसके
पक्ष में
होगा।
क्योंकि दान
गरीबी को मिटाता
नहीं, सिर्फ
गरीबी को सहने
योग्य बनाता
है। यह मूल कारण
कभी नहीं मिटाना
चाहेगा, यह
केवल ऊपर से
लीपापोती
करना चाहेगा।
यह मकान की
इमारत नहीं
बदलेगा, आधार
नहीं बदलेगा,
यह सिर्फ
व्हाइट वाश
करने पर भरोसा
रखेगा। मकान
वही होगा।
इसलिए
बहुत मजे की
बात है कि
धार्मिक आदमी
है,
वह एक
भिखारी को दान
देने के लिए
तैयार है, और
जो नहीं देता
उसको
अधार्मिक
कहेगा; लेकिन
इस पूरी
व्यवस्था को
वह समझने को
तैयार नहीं है
कि यह भिखारी
पैदा कैसे
होता है। और वह
सब कुछ कर रहा
है जो भी, उसके
द्वारा यह
भिखारी पैदा
हो रहा है। वह
जो भी कर रहा
है, जहां
से उसको दान
देने योग्य
रुपए मिल रहे
हैं, वह
पूरी
व्यवस्था से
यह भिखारी
पैदा हो रहा
है। वह
व्यवस्था का
आधार है खुद।
लेकिन इस
भिखारी को दान
देने के पक्ष
में है। और जो
नहीं देगा दान,
उसे
अधार्मिक
कहता है।
तो दो
तरह के
अधार्मिक
हैं। एक वे जो
दान नहीं देते।
लेकिन वे उतने
बड़े अधार्मिक
नहीं हैं; वह
जो दान दे रहा
है, लेकिन
गरीबी बिलकुल
मिट जाए, इसके
पक्ष में नहीं
है।
स्वामी
करपात्री
ने एक किताब
लिखी है और
उसमें लिखा है
कि समाजवाद के
वे इसलिए
विरोध में
हैं। जो कारण
दिया है, वह
बहुत अदभुत
है। वह कारण
यह है कि
हिंदू धर्म
में दान के
बिना मोक्ष
जाने का कोई
उपाय नहीं है।
और अगर
समाजवाद आ जाए
तो दान कौन
लेगा? तो
फिर मोक्ष
कैसे जाइएगा?
मोक्ष
जाने के लिए
गरीबों का
होना बिलकुल
जरूरी है।
क्योंकि
उन्हीं के
कंधे पर रख कर
पैर तो आप
मोक्ष
जाएंगे। मगर
उनको दान भी
देते रहिए, कहीं
ऐसा न हो कि वे
आपके कंधे पर
पैर रखने के पहले
ही जमीन पर
गिर जाएं।
इतनी ताकत
उनमें रहनी चाहिए
कि आप कंधे पर
पैर रख सकें
और वे आपको
झेल सकें।
तो
गरीब को जिलाए
रखो,
उसे मर मत
जाने दो।
क्योंकि उसके
मरते ही वह धनपति
भी मर जाएगा।
उसके ही कंधे
पर खड़ा है। लेकिन
कंधे से मत
उतरो। और उसको
भी तुम्हारे
जैसे ही योग्य
मत हो जाने
दो। क्योंकि
दो हालत में
धनपति
मिटेगा--या तो
गरीब मिट जाए
या गरीब भी
अमीर हो जाए।
दो हालत में
धनपति
मिटेगा। ये
दोनों हालतें
मत होने दो।
गरीब को उस
जगह रखो जहां
वह गरीब भी
रहे और धनपति
के प्रति
श्रद्धा से भी
भरा रहे। तो
दान भी दो, दया
भी करो। यह
कर्मकांडी की
व्यवस्था है।
इसलिए
अगर माक्र्स
ने कहा है कि
धर्म गरीबों के
लिए अफीम है
तो एकदम गलत
नहीं कहा है।
कर्मकांडी
धर्म के लिए
माक्र्स की
बात बिलकुल
सही है। यह
चौथी कोटि का
जो धर्म है, इसके
लिए माक्र्स
की बात एकदम
सही है कि यह
गरीब को अफीम
खिलाना है। न
उसे भूख का
पता चलता, न
उसे दुख का
पता चलता, वह
अफीम खाए पड़ा
रहता है।
कर्मकांडी का
दान, दया, धर्म, धर्मशालाएं,
मंदिर, स्कूल,
अस्पताल, सब अफीम
हैं। गरीब को
इस हालत में
नहीं आने देता
कि वह बिलकुल
ही इतना
असंतुष्ट हो
जाए कि क्रांति
कर गुजरे। उसे
संतोष देता
रहता है, सांत्वना
देता रहता है।
अगर
दान की
व्यवस्था
बिलकुल न हो
तो क्रांति अभी
हो जाए। लेकिन
दान की
व्यवस्था बफर
बना देती है।
जैसे ट्रेन
में बफर
होते हैं दो
डिब्बों के
बीच में। तो
कभी कोई धक्का
लगे गाड़ी को
तो बफर
झेल लेते हैं; डब्बों
में बैठे
लोगों को धक्का
नहीं पहुंच
पाता। बफर
पी जाते हैं
धक्के को। ऐसा
समाज गरीब और
अमीर के बीच बफर पैदा
करता है कि
कुछ भी उपद्रव
हो तो बफर
पी जाएं, अमीर
तक धक्का नहीं
आ पाए।
तो
गरीब और अमीर
के बीच में
दान और दया के क्रियाकांड
बफर पैदा
करते हैं। और
बड़ी कुशलता
से। लंबे अनुभव
से यह बात तय
हो पाई है कि
समाज को अगर
ठीक से चूसना
हो तो अकेला
चूसना काफी
नहीं है; चूसने
के आस-पास एक
वातावरण होना
चाहिए जहां गरीब
को खुद ही लगे
कि उसके
हितकारी, उसके
कल्याण करने
वाले लोग हैं।
ये उसका शोषण कैसे
कर सकते हैं?
अगर
भारत जैसे
मुल्क में
क्रांति नहीं
हो सकी कभी भी
तो उसका एक
मूल कारण यही है
कि यहां हमने
इतना बड़ा
कर्मकांड
पैदा किया, हमने
इतने बफर
पैदा किए कि
दुनिया में
कोई समाज इतनी
कुशलता से बफर
पैदा नहीं कर
पाया। गरीब को
लगता ही नहीं
कि अमीर उसका
दुश्मन है।
गरीब को लगता
है कि अमीर उसका
त्राता, उसका
पिता, उसको
दान देने वाला,
उसको
सम्हालने
वाला, उसका
नाथ, सब
कुछ अमीर लगता
है।
अगर हम
एक सौ वर्ष
पीछे लौट जाएं
और भारतीय गांव
की तस्वीर
देखें तो गरीब
यह सोच ही
नहीं सकता कि
यह जो अमीर है, यह
उसका दुश्मन
हो सकता है।
यह उसका पिता
है; यही तो
उसका सब कुछ है।
यही उसे भोजन
देता, यही
उसके बच्चों
को शिक्षा
देता, यही
उसे वस्त्र
देता; इस
पर ही सब कुछ
निर्भर है। जब
कि हालत
बिलकुल उलटी
है। इस अमीर
का सब कुछ इस
गरीब पर
निर्भर है।
लेकिन गरीब को
हजारों वर्ष
से समझाया गया
है कि अमीर पर
सब कुछ निर्भर
है। और यह
समझाहट, दान,
दया, करुणा,
मंदिर, धर्मशाला,
इनसे आई है।
ये बीच के
सेतु हैं।
तो
कर्मकांडी
मनुष्य बहुत
धार्मिक
दिखाई पड़ेगा, लेकिन
जरा भी
धार्मिक नहीं
होगा।
लाओत्से
कहता है, "यह
कर्मकांड
हृदय की
निष्ठा और
ईमानदारी का विरल
हो जाना है, तिरोहित हो
जाना है। और
वही अराजकता की
शुरुआत भी है।'
और जब
ऐसा होगा, कर्मकांड
इतना सघन हो
जाएगा, तो
फिर व्यवस्था टूटेगी।
एक सीमा है, जब तक
कर्मकांड सहा
जा सकता है, फिर सब उखड़
जाएगा।
करीब-करीब
भारत ऐसी जगह
खड़ा है आज, जहां
कर्मकांड
अपने सौ
डिग्री के
करीब पहुंच रहा
है; जहां
किसी भी दिन
बगावत, उपद्रव,
अराजकता
होने वाली है।
इसके मूल में
हमारा हजारों
साल से इकट्ठा
हुआ कर्मकांड
है। उसकी पर्त
बिलकुल विरल
हो गई, कभी
भी टूट सकती
है। हृदय की
निष्ठा उसमें
जरा भी नहीं
है। न कोई
आंतरिक भाव है,
न कोई न्याय
है, न कोई
मनुष्यता
है--ताओ और
धर्म तो बहुत
दूर की बात है,
स्वप्न
है--सिर्फ
कर्मकांड है।
और उस कर्मकांड
का बड़ा जाल
है। लेकिन वह
जाल भी एक जगह
पर मरने के
करीब पहुंच
जाता है। जब
भी कोई व्यर्थ
चीज बहुत
बोझिल हो जाती
है तो कब तक ढोई
जा सकती है? एक सीमा आ
जाएगी जब उसे
सिर से उतार
कर फेंक ही देना
पड़ेगा।
तो
लाओत्से कहता
है,
अगर ताओ हो
जगत में तो
क्रांति नहीं
होगी। क्योंकि
क्रांति का
कोई कारण ही
नहीं है।
लेकिन जैसे ही
ताओ से गिरना
शुरू होता है,
अगर
मनुष्यता हो
जगत में तो भी
वैसा आनंद तो
नहीं रह जाएगा
जैसा धर्म के
प्रभाव में
होता है, लेकिन
फिर भी सुख
होगा।
क्रांति नहीं
होगी। अगर
न्याय हो जगत
में तो सुख भी
खो जाएगा; लेकिन
दुख न पहुंचे
लोगों को, इतनी
धारणा होगी।
तो भी क्रांति
नहीं होगी। वह
भी खो जाए, फिर
कर्मकांड ही
रह जाए, तो
एक न एक क्षण
अराजकता और
क्रांति
अनिवार्य है,
क्योंकि
लोगों को दुख
भी दिया जा
रहा है। और थोथा
कर्मकांड कब
तक लोगों को
धोखा दे सकता
है?
यह
करीब-करीब ऐसा
है जैसे बच्चे
को मां दूध नहीं
पिलाना चाहती
और उसके मुंह
में उसका ही
अंगूठा पकड़ा
देती है। वह
थोड़ी देर चूसेगा।
लेकिन कब तक? एक
सीमा है। आखिर
भूख बढ़ेगी
तो अंगूठे का
कर्मकांड
ज्यादा साथ
नहीं दे सकता।
अंगूठा
कर्मकांड है।
उससे कुछ दूध
भी नहीं निकल
रहा, उससे
कुछ मिल भी
नहीं रहा।
लेकिन बच्चे
को ऐसा लग
सकता है कि वह
कुछ चूस रहा
है तो कुछ मिल
रहा होगा।
क्योंकि जब भी
उसने मां का
स्तन चूसा है
तो दूध मिला
है। तो चूसने
में और मिलने
में एक संयोग
बन गया, एक
एसोसिएशन है।
इसमें सिर्फ
चूस रहा है, मिल कुछ भी
नहीं रहा; सिर्फ
कर्मकांड है,
भीतर कोई
धारा नहीं बह
रही जीवन की।
लेकिन कब तक
यह चलेगा? एक
न एक घड़ी
बच्चा यह समझ
जाएगा कि
सिर्फ चूसना
हो रहा है; मिल
कुछ भी नहीं
रहा।
जिस
दिन भी समाज
का कर्मकांड
सिर्फ अंगूठे
की तरह चूसना
रह जाता है, जिससे
कुछ भी मिलता
नहीं जीवन को,
कोई आनंद की
झलक नहीं, कोई
सुख का महाभाव
नहीं है, कोई
अनुग्रह नहीं,
कोई जीवन की
प्रफुल्लता
नहीं, तो
अराजकता पैदा
होती है।
लाओत्से
कहता है, यही
अराजकता की
शुरुआत है।
"पैगंबर
ताओ के पूरे
खिले फूल हैं।'
यह
सूत्र बड़ा
बगावती है, बड़ा
क्रांतिकारी
है। एकदम से
धक्का भी पहुंचाएगा,
शॉकिंग है। पैगंबर,
तीर्थंकर, अवतार, ताओ
के पूरे खिले
फूल हैं। जहां
धर्म अपनी परम
सर्वोत्कृष्टता
में, चरमता में प्रकट
होता है, जैसे
गौरीशंकर
का शिखर, जहां
से ऊंचे से
ऊंचे धर्म की
अभिव्यक्ति
होती है, तीर्थंकर,
पैगंबर, अवतार,
ऐसे पुरुष
हैं। लेकिन
दूसरा वचन
बहुत हैरान करने
वाला है।
"और
उनसे ही
मूर्खता की
शुरुआत भी
होती है।'
हर
पैगंबर के
आस-पास मूर्ख
इकट्ठे होंगे
ही। कोई उपाय
नहीं है, उनसे
बचने का भी
उपाय नहीं है।
वह जो मूढ़ों
की जमात है, वह फिर संप्रदाय
निर्मित करती
है। और सारी
दुनिया में उपद्रव
उससे फैलता
है। मोहम्मद
अनूठे हैं। लेकिन
मोहम्मद के
आस-पास जो
जमात इकट्ठी
हो गई, उसने
पृथ्वी को
बहुत परेशान
किया। जीसस
अनूठे हैं।
लेकिन उनके
पास जो जमात
इकट्ठी हो गई,
उसने अभी तक
पीछा नहीं
छोड़ा। आदमी को
अभी भी सताए
चली जा रही
है। कृष्ण
अनूठे हैं।
शिव अनूठे हैं।
लेकिन उनके
पंडित-पुरोहितों
का जो जाल है, वह छाती पर
पत्थर की तरह
बैठा हुआ है।
नाम शिव का है,
शोषण पंडित
कर रहा है।
नाम कृष्ण का
है, भागवत
कृष्ण की पढ़ी
जा रही है; लेकिन
वह जो पढ़ रहा
है, वह जो
पंडितों का
जाल है, वह
जो पुरोहित
बैठे हैं, वे
उसका शोषण कर
रहे हैं।
लाओत्से
ठीक कहता है
कि पैगंबर
अंतिम ऊंचाई हैं
जीवन की, लेकिन
उन्हीं के साथ
मूर्खता का भी
जन्म होता है।
उनसे नहीं
होता, उनमें
नहीं होता; लेकिन उनके
आस-पास तो
होता है। थोड़ा
देर सोचें, अगर मोहम्मद
पैदा न हों तो
मुसलमानों ने
जो भी उपद्रव
किया दुनिया
में वह नहीं
होता। अगर
जीसस न हों तो
ईसाइयों ने जो
भी धर्मयुद्ध
किए, हत्याएं कीं, हजारों-लाखों
लोगों को
जलाया, अनेक-अनेक
कारणों से, वह नहीं
होता।
लाओत्से का
मतलब यह नहीं
है कि पैगंबर
इस उपद्रव की
शुरुआत करते हैं।
लेकिन उनसे
शुरुआत होती
है। यह कुछ
अनिवार्य है।
इससे बचा नहीं
जा सकता। जीवन
का एक नियम है
कि विपरीत
आकर्षित होते
हैं।
तो
महावीर हैं।
महावीर परम
त्यागी हैं, त्याग
उनके लिए सहज
है। जितने
भोगी इस मुल्क
में थे सब
उनसे आकर्षित
हो गए। अभी
जैनियों को देखें,
त्याग से
उनका कोई
लेना-देना
नहीं है। यह
बड़े मजे की
बात है कि
महावीर के
आस-पास सब
दुकानदार
क्यों इकट्ठे
हो गए! महावीर
कहते हैं, धन
व्यर्थ है।
सभी धनी उनके
पास क्यों
इकट्ठे हो गए!
महावीर तो
वस्त्र भी छोड़
दिए। लेकिन देखें,
वस्त्रों
की अधिकतम
दूकानें
जैनियों की
हैं। यह कुछ
समझ में नहीं
पड़ता कि इसमें
कुछ संबंध
जरूर होगा, भीतरी कुछ
नाता होगा कि
जो आदमी
दिगंबर हो गया,
कपड़े भी छोड़
दिए!
मैं
जिस गांव में
रहता था वहां
एक दिगंबर
क्लाथ स्टोर
है--नंगों की
कपड़ों की
दुकान! बेबूझ
लगता है, लेकिन
कोई भीतरी
तर्क जरूर काम
कर रहा है।
महावीर के
त्याग से भोगी
प्रभावित हो
गए। असल में, विपरीत
आकर्षित होता
है; जैसे
स्त्री पुरुष
से प्रभावित
होती है, पुरुष
स्त्री से
प्रभावित
होता है।
विपरीत आकर्षित
करते हैं। तो
महावीर के
त्याग को देख
कर भोगियों को
लगा होगा, गजब!
ऐसा त्याग तो
हम कभी नहीं
कर सकते
जन्मों-जन्मों
में; यह
महावीर ने तो
चमत्कार कर
दिया। यह
चमत्कार उनको
छू गया होगा; वे इकट्ठे
हो गए।
इसलिए
अक्सर विपरीत
इकट्ठे हो
जाते हैं। और
वे जो विपरीत
हैं,
उन्हीं के
हाथ में वसीयत
पहुंचती है।
स्वभावतः, उन्हीं
के हाथ में
वसीयत
पहुंचती है।
महावीर कर भी
क्या सकते हैं?
जो इकट्ठे
हैं आस-पास वे
ही उनके, उन्होंने
जो कहा है
उसके मालिक हो
जाएंगे। जो इकट्ठे
हैं वे ही
उसकी
व्याख्या
करेंगे। कल वे
ही मंदिर, संगठन,
संप्रदाय
निर्मित
करेंगे। यह
होगा; इससे
बचने का उपाय
नहीं है।
लेकिन अगर
इसकी सचेतना
रहे, जैसा
कि लाओत्से का
इरादा यही है
कहने में कि
अगर यह हमें
बोध रहे, तो
इसकी पीड़ा कम
हो सकती है।
और अगर यह
खयाल सारे जगत
में
परिव्याप्त
हो जाए तो हम
पैगंबरों को
स्वीकार कर
लेंगे और उनके
संप्रदायों
को अस्वीकार
कर देंगे। यह
इसका अर्थ है।
तो
महावीर
बिलकुल ठीक
हैं,
लेकिन
जैनियों की
कोई आवश्यकता
नहीं। कृष्ण
बिलकुल
प्यारे हैं, लेकिन
हिंदुओं का
क्या
लेना-देना!
शिव की महिमा
ठीक है, लेकिन
बनारस का
उपद्रव! वह
नहीं चाहिए।
मोहम्मद ठीक,
लेकिन
मक्का पर जो
हो रहा है, मदीना
में जो हो रहा
है, वह जाल
तोड़ देने जैसा
है। और जिस
दिन धर्म की
अभिव्यक्तियां
स्वीकार हो
जाएंगी और
उनके आस-पास
निर्मित
संगठन
अस्वीकृत हो
जाएंगे, उस
दिन इस जगत
में धर्म के
कारण जो
उपद्रव होते
हैं वे नहीं
होंगे। और
धर्म के कारण
जो औषधि मिल
सकती है पीड़ित
मनुष्यों को
वह मिल सकेगी।
"पैगंबर
ताओ के पूरे
खिले फूल हैं।
और उनसे ही
मूर्खता की
शुरुआत होती
है।'
ऐसी
सीधी बात
लाओत्से के
सिवाय किसी ने
भी कभी कही
नहीं है। शायद
इसीलिए
लाओत्से के
आस-पास कोई
संप्रदाय
निर्मित नहीं
हो सका। कैसे
संप्रदाय
निर्मित होगा? कौन
संप्रदाय
निर्मित
करेगा?
"इसलिए
आर्य पुरुष
सघनता में, नींव में
बसते हैं; विरलता,
अंत में
नहीं।'
इसलिए
मूल पर ध्यान
रखते हैं आर्य
पुरुष। महावीर
पर ध्यान
रखेंगे; जैनियों
की फिक्र छोड़
देंगे। बुद्ध
पर ध्यान रखेंगे;
बौद्धों पर
जरा भी ध्यान
न देंगे। नानक
पर दृष्टि
होगी; सिक्खों
से क्षमा मांग
लेंगे। मूल पर
ध्यान रखेंगे।
"आर्य
पुरुष सघनता,
नींव में
बसते हैं; विरलता,
अंत में
नहीं।'
वह जो
अंत होता है
धर्म का वहां
सत्य नहीं है।
जहां धर्म का
जन्म होता है
वहां सत्य है।
और धर्म का
जन्म और धर्म
का अंत बड़ी
उलटी बातें हैं।
क्योंकि अंत
तो सदा
संप्रदाय में
होता है, सदा
संगठन में
होता है। कोई
उपाय नहीं है।
बचने की कोई
चेष्टा भी करे
तो भी कुछ
उपाय नहीं है।
अंत होगा ही
वहां; यह
सहज परिणति
है। जैसे
बच्चा जन्मता
है और अंत मौत
में होता है; कोई कितना
ही उपाय करे
मौत से बचने
का, कोई बच
नहीं सकता।
जन्मता बच्चा
है; अंत
बुढ़ापे में
होता है।
ध्यान बच्चे पर
रखना है, वहां
शुद्धता है।
तो
महावीर बच्चे
की तरह हैं।
उनके आस-पास
जो धर्म
निर्मित होता
है,
वह बुढ़ापा
है। और फिर
बुढ़ापे के भी
पार मौत है।
सभी धर्म जन्मते
हैं और सभी
धर्म मरते
हैं। समय के
भीतर जो भी
चीज पैदा होगी
वह मरेगी भी।
लेकिन महावीर
तो विदा हो
जाएंगे, मरा
हुआ धर्म ढोया
जा सकता है
अनंत काल तक।
और जितना
मुर्दा धर्म
होगा उतना ही
जानलेवा होगा।
लेकिन
धार्मिक
मनुष्य, जितना
पुराना धर्म
हो उतना ही
गौरव समझते
हैं। वे कहते
हैं, हमारा
धर्म सनातन
है। उसका मतलब
तुम सनातन से लाश
ढो रहे हो।
कभी का मर
चुका होगा तुम्हारा
धर्म। समय में
कुछ भी शाश्वत
नहीं है। धर्म
की चिनगारी भी
जब समय की
धारा में
प्रविष्ट
होती है तो बुझेगी।
पृथ्वी पर कुछ
भी शाश्वत
नहीं है।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि धर्म
शाश्वत नहीं
है। लेकिन
धर्म का वह जो
रूप शाश्वत है
वह तो प्रकट
नहीं होता। उस
शाश्वत से
कभी-कभी किसी
व्यक्ति का
संबंध हो जाता
है;
कोई महावीर,
कोई बुद्ध,
कोई कृष्ण
उस शाश्वत
धर्म से जुड़
जाता है। उसमें
झलक उतरती है।
फिर महावीर और
बुद्ध के द्वारा
वह झलक हमारे
पास पहुंचती
है। फिर हम उस
झलक को संगठित
करते हैं। फिर
हम मंदिर
निर्मित करते
हैं, मस्जिद
बनाते हैं, शास्त्र
निर्मित करते
हैं। फिर हम
व्यवस्था जमाते
हैं। लेकिन इस
सारी
व्यवस्था में,
वह जो मूल
शाश्वत से
संबंध जुड़ा था
महावीर का, वह खो गया।
फिर हम इस लाश
को ढोते हैं।
फिर यह लाश
मूर्खतापूर्ण
हो जाती है।
फिर हमें कष्ट
होता है; इसको
हम छोड़ भी
नहीं सकते।
क्योंकि
इसमें हम पैदा
होते हैं, इसी
लाश में हम
पैदा होते
हैं। जन्म से
ही हमारा इसका
संबंध जुड़
जाता है। फिर
इसे उतारने में
हमें ऐसा लगता
है प्राण निकल
रहे हैं। कि
मेरा धर्म!
कैसे मैं छोड़
सकता हूं!
लेकिन
धर्म से जिसको
जुड़ना हो
उसे मेरा धर्म
छोड़ना ही पड़ता
है। जिसे उस
शाश्वत धारा
से जुड़ना
हो जिससे
महावीर और
बुद्ध जुड़ते
हैं उसे महावीर
और बुद्ध से
संबंध छोड़ कर, महावीर
और बुद्ध के
आस-पास जो
संप्रदाय बने
हैं उनसे भी
संबंध छोड़ कर
सीधा ही उस
धारा की तरफ उन्मुख
होना होता है।
तो महावीर में
जो झलक को देख
कर झलक, कहां
से आई है उस
स्रोत की खोज
में चला जाए, उसने तो ठीक
रास्ता पकड़
लिया। और जो
महावीर में
झलक को देख कर
महावीर के
आस-पास रुक
जाए...। और अब तो
महावीर हैं
नहीं, बुद्ध
हैं नहीं, कृष्ण
हैं नहीं; उनके
पंडे-पुरोहित
हैं। और वे भी
कई पीढ़ियां गुजर
गईं, हजारों
साल--उधार, उधार,
उधार। अब
सत्य जैसा कुछ
भी बचा नहीं; सिर्फ
मुर्दा असत्य
उनके हाथ में
रखे हैं। उनसे
संबंधित हैं
लोग।
मैंने
सुना है, सूफियों
में एक कहानी
है कि जिस
आदमी ने अग्नि
की खोज की
उसका नाम था
नूर। वह परम
ज्ञानी था, प्रकाशवान
था, इसलिए
उसको नूर नाम
दिया गया।
उसके आस-पास
शिष्य इकट्ठे
हो गए।
क्योंकि बड़ी
अनूठी खोज थी,
अग्नि की
खोज। आज हमें
नहीं लगता, क्योंकि आज
तो हमारी
माचिस में बंद
है। लेकिन हजारों
साल पहले जब
पहली दफा किसी
आदमी ने अग्नि
खोजी होगी, तो उस आदमी
ने जितना
कल्याण किया
है मनुष्य का
उतना
आइंस्टीन भी नहीं
कर सकता। तो
निश्चित ही
नूर पैगंबर हो
गया और उसके
आस-पास भीड़
इकट्ठी हो गई
शिष्यों की।
और शिष्यों को
बड़ा जोश होता
है कि जो
तुमने पाया है
उसे दूसरों तक
कैसे पहुंचाएं।
नूर ने
उनको बहुत
समझाया कि
जल्दी मत करो, क्योंकि
लोग अंधेरे
में रहने के
इतने आदी हैं कि
तुम्हारे
प्रकाश से
बहुत नाराज हो
जाएंगे। पर
शिष्य नहीं
माने। उनको
प्रकाश दिखाई
पड़ गया था। और
दूसरे को भी
मनाने में
अहंकार को बड़ी
तृप्ति मिलती
है कि हम
दूसरे को भी
ठीक करके आ गए,
उसको भी
रास्ते पर लगा
दिया। वह
अंधेरे में भटक
रहा था, उसको
हम प्रकाश के
मार्ग पर ले
आए। शिष्य
नहीं माने; तो नूर ने
कहा, ठीक
है, तो
चलो।
तो वे
पहले कबीले
में गए। और जब
नूर के शिष्यों
ने खबर की कि
हमारा जो
पैगंबर है नूर, उसने
अग्नि का राज
खोज लिया है।
अब अंधेरे में
रहने की कोई
जरूरत नहीं, अब प्रकाश
का सूत्र मिल
गया। अब तुम
अंधेरे में मत
भटको और
भयभीत भी मत
होओ, अब
रात की कोई
जरूरत नहीं
है। लोगों ने
समझा कि नूर
कोई बहुत भला
आदमी है; कवि
मालूम होते
हैं ये लोग, ऋषि मालूम
होते हैं।
किसी ने भरोसा
नहीं किया कि
अंधेरा मिट
सकता है।
उन्होंने कहा
कि हम नूर की
पूजा करेंगे;
हमें नूर की
मूर्ति बना
लेने दो। नूर
ने अपने
शिष्यों से
कहा, देखो!
आग के संबंध
में उन्होंने
बात ही न की, उन्होंने
नूर की
प्रतिमा बना
ली और
उन्होंने कहा,
हम
तुम्हारी
सदा-सदा पूजा
करेंगे, तुम
जैसा
महापुरुष, जिसे
प्रकाश का पता
चल गया। नूर
के शिष्यों ने
उनसे कहा कि
प्रकाश हम
तुम्हें भी
बता सकते हैं।
उन्होंने कहा
कि हम पापी, हमारा क्या
प्रकाश से
संबंध हो सकता
है! इतना ही
काफी है कि
हमने नूर के
दर्शन कर लिए।
इतना क्या कम
भाग्य। पुण्यों
से, जन्मों-जन्मों
के पुण्यों
से ऐसा होता
है।
हार कर
नूर और उसके
शिष्य दूसरी
जमात में, दूसरे
कबीले में गए।
उन लोगों ने
बातें सुनीं
और वे लोग
खंडन पर उतारू
हो गए।
क्योंकि जो लोग
अंधेरे में रह
रहे हैं
हजारों साल से
वे अंधेरे की
फिलासफी पैदा
कर लेते हैं।
उन्होंने कहा
कि अंधेरा तो
जीवन है।
उन्होंने कहा,
अंधेरे के
बिना तो कुछ
हो ही नहीं
सकता। और अंधेरा
नहीं रहेगा, रात खो
जाएगी; यह
तो प्रकृति की
हत्या है। और
अग्नि जब
प्रकृति से
नहीं मिली तो
तुम कौन हो? जरूर इसमें
शैतान का हाथ
है। क्योंकि
परमात्मा ने
जब प्रकृति
बनाई और उसने
अग्नि हमें
सीधी नहीं दी
तो इसमें
शैतान की
करतूत है।
उन्होंने
शिष्यों पर
हमला बोला।
नूर और उनके
शिष्यों को
वहां से भागना
पड़ा। नूर ने
कहा कि देखो!
उन्होंने
अंधेरे का
पक्ष लिया।
ऐसा नूर और
उसके शिष्य कई
जमातों में
गए। एक जमात ने
उनसे शिक्षा
भी ले ली
अग्नि की। तो
उन्होंने
अग्नि का
उपयोग लोगों
को जलाने, दुश्मनों
को मारने, उनके
घरों में आग
लगाने के लिए
किया। तो नूर
ने कहा कि
देखो!
फिर सैकड़ों
साल बीत गए और
नूर को मानने
वालों की
परंपरा गुप्त
हो गई।
क्योंकि
उन्होंने कहा, बात
करना खतरनाक
है। फिर सैकड़ों
साल बाद उनके
शिष्यों ने
पुनः सोचा कि
हम जाकर देखें
तो, जहां-जहां
नूर गया था
वहां-वहां
क्या लक्षण छूटे।
तो एक जमात
में उन्होंने
देखा कि नूर
की पूजा जारी
है। बड़े-बड़े
मंदिर खड़े हो
गए हैं और
सिर्फ मंदिरों
में प्रकाश
जलता है। और
पुजारी भर को प्रकाश
जलाने का
अधिकार है। और
पुजारी भर जानता
है कि प्रकाश
कैसे जलाया
जाए। और लोग
प्रकाश को
नमस्कार करके
अपने अंधेरे
घरों में लौट
आते हैं। और
दूसरी जमात
में उन्होंने
देखा कि लोग
अंधेरे में ही
जी रहे हैं और
नूर के बड़े
खिलाफ हैं। और
वहां अभी भी
नूर के खिलाफ
न मालूम कितनी
कहानियां
प्रचलित हैं।
तीसरे कबीले
में उन्होंने
देखा कि लोग
अब भी अंधेरे
में रहते हैं।
आग का उपयोग
तो सिर्फ दुश्मनों
को जलाने और
उनके मकानों
में, गांवों
में आग लगाने
के लिए करते
हैं।
करीब-करीब
धर्मों की यही
हालत है।
लाओत्से
कहता है, "पैगंबर
ताओ के पूरे
खिले फूल हैं।
पर उनसे ही मूर्खता
की शुरुआत
होती है।
इसलिए आर्य
पुरुष सघनता
में बसते हैं,
विरलता में
नहीं। वे फल में
बसते हैं, फूल
की खिलावट में
नहीं।'
फल तो
है बीज, फूल
है अंत।
संप्रदाय फूल
है, सदगुरु बीज है, फल
है। आर्य
पुरुष फल में
बसते हैं। बीज
की तलाश करते
हैं कि धर्म
का मूल क्या
है। धर्म का मूल
है ताओ, वह
सहज स्वभाव।
फिर उसके
आस-पास वर्तुल
बनते हैं--मनुष्यता
के, न्याय
के, कर्मकांड
के। यह
कर्मकांड
आखिरी परिणति
है। यह
मूर्खता का
आखिरी रूप है।
"वे फल
में बसते हैं,
फूल की
खिलावट में
नहीं। इसलिए
वे एक को
इनकार और
दूसरे को
स्वीकार करते
हैं।'
वे
धर्म को
स्वीकार करते
हैं,
संप्रदाय
को इनकार करते
हैं। वे मूल
को स्वीकार करते
हैं, वे
मूल के आस-पास
जो आयोजना हो
जाती है, उसको
अस्वीकार
करते हैं। वे
बीज को
स्वीकार करते
हैं, फूल
को अस्वीकार
करते हैं।
लेकिन
साधारणतः हम
फूल से
प्रभावित
होते हैं, बीज
से नहीं। बीज
तो समझ में ही
नहीं आता; फूल
दिखाई पड़ता
है। उसके रंग
साफ होते हैं;
उसका रूप
निखरा होता है;
उसकी सुगंध
हमारे
नासापुटों को
छूती है। हम फूल
को समझ पाते
हैं। बीज से
कौन प्रभावित
होता है? और
अगर हम कभी
बीज की तलाश
भी करते हैं
तो फूल के लिए
ही करते हैं।
बीज में तो
कुछ दिखाई भी
नहीं पड़ता।
बीज तो छिपा
है; गहन
रहस्य में
डूबा है। अभी
वहां है बीज
जहां
परमात्मा
होता है। फूल
वहां है जहां
संसार है। मेनीफेस्ट,
जो प्रकट हो
गया वह फूल
है। अनमेनीफेस्ट,
जो प्रकट
नहीं हुआ वह
बीज है। बीज
परमात्मा है;
संसार फूल
है। हम फूल से
प्रभावित
होते हैं। फूल
से प्रभावित
होना
सांसारिक मन
की दशा है। बीज
से हम प्रभावित
नहीं होते।
लेकिन
जिसको
जीवन-सत्य की
खोज करनी हो
उसे बीज की
तलाश करनी
चाहिए, उसे
मूल की तलाश
करनी चाहिए।
उसे
अभिव्यक्तियों
को हटा देना
चाहिए और उसे
खोजना चाहिए
जो अभिव्यक्ति
के पहले था।
क्योंकि वही
शुद्ध है।
अभिव्यक्ति
में तो मिश्रण
हो ही जाएगा।
एक कवि
एक गीत गाए; एक
कविता का जन्म
हो। तो थोड़ा
कविता के जन्म
को देखें।
शब्द उतरेंगे,
काट-छांट
होगी, लयबद्धता
लाई जाएगी, पंक्तियां सुधारी
जाएंगी, निखारा
जाएगा; फिर
एक गीत तैयार
हो जाएगा
छंदबद्ध। उसे
गाया जा सकता
है। यह
अभिव्यक्ति
है। इससे थोड़ा
पीछे हटें, तो जो पहली
पंक्तियां
कवि के मन में
आई थीं, वे
इतनी कटी-छंटी
नहीं थीं, इतनी
साफ-सुथरी
नहीं थीं। धुंधली
थीं, उनकी
रेखाएं
एक-दूसरे से
अलग-अलग नहीं
थीं, एक-दूसरे
में गड्ड-मड्ड
थीं, धुएं
की तरह थीं।
उनका आकार साफ
नहीं था। निराकार
के करीब थीं।
कवि ने उन्हें
छांटा। अनगढ़
पत्थर की तरह
थीं, निखारा,
छेनी से छांटा;
मूर्ति
प्रकट हो गई।
लेकिन जितनी
मूर्ति प्रकट
हो गई उतनी ही
मूल से दूर हो
गई। वह अनगढ़
पत्थर मूल था।
इसलिए
झेन फकीरों
ने जापान के
अपने बगीचों
में अनगढ़
पत्थर रखे हैं, मूर्तियां
नहीं बनाईं।
उनको वे रॉक
गार्डन कहते हैं।
मूर्तियां
नहीं बनाई हैं
अपने बगीचों
में। झेन मोनेस्ट्री
के बगीचे
में अनगढ़
पत्थर रखे
रहते हैं। उन
पर काई जम
जाती है; वे
जैसे हैं, वैसे
ही रख दिए
जाते हैं।
उनको निखारा
नहीं जाता, उनको साफ
नहीं किया
जाता। वे इस
बात की याद दिलाते
हैं साधक को
कि तुम मूल को खोजना;
अभिव्यक्त
को, निखारे को मत
खोजना।
क्योंकि
निखारा कितना
ही आकर्षित
करता हो वह
मूल से दूर हो
गया।
और
थोड़ा पीछे
हटें, तो ये अनगढ़
पंक्तियां भी
नहीं हैं। तब
भीतर एक घुमड़ता
हुआ भाव है; जो कवि को भी
साफ नहीं है
कि क्या है।
एक गर्भस्थ
अवस्था है; मां को भी पता
नहीं कि क्या
पैदा होगा। वह
लड़की होगी कि
लड़का होगा; सुंदर होगा
कि कुरूप होगा;
अच्छा होगा,
बुरा होगा;
हिटलर होगा
कि बुद्ध होगा;
कुछ पता
नहीं है। सब
अंधकार में
है। पर एक घुमड़ता
हुआ भाव है।
कुछ घना हो
रहा है भीतर, कुछ गर्भ बन
रहा है भीतर।
उसकी पीड़ा है,
उसका बोझ
है।
और
थोड़ा पीछे सरकें; अभी
गर्भ भी नहीं
है। जैसे एक
स्त्री किसी
के प्रेम में
पड़ गई हो। जब
भी कोई स्त्री
किसी के प्रेम
में पड़ती है
तो एक अनजानी
छाया मां बनने
की उसके भीतर
सरकने लगती
है। असल में, स्त्री के
लिए प्रेम का
अर्थ मां बनना
होता है। कुछ
भी साफ नहीं
है; कोई
भाव भी नहीं
है। भाव से भी
नीचे कहीं
किसी अतल में
कुछ सरकना
शुरू हो गया
है। थोड़ी ही
देर बाद घना
होगा; भाव
बनेगा; फिर
भाव विचार
बनेगा; फिर
विचार छांटे
जाएंगे, निखारे
जाएंगे; फिर
गीत बनेगा।
तो कवि
के भीतर जब
अभी कुछ घना
भी नहीं हुआ
है तब जो बीज
की तरह बंद
पड़ा है, उसकी
तलाश काव्य की
तलाश है। और
जो उसको पकड़ ले
और उसमें
प्रवेश कर जाए,
वह काव्य की
आत्मा में
प्रवेश कर
गया। कविताओं
में जो काव्य
को खोजते रहते
हैं वे बहुत
दूर खोज रहे
हैं; कवि
की आत्मा में
जो खोजते हैं
वे ही खोज
पाते हैं।
कविता तो बहुत
दूर की ध्वनि
है, बहुत
दूर निकल गई।
यह जो
संसार है, अगर
हम परमात्मा
को कवि समझें
तो यह जो
संसार है, उसका
काव्य है। यही
वेदों ने कहा
है कि परमात्मा
का काव्य है, छंद है उसका,
उसका गीत
है। इस संसार
में अगर हम
परमात्मा को
खोजने सीधे लग
जाएं तो
कठिनाई होगी;
हम फूल में
खोज रहे हैं।
जरूर फूल भी
बीज से जुड़ा
है, लेकिन
लंबी यात्रा
है। संसार भी
परमात्मा से जुड़ा
है, लेकिन
लंबी यात्रा
है। अगर हम
संसार में
धीरे-धीरे डूबें,
अगर हम फूल
में धीरे-धीरे
डूबें तो
एक न एक दिन हम
बीज को पकड़
लेंगे, मूल
उदगम को पकड़
लेंगे। हिंदू
गंगोत्री की
पूजा करने
जाते हैं। ये
सारे प्रतीक
थे कि तुम
गंगा की फिक्र
छोड़ो, गंगा
से क्या
लेना-देना!
गंगोत्री की
तरफ जाओ, जहां
से गंगा
जन्मती है उस
मूल उदगम को
खोजो। पीछे लौटो, वहां
पहुंचो
जो सबसे पहले
था, जिसके
पहले कुछ भी
नहीं था।
लाओत्से
जब कहता है कि
आर्य पुरुष फल
में बसते हैं, वे
मूल को खोज
लेते हैं और
मूल में ही
जीते हैं।
अभिव्यक्ति
से पीछे सरकते
हैं और
अनभिव्यक्त
को अपना जीवन
बना लेते हैं।
जितना ही आप
अनभिव्यक्त
में सरकते चले
जाएं, उतना
ही आपका जीवन
समाधिस्थ
होता चला
जाएगा।
अगर
हम--इस विचार
को कई पहलुओं
से समझा जा
सकता है--अगर
आप अपने शरीर
में ही इस विचार
की अवधारणा
करें, तो आपका
मस्तिष्क फूल
है और आपकी
नाभि आपका बीज
है। तो जीवन
की पहली धड़क
नाभि से शुरू
हुई और जीवन
की अंतिम धड़क
मस्तिष्क में
पूरी हुई है।
मस्तिष्क
छत्ते की तरह
फूल है। लेकिन
हम वहीं जीते
हैं, और
हमारा सारा
जीवन वहीं
भटकने में बीत
जाता है। आप
अपनी खोपड़ी
में ही घूमते
रहते हैं। यह
घूमना फिर आब्सेशन
हो जाता है, रुग्ण हो
जाता है। फिर
यह घूमने का
आपको पता भी
नहीं चलता कि
आप क्यों घूम
रहे हैं, आप
क्यों इस
खोपड़ी के भीतर
चक्कर लगाते
रहते हैं। फिर
यह चक्कर
लगाना आपकी
आदत हो जाती
है। फिर आप न
भी लगाना
चाहें तो भी
कोई उपाय नहीं
है; बैठे
हैं, चक्कर
जारी है।
योग
कहता है, नीचे
उतरें; मस्तिष्क
से हृदय में
आएं। हृदय अभी
अनगढ़ है; वहां धुंधले
बादल हैं, वहां
अभी कुछ साफ
नहीं है। फिर
उससे भी नीचे
उतरें और नाभि
में आएं। वहां
जीवन बीज में
छिपा है। वहां
अभी कोई भनक
भी नहीं
पहुंची है
अभिव्यक्ति
की। और वहीं
से संबंध जुड़
सकेगा जीवन की
धारा से।
इसलिए
लाओत्से और
लाओत्से के
मानने वाले
लोग कहते हैं
कि आदमी नाभि
में है। नाभि
के ठीक दो इंच
नीचे, लाओत्से
एक केंद्र, चक्र की बात करता
है, जिसको
वह हारा कहता
है।
आपने
शब्द सुना
होगा जापानी, हाराकिरी। हाराकिरी
का मतलब होता
है नाभि में
छुरा मार कर
मर जाना; हारा
में छुरा मार
लेना। यह बहुत
मजे की बात है।
अगर यूरोप में
कोई आदमी मरे
तो वह खोपड़ी
में पिस्तौल
मारता है।
जापान में कोई
आदमी मरे तो
नाभि में छुरा
मारता है।
क्योंकि
जापानी कहते
हैं, वहीं
जीवन का मूल
उदगम है तो
उसी में लीन
होना है।
इसलिए हाराकिरी
साधारण
आत्महत्या
नहीं है; सभी
नहीं कर सकते।
आपको तो पता
भी नहीं है कि
आप छुरा कहां
मारेंगे। हाराकिरी
तो केवल वही
कुशल आदमी कर
सकता है जिसको
हारा का पता
है कि कहां
जीवन का मूल
केंद्र है।
आपको तो पता
भी नहीं है।
हर कहीं मारने
से आप नहीं मर
जाएंगे।
सिर्फ हारा पर
ही छुरा प्रवेश
करेगा तो
मृत्यु होगी।
और वह मृत्यु
बड़ी अदभुत है।
वह मृत्यु एक
तरह की समाधि
है।
इसलिए
जापान में हाराकिरी
अपमानित शब्द
नहीं है। उसका
मतलब
आत्महत्या
नहीं है, उसका
अर्थ आत्मसमाधि
है। अगर हारा
का बिंदु आपको
पता है, तो
छुरे से जो
हारा के बिंदु
को काट देता
है, उसको
साफ अनुभव
होता है शरीर
और आत्मा के
अलग हो जाने
का। ये दोनों
के बीच का
सेतु टूट गया
और अलग यात्रा
शुरू हो गई।
इसलिए जो हाराकिरी
से मरता है
उसका चेहरा
देखने लायक
होता है। वह
विकृत नहीं
होता उसका
चेहरा; उसके
चेहरे पर एक
बड़ी शांति
होती है। उसके
चेहरे पर बड़ा
अदभुत भाव
होता है; एक
उपलब्धि का
भाव होता है।
पश्चिम
में कोई
आत्महत्या
करे तो सिर
में पिस्तौल
मार लेता है।
क्योंकि उसे
पता ही चल रहा
है कि वहीं वह
है। जहां हम
हैं वहीं तो
हम मारने की
भी कोशिश
करेंगे।
खोपड़ी में
घूमता हुआ
आदमी यही सोच
सकता है कि वह
सिर के भीतर
है।
अभिव्यक्ति
में हम
केंद्रित हैं, मूल
में नहीं। मूल
की तरफ कदम
उठाने जरूरी
हैं सभी
दिशाओं से। और
जितना कोई मूल
की तरफ आता
जाएगा उतना ही
क्रियाकांड
दूर छूटेगा।
न्याय भी भूल
जाएगा; मनुष्यता
का भी कोई पता
नहीं रहेगा; फिर सहज
स्वभाव रह
जाएगा। और उस
स्वभाव से जो भी
होता है वही
शुभ है। उस
स्वभाव से जो
भी निकलता है
वही
प्रार्थना
है। उस स्वभाव
से जहां भी
पहुंचना हो
जाए वहीं मोक्ष
है।
रुकें, कीर्तन
करें, और
फिर जाएं।
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