अध्याय
39 : खंड 1
परिपूरकों
द्वारा एकता
प्राचीन
समय में वे थे
जिन्हें वह एक
उपलब्ध था:
इस
एक की उपलब्धि
के द्वारा, स्वर्ग
उजागर था;
इस
एक की उपलब्धि
के द्वारा, पृथ्वी
थिर थी;
इस
एक की उपलब्धि
के द्वारा, देवता
में देवत्व था;
इस
एक की उपलब्धि
के द्वारा, घाटियां भरी थीं;
इस
एक की उपलब्धि
के द्वारा, सभी
चीजें जीतीं
और वृद्धि
पाती थीं,
इस
एक की उपलब्धि
के द्वारा, राजा
और भूमिपति
लोगों के
द्वारा आदृत
थे।
इसी
तरह उनमें से
प्रत्येक ऐसा
हो उठा था।
प्रकाश
के बिना, स्वर्ग
हिलने लगेगा;
स्थिरता के
बिना, पृथ्वी
डोल उठेगी;
आध्यात्मिक
शक्ति के बिना, देवता
नष्ट-भ्रष्ट
हो जाएंगे;
भराव
के बिना, घाटियां खंड-खंड हो
जाएंगी,
जीवनदायी
शक्ति के बिना, सभी
चीजें नाश को
प्राप्त
होंगी;
आर्यत्व की
शक्ति के बिना, राजा
और भूमिपति
पतित हो
जाएंगे।
इस
सदी का
प्रारंभ
फ्रेडरिक
नीत्शे की एक
घोषणा से हुआ
है। नीत्शे ने
कहा है, ईश्वर
मर गया है; गॉड
इज़ डेड।
ईश्वर
नहीं है, ऐसा
कहने वाले लोग
सदा से हुए
हैं। लेकिन
ईश्वर मर गया
है, ऐसा
कहने वाला
व्यक्ति
नीत्शे
मनुष्य के इतिहास
में प्रथम है।
यह घोषणा कई
अर्थों में मूल्यवान
है। एक तो इस
अर्थ में कि
यह वचन नीत्शे
का अकेले का
नहीं है। इस
सदी के बहुत
से लोगों के
प्राणों में
इसकी
प्रतिध्वनि
है, चाहे
उन्हें पता हो
और चाहे पता न
हो। बहुत लोगों
के प्राणों से
ईश्वर मर गया
है। ईश्वर मरा
हो या न मरा हो,
लेकिन बहुत
लोगों की आत्मा
में उसकी कोई
जड़ें नहीं रह
गई हैं।
नीत्शे
ने जब कहा, ईश्वर
मर गया है, तो
उसका प्रयोजन
स्पष्ट है।
लाओत्से भी
उससे राजी हो
सकता है, लेकिन
लाओत्से के
राजी होने का
कारण बिलकुल भिन्न
होगा।
लाओत्से
कहता है, ईश्वर
होता है तब जब
मनुष्य में
ईश्वर को अनुभव
करने की क्षमता
होती है। उसी
मात्रा में
ईश्वर प्रकट होता
है जिस मात्रा
में मनुष्य का
हृदय उसे अनुभव
करने में
सक्षम होता
है। ईश्वर की
उपस्थिति
मनुष्य के
अनुभव करने की
क्षमता पर
निर्भर है।
ईश्वर है या
नहीं, यह
मूल्यवान
नहीं है; उसे
अनुभव करने का
द्वार खुला है
या नहीं, यही
मूल्यवान है।
जब द्वार बंद
होता है तो
प्रकाश
तिरोहित हो
जाता है।
इसलिए नहीं कि
सूर्यास्त हो
गया; इसलिए
भी नहीं कि
सूर्य बुझ
गया। सिर्फ
इसलिए कि आपके
घर का द्वार
बंद है, और
प्रकाश को
भीतर प्रवेश
का कोई मार्ग
नहीं है।
लेकिन
जो घर के भीतर
बंद हैं, अंधेरे
में डूब गए
हैं। और अगर
उस अंधेरे में
कोई कहे कि
सूर्य नष्ट हो
गया, कि
सूर्य बुझ गया,
तो आश्चर्य
की बात नहीं
है। और अगर उस
घर के लोग कभी
बाहर जाकर
देखते ही न
हों और सदा ही
घर के अंधेरे
में जीते हों
तो उनकी बात
धीरे-धीरे सत्य
प्रतीत होने
लगेगी। और उसे
खंडित करने का
भी कोई उपाय न
रह जाएगा।
अंधेरा इतना प्रत्यक्ष
होगा कि
प्रकाश की
मृत्यु हो गई
है, इसे
सिद्ध करने की
भी कोई जरूरत
न रह जाएगी। नीत्शे
के वक्तव्य की
खूबी है कि
उसने कोई प्रमाण
नहीं दिया कि
क्यों कहा जा
रहा है कि
ईश्वर मर गया
है। उसने
सिर्फ घोषणा
की कि ईश्वर
मर गया है।
यह
पूरी सदी उसी
छाया में बड़ी
हुई है। और आप
सबके लिए भी
ईश्वर मर गया
है। भला आप
मंदिर जाते हों, लेकिन
आप मुर्दा
ईश्वर के
मंदिर जाते
हैं। और मंदिर
जाने का कारण
कुछ और होगा, ईश्वर नहीं।
भला आप पूजा
करते हों, प्रार्थना
करते हों; आपकी
पूजा और
प्रार्थना
मृत ईश्वर की
लाश के आस-पास
हो रही है। आप
भी भली भांति
जानते हैं कि
जिस ईश्वर से
आप प्रार्थना
कर रहे हैं, वह संदिग्ध
है। लेकिन
किन्हीं और
कारणों से आप
पूजा और
प्रार्थना
किए जाते हैं।
आपकी पूजा और
प्रार्थना से
यह पता नहीं
चलता कि आपके
जीवन में ईश्वर
है। क्योंकि
आपका पूरा
जीवन गवाही
देता है कि
ईश्वर से आपका
कोई संबंध
नहीं रह गया
है। लेकिन
किन्हीं इतर
कारणों से आप
ईश्वर की बात
को जिलाए
रखना चाहते
हैं--भय, लोभ,
असुरक्षा, जीवन के
दुख। ईश्वर का
नाम एक
शरण-स्थल है।
ईश्वर का नाम
ऐसे ही है
जैसे
शुतुरमुर्ग को
रेत, जहां
वह अपने सिर
को गपा
लेता है; और
रेत में डूब
गई, बंद हो
गई आंखों से
फिर उसे लगता
है, अब कोई
भय नहीं।
क्योंकि जब
शत्रु दिखाई न
पड़े तो
शुतुरमुर्ग
मान लेता है
कि शत्रु नहीं
है। आपके लिए
ईश्वर रेत की
तरह है जहां
आप अपने सिर
को छिपा लेते
हैं।
जीवन में
बहुत दुख हैं, पीड़ाएं, संताप, चिंताएं;
और उनसे
बचने का कहीं
उपाय नहीं
दिखाई पड़ता। ईश्वर
आपके लिए एक
शराब है जिसे
पीकर आप अपने
को थोड़ी देर
के लिए
विस्मरण कर
लेते हैं। और
ईश्वर जब शराब
हो तो ईश्वर
का प्रयोजन ही
समाप्त हो
गया। क्योंकि
जिस ईश्वर से
विस्मरण होता
हो वह ईश्वर
ही न रहा, मादक
द्रव्य हो
गया। जिस
ईश्वर से
स्मरण बढ़ता हो
और जीवन-ऊर्जा
प्रगाढ़
होती हो, सघन
होती हो, चेतना
का विस्तार
होता हो, वही
ईश्वर ईश्वर
है।
तो इसे
कसौटी समझ लें
कि जब ईश्वर
को आप सिर्फ अपने
दुख भुलाने का
उपाय बना लेते
हैं तो ईश्वर
मर चुका है; राख
केवल आपके हाथ
में रह गई है।
और जब ईश्वर दुख
भुलाने का
उपाय नहीं, आनंद को
उपलब्ध करने
का स्रोत हो
जाता है। इस फर्क
को ठीक से समझ
लें। दुख
भुलाने का
उपाय एक बात
है--पलायन, एस्केप,
छिप जाना, ढंक जाना, कुछ ओढ़ लेना
और अपने को
भूल जाना।
आनंद-उपलब्धि
का स्रोत
बिलकुल दूसरी
बात है। आनंद
की उपलब्धि
विस्मृति से
नहीं, गहन
स्मृति से
होती है। दुख
का भुलाना
विस्मृति से
होता है।
नीत्शे
का वचन ठीक ही
है कि ईश्वर
मर गया है। इसलिए
नहीं कि ईश्वर
मर गया; क्योंकि
जो मर सकता है
उसे ईश्वर
कहने का कोई अर्थ
ही नहीं है।
ईश्वर हम कहते
ही उस तत्व को
हैं जो नहीं
मर सकता है; ईश्वर का
अर्थ ही है वह
तत्व जो अमृत
है। ईश्वर कोई
व्यक्ति नहीं
है, अमृतत्व
की धारा! जीवन
की यह जो अनंत
धारा है, आदिरहित, अंतरहित,
इस
परिपूर्ण
धारा का नाम
ही ईश्वर है।
तो ईश्वर तो
नहीं मर सकता।
क्योंकि फूल
अभी भी
वृक्षों में
खिलते हैं, पक्षी अभी
भी गीत गाते
हैं। आदमी अभी
भी पृथ्वी पर
है। चांद चलता
है, सूरज
यात्रा करते
हैं। जीवन की
धारा प्रवाहित
है। जीवन की
धारा में कहीं
कोई अवरोध
नहीं। और जीवन
ही है ईश्वर।
तो ईश्वर तो
नहीं मर गया है।
लेकिन फिर भी
नीत्शे की बात
में सचाई है, गहरी सचाई
है। और सचाई
यह है कि आदमी
के अस्तित्व
से ईश्वर मर
गया है। आदमी
का कोई संबंध
इस जीवन की
विराट धारा से
नहीं है।
लाओत्से
भी राजी होगा
और कहेगा कि
ईश्वर मर गया
है;
लेकिन
इसलिए नहीं कि
ईश्वर मर गया,
बल्कि
इसलिए कि तुम
मर गए हो।
तुम्हारा
जीवन-स्रोत
सूख गया, तुम
सिकुड़ गए हो, बंद हो गए हो,
संकीर्ण हो
गए हो।
तुम्हारे सब
खिड़की, द्वार-दरवाजे
खुलना बंद हो
गए हैं; तुम्हारा
हृदय स्पंदित
नहीं हो रहा।
केवल फेफड़े
में श्वास आती
है और जाती है,
लेकिन हृदय
स्पंदित नहीं
होता। प्रेम
का रस-स्रोत
सूख गया है।
इसे खयाल में
लें, फिर
हम इस सूत्र
में प्रवेश
करें।
क्योंकि यह सूत्र
बहुत अनूठा
है।
"प्राचीन
समय में वे थे
जिन्हें वह एक
उपलब्ध था।'
लाओत्से
उसे कोई नाम
नहीं देता; कहता
है, वह एक।
नाम देना संभव
भी नहीं है।
और नाम के साथ
उपद्रव शुरू
होता है। राम
कहो, कृष्ण
कहो, हरि
कहो, शिव
कहो; झगड़ा शुरू हो गया,
उपद्रव
शुरू हो गया।
क्योंकि
तुम्हारा नाम
मेरा नाम नहीं
होगा; मेरा
नाम तुम्हारा
नाम नहीं
होगा। मंदिर
और मस्जिद बंट
जाएंगे; संप्रदाय
नाम के आस-पास
खड़े होंगे।
इसलिए लाओत्से
कहता है, उसे
कोई नाम मत
दो। उसका कोई
नाम है भी
नहीं। नाम के
साथ ही
संप्रदाय का
जन्म होता है।
वह एक, अनाम,
धर्म का
स्रोत है। उस
एक के अनेक
नाम संप्रदाय
के स्रोत बन
जाते हैं।
संप्रदाय के
साथ मूढ़ता
है।
पर
आदमी का मन
नाम देना
चाहता है।
क्यों आदमी का
मन नाम देना
चाहता है? नाम
के साथ सुविधा
है। जिस चीज
को भी हम नाम
दे देते हैं, हमें ऐसा
भ्रम पैदा
होता है कि
हमने उसे जान
लिया। हमारी
जानकारी नाम
देने का ही
ढंग है। एक
बच्चे को आप
बता दें कि यह
वृक्ष आम का
वृक्ष है। और
बच्चे ने नाम
सीख लिया आम, और बच्चा
समझा कि उसने
जान लिया। वह
परिचित हो
गया। एक्वेनटेंस
हो गया। अब
जीवन भर वह
इसी खयाल में
रहेगा कि वह आम
के वृक्ष को
जानता है।
लेकिन नाम
देने से क्या
कुछ जाना जाता
है? नाम तो
संकेत है, और
नाम के पीछे
अज्ञान छिप
जाता है। आम
के वृक्ष को
आप जानते हैं
सिर्फ इसलिए
कि आपने नाम दे
दिया? वृक्ष
उतना ही अनजान,
अपरिचित है अभी
भी, जितना
नाम देने के
पहले था।
लेकिन
आदमी नाम देकर
संतुष्ट हो
जाता है। आपसे
कोई पूछता है, परिचित
होना चाहता
है: आपका नाम? और आप कह
देते हैं कि अ,
ब, स। और
वह बड़ा
प्रफुल्लित
है कि आपको
जानने लगा।
नाम जानकारी
बन जाता है।
नाम धोखा है।
जरूरी है काम
चलाने के लिए।
क्योंकि
बाजार में अगर
बिना पूछे
पहुंच जाएं, बिना जाने, और आम
खरीदना हो और
आम का नाम न
लें और कहें
कि वह एक अनाम,
तो अड़चन
होगी। आम से
काम चलता है, लेकिन आप यह
मत समझना कि
आपने आम का
नाम ले दिया
तो आप जान गए।
या दुकानदार
ने आम उठा कर
दे दिया तो वह
जान गया।
दोनों के बीच
समझौता है कि
इस अपरिचित चीज
को हम आम
कहेंगे। भाषा
एक समझौता है,
एक
एग्रीमेंट
है। इसलिए कोई
आम को मैंगो
कहे तो झगड़ा
करने की कोई
बात नहीं है।
वह उसका
समझौता है। सभी
भाषाएं
समझौते हैं।
जमीन पर कोई
तीन हजार भाषाएं
हैं। कोई भाषा
सत्य की खबर नहीं
देती, भाषा
केवल उपयोग
में लाने वाले
लोगों के समझौते
की खबर देती
है; उनके
बीच एक शर्तबंदी
है।
एक
सूफी कथा है
कि चार यात्री, जो
एक-दूसरे की
भाषा से
अपरिचित थे, एक रात एक
धर्मशाला में
रुके। वहीं
उनकी पहचान
हुई। कामचलाऊ,
कुछ
एक-दूसरे की
भाषा समझ लेते
थे। सुबह भोजन
का विचार हुआ
तो सभी ने
अपने पैसे इकट्ठे
किए। अंतिम पड़ाव था
यात्रा का और
सभी के पास कम
पैसे बचे थे।
और चारों
इकट्ठा पूल कर
लें, इकट्ठा
कर लें धन को, तो ही
यात्रा चल
सकती थी। और
फिर उन चारों
ने विचार
प्रकट किया कि
क्या वे
खरीदना चाहते
हैं। उनमें एक
यूनानी था, उसने कुछ
कहा; उसमें
एक अरबी था, उसने कुछ
कहा; उसमें
एक
हिंदुस्तानी
था, उसने
कुछ कहा; उसमें
एक ईरानी था, उसने कुछ और
कहा। और वे
चारों झगड़ने
लगे। क्योंकि
उतने पैसे से
चार चीजें
नहीं खरीदी जा
सकती थीं। और
तब उस सराय का
मालिक उनके
पास आया और हंसने
लगा। और उसने
कहा कि तुम
मुझे पैसे दो;
चारों की
चीजें खरीदी
जा सकेंगी। और
जब वह खरीद कर
लाया तो वे
अंगूर थे। और
वे चारों
हंसने लगे और
नाचने लगे, क्योंकि
चारों की
चीजें आ गई
थीं।
वे
चारों ही
अंगूर के लिए
अपनी-अपनी
भाषा का शब्द
उपयोग कर रहे
थे। चारों ही
अंगूर चाहते
थे। अंगूर का
मौसम था और
चारों तरफ
अंगूर लदे थे।
और बाजारों की
दूकानों पर
अंगूरों के
ढेर लगे थे।
और अंगूर की
सुगंध हवाओं
में थी। वे
चारों ही
अंगूर चाहते
थे। लेकिन
चारों के पास
शब्द अलग थे।
और चारों के
बीच कोई
समझौता नहीं
था। लेकिन
शब्द कितने ही
अलग हों, अंगूर
एक है।
लाओत्से
उसे कहता है, वह
एक। वह कोई
शब्द उपयोग
नहीं करता।
क्योंकि शब्द
उपयोग करो कि
उपद्रव की
शुरुआत हो गई,
कि विग्रह,
विवाद शुरू
हो गया।
अगर
हिंदू उसे राम
न कहें और
मुसलमान उसे
अल्लाह न कहें; हिंदू
कहें वह एक और
मुसलमान कहें
वह एक, तो
मंदिर और
मस्जिद में झगड़ा करना
बहुत मुश्किल
हो जाए। क्या झगड़ा
बचेगा? झगड़ा इसलिए है कि
नाम अलग हैं।
धर्मों के
झगड़े मूलतः
भाषाओं के
झगड़े हैं, धर्मों
के झगड़े नहीं
हैं। क्योंकि
धर्म तो एक है,
भाषाएं
बहुत हैं।
धर्म तो दो हो
भी नहीं सकते।
लेकिन भाषाएं
तो जितनी
चाहें उतनी हो
सकती हैं। आप
चाहें तो अपनी
और अपनी पत्नी
के बीच एक
निजी भाषा बना
सकते हैं। काम
करेगी।
दुनिया में
कोई भी आपकी
भाषा नहीं
समझेगा, पर
आप दोनों समझ
सकेंगे। आप
समझौता कर ले
सकते हैं।
भाषा कृत्रिम
है, आदमी
की बनाई हुई
चीज है। सत्य
कृत्रिम नहीं
है।
इसलिए
लाओत्से
निष्ठापूर्वक
उसे अनाम ही
रहने देता है।
उपनिषद भी
कहते हैं, वह
अनाम है।
बाइबिल भी
कहती है, उसका
कोई नाम नहीं
है। मोहम्मद
भी कहते हैं
कि सिर्फ
इशारा हो सकता
है; शब्द
क्या कहेंगे?
लेकिन
लाओत्से बहुत
ही सख्ती से
नाम के उपयोग से
अपने को रोकता
है, संवरित
करता है, संयम
रखता है। वह
कहता है, वह
एक। उस एक को
जान लेने से
सब जान लिया
जाता है।
क्योंकि वह एक
कोई वस्तु
नहीं, कोई
व्यक्ति नहीं;
सभी के भीतर
व्याप्त
ऊर्जा का नाम
है।
उस एक
को जानने से
सब जान लिया
जाता है।
क्योंकि वह एक
सभी में
परिव्याप्त
है। जैसे कोई
सागर की एक
बूंद को चख ले, उसने
पूरे सागर को
चख लिया। उस
बूंद में जो
स्वाद है नमक
का, वह
सारे सागर पर
छाया हुआ है।
सागर की एक
बूंद जिसने
जान ली उसने
पूरा सागर जान
लिया। उस एक को
जो जान ले, फिर
जानने को कुछ
भी नहीं बचता
है।
इसका
यह अर्थ न ले
लें कि उस
परमात्मा को, उस
एक को जान
लेने पर आप
एकदम से वह भी
जान लेंगे जो
डाक्टर जानता
है, जो केमिस्ट
जानता है, जो
साइंटिस्ट
जानता है।
नहीं, उस
एक का ज्ञान
शुद्धतम
ज्ञान है। उस
एक का ज्ञान
ज्ञान की कोई
शाखा नहीं है।
परमात्मा की तरफ
जाने वाला
व्यक्ति किसी स्पेशलाइजेशन
में नहीं जा
रहा है। वह
किसी चीज का एक्सपर्ट
नहीं हो
जाएगा। वह तो
जीवन के मूल
को जानने जा रहा
है। वह जीवन
के मूल को जान
लेगा। लेकिन
जीवन के मूल
को जान लेने
से जीवन की जो
अनंत विधाएं
हैं, जो
जीवन की अनंत
शाखाएं-उपशाखाएं
हैं, उनका
सार तो उसे
खयाल में आ
जाएगा, लेकिन
उनकी
व्यक्तिगत निजताएं
उसके खयाल में
नहीं आएंगी।
विज्ञान
शाखाओं की खोज
है और धर्म
मूल की। इसलिए
विज्ञान
जैसे-जैसे
विकसित होता
है एक शाखा में, और
शाखाएं टूटती
चली जाती हैं।
आज से हजार
साल पहले
फिलासफी शब्द
के अंतर्गत
सारा विज्ञान आ
जाता था। फिर
जैसे-जैसे विज्ञान
विकसित होने
लगा तो बंटाव
शुरू हुआ, शाखाएं
बंटनी
शुरू हुईं।
फिर एक-एक
शाखा अलग होती
चली गई। फिर
शाखाओं में भी
और बारीकियां
निकल आईं। केमिस्ट्री
एक विज्ञान था,
लेकिन अब आर्गनिक
केमिस्ट्री
अलग बात है, इन-आर्गनिक
केमिस्ट्री
अलग बात है।
जैसे-जैसे आगे
विज्ञान बढ़ता
है वैसे-वैसे
कम से कम के
संबंध में
ज्यादा से
ज्यादा
जानकारी पैदा
होती जाती है।
नोइंग
मोर एंड मोर एबाउट लेस
एंड लेस।
विज्ञान
संकीर्ण होता
चला जाता है।
लेकिन
जानकारी बढ़ती
जाती है, क्षेत्र
संकीर्ण होता
चला जाता है।
आज से
पचास साल पहले
डाक्टर सभी बीमारियों
का डाक्टर था।
लेकिन अब अगर
आंख खराब है
तो आंख का
स्पेशलिस्ट
है। पश्चिम
में मजाक है
कि बहुत जल्दी
बाईं आंख का
स्पेशलिस्ट
दाईं आंख से
अलग हो जाएगा।
हो ही जाना
चाहिए। क्योंकि
बाईं आंख भी
इतनी बड़ी घटना
है कि एक आदमी अगर
ठीक से उसकी
जानकारी करना
चाहे तो पूरा
जीवन उसमें ही
लग जाएगा। तो
विभाजन होता
चला जाता है।
फिर आंख भी, अकेला
एक व्यक्ति
जान सकेगा
हजार साल बाद,
कहना
मुश्किल है।
आंख के भी
हिस्से हो
जाएंगे।
इतना
अनंत है जानने
को कि आप
विभाजन करते
चले जा सकते
हैं। आज तो
पश्चिम में
सबसे बड़ी
कठिनाई यही है
कि इतनी
जानकारी है, लेकिन
सब
जानकारियों
के बीच कोई
तालमेल नहीं है।
जो आंख को
जानता है वह
आंख को जानता
है; जो नाक
को जानता है
वह नाक को
जानता है; जो
हृदय को जानता
है वह हृदय को
जानता है। उनके
बीच कोई
जानकारी नहीं
है। और यह
आदमी बड़ा अजीब
है। इसके भीतर
सब चीजें इकट्ठी
हैं। इसकी आंख
जब बीमार होती
है तो अकेली
आंख बीमार
नहीं होती, इसका हृदय
भी बीमार हो
जाता है। जब
इसकी आंख बीमार
होती है तो
इसकी आंख ही
बीमार नहीं
होती, इसका
पूरा शरीर ही
बीमार हो जाता
है। इसका आंख
का अकेला इलाज
हो सकता है; आंख ठीक भी
हो जाएगी।
लेकिन वह इलाज
लोकल हुआ, स्थानीय
हुआ। पूरा
व्यक्ति
अछूता छूट
गया। इसलिए जो
बीमारी आंख से
प्रकट हो रही
थी वह कहीं और
से प्रकट होनी
शुरू हो
जाएगी। तो
पश्चिम में एक
नया नारा है
कि बीमारी का
इलाज बंद करो और
व्यक्ति का
इलाज शुरू
करो। जब तक
व्यक्ति का
इलाज न हो, बीमारियां
ठीक नहीं हो
सकतीं।
तो
विज्ञान
संकीर्ण
होते-होते, होते-होते
एटामिक
हो जाता है, परमाणु की
तरफ जाने लगता
है। बहुत
जानता है, लेकिन
बहुत थोड़े के
संबंध में।
धर्म की यात्रा
बिलकुल उलटी
है। धर्म बहुत
कम जानता है, लेकिन बहुत
के संबंध में।
इस फर्क को
ठीक से समझ लें।
मैंने
कहा,
विज्ञान
जानता है मोर
एंड मोर एबाउट
लेस एंड लेस, और धर्म
जानता है लेस
एंड लेस एबाउट
मोर एंड मोर।
और एक घड़ी ऐसी
आती है कि
धर्म बिलकुल
नहीं
जानता--और तब
पूरा प्रकट हो
जाता है उसके
सामने। होगा
ही। एक घड़ी
ऐसी आएगी
विज्ञान को कि
वह सब कुछ जान
लेगा ना-कुछ
के संबंध
में--सामने
कुछ भी नहीं
रह जाएगा। अगर
यात्रा ठीक से
बढ़ेगी तो
काटते-काटते
एक वक्त आएगा
कि जानकारी
बहुत हो जाएगी,
जानने को
कुछ भी नहीं
बचेगा। धर्म
इससे उलटी यात्रा
करता है। एक
घड़ी आती है कि
जानकार खो जाता
है, जानना
नहीं रह जाता,
और जानने को
सब कुछ प्रकट
हो जाता है।
जिस दिन यह
विराट प्रकट
होता है उस
दिन एक ही रह
जाता है। उस
दिन फिर कोई
भेद नहीं रह
जाते, खंड
नहीं रह जाते।
भेद इतनी बुरी
तरह गिर जाते
हैं कि जानने
वाला भी नहीं
रह जाता उस एक
को, बस एक
ही रह जाता
है। यह चरम
घटना है, जिसे
हम बुद्धत्व
कहते हैं।
लाओत्से
कहता है, "प्राचीन
समय में वे थे
जिन्हें वह एक
उपलब्ध था। इस
एक की उपलब्धि
के द्वारा
स्वर्ग उजागर
था।'
एक-एक
चरण को हम ठीक
से समझें।
"इस एक
की उपलब्धि के
द्वारा
स्वर्ग उजागर
था।'
स्वर्ग
है प्रतीक सुख
का। स्वर्ग है
प्रतीक जीवन
के भीतर छिपा
हुआ जो अनंत
सागर है आनंद
का,
उसका।
स्वर्ग महासुख
है। उस एक की
उपलब्धि के
द्वारा
स्वर्ग उजागर
था; महासुख के द्वार
खुले थे। उस
एक की उपलब्धि
खोती चली गई, स्वर्ग के
द्वार बंद
होते चले गए।
अब हम बहुत जानते
हैं उस एक को
छोड़ कर। लेकिन
हमारा इतना जानना
भी हमारे दुख
को कम नहीं
करता, बढ़ाता
है। इसलिए
बहुत चिंता की
बात है कि
आदमी का ज्ञान
बढ़ता जाता है,
लेकिन दुख
क्यों बढ़ता
जाता है! होना
तो यह चाहिए
कि ज्ञान बढ़ने
के साथ दुख कम
हो। क्योंकि लक्ष्य
ही क्या है
ज्ञान का अगर
दुख कम न होता
हो?
पिछले
दो हजार
वर्षों में
ज्ञान रोज
बढ़ता चला गया
है। लेकिन जिस
मात्रा में ज्ञान
बढ़ता है उससे
कई गुनी
मात्रा में
दुख बढ़ता है।
दुख घना होता
चला जाता है।
और अब आदमी परेशान
है। और ज्ञान
को बढ़ाता है, ताकि
दुख को कम कर
सके; इस
खोज में लगा
रहता है कि
जितनी
जानकारी होगी
उतना हम दुख
से सुरक्षा कर
लेंगे। लेकिन
दुख बढ़ता जाता
है।
लाओत्से
कहता है, सुख
का द्वार एक
को जानना है; दुख का
द्वार अनेक को
जानना है।
अनेक की जानकारी
होगी, दुख
बढ़ेगा; एक
का बोध होगा, सुख बढ़ेगा।
क्यों? क्योंकि
जितनी दिशाओं
में हमारा
ज्ञान बंटता
है उतने ही
भीतर हम बंट
जाते हैं। और
बंटा हुआ आदमी
दुखी होगा।
खंडित, टूटा
हुआ आदमी दुखी
होगा।
आपको
पता नहीं कि
आप कितने
खंडित हैं। आप
दुकान पर होते
हैं तो आप और
ही तरह के
आदमी होते हैं।
अगर एकदम से
आपकी प्रेयसी
वहां आ जाए तो
आपको बड़ी अड़चन
होगी।
क्योंकि
प्रेयसी के
साथ आप जैसे
आदमी होते हैं
वैसे आदमी आप
दुकान पर नहीं
हैं। वह
ग्राहक के साथ
जैसे आदमी
होते हैं, वह
बिलकुल दूसरा
आदमी है। अगर
प्रेयसी एकदम
से आ जाए तो
आपको सब भीतर
का सरंजाम
बदलना पड़ेगा;
आपको सब
भीतर के सामान
फिर से आयोजित
करने पड़ेंगे।
आपको आंख और
ढंग की करनी
पड़ेगी, चेहरे
पर मुस्कुराहट
और ढंग की
लानी पड?गी,
हाथ-पैर और
ढंग से चलाने
पड़ेंगे। सब
आपको बदल देना
पड़ेगा। आपकी
भाषा, सब।
क्योंकि
ग्राहक के साथ
आप और ही
व्यवस्था से
काम कर रहे थे;
आपका एक खंड
काम कर रहा
था। प्रेयसी
के सामने दूसरा
खंड काम करता
है।
यह जो
खंडित
व्यक्ति है यह
सुखी नहीं हो
सकता; क्योंकि
सुख अखंडता की
छाया है।
जितना भीतर अखंड
भाव होता है
कि मैं एक हूं,
उतनी ही
शांति और सुख
मालूम होता
है। दुख का कारण
होता है भीतर
के लड़ते हुए
खंड। और भीतर
खंड प्रतिपल
लड़ रहे हैं, क्योंकि
विपरीत हैं।
आप इस तरह के
आयोजन कर लिए
हैं जीवन में
जो एक-दूसरे
के
विरोधाभासी
हैं।
अगर
आपको धन
इकट्ठा करना
है,
तो धन प्रेम
का विरोधी है।
जितना ज्यादा
धन इकट्ठा
करना हो उतना
ही आपको अपने
प्रेमपूर्ण हृदय
को रोक लेना
पड़ेगा। लेकिन
आपको प्रेम भी
करना है।
क्योंकि
प्रेम के बिना
जीवन में कोई
तृप्ति नहीं।
और जब प्रेम करना
है तो वह जो धन
की पागल दौड़
थी उसे एक तरफ
हटा देना
होगा। मगर
अड़चन है।
हमारे मन में
ऐसे खयाल हैं
कि लोग प्रेम
के लिए भी धन
इकट्ठा करते
हैं। वे सोचते
हैं कि जब धन
होगा पास तो
प्रेम भी हो
सकेगा। लेकिन
धन इकट्ठा
करने में वे इतने
आदी हो जाते
हैं एक खास
ढांचे के, जो
कि अप्रेम का
है, घृणा
का है, शोषण
का है, कि
जब प्रेम का
मौका आता है
तो वे खुल ही
नहीं पाते।
उनका
दुकानदार
इतना मजबूत हो
जाता है कि वे
उससे कहते हैं,
हट! लेकिन
वह नहीं हटता।
वह बीच में
खड़ा हो जाता
है।
मैंने
सुना है, एक
आदमी घर लौटा
सांझ, दिन
भर का थका-मांदा।
पत्नी है घर
में; छोटी
बेटी है तीन
साल की। द्वार
पर ही उसने बेटी
को बैठे देखा
तो उसने अपनी
बेटी को कहा
कि क्या विचार
है, डैडी
के लिए एक
चुंबन देना है
या नहीं? उसकी
लड़की चुपचाप
बैठी रही।
दुबारा उसने
पूछा तो उस
लड़की ने कहा
कि नहीं। तो
उस आदमी ने
कहा कि मुझे
शर्म आती है; तुम्हारे
लिए ही मैं
दिन भर पैसा
कमाता हूं और
घर आता हूं तो
मेरी छोटी
बेटी भी मुझे
चुंबन देने के
लिए इनकार
करती है। चलो,
उठो, कमआन एंड गिव
मी दि किस, व्हेयर
इज़ दि किस?
कहां है
तेरा चुंबन? आ करीब! उस
लड़की ने उस
आदमी की आंखों
में गौर से देखा
और कहा, व्हेयर
इज़ दि मनी?
धन कहां है,
जो दिन भर
हमारे लिए
कमाया?
छोटे
बच्चे भी
खंडित होना
शुरू हो जाते
हैं आपके साथ।
लेकिन इसमें
बेटी और बाप
के तर्क में फर्क
नहीं है।
क्योंकि बाप
चुंबन मांग
रहा है इस लोभ
को देकर कि
तुम्हारे लिए
दिन भर मैंने धन
कमाया; तो
बेटी इसी तर्क
का उपयोग कर
रही है कि
कहां है धन।
चुंबन भी एक
सौदा है।
सौदे
में हम इस
बुरी तरह डूब
जाते हैं कि
प्रेम भी सौदा
बन जाता है।
और प्रेम सौदा
नहीं बन सकता।
तो बड़ी अड़चन
है। प्रेम भी
चाहिए और धन
भी चाहिए। और
दोनों दिशाएं
इतनी विपरीत
हैं कि धन जिस ढंग
से चाहिए उस
ढंग से प्रेम
नहीं हो सकता, और
जिस ढंग से
प्रेम हो सकता
है उस ढंग से
धन के अंबार
लगाने असंभव
हैं।
यह तो
मैं उदाहरण के
लिए कह रहा
हूं। ऐसे हमारे
भीतर हजार
वासनाएं हैं
जो विपरीत
हैं।
आपने
सुना है, शास्त्र
निरंतर कहते
हैं, सदगुरुओं ने कहा है कि
वासना दुख
देती है।
लेकिन असल में,
वासना दुख
नहीं देती, विपरीत
वासनाएं दुख
देती हैं। और
जितनी विपरीत
वासनाएं
होंगी उतना
ज्यादा दुख
होगा। अगर एक
ही वासना रह
जाए, दुख
विलीन हो
जाएगा। और अगर
कोई आदमी एक
ही वासना की
खोज करे तो आज
नहीं कल
लाओत्से के एक
को खोजना
पड़ेगा।
क्योंकि उसके
साथ ही एक
वासना हो सकती
है; बाकी
कोई वासना
अकेली नहीं हो
सकती। अगर आप
अकेले प्रेम
से जीना चाहें
तो थोड़े दिन
में ही मुसीबत
में पड़
जाएंगे।
क्योंकि धन के
बिना जी कैसे
सकते हैं?
तो
देखते हैं
पश्चिम में, लड़के
और लड़कियां
बगावत कर रहे
हैं घरों से, और वे कहते
हैं कि इस
व्यवस्था, धन
की इस पागल
दौड़ से हमारा
कोई संबंध
नहीं। लेकिन
साल, दो
साल में
हिप्पी घर लौट
जाता है।
दूसरे आ जाते
हैं उसकी जगह,
इसलिए आपको
हिप्पी दिखाई
पड़ते रहते
हैं। लेकिन
पुराने
हिप्पी कहां
खो जाते हैं? कितनी देर
तक आप हिप्पी
रह सकते हैं? और वह भी आप
किसी के पैसे
के बल पर ही
होंगे। वह आपके
बाप का पैसा
हो, किसी
और का पैसा
हो। वह भी, वह
जो
स्वतंत्रता
प्रेम की आप
भोग रहे हैं, वह भी किसी
के पैसे पर
है। और जब
पैसा चुक जाएगा
तो आप प्रेम
भी तो नहीं कर
सकते। दौड़ना
पड़ेगा उसी दौड़
में जहां दुनिया
दौड़ रही है।
सिर्फ
परमात्मा की
वासना अकेली
हो सकती है, बाकी
तो सभी
वासनाओं की
विपरीत
वासनाएं होंगी।
और विपरीत
वासनाएं आदमी
को खंड-खंड कर
देती हैं।
स्वर्ग का
द्वार बंद हो
जाता है।
"उस एक
की उपलब्धि के
द्वारा
स्वर्ग उजागर
था।'
कोई
पूछता नहीं था
कि सुख क्या
है;
लोग सुखी
थे। आदमी
पूछता ही तब
है जब दुख
शुरू हो जाता
है। जब आप
स्वस्थ होते
हैं तो आप कभी
नहीं पूछते कि
स्वास्थ्य
क्या है। जब
आप बीमार होते
हैं तो आप
पूछते हैं, कैंसर क्या
है? टी बी
क्या है? जब
आप सुखी होते
हैं तो आप यह
भी नहीं पूछते
कि जीवन का
लक्ष्य क्या
है, प्रयोजन
क्या है। जब
आप दुखी होते
हैं तब आप पूछते
हैं कि जीवन
का लक्ष्य
क्या है? सुख
स्वीकृत होता
है; उसमें
प्रश्न भी
नहीं उठता।
दुख अस्वीकृत
होता है; इसलिए
प्रश्न उठ आता
है। जितने
ज्यादा प्रश्न
आपके भीतर
उठते हैं वे
इस बात की खबर
देते हैं कि
जीवन आपका दुख
से भरा है। आप
कहीं नरक में
खड़े हैं।
स्वर्ग निष्प्रश्न
है।
लाओत्से
कहता है, "जब
उस एक की
उपलब्धि थी तो
स्वर्ग उजागर
था। उस एक की
उपलब्धि के
द्वारा
पृथ्वी थिर
थी।'
स्वर्ग
और पृथ्वी
प्रतीक हैं।
स्वर्ग है सुख
का प्रतीक, आनंद
का प्रतीक। वह
जो आशा है सभी
के हृदय में
छिपी, उस
आशा का
स्वप्न।
पृथ्वी से
अर्थ है आपका
पार्थिव जीवन,
आपकी देह; आप जैसे हैं
अभिव्यक्ति
के जगत में, पदार्थ के
जगत में। और
जब स्वर्ग
उजागर हो तो पृथ्वी
थिर होती है।
जब आपके भीतर
सुख होता है
तो आपकी देह
भी थिर होती
है। तो देह
में भी बेचैनियां
नहीं होतीं।
अभी तक
ऐसा खयाल था
कि देह में बेचैनियां
शुरू होती हैं, इसलिए
मन बेचैन होता
है। लेकिन
तंत्र और योग
और धर्म सदा
से यह कहते थे
कि बेचैनी की
शुरुआत मन में
होती है; देह
में तो केवल
प्रतिध्वनि
सुनी जाती है।
अब पश्चिम में
भी वे इस बात
को स्वीकार
करने लगे।
इसलिए अब वे
कहते हैं कि
शरीर और मन दो
चीजें नहीं
हैं। आदमी
शरीर और मन
नहीं है, शरीर-मन
है; साइको-सोमैटिक
है। दोनों एक
हैं। और एक
तरफ घटना घटे
तो दूसरी तरफ
प्रतिध्वनि
पहुंच जाती
है। नब्बे
प्रतिशत
बीमारियों को
पश्चिम का
मनोविज्ञान
अब मन की घटना मानने
लगा है। उनके
स्वर शरीर तक
भी सुने जाते
हैं। मन कंपता
है तो शरीर भी
कंप जाता है।
लेकिन कंपन की
शुरुआत मन से
होती है। होनी
भी चाहिए।
क्योंकि मन
ज्यादा
सूक्ष्म है और
कंपन को पहले पकड़ता है, इसके पहले
कि शरीर पकड़
सके।
इसलिए
रूस में एक नई
प्रक्रिया
विकसित हो रही
है जिसमें वे
बीमारी के
शरीर के आने
के पहले--छह
महीने
पहले--बीमारी
की सूक्ष्म
ध्वनियां मन
में पकड़
लेंगे। इसलिए
बीमार होने के
पहले व्यक्ति
का इलाज हो
सकेगा। उसे
पता भी नहीं
चलेगा कि वह
कभी बीमार
हुआ। उसके
शरीर तक खबर आने
के पहले, जब मन
में ही ध्वनि
का पहला जन्म
होता है
बीमारी का, उसे वहीं
पकड़ा जा
सकेगा।
किर्लियान
फोटोग्राफी
बड़ा काम कर
रही है। वह एक
खास तरह की
फोटोग्राफी
है जिसमें मन
के छोटे से
कंपन भी पकड़
लिए जाते हैं।
उस
फोटोग्राफी
को हम मन का
एक्स-रे कह
सकते हैं। वह
विकसित हो रही
है। जल्दी ही
आपको बीमार
नहीं होना
पड़ेगा; बीमार
होने के पहले
इलाज शुरू हो
जाएगा।
लेकिन
लाओत्से की
बात बड़ी
विचारणीय है।
लाओत्से कहता
है,
जब स्वर्ग
उजागर हो और
उस एक की
उपलब्धि हो तो
पृथ्वी थिर हो
जाती है।
क्योंकि
पृथ्वी के सारे
कंपन, देह
के सारे कंपन,
पदार्थ के
सारे कंपन, पदार्थ में
नहीं जन्मते,
मन में ही
जन्मते हैं।
जन्म सदा मन
में है, स्रोत
सदा मन में है;
स्रोत सदा
चेतना में है;
पदार्थ तक
झलक आती है।
फिर हम पदार्थ
का ही उपाय
करने में लग
जाते हैं।
वहां भूल हो
जाती है। तब
हम संकेतों का
इलाज करने
लगते हैं, सिम्पटम्स का, और
मूल बीमारी
अलग पड़ी रह
जाती है।
जितना
चिकित्सा-शास्त्र
आज विकसित है, कभी
भी नहीं था।
लेकिन जितने
आदमी आज मरीज
हैं, बीमार
हैं, उतने
कभी नहीं थे।
यह कुछ अनूठी
बात है कि हम चिकित्सा
विकसित करते
हैं और मरीज
क्यों विकसित
होते हैं! इधर
हम कानून को
नियोजित करते
हैं, और
उधर अपराधी
बढ़ते चले जाते
हैं। जो भी
इंतजाम हम
करते हैं, उससे
विपरीत होता
है। कोई मौलिक
भूल है। शायद हम
ऊपर से चीजों
का इलाज करते
हैं और भीतर
से उनके मूल
स्रोत को नहीं
छू पाते।
आदमी
पीड़ित है।
पीड़ा के हजार
कारण हमें
दिखाई पड़ते
हैं। कभी
गरीबी है, कभी
शरीर की
बीमारी है, कभी शिक्षा
की कमी है, कभी
कुछ, कभी
कुछ। हम एक-एक
को दूर करने
में लग जाते
हैं। हजार
कारण हैं। आज
से दो सौ साल
पहले लोग सोचते
थे--विचारशील
लोग--कि जिस
दिन पृथ्वी
शिक्षित हो
जाएगी उस दिन
कोई दुख नहीं
होगा। आज पृथ्वी
करीब-करीब
शिक्षित है।
दुख घना हो
गया। अगर उनकी
कब्रें खोली
जा सकें, जिन
विचारकों ने
कहा था कि जब
लोग शिक्षित
हो जाएंगे तो
दुख नहीं होगा,
तो वे बहुत चौंकेंगे।
वे समझेंगे कि
उन्होंने
महापाप किया।
क्योंकि न
मालूम कितने
लोगों ने अपना
जीवन लगा कर आदमी
को शिक्षित
करने की कोशिश
की है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
आदिवासियों
को शिक्षित
करना है। मैं
उनसे कहता हूं,
पहले तुम
शिक्षित
लोगों को तो
देखो।
तुम्हारा
दिमाग खराब
है! अगर तुम
शिक्षित
लोगों को इस हालत
में पा रहे हो
कि इन्होंने
कोई आनंद पा लिया
है तो जरूर
आदिवासियों
को शिक्षित
करो। यह तो
पक्का कर लो
पहले।
तुम्हारी युनिवर्सिटियों
में जाओ--जाओ
लखनऊ, जाओ
बनारस, जाओ
हार्वर्ड, आक्सफोर्ड--वहां देखो
कि क्या हो
रहा है। लखनऊ
युनिवर्सिटी
जल रही है।
तुम आदिवासी
को शिक्षित कर
रहे हो। तुम
कहां तक
पहुंचाओगे
इसको? वहीं
तक जहां
युनिवर्सिटी
में आग लगती
है। ज्यादा से
ज्यादा
शिक्षित होकर
यह यही करेगा।
और ध्यान रखना,
जब यह
शिक्षित होकर
उपद्रव करेगा
तो इसके उपद्रव
का तुम
मुकाबला नहीं
कर सकते हो।
क्योंकि यह कई
दिन की उर्वरा
भूमि है। ये
कई दिन से शांत
बैठे हैं। जब
इनकी अशांति
प्रकट होगी तो
विस्फोट
होगा।
लेकिन
अनेक लोग लगे
हैं सेवा में
आदिवासियों
की। वे समझ
रहे हैं, सेवा
कर रहे हैं।
अज्ञानी सेवा
भी करे तो
खतरे में ही
उतार देता है।
अज्ञानियों
ने पिछले दो
सौ वर्षों में
सेवा कर-करके
आदमी को
शिक्षित कर
दिया। अभी डी.एच.लारेंस
ने मरने के
पहले एक
वक्तव्य दिया,
और उसने कहा
कि मेरा सुझाव
है, अगर
दुनिया में
शांति चाहिए
हो तो सौ वर्ष
के लिए सब
स्कूल, सब
कालेज, सब
विश्वविद्यालय
बिलकुल बंद कर
देने चाहिए।
उसके
सुझाव में
बुद्धिमत्ता
मालूम पड़ती है, यथार्थ
मालूम पड़ता
है। कोई
मानेगा नहीं
उसके सुझाव
को। क्योंकि
आप पागलपन में
इतने ज्यादा
जा चुके हैं
कि सोच भी
नहीं सकते।
लेकिन मैं
मानता हूं कि
उसके सुझाव
में बड़ी
बुद्धिमत्ता
है। सौ वर्ष!
ताकि यह सब जो
समझदारी बढ़ गई
है, वह भूल
जाए, और एक
दफा आदमी फिर
वहां से शुरू
करे जहां प्रकृति
है।
लेकिन
जिन्होंने
चेष्टा करके
शिक्षित किया आदमी
को उन्होंने
सोचा था, स्वर्ग
आएगा। लोग
सोचते थे, गरीबी
मिट जाए तो
स्वर्ग आएगा।
गरीबी मिट गई
अनेक मुल्कों
में; स्वर्ग
नहीं आया, नरक
आया। लोग
सोचते हैं, समाजवाद आ
जाए। तो अभी
रूस में
समाजवाद आ
गया। लेकिन
वहां के युवक
बगावत करने के
लिए उत्सुक
हैं। और जिस
दिन उनको मौका
मिलेगा, तो
रूस में भयंकर
बगावत होगी।
युवक संतुष्ट
नहीं हैं।
समाजवाद आ जाए,
शिक्षा आ
जाए, धन आ
जाए, कुछ
भी आ जाए; जब
तक आप अलग-अलग
बीमारियों का
इलाज कर रहे
हैं, आदमी
बीमार रहेगा।
क्योंकि आदमी
की बीमारी एक
है। और वह
बीमारी है कि
जब तक वह भीतर
एक न हो जाए, वह दुखी
रहेगा। न
समाजवाद उसको
एक कर सकता है,
न शिक्षा
उसको एक कर
सकती है, न
धन एक कर सकता
है। यह सिर्फ
व्यामोह है, यह सिर्फ सिम्पटम्स
को पकड़ना
है।
एक
आदमी को बुखार
चढ़ा है। देखा, शरीर
गर्म है; ठंडा
पानी डाल रहे
हैं उसके ऊपर
कि शरीर ठंडा हो
जाए। बिलकुल
ठंडा हो
जाएगा। बुखार,
शरीर की
गर्मी तो
सिर्फ प्रतीक
है, खबर है,
संकेत है कि
आदमी बीमार
है। शरीर की
गर्मी बीमारी
नहीं है। शरीर
की गर्मी तो
कह रही है कि
भीतर कुछ
रुग्ण हो गया
है; इतना
रुग्ण हो गया
है कि भीतर के
सेल्स आपस में
संघर्ष कर रहे
हैं। उनके
संघर्षण के
कारण शरीर
गर्म हो गया
है। उस
संघर्षण को मिटाओ तो
शरीर की गर्मी
चली जाएगी।
शरीर की गर्मी
तो केवल खबर
है कि भीतर
युद्ध छिड़ा
है। उस युद्ध
के घर्षण के
कारण शरीर
गर्म हो रहा
है।
आप जब
रुग्ण होते
हैं मानसिक
रूप से, चिंतित,
परेशान, उद्विग्न,
तो उसका
अर्थ है कि
भीतर मन के
खंडों में
युद्ध छिड़ा
है; उत्तप्त
हो गए हैं आप।
अब इसे दूर
करने के जितने
भी उपाय आप
बाहर खोजते
हैं, वे
काम के नहीं
हैं। भीतर से
खंड विदा होने
चाहिए; भीतर
अखंडता आनी
चाहिए; भीतर
समग्रता आनी
चाहिए; भीतर
का विरोध
विलीन हो जाना
चाहिए। भीतर
जिस दिन एक का
जन्म होगा उस
दिन
स्वास्थ्य
उपलब्ध हो
जाएगा।
"इस एक
की उपलब्धि के
द्वारा
पृथ्वी थिर
थी। इस एक की
उपलब्धि के
द्वारा देवता
में देवत्व था।'
वह जो
मंदिर में
मूर्ति है, उसमें
देवता नहीं है;
जब आपके
भीतर एक होता
है, तब
उसमें देवता
होता है। वह
मंदिर की
मूर्ति तो पत्थर
है। लेकिन जब
आपके भीतर एक
होता है तो वह
पत्थर दर्पण
बन जाता है।
सच में
जिन्होंने
मूर्तियां
खोजी थीं वे
अनूठे कलाकार
थे, और
उनकी दृष्टि
बड़ी दूरगामी
थी। मगर
उन्हें हम
बेईमानों का
कुछ भी पता
नहीं था।
सीधे-सादे लोग
थे। मूर्ति
मंदिर में
खोजी गई थी जब
पहली बार तो
इसलिए खोजी गई
थी कि जिस दिन
तुम्हें उस मूर्ति
में देवता
दिखाई पड़ने
लगे उस दिन
समझना कि
तुम्हारे
भीतर कोई घटना
घटी। वह सिर्फ,
जिसको हम
कहें, थर्मामीटर
थी। मूर्ति
में जिस दिन
तुम्हें देवता
दिखाई पड़ने
लगे उस दिन
समझना कि
तुम्हारे
भीतर एक का
जन्म हुआ। क्योंकि
उसके पहले
देवता दिखाई
नहीं पड़ेगा।
हमने
उसकी फिक्र ही
छोड़ दी; हम
मूर्ति में
देवता मान कर
बैठ गए। देखने
की चिंता छोड़ी;
हम पहले ही
से मानते हैं
कि यह देवता
है। तो हम मंदिर
में जाकर हाथ
जोड़ कर खड़े हो
जाते हैं, उस
मूर्ति के
सामने जो अभी
आपके लिए
देवता नहीं
है। अभी तो
पत्थर ही आपके
सामने रखा है।
देवता आपकी
सिर्फ धारणा
है।
यही की
यही मूर्ति
रखी होगी एक
मूर्ति बनाने
वाले की दुकान
में तो आप हाथ
नहीं
जोड़ेंगे। यही
मूर्ति! यही
मूर्ति मंदिर
में रख जाएगी, आप
हाथ जोड़
लेंगे। कितने
शिवलिंग
सड़कों पर पड़े
हैं! उनमें
पैर भी मार कर
आप मजे से चल
रहे हैं।
उन्हीं में से
एक पत्थर का
टुकड़ा कल
मंदिर में
शिवलिंग बन कर
बैठ जाएगा; आप जाकर
साष्टांग लेट
जाएंगे। आप
धारणाओं के सामने
लेट रहे हैं।
आपके लिए कोई
शिवलिंग वहां
है नहीं।
लेकिन
मूर्ति का
विज्ञान यह था
कि वह तो
पत्थर है, यह
जानना, और
अपने भीतर
रूपांतरण
करते
जाना--प्रार्थना
से, ध्यान
से, साधना
से, और जिस
दिन तुम्हें
उस पत्थर में
से पत्थर तिरोहित
हो जाए और
वहां चिन्मय
का आविष्कार
हो, वहां
चैतन्य दिखाई
पड़ने लगे, उस
दिन समझना कि
तुम्हारे
भीतर घटना घट
गई। क्योंकि
भीतर की घटना
की भी जांच
तुम्हें पहले
बाहर से करनी
होगी। हम इतने
बहिर्मुखी
हैं कि हमारे
भीतर क्या घटा,
इसे भी हमें
पहले बाहर से
जांचना होगा।
तो मूर्ति तो
प्रतीक थी, दर्पण थी, थर्मामीटर
थी; जांच
का एक उपाय
थी।
लाओत्से
कहता है, "इस
एक की उपलब्धि
के द्वारा
देवता में
देवत्व था।'
देवता
में कोई
देवत्व नहीं
है;
जब आपके
भीतर एक होता
है तो देवत्व
प्रकट होता है;
वह आपकी झलक
है जो आप
मूर्ति को
देते हैं। और
जिस दिन आपको
पत्थर की
मूर्ति में
देवता दिखाई पड़ने
लगा उस दिन सब
जगह दिखाई
पड़ने लगेगा।
पत्थर हमने
इसीलिए चुना था।
इस जगत में
सबसे ज्यादा
निर्जीव
दिखाई पड़ने
वाली चीज
पत्थर है। है
तो निर्जीव वह
भी नहीं, क्योंकि
सभी जीवन का
अंग है। पर
जीवन सबसे कम जहां
झलकता है, वह
पत्थर है।
इसलिए हमने
पत्थर की
मूर्तियां चुनी
थीं। पत्थर की
मूर्ति इस बात
की खबर है कि
अब हमें सबसे
ज्यादा निर्जीव
दिखाई पड़ने
वाली वस्तु
में भी चिन्मय
का आविष्कार
हुआ है, चैतन्य
का आविष्कार
हुआ है; अब
इस जगत में
ऐसी कोई चीज
भी नहीं बची
जिसमें हमें
वह चैतन्य न
दिखाई पड़े। जब
पत्थर में दिख
गया तो सब जगह
दिखाई पड़ेगा।
"देवता
में देवत्व
था।'
अभी आप
पूछते हैं कि
मंदिर की
मूर्ति में
क्या रखा है? यह
प्रश्न ही
असंगत है। यह
केवल इस बात
की खबर दे रहा
है कि आपके
भीतर देवत्व
नहीं है, वह
एकता नहीं है
जो देख पाती।
थर्मामीटर
दोषी नहीं कहे
जा सकते। आप
थर्मामीटर
लगाएं और उसमें
बुखार न आया; तो आप यह
नहीं कह सकते,
इस
थर्मामीटर
में क्या रखा
है, फेंको।
थर्मामीटर तो
वही खबर देता
है जो आपके भीतर
होता है।
बुखार होता है
तो बुखार की
खबर देता है; नहीं बुखार
होता तो नहीं
बुखार की खबर
देता है।
तापमान नीचे
गिर जाए, मृत्यु
के करीब
पहुंचने लगे,
तो खबर देता
है; कहां
है, इसकी
खबर देता है।
जब आपको मंदिर
के देवता में
सिर्फ पत्थर
दिखाई पड़ता है
तो आपके हृदय
में अभी
पथरीलापन है
इसकी खबर देता
है। तो जरूरी
नहीं है कि जो
मूर्ति आपके
लिए पत्थर है
वह सभी के लिए
पत्थर हो।
आपके ही पड़ोस
में खड़े हुए
दूसरे उपासक
को वहां
चैतन्य का
आविष्कार हो
सकता है।
इसलिए
बड़ी अड़चन खड़ी
होती है।
रामकृष्ण भी
खड़े हैं उसी
मूर्ति के
सामने
दक्षिणेश्वर
में;
हजारों लोग
उनके साथ वहां
खड़े हुए हैं।
लेकिन जो
रामकृष्ण को
वहां दिखाई
पड़ता था वह
किसी को वहां
दिखाई नहीं
पड़ता था। तो
लोग बाहर जाकर
कहते थे, इसका
दिमाग खराब हो
गया है।
क्योंकि
रामकृष्ण
बातें कर रहे
हैं। मां से
उनकी चर्चा चल
रही है।
कभी-कभी झगड़ा
भी हो जाता है,
विवाद भी हो
जाता है।
रामकृष्ण रूठ
भी जाते हैं--कि
फिर कल से
पूजा बंद कर
दूंगा! क्या
समझ रखा है
तुमने अपने
आपको? इतनी
आत्मीय चर्चा
चलती है। और
जहां इतनी
आत्मीयता हो
वहीं झगड़ा
हो सकता है।
पर बाकी लोग
खड़े देख रहे
हैं कि यह क्या
पागलपन है!
पत्थर की
मूर्ति, इससे
क्या बातचीत
चल रही है? जरूर
रामकृष्ण का
दिमाग खराब हो
गया।
एक दिन
उसी पत्थर की
मूर्ति के
सामने
रामकृष्ण ने
कहा,
बहुत हो गया
पूजा करते-करते;
आखिर कब तक?
अब आखिरी
झलक चाहिए। और
अगर आज आखिरी
झलक नहीं मिली
तो अपनी भी
गर्दन काट
दूंगा और
तुम्हारी भी
गर्दन काट
दूंगा। तलवार
लटकी थी मंदिर
में, देवी
के मंदिर में।
तो तलवार खींच
ली। अच्छा हुआ
कि वहां कोई
था नहीं, नहीं
तो रामकृष्ण
पुलिस थाने
पहुंचाए गए
होते। तलवार
खींच ली और
कहा कि बस, तीन
सेकेंड का समय
देता हूं। अगर
तीन सेकेंड के
भीतर ब्रह्मानुभव
नहीं होता है
तो यह गर्दन
नीचे गिरा
दूंगा।
तीन
सेकेंड अनंत
जन्मों जैसे
लंबे हो गए
होंगे।
क्योंकि समय घड़ियों
में नहीं नापा
जाता, समय
संकल्प से
नापा जाता है।
इतनी
त्वरा--जहां
जीवन तीन
सेकेंड के बाद
नंगी तलवार के
पास था--और हाथ
रामकृष्ण का
कंपने लगा।
सेकेंड-सेकेंड
गुजरने लगे और
झटके से उनका हाथ
गर्दन पर आया।
जैसे ही गर्दन
के करीब तलवार
आई, सारा
रूप बदल गया।
मंदिर
तिरोहित हो
गया। वह जहां
पत्थर की
मूर्ति खड़ी थी
वहां चैतन्य
का आविर्भाव
हो गया। हाथ
से तलवार नीचे
गिर गई।
रामकृष्ण नाच
कर--रात भर नाच
कर--बेहोश
सुबह पाए गए।
लेकिन उस दिन
के बाद
रामकृष्ण
दूसरे हो गए।
उस दिन के बाद
फिर वे पूजा
को अक्सर नहीं
जाते थे। लोग
पूछते भी तो
वे कहते, आविर्भाव
हो गया; अब
सभी जगह वही है।
अब जहां मैं
बैठा हूं, वहीं
पूजा है। अब
मंदिर में
जाने की कोई
जरूरत न रही।
मंदिर तो
द्वार था; अब
द्वार खुल
गया। तो अब
द्वार पर खड़े
रहने की कोई
जरूरत न रही।
क्या
हुआ उस क्षण
में जब
रामकृष्ण ने
तलवार उठा ली?
ध्यान
रहे,
मूर्ति में
तो कुछ भी
नहीं हो सकता
तलवार से।
क्या होगा? पत्थर में
क्या होगा? लेकिन जब आप
तलवार उठा
लेते हैं और
इतनी त्वरा से
भर जाते हैं, इतनी
तीव्रता से कि
अपना पूरा
जीवन दांव पर
लगाते हैं, तो आप भीतर
एक हो जाएंगे।
वहां दूसरा
स्वर ही नहीं
रह सकता। तीन
सेकेंड जहां
बचे हों, जीवन
जहां समाप्त
हो रहा हो, तलवार
हाथ में हो, वहां
रामकृष्ण में
कितनी
वासनाएं बची
होंगी? सोचा
होगा कि कल
सुबह क्या
करना है? किसको
पैसे देने हैं?
किससे पैसे
लेने हैं? समय
मिट गया होगा।
कोई पिछला कल
नहीं बचा; आगे
का कल नहीं
बचा।
रामकृष्ण उन
क्षण में समय
के पार हो गए
होंगे--कालातीत।
मन में क्या
वासना बची
होगी? जो
परमात्मा के
लिए जीवन देने
को तैयार हो
गया, अब
कोई वासना
नहीं बच सकती।
यह आखिरी
वासना है, इसके
आग फिर कोई
वासना नहीं।
यह आखिरी पड़ाव
है, इसके
आगे कोई पड़ाव
नहीं। उस क्षण
में वे एक हो
गए होंगे। उस
तलवार के नीचे,
जहां मौत निकट
थी, जीवन
इकट्ठा हो गया
होगा। उस इकट्ठेपन
में एक का
आविर्भाव
हुआ। मूर्ति
खो गई, मंदिर
खो गया; एक
ही व्याप्त हो
गया।
ध्यान
रहे,
घटना भीतर
घटती है; बाहर
तो उसका सिर्फ
अनुभव होता
है। इसलिए आप
भी मंदिर में
बैठे होते तो
आपके लिए
मंदिर नहीं खो
जाता, न
मूर्ति खो
जाती। आपके
लिए सिर्फ
अड़चन मालूम
पड़ती कि रामकृष्ण
को कुछ गड़बड़
हो गई। आपका
कहना भी ठीक है।
गड़बड़
रामकृष्ण को
ही हुई है।
कुछ जो हुआ है वह
रामकृष्ण को
भीतर हुआ है।
लाओत्से
कहता है, "इस
एक की उपलब्धि
के द्वारा
देवता में
देवत्व था। इस
एक की उपलब्धि
के द्वारा घाटियां
भरी थीं।'
लाओत्से
के प्रतीक
हैं। घाटी वह
कहता है हृदय को।
खाली हृदय दुख
है;
खाली हृदय
पीड़ा है। जीवन
भर आपका जो
कष्ट है, एक
शब्द में कहा
जा सकता है:
खाली हृदय।
आपका हृदय एक
घाटी है
जिसमें कोई
भराव नहीं।
इसलिए तो
प्रेम का इतना
पागल आकर्षण
है कि कोई भर दे,
कोई मुझे
पूरा कर दे।
खाली हैं, अधूरे
हैं। भरने के
लिए लालायित
हैं: कोई भर दे।
लेकिन जिनसे
आप भरने की
मांग कर रहे
हैं वे भी
इतने ही खाली
हैं। तो धोखा
ही होगा।
इसलिए सभी
प्रेम असफल हो
जाते हैं।
शुरू में बड़ी
आशा बंधती
है कि दूसरा
मुझे भर देगा।
दूसरा भी इसी
आशा से आपके
पास आया है कि
आप उसे भर
देंगे। दूसरा
समझता है आप
भरे हैं; आप
समझते हैं
दूसरा भरा है।
दोनों खाली
हैं। कितनी
देर चलेगी यह
आशा? ये
इंद्रधनुष
जल्दी ही बिखर
जाएंगे, तिरोहित
हो जाएंगे। और
लगेगा कि
दूसरा तो मुझसे
भी ज्यादा
खाली है, मुझे
चूसे जा रहा है।
दूसरे को भी
यही लगेगा कि
तुम धोखेबाज
हो। तुमने जो
आशा बंधाई थी
वह सब ऊपरी
थी। भीतर तुम
खुद ही भिखमंगे
हो। और मैं एक
सम्राट के
करीब मेरा आना
हुआ था; एक
सम्राट को देख
कर आना हुआ
था।
सभी
प्रेम असफल हो
जाते हैं, सिवाय
परमात्मा के
प्रेम के।
इसमें प्रेम
की कोई गलती
नहीं है।
इसमें प्रेम
के साथ जो
अपेक्षा है
वहीं भूल है।
खाली जो खुद
है वह आपको
कैसे भर सकेगा?
सिर्फ
आश्वासन दे
सकता है।
लाओत्से
कहता है, "उस
एक की उपलब्धि
के द्वारा घाटियां
भरी थीं।'
और वह
जब एक उपलब्ध
होता है तो
हृदय भर जाता
है। और वैसे
भरे हुए हृदय
वाले के पास
जो भी गुजरता
है वह भी उसके
भराव का
भागीदार हो
जाता है। उस
भरे हुए हृदय
वाले के पास
बहता रहता है, ओवर-फ्लोइंग
है, वह जो
भरा है अनंत
है। घाटी छोटी
है; जो भरा
है वह अनंत
है। वह बहता
रहता है। उसके
आस-पास जो आता
है वह भी
अनायास ही
भागीदार हो जाता
है, अनायास
ही आमंत्रण
में सम्मिलित
हो जाता है। वे
बुद्ध, महावीर
और जीसस जो
घूमते हैं
वर्षों तक एक
भरी हुई घाटी
को लेकर कि जो
भी खाली हैं
वे अगर निकट
भी आ जाएं...।
लेकिन
खाली आदमी की
बड़ी तकलीफें
हैं। खाली
आदमी निकट आने
में भी डरता
है। सिर्फ भरा
हुआ आदमी निकट
आने में डरता
नहीं। यह बड़े
मजे की और बड़ी
मनोवैज्ञानिक
घटना है।
जिनके पास कुछ
नहीं वे सदा
डरते हैं कि
कहीं छीन न
लिया जाए, और
जिनके पास सब
कुछ है वे कभी
नहीं डरते।
क्योंकि इतना
है उनके पास
कि तुम कितना छीनोगे!
तुम्हारे
छीनने से कोई
भी फर्क न
पड़ेगा। जिनके पास
नहीं है उनके
पास इतना नहीं
है कि वे डरे हुए
हैं कि कहीं
कोई और न छीन
ले। इसलिए
खाली लोग पास
आने में डरते
हैं। किसी को
बहुत निकट नहीं
लेते, क्योंकि
निकट में कहीं
खालीपन प्रकट
न हो जाए।
कहीं यह आदमी
देख न ले कि
मैं खाली हूं।
तो मेरी दीनता,
मेरी
नपुंसकता, मेरी
दरिद्रता, मेरा
भिखमंगापन, मेरा
भिक्षा-पात्र
किसी को दिख न
जाए; इसलिए
आदमी डरता है।
तो बुद्ध भी
आपके पास आएं
तो भी आप उनके
पास आने से
डरते हैं।
बुद्ध अगर आपके
बहुत पास आ
जाएं तो आप
भागने, पलायन
करने, बचने
का उपाय खोजते
हैं।
जिनके
पास है उनके
पास परमात्मा
के कारण है, उनके
कारण नहीं है।
व्यक्ति के
कारण सदा खालीपन
होगा; सिर्फ
परमात्मा के
कारण भरापन हो
सकता है। व्यक्ति
खालीपन का नाम
है; परमात्मा
अनंत भराव है।
तो
लाओत्से कहता
है,
"इस एक की
उपलब्धि के
द्वारा घाटियां
भरी थीं। इस
एक की उपलब्धि
के द्वारा सभी
चीजें जीतीं
और वृद्धि
पाती थीं।'
अभी
ऐसा लगता है
कि जो आदमी
भीतर भरा नहीं
होता वह सिकुड़ता
है,
सड़ता है; वृद्धि
नहीं पाता।
इसे हम ऐसा
समझें। अगर
आदमी ठीक से
वृद्धि पाए तो
वह मरने के
आखिरी क्षण तक
भी विकसित
होता रहेगा; किसी भी
क्षण में उतार
नहीं आएगा।
जीवन एक अनवरत
वृद्धि होगी,
एक शिखर
होगा जो बढ़ता
ही चला जाता
है।
लेकिन
हमारे जीवन
में ऐसा कोई
शिखर नहीं
होता। हमारे
जीवन में थोड़ी
सी वृद्धि
होती है, वह भी
वृद्धि
प्राथमिक काल
में होती है।
जब हम कम
अनुभवी होते
हैं, अबोध
होते हैं, संसार
के अर्थों में
अनुभवहीन
होते हैं, तब
थोड़ी वृद्धि
होती है।
बच्चे बढ़ते
हैं, लेकिन
बहुत जल्दी
रुक जाते हैं।
जिस दिन बच्चा
रुक जाता है
उसी दिन लोग
कहते हैं कि
अब यह प्रौढ़
हो गया; जिस
दिन वृद्धि
रुक जाती है, ठहर गई। जब
तक बच्चा बढ़ता
रहता है तब तक
चिंता का कारण
रहता है। पता
नहीं कहां बढ़
जाए, क्या
बढ़ जाए, क्या
हो जाए; अनप्रेडिक्टेबल,
भविष्यवाणी
नहीं की जा
सकती। इसलिए
सभी कोशिश में
रहते हैं कि
जल्दी एक
ठहराव आ जाए, एक पठार आ
जाए। फिर उसके
बाद बच्चा वही
रहेगा जो हो
गया। अब हम
उसके बाबत
पूर्व से ही
निर्णय कर
सकते हैं: वह
क्या करेगा, क्या नहीं
करेगा।
हम
इक्कीस साल की
उम्र बना रखे
हैं सारी
दुनिया में; वह
ठहर जाने की
उम्र को हम
वयस्क होना
कहते हैं, कि
अब आदमी जो है अडल्ट हो
गया। अडल्ट
का मतलब यह कि
अब नहीं
बढ़ेगा। ठहर गए,
आखिरी आ गई
जगह, जहां
से आगे अब ये न
जाएंगे। अडल्ट
का मतलब मर गए,
अब जिंदा
नहीं हैं। अब
इनके भीतर
वृद्धि नहीं
होगी। अब इनको
वोट देने का
अधिकार दिया
जा सकता है।
अब इनसे कोई
खतरा नहीं है।
अब ये समझदार
हो गए, अनुभवी।
खतरे का वक्त
गया। बच्चे
खतरनाक हैं।
अभी बढ़ रहे
हैं। अभी कुछ
भी अनहोना हो
सकता है। अभी
वे कहीं भी, किसी भी
दिशा में जा
सकते हैं। अभी
अनजान और
अपरिचित में
प्रवेश कर
सकते हैं। अभी
उनका भरोसा
नहीं किया जा
सकता। अभी भरोसे
योग्य नहीं
हैं। जीवन का
हमें भरोसा
नहीं है; हमें
सिर्फ मृत्यु
का भरोसा है।
इसलिए
आप देखते हैं, जिंदा
आदमी से थोड़ा
डर बना ही
रहता है। जब
कोई आदमी मर
जाता है तो
सभी लोग उसकी
प्रशंसा करने
लगते हैं कि
कैसा अच्छा
आदमी था। मौत
अच्छा बना
देती है एकदम।
जब भी आप किसी
आदमी के संबंध
में सबके
द्वारा प्रशंसा
सुनें तो
समझना कि वह
मर गया है।
मरे आदमी की
कोई निंदा
नहीं करता, क्योंकि अब
इससे खतरा ही
नहीं है, अब
इससे कोई
लेना-देना ही
नहीं है।
इसलिए लोग
कहते हैं, अब
मरे की क्या
आलोचना कर रहे
हो! आलोचना तो
जिंदा की है।
और जितना
जिंदा हो उतनी
ही ज्यादा आलोचना।
मरा एकदम
अच्छा हो जाता
है।
मैंने
सुना है कि एक
बार ऐसा हुआ
कि गांव में एक
आदमी मरा। वह
इतना बुरा
आदमी था और
गांव भर को
उसने इस बुरी
तरह परेशान कर
रखा था कि
गांव के सभी
नेतागण
चिंतित थे कि
उसके मरने पर
वक्तव्य क्या
दें। क्योंकि
उसको अच्छा
कहना असंभव ही
था। जाहिर
इतना बुरा
आदमी था कि
बहुत खोज करके
भी कुछ न पाया
जा सका कि
उसकी प्रशंसा
में बोलना तो
पड़ेगा ही। तो
फिर उन्होंने
गांव के ज्ञानी
मुल्ला नसरुद्दीन
को कहा कि
हमें इस
परेशानी से
बाहर निकालो।
नसरुद्दीन
आया और बोला।
लोग बड़ी
दिक्कत में
पड़े;
क्योंकि
उसने शुरू
किया उसकी
निंदा करने से
कि वह आदमी
कितना बुरा
था! कितना
बुरा था! लोग
थोड़े घबड़ाए
कि यह तो बड़ा
अनहोना हो रहा
है। लेकिन अब
कोई उपाय नहीं
था। लेकिन
आखिर में नसरुद्दीन
ने कहा, लेकिन
यह कुछ भी
नहीं है। उसके
जो पांच भाई
जिंदा हैं, उनके
मुकाबले वह
देवता था।
उसने
कुछ रास्ता
निकाल ही
लिया। मरे
आदमी की प्रशंसा
करनी ही
चाहिए। मरते
ही आदमी के
बाबत हम
निश्चिंत हो
जाते हैं। अब
उसकी कोई
संभावना न रही।
लाओत्से
कहता है, तब एक
की उपलब्धि थी,
सभी चीजें
जीतीं और
वृद्धि पाती
थीं। कोई भी मृत
न था।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि कोई
मरता नहीं था।
लेकिन कोई भी
मृत होकर जीता
नहीं था; मरा-मरा
नहीं जीता था।
जब जीता था तो
पूरी तरह जीता
था; और अब
मरता था तो
पूरी तरह मरता
था। पूरी तरह
जीने का भी एक
आनंद है; पूरी
तरह मरने का
भी एक आनंद
है। पूर्णता
में सदा आनंद
है। हम
कुनकुने-कुनकुने
जीते हैं और कुनकुने-कुनकुने
मरते हैं। न
तो मरने में
कोई रस है और न
जीने में कोई
रस है। जीते
हैं ऐसे कि किसी
तरह जी रहे
हैं; और मर
भी इसी तरह
जाते हैं।
क्योंकि
जिसकी जिंदगी कुनकुनी
है उसकी मौत
महिमापूर्ण
नहीं हो सकती।
उसकी मौत घटना
नहीं है। उसकी
मौत एक सड़न
है क्रमशः। वह
मरता जाता है,
मरता जाता
है, मरता
जाता है। उसकी
मौत एक क्रमिक
बात है। लेकिन
जो ठीक से
जीता है, पूरी
तरह जीता है, उसकी मौत एक
घटना है, एक
क्रांति है।
जीवन से
तत्क्षण वह एक
छलांग लेता है
दूसरे लोक
में। उसकी मौत
एक लंबा विघटन
नहीं है; उसकी
मौत एक अत्यंत
तीव्र घटना
है। और जिन
लोगों ने जीवन
को गहराई से
जाना है, वे
कहते हैं, जीवन
से भी बड़ा
सौंदर्य मौत
का है।
क्योंकि वह
परम विश्राम
है। लेकिन वह
उसी व्यक्ति
के लिए परम
विश्राम है जिसने
जीवन को उसकी
पूरी तीव्रता
में जीया हो; जिसने जीवन
को उसके पूरे
अर्थों में, बिना कुछ
काटे-छांटे,
सब दिशाओं
में, सब
भांति जीया
हो।
लाओत्से
कहता है, "जब
उस एक की
उपलब्धि थी, सभी चीजें
जीतीं और
वृद्धि पाती
थीं। इस एक की
उपलब्धि के
द्वारा राजा
और भूमिपति लोगों
के द्वारा
आदृत थे।'
वह आदर
जो सम्राटों
का था, उनकी
शक्ति का आदर
नहीं था; सम्राटों
का आदर उनकी
शांति का आदर
था। सम्राटों
के प्रति जो
सम्मान का भाव
था वह उनकी
सैन्य शक्ति
और हिंसा के
बल का नहीं
था। जिस समय की
लाओत्से बात
कर रहा है, उस
अति प्राचीन
क्षणों की, जब सम्राट
कोई भीतर की
मालकियत के
कारण था।
राम! तो
राम के प्रति
जो आदर लोगों
को रहा होगा वह
कोई राजा के
कारण नहीं था
कि वे राजा
थे। राजा होना
गौण घटना थी; राम
का होना ही
अपने आप में
मूल्यवान था।
राजा थे, यह
राम होने के
कारण। उस राजा
होने में भी
गरिमा थी।
लेकिन राजा
होने के कारण
राम में कोई
गरिमा नहीं
थी। कितने
राजा हुए हैं!
लेकिन राजा राम
को लोग याद
करते हैं; राजाओं
को तो भूल गए।
कुछ
महिमापूर्ण
था जो आंतरिक
बात थी। उससे
उनका सिंहासन
भी आलोकित था,
वह दूसरी
बात है। लेकिन
सिंहासन से
राम आलोकित
नहीं थे।
तो
लाओत्से कहता
है,
"उस एक की
उपलब्धि के
द्वारा राजा
और भूमिपति लोगों
के द्वारा
आदृत थे। इसी
तरह उनमें से
प्रत्येक ऐसा
हो उठा था।
प्रकाश के
बिना स्वर्ग हिलने
लगेगा; विदाउट क्लैरिटी
दि हैवेंस
वुड शेक।'
प्रकाश
के बिना, बोध
के बिना, प्रज्ञा
के बिना
स्वर्ग हिलने
लगेगा। वह जो
सुख है, कंपित
हो जाएगा; वह
जो जीवन का महासुख
है, बिखरित हो जाएगा, टूट जाएगा।
"स्थिरता
के बिना
पृथ्वी डोल
उठेगी।'
और उस
सुख में ही
स्थिरता होती
है,
भीतर सब ठहर
जाता है। सुख
के क्षण का
अगर आपको अनुभव
हो तो आप कह
सकते हैं कि
किस तरह का
ठहराव आ जाता
है; जैसे
कहीं कोई गति
नहीं होती।
नदी बहती जरूर
है, लेकिन
कोई शोरगुल
नहीं होता, कोई लहर
नहीं उठती, कोई कंपन
नहीं होता; सब ठहरा हुआ
होता है। आनंद
के क्षण ठहरे
हुए क्षण होते
हैं। समय ही
समाप्त हो
जाता है।
अगर हम
समय की
ठीक-ठीक
व्याख्या
समझना चाहें
तो समय दुख का
पर्यायवाची
है। जितना दुख
होता है उतना
लंबा समय
मालूम होता
है। अगर घर
में कोई मर रहा
हो और रात भर
आपको उसके
बिस्तर के पास
बैठना पड़े, तो
रात कितनी
लंबी मालूम
पड़ेगी? अनंत!
शुरू होगी, और ऐसा
लगेगा, अंत
नहीं आ रहा।
जब भी दुख
होता है तो
समय बहुत लंबा
हो जाता है।
जब सुख होता
है तो समय
सिकुड़ जाता है,
छोटा हो
जाता है।
इसलिए
दो प्रेमी रात
भर भी मिलते
रहें तो भी सुबह
विदा होते
वक्त उनको
लगता है कि बस
क्षण भर, क्षण
में रात बीत
गई। सुख समय
को छोटा कर
देता है। तो
जिस महासुख
की लाओत्से
बात कर रहा है,
जिस आनंद की,
वहां समय
समाप्त ही हो
जाता है।
जीसस
से कोई पूछता
है कि
तुम्हारे
स्वर्ग में कोई
खास बात क्या
होगी? तो जीसस
अजीब उत्तर
देते हैं।
कहते हैं, देअर
शैल बी टाइम
नो लांगर।
वहां समय नहीं
होगा; यह
एक खास बात
होगी। वहां कोई
गति न होगी।
चीजें ठहरी
होंगी; जैसे
शांत झील पर
एक भी तरंग
नहीं है। सुख
में आदमी ठहर
जाता है।
लाओत्से
कहता है, "स्थिरता
के बिना
पृथ्वी डोल
उठेगी।'
जैसे
ही सुख खोता
है,
बोध खोता है,
वैसे ही
पृथ्वी--हमारे
जीवन का जो
सामूहिक आधार
है--पार्थिवता,
हमारी देह,
और हमारा
देह के भीतर
जो निवास है, वह सारा घर
कंप उठेगा।
"आध्यात्मिक
शक्ति के बिना
देवता
नष्ट-भ्रष्ट
हो जाएंगे; विदाउट स्प्रिचुअल
पावर्स
दि गॉड्स
वुड क्रंबल।'
तो
मंदिर खड़े
रहेंगे
मुर्दा, मूर्तियां
बनी रहेंगी, लेकिन उनका
तेज विलीन हो
जाएगा; उनके
भीतर जो निवासी
था वह तिरोहित
हो जाएगा। ऐसा
हो गया है। लाओत्से
से पूछने की
जरूरत नहीं
है। हम देख
सकते हैं कि
लाओत्से ने जो
कहा है वह हो
गया है।
मंदिर
खाली हैं।
मस्जिद में अब
कोई निवास नहीं
है।
गुरुद्वारे
नाम के हैं।
खाली खोल रह
गई है। पक्षी
उड़ गया। जैसे
अंडा पड़ा रह
जाता है और
पक्षी उड़ जाता
है। या घोंसला
रह जाता है, पक्षी
बड़े हो जाते
हैं और आकाश
की यात्रा पर
निकल जाते
हैं। ऐसे खाली
घोंसले रह गए
हैं। उनके
भीतर जो जीवत्व
था, वह जो
जीवंत था, वह
जो जिसके लिए
वे घर थे, वह
निवासी वहां
अब नहीं हैं।
हम जाकर
मकानों को
नमस्कार कर
लेते हैं। यह
होगा ही।
क्योंकि
आध्यात्मिक शक्ति
के बिना देवता
नष्ट-भ्रष्ट
हो जाएंगे। उनमें
प्राण होता है,
जब आपके
भीतर
आध्यात्मिक
शक्ति होती
है। आपकी
आध्यात्मिक
शक्ति से वे
जीते हैं।
इकहार्ट
ने,
मेस्टर इकहार्ट
ने--ईसाई जगत
में जो संत
हुए हैं उनमें
इकहार्ट का
मुकाबला नहीं
है, इकहार्ट
अनूठा
है--इकहार्ट
ने एक वचन
लिखा है, जिसकी
वजह से उसे
ईसाइयों ने
तिरस्कृत
किया और
ईसाइयों ने
उसे
समाज-बहिष्कृत
माना। और ईसाई
उसे करीब-करीब
भुलाने की
कोशिश करते
रहे हैं, कम
से कम संगठनबद्ध
पोप, चर्च
इकहार्ट की
बात नहीं
करते। और इकहार्ट
जैसा आदमी
जीसस के बाद
ईसाइयत में
हुआ ही नहीं।
पर इकहार्ट के
वचन खतरनाक
हैं। उसका एक
वचन है जिसमें
वह ईश्वर से
प्रार्थना
में कहता है
कि तुमने मुझे
जन्म दिया और
मैंने तुम्हें
जन्म दिया! और
ध्यान रहे, तुम्हारे
बिना मैं न
बचूंगा, मेरे
बिना तुम भी न
बचोगे।
इससे घबड़ाहट तो
हो ही जाएगी, अगर
कोई संत ऐसा
ईश्वर से कहे
कि मेरे बिना
तुम भी न
बचोगे। तुम
मेरे जीवनदाता
हो, तो
ध्यान रखना, मैं भी
तुम्हारा जीवनदाता
हूं।
पर
लाओत्से के
वचन से बात
साफ हो जाएगी।
इकहार्ट के
कहने का ढंग
अदभुत है, बड़ी
चोट का है।
लेकिन बात वह
यही कह रहा है
कि ईश्वर नहीं
हो सकता जब तक
कि मनुष्य उसे
आध्यात्मिक
जीवन-ऊर्जा न
दे। एक पारस्परिक
लेन-देन है।
ईश्वर कोई ऐसी
घटना नहीं है
जो हमसे अलग
हो सके। आदमी
के साथ ही
ईश्वर अस्तित्व
में आता है।
अस्तित्व का
अर्थ यह कि ईश्वर
का बोध, ईश्वर
के होने की
बात आदमी के
साथ आती है।
आदमी को हटा
दें पृथ्वी से;
पशु होंगे,
पक्षी
होंगे। आदमी
नहीं होगा; ईश्वर भी
नहीं होगा।
सोच सकते हैं
आदमी के बिना
मंदिर और
मूर्तियां और
मस्जिद? आदमी
खो जाएगा तो
कौन तुम्हारी
मूर्तियों को फूल
चढ़ाएगा? आदमी की
चेतना ही उस
जगह आ गई है
जहां से ईश्वर
का आविर्भाव
हो सकता है; जहां से
आदमी अपनी
चेतना से
ईश्वर को जन्म
दे सकता है।
यह बहुत कठिन
बात है खयाल
में लेना। इसलिए
जब भी ईश्वर
खो जाता है तो
उसका अर्थ है आदमी
की चेतना नीचे
गिर गई।
क्योंकि उस
ऊंचाई पर ही
वह दिखाई पड़ता
है। जहां आप
ईश्वर को जन्म
दे सकते हैं
वहीं वह दिखाई
पड़ता है।
तो
इकहार्ट कहता
है कि हम
तुम्हारे
पुत्र ही नहीं, तुम्हारे
पिता भी हैं।
तुम हमें जन्म
देते हो, यह
सच है; पर
हम तुम्हारे
जन्म की घटना
को वापस लौटा
देते हैं। हम
ऋणी नहीं रहते;
हम भी
तुम्हें जन्म
देते हैं। बड़ी
छाती का आदमी
रहा होगा। और
संत, इतनी
बड़ी छाती न हो,
तो कोई हो
भी नहीं सकता।
लाओत्से
कहता है, "आध्यात्मिक
शक्ति के बिना
देवता
नष्ट-भ्रष्ट
हो जाएंगे।'
क्योंकि
तुम्हीं उनके
प्राणदाता
हो। तुम्हारी
ऊर्जा उनका
भोजन है। तुम
कितनी ऊंचाई
पर हो उतनी ही
ऊंचाई पर वे
भी रहेंगे।
तुम्हारी
ऊंचाई ही उनके
मंदिर की
ऊंचाई है।
इसे
थोड़ा ऐसा
देखें, जिस
चेतना की
अवस्था में
आदमी होता है,
उसी तरह के
वह देवता भी
निर्मित करता
है। जैसे-जैसे
आदमी की चेतना
बढ़ती है
वैसे-वैसे
देवता परिष्कृत
होने लगता है।
आदिवासी का
देवता देखें,
तो वह
आदिवासी जहां
जीता है, जिस
तल पर उसकी
चेतना होती है,
वैसा ही
होगा। पीछे
लौटें, जितना
ज्यादा
अविकसित समाज
होगा और चेतना
जितनी क्षीण
होगी, वैसा
ही देवता
होगा। उस
देवता की
परिभाषा भी वैसी
ही होगी।
अगर
पुराना, ओल्ड
टेस्टामेंट, बाइबिल में
तो देवता जो
है वह बहुत
खतरनाक है, बहुत दुष्ट
है। दया भी
करता है, लेकिन
उन पर ही दया
करता है जो
उसके अनुगत
हैं। सशर्त
उसका प्रेम
है। और नाराज
इतने जल्दी होता
है, और जब
नाराज हो जाता
है तो बिलकुल
विक्षिप्त व्यवहार
करता है। नष्ट
कर देता है
गांव के गांव;
पृथ्वी को डुबा देता
है पानी में; क्योंकि लोग
उसकी पूजा और
प्रार्थना
नहीं कर रहे।
इसका ईश्वर से
कोई लेना-देना
नहीं है; जिन
लोगों ने ये
वचन लिखे उनकी
चेतना की खबर
है। ऐसे ही
ईश्वर को वे
जन्म दे सकते
हैं; यह
उनकी धारणा
है।
लौटें
पीछे; आपके
देवी-देवता
हैं पुराणों
के। उनका
चरित्र देखें,
उनके काम
देखें। तो शर्म
मालूम होगी कि
ये देवी-देवता
हैं! ऐसा कोई पाप
नहीं जो वे न
करते हों।
चोरी वे करें;
मित्र को
धोखा देकर
उसकी पत्नी के
साथ व्यभिचार
वे करें; गुरु
को धोखा देकर
उसकी पत्नी को
ले भागें;
सब करें, फिर भी
देवता हैं।
जरूर कुछ कारण
होगा। जिन्होंने
उनको जन्म
दिया उनको कुछ
अड़चन नहीं
मालूम पड़ी, अन्यथा वे
इनको काट-छांट
कर देते। उनको
ठीक लगा।
थोड़ा
लौटें; युधिष्ठिर
को हम धर्मराज
कहते हैं।
युधिष्ठिर
जुआ खेलें तो
धर्मराज होने
में कोई अड़चन
नहीं।
युधिष्ठिर
द्रौपदी को
दांव पर लगा
दें। आप जरा
लगा कर देखें,
और अगर कोई
आपको धर्मराज
कह दे तो
चमत्कार है।
कोई आदमी आप न
खोज पाएंगे जो
आपको धर्मराज
कहे जब आप
द्रौपदी को जुए
पर हार आएं।
लेकिन जिन
लोगों ने
युधिष्ठिर को
धर्मराज कहा,
उन्हें
इसमें कुछ
अड़चन नहीं
मालूम पड़ी
होगी, तभी
तो! इसमें कोई
जरा भी अड़चन
नहीं मालूम
पड़ी।
उनकी
चेतना की
धारणा उनका
ईश्वर है।
उनका देवता, उनका
धर्म उनकी
चेतना से ही
तो निकलेगा।
जैसे-जैसे
चेतना विकसित
होगी
वैसे-वैसे
ईश्वर का परिष्कार
होगा। और जब
चेतना पूरी
तरह विकसित होगी
तो आकार खो
जाएगा ईश्वर
का, वह
निराकार हो
जाएगा।
क्योंकि आकार
कितना ही सुंदर
रहे, उसमें
असुंदरता बनी
ही रहेगी। और
आकार को हम
कितना ही सम्हालें
और संवारें,
आकार में
भूल-चूक होती
ही रहेगी। और
फिर आकार की
धारणा तो हर
युग के साथ
बदलती चली
जाएगी। इसलिए
जब चेतना
आखिरी ऊंचाई
पर पहुंचती है
तो परमात्मा
निराकार हो
जाता है।
निराकार
इसलिए हो जाता
है कि अब
उसमें
अशुद्धि का
कोई भी उपाय न
रहा। निराकार
कैसे अशुद्ध
होगा? आकार
से अशुद्धि
प्रवेश पा
सकती थी।
निराकार का
अर्थ हुआ इतनी
पूर्ण
शुद्धता कि
वहां आकार की
अशुद्धता भी
नहीं है। तो
जब भी चेतना
आखिरी ऊंचाई
पर आती है तो
निराकार
ब्रह्म जन्म
लेता है।
चेतना
के अनुसार ईश्वर
निर्मित होता
है। जैसी
चेतना वैसा
ईश्वर। आपके
ईश्वर की
धारणा को देख
कर,
आप क्या हैं,
यह कहा जा
सकता है। आपका
ईश्वर किस ढंग
का है, उसे
देख कर, आप
क्या हैं, यह
कहा जा सकता
है। क्योंकि
आपका ईश्वर
आपसे जन्म
पाता है।
"आध्यात्मिक
शक्ति के बिना
देवता
नष्ट-भ्रष्ट
हो जाएंगे।
भराव के बिना घाटियां
खंड-खंड हो
जाएंगी।
जीवनदायी
शक्ति के बिना
सब चीजें नाश
को प्राप्त
होंगी। आर्यत्व
की शक्ति के
बिना राजा और
भूमिपति पतित
हो जाएंगे।'
इतिहासज्ञ
सोचते हैं कि
राजाओं, सम्राटों,
भूमिपतियों का ह्रास
इसलिए हुआ कि
वे शोषण कर
रहे थे, कि
वे लोगों का
खून चूस रहे
थे, कि वे
लोगों को
गुलाम बना रहे
थे। लेकिन यह
बात सच नहीं
है। इसमें
अधूरा सच है, लेकिन यह
बात सच नहीं
है। सम्राटों
का पतन इसलिए
हुआ कि वे
केवल सम्राट
रह गए; उनके
भीतर जो भराव
था वह खो गया; उनके भीतर
जो परमात्मा
की गरिमा थी
वह खो गई। राम
जैसे सम्राट
को उतारना
असंभव होगा। लेकिन
रावण जैसे
सम्राट को कब
तक चलाए
रखिएगा?
सम्राट
होना एक
उपलब्धि थी, एक
साधना थी, एक
क्रम था
परिष्कार का।
तो सम्राट के
घर जब कोई
बेटा पैदा
होता और उसे
सम्राट बनने
का मौका आने
वाला हो तो
उसे सब तरह की
प्रक्रियाओं
से गुजरना
होता था।
उसमें योग के
अनुष्ठान
अनिवार्य थे।
उसे ध्यान की
गहरी
प्रक्रियाएं
आनी ही चाहिए।
उसे शांत होने
की कला आनी ही चाहिए।
क्योंकि बाहर
के सिंहासन पर
बैठ जाना तो
बहुत कठिन
नहीं है, लेकिन
बाहर के
सिंहासन का
बड़ा मूल्य
नहीं है। उसे
भीतर से भी सम्राट
होना चाहिए।
उसे भीतर से
भी, जिसको
हम कहें
अभिजात, भीतर
से भी उसे
श्रेष्ठ और
कुलीन और आर्य
होना चाहिए।
इसके
कई परिणाम हुए, इधर
इस तरह समझें।
हिंदुस्तान
में जैनों के
चौबीस
तीर्थंकर
राजाओं के
पुत्र हैं।
उनकी तैयारी
तो राजा होने
के लिए करवाई
गई थी; राजा
होने वाले थे।
उनकी तैयारी
तो बाह्य
सिंहासन के
लिए करवाई गई
थी, लेकिन
भीतर का
सिंहासन भी
तैयार करवाया
गया था। वे
धोखा दे गए।
उन्होंने
बाहर के
सिंहासन को
लात मार दी।
भीतर का रस
उन्हें ऐसा आ
गया कि उन्होंने
कहा कि अब इस
बाहर के
सिंहासन पर
क्या बैठना जब
भीतर से ही
सम्राट हो गए!
हिंदुओं के सब
अवतार राजाओं के
लड़के हैं।
बुद्धों के सब
अवतार राजाओं
के लड़के हैं।
भारत
में तीन धर्म
पैदा हुए।
तीनों धर्मों
के सभी अवतार
पुरुष
राजपुत्र
हैं। इसके
पीछे अनेक
कारणों में एक
बुनियादी
कारण यह है कि
राजा को हम
भीतर से भी
राजा बनाने की
कोशिश करते
थे। कभी-कभी
हमारी कोशिश
इतनी सफल हो
जाती थी कि वह
आदमी भाग ही
जाता था। वह कोशिश
का सफल हो
जाना है। सच
में ही वह
आदमी भीतर से
ऐसा हो जाता
था कि सिंहासन
दो कौड़ी
का हो जाता।
लाओत्से
के शिष्य लीहत्जू
ने कहीं कहा
है कि राजा
होने का
अधिकारी वही है
जिसे राजा
होने की वासना
न रह जाए; सिंहासन
पर बैठने का
मालिक वही है
जिसके लिए पता
ही न चले कि यह
सिंहासन है, तभी।
आज तो
लोकतंत्र है
सारे जगत में
और उसकी धारणा
का बड़ा प्रभाव
है। और आज
कहना बिलकुल
मुश्किल है
सम्राटों के
पक्ष में कुछ
भी। लेकिन मैं
जानता हूं, इसमें
ज्यादती हो
रही है
लोकतंत्र के
नाम पर। क्योंकि
सम्राट के नाम
पर भी ज्यादती
हुई। क्योंकि
भीतर का
सम्राट खो गया
और बाहर की
खोल फिर
सिंहासन पर
बैठती चली गई।
लेकिन एक
संभावना कि
भीतर से भी हम
आदमी को इस
ऊंचाई पर
पहुंचा सकते
हैं जितनी
ऊंचाई पर उसे
सत्ता पहुंचा
देगी और सत्ता
से उसकी भीतरी
ऊंचाई सदा
ज्यादा होनी
चाहिए तो ही
सत्ता का
दुरुपयोग न
होगा। लेकिन
लोकतंत्र में
सत्ता का बुरी
तरह दुरुपयोग
हो रहा है।
क्योंकि नीचे
से आदमी पहुंचता
है जिसकी कोई
तैयारी नहीं,
जो राजा
होने के लिए
तैयार नहीं
किया गया, और
राजा होने का
उसका एक ही
उसकी योग्यता
है कि वह कितने
पागलपन से
सिंहासन पर
पहुंचने की
कोशिश करता
है। इसको थोड़ा
समझ लें।
लीहत्जू
कहता है कि
जिसे सिंहासन
पर बैठने की
कोई आकांक्षा
नहीं वही
सम्राट होने
के योग्य है।
लेकिन
लोकतंत्र में
तो जिसे इच्छा
नहीं है बैठने
की सिंहासन पर
वह तो सिंहासन
पर कभी
पहुंचेगा ही
नहीं। यहां तो
वही पहुंचेगा
जिसको इतनी
प्रबल इच्छा
है कि बिलकुल
पागल हो जाए
और एक ही
इच्छा रह जाए, जैसे
परमात्मा को
पाने की इच्छा
ऐसे ही दिल्ली
पहुंचने की एक
ही इच्छा रह
जाए; सारी
चेतना उसी पर
एकाग्र हो
जाए। तब भी जरूरी
नहीं कि पहुंच
जाए। क्योंकि
वह अकेले ही ऐसी
एकाग्रता
नहीं साध रहा
है। मुल्क में
ऐसे हजारों
लोग एकाग्रता
साध रहे हैं।
फिर इन सब के
बीच संघर्षण
है। और उस
संघर्ष में जो
सबसे ज्यादा
चालबाज साबित
हो, सबसे
ज्यादा
बेईमान साबित
हो, सबसे
ज्यादा नियम
की परवाह न करता
हो, सबसे
ज्यादा
शरारती हो, षडयंत्रकारी हो, और हर
आदमी का उपयोग
एक ही जानता
हो कि उसको सीढ़ी
कैसे बनाया
जाए, वह
आदमी पहुंच
जाएगा। सबसे
बुरा आदमी
सत्ता में
सबसे ऊपर
पहुंच जाएगा
लोकतंत्र
में।
एक
अनूठा प्रयोग
सम्राटों के
साथ पूरब के
मुल्कों में
हुआ था कि हम
सम्राट को
तैयार करें।
अब यह
बहुत मजे की
बात है। आपको
अगर क्लर्क भी
होना है तो भी
एक तरह की
तैयारी
चाहिए। रेलवे का
गार्ड होना है
तो एक तरह की
तैयारी
चाहिए। टैक्सी
का ड्राइवर
होना है तो भी
एक तरह का लाइसेंस
चाहिए।
मिनिस्टर को
कुछ भी नहीं
चाहिए।
टैक्सी का ड्राइवर
भी एक तरह की
योग्यता
चाहता है; एक
तरह की
योग्यता
जरूरी है।
सिर्फ एक जगह
है आज, सत्ता
की, जहां
किसी तरह की
योग्यता की
जरूरत नहीं।
सिर्फ एक पागल
योग्यता
चाहिए कि आप
कोई चिंता न करें,
किसी बात की
चिंता न करें,
बस सीधे
कुर्सी की तरफ
दौड़ते चले
जाएं, सींग
नीचे झुका लें
और घुस जाएं।
उतनी योग्यता
हो तो आप
पहुंच ही
जाएंगे।
एक
अभिजात की
धारणा थी कि
सम्राट तैयार
किए जाएं। प्लेटो
की,
लाओत्से की,
वाल्मीकि
की, इन
सबकी धारणा थी
कि राजा ऐसे
ही कोई न हो
जाए, उसे
तैयार किया
जाए, पीढ़ी दर पीढ़ी
कुलीनता का
सारा आयोजन
दिया जाए और
इस आयोजन के
बाद ही कोई
शिखर पर
पहुंचे।
सत्ता तब हाथ
में आए जब
व्यक्ति
बिलकुल शांत
हो। शांति
उसकी कसौटी
हो।
तो
लाओत्से कहता
है,
"आर्यत्व की शक्ति के
बिना राजा और
भूमिपति पतित
हो जाएंगे।'
आर्य
का अर्थ है
आंतरिक
शुद्धता, आर्यत्व,
आंतरिक
श्रेष्ठता।
इस आंतरिक
श्रेष्ठता का
अहंकार से कोई
संबंध नहीं
है। इस आंतरिक
श्रेष्ठता का
एक अनिवार्य तत्व
तो विनम्रता
है।
बुद्ध
एक गांव में
आए हैं। तो उस
गांव के सम्राट
ने,
जैसे ही खबर
मिली, अपने
वजीरों
को बुलाया और
कहा कि तैयारी
करो स्वागत की,
और मैं
राज्य की सीमा
पर बुद्ध का
स्वागत
करूंगा। उसके
वजीर ने कहा, आप खुद ही
स्वागत करने
जाएंगे? बुद्ध
तो एक भिखारी
हैं। एक
सम्राट उनके
स्वागत को जाए?
सम्राट
के मन में भी
यह बात तो
चलती थी कि एक
सम्राट
भिखारी का
स्वागत करने
जाए! लेकिन
सम्राट डरता
था,
क्योंकि और
सम्राटों ने
स्वागत किया
था आस-पास। तो
जब वजीर ने यह
कहा तो सम्राट
ने कहा कि बात
तो तुम्हारी
ठीक है, एक
भिखारी के
स्वागत को
सम्राट के
जाने का क्या
प्रयोजन! वजीर
हंसने लगा और
उसने कहा कि
मेरा इस्तीफा
स्वीकार कर
लें। क्योंकि
जो सम्राट
बुद्ध जैसे
भिखारी के
स्वागत को
नहीं जाता वह
सम्राट होने
के योग्य ही
नहीं है।
मैंने तो इसीलिए
सवाल उठाया था
कि देखूं, भीतरी
अवस्था क्या
है। और ध्यान
रहे, तुम
सम्राट हो, बुद्ध
भिखारी हैं; लेकिन उनका भिखारीपन
तुमसे आगे है।
वे सम्राट थे,
सम्राट रह
सकते थे; उसे
छोड़ कर वे
भिखारी हैं।
इसलिए उनके
भिखारी की जो
गरिमा है वह
तुम्हारे
साम्राज्य और
तुम्हारे
सिंहासन से
बड़ी है।
इस देश
में बड़े से
बड़ा सम्राट भी
गरीब से गरीब ब्राह्मण
के चरण छुएगा।
छूता था।
ब्राह्मण के
पास कोई सत्ता
नहीं थी।
ब्राह्मण सदा
का फकीर था, दीन-हीन
था। उसके पास
कुछ भी नहीं
था जिसको हम बाह्य
ताकत कह सकें।
लेकिन बड़े से
बड़ा सम्राट
उसके चरण छुएगा।
वह इस बात की
खबर थी कि हम
शक्ति से
शांति को
ज्यादा मूल्य
देते हैं। और
सम्राट का आर्यत्व,
उसकी
श्रेष्ठता
इसमें है कि
वह विनम्र हो।
वह इतना
विनम्र हो कि
उसके पास कोई
अहंकार ही न हो।
लेकिन
अहंकार
सिंहासन पर बैठने
की चेष्टा
करता है। और
हम चाहते थे
कि सिंहासन पर
वह बैठे जो
निरहंकारी
हो। वह प्रयास
असफल हुआ। पर
बड़ा महाप्रयास
था। और छोटे
प्रयास सफल हो
जाएं तो भी
ठीक नहीं; महाप्रयास असफल भी हो
जाएं तो भी
ठीक है।
चेष्टा की, यह भी क्या
कम है!
लाओत्से
कहता है, "आर्यत्व की शक्ति के
बिना राजा और
भूमिपति पतित
हो जाएंगे।'
वह एक
सब का आधार
है। उस एक का
अनुभव हो गहन
तो इतनी
घटनाएं घटेंगी--स्वर्ग
उजागर होगा; पृथ्वी
थिर होगी; देवता
में देवत्व
होगा; घाटियां भरी होंगी; सभी चीजें
वृद्धि और
जीवन पाएंगी;
राजा और
भूमिपति सहज
आदृत होंगे।
ऐसा न हो तो
स्वर्ग हिलने
लगेगा; पृथ्वी
डोल उठेगी; देवता
नष्ट-भ्रष्ट
हो जाएंगे; घाटियां खंड-खंड हो
जाएंगी; सभी
चीजें नष्ट हो
जाएंगी; राजा
और भूमिपति
पतित होंगे; सिंहासन
धूल-धूसरित हो
जाएंगे; वह
जो श्रेष्ठ है,
निकृष्ट के
साथ एक हो
जाएगा।
लेकिन
एक का अनुभव
हो तो सभी
चीजें भिन्न
होंगी; जीवन
ऊर्ध्वगामी
होगा। और उस
एक से संबंध
टूट जाए तो
जीवन अधोगामी
हो जाता है।
पांच
मिनट कीर्तन
करें और फिर
जाएं।
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