सूत्र
:
कामं
क्रोधं लोभं
मोहं
त्यक्त्वाऽऽत्मानं
भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञानविहीना
मूढ़ाः ते
पच्यन्ते
नरकनिगूढाः।।
गेयं
गीतानामसहस्रं
ध्येयं
श्रीपतिरूपमजस्रम्।
नेयं
सज्जनसंगे
चित्तं देयं
दीनजनाय च
वित्तम्।।
सुखतः
क्रियते
रामाभोगः
पश्चाद्धन्त
शरीरे रोगः।
यद्यपि
लोके मरणं
शरणं तदपि न
मुग्चति
पापाचरणम्।।
अर्थमनर्थं
भावय नित्यं
नास्ति ततः
सुखलेशः
सत्यम्।
पुत्रादपि
धनभाजां
भीतिः
सर्वत्रैषा
विहिता
रीतिः।।
प्राणायामं
प्रत्याहारं
नित्यानित्यविवेकविचारम्।
जाप्यसमेत
समाधिविधानं
कुर्ववधानं
महदवधानम्।
गुरुचरणाम्बुजनिर्भरभक्तः
संसारादचिराद्भव
मुक्तः।
सेन्द्रियमानसनियमादेवं
द्रक्ष्यसि
निजहृदयस्थं
देवम्।।
एक
यूनानी पुराण
कथा है:
नार्सीसस नाम
का एक अति
सुंदर युवा
था।
प्रतिध्वनि
नाम की एक
युवती के
प्रेम में पड़
गया।
यह नाम
भी विचारणीय
है। व्यक्ति
प्रतिध्वनियों
के प्रेम में
ही पड़ते हैं।
जहां तुम्हें
अपनी आवाज
सुनाई पड़ती है, जहां
तुम्हें अपने
अहंकार को ही
तृप्ति मिलती
है, जहां
तुम छुपे रूप
में अपने को
ही पाते हो, वहीं
तुम्हारा
प्रेम पैदा हो
जाता है।
तुम्हारा
प्रेम
तुम्हारे
अहंकार का ही
विस्तार है।
प्रतिध्वनि
भी उसके प्रेम
में पड़ गई।
प्रतिध्वनि
तो प्रेम में
पड़ेगी ही, क्योंकि वह
तुम्हारी ही
आवाज की गूंज
है। उसके
तुमसे अलग
होने की न तो
कोई संभावना
है, न उपाय
है।
पर एक
दिन एक
दुर्घटना हो
गई। होनी ही
थी। क्योंकि
प्रतिध्वनियों
के धोखे में
जो पड़ जाए--अपनी
ही आवाज को
सुन कर उसके
ही प्रेम में
पड़ जाए--उसके
जीवन में
दुर्घटना निश्चित
है।
नार्सीसस
जंगल में गया
था। एक झील
में, शांत झील
में--हवा की
लहर भी न
थी--उसने
स्वयं के प्रतिबिंब
को देखा। वह
मोहित हो गया।
झील तो दर्पण
थी। अपना ही
चेहरा देखा; पर पहली बार
देखा; वह
इतना प्यारा
था। और अपना
चेहरा किसको
प्यारा नहीं
है? अपना
ही चेहरा
लोगों को
प्यारा है।
सम्मोहित हो
गया नार्सीसस--जैसे
जड़ हो गया।
मोह जड़ता लाता
है। हिलने में
भी डरने लगा
कि हिला तो
कहीं
प्रतिबिंब
टूट न जाए।
आंखें ठगी रह
गईं। वहां से
हटा ही नहीं।
प्रतिध्वनि
प्रतीक्षा
करती रही। और
जब नार्सीसस न
लौटा तो प्रेम
मर गया।
प्रतिध्वनि
तो, तुम्हारी
ही आवाज
गुनगुनाते
रहो, तो ही
गूंज सकती है।
जब तुम्हारी
ही आवाज न गूंजी--थोड़ी
देर
प्रतिध्वनि
गूंजती रहेगी
पहाड़ों में, फिर खो
जाएगी।
नार्सीसस न
लौटा, न
लौटा।
कहते
हैं, नार्सीसस
खड़ा-खड़ा उस
झील के किनारे
ही जड़ हो गया--एक
पौधा हो गया।
नार्सीसस नाम
का एक पौधा
होता है। वह
पौधा झीलों के
पास, झरनों
के पास, नदियों
के पास पाया
जाता है।
तुम्हें कहीं
वह पौधा मिल
जाए तो गौर से
देखना, तुम
उसे सदा पानी
में झांकता
हुआ पाओगे; वह अपने
प्रतिबिंब को
देखता है।
यह
पुराण कथा बड़ी
अदभुत है। अगर
तुम अपने में ही
ज्यादा मोहित
हो गए तो
चैतन्य खो
जाता है; तब
तुम आदमी नहीं
रह जाते, पौधे
हो जाते हो; तब तुम्हारी
भीतर की
मनुष्यता
विलीन हो जाती
है; तुम्हारे
भीतर की आत्मा
नकार हो जाती
है--तुम वापस
गिर जाते हो, तुम पतित हो
जाते हो। पौधे
का भी कोई
स्वातंत्र्य
है? मनुष्य
स्वतंत्र है,
चल सकता है।
पौधा बंधा है;
पैर नहीं
हैं उसके पास,
जड़ें हैं।
यह नार्सीसस
का पौधा हो
जाना केवल इस
बात की सूचना
देता है कि जो
व्यक्ति भी
अहंकार के
प्रतिबिंबों
में उलझ जाएगा,
उसके पैर भी
नष्ट हो जाते
हैं, जड़ें
हो जाती हैं; वह रुक जाता
है, उसकी
गति ठहर जाती
है; हिलने-डुलने
की भी
स्वतंत्रता
खो जाती है।
और यही
करीब-करीब सभी
मनुष्यों के
साथ होता है।
उपनिषद कहते
हैं, कोई
पत्नी को थोड़े
ही प्रेम करता
है--पत्नी में,
पत्नी के
द्वारा अपने
को ही प्रेम
करता है; कोई
बच्चों को
थोड़े ही प्रेम
करता
है--बच्चों में,
बच्चों के
द्वारा अपने
को ही प्रेम
करता है।
बच्चे भी
दर्पण हैं, पत्नी भी
दर्पण है। और
हर मनुष्य
नार्सीसस है।
ऐसी
मनुष्य की जो
चित्त-दशा है, इससे और परम
स्वातंत्र्य
के तो द्वार
कैसे खुलेंगे!
जो थोड़ी सी
स्वतंत्रता
है, वह भी
नष्ट हो जाती
है। पंख लगने
चाहिए थे कि तुम
उड़ सकते
परमात्मा की
तरफ। पंख तो
दूर, पैर
भी खो जाते
हैं। वृक्ष के
बंधन को तुम
समझते हो? हिल
भी नहीं सकता
जहां खड़ा है
वहां से।
रत्ती भर भी
हिलना चाहे तो
स्वतंत्रता
नहीं है, गति
नहीं है; जहां
खड़ा है, वहां
मजबूरी में
है। वहां से
हट नहीं सकता।
आदमी हिल सकता
है, चल
सकता है।
पक्षी उड़ सकता
है।
लेकिन
शरीर कितना ही
हिल-चल सकता
हो, तो भी
सीमा है--थक
जाएगा, थकान
ही बंधन हो
जाएगी। और
पक्षी कितना
ही उड़ सकता
हो--मीलों भी, तो भी मीलों
में कहीं आकाश
नापा जाता है?
थक जाएगा, शरीर की
सीमा है। और
स्वतंत्रता
तो तभी स्वतंत्रता
है, जब
असीम हो।
आत्मा की
स्वतंत्रता
चाहिए। आत्मा
में पंख लगें,
आत्मा उड़
सके--कि फिर
कोई सीमा न हो,
कहीं कोई
दीवाल न रोके,
कहीं कोई
जंजीरें न
हों। उस घड़ी
को ही हमने मोक्ष
कहा है।
मोक्ष
की तलाश है।
सुख के नाम से
तुम मोक्ष ही खोजते
हो। इसीलिए तो
हर सुख तुम्हारा
दुख हो जाता
है; क्योंकि
जब तुम पाते
हो कि मोक्ष
नहीं मिला, उलटे बंधन
मिले, तो
सुख सुख नहीं
मालूम होता।
तुम धन भी
खोजते हो तो
मोक्ष के लिए।
सोचते हो धन
से स्वतंत्रता
मिलेगी; थोड़े
हाथ-पैर
खुलेंगे; थोड़ा
तुम चल-फिर
सकोगे। गरीब
का आकाश बड़ा
छोटा है, अमीर
का जरा बड़ा
होगा; थोड़ी
सुविधा होगी।
लेकिन जब तुम
धन पा लेते हो,
तब तुम पाते
हो--यह तो गरीब
से भी छोटा
आकाश हो गया।
यह धन पंख
नहीं बना, जंजीरें
बन गया। अब
इसे छोड़ कर
तुम हट ही
नहीं सकते।
कहानियां
हैं कि अमीर
मर जाते हैं, तो मर कर
सांप होकर बैठ
जाते हैं अपनी
तिजोरियों
पर। जिंदा
हालत में भी
वे सांप ही होकर
बैठे रहते
हैं। मरने के
बाद क्या होता
है, इसमें
जाने की बहुत
जरूरत नहीं
है। जिसके पास
धन है--धन कहीं
खो न जाए, इस
चिंता से
भयातुर रहता
है। बैठा ही
रहता है, पहरा
देता रहता है।
भोगना तो
असंभव, मालिक
भी नहीं रह जाता।
करीब-करीब
पहरेदार हो
जाता है। तुम
ऐसे धनी को
मुश्किल से
पाओगे जो अपने
धन का मालिक है।
गरीब चाहे
अपनी
निर्धनता का
मालिक भी हो, लेकिन अमीर
अपने धन का
मालिक नहीं
है।
धन को
भी आदमी--गौर
से खोजोगे
तो--स्वतंत्रता
के लिए ही
चाहता है। पद
को भी
स्वतंत्रता
के लिए ही
चाहता है। पद
होगा, शक्ति
होगी, सामर्थ्य
होगी, तो
इतने बंधन न
रह जाएंगे; तुम कुछ
बंधन तोड़
सकोगे; तुम
थोड़े अज्ञात
और अनजान में
भी प्रवेश कर
सकोगे।
यदि
मनुष्य की
चेतना में
ठीक-ठीक खोजा
जाए तो मोक्ष
का ही स्वर
बजता है; वह
हर तरफ से
मुक्ति चाहता
है। इसलिए
जहां भी बंधन
बनने लगते हैं,
वहीं
बेचैनी हो
जाती है।
तुम
प्रेम करते हो
इसी आशा में
कि प्रेम आकाश
बनेगा; तुम
उड़ सकोगे, कोई
सहारा बनेगा
तुम्हारी
स्वतंत्रता
में। लेकिन जब
तुम प्रेम में
पड़ते हो, तो
तुम पाते
हो--उड़ना तो
दूर रहा, हिलना
भी मुश्किल हो
गया। दूसरे से
सहारे की आशा
की थी--सहारा
तो दूर रहा, दूसरे ने
पत्थर बांध
दिए तुम्हारे
गले में। प्रेम
बंधन हो जाता
है--होते ही।
सपनों में होता
है
स्वतंत्रता, असलियत में
हो जाता है
बंधन।
खलील
जिब्रान ने
अपनी अनूठी
किताब
प्रॉफेट में
कहा है। एक
व्यक्ति ने
पूछा, और हमें
प्रेम के
संबंध में कुछ
बताओ! तो खलील
जिब्रान की
किताब के नायक
अलमुस्तफा ने
कहा, तुम
एक-दूसरे को
प्रेम करना, लेकिन
एक-दूसरे के
मालिक मत
बनना। तुम
एक-दूसरे के
पास होना, लेकिन
बहुत पास
नहीं। तुम ऐसे
ही होना, जैसे
मंदिरों के
खंभे होते
हैं--एक ही
छप्पर को सम्हालते
हैं, लेकिन
फिर भी
दूर-दूर होते
हैं। अगर
मंदिर के खंभे
बहुत पास आ
जाएं तो मंदिर
गिर जाएगा।
प्रेमी से भी
थोड़े दूर होना,
ताकि दोनों
के बीच में
स्वतंत्र
आकाश हो। अगर बीच
का स्वतंत्र
आकाश बिलकुल
ही खो जाए तो
तुम एक-दूसरे
के ऊपर
अतिक्रमण बन
जाओगे, आक्रमण
बन जाओगे।
मगर ये
सब बातें तो
किताबों में
हैं। आदमी के जीवन
में तो जिससे
प्रेम होता है, हम उससे
उसकी सारी
स्वतंत्रता
छीन लेना चाहते
हैं। क्योंकि
प्रेम होते ही
भय होता है कि
कहीं यह प्रेम
किसी और की
तरफ न मुड़ जाए;
जो प्रेम
मुझे मिला है,
कहीं कोई
इसका और मालिक
न हो जाए।
धन
मिलता है, तो धन खो न
जाए! प्रेम
मिलता है, तो
प्रेम न खो
जाए! जो मिलता
है, उसी के
खोने का भय हो
जाता है। उस
भय के कारण स्वतंत्रता
असंभव हो जाती
है।
भय के
साथ कैसी
स्वतंत्रता? निर्भय में
ही
स्वतंत्रता
का फूल खिलता
है। और
प्रत्येक
व्यक्ति के
प्राण बस एक
ही बात के लिए
रोते हैं, एक
ही बात के लिए
गुनगुनाते
हैं, एक ही
बात के लिए
खोजते हैं--वह
है मोक्ष।
जहां तुम्हें
मुक्ति
मिलेगी, वहीं
तुम आह्लादित
होने लगोगे; जहां
तुम्हें बंधन
मिलेगा, वहीं
तुम उदास होने
लगोगे।
अगर
तुम इतने उदास
हो, तो कारण
साफ है--चाहा
था मोक्ष, मिलीं
जंजीरें; मांगा
था आकाश, मिला
कारागृह; खोजते
थे पंख, पैर
भी कट गए; चाहते
थे मुक्ति, जो पास था वह
भी दांव पर लग
गया और खो गया;
और जिसकी
आशा की थी, उसके
कहीं दूर भी
कोई आसार नजर
नहीं
आते--इसलिए
तुम उदास हो।
परमात्मा
शब्द का अगर
कोई भी अर्थ
हो सकता है तो
मोक्ष। इसलिए
परम ज्ञानियों
ने परमात्मा
शब्द का उपयोग
भी नहीं किया।
महावीर मोक्ष
की बात करते
हैं, परमात्मा
की नहीं।
क्योंकि
परमात्मा
शब्द के साथ
बड़ी
भ्रांतियां
जुड़ गई हैं; उसके साथ भी
बड़े कारागृह
जुड़ गए हैं।
बुद्ध निर्वाण
की बात करते हैं,
परमात्मा
की नहीं; जान
कर ही।
क्योंकि
परमात्मा के
नाम पर भी हिंदू
हैं, मुसलमान
हैं, ईसाई
हैं--ये नये
बंधन खड़े हो
गए हैं। हिंदू
हिंदू होने से
बंधा है, मुसलमान
मुसलमान होने
से बंधा
है--कोई
मस्जिद से
बंधा है, कोई
मंदिर से बंधा
है। और धर्म
तो मुक्ति है।
इसलिए
धर्म का न तो
कोई मंदिर हो
सकता, न कोई
मस्जिद हो
सकती।
और जिस
दिन तुम
धार्मिक हो
जाओगे, उस
दिन मंदिर में
भी तुम्हें
वही दिखाई
पड़ेगा, मस्जिद
में भी
तुम्हें वही
दिखाई पड़ेगा।
तब तुम कभी
मस्जिद में भी
प्रार्थना कर
लोगे, कभी
मंदिर में भी
प्रार्थना कर
लोगे।
वस्तुतः
मंदिर और
मस्जिद तक
जाने की जरूरत
न रहेगी, क्योंकि
तुम्हारे घर
में भी वही
दिखाई पड़ेगा;
तुम जहां
देखोगे, वही
दिखाई पड़ेगा।
धर्म
एक परम
स्वातंत्र्य
है। इस बात को
खयाल में रखें, तो शंकर के
ये अंतिम
सूत्र समझ में
आ सकेंगे।
'काम,
क्रोध, लोभ
और मोह को त्याग
कर स्वयं पर
ध्यान करो।'
ये चार
बंधन हैं, जिनसे
तुम्हारा
मोक्ष छिन गया
है, जिनसे
तुम्हारा
मोक्ष दब गया
है--काम, क्रोध,
लोभ और मोह।
इन चार को भी
अगर
संक्षिप्त कर
लो तो एक ही
बचता है--काम।
क्योंकि जहां
काम होता है, वहीं मोह
पैदा होता है;
जहां मोह
पैदा होता है,
वहीं लोभ
पैदा होता है;
और जहां लोभ
पैदा होता है,
अगर इसमें
कोई बाधा डाले,
तो उसके
प्रति क्रोध
पैदा होता है।
मूल बीमारी तो
काम है।
काम का
अर्थ समझ लो।
काम का अर्थ
है: दूसरे से सुख
मिल सकता है, इसकी आशा।
काम का
अर्थ है: मेरा
सुख मेरे बाहर
है। और ध्यान
का अर्थ है:
मेरा सुख मेरे
भीतर है।
बस, अगर ये दो
परिभाषाएं
ठीक से समझ
में आ जाएं, तो तुम्हारी
यात्रा बड़ी
सुगम हो
जाएगी। काम का
अर्थ है: मेरा
सुख मुझसे
बाहर है--किसी
दूसरे में है;
कोई दूसरा
देगा तो मुझे
मिलेगा; मैं
अकेला सुख न
पा सकूंगा; मेरे अकेले
होने में दुख
है और दूसरे
के संग-साथ
में सुख है।
इसीलिए
तो तुम अकेले
नहीं होना
चाहते। जरा भी
अकेले हुए कि
तुम डरे; जरा
भी अकेले हुए
कि तुम बेचैन;
जरा भी
अकेले हुए कि
तुमने अपने को
भरा, कूड़ा-करकट
कुछ भी मिले।
जिस अखबार को
तुम सुबह से
तीन दफे पढ़
चुके हो, उसी
को फिर पढ़ने
लगे। जरा
अकेले हुए कि
कुछ तो भरो, खालीपन
अखरता है।
रेडियो चला दो,
शोरगुल ही
होगा, लेकिन
ऐसा तो लगेगा
कि अकेले नहीं
हो। ताश खेलो,
होटल में
बैठ जाओ, क्लब
चले जाओ--कहीं
भी, किसी
भांति...।
एक
युवक मेरे पास
तीन दिन पहले
आया। उसने कहा
कि जैसे-जैसे
ध्यान कर रहा
हूं, वैसे-वैसे
अकेलेपन से डर
और बढ़ रहा है।
और कभी-कभी तो
ऐसी घड़ी आ
जाती है कि
मैं एकदम
भागता हूं घर
से निकल कर और
बाजार में चला
जाता हूं। यद्यपि
कुछ लेना-देना
नहीं है, लेकिन
बाजार में
भीड़-भाड़ में
घूमते हुए ऐसा
नहीं लगता कि
अकेला हूं।
घड़ी, दो
घड़ी घूम-फिर
कर लौट आता
हूं, हलका
हो जाता हूं।
तुम
जिसको अपने
जीवन की
व्यस्तता
कहते हो, उसमें
से बहुत सी
व्यस्तता तो
जरूरी नहीं है;
उसमें से
बहुत सी
व्यस्तता तो
तुम काट सकते
हो; उसमें
से बहुत सा
समय तो
विश्राम का हो
सकता है।
लेकिन मामला
ऐसा नहीं है
कि काम जरूरी
है, मामला
ऐसा है कि
बिना काम के
तुम अकेले हो
जाते हो।
पश्चिम
में
मनोवैज्ञानिक
एक नई चिंता
से भर गए हैं।
वह चिंता पहली
दफा
मनुष्य-जाति
के इतिहास में
आई है। और वह
चिंता यह है
कि इस सदी के
पूरे
होते-होते, कम से कम
पश्चिम के कुछ
मुल्कों
में--अमेरिका में,
स्वीडन
में--इतनी
सुख-सुविधा हो
जाएगी और सारा
काम करीब-करीब
स्वचालित
यंत्रों से
होने लगेगा कि
आदमी के पास
बहुत समय
बचेगा। तो
मनोवैज्ञानिकों
को बड़ा खतरा
है कि आदमी
करेगा क्या? क्योंकि अभी
खाली होने की
योग्यता आदमी
की नहीं है; अभी चुप
बैठने की
क्षमता आदमी
की नहीं है।
थोड़ा
सोचो--सारा
काम यंत्र कर
देता हो और
तुम्हारे पास
कुछ काम न बचे!
अभी यद्यपि
तुम रोते हो
कि काम ही काम
है, कोई
फुरसत नहीं; अभी तुम
सोचते भी हो
कि फुरसत मिल
जाए तो तुम कुछ
विश्राम कर
लो। यद्यपि
अभी भी जब
फुरसत मिलती
है, तुम
विश्राम करते
नहीं। रविवार की
छुट्टी काटे
नहीं कटती।
रविवार की
छुट्टी काटने
को तुम कितने
उपाय करते हो?
पिकनिक को
चले। कोई
उपद्रव न था, तो उपद्रव
बांधा। घर
नहीं बैठे रह
सकते; छुट्टी
काटे नहीं
कटती। रविवार
के दिन तुम सोमवार
की राह देखने
लगते हो--कब
सुबह हो, कब
तुम अपने काम
में लगो।
थोड़ा
सोचो कि पूरा
जीवन रविवार
की छुट्टी हो।
तुम बच सकोगे
उतने विश्राम
में? तुम झेल
सकोगे उस
शांति को, उस
एकांत को? नहीं,
तुम कुछ न
कुछ खतरे कर
लोगे; तुम
कुछ झंझटें
खड़ी करोगे; तुम कुछ
उपाय करोगे, जिसमें तुम
उलझ जाओ।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
हमें कुछ ऐसे
काम खोजने
पड़ेंगे, जिनकी
कोई जरूरत तो
न होगी, लेकिन
लोग जो खाली
नहीं बैठ सकते,
उनको हमें
देना पड़ेंगे।
और एक बड़ी
अनूठी बात खयाल
में आनी शुरू
हुई है और वह
यह कि जो लोग
बिलकुल खाली
बैठने को राजी
होंगे, उनको
सरकार
तनख्वाह देगी
कि वे खाली
बैठने के लिए
राजी हैं। जो काम
करेंगे, उनको
तनख्वाह नहीं
मिलेगी; क्योंकि
काम भी लो और
तनख्वाह भी
लो--दोनों एक साथ!
यह आज
हमें अजीब
लगता है। और
कम से कम पूरब
के मुल्कों
में तो बहुत
अजीब लगता है, जहां गरीबी
है, जीवन
बड़ा
दुविधापूर्ण
है। लेकिन
पश्चिम के मुल्कों
में यह घड़ी
करीब आ रही है।
बीस वर्षों के
भीतर, इस
सदी के पूरा
होते-होते, जो लोग खाली
बैठने को राजी
होंगे, उनको
सज्जन कहा
जाएगा; जो
नहीं बैठने को
राजी होंगे, वे दुर्जन
समझे जाएंगे।
खाली
लेकिन वही बैठ
सकता है, जिसे
थोड़ा ध्यान का
रस लगा हो।
इसलिए
आकस्मिक नहीं
है कि पश्चिम
में ध्यान की
इतनी तीव्र
जिज्ञासा
पैदा हुई है।
अकारण कुछ भी
नहीं होता; जब कोई चीज
घटने के करीब
होती है, तो
चेतना उस तरफ
उत्सुक होने
लगती है।
अगर
तुम यहां मेरे
पास पश्चिम से
दूर-दूर से आते
लोगों को
देखते हो तो
आकस्मिक नहीं
है। बड़ी तीव्र
आकांक्षा
पैदा हुई है
कि स्वयं के
साथ अकेले
होने का सुख
क्या है, उसे
जानना जरूरी
है। क्योंकि
दूसरे के साथ
न तो सुख कभी
मिला है, न
मिल सकता है; दूसरे के
साथ केवल दुख
मिला है।
लेकिन मजबूरी यह
है कि अकेले
होने की हम
कला नहीं
जानते। इसलिए
दूसरे के साथ
दुख मिले, नरक
मिले, तो
भी कोई उपाय
नहीं है; रहना
तो दूसरे के
साथ ही पड़ेगा;
क्योंकि
अकेले होने
में और भी
महानरक हो
जाता है। तो
अकेले के नरक
से हम सदा
दूसरे का नरक
चुन लेते
हैं--कम से कम
दूसरा तो
मौजूद है, नरक
ही सही। थोड़ी
बातचीत तो हो
लेती है--झगड़ा
ही सही।
तुमने
कभी खयाल किया
कि अगर तुम
खाली छोड़ दिए
जाओ, तो तुम
कहोगे, इससे
बेहतर दुश्मन
के साथ होना।
अपने साथ होने
से भी बेहतर
दुश्मन के साथ
होना लगता है।
झगड़ा तो होगा,
गाली-गलौज
तो होगी; कुछ
जीवन तो मालूम
होगा। ये
मुर्दे की तरह
बैठे हैं! ऐसे
तो बिखर
जाएंगे, ऐसे
तो फिसल जाएगा
मकान। कुछ करो,
उठो! लोग अपने
कमरे में ही
उठ कर कुछ भी
करने लगते
हैं।
मैं
ट्रेन में
बहुत दिनों तक
यात्रा करता
था। तो अक्सर
ऐसा हो जाता
कि कमरे में
मैं और दूसरा
आदमी अकेला
होता। तो मैं
देखता रहता कि
दूसरा आदमी
क्या कर रहा
है। मैं उससे
बोलता भी नहीं; क्योंकि
मेरे बोलने से
उसकी असलियत
का पता ही
नहीं चलेगा।
बोलने की तो
वह इच्छा में
ही है; वह
कई दफे कोशिश
भी करता बोलने
की--आप कहां जा
रहे हैं? मैं
हां-हूं करके
जवाब देकर फिर
अपनी आंख बंद कर
लेता। जब वह
थोड़ी देर में
समझ जाता कि
यह आदमी
बातचीत के
योग्य नहीं है,
तब वह उसका
असली रूप
प्रकट होता।
वह कभी अपना
सूटकेस
खोलेगा--मैं
देख रहा हूं कि
कोई काम नहीं
है उसको--फिर
बंद कर देगा, फिर जमा
लेगा; खिड़की
खोलेगा, बंद
करेगा।
बेचैनी है!
पंखा चलाएगा,
बंद कर देगा;
बाहर हो
आएगा, चाय
ले आएगा। हर
एक स्टेशन पर
उतर कर भजिए
खरीद लेगा।
कुछ भी कर रहा
है! नौकर को बुला
लेगा घंटी बजा
कर, उसी से
बातचीत करने
लगेगा।
लेकिन
उसकी बेचैनी
मैं समझता
हूं। ये चौबीस
घंटे उसे
अकेले होने को
मिले हैं, ये काट रहे
हैं, ये
कांटे की तरह
चुभ रहे हैं; इनको झेलना
मुश्किल है।
यद्यपि, अगर
तुम उससे पूछो,
तो वह कहेगा
कि कहां फुरसत
है! कभी ध्यान
भी करना चाहता
हूं तो फुरसत
नहीं है। अब
ये चौबीस घंटे
मिले थे!
चौबीस घंटे
में तो आदमी
महावीर हो जाए,
अगर चौबीस
घंटे एक स्वर
से शांत हो
जाए। चौबीस
घंटे तो मैं
ज्यादा कह रहा
हूं, जैनी
नाराज न हों, क्योंकि
महावीर ने तो
कहा है, अड़तालीस
मिनट में। मैं
तो चौबीस घंटे
कह रहा हूं
तुम्हारी
सामर्थ्य सोच
कर। महावीर ने
तो कहा है, अड़तालीस
मिनट आदमी
परमशून्य हो
जाए, रम
जाए--बस, इससे
ज्यादा की
जरूरत नहीं
है--परमज्ञान
उपलब्ध हो
जाएगा।
अड़तालीस मिनट!
पूरा घंटा भी
नहीं!
लेकिन
अड़तालीस
सेकेंड भी
मुश्किल है, अड़तालीस
मिनट तो दूर।
अड़तालीस
सेकेंड भी तुम
एक स्वर से
शांत न रह
सकोगे, तुम
हजार व्याघात
पैदा कर लोगे।
काम का
अर्थ है:
दूसरे में
सुख।
यद्यपि
मिलता कभी
नहीं। यही तो
मनुष्य की मूढ़ता
है। शंकर ऐसे
ही तुमको मूढ़
नहीं कहे जाते, कारण से
कहते हैं; खूब
सोच-विचार कर
कहते हैं। जिस
रेत से तेल
नहीं निकला, उससे तुम
निकालते ही
चले जाते हो।
और ऐसा भी नहीं
है कि तुम्हें
पता नहीं है।
अगर पता न होता
तो तुम
अज्ञानी थे।
अज्ञानी माफ
किया जा सकता
है। मूढ़ को
माफ नहीं किया
जा सकता। मूढ़
वह है, जिसे
पता भी है और
फिर भी निकाल
रहा है। क्योंकि
करे क्या? रेत
ही है, और
कुछ दूसरा
स्रोत पता
नहीं, जहां
से तेल निकाला
जा सके। खाली
भी नहीं बैठा
रह सकता! तो
रेत से ही
निकाल रहा है।
तुम
जरा गौर करो
अपने जीवन पर।
यह मूढ़ता की
बात तुमसे ही
कही गई है।
इसे थोड़ा
विचार करो!
तुमने कितनी
बार कामवासना
नहीं की; कितनी
बार तुम कामातुर
नहीं हुए; कितनी
बार मन काम के
मेघों से
आच्छन्न नहीं
हुआ--कभी
वर्षा हुई? कभी तृप्ति
हुई? कभी
संतोष फला? कभी सुख आया?
लेकिन तुम
सोचने में भी
डरते हो कि
अगर इस पर सोचेंगे
तो खतरा है, फिर करेंगे
क्या? यही
तो एक उलझाव
है; इससे
ही तो अपने को
किसी तरह उलझाए
हैं। किसी तरह
जीवन को काटे
जा रहे हैं।
अगर यह खेल भी
बंद हो गया, तो फिर हाथ
खाली हैं।
कामवासना ही
पूरा खेल है, पूरा संसार
है। उसी में
तुम उलझे, उसी
में तुम दबे, उसी में तुम
बोझिल चलते
चले जाते हो।
और जानते हुए
कि यह राह
कहीं ले नहीं
जाएगी। कभी
नहीं ले गई
है। लेकिन मन
धोखा दिए जाता
है। मन कहता
है: अभी तक न ले
गई हो, लेकिन
हो सकता है कल
ले जाए! किसी
को न ले गई हो, हो सकता है
मुझे ले जाए!
हो सकता है
मैं अपवाद होऊं!
ऐसा प्रत्येक
व्यक्ति
सोचता है।
कहते
हैं, अरब में
एक कहावत है
कि परमात्मा
जब भी किसी को
बनाता है, तो
उसके कान में
एक मजाक कर
देता है। उसके
कान में कह
देता है: तुझे
मैंने अपवाद
बनाया; तुझे
मैंने खास
बनाया; और
सब ऐरे-गैरे
नत्थू-खैरे
हैं, तुझे
मैंने विशेष
बनाया है। सभी
को कह देता है
लेकिन, तकलीफ
यह है। जिसको
भी बना कर
भेजता है, उसी
के कान में
मंत्र दे देता
है। और सभी
इसी खयाल में
चलते हैं कि और
सब ऐरे-गैरे
नत्थू-खैरे
हैं, मैं
कुछ खास हूं।
अब
परमात्मा ही
मजाक कर दे तो
बड़ा मुश्किल
हो जाता है।
हर एक को याद
है कि चलते
वक्त कहा था उसने।
हालांकि तुम
किसी से कहते
नहीं; कहो
तो दूसरे
हंसते हैं, क्योंकि
उनको भी उसने
कहा है। वे
कहते हैं, तुमको
कैसे कह सकता
है? इसलिए
तुम भी किसी
से नहीं कहते,
दूसरे भी
तुमसे नहीं
कहते। तुम भी
बताने की कोशिश
करते हो बिना
बताए, दूसरा
भी बताने की
कोशिश करता है
बिना बताए। जो
जोर-जोर से
चिल्ला कर
कहने लगते हैं,
उनको तुम
पागलखाने में
बंद कर देते
हो। लेकिन हर
एक के मन में
एक भ्रांति है
कि मैं अपवाद
हो सकता हूं।
बुद्धों
ने कहा--नहीं
मिला सुख; कामवासना के
मरुस्थल के
मरुस्थल खोज
डाले, एक
मरूद्यान भी न
पाया।
महावीरों ने
कहा, शंकर
कहते हैं कि
बड़ी यात्रा की;
मरूद्यान
तो दूर, खजूर
की छाया भी न मिली।
खजूर की भी
कोई छाया होती
है? लेकिन
वह भी न मिली।
लेकिन
तुम सोचे चले
जाते हो कि हो
सकता है इन्हें
न मिली हो; बेचारे चूक
गए हों, न
खोज सके हों, नक्शा हाथ
में न रहा हो, बुद्धिमान न
रहे हों, भटक
गए हों। और
फिर कौन जाने,
अक्सर ऐसा
भी हो जाता है
कि जिनको नहीं
मिलती, वे
दूसरों को भी
समझाने लगते
हैं कि
तुम्हें भी न
मिलेगी। और हो
सकता है अंगूर
खट्टे रहे हों;
पा न सके
हों खुद, सामर्थ्य
न रही हो, इसलिए
सब अंगूर
खट्टे हैं, ऐसा कह कर
उनको भी
चुकाने की
कोशिश कर रहे
हों जो पा
सकते हैं। कम
से कम मैं तो
पा ही सकता हूं।
तुम्हारे मन
में ऐसी
भ्रांतियों
का जाल है। तो
फिर काम से
छुटकारा न हो
सकेगा।
और जो
काम से न जागा, वह राम में न
जागा; जो
काम से जागा, वही राम में
जागा।
राम की
याद करने से
कुछ भी न होगा; क्योंकि मन
अगर काम से
भरा हो तो राम
का वह उच्चार
भी गंदा हो
जाएगा। हां, काम से मन
खाली हो जाए
तो राम को
पुकारना भी मत,
तो भी पुकार
उठेगी; तुम्हारा
रोआं-रोआं
कहेगा, तुम्हें
कहने की जरूरत
न रहेगी--भज
गोविन्दम्, भज
गोविन्दम्!
यह कोई
ऐसी बात नहीं, जिसको तुम
कर लोगे। यह
कोई तुम्हारे
कंठ की बात
नहीं है--न
तुम्हारे
ओंठों की, न
तुम्हारी
जिह्वा की। यह
तो जब
तुम्हारे
भीतर से काम
गिर जाएगा, तो उठेगी।
यह तो तुम
अचानक पाओगे
कि तुम्हारे रोएं-रोएं
से यही सुगंध
उठ रही है। यह
उठती है जब
काम गिर जाता
है; क्योंकि
काम में जो
ऊर्जा संलग्न
थी, वह
मुक्त हो जाती
है। वही राम
की तरफ आरोहण
बन जाती है।
काम है
दूसरे में सुख
की भ्रांत आशा; राम है अपने
में सुख को पा
लेना। और वही
एकमात्र पाने
की जगह है।
जिन्होंने भी
कभी पाया, वैसे
ही पाया; जिन्होंने
भी गंवाया, तुम्हारे
ढंग से
गंवाया।
इसलिए
शंकर कहते
हैं--मूढ़, चेतो!
जागो!
लेकिन
अपने में मूढ़
को देखना बड़ा
कठिन है।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
गांव में नाटक
हो रहा था।
नाटक में एक
मूर्ख की भी
जरूरत थी। तो
गांव में जो
एक नेताजी थे, उनको लोगों
ने चुना।
नेताजी ऐसे
जन्मजात मूर्ख
थे। न होते तो
नेताजी न
होते। अब कोई
नेता होने पड़ा
है जिसे थोड़ी
बुद्धि हो? नाहक गाली
खाने-खवाने को,
जूता
फिंकवाने को,
सड़े टमाटर
झेलने
को--किसकी
मर्जी है? किसको
प्रयोजन है? मगर जूता
फेंको कि सड़े
टमाटर फेंको
कि गाली-गलौज
बको--नेता जमे
ही रहते थे।
ऐसे ही तो वे
नेताजी हो गए
थे, ज्यादा
दिन तक टिक गए
थे। जिनमें
थोड़ी अकल थी, वे भाग भी
गए। लोगों ने
उन्हीं से
प्रार्थना
की। नेताजी ने
मुल्ला
नसरुद्दीन से
पूछा कि मुझे
मूर्ख का
पार्ट अदा
करना है नाटक
में, तुम
मुझे बताओ कि
किस भांति से
यह पार्ट
कुशलता से अदा
किया जा सकता
है?
नसरुद्दीन
ने नीचे से
ऊपर तक देखा
और कहा कि आप
जैसे हो, बस
ऐसे ही स्टेज
पर चले जाओ; इसमें जरा
भी फर्क की
जरूरत नहीं
है। फर्क करने
से गड?बड़
हो जाएगी।
नेता
तो बहुत नाराज
हो गया। उसने
कहा कि मुझे पता
है और तुम
गांव में भी
अफवाह करते हो, लोगों को
बात करते हो
कि मैं नंबर
एक का मूर्ख हूं।
अब आज मेरे
सामने ही बात
जाहिर हो गई।
धमकाया बहुत।
नसरुद्दीन
ने कहा, आपसे
सच कहता हूं, अल्लाह की
कसम, नंबर
पहला मैंने
कभी नहीं कहा।
मूर्ख कहा हो
भला, नंबर
पहला मैंने
कभी नहीं कहा।
क्योंकि तुम तो,
नंबर पहला
अगर वहां भी
होने का मौका
हो, तो
चूकोगे नहीं।
नंबर
पहला--वही तो
नेता की दौड़
है।
तुम
में सारी
दुनिया जो देख
ले, वह भी तुम
स्वयं नहीं
देख पाते! आंख
के अंधे! सबको
जो पहचान में
आ जाए, वह
भी तुम्हारी
पहचान में
नहीं आता।
इससे बड़ी मूढ़ता
और क्या हो
सकती है इस
संसार में कि
जिन-जिन
अनुभवों से
तुम हजारों
बार गुजर चुके
हो और एक भी
बार सुख नहीं
पाया, उन्हीं-उन्हीं
की फिर आकांक्षा
करने लगते हो!
कब जागोगे? क्योंकि काम
में जो सोया
है, वही
सोया है। और
जो काम से
जागा है, वही
जागा है। और
काम से जागो
तो ही ध्यान
की यात्रा
शुरू होती है;
क्योंकि
ध्यान का अर्थ
है, स्वयं
में है सुख।
दूसरे में
हारो, बहुत
खोज
चुके--पछताओ; वापस घर आओ।
'काम,
क्रोध, लोभ
और मोह को
त्याग कर
स्वयं पर
ध्यान करो।'
शंकर
जान कर कहते
हैं, इन चार को
छोड़ दो तो ही
स्वयं पर
ध्यान हो सकेगा।
काम
अगर छूट
जाए--दूसरे
में सुख है, यह बात अगर
छूट जाए--बस
इतनी सी ही
बात है, इतने
पर सब
दारोमदार है,
इतना दिख
जाए कि दूसरे
में सुख नहीं
है, सब हो
गया। क्रांति
घटित हो गई।
क्योंकि जैसे ही
दूसरे में सुख
नहीं है, तुम
दूसरे का मोह
न करोगे। अब
मोह क्या करना
है? मोह तो
हम उस चीज का
करते हैं, जिसमें
सुख की आशा है;
उसको
सम्हालते हैं,
बचाते हैं,
सुरक्षा
करते हैं, कहीं
खो न जाए, कहीं
मिट न जाए, कहीं
कोई छीन न ले।
मोह तो हम उसी
का करते हैं जहां
हमें आशा
है--कल सुख
मिलेगा। कल तक
नहीं मिला, आज तक नहीं
मिला--कल
मिलेगा।
इसलिए कल के
लिए बचा कर
रखते हैं। आज
तक का अनुभव
विपरीत है, लेकिन उस
अनुभव से हम
जागते नहीं।
हम कहते हैं:
कल की कौन देख
आया! शायद कल
मिले।
और अगर
मोह न हो तो
लोभ का क्या
सवाल है? लोभ
का अर्थ है:
जिसमें सुख
मिलने की
तुम्हारी
प्रतीति है, उसमें और-और
सुख मिले। अगर
दस रुपये
तुम्हारे पास
हैं, तो
हजार रुपये
हों--यह लोभ
है। अगर एक
मकान तुम्हारे
पास है, तो
दस मकान
हों--यह लोभ
है। लोभ का
अर्थ है:
जिसमें सुख
मिला, उसमें
गुणनफल करने
की आकांक्षा।
मोह का अर्थ है:
जिसमें मिला,
उसे पकड़
लेने की, परिग्रह
करने की, आसक्ति
बांधने की।
लोभ का अर्थ
है: उसमें
गुणनफल कर
लेने की
आकांक्षा।
लेकिन जिसमें
मिला ही नहीं,
उसका तुम
गुणनफल क्यों
करना चाहोगे?
कोई कारण नहीं
है।
और
क्रोध का क्या
अर्थ है? जिसमें
तुम्हें
दिखाई पड़ता है
सुख मिलेगा, उसमें अगर
कोई बाधा
डालता हो तो
क्रोध पैदा होता
है। तुम धन
कमाने जा रहे
हो, कोई
बीच में आड़े आ
जाए, तो
क्रोध पैदा
होता है। तुम
एक स्त्री से
विवाह करने जा
रहे हो और
दूसरा आदमी
अड़ंगे डालने
लगे, तो
क्रोध पैदा
होता है। तुम
चुनाव जीतने
के करीब थे कि
एक दूसरे
सज्जन खड़े हो
गए झंडा लेकर,
तो क्रोध
पैदा होता है।
क्रोध का अर्थ
है: तुम्हारी
कामना में जब
भी कोई अवरोध
डालता है।
तो
क्रोध, लोभ
और
मोह--छायाएं
हैं काम की।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं, वे कहते हैं,
क्रोध
छोड़ना है! मैं
कहता हूं, यह
तुम पूछो ही
मत; यह बात
ही गलत है।
कोई पूछता है,
लोभ छोड़ना
है! कोई पूछता
है, मोह
कैसे छूटे? लेकिन
मुश्किल से ही
कोई पूछता है
कि काम से कैसे
मुक्ति हो।
इसका अर्थ है
कि तुमने अभी
जीवन की ठीक
समस्या भी
नहीं पकड़ी; समाधान तो
बहुत दूर है, अभी निदान
भी नहीं हुआ।
क्रोध
दूर करने को
बहुत लोग आते
हैं, क्योंकि
क्रोध से कष्ट
मिलता है।
कष्ट भी मिलता
है, झगड़ा-झांसा
खड़ा होता है, दुश्मन पैदा
हो जाते हैं, मुसीबतें और
बढ़ती हैं।
क्रोध से
उपद्रव होता है,
साफ दिखाई
पड़ता है।
लेकिन यह तो ऐसे
है, जैसे
कोई छाया को
मिटाना चाहे।
तुम चलोगे धूप
में तो छाया
कैसे मिटेगी?
तुम मुझसे
आकर पूछते
हो--चलें तो
धूप में, लेकिन
छाया कैसे
मिटे?
मैं
क्या करूं? कोई भी कुछ
नहीं कर सकता।
हम कहेंगे, धूप में मत
चलो; तुम
कहोगे, यह
तो असंभव है।
कोई ऐसी तरकीब
बताएं कि चलें
तो धूप में, और छाया मिट
जाए। जीएं तो
संसार में और
कामना में, और क्रोध न
हो। क्योंकि
क्रोध से कई
दफे बनती कामना
में बिगाड़ पड़
जाता है; पास
आता सुख दूर
हट जाता है।
कई दफे क्रोध
के कारण तुम
अपना
बना-बनाया घर
गिरा लेते हो;
जरा सी बात
गलत निकल जाती
है मुंह से, सब गड़बड़ हो
जाता है। तो
तुम चाहते हो
कि क्रोध से
छुटकारा मिल
जाए! वह भी तुम
इसीलिए चाहते
हो, ताकि
कामवासना को
पूरा करने में
और भी ज्यादा कुशलता
आ जाए।
लेकिन
क्रोध तो केवल
काम की छाया
है। इसलिए शंकर
ने पहले कहा, काम; नंबर
दो पर कहा, क्रोध।
क्योंकि जिसके
भीतर काम है, उसके भीतर
क्रोध तैयार
होने लगा, छाया
बनने लगी।
जहां
तुम्हारे
भीतर काम उठा,
प्रतिस्पर्धा
उठी, प्रतियोगिता
उठी, शत्रु
पैदा हो गए।
तुम धन
पाना चाहते हो, सारी दुनिया
धन पाना चाहती
है। तुमने जिस
दिन धन पाने
की आकांक्षा
की, उन
सबके तुम
दुश्मन हो गए
उसी दिन--उन
सबके--जो सब धन
पाने की
आकांक्षा करते
हैं। चाहे देर
लगे फल आने
में, लेकिन
दुश्मनी का
बीज आरोपित हो
गया। काम के पीछे
ही है क्रोध, तत्क्षण।
चाहे क्रोध
आने में
वर्षों लग
जाएं, लेकिन
यात्रा शुरू
हो गई। तुमने
कुछ मांगा, तुमने कुछ
चाहा, क्रोध
आ गया।
तुम
कहोगे, अभी
तो पता भी
नहीं चलता
क्रोध का कुछ।
अभी तो हम
बिलकुल
प्रसन्नचित्त
बैठे हैं। राह
से एक कार
निकली और हमने
सोचा कि यह
कार हमें मिल
जाए। अभी कौन
सी गड़बड़ है? न कोई झगड़ा, न झांसा, न
किसी से कहा।
अभी क्रोध
कैसे आ गया?
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं, क्रोध आ
गया। क्योंकि
वे सब जो
तुम्हारे
मार्ग में
अवरोध बनेंगे,
उनके प्रति
क्रोध की
शुरुआत हो गई;
तुम्हारे
अचेतन में
क्रोध की छाया
बनने लगी। जल्दी
ही चेतन तक
प्रवेश
करेगी।
क्योंकि यह कार
पाने के लिए
प्रतिस्पर्धा
करनी होगी, संघर्ष करना
होगा, दुश्मनी
मोल लेनी होगी;
दुश्मनी
तुमने ले ही
ली।
जीवन
में अगर तुमने
कोई ऐसी चीज
चाही, जिसको
चाहने से
दूसरों के
जीवन से वह
छिनेगी, तो
क्रोध पैदा हो
गया।
अगर
तुमने कोई ऐसी
चीज जीवन में
चाही, जिसको
चाहने से और
तुम्हें
मिलने से किसी
का कुछ भी न
छिनेगा, तो
क्रोध पैदा न
हुआ।
लेकिन
वैसी तो सिर्फ
एक ही चीज
है--वही
परमात्मा है--भज
गोविन्दम्।
उसको तुम
कितना ही पा
लो, तुम किसी
का छीनते
नहीं। मैं
गोविन्द को पा
लूं, तो
तुम्हारे
गोविन्द के
पाने में कोई
कमी नहीं
होगी। बल्कि
बड़े मजे की
बात है कि मैं
गोविन्द को पा
लूं, तो
तुम्हारे
गोविन्द के
पाने में
सहारा और साथ
मिलेगा। मैं
गोविन्द को पा
लूं, तो
तुम जल्दी
गोविन्द को पा
सकोगे; क्योंकि
एक ने भी पा
लिया, तो
द्वार खुल गया;
एक ने भी पा
लिया, तो
सीढ़ी लग गई; एक ने भी पा
लिया, तो
तुमने भी पा
ही लिया--थोड़े
से प्रयास की
बात है--भरोसा
आ गया, श्रद्धा
आ गई, आश्वासन
आ गया। और अगर
एक ने भी पा
लिया, तो
वह तुम्हें भी
मार्ग दे
सकेगा। उसको
ही तो हम गुरु
कहते हैं
जिसने पा
लिया। वह
तुम्हें भी कह
सकेगा, यह
रहा मार्ग। वह
तुम्हें भी
थोड़े इशारे दे
सकेगा।
एक
परमात्मा ही
ऐसा है, जिसे
पाने से उसकी
मात्रा में
कोई कमी नहीं
पड़ती, बल्कि
मात्रा
ज्यादा
उपलब्ध हो
जाती है। एक परमात्मा
ही ऐसा है, जो
अर्थशास्त्र
का विषय नहीं
है। एक
परमात्मा ही
ऐसा है, जिसे
कोई पा ले, तो
उसके कारण कोई
गरीब नहीं
होता, बल्कि
एक के पाने के
कारण सभी
समृद्ध हो
जाते हैं। एक
के पाने में
जैसे सभी को
मिल जाता है।
जब
बुद्ध ने पाया, शंकर ने
पाया, कृष्ण
ने पाया, क्राइस्ट
ने पाया, तो
उस दिन सारी
जमीन पर वर्षा
हुई। अब जो
अपने घड़ों को
उलटा रखे बैठे
थे, उनका
तो क्या किया
जाए? लेकिन
जिनके घड़े भी
सीधे थे, भर
गए। पाया
कृष्ण ने, भर
गए हजारों
घड़े। पाया
बुद्ध ने, भर
गए हजारों
घड़े। पाया
शंकर ने, नाच
उठीं हजारों
आत्माएं।
शंकर का यह
आनंद-उत्सव
अकेले का नहीं
था।
इसे
थोड़ा समझो!
वही सुख है, जो बांटा जा
सके; वही
सुख है, जो
अपने आप बंटता
है, फैलता
है; वही
सुख है, जो
तुम्हारे
पाने से किसी
का छिने न, बल्कि
तुम्हारे
पाने से अनंत
को मिल जाए।
उसको ही हमने
महासुख कहा है,
आनंद कहा
है।
जिसे
तुम सुख कहते
हो, तो वह तो
बड़ी छीछालेदर
है। वह तो ऐसा
है, जैसी
पुरानी पुराण
में कथा है: एक
चील एक कचरेघर
से एक मरे चूहे
को ले उड़ी।
जैसे ही उसने
मरे चूहे को
पकड़ा, पच्चीसों
चीलें उसके
पीछे चक्कर
काटने लगीं, छीना-झपटी
शुरू हो गई, हमला शुरू
हो गया। वह जो
चील, जो
मरे चूहे को
अपने मुंह में
लटकाए थी, जगह-जगह
उसके पंखों
में चोंचें
मारी गईं, घाव
हो गए, खून
गिरने लगा। वह
बड़ी हैरान हुई
कि अभी तक कुछ
भी न था, और
अब अचानक!
लेकिन उसने भी
मरा चूहा छोड़ा
नहीं। वह तो
ऐसा हुआ कि
तीव्र झपट्टे
में उसके मुंह
से चीत्कार
निकली और चूहा
छूट गया। जैसे
ही चूहा छूटा,
वे चीलें जो
इर्द-गिर्द
मंडराती थीं,
सब चूहे के
पीछे चली गईं,
वह चील
अकेली रह गई।
वह एक वृक्ष
पर बैठ गई। वह
सोचने लगी।
वह चील
तुमसे ज्यादा
समझदार रही
होगी; उसको
शंकर मूढ़ नहीं
कह सकते थे।
वह सोचने लगी।
वह सोचने
लगी--पहले तो
मैं समझती थी
कि ये चीलें
मेरी दुश्मन
हैं। वह बात
गलत थी।
क्योंकि चूहे
के छूटते ही
सारी चीलें
चली गईं; किसी
से कोई दुश्मनी
न रही; अब
कोई हमला करने
को नहीं है, कोई पास ही
नहीं है। तो
मुझसे कुछ
वास्ता न था, मुझसे कोई
दुश्मनी न थी,
मुझसे कोई
निजी बैर न
था--चूहा था
जड़। और चीलें चूहे
के कारण मेरे
पीछे थीं। भूल
मेरी ही थी कि
मैंने चूहा
पकड़ा था, वह
मैं पहले भी
छोड़ सकती थी।
लेकिन मैं
नासमझ यही
समझती रही कि
उनकी दुश्मनी
मुझसे है।
रामकृष्ण
इस पुराण की
कथा को बहुत
बार कहते थे।
और वे कहते थे
कि काम को जो
मुंह में दबाए
है, वह मरे
चूहे को मुंह
में दबाए है।
सब तरफ
क्रोध पैदा
होगा, दुश्मनी
पैदा होगी।
हालांकि तुम
कहोगे: मैंने
किसी का भी
कुछ नहीं बिगाड़ा;
मैं अपना
चुपचाप अपने
घर में रहता
हूं, अपनी
घर-गृहस्थी की
फिक्र करता
हूं; मैं
किसी के
लेन-देन में
नहीं आता। फिर
क्यों लोग
मेरे दुश्मन
हैं? लेकिन
तुम लेन-देन
में आ ही गए।
एक सुंदर स्त्री
से तुमने
विवाह कर लिया।
पूरा गांव
उत्सुक था। अब
तुम कहते हो:
मैं अपनी
घर-गृहस्थी
में रह रहा
हूं! तुम रहो
भला घर-गृहस्थी
में, लेकिन
पूरे गांव से
तुमने झगड़ा
मोल ले लिया।
हिंदुस्तान
में पुराने
दिनों में ऐसा
रिवाज था, बुद्ध के
समय तक जारी
रहा, कि जो
सुंदरतम लड़की
होती गांव की,
उसको विवाह
नहीं करने
देते थे।
क्योंकि उससे
बहुत कलह मच
जाएगी। उसको
नगरवधू बना
देते थे; उसको
वेश्या बना
देते थे। वह
गांव के लोगों
को शांत रखने
का उपाय था।
आम्रपाली का
तुमने नाम
सुना होगा, वह नगरवधू
थी। नगरवधू का
मतलब यह था, वह सबकी
पत्नी। जो
बहुत सुंदर
स्त्री होती
गांव में, युवती
होती, उसको
फिर एक की
स्त्री नहीं
बनने देते थे;
क्योंकि एक
का बनाना बहुत
संघर्ष का
कारण होगा--तलवारें
खिंच जाएंगी,
झंझट
मचेगी। उसको
सभी का बना
देना उचित है,
झगड़ा-झांसा
नहीं होगा।
मगर, वहां जहां
कामवासना का
जगत है, वहां
तुम कितने ही
उपाय करो, झंझट-झगड़ा
तो बना ही
रहेगा।
आम्रपाली के
द्वार पर भी
झगड़े हो जाते
थे। क्योंकि
आम्रपाली भी
एक रात किसी
एक को ही मिल
सकती थी। पूरा
गांव--गांव ही
नहीं, आस-पास
के गांव, दूर-दूर
के नगर के लोग
उत्सुक थे। अब
एक स्त्री
कितनों को
उपलब्ध हो
सकती थी, भला
तुम नगरवधू
बना दो! यह भी
बड़ा अमानवीय
है। लेकिन एक
रास्ता
निकाला था, किसी तरह
सुलझ, समझ
रखने का, शांति
बनाए रखने का।
लेकिन फिर भी
कुछ हल नहीं
होता था। फिर
गरीब थे, अमीर
थे, सम्राट
थे। जब सम्राट
नगरवधू के
द्वार पर होता,
तो बाकी
लोगों का तो
क्यू में खड़े
होने का उपाय न
था। तो वे
जलते, मरते,
बुझते।
जब
चूहा मुंह में
हो मरा, तो
बाकी सब तरफ
चीलें हमला
करेंगी ही, यह
स्वाभाविक
है। थोड़ा चूहे
को छोड़ कर
देखो! अचानक
तुम पाते
हो--सारा जगत
मित्र हो गया।
कामवासना के
जाते ही सारा
जगत मित्र
मालूम होने लगता
है। कोई शत्रु
न रहा। शत्रु कोई
था ही नहीं, मरे चूहे के
कारण उपद्रव
था। तुमने
नाहक निजी दुश्मनी
समझ ली थी, निज
से कोई
लेना-देना न
था, वह मरा
चूहा
तुम्हारे
मुंह में था।
फिर चील बैठी
है अकेले
वृक्ष पर। उस
दिन उस चील को
ध्यान हो गया
होगा। एक बात
समझ में आ गई
कि उस चूहे में
सुख न था, दुख
का सारा उपाय
था; उसमें
सारे बीज थे
वैमनस्य के।
काम न
जाए तो क्रोध
कभी नहीं जा
सकता। लोग मुझसे
पूछते हैं, क्रोध कैसे
जाए? उनको
मैं कहता हूं,
मुश्किल है;
तुम बात ही
गलत पूछते हो।
बीज को बचाना
चाहते हो, पत्तों
को काटना
चाहते हो! जड़
को बचाना
चाहते हो, शाखाओं
को काटना
चाहते हो!
उससे तो उलटी
कलम हो जाएगी।
एक शाखा काटो,
तीन निकल
आती हैं। जड़
को ही काटना
होगा।
इसलिए
शंकर पहले
कहते हैं
काम--वह है जड़; फिर
क्रोध--उसकी
छाया; फिर
लोभ--उसका
अनुषंग; फिर
मोह--उसकी
आखिरी
निष्पत्ति।
इनको जो छोड़ दे,
स्वयं पर
ध्यान करे।
इनको
जो छोड़ दे, वही स्वयं
पर ध्यान कर
सकता है।
क्योंकि तब दूसरों
पर से ध्यान
हट गया--न काम
रहा, तो
काम के जो
विषय थे उनसे
ध्यान हट गया;
न क्रोध रहा,
तो जो क्रोध
के विषय थे
उनसे ध्यान हट
गया; न लोभ
रहा, तो
लोभ में जो
चिंतना उलझती
थी वह भी छूट
गई; न मोह
रहा, तो
मोह में जो
ऊर्जा लगती थी,
वह भी मुक्त
हो गई। सब तरफ
से मुक्त अब
तुम अपनी
यात्रा पर
निकले; अंतर्यात्रा
शुरू हुई। और
अंतर्यात्रा
ही एकमात्र
तीर्थयात्रा
है, बाकी
सब तीर्थ के
धोखे हैं।
भीतर जो गया, वही तीर्थ
पहुंचा; बाहर
जो भटके, उन्होंने
ऐसे ही अपने
मन को समझाया,
खेल-खिलौनों
में उलझे रहे।
'ऐसी
चित्त-दशा में
पूछो स्वयं
से--मैं कौन
हूं? क्योंकि
आत्मज्ञान से
विहीन मूढ़जन
यहां भी घोर
नरक की यातना
पाते हैं।'
आत्मज्ञानविहीना
मूढ़ाः।
वे जो
आत्मज्ञान से
रहित हैं, उन्हें कोई
नरक में जाकर
पीड़ा मिलेगी,
ऐसा मत
सोचना। ये भी
धोखेबाज आदमी
की तरकीबें
हैं कि वह
कहता है--नरक
में जाएंगे, तब दुख
मिलेगा। जैसे
यहां सुख मिल
रहा है! नरक में
जाएंगे, तब
दुख मिलेगा!
यहां क्या मिल
रहा है?
मैंने
तो सुना है कि
कुछ दिनों से
नरक में जब लोग
पहुंचते हैं, तो शैतान
उनसे पूछता
है--कहां से आ
रहे? वे
कहते हैं, पृथ्वी
से। तो वह
कहता है, अब
तुम स्वर्ग
चले जाओ, नरक
तो तुम भोग ही
चुके, अब
यहां किसलिए
आए हो?
अब तो
कुछ दिनों से
ऐसी भी खबरें
आने लगी हैं कि
नरक में जो
पाप करते हैं, उनको कष्ट
देने के लिए
पृथ्वी पर भेज
देते हैं।
क्योंकि अब
उनको भी तो
कहीं दंड देने
के लिए जगह
चाहिए! उनको
कहां भेजो? नरक में लोग
समझाते हैं कि
अगर पाप किया,
पृथ्वी पर
चले जाओगे।
शंकर
कहते हैं, यहीं घोर
नरक की यातना
तुम पा रहो
हो। किस नरक पर
छोड़ रहे हो यह
कि भविष्य में
मिलेगा?
यह भी
तरकीब है। आज
जो मौजूद है, उसे न देखने
का उपाय है।
अंधे होने की
तुम कितनी
व्यवस्थाएं
करते हो! खुद
को धोखा देने
के तुम कितने
तर्क खोजते हो!
नरक में
मिलेगा दुख।
यहां क्या मिल
रहा है? सिवाय
दुख के कुछ भी
नहीं पाया है।
दुख ही दुख है।
दुख ही दुख से
तुम भरे हो।
'स्वयं
से पूछो--मैं
कौन हूं?'
लेकिन
यह पूछा ही तब
जा सकता है, जब चारों
गिर गए हों।
तब एक बार
पूछना भी कि
मैं कौन हूं? और उत्तर
आना शुरू हो
जाता है।
वस्तुतः
पूछने की
जरूरत भी नहीं
रह जाती। तुम
आंख बंद करते
हो...पूछते
नहीं कि मैं
कौन हूं, शब्द
नहीं बनाने
पड़ते।
क्योंकि वहां
कोई दूसरा
थोड़े ही है, जिसके लिए
शब्द बनाने
हों; वहां
तो तुम ही
हो--किससे
पूछना है मैं
कौन हूं? तुम
ही अपने
आमने-सामने हो,
देख लो, पहचान
लो। पूछना
क्या है!
लेकिन कहने के
लिए शंकर कहते
हैं।
शंकर
को बहुत पसंद
थी एक कहानी
कि एक शिष्य
गुरु से
बार-बार पूछता
कि मैं
आत्मज्ञान
पाने के लिए
क्या करूं? और गुरु
अचानक जैसे इस
प्रश्न को
सुनते ही बहरा
हो जाता। और
सब समय वह
उत्तर देता, सब समय लगता
कि उसके भी
कान सजग हैं, छोटी-छोटी
बात सुन लेता।
लेकिन जब भी
वह शिष्य कभी
पूछता कि
आत्मज्ञान
पाने के लिए
क्या करूं कि
बस गुरु अचानक
बहरा हो
जाता--किसी
दूसरे काम में
लग जाता, उत्तर
न देता।
आखिर
एक दिन शिष्य
ने उसे हिलाया
पकड़ कर कि यह मामला
क्या है? तुम
हमेशा ठीक
होते हो; हजार
बात पूछता हूं,
जवाब देते
हो। सिर्फ यही
बात...।
गुरु
ने कहा, मैं
जवाब देता हूं,
तू सुनता
नहीं।
क्योंकि
आत्मज्ञान को
पाने का यही
उपाय है, चुप
रह जाना।
इसलिए मैं चुप
रह जाता
हूं--कि तू सुन,
कि तू समझ।
बस
इतनी ही
कीमिया है कि
भीतर अगर कोई
चुप हो जाए।
और जब मरा
चूहा मुंह से
गिर जाता है, तो भीतर
चुप्पी
स्वाभाविक आ
जाती है। उस
घड़ी में बोध
होता है, मैं
कौन हूं।
'गीता
और सहस्रनाम
ही गाने योग्य
हैं; विष्णु
का रूप ही
अखंड ध्यान के
योग्य है; सज्जनों
की संगति में
ही चित्त
लगाना चाहिए;
दीन जनों को
ही धन देना
चाहिए। और हे
मूढ़, सदा
गोविन्द को
भजो।'
जब तक
यह न हो जाए कि
ये चारों गिर
जाएं और तुम अपने
भीतर के आकाश
में पूछ सको
बिना शब्द
बनाए--मैं कौन
हूं? तब तक
गीता और
सहस्रनाम
गाने योग्य
हैं। तब तक
गाओ गीता, भजो
परमात्मा के
हजार नाम हैं
उनको; विष्णु
का रूप, उस
पर ध्यान करो;
सज्जनों की
संगति करो; दीन जनों को
धन दो। बांटो,
जितना बांट
सको; सत्य
की खबर सुनो, जितनी सुन
सको; गीत
गाओ परमात्मा
के।
'हे
मूढ़, सदा
गोविन्द को
भजो।'
जब तक
वह घड़ी न आ जाए, तब तक ऐसे
तैयारी करो।
'सुख
के लिए
स्त्री-भोग
किया जाता है,
लेकिन खेद
कि अंत में
शरीर रोगी हो
जाता है।'
चलते
हो सुख खोजने, केवल रोग
लेकर घर लौट
आते हो। जाते
हो जीवन की तलाश
में, मौत
से मिलन होता
है।
'यद्यपि
इस संसार में
मृत्यु
निश्चित है, तो भी लोग
पाप करना नहीं
छोड़ते।'
मृत्यु
बिलकुल
सुनिश्चित
है। और सब
अनिश्चित हो, मृत्यु
अनिश्चित
नहीं है। एक
ही बात तय है
यहां कि मरना
है, फिर भी
पाप करना नहीं
छोड़ते। मरना
है, तो भी
कौड़ी-कौड़ी के
लिए पाप करने
को तत्पर होते
हैं। जैसे सदा
यहां रहना हो;
जैसे एक
कौड़ी कम हो
जाएगी तो अनंत
काल में बड़ी रहने
में असुविधा
होगी! लोग
रेलवे स्टेशन
के विश्रामालय
को अपना घर
समझ लेते हैं
और इस भांति
रहने लगते हैं
डेरा-डंगल जमा
कर, जैसे
सदा यहां रहना
है!
आती ही
होगी ट्रेन, बजती ही
होगी घंटी, जल्दी ही
बोरिया-बिस्तर
बांध सवार हो
जाना है।
तुमने
देखा--विश्रामालय
में रेलवे
स्टेशन के, लोग अपना
बिस्तर भी
नहीं खोलते, पेटी भी
नहीं खोलते, बांध कर ही
बैठे रहते
हैं। जब अभी
जाना ही है, तो खोलना
क्या?
इस
जीवन को
विश्रामगृह
से ज्यादा मत
समझो; रात
भर का बसेरा
है, रैन-बसेरा।
सुबह हुई, पक्षी
उड़ जाएंगे
अपनी-अपनी
यात्राओं पर।
अगर ऐसा दिखाई
पड़ जाए तो पाप
करना असंभव हो
जाता है।
किसलिए करना
है? किसके
लिए करना है? सब यहीं पड़ा
रह जाएगा। फिर
पाप करने
योग्य मालूम
भी नहीं होता।
जब सभी पड़ा रह
जाएगा तो क्या
प्रयोजन है?
तुम
जीते तो ऐसे
हो, जैसे सदा
यहां रहना है,
इसलिए पाप
कर लेते हो।
पाप करने के
लिए, स्वयं
को मरणधर्मा न
मानना जरूरी
है। यह मान्यता
मन में रखनी
जरूरी है कि
सदा रहना है, तभी पाप कर
सकते हो।
जितनी
तुम्हें याद
आने लगे मौत
की, उतना
ही पाप गिरने
लगेगा। इसलिए
मौत के स्मरण को
मैं महानतम
पुण्य कहता
हूं; क्योंकि
जिसको मौत की
याद आ गई, उसके
जीवन से पाप
असंभव हो जाता
है।
'धन
अनर्थ है, इस
पर निरंतर
विचार करो। सच
यह है कि धन
में लेशमात्र
सुख नहीं है।
यह बात
सर्वत्र देखी
गई कि धनवान
अपने पुत्रों
से भी भय खाते
हैं। अतः हे
मूढ़, सदा
गोविन्द को भजो।'
'प्राणायाम
और
प्रत्याहार, नित्य और
अनित्य का
विवेक-विचार
और जप सहित समाधि
की साधना, इन्हें
सावधानी के
साथ साधो, महा
सावधानी के
साथ साधो।'
'प्राणायाम
और
प्रत्याहार...'
प्राणायाम
का अर्थ है कि
तुम अपने को
संकुचित प्राण
मत समझो; प्राण
को फैलाओ, उसके
आयाम को बड़ा
करो। तुम बड़े
हो, विराट
हो। तुमने मान
रखा है, छोटे
हो। वह छोटा
होना सिर्फ
तुम्हारी
मान्यता है।
जरा
गौर से
देखो--कहां
तुम शुरू होते
हो? कहां तुम
अंत होते हो? शरीर पर तुम
अंत नहीं
होते।
क्योंकि
करोड़ों मील
दूर जो सूरज
है, अगर वह
बुझ जाए तो
तुम यहां बुझ जाओगे;
तुम उससे
जुड़े हो।
अरबों-खरबों
मील दूर जो
चांदत्तारे
हैं, उनसे
भी रोशनी के
तार तुमसे
बंधे हैं।
चारों
तरफ पृथ्वी के
भरा हुआ जो
वायुमंडल है, उसके बिना
तुम न रह
सकोगे; तुम
उसी में श्वास
ले रहे हो। जो
जानते हैं, वे कहते हैं,
हम उसमें
श्वास ले रहे
हैं, ऐसा
कहना कठिन है;
वही हममें
श्वास ले रहा
है, ऐसा
कहना ज्यादा
उचित है। अभी
जो श्वास मेरी
थी, क्षण
भर बाद
तुम्हारी हो
गई; कह भी
नहीं पाऊंगा
कि तुम्हारी न
रह जाएगी, किसी
और की हो
जाएगी।
जो
शरीर आज
तुम्हारा है, कभी वृक्षों
में था, कभी
पशुओं में था,
कभी
पक्षियों में
था।
मरोगे--फिर
नदी में बह
जाएगा जल, मिट्टी
में मिल जाएगी
मिट्टी; फिर
पौधे उठेंगे,
फिर वृक्ष
बनेंगे। हो
सकता है, तुम्हारे
बेटे उन फलों
को खाएं, जिनमें
तुम्हारी
मिट्टी खो गई
हो।
सब
जुड़ा है, सब
संयुक्त है; यहां कोई
अलग-थलग नहीं
है। हम कोई
छोटे-छोटे द्वीप
नहीं हैं; एक
महाद्वीप है,
उसके ही हम
सब अंग हैं।
प्राणायाम
का अर्थ है:
फैलाओ अपने
को। प्राणायाम
से जिस
प्रक्रिया को
योग में जाना
जाता है, वह
केवल तरकीब है
फैलाने की।
गहरी श्वास लो,
कि
छिद्र-छिद्र
तुम्हारे
फेफड़ों का भर
जाए; फिर
गहरी श्वास
उलीचो, कि
पूरी श्वास
उलिच जाए।
जैसे ही तुम
इस प्रक्रिया
को गहरा करने
लगोगे, एक
दिन तुम अचानक
पाओगे--तुम
श्वास नहीं ले
रहे, परमात्मा
तुममें श्वास
ले रहा है।
यह तो
केवल विधि है।
इस विधि से
प्राणायाम
होता है; इस
विधि से प्राण
का विस्तार
होता है और
प्रतीत होता
है कि हम एक
महान चैतन्य
के छोटे-छोटे
अंश हैं, बड़े
सागर की
बूंदें हैं।
बूंद भी गरिमा
से भर जाती है
फिर। कण भी
परमात्मा के
प्रसाद से लबालब
हो जाता है।
तुम्हारी
छोटी प्याली
में भी सागर
लहराने लगते
हैं।
'प्राणायाम
और
प्रत्याहार...'
प्राणायाम
है प्राण का
फैलाना और
प्रत्याहार
है घर की तरफ
वापसी--लौटना, भीतर आना।
प्रत्याहार।
अपने में वापस
जाना, जहां
से आए हैं।
जैसे वृक्ष
अगर सिकुड़ सके,
सिकुड़ कर
छोटा पौधा हो
जाए; पौधा
सिकुड़ सके, बीज हो
जाए--तो
प्रत्याहार।
तुम जो दिखाई
पड़ रहे हो, उससे
पीछे
सरको--भीतर...भीतर...भीतर--उस
बीज को, मूल
स्रोत को पा
लो, जहां
से तुम आए हो।
गंगा अगर वापस
लौट जाए और गंगोत्री
में फिर समा
जाए, गोमुख
में, तो
प्रत्याहार।
प्रत्याहार
का अर्थ है:
अपने मूल को
फिर पा लेना।
झेन
फकीर कहते हैं, ओरिजिनल फेस,
अपने मूल
चेहरे को जान
लेना।
जो तुम
जन्मे न थे, तब तुम्हारा
था; जब तुम
पैदा न हुए थे,
तब
तुम्हारी जो
मुखाकृति थी;
उसको पहचान
लेना
प्रत्याहार
है।
'प्राणायाम
और
प्रत्याहार, नित्य और
अनित्य का
विवेक-विचार...'
और
प्रतिपल
जानते रहना, सोचते रहना,
देखते
रहना--क्या
सार्थक है, क्या व्यर्थ
है। इसे क्षण
भर को भी भूलना
नहीं।
क्योंकि
भूलते ही
व्यर्थ को पकड़
लेते हो, सार्थक
को छोड़ देते
हो। मरे चूहे
को पकड़ने में
देर नहीं लगती;
जरा ही भूले
कि पकड़ा। होश
आया तो छूट
जाता है।
'जप
सहित समाधि की
साधना...'
यह
शंकर बड़ी मीठी
बात कह रहे
हैं। वे कह
रहे हैं, जप
सहित समाधि की
साधना। पतंजलि
कहते हैं:
अंततः समाधि
जपरहित हो
जानी चाहिए।
नानक कहते
हैं:
अजपा-जाप। जाप
खो जाना चाहिए।
बुद्ध, महावीर,
वे भी यही
कहते हैं--सब
खो जाना चाहिए,
बस शून्य रह
जाना चाहिए।
लेकिन शंकर कह
रहे हैं, जप-समाधि!
जप सहित समाधि
की साधना!
वे यह
कह रहे हैं:
शून्य तो हो, लेकिन पूर्ण
का नाच न खोए; शून्य में
पूर्ण
विराजमान
रहे। विचार तो
खो जाएं, भाव
न खो जाए।
क्योंकि
भाव अगर खो
गया तो तुम
शुष्क हो
जाओगे। तुम
शांत तो होओगे, लेकिन
तुम्हारी
शांति से गीत
की धारा न
बहेगी। मीरा न
नाचेगी फिर, चैतन्य का
भजन न फूटेगा
फिर। तुम मौन
तो हो जाओगे, तुम पा लोगे,
लेकिन
अभिव्यक्ति न
होगी, अभिव्यंजना
न होगी।
तुम्हारा गीत
बिना अंकुरित
हुए तुम्हारे
भीतर रह जाएगा;
कोई उसे सुन
न पाएगा।
तुम्हारा
आनंद बह न
पाएगा--किनारे
छोड़ कर बाढ़ की
भांति। उसकी
उत्तुंग तरंगें
दूसरों को
डुबा न
पाएंगी।
इसलिए
शंकर कहते हैं, निर्विचार
तो होना है, निर्भाव
नहीं; ज्ञान
तो आए, भक्ति
न खो जाए। यह
बड़ा अनूठा
संयोग है।
घटता है। बड़ी
असंभव घटना है,
पर घटती है।
विचार खो जाते
हैं, भाव
नहीं खोता; चिंतन चला
जाता है, चिंता
चली जाती है, हृदय गदगद
होकर नाचता
है।
'जप
सहित समाधि की
साधना, इन्हें
सावधानी के
साथ साधो।'
फिर
दोहराते हैं: 'महा
सावधानी के
साथ साधो।'
'और
हे मूढ़, सदा
गोविन्द को
भजो।'
'गुरु
के चरण-कमल
में पूर्णतः
समर्पित होकर,
संसार के
बंधनों से
मुक्त होकर, इंद्रिय
सहित मन को
संयमित कर तुम
अपने हृदय में
स्थित प्रभु
को देख लोगे।'
प्रभु
कहीं दूर नहीं
है, प्रभु
तुम्हारे
हृदय में ही
स्थित है। उसे
कहीं खोजने
नहीं जाना है,
अपने घर
वापस आना है।
उसे तुमने कभी
खोया भी नहीं
है, सिर्फ
भूल गए हो, विस्मरण
हो गया है।
विस्मरण में
भी वह मौजूद है
सतत, तुम
भूल गए हो, उसकी
तरफ पीठ कर ली
है, फिर भी
वह मौजूद है।
वस्तुतः तुम
हो ही कौन, वही
है। उसे भूल
गए, इसलिए
तुम सोचते हो,
मैं हूं। वह
याद आ जाएगा, तुम मिट
जाओगे, वही
रह जाएगा।
'तुम
अपने हृदय में
स्थित प्रभु
को देख लोगे।
अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द
को भजो।'
शंकर
का जोर है कि
ध्यान और भजन
के बीच एक समन्वय
सध जाए, ध्यान
और भजन के बीच
एक संगीत बज
उठे, ध्यान
और भजन के बीच
असंभव का सेतु
निर्मित हो
जाए।
भक्त
भी बहुत हुए
हैं, लेकिन तब
उनके भीतर
शून्य-समाधि
नहीं होती; तब भगवान की
प्रतिमा से
भरे रहते हैं,
द्वैत बना
रहता है।
ज्ञानी बहुत
हुए हैं, उनके
भीतर द्वैत
मिट जाता है, अद्वैत हो
जाता है; लेकिन
द्वैत के
मिटते ही
रसधार सूख
जाती है।
शंकर
कह रहे हैं, किसी भांति
ऐसी घड़ी
लाओ--जो आ सकती
है, जो
कभी-कभी आई भी
है--ऐसी किरण
को अपने भीतर
उतारो कि तुम
ज्ञानियों
जैसे शून्य और
भक्तों जैसे
पूर्ण! ज्ञान
और भक्ति का
संबंध जुड़ जाए
तो सोने में
सुगंध आ जाती
है। यह आत्यंतिक
घटना है। यह
आखिरी घटना है,
इसके ऊपर
जाने का कोई
उपाय
नहीं--जहां
भक्ति और
ज्ञान
संयुक्त हो
जाते हैं; जहां
भक्ति ज्ञान
बन जाती है, ज्ञान भक्ति
हो जाता है; जहां समाधि
गीत गाती है; जहां समाधि
में फूल खिलते
हैं; जहां
समाधि
रूखा-सूखा
मरुस्थल नहीं
होती, हरियाली-हरियाली
हो जाती है; जहां मन तो
परिपूर्ण मिट
गया होता है
और हृदय उसे
भर देता है।
वहीं
परमात्मा का
मंदिर है।
'उस
प्रभु को तुम
अपने ही भीतर
पा लोगे।'
भक्त
भगवान से अलग
नहीं है; भक्त,
जिस दिन जान
लेगा, उस
दिन भगवान है।
लेकिन बहुतों
ने जाना भगवान
को, तब
उनके भीतर का
भक्त समाप्त
हो जाता है, भगवान ही
बचता है। और
बहुतों ने
अपने भक्त को बचाना
चाहा; तो
भगवान भी बचता
है, भक्त
भी बचता है, लेकिन एक
द्वैत बना
रहता है, फासला
बना रहता है।
क्या
ऐसा नहीं हो
सकता कि तुम
भक्त भी हो
जाओ और भगवान
भी--एक ही साथ? कि तुम्हारा
कीर्तन अपने
ही सामने चलने
लगे? कि
तुम्हीं नाचो
भी और तुम्हीं
देखो भी?
ऐसा हो
सकता है। और
वही शंकर की
परिकल्पना
है। शंकर में
स्वयं ऐसा ही
अनूठा
व्यक्तित्व
फला कि ज्ञान
की ऐसी
पराकाष्ठा, और फिर
भक्ति का ऐसा अनूठा
मेल। स्वर्ण
में अगर कभी
सुगंध आई है, तो शंकर में
आई थी।
भज
गोविन्दम्, भज
गोविन्दम्, भज
गोविन्दम्
मूढ़मते।
आज
इतना ही।
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