।--कृपया
शंकर की
संन्यास की
घटना पर कुछ
प्रकाश
डालें।
2—मेरी
प्रार्थना है
कि आप मेरे घर
पधारें, लेकिन
इसी वेश में, क्योंकि मैं
महामूढ़ हूं।
3—साधना
के द्वारा
ग्रंथि-विसर्जन
के लिए हम क्या
करें?
4—क्या
संभव है कि
आदमी का चित्त
एक नवजात शिशु
के चित्त की
भांति हो जाए?
5—'गंगा-यात्रा
से कुछ न होगा'
और 'गंगाजल
की एक बूंद भी
पीने से आदमी
मृत्युंजय हो
जाता है'--इस
पर प्रकाश
डालें।
6—सत्य
गुरु-प्रसाद
से मिलता है
तो क्यों अहंकार
के प्रयास को
भी बढ़ावा देते
हैं।
7—जागे
तो क्या?
पहला
प्रश्न:
शंकर
जब छोटे थे, तब मां ने
उन्हें
संन्यास लेने
की अनुमति न
दी। परंतु एक
दिन नदी में
स्नान करते
समय शंकर को
मगरमच्छ ने
पकड़ लिया।
शंकर ने मरने
से पहले मां
से संन्यास
लेने की
अनुमति
मांगी। अनुमति
मिली और शंकर
बच गए! कृपया
इस घटना पर
कुछ प्रकाश
डालें।
घटना
का कोई मूल्य
नहीं है। घटना
हुई भी हो, ऐसा जरूरी
नहीं है।
लेकिन जो अर्थ
है, वह
समझने जैसा
है। और इसे
सदा स्मरण
रखना कि बुद्धपुरुषों
के जीवन में
जो घटनाएं हैं,
वे घटनाएं
कम हैं, प्रतीक
ज्यादा हैं; उनमें छिपा
कुछ राज है।
वे ऐतिहासिक
हों, न
हों--आध्यात्मिक
हैं। समय की
धारा में वैसा
घटा हो, न
घटा हो, लेकिन
चैतन्य की
धारा में वैसा
घटता है।
बुद्धपुरुषों
को इतिहास के
माध्यम से मत
समझना; काव्य,
अनुभव के
माध्यम से
समझना।
अन्यथा बड़ी
जड़ता पैदा
होती है। यही
छोटी सी
बोध-कथा है।
'शंकर
छोटे थे, तब
मां ने उन्हें
संन्यास लेने
की अनुमति न
दी।'
बहुत
सी बातें छिपी
हैं। मां यानी
ममता, मां
यानी मोह। मोह
और संन्यास
लेने की आज्ञा
दे, अति
कठिन है।
क्योंकि
संन्यास का
अर्थ तो मोह की
मृत्यु होगी।
संन्यास का
अर्थ ही यह है
कि व्यक्ति
परिवार से
मुक्त हो रहा
है--मां अब मां
न होगी, पिता
अब पिता न
होंगे, भाई
अब भाई न
होंगे। इसलिए
तो जीसस ने
बार-बार कहा
है, जो
मेरे साथ चलना
चाहता हो, उसे
अपनी मां को, अपने पिता
को इनकार करना
होगा; जो
मेरे साथ चलना
चाहता हो, उसे
अपने परिवार
का परित्याग
करना होगा।
यदि तुम
परिवार को न
छोड़ सको, तो
जीसस के
परिवार के
हिस्से नहीं
बन सकते।
संन्यास
का अर्थ है कि
यह जो जन्म और
मृत्यु के बीच
में घिरा हुआ
जीवन है, यह
व्यर्थ है।
अगर जीवन ही
व्यर्थ है, तो जिस मां
ने जन्म दिया,
वह तो
व्यर्थ हो गई।
उसने तो जीवन
को जन्म दिया
ही नहीं, एक
सपने को
विस्तार
दिया। तो
संन्यास तो
मूलतः जीवन से
मुक्ति है। और
जीवन की
मुक्ति का अर्थ
हुआ--मां से
मुक्ति, पिता
से मुक्ति, परिवार से
मुक्ति, समाज
से मुक्ति। यह
सब व्यर्थ
हुआ। तो मां
तो कैसे आज्ञा
दे! संन्यास
की आज्ञा और
मां दे--असंभव
है; अति
कठिन है। मोह
से तो संन्यास
की आज्ञा नहीं
मिल सकती; ममता
से आज्ञा नहीं
मिल सकती।
जीवन जहां से
आया है, उसी
स्रोत से, तुम
जीवन से मुक्त
होना चाहो, इसकी आज्ञा
मांगो--असंभव
है।
'शंकर
छोटे थे, तभी
मां ने उन्हें
संन्यास लेने
की अनुमति न दी।'
और
ध्यान रखना, चाहे तुम
कितने ही बड़े
हो जाओ, मां
के लिए छोटे
ही रहोगे। मां
से तो बड़े न हो
पाओगे। जिसने
तुम्हें जन्म
दिया, उससे
तो तुम छोटे
ही रहोगे। तुम
सत्तर साल के हो
जाओ, तो भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता। शंकर
छोटे थे, इसका
कुल अर्थ इतना
ही है कि जब भी
किसी संन्यास
की आकांक्षा
से भरे खोजी
ने मां से
आज्ञा मांगी,
तभी मां को
लगा--छोटा
बच्चा, और
ऐसे दूभर
मार्ग पर जाना
चाहता है! मां
ने रोकना चाहा
है।
'शंकर
छोटे थे, तभी
मां ने उन्हें
संन्यास लेने
की अनुमति न दी।
परंतु एक दिन
नदी में स्नान
करते समय शंकर
को मगरमच्छ ने
पकड़ लिया।'
लेकिन
जीवन की नदी
में आज नहीं
कल, दुख
पकड़ता है।
जीवन की नदी
में ही मिलन
होता है
मृत्यु से भी।
तुम कोई
मृत्यु को
मिलने नहीं
जाते हो नदी।
तुम तो स्नान
करने गए थे; तुम तो
तैरने का सुख
लेने गए थे; तुम तो सुबह
की ताजगी
लूटने गए थे।
कोई संसार में
मरने को थोड़े
ही जाता है? कोई जीवन की
धार में
मगरमच्छों से
मिलने थोड़े ही
जाता है? जाता
तो सुख की
तलाश में है; खजानों की
खोज में है; सफलता, यश,
प्रतिष्ठा,
महिमा के
लिए है। लेकिन
पकड़ा जाता है
मगरमच्छों
से। आज नहीं
कल, मौत
पकड़ती है। और
जितना बोधवान
व्यक्ति होगा,
उतने जल्दी
यह स्मरण आता
है कि यह नदी
तो ऊपर-ऊपर है,
भीतर मौत
छिपी है।
मगरमच्छ यानी
भीतर छिपी मौत।
ऊपर से जल की
ऐसी पवित्र
धार मालूम
होती है, भीतर
मौत
प्रतीक्षा कर
रही है। ऊपर
से कितना लुभावना
लगता है और
नदी कैसी
भोली-भाली
लगती है। और
भीतर मौत दांव
लगाए बैठी है!
जो जितना होशियार
है, जितना
बुद्धिमान है,
जितना
चैतन्यपूर्ण
है, उतने
जल्दी ही
दिखाई पड़
जाएगा।
शंकर
को बहुत जल्दी
दिखाई पड़ गया।
तुम्हें अगर
देर तक दिखाई
न पड़े, तो
समझना कि
बुद्धिमत्ता
क्षीण है, बहुत
बोध नहीं है; मिट्टी की
पर्तें जमी
हैं तुम्हारे
दर्पण पर और
तुम्हारी
बुद्धि धुएं
से भरी है।
अन्यथा जल्दी
ही दिख जाएगा।
शंकर को दिख
गया कि इस
जीवन में तो
मौत के सिवाय
कुछ मिलेगा
नहीं। इतनी ही
बात है कथा
में। और जब तक
मौत ही स्पष्ट
न हो जाए, तब
तक ममता से
छुटकारा नहीं
होता, तब
तक मां से
छुटकारा नहीं
है।
इसे
थोड़ा समझो। एक
तरफ मां है, मां यानी
जन्म; दूसरी
तरफ मौत है, मौन यानी
अंत। अगर मौत
दिख जाए तो ही
मां से छुटकारा
है; अंत
दिख जाए तो ही
जन्म व्यर्थ
होता है।
तो
संन्यास का
अर्थ है--मौत
का दर्शन, मृत्यु की
प्रतीति।
संसार
में तो हम मौत
को टाले जाते
हैं। हम कहे चले
जाते हैं, सदा दूसरा
मरता है, मैं
तो कभी मरता
नहीं। रोज ही
तुम देखते
हो--किसी की
अरथी उठ गई, किसी का
जनाजा उठ गया;
कोई
कब्रिस्तान
चले गए, कोई
मरघट चले गए।
तुम सभी को
पहुंचा आते हो
मरघट, तुम
तो कभी नहीं
जाते। तुमको
दूसरे
पहुंचाएंगे।
तुम्हें तो
कभी पता ही न
चलेगा कि तुम
भी जाते हो; क्योंकि जब
तक तुम जा
सकते हो, तब
तक तो तुम
जाओगे नहीं।
जब तुम न जा
सकोगे, तभी
दूसरे
तुम्हें
पहुंचाएंगे।
इसलिए प्रत्येक
को ऐसा लगता
है, मौत
सदा दूसरे की
घटती है--हम तो
जीते हैं, दूसरे
मरते हैं। ऐसे
ही झूठे आसरों
पर आदमी जीए
चला जाता है!
संन्यास
का अर्थ है, इस बोध का जग
जाना कि
मृत्यु मेरी
है। और कोई भी
मरता हो, हर
बार जब कोई
मरता है तो
मेरे ही मरने
की खबर बार-बार
आती है। हर एक
की मृत्यु में
मेरी ही मृत्यु
की सूचना है, इंगित है, इशारा है।
और हर एक की
मौत में थोड़ा
मैं मरता हूं।
अगर तुम्हें
समझ हो, तो
हर एक की मौत
तुम्हारी मौत
हो जाएगी। अगर
नासमझी हो, तो तुम्हारा
दंभ और अकड़
जाएगा कि सदा
दूसरे मरते
हैं, मैं
तो कभी नहीं
मरता, मैं
अमर हूं।
शंकर
को दिखाई पड़ा
कि मौत है।
मौत के दिखाई
पड़ते ही मां
से छुटकारा हो
जाता है।
क्योंकि मां
यानी जीवन, मां यानी
जिसने उतारा।
मौत यानी जो
ले जाएगी।
इसलिए
हिंदुओं ने एक
बड़ी अनूठी
कल्पना की है।
हिंदुओं से
ज्यादा
कल्पनाशील, काव्यात्मक
कोई जाति
पृथ्वी पर
नहीं है। उनके
काव्य बड़े
गहरे हैं।
तुमने कभी
देखी काली की
प्रतिमा? वह
मां भी है और
मौत भी। काल
मृत्यु का नाम
है, इसलिए
काली; और
मां भी है, इसलिए
नारी। सुंदर
है, मां
जैसी सुंदर
है। मां जैसा
सुंदर तो फिर
कोई भी नहीं
हो सकता। अपनी
तो मां कुरूप
भी हो तो भी
सुंदर मालूम
होती है। मां
के संबंध में
तो कोई
सौंदर्य का
विचार ही नहीं
करता। मां तो
सुंदर होती ही
है। क्योंकि
अपनी मां को
कुरूप देखने
का अर्थ तो
अपने को ही
कुरूप देखना
होगा, क्योंकि
तुम उसी के
विस्तार हो।
तो काली सुंदर
है, सुंदरतम
है। लेकिन फिर
भी गले में
नरमुंडों की
माला है!
सुंदर है, पर
काली है--काल, मौत!
पश्चिम
के विचारक जब
इस प्रतीक पर
सोचते हैं, तो वे बड़े
चकित होते हैं
कि स्त्री को
इतना विकराल
क्यों
चित्रित किया
है! और तुम उसे
मां भी कहते
हो! और इतना
विकराल!
इतना
विकराल इसलिए
कि जिससे जन्म
मिला है, उसी
से मृत्यु की
शुरुआत भी
हुई। विकराल
इसलिए कि जन्म
के साथ ही मौत
भी आ गई है। तो
मां ने जन्म
ही नहीं दिया,
मौत भी दी
है। तो एक तरफ
वह सुंदर है
मां की तरह, स्रोत की
तरह। और एक
तरफ अंत की
तरह, काल
की तरह अत्यंत
काली है। गले
में नरमुंडों की
माला है, हाथ
में कटा हुआ
सिर है, खून
टपक रहा है, पैरों के
नीचे अपने ही
पति को दबाए
खड़ी है।
स्त्री
के ये दो
रूप--कि वह
जीवन भी है और
मृत्यु
भी--बड़ा गहरा
प्रतीक है।
क्योंकि जहां
से जीवन आएगा, वहीं से
मृत्यु भी
आएगी; वे
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। और
जैसा हिंदुओं
ने इस बात को
पहचाना, पृथ्वी
पर कोई भी
नहीं पहचान
सका।
शंकर
को जब मृत्यु
का बोध
हुआ...मगरमच्छ
ने नदी में
पकड़ा हो या न
पकड़ा हो, यह नासमझ
इतिहासविदों
से पूछो, इसमें
मुझे कोई बहुत
रस नहीं है।
क्या लेना-देना,
पकड़ा हो
मगरमच्छ ने तो,
न पकड़ा हो
तो! लेकिन मौत
दिख गई उन्हें,
इतना पक्का
है। और जब मौत
दिख गई, तभी
संन्यास घट
गया। जब मौत
दिख गई, तो
फिर संन्यास
बच ही नहीं
सकता। फिर तुम
जैसे हो, जहां
हो, वहीं
ठगे खड़े रह
जाओगे। फिर
जीवन वही नहीं
हो सकता, जो
इसके क्षण भर
पहले तक था।
वह पुरानी दौड़,
वह
महत्वाकांक्षा,
वह यश, कीर्ति
का नशा--वह सब
टूट गया, मौत
सब गिरा देगी।
मरना है, फिर
कितनी देर बाद
मरना है, इससे
क्या फर्क
पड़ता है! आज कि
कल कि
परसों--यह तो
समय का हिसाब
है। अगर मौत
होनी है तो हो
गई, अभी हो
गई। और उस मौत
का तीर इस तरह
चुभ जाएगा कि
फिर तुम वही न
हो सकोगे, जो
अब तक थे। यह
जो नये का
होना है, उसी
का नाम
संन्यास है।
अगर
तुम मुझसे
पूछो कि
संन्यास की
क्या परिभाषा
है? तो मैं
कहूंगा:
संन्यास वैसे
जीवन की दशा
है, जब
बाहर तो मौत
नहीं घटी, लेकिन
भीतर घट गई।
जीते हो, लेकिन
मौत को जानते
हुए जीते हो।
यही संन्यास है।
जीते हो, लेकिन
मौत को भूलते
नहीं क्षण भर
को। यही संन्यास
है। जानते हो
कि क्षण भर के
लिए टिकी है
ओस--अभी गिरी, अभी गिरी।
जगत तरैया भोर
की--अभी डूबी, अभी डूबी।
जीते हो, लेकिन
जीने के नशे
में नहीं
डूबते। जीने
का नशा अब
तुम्हें डुबा
नहीं सकता।
जागे रहते हो,
होश बना
रहता है।
मौत
जगाती है। जो
जाग गया, वही
संन्यासी है।
जो जीवन में
खोया है और
सपनों को सच
मान रहा है, वही गृहस्थ
है। सपने में
जिसका घर है, वह गृहस्थ; या घरों में
जो सपने सजा
रहा है। सपनों
के बाहर जो उठ
आया, तंद्रा
टूटी, बेहोशी
गई, जाग कर
देखा कि यहां
तो सिवाय मौत
के और कुछ भी नहीं
है। जिसे हम
बस्ती कहते
हैं, वह बस
मरघट है, प्रतीक्षा
करने वालों का
क्यू है। किसी
का वक्त आ गया,
कोई क्यू
में थोड़ा पीछे
खड़ा है। क्यू
सरक रहा है, मरघट की तरफ
जा रहा है।
जिसको यह
दिखाई पड़ गया,
उसके जीवन
से आसक्ति खो
जाती है। वही
आसक्ति का खो
जाना संन्यास
है।
संन्यास
विरक्ति की
चेष्टा नहीं
है, संन्यास
विरक्ति का
अनुशासन नहीं
है, संन्यास
आसक्ति का टूट
जाना है। बस
जहां आसक्ति
खो गई।
अनासक्ति का
साधना
संन्यास नहीं
है, ध्यान
रखना।
क्योंकि
आसक्ति न टूटी
हो तो ही अनासक्ति
साधनी पड़ती
है। आसक्ति
टूट गई हो तो अनासक्ति
साधनी नहीं
पड़ती। आसक्ति
की जगह जो खाली
जगह छूट जाती
है, वही
अनासक्ति है;
वह अभाव है।
तब तुम
संन्यस्त हो।
इसीलिए
मैं तुमसे
कहता हूं, संन्यास के
लिए कहीं जाने
की जरूरत
नहीं। तुम जहां
हो, वहीं
थोड़ा होश आ
जाए; बस
थोड़ा दीया जल
जाए भीतर का; चीजें जैसी
हैं, वैसी
दिखाई पड़ने
लगें--नशे की
आंख से नहीं, खुली आंख
से।
एक दिन
मुल्ला
नसरुद्दीन
चला आ रहा है
रात शराबघर
से। नशे में
है, गीत
गुनगुना रहा
है। एक आदमी
रास्ते पर
टकरा गया।
अंधेरा, नशे
में, गीत
गुनगुनाता, होश
नहीं--क्रोध
में बोला कि
उल्लू के
पट्ठे, पांच
सेकेंड के
भीतर क्षमा
मांग, नहीं
तो...
उधर से
बड़ी कड़कड़ाती
आवाज आई कि
नहीं तो? तो
क्या करेगा
अगर पांच
सेकेंड में
क्षमा न मांगूं?
कड़कड़ाती
आवाज ने जरा
होश वापस
लौटाया, गौर
से देखा: आदमी
कम, मोहम्मद
अली मालूम
होता है!
घूंसेबाज!
घबड़ा गया, होश
उतरा, जमीन
पर वापस आया।
कहा, बड़े
मियां, अगर
पांच सेकेंड
कम पड़ते हों, तो कितना
समय चाहिए
आपको?
जिंदगी
में जैसे तुम
चल रहे हो--नशे
में हो, सपनों
का गीत
गुनगुना रहे
हो--चीजें
जैसी हैं, वैसी
दिखाई नहीं
पड़तीं। धक्का
लगना चाहिए, एक कड़कड़ाती
आवाज आनी
चाहिए, चोट
कि सब बिखर
जाए, एक
क्षण को उस
चोट में बादल
छितर-बितर हो
जाएं और
तुम्हें खाली
आकाश दिखाई
पड़े। तब तुम
सिवाय मौत से
घिरे हुए अपने
को और कुछ न
पाओगे। जिसको
तुमने जिंदगी
जाना, वह
मौत का चेहरा
है। जिसको
तुमने सुख
जाना, वह
दुख के मुखौटे
हैं। जिनको
तुमने धन जाना,
वह कौड़ियों
के साथ झूठ का
खेल है। उस धन
की भ्रांति
में तुम
निर्धन बने
रहे। और उस
जीवन की भ्रांति
में तुम असली
जीवन से
परिचित न हो
पाए। और समय हाथ
से बीता चला
जाता है; प्रतिपल
जीवन चुकता
जाता है, शक्ति
क्षीण होती
चली जाती है।
यह तो
प्रतीक है
केवल कि शंकर
को जब मौत ने
पकड़ लिया, तो मरने के
पहले मां से
संन्यास लेने
की अनुमति
मांगी।
अनुमति मिली।
तभी
अनुमति मिल
सकती है, जब
मौत का संकट
द्वार पर खड़ा
हो जाए। उसके
पहले अनुमति
मिल भी नहीं
सकती। जब मां
को भी ऐसा लगे
कि या तो बेटा
बचेगा तो संन्यासी
होकर बचेगा, या जैसा है
वैसा तो मर ही
जाएगा। मरे
बेटे में और
संन्यासी
बेटे में
चुनने का सवाल
हो, तो ही
मां संन्यासी
बेटे को
चुनेगी--इतना
ही अर्थ है।
क्योंकि
संन्यासी
बेटा मरा हुआ
बेटा है।
संन्यास
का अर्थ है:
आदमी जीते जी
मर गया।
जीसस
ने कहा है: जब
तक तुम अपनी
सूली को अपने
कंधे पर ढोने
को राजी न होओ, मेरे साथ न
चल सकोगे; जब
तक तुम अपने
को ही इनकार
करने को राजी
न होओ, मेरे
साथ न चल
सकोगे; जब
तक तुम मरने
को राजी नहीं
हो, तब तक
पुनरुज्जीवन
का कोई उपाय
नहीं है।
अगर
ऐसी कहानी सच
में घटी हो, तो वह
प्रतीक याद
करने जैसा
है--कि शंकर, छोटा सा
बच्चा, नवजात,
मौत के
चंगुल में
फंसा है, मगर
ने पकड़ा हुआ
है उसका पैर, नदी के तट पर
मां खड़ी है और
शंकर पूछते
हैं कि मैं मर
रहा हूं, बचने
का अब कोई
उपाय नहीं है,
तू आज्ञा दे
दे! अब तो
आज्ञा दे दे
कि मैं संन्यस्त
हो जाऊं, मरूं
संन्यासी की
तरह! अब कोई
जीने का तो
उपाय नहीं रहा
कि संन्यासी
की तरह जी
सकूंगा, मगर
ने पकड़ा है--यह
गया, यह
गया--अब तो
आज्ञा दे दे!
तब भी
तुम सोचना, मां झिझकी
होगी। तब भी
आशा ने पंख
फैलाए होंगे।
तब भी उसे लगा
होगा: कौन
जाने, बच
ही जाए! लेकिन
मौत सामने थी।
शंकर खिंचा जा
रहा है। भीड़
इकट्ठी हो गई
होगी। लोग भी
कहने लगे
होंगे: अब
आज्ञा दे दे, अब मरते को
क्या बांधना!
जो जा ही रहा
है, जाने
के पहले उसे
छोड़ दे! फिर
उसकी पुकार को
सुन कि वह
संन्यस्त
मरना चाहता है,
ताकि फिर
जन्म न हो, ताकि
जीवन की
आसक्ति न रह
जाए। वह जीवन
को छोड़ कर
मरना चाहता
है। जो जीवन
हाथ से जा ही
रहा है, उसे
छोड़ने की
आज्ञा दे दे!
फिर भी
मुझे लगता है, मां झिझकी
होगी; आंखें
आंसुओं से भर
गई होंगी।
उसने भगवान से
प्रार्थना की
होगी कि बचा
दो मेरे बेटे
को। लेकिन जब
कोई उपाय न
पाया होगा, तब उसने कहा
होगा, अच्छा--बेमन
से, असहाय
अवस्था
में--कि ठीक, अब तुम मर ही
रहे हो, तो
ठीक है, संन्यस्त
होकर मर जाओ।
मगर यह
घटना घटी नहीं
है, क्योंकि
मगरमच्छ इन
बातों की
चिंता नहीं
करते। आदमी
नहीं करते
चिंता, मगरमच्छ
क्या करेंगे!
कहते हैं, शंकर
बच गए।
मगरमच्छ ने
देखा कि अब
संन्यासी हो
गया, अब
क्या मारना!
नहीं, मगरमच्छ
इतने
बुद्धिमान
नहीं।
हिटलर-मुसोलिनी
नहीं हैं, तो
मगरमच्छों की
क्या बात
करनी!
नहीं
लेकिन, प्रतीक
बड़ा बहुमूल्य
है: व्यक्ति बचता
तभी है जब
संन्यस्त हो
जाता है, फिर
मौत भी उसका
कुछ बिगाड़
नहीं पाती।
मरता वही है, जो जीवन को
पकड़ता है; जो
जीवन को अपने
हाथ ही छोड़
देता है, उसे
मौत भी कैसे
मार पाएगी? जो देने को
ही राजी हो
गया है, उससे
छीनोगे कैसे?
जो बचाना
चाहता है, उससे
ही छीना जा
सकता है।
इसलिए
जीसस कहते
हैं: जो
बचाएगा, वह
खो देगा; जो
खोने को राजी
है, उसने
बचा लिया।
इस सार
की बात को समझ
लेना--शंकर बच
गए। मगरमच्छ
ने छोड़ा?
नहीं, इतनी ही खबर
है कि मौत
संन्यासी को
नहीं मार पाती।
संन्यासी को
मारने का उपाय
नहीं है। क्योंकि
संन्यासी
कहता है:
मैं--जिसे तुम
मार सकते थे, छोड़ ही दिया
उसे। उस
अहंकार को, उस
आकांक्षा-अभीप्सा
के जाल को, उस
सपनों के
फैलाव को छोड़
ही दिया
मैंने। मैं खुद
ही मर गया हूं
अपने हाथ से।
तब भीतर जो
अमृत बचा
है--जो घिरा था
मृत्यु
से--वही शुद्ध
होकर बचता है
।
जब तक
तुम जीवन को
पकड़ रहे हो, तब तक
तुम्हें अपने
अमृत की कोई
खबर नहीं है। इसीलिए
तो जीवन को
इतनी जोर से
पकड़े हो कि
कहीं छूट न
जाए; डर है
कि कहीं मर न
जाओ। फिर भी
डर तो लगा ही
रहता है।
जितना पकड़ते
हो, उतने
ही पैर कंपते
हैं। क्योंकि
जानते तो तुम हो,
कैसे
झुठलाओगे, कि
मौत आ रही है।
कितना ही
समझाओ--कैसे
समझाओगे? मौत
आ रही है।
कितना ही
आंखें बचाओ, कितना ही
छिपाओ--छिपोगे
कहां? जाओगे
कहां? मौत
सब तरफ से आ
रही है। कोई
एक दिशा होती
तो दूसरी दिशा
में बच
जाते--मौत सभी
दिशाओं से आ
रही है, दिग-दिगंत
से आ रही है।
और अगर बाहर
से आती होती, तो भी बच
जाते; भीतर
से आ रही है।
कहीं भी भाग
जाओ, मौत
आएगी ही; कहीं
भी छिप जाओ, मौत खोज ही
लेगी; क्योंकि
मौत तुम्हारे
भीतर ही छिपी
है।
अमृत
भी तुम्हारे
भीतर छिपा है, मौत भी
तुम्हारे
भीतर छिपी है।
और जब तक तुम जीवन
को बाहर
पकड़ोगे, तब
तक तुम्हें
भीतर की सिर्फ
मौत दिखाई
पड़ेगी; जिस
दिन तुम भीतर
की मौत को
स्वीकार कर
लोगे, उसी
क्षण तुम्हें
भीतर के जीवन
के दर्शन शुरू
हो जाएंगे।
ध्यान
रहे, जैसे
काले तख्ते पर
हम सफेद खड़िया
से लिखते हैं
और अक्षर साफ
दिखाई पड़ते
हैं। अगर हम
सफेद दीवाल पर
लिखें तो नहीं
दिखाई पड़ते। अगर
तुमने भीतर की
मौत को
स्वीकार कर
लिया, तो
उस कालिमा में
ही, वह जो
अमृत का छोटा
सा दीया
तुम्हारे
भीतर जल रहा
है, वह
हजार गुनी
रोशनी में
चमकने लगेगा।
लेकिन
तुम मौत को
स्वीकार नहीं
करते, तुम
काले तख्ते को
स्वीकार नहीं
करते, इसलिए
सफेद अक्षर
दिखाई नहीं पड़ते।
तुम काले
तख्ते को
देखने से डरते
हो, इसलिए
सफेद अक्षर
दिखाई नहीं
पड़ते। इस
विरोधाभासी
वक्तव्य को
हृदय में
सम्हाल कर रख
लेना। जिसने
भी मौत को भर
आंख देखा, उसे
अमृत दिखाई पड़
गया।
'शंकर
बच गए।'
क्योंकि
मौत तुम्हें
मिटा ही नहीं
सकती। तुम जिसे
जीवन कहते हो, उसे मिटा
सकती है। तुम
जिसे शरीर
कहते हो, उसे
मिटा सकती है।
तुम जिसे
नाम-रूप कहते
हो, उसे
मिटा सकती है।
तुम्हें
मिटाने का मौत
के पास कोई
उपाय नहीं; तुम
अमृत-पुत्र
हो! तुम न कभी
मिटे, न
कभी मिटाए जा
सकते हो। न
तुम कभी पैदा
हुए और न तुम
कभी मरोगे। जो
पैदा हुआ है, वह मरेगा।
तुम्हारी देह
पैदा हुई है, वह गुजरेगी।
तुम्हारा नाम,
तुम्हारा
व्यक्तित्व
पैदा हुआ है, वह मरेगा।
लेकिन तुम
नाम-रूप से
अतीत सदा काल में
थे, सदा
काल में
रहोगे। तुम
सनातन हो, तुम
शाश्वत हो।
संन्यास
का इतना ही
अर्थ है कि जो
मिटेगा, हम
उसे स्वयं छोड़
देते हैं; और
उस खोज में
निकलते हैं जो
नहीं मिटेगा।
क्षणभंगुर को
छोड़ते हैं, शाश्वत की
तरफ आंख उठाते
हैं। अगर
स्वयं का भी
मिटना इसमें
हो जाए, तो
भी स्वीकार है;
क्योंकि जो
क्षणभंगुर है,
उसे बचा कर
भी कौन बचा
पाया है, जाने
ही दो। अगर
जाने के बाद
कुछ बच जाएगा--इस
कूड़े-करकट के
जाने के बाद
अगर कुछ बच रहेगा--जिसको
त्याग कर भी
त्यागा न जा
सके, छोड़
कर भी छोड़ा न
जा सके; नैनं
छिंदन्ति
शस्त्राणि--जिसे
शस्त्र छेदें
और छेद न पाएं;
जिसे आग
जलाए और जला न
पाए--अगर कुछ
ऐसा बचेगा--सब
जलाने के बाद,
सब
शस्त्रों के
छिद जाने के
बाद, तो बस
वही बचाने
योग्य था।
संन्यास उसकी
ही खोज है।
इस
घटना को तुम
घटना मत समझना; यह बड़ा
बहुमूल्य
बोध-प्रतीक है;
यह एक
बोध-कथा है।
दूसरा
प्रश्न:
साईंबाबा
नारायण
स्वामी के घर
कुत्ता और कोढ़ी
के वेश में गए
थे और नारायण
उन्हें
पहचानने से रह
गए। मेरी
प्रार्थना है
कि आप मेरे घर
पधारें, लेकिन
इसी वेश में, क्योंकि मैं
महामूढ़ हूं।
अगर
तुम मुझे
पहचान गए हो, तो फिर किसी
भी वेश में
पहचान लोगे।
और अगर तुम
मुझे पहचाने
ही नहीं, तो
इसी वेश में
पहचान पाओगे,
इसका कोई
पक्का कारण है?
यदि तुम
मुझे पहचान गए
हो--मुझे--वेश
को ही नहीं
पहचाना, तो
फिर वेश का
आग्रह नहीं
करना चाहिए।
वेश को अगर
पहचाना है और
मुझे अगर नहीं
पहचाना है, तो वेश को ही
तुम्हारे घर
भी ले आऊंगा, तब भी तुम
वेश को ही
पहचानोगे।
फिर से सोच लो
निमंत्रण के
संबंध में, क्योंकि मैं
बहुत से घरों
में इसी वेश
में गया हूं
और वे नहीं
पहचाने। वेश
को पहचानने से
कुछ पहचान हो
भी नहीं सकती।
अगर
नारायण
स्वामी
साईंबाबा को
नहीं पहचान पाए
कुत्ते और
कोढ़ी में, तो इसीलिए
कि वे
साईंबाबा को
पहचान ही नहीं
पाए थे। वेश
की पहचान कोई
पहचान है? वेश
के सामने
झुकना कोई
झुकना है? वेश
की पूजा कोई
पूजा है? अगर
साईंबाबा इसी
वेश में गए
होते, जिस
वेश में
नारायण
स्वामी को
भ्रांति थी कि
वे पहचानते
हैं, तो
निश्चित ही वे
झुके होते, भोग लगाया
होता, आदर-सत्कार
किया होता।
लेकिन क्या वह
आदर-सत्कार
साईंबाबा को
मिला होता या
वेश को ही
मिला होता? वेश को ही
मिला होता।
अब बड़े
आश्चर्य की
बात है कि वेश
से तो कुत्ता भी
ज्यादा जीवंत
है; और वेश से
तो कोढ़ी भी
ज्यादा जीवंत
है। वेश तो बाहर
का आवरण है।
आवरण की पकड़
छोड़ो।
लेकिन
मैं जानता हूं, आवरण की पकड़
क्यों है।
आवरण की पकड़
इसलिए है कि
तुम स्वयं को
भी अपने वेश
के कारण ही
पहचानते हो।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन हज
की यात्रा पर
गया, तो साथ
में दो आदमी
और थे--एक नाई
था साथ में और
एक गंजे सिर
का गंवार था।
रात
रेगिस्तान
में रुके।
खतरा था, अनजान
जगह थी, तो
तय किया कि
एक-एक आदमी
जाग कर पहरा
देता रहे।
पहली ही चिट
नाई के नाम
निकली, तो
नाई एक तिहाई
रात जागा।
लेकिन उसे
नींद आने लगी,
थका-मांदा।
तो उसने सोचा,
क्या करूं?
कुछ और तो
उसे आता नहीं,
नाई का धंधा
आता था, तो
उसने मुल्ला
नसरुद्दीन का
सिर मूंड़
दिया।
बैठे-बैठे करे
क्या? रेगिस्तान
में कोई दूसरा
काम भी न
दिखा। सोचा इसमें
लग जाऊं तो
नींद भी न
आएगी, काम
भी रहेगा और
जागा भी
रहूंगा। उसने
सिर मूंड़
दिया। नंबर दो
पर मुल्ला
नसरुद्दीन का
रात का पहरा
था। जब उसका
समय आया तो
नाई ने उसे
उठाया कि उठो
मुल्ला! उसने
अपनी आदतवश
सिर पर हाथ
फेरा। उसने
कहा, भाई, तुमने दिखता
है कि उस गंजे
मूरख को जगा
दिया मेरी
जगह।
सिर
घुटा हुआ पाया, वह तो गंजे
मूरख का था।
अपने सिर पर
तो सदा उसने
बाल पाए थे।
हमारी
अपनी पहचान भी
वेश की ही है।
तुमने कभी खयाल
किया, अगर
तुम्हारी
शक्ल रात सोते
में बदल दी
जाए, तो
सुबह तुम
पहचान पाओगे
कि तुम्हीं हो?
नहीं पहचान
पाओगे। कैसे
पहचानोगे? क्योंकि
अपनी भी पहचान
तो दर्पण में
ही देख कर है, और तो कोई
पहचान नहीं है;
उससे गहरी
तो कोई पहचान
नहीं है। अगर
सुबह तुम पाओ
कि रात जब तुम
सोए थे, तुम
एक गोरे आदमी
थे, सुबह
उठ कर पाओ कि
तुम नीग्रो हो
गए--अगर कोई वैज्ञानिक
प्लास्टिक
सर्जरी कर दे
रात की निद्रा
में, तुम्हारी
नाक का ढंग
बदल दे, आंख
का रंग बदल दे,
बाल बदल
दे--सुबह जब
तुम दर्पण के
सामने खड़े होओगे
तो तुम भी उसी
अवस्था में
होओगे जो
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा। उसने
एकदम गलत नहीं
कहा है। वह
गलत बातें
कहता ही नहीं।
वह बड़ी सूझ की
बातें कहता
है। वह कहता है
कि भाई, तुमने
गलती से उस
गंजे मूरख को
जगा दिया मेरी
जगह। तुम भी
यही पाओगे, चीख कर बाहर
आ जाओगे कि
क्या हो गया? यह मैं कोई
और मालूम होता
हूं!
हमारी
पहचान अपने से
वेश की है।
इसलिए हम
दूसरे से भी
जो पहचान
बनाते हैं, वह भी वेश की
बनाते हैं। जब
तक तुम अपने
चैतन्य को न
पहचानोगे, तब
तक तुम मेरे
चैतन्य को भी
न पहचान
सकोगे। तुम्हारी
पहचान मेरे
संबंध में
उतनी ही गहरी
होगी, जितनी
तुम्हारी
पहचान अपने
संबंध में
गहरी होती है।
मैं तो
तुम्हारे घर आ
जाऊं, लेकिन
उससे कुछ सार
न होगा। जब तक
तुम्हीं तुम्हारे
घर न आए, तब
तक मेरे
तुम्हारे घर
आने से कुछ भी
नहीं हो सकता।
तीसरा
प्रशन:
आपने
कल ततैया की
कहानी में मन
के अवरोध के
संबंध में
बताया। साधना
के द्वारा
ग्रंथि-विसर्जन
के लिए हम
क्या करें, कृपया
बताएं।
महामति, ततैया की
कहानी भी समझ
में न आई!
ततैया
की कहानी में
यही बताया
था--कि न कोई
ग्रंथि थी, न कोई अवरोध
था; किताब
पढ़ ली थी।
ततैया के जीवन
में कोई अवरोध
नहीं था, जिसको
साधना से दूर
करना था; ततैया
की तकलीफ केवल
इतनी थी कि
पढ़ने में कुशल
हो गई थी और
किताब में पढ़
लिया था कि
ततैया के पंख
छोटे हैं और
शरीर भारी है,
इसलिए
ततैया उड़ नहीं
सकती।
अब यह
जिन नासमझों
ने लिखा हो, उन्होंने
भला गणित का
हिसाब बिठा
लिया हो, लेकिन
उन्होंने भी
यह नहीं देखा
कि ततैया उड़ती
ही है। उड़
नहीं सकती, इस बात का
क्या मतलब है?
कोई ततैया
तर्क से उड़ती
है?
ततैया
भी किताब पढ़
कर घबड़ा गई।
उसकी दशा वैसी
ही हुई, जैसी
एक बहुत
पुरानी कहानी
है कि एक
शतपदी, सौ
पैरों वाला
जानवर राह से
गुजर रहा है।
एक खरगोश बड़ा
हैरान हुआ, बड़ी
जिज्ञासा से
भर गया कि सौ
पैर! कौन सा
पहले उठाता
होगा? फिर कौन
सा पीछे उठाता
होगा? और
सौ का हिसाब
रखना, और
फिर चलना भी!
यह तो बड़ा
जीता-जागता
गणित है! उसने
कहा, रुको
भई, एक
सवाल का जवाब
दे दो। सौ पैर!
इनमें तुम कौन
सा पहले उठाते
हो? और
डगमगाते भी
नहीं! लड़खड़ाते
भी नहीं! ऐसा
भी नहीं कि
चार-दस इकट्ठे
उठा दिए और
गड़बड़ा गए और
गिर गए। और सौ
पैर का मामला!
तुम कौन सा पहले
उठाते हो? कौन
सा पीछे उठाते
हो? क्या
तुम्हारा
क्रम है? गणित
क्या है इसका?
तब तक
शतपदी ने भी
कभी सोचा नहीं
था। चलता रहा था, सोचा किसने।
जन्म से, जब
से होश पाया
था, चल ही
रहा था; कभी
सवाल उठा ही न
था। उसने भी
कहा कि यह तो
बड़ा सवाल उठा
दिया। उसने
नीचे झांक कर
देखा, खुद
भी घबड़ा
गया--सौ पैर!
संख्या भी
नहीं आती इतनी
तो उसको। उसने
कहा, भई, अभी तक
मैंने सोचा
नहीं। अब
तुमने सवाल
उठा दिया तो
मैं सोचूंगा,
परीक्षण
करूंगा, निरीक्षण
करूंगा और देख
कर तुम्हें
जल्दी ही खबर
दूंगा।
लेकिन
फिर वह चल न
सका। वह एक
कदम चला और
खड़बड़ा कर गिर
गया। सौ पैर
सम्हालने का
मामला आ गया था!
जान छोटी, सौ पैर!
बुद्धि छोटी
और सौ पैर!
उतना बड़ा
हिसाब न लगा
सका, वह
वहीं खड़बड़ा कर
गिर पड़ा। उसने
कहा, नासमझ
खरगोश, तूने
मेरी मुसीबत
कर दी। अब मैं
कभी भी न चल
सकूंगा; क्योंकि
यह सवाल मेरा
पीछा करेगा।
अब तक मैं चलता
था।
तुमने
कभी खयाल
किया: जिन
चीजों को भी
तुम चिंतना
बना लोगे, उन्हीं
चीजों में
मुश्किल हो
जाएगी; छोटी-छोटी
चीजें
मुश्किल हो
जाएंगी। तुम
कोशिश करके
देखो। सात दिन
एक काम करो, इसको सोचो:
जब भी भोजन करो,
यह सोचो कि
भोजन को तुम
पचाते कैसे हो?
अभी तक
पचाया है, कोई
अड़चन नहीं आई
है, लेकिन
जरा सात दिन
तुम इस पर
ध्यान करके
देखो कि भोजन
को पचाते कैसे
हो? यह कोई
छोटी घटना
नहीं है।
वैज्ञानिक
कहते हैं, यह
सबसे बड़ा
चमत्कार है।
रोटी ले जाते
हो, खून-हड्डी
बन जाती है, मांस-मज्जा
बन जाती है; मस्तिष्क के
सूक्ष्म तंतु
बन जाती है; विचार बनती
है, वासना
बनती है! रोटी!
और इस छोटी सी
पेट की फैक्ट्री
में सब
रूपांतरण
होता है। कैसे
होता है? तुम
जरा सात दिन
सोचो। अपच हो
जाएगा; फिर
तुम कभी
स्वस्थ न हो
पाओगे। तो सोच
कर करना, पेट
गड़बड़ हो
जाएगा। जैसे
सौ पैर डगमगा
गए, ऐसे
तुम डगमगा
जाओगे। यह हो
कैसे रहा है?
जीवन
तुम्हारी
बुद्धि से बड़ा
है। और जब भी
तुम बुद्धि का
उपयोग करते हो, वहीं अड़चन आ
जाती है। जीवन
तुमसे बहुत
बड़ा है, बुद्धि
बड़ी छोटी है।
ततैया की
कहानी भी तुम
न समझे!
और
पूछा है कि
साधना के
द्वारा
ग्रंथि-विसर्जन
के लिए हम क्या
करें?
ततैया
ने क्या किया? कुछ किया
नहीं। करने का
तो कोई सवाल
ही नहीं है, क्योंकि
भ्रांति केवल
मन की थी; भ्रांति
वास्तविक न
थी। ततैया
उड़ती ही रही
थी, जब तक
किताब न पढ़ी
थी। शास्त्र
मौत हो गया।
वेद पढ़ लिया, उसी में
प्राण गए। उस
दिन से न उड़
सकी, फिर
बैठ गई! और जब
बैठ गई, तो
और मोटी होती
गई, और
उड़ना मुश्किल
हो गया। और
उड़ना मुश्किल
हुआ, शास्त्र
और भी ठीक
मालूम हुआ--कि
बिलकुल ठीक है।
और ततैएं उड़
रही थीं, लेकिन
उसने सोचा कि
ये सब नासमझ
अज्ञान में उड़
रही हैं।
अब तुम
थोड़ा सोचो!
अज्ञान में उड़
रही हैं, इनको
पता नहीं कि
शास्त्र में
क्या लिखा है।
अगर इनको थोड़ी
भी बुद्धि
होती तो कभी
का उड़ना रोक
देतीं; क्योंकि
वैज्ञानिक जब
कोई बात कहते
हैं, तो
सोच कर कहते
हैं। पंख छोटे
और शरीर
बड़ा--और नासमझ
उड़ती चली जा
रही हैं! बजाय
इसके कि उसने
समझा होता कि
मैं भी उड़
सकती हूं, उसने
यही सोचा कि
मैं ज्ञानी
हूं, ये
अज्ञानी हैं।
आदमी
अपने रोगों को
भी ज्ञान में
छिपाता है, अपनी
मूढ़ताओं को भी
ज्ञान में
छिपाता है।
आदमी के
छिपाने की
कुशलता असीम
है।
उस
ततैया ने यही
सोचा कि अकेली
मैं हूं जो
समझदार हूं; ये मूढ़ उड़े
जा रही
हैं--सिद्धांत
के प्रतिकूल;
शास्त्र के
प्रतिकूल।
इनको कुछ पता
ही नहीं है कि
ये क्या कर
रही हैं! जो हो
ही नहीं सकता,
वही कर रही
हैं! लेकिन
उसे यह खयाल न
आया कि जो हो
ही नहीं सकता,
वह अज्ञान
में भी कैसे
हो सकता है? वह तो
सौभाग्य की
बात कि एक
सुबह एक पक्षी
ने हमला कर
दिया। उस हमले
की घबड़ाहट में
वह भूल गई
ज्ञान, बिसर
गया वेद; एक
क्षण भर को
अज्ञानी हो गई;
उड़ गई
अज्ञान में।
लेकिन
जब बैठी वापस
छाया तले, तो उसे सोच
आया कि उड़ तो
मैं भी गई, उड़
तो मैं भी सकी,
तो निश्चित
ही...
अब यही
तो मन की
तरकीबें हैं।
उसने यह न
सोचा कि यह
मेरी भ्रांति
थी कि नहीं उड़
सकती हूं; यह
जिन्होंने
शास्त्र लिखा,
गलत लिखा
होगा। लिखी
हुई बात को
गलत आदमी तक नहीं
मानता, तो
ततैया तो
बेचारी ततैया
है। लिखी बात
का जादू होता
है। अगर कोई
तुमसे कोई बात
कहे, तो
शायद तुम न
मानो; अगर
वह लिखी हुई
किताब में बता
दे, तुम
फौरन मान लो!
मेरे
एक मित्र हैं, वे कविताएं
करते हैं।
कविताएं कचरा
हैं; तुकबंदी
ज्यादा से
ज्यादा। और वे
भी सिर-खाऊ, कि जिसको
सिरदर्द न
होता हो उसको
सिरदर्द हो जाए।
ठीक एस्प्रो
से उलटा काम
करती है उनकी
कविता। बड़ी
कारगर है। कोई
उनकी कविता
सुनता नहीं।
वे मुझे आकर
कभी-कभी सुनाते
थे। और पूछने
लगे, कोई
मेरी सुनता
नहीं; जिसको
सुनाऊं, वही
लोग कहते
हैं--भई, बंद
करो, अभी
दूसरा काम भी
करना है।
मित्रों के
पास जाता हूं,
खिसक जाते
हैं; काफी-घर
में जाता हूं,
लोग मेरी
टेबल पर नहीं
बैठते। करना क्या?
मैंने
कहा, तुम एक
काम करो। या
तो कविता
छपवाओ।
तो
उन्होंने कहा, ये लोग
सुनते नहीं, पढ़ेंगे कैसे?
मैंने
कहा, छपे शब्द
का जादू
तुम्हें पता
ही नहीं। या
तो छपवाओ।
उन्होंने
कहा, वह तो
महंगा खर्चा
है। और कहीं
अगर आपकी बात
ठीक न निकली
और फिर भी
इन्होंने न
पढ़ा।
तो
मैंने कहा, तुम एक काम
करो। यह
टेप-रिकार्डर
पड़ा है, यह
ले जाओ; इस
पर तुम अपनी
ही कविता
रिकार्ड कर
लो। इसको लेकर
तुम कल
काफी-घर जाओ
और मित्रों से
कहना कि देखो,
कुछ
कविताएं टेप
करके लाया
हूं। और
सुनाओ।
वे लौट
कर आए और बोले, बड़ा चमत्कार
है! मेरी नहीं
सुनते नासमझ
और
टेप-रिकार्डर
को ऐसा संलग्न
होकर सुनने
लगे।
मशीन
का जादू! आदमी
को इनकार कर
दो, मशीन को
कैसे करोगे?
न्यूयार्क
में एक चोर
पकड़ा गया।
क्योंकि वह घर
में घुसा, उसने सब तरफ
से दरवाजे बंद
कर लिए, तिजोरी
तोड़ डाली। और
वह बंदूक लिए
था। और जब खबर
मिल गई तो वह
बंदूक लेकर
खिड़की पर खड़ा
हो गया। सिपाही
या कोई भी
आदमी भीतर
प्रवेश
करे--जान का खतरा;
वह खिड़की पर
खड़ा है बंदूक
लिए।
एक
आदमी ने पास
में जाकर फोन
किया, घर के
अंदर की घंटी
बजी, वह
चोर बंदूक रख
कर फोन पर गया;
उसने फोन पर
कहा कि भई माफ
करो, अभी
मैं काम में
लगा हूं! मगर
इसी बीच पकड़ा
गया। जब उससे
पूछा गया कि
क्या जरूरत थी
तुझे घंटी पर
जाने की?
उसने
कहा, करो भी
क्या! जब घंटी
बज रही है
टेलीफोन की, तो जवाब तो
देना ही
पड़ेगा। तो वह
बंदूक छोड़ कर चला
गया। मशीन का
जादू!
आदमी
दरवाजे पर
दस्तक मारता
हो, कोई
फिक्र न करे; लेकिन घंटी
टेलीफोन की बज
रही है, तो
तुम्हारा कोई
मतलब भी न
हो--अब उसके
बाप का घर
नहीं था वह; न उसका कोई
घंटी से
लेना-देना था;
लेकिन जब
घंटी बज रही
है, तो अवश
हो जाता है
आदमी। जवाब
देना ही
पड़ेगा।
वे
मित्र लौट कर
आए। उन्होंने
कहा, गजब हो
गया!
छपवाऊंगा! ये
जरूर पढ़ेंगे,
ये लोग खरीद
कर पढ़ेंगे। और
मैं मुफ्त खुद
ही सुना रहा
हूं, नहीं
सुनते। और गौर
से सुनते रहे,
और ऐसे
तल्लीन होकर
सुने कि एक
शब्द चूक न
जाए!
छपे
हुए अक्षर का
बड़ा प्रभाव
है। अगर कोई
आदमी तुमसे
कोई बात कह
रहा है और तुम
भरोसा न करो, और वह कहे, अच्छा, मैं
किताब बताए
देता हूं
जिसमें यह
लिखा है, तो
तुम फौरन मान
लोगे। जब
किताब में
लिखा है। जैसे
किताब में
लिखे होने से
कोई बात सच
होती है। अगर
सच होना इतना
ही आसान होता,
तब तो क्या
कहना था!
कितने झूठ
किताबों में
लिखे हैं!
वस्तुतः
निन्यानबे
प्रतिशत तो
झूठ ही लिखे
हैं। लेकिन वे
सब सच हो गए
हैं, क्योंकि
किताब में
लिखे हैं।
किताब का बड़ा
असर है।
ततैया
भ्रांति में
पड़ गई किताबों
की। ततैया को
कोई बीमारी न
हुई थी, ध्यान
रखना, जिसका
इलाज करना हो;
ततैया को
कोई वास्तविक
ग्रंथि पैदा
नहीं हुई थी, जिसको
योगासन से
तोड़ना पड़ेगा।
ततैया को कुछ
भी न हुआ था, सिर्फ एक
खयाल, एक
गलत खयाल पकड़
गया था। अब
गलत खयाल को
छोड़ने के लिए
क्या करना
पड़ता है? गलत
खयाल को सिर्फ
छोड़ना पड़ता है,
और कुछ भी
नहीं करना
पड़ता। एक
पक्षी झपट्टा
मारा, घबड़ा
गई।
बस
गुरु ऐसे ही
पक्षी हैं, जो तुम पर
झपट्टा मारते
हैं। अगर घबड़ा
गए, तो उस
क्षण में
घबड़ाहट के, तुम्हें
दर्शन हो
जाएगा।
इसलिए
गुरु से डर
लगता है; क्योंकि
गुरु कुछ कर
नहीं रहा है
और। तुम पर दया
भी आती है और
तुम पर हंसी
भी आती है।
क्योंकि तुम
बीमार नहीं हो,
इसलिए तुम
पर हंसी आती
है। और तुम
ऐसी बीमारी बनाए
बैठे हो, दया
भी आती है।
दुख भोग रहे
हो, इसमें
कोई शक नहीं
है; लेकिन
दुख अकारण भोग
रहे हो, इसमें
भी कोई शक
नहीं है। दुख
तुम्हारे
खयाल में है।
खयाल को भर
तोड़ना है।
स्वभाव से तुम
सदा ही स्वस्थ
हो। परमात्मा
ने तुम्हें
क्षण भर को
छोड़ा नहीं, तुम्हारे
रोएं-रोएं में
वही समाया है।
सिर्फ कहीं से
कोई खयाल पकड़ गया
है कि कुछ गलत
है--बस। अब वह
गलती को कैसे
ठीक करना!
गलती कभी हुई
नहीं है। बस
एक ही गलती हुई
है कि गलती हो
गई है, यह
खयाल पकड़ गया
है।
ततैया
भाग कर उड़ भी
गई, तो भी
उसने यह न
सोचा...आदमी का
अहंकार अपने
को गलत मानता
ही नहीं
है--अतीत की
तरफ, पीछे
की तरफ भी गलत
नहीं मानता।
उसने यही सोचा
कि कोई मन का
अवरोध पैदा हो
गया था, जिसकी
वजह से मैं उड़
नहीं पाती थी।
अब वह अवरोध
टूट गया--संकट
के एक क्षण
में शक्ति जग
गई, अवरोध
टूट गया--अब
मैं उड़ पाती
हूं। उसने भी
यह न सोचा कि
अवरोध वगैरह
कुछ भी न हुआ
था। वह खाली
बैठी थी, व्यर्थ
ही बैठी थी।
और यह 'अवरोध'
भी उसने
मनोविज्ञान
की किताबों
में पढ़ लिया था।
किताबें
तुम्हारी मौत
हो गई हैं।
तुम थोड़ा जिंदगी
में आओ। तुम
कृपा करके वेद, कुरान, बाइबिल
को नमस्कार कर
लो। नमस्कार
तुमने कई बार
किए हैं। मेरे
अर्थों में
नमस्कार कर
लो--कि बस, क्षमा
करो! अब बहुत
हो गया! अब
मुझे जिंदगी
जैसी है, उसको
उसकी
स्वाभाविकता
में जीने दो।
स्वाभाविक
हो जाना
धार्मिक हो
जाना है। तुम
अस्वाभाविक
हो गए हो।
कहीं कोई रोग
नहीं है, सिर्फ
भ्रांति है
रोग की। संसार
वस्तुतः नहीं
है, सिर्फ
भ्रांति है।
है तो
परमात्मा ही।
इसलिए शंकर
इसे माया कहते
हैं। अब मजा
यह है कि रोग पकड़
जाए गलत, तो
फिर इलाज
चाहिए। तो
इलाज करने
वाले मिल जाते
हैं! पहले तो
रोग ही गलत था,
फिर गलत रोग
का इलाज करो
तो और झंझटें
बढ़ती हैं।
क्योंकि वे
औषधियां दे
रहे हैं!
औषधियां
बिलकुल गलत
हों तो ठीक, अगर औषधियों
में कुछ भी
ठीक हो, सही
हो, तो
नुकसान होगा,
खतरा होगा।
एक तकलीफ को
तुम खयाल में
ले लो, तो
हजार तकलीफों
के द्वार खुल
जाते हैं। और
मूल को ही ठीक
से पहचान लो, तो फिर
तकलीफों के
द्वार नहीं
खुलते, मूल
तकलीफ ही
विसर्जित हो
जाती है।
ततैया
थोड़ी जरूरत से
ज्यादा
बुद्धिमान थी, यही उसका
बुद्धूपन था।
अब तुम
पूछते हो: 'आपने
कल ततैया की
कहानी में मन
के अवरोध के
संबंध में
बताया।'
मैंने
बताया ही नहीं, तुमने कुछ
और ही सुना
होगा। और यही
तो रोना है--कहो
कुछ, तुम
सुनोगे कुछ, करोगे कुछ; पीछे मुझको
जिम्मेवार
ठहराओगे कि
आपने ही तो कहा
था।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं, वे इतनी
हिम्मत से
कहते हैं कि
आपने ही कहा
था, कि मैं
भी चुप रह
जाता हूं।
क्योंकि अब
उनसे क्या
कहना! जब वे
पहले नहीं
समझे तो अब भी
क्या समझेंगे।
चुप रह जाता
हूं कि ठीक है,
जरूर कहा ही
होगा, नहीं
तो तुमने सुना
कैसे! जरूर
कहा होगा।
तुमने
सुना, इससे
जरूरी मत
समझना कि
मैंने कहा। अब
यह तुमने सुन
लिया कि आपने
कल ततैया की
कहानी में मन
के अवरोध के
संबंध में
बताया।
बिलकुल नहीं।
ततैया ने मन
के अवरोध के
संबंध में
मनोविज्ञान की
किताब में पढ़ा
था; कहीं
कोई अवरोध था
नहीं, ततैया
बिलकुल
स्वस्थ थी--उड़
सकती थी, नाच
सकती थी; फूलों
की बहार में
भागीदार हो
सकती थी; सूरज
की रोशनी में
प्रसन्न होकर
गीत गुनगुना सकती
थी--कहीं कोई
अड़चन न थी, सिर्फ
एक भ्रांत
खयाल पकड़ गया
था; कहीं
कोई अवरोध न
था।
अब तुम
पूछते हो: 'साधना
के द्वारा
ग्रंथि-विसर्जन
के लिए हम क्या
करें?'
तुम भी
ततैया हो, शास्त्र पढ़
कर बैठ गए, क्योंकि
शास्त्र में
लिखा है कि उड़
नहीं सकते।
शास्त्र
को थोड़ा कम
मानो, स्वयं
को थोड़ा
ज्यादा मानो।
तुम ही
निर्णायक हो,
शास्त्र
नहीं। स्वभाव
की सुनो, स्वभाव
की गुनो, स्वभाव
ही तुम्हें
मुक्तिदायी
होगा। और जिसने
स्वभाव की
सुनी और
स्वभाव की
गुनी, वही
शास्त्र को भी
समझने में सफल
हो पाता है। तब
शास्त्र कुछ
और ही कहता
मालूम पड़ता
है। जो तुमने
पहले समझा था,
वह नहीं।
तुम वही समझ
लेते हो, जो
तुम समझना
चाहते हो! तुम
अपने रोग के
लिए शास्त्र
का सहारा खोज
लेते हो। तब रोग
और मजबूत होकर
बैठ जाता है।
इस
ततैया को क्या
हुआ था? इसने
जल्दी यह बात
क्यों मान ली?
ततैया
को एक ही रोग
था और वह रोग
यह था कि वह
पहले से ही
दूसरी ततैयों
की निंदा में
पड़ी थी। वह पहले
से ही कहती थी
कि ये सब आवारागर्द
यहां-वहां घूम
रही हैं। न
कोई विचार, न कोई सोच, न कोई
शास्त्र का
अध्ययन--इनको
कुछ ऊंचे जीवन
का खयाल ही
नहीं है, बस
घूम रही हैं; फूलों में
नाच रही हैं; ऐसे ही जीवन
गंवा रही हैं।
ततैया को पहले
से ही बड़ा दंभ
था कि मैं कुछ
विशिष्ट हूं
और ये सब निकृष्ट
हैं। इसी
भ्रांति ने
शास्त्र के
साथ झंझट करवा
दी। जब उसने
शास्त्र में
पढ़ लिया कि
ततैया उड़ ही
नहीं सकती, तो उसने कहा,
बिलकुल ठीक,
मैं भर
अकेली ज्ञान
को उपलब्ध हो
गई हूं और ये सब
नासमझ अज्ञान
में भटक रही
हैं। इस ज्ञान
के अहंकार ने
ही उसे बिठा
दिया। और इस
अहंकार के
कारण उसे बड़ा
मजा आने लगा।
दुनिया
भर की निंदा
करने में बड़ा
रस आता है। तुम
जाओ, अपने
साधु-संन्यासियों
को देखो। वे
बैठे हैं ततैयों
की तरह, उड़ते
नहीं, जीवन
में नहीं आते।
उनका रस एक ही
है कि तुम जाओ
तो देख रहे
हैं कि तुम
नरक में
गिरोगे--माया-मोह
में पड़े हो, संसार में
उलझे हो।
निंदा गहरी है
उनके मन में।
और उनसे भी
पूछो तो वे भी
यही कहेंगे कि
बेचारे
अज्ञान के
कारण सब
माया-मोह में
पड़े हैं। इतना
बड़ा जगत
अज्ञान के
कारण माया-मोह
में पड़ा है, सिर्फ कुछ
इक्के-दुक्के
जो मंदिरों
में बैठे हैं
मुर्दों की
भांति, वे
भर ज्ञान के
कारण!
परमात्मा
की मर्जी कुछ
ऐसी है कि तुम
इस माया-मोह
से गुजरो। इस
गुजरने में
कुछ राज है।
इस गुजरने से
ही प्रौढ़ता
उपलब्ध होती
है, परिपक्वता
उपलब्ध होती
है। ये भगोड़े
जो मंदिरों
में छिप गए
हैं, यही
आखिर में
मुजरिम सिद्ध
होंगे। और
इनका कुल मजा
अहंकार है।
तुम भोजन में
रस लेते हो, ये उपवास
में। तब इनकी
अकड़ पक्की हो
जाती है कि
देखो, तुम
अभी भी भोजन
में पड़े हुए
हो पशुओं की
भांति। हमको
देखो, उपवास
में बैठे हैं!
तुम
सुख-सुविधा
में रस लेते
हो, ये धूप
में खड़े हैं, कांटों की
सेज बिछा कर
लेटे हैं।
क्या पागलपन है!
लेकिन
एक ही मजा है
इनका, वह यह
कि ये
तुम्हारी
निंदा कर पाते
हैं। कांटों
की सेज से
तुम्हारी
जैसी निंदा हो
सकती है, वैसी
और कहीं से
नहीं हो सकती।
क्योंकि तुम
तो न लेट
सकोगे कांटों
की सेज पर; तुमने
अभी इतना
शास्त्र पढ़ा
ही नहीं, इन्होंने
शास्त्र पढ़
लिया है।
तुम्हारे
साधु-संन्यासी
त्यागत्तपश्चर्या
कर रहे हैं
सिर्फ अहंकार
के वश। कोई
परमात्मा का
स्वर्ग
उन्हें
उपलब्ध नहीं
हुआ है--सिर्फ
अहंकार की
प्रगाढ़
प्रतीति। और
उसका मजा लेना
हो तो तुमसे
विपरीत होना
जरूरी है। तुम
जो करते हो, उससे विपरीत
करके वे दिखा
देते हैं। और
तब तुम भी
डरते हो उनसे;
तुम भी
भयभीत होते
हो। तुम भी
सोचते हो:
इन्होंने कुछ
बड़ा भारी
चमत्कार किया
है।
तुम तो
मूढ़ हो ही, वे महामूढ़
हैं। तुम पैर
के बल खड़े हो
कम से कम, वे
सिर के बल खड़े
हैं। उसको वे
शीर्षासन
कहते हैं।
आदमी को पैर
के बल चलने के
लिए ही बनाया
है, नहीं
तो परमात्मा
सिर के बल ही
चलने की
व्यवस्था
करता।
शीर्षासन की
आवश्यकता
नहीं है। लेकिन
शीर्षासन
करने वाला
तुम्हारी तरफ
देख सकता है
निंदा से कि
देखो, अभी
तुम पैर के बल
ही खड़े हो; वही
अज्ञानियों
की चाल चल रहे
हो। हमको देखो,
हम
ज्ञानियों की
चाल चल रहे
हैं! और फिर
तुममें से भी
कुछ नासमझ
उससे प्रभावित
हो जाते हैं, वह भी
अहंकार के
कारण। जिनके
मन में अहंकार
है--तुम्हारे
भीतर भी है--वे
भी उससे
प्रभावित हो जाते
हैं; वे भी
धीरे-धीरे आसन
लगाने लगते
हैं।
अब तुम
मुझसे पूछते
हो: 'हम क्या
करें साधना के
द्वारा
ग्रंथि-विसर्जन
के लिए?'
मैं
कहीं ग्रंथि
देखता नहीं कि
तुममें कहीं कोई
ग्रंथि है, जिसका
विसर्जन करना
है। तुम
बिलकुल जैसे
होने चाहिए, वैसे हो; ग्रंथि
की भ्रांति भर
छोड़ दो। जिस
दिन भी तुम ग्रंथि
की भ्रांति
छोड़ोगे, उसी
दिन पाओगे कि
अरे! इतना समय
व्यर्थ ही गंवाया!
हम तो ऐसे सदा
थे।
बुद्ध
को ज्ञान हुआ।
क्या हुआ
ज्ञान में? बुद्ध ने
पहला वचन कहा
कि हे वासना
के घर बनाने
वाले देवता, अब तुझे
मेरे लिए और
घर न बनाने
पड़ेंगे, क्योंकि
मैंने वासना
का स्रोत पकड़
लिया। वासना
का स्रोत
कल्पना है।
मैंने पकड़
लिया कि यह सब
मेरी कल्पना
का ही जाल था।
अब तुझे मेरे
लिए कोई घर न
बनाने पड़ेंगे;
अब वह
यात्रा बंद
हुई। क्योंकि
मैंने पकड़ लिया
मूलस्रोत--कल्पना।
तुम्हारी
ग्रंथि
तुम्हारी
कल्पना में
है। तुम्हारी
वासना भी
तुम्हारी
कल्पना में
है। तुम्हारा
संसार भी
तुम्हारी
कल्पना में
है। सत्य सदा
से वैसा ही है, जैसा था।
अभी भी वैसा
है। कल भी
वैसा होगा। जिस
दिन भी तुम
कल्पना का जाल
गिरा कर
लौटोगे, पाओगे
कि इतना आनंद
व्यर्थ ही
गंवा रहे थे।
लेकिन
लोग हैं--तुम
भी ऐसे लोगों
को जानते होओगे, जिनको वे
हाइपोकांड्रिआक
कहते हैं--वे
कोई न कोई
बीमारी बनाते
रहते हैं।
उनको तुम
हमेशा डाक्टर
की तरफ जाते
देखोगे। कभी
हकीम के यहां
जा रहे हैं, कभी एलोपैथ
के यहां, कभी
होम्योपैथ के
यहां, कभी
नेचरोपैथ के
यहां। तुम
उनको कभी चैन
में न पाओगे, वे हमेशा जा
रहे हैं। और
जहां जाते हैं,
वहीं लोग
उनको कहते हैं,
भई, ये
बीमारियां हैं
नहीं, हम
क्या करें? वे नाराज
होते हैं ऐसे
लोगों पर कि
बीमारियां नहीं
हैं? हम
इतनी तकलीफ
उठा रहे हैं
और तुम कहते
हो बीमारियां
नहीं हैं! वे
सुनने आते हैं
कि कहो कि बड़ी
बीमारी है, भारी बीमारी
है; तुमको
ऐसी बीमारी
हुई, जैसी
पहले कभी किसी
आदमी को हुई
नहीं; तुम
ऐतिहासिक
पुरुष हो, तुम
बड़े अनूठे हो।
तब उनको
तृप्ति मिलती
है।
मैंने
एक ऐसी बुढ़िया
के बाबत सुना
है कि ऐसा जिंदगी
भर--कोई मानता
नहीं था। वह
बीमार थी भी नहीं, कोई माने भी
कैसे? चिकित्सक
भी क्या करें?
और तुम एक
चिकित्सा करो,
वह दस
बीमारियां
खड़ी कर दे।
कभी हाथ में
दर्द, कभी
पैर में दर्द,
कभी सिर में
दर्द; कभी
यह, कभी वह;
कल्पना की
कोई सीमा है
जब तुम कल्पना
ही कर लो! एक
बीमारी की
कल्पना कर लो,
तो तुमने सब
बीमारी की
कल्पना करने
की क्षमता जुटा
ली; अब
तुम्हें कोई
रोक नहीं
सकता। किसी
तरह सिर ठीक
कर दो, तो
वह पैर पर आ
जाएगी। आखिर
वह मरी। तो जब
वह मरी तो
मरने के पहले
उसने संगमरमर
खोदने वाले
आदमी को कहा कि
मेरी कब्र पर
यह पत्थर लिख
देना--कि अब तो
भरोसा आया कि
मैं बीमार थी!
अब तो भरोसा
आया! अब मर गई, अब तो माना!
एक
पागल को मेरे
पास लाए।
उसमें कुछ खास
मामला नहीं
था। जवान आदमी, स्वस्थ सब।
बस उसको एक
वहम समा गया
कि दो मक्खियां
उसके भीतर घुस
गई हैं। रात
सो रहा था, नाक
से दो
मक्खियां
अंदर चली गईं।
अब वे दोनों
अंदर भनभनाती
हैं। अब वह
बेचैन है--न सो
सकता, न खा
सकता--सब
अस्तव्यस्त
हो गया है।
इलाज करवा
डाले सब। अब
मक्खियां हों तो
भी कुछ हो
जाए।
चिकित्सक
कहें कि भई, कोई मक्खी
नहीं है, एक्सरे
में भी नहीं
आती। पर वह
कहे कि
तुम्हारे
एक्सरे को
मानूं कि अपने
अनुभव को? मैं
भनभनाहट
सुनता हूं, टकराहट
सुनता हूं; हड्डियों
में चलती हैं,
सरकती हैं।
तुम्हारे
एक्सरे में न
आएं, तो
तुम्हारी कोई भूल
है। और
तुम्हारे
एक्सरे में न
आने से मेरी
तकलीफ तो बंद
नहीं होती। यह
भी ठीक बात
है--कि मेरी
तकलीफ तो जारी
है।
मैंने
कहा कि ठहरो, कुछ उपाय
करते हैं।
उसको कहा कि
तू आंख बंद करके
लेट जा और जब
तक हम न कहें, तू आंख मत
खोलना; तेरी
मक्खियों को
निकालने की
कोशिश करते
हैं।
उसको
अच्छा लगा जब
मैंने कहा कि
मक्खियों को निकालने
की कोशिश करते
हैं; क्योंकि
कम से कम, मक्खियां
हैं, इस एक
आदमी ने तो
माना। उसने
तत्क्षण मेरे
पैर छुए। उसने
कहा कि आप भर
एक समझदार
आदमी मिले। न
मालूम कितने
लोगों के पास
गया, वे
पहले तो यही
कहते हैं कि
ऐसी
मक्खियां--हंसने
लगते हैं। हम
मरे जा रहे
हैं और
तुम्हारी
मजाक! और तुम
हंस रहे हो!
डाक्टर और
हंसे तो दुख
होता है। आपने
ठीक किया, आप
जरूर ठीक कर
पाएंगे।
मैंने
कहा, इसमें
कोई अड़चन नहीं
है। मक्खियां
दिखाई पड़ रही
हैं। कैसे
एक्सरे में
नहीं आती हैं,
यह भी
आश्चर्य की
बात है। वह
निश्चिंत
हुआ। मैंने
कहा, तू...आंख
पर उसकी पट्टी
बांध कर उसे
लिटा दिया। तब
मैं भागा और
घर में
बामुश्किल दो
मक्खी पकड़
पाया; क्योंकि
वे
मक्खियां...उसको
मक्खियां
दिखाना जरूरी
है। एक बोतल
में दो
मक्खियां बड़ी
मुश्किल
से...क्योंकि
कभी पकड़ी नहीं,
कोई अनुभव
नहीं।
उसने
आंखें खोलीं, मक्खियां
गौर से
देखीं--बोतल
में बंद हैं!
मैंने कहा कि
भई, देख, निकाल कर रख
दीं। उसने कहा
कि ये वे
मक्खियां ही
नहीं हैं, वे
तो बड़ी
मक्खियां
हैं। ये तो
छोटी
मक्खियां हैं,
साधारण, घर
में पाई जाने
वाली। वे तो
बड़ी-बड़ी
मक्खियां
हैं। अभी भी
घूम रही हैं।
मैंने कहा, अब बहुत
मुश्किल है; हम जो कर
सकते थे, वह
हमने किया; मगर हम ये दो
ही निकाल पाए।
उसने कहा, ये
भी रही होंगी,
मैं इसको
कोई मना नहीं
करता; लेकिन
वे जो दो असली
हैं, वे तो
घूम ही रही
हैं।
अब ऐसे
आदमी को क्या
करो? जो दो की
कल्पना कर
सकता है, वह
चार की कर
सकता है। दो
मक्खियां पकड़
दीं, अब वह
कह रहा है--वे
बड़ी हैं, वे
दूसरी
मक्खियां हैं!
तब मैंने समझ
लिया कि अब
कोई भी
मक्खियां लाओ,
यह मानने
वाला नहीं है;
क्योंकि यह
कहेगा, ये
वे नहीं हैं।
क्या
इस आदमी के
साथ करो? दया
भी आती है कि
व्यर्थ तकलीफ
उठा रहा है।
ज्यादा ही दया
आती है, क्योंकि
यह बिलकुल ही
व्यर्थ तकलीफ
उठा रहा है।
वास्तविक भी
तकलीफ होती, तो भी ठीक
था। वास्तविक
होती तो इलाज
भी हो सकता
था। तकलीफ
इतनी झूठी है
कि इलाज का भी
उपाय नहीं। और
हंसी भी आती
है, क्योंकि
चाहे तो यह
अभी छोड़ दे।
अब यह एक मौका
इसे मिला था
कि राजी हो
जाता कि ये
मक्खियां
हैं। उसने
तरकीब निकाल
ली; उसने
कहा, ये वे
मक्खियां ही
नहीं हैं।
माना, आपने
मेहनत की, और
आप अकेले आदमी
हैं जिसने
स्वीकार किया,
मगर ये
दूसरी
मक्खियां हैं;
ये भी रही
होंगी।
तुम्हारा
रोग ऐसा ही है, तुम्हारी
ग्रंथियां
ऐसी ही हैं।
कहीं कुछ विकृत
नहीं हुआ है।
हो नहीं सकता।
परमात्मा ही सब
कुछ है, तो
विकृति हो
कैसे सकती है?
कल्पना का
जाल है। अगर
तुम जाग
सको--इसी क्षण
जाग सकते हो, कुछ करने को
नहीं है।
यह न
करने का नाम
ही है भज
गोविन्दम्।
भज गोविन्दम्
का मतलब है:
कुछ भी नहीं
करना है, सिर्फ
गोविन्द को
भजने से भी
दूर हो जाएगा।
अगर
असली बीमारी
होती तो भज
गोविन्दम् से
दूर हो नहीं
सकती थी। भज
गोविन्दम् से
असली बीमारी
कैसे दूर होगी? तुम
गोविन्द-गोविन्द
करोगे, इससे
कैंसर जाएगा?
कैसे जाएगा?
लेकिन
ज्ञानियों ने
कहा है कि अगर
तुम परमात्मा
का नाम भी स्मरण
कर लो, तो सब
रोग हट
जाएंगे।
क्योंकि रोग
हैं नहीं। स्मरण
के क्षण में, परमात्मा पर
समर्पण के
क्षण में तुम
अचानक पाओगे--रोग
कभी भी न थे; तुम
शुद्ध-बुद्ध
हो; तुम
अनाम, अरूप,
निरंजन; कहीं
एक काली रेखा
तुम पर पड़ी
नहीं; सब
कल्पना का जाल
है।
ततैया
की कहानी फिर
से समझने की
कोशिश करना, वह तुम्हारी
ही कहानी है।
चौथा
प्रश्न:
क्या
यह संभव है कि
आदमी का चित्त
एक नवजात शिशु
के चित्त की
भांति हो जाए?
निश्चित
ही। एक झील पर
सब शांत है।
फिर लहरें आ गईं, हवा के
झोंके आए--झील
कंप गई। फिर
हवा के झोंके
चले जाएं, झील
फिर शांत हो
जाएगी, फिर
दर्पण बन
जाएगी। झील
स्वच्छ है।
पत्ते गिर गए,
गंदगी हो
गई। पत्ते बैठ
जाएंगे भूमि
में, झील
फिर ताजी और
फिर स्वच्छ हो
जाएगी।
बच्चा
पैदा हुआ, झील अभी
स्वच्छ
थी--तरंगें न
थीं, विचारों
के कोई पत्ते
न थे, वासना
की कोई लहरें
न थीं।
फिर सब
तरंगायित हो
गया--तूफान
उठे, मन कंपा,
दर्पण खो
गया। जवानी आई,
सब
आंधी-आंधी हो
गया; कुछ
ठहरा हुआ न
रहा; बड़ी
वासनाओं के
उत्तंड वेग
आए।
फिर
बुढ़ापा आया; सब
कूड़ा-कचरा, पत्थर, खंडहर
पड़े रह गए।
लेकिन
जो मूल में था, वह अब भी
वहां है। थोड़ी
सी
समझ--पत्तों
को बैठ जाने
देना; थोड़ी
सी समझ--वासना
की हवाओं का
रुक जाना। झील
फिर वही हो
जाएगी, झील
के स्वभाव में
कोई अंतर नहीं
पड़ा है।
जैसा
निर्दोष
बच्चे का मन
है, ऐसा ही
पुनः जब हो
जाता है, तभी
हम उसे संत
कहते हैं; फिर
बच्चे जैसा हो
जाता है।
इसलिए
शंकर ने कहा:
वह परमयोगी
कभी बच्चों की
भांति और कभी
पागलों की
भांति मालूम
होता है। कभी
तो ऐसा लगता
है, छोटे
बच्चे की तरह
सरल है; कुछ
भी नहीं उसके
भीतर, शून्य
है। और कभी
ऐसा लगता है, प्रचंड
अज्ञात की
आंधियां उठी
हैं--उन्मत्त
है, पागल
है।
पागल
व्यक्तियों
में भी एक
बालपन जैसी
निर्दोषता
होती है; और
बच्चों में भी
पागलों जैसी
एक
विक्षिप्तता
होती है।
छोटे-छोटे
बच्चे
छोटी-छोटी
चीजों पर पागल
हो जाते हैं।
उनको खिलौना
चाहिए--नाचने
लगेंगे, कूदने
लगेंगे, तोड़ने-फोड़ने
लगेंगे--अभी
चाहिए। अभी
क्रोधित हैं,
क्षण भर बाद
हंसने लगेंगे,
मुस्कुराने
लगेंगे--भूल
ही जाएंगे कि
जैसे क्रोध
था। पागल और
बच्चों में
बड़ा सामान्य
है, बहुत
कुछ समान है।
इसलिए पागलों
की आंख में तुम
झांकोगे तो
बच्चों जैसा
निर्दोष भाव
पाओगे; और
बच्चों की आंख
में भी
झांकोगे तो भी
एक पागलपन की
अवस्था
पाओगे।
परमज्ञानी
दोनों एक साथ
हो जाता है।
बहुत बार लगता
है बच्चों की
भांति है; और बहुत बार
लगता है
पागलों की
भांति है।
क्योंकि न तो
कोई नियम रह
जाते हैं, न
कोई मर्यादा
रह जाती है, इसलिए पागल
लगता है; न
पाप, न कोई
पुण्य, इसलिए
पागल लगता है।
और इसीलिए
बच्चा भी लगता
है। बच्चे को
भी न कोई पाप
है, न कोई
पुण्य है; बच्चे
को भी कोई
मर्यादा नहीं
है। बच्चा
मर्यादा के
पहले है, संत
मर्यादा के
पार है, बीच
में संसार
है--जहां
मर्यादाएं
हैं, नीति
है, नियम
है; पाप है,
पुण्य है; शुभ है, अशुभ
है; करने
योग्य है, न
करने योग्य
है--दोनों छोर
हैं।
निश्चित
ही, जो एक
क्षण
तुम्हारे
जीवन में था, वह फिर हो
सकता है। कभी
तुम बच्चे थे,
वह बच्चा खो
नहीं गया है, तुम्हारे मन
के विचारों की
भीड़ में अभी
भी भीतर मौजूद
है। भीड़ शांत
होगी, अचानक
पुनराविष्कार
हो जाता है, फिर वह
बच्चा मौजूद
है। वही
संतत्व है।
पांचवां
प्रश्न:
श्री
शंकराचार्य
कभी तो कहते
हैं कि गंगा
की यात्रा
करने से भी
कुछ न होगा, और कभी कहते
हैं गंगाजल की
एक बूंद भी
पीने से आदमी
मृत्युंजय हो
जाता है।
कृपापूर्वक
इस विरोधाभास
पर प्रकाश
डालें।
बाहर
की गंगा और
भीतर की गंगा।
बाहर की गंगा
की कितनी ही
यात्रा करो, कुछ भी न
होगा; क्योंकि
बाहर की गंगा
की यात्रा भी
बाहर की यात्रा
है, उससे
तुम भीतर न
पहुंचोगे। और
भीतर की गंगा
की एक बूंद पी
लो, तो
पहुंच गए; क्योंकि
भीतर की गंगा
की एक बूंद
पीने के लिए भी
तुम्हें
बिलकुल भीतर
आना पड़ेगा, तो ही तुम एक
बूंद भी पी
सकोगे।
तीर्थयात्रा
बाहर नहीं है, बाहर तो बस
संसार है; तीर्थयात्रा
भीतर है।
जितने तुम
भीतर जाओगे, जितने अपने
में रमोगे, उतने ही
तीर्थ के निकट
आओगे--वहीं
गिरनार है, वहीं शिखरजी,
वहीं काबा,
वहीं कैलाश,
वहीं काशी।
बाहर की
भ्रांति से
बचना।
लेकिन
हम तो बाहर ही
देखना जानते
हैं। तो जब हम
परमात्मा को
भी खोजते हैं, तो बाहर
खोजते हैं। और
जब हम मंदिर
खोजते हैं, तो भी बाहर
खोजते हैं।
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर है; जो
खोज रहा है, उसमें ही
छिपा है; खोजने
वाला ही है वही।
तुम अपने
चैतन्य को
पहचानना शुरू
करो, उसकी
एक बूंद काफी
है।
कहते
हैं, कथा है कि
जब गंगा उतरी
पृथ्वी पर तो
आधी ही उतरी, आधी स्वर्ग
में ही रह गई।
इसे तुम ऐसा
समझो कि जब
गंगा आई बाहर
तो आधी ही आई, आधी भीतर रह
गई। स्वर्ग
यानी भीतर, स्वर्ग यानी
स्वयं में डूब
जाना, और
नरक यानी
दूसरे में भटक
जाना।
पश्चिम
का बहुत बड़ा
विचारक है
ज्यां पाल
सार्त्र।
उसका एक वचन
बड़ा
महत्वपूर्ण
है: दि अदर इज़
हेल। दूसरा
नरक है।
स्वयं
में है
स्वर्ग। जब तक
तुम दूसरे पर
निर्भर हो, तब तक तुम
नरक में
रहोगे। जब तक
तुम ऐसे स्वातंत्र्य,
ऐसी निजता,
ऐसी
स्वायत्तता, ऐसा स्वयंपन
न पा लो कि अब
कोई निर्भरता
न रही, अब
किसी के सामने
तुम भिखारी न
रहे, अपने
मालिक हो गए, स्वामी हुए,
फिर स्वर्ग
है। दूसरे के
सामने हाथ
फैलाए तो बड़ी
दीनता
है--वहां नरक
ही मिल सकता
है; वहां
ज्यादा से
ज्यादा तुम
अपने भिक्षा
के कटोरे में
दुख ही जुटा
पाओगे। वहां
सुख का कोई
संगीत न कभी
हुआ है, न
होगा।
भीतर
आओ। भीतर की
गंगा स्वर्ग
की आधी गंगा
है और उसकी एक
बूंद काफी है।
वह अमृत है।
बाहर
की गंगा में
कितने ही नहाओ, क्या होगा? मछलियां सदा
गंगा में ही
रह रही हैं, वे सभी
स्वर्ग पहुंच गई
होतीं; मगरमच्छ
भी रह रहे हैं,
वे भी
स्वर्ग पहुंच
गए होते; जानवर,
पशु-पक्षी
भी गंगा में
स्नान कर रहे
हैं, वे सब
स्वर्ग पहुंच
गए होते।
वे अभी
नहीं पहुंचे
हैं। तुम उनसे
ज्यादा स्नान
न कर पाओगे; तुम एक
डुबकी लगा कर
घर आ जाओगे।
किसको धोखा दे
रहे हो? आंख
के अंधे
हो--आंख होते
अंधे हो। यह
धोखा अपने को
ही मत दो।
गंगा
भीतर है। जो
भी मूल्यवान
है, भीतर है;
जो भी
निर्मूल्य है,
बाहर है।
कचरा खोजना हो
तो बाहर, धन
खोजना हो तो
भीतर।
छठवां
प्रश्न:
आप
कहते हैं, सत्य
गुरु-प्रसाद
से मिलता है।
तब क्यों अहंकार
के प्रयास को
भी बढ़ावा देते
हैं?
सत्य
गुरु-प्रसाद
से मिलता है, लेकिन
गुरु-प्रसाद
बिना प्रयास
के न मिलेगा। गुरु-प्रसाद
कहां पाओगे? परमात्मा
प्रसाद-रूप
मिलता है, गुरु
तो खोजना
पड़ेगा; गुरु
के पास होने
की योग्यता तो
जुटानी पड़ेगी।
प्रयास भी
करना होगा, और ध्यान रखना
होगा कि जो
मिलता है परम,
वह बिना
प्रयास के
मिलता है। यह
तुम्हें विरोधाभासी
लगेगा, लेकिन
ये ही दो पंख
हैं, ये ही
दो पतवार
हैं--प्रयास
की और प्रसाद
की। इन दोनों
से ही यात्रा
पूरी होती है।
दुनिया
में दो तरह की
भ्रांतियां
हैं। कुछ लोग
हैं, जो समझते
हैं--प्रयास
करने से ही
मिल जाएगा।
उन्हें
परमात्मा कभी
नहीं मिलता।
क्योंकि उनका
अहंकार कभी गिरता
ही नहीं, प्रयास
से और मजबूत
होता है; द्वार-दरवाजे
और बंद हो
जाते हैं
खुलने की जगह।
और कुछ लोग
हैं, जो
मानते
हैं--प्रयास
से तो मिलता
नहीं, प्रसाद
से ही मिलेगा।
वे बैठे ही
रहते हैं; वे
उठते ही नहीं,
चलते ही
नहीं। वे
आलस्य में
गंवा देते
हैं। कुछ
अहंकार में खो
देते हैं, कुछ
आलस्य में।
परमात्मा
मिलता है अथक
प्रयास से और
फिर भी बिना
प्रयास के।
तुम्हारी
तरफ से
तुम्हें पूरा
करना है, तुम्हारी
तरफ से कुछ भी
न बचे जो
अनकिया रह जाए।
तुम अपने को
पूरा दांव पर
लगा दो, तभी
तुम प्रसाद
पाने के
अधिकारी हो।
तब तुम कह
सकते हो, अब
मेरे पास कुछ
भी नहीं जो
मैं और
लगाऊं--अब तो तेरी
कृपा हो!
तो
उसकी कृपा
मांगने का
अधिकार
तुम्हें तब मिलेगा, जब तुम जो कर
सकते थे वह
तुमने पूरा कर
दिया, अब
तुम्हारे पास
कुछ भी नहीं
है। तुम मुफ्त
कृपा न पा
सकोगे। कृपा
सबसे बड़ा
बहुमूल्य
हीरा है, वह
मुफ्त नहीं
मिलता। तुमने
जब सब दांव पर
लगा दिया, तुम्हारे
पास कुछ भी न
बचा, तब
तुम्हारे
हृदय से
प्रार्थना उठ
सकती है; तब
तुम कह सकते
हो, अब
मेरे किए कुछ
भी नहीं
होता--अब तू देख!
इह
संसारे
बहुदुस्तारे
कृपयाऽपारे
पाहि मुरारे।
उस
क्षण में
ही--कि देख, अब मुझसे
कुछ भी नहीं
होता, मैं
सब कर चुका; अब मैंने
कुछ बचा नहीं
रखा है जो
दांव पर लगाना
है; मैंने
अपने को पूरा
उंडेल दिया, फिर भी कुछ
नहीं होता--अब
तेरी कृपा की
जरूरत है। और
तब कृपा
निश्चित
मिलती है।
परमात्मा
तो मिलता सदा
प्रसाद से है; क्योंकि
तुम्हारा
प्रयास तो
बहुत छोटा है,
परमात्मा
बहुत बड़ा है।
प्रयास से तुम
उसे पा न
सकोगे। लेकिन
तुम्हारे
प्रयास से तुम
उस जगह के
करीब आते हो, जहां बूंद
राजी हो जाती
है सागर को
झेलने को।
आखिरी
प्रश्न:
आपने
कहा, दुख
में उसे जीओ, उसका कारण
ढूंढो और
जागो। जागे तो
क्या?
सपना
नहीं बचेगा; जो जाना है
अब तक, वह
कुछ भी नहीं
बचेगा। और
इसलिए कहना
मुश्किल है कि
जागे तो क्या;
क्योंकि
तुम्हारी
भाषा तो सब
नींद की है।
अभी तो तुमसे
जो भी कहा जा
सकता है और
तुम समझ सकते
हो, वह
सपने की भाषा
में होगा। अगर
मैं कहूं, सुख
मिलेगा। तो
तुम वही सुख
समझोगे जो
तुमने सपने
में जाना है।
अगर मैं कहूं,
दुख न
मिलेगा। तो
तुम वही दुख
जानोगे जो
तुमने सपने
में जाना
है--सोचोगे, नहीं
मिलेगा।
इसलिए
बुद्धपुरुष
चुप रह गए। जब
भी किसी ने
पूछा कि जाग
कर क्या होगा? तो चुप रह गए;
उन्होंने
कहा--जागो और
देखो।
क्योंकि
तुम्हारी
भाषा में जो
भी समझ में आ
सके, उसके
पार है बात। न
तो तुम्हारा
दुख है वहां, न तुम्हारा
सुख है वहां; न तुम्हारी
शांति है वहां,
न तुम्हारी
अशांति है
वहां; न
तुम्हारा संतोष,
न तुम्हारा
असंतोष; तुमने
जो भी अब तक
जाना है, वहां
कुछ भी नहीं
है। तुमने जो
शास्त्र अब तक
जाने हैं, वे
भी वहां नहीं
हैं। तुमने
परमात्मा की
जो प्रतिमा
बनाई हैं, वे
भी वहां नहीं
हैं। तुमने
मोक्ष और
स्वर्ग की जो
धारणाएं
निर्मित की
हैं, वे भी
वहां नहीं हैं।
तुम ही वहां
नहीं हो, तुम्हारी
धारणाएं वहां
नहीं होंगी।
कुछ है
अनिर्वचनीय, अव्याख्य--कहो
उसे ब्रह्म, कहो उसे
विष्णुपद, कहो
उसे जिनपद, कहो उसे
बुद्धत्व--लेकिन
उन शब्दों से
भी कुछ पता
नहीं चलता।
जागो तो ही
पता चल सकता
है।
गूंगे
केरी सरकरा!
जागे
क्या होगा? स्वाद
मिलेगा--उसका,
जिसका
स्वाद
जन्मों-जन्मों
तक पाना चाहा
है और मिला
नहीं। भटके, बहुत राख से
मुंह भरे, स्वाद
नहीं मिला है।
कोई उपाय नहीं
उसे कहने का।
अगर ऊब गए होओ
जिसे तुम जीते
रहे हो, तो
जागो। अगर अभी
थोड़ा और रस
बाकी है, थोड़ी
और एक करवट
लेकर सो लो।
लेकिन
एक न एक दिन
जागना पड़ेगा, नींद शाश्वत
नहीं हो सकती;
और नींद परम
विश्रांति भी
नहीं हो सकती;
और अंधकार
परम सत्य का
अनुभव भी नहीं
हो सकता।
देर-अबेर, तुम्हारे
ऊपर निर्भर
है। लेकिन जब
जागोगे, तब
पछताओगे बहुत
कि पहले भी
जाग सकते
थे--हाथ के
किनारे ही थी
बात, जरा
हाथ फैलाना
था।
जीसस
बार-बार कहते
हैं: रिपेंट!
दि किंगडम ऑफ
गॉड इज़ एट
हैंड। पछताओ!
परमात्मा का
राज्य बहुत
करीब है।
आज
इतना ही।
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