मेरे
प्रिय आत्मन्,
साधना
की परिधि
भूमिका के
संबंध में
हमने दो चरणों
पर बातें की
हैं, शरीर-शुद्धि
और
विचार-शुद्धि।
शरीर और विचार
से भी गहरा तल
भाव का, भावनाओं
का है। भाव की
शुद्धि
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
तत्व है।
परिधि की
भूमिका और
साधना में
शरीर और विचार
दोनों से
ज्यादा भाव की
शुद्धि की
उपयोगिता है।
यह
इसलिए कि
मनुष्य विचार
से बहुत कम
जीता है, मनुष्य
भाव से ज्यादा
जीता है। यह
कहा जाता है
कि मनुष्य एक
रैशनल एनिमल
है, एक
बौद्धिक
प्राणी है। यह
बात उतनी सच
नहीं है। आप
अपने जीवन में
विचार करके
बहुत कुछ, बहुत
कुछ नहीं करते
हैं। आप अधिक
जो करते हैं, वह भाव से
प्रभावित
होता है। आप
जो घृणा करते हैं,
आप जो क्रोध
करते हैं, आप
जो प्रेम करते
हैं, वह सब
भावनाओं से
संबंधित होता
है, विचारों
से संबंधित
नहीं।
जीवन
की अधिकतर
चर्या भाव के
जगत से उदभूत
होती है, विचार
के जगत से
नहीं। इसलिए
यह भी आपने
देखा होगा कि
आप विचार कुछ
करते हैं, लेकिन
समय पर काम
कुछ और कर
जाते हैं।
उसका कारण
विचार और भाव
में भिन्न
होना होता है।
आप तय करते
हैं कि मैं
क्रोध नहीं
करूंगा। आप
विचार करते
हैं कि क्रोध
बुरा है।
लेकिन जब
क्रोध आपको
पकड़ता है, तो
आपका विचार एक
तरफ पड़ा रह
जाता है और
क्रोध हो जाता
है।
जब तक
भाव के जगत
में परिवर्तन
न हो, केवल
विचार के जगत
में सोच-विचार
से कोई क्रांति
जीवन में नहीं
होती है।
इसलिए बहुत
आधारभूत, परिधि-साधना
में जो सबसे
आधारभूत
बिंदु है, वह
भावनाओं का है,
वह भावों का
है। भाव की
शुद्धि या
शुद्ध भावों
का प्रवर्तन कैसे
हो, इस
संबंध में आज
सुबह हम विचार
करें।
भाव की
जो विभिन्न
दिशाएं हैं, उनमें चार
पर मैं
सर्वाधिक जोर
देना पसंद करूंगा।
चार तत्वों की
बात करूंगा, जिनके
माध्यम से भाव
शुद्ध हो सकते
हैं। वे ही
चार तत्व
विपरीत होकर
अशुद्ध भावों
के जन्मदाता
बन जाते हैं। वे
चार भाव; उनमें
प्रथम है
मैत्री, द्वितीय
है करुणा।
प्रथम मैत्री,
द्वितीय
करुणा, तृतीय
प्रमुदिता और
चौथा
कृतज्ञता।
इन चार
भावों को अगर
कोई व्यक्ति
जीवन में साधे, तो
भाव-शुद्धि
उपलब्ध होती
है। इन चार के
विपरीत--मैत्री
के विपरीत
घृणा और वैर; करुणा के
विपरीत
क्रूरता, हिंसा
और अदया; प्रमुदिता,
प्रफुल्लता
के विपरीत
उदासी, विषाद,
संताप, चिंता;
और
कृतज्ञता के
विपरीत
अकृतज्ञता--इनके
विपरीत जिसकी
जीवन और भाव
स्थिति हो, वह अशुद्ध
भाव में है।
इन चार में जो
प्रतिष्ठित
हो, वह
शुद्ध भाव में
प्रतिष्ठित
है।
यह हम
विचार करें कि
हमारी भाव की
परिधि किन बातों
से प्रभावित
होती है और
संचालित होती
है। क्या
हमारे जीवन
में मैत्री की
जगह वैर, वैमनस्य
ज्यादा
प्रमुख है? क्या हम
मैत्री की
बजाय दुश्मनी
से, शत्रुता
से ज्यादा
संचालित होते
हैं? क्या
हम ज्यादा
प्रभावित
होते हैं? क्या
हम ज्यादा
सक्रिय हो
जाते हैं? क्या
हमारे भीतर
शक्ति का उदभव
ज्यादा होता है?
जैसा
मैंने पीछे
कहा, क्रोध
में शक्ति है।
लेकिन मैत्री
में भी शक्ति
है। और जो
केवल क्रोध की
ही शक्ति को
पैदा करना
जानता है, वह
जीवन के एक
बहुत बड़े
हिस्से से
वंचित है।
जिसने मैत्री
की शक्ति को
जगाना नहीं
जाना, जो
केवल शत्रुता
में ही
शक्तिमान
होता है और मैत्री
की अवस्था में
शिथिल हो जाता
है...।
यह
आपको पता होगा, दुनिया के
सारे राष्ट्र
शांति के
दिनों में कमजोर
हो जाते हैं
और युद्ध के
दिनों में
शक्तिशाली हो
जाते हैं।
क्यों? क्योंकि
मैत्री की
शक्ति पैदा
करना हमें पता
नहीं है।
शांति हमारे
लिए शक्ति
नहीं है, अशक्ति
है। और यही
वजह है कि
भारत जैसे
मुल्क, जिन्होंने
शांति की बहुत
चर्चा की, प्रेम
की बहुत चर्चा
की, वे
शक्तिहीन हो
गए। क्योंकि
शक्ति पैदा
करने का
सामान्यतया
एक ही रास्ता
है, शत्रुता।
हिटलर
ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है, अगर
किसी राष्ट्र
को शक्तिमान
बनाना है, तो
या तो सच्चे
दुश्मन या
झूठे दुश्मन
पैदा करो।
अपने मुल्क को
समझाओ कि
दुश्मन आस-पास
हैं, चाहे
वे न हों। और
जब उनको यह
बोध होगा कि
दुश्मन आस-पास
हैं, शक्ति
का और ऊर्जा
का जन्म होगा।
इसलिए हिटलर ने
बिलकुल झूठे
दुश्मन खड़े
किए, यहूदी,
जिनसे कोई
मतलब न था। और
दस वर्ष उसने
प्रचार किया
और सारे मुल्क
को समझा दिया
कि यहूदी दुश्मन
हैं और इनसे
बचाव करना है,
और शक्ति
पैदा हो गयी।
जर्मनी
की सारी शक्ति
वैमनस्य से
पैदा हुई।
जापान की सारी
शक्ति वैमनस्य
से पैदा हुई।
आज सोवियत रूस
की या अमेरिका
की सारी शक्ति
वैमनस्य पर
है। अभी तक
मनुष्य का
इतिहास केवल
शत्रुता की
शक्ति को पैदा
करना जानता
है। मित्रता
की शक्ति का
हमें पता नहीं।
महावीर
और बुद्ध ने
और क्राइस्ट
ने मित्रता की
शक्ति की पहली
बुनियादें
रखी हैं। और
उन्होंने जो
कहा, अहिंसा
शक्ति है, या
क्राइस्ट ने
कहा कि प्रेम
शक्ति है, या
बुद्ध ने कहा
कि करुणा
शक्ति है, यह
हम सुनते हैं,
लेकिन हमें
पता नहीं।
तो मैं
आपको कहूं, अपने जीवन
में विचार
करें, आप
कब शक्तिशाली
अनुभव करते
हैं? जब आप
किसी से
शत्रुता में
होते हैं तब? या जब आप
किसी के प्रति
शांत और प्रेम
से भरे होते
हैं तब? तो
आपको ज्ञात
होगा, आप
शत्रुता की
स्थिति में
शक्तिशाली
होते हैं; और
जब आप शांत, अवैर की
स्थिति में
होते हैं, तो
आप अशक्त और
कमजोर हो जाते
हैं।
इसका
अर्थ है कि आप
एक अशुद्ध भाव
से प्रभावित
होते हैं। यह
अशुद्ध भाव की
जितनी
प्रगाढ़ता
हमारे भीतर
होगी, उतना
हम भीतर
प्रवेश नहीं
कर सकेंगे।
क्यों भीतर
प्रवेश नहीं
कर सकेंगे? बड़ा
महत्वपूर्ण
है यह बिंदु
समझ लेना।
शत्रुता
हमेशा
बहिर्केंद्रित
होती है। यानि
कोई व्यक्ति
बाहर होता है, उससे
शत्रुता होती
है। अगर बाहर
कोई व्यक्ति न
हो, तो
आपमें
शत्रुता नहीं
हो सकती। और
मैं आपको यह
कहूं, प्रेम
बहिर्केंद्रित
नहीं होता।
अगर बाहर कोई
भी न हो, तो
भी भीतर प्रेम
हो सकता है।
प्रेम
अंतःकेंद्रित
होता है, मैत्री
अंतःकेंद्रित
होती है। और
शत्रुता
पर-केंद्रित
होती है, वह
दूसरे से
संबंधित होती
है। घृणा बाहर
से परिचालित
होती है, प्रेम
भीतर से
उदभावित होता
है। प्रेम के
झरने भीतर से
बहते हैं।
घृणा की
प्रतिक्रिया
बाहर से पैदा
होती है।
अशुद्ध भाव
बाहर से
परिचालित
होते हैं, शुद्ध
भाव भीतर से बहते
हैं। अशुद्ध
और शुद्ध भाव
के भेद को ठीक से
समझ लें।
जो भाव
बाहर से
परिचालित
होते हैं, वे शुद्ध
नहीं हैं। तो
वह प्रेम, वह
पैशन, जिसको
हम प्रेम कहते
हैं, शुद्ध
नहीं है, क्योंकि
वह बाहर से
परिचालित है।
वही प्रेम शुद्ध
है, जो
भीतर से
प्रवाहित है,
बाहर से परिचालित
नहीं। इसलिए
हम अपने मुल्क
में प्रेम को
और मोह को अलग
कर देते हैं।
पैशन को, वासना
को और प्रेम
को हम अलग कर
देते हैं। वासना
बाहर से
परिचालित है।
बुद्ध
के या महावीर
के हृदय में
वासना तो नहीं
है, लेकिन
प्रेम है।
क्राइस्ट
एक गांव से
निकलते थे।
दोपहर थी घनी।
और वे काफी
थके-मांदे थे
और धूप बहुत
तेज थी। वे एक
बगीचे में एक
दरख्त के नीचे
विश्राम करने
को रुके। वह
भवन और वह
बगीचा एक
वेश्या का था।
उस वेश्या ने
क्राइस्ट को
उस दरख्त के नीचे
विश्राम करते
देखा। ऐसा
व्यक्ति कभी
उसके बगीचे
में विश्राम
नहीं किया था।
और ऐसे
व्यक्ति को
कभी उसने देखा
नहीं था। उसने
बहुत सुंदर
लोग देखे थे, उसने बहुत
स्वस्थ लोग
देखे थे।
लेकिन यह सौंदर्य
कुछ और था और
यह स्वास्थ्य
कुछ और था। वह
आकर्षित बंधी
हुई कब उस
दरख्त के पास
आ गयी, उसे
पता नहीं चला।
वह जब पास आकर
क्राइस्ट को देखने
लगी, उनकी
आंख खुली, वे
उठकर जाने को
हुए।
क्राइस्ट ने
उसे धन्यवाद
दिया कि 'धन्यवाद
इस छाया के
लिए, जो
तुम्हारे इस
दरख्त ने मुझे
दी, अब मैं
जाऊं। और मेरा
रास्ता लंबा
है।'
उस
वेश्या ने कहा, 'दो क्षण को
अगर मेरे भवन
के भीतर न गए, तो मेरे मन
का बहुत अपमान
होगा। दो क्षण
रुको।' और
उस वेश्या ने
कहा, 'यह
पहला मौका है
कि मैं किसी
को आमंत्रित
कर रही हूं।
लोग मेरे
द्वार आते हैं
और वापस लौटा दिए
जाते हैं। यह
पहला मौका है
जीवन में, मैं
किसी को
आमंत्रित कर
रही हूं।' क्राइस्ट
ने कहा, 'तुमने
कहा तो समझो
कि मैं आ ही
गया। लेकिन रास्ता
मेरा लंबा है,
मुझे जाने
दो।' क्राइस्ट
ने कहा, 'तुमने
कहा तो समझो
कि मैं आ ही
गया।' उस
वेश्या ने कहा,
'इससे मुझे
बड़ी पीड़ा
होगी। इसका
अर्थ होगा, आप इतना भी
प्रेम नहीं
दिखा सकते कि
मेरे भवन में
भीतर चल सकें!'
क्राइस्ट
ने कहा, 'स्मरण
रखना, मैं
अकेला आदमी हूं,
जो तुम्हें
प्रेम कर सकता
है। और जितने
लोग तुम्हारे
द्वार आए, वे
कोई प्रेम
नहीं करते
हैं।' क्राइस्ट
ने कहा, 'मैं
अकेला आदमी
हूं, जो
तुम्हें
प्रेम कर सकता
है। और जो
तुम्हारे द्वार
आए, वे
तुम्हें कोई
प्रेम नहीं
करते हैं।
क्योंकि उनके
पास प्रेम
नहीं है, वे
तुम्हारे
कारण आए हैं।
और मेरे भीतर
प्रेम है।'
प्रेम
दीए के प्रकाश
की भांति है।
अगर कोई भी यहां
न हो, तो
प्रकाश शून्य
में गिरता
रहेगा और कोई
निकलेगा तो उस
पर पड़ जाएगा।
और वासना और
मोह प्रकाश की
भांति नहीं
हैं। वे किसी
से प्रभावित
होंगे, तो
खिंचते हैं।
इसलिए वासना
एक तनाव है, एक टेंशन
है। प्रेम
तनाव नहीं है,
प्रेम में
कोई तनाव नहीं
है। प्रेम
अत्यंत शांत
स्थिति है।
अशुद्ध
भाव वे हैं, जो बाहर से
प्रभावित
होते हैं।
अशुद्ध भाव वे
हैं, जिनकी
तरंगें बाहर
की हवाएं
आपमें पैदा
करती हैं। और
शुद्ध भाव वे
हैं, जो
आपसे निकलते
हैं; बाहर
की हवाएं
जिन्हें
प्रभावित
नहीं करतीं।
महावीर
को और बुद्ध
को कभी हम इस
भाषा में नहीं
सोचते हैं कि
वे प्रेम करते
थे। मैं आपको
यह कहूं, वे
ही अकेले लोग
हैं, जो
प्रेम करते
हैं। लेकिन उस
प्रेम में और
आपके प्रेम
में फर्क है।
आपका प्रेम एक
संबंध है किसी
व्यक्ति से।
उनका प्रेम
संबंध नहीं है,
स्टेट आफ
माइंड है, स्टेट
आफ रिलेशनशिप
नहीं है। उनका
प्रेम कोई संबंध
नहीं है किसी
से। उनका
प्रेम उनके
चित्त की
अवस्था है।
यानि वे प्रेम
करने को मजबूर
हैं, क्योंकि
उनके पास कुछ
और करने को
नहीं है।
लोग
कहते हैं, महावीर को
लोगों ने
अपमानित किया,
पत्थर मारे,
कान में
खीले ठोंके और
उन्होंने सब
कुछ क्षमा कर
दिया। मैं
कहता हूं, वे
गलत कहते हैं।
महावीर ने
किसी को क्षमा
नहीं किया।
क्योंकि
क्षमा वे लोग
करते हैं, जो
क्रुद्ध हो
जाते हैं। और
महावीर ने उन
पर कोई दया
नहीं की। क्योंकि
दया वे लोग
करते हैं, जो
क्रूर होते
हैं। और
महावीर ने कोई
सोच-विचार
नहीं किया कि
मैं इनके साथ
बुरा व्यवहार
न करूं।
क्योंकि यह
सोच-विचार वे
लोग करते हैं,
जिनके मन
में बुरे
व्यवहार का
खयाल आ जाता
है।
फिर
महावीर ने
क्या किया? महावीर
मजबूर हैं, प्रेम के सिवाय
उनके पास देने
को कुछ भी
नहीं है। आप
कुछ भी करो, उत्तर में
प्रेम ही आ
सकता है। आप
एक फलों से लदे
हुए दरख्त को
पत्थर मारो, उत्तर में
फल ही गिर
सकते हैं। और
कोई रास्ता नहीं
है। इसमें
दरख्त कुछ भी
नहीं कर रहा
है, यह
मजबूरी है। और
आप जल से भरे
हुए झरने में
कैसी ही
बाल्टियां
फेंको, वे
गंदी हों या
सुंदर हों, या स्वर्ण
की हों या
लोहे की हों, इसके सिवाय
कोई रास्ता
नहीं है कि
झरना आपको पानी
दे दे। इसमें
झरने की कोई
खूबी नहीं है;
मजबूरी है।
तो जब प्रेम
चित्त की
अवस्था होती है,
तब वह एक
विवशता होती
है, उसे
देना ही पड़ेगा,
उसके सिवाय
कोई रास्ता
नहीं है।
तो वे
भाव, जो भीतर
से निकलते हैं,
जिनको आप
बाहर से
खींचते नहीं,
जिन्हें आप
बाहर से नहीं
खींच सकते हैं,
वे भाव
शुद्ध हैं। और
वे भाव, जो
बाहर के तूफान
आपमें लहरों
की तरह पैदा
करते हैं, वे
अशुद्ध हैं।
जो बाहर से
पैदा किए
जाएंगे, वे
आपमें बेचैनी
और परेशानी
पैदा करेंगे;
और जो भीतर
से निकलेंगे,
वे आपको
बहुत आनंद से
भर जाएंगे।
शुद्ध
और अशुद्ध भाव
के लिए पहली
बात यह स्मरण
रखें। शुद्ध
भाव चित्त की
अवस्था है।
अशुद्ध भाव
चित्त की
विकृति है, अवस्था
नहीं। अशुद्ध
भाव चित्त पर
बाहर का
परिणाम है; शुद्ध भाव
चित्त पर अंतस
का विकास है।
तो अपने जीवन
में यह विचार
करें कि मैं
जिन भावनाओं से
संचालित होता
हूं, वे
मेरे भीतर से
आते हैं या
दूसरे लोग
मुझमें पैदा
करते हैं?
मैं
रास्ते पर जा
रहा हूं और आप
मुझे एक गाली
देते हैं, और अगर मुझे
क्रोध पैदा
हुआ है, यह
अशुद्ध भाव
है। क्योंकि
आपने मुझमें
पैदा किया।
मैं रास्ते से
जा रहा हूं और
आप मुझे आदर
करते हैं, और
मैं प्रसन्न
हुआ। यह
अशुद्ध भाव
है। क्योंकि
यह आपने
मुझमें पैदा
किया है। मैं
रास्ते से जा
रहा हूं, आप
गाली देते हैं
या कि आप मेरी
प्रशंसा करते हैं
और मेरी
अवस्था वही
बनी रहती है
जो कि थी, गाली
देने के पहले
या प्रशंसा
करने के पहले,
वह शुद्ध
भाव है।
क्योंकि आपने
उसे पैदा नहीं
किया है; वह
मेरा है।
जो
मेरा है, वह
शुद्ध है। जो
मेरा है, वह
शुद्ध है; और
जो बाहर से
आता है, वह
अशुद्ध है।
बाहर से जो
आता है, वह
रिएक्शन है, वह
प्रतिध्वनि
है।
हम
वहां एक
इकोप्वाइंट
देखने गए थे
पीछे। और वहां
आवाज करिए, तो वहां से
पहाड़ उसको
दोहरा देते
थे। मैंने कहा
कि हममें से
अधिक लोग
इकोप्वाइंट
हैं। आप कुछ
कहिए, वे
दोहरा देते
हैं। उनके पास
अपना कुछ नहीं
है, वे
खाली पहाड़
हैं। आप कुछ
चिल्लाइए, वहां
से भी
चिल्लाहट
लौटती है। वह
उनकी नहीं है।
वह आपने पैदा
की थी। और
आपने जो पैदा
की थी, वह
आपकी नहीं थी;
वह किसी
दूसरे ने
आपमें पैदा की
थी।
हम सब
इकोप्वाइंट
हैं। और हमारे
पास अपनी कोई आवाज
नहीं है और
अपना कोई जीवन
नहीं है, अपना
कोई भाव नहीं है।
हमारे सब भाव
अशुद्ध हैं, क्योंकि वे
दूसरों के हैं,
उधार हैं।
यह
स्मरण रखें
पहला सूत्र कि
भाव मेरे हों, वे
प्रतिक्रियाएं
न हों, वे
मेरे चित्त की
अवस्थाएं
हों। ऐसी
चित्त की अवस्थाओं
को चार भागों
में मैंने
विभाजित किया।
पहला, मैत्री।
मैत्री
साधनी होगी।
मैत्री इसलिए
साधनी होगी, क्योंकि
मैत्री का जो
शक्ति बिंदु
है हमारे भीतर,
उसके
विकसित होने
के जीवन बहुत
कम मौके देता
है। वह
अविकसित पड़ा
रहता है, वह
बीज की तरह
हमारे
मनोभूमि में
पड़ा रहता है, विकसित नहीं
हो पाता।
शत्रुता का
बीज एकदम विकसित
हो जाता है।
क्यों? उसके
भी प्राकृतिक
कारण हैं, वह
भी जरूरत है।
वह जरूरत जरूर
है, लेकिन
जीवनभर की
संगी और साथी
होने की जरूरत
नहीं है। उसकी
एक दिन जरूरत
है, एक दिन
उसे छोड़ देने
की भी जरूरत
है।
बच्चा
जब पैदा होता
है, पैदा
होते से ही वह
जो अनुभव करता
है, पैदा
होते से जो
उसे अनुभव होता
है, वह
प्रेम का नहीं
होता। बच्चे
को पैदा होते
से ही जो
अनुभव होता है,
वह भय का, फियर का
होता है। और
स्वाभाविक है,
एक छोटा-सा
बच्चा, जो
मां के पेट
में बड़ी
व्यवस्था और
सुविधा में था,
जहां कोई
अड़चन न थी, कोई
परेशानी न थी।
भोजन कमाने की,
पानी पीने
की कोई चिंता
न थी। वहां वह
बड़ी ही सुखद
निद्रा में
सोया हुआ था
और जी रहा था।
जब वह मां के
पेट के बाहर
आता है, एक
छोटा-सा बच्चा,
सब तरह से
कमजोर, उसे
जो पहला अनुभव,
जो पहला
आघात होता है,
वह भय का
होता है। और
अगर भय का
आघात हो, तो
जिनको वह
देखता है, उनके
प्रति प्रेम
पैदा नहीं
होता, उनसे
डर पैदा होता
है। और जिनसे
डर पैदा होता है,
उनके प्रति
घृणा पैदा
होती है।
इसे
नियम समझ लें।
भय कभी प्रेम
नहीं पैदा करता
है। किसी ने
अगर कहा हो कि
भय के बिना
प्रीति नहीं
होती, तो
बिलकुल गलत
कहा है। भय हो
तो प्रीति हो
ही नहीं सकती।
भय में कभी
प्रीति नहीं
होती। और ऊपर
से प्रीति अगर
दिखायी भी जाए,
तो भीतर
अप्रीति होती
है।
इस
दुनिया में
जितनी प्रीति
हम देखते हैं, वह अधिकतर
भय पर खड़ी हुई
है। और भय पर
जो प्रीति खड़ी
हुई है, वह
झूठी है।
इसलिए ऊपर से
प्रीति रहती
है और भीतर से
घृणा सरकती
रहती है। हम
जिन-जिन को
प्रेम करते हैं,
उन्हीं को
घृणा भी करते
हैं। क्योंकि
प्रीति ऊपर
होती है, घृणा
नीचे होती है,
क्योंकि हम
उनसे भयभीत
होते हैं।
स्मरण
रखें, जो
व्यक्ति किसी
को भयभीत कर
रहा है, वह
अपने प्रेम
पाने के अवसर
खो रहा है।
अगर पिता अपने
पुत्र को
भयभीत कर रहा
है, वह
उसके प्रेम को
नहीं पा
सकेगा। अगर
पति अपनी
पत्नी को
भयभीत कर रहा
है, वह
उसके प्रेम को
नहीं पा
सकेगा। वह
प्रेम का अभिनय
पा सकता है, प्रेम नहीं
पा सकेगा।
क्योंकि
प्रेम केवल अभय
में विकसित
होता है, भय
में विकसित
नहीं होता।
बच्चे
का जैसे ही
जन्म होता है, वह भय को
अनुभव करता
है। और इसलिए
उसकी शत्रुता
के बिंदु तो
सक्रिय हो
जाते हैं, प्रेम
के बिंदु
सक्रिय नहीं
हो पाते।
प्रेम के
बिंदु अधिकतर
लोगों के
जीवनभर बिना
सक्रिय हुए ही
समाप्त हो
जाते हैं, क्योंकि
जीवन उनका कोई
मौका नहीं
देता। जिसे आप
प्रेम करके
जानते हैं, वह भी प्रेम
नहीं है, वह
भी केवल
कामवासना है।
वह भी केवल
कामवासना है,
वह भी प्रेम
नहीं है।
प्रेम तो केवल
साधना से विकसित
होता है।
इसलिए
मैत्री का और
प्रेम का
हमारे भीतर जो
बिंदु है, उसे विकसित
करना होगा, सारी
प्रकृति के
खिलाफ विकसित करना
होगा, क्योंकि
प्रकृति उसे
विकसित होने
का मौका नहीं
देती है। जो
आप जीवन पाते
हैं, वह
उसे मौका नहीं
देता। उसमें
केवल शत्रुता
विकसित होती
है। और जिसको
हम मैत्री
कहते हैं, वह
मैत्री केवल
औपचारिकता
होती है और
शिष्टाचार
होती है। वह
मैत्री केवल
एक व्यवस्था होती
है शत्रुता से
बचने की, शत्रुता
को पैदा न कर
लेने की।
लेकिन वह
मैत्री नहीं
होती। मैत्री
बड़ी अलग बात
है।
उस
बिंदु को कैसे
विकसित करें? कैसे हमारे
भीतर मैत्री
का भाव पैदा
होना शुरू हो?
उसका भाव
करना होगा।
मैत्री का सतत
भाव करना होगा।
जो भी हमारे
चारों तरफ लोग
हैं, उनके
प्रति मैत्री
का संदेश
भेजना होगा, मैत्री की
किरणें भेजनी
होंगी। और
अपने भीतर उस
मैत्री के
बिंदु को
निरंतर
सचेष्ट करना
होगा और
सक्रिय करना
होगा।
जब आप
नदी के किनारे
बैठे हों, तो नदी की
तरफ प्रेम
भेजिए। इसलिए
नदी का नाम ले
रहा हूं कि
किसी आदमी की
तरफ प्रेम
भेजने में
थोड़ी दिक्कत
हो सकती है।
एक दरख्त के
प्रति प्रेम
भेजिए। इसलिए
दरख्त की बात
कह रहा हूं कि
एक आदमी की
तरफ भेजने में
थोड़ी कठिनाई
हो सकती है।
सबसे पहले
प्रकृति की
तरफ प्रेम
भेजिए। प्रेम
का बिंदु सबसे
पहले प्रकृति की
तरफ विकसित हो
सकता है।
क्यों? क्योंकि
प्रकृति आप पर
कोई चोट नहीं
कर रही है।
पुराने
दिनों में, अदभुत लोग
थे, सारे
जगत के प्रति
प्रेम का
संदेश भेजते
थे। सुबह सूरज
ऊगता था, तो
हाथ जोड़कर उसे
नमस्कार कर
लेते थे। और उसे
कहते कि 'धन्य
हो। और
तुम्हारी
करुणा अपार है
कि तुम हमें
प्रकाश देते
और तुम हमें
रोशनी देते।'
यह
पूजा कोई
पैगेनिज्म
नहीं था, यह
पूजा कोई
नासमझी नहीं
थी। इसमें
अर्थ थे, इसमें
बड़े अर्थ थे।
जो व्यक्ति
सूरज के प्रति
प्रेम से भर
जाता था, जो
व्यक्ति नदी
को मां कहकर
प्रेम से भर
जाता था, जो
जमीन को माता
कहकर उसके
स्मरण से
प्रेम से भर
जाता था, यह
असंभव था कि
वह आदमियों के
प्रति अप्रेम
से भरा हुआ
ज्यादा दिन रह
जाए। यह असंभव
है। अदभुत लोग
थे, उन्होंने
सारी प्रकृति
की तरफ प्रेम
के संदेश भेजे
थे। और सब तरफ
पूजा और प्रेम
और भक्ति को
विकसित किया
था।
जरूरत
है इसकी। अगर
प्रेम का
अंकुर भीतर
पैदा करना है, तो सबसे
पहले उसका
संदेश
प्रकृति की
तरफ भेजना
होगा। हम तो
ऐसे अजीब लोग
हैं कि रात
पूरा चांद भी
ऊपर खड़ा रहेगा
और हम नीचे
बैठकर ताश खेलते
रहेंगे और रमी
खेलते
रहेंगे। और हम
हिसाब-किताब
लगाते रहेंगे
कि एक रुपया
हार गए हैं या
एक रुपया जीत
गए हैं! और
चांद ऊपर खड़ा
रहेगा और
प्रेम का एक
इतना अदभुत
अवसर व्यर्थ
खो जाएगा।
चांद
आपके उस
केंद्र को जगा
सकता था। अगर
चांद के पास
दो क्षण
मंत्रमुग्ध
बैठकर आपने
प्रेम का
संदेश भेजा
होता, तो
उसकी किरणों
ने आपके भीतर
कोई बिंदु
सक्रिय कर दिया
होता, कोई
तत्व, और
आप प्रेम से
भर गए होते।
चारों
तरफ मौके हैं।
चारों तरफ
मौके हैं, यह पूरी
प्रकृति बहुत
अदभुत चीजों
से भरी हुई है।
उनकी तरफ
प्रेम करिए।
और प्रेम का
कोई भी मौका आ
जाए, उसे
खाली मत जाने
दीजिए, उसका
उपयोग कर
लीजिए। उसका
उपयोग इसलिए
कि अगर रास्ते
से आप जा रहे
हैं और एक
पत्थर पड़ा है,
तो उसे हटा
दीजिए। यह
बिलकुल मुफ्त
में मिला हुआ
उपयोग है, जो
आपके जीवन को
बदल देगा। यह
बिलकुल
सस्ता-सा काम
है। इससे
सस्ती और
साधना क्या
होगी कि आप रास्ते
से निकले हैं
और एक पत्थर
पड़ा था और
आपने उठाकर
उसे किनारे रख
दिया है। न
मालूम कौन
अपरिचित वहां
से निकलेगा! और
न मालूम कौन
अपरिचित उस
पत्थर से चोट
खाएगा! आपने
प्रेम का एक
कृत्य किया
है।
मैं
आपको इसलिए कह
रहा हूं, बड़ी
छोटी-छोटी
बातें जिंदगी
में प्रेम के
तत्व को
विकसित करती
हैं, बहुत
छोटी-छोटी
बातें। एक
रास्ते पर एक
बच्चा रो रहा
है। आप चले
जाते हैं। आप
खड़े होकर दो
क्षण उसके
आंसू नहीं
पोंछ सकते!
अब्राहिम
लिंकन एक
सीनेट की बैठक
में अपनी जा रहा
था, बीच में
एक सूअर फंस
गया एक नाली
में। वह भागा हुआ
गया और उसने
कहा कि 'सीनेट
को थोड़ी देर
रोकना। मैं
अभी आया।' यह
बड़ी अजीब बात
थी। अमेरिका
की संसद शायद
ही कभी रुकी
हो इस तरह से।
वह वापस लौटा,
उसने सूअर
को निकाला।
उसके सब कपड़े
मिड़ गए कीचड़
में। उसे नाली
से बाहर
निकालकर उसने
रखा, फिर
वह अंदर गया।
लोगों ने पूछा,
'क्या बात
थी? इतने
आप घबराए हुए काम
रोककर बाहर
क्यों गए!' तो
उसने कहा, 'एक
प्राण संकट
में था।'
यह
प्रेम का
कितना सरल-सा
कृत्य था, लेकिन कितना
अदभुत है। और
ये छोटी-छोटी
बातें...। अब
मैं देखता हूं,
ऐसे लोग हैं,
जो इसलिए
पानी छानकर
पीएंगे कि कोई
कीड़ा न मर जाए,
लेकिन उनके
मन में प्रेम
नहीं है। तो
उनका पानी
छानना बेकार
है। वह उनके
लिए बिलकुल ही
मेकेनिकल
हैबिट की बात
है कि वे पानी
छानकर पीते हैं;
कि वे रात
को खाना नहीं
खाते, क्योंकि
कोई कीड़ा न मर
जाए। लेकिन
उनके हृदय में
प्रेम नहीं है,
तो इससे कोई
मतलब नहीं है।
मतलब
इससे नहीं है
कि पानी छानकर
पीते हैं, कि रात को
खाना नहीं
खाते हैं; कि
मांसाहार
नहीं करते हैं,
इससे भी
मतलब नहीं है।
एक ब्राह्मण
या एक जैन या
एक बौद्ध
मांसाहार
नहीं करेगा, तो यह मत
समझना कि उसका
मन प्रेम से
भरा हुआ है।
यह केवल आदत
की बात है, यह
केवल वंश-परंपरागत
सुनी हुई बात
है, समझी
हुई बात है।
लेकिन उसके मन
में प्रेम नहीं
है।
हां, अगर यह आपके
प्रेम से
विकसित हो, तो यह अदभुत
बात हो जाएगी।
अहिंसा तब परम
धर्म है, जब
वह प्रेम से
विकसित हो।
अगर वह
ग्रंथों को पढ़कर
और किसी
संप्रदाय को
मानकर विकसित
हो जाए, वह
कोई धर्म ही
नहीं है।
तो
जीवन में बड़े
छोटे-छोटे काम
हैं, बड़े
छोटे-छोटे काम
हैं। और हम
भूल ही गए
हैं। यानि मैं
आपसे यह कहता
हूं, जब आप
किसी के कंधे
पर हाथ रखते
हैं, तो
अपने सारे
हृदय के प्रेम
को अपने हाथ
से उसके पास
भेजें। अपने
सारे प्राण को,
अपने सारे
हृदय को उस
हाथ में
संकलित होने
दें और जाने
दें। और आप
हैरान होंगे,
वह हाथ जादू
हो जाएगा। और
जब आप किसी की
आंख में
झांकते हैं, तो अपनी
आंखों में
अपने सारे
हृदय को उंडेल
दें। और आप
हैरान हो
जाएंगे, वे
आंखें जादू हो
जाएंगी और वे
किसी के भीतर
कुछ हिला
देंगी। न केवल
आपका प्रेम
जागेगा, बल्कि
हो सकता है कि
दूसरे के
प्रेम जगने के
भी आप उपाय और
व्यवस्था कर
दें। जब कोई
एक ठीक से
प्रेम करने
वाला आदमी
पैदा होता है,
तो लाखों
लोगों के भीतर
प्रेम सक्रिय
हो जाता है।
ये
मैत्री और
प्रेम के
बिंदु को
उठाने के लिए जो
भी आपको मौका
मिले, उसे
मत खोएं। और
उसके मौका
मिलने के लिए
एक सूत्र याद
रखें। नियमित
चौबीस घंटे
में यह स्मरण
रखें कि एक-दो
काम ऐसे जरूर
करें, जिनके
बदले में आपको
कुछ भी नहीं
लेना है। चौबीस
घंटे हम काम
कर रहे हैं।
उन कामों को
हम इसलिए कर
रहे हैं कि
बदले में हम
कुछ चाहते
हैं। चौबीस
घंटे में
नियमपूर्वक
कुछ काम ऐसे
करें, जिनके
बदले में आपको
कुछ भी नहीं
लेना है। वे काम
प्रेम के
होंगे और आपके
भीतर प्रेम को
पैदा करेंगे।
अगर एक
व्यक्ति दिन
में एक काम भी
ऐसा करे जिसके
बदले में उसकी
कोई आकांक्षा
नहीं है, उसका
उसे बहुत बड़ा
बदला मिल जाएगा,
क्योंकि
उसके भीतर
प्रेम का
केंद्र
सक्रिय हो
जाएगा और
विकसित होगा।
तो कुछ
करें, जिसके
बदले में आपको
कुछ भी नहीं
चाहिए; कुछ
भी नहीं
चाहिए। उससे
मैत्री
धीरे-धीरे विकसित
होगी। एक घड़ी
आएगी कि आप
केवल उनके
प्रति
मैत्रीपूर्ण
हो पाएंगे, जो आपके
प्रति
शत्रुतापूर्ण
नहीं हैं। फिर
और विकास होगा
और एक घड़ी आएगी,
आप उनके
प्रति भी
मैत्रीपूर्ण
हो सकेंगे, जो आपके
प्रति
शत्रुतापूर्ण
हैं। और एक
घड़ी आएगी, कि
आपको समझ में
नहीं आएगा कि
कौन मित्र है
और कौन शत्रु
है।
महावीर
ने कहा है, 'मित्ति मे
सब्ब भुएषु
वैरं मज्झ न
केवई। सब मेरे
मित्र हैं और
किसी से मेरा
वैर नहीं है।'
यह कोई
विचार नहीं है, यह भाव है।
यानि यह कोई
सोच-विचार
नहीं है, यह
भाव की स्थिति
है कि कोई
मेरा शत्रु
नहीं है। और
कोई मेरा
शत्रु नहीं, यह कब होता
है? जब मैं
किसी का शत्रु
नहीं रह जाता
हूं। यह तो हो
सकता है कि महावीर
के कुछ शत्रु
रहे हों, लेकिन
महावीर कहते
हैं, कोई
मेरा शत्रु
नहीं है। इसका
मतलब क्या है?
इसका मतलब
है, मैं
किसी का शत्रु
नहीं। और
महावीर कहते
हैं, मेरा
वैर किसी के
प्रति नहीं
है। कितने
आनंद की घटना
नहीं घटी
होगी!
आप एक
व्यक्ति को
प्रेम कर लेते
हैं, कितना
आनंद उपलब्ध
होता है। और
जिस व्यक्ति
को सारे जगत
को प्रेम करने
की संभावना
खुल जाती होगी,
उसके आनंद
का कोई ठिकाना
है! यह सौदा
महंगा नहीं
है। आप खोते
कुछ नहीं हैं
और पा बहुत
लेते हैं।
इसलिए
मैं महावीर को, बुद्ध को
त्यागी नहीं
कहता हूं। इस
जगत में सबसे
बड़ा भोग
उन्हीं लोगों
ने किया है।
इस जगत में सबसे
बड़ा भोग
उन्हीं लोगों
ने किया है।
त्यागी आप हो
सकते हैं, वे
नहीं। आनंद के
इतने अपरिसीम
अनंत द्वार उन्होंने
खोले। इस जगत
में जो भी
श्रेष्ठतम था,
जो भी सुंदर
था, जो भी
शुभ था, सबको
उन्होंने
पीया और जाना।
और आप क्या
जान रहे हैं? सिवाय जहर
के आप कुछ भी
नहीं जान रहे
हैं। और उन्होंने
अमृत को जाना।
तो मैं
आपको यह कहूं
कि प्रेम की
वह अंतिम चरम घड़ी, जब हम सारे
जगत के प्रति
प्रेम को
विस्तीर्ण कर
पाते हैं और
हमारे हृदय से
किरणें बहती
रहती हैं, उसके
लिए जीवन को
साधना होगा। कोई
कृत्य प्रेम
का रोज जरूर
करें, सचेत
करें। और सारे
दिन हजार मौके
हैं, जब आप
प्रेम जाहिर
कर सकते हैं।
लेकिन आदतें हमारी
खराब हैं।
प्रेम जाहिर
करने के सारे
मौके हम खो
देते हैं और
घृणा जाहिर
करने का एक भी
मौका नहीं
खोते! घृणा
जाहिर करने के
जितने मौके खो
सकें, उतना
शुभ है। और
प्रेम जाहिर
करने के जितने
मौके पकड़ सकें,
उतना शुभ
है। घृणा के
मौके को खाली
जाने दें। एकाध
मौके को सचेत
होकर खाली
जाने दें और
प्रेम के एकाध
मौके को सचेत
होकर पकड़ें।
इससे साधना
में अदभुत गति
आएगी।
तो
पहला सूत्र है, मैत्री।
दूसरा सूत्र
है, करुणा।
करुणा मैत्री
का ही एक रूप
है। उसे अलग
इसलिए कह रहे
हैं कि उसमें
कुछ अलग भाव
भी हैं। अलग
भावों से मतलब
है, इस जगत
में अगर आप
अपने आस-पास
के लोगों पर
थोड़ा विचार
करेंगे, तो
आप उनके प्रति
बहुत करुणा से
भर जाएंगे।
अब हम
यहां इतने लोग
बैठे हुए हैं।
नहीं कह सकता, सांझ इनमें
से कोई समाप्त
हो जाए। एक
सांझ तो सब
समाप्त हो ही
जाएंगे। एक न
एक दिन हममें
से हर आदमी
चुक जाएगा।
अगर मुझे यह
खयाल हो कि जो लोग
मेरे सामने
बैठे हैं, हो
सकता है, इनमें
से कोई चेहरे
मैं दुबारा
नहीं देख पाऊंगा,
तो क्या
मेरे हृदय में
उनके प्रति
करुणा पैदा
नहीं होगी?
एक
बगीचे में
अभी-अभी मैं
गया। और वहां
फूल खिले हैं, सांझ वे
मुर्झा
जाएंगे।
छोटी-सी घड़ी
है उनके जीवन
की। अभी खिले
हैं सुबह, सांझ
मुर्झा
जाएंगे। क्या
इस बात का
स्मरण कि ये
फूल जो अभी
मुस्कुरा रहे
हैं, सांझ
गिर जाएंगे और
धूल में मिल जाएंगे,
उनके प्रति
करुणा को पैदा
नहीं कर देगा?
क्या यह
खयाल कि रात
में जो तारे
हैं, उनमें
से कोई टूट
जाता है और
बिखर जाता है,
क्या तारों
के प्रति
करुणा को पैदा
नहीं कर देगा?
अगर बोध हो,
तो चारों
तरफ देखने पर
हरेक के प्रति
करुणा मालूम
होगी, बहुत
दया मालूम होगी।
इतना थोड़ा यह
मिलन है, इतना
मुश्किल यह
जीवन है, इतनी
दुर्लभ यह
घटना है, और
इतनी वासनाएं
और इतनी
तृष्णाएं और
इतनी पीड़ाएं
हैं हरेक के
भीतर! फिर भी
हम किसी तरह
जीते हैं और
किसी तरह
प्रेम करते
हैं और किसी
तरह दो सुंदर
कृतियां
बनाते हैं। यह
कितनी करुणा नहीं
पैदा कर देगा!
बुद्ध
के ऊपर एक दफा
एक आदमी ने
आकर थूक दिया।
इतने गुस्से
में आ गया, उनके ऊपर
थूक दिया।
उन्होंने
उसको पोंछ
लिया और उस
आदमी से कहा, 'कुछ और कहना
है?' उनके
पास जो भिक्षु
था आनंद, उसने
कहा, 'आप
क्या बात कर
रहे हैं? उसने
कुछ कहा है? हमें आज्ञा
दें, हम
उसे ठीक करें।
यह तो हद्द हो
गयी कि वह
आपके ऊपर थूक
दे।' बुद्ध
ने कहा, 'वह
कुछ कहना
चाहता है। अब
भाषा असमर्थ
है।' बुद्ध
ने कहा, 'वह
कुछ कहना
चाहता है, भाषा
असमर्थ है, वेग तीव्र
है। कह नहीं
सका, क्रिया
से प्रकट किया
है।'
इसको
मैं कहता हूं
करुणा। बुद्ध
उस पर दया खाए
कि कितनी भाषा
असमर्थ है। वह
कुछ कहना
चाहता है, कोई बड़ी
क्रोध की बात
है, उसे
प्रकट करना
चाहता है।
शब्द नहीं मिल
रहे, थूककर
जाहिर किया
है।
जब कोई
मेरे पास
प्रेम से आकर
मेरे हाथ पर
हाथ रख लेता
है, तो कितनी
करुणा मालूम
होती है। वह
कुछ कहना चाहता
है, भाषा
असमर्थ है, हाथ पर हाथ
रखकर कुछ कहने
की कोशिश करता
है। जब कोई
किसी से गले
से गले मिलता
है, भाषा
असमर्थ है, आदमी कितना
कमजोर है, कुछ
कहना चाहता
है। हृदय को
हृदय के करीब
ले आता है, कोई
रास्ता नहीं
मिलता।
कल मैं
यहां से जाता
था। कुछ लोग
मेरे पैर पड़ने
लगे और मुझे
बड़ी करुणा आयी, आदमी कितना
असमर्थ है!
कुछ कहना
चाहता है और नहीं
कह पाता है और
पैर पकड़ लेता
है। मेरे पीछे
मेरे एक प्रिय
मित्र थे। वे
विचारशील
हैं। उन्होंने
कहा, 'न-न, यह मत करो।' उन्होंने भी
ठीक कहा।
कितना बुरा
हुआ है जगत में!
पैर पड़ने वाले
तो ठीक थे, पैर
पड़ाने वाले
पैदा हो गए
हैं। तो
उन्होंने ठीक
ही कहा कि, 'न-न,
यह मत करो।'
मुझे उनकी
बात ठीक लगी, लेकिन ठीक
नहीं भी लगी।
ठीक उन्होंने
कहा, यह
गलत है कि
दुनिया में
कोई किसी से
पैर पड़वाए।
लेकिन वह
दुनिया भी गलत
होगी, जिसमें
ऐसे लोग न रह
जाएं, जिनके
पैर पड़ने का
मन हो। और वह
दुनिया भी गलत
होगी, जहां
ऐसे हृदय न रह
जाएं, जो
किसी के पैर
में झुक जाएं।
और वह दुनिया
गलत होगी, जब
कि हममें ऐसे
भाव न उठें, जो बिना पैर
पकड़े जाहिर
नहीं हो सकते
हैं।
मेरी
आप बात समझते
हैं? वह
दुनिया गलत
होगी, जब
हममें ऐसे भाव
न उठें, जो
कि बिना पैर
पकड़े जाहिर
नहीं हो सकते
हैं। आदमी
बहुत सूखा और
बेमानी हो
जाएगा।
और फिर
मैं यह भी
आपको स्मरण
दिलाऊं; मैं
हैरान हुआ हूं,
जब मैंने
किसी को अपने
पैर में झुकते
देखा है, तो
मैंने पाया, वह मेरे पैर
नहीं पकड़े हुए
है। उसे मेरे
पैर में कुछ
दिख रहा है; वह शायद
परमात्मा के
ही पैर पकड़े
हुए है। और जब
भी कोई किसी
के पैर में
झुका है आज
तक--झुकाया न
गया हो वह--जब
भी कोई किसी
के पैर में
झुका है, वह
सिर्फ
परमात्मा के
पैर में झुका
है, वह
किसी के पैरों
में नहीं झुका
है। आखिर किसी
के पैरों में
क्या है, जिसमें
झुकने जैसा हो?
लेकिन कोई
भाव है भीतर, जिसके लिए
रास्ता नहीं
मिलता।
कल
मुझे प्रेम
करने वाला कोई
मेरे पास था
कमरे में। और
सांझ जब नहाने
जाने लगा और
मैंने बल्ब
जलाया, तो
उसने कहा कि 'प्रकाश हो
गया, मुझे
अपने पैर पकड़
लेने दें।' मैं बहुत
हैरान हुआ। और
उन्होंने मेरे
पैर पकड़ लिए।
और मैंने उनकी
आंखों में जो
आंसू देखे, उन आंसुओं
से सुंदर जमीन
पर कुछ भी
नहीं है। इस
जमीन पर उन
आंसुओं से
सुंदर न कोई
कविता है, न
कोई गीत है, जो किसी
प्रेम की घड़ी
में उत्पन्न
होते हैं। और
अगर इनके
प्रति बोध हो
और अगर इनका
स्मरण हो, अगर
ये दिखाई पड़ते
हों, तो
आपको कितनी
करुणा नहीं
मालूम होगी!
लेकिन
आप क्या देख
रहे हैं? आप
लोगों में वह
देख रहे हैं, जिनसे करुणा
तो नहीं पैदा
होती, निंदा
पैदा होती है।
आप लोगों में
वह देख रहे हैं,
जिनसे
करुणा तो पैदा
नहीं होती, क्रूरता
पैदा होती है।
आप लोगों में
वह देख रहे
हैं, जो
उनका असली
हिस्सा नहीं
है, जो
उनका हृदय
नहीं है, जो
उनकी
मजबूरियां
हैं। एक आदमी
मुझे गाली देता
है। यह कोई
हृदय है उसका?
यह उसकी
मजबूरी होगी।
बुरे से बुरे
आदमी के भीतर
एक हृदय है, जिस तक अगर
हमारी पहुंच
हो पाए, तो
हम बहुत करुणा
से भर जाएंगे,
बहुत करुणा
से भर जाएंगे।
बुद्ध
ने उस सुबह
कहा था, 'दया
आती है। दया
आती है, भाषा
कमजोर है
आनंद। आदमी का
हृदय बहुत कुछ
कहना चाहता है,
नहीं कह
पाता है।' उससे
कहा, 'कुछ
और कहना है?' वह आदमी और
क्या कहता! अब
तो कहना
मुश्किल हो गया।
वह लौट गया।
रात वह बहुत
पछताया। वह
दूसरे दिन
क्षमा मांगने
आया। वह पैरों
में गिर गया
और रोने लगा।
बुद्ध ने कहा,
'देखते हो
आनंद, भाषा
कमजोर है। अब
भी वह कुछ
कहना चहता है
और नहीं कह पा
रहा है। कल भी
उसने कुछ कहना
चाहा था और
नहीं कह पाया
था। तब भी
उसने कोई
कृत्य किया था,
अब भी कोई
कृत्य कर रहा
है। भाषा बहुत
कमजोर है आनंद,
और आदमी बड़ा
दया योग्य है।'
और चार
दिन का यह
जीवन है। और
चार दिन का भी
हम कहते हैं, चार घड़ी का
भी क्या है? और इस चार
घड़ी के मिलन
में अगर हम
करुणा से न भर जाएं
एक-दूसरे के
प्रति, तो
हम आदमी ही न
थे। हमने जीवन
को जाना भी नहीं,
हम पहचाने
नहीं।
तो
अपने चारों
तरफ करुणा को
फेंकें, अपने
चारों तरफ
परिचित हों।
कितने दुखी
हैं लोग! उनके
दुख में और
दुख को मत
बढ़ाएं। आपकी
करुणा उनके
दुख को कम
करेगी। एक
करुणा से भरा
हुआ शब्द उनके
दुख को कम
करेगा। उनके
दुख को और मत बढ़ाएं।
हम सब
एक-दूसरे के
दुख को बढ़ा
रहे हैं। हम
सब एक-दूसरे
को दुख देने
में सहयोगी
हैं। एक-एक
आदमी के पीछे
अनेक-अनेक लोग
पड़े हुए हैं
दुख देने को।
अगर करुणा का
बोध होगा, तो आप किसी
को दुख
पहुंचाने के
सारे रास्ते
अलग कर लेंगे।
और अगर किसी
के जीवन में
कोई सुख दे
सकते हैं, तो
उसे देने का
उपाय करेंगे।
और एक
बात स्मरण
रखें, जो
दूसरे को दुख
देता है, वह
अंततः दुखी हो
जाता है। और
जो दूसरे को
सुख देता है, वह अंततः
बहुत सुख को
उपलब्ध होता
है। इस वजह से
यह कह रहा हूं
कि जो सुख
देने की
चेष्टा करता
है, उसके
भीतर सुख के
केंद्र
विकसित होते
हैं; और जो
दुख देने की
चेष्टा करता
है, उसके
भीतर दुख के
केंद्र
विकसित होते
हैं।
फल
बाहर से नहीं
आते हैं, फल
भीतर पैदा
होते हैं। हम
जो करते हैं, उसी की
रिसेप्टिविटी
हमारे भीतर
विकसित हो जाती
है। जो प्रेम
चाहता है, प्रेम
को फैला दे।
और जो आनंद
चाहता है, वह
आनंद को लुटा
दे। और जो
चाहता है, उसके
घर पर फूलों
की वर्षा हो
जाए, वह
दूसरों के
आंगनों में
फूल फेंक दे।
और कोई रास्ता
नहीं है।
तो
करुणा का एक
भाव प्रत्येक
को विकसित
करना जरूरी है
साधना में
प्रवेश के
लिए।
तीसरी
बात है, प्रमुदिता,
उत्फुल्लता,
प्रसन्नता,
आनंद का एक
बोध, विषाद
का अभाव। हम
सब विषाद से
भरे हैं। हम
सब उदास लोग, थके लोग
हैं। हम सब
हारे हुए, पराजित,
रास्तों पर
चलते हैं और
समाप्त हो
जाते हैं। हम
ऐसे चलते हैं,
जैसे आज ही
मर गए हैं।
हमारे चलने
में कोई गति और
प्राण नहीं
है। हमारे
उठने-बैठने
में कोई प्राण
नहीं है। हम
सुस्त हैं, और उदास हैं,
और टूटे हुए
हैं, और
हारे हुए हैं।
यह गलत है।
जीवन कितना ही
छोटा हो, मौत
कितनी ही
निश्चित हो, जिसमें थोड़ी
समझ है, वह
उदास नहीं
होगा।
सुकरात
मरता था, उसको
जहर दिया जा
रहा था और वह
हंस रहा था।
और उसके एक
शिष्य क्रेटो
ने पूछा, 'हंसते
हैं! हमारी
आंखें आंसुओं
से भरी हुई
हैं। और मौत
करीब है और यह
विषाद का क्षण
है।' सुकरात
ने कहा, 'विषाद
कहां है? अगर
मरा और बिलकुल
ही मर गया, तो
विषाद क्या? क्योंकि दुख
को अनुभव करने
को कोई बचेगा
नहीं। और अगर
मरा और बचा
रहा, तो
दुख क्या? जो
खोया, वह
अपन न थे, जो
अपन थे वह बचे
हुए हैं।' तो
उसने कहा, 'मैं
खुश हूं। मौत
दो ही काम कर
सकती है। या
तो बिलकुल
मिटा देगी।
बिलकुल मिटा
देगी, तो
खुश हूं, क्योंकि
बचूंगा ही
नहीं दुख
अनुभव करने
को। और अगर
बचा देगी
मुझको, तो
खुश हूं।
क्योंकि जो
मेरा नहीं है,
वह नष्ट हो
जाएगा, मैं
तो बचूंगा।
मौत दो ही काम
कर सकती है, इसलिए हंसने
जैसी है।'
सुकरात
ने कहा, 'मैं
प्रसन्न हूं,
क्योंकि
मौत क्या छीन
लेगी? या
तो बिलकुल ही
मिटा देगी, तो क्या
छीना? क्योंकि
अब जिससे छीना,
वह भी नहीं
है, तो दुख
का कोई अनुभव
नहीं होगा। और
अगर मैं बच
रहा, तो सब
बच रहा। मैं
बच रहा, तो
सब बच रहा। जो
छीन लिया, वह
मेरा नहीं था।'
तो इसलिए
सुकरात ने कहा,
'मैं खुश
हूं।'
जो मौत
के सामने खुश
है--और हम हैं
कि हम जिंदगी को
पाए हुए दुखी
बैठे हुए हैं।
हम हैं कि हम
जिंदगी में
दुखी बैठे हुए
हैं और लोग
ऐसे भी हुए हैं
कि जो मौत के
सामने भी खुश
थे!
मंसूर
को वे सूली दे
रहे थे। उसके
पैर काट दिए, उसके हाथ
काट दिए, उसकी
आंखें फोड़
दीं। दुनिया
में उससे कठोर
यातना कभी
किसी को नहीं
दी गयी।
क्राइस्ट को
जल्दी मार
डाला गया, गांधी
को जल्दी गोली
मार दी गयी, सुकरात को
जहर दे दिया गया।
मंसूर मनुष्य
के इतिहास में
सबसे ज्यादा
पीड़ा से मारा
गया। पहले
उसके पैर काट
दिए। जब उसके
पैरों से खून
बहने लगा, तो
उसने खून को
लेकर अपने
हाथों पर
लगाया। भीड़
इकट्ठी थी, लोग पत्थर
फेंक रहे थे।
उन्होंने
पूछा, 'यह
क्या कर रहे
हो?' उसने
कहा, 'वजू
करता हूं।' मुसलमान
नमाज के पहले
हाथ धोते हैं।
उसने अपने खून
से अपने हाथ
धोए। उसने कहा,
'वजू करता
हूं।' और
उसने कहा, 'याद
रहे मंसूर का
यह वचन कि जो
प्रेम की वजू
है असली, वह
खून से की
जाती है, पानी
से नहीं की
जाती। और जो
अपने खून से
वजू करता है, वही नमाज
में प्रवेश करता
है।'
लोग
बहुत हैरान
हुए कि पागल
है। उसके पैर
काट दिए गए, फिर उसके
हाथ काट दिए
गए। फिर उसकी
उन्होंने आंखें
फोड़ दीं। और
एक लाख लोग
इकट्ठे हैं और
पत्थर मार रहे
हैं और उसका
एक-एक अंग
काटा जा रहा है।
और जब उसकी
आंखें फोड़ दी
गयीं, तब
वह चिल्लाया
कि 'हे
परमात्मा, स्मरण
रखना। मंसूर
जीत गया।'
लोगों
ने पूछा, 'क्या
बात है? किस
बात में जीत
गए?' उसने
कहा, 'परमात्मा
को कह रहा
हूं।
परमात्मा
स्मरण रखना, मंसूर जीत
गया। मैं डरता
था कि शायद
इतनी शत्रुता
में प्रेम
कायम नहीं रह
सकेगा। तो
स्मरण रखना
परमात्मा कि
मंसूर जीत
गया। प्रेम
मेरा कायम है।
इन्होंने जो
मेरे साथ किया
है, मेरे
साथ नहीं कर
पाए।
इन्होंने जो
मेरे साथ किया
है, मेरे
साथ नहीं कर
पाए। प्रेम
कायम है।' और
उसने कहा, 'यही
मेरी
प्रार्थना है
और यही मेरी
इबादत है।'
मंसूर
उस वक्त भी
हंस रहा था, उस वक्त भी
मस्त था। लोग
मौत के सामने
खुश रहे हैं
और हंसते रहे
हैं। और हम जिंदगी
के सामने उदास
और रोते हुए
बैठे हैं। यह
गलत है। कोई
उदास रास्ते,
कोई विषाद
से भरा हुआ
चित्त कोई बड़े
अभियान नहीं
कर सकता है।
अभियान के लिए
उत्फुल्लता, अभियान के
लिए बड़े आनंद
से भरा हुआ
चित्त।
तो
चौबीस घंटे
उत्फुल्लता
को साधिए। ये
सिर्फ आदतें
हैं। उदासी एक
आदत है, जिसको
आपने बना लिया
है।
उत्फुल्लता
एक आदत है, उसको
बना सकते हैं।
उत्फुल्लता
को बनाए रखने के
लिए जरूरी है
कि जिंदगी का
वह हिस्सा
देखिए, जो
प्रकाशित है;
वह हिस्सा
नहीं, जो
अंधेरे से भरा
है।
मैं
अगर आपको कहूं
कि 'मेरा कोई
मित्र है और
यह बहुत अदभुत
गीत गाता है
या बहुत अदभुत
बांसुरी
बजाता है।' आप मुझसे
कहेंगे, 'होगा।
यह क्या
बांसुरी
बजाएगा! इसको
हमने शराबखाने
में शराब पीते
देखा है!' मैं
अगर आपसे कहूं
कि 'मेरा
मित्र है और
बहुत अदभुत
बांसुरी
बजाता है।' तो आप
कहेंगे, 'यह
क्या बांसुरी
बजाएगा! हमने
इसे शराबखाने
में शराब पीते
देखा है।' यह
अंधेरा देखना
है।
अगर
मैं आपसे कहूं
कि 'ये मेरे
मित्र हैं, शराब पीते
हैं।' और
आप मुझसे कहें,
'होगा।
लेकिन ये तो
अदभुत
बांसुरी
बजाते हैं!' तो यह
जिंदगी के
प्रकाशित पक्ष
को देखना है।
जिसको
खुश होना है, वह प्रकाश
को देखे।
जिसको खुश
होना है, वह
यह देखे कि दो
दिनों के बीच
में एक रात
है। और जिसको
उदास होना है,
वह यह देखे
कि दो रातों
के बीच में एक
दिन है। हम
कैसा देखते
हैं जिंदगी को,
वैसा हमारे
भीतर कुछ
विकसित हो
जाता है। तो जिंदगी
के अंधेरे
पक्ष को न
देखें।
जिंदगी के उजाले
पक्ष को
देखें।
मैं
छोटा था और
मेरे पिता
गरीब थे।
उन्होंने बड़ी
मुश्किल से एक
अपना मकान
बनाया। गरीब
भी थे और
नासमझ भी थे, क्योंकि कभी
उन्होंने
मकान नहीं
बनाए थे। उन्होंने
बड़ी मुश्किल
से एक मकान
बनाया। वह मकान
नासमझी से बना
होगा। वह बना
और हम उस मकान
में पहुंचे भी
नहीं और वह
पहली ही बरसात
में गिर गया।
हम छोटे थे और
बहुत दुखी
हुए। वे गांव
के बाहर थे।
उनको मैंने
खबर की कि
मकान तो गिर
गया और बड़ी
आशाएं थीं कि
उसमें
जाएंगे। वे तो
सब धूमिल हो
गयीं। वे आए
और उन्होंने गांव
में प्रसाद
बांटा और
उन्होंने कहा,
'परमात्मा
का धन्यवाद!
अगर आठ दिन
बाद गिरता, तो मेरा एक
भी बच्चा नहीं
बचता।' हम
आठ दिन बाद ही
उस घर में
जाने को थे।
और वे उसके
बाद जिंदगीभर
इस बात से खुश
रहे कि मकान
आठ दिन पहले
गिर गया। आठ
दिन बाद गिरता,
तो बहुत
मुश्किल हो
जाती।
यूं भी
जिंदगी देखी
जा सकती है।
और जो ऐसे देखता
है, उसके
जीवन में बड़ी
प्रसन्नता, बड़ी
प्रसन्नता का
उदभव होता है।
आप जिंदगी को कैसे
देखते हैं, इस पर सब
निर्भर है।
जिंदगी में
कुछ भी नहीं है।
आपके देखने पर,
आपका
एटीटयूड, आपकी
पकड़, आपकी
समझ, आपकी
दृष्टि सब कुछ
बनाती और
बिगाड़ती है।
आप
अपने से पूछें
कि आप क्या
देखते हैं? क्या आपने
एक भी ऐसा
बुरे से बुरा
आदमी देखा है,
जिसमें कुछ
ऐसा न हो, जो
साधुओं में भी
मुश्किल होता
है? क्या
आपने ऐसा बुरे
से बुरा आदमी
भी देखा है, जिसमें एक
भी चीज ऐसी न
मिल जाए, जो
साधुओं में
मुश्किल होती
है? और अगर
आपको मिल सकती
है, तो उसे
देखें। वह उस
आदमी का असली
हिस्सा है। और
जिंदगी में
चारों तरफ
खोजें किरण को,
प्रकाश को।
उससे आपके
भीतर किरण और
प्रकाश पैदा
होगा।
इसको
कहते हैं
प्रमुदिता।
तीसरा भाव है
कि हम प्रसन्न
हों। हम इतने
प्रसन्न हों
कि हम मौत को
और दुख को गलत
कर दें। हम
इतने आनंदित
हों कि मौत और
दुख सिकुड़कर
मर जाएं। पता
भी न चले कि
मौत और दुख भी
हैं।
जो
इतनी
प्रफुल्लता
और आनंद को
अपने भीतर संजोता
है, वह साधना
में गति करता
है। साधना की
गति के लिए यह
बहुत जरूरी है,
बहुत जरूरी
है।
एक
साधु हुआ। वह
जीवनभर इतना
प्रसन्न था कि
लोग हैरान थे।
लोगों ने कभी
उसे उदास नहीं
देखा, कभी
पीड़ित नहीं
देखा। उसके
मरने का वक्त
आया और उसने
कहा कि 'अब
मैं तीन दिन
बाद मर
जाऊंगा। और यह
मैं इसलिए बता
रहा हूं कि
तुम्हें
स्मरण रहे कि
जो आदमी जीवन
भर हंसता था, उसकी कब्र
पर कोई रोए
नहीं। यह मैं
इसलिए बता रहा
हूं कि जब मैं
मर जाऊं, तो
इस झोपड़े पर
कोई उदासी न
आए। यहां
हमेशा आनंद था,
यहां हमेशा
खुशी थी।
इसलिए मेरी
मौत को एक उत्सव
बनाना। मेरी
मौत को दुख मत
बनाना, मेरी
मौत को एक
उत्सव बनाना।'
लोग तो
दुखी हुए, बहुत दुखी
हुए। वह तो
अदभुत आदमी
था। और जितना
अदभुत आदमी हो,
उतना उसके
मरने का दुख
घना था। और
उसको प्रेम करने
वाले बहुत थे,
वे सब तीन
दिन से इकट्ठे
होने शुरू हो
गए। वह मरते
वक्त तक लोगों
को हंसा रहा
था और अदभुत
बातें कह रहा
था और उनसे
प्रेम की
बातें कर रहा
था। सुबह मरने
के पहले उसने
एक गीत गाया।
और गीत गाने
के बाद उसने
कहा, 'स्मरण
रहे, मेरे
कपड़े मत
उतारना। मेरी
चिता पर मेरे
पूरे शरीर को
चढ़ा देना
कपड़ों सहित।
मुझे नहलाना
मत।'
उसने
कहा था, आदेश
था। वह मर
गया। उसे कपड़े
सहित चिता पर
चढ़ा दिया। वह
जब कपड़े सहित
चिता पर रखा
गया, लोग
उदास खड़े थे, लेकिन देखकर
हैरान हुए।
उसके कपड़ों
में उसने फुलझड़ी
और फटाखे छिपा
रखे थे। वे
चिता पर चढ़े और
फुलझड़ी और
फटाखे छूटने
शुरू हो गए।
और चिता उत्सव
बन गयी। और
लोग हंसने
लगे। और
उन्होंने कहा,
'जिसने
जिंदगी में
हंसाया, वह
मौत में भी
हमको हंसाकर
गया है।'
जिंदगी
को हंसना
बनाना है।
जिंदगी को एक
खुशी और मौत
को भी एक
खुशी। और जो
आदमी ऐसा करने
में सफल हो
जाता है, उसे
बड़ी धन्यता
मिलती है और
बड़ी
कृतार्थता उपलब्ध
होती है। और
उस भूमिका में
जब कोई साधना में
प्रवेश करता
है, तो गति
वैसी होती है,
जिसकी हम
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
तीर की तरह विकास
होता है।
बोझिल
मन से जो जाता
है, उसने तीर
में पत्थर
बांध दिए हैं।
बोझिल मन से
जो जाता है, उसने तीर
में पत्थर
बांध दिए, तीर
कहां जाएगा? जितनी तीव्र
गति चाहिए हो,
उतना हलका
और भारहीन मन
चाहिए। जितने
तीर को दूर
पहुंचाना हो,
उतना तीर
में वजन कम
चाहिए। और
जिसे जितने
ऊंचे पहाड़
चढ़ने हों, उतना
बोझ उसे नीचे
छोड़ देना पड़ता
है। और सबसे बड़ा
बोझ दुख का और
विषाद का है, उदासी का
है। इससे बड़ा
कोई बोझ नहीं
है।
क्या
आप लोगों को
देखते हैं? वे दबे चले
जा रहे हैं, जैसे भारी
बोझ उनके सिर
पर रखा हुआ
है। इस बोझ को
नीचे फेंक दें
और
उत्फुल्लता
की एक हुंकार करें
और सिंहनाद
करें और यह
बता दें पूरे
जीवन को कि
जीवन कैसा ही
हो, उसमें
भी खुशी और
जिंदगी गीत
बनायी जा सकती
है। जिंदगी एक
संगीत हो सकती
है। इस तीसरी
प्रमुदिता को
स्मरण रखें।
और
चौथा मैंने
कहा, कृतज्ञता।
कृतज्ञता
बहुत डिवाइन,
बहुत दिव्य
बात है। हमारी
सदी में अगर
कुछ खो गया है,
तो
कृतज्ञता खो
गयी है, ग्रेटीटयूड
खो गया है।
आपको
पता है, आप
जो श्वास ले
रहे हैं, वह
आप नहीं ले
रहे हैं।
क्योंकि
श्वास जिस
क्षण नहीं
आएगी, आप
उसे नहीं ले
सकेंगे। आपको
पता है, आप
पैदा हुए हैं?
आप पैदा
नहीं हुए हैं।
आपका कोई
सचेतन हाथ नहीं
है, कोई
निर्णय नहीं
है। आपको पता
है, यह जो
छोटी-सी देह
आपको मिली है,
यह बड़ी
अदभुत है। यह
सबसे बड़ा
मिरेकल है इस
जमीन पर। आप
थोड़ा-सा खाना
खाते हैं, आपका
यह छोटा-सा
पेट उसे पचा
देता है। यह
बड़ा मिरेकल
है।
अभी
इतना
वैज्ञानिक
विकास हुआ है, अगर हम बहुत
बड़े कारखाने
खड़े करें और
हजारों विशेषज्ञ
लगाएं, तो
भी एक रोटी को
पचाकर खून बना
देना मुश्किल है।
एक रोटी को
पचाकर खून बना
देना मुश्किल
है। यह शरीर
आपका एक
मिरेकल कर रहा
है चौबीस
घंटे। यह
छोटा-सा शरीर,
थोड़ी-सी
हड्डियां, थोड़ा-सा
मांस।
वैज्ञानिक
कहते हैं, मुश्किल
से चार रुपए, पांच रुपए
का सामान है
इस शरीर में।
इसमें कुछ
ज्यादा मूल्य
की चीजें नहीं
हैं। इतना बड़ा
चमत्कार
चौबीस घंटे
साथ है, उसके
प्रति
कृतज्ञता नहीं
है, ग्रेटीटयूड
नहीं है!
कभी
आपने अपने
शरीर को प्रेम
किया है? कभी
अपने हाथों को
चूमा है? कभी
अपनी आंखों को
प्रेम किया है?
कभी यह खयाल
किया है कि
क्या अदभुत
घटित हो रहा
है? शायद
ही आपमें कोई
हो, जिसने
अपनी आंख को
प्रेम किया हो,
जिसने अपने
हाथों को चूमा
हो और जिसने
कृतज्ञता
अनुभव की हो
कि यह अदभुत बात,
यह अदभुत
घटना घट रही
है और हमारे
बिलकुल बिना
जाने। और हम
इसमें बिलकुल
भागीदार भी
नहीं हैं।
अपने
शरीर के प्रति
सबसे पहले
कृतज्ञ हो
जाएं। जो अपने
शरीर के प्रति
कृतज्ञ है, वही केवल
दूसरों के
शरीरों के
प्रति कृतज्ञ
हो सकता है।
और सबसे पहले
अपने शरीर के
प्रति प्रेम
से भर जाएं।
क्योंकि जो
अपने शरीर के
प्रति प्रेम
से भरा हुआ है,
वही केवल
दूसरों के
शरीरों के
प्रति प्रेम
से भर जाता
है।
वे लोग
अधार्मिक हैं, जो आपको
अपने शरीर के
खिलाफ बातें
सिखाते हों।
वे लोग
अधार्मिक हैं,
जो कहते हों
कि शरीर
दुश्मन है और
दुष्ट है, और
ऐसा है और
वैसा है, शत्रु
है। शरीर कुछ
भी नहीं है।
शरीर बड़ा चमत्कार
है। और शरीर
अदभुत सहयोगी
है। इसके
प्रति कृतज्ञ
हों। इस शरीर
में क्या है? जो इस शरीर
में है, वह
इन
पंचमहाभूतों
से मिला है।
इस शरीर के
प्रति कृतज्ञ
हों, इन
पंचमहाभूतों
के प्रति
कृतज्ञ हों।
एक दिन
सूरज बुझ
जाएगा, तो
आप कहां
होंगे!
वैज्ञानिक
कहते हैं, चार
हजार वर्षों
में सूरज बुझ
जाएगा। वह
काफी रोशनी दे
चुका है, वह
खाली होता
जाएगा। और एक
दिन आएगा कि
वह बुझ जाएगा।
अभी हम रोज
इसी खयाल में
हैं कि रोज सूरज
ऊगेगा। एक दिन
वक्त आएगा कि
लोग सांझ को
इस खयाल से
सोएंगे कि कल
सुबह सूरज
ऊगेगा, और
वह नहीं
ऊगेगा। और फिर
क्या होगा?
सूरज
ही नहीं
बुझेगा, सारा
प्राण बुझ
जाएगा, क्योंकि
प्राण उससे
उपलब्ध है।
क्योंकि सारी
ऊष्मा और सारा
उत्ताप उससे
उपलब्ध है।
समुद्र
के किनारे
बैठते हैं।
कभी खयाल किया, आपके शरीर
में सत्तर
परसेंट
समुद्र है, पानी है! और
मनुष्य का
जन्म इस जमीन
पर, कीटाणु
का जो पहला
जन्म हुआ, वह
समुद्र में
हुआ था। और आप
यह भी जानकर
हैरान होंगे,
आपके शरीर
में भी नमक और
पानी में वही
अनुपात है, जो समुद्र
में है--अभी
भी। और उस
अनुपात से जब
भी शरीर
इधर-उधर हो
जाएगा, बीमार
हो जाएगा।
कभी
समुद्र के
करीब बैठकर
आपने अनुभव
किया है कि
मेरे भीतर भी
समुद्र का एक
हिस्सा है। और
मेरे भीतर जो हिस्सा
है समुद्र का, उसके लिए
मुझे समुद्र
का कृतज्ञ
होना चाहिए। और
सूरज की रोशनी
मेरे भीतर है,
उसके प्रति
मुझे कृतज्ञ
होना चाहिए।
और हवाएं मेरे
प्राण को
चलाती हैं, उनके प्रति
कृतज्ञ होना
चाहिए। और
आकाश और पृथ्वी,
वे मुझे
बनाते हैं, उनके प्रति
कृतज्ञ होना चाहिए।
इस
ग्रेटीटयूड
को मैं दिव्य
कहता हूं। इस
कृतज्ञता के
बिना कोई आदमी
धार्मिक नहीं
हो सकता।
अकृतज्ञ
मनुष्य क्या
धार्मिक
होंगे! इस कृतज्ञता
को अनुभव करें
निरंतर और आप
हैरान हो जाएंगे, यह आपको
इतनी शांति से
भर देगी
कृतज्ञता और
इतने रहस्य
से! और तब आपको
एक बात का पता
चलेगा कि मेरी
क्या
सामर्थ्य थी
कि ये सारी
चीजें मुझे
मिलें! और ये
सारी चीजें मुझे
मिली हैं।
इसके लिए आपके
मन में
धन्यवाद होगा।
इसके प्रति
आपके मन में
धन्यवाद होगा,
जो आपको
मिला है, उसके
प्रति
कृतार्थता का
बोध होगा।
तो
कृतज्ञता को
ज्ञापित करने
का, कृतज्ञता
को विकसित
करने का उपाय
करें; उससे
साधना में गति
होगी। और न
केवल साधना
में, बल्कि
जीवन बहुत
भिन्न हो
जाएगा। जीवन
बहुत भिन्न हो
जाएगा, जीवन
बहुत दूसरा हो
जाएगा।
क्राइस्ट
को सूली पर
लटकाया। तो
क्राइस्ट जब मरने
लगे तो
उन्होंने कहा, 'हे परमात्मा,
इन्हें
क्षमा कर
देना। इन्हें
क्षमा कर देना
और दो कारणों
से क्षमा कर
देना। एक तो
ये जानते नहीं
कि क्या कर
रहे हैं।' इसमें
तो उनकी करुणा
थी। 'और एक
इस कारण से कि
मेरे और तेरे
बीच जो फासला था,
वह
इन्होंने
गिरा दिया।
परमात्मा के
और मेरे बीच
जो फासला था, इन्होंने गिरा
दिया। इसके
लिए इनके
प्रति
कृतज्ञता है।'
तो
जीवन में सतत
कृतज्ञता का
स्मरणपूर्वक
व्यवहार
करें। आप
पाएंगे कि
जीवन बहुत
अदभुत हो जाएगा।
तो चार
बातें मैंने
कहीं शुद्ध
भाव के लिए: मैत्री, करुणा, प्रमुदिता
और कृतज्ञता।
और बहुत बातें
हैं। लेकिन ये
चार काफी हैं।
अगर इनका
विचार करें, तो शेष सब
इनके पीछे
अपने आप चली
आएंगी। इस भांति
भाव शुद्ध
होगा।
मैंने
आपको बताया, शरीर कैसे
शुद्ध होगा, विचार कैसे
शुद्ध होगा, भाव कैसे
शुद्ध होगा।
अगर ये तीन ही
हो जाएं, तो
भी आप अदभुत
लोक में
प्रवेश कर
जाएंगे। अगर
ये तीन ही हो जाएं,
तो भी बहुत
कुछ हो जाएगा।
तीन जो
केंद्रीय
तत्व हैं, उनकी हम आगे
बात करेंगे।
उन तीन तत्वों
में हम
शरीर-शून्यता,
विचार-शून्यता
और
भाव-शून्यता
का विचार करेंगे।
अभी हमने
शुद्धि का
विचार किया, फिर हम
शून्यता का
विचार
करेंगे। और जब
शुद्धि और
शून्यता का
मिलन होता है,
तो समाधि
उत्पन्न हो
जाती है। जब
शुद्धि और शून्यता
का मिलन होता
है, तो
समाधि
उत्पन्न हो
जाती है। और
समाधि परमात्मा
का द्वार है।
उसकी हम बात
करेंगे।
अब हम
सुबह के ध्यान
के लिए बैठें।
सुबह का ध्यान
मैं आपको समझा
ही दिया हूं।
प्रारंभ में पांच
बार हम संकल्प
करेंगे। फिर
उसके बाद थोड़ी
देर तक हम भाव
करेंगे। फिर
उसके बाद
श्वास-प्रश्वास
को, रीढ़ को
सीधी रखकर, आंख को बंद
करके, नाक
के पास जहां
से श्वास भीतर
आता-जाता है, उसको
स्मरणपूर्वक
देखेंगे।
सारे
लोग दूर-दूर
हो जाएं, ताकि
कोई किसी को
छूता हुआ
मालूम न पड़े।
आज
इतना ही।
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