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रविवार, 2 नवंबर 2014

ध्‍यान--सूत्र (ओशो) प्रवचन--06

सम्यक रूपांतरण के सूत्र—(प्रवचन—छठवां)


मेरे प्रिय आत्मन्,

कुछ प्रश्न हैं। प्रश्न तो बहुत-से हैं, उन सबका संयुक्त उत्तर ही देने का प्रयास करूंगा। कुछ हिस्सों में उनको बांट लिया है।

पहला प्रश्न है, वैज्ञानिक युग में धर्म का क्या स्थान है? और धर्म का राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में क्या उपयोग है?

विज्ञान से अर्थ ज्ञान की उस पद्धति का है, जो पदार्थ में छिपी हुई अंतस शक्ति को खोजती है। धर्म से अर्थ उस ज्ञान की पद्धति का है, जो चेतना के भीतर छिपी हुई अंतस शक्ति को खोजती है। धर्म और विज्ञान का कोई विरोध नहीं है, वरन धर्म और विज्ञान परिपूरक हैं।
जो युग मात्र वैज्ञानिक होगा, उसके पास सुविधा तो बढ़ जाएगी, लेकिन सुख नहीं बढ़ेगा। जो युग मात्र धार्मिक होगा, उसके कुछ थोड़े-से लोगों को सुख तो उपलब्ध हो जाएगा, लेकिन अधिकतर लोग असुविधा से ग्रस्त हो जाएंगे।
विज्ञान सुविधा देता है, धर्म शांति देता है। सुविधा न हो, तो बहुत कम लोग शांति को उपलब्ध कर सकते हैं। शांति न हो, तो बहुत लोग सुविधा को उपलब्ध कर सकते हैं, लेकिन उसका उपयोग नहीं कर सकेंगे।
अब तक मनुष्य ने जिन सभ्यताओं को जन्म दिया है, वे सब सभ्यताएं अधूरी और खंडित थीं। पूरब ने जिस संस्कृति को जन्म दिया था, वह संस्कृति विशुद्ध धर्म पर खड़ी थी। विज्ञान का पक्ष उसका अत्यंत कमजोर था। परिणाम में पूरब परास्त हुआ, दरिद्र हुआ, पराजित हुआ। पश्चिम ने जो संस्कृति पैदा की है, वह दूसरी अति, दूसरी एक्सट्रीम पर है। उसकी बुनियादें विज्ञान पर रखी हैं और धर्म का उससे कोई संबंध नहीं है। परिणाम में पश्चिम जीता है। धन, समृद्धि, सुविधा उसने इकट्ठी की है। लेकिन मनुष्य की अंतरात्मा को खो दिया है।
भविष्य में जो संस्कृति पैदा होगी, अगर वह संस्कृति मनुष्य के हित में होने को है, तो उस संस्कृति में धर्म और विज्ञान का संतुलन होगा। उस संस्कृति में धर्म और विज्ञान का समन्वय होगा। वह संस्कृति वैज्ञानिक या धार्मिक, ऐसी नहीं होगी। वह संस्कृति वैज्ञानिक रूप से धार्मिक होगी या धार्मिक रूप से वैज्ञानिक होगी।
ये दोनों प्रयोग असफल हो गए हैं। पूरब का प्रयोग असफल हो गया है। पश्चिम का प्रयोग भी असफल हो गया है। और अब एक मौका है कि हम एक जागतिक, यूनिवर्सल प्रयोग करें, जो पूरब का भी न हो, पश्चिम का भी न हो। और जिसमें धर्म और विज्ञान संयुक्त हों।
तो मैं आपको कहूंगा, धर्म और विज्ञान का कोई विरोध नहीं है, जैसे शरीर और आत्मा का कोई विरोध नहीं है। जो मनुष्य केवल शरीर के आधार पर जीएगा, वह अपनी आत्मा खो देगा। और जो मनुष्य केवल आत्मा के आधार पर जीने के प्रयास करेगा, वह भी ठीक से नहीं जी पाएगा, क्योंकि शरीर को खोता चला जाएगा।
जिस तरह मनुष्य का जीवन शरीर और आत्मा के बीच एक संतुलन और संयोग है, उसी तरह परिपूर्ण संस्कृति विज्ञान और धर्म के बीच संतुलन और संयोग होगी। विज्ञान उसका शरीर होगा, धर्म उसकी आत्मा होगी।
लेकिन यह मैं आपसे कह दूं, अगर कोई मुझसे यह पूछे कि अगर विकल्प ऐसे हों कि हमें धर्म और विज्ञान में से चुनना है, तो मैं कहूंगा कि हम धर्म को चुनने को राजी हैं। अगर कोई मुझसे यह कहे कि विज्ञान और धर्म में से चुनाव करना है, दोनों नहीं हो सकते, तो मैं कहूंगा, हम धर्म को लेने को राजी हैं। हम दरिद्र रहना और असुविधा से रहना पसंद करेंगे, लेकिन मनुष्य की अंतरात्मा को खोना पसंद नहीं करेंगे।
उन सुविधाओं का क्या मूल्य है, जो हमारे स्वत्व को छीन लें! और उस संपत्ति का क्या मूल्य है, जो हमारे स्वरूप से हमें वंचित कर दे! वस्तुतः न वह संपत्ति है, न वह सुविधा है।
मैं एक छोटी-सी कहानी कहूं, मुझे बहुत प्रीतिकर रही। मैंने सुना है, एक बार यूनान का एक बादशाह बीमार पड़ा। वह इतना बीमार पड़ा कि डाक्टरों ने और चिकित्सकों ने कहा कि अब वह बच नहीं सकेगा। उसकी बचने की कोई उम्मीद न रही। उसके मंत्री और उसके प्रेम करने वाले बहुत चिंतित और परेशान हुए। गांव में तभी एक फकीर आया और किसी ने कहा, 'उस फकीर को अगर लाएं, तो लोग कहते हैं, उसके आशीर्वाद से भी बीमारियां ठीक हो जाती हैं।'
वे उस फकीर को लेने गए। वह फकीर आया। उसने आते ही उस बादशाह को कहा, 'पागल हो? यह कोई बीमारी है? यह कोई बीमारी नहीं है। इसका तो बड़ा सरल इलाज है।' वह बादशाह, जो महीनों से बिस्तर पर पड़ा था, उठकर बैठ गया। और उसने कहा, 'कौन-सा इलाज? हम तो सोचे कि हम गए! हमें बचने की कोई आशा नहीं रही है।' उसने कहा, 'बड़ा सरल-सा इलाज है। आपके गांव में से किसी शांत और समृद्ध आदमी का कोट लाकर इन्हें पहना दिया जाए। ये स्वस्थ और ठीक हो जाएंगे।'
वजीर भागे, गांव में बहुत समृद्ध लोग थे। उन्होंने एक-एक के घर जाकर कहा कि हमें आपका कोट चाहिए, एक शांत और समृद्ध आदमी का। उन समृद्ध लोगों ने कहा, 'हम दुखी हैं। कोट! हम अपना प्राण दे सकते हैं; कोट की कोई बात नहीं है। बादशाह बच जाए, हम सब दे सकते हैं। लेकिन हमारा कोट काम नहीं करेगा। क्योंकि हम समृद्ध तो हैं, लेकिन शांत नहीं हैं।'
वे गांव में हर आदमी के पास गए। वे दिनभर खोजे और सांझ को निराश हो गए और उन्होंने पाया कि बादशाह का बचना मुश्किल है, यह दवा बड़ी महंगी है। सुबह उन्होंने सोचा था, 'दवा बहुत आसान है।' सांझ उन्हें पता चला, 'दवा बहुत मुश्किल है, इसका मिलना संभव नहीं है।' वे सब बड़े लोगों के पास हो आए थे। सांझ को वे थके-मांदे उदास लौटते थे। सूरज डूब रहा था। गांव के बाहर, नदी के पास एक चट्टान के किनारे एक आदमी बांसुरी बजाता था। वह इतनी संगीतपूर्ण थी और इतने आनंद से उसमें लहरें उठ रही थीं कि उन वजीरों में से एक ने कहा, 'हम अंतिम रूप से इस आदमी से और पूछ लें, शायद यह शांत हो।'
वे उसके पास गए और उन्होंने उससे कहा कि 'तुम्हारी बांसुरी की ध्वनि में, तुम्हारे गीत में इतना आनंद और इतनी शांति मालूम होती है कि क्या हम एक निवेदन करें? हमारा बादशाह बीमार है और एक ऐसे आदमी के कोट की जरूरत है, जो शांत और समृद्ध हो।' उस आदमी ने कहा, 'मैं अपने प्राण दे दूं। लेकिन जरा गौर से देखो, मेरे पास कोट नहीं है।' उन्होंने गौर से देखा, अंधकार था, वह आदमी नंगा बांसुरी बजा रहा था।
उस बादशाह को नहीं बचाया जा सका। क्योंकि जो शांत था, उसके पास समृद्धि नहीं थी। और जो समृद्ध था, उसके पास शांति नहीं थी। और यह दुनिया भी नहीं बचायी जा सकेगी, क्योंकि जिन कौमों के पास शांति की बातें हैं, उनके पास समृद्धि नहीं है। और जिन कौमों के पास समृद्धि है, उनके पास शांति का कोई विचार नहीं है। वह बादशाह मर गया, यह कौम भी मरेगी मनुष्य की।
इलाज वही है, जो उस बादशाह का इलाज था। वह इस मनुष्य की पूरी संस्कृति का भी इलाज है। हमें कोट भी चाहिए और हमें शांति भी चाहिए। अब तक हमारे खयाल अधूरे रहे हैं। अब तक हमने मनुष्य को बहुत अधूरे ढंग से सोचा है और हमारी आदतें एक्सट्रीम पर चले जाने की हैं। मनुष्य के मन की सबसे बड़ी बीमारी अति है, एक्सट्रीम है।
कनफ्यूशियस एक गांव में ठहरा हुआ था। वहां किसी ने कनफ्यूशियस को कहा, 'हमारे गांव में एक बहुत विद्वान, बहुत विचारशील आदमी है। आप उसके दर्शन करेंगे?' कनफ्यूशियस ने कहा, 'पहले मैं यह पूछ लूं कि आप उसे बहुत विचारशील क्यों कहते हैं? फिर मैं उसके दर्शन को जरूर चलूंगा।' उन लोगों ने कहा, 'वह इसलिए विचारशील है कि वह किसी भी काम को करने के पहले तीन बार सोचता है--तीन बार!' कनफ्यूशियस ने कहा, 'वह आदमी विचारशील नहीं है। तीन बार थोड़ा ज्यादा हो गया। एक बार कम होता है, तीन बार ज्यादा हो गया। दो बार काफी है।' कनफ्यूशियस ने कहा, 'वह आदमी विचारशील नहीं है। तीन बार थोड़ा ज्यादा हो गया, एक बार थोड़ा कम होता है। दो बार काफी है। बुद्धिमान वे हैं, जो बीच में रुक जाते हैं। नासमझ अतियों पर चले जाते हैं।'
एक नासमझी यह है कि कोई आदमी अपने को शरीर ही समझ ले। दूसरी नासमझी और उतनी ही बड़ी नासमझी यह है कि कोई आदमी अपने को केवल आत्मा समझ ले। मनुष्य का व्यक्तित्व एक संयोग है। मनुष्य की संस्कृति भी एक संयोग होगी।
और हमें सीख लेना चाहिए। हमारे इतिहास की दरिद्रता और हमारे मुल्क की पराजय और पूरब के मुल्कों का पददलित हो जाना अकारण नहीं है; वह अति, धर्म की अति उसका कारण है। और पश्चिम के मुल्कों का आंतरिक रूप से दरिद्र हो जाना अकारण नहीं है, विज्ञान की अति उसका कारण है। भविष्य सुंदर होगा, अगर विज्ञान और धर्म संयुक्त होंगे।
यह जरूर स्पष्ट है कि विज्ञान और धर्म के संयोग में धर्म केंद्र होगा और विज्ञान परिधि होगा। यह स्पष्ट है कि विज्ञान और धर्म के मेल में धर्म विवेक होगा और विज्ञान उसका अनुचर होगा। शरीर मालिक नहीं हो सकता है, विज्ञान भी मालिक नहीं हो सकता है। मालिक तो धर्म होगा। और तब हम एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर सकेंगे।
इसलिए यह न पूछें कि वैज्ञानिक युग में धर्म का क्या उपयोग है? वैज्ञानिक युग में ही धर्म का उपयोग है, क्योंकि विज्ञान एक अति है और वह अति खतरनाक है। धर्म उसे संतुलन देगा। और उस अति और उस खतरे से मनुष्य को बचा सकेगा।
इसलिए सारी दुनिया में धर्म के पुनरुत्थान की एक घड़ी बहुत करीब है। यह स्वाभाविक ही है, यह सुनिश्चित ही है, यह एक अनिवार्यता है कि अब धर्म का पुनरुत्थान हो, अन्यथा विज्ञान मृत्यु का कारण बन जाएगा। इसलिए मैं कहूं, विज्ञान के युग में धर्म की क्या आवश्यकता है, यह पूछना तो व्यर्थ है ही। विज्ञान के युग में ही धर्म की सर्वाधिक आवश्यकता है।
उसी से संबद्ध उन्होंने पूछा है कि राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में क्या उपयोग है?
मैं समझता हूं, मेरी इस बात से वह भी आपके खयाल में आया होगा। क्योंकि जिस बात का उपयोग एक मनुष्य के लिए है, उस बात का उपयोग अनिवार्यतया पूरे राष्ट्र और पूरे समाज के लिए होगा। क्योंकि राष्ट्र और समाज क्या हैं? वे मनुष्यों के जोड़ के अतिरिक्त और क्या हैं? तो कोई इस भ्रम में न रहे कि कोई राष्ट्र धर्म के अभाव में जी सकता है।
भारत में यह दुर्भाग्य हुआ। हम कुछ शब्दों को भूल समझ गए। हमने धर्म-निरपेक्ष राज्य की बातें शुरू कर दीं। हमें कहना चाहिए था संप्रदाय-निरपेक्ष और हम कहने लगे धर्म-निरपेक्ष! संप्रदाय-निरपेक्ष होना एक बात है और धर्म-निरपेक्ष होना बिलकुल दूसरी बात है। कोई भी समझदार आदमी संप्रदाय-निरपेक्ष होता है और केवल नासमझ ही धर्म-निरपेक्ष हो सकते हैं।
संप्रदाय-निरपेक्ष होने का मतलब है, हमें जैन से कोई मतलब नहीं है, हमें हिंदू से, हमें बौद्ध से, हमें मुसलमान से कोई मतलब नहीं है। संप्रदाय-निरपेक्ष होने का मतलब यह है। लेकिन धर्म-निरपेक्ष होने का मतलब है कि हमें सत्य से और अहिंसा से और प्रेम से और करुणा से कोई मतलब नहीं है। कोई राष्ट्र धर्म-निरपेक्ष नहीं हो सकता। और जो होगा, उसका दुर्भाग्य है। राष्ट्र को तो धर्मप्राण होना पड़ेगा, धर्म-निरपेक्ष नहीं। हां, संप्रदाय-निरपेक्ष होना बहुत जरूरी है।
दुनिया में धर्म को सबसे ज्यादा नुकसान नास्तिकों ने नहीं पहुंचाया है। दुनिया में धर्म को सबसे ज्यादा नुकसान भौतिकवादी वैज्ञानिकों ने नहीं पहुंचाया है। दुनिया में सबसे बड़ा धर्म को नुकसान धार्मिक सांप्रदायिकों ने पहुंचाया है। उन लोगों ने, जिनका आग्रह धर्म पर कम है, जैन पर ज्यादा है; उन लोगों ने, जिनका आग्रह धर्म पर कम है, हिंदू पर ज्यादा है; जिनका आग्रह धर्म पर कम है और इस्लाम पर ज्यादा है। उन लोगों ने इस दुनिया को धर्म से वंचित किया है। संप्रदाय, जो कि धर्म के शरीर होने चाहिए थे, धर्म के हत्यारे साबित हुए हैं।
और इसलिए धर्म का तो बहुत उपयोग है, संप्रदायों का कोई उपयोग नहीं है। संप्रदाय और सांप्रदायिकता जितनी क्षीण हो, उतना अर्थपूर्ण होगा, उतनी उपयोगिता होगी।
 और यह असंभव है कि कोई कौम या कोई राष्ट्र या कोई समाज धर्म के आधारों के बिना खड़ा हो जाए। यह कैसे संभव है? क्या यह संभव है कि हम प्रेम के आधारों के बिना खड़े हो जाएं? क्या कोई राष्ट्र राष्ट्र बन सकता है प्रेम के आधारों के बिना? और क्या कोई राष्ट्र सत्य के आधारों के बिना राष्ट्र बन सकता है? या कि कोई राष्ट्र त्याग, अपरिग्रह, अहिंसा, अभय, इनके आधारों के बिना राष्ट्र बन सकता है?
ये तो बुनियादें हैं आत्मा की। इनके अभाव में कोई राष्ट्र नहीं होता, न कोई समाज होता है। और अगर वैसा समाज हो और वैसा राष्ट्र हो, तो उसमें जिसमें थोड़ा भी विवेक है, वह उसे मनुष्यों का यांत्रिक समूह कहेगा, वह उसे राष्ट्र नहीं कह सकेगा।
राष्ट्र बनता है अंतर्संबंधों से, इंटर-रिलेशनशिप से। मेरा जो आपसे संबंध है, आपका जो आपके पड़ोसी से संबंध है, उन सारे अंतर्संबंधों का नाम राष्ट्र है। वे अंतर्संबंध जितने सत्य पर, प्रेम पर, अहिंसा पर, परमात्मा पर खड़े होंगे, उतने राष्ट्र के जीवन में सुवास होगी; उतने राष्ट्र के जीवन में आलोक होगा; उतने राष्ट्र के जीवन में अंधकार कम होगा।
तो मैं कहूं, राष्ट्र और समाज, उनके प्राण धर्म पर ही प्रतिष्ठित हो सकते हैं। धर्म-निरपेक्ष शब्द से थोड़ा-सा सावधान होने की जरूरत है। पूरे राष्ट्र को सावधान होने की जरूरत है। उस शब्द की आड़ में बहुत खतरा है। उस शब्द की आड़ में हो सकता है, हम समझें, धर्म की कोई जरूरत नहीं है। धर्म की ही एकमात्र जरूरत है मनुष्य के जीवन में। और सारी बातें गौण हैं और छोड़ी जा सकती हैं। धर्म अकेली ऐसी कुछ चीज है, जो नहीं छोड़ी जा सकती है।
यह मैं समझता हूं, आपके प्रश्न को हल करने में सहयोगी होगी बात।

एक और मित्र ने पूछा है, साधना में ध्यान किसका करना है?

सामान्य रूप से ध्यान के संबंध में जो भी विचार प्रचलित हैं, उसमें हम ध्यान को 'किसी के ध्यान' के रूप में खयाल करते हैं। किसी का ध्यान करेंगे। इसलिए स्वाभाविक यह प्रश्न उठता है कि ध्यान किसका? प्रार्थना किसकी? आराधना किसकी? प्रेम किससे?
मैंने सुबह आपको एक बात कही। एक प्रेम है, जिसमें हम पूछते हैं, प्रेम किससे? और एक प्रेम है, जिसमें हम यह पूछते हैं, प्रेम मेरे भीतर है या नहीं? किससे कोई संबंध नहीं है।
तो मैंने कहा, प्रेम की दो अवस्थाएं हैं। एक, लव एज ए रिलेशनशिप, प्रेम एक संबंध की तरह। और एक प्रेम, एज ए स्टेट आफ माइंड, प्रेम मनोस्थिति की तरह। पहले प्रेम में हम पूछते हैं, 'किससे?' अगर मैं आपसे कहूं, मैं प्रेम करता हूं; तो आप पूछेंगे, 'किससे?' और मैं अगर यह कहूं कि 'किससे का कोई सवाल नहीं। मैं बस प्रेम करता हूं।' तो आपको दिक्कत होगी। लेकिन दूसरी बात ही समझने की है।
वही आदमी प्रेम करता है, जो बस प्रेम करता है और किसका कोई सवाल नहीं है। क्योंकि जो आदमी 'किसी से' प्रेम करता है, वह शेष से क्या करेगा? वह शेष के प्रति घृणा से भरा होगा। जो आदमी 'किसी का ध्यान' करता है, वह शेष के प्रति क्या करेगा? शेष के प्रति मूर्च्छा से घिरा होगा। हम जिस ध्यान की बात कर रहे हैं, वह किसी का ध्यान नहीं है, ध्यान की एक अवस्था है। अवस्था का मतलब यह है। ध्यान का मतलब, किसी को स्मरण में लाना नहीं है। ध्यान का मतलब, सब जो हमारे स्मरण में हैं, उनको गिरा देना है; और एक स्थिति लानी है कि केवल चेतना मात्र रह जाए, केवल कांशसनेस मात्र रह जाए, केवल अवेयरनेस मात्र रह जाए।
यहां हम एक दीया जलाएं और यहां से सारी चीजें हटा दें, तो भी दीया प्रकाश करता रहेगा। वैसे ही अगर हम चित्त से सारे आब्जेक्ट्स हटा दें, चित्त से सारे विचार हटा दें, चित्त से सारी कल्पनाएं हटा दें, तो क्या होगा? जब सारी कल्पनाएं और सारे विचार हट जाएंगे, तो क्या होगा? चेतना अकेली रह जाएगी। चेतना की वह अकेली अवस्था ध्यान है।
ध्यान किसी का नहीं करना होता है। ध्यान एक अवस्था है, जब चेतना अकेली रह जाती है। जब चेतना अकेली रह जाए और चेतना के सामने कोई विषय, कोई आब्जेक्ट न हो, उस अवस्था का नाम ध्यान है। मैं ध्यान का उसी अर्थ में प्रयोग कर रहा हूं।
जो हम प्रयोग करते हैं, वह ठीक अर्थों में ध्यान नहीं, धारणा है। ध्यान तो उपलब्ध होगा। जो हम प्रयोग कर रहे हैं--समझ लें, रात्रि को हमने प्रयोग किया चक्रों पर, सुबह हम प्रयोग करते हैं श्वास पर--यह सब धारणा है, यह ध्यान नहीं है। इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी, श्वास भी विलीन हो जाएगी। इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी कि शरीर भी विलीन हो जाएगा, विचार भी विलीन हो जाएंगे। जब सब विलीन हो जाएगा, तो क्या शेष रहेगा? जो शेष रहेगा, उसका नाम ध्यान है। जब सब विलीन हो जाएंगे, तो जो शेष रह जाएगा, उसका नाम ध्यान है। धारणा किसी की होती है और ध्यान किसी का नहीं होता।
तो धारणा हम कर रहे हैं, चक्रों की कर रहे हैं, श्वास की कर रहे हैं। आप पूछेंगे कि बेहतर न हो कि हम ईश्वर की धारणा करें? बेहतर न हो कि हम किसी मूर्ति की धारणा करें?
 वह खतरनाक है। वह खतरनाक इसलिए है कि मूर्ति की धारणा करने से वह अवस्था नहीं आएगी, जिसको मैं ध्यान कह रहा हूं। मूर्ति की धारणा करने से मूर्ति ही आती रहेगी। और जितनी मूर्ति की धारणा घनी होती जाएगी, उतनी मूर्ति ज्यादा आने लगेगी।
रामकृष्ण को ऐसा हुआ था। वे काली के ऊपर ध्यान करते थे, धारणा करते थे। फिर धीरे-धीरे उनको ऐसा हुआ कि काली के उनको साक्षात होने लगे अंतस में। आंख बंद करके वह मूर्ति सजीव हो जाती। वे बड़े रसमुग्ध हो गए, बड़े आनंद में रहने लगे। फिर वहां एक संन्यासी का आना हुआ। और उस संन्यासी ने कहा कि 'तुम यह जो कर रहे हो, यह केवल कल्पना है, यह सब इमेजिनेशन है। यह परमात्मा का साक्षात नहीं है।' रामकृष्ण ने कहा, 'परमात्मा का साक्षात नहीं है? मुझे साक्षात होता है काली का।' उस संन्यासी ने कहा, 'काली का साक्षात परमात्मा का नहीं है।'
किसी को काली का होता है, किसी को क्राइस्ट का होता है, किसी को कृष्ण का होता है। ये सब मन की ही कल्पनाएं हैं। परमात्मा के साक्षात का कोई रूप नहीं है। और परमात्मा का कोई चेहरा नहीं है, और परमात्मा का कोई ढंग नहीं है, और कोई आकार नहीं है। जिस क्षण चेतना निराकार में पहुंचती है, उस क्षण वह परमात्मा में पहुंचती है।
परमात्मा का साक्षात नहीं होता है, परमात्मा से सम्मिलन होता है। आमने-सामने कोई खड़ा नहीं होता कि इस तरफ आप खड़े हैं, उस तरफ परमात्मा खड़े हुए हैं! एक घड़ी आती है कि आप लीन हो जाते हैं समस्त सत्ता के बीच, जैसे बूंद सागर में गिर जाए। और उस घड़ी में जो अनुभव होता है, वह अनुभव परमात्मा का है।
परमात्मा का साक्षात या दर्शन नहीं होता। परमात्मा के मिलन की एक अनुभूति होती है, जैसे बूंद को सागर में गिरते वक्त अगर हो, तो होगी।
तो उस संन्यासी ने कहा, 'यह तो भूल है। यह तो कल्पना है।' और उसने रामकृष्ण से कहा कि 'अपने भीतर जिस भांति इस मूर्ति को आपने खड़ा किया है, उसी भांति इसको दो टुकड़े कर दें। एक कल्पना की तलवार उठाएं और मूर्ति के दो टुकड़े कर दें।'
रामकृष्ण बोले, 'तलवार! वहां कैसे तलवार उठाऊंगा?' उस संन्यासी ने कहा, 'जिस भांति मूर्ति को बनाया, वह भी एक धारणा है। तलवार की भी धारणा करें और तोड़ दें। कल्पना से कल्पना खंडित हो जाए। जब मूर्ति गिर जाएगी और कुछ शेष न रह जाएगा--जगत तो विलीन हो गया है, अब एक मूर्ति रह गयी है, उसको भी तोड़ दें--जब खाली जगह रह जाएगी, तो परमात्मा का साक्षात होगा।' उसने कहा, 'जिसको आप परमात्मा समझे हैं, वह परमात्मा नहीं है। परमात्मा को पाने में लास्ट हिंड्रेंस, वह आखिरी अवरोध है, उसको और गिरा दें।'
रामकृष्ण को बड़ा कठिन पड़ा। जिसको इतने प्रेम से संवारा, जिस मूर्ति को वर्षों साधा, जो मूर्ति बड़ी मुश्किल से जीवित मालूम होने लगी, उसको तोड़ना! वे बार-बार आंख बंद करते और वापस लौट आते और वे कहते कि 'यह कुकृत्य मुझसे नहीं हो सकेगा!' उस संन्यासी ने कहा, 'नहीं हो सकेगा, तो परमात्मा का सान्निध्य नहीं होगा।' उस संन्यासी ने कहा, 'परमात्मा से तुम्हारा प्रेम थोड़ा कम है। एक मूर्ति को तुम परमात्मा के लिए हटाने के लिए राजी नहीं हो!' उसने कहा, 'परमात्मा से तुम्हारा प्रेम थोड़ा कम है। एक मूर्ति को तुम परमात्मा के लिए हटाने को राजी नहीं हो!'
हमारा भी परमात्मा से प्रेम बहुत कम है। हम भी बीच में मूर्तियां लिए हुए हैं, और संप्रदाय लिए हुए हैं, और ग्रंथ लिए हुए हैं। और कोई उनको हटाने को राजी नहीं है।
उसने कहा कि 'तुम बैठो ध्यान में और मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट दूंगा। और जब तुम्हें भीतर लगे कि मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट रहा हूं, एक हिम्मत करना और दो टुकड़े कर देना।' रामकृष्ण ने वह हिम्मत की और जब उनकी हिम्मत पूरी हुई, उन्होंने मूर्ति के दो टुकड़े कर दिए। तो लौटकर उन्होंने कहा, 'आज पहली दफा समाधि उपलब्ध हुई। आज पहली दफा जाना कि सत्य क्या है। आज पहली दफे कल्पना से मुक्त हुए और सत्य में प्रविष्ट हुए।'
तो इसलिए मैं किसी कल्पना करने को नहीं कह रहा हूं। कल्पना का मतलब यह, किसी ऐसी कल्पना को करने को नहीं कह रहा हूं, जो कि बाधा हो जाए। और जो थोड़ी-सी बातें मैंने कही हैं--जैसे चक्रों की, जैसे श्वास की--इनसे कोई बाधाएं नहीं, क्योंकि इनसे कोई प्रेम पैदा नहीं होता। और इनसे कोई मतलब नहीं है। ये केवल कृत्रिम उपाय हैं, जिनके माध्यम से भीतर प्रवेश हो जाएगा। और ये बाधाएं नहीं हो सकते हैं।
तो केवल उन कल्पनाओं के प्रयोग की बात कर रहा हूं, जो अंततः ध्यान में प्रवेश होने में बाधा न बन जाएं। इसलिए मैंने किसी का ध्यान करने को आपको नहीं कहा है, सिर्फ ध्यान में जाने को कहा है। ध्यान करने को नहीं, ध्यान में जाने को कहा है। किसी का ध्यान नहीं करना है, अपने भीतर ध्यान में पहुंचना है। इसे थोड़ा स्मरण रखेंगे, तो बहुत-सी बातें साफ हो सकेंगी।

एक मित्र ने पूछा है, आत्मिक शक्तियां उच्च होते हुए भी सांसारिक रुचियों के सम्मुख परास्त क्यों हो जाती हैं?

ज तक नहीं हुईं। आज तक आध्यात्मिक रुचियां सांसारिक रुचियों के सामने कभी परास्त नहीं हुई हैं। आप कहेंगे, गलत कह रहा हूं, क्योंकि आपको अपने भीतर रोज पराजय मालूम होती होगी। लेकिन मैं आपको कहूं, आपको आध्यात्मिक रुचि है? जो पराजित होती है, वह है ही नहीं, सिर्फ एक आध्यात्मिक विचार है सुना हुआ। कोई अगर यह कहे कि हीरों की मौजूदगी में भी, कंकड़ों के सामने हीरे पराजित हो जाते हैं, तो हम क्या कहेंगे! हम कहेंगे, हीरे वहां होंगे ही नहीं। हीरे काल्पनिक होंगे और कंकड़ असली होंगे। तो हीरे हार जाएंगे और कंकड़ जीत जाएंगे। और हीरे अगर वास्तविक हुए, तो कंकड़ों के सामने कैसे हार जाएंगे?
आप सोचते होंगे कि हमारे जीवन में तो सांसारिक वृत्तियां हमारी सब आध्यात्मिक वृत्तियों को पराजित कर देती हैं। आध्यात्मिक वृत्तियां कहां हैं? तो जो पराजय मालूम होती है, वह केवल काल्पनिक है। दूसरा पक्ष मौजूद ही नहीं है।
आप निरंतर सोचते होंगे कि घृणा जीत जाती है और प्रेम हार जाता है। लेकिन प्रेम है कहां? आप सोचते होंगे, धन को पाने की आकांक्षा जीत जाती है और परमात्मा को पाने की आकांक्षा हार जाती है; वह है कहां? अगर वह हो, तो कोई आकांक्षा उसके सामने जीत नहीं सकती। वह अगर हो, तो कोई आकांक्षा टिक भी नहीं सकती, जीतने का तो प्रश्न ही नहीं है।
अगर कोई कहने लगे कि प्रकाश तो है, लेकिन अंधेरा जीत जाता है। तो हम कहेंगे, आप पागल हैं। अगर प्रकाश हो, तो अंधेरा प्रवेश ही नहीं कर सकता। लड़ाई आज तक प्रकाश और अंधेरे में हुई ही नहीं है। आज तक प्रकाश और अंधकार में कोई लड़ाई नहीं हुई, क्योंकि प्रकाश के होते ही अंधेरा मौजूद ही नहीं रह जाता है। यानि वह कभी दूसरा पक्ष नहीं है लड़ाई का, तो जीतेगा क्या? और जीतता वह तभी है, जब प्रकाश मौजूद ही नहीं होता। यानि उसकी जीत प्रकाश की गैर-मौजूदगी में ही है केवल। प्रकाश की मौजूदगी में कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि वह तो विलीन हो जाता है, वह होता ही नहीं है।
जिनको आप सांसारिक वृत्तियां कह रहे हैं, वे अगर आत्मिक वृत्तियां पैदा हो जाएं, तो विलीन हो जाती हैं, पायी नहीं जाती हैं। इसलिए मेरी जो चेष्टा है पूरी, वह यह है कि मैं आपको सांसारिक वृत्तियां विलीन करने पर उतना जोर नहीं दे रहा हूं, जितना मैं जोर इस बात पर दे रहा हूं कि आपमें आत्मिक वृत्ति पैदा हो। यह पाजिटिवली आपके भीतर पैदा हो।
जब विधायक रूप से आत्मवृत्ति पैदा होती है, तो सांसारिक वृत्तियां क्षीण हो जाती हैं। जिसके भीतर प्रेम पैदा होता है, उसके भीतर घृणा विलीन हो जाती है। घृणा और प्रेम में टक्कर कभी नहीं हुई; अभी तक नहीं हुई। जिसके भीतर सत्य पैदा होता है, उसके भीतर असत्य विलीन हो जाता है। असत्य और सत्य में टक्कर आज तक नहीं हुई। जिसके भीतर अहिंसा पैदा होती है, उसकी हिंसा विलीन हो जाती है। अहिंसा-हिंसा में टक्कर आज तक नहीं हुई। पराजय का तो प्रश्न ही नहीं है, मुकाबला ही नहीं होता। हिंसा इतनी कमजोर है कि अहिंसा के आते ही क्षीण हो जाती है। अधर्म बहुत कमजोर है, संसार बहुत कमजोर है, अत्यंत कमजोर है।
इसलिए हमारा मुल्क संसार को माया कहता रहा। माया का मतलब है कि जो इतना कमजोर है कि जरा-सा ही छुआ कि विलीन हो जाए। मैजिकल है। जैसे किसी ने झाड़ बता दिया आपको कि यह आम का झाड़ लगा हुआ है। लेकिन वह जादू का झाड़ है। आप पास गए, पाया, वह नहीं है। कहीं रात को एक रस्सी लटकी हुई देखी और आपने समझा सांप है। और आप पास गए और पाया, सांप नहीं है। तो वह जो रस्सी में सांप दिखायी पड़ा था, वह माया था। वह सिर्फ दिख रहा था, था नहीं।
इसलिए हमारा मुल्क इस संसार को माया कहता है, क्योंकि जो इसके करीब जाएगा, वह पाएगा सत्य को देखते ही से कि संसार है ही नहीं। जिसको हम संसार कह रहे हैं, उसने आज तक सत्य का मुकाबला नहीं किया है।
इसलिए जब आपको लगता है कि हमारी आध्यात्मिक वृत्तियां हार जाती हैं, तो एक बात स्मरण रखें, वे वृत्तियां आपकी काल्पनिक होंगी, किताबों में पढ़कर सीख ली होंगी। वे आपके भीतर हैं नहीं।
बहुत लोग हैं! एक व्यक्ति मेरे पास आए। वे मुझसे पूछते थे कि 'पहले ऐसा होता था कि मुझे भगवान का अनुभव होने लगा था, अब मुझे नहीं होता!' मैंने उनसे कहा, 'वह कभी नहीं हुआ होगा। यह आज तक कभी हुआ है कि भगवान का अनुभव होने लगे और फिर वह न हो?' मुझे अनेक लोग आते हैं, वे कहते हैं, 'पहले हमारा ध्यान लग जाता था, अब नहीं लगता।' मैंने कहा, 'वह कभी नहीं लगा होगा। क्योंकि यह असंभव है कि वह लग गया हो और फिर न लगा हो जाए।'
जीवन में श्रेष्ठ सीढ़ियां पायी जा सकती हैं, खोयी नहीं जा सकती हैं। इसको स्मरण रखें। जीवन में श्रेष्ठ सीढ़ियां पायी जा सकती हैं, खोयी नहीं जा सकतीं। खोने का कोई रास्ता नहीं है। ज्ञान लिया जा सकता है, उपलब्ध किया जा सकता है, खोया नहीं जा सकता। यह असंभव है
पर होता क्या है, हमारे भीतर शिक्षा से, संस्कारों से कुछ धार्मिक बातें पैदा हो जाती हैं। उनको हम धर्म समझ लेते हैं। वे धर्म नहीं हैं, वे केवल संस्कार मात्र हैं। संस्कार और धर्म में भेद है। बचपन से आपको सिखाया जाता है कि आत्मा है। आप भी सीख जाते हैं। रट लेते हैं। याद हो जाता है। यह आपकी मेमोरी का, स्मृति का हिस्सा हो जाता है। बाद में आप भी कहने लगते हैं, आत्मा है। और आप समझते हैं कि हम जानते हैं कि भीतर आत्मा है।
आप बिलकुल नहीं जानते। एक सुना हुआ खयाल है, एक झूठी बात है, जो दूसरे लोगों ने आपको सिखा दी है। आपको बिलकुल पता नहीं है। फिर अगर यह आत्मा आपकी वासना के सामने हार जाए, तो आप कहेंगे, 'बड़ी कमजोर है आत्मा कि वासना के सामने हार जाती है!'
यह आत्मा आपके पास है ही नहीं। सिर्फ एक खयाल आपके भीतर है। और वह खयाल समाज ने पैदा कर दिया है, वह भी आपका नहीं है। अपने अनुभव से जब आत्मिक शक्तियों की ऊर्जा जागती है, तो संसार की शक्तियां तिरोहित हो जाती हैं। वे फिर नहीं पकड़ती हैं।
इसे स्मरण रखें। और जब तक पराजय होती हो, तब तक समझें कि जिसे आपने धर्म समझा है, वह सुना हुआ धर्म होगा, जाना हुआ धर्म नहीं है। किसी ने बताया होगा, आपने अनुभव नहीं किया है। मां-बाप से सुना होगा। परंपराओं ने आपसे कहा है, आपके भीतर घटित नहीं हुआ है। यानि प्रकाश, आप सोचते हैं कि है; है नहीं, इसलिए अंधकार जीत जाता है। और जब प्रकाश होता है, उसका होना ही अंधकार की पराजय है। अंधकार से प्रकाश लड़ता नहीं है, उसका होना ही, उसका एक्झिस्टेंस मात्र, उसकी सत्ता मात्र अंधकार की पराजय है।
इसे स्मरण रखें। और जो थोथी धार्मिक प्रवृत्तियां, आध्यात्मिक प्रवृत्तियां हारती हों, उन्हें थोथा समझकर बाहर फेंक दें। उनका कोई मतलब नहीं है। वास्तविक वृत्तियों को पैदा करने की समझ तभी आपमें आएगी, जब थोथी वृत्तियों को फेंकने की समझ आ जाए।
हममें से बहुत-से लोग अत्यंत काल्पनिक चीजों को ढोते रहते हैं, जो उनके पास नहीं हैं। यानि हम ऐसे भिखमंगों में से हैं, जो अपने को बादशाह समझे रहते हैं, जो कि हम नहीं हैं। इसलिए जब खीसे में हाथ डालते हैं और पैसे नहीं पाते हैं, तो हम कहते हैं, 'यह बादशाहत कैसी है!' वह बादशाहत है ही नहीं। भिखमंगों को एक शौक होता है, बादशाह के सपने देख लेने का। और सभी भिखमंगे जमीन पर बादशाह होने के सपने देखते रहते हैं।
तो जितने हम सांसारिक होते हैं, उतने ही धार्मिक होने के सपने भी देखते हैं। सपनों की कई तरकीबें हैं। सुबह मंदिर हो आते हैं। कभी कुछ थोड़ा दान-दक्षिणा भी करते हैं। कभी व्रत-उपवास भी रख लेते हैं। कभी कोई गीता, कुरान, बाइबिल भी पढ़ लेते हैं। तो यह भ्रम पैदा होता है कि हम धार्मिक हैं। ये सब धार्मिक होने का भ्रम पैदा करने के रास्ते हैं। और फिर जब ये धार्मिक प्रवृत्तियां जरा-सी सांसारिक प्रवृत्ति के सामने हार जाती हैं, तो बड़ा क्लेश होता है, बड़ा पश्चात्ताप होता है। और हम सोचते हैं, 'धार्मिक प्रवृत्तियां कितनी कमजोर हैं और सांसारिक प्रवृत्तियां कितनी प्रबल हैं!' आपमें धार्मिक प्रवृत्तियां हैं ही नहीं। धार्मिक होने का आप धोखा अपने को दे रहे हैं।
तो जो प्रवृत्ति हारती हो वासना के समक्ष, उसे जानना कि वह मिथ्या है। यह कसौटी है। जो आध्यात्मिक प्रवृत्ति सांसारिक प्रवृत्ति के सामने हारती हो, इसे कसौटी समझना कि वह मिथ्या है, वह झूठी है। जिस दिन कोई ऐसी प्रवृत्ति भीतर पैदा हो जाए कि जिसके मौजूद होते ही सांसारिक प्रवृत्तियां विलीन हो जाएं, खोजे से न मिलें, उस दिन समझना कि कुछ घटित हुआ है; किसी धर्म का अवतरण हुआ है।
सुबह सूरज ऊग आए और अंधेरा वैसे ही का वैसा बना रहे, तो हम समझेंगे कि सपने में देख रहे हैं कि सूरज ऊग आया है। जब सूरज ऊगता है, अंधकार अपने आप विलीन हो जाता है। आज तक सूरज का अंधकार से मिलना नहीं हुआ है। अभी तक सूरज को पता नहीं है कि अंधकार भी होता है। उसको पता हो भी नहीं सकता है। आज तक आत्मा को पता नहीं है कि वासना होती भी है। जिस दिन आत्मा जागती है, वासना पायी नहीं जाती। उनकी अभी तक मुलाकात नहीं हुई है।
इसे स्मरण रखें। इसे कसौटी की तरह स्मरण रखें। वह कसौटी उपयोगी होगी।

एक मित्र ने पूछा है कि साधना में तपश्चर्या की जरूरत है या नहीं?

मैं जो आपको कह रहा हूं--शरीर-शुद्धि, विचार-शुद्धि, भाव-शुद्धि, शरीर-शून्यता, विचार-शून्यता, भाव-शून्यता--यह तपश्चर्या है।
तपश्चर्या से लोग क्या समझते हैं? कोई आदमी धूप में खड़ा है, तपश्चर्या कर रहा है! कोई आदमी कांटों में लेटा हुआ है, तपश्चर्या कर रहा है! कोई आदमी भूखा बैठा हुआ है, तपश्चर्या कर रहा है! तपश्चर्या की हमारी दृष्टियां अत्यंत मैटीरियलिस्टिक हैं, बहुत शारीरिक हैं, हमारी दृष्टि तपश्चर्या की जो है। तपश्चर्या का अर्थ हमारे लिए शरीर-कष्ट है। शरीर को कोई कष्ट दे रहा है, तो तपश्चर्या कर रहा है। जब कि तपश्चर्या का कोई संबंध शरीर के कष्ट से नहीं है। तपश्चर्या बड़ी अदभुत बात है। तपश्चर्या कुछ बात ही और है।
एक आदमी उपवास कर रहा है। हम समझते हैं, तपश्चर्या कर रहा है। वह केवल भूखा मर रहा है। और मैं तो यह भी कहता हूं कि वह उपवास कर ही नहीं रहा है। वह केवल अनाहार है। अनाहार रहना, भोजन न करना एक बात है। उपवास में रहना बिलकुल दूसरी बात है।
उपवास का मतलब है, परमात्मा के निकट निवास। उपवास का अर्थ है, आत्मा के निकट होना। उपवास का अर्थ है, आत्मा के सान्निध्य में होना। और अनाहार का क्या मतलब है? अनाहार का मतलब है, शरीर के सान्निध्य में होना। वे विपरीत बातें हैं।
भूखा आदमी शरीर के सान्निध्य में होता है, आत्मा के सान्निध्य में नहीं। उससे तो पेट भरा हुआ आदमी कम सान्निध्य में होता है शरीर के। क्योंकि भूखा आदमी पूरे वक्त भूख की और पेट की और शरीर के संबंध में सोचता है। उसके चिंतन की धारा शरीर होती है। उसका आंतरिक सान्निध्य शरीर से और रोटी से होता है।
अगर भूखा रहना कोई सदगुण होता, तो दरिद्रता गौरव हो जाती। अगर भूखे मरना कोई आध्यात्मिकता होती, तो दरिद्र मुल्क आध्यात्मिक हो जाते। लेकिन आपको पता है, कोई दरिद्र मुल्क कभी आध्यात्मिक नहीं होता। आज तक नहीं हुआ है। जब कोई कौम समृद्ध होती है, तब वह धार्मिक हो पाती है।
जिन दिनों का आपको स्मरण है, जब ये पूरब के मुल्क धार्मिक थे, भारत धार्मिक था, वे बड़े समृद्धि के, बड़े सुख के, बड़े सौभाग्य के दिन थे। महावीर और बुद्ध राजाओं के पुत्र थे, जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के पुत्र थे, यह आकस्मिक नहीं है। अभी तक किसी दरिद्र घर में कोई तीर्थंकर क्यों पैदा नहीं हुआ?
पीछे कारण है। अत्यंत समृद्धि में पहली बार तपश्चर्या शुरू होती है। दरिद्र तो शरीर के निकट होता है, समृद्ध शरीर से मुक्त होने लगता है। इस अर्थों में मुक्त होने लगता है कि उसकी जरूरतें तो शरीर की पूरी हो गयी होती हैं और नयी जरूरतों का उसे पहली दफा बोध होता है, जो आत्मा की हैं।
इसलिए मैं भूखे मरने के पक्ष में नहीं हूं, न किसी को भूखे मारने के पक्ष में हूं और न गरीबी को अध्यात्मवाद कहता हूं। जो लोग ऐसा कहते हैं, वे धोखे में हैं और दूसरों को धोखे में डाल रहे हैं। और वे केवल गरीबी का समर्थन कर रहे हैं और संतोष के झूठे रास्ते निकाल रहे हैं।
भूखे रहने का कोई मूल्य नहीं है, उपवास का मूल्य है। हां, यह हो सकता है कि उपवास की हालत में भोजन का स्मरण न रहे और अनाहार हो जाए। यह बिलकुल दूसरी बात है।
महावीर तपश्चर्या करते थे, तो भूखे रहने की नहीं करते थे, उपवास की कर रहे थे। उपवास का मतलब है, वे निरंतर कोशिश कर रहे थे कि आत्मा के सान्निध्य में पहुंच जाऊं। किसी घड़ी जब वे आत्मा के सान्निध्य में पहुंच जाते थे, शरीर का बोध भूल जाता था। ये घड़ियां लंबी हो सकती हैं। एक दिन, दो दिन, महीना भी बीत सकता है।
महावीर के बाबत कहा जाता है, बारह वर्षों की तपश्चर्या में उन्होंने केवल तीन सौ पचास दिन भोजन लिया। महीने और दो-दो महीने भी बिना भोजन के बीते। आप सोचते हैं, भूखे अगर रहते, तो दो महीने बीत सकते थे? भूखा आदमी तो मर जाता। लेकिन महावीर नहीं मरे, क्योंकि शरीर का बोध ही नहीं था उन क्षणों में। आत्मा की इतनी निकटता थी, इतना सान्निध्य था कि शरीर है, इसका भी पता नहीं था।
और यह बड़े रहस्य की बात है। अगर आपको शरीर है, इसका पता न रह जाए, तो शरीर बिलकुल दूसरी व्यवस्था से काम करने लगता है और उसे भोजन की जरूरत नहीं रह जाती। अब यह एक बड़ी वैज्ञानिक बात है। अगर आपको बिलकुल शरीर का बोध न रह जाए, तो शरीर बहुत दूसरी व्यवस्था से काम करने लगता है और उसे भोजन की उतनी जरूरत नहीं रह जाती। और जितना व्यक्ति आत्मिक जीवन में प्रविष्ट होता है, उतना ही वह भोजन से बहुत सूक्ष्म, बहुत सूक्ष्म शक्ति को उत्पन्न करना संभव उसके लिए हो जाता है, जो कि सामान्य व्यक्ति को संभव नहीं होता।
तो महावीर जब भूखे रहे, उसका कुल कारण इतना है कि वे आत्मा के इतने निकट थे कि उन्हें याद नहीं रहा। पीछे संभवतः एक घटना घटी।
एक संन्यासी मेरे पास थे, वे मुझसे एक दिन बोले कि 'मैं आज उपवास किया हूं।' मैंने कहा, 'अनाहार किया होगा, उपवास क्या किया होगा!' वे बोले, 'अनाहार और उपवास में क्या फर्क है?' मैंने कहा, 'अनाहार में यह है कि हम भोजन छोड़ देते हैं और भोजन का चिंतन करते हैं। और उपवास का अर्थ यह है कि हमें भोजन से कोई मतलब ही नहीं होता, हम आत्मा के चिंतन में होते हैं और भोजन भूल जाता है।'
उपवास तो तपश्चर्या है और अनाहार शरीर-कष्ट है, शरीर-दमन है। अनाहार अहंकारी लोग करते हैं, उपवास निरहंकारी करते हैं। अनाहार में दंभ की तृप्ति होती है, मैं इतने दिन अनाहार रहा! चारों तरफ प्रशंसा और सुख सुनने में आता है। चारों तरफ धार्मिक होने की खबर फैलती है। थोड़े-से शरीर-कष्ट में इतने दंभ की तृप्ति होती है। तो जो बहुत दंभी होते हैं, वे इतना करने को राजी हो जाते हैं।
यह मैं आपसे स्पष्ट कहूं, ये अहंकार की ही वृत्तियां हैं। ये धर्म की वृत्तियां नहीं हैं। धार्मिक व्यक्ति जरूर उपवास करते हैं, अनाहार नहीं करते। उपवास का मतलब यह है कि वे सतत संलग्न होते हैं इस चेष्टा में कि आत्मा की निकटता मिल जाए। और जब वे आत्मा के निकट होने लगते हैं, तो कभी ऐसे मौके आते हैं कि भोजन भूल जाता है, स्मरण नहीं होता।
इसे मैं हर तरह से आपको कहूं, यानि न केवल यह इस मामले में, बल्कि हर मामले में सही है। कल पीछे मैं सेक्स की और प्रेम की बात आपसे कर रहा था या कोई और बात हो। जो आदमी सेक्स के दमन में लगा है, वह हमको तपस्वी मालूम होगा, जब कि वह तपस्वी नहीं है। तपस्वी वह है, जो प्रेम के विकास में लगा है। और प्रेम के विकास से सेक्स अपने आप विलीन हो जाएगा। परमात्मा की निकटता जैसे-जैसे मिलने लगेगी, शरीर के बाबत बहुत-से परिवर्तन हो जाएंगे। शरीर की दृष्टि बदल जाएगी; देह-दृष्टि परिवर्तित हो जाएगी।
तपश्चर्या मैं उस विज्ञान को कहता हूं, जिसके माध्यम से व्यक्ति, 'मैं देह हूं', इसे भूलकर, 'मैं आत्मा हूं', इसे जानता है। तपश्चर्या एक टेक्नीक की बात है। तपश्चर्या एक टेक्नीक है, एक सेतु है, एक रास्ता है, जिसके माध्यम से व्यक्ति मैं देह हूं, इसको भूल जाता है और उसे इस बोध का जन्म होता है कि मैं आत्मा हूं।
लेकिन भ्रांत तपश्चर्याएं सारी दुनिया में चली हैं और उन भ्रांत तपश्चर्याओं ने बड़े खतरे पैदा किए हैं। उनसे कुछ दंभियों का दंभ तो तृप्त होता है, लेकिन जन-मानस को नुकसान पहुंचता है। क्योंकि जन-मानस समझता है, यही तपश्चर्या है, यही साधना है, यही योग है। ये कुछ साधनाएं नहीं हैं, कुछ योग नहीं हैं।
और एक बात आपको कह दूं, जो लोग इस तरह से शरीर-दमन में उत्सुक होते हैं, वे कुछ न्यूरोटिक होते हैं, थोड़े-से विक्षिप्त होते हैं। और भी मैं आपको एक बात कहूं कि जो लोग अपने शरीर को कष्ट देने में मजा लेते हैं, ये वे ही लोग हैं, जिन्होंने किसी दूसरे के शरीर को कष्ट देने में मजा लिया होता। और यह केवल परिवर्तन की बात है कि जो कष्ट इन्होंने दूसरों को देने में मजा लिया होता, ये अपने ही शरीर को देकर ले रहे हैं। ये हिंसक लोग हैं। यह आत्महिंसा है। यह अपने साथ हिंसा है।
और यह भी मैं आपको स्मरण दिला दूं, मनुष्य के भीतर दो तरह की वृत्तियां होती हैं। एक उसमें जीवन की वृत्ति होती है कि मैं जीवित रहूं। आपको यह शायद पता न हो, उसमें एक मृत्यु की वृत्ति भी होती है कि मैं मर जाऊं। अगर मृत्यु की वृत्ति न हो, तो दुनिया में आत्महत्याएं नहीं हो सकती हैं। मृत्यु की एक सोयी हुई वृत्ति, एक डेथ इंस्टिंक्ट हर आदमी के भीतर है। ये दोनों उसके साथ बैठी हुई हैं।
वह जो मृत्यु की वृत्ति है, वह अनेक बार आदमी को अपनी ही हत्या करने के लिए उत्सुक करती है। उसमें भी रस आना शुरू हो जाता है। कई लोग एकदम आत्महत्या कर लेते हैं, कुछ लोग धीरे-धीरे करते हैं। जो धीरे-धीरे करते हैं, वे हमें लगते हैं, तपस्वी हैं। जो एकदम कर लेते हैं, हम कहते हैं, उन्होंने आत्महत्या कर ली। जो धीरे-धीरे करते हैं, वे हमें लगते हैं, तपस्वी हैं।
तपश्चर्या आत्महत्या नहीं है। तपश्चर्या का मृत्यु से संबंध नहीं है, अनंत जीवन से संबंध है। तपश्चर्या मरने को नहीं और पूर्ण जीवन को पाने को उत्सुक होती है।
तो तपश्चर्या की मेरी दृष्टि, जो मैंने अभी तीन सूत्र आपसे कहे हैं और तीन सूत्र की और हम चर्चा करेंगे, उन छः सूत्रों से है। उन छः सूत्रों में जो प्रवेश करता है। क्या आप नहीं सोचते, क्या यह तपश्चर्या है कि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को छोड़कर भाग जाए? हम इसको तपश्चर्या कहेंगे, हम इसको संन्यासी कहेंगे! जब कि यह हो सकता है, यह पत्नी को छोड़कर भाग गया हो और पत्नी का चिंतन करता हो। तपश्चर्या यह है कि पत्नी पास बैठी रहे और भूल जाए। तपश्चर्या यह है कि पत्नी पास बैठी रहे और भूल जाए, तपश्चर्या यह नहीं है कि हम भाग जाएं दूर और चिंतन उसका चलता रहे।
और स्मरण रखिए, जो लोग जिन चीजों को छोड़कर भागते हैं, वे लोग उन्हीं चीजों का चिंतन करते रहते हैं। यह असंभव है कि उनको उन्हीं चीजों का चिंतन न चले। क्योंकि अगर वे ऐसे लोग होते कि उन चीजों का चिंतन उन्हें नहीं चलेगा, तो उनकी मौजूदगी में भी नहीं चलता।
और मैं आपको यह भी कहूं, चीजें जब मौजूद होती हैं, तो उनका चिंतन नहीं चलता है; जब वे मौजूद नहीं रह जाती हैं, तब चिंतन चलता है। क्या आपको खुद इसका अनुभव नहीं है? जो मौजूद है, उसका चिंतन नहीं चलता। चिंतन, जो मौजूद नहीं रह जाता, उसका चलता है। जिनको आप प्रेम करते हैं, अगर वे आपके निकट हैं, तो आप उनको भूल जाते हैं; जब वे दूर होते हैं, तो वे याद आने लगते हैं। वे जितने दूर होते हैं, उतनी प्रगाढ़ उनकी स्मृति घनी होने लगती है।
संन्यासी जिनको हम कहते हैं, उनके कष्ट का आपको पता नहीं है। और अगर दुनिया के सारे संन्यासी ईमानदार हों, तो संन्यासी होने का भ्रम टूट जाए। और अगर वे ईमान से अपनी आत्मव्यथा को कह दें, जो उनके भीतर घटित होता है और जो वेदनाएं वे सहते हैं और जिन वासनाओं से वे ग्रसित होते हैं और जो वासनाएं उन्हें पीड़ा देती हैं और जो शैतान उन्हें सताता हुआ मालूम होता है, अगर वे उस सबको खोल दें, तो आपको पता चले कि नर्क जमीन पर और कहीं नहीं हो सकता है। यह मैं इसलिए आपको विश्वास से कह रहा हूं कि नर्क जमीन पर और कहीं नहीं हो सकता है, उस आदमी का जीवन नर्क है, जिसने वृत्तियों का समपरिवर्तन, ट्रांसफार्मेशन तो नहीं किया और जो भाग खड़ा हुआ है।
तपश्चर्या भागना नहीं है, ट्रांसफार्मेशन है। तपश्चर्या रिनंसिएशन नहीं है, ट्रांसफार्मेशन है। तपश्चर्या त्याग नहीं है, समपरिवर्तन है। उस समपरिवर्तन से जो भी घटित हो, वह ठीक है। भागने से, त्यागने से जो भी घटित हो, वह ठीक नहीं है। और काश, हमें यह समझ में आ जाए, तो बहुत लाभ हो सकता है।
लाखों जीवात्माएं कष्ट भोग रही हैं। उनका मजा एक ही है, वह सिर्फ दंभ की तृप्ति का है। वह भी उनमें से थोड़ों का तृप्त हो पाता है, सभी का तृप्त नहीं हो पाता। उसमें जो बहुत प्रतिभाशाली होते हैं किसी कारण से, उनका दंभ तो तृप्त हो जाता है, शेष सिर्फ कष्ट भोगते हैं। लेकिन इस आशा में कि शायद स्वर्ग मिलेगा, शायद नर्क से बच जाएंगे, शायद मोक्ष मिलेगा। वही लोभ जो आपको पकड़े हुए है, उन्हें पकड़े रहता है। और लोभ बहुत-से कष्ट सहने की सामर्थ्य दे देता है। एक साधारण आदमी भी लोभ में बहुत कष्ट सह लेता है। एक साधारण धन का कामी भी कितने कष्ट सहता है धन को पाने में! स्वर्ग के लोभी भी सह लेते हैं।
जब क्राइस्ट को लोग हत्या के लिए सूली पर ले जाने लगे, तो उनके एक शिष्य ने पूछा, 'यह तो बता दें, हमने आपके लिए यह सब छोड़ा, भगवान के राज्य में हमारे साथ क्या व्यवहार होगा?' उसने कहा, 'हमने आपके लिए सब छोड़ा, भगवान के राज्य में हमारे लिए क्या स्थान होगा? क्या व्यवहार होगा?' क्राइस्ट ने उसे बहुत दया से देखा होगा और शायद दयावश या मजाक में, पता नहीं उन्होंने क्यों कहा, उन्होंने कहा, 'भगवान के पास ही तुम्हारे लिए भी स्थान रहेगा।' वह आदमी खुश हो गया। उसने कहा, 'तब ठीक है।'
इस आदमी को त्यागी कहिएगा? इससे बड़े लोभी खोजने जमीन पर मुश्किल हैं। जिसने पूछा कि 'हमने सब छोड़ा और वहां क्या मिलेगा?' जिसको मिलने का खयाल है, उसने कुछ छोड़ा ही नहीं। इसलिए यह सारी तपश्चर्या वाली जो बातें हैं, इन तपश्चर्या की बात करने वाले हरेक साथ में प्रलोभन भी देते हैं कि इस तपश्चर्या के साथ यह मिलेगा।
वह तपश्चर्या झूठी है, जिसमें मिलने का खयाल है। क्योंकि वह तपश्चर्या ही नहीं है, वह लोभ का एक रूप है। इसलिए जितनी तपश्चर्याएं हैं, आपको सब में साथ लगा हुआ मिलेगा पीछे ही कि इस तपश्चर्या को करने से यह मिलेगा। और जिन-जिन ने यह तपश्चर्या की पीछे इतिहास में, उनको यह-यह मिला है। ये सब ग्रीड के, लोभ के रूप हैं।
तपस्वी वह है, सिर्फ एक ही तपश्चर्या है और वह यह है कि वह स्वयं को जानने में लगे। इस वजह से नहीं कि स्वयं को जानने से कोई स्वर्ग में जगह मिल जाएगी, कोई बहिश्त में जगह मिल जाएगी, कोई बड़ा सुख होगा, बल्कि इसलिए कि स्वयं को न जानना जीवन को ही नहीं जानना है। और स्वयं को न जानना--जिसमें थोड़ा भी बोध है, उसे स्वयं को जानने की वृत्ति का और विचार का पैदा न हो जाना असंभव है। उसे हो ही जाएगा कि वह जाने कि मैं कौन हूं, कि वह परिचित हो कि मेरे भीतर यह जीवन-शक्ति क्या है।
तपश्चर्या जीवन-सत्य को जानने का उपाय है। तपश्चर्या शरीर-दमन नहीं है। हां, यह हो सकता है कि तपस्वी को बहुत-सी बातें घटित होती हों, जो आपको लगती हों कि वह देह-दमन कर रहा है, जब कि वह नहीं कर रहा है।
महावीर की मूर्तियां देखी हैं! उन मूर्तियों से क्या ऐसा लगता है कि इस आदमी ने देह-दमन की होगी? वैसी देहें दिखायी पड़ती हैं?
और फिर महावीर के पीछे चलने वाले संन्यासी देखे हैं! उन्हें देखकर ही लगेगा कि इन्होंने देह-दमन किया है। रूखे, सूख गए उनके प्राणस्रोत हैं। उदास और शिथिल उनकी काया है, वैसा ही चित्त भी शिथिल है। सिर्फ एक लोभ के वश खींचे चले जा रहे हैं। वह आनंद कहां है, वह शांति कहां है, जो महावीर की मूर्ति में दिखायी पड़ती है?
यह थोड़ा विचारणीय है। महावीर के शरीर पर जो भी परिणाम हुए होंगे...। महावीर ने वस्त्र छोड़ दिए। हम सोचे, उन्होंने वस्त्र छोड़ दिए, क्योंकि उन्होंने सोचा कि वस्त्र का त्याग करना चाहिए। नहीं, क्योंकि उन्होंने जाना कि नग्न होने का भी आनंद है।
मैं आपको यह बहुत एम्फेटिकली, बहुत जोर से कहना चाहता हूं। महावीर ने वस्त्र इसलिए नहीं छोड़े कि वस्त्र छोड़ने में कोई आनंद है, वस्त्र इसलिए छोड़े कि नग्न होने में कोई आनंद है। नग्न होना इतना आनंद है कि वस्त्र पहनना कष्ट हो गया। नग्न होना इतना आनंद अनुभव हुआ कि वस्त्र का होना कष्ट हो गया। वस्त्र फेंक दिए।
उनके पीछे चलने वाला संन्यासी जब वस्त्र छोड़ता है, तब उसे वस्त्र छोड़ने में आनंद नहीं होता, वस्त्र छोड़ने में कष्ट होता है। और कष्ट मानकर वह समझता है, मैं तपश्चर्या कर रहा हूं। जैसे-जैसे वस्त्र छोड़ता है, वह समझता है, मैं तपश्चर्या कर रहा हूं। महावीर के लिए वह तपश्चर्या नहीं है, केवल एक आनंद का कृत्य है। उनके पीछे अगर कोई चल रहा हो, बिना उन्हें समझे, उनकी आत्मा को समझे, वह केवल वस्त्र छोड़ेगा। वस्त्र छोड़ना उसके लिए कष्ट होगा, इसलिए इसको वह तपश्चर्या कहेगा।
तपश्चर्या कष्ट नहीं है। तपश्चर्या से बड़ा कोई आनंद नहीं है। लेकिन जो उसे बाहर से पकड़ेंगे, उन्हें वह कष्ट दिखाई पड़ेगी, उन्हें वह पीड़ा मालूम पड़ेगी। और उतनी पीड़ा उठाने के बदले वे अपने दंभ को तृप्त करेंगे जमीन पर और लोभ को तृप्त करेंगे परलोक में। मैं उसको तपश्चर्या नहीं कहता हूं।
तपश्चर्या मन का, देह का सहयोग लेकर अंतस में प्रवेश की विधि है। वह भी इस अर्थों में दुर्गम और दुरूह है कि उसके लिए बहुत संकल्प की जरूरत है।
आप थोड़ा सोचें, अगर मैं बरसात भर भी बाहर खड़ा रहूं, तो क्या उसमें ज्यादा तपश्चर्या है या इसमें कि जब मुझे कोई गाली दे तो मेरे भीतर क्रोध न उठे? मैं कांटों पर लेटा रहूं, उसमें ज्यादा तपश्चर्या है या इसमें कि जब मुझे कोई पत्थर मारे तो मेरे हृदय से भीतर उसको पत्थर मारने की कल्पना न उठे? किस में तपश्चर्या है?
कांटों पर लेटना सर्कस में भी कोई कर सकता है। धूप में खड़ा होना केवल एक अभ्यास है। और थोड़े दिन अभ्यास करने के बाद उसमें कोई मतलब नहीं है। वह बड़ा आसान है। वह बिलकुल आसान है। नग्न रहना एक अभ्यास है। आखिर जमीन पर सारे आदिवासी नग्न रहते हैं। लेकिन उसको हम तपश्चर्या नहीं कहते। और हम जाकर उनके पैर नहीं पड़ते कि आप नग्न हैं, तो आप बहुत बड़ा काम कर रहे हैं! हम जानते हैं, यह उनका अभ्यास है। यह उनके लिए सहज है। इसमें कोई अड़चन नहीं है, कोई कठिनाई नहीं है।
तपश्चर्या मात्र अभ्यास नहीं है कि किसी चीज का अभ्यास कर लिया। लेकिन हम अधिकतर जिनको तपस्वी कहेंगे, उनमें से सौ में से निन्यानबे लोगों की हालत ऐसी है। मुश्किल से कभी कोई वह आदमी मिलेगा, जिसकी तपश्चर्या उसके आनंद का फल है। और जब आनंद का फल होती है तपश्चर्या, तभी वह सत्य होती है। और जब वह दुख की आराधना होती है, तब वह सुसाइडल इंस्टिंक्ट, वह आत्महत्या की वृत्ति का रूपांतर होती है और कुछ भी नहीं होती। वह धार्मिक नहीं है, वह न्यूरोटिक है; वह विक्षिप्त होने की बात है।
और दुनिया में अगर समझ बढ़ेगी, तो ऐसे संन्यासी को हम चिकित्सालय भेजेंगे, मंदिर नहीं। और यह वक्त आएगा जल्दी कि यह समझ पैदा होगी। और हमें ऐसे आदमी का इलाज करवाना पड़ेगा, जो अपने को कष्ट देने में रस ले रहा है।
अगर शरीर के द्वारा भोगने में कोई रस आ रहा है किसी को, वह भी एक बीमार है। और अगर शरीर को दुख देने में किसी को रस आ रहा है, वह उलटे छोर पर वह भी बीमार है। शरीर के माध्यम से अगर भोगने में रस आ रहा है, यह एक बीमारी है, यह भोगी की बीमारी है। और अगर शरीर को कष्ट देने में किसी को रस आ रहा है, यह भी एक बीमारी है, यह विरागी की बीमारी है।
बीमारी से मुक्त वह है, जो शरीर का उपयोग कर रहा है। शरीर से न तो रस ले रहा है, न उसके भोग से, न उसके त्याग से। शरीर केवल एक उपकरण है। उसको दबाकर या उसको फुलाकर, उस पर जिसका न कोई सुख आधारित है, न कोई दुख आधारित है; जिसके आनंद शरीर पर निर्भर नहीं हैं, जिसके आनंद आत्मा पर निर्भर हैं, वह आदमी संन्यास की तरफ गतिमान है। और जिसके आनंद शरीर पर निर्भर हैं...।
तो दो तरह के लोग हैं, जिनके आनंद शरीर पर निर्भर हैं। एक वे लोग, जो ज्यादा खाकर आनंद लेते हैं। एक वे लोग, जो अनाहार रहकर आनंद लेते हैं। लेकिन दोनों शरीर का आनंद ले रहे हैं। यानि अगर उनका कोई भी रस है, तो वह शरीर से बंधा हुआ है।
इसलिए भोगी और इस तल के संन्यासी, दोनों को मैं भौतिकवादी और शरीरवादी कहता हूं। धर्म के इस शरीरवादी रूपांतर से बहुत अहित हुआ है। धर्म को वापस, उसके आत्मिक रूपों को प्रतिष्ठापित करने की जरूरत है।

इसी संबंध में एक अंतिम प्रश्न और। किसी ने पूछा है कि राग और विराग और वीतराग में क्या भेद है?

जो मैंने अभी बात कही, उसे अगर समझेंगे, तो राग का अर्थ है, किसी चीज में आसक्ति; विराग का अर्थ है, उस आसक्ति का विरोध। एक व्यक्ति धन इकट्ठा करता है, यह राग है। और एक आदमी धन को लात मारकर भाग जाता है, यह विराग है।
लेकिन दोनों की दृष्टि धन पर लगी है। जो इकट्ठा कर रहा है, वह भी धन का चिंतन करता है। जो छोड़कर जा रहा है, वह भी धन का चिंतन करता है। एक उसे इकट्ठा करके मजा ले रहा है कि मेरे पास इतना है। इतना है, इससे उसका दंभ परिपूरित हो रहा है। दूसरा इससे दंभ को परिपूरित कर रहा है कि मैंने इतने को छोड़ा है।
आप हैरान होंगे, जिनके पास धन है, वे भी आंकड़े रखते हैं कि कितना है। और जिन्होंने छोड़ा है, वे भी आंकड़े रखते हैं कि कितना छोड़ा है। साधुओं और संन्यासियों की फेहरिस्तें निकलती हैं कि उन्होंने कितने उपवास किए हैं! कितने-कितने प्रकार के उपवास किए हैं, सबका हिसाब-किताब रखते हैं। क्योंकि त्याग का भी हिसाब होता है, भोग का भी हिसाब होता है। राग भी हिसाब करता है, विराग भी हिसाब करता है। क्योंकि दोनों की नजर एक है, दोनों का बिंदु एक है, दोनों की पकड़ एक है।
वीतराग का अर्थ विराग नहीं है। वीतराग का अर्थ राग और विराग दोनों से मुक्त होना है। वीतराग का अर्थ है, चित्त की वह स्थिति कि न हम आसक्त हैं, न हम अनासक्त हैं। हमें कोई मतलब ही नहीं है। एक व्यक्ति के पास धन पड़ा हो, उसे कोई मतलब ही नहीं।
कबीर का एक लड़का था, कमाल। कबीर को अत्यंत विराग की आदत थी। कमाल की आदतें उन्हें पसंद नहीं थीं। कमाल को कोई भेंट कर जाता कुछ, तो कमाल रख लेता। कबीर ने उसे कई बार कहा कि 'किसी की भेंट स्वीकार मत करो। हमें धन की कोई जरूरत नहीं।' उसने कहा, 'अगर धन बेकार है, तो नहीं कहने की भी क्या जरूरत है? अगर धन बेकार है, तो हम उसको मांगने नहीं गए, क्योंकि बेकार है। फिर कोई यहां पटकने आ गया, तो हम उसे नहीं भी नहीं करते, क्योंकि बेकार है।'
कबीर को पसंद नहीं पड़ा। उन्होंने कहा कि 'तुम अलग रहो।' उनका विराग इससे खंडित होता था। कमाल अलग कर दिया गया। वह अलग झोपड़े में रहने लगा।
काशी के नरेश मिलने जाते थे। उन्होंने पूछा, 'कमाल दिखाई नहीं पड़ता!' कबीर ने कहा, 'उसके ढंग मुझे पसंद नहीं। आचरण शिथिल है। अलग किया है। अलग रहता है।' पूछा, 'क्या कारण है?' कहा, 'धन पर लोभ है। कोई कुछ देता है, तो ले लेता है।'
वह राजा गया। उसने एक बहुत बहुमूल्य हीरा जाकर उसके पैर में रखा और नमस्कार किया। कमाल ने कहा, 'लाए भी तो एक पत्थर लाए!' कमाल ने कहा, 'लाए भी तो एक पत्थर लाए!' राजा को हुआ कि कबीर तो कहते थे कि उसका मोह है। और वह तो कहता है कि लाए भी तो एक पत्थर लाए! तो वह उठाकर उसे रखने लगा। तो कमाल ने कहा, 'अगर पत्थर है, तो अब वापस ढोने का कष्ट मत करो।' कमाल ने कहा, 'अगर पत्थर है, तो वापस ढोने का कष्ट मत करो। नहीं तो अब भी तुम उसको हीरा समझ रहे हो।' राजा बोला, 'यह तो कुछ चालाकी की बात है।' फिर उसने कहा कि 'मैं इसे कहां रख दूं?' कमाल ने कहा, 'अगर पूछते हो कि कहां रख दूं, तो फिर पत्थर नहीं मानते। कहां रख दूं पूछते हो, तो फिर पत्थर नहीं मानते। डाल दो। रखने की क्या बात है!' फिर उसने झोपड़े में खोंस दिया सनोलियों में। वह चला गया। उसने सोचा कि यह तो बेईमानी की बात है। मैं मुड़ा और वह निकाल लिया जाएगा।
वह छः महीने बाद वापस पहुंचा। उसने जाकर कहा कि 'कुछ समय पहले मैं कुछ भेंट कर गया था।' कमाल ने कहा, 'बहुत लोग भेंट कर जाते हैं। और अगर उनकी भेंटों में मतलब होता, तो या तो हम उत्सुकता से उनको रखते या उत्सुकता से लौटाते।' उसने कहा, 'अगर उनकी भेंटों में कोई मतलब होता, तो या तो उत्सुकता से हम रखते या उत्सुकता से लौटाते। लेकिन भेंट बेमानी है, इसलिए कौन हिसाब रखता है! जरूर दे गए होगे। तुम कहते हो, तो जरूर दे गए होगे।' उसने कहा, 'वह भेंट ऐसी आसान नहीं थी; बहुत बहुमूल्य थी। कहां है वह पत्थर जो मैं दे गया था?' कमाल ने कहा, 'यह तो मुश्किल हो गयी। तुम कहां रख गए थे?'
उसने देखा झोपड़े में जाकर, जहां उसने खोंसा था, वह पत्थर वहीं रखा हुआ था। वह हैरान हुआ। उसकी आंख खुली।
यह आदमी अदभुत था। इसके लिए वह पत्थर ही था। इसको मैं वीतरागता कहूंगा। यह विराग नहीं है। यह विराग नहीं है, यह वीतरागता है।
राग है किसी को पकड़ने में रस। विराग है उसी को छोड़ने में रस। वीतरागता का मतलब है, उसका अर्थहीन हो जाना; उसका मीनिंगलेस हो जाना। वीतरागता ही लक्ष्य है। वीतरागता ही लक्ष्य है। जो उसे उपलब्ध होते हैं, वे परम आनंद को उपलब्ध होते हैं। क्योंकि बाहर से उनके सारे बंधन क्षीण हो जाते हैं।

एक और प्रश्न इस संबंध में है कि मैंने जो साधना की भूमिका कही है, शरीर-शुद्धि, विचार-शुद्धि और भाव-शुद्धि की, क्या उसके बिना ध्यान असंभव है?
नहीं, उसके बिना भी ध्यान संभव है, लेकिन बहुत कम लोगों को संभव है। उसके बिना भी ध्यान संभव है, लेकिन बहुत कम लोगों को संभव है। अगर ध्यान में परिपूर्ण संकल्प से प्रवेश हो, तो इनमें से किसी को भी शुद्ध किए बिना ध्यान में प्रवेश हो सकता है। और प्रवेश होते ही ये सब शुद्ध हो जाएंगे। लेकिन अगर यह संभव न हो, इतना संकल्प जुटाना आसान न हो--बहुत मुश्किल है इतना संकल्प जुटाना--तो फिर क्रमशः इनको शुद्ध करना पड़ेगा।
इनके शुद्ध होने से ध्यान नहीं मिलेगा, इनके शुद्ध होने से संकल्प की प्रगाढ़ता मिलेगी। इनके शुद्ध होने से इनकी अशुद्धि में जो शक्ति व्यय होती है, वह बचेगी और वह शक्ति संकल्प में परिणत होगी और ध्यान में प्रवेश होगा। ये सहयोगी हैं, अनिवार्य नहीं हैं।
तो जिनको भी संभव न मालूम पड़े कि ध्यान में सीधा प्रवेश हो सकता है, उनके लिए अनिवार्य हैं, अन्यथा उनका ध्यान में प्रवेश ही नहीं हो सकेगा। लेकिन अनिवार्य इसलिए नहीं हैं कि अगर किसी में बहुत प्रगाढ़ संकल्प हो, तो एक क्षण में भी बिना कुछ किए ध्यान में प्रवेश हो सकता है। एक क्षण में भी! अगर कोई अपने पूरे प्राणों को इकट्ठा पुकारे और कूद जाए, तो कोई वजह नहीं है कि उसे कोई रोकने को है। कोई रोकने को नहीं है, कोई अशुद्धि रोकने को नहीं है। लेकिन उतने पुरुषार्थ को पुकारना कम लोगों का सौभाग्य है। उतने साहस को जुटा लेना कम लोगों का सौभाग्य है। उतना साहस वे ही लोग जुटा सकते हैं, जैसे मैं एक कहानी कहूं।
एक आदमी था, उसने सोचा कि दुनिया का अंत जरूर कहीं होगा। तो वह खोजने निकला। वह दुनिया का अंत खोजने निकला। वह गया। वह चला। हजारों मील चलना पड़ा। और लोगों से पूछता रहा कि 'मुझे दुनिया का अंत खोजना है।'
आखिर में एक मंदिर आया और उस मंदिर के वहां लिखा था, 'हियर एंड्स दि वर्ल्ड।' वहां एक तख्ती लगी थी, उस पर लिखा था, 'यहां दुनिया समाप्त होती है।' वह बहुत घबरा गया। तख्ती आ गयी। थोड़ी ही दूर में दुनिया समाप्त होती है। नीचे तख्ती के लिखा था, 'आगे मत जाना।'
लेकिन उसे दुनिया का अंत देखना था, वह आगे गया। थोड़े ही फासले पर जाकर दुनिया समाप्त हो जाती थी। एक किनारा था और नीचे खड्ड था अनंत। उसने जरा ही आंख की, और उसके प्राण कंप गए। वह लौटकर भागा। वह पीछे लौटकर भी नहीं देख सकता। वहां अनंत खड्ड था। छोटे खड्ड घबरा देते हैं; अनंत! दुनिया का अंत था। खड्ड अंतिम था। और फिर उस खड्ड के नीचे कुछ भी नहीं था। उसने देखा और वह भागा।
वह घबराहट में मंदिर के अंदर चला गया और उसने पुजारी से कहा, 'यह अंत तो बड़ा खतरनाक है।' उस पुजारी ने कहा, 'अगर तुम कूद जाते, तो जहां दुनिया समाप्त होती है, वहीं परमात्मा मिल जाता है।' उसने कहा, 'अगर तुम कूद ही जाते उस खड्ड में, तो जहां दुनिया समाप्त होती है, वहीं परमात्मा मिल जाता है।'
लेकिन उतना साहस जुटाना कि अनंत खड्ड में कोई कूद जाए, जब तक न हो, तब तक ध्यान के लिए भूमिकाएं जरूरी हैं। और अनंत खड्ड में कूदने के लिए जो राजी है, उसके लिए कोई भूमिका नहीं है। कोई भूमिका होती है क्या? कोई भूमिका नहीं है। इसलिए इन भूमिकाओं को हम बहिरंग साधन कहे हैं। ये बाहर के साधन हैं, थोड़ी सहायता देंगे। साहस जिसमें हो, वह सीधा कूद जाए। न साहस हो, सीढ़ियों का उपयोग करे। यह स्मरण रखेंगे।
ये प्रश्न, इतने ही आज चर्चा हो सकेंगे। फिर कुछ शेष होंगे, उन पर कल हम विचार करेंगे।

आज इतना ही।


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