मेरे
प्रिय आत्मन्,
सत्य
क्या है? क्या उसकी
प्राप्ति
अंशतः संभव है?
और यदि नहीं,
तो मनुष्य
उसकी
प्राप्ति के
लिए क्या कर
सकता है? क्योंकि
हरेक मनुष्य
संत होना संभव
नहीं है। यह
पूछा है।
पहली
बात तो यह, संत होना
हरेक मनुष्य
की संभावना है।
संभावना को
कोई
वास्तविकता
में परिणत न करे,
यह दूसरी
बात है। यह
दूसरी बात है
कि कोई बीज वृक्ष
न बन पाए, लेकिन
हर बीज वृक्ष
होने के लिए
अपने अंतस से निर्णीत
है। यानि हर
बीज की यह
संभावना है, यह
पोटेंशियलिटी
है कि वह
वृक्ष बन सकता
है। न बने, यह
बिलकुल दूसरी
बात है। खाद न
मिले और भूमि
न मिले, और
पानी न मिले
और रोशनी न
मिले, तो
बीज मर जाए यह
हो सकता है, लेकिन बीज
की संभावना
जरूर थी।
संत
होना
प्रत्येक
मनुष्य की
संभावना है।
इसलिए पहले तो
अपने मन से यह
खयाल निकाल
दें कि संतत्व
कुछ लोगों का
विशेष अधिकार
है। संतत्व
कुछ विशेष
लोगों का
अधिकार नहीं
है। और जिन
लोगों ने
प्रचलित की है
यह धारणा, वह केवल
अपने अहंकार
के परिपोषण के
लिए है। क्योंकि
इस बात से
अहंकार को
परिपोषण
मिलता है कि
अगर मैं कहूं
कि संत होना
बड़ा दुरूह है
और बहुत
थोड़े-से लोगों
के लिए संभव
है। और फिर
मैं यह कहूं
कि बहुत
थोड़े-से लोग
ही संत हो
सकते हैं। यह
कुछ लोगों की
अहंता की
तृप्ति का
मार्ग भर है, अन्यथा संत
होना सबकी
संभावना है।
क्योंकि सत्य
को उपलब्ध
करने के लिए
सबके लिए
सुविधा और
गुंजाइश है।
मैंने
कहा कि यह
दूसरी बात है
कि आप उपलब्ध
न हो सकें।
उसके लिए सिर्फ
आप ही
जिम्मेवार
होंगे, आपकी
संभावना नहीं
जिम्मेवार
होगी। हम सारे
लोग यहां बैठे
हैं। उठकर
चलने की हम
सबकी शक्ति है,
लेकिन हम न
चलें और बैठे
रहें!
शक्तियां तो
उन्हें
सक्रिय करने
से ज्ञात होती
हैं; जब तक
सक्रिय न करें,
ज्ञात नहीं
होतीं।
अभी आप
यहां बैठे हैं, हमको ज्ञात
भी नहीं हो
सकता कि आप चल
सकते हैं। और
आप भी अगर
अपने भीतर
खोजेंगे, तो
चलने की शक्ति
कहां मिलेगी
आपको! एक बैठा
हुआ आदमी अपने
भीतर खोजे कि
मेरे भीतर
चलने की शक्ति
कहां है? तो
उसे कैसे पता
चलेगी! उसे
पता भी नहीं
चलेगी, वह
सोचेगा कि
चलने की शक्ति
कहां है! बैठा
हुआ आदमी
कितना ही अपने
भीतर तलाशे, उसे कोई
स्थान न
मिलेगा, जिसको
वह कह सके कि
यह मेरी चलने
की शक्ति है, जब तक कि वह
चलकर न देखे।
चलकर देखने से
पता चलेगा कि
चलने की शक्ति
है या नहीं और
संत बनने की
प्रक्रिया से
गुजरकर देखना
होगा कि वह हमारी
संभावना है या
नहीं। जो उसे
प्रयोग ही नहीं
करेंगे, उन्हें
जरूर वह
संभावना ऐसी
प्रतीत होगी
कि कुछ लोगों
की है।
यह गलत
है। तो पहली
तो यही बात
समझें कि सत्य
को पाने के
लिए सबका
अधिकार है; वह सबका
जन्मसिद्ध
अधिकार है।
उसमें किसी के
लिए कोई विशेष
अधिकार नहीं
है।
दूसरी
बात, पूछा
है कि सत्य
क्या है? और
क्या उसे
अंशतः पाया जा
सकता है?
सत्य
को अंशतः नहीं
पाया जाता।
क्योंकि सत्य
अखंड है और
उसके टुकड़े
नहीं हो सकते
हैं। यानि ऐसा
नहीं हो सकता
है कि किसी
आदमी को अभी
थोड़ा-सा सत्य
मिल गया है, फिर थोड़ा और
मिलेगा, फिर
थोड़ा और
मिलेगा। ऐसा
नहीं होता।
सत्य तो इकट्ठा
ही उपलब्ध
होता है। यानि
वह क्रम से, ग्रेजुअल
नहीं मिलता।
वह तो पूरा
मिलता है, विस्फोट
से मिलता है।
लेकिन अगर यह
बात मैं कहूंगा
कि वह इकट्ठा
ही मिलता है, तो बहुत
घबराहट मालूम
होगी।
क्योंकि हम
इतने कमजोर
लोग, हम
उसे इकट्ठा
कैसे पा
सकेंगे!
एक
आदमी छत पर
चढ़ने को जाता
है। छत तो
इकट्ठी ही
मिलती है जब
वह छत पर
पहुंचता है, लेकिन
सीढ़ियां वह
क्रम से चढ़
लेता है।
लेकिन किसी भी
सीढ़ी पर वह छत
पर नहीं होता
है। पहली सीढ़ी
पर जब होता है,
तब भी छत पर
नहीं है; और
अंतिम सीढ़ी पर
जब होता है, तब भी छत पर
नहीं होता। छत
के करीब तो
होने लगता है,
लेकिन छत पर
नहीं होता।
सत्य
के करीब तो
क्रम से हुआ
जा सकता है, लेकिन सत्य
जब उपलब्ध
होता है, तो
पूरा उपलब्ध
होता है। यानि
सत्य की
निकटता तो
क्रम से मिलती
है, लेकिन
सत्य की
उपलब्धि
पूर्णता होती
है, वह कभी
खंड में नहीं
होती, टुकड़ों
में नहीं
होती। इसे
स्मरण रखें।
तो जो
मैंने भूमिका
कही है साधना
की, वे
सीढ़ियां हैं,
उनसे सत्य
नहीं मिलेगा,
सत्य की
निकटता
मिलेगी। और जब
अंतिम सीढ़ी पर
आकर--जिसको
मैंने भाव की
शून्यता कहा
है--जब भाव की
शून्यता को
कोई छलांग लगा
जाता है, तो
वह सत्य को
उपलब्ध हो
जाता है। तब
सत्य पूरा ही
मिलता है, इन
टोटेलिटी, वह
समग्रता में
उपलब्ध होता
है।
परमात्मा
के खंडित
अनुभव नहीं
होते; परमात्मा
का अनुभव अखंड
होता है।
लेकिन परमात्मा
तक पहुंचने का
रास्ता जो है,
वह बहुत
खंडों में
विभाजित है। इसे
स्मरण रखें।
सत्य तक
पहुंचने का
रास्ता क्रमिक
है और खंडों
में विभाजित
है, लेकिन
सत्य विभाजित
नहीं है।
इसलिए ऐसा न
सोचें कि हम
कमजोर लोग
पूरे सत्य को
कैसे पा सकेंगे!
अगर वह
थोड़ा-थोड़ा
मिलता होता, तो शायद हम
पा भी लेते!
नहीं, हम भी उसे पा
सकेंगे, क्योंकि
रास्ता
थोड़ा-थोड़ा ही
चलना होता है।
कोई भी रास्ता
इकट्ठा नहीं
चला जाता है।
कोई भी रास्ता
इकट्ठा नहीं
चला जाता है, रास्ता
थोड़ा-थोड़ा ही
चला जाता है।
लेकिन मंजिल
हमेशा इकट्ठी
मिलती है, मंजिल
थोड़ी-थोड़ी
नहीं मिलती।
इसे स्मरण
रखेंगे।
और फिर
पूछा कि सत्य
क्या है?
उसे
शब्दों में
बताने का कोई
उपाय नहीं है।
आज तक मनुष्य
की वाणी से
नहीं कहा जा
सका है। और ऐसा
नहीं है कि
भविष्य में
कहा जा सकेगा।
ऐसा नहीं है
कि पीछे
मनुष्य के पास
भाषा इतनी
समृद्ध न थी
कि वह नहीं कह
सका और आगे कह
सकेगा। कभी नहीं
कहा जा सकेगा।
उसका
कारण है। मनुष्य
की जो भाषा
विकसित हुई है, वह उसके
लोक-व्यवहार
के लिए हुई
है। भाषा का जन्म
लोक-व्यवहार
के लिए हुआ है,
भाषा का
जन्म सत्य को
प्रकट करने के
लिए नहीं हुआ।
और जिन लोगों
ने भाषा बनायी
है, उनमें
से शायद ही
कोई सत्य को
जानता है।
इसलिए सत्य के
लिए कोई शब्द
भी नहीं है।
और जिन लोगों
ने सत्य को
पाया है, उन्होंने
भाषा से नहीं
पाया, मौन
होकर पाया है।
यानि उन्हें
जब सत्य उपलब्ध
हुआ है, तब
वे परिपूर्ण
मौन थे और
वहां कोई शब्द
नहीं था।
इसलिए बड़ी
कठिनाई है, जब वे लौटकर
कहना शुरू
करते हैं, तो
एक स्थान खाली
रह जाता है जो कि
सत्य का है।
उसके लिए कोई
शब्द देना
संभव नहीं
होता। या जब
वे शब्द देते
हैं, तब
शब्द अधूरे पड़
जाते हैं और
छोटे पड़ जाते
हैं।
और
उन्हीं
शब्दों पर
झगड़े शुरू हो
जाते हैं। उन्हीं
शब्दों पर!
क्योंकि सब
शब्द अधूरे
रहते हैं, वे सत्य को
प्रकट नहीं कर
पाते। वे इशारों
की तरह हैं।
जैसे कोई चांद
को अंगुली
दिखाए और हम
उसकी अंगुली
को पकड़ लें कि
यही चांद है, तो दिक्कत
शुरू हो
जाएगी।
अंगुली चांद
नहीं है, अंगुली
केवल इशारा
है। और जो
इशारे को पकड़
लेगा, वह
दिक्कत में पड़
जाएगा।
इशारे
को छोड़ना पड़ता
है, ताकि वह
दिखायी पड़ सके,
जिसकी तरफ
इशारा है।
शब्दों को छोड़
देना होता है,
तब सत्य का
थोड़ा-सा अनुभव
होता है। जो
शब्दों को पकड़
लेता है, वह
सत्य के अनुभव
से वंचित हो
जाता है।
इसलिए
कोई रास्ता
नहीं है कि
मैं आपको कहूं
कि सत्य क्या
है। और अगर
कोई कहता हो, तो वह
आत्मवंचना
में है। अगर
कोई कहता हो, तो वह खुद
धोखे में है
और दूसरों को
धोखे में डाल
रहा है। सत्य
को कहने का
कोई उपाय नहीं
है। लेकिन हां,
सत्य को
कैसे पाया जा
सकता है, इसे
कहने का उपाय
है। मेथड तो
बताया जा सकता
है सत्य को
पाने का, उसकी
पद्धति तो
बतायी जा सकती
है, लेकिन
सत्य क्या है,
यह नहीं
बताया जा
सकता।
सत्य
को जानने की
पद्धतियां
हैं, सत्य की
कोई
परिभाषाएं
नहीं हैं।
सत्य को जानने
की पद्धतियां
हैं, लेकिन
परिभाषाएं
नहीं हैं। उस
पद्धति की हमने
इन तीन दिनों
में चर्चा की
है। यह जरूर
लगेगा कि हम
सत्य को
बिलकुल छोड़
रहे हैं। सत्य
को बहुत दफा
कहा, लेकिन
कुछ बताया
नहीं कि सत्य
क्या है।
उसे
नहीं बताया जा
सकता, उसे
जाना जा सकता
है। सत्य को
बताया नहीं जा
सकता है, जाना
जा सकता है।
उसे आप
जानेंगे।
पद्धति बतायी
जा सकती है।
सत्य का अनुभव
आपका होगा।
सत्य का अनुभव
हमेशा
वैयक्तिक है।
उसका कोई
कम्युनिकेशन,
कोई संवाद
एक-दूसरे को
संभव नहीं है।
तो
इसलिए यह तो
मैं नहीं
कहूंगा कि
सत्य क्या है।
इसलिए नहीं कि
उसे रोकना
चाहता हूं, बल्कि इसलिए
कि उसे कहा
नहीं जा सकता
है। जब कभी, बहुत पीछे
अतीत में एक
दफा ऐसा हुआ।
उपनिषदों के
समय में एक
ऋषि से किसी
ने जाकर पूछा,
'सत्य क्या
है?' उस ऋषि
ने बहुत गौर
से उस आदमी को
देखा। उसने दुबारा
पूछा कि 'सत्य
क्या है?' उसने
तीसरी बार
पूछा कि 'सत्य
क्या है?' उस
ऋषि ने कहा, 'मैं बार-बार
कहता हूं, लेकिन
तुम समझते
नहीं।' वह
व्यक्ति बोला,
'आप कैसी
बात कर रहे
हैं! मैंने तीन
बार पूछा, आप
तीनों ही बार
चुप थे। और आप
कहते हैं, मैं
बार-बार कहता
हूं!' उसने
कहा, 'काश, तुम मेरे
चुप होने को
देख पाते, तो
तुम समझते कि
सत्य क्या है।
काश, तुम
मेरे साइलेंस
को, मेरे
मौन को देख
पाते, तो
समझते कि सत्य
क्या है।'
वही
रास्ता है उसे
कहने का। जिन्होंने
जाना है, वे
चुप हो जाते
हैं। और जब
सत्य की बात
की जाती है, तो वे मौन हो
जाते हैं।
अगर आप
भी मौन हो
सकें, तो
उसे जान सकते
हैं। अगर आप
मौन न हों, तो
उसे नहीं जान
सकते हैं।
सत्य को आप
जान सकते हैं,
लेकिन जना
नहीं सकते। तो
इसलिए मैं
नहीं कहूंगा
कि सत्य क्या
है, क्योंकि
नहीं कहा जा
सकता है।
फिर
पूछा है कि
जन्म-जन्मांतरों
से कर्मों के फलस्वरूप
ही मनुष्य का
कर्म-जीवन
बंधा हुआ है।
तो फिर इस
जन्म में
मनुष्य के
अधिकार में क्या
है? पूछा है
कि अतीत के
जीवन और अतीत
के कर्म और अतीत
में किए हुए
जो भी जीवन के
संस्कार हैं,
यदि हम उनसे
ही परिचालित
होते हैं, तो
अब हम क्या कर
सकते हैं?
यह
बहुत ही ठीक
पूछा है। अगर
यह बात सच हो
कि मनुष्य
बिलकुल अतीत
के कर्मों से
बंधा है, तो
उसके हाथ में
वर्तमान में
करने को क्या
रह जाएगा? और
अगर यह सच हो
कि मनुष्य
अतीत के
कर्मों से बिलकुल
नहीं बंधा है,
तो करने का
फायदा क्या रह
जाएगा? क्योंकि
अगर अतीत के
कर्मों से
नहीं बंधा है,
तो अभी जो
करेगा, कल
उनसे बंधा
नहीं रह
जाएगा। तो अगर
आज शुभ करेगा,
तो कल उसे
शुभ के मिलने
की संभावना
नहीं होनी चाहिए।
अगर अतीत के
कर्मों से
बंधा हो पूरी
तरह, तो
करने में कोई
अर्थ नहीं
होगा।
क्योंकि कर ही
नहीं सकता कुछ,
पूरी तरह
बंधा है। और
अगर पूरी तरह
स्वतंत्र हो,
तो करने में
कोई अर्थ नहीं
होगा।
क्योंकि वह कर
लेगा और कल
उससे मुक्त हो
जाएगा, उसके
साथ उसका किया
हुआ नहीं
होगा। इसलिए
मनुष्य न तो
पूरी तरह बंधा
हुआ है और न
पूरी तरह
मुक्त है।
उसका एक पैर
बंधा है और एक खुला
है।
एक दफा
हजरत अली से
किसी ने पूछा, ठीक यही बात
पूछी। हजरत
अली से किसी
ने पूछा कि 'मनुष्य
स्वतंत्र है
या परतंत्र है
अपने कर्मों
में?' अली
ने कहा, 'अपना
एक पैर ऊपर
उठाओ!' अली
ने कहा, अपना
एक पैर ऊपर
उठाओ। वह आदमी
स्वतंत्र था,
बायां उठाए
या दायां
उठाए। उसने
अपना बायां पैर
ऊपर उठाया।
अली ने कहा, 'अब दूसरा भी
उठा लो।' वह
बोला, 'आप
पागल हैं!
दूसरा अब नहीं
उठा सकता हूं!'
अली ने कहा,
'क्यों?' उसने
कहा, 'एक
उठाने को
स्वतंत्र था।'
अली ने कहा,
'ऐसा ही
मनुष्य का
जीवन है।
उसमें हमेशा
दो पैर हैं
आपके पास, और
एक उठाने को
आप हमेशा
स्वतंत्र हैं,
एक हमेशा
बंधा हुआ है।'
इसलिए
संभावना है कि
जो बंधा है
उसे मुक्त कर सकें
उसके द्वारा
जो कि अभी
उठने को
स्वतंत्र है।
और यह भी
संभावना है कि
उसे भी बांध
सकें उसके
द्वारा जो कि
बंधा है।
अतीत
में आपने जो
किया है, वह
आपने किया है।
आप स्वतंत्र
थे करने को; आपने किया
है। आपका एक
हिस्सा जड़ हो
गया है और परतंत्र
हो गया है।
लेकिन आपका एक
हिस्सा अभी भी
स्वतंत्र है,
उसके
विपरीत करने
को आप मुक्त
हैं। उसके
विपरीत करके
आप उसको खंडित
कर सकते हैं।
उससे भिन्न को
करके आप उसे
विनष्ट कर
सकते हैं। उससे
श्रेष्ठ को
करके आप उसको
विसर्जित कर
सकते हैं।
मनुष्य के हाथ
में है कि वह
अतीत-संस्कारों
को भी धो
डाले।
आपने
कल तक क्रोध
किया था, तो
क्रोध करने को
आप स्वतंत्र
थे। निश्चित
ही, जो
आदमी बीस
वर्षों से रोज
क्रोध करता
रहा है, वह
क्रोध से बंध
जाएगा। बंध
जाने का मतलब
यह है कि एक
आदमी, जिसने
बीस साल से
क्रोध किया है
निरंतर, वह
एक दिन सुबह
सोकर उठता है
और अपने
बिस्तर के पास
अपनी चप्पलें
नहीं पाता, एक यह आदमी
है; और एक
वह आदमी है
जिसने बीस
सालों से
क्रोध नहीं
किया, वह
भी सुबह उठता
है और बिस्तर
के पास अपनी
चप्पलें नहीं
पाता; किस
में इस बात से
क्रोध के पैदा
होने की संभावना
अधिक है?
उस
आदमी में, जिसने बीस
साल से क्रोध
किया, क्रोध
पैदा होगा। इस
अर्थों में वह
बंधा है, क्योंकि
बीस साल की
आदत तत्क्षण
उसमें क्रोध पैदा
कर देगी कि जो
उसने चाहा था,
वह नहीं
हुआ। इस
अर्थों में वह
बंधा है कि
बीस साल का एक
संस्कार उसे
आज भी वैसे ही
काम करने को
प्रेरित
करेगा कि करो,
जो तुमने
निरंतर किया
है। लेकिन
क्या वह इतना बंधा
है कि क्रोधित
न हो, यह
उसकी संभावना
नहीं है?
इतना
कोई कभी नहीं
बंधा है। अगर वह
इसी वक्त सचेत
हो जाए, तो
रुक सकता है।
और क्रोध को न
आने दे, यह
उसकी संभावना
है। आए हुए
क्रोध को
परिणत कर ले, यह उसकी
संभावना है।
और अगर वह यह
करता है, तो
बीस साल की
आदत थोड़ी
दिक्कत तो
देगी, लेकिन
पूरी तरह नहीं
रोक सकती है।
क्योंकि जिसने
आदत बनायी थी,
अगर वह
खिलाफ चला गया
है, तो वह
तोड़ने के लिए
स्वतंत्र है।
दस-पांच दफे के
प्रयोग करके
वह उससे मुक्त
हो सकता है।
कर्म
बांधते हैं, लेकिन बांध
ही नहीं लेते।
कर्म जकड़ते
हैं, लेकिन
जकड़ ही नहीं
लेते। उनकी
जंजीरें हैं,
लेकिन सब
जंजीरें टूट
जाती हैं। ऐसी
कोई जंजीर नहीं
है, जो न
टूटे। और जो न
टूटे, उसको
जंजीर भी नहीं
कह सकेंगे।
जंजीर बांधती है,
लेकिन सब
जंजीरें
खुलने की
क्षमता रखती
हैं। अगर ऐसी
कोई जंजीर हो,
जो फिर खुल
ही न सके, तो
उसको जंजीर भी
नहीं कह
सकिएगा।
जंजीर वही है,
जो बांध भी
सके और खोल भी
सके। कर्म
बंधन है, इसी
अर्थों में, कि निर्बंधन
भी हो सकता
है। और हमारी
चेतना हमेशा
स्वतंत्र है।
हमने जो कदम
उठाए हैं, हम
जिस रास्ते पर
चलकर आए हैं, उस पर लौटने
को हम हमेशा
स्वतंत्र
हैं।
तो
अतीत आपको
बांधे हुए है, लेकिन
भविष्य आपका
मुक्त है। एक
पैर बंधा है और
एक खुला है।
अतीत का एक
पैर बंधा हुआ
है, भविष्य
का एक पैर
खुला हुआ है।
आप चाहें, तो
इस भविष्य के
पैर को भी उसी
दिशा में उठा
सकते हैं, जिसमें
आपने अतीत के
पैर को बांधा
है। आप बंधते
चले जाएंगे।
आप चाहें, तो
इस भविष्य के
पैर को अतीत
की दिशा से
विपरीत उठा
सकते हैं। आप
खुलते चले
जाएंगे। यह
आपके हाथ में
है। उस स्थिति
को हम मोक्ष
कहते हैं, जहां
दोनों पैर खुल
जाएं। और उस
स्थिति को हम परिपूर्ण
निम्नतम नर्क
कहेंगे, जहां
दोनों पैर बंध
जाएं।
इस वजह
से, अतीत से
घबराने की
जरूरत नहीं है,
न पिछले
जन्मों से
घबराने की
जरूरत है।
जिसने वे कदम
उठाए थे, वह
अब भी कदम
उठाने को
स्वतंत्र है।
और
पूछा है, साक्षी होकर
कौन विचार
करता है?
जब
आप साक्षी
होते हैं, तो विचार
नहीं होता।
विचार आपने
किया कि आप साक्षी
नहीं रह
जाएंगे। मैं
एक बगीचे में
खड़ा हूं और एक
फूल का साक्षी
हो जाऊं, तो
मैं फूल को
देखूंगा। सिर्फ
देखूंगा, तो
साक्षी हूं।
और अगर मैंने
सोचना शुरू
किया, तो
फिर मैं
साक्षी नहीं
हूं। जिस घड़ी
मैं सोचूंगा,
उस घड़ी फूल
मेरी आंख से
हट जाएगा।
सोचने का पर्दा
बीच में आ
जाएगा। जब मैं
एक फूल को
देखकर कहूंगा,
फूल सुंदर
है, तो जिस
घड़ी मेरा मन
कह रहा है, फूल
सुंदर है, उस
वक्त फूल देख
नहीं रहा हूं
मैं। क्योंकि
मन दो काम एक
साथ नहीं करता
है। एक
झीना-सा पर्दा
बीच में आ
जाएगा। और अगर
मैं सोचने लगा
कि 'इस फूल
को मैंने पहले
भी देखा है और
यह फूल परिचित
है', तो फूल
मेरी आंख से
ओझल हो गया
है। अब मैं
भ्रम में हूं
कि मैं देख
रहा हूं।
अपने
एक मित्र को, दूर से आए
हुए, मैं
एक बार नदी पर
नौका-विहार के
लिए ले गया था।
वे बहुत दूर
के देशों से
लौटे थे।
उन्होंने बहुत
नदियां और
बहुत झीलें
देखी थीं। वे
सब उनके
खयालों से भरे
हुए थे। जब
मैं पूरे चांद
की रात में
उनको नौका पर
ले गया, तो
वे
स्विटजरलैंड
की झीलों की
बातें करते
रहे और कश्मीर
की झीलों की
बातें करते
रहे। जब हम
घंटेभर बाद
वापस लौटे, तो उन्होंने
रास्ते में
मुझसे कहा कि 'जहां आप ले
गए थे, वह
जगह बड़ी रम्य
थी।'
मैंने
कहा, 'आप
बिलकुल झूठ
बोलते हैं।
उसको आपने
देखा भी नहीं।
क्योंकि
मैंने पूरे
वक्त अनुभव
किया कि आप
स्विटजरलैंड
में हो सकते
हैं, कश्मीर
में हो सकते
हैं, जिस
नाव में हम
बैठे थे, वहां
आप नहीं थे।'
'और
तब मैं आपसे
अब यह भी कहना
चाहता हूं,' मैंने उनको
निवेदन किया
कि 'जब आप
स्विटजरलैंड
में रहे होंगे,
तो आप कहीं
और रहे होंगे।
और जब आप
कश्मीर में
रहे होंगे, तो आप उस झील
पर न रहे
होंगे, जिसकी
आप बातें कर
रहे हैं।' तो
मैंने उनसे
कहा कि 'न
केवल मैं यह
कहता हूं कि
जिस झील पर
मैं ले गया था,
उसको आपने
नहीं देखा।
मैं आपको यह
कहता हूं, आपने
कोई झील नहीं
देखी है।'
आपके
खयाल के पर्दे
आपको साक्षी
नहीं होने
देते। आपका
विचार आपको
द्रष्टा नहीं
होने देता। जब
हम विचार को
छोड़ते हैं, जब विचार को
हम अलग करते
हैं, तब हम
साक्षी होते
हैं। विचार की
निर्जरा से साक्षी
हुआ जाता है।
तो जब
मैं कह रहा
हूं, हम
साक्षी हो रहे
हैं, तो
पूछा जाए कि
कौन विचार कर
रहा है?
नहीं, कोई विचार
नहीं कर रहा
है, मात्र
साक्षी रह
गया। और वह
मात्र साक्षी
जो है हमारा, वही हमारी
अंतरात्मा
है। अगर आप
परिपूर्ण साक्षी
की स्थिति में
रह जाएं कि
कोई विचार की
तरंग नहीं
उठती है, कोई
विचार की लहर
नहीं उठती है,
तो आप अपने
में प्रवेश
करेंगे। वैसे ही
जैसे किसी
सागर पर कोई
लहर न उठती हो,
कोई लहर न
उठती हो, कोई
कंपन न आता हो,
तो उसकी सतह
शांत हो जाए
और हम उसकी
सतह में झांकने
में समर्थ हो
जाएं।
विचार
तरंग है और
विचार बीमारी
है और विचार
एक उत्तेजना
है। विचार की
उत्तेजना को
खोकर हम साक्षी
को उपलब्ध
होते हैं। तो
जब हम साक्षी
होते हैं, तब विचार
कोई भी नहीं
करता है। अगर
हम विचार करते
हैं, तब हम
साक्षी नहीं
रह जाते।
विचार और
साक्षी में
विरोध है।
इसलिए
हमने पूरा
प्रयास किया
इस ध्यान की
पद्धति को
समझने में, हम असल में
विचार छोड़ने
का प्रयोग किए
हैं। और जो हम
प्रयोग कर रहे
हैं, उसमें
हम विचार को
क्षीण करके
छोड़ रहे हैं।
ताकि वह
स्थिति रह जाए,
जब विचार तो
नहीं हैं और
विचारक है।
यानि विचारक
से मेरा मतलब,
जो विचार
करता था, वह
तो मौजूद है, लेकिन विचार
नहीं कर रहा
है। जब वह
विचार नहीं
करेगा, तो
उसमें दर्शन
होगा। यह समझ लें।
विचार
और दर्शन
विपरीत बातें
हैं। इसलिए
मैंने पीछे
कहा कि केवल
अंधे लोग
विचार करते
हैं, जिनकी
आंखें हैं, वे विचार
नहीं करते
हैं। समझें, अगर मेरे
पास आंखें
नहीं हैं और
मुझे इस मकान से
बाहर निकलना
है, तो मैं
विचार करूंगा
कि दरवाजा
कहां है! अगर मेरे
पास आंखें
नहीं हैं और
मुझे इस भवन
से बाहर
निकलना है, तो मैं
विचार करूंगा
कि दरवाजा
कहां है! और अगर
मेरे पास
आंखें हैं, तो क्या मैं
विचार करूंगा?
मैं
देखूंगा और
निकल जाऊंगा।
यानि सवाल यह
है कि अगर
मेरे पास
आंखें हैं, तो मैं
देखूंगा और
निकल जाऊंगा।
मैं विचार क्यों
करूंगा?
जिनके
पास जितनी
आंखें कम हैं, उतने वे
ज्यादा विचार
करते हैं।
दुनिया उनको विचारक
कहती है। और
हम उनको अंधा
कहेंगे। और जिनके
पास जितनी
ज्यादा आंखें
हैं, वे
उतना कम विचार
करते हैं।
महावीर
और बुद्ध
विचारक नहीं
थे। मैं सुनता
हूं, बड़े-बड़े
समझदार लोग भी
उनको कहते हैं
कि महान
विचारक थे। यह
बिलकुल झूठी
बात है। वे
बिलकुल भी
विचारक नहीं
थे, क्योंकि
वे अंधे नहीं
थे। हम उनको
अपने मुल्क में
द्रष्टा कहते
हैं।
इसलिए
हम अपने मुल्क
में, हम अपने
मुल्क में इस
पद्धति का जो
शास्त्र है, उसको दर्शन
कहते हैं।
दर्शन का मतलब,
देखना। हम
उसको फिलासफी
नहीं कहते।
फिलासफी और
दर्शन
पर्यायवाची
शब्द नहीं
हैं। सामान्यतया
फिलासफी से हम
दर्शन का अर्थ
कर लेते हैं, वह गलत है।
भारत के दर्शन
को 'इंडियन
फिलासफी' कहना
बिलकुल गलत
है। वह
फिलासफी है ही
नहीं। फिलासफी
का मतलब है, चिंतन, विचार,
मनन। और
दर्शन का मतलब
है, चिंतन,
विचार, मनन
सबका छोड़
देना।
पश्चिम
में विचारक
हुए हैं, पश्चिम
की फिलासफी
है। उन्होंने
विचार किया है
कि सत्य क्या
है? वे
इसका विचार
करते हैं।
हमारे मुल्क
में हम इसका
विचार नहीं
करते कि सत्य
क्या है। हम
इसका विचार
करते हैं कि सत्य
का दर्शन कैसे
हो सकता है? यानि हम इस
बात का विचार
करते हैं कि
आंखें कैसे
खुलें? इसलिए
हमारी पूरी
प्रक्रिया
आंख खोलने की
है। हमारी
पूरी
प्रक्रिया
चक्षु खोलने
की है।
जहां
विचार होता है, वहां तर्क
विकसित होता
है। और जहां
दर्शन होता है,
वहां योग
विकसित होता
है। विचार का
अनुबंध, संबंध
तर्क से है।
और दर्शन का
अनुबंध और
संबंध योग से
है।
पूरब
में कोई तर्क
विकसित नहीं
हुआ। लाजिक को
हमने कोई
प्रेम नहीं
किया है। हमने
उसको खेल समझा
है, बच्चों
का खेल समझा
है। हमने कुछ
और बात खोजी, हमने दर्शन
खोजा और दर्शन
के लिए योग
को। योग
पद्धति है, जिससे आपकी
आंख खुलेगी और
आप देखेंगे।
उस देखने के
लिए साक्षी का
प्रयोग है।
जैसे-जैसे आप साक्षी
होंगे, विचार
क्षीण होगा, और एक घड़ी
आएगी
निर्विचार
की--विचारहीनता
की नहीं कह
रहा
हूं--निर्विचार
की।
विचारहीन
और निर्विचार
में बहुत भेद
है। विचारहीन
विचारक से
नीचे है और
निर्विचार
विचारक के
बहुत ऊपर है।
निर्विचार का
अर्थ है, उसके
चित्त में
तरंगें नहीं
हैं और चित्त
शांत है। और
देखने की
क्षमता उस
शांति में
पैदा होती है।
और विचारहीन
का मतलब है कि
उसे सूझता ही
नहीं कि क्या
करे।
तो मैं
विचारहीन
होने को नहीं, निर्विचार
होने को कह
रहा हूं।
विचारहीन वह है,
जिसको
सूझता नहीं।
निर्विचार वह
है, जिसको
सिर्फ सूझता
भर है; जिसे
दिखायी पड़ता
है। तो साक्षी
आपको ज्ञान की
तरफ ले जाएगा,
स्वयं की
आत्मा की तरफ
ले जाएगा।
यह जो
हमने प्रयोग
श्वास के या
ध्यान के, साक्षी को
जगाने के लिए
किए हैं, यह
मात्र इसलिए,
ताकि किसी
भी भांति हम
उस क्षण का
अनुभव कर सकें,
जब हम तो
होते हैं और
विचार नहीं
होता है। अगर एक
क्षण को भी वह
निर्मल क्षण
उपलब्ध हो जाए,
जब हम तो
हैं और विचार
नहीं हैं, तो
आप जीवन में
किसी बड़ी
अदभुत
संपत्ति को
उपलब्ध हो जाएंगे।
उस तरफ
चलें और उसके
लिए चेष्टा
करें और अपनी समग्र
शक्ति को
जोड़कर उस घड़ी
की आकांक्षा
करें, जब
चेतना तो होगी,
लेकिन
विचार नहीं
होगा।
जब
चेतना
विचार-शून्य
होती है, तब
सत्य का दर्शन
होता है। और
जब चेतना
विचार से भरी
होती है और
दबी होती है, तब सत्य का दर्शन
नहीं होता।
जैसे आकाश
मेघाच्छन्न
हो, तो
सूरज छिप जाता
है, ऐसे जब
चित्त
विचारों से
आच्छन्न होता
है, तो
स्वयं की
सत्ता छिप
जाती है। और
सूरज को देखना
हो, तो
मेघों को
वितरित और
विसर्जित कर
देना होगा और
उनको हटा देना
होगा, ताकि
सूरज झांक
सके। वैसे ही
विचारों को
हटा देना होगा,
ताकि स्वयं
की सत्ता की
प्रतीति और
अनुभव हो सके।
सुबह
जब मैं भवन से
निकलता था, तो किसी ने
मुझसे पूछा कि
'क्या इस
समय में
केवल-ज्ञान
संभव है?' मैंने
उनसे कहा, 'संभव
है।' वे
प्रश्न पूछे
हैं कि 'अगर
केवल-ज्ञान इस
समय संभव है, तो क्या मैं
बता सकता हूं
कि वे कौन-सा
प्रश्न मुझ से
पूछना चाहते
हैं?'
अगर वे
केवल-ज्ञान का
अर्थ यह समझे
हों कि दूसरा
क्या प्रश्न
पूछना चाहता
है, यह बता
दिया जाए, तो
वे बड़ी गलती
में हैं, वे
किसी मदारी से
भी धोखा खा
जाएंगे। वे
सड़क पर किसी
दो पैस में
खेल दिखाने
वाले से भी
धोखा खा
जाएंगे। यह तो
दो पैसे का
खेल दिखाने वाला
बता सकता है
कि आपके मन के
भीतर क्या है।
और अगर कभी
कोई
केवल-ज्ञानी
भी इसके लिए
राजी हो जाए, तो वह
केवल-ज्ञानी
नहीं होगा।
केवल-ज्ञान
का यह मतलब
नहीं है कि
आपके मन में क्या
चल रहा है, उसको बता
दिया जाए। आप
केवल-ज्ञान का
अर्थ ही नहीं
समझे।
केवल-ज्ञान का
अर्थ है चेतना
की वह स्थिति,
जहां कोई
ज्ञेय नहीं रह
जाता, जहां
कोई ज्ञाता
नहीं रह जाता,
मात्र
ज्ञान की
शक्ति भर रह
जाती है।
केवल-ज्ञान
शब्द से ही वह
प्रगट है, जहां
केवल ज्ञान
मात्र रह जाता
है।
अभी जब
भी हम कुछ जानते
हैं, तो जानने
में तीन चीजें
होती
हैं--जानने
वाला होता है,
वह ज्ञाता
होता है; जिसको
जानते हैं, वह होता है, वह ज्ञेय
होता है; और
इन दोनों के
बीच जो संबंध
होता है, वह
ज्ञान होता
है। तो ज्ञान
जो है, ज्ञाता
और ज्ञेय से
दबा रहता है, उनसे बंधा
रहता है।
केवल-ज्ञान का
अर्थ है कि
ज्ञेय विलीन
हो जाए, आब्जेक्ट
विलीन हो जाए।
और अगर ज्ञेय
विलीन हो
जाएगा, तो
फिर ज्ञाता
कहां रहेगा!
वह तो ज्ञेय
से बंधा हुआ
था। जब ज्ञेय
विलीन हो
जाएगा, तो
ज्ञाता विलीन
हो जाएगा। तब
क्या शेष रह
जाएगा? तब
मात्र ज्ञान
शेष रह जाएगा।
उस ज्ञान की
घड़ी में
मुक्ति का बोध
होता है और
स्वतंत्रता
का बोध होता
है।
तो
केवल-ज्ञान का
अर्थ है, शुद्ध
ज्ञान को
अनुभव कर
लेना। जिसको
मैंने समाधि
कहा है, वह
शुद्ध ज्ञान
का अनुभव है।
यह अलग-अलग
संप्रदायों
के अलग-अगल
सत्य हैं।
जिसे पतंजलि
ने समाधि कहा
है, उसे
जैनों ने
केवल-ज्ञान
कहा है, उसे
बुद्ध ने
प्रज्ञा कहा
है।
केवल-ज्ञान
का मतलब यह
नहीं है कि
आपके सिर में
क्या चल रहा
है, उसे बता
दें। वह तो
बहुत आसान-सी
बात है। वह तो साधारण-सी
टेलीपैथी है,
वह तो
थाट-रीडिंग है,
उसका
केवल-ज्ञान से
कोई मतलब नहीं
है। और अगर आप
उत्सुक ही हों
जानने को कि
आपके दिमाग
में क्या चल
रहा है, तो
मैं आपको
रास्ता बता
सकता हूं कि
आपके बगल के
आदमी के दिमाग
में क्या चल
रहा है, उसे
आप जान सकते
हैं। मैं तो
नहीं बताऊंगा
कि आपके दिमाग
में क्या चल
रहा है, लेकिन
मैं आपको
रास्ता बता
सकता हूं कि
आप जान सकें
कि दूसरे के
दिमाग में
क्या चल रहा
है, वह
ज्यादा आसान
होगा।
मैंने
आपको पीछे जो
अभी संकल्प का
प्रयोग कहा कि
सारी श्वास को
बाहर फेंक दें
और एक क्षण रुक
जाएं, श्वास
न लें। आप घर
लौटकर दो-चार
दिन किसी छोटे
बच्चे पर
प्रयोग कर
लेंगे, तो
आपको समझ में
आ जाएगा। अपनी
सारी श्वास
बाहर फेंक दें;
उस बच्चे को
सामने बिठा
लें; और जब
श्वास भीतर न
रह जाए, तब
पूरे जोर से
संकल्प करें
और यह आंख बंद
करके देखने की
कोशिश करें कि
इसके दिमाग
में क्या चल
रहा है। और उस
बच्चे को कह
दें कि कोई
छोटी चीज तुम
सोचना, कोई
फूल का नाम
सोचना। उसको
बताएं न, उससे
कह दें, कोई
फूल का नाम
सोचना। और आंख
बंद करके और
श्वास को बाहर
फेंककर आप यह
संकल्प
प्रगाढ़ करें कि
इसके दिमाग
में क्या चल
रहा है।
आप
दोत्तीन दिन
में जानना
शुरू कर
देंगे। और अगर
आपने एक शब्द
भी जान लिया, तो फिर कोई
फर्क नहीं
पड़ता, फिर
वाक्य जाने जा
सकते हैं। वह
लंबी
प्रक्रिया
है। लेकिन
इससे यह मत
समझ लेना कि
आप
केवल-ज्ञानी
हो गए! इससे
केवल-ज्ञान का
कोई मतलब नहीं
है। यह मन-पर्याय-ज्ञान
है, दूसरे
के मन में
क्या चल रहा
है, उसे पढ़
लेना। और इसके
लिए धार्मिक
होने की भी कोई
जरूरत नहीं है
और साधु होने
की भी कोई
जरूरत नहीं
है।
पश्चिम
में काफी जोर
से काम चला
हुआ है। वहां ढेर
साइकिक
सोसाइटीज बनी
हुई हैं, जो
टेलीपैथी पर
और थाट-रीडिंग
पर काम कर रही
हैं। और
वैज्ञानिक
रूप से सब
नियम बनाए जा
रहे हैं।
सौ-पचास
वर्षों में हर
डाक्टर उसका
प्रयोग करेगा,
हर शिक्षक उसका
प्रयोग
करेगा। हर
दुकानदार
उसका प्रयोग कर
सकेगा कि
ग्राहक क्या
पसंद करेगा, इसको जान
सकेगा। और उस
सबका शोषण में
उपयोग होगा।
और वह
केवल-ज्ञान
बिलकुल नहीं
है, वह
केवल एक
टेक्नीक है।
वह टेक्नीक
अभी अधिक लोगों
को ज्ञात नहीं
है, इसलिए
आपको ऐसा
मालूम होता
है। थोड़ा
प्रयोग
करेंगे, तो
आप हैरान हो
जाएंगे, कुछ
समझ में आ
सकता है। पर
वह केवल-ज्ञान
नहीं है।
केवल-ज्ञान
बड़ी दूर की
बात है।
केवल-ज्ञान
का तो मतलब है, शुद्ध ज्ञान
की चरम स्थिति
को अनुभव कर
लेना। उस
अवस्था में
अमृत का, और
जिसे मैंने
सच्चिदानंद
कहा, उसका
बोध होता है।
और
एक मित्र ने
पूछा है, समाधि के
सिवाय क्या
परमात्मा का
मिलन संभव है?
नहीं
संभव है।
समाधि तो केवल
द्वार है।
जैसे कोई कहे
कि क्या बिना
द्वार के इस
मकान के अंदर
आना संभव है? तो हम क्या
कहेंगे? हम
कहेंगे, नहीं
संभव है। और
अगर वह कहीं
से दीवार
तोड़कर भी आ
जाए, तो हम
कहेंगे, वह
द्वार हो गया।
तो द्वार क्या
है? अगर हम
कहें कि इस
मकान में
द्वार से आने
के सिवाय कोई
रास्ता नहीं
है और वह किसी
दीवार को तोड़कर
अंदर आ जाए, तो हम
कहेंगे, वह
रास्ता हो गया,
वह द्वार हो
गया। लेकिन इस
मकान में बिना
द्वार के आना
संभव नहीं है।
किसी भी भांति
आएं, द्वार
से आएंगे।
समझदार होंगे,
तो सीधे चले
आएंगे। नासमझ
होंगे, कहीं
दीवार
तोड़ेंगे।
समाधि
के बिना कोई
रास्ता नहीं
है। समाधि तो
द्वार है
परमात्मा के
प्रति, सत्य
के प्रति। और
बिना द्वार के
मैं नहीं समझता
कि कैसे
जाएंगे! बिना
द्वार के कभी
कोई कहीं नहीं
गया है।
इसे
स्मरण रखें, ऐसा न सोचें
कि बिना समाधि
के भी संभव हो
जाएगा। मन
हमारा ऐसा
होता है कि और
भी कोई सस्ता
रास्ता हो।
यानि मतलब यह
कि ऐसा रास्ता
हो, जिसमें
चलना ही न
पड़े। लेकिन सब
रास्तों पर चलना
होता है। चलने
का मतलब ही है,
तब वे रास्ते
होते हैं।
लेकिन हम
चाहते हैं, ऐसा द्वार
हो, जिसमें
प्रवेश ही न
करना पड़े और
पहुंच जाएं। ऐसा
कोई द्वार
नहीं होता, जिसमें
प्रवेश बिना
किए आप पहुंच
जाएं।
पर
हमारे मन की
कमजोरियां
हैं बहुत। और
हमारे मन की
कमजोरियां ये
हैं कि हम कुछ
भी नहीं करना
चाहते और कुछ
पाना चाहते
हैं।
विशेषतया
परमात्मा के
संबंध में तो
हमारी धारणा
यह ही है कि
अगर वह बिना
किए मिल जाए, तो विचारणीय
है। बल्कि हो
सकता है कि
अगर कोई आपको
बिना किए भी
देने को राजी
हो जाए, तो
भी आप विचार
करें कि लेना
या नहीं लेना!
एक बार
ऐसा हुआ, वहां
श्रीलंका में
एक साधु था।
वह रोज मोक्ष
की और निर्वाण
की और समाधि
की बातें
करता। कुछ लोग
उसे वर्षों से
सुनते थे। एक
आदमी ने एक दिन
खड़े होकर पूछा
कि 'मैं यह
पूछना चाहता
हूं, आपको
इतने लोग इतने
दिन से सुनते
हैं, इनमें
से किसका
निर्वाण हुआ
और किसकी
समाधि हुई?' उस साधु ने
कहा, 'तुम्हारा
विचार है, तो
आज ही समाधि
हो जाए। राजी
हो? अगर
तुम राजी हो, तो आज यह
मेरा सच है कि
तुम्हें
समाधि लगवा दूंगा।'
वह आदमी
बोला, 'आज!' उसने कहा, 'थोड़ा विचार
करें, किसी...।
आज ही?' उसने
कहा, 'थोड़ा
विचार करें।
मैं फिर आकर
आपको बताऊं।'
और
आपसे भी कोई
कहे कि मैं आज
ही इसी वक्त
आपको परमात्मा
से मिला सकता
हूं, तो मैं
नहीं समझता कि
आपका दिल एकदम
से कहेगा, हां।
आपका दिल बहुत
सोच-विचार
करने लगेगा।
मैं सच आपसे
कह रहा हूं, आपका दिल
बहुत
सोच-विचार
करने लगेगा कि
मिलना या नहीं
मिलना! मुफ्त
में भी
परमात्मा
मिले, तो
भी हम विचार
करेंगे! तो
कीमत देकर तो
लेने में
विचार करना
बहुत
स्वाभाविक
है। मन यही
होता है कि
मुफ्त में मिल
जाए।
हम
मुफ्त में उस
चीज को पाना
चाहते हैं, जिसका हमारे
मन में कोई
मूल्य नहीं
है। यानि हम
निर्मूल्य
उसे पाना
चाहते हैं, जिसका हमारे
मन में कोई
मूल्य नहीं
है। मूल्य से
हम उसे पाना
चाहते हैं, जिसका हमारे
मन में मूल्य
है।
अगर
परमात्मा के
प्रति थोड़ा भी
खयाल पैदा होगा, तो आप
पाएंगे कि आप
अपना सब देने
को राजी हैं। अपना
सब देने को
राजी हैं और
सब देकर भी
अगर उसकी एक
झलक मिलती है,
तो लेने को राजी
हो जाएंगे।
यह जो
पूछा है कि 'समाधि
के बिना हो
सकता है?' नहीं
हो सकता है।
श्रम के बिना
नहीं हो सकता
है। अध्यवसाय
के बिना नहीं
हो सकता है।
आपके पूरे
संकल्प और
साधना के बिना
नहीं हो सकता
है।
लेकिन
इस तरह के जो
कमजोर लोग हैं, वे कमजोर
लोग कुछ
समझदार लोगों
को शोषण का
मौका देते
हैं। सारी
दुनिया में एक
तरह का रिलीजस
एक्सप्लायटेशन
चलता है, एक
तरह का
धार्मिक शोषण
चलता है।
चूंकि आप बिना
कुछ किए पाना
चाहते हैं, इसलिए लोग
खड़े हो जाते
हैं, जो
कहते हैं, हमारी
कृपा से मिल
जाएगा। हमें
पूजो, हमारे
पैर पड़ो, हमारा
नाम स्मरण करो,
हम पर
श्रद्धा रखो,
मिल जाएगा।
और जो कमजोर
लोग हैं, वे
इस वजह से
उनकी श्रद्धा
करते हैं और
पैर छूते हैं
और जीवन
गंवाते हैं।
कुछ भी
नहीं मिलेगा, यह सिर्फ एक
शोषण है। यह
सिर्फ एक शोषण
है। कोई गुरु
परमात्मा
नहीं दे सकता।
परमात्मा तक जाने
का मार्ग दे सकता
है, लेकिन
मार्ग पर खुद
चलना होता है।
कोई गुरु आपके
लिए नहीं चल
सकता है। इस
दुनिया में
कोई आदमी किसी
दूसरे के लिए
नहीं चल सकता
है। अपने पैर
ही चलाते हैं।
अपने पैरों पर
ही चलना होता है।
और अगर कोई
कहता हो, और
ऐसे कहने वाले
अनेक हैं, जो
कहते हैं, 'हम
एक ही बात
आपसे मांगते
हैं कि हम पर
श्रद्धा करो,
और शेष सब
हम कर देंगे।'
वे आपका
शोषण कर रहे
हैं। और आप
चूंकि कमजोर हैं,
आप शोषण का
मौका देते
हैं।
दुनिया
में जितने
धार्मिक
पाखंड चलते
हैं, उसका
कारण पाखंडी
कम हैं, आपकी
कमजोरियां
ज्यादा हैं।
अगर आप कमजोर
न हों, तो
दुनिया में
कोई धार्मिक
पाखंड खड़ा
नहीं होगा।
क्योंकि अगर
कोई आदमी थोड़ा
भी पुरुषार्थवान
है, अगर
थोड़ा भी उसे
अपने जीवन का
गौरव और गरिमा
है, और कोई
उससे कहेगा कि
मैं अपनी कृपा
से तुमको परमात्मा
दिलाए देता
हूं! वह कहेगा,
क्षमा करें;
इससे बड़ा
मेरा और क्या
अपमान हो सकता
है! यानि वह
कहेगा, क्षमा
करें; इससे
बड़ा मेरा और
क्या अपमान हो
सकता है कि परमात्मा
मैं आपकी कृपा
से पाऊं!
और जो
दूसरे की कृपा
से मिलेगा, क्या वह
दूसरे की
नाराजगी से
छीन नहीं लिया
जा सकता है? क्या जो
दूसरे की कृपा
से मिलेगा, वह दूसरे की
नाराजगी से
छीना नहीं जा
सकता? जो
कृपा से मिलता
है, वह
कृपा के हटने
से छिन भी
सकता है। वह
सिर्फ धोखा
होगा, जो
परमात्मा
मिले और छीन
लिया जाए और
जिसे कोई
दूसरा दे सके।
कोई
दुनिया में
किसी दूसरे को
सत्य और
परमात्मा
नहीं दे सकता
है। अपने ही
श्रम से और
अपनी ही साधना
से उसे पाना
होता है।
इसलिए क्षणभर
को भी, रत्तीभर
को भी मन में
कभी यह खयाल न
देना, यह
कमजोरी घातक
साबित होती
है। और इस
कमजोरी की वजह
से आप तो
टूटते हैं, आप पाखंड को,
धोखों को, झूठी
गुरुडमों को
फैलने का मौका
देते हैं। वे असत्य
हैं, उनका
कोई मूल्य
नहीं है। और
वे घातक हैं
और विषाक्त
हैं।
एक
प्रश्न है कि
अहंकार की
शक्ति को किस
में परिणत
किया जाए?
मैंने
पीछे आपको
बताया कि अगर
क्रोध की
शक्ति पैदा हो, तो उसे हम
समपरिवर्तित
कर सकते हैं
सृजनात्मक
रूप से। मैंने
आपको यह भी
बताया कि अगर
सेक्स की
शक्ति है, तो
वह भी समपरिवर्तित
की जा सकती
है। अहंकार उस
अर्थों में
शक्ति नहीं है,
जिस अर्थों
में क्रोध, सेक्स, लोभ
इत्यादि
शक्तियां
हैं। अहंकार
उस अर्थों में
शक्ति नहीं
है।
क्रोध
कभी पैदा होता
है, सेक्स का
भाव भी कभी
प्रबल होता है,
लोभ भी कभी
चेतना को
पकड़ता है।
अहंकार कभी नहीं,
जब तक समाधि
उत्पन्न न हो,
सदा आपके
साथ होता है।
वह शक्ति नहीं
है, वह
आपकी स्थिति
है। समझें इस
फर्क को।
अहंकार
शक्ति नहीं है, वह आपकी
स्थिति है। वह
कभी पैदा नहीं
होता, वह
है आपके साथ।
वह आपके सब
कामों के पीछे
खड़ा हुआ है।
वह आपकी
स्थिति है।
उसके कारण बहुत-सी
चीजें पैदा
होती हैं, लेकिन
वह पैदा नहीं
होता।
अहंकार
के कारण क्रोध
पैदा हो सकता
है। अगर आप
अहंकारी हैं, तो आप
ज्यादा
क्रोधी
होंगे। अगर आप
अहंकारी हैं,
तो आप
ज्यादा
यश-लोलुप
होंगे, लोभी
होंगे, पद-लोलुप
होंगे। अगर आप
अहंकारी हैं,
तो ये सारी
बातें आपमें पैदा
होंगी।
अहंकार के
कारण ये
शक्तियां पैदा
होंगी आपके
भीतर, लेकिन
अहंकार आपके
चित्त की एक
स्थिति है। और
जब तक अज्ञान
है, तब तक
अहंकार होता
है। और जब
ज्ञान आता है,
तो अहंकार
विलीन हो जाता
है और उसकी
जगह आत्मा का
दर्शन होता
है।
अहंकार
आत्मा को घेरे
हुए एक आच्छन्न
पर्दा है।
आत्मा को घेरे
हुए अहंकार एक
पर्दा है। वह
शक्ति नहीं है, अज्ञान है।
उसके द्वारा
बहुत-सी
शक्तियां पैदा
होती हैं--उस
अज्ञान के
द्वारा। और
अगर उनका हम
विनाशात्मक
उपयोग करें, तो अहंकार
की स्थिति और
मजबूत होती
चली जाती है।
और अगर उन
पैदा हुई शक्तियों
का हम
सृजनात्मक और
क्रिएटिव
उपयोग करें, तो अहंकार
की शक्ति
क्षीण होती
चली जाती है; अहंकार की
स्थिति क्षीण
होती चली जाती
है। अगर सारी
पैदा की हुई
शक्तियों का
सृजनात्मक उपयोग
हो, तो एक
दिन अहंकार
विलीन हो जाता
है। और जब अहंकार
का धुआं विलीन
हो जाता है, तो नीचे पता
चलता है, आत्मा
की लौ है।
अहंकार
का धुआं घेरे
हुए है आत्मा
की लौ को। जब
निर्धूम होता
है चित्त, सारा धुआं
अहंकार का दूर
होता है, जब
'मैं' भाव
की सारी
पर्तें दूर हो
जाती हैं, जब
यह स्मरण भी
नहीं आता है
कि 'मैं भी
हूं', तब
गहराई में
उपलब्धि होती है।
रामकृष्ण
कहा करते थे
कि एक बार ऐसा
हुआ, एक नमक का
पुतला समुद्र
के किनारे एक
मेले में गया।
एक मेला लगा
और एक नमक का
पुतला मेले को
देखने समुद्र
के किनारे
गया। और
समुद्र के किनारे
उसने देखा, बड़ा अथाह
सागर है। कोई
रास्ते में
पूछने लगा, 'कितना गहरा
होगा?' उस
पुतले ने कहा
कि 'मैं
अभी खोजकर आता
हूं।' और
वह नमक का
पुतला पानी
में कूद पड़ा।
और बहुत दिन
बीते और बहुत
वर्ष बीते, वह पुतला अब
तक वापस नहीं
लौटा है। उसने
कहा था, मैं
अभी खोजकर आता
हूं, लेकिन
वह नमक का
पुतला था और
सागर में
कूदते ही नमक
पिघल गया और
विलीन हो गया
और वह सागर की
तलहटी को नहीं
पा सका।
वह जो 'मैं'
खोजने
निकला था
परमात्मा को
या सागर की
गहराई को, वह
खोजने में ही
विलीन हो जाता
है। वह केवल
नमक का पुतला
है, वह कोई
शक्ति नहीं
है।
तो अगर
आप परमात्मा
को खोजने
निकले हैं, तो जब आप
खोजने निकलते
हैं, तब
यही खयाल होता
है कि मैं
परमात्मा को
खोजने निकल रहा
हूं। लेकिन जब
जैसे-जैसे आप
प्रवेश करते
हैं, पाते
हैं, परमात्मा
तो नहीं मिल
रहा है, 'मैं'
विलीन होता
चला जा रहा
है। एक घड़ी
आती है, जब 'मैं' बिलकुल
शून्य होता है,
तब आप पाते
हैं कि
परमात्मा मिल
गया है।
इसका
मतलब यह हुआ
कि 'मैं' को
कभी परमात्मा
का मिलन नहीं
होगा। जब 'मैं'
नहीं होगा,
तब
परमात्मा
मिलेगा। और जब
तक 'मैं' होगा, तब
तक परमात्मा
नहीं मिलेगा।
इसलिए
कबीर ने कहा
है, 'प्रेम
गली अति
सांकरी, तामें
दो न समाय।
प्रेम की गली
बहुत संकरी है,
उसमें दो
नहीं बन सकते।
या तो तुम बन
सकते हो या
परमात्मा बन
सकता है। और जब
तक तुम हो, तब
तक परमात्मा
नहीं बन सकता।
और जहां तुम
विलीन हो गए, तब परमात्मा
है।
यह जो
हमारा अहंकार
है, यह केवल
हमारा अज्ञान
है। इस अज्ञान
के कारण हमारे
जीवन की
बहुत-सी
शक्तियों का
दुरुपयोग होता
है। अगर हम उनका
सदुपयोग करें,
तो अहंकार
को पोषण नहीं
मिलेगा और
अहंकार धीरे-धीरे
क्षीण हो
जाएगा।
तो
जिसको मैंने
जीवन-शुद्धि
के लिए तीन
प्रयोग कहे
हैं, अगर वे
तीन प्रयोग
चलें--
शरीर-शुद्धि
का, विचार-शुद्धि
का और
भाव-शुद्धि
का--तो उन तीनों
प्रयोगों को
करते-करते पता
चलेगा, अहंकार
विलीन हो गया।
क्रोध विलीन
नहीं होगा इस
अर्थों में, अहंकार
विलीन हो
जाएगा। क्रोध
की शक्ति नए
रूपों में
मौजूद रहेगी।
अहंकार की कोई
शक्ति मौजूद
नहीं रह
जाएगी। जब
अहंकार विलीन
होगा, तो
कुछ पीछे, रेसिडयू
जिसको कहें, पीछे कुछ
बचा हुआ कुछ
भी नहीं
रहेगा। क्रोध
या सेक्स
विलीन नहीं
होते इस
अर्थों में, ट्रांसफार्म
होते हैं।
दूसरी शक्ल
में वे मौजूद
रहेंगे।
क्रोध की
शक्ति कायम
रहेगी। दूसरा
प्रयोग करती
रहेगी। हो
सकता है, करुणा
बन जाए, लेकिन
शक्ति वही
रहेगी।
और इस
जगत में जो
बहुत क्रोधी
हैं, अगर उनकी
शक्ति
परिवर्तित हो,
तो उतनी ही
करुणा से भर
सकते हैं, क्योंकि
शक्ति नया रूप
ले लेगी।
शक्ति नष्ट नहीं
होती, नए
रूप ले लेती
है। जैसा
मैंने कहा कि
जो बहुत कामुक
हैं, बहुत
सेक्सुअल हैं,
वे ही लोग
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
जाते हैं। क्योंकि
वह जो सेक्स
की उनकी शक्ति
है, वही समपरिवर्तित
होकर उनके लिए
ब्रह्मचर्य
बन जाती है।
लेकिन
अहंकार जब
विलीन होता है, तो किसी में
परिणत नहीं
होता।
क्योंकि वह
केवल अज्ञान
था। उसकी
परिणति का कोई
सवाल नहीं, वह केवल
भ्रम था। जैसे
अंधेरे में
किसी ने रस्सी
को सांप समझा
हो। और जब पास
जाकर देखे कि
रस्सी है, सांप
नहीं है, और
हम पूछें कि
सांप का क्या
हुआ? तो हम
कहेंगे, सांप
का कुछ भी
नहीं हुआ, क्योंकि
सांप था ही
नहीं। उसके
परिवर्तन का कोई
सवाल नहीं है।
वैसे ही
अहंकार आत्मा
को भ्रांत रूप
से समझने का
परिणाम है। वह
आत्मा की भ्रांति
है, आत्मा
का इलूजरी, भ्रामक
दर्शन है।
जैसे रस्सी
में सांप दिख
जाए, ऐसा
आत्मा में
अहंकार दिख
रहा है। जब हम
आत्मा के करीब
पहुंचेंगे, तो हम
पाएंगे, अहंकार
तो नहीं है।
वह किसी चीज
में परिणत नहीं
होगा। परिणति
का कोई सवाल
ही नहीं था, वह था ही
नहीं। वह केवल
भ्रम था और
दिखायी पड़ता
था।
अहंकार
अज्ञान है, शक्ति नहीं
है। लेकिन
अज्ञान अगर हो,
तो
शक्तियों का
दुरुपयोग
करवा देता है।
क्योंकि
अज्ञान में
क्या होगा? अज्ञान
शक्तियों का
दुरुपयोग
करवा सकता है।
तो यह
स्मरण रखें, अहंकार का
कोई परिवर्तन
नहीं होगा, न कोई
परिणति होगी।
अहंकार बस
विलीन हो जाएगा।
वह उस अर्थ
में शक्ति
नहीं है।
एक
प्रश्न और
अंतिम रूप से।
आत्मा को
परमात्मा में
विलीन होने की
क्या
आवश्यकता है, पूछा है।
पूछा है, आत्मा
को परमात्मा
में विलीन
होने की क्या
आवश्यकता है?
अच्छा
होता, पूछा
होता, आत्मा
को आनंद में
विलीन होने की
क्या आवश्यकता
है? अच्छा
होता, पूछा
होता, आत्मा
को स्वस्थ
होने की क्या
आवश्यकता है?
अच्छा होता,
पूछा होता,
आत्मा को
अंधकार के
बाहर प्रकाश
में जाने की क्या
आवश्यकता है?
आत्मा
को परमात्मा
में विलीन
होने की
आवश्यकता
इतनी ही है कि
जीवन दुख और
वेदना से
तृप्त नहीं
होता है। यानि
किसी भी
स्थिति में
जीवन दुख को
स्वीकार नहीं
कर पाता है और
आनंद का
आकांक्षी
होता है। परमात्मा
से अलग होकर
जीवन दुख है।
परमात्मा में
होकर वह आनंद
हो जाता है।
प्रश्न
परमात्मा का
नहीं, प्रश्न
आपके भीतर दुख
से आनंद में
उठने का है।
आपके भीतर, अंधकार से
आलोक में उठने
का है। और अगर
आपको कोई
आवश्यकता प्रतीत
नहीं होती, तो बिलकुल
दुख में
निश्चिंत रह
सकते हैं।
लेकिन
कोई दुख में
निश्चिंत
नहीं रह सकता।
दुख स्वरूपतः
अपने से दूर
हटाता है और
आनंद स्वरूपतः
अपने प्रति
खींचता है।
दुख हटाता है, आनंद खींचता
है। संसार दुख
है, परमात्मा
आनंद है।
परमात्मा से
मिलन की आवश्यकता
कोई धार्मिक
आवश्यकता
नहीं है।
परमात्मा से
मिलन की
आवश्यकता
स्वरूपगत
आवश्यकता है।
इसलिए
दुनिया में यह
हो सकता है कि
कोई परमात्मा
को इनकार करता
हो, लेकिन
आनंद को कोई
इनकार नहीं
करेगा। इसलिए
मैं यह कहना
शुरू किया हूं
कि जगत में
कोई भी
नास्तिक नहीं
है। नास्तिक
केवल वही हो
सकता है, जो
आनंद को
अस्वीकार
करता हो। जगत
में प्रत्येक
व्यक्ति
आस्तिक है। इस
अर्थों में
आस्तिक है कि
प्रत्येक
आनंद का
प्यासा है।
दो तरह
के आस्तिक हैं, एक सांसारिक
आस्तिक, एक
आध्यात्मिक
आस्तिक। एक, जिनकी आस्था
संसार में है
कि इसके
द्वारा आनंद
मिलेगा। एक, जिनकी आस्था
इस बात में है
कि
आध्यात्मिक
जीवन के विकास
से आनंद
मिलेगा।
जिनको आप
नास्तिक कहते
हैं, वे
संसार के
प्रति आस्तिक
हैं। पर उनकी
तलाश भी आनंद
की है। वे भी
आनंद को खोज
रहे हैं। और
आज नहीं कल, उन्हें जब
दिखायी पड़ेगा
कि संसार में
कोई आनंद नहीं
है, तो
सिवाय
परमात्मा के
प्रति उत्सुक
होने के कोई
रास्ता नहीं
रह जाएगा।
आपकी
खोज आनंद की
है। परमात्मा
की खोज किसी
की भी नहीं
है। आपकी खोज
आनंद की है।
आनंद को ही हम
परमात्मा
कहते हैं।
पूर्ण आनंद की
स्थिति को हम
परमात्मा
कहते हैं। आप
जिस घड़ी पूर्ण
आनंद की
स्थिति में
होंगे, उस
घड़ी परमात्मा
हैं। यानि
मतलब यह कि
जिस घड़ी आपकी
कोई आवश्यकता
शेष न रह
जाएगी, उस
घड़ी आप
परमात्मा
हैं। पूर्ण
आनंद का मतलब,
जब कोई
आवश्यकता शेष
नहीं है। अगर
कोई शेष है, तो दुख शेष
रहेगा। जब
आपकी कोई
आवश्यकता शेष
नहीं है, तब
आप पूर्ण आनंद
में हैं और
तभी आप
परमात्मा में
हैं।
पूछा
है कि
परमात्मा में
होने की
आवश्यकता क्या
है?
इसको
मैं ऐसा कहूं, आवश्यकताएं
हैं, इसलिए
परमात्मा में
होने की
आवश्यकता है।
जिस दिन कोई
आवश्यकता
नहीं रह जाएगी,
उस दिन परमात्मा
में होने की
कोई जरूरत
नहीं रह जाएगी,
आप
परमात्मा हो
जाएंगे। हर
आदमी
आवश्यकताओं से
मुक्त होना
चाहता है। तो
अगर ऐसी
स्वतंत्रता
की घड़ी चाहता
है, जहां
कोई आवश्यकता
का बंधन न हो, जहां वह हो, अखंड हो और
पूर्ण हो और
उसके पार पाने
को कुछ शेष न
रह जाए, कुछ
हटाने को, छोड़ने
को शेष न रह
जाए, वैसी
अखंड और पूर्ण
स्थिति
परमात्मा है।
परमात्मा
से मतलब नहीं
है कि कहीं
कोई ऊपर बैठे
हुए हैं सज्जन, और उनके
आपको दर्शन
होंगे, और
वे आप पर कृपा
करेंगे। और आप
उनके चरणों में
बैठेंगे और
जाकर वहां
स्वर्ग में
मजे करेंगे।
ऐसा कोई परमात्मा
कहीं नहीं है।
और अगर ऐसे
परमात्मा की
तलाश में हों,
तो भ्रम में
हैं। ऐसा
परमात्मा कभी
नहीं मिलेगा।
आज तक किसी को
नहीं मिला है।
परमात्मा
चित्त की
अंतिम आनंद की
अवस्था है। परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं है, अनुभूति
है। यानि
परमात्मा का
साक्षात नहीं होता।
साक्षात इस
अर्थों में
नहीं होता कि
एनकाउंटर हो
जाए; कि आप
गए और मुठभेड़
हो गयी उनसे!
वे आपके सामने
खड़े हैं और आप
उनको देख रहे
हैं, निहार
रहे हैं।
ये सब
कल्पनाएं हैं, जो आप निहार
रहे हैं। जब
सारी
कल्पनाएं
चित्त छोड़
देता है और
सारे विचार
छोड़ देता है, तब वह अचानक
उसे उदघाटन
होता है कि इस
सारे विश्व
अखंड का, इस
पूरे जगत का, ब्रह्मांड
का, वह एक
जीवित हिस्सा
मात्र है।
उसका स्पंदन
इस सारे जगत
के स्पंदन से
एक हो जाता
है। उसकी श्वास
इस सारे जगत
से एक हो जाती
है। उसके
प्राण इस सारे
जगत के साथ
आंदोलित होने
लगते हैं। उनमें
कोई भेद, कोई
सीमा नहीं रह
जाती।
उस घड़ी
वह जानता है, 'अहं
ब्रह्मास्मि।'
उस घड़ी वह
जानता है कि
जिसे मैंने 'मैं' करके
जाना था, वह
तो सारे
ब्रह्मांड का
अनिवार्य
हिस्सा है। 'मैं
ब्रह्मांड
हूं', उस
अनुभूति को हम
परमात्मा
कहते हैं।
ये
आपके प्रश्न
पूरे हुए। उसके
बाद थोड़े समय
के लिए, जो
लोग उत्सुक
हैं दो-चार
मिनट अकेले
में मिलने को,
वे अकेले
में मिल लें।
उन्हें कुछ जो
अकेले में
पूछना हो, वे
अकेले में पूछ
लें।
आज
इतना ही।
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