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रविवार, 2 नवंबर 2014

ध्‍यान--सूत्र (ओशो) प्रवचन--07

शुद्धि और शून्यता से समाधि फलित—(प्रवचन—सातवां) 


मेरे प्रिय आत्मन्,

साधना की भूमिका के परिधि बिंदुओं पर हमने बात की है। अब हम उसके केंद्रीय स्वरूप पर भी विचार करें।
शरीर, विचार और भाव, इनकी शुद्धि और इनका शुद्ध स्वरूप उपलब्ध करना प्राथमिक भूमिका है। उतना भी हो, तो जीवन में बहुत आनंद फलित होता है। उतना भी हो, तो जीवन में बहुत दिव्यता आती है। उतना भी हो, तो हम अलौकिक से संबंधित हो जाते हैं।
लेकिन वह अलौकिक से संबंध है, अलौकिक में मिलन नहीं। वह अलौकिक से संबंधित होना है, लेकिन अलौकिक से एक हो जाना नहीं। वह परमात्मा को जानना है, लेकिन परमात्मा से सम्मिलित हो जाना नहीं। शुद्धि की भूमिका परमात्मा की तरफ उन्मुख करती है और परमात्मा पर दृष्टि को ले जाती है। उसके बाद शून्य की दृष्टि परमात्मा से मिलन कराती है और परमात्मा से एक कर देती है।

पहली परिधि पर हम सत्य को जानते हैं, दूसरे केंद्र पर हम सत्य हो जाते हैं। अब हम उस दूसरी बात का विचार करें। पहले तत्व को मैंने शुद्धि कहा, दूसरे तत्व को शून्य कह रहा हूं। शून्य के भी तीन चरण होंगे--शरीर पर, विचार पर और भाव पर।
शरीर की शून्यता शरीरत्तादात्म्य का विरोध है। शरीर के साथ हमारा तादात्म्य है, एक आइडेंटिटी है। हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता कि हमारा शरीर है। किसी तल पर हमें प्रतीत होता रहता है, मैं शरीर हूं। मैं शरीर हूं, यह भाव विलीन हो जाए, तो शरीर-शून्यता घटित होगी। शरीर के साथ मेरा तादात्म्य टूट जाए, तो शरीर-शून्यता घटित होगी।
सिकंदर जब भारत से वापस लौटता था, तो उसने चाहा कि वह एक फकीर को भारत से ले जाए, ताकि वह यूनान में दिखा सके कि फकीर, भारतीय फकीर कैसा होता है। यूं तो बहुत फकीर जाने को राजी थे, उत्सुक थे। सिकंदर आमंत्रित करे, शाही सम्मान से ले जाए, तो कौन जाना पसंद न करेगा! लेकिन जो-जो उत्सुक थे, सिकंदर ने उन्हें ले जाना ठीक न समझा। क्योंकि जो उत्सुक थे, इससे ही जाहिर था कि वे फकीर नहीं थे। सिकंदर उस फकीर की कोशिश में रहा, जिसे ले जाना अर्थ का हो।
जब वह सीमांत प्रदेशों से वापस लौटता था, तो एक फकीर का पता चला। लोगों ने कहा, 'एक साधु है नदी के तट पर, अरण्य में, उसे ले जाएं।' वह गया। उसने पहले अपने सैनिक भेजे और उस फकीर को कहलवाया। सैनिकों ने जाकर कहा कि 'तुम्हारा धन्यभाग है। सैकड़ों ने निवेदन किया सिकंदर से कि हमें ले चलो, उसने अभी किसी को चुना नहीं है। और महान सिकंदर की कृपा तुम्हारे ऊपर हुई है और उसने चाहा है कि तुम चलो। शाही सम्मान से तुम्हें यूनान ले जाएं।' उस फकीर ने कहा, 'फकीर को ले जाने की ताकत किसी में भी नहीं है।'
सैनिक हैरान हुए। विजेता सिकंदर के सैनिक थे, और एक नंगा फकीर ऐसा कहे! उन्होंने कहा, 'भूलकर ऐसे शब्द दुबारा मत निकालना, अन्यथा जीवन से हाथ धो बैठोगे।' उस फकीर ने कहा, 'जिस जीवन को हम छोड़ चुके, उससे अब छुड़ाने वाला कोई भी नहीं है। और जाकर अपने सिकंदर को कहो, उसको जाकर कहो कि तुम्हारी ताकतें सब जीत लें, उसे नहीं जीत सकती हैं, जिसने अपने को जीत लिया हो।' उसने कहा, 'जाकर कहो कि तुम्हारी ताकतें सब जीत लें, लेकिन उसे नहीं जीत सकती हैं, जिसने अपने को जीत लिया हो।'
सिकंदर हैरान हुआ। ये बातें अजीब थीं, लेकिन एक अर्थ में अर्थपूर्ण भी थीं, क्योंकि फकीर से मिलना हो गया था। ऐसे आदमी की तलाश भी थी। सिकंदर खुद गया। उसके हाथ में नंगी तलवार थी। और उसने जाकर उस फकीर को कहा कि 'अगर नहीं गए, तो शरीर से हम सिर को अलग कर देंगे।' उसने कहा, 'कर दो। जिस भांति तुम देखोगे कि तुमने शरीर से सिर अलग कर दिया, उसी भांति हम भी देखेंगे कि शरीर से सिर अलग कर दिया गया है।' उसने कहा, 'हम भी देखेंगे और हम भी दर्शक होंगे उस घटना के। लेकिन तुम हमें नहीं मार सकोगे, क्योंकि हम तो केवल दर्शक हैं।' उसने कहा, 'हम भी देखेंगे कि शरीर से सिर अलग कर दिया गया है। लेकिन इस भूल में मत रहना कि तुमने हमारा कुछ बिगाड़ा। जहां तक कोई कुछ बिगाड़ सकता है, वहां तक हमारा होना नहीं है।'
इसलिए कृष्ण ने कहा कि जिसे अग्नि न जला सके और जिसे बाण छेद न सकें और जिसे तलवार तोड़ न सके, वैसी कोई सत्ता, वैसी कोई अंतरात्मा हमारे भीतर है। जिसे अग्नि न जला सके और जिसे बाण न बेध सकें, वैसी कोई अविच्छेद सत्ता हमारे भीतर है।
उस सत्ता का बोध और शरीर से तादात्म्य का टूट जाना; यह भाव टूट जाना कि मैं देह हूं, शरीर की शून्यता है। इसे तोड़ने के लिए कुछ करना होगा। इसे तोड़ने के लिए कुछ साधना होगा। और शरीर जितना शुद्ध होगा, उतनी आसानी से शरीर से संबंध विच्छिन्न हो सकता है। शरीर जितनी शुद्ध स्थिति में होगा, उतनी शीघ्रता से यह जाना जा सकता है कि मैं शरीर नहीं हूं। इसलिए वह शरीर-शुद्धि भूमिका थी, शरीर-शून्यता उसका चरम फल है।
कैसे हम साधेंगे कि मैं शरीर नहीं हूं? यह अनुभव हो जाए। एक बात, उठते-बैठते, सोते-जागते अगर हम थोड़ा स्मरणपूर्वक देखें, अगर थोड़ी राइट माइंडफुलनेस हो, अगर थोड़ी स्मृति हो शरीर की क्रियाओं के प्रति, तो पहला चरण शून्यता लाने का क्रमशः विकसित होता है।
जब आप रास्ते पर चलते हैं, तो जरा अपने भीतर गौर से देखें, वहां कोई ऐसा भी है, जो नहीं चल रहा है! आप चल रहे हैं, आपके हाथ-पैर चल रहे हैं। आपके भीतर कोई ऐसा तत्व भी है, जो बिलकुल नहीं चल रहा है! जो मात्र आपके चलने को देख रहा है। जब हाथ-पैर में दर्द हो, पैर पर चोट लग गयी हो, तो जरा भीतर सजग होकर देखें, चोट आपको लग गयी है या चोट देह को लगी है और आप चोट को जान रहे हैं! जब कोई पीड़ा हो शरीर पर, तो जरा सजग होकर देखें कि पीड़ा आपको हो रही है या आप केवल पीड़ा के साक्षी हैं, पीड़ा के दर्शक हैं! जब भूख लगे, तो स्मरणपूर्वक देखें, भूख आपको लगी है या देह को लगी है और आप केवल दर्शक हैं! और जब कोई खुशी आए, तो उसको भी देखें और अनुभव करें कि वह खुशी कहां घटित हुई है!
जीवन के उठते-बैठते, चलते-सोते-जागते जो भी घटनाएं हैं, उन सबमें एक स्मृतिपूर्वक इस बात का विवेक और इस बात की निरंतर चेष्टा देखने की कि घटनाएं कहां घट रही हैं? वे मुझ पर घट रही हैं या मैं केवल देखने वाला हूं?
हमारी आदतें तादात्म्य की घनी हैं। अगर आप एक फिल्म भी देखते हों, एक नाटक देखते हों, तो यह हो सकता है कि आप फिल्म या नाटक देखते हुए रोने लगें। यह हो सकता है कि आप हंसने लगें। यह हो सकता है कि जब प्रकाश जले भवन में, तो आप चोरी से अपने आंसू पोंछ लें कि कोई देख न ले। आप रोए, एक चित्र को देखकर आपने तादात्म्य किया। चित्र के किसी नायक से, किसी पात्र से आपने तादात्म्य कर लिया। उस पर पीड़ा घटी होगी, वह पीड़ा आप तक संक्रमित हो गयी और आप रोने लगे।
मनुष्य के अंतस जीवन में भी शरीर पर जो घटित हो रहा है, चेतना उसे 'मुझ पर हो रहा है', ऐसा मानकर दुखी और पीड़ित है। सारे दुख का एक ही कारण है कि हमारा शरीर से तादात्म्य है। और सारे आनंद का भी एक ही कारण है कि शरीर से तादात्म्य विच्छिन्न हो जाए, हमें यह स्मरण आ जाए कि हम देह नहीं हैं।
तो उसके लिए सम्यक स्मृति, देह की क्रियाओं के प्रति सम्यक स्मृति, राइट अवेयरनेस, देह की क्रियाओं का सम्यक दर्शन, सम्यक निरीक्षण प्रक्रिया है। देह-शून्यता आएगी देह के प्रति सम्यक निरीक्षण से।
यह निरीक्षण करना जरूरी है। जब रात्रि बिस्तर पर सोने लगें, तो यह स्मरणपूर्वक देखना जरूरी है कि मैं नहीं, मेरी देह बिस्तर पर जा रही है। और जब सुबह बिस्तर से उठने लगें, तो स्मृतिपूर्वक यह स्मरण रखना जरूरी है कि मैं नहीं, मेरी देह बिस्तर से उठ रही है। नींद मैंने नहीं ली है, नींद केवल देह ने ली है। और जब भोजन करें, तो जानें कि भोजन केवल देह ने किया है। और जब वस्त्र पहनें, तो जानें कि वस्त्र केवल देह को ढंकते हैं, मुझे नहीं। और जब कोई चोट करे, तो स्मरणपूर्वक आप जान सकेंगे कि चोट देह पर की गयी है, मुझे नहीं। इस भांति सतत बोध को जगाते-जगाते किसी क्षण विस्फोट होता है और तादात्म्य टूट जाता है।
आप जानते हैं, जब आप स्वप्न में होते हैं, तो आपको अपनी देह की स्मृति नहीं रह जाती है। और आप जानते हैं, जब आप गहरी निद्रा में जाते हैं, तो आपको अपनी देह का पता रह जाता है? क्या आपको अपना चेहरा याद रह जाता है?
आप अपने भीतर जितने गहरे जाते हैं, उतने ही अनुपात में देह भूलती चली जाती है। स्वप्न में देह का पता नहीं होता। और प्रगाढ़ निद्रा में, सुषुप्ति में देह का बिलकुल ही पता नहीं होता है। जब वापस होश आना शुरू होता है, क्रमशः देह का तादात्म्य जागता है। किसी दिन सुबह जब नींद खुल जाए, तो एक क्षण अंदर देखना, आप देह हैं? तो आपको धीरे-धीरे दिखायी पड़ेगा स्पष्ट, देह का तादात्म्य जग रहा है, पैदा हो रहा है।
इस देह के तादात्म्य को तोड़ने के लिए एक प्रयोग है, जो अगर महीने में एक-दो बार आप करते रहें, तो देह के तादात्म्य के तोड़ने में सहयोगी होगा। उस प्रयोग को थोड़ा-सा समझ लें।
जिस भांति हम रात्रि का ध्यान कर रहे हैं, उसी भांति सारे शरीर को शिथिल छोड़कर, प्रत्येक चक्र पर सुझाव देकर शरीर को शिथिल छोड़कर, अंधकार करके कमरे में, ध्यान में प्रवेश करें। जब शरीर शिथिल हो जाए, जब श्वास शिथिल हो जाए और जब चित्त शांत हो जाए, तो एक भावना करें कि आप मर गए हैं, आपकी मृत्यु हो गयी है। और स्मरण करें अपने भीतर कि अगर मैं मर गया हूं, तो मेरे कौन से प्रियजन मेरे आस-पास इकट्ठे हो जाएंगे! उनके चित्रों को अपने आस-पास उठते हुए देखें। वे क्या करेंगे, उनमें कौन रोएगा, कौन चिल्लाएगा, कौन दुखी होगा, उन सबको बहुत स्पष्टता से देखें। वे सब आपको दिखायी पड़ने लगेंगे।
फिर देखें कि मुहल्ले-पड़ोस के और सारे प्रियजन इकट्ठे हो गए और उन्होंने लाश को आपकी उठाकर अब अर्थी पर बांध दिया है। उसे भी देखें। और देखें कि अर्थी भी चली और लोग उसे लेकर चले। और उसे मरघट तक पहुंच जाने दें। और उन्हें उसे चिता पर भी रखने दें।
यह सब देखें। यह पूरा इमेजिनेशन है, यह पूरी कल्पना है। इस पूरी कल्पना को अगर थोड़े दिन प्रयोग करें, तो बहुत स्पष्ट देखेंगे। और फिर देखें, उन्होंने चिता पर आपकी लाश को भी रख दिया। और लपटें उठी हैं और आपकी लाश विलीन हो गयी।
जब यह कल्पना इस जगह पहुंचे कि लाश विलीन हो गयी और धुआं उड़ गया आकाश में और लपटें हवाएं हो गयी हैं और राख पड़ी है, तब एकदम से सजग होकर अपने भीतर देखें कि क्या हो रहा है! उस वक्त आप अचानक पाएंगे, आप देह नहीं हैं। उस वक्त तादात्म्य एकदम टूटा हुआ हो जाएगा।
इस प्रयोग को अनेक बार करने पर जब आप उठ आएंगे प्रयोग करने के बाद भी, चलेंगे, बात करेंगे, और आपको पता लगेगा, आप देह नहीं हैं। इस अवस्था को हमने विदेह कहा है--इस अवस्था को। इस प्रक्रिया के माध्यम से जो जानता है अपने को, वह विदेह हो जाता है।
अगर यह चौबीस घंटे सध जाए और आप चलें, उठें-बैठें, बात करें और आपको स्मरण हो कि आप देह नहीं हैं, तो देह शून्य हो गयी। तो यह देह शून्य हो जाना अदभुत है। यह अदभुत है, इससे अदभुत कोई घटना नहीं है। देह का तादात्म्य टूट जाना सबसे अदभुत है।
देह-शुद्धि, विचार-शुद्धि और भाव-शुद्धि के बाद जब देह की शून्यता का यह प्रयोग करेंगे, तो यह निश्चित सफल हो जाता है। और तब जीवन में बड़े अदभुत परिवर्तन होने शुरू हो जाते हैं। आपकी सारी भूलें और सारे पाप देह से बंधे हुए हैं। आपने जीवन में एक भी भूल और एक भी पाप नहीं किया होगा, जो देह से बंधा हुआ न हो। और अगर आपको स्मरण हो जाए कि आप देह नहीं हैं, तो जीवन से कोई भी विकृति के उठने की संभावना शून्य हो जाएगी।
तब अगर कोई आपको तलवार भोंक दे, तो आप देखेंगे, उसने देह में तलवार भोंक दी और आपको कुछ भी पता नहीं चलेगा कि आपको कुछ हुआ। आप अस्पर्शित रह जाएंगे। उस वक्त आप कमल के पत्ते की तरह पानी में होंगे। उस वक्त, जब देह-शून्यता का बोध होगा, तब आप स्थितप्रज्ञ की भांति जीवन में जीएंगे। तब बाहर के कोई आवर्त और बाहर के कोई तूफान और आंधियां आपको नहीं छू सकेंगी, क्योंकि वे केवल देह को छूती हैं। उनके संघात केवल देह तक होते हैं, उनकी चोटें केवल देह तक पड़ती हैं। लेकिन भूल से हम समझ लेते हैं कि वे हम पर पड़ीं, इसलिए हम दुखी और पीड़ित और सुखी और सब होते हैं।
यह आंतरिक साधना का, केंद्रीय साधना का पहला चरण है। हम देह-शून्यता को साधें। यह सध जाना कठिन नहीं है। जो प्रयास करते हैं, वे निश्चित सफल हो जाते हैं।
दूसरा तत्व आंतरिक साधना का विचार-शून्यता है। जिस भांति मैंने कहा कि सम्यक निरीक्षण से देह के देह-शून्यता घटित होती है, उसी तरह विचार के सम्यक निरीक्षण से विचार-शून्यता घटित होती है। इस आंतरिक साधना का मूल तत्व सम्यक निरीक्षण है, राइट आब्जर्वेशन है। इन तीनों चरणों में--शरीर पर, विचार पर और भाव पर--सम्यक स्मरण और सम्यक निरीक्षण, देखना।
विचार की जो धाराएं हमारे चित्त पर दौड़ती हैं, कभी उनके मात्र निरीक्षक हो जाएं। जैसे कोई नदी के किनारे बैठा हो और नदी की भागती हुई धार को देखे; सिर्फ किनारे बैठा हो और देखे। या जैसे कोई जंगल में बैठा हो, पक्षियों की उड़ती हुई कतार को देखे; सिर्फ बैठा हो और देखे। या कोई वर्षा के आकाश को देखे और बादलों की दौड़ती हुई, भागती पंक्तियों को देखे। वैसे ही अपने मन के आकाश में विचार के दौड़ते हुए मेघों को, विचार के उड़ते हुए पक्षियों को, विचार की बहती हुई नदी को चुपचाप तट पर खड़े होकर देखना है। जैसे हम किनारे पर बैठे हैं और विचार को देख रहे हैं। विचार को उन्मुक्त छोड़ दें, विचार को बहने दें और भागने दें और दौड़ने दें और आप चुप बैठकर देखें। आप कुछ भी न करें। कोई छेड़छाड़ न करें। कोई रुकाव न डालें। कोई दमन न करें। कोई विचार आता हो, तो रोकें न; न आता हो, तो लाने की चेष्टा न करें। आप मात्र निरीक्षक हों।
उस मात्र निरीक्षण में दिखायी पड़ता है, अनुभव होता है, विचार अलग हैं और मैं अलग हूं। क्योंकि बोध होता है कि जो विचारों को देख रहा है, वह विचारों से पृथक होगा, अलग होगा, भिन्न होगा। और जब यह बोध होता है, तो अदभुत शांति घनी होने लगती है। क्योंकि तब कोई चिंता आपकी नहीं है। आप चिंताओं के बीच में हो सकते हैं, चिंता आपकी नहीं है। आप समस्याओं के बीच में हो सकते हैं, समस्या आपकी नहीं है। आप विचारों से घिरे हो सकते हैं, विचार आप नहीं हैं।
और अगर यह खयाल आ जाए कि मैं विचार नहीं हूं, तो विचारों के प्राण टूटने शुरू हो जाते हैं, विचार निर्जीव होने लगते हैं। विचारों की शक्ति इसमें है कि हम यह समझें कि वे हमारे हैं। जब आप किसी से विवाद करने पर उतर जाते हैं, तो आप कहते हैं, 'मेरा विचार!' कोई विचार आपका नहीं है। सब विचार अन्य हैं और भिन्न हैं, आपसे अलग हैं। उनका निरीक्षण।
एक कहानी कहूं, समझ में आए। बुद्ध के पास ऐसा हुआ था। एक राजकुमार दीक्षित हुआ था। पहले दिन ही वह भिक्षा मांगने गया था। उसने, जिस द्वार पर बुद्ध ने भेजा था, भिक्षा मांगी। उसे भिक्षा मिली। उसने भोजन किया, वह भोजन करके वापस लौटा। लेकिन उसने बुद्ध को जाकर कहा, क्षमा करें, वहां मैं दुबारा नहीं जा सकूंगा। बुद्ध ने कहा, 'क्या हुआ?'
उसने कहा कि 'यह हुआ कि जब मैं गया, दो मील का फासला था, रास्ते में मुझे वे भोजन स्मरण आए, जो मुझे प्रीतिकर हैं। और जब मैं उस द्वार पर गया, तो उस श्राविका ने वे ही भोजन बनाए थे। मैं हैरान हुआ। मैंने सोचा, संयोग है। लेकिन फिर यह हुआ कि जब मैं भोजन करने बैठा, तो मेरे मन में यह खयाल आया कि रोज अपने घर था, भोजन के बाद दो क्षण विश्राम करता था। आज कौन विश्राम करने को कहेगा! और जब मैं यह सोचता था, तभी उस श्राविका ने कहा, भंते, अगर भोजन के बाद दो क्षण रुकेंगे और विश्राम करेंगे, तो अनुग्रह होगा, तो कृपा होगी, तो मेरा घर पवित्र होगा। तो मैं हैरान हुआ था। फिर भी मैंने सोचा कि संयोग होगा कि मेरे मन में खयाल आया और उसने भी कह दिया। फिर मैं लेटा और विश्राम करने को था कि मेरे मन में यह खयाल उठा कि आज न अपनी कोई शय्या है, न कोई साया है। आज दूसरे का छप्पर और दूसरे की दरी पर, दूसरे की चटाई पर लेटा हूं। और तभी उस श्राविका ने पीछे से कहा, भिक्षु, न शय्या आपकी है, न मेरी है। और न साया आपका है, न मेरा है। और तब मैं घबरा गया। अब संयोग बार-बार होने मुश्किल थे। मैंने उस श्राविका को कहा, क्या मेरे विचार तुम तक पहुंच जाते हैं? क्या मेरे भीतर चलने वाली विचारधाराएं तुम्हें परिचित हो जाती हैं? उस श्राविका ने कहा, ध्यान को निरंतर करते-करते अपने विचार शून्य हो गए हैं और अब दूसरों के विचार भी दिखायी पड़ते हैं। तब मैं घबरा गया और मैं भागा हुआ आया हूं। और मैं क्षमा चाहता हूं, कल मैं वहां नहीं जा सकूंगा।'
बुद्ध ने कहा, 'क्यों?' उसने कहा कि 'इसलिए कि...कैसे कहूं, क्षमा कर दें और न कहें वहां जाने को।' लेकिन बुद्ध ने आग्रह किया और उस भिक्षु को बताना पड़ा। उस भिक्षु ने कहा, 'उस सुंदर युवती को देखकर मेरे मन में विकार भी उठे थे, वे भी पढ़ लिए गए होंगे। मैं किस मुंह से वहां जाऊं? कैसे मैं उस द्वार पर खड़ा होऊंगा? अब दुबारा मैं नहीं जा सकता हूं।' बुद्ध ने कहा, 'वहीं जाना होगा। यह तुम्हारी साधना का हिस्सा है। इस भांति तुम्हें विचारों के प्रति जागरण पैदा होगा और विचारों के तुम निरीक्षक बन सकोगे।'
मजबूरी थी, उसे दूसरे दिन फिर जाना पड़ा। लेकिन दूसरे दिन वही आदमी नहीं जा रहा था। पहले दिन वह सोया हुआ गया था रास्ते पर। पता भी न था कि मन में कौन-से विचार चल रहे थे। दूसरे दिन वह सजग गया, क्योंकि अब डर था। वह होशपूर्वक गया। और जब उसके द्वार पर गया, तो क्षणभर ठहर गया सीढ़ियां चढ़ने के पहले। अपने को उसने सचेत कर लिया। उसने भीतर आंख गड़ा ली। बुद्ध ने कहा था, भीतर देखना और कुछ मत करना। इतना ही स्मरण रहे कि अनदेखा कोई विचार न हो, अनदेखा कोई विचार न हो। बिना देखे हुए कोई विचार निकल न जाए, इतना ही स्मरण रखना बस।
वह सीढ़ियां चढ़ा, अपने भीतर देखता हुआ। उसे अपनी सांस भी दिखायी पड़ने लगी। उसे अपने हाथ-पैर का हलन-चलन भी दिखायी पड़ने लगा। उसने भोजन किया, एक कौर भी उठाया, तो उसे दिखायी पड़ा। जैसे कोई और भोजन कर रहा था और वह देखता था।
जब आप दर्शक बनेंगे अपने ही, तो आपके भीतर दो तत्व हो जाएंगे, एक जो क्रियमाण है और एक जो केवल साक्षी है। आपके भीतर दो हिस्से हो जाएंगे, एक जो कर्ता है और एक जो केवल द्रष्टा है।
उस घड़ी उसने भोजन किया। लेकिन भोजन कोई और कर रहा था और देख कोई और रहा था। और हमारा मुल्क कहता है--और सारी दुनिया के जिन लोगों ने जाना है, वे कहते हैं--कि जो देख रहा है, वह आप हैं; और जो कर रहा है, वह आप नहीं हैं।
उसने देखा, वह हैरान हुआ। वह नाचता हुआ वापस लौटा। और उसने बुद्ध को जाकर कहा, 'धन्य है, मुझे कुछ मिल गया। दो अनुभव हुए हैं; एक तो यह अनुभव हुआ कि जब मैं बिलकुल सजग हो जाता था, तो विचार बंद हो जाते थे।' उसने कहा, 'एक अनुभव तो यह हुआ कि जब मैं बिलकुल सजग होकर देखता था भीतर, तो विचार बंद हो जाते थे। दूसरा अनुभव यह हुआ कि जब विचार बंद हो जाते थे, तब मैंने देखा, कर्ता अलग है और द्रष्टा अलग है।' बुद्ध ने कहा, 'इतना ही सूत्र है। जो इसे साध लेता है, वह सब साध लेता है।'
विचार के द्रष्टा बनना है, विचारक नहीं। स्मरण रहे, विचारक नहीं, विचार के द्रष्टा।
इसलिए हम अपने ऋषियों को द्रष्टा कहते हैं, विचारक नहीं। महावीर विचारक नहीं हैं, बुद्ध विचारक नहीं हैं। ये द्रष्टा हैं। विचारक तो बीमार आदमी है। विचार वे करते हैं, जो जानते नहीं हैं। जो जानते हैं, वे विचार नहीं करते, वे देखते हैं। उन्हें दिखायी पड़ता है, उन्हें दर्शन होता है। और दर्शन की पद्धति अपने भीतर विचार का निरीक्षण है। उठते-बैठते, सोते-जागते, अपने भीतर जो भी विचार की धारा चलती हो, उसे देखें। और किसी भी विचार के साथ तादात्म्य न करें कि इस विचार के साथ मैं एक हो गया। विचार को अलग चलने दें, आप अलग चलें। आपके भीतर दो धाराएं होनी चाहिए।
साधारण आदमी के भीतर एक धारा होती है, मात्र विचार की। साधक के भीतर दो धाराएं होती हैं, विचार की और दर्शन की। साधक के भीतर दो पैरेलल, दो समानांतर धाराएं होती हैं, विचार की और दर्शन की। सामान्य आदमी के भीतर एक धारा होती है, मात्र विचार की। और सिद्ध के भीतर भी एक ही धारा होती है, मात्र दर्शन की। इसे समझ लें।
साधारण आदमी के भीतर एक धारा होती है, विचार की। दर्शन सोया हुआ होता है। साधक के भीतर दो धाराएं होती हैं समानांतर, विचार की और दर्शन की। सिद्ध के भीतर भी एक ही धारा रह जाती है, दर्शन की; विचार मृत हो जाता है।
तो हमें विचार से दर्शन तक पहुंचना है, तो हमें विचार और दर्शन की समानांतर साधना करनी होगी। अगर विचार से दर्शन तक पहुंचना है, तो हमें विचार की और दर्शन की समानांतर साधना करनी होगी। उसको मैं सम्यक निरीक्षण कह रहा हूं, उसको सम्यक स्मृति कह रहा हूं। उसको महावीर ने विवेक कहा है। विचार और विवेक। जो विचार को भी देखता है, वह विवेक है। विचारक मिल जाने तो बहुत आसान हैं। जिनका विवेक जाग्रत हो, वैसे लोग बहुत कठिन हैं।
विवेक को जगाएं। कैसे जगाएंगे, वह मैंने कहा, स्मरणपूर्वक विचार को देखने से। शरीर की क्रियाओं को देखेंगे, शरीर शून्य हो जाएगा। और विचार की दौड़ को देखेंगे, विचार की प्रक्रिया को, थाट प्रोसेस को देखेंगे, तो विचार शून्य हो जाएगा। और अगर भाव का अंतर्निरीक्षण करेंगे, तो भाव शून्य हो जाएगा।
अभी मैंने कहा कि घृणा की जगह प्रेम को आने दें और द्वेष की जगह मैत्री को आने दें भाव-शुद्धि में। अब मैं कहूंगा, इस सत्य को भी जानें कि जो प्रेम कर रहा है, जो घृणा कर रहा है, उसके भी पीछे एक तत्व है, जो केवल जान रहा है; जो न घृणा करता है और न प्रेम करता है। वह केवल साक्षी है। उसने देखा था कि कभी घृणा की गयी, अब वह देख रहा है कि प्रेम किया जा रहा है। लेकिन वह केवल साक्षी है, वह केवल देख रहा है।
जब मैं किसी को घृणा करता हूं, तो क्या मेरे भीतर किसी बिंदु को यह पता नहीं चलता कि मैं घृणा कर रहा हूं? और जब मैं किसी को प्रेम करता हूं, तो क्या मेरे भीतर किसी को यह पता नहीं चलता कि मैं प्रेम कर रहा हूं? जिसको पता चलता है, वह प्रेम से पीछे है, घृणा से पीछे है। वही हमारी आत्मा है, जो शरीर के और विचार के और भाव के, सबके पीछे है।
इसलिए पुराने ग्रंथ उसे कहते हैं, नेति-नेति। न वह देह है, न वह विचार है, न वह भाव है। वह कुछ भी नहीं है। जहां कुछ भी नहीं शेष रह जाता, वहीं केवल वह दर्शक, वह द्रष्टा, वह साक्षी चैतन्य हमारी आत्मा है।
तो भाव की धारा के प्रति भी द्रष्टा बोध रखना है। आखिर में उसको बचा लेना है, जो केवल दर्शन है। जो शुद्ध दर्शन मात्र है, उसे बचा लेना है। वही शुद्ध दर्शन प्रज्ञा है। उसी शुद्ध दर्शन को हमने ज्ञान कहा है। उसी शुद्ध दर्शन को हम आत्मा कहते हैं। योग का और धर्मों का चरम लक्ष्य वही है।
अंतरंग साधना में मूल तत्व है, सम्यक निरीक्षण--देह की क्रियाओं का, विचार की प्रक्रियाओं का, भाव की अंतरंग धाराओं का। इन तीनों पर्तों को जो पार करके साक्षी को पकड़ लेता है, उसे किनारा मिल गया। उसे किनारा क्या, उसे लक्ष्य मिल गया। और जो इन तीन में से किसी से बंधा रहता है, वह किनारे से बंधा हुआ है। उसे अभी लक्ष्य नहीं मिला।
एक कहानी मैंने पढ़ी थी, सुनी थी। एक रात, पूर्णिमा की रात थी--जैसे आज है--और चांद पूरा था और बहुत सुंदर रात थी। और कुछ मित्रों को हुआ कि वे नौका-विहार को निकलें। वे आधी रात गए नौका-विहार को गए। और आनंद मनाने गए थे, तो उन्होंने नाव में प्रवेश के पहले खूब शराब पी। फिर वे नाव में बैठे। फिर उन्होंने पतवारें उठायीं और नाव को उन्होंने चलाना शुरू किया। फिर उन्होंने बहुत नाव को चलाया।
फिर सुबह का वक्त आने लगा और ठंडी हवाएं आ गयीं और उनका नशा उखड़ा और उन्होंने सोचा, 'हम कितने चले आए होंगे! रातभर नाव चलायी है!' और उन्होंने गौर से देखा, वे उसी तट के किनारे खड़े थे, जहां वे रात आए थे। और तब उन्होंने जाना कि वे भूल गए थे। पतवार तो उन्होंने बहुत चलायी थी, लेकिन नाव को नदी के किनारे से छोड़ना भूल गए थे। और जिसने अपनी नाव नदी के किनारे से नहीं छोड़ ली है, वह अनंत परमात्मा के सागर में कितना ही तड़फे, कितना ही चिल्लाए, उसकी कोई गति नहीं होगी।
आपकी चेतना की नाव कहां बंधी है? देह से बंधी है, विचार से बंधी है, भाव से बंधी है। आपकी चेतना की नाव देह से बंधी है, विचार से बंधी है, भाव से बंधी है, यह आपका किनारा है। और नशे में आप कितनी ही पतवार चलाते रहें, एक जन्म, अनंत जन्म। और अनंत जन्मों के बाद भी जब ठंडी हवाएं लगेंगी किसी सत विचार की, किसी सत दर्शन की, किसी प्रकाश किरण का जब धक्का लगेगा और आप जागकर देखेंगे, तो पाएंगे, अनंत जन्मों की पतवार चलाना व्यर्थ चला गया। हम उसी किनारे खड़े हैं, हम वहीं बंधे हैं, जहां हमने शुरू किया था। और तब एक बात दिखायी पड़ेगी, नाव को खोलना भूल गए थे।
नाव को खोलना सीखना जरूरी है। पतवार चलाना बहुत आसान, नाव को खोल लेना बहुत कठिन है। साधारणतया नाव को खोल लेना बहुत आसान होता है और पतवार चलाना थोड़ा कठिन होता है। बाकी जीवन की धारा में नाव को खोल लेना नदी से बहुत कठिन है, पतवार चलाना बहुत सरल है। बल्कि अगर हम यूं कहें--रामकृष्ण ने एक दफा कहा था, 'तुम अपनी नाव तो खोलो, अपने पाल तो खोल दो। और परमात्मा की हवाएं तुम्हें ले जाएंगी, तुम्हें पतवार भी नहीं चलानी होगी।'
यह ठीक ही कहा था। अगर हम नाव ही खोल लें, तो हवाएं बह रही हैं परमात्मा की, और वे हमें ले जाएंगी, और उन दूर-दिगंत के गंतव्यों तक पहुंचा देंगी, जहां पहुंचे बिना कोई आदमी आनंद को उपलब्ध नहीं होता। लेकिन नाव को खोल लेना।
अंतरंग साधना में हम नाव खोलते हैं। उस रात वे मित्र नाव खोल क्यों नहीं सके? उस रात वे नशे में थे, मूर्च्छा में थे। सुबह जब ठंडी हवाएं लगीं और मूर्च्छा गयी, तो उन्होंने पाया कि नाव बंधी है। मैंने कहा, सम्यक निरीक्षण। सम्यक निरीक्षण मूर्च्छा का विरोध है। हम मूर्च्छा में हैं, इसलिए नाव को बांधे हुए हैं शरीर से, विचार से और भाव से। अगर सम्यक निरीक्षण की ठंडी हवाएं लगें और हम सजग हो जाएं, तो नाव को खोल लेना कठिन नहीं है। मूर्च्छा नाव को बांधे हुए है। अमूर्च्छा नाव को छोड़ देगी। अमूर्च्छा का उपाय है सम्यक निरीक्षण, राइट अवेयरनेस, समस्त क्रियाओं की।
अंतरंग साधना एक ही है, सम्यक स्मरण, सम्यक स्मृति, सम्यक विवेक, सम्यक होश, अमूर्च्छा। इसे स्मरण रखें। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। और इसका सतत प्रयोग करें। और इसका निरंतर प्रयोग करें।
तीन शुद्धियां, तीन शून्यताएं यदि घटित हो जाएं...। तीन शुद्धियां तीन शून्यता को लाने में सहयोगी हैं। तीन शून्यताएं आ जाएं, तो परिणाम में समाधि उत्पन्न होती है। समाधि द्वार है सत्य का, स्वयं का, परमात्मा का। जो समाधि में जागता है, उसे संसार मिट जाता है।
मिट जाने का अर्थ यह नहीं है कि ये दीवारें मिट जाएंगी और आप मिट जाएंगे। मिट जाने का यह अर्थ, ये दीवारें दीवारें न रह जाएंगी और आप आप न रह जाएंगे। मिट जाने का यह अर्थ, जब पत्ता हिलेगा, तो पत्ता ही नहीं, वह प्राण भी दिखेगा, जो पत्ते को हिलाता है। और जब हवाएं बहेंगी, तो हवाएं ही नहीं दिखेंगी, वे सत्ताएं भी दिखेंगी, जो हवाओं को बहाती हैं। और तब मिट्टी में, कण-कण में भी केवल मृण्मय ही नहीं दिखेगा, चिन्मय के भी दर्शन होंगे। संसार मिट जाएगा इस अर्थों में कि परमात्मा प्रकट हो जाएगा।
परमात्मा संसार को बनाने वाला नहीं है। आज कोई मुझसे पूछता था, किसने बनाया? हम पहाड़ के पास थे वहां घाटियों के और कोई पूछता था, ये घाटियां और ये दरख्त, ये किसने बनाए? यह हम तब तक पूछेंगे कि किसने बनाए, जब तक हम जानते नहीं। और जब हम जानेंगे, तब हम यह न पूछेंगे कि किसने बनाए; हम जानेंगे, यह स्वयं बनाने वाला है। क्रिएटर कोई भी नहीं है, स्रष्टा कोई भी नहीं है। सृष्टि ही स्रष्टा है। जब दर्शन होता है, जब दिखायी पड़ता है, तो यह क्रिएशन ही क्रिएटर हो जाता है। यह जो चारों तरफ विराट जगत है, यही परमात्मा हो जाता है। संसार के विरोध में परमात्मा नहीं मिलता, संसार का बोध विसर्जित होता है और परमात्मा उपलब्ध होता है।
उस समाधि की अवस्था में सत्य का बोध होगा, आवृत सत्य का, जो ढंका है। और ढंका किससे है? किसी और से नहीं, हमारी ही मूर्च्छा से ढंका है। सत्य पर पर्दे नहीं हैं, हमारी आंख पर पर्दे हैं। इसलिए जो अपनी आंख के पर्दों को गिरा देगा, वह सत्य को जान लेता है। और आंख के पर्दे कैसे गिराए जाएं, उसकी मैंने चर्चा की है। तीन शुद्धियां और तीन शून्यताएं आंख के पर्दों को गिरा देंगी। जब आंख बिना पर्दे की होती है, उसको हम समाधि कहते हैं। वह शुद्ध दृष्टि जो बिना पर्दे की होती है, उसको हम समाधि कहते हैं।
समाधि चरम लक्ष्य है धर्मों का--समस्त धर्मों का, समस्त योगों का। यह हमने विचार किया। इस पर चिंतन करेंगे, इस पर मनन करेंगे, इस पर निदिध्यासन करेंगे। इसे सोचेंगे, इसे विचारेंगे, इसे प्राणों में उतारेंगे। जो माली की तरह बीज को बोएगा, वह फिर एक दिन खुश होकर देखेगा कि उसमें फूल खिल गए हैं। और जो श्रम करेगा और खदानों को तोड़ेगा, वह एक दिन पाएगा, हीरे-जवाहरात उपलब्ध हो गए हैं। और जो पानी में डूबेगा और गहराइयों तक जाएगा, वह एक दिन पाएगा कि वह मोतियों को ले आया है।
जिनकी भी आकांक्षा हो और जिनके भी पुरुषार्थ को लगता हो कि कोई चुनौती है, उनके प्राण कंपित होंगे, आंदोलित होंगे और वे अग्रसर होंगे। किसी पहाड़ पर चढ़ना उतनी बड़ी चुनौती नहीं है, स्वयं को जान लेना सबसे बड़ी चुनौती है। और जो ठीक अर्थों में पुरुष हैं, जो ठीक अर्थों में जिनके भीतर कोई भी शक्ति और ऊर्जा है, उनका यह अपमान है कि बिना स्वयं को जाने वे समाप्त हो जाएं।
प्रत्येक के भीतर यह संकल्प भर जाना चाहिए कि मैं सत्य को जानकर रहूंगा, स्वयं को जान कर रहूंगा, समाधि को जानकर रहूंगा। इस संकल्प को साधकर और इन भूमिकाओं को प्रयोग करके आप भी सफल हो सकते हैं, कोई भी सफल हो सकता है। यह बात आप विचार करेंगे।
अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। रात्रि के ध्यान के संबंध में फिर थोड़ा-सा आपको कह दूं। कल मैंने आपको बताया, शरीर में पांच चक्रों की बात कही। उन पांच चक्रों से बंधे हुए अंग हैं। उन चक्रों को यदि हम शिथिल करें और शिथिल होने का भाव करें, तो वे-वे अंग उनके साथ-साथ शिथिल हो जाते हैं।
पहला चक्र है मूलाधार। जननेंद्रिय के निकट मूलाधार की धारणा करेंगे कि मूलाधार चक्र है और उस चक्र को हम शिथिल होने का आदेश देंगे कि मूलाधार, शिथिल हो जाओ। पूरे मन से और पूरी आज्ञा देनी चाहिए कि मूलाधार, शिथिल हो जाओ।
आप सोचेंगे, हमारे कहने से क्या होगा? आप सोचते होंगे, हम कहेंगे, पैर शिथिल हो जाओ, पैर शिथिल कैसे हो जाएंगे! हम कहेंगे कि शरीर जड़ हो जाओ, शरीर जड़ कैसे हो जाएगा!
आप थोड़े सोच-समझ के अगर हों, तो इतना आपको खयाल नहीं आता! जब आप कहते हैं, हाथ रूमाल उठाओ, तो हाथ रूमाल कैसे उठाता है? और जब आप कहते हैं, पैर चलो, तो पैर चलते कैसे हैं? और जब आप कहते हैं कि पैर मत चलो, तो पैर रुक कैसे जाते हैं? यह शरीर का अणु-अणु आपकी आज्ञा मानता है। अगर यह आज्ञा न माने, तो शरीर चल ही नहीं सकता। आप आंखों से कहते हैं, बंद हो जाओ, तो आंखें बंद हो जाती हैं। भीतर विचार होता है कि आंख बंद हो जाए और आंख बंद हो जाती है। क्यों? विचार में और आंख में कोई संबंध नहीं होगा? नहीं तो आप भीतर बैठे सोच ही रहे हैं कि आंख बंद हो जाओ और आंख बंद नहीं हो रही है! और आप सोच रहे हैं कि पैर चलो, और पैर बैठे हुए हैं!
मन जो कहता है, वह तत्क्षण शरीर तक पहुंच जाता है। अगर हमको थोड़ी समझ हो, तो हम शरीर से कुछ भी करवा सकते हैं। यह जो हम करवा रहे हैं, केवल प्राकृतिक है। लेकिन क्या आपको पता है कि यह भी एकदम प्राकृतिक नहीं है, इसमें भी सुझाव काम कर रहे हैं। क्या आपको पता है, अगर एक आदमी के बच्चे को जानवरों के बीच पाला जाए, तो वह सीधा खड़ा होगा? वैसी घटनाएं घटी हैं।
वहां पीछे लखनऊ के पास जंगलों में एक घटना घटी। एक लड़का पाया गया, जिसे भेड़ियों ने पाला। भेड़ियों का शौक है कि बच्चों को गांव से उठा ले जाना और कभी-कभी भेड़िए उनको पाल भी लेते हैं। ऐसी जमीन पर कई घटनाएं घटी हैं। अभी पीछे चार वर्ष पहले जंगल से एक चौदह-पंद्रह वर्ष का लड़का लाया गया, जो भेड़ियों ने पाला है। छोटे बच्चे को गांव से उठा ले गए और फिर उन्होंने उसको दूध पिलाया और पाल लिया।
वह चौदह वर्ष का लड़का बिलकुल भेड़िया था। वह चार हाथ-पैर से चलता था, सीधा खड़ा नहीं होता था। और वह भेड़ियों की तरह आवाज निकालता था और खूंखार था और खतरनाक था। और आदमी को पा जाए, तो कच्चा खा सकता था। लेकिन वह कोई भाषा नहीं बोलता था।
पंद्रह वर्ष का बच्चा भाषा क्यों नहीं बोलता? और अगर आप उससे कहें कि बोलो, बोलने की कोशिश करो, तो भी क्या करेगा! और पंद्रह वर्ष का बच्चा सीधा खड़ा क्यों नहीं होता? उसे सुझाव नहीं मिले सीधे खड़े होने के, उसे खयाल नहीं मिला सीधा खड़े होने का।
जब आपके घर में एक छोटा बच्चा पैदा होता है, आपको सबको चलते देखकर उसे यह सुझाव मिलता है कि चला जा सकता है। उसे यह खयाल मिलता है कि दो पैर पर सीधा खड़ा हुआ जा सकता है। यह विचार उसको मिल जाता है, यह उसके अंतस-चेतन में प्रविष्ट हो जाता है। और तब वह चलने की हिम्मत करता है और कोशिश करता है। और सब तरफ लोगों को चलते देखता है, तो हिम्मत बढ़ती है और वह धीरे-धीरे चलना शुरू कर देता है। दूसरों को बोलते देखता है, तो उसे खयाल होता है कि बोला जा सकता है। और फिर वह चेष्टा करता है। और उसकी वे ग्रंथियां, जो बोल सकती हैं, सक्रिय हो जाती हैं।
हमारे भीतर बहुत-सी ग्रंथियां हैं, जो सक्रिय नहीं हैं। अभी मनुष्य का पूरा विकास नहीं हुआ है, स्मरण रखें। जो शरीर के विज्ञान को जानते हैं, वे यह कहते हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क का बहुत छोटा-सा हिस्सा सक्रिय है। शेष हिस्सा बिलकुल इनएक्टिव पड़ा हुआ है। उसकी कोई क्रिया नहीं है। और वैज्ञानिक असमर्थ हैं यह जानने में कि वह शेष हिस्सा किस काम के लिए है। उसका कोई काम ही नहीं है अभी। आपकी खोपड़ी का बहुत-सा हिस्सा बिलकुल बंद पड़ा हुआ है। योग का कहना है कि वह सारा हिस्सा सक्रिय हो सकता है।
और नीचे उतरें आदमी से, तो जानवर का और भी थोड़ा हिस्सा सक्रिय है, उसका और ज्यादा हिस्सा निष्क्रिय है। और नीचे उतरें, तो जितने नीचे उतरते हैं, उतने ही जानवर जितने नीचे तबके के हैं, उनके मस्तिष्क का उतना ही हिस्सा निष्क्रिय पड़ा हुआ है।
काश, हम महावीर और बुद्ध का दिमाग खोल पाते, तो हम पाते कि उनका सारा हिस्सा सक्रिय है, उसमें निष्क्रिय कुछ भी नहीं है। उनका पूरा मस्तिष्क काम कर रहा है, पूरा। और हमारा छोटा-छोटा टुकड़ा काम कर रहा है।
अब जो शेष काम नहीं कर रहा है, उसके लिए उसे सजग करना होगा, सुझाव देने होंगे, चेष्टा करनी होगी। योग ने चक्रों के माध्यम से मस्तिष्क के उसी हिस्से को सक्रिय करने के उपाय किए हैं। योग विज्ञान है और एक वक्त आएगा कि दुनिया का सबसे बड़ा विज्ञान योग ही होगा।
यह जो पांच चक्रों की मैंने बात कही, इन पांच चक्रों पर ध्यान को केंद्रित करके सुझाव देने से वे-वे अंग तत्क्षण शिथिल हो जाएंगे। मूलाधार को हम सुझाव देंगे और साथ में भाव करेंगे कि पैर शिथिल हो रहे हैं। पैर शिथिल हो जाएंगे। फिर ऊपर बढ़ेंगे। नाभि के पास स्वाधिष्ठान चक्र को सुझाव देंगे और नाभि के आस-पास का सारा यंत्र-जाल शिथिल हो जाएगा। फिर और ऊपर बढ़ेंगे और हृदय के पास अनाहत को, अनाहत चक्र को सुझाव देंगे, हृदय का सारा संस्थान शिथिल हो जाएगा। फिर और ऊपर बढ़ेंगे और आंखों के बीच आज्ञा चक्र को सुझाव देंगे, तो चेहरे के सारे स्नायु शिथिल हो जाएंगे। और ऊपर बढ़ेंगे और चोटी के पास सहस्रार चक्र को सुझाव देंगे, तो मस्तिष्क की सारी अंतस की, अंदरूनी सारा का सारा यंत्र शिथिल होकर शांत हो जाएगा।
इसको जितनी परिपूर्णता से भाव करेंगे, उतनी परिपूर्णता से यह बात घटित होगी और कुछ दिन निरंतर अभ्यास करने से परिणाम आने शुरू होंगे।
अगर जल्दी परिणाम न आएं, तो घबराना नहीं। अगर बहुत जल्दी कुछ घटित न हो, तो कोई बेचैन होने की बात नहीं है। साधारण-सी चीजें हम सीखते हैं, वर्षों लग जाते हैं; जो आत्मा को सीखने को उत्सुक हो, उसे जन्म भी लग जाएं, तो थोड़ा समय है। तो बहुत संकल्प से, बहुत प्रतीक्षा से और बहुत शांति से प्रयोग करने से परिणाम अवश्यंभावी है।
इन पांच चक्रों को सुझाव देकर शरीर को शिथिल करेंगे। फिर श्वास को शिथिल करने के लिए मैं कहूंगा, तो उसे ढीला छोड़ देंगे। और मैं कहूंगा, श्वास शांत हो रही है, तो भाव करेंगे। फिर अंत में मैं कहूंगा, विचार शून्य हो रहे हैं, मन शून्य हो रहा है।
यह तो प्रयोग होगा ध्यान का। इस ध्यान के पहले दो मिनट भाव करेंगे और दो मिनट भाव करने के पहले संकल्प करेंगे पांच बार।
अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। इस ध्यान में सबको सो जाना है, लेट जाना है, लेटकर ही उसे करना है। इसलिए अपना स्थान बना लें। बैठकर संकल्प करेंगे, भाव करेंगे और फिर लेटेंगे।
आज इतना ही।

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