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शनिवार, 25 अगस्त 2018

कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-01)

पहला-प्रवचन

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं)
थोड़ा सा फर्क है। हां, शब्द की बहुत गहराई में जाएं, बिलकुल प्राचीन से प्राचीन तो वही मतलब है। वही मतलब है। लेकिन बुद्ध होने में और बुद्धिमान होने में बड़ा फर्क है। बुद्ध से हम मतलब लेते हैंः प्रबुद्ध होने का, एनलाइटन होने का, जागे हुए होने का। बुद्धि से मतलब लेते हैंः सोच-विचार का। और मजा है कि इन दोनों बातों में बड़ा विरोध है।
जितना जागा हुआ आदमी होगा, उतना कम सोच-विचार करता है। जितना कम जागा हुआ आदमी होगा, उतना ज्यादा सोच-विचार करता है। असल में सोच-विचार सब्स्टीट्यूट है जागे होने का।

एक अंधा आदमी है, उसको इस कमरे के बाहर जाना है, तो वह सोचता है, दरवाजा कहां है, रास्ता कहां है? पूछता है, उठने के पहले पच्चीस दफे सोचता है, कहीं टकरा न जाऊं। एक आंख वाला है, वह उठता है और निकल जाता है। वह सोचता ही नहीं कि दरवाजा कहां है। वह पूछता ही नहीं कि दरवाजा कहां है। वह जो अंधा आदमी है, उसके लिए पूछना, सोचना, खोजना सब पड़ता है
क्योंकि उसे आंख न होने की वजह से यह सारे काम करने पड़ते हैं। आंख वाले आदमी से तो आप पूछिएगा कि दरवाजा कहां है? तब वह बताएगा? निकलते वक्त उसको पता ही नहीं वह दरवाजे से निकल गया। वह निकल ही गया और उसने न सोचा कि दरवाजा है, न फिकर की, न किसी से पूछा बस निकल गया है।

निकल जाना इतना सहज हुआ है कि उसमें कहीं सोच-विचार नहीं आया।
बुद्ध को जिस अर्थ में हम वहां शब्द का प्रयोग करते हैं, वहां विचार नहीं है वह। वहां उसका मतलब है ऐसा व्यक्ति जो देख रहा है और निकल गया है देखने से।
जहां हम बुद्धि का उपयोग करते हैं वहां बड़ी और बात है। वहां हम यह कह रहे हैं कि जहां हमें दिखाई नहीं पड़ रहा लेकिन हम सोच-सोच कर, टटोल-टटोल कर निकलने की कोशिश कर रहे हैं।जो देखने वाला कर सका है बिना सोच-विचारे, वह हम सोच-विचार कर, करने की कोशिश कर रहे हैं। तो ऐसा हो सकता है।
बुद्ध तो जाग कर बुद्ध होते हैं। उनके पीछे जो अनुयायी होता है, वह सोच-विचार कर होता है। वह सब सोच-विचार कर तैयारी करता है। उसी ढंग का खाना खाता है, उसी ढंग से कपड़े पहनता है, वैसे ही चलता है, बैठता है, उठता है। वह पूछता है बुद्ध से कि कैसे उठते हो, आप कैसे बैठते हो, कैसे सोते हो? वह सब वैसे ही करता है। वह सब कर लेता है और फिर भी पाता है कि वह बात नहीं घटी। वह घट भी नहीं सकती क्योंकि वह जो प्रबुद्ध होना है वह बुद्धि का जोड़ नहीं है। असल में प्रबुद्ध होना एक अर्थ में बुद्धि का पूरी तरह असफल होकर टूट जाना है।
इन्हें वह उस क्षण घटित होगा जहां बुद्धि ने असमर्थता पा ली है। अपनी और सब खोज-बीन करके उस जगह आ गई जहां थक गई। और जहां उसने कहा कि आगे हमारी कोई गति नहीं है। सब व्यर्थ हो गया। अब कुछ खोजने को नहीं, खोज सकते नहीं, सब टूट गया।
बुद्धि की जो परिपूर्ण असफलता है वही प्रबुद्ध होने की पहली संभावना है। जहां सब सोच-विचार थक गया, उसने कहा, नहीं कुछ होता। जहां फिलासफी हार गई और टूट गई और गिर गई, वहां रिलीजन शुरू और वहां प्रारंभ होता है।
इसलिए कोई शब्द से तो आप जो कहते हैं, ठीक ही कहते हैं। बुद्ध और बुद्धि में एक ही शब्द प्रयोग हुए हैं, लेकिन बड़े अलग भाव से प्रयुक्त हुए हैं।
बुद्ध को बुद्धिमान आदमी नहीं कह सकते। बुद्ध को प्रबुद्ध ही कह सकते हैं। ऐसा आदमी जो जाग गया। अब बुद्धि का जिसे सवाल ही नहीं रह गया है तो वह जो मैं कह रहा था कि जब हम कहते हैं इंटलेक्चुअल कम्युनिकेशन तब और बड़ा मुश्किल हो जाता है मामला।
मेरे खयाल से भौतिक संवाद जैसी चीज तो असंभव है। असंभव ही है। इसलिए असंभव है कि बुद्धि का जो काम है वह संवाद नहीं है। बुद्धि का जो काम है वह विवाद है। बुद्धि का जो मौलिक काम है, वह विवाद का है। संवाद का नहीं है। और इसलिए जहां हम संवाद में होते हैं वहां अक्सर हम हृदय की बातें करने लगते हैं। बुद्धि की बात तत्काल छोड़ देते हैं। और उसका और कोई कारण नहीं है।
जैसे हम किसी को प्रेम करते हैं तो हम यह नहीं कहते हैं कि मैं बौद्धिक रूप से प्रेम करता हूं। इसका कोई मतलब भी नहीं होता, बौद्धिक रूप से। तो मैं कहता हूं इसमें बुद्धि का कुल लेना-देना ही नहीं, मैं तो हृदय से प्रेम करता हूं। और हृदय जैसी चीज कोई होती नहीं शरीर में, हम यह कह रहे हैं कि बुद्धि का कुछ लेना-देना नहीं है।
एक बहुत अच्छी घटना घटी है। मजनू को उसके गांव के राजा ने बुला लिया है। और उससे कहा कि तू बिलकुल पागल हो गया है लैला के लिए! इतनी साधारण लड़की के लिए इतना दीवाना क्यों है! कुछ तो सोच, कुछ तो समझ! तो मजनू ने कहा कि अगर सोच ही समझ सकता तो जो आप कहते हैं वही मैं भी कहता।
वही तो तकलीफ हो गई कि सोच-समझ नहीं पा रहा हूं। तो उसको राजा ने कहा कि मैं और अच्छी लड़कियां बुला देता हूं। मेरे महल में लड़कियां हैं तू उनको देख, एक से एक सुंदर लड़कियां हैं। उसने कहा कि मैं सबको देखूंगा लेकिन लैला मुझे दिखाई न पड़ेगी। क्योंकि जो उन लड़कियों को देखेगा उससे मैंने लैला को नहीं देखा और जिससे मैंने लैला को देखा उससे मैं किसी लड़की को अब देख नहीं सकता। उपाय ही नहीं है कोई।
राजा ने कहाः तू बिलकुल मूढ़ है। उसने कहा कि ऐसा ही समझें। अगर मूढ़ न होता तो जो आप कहते हैं, वही मैं भी कहता। कोई तर्क नहीं है। आप जो कहते हैं बिलकुल ठीक कहते हैं। जहां तक बुद्धि की बात है आप ठीक ही कहते हैं, मैं ही गलत हूं। लेकिन बुद्धि से मैंने प्रेम किया नहीं और मैं पूछता हूं कि बुद्धि से कब प्रेम किया गया है? शायद वह जवाब तो नहीं दे सका राजा, अब भी हम नहीं दे सकते जवाब कि बुद्धि से कब प्रेम किया गया है!
असल में अगर हम ठीक से देखें तो हमारी बुद्धि का भी सारा विकास जीवन के संघर्ष से पैदा हुआ है। एक इंस्ट्रूमेंट की तरह हमने जीवन के संघर्ष में उसका उपयोग किया है। जीवन की लड़ाई में उपयोग किया है वह जो सरवाइवल की जो लड़ाई चल रही है उसमें बुद्धि ने हमें काम दिया है।
शायद इसलिए आदमी बच गया है और जानवर हार गया। जहां लड़ाई का संबंध है वहां तो बुद्धि बड़ी उपयोगी है, और जहां प्रेम का संबंध है, वहां एकदम बेकार है। इसलिए परमात्मा से बुद्धि का नाता जोड़ना, सत्य से बुद्धि का नाता जोड़ना जरा कठिन है। हां, लड़ाई करनी हो, हिंसा करनी हो, बम बनाना हो तो तो बुद्धि का काम हो जाता है। तो संवाद जो है वह एक तरह की लड़ाई नहीं है, बल्कि लड़ाई से हट जाना है। और जब हम कहते हैं बौद्धिक संवाद तब तब कंट्राडिक्ट्री हैं वे दोनों शब्द। संवाद और बौद्धिक का कोई मतलब नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम, हम बुद्धि को खो दें तब संवाद होगा। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि हम अबुद्धिवान हो जाएं कि हम मूढ़ होकर, अंधे होकर बैठ जाएं तो संवाद होगा।

आई रीड दिस प्रॉब्लम, आई हैव जैनुइन स्ट्रगल ऑफ फिलासफर्स लाइक जस्ट टाइम इन माइंड। दो ही एक्सप्लोरड पासिबिलिटीज ऑफ लैंग्वेज एंड मेकिंग इट ए.ज अनएंबिगुअस ए.ज पासिबल।... बिलिव्ड हिज फेथ वा.ज इन समथिंग व्हीच वा.ज अनसेएबल।

हां, हां। बिलकुल था, बिलकुल था।

आई एम जस्ट कमिंग नियरर टू हिम, व्हेन आई आस्क दिस क्वेश्चन।

हां, हां, बिलकुल था। लेकिन तकलीफ यह है अब...ही है तो वह भी कहेगा जिसे न कहा जा सकता हो उसे न ही कहा जाए। लेकिन यह भी कहना हो गया। यू हैव एसर्टेड।
अगर मैं यह कहूं कि परमात्मा को नहीं कहा जा सकता तो मैंने काफी कह दिया। जो कहा जा सकता था वह कह ही दिया। हमारी कठिनाई यह है कि हमारे पास सिवाए भाषा के कोई उपाय नहीं है। यानी मामला ऐसा है कि मेरे हाथ में तलवार है और उसी से मुझे आपका आलिंगन करना है। यह बड़ी मुसीबत की बात है। आलिंगन करना है और है तलवार हाथ में। और कोई हाथ नहीं है मेरे पास। और प्रेम करना है आपसे और गले मिलना है आपसे और तलवार ही मेरे पास है। यह तलवार की वजह से गला कटने का डर है और इस तलवार के सिवाए मेरे पास कोई उपाए नहीं है आदमी की सारी तकलीफ यह है कि उसके पास कहने को शब्द हैं, बताने को तर्क हैं, उपयोग करने के लिए बुद्धि है। और यह तीनों के तीनों बिलकुल बेमानी हैं किसी अर्थों में। कुछ है, जहां यह सब बेमानी है।
और विटगिस्ंटीन की सारी जिंदगी की तकलीफ यह है और उसकी तकलीफ नहीं समझी जा सकी ठीक से। नहीं समझी जा सकी इसलिए कि वह, वह तो ऐसी मालूम...क्योंकि यह तो एकाध ही दो वाक्य में कहा उसने। यह तो कभी वह कहता है कि जो न कहा जा सके, उस संबंध में चुप रहना उचित है। और फिर बाकी में तो वह सब भाषा का ही खंडन कर रहा है कि नहीं कहा जा सकता, नहीं कहा जा सकता।
उसकी बड़ी किताबों में एकाध-दो वाक्य ऐसे खो जाते हैं कि उनकी कोई फिकर ही नहीं है। लेकिन वही महत्वपूर्ण हैं, बाकी सब बेमानी है।
जहां वह यह कह रहा है कि कुछ है जो नहीं कहा जा सकता, लेकिन फिर भी कहने की इच्छा तो है, इशारा करने की इच्छा भी है। और उसे शब्द से ही करना पड़ेगा। इसका रास्ता क्या निकले? रास्ता एक ही है कि हम शब्द का उपयोग करें और शब्द की निरर्थकता को जानते हुए उपयोग करें।

लिटरेचर में हो रहा है, लिटरेचर व्हेन इट ट्राइज टू बिकम फार्मल ही इ.ज ट्राइंग टु एचीव...एक्सेप्ट द पैराडाक्स ऑफ वर्डस एंड एट ट्राइज टु क्लीन चिट ऑफ इट...बाई मेकिंग दि लैंग्वेज ए.ज ट्रांसपेरेंट ए.ज पासिबल।...यू हैव एन एनकाउंटर विद रियलिटी। दैट इ.ज दि एम ऑफ फार्मल लिटरेचर। हाउ वुड यू इवैल्यूएट दैट? बिकाज दे हैव एक्सेप्टेड द पैराडाक्स एंड ट्राइंग टु मैक ए वे आउट ऑफ इट बाई अचिविंग समथिंग, सम फार्मल यूनिटी।

मैं समझा। असल में अगर ठीक से हम देखें तो सारी कलाएं जैसे-जैसे सत्य को बताने की दिशा में आगे बढ़ेंगी, वैसे-वैसे सत्य को बताने में तो समर्थ न होंगी, जो कुछ बता पा रही थीं उसको भी बताने में असमर्थ हो जाएंगी। वैसे ही हुआ है, हो रहा है।
नई मूर्ति है या नई पेंटिंग है या नई कविता है या नया संगीत है, चेष्टा है इस बात की कि वह जो फार्म, जो बाधा डालता है। वह जो आकार और आकृति और जो मीडियम बाधा डालता है, उससे हम मुक्त होकर इतना ट्रांसपेरेंट हो सकें कि वह बाधा न डाले बल्कि मार्ग बन जाए।
लेकिन परिणाम क्या होता है, परिणाम यह होता है कि वह बाधा डालता था। अगर हम उससे मुक्त होने की कोशिश करते हैं तो हम मुक्त तो हो जाते हैं लेकिन तब वह ट्रांसपेरेंसी ही रह जाती है, उससे कुछ आगे आर-पार कुछ नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि वह जो दिखाई पड़ता था, वह आकार ही था। मैं इस तरह के शब्दों का उपयोग कर सकता हूं जो बाधा न डालें; मगर वह शब्द सब अर्थहीन होंगे। ओम जैसे शब्द होंगे या कोकाकोला जैसे शब्द होंगे; जिनका कोई मतलब नहीं होगा। अब जैसे ओम, तो अब इसका कोई मतलब नहीं है। यह हमने बहुत पहले इसका प्रयोग किया है इसीलिए कि यह अर्थहीन है, इसका उपयोग करो। क्योंकि जितने अर्थवान शब्द हैं सब उपयोग करके झंझट में डाल देते हैं और फिर उनकी झंझट नहीं सुलझती।
अब यह ओम है, इसका उच्चारण कर दो, इसका कोई अर्थ नहीं है। इससे कुछ इंगित नहीं होता और इससे हम यह इंगित कर रहे हैं कि कुछ है जो शब्द के बाहर है, उसके लिए हमने यह शब्द चुना। लेकिन उससे भी क्या फर्क पड़ता है कितना ही ओम कहते रहो। उससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। उसका भी इंगित कहीं नहीं हो पाता।

आप कहते हैं हमने इसका उपयोग किया तो उसका कोई मतलब नहीं है। लेकिन वे मंत्र-शास्त्री, वे कहेंगे कि उसका कोई और कारण से उपयोग किया।

वह मंत्र-शास्त्री से बात करनी चाहिए। वह मंत्र शास्त्री से बात करनी चाहिए। मैं तो यहां यह कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि नई कलाएं इस तरह के उपयोग कर रही हैं जो एब्सर्ड हैं। इस तरह की मूर्तियां बना रही हैं जिसको आप किसी की मूर्ति नहीं कह सकते। अगर आदमी की मूर्ति बनानी है तो ऐसी बनानी पड़ेगी कि उसमें किसी का चेहरा न आए क्योंकि किसी का भी आ जाएगा तो किसी का हो जाएगा, आदमी का नहीं रह जाएगा।
अब आदमी की अगर मूर्ति बनानी है तो उसमें मेरा चेहरा नहीं होना चाहिए, आपका चेहरा नहीं, उसमें किसी का चेहरा नहीं होना चाहिए। उसमें कोई पर्टिकुलर चेहरा हुआ कि वह किसी आदमी का हो जाएगा, आदमियत का न रह जाएगा। तब हम एक ऐसी मूर्ति बनाएं जिसमें किसी का चेहरा न हो। बन जाएगी ऐसी मूर्ति लेकिन हम सोचते थे कि वह आदमियत की बन जाएगी, वह एक आदमी की भी न रह जाएगी।
जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि आदमियत की तो बनेगी नहीं वह, वह जो एक आदमी की बन सकती थी वह भी नहीं बनेगी अब। वहां से भी विदा हो जाएगी। वह फेसलेस हो जाएगी। आदमियत की बनाने में सिर्फ चेहरा खो जाएगा और ऐसे ही हुआ है इसलिए नई कला के सारे के सारे प्रयोग फेसलेसनेस की तरफ हैं, सब चेहरे खो गए हैं वहां से। और तब हमारी समझ के बाहर हो गया है और जो कुछ लोग कहते हैं कि हमारी समझ में आ रहा है वह या तो फैशन की वजह से कहते हैं कि नहीं तो बुद्धिहीन मालूम पड़ेंगे।
बाकी नई कला के सारे आयाम, सारे डाइमेनशंस ऐसे हैं कि वह आपको समझ में नहीं आ रहे हैं, न आने चाहिए। कोशिश ही यह है कि समझ में आ गया तो अर्थ पकड़ में आ गया आपके। और अर्थ अगर पकड़ में आ गया तो आकार पकड़ में आ गया, फार्म हो गया, बात खत्म हो गई।
नहीं, जो समझ में नहीं आ रहा है यही तो सारी चेष्टा है कि समझ में आपके न आ जाए। लेकिन समझ में आने वाले शब्द से भी नहीं बता पाते थे, न समझ में आने वाले शब्द से क्या बता पाएंगे। यानी मैं यह कह रहा हूं जब समझ में आने वाला शब्द ही नहीं बता पाता तो समझ में न आने वाला शब्द भी नहीं बता पाएगा। इसका मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब यह है कि यदि हमें बुद्धि की पूरी की पूरी असमर्थता का बोध हो जाए उसमें जरा भी आशा न रह जाए..होपिंग अगेंस्ट होप चल रही है। बहुत दिनों से वह चलती जाती है। कुछ लोग छिटक जाते हैं रास्ते के किनारे और वह कह देते हैं कि होपलेस हो गया मामला, उनकी बात अलग। लेकिन आमतौर से हम आशा बांधे चले जाते हैं कि कोई रास्ता खोज लेंगे।
अगर कालीदास नहीं खोज पाया तो हिजरा खोज लेंगे, अगर हमारे मूर्तिकार पुराने नहीं खोज पाए तो पिकासो खोज लेगा। हम कोशिश में लगे हैं कि कोई न कोई रास्ता खोज लेंगे कि जो न कहे जाने जैसा है वह हम कह देंगे।
मैं यह कह रहा हूं कि जिस दिन किसी व्यक्ति को यह समझ में आ जाता है कि यह मामला एज सच एब्सर्ड है यानी यह सवाल नहीं है कि हम और किसी तरकीब से कह देंगे। नहीं, सवाल यह है कि कहा ही नहीं जा सकता। यह सवाल नहीं है कि हम कोई और अच्छा शब्द खोज लेंगे, अच्छी आकृति, अच्छी कविता, अच्छी पेंटिंग नहीं, यह सवाल नहीं है। जो है वह कहे जाने योग्य भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि आज तक नहीं कहा गया, आगे कहा जा सकेगा। नहीं, वह कहा ही नहीं जा सकता। वह जो रियलिटी जिसको आप कह रहे हैं वह कही नहीं जा सकती। तब इसका मतलब यह है कि वह सिर्फ जानी जा सकती है। और तब जानने और कहने के फासले और फर्क को समझ लेना उपयोगी होगा।
वह जो नहीं कहा जा सकता वह भी जाना जा सकता है। हमारी क्या तकलीफ है कि हम यह कोशिश में लगे हैं कि जो जाना जा सकता है वह कहा भी जाना चहिए। हमारी जो सारी तकलीफ है...जैसे कि एक आदमी बुद्ध कहता है कि मैंने जाना निर्वाण तो हम यह पूछते हैं, कहो, क्या है निर्वाण? एक आदमी कहता है, मैंने ईश्वर को जाना। तो हम यह पूछते हैं कि बोलो, क्या है ईश्वर? अगर वह नहीं बोल पाता तो हम हंसते हैं। हम कहते हैं तो फिर जाना ही नहीं होगा। क्योंकि अगर जाना है तो बोलो और अगर नहीं बोल सकते हो तो स्वीकार कर लो कि नहीं जाना, क्योंकि जो जाना गया है वह बोला क्यों नहीं जा सकता?

देयर इ.ज वन थिंग मोर...

हां।

दैट इट इ.ज दि बेसिक ह्यूमन नीड टू ट्रांसफार्म हिज एक्सपीरिएंस इन टू थिंग्स।

हां, हां।

नाउ इन लैंग्वेज वी फाइंड दैट इट इ.ज ट्रांसफार्मड इन टु सिंबलस एंड वर्डस एंड थ्रु विच वी गेट सम मीनिंग। दैन देयर आर सर्टेन एक्सपीरिएंस विच इ.ज ऑफ...पर्टिकुलर ह्यूमन एक्सपीरिएंस विच इ.ज आलसो ट्रांसफार्मड इन टू अदर सिंबलस प्रेजेंटेशनल...सिंबलस विच इ.ज इन पेंटिंग, म्यूजिक एंड वेरियस अदर आर्टस। सो थ्रु विच आलसो देयर इ.ज आफकोर्स सम कम्युनिकेशन, विच द लैंग्वेज...विल नेवर बी एबल टू कनवे। सो यू मीन टू से दैट ऑल दीज सिंबलस थ्रू विच यू नो द कम्युनिकेेशन इ.ज मैड दे ऑल विल बी टोटली इनकेपेबल ऑफ कनवेइंग द रियल?

हां, मैं समझा आपकी बात। आप बड़ी अच्छी बात उठाए हैं। मैं यह कह रहा हूं, यह बिलकुल सच है, एक मानवीय जरूरत है एक बुनियादी जरूरत है कि जो हमने जाना है वह हम कहना चाहते हैं। क्योंकि जो हमने जाना है हम उसमें दूसरों को साझीदार बनाना चाहते हैं, भागीदार बनाना चाहते हैं। अगर मैं घर के पीछे गया और मैंने वहां एक फूल देखा है जिससे मैं नाचने लगा और आनंदित हो गया। तो मैं लौट कर घर के मित्रों से कह देना चाहता हूं कि पीछे एक फूल खिला है और बहुत आनंदित है। यानी आनंद का एक हिस्सा बांटना भी है, आनंद का ही। दुख का एक हिस्सा न बांटना भी है। अगर मैं दुखी हूं तो मैं दरवाजा बंद करके कमरे के एक कोने में बैठ जाना चाहता हूं और चाहता हूं कोई न आए।
दुख सिकोड़ देता है। और अगर मैं आनंदित हुआ हूं तो मैं बांट देना चाहता हूं, फैल जाना चाहता हूं, और दस लोगों को खबर कर देना चाहता हंू। बिलकुल स्वाभाविक है कि जो आदमी जाने, वह उसे कहने जाए। वह उसकी बेसिक जरूरत है। लेकिन हमारी सब जरूरतें जरूरी नहीं है कि पूरी हों। हमारी बुनियादी जरूरतें भी पूरी हों यह भी जरूरी नहीं है।
हम जानते हैं और हम कहना भी चाहते हैं और कहने की कोशिश में हम सिंब्लस भी खोजते हैं क्योंकि बिना उसके तो कोई उपाय नहीं कहने का। हम सिंब्लस खोजते हैं। सिंब्लस या प्रतीक जो हैं वह हमारी चेष्टा है, उसको बताने की जो हमने जाना। लेकिन हमारी चेष्टा सफल नहीं हो पाती। कला असफल है, काव्य असफल है, मूर्ति असफल है, सब असफल है।
और जितना बड़ा मूर्तिकार होगा उतनी असफलता अनुभव करेगा और जितना बड़ा कवि होगा उतनी असफलता अनुभव करेगा और जितना बड़ा संत होगा उतनी असफलता अनुभव करेगा।
छोटा होगा तो इतनी असफलता अनुभव नहीं करेगा। अगर उधार अनुभव को दोहराना है तो बराबर शब्द कह सकते हैं। लेकिन आपका ही कोई अनुभव हुआ है तो आप पहली दफे पाएंगे कि कोई शब्द ही नहीं है क्योंकि वह अनुभव आपका है और आप पहली दफे हुए हैं जमीन पर।
और कोई शब्द नहीं है क्योंकि आप जैसा अनुभव किसी को कभी नहीं हुआ है। हां अगर कोई उधार अनुभव हुआ है कि अगर स्त्री के चेहरे में आपको भी चांद दिखा है तो कालिदास से लेकर सब उसको कहते रहे हैं, चांद दिखने को। आप भी एक कविता बना सकते हैं, जिसमें स्त्री के चेहरे में चांद दिख जाए। लेकिन वह अनुभव बहुत उधार और बासा और सेकंडहैंड है। हजार हाथ से गुजरा हुआ अनुभव है। आप कह पाते हैं, और दूसरा भी समझ पाता है क्योंकि वह सबका अनुभव है। लेकिन जितना अनुभव निजी होता जाएगा और जितना गहरा होगा उतना निजी होगा। और परमात्मा का अनुभव चूंकि आत्यंतिक चरम अनुभव है उससे गहरा कोई अनुभव नहीं है, वह नितांत निजी है।
यानी वह पहली दफे ही आपको ही हो रहा है, आपके जैसा वैसा पहले कभी किसी को नहीं हुआ। उस गहराई में आप कोई शब्द नहीं पाते और कोई सिंबल नहीं पाते। बनाने की कोशिश करते हैं।
जब आप बनाने की कोशिश करते हैं तभी उपद्रव शुरू होता है, क्योंकि आप कहते हैं, समझा कुछ जाता है। आप बताते कुछ हैं, सुना कुछ जाता है।
और तब एक उपद्रव शुरू हो जाता है जो हजारों साल तक चलता है। अब जैसे कृष्ण की गीता है। अभी टीका चल रही हैं उस पर। उसका मतलब यह है कि जो उन्होंने कहा था वह अभी तक नहीं समझा गया है। नहीं तो टीका की अब कोई जरूरत नहीं है।
एक हजार टीकाएं लिखी जा चुकी हैं और अभी टीकाएं लिखे चले जा रहे हैं लोग। यानी मामला यह है कि वह आदमी जो बेचारा बोला था, वह बोला अभी तक उपद्रव में पड़ा है कि वह क्या बोला था! उस पर टीका चल रही है कि वह यह बोला था, यह बोला था। गांधी कहते हैं यह बोला, तिलक कहते हैं यह बोला, शंकराचार्य यह कहते हैं, विनोबा यह कहते हैं।
हजारों लोग बता रहे हैं कि वह क्या बोला था। और मजा यह है कि जब वही बोला और हम नहीं समझ पाए, तो विनोबा या गांधी या तिलक के कहने से हम क्या समझें...अब इन पर टीकाएं चलेंगी कि तिलक बोले, उसका क्या मतलब है? और इसका कोई अंत नहीं है। यह बिलकुल इनफिनिट रेफरेंस है। इसका कोई अंत नहीं है कि इसका हम कहां अंत करें।
फिर भी शब्द से ज्यादा गहराई में दूसरे सिंबल पहुंचते हैं। जैसे हो सकता है कि मैं शब्द में आपसे एक बात न कह पाऊं लेकिन उठूं और आपको गले से लगा लूं और कोई बात कह दूं क्योंकि शरीर जो है, स्पर्श जो है वह शब्द से बहुत पुराना है।
शब्द बहुत बाद की चीज है। और मेरे शब्द मैं जो कह रहा हूं, मेरे शब्द और आपके शब्द अलग हो सकते हैं लेकिन मेरे शरीर का स्पर्श और आपके शरीर का स्पर्श अलग नहीं हो सकता।
यह हो सकता है कि जो मैं शब्द से न कह सकूं। उठाऊं एक तंबूरा और नाचने लगूं। और यह कहना चाहूं कि मैं बहुत खुश हूं और न कह पाऊं क्योंकि आप पूछें, खुशी यानी क्या? खुशी कैसी है आपको? तो मैं नाचूं, और शायद मेरे नाचने से आपको खुशी की एक झलक मिल जाए। लेकिन फिर भी यह सिंबल ही है। फिर भी वह नहीं कह पाता हूं जो मैं कहना चाह रहा हूं। नाच कर जब मैं थक जाऊंगा और आपकी तरफ देखूंगा और आपकी ताली सुनूंगा तो मैं समझूंगा कि कुछ समझे। मेरे व्यायाम का थोड़ा सा फल हुआ।
लेकिन जो मैं कहना चाहता था वह नहीं पहुंचा। मैं शायद उदास चला जाऊंगा। वह नहीं पहुंचा जा सका, वह जो कहना था।
नाच से भी, कला से भी, चित्र से भी कुछ कहने की कोशिश की गई है। सब तरफ कोशिश की गई है। मैं यह कह रहा हूं कि सिंबल से कहने की कोशिश तो की गई है लेकिन सिंबल असफल हो गए हैं। यह हमें अब तक पूरा बोध नहीं हो पाया और सब सिंबल असफल हो गए हैं।
और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सिर्फ असफल यह सिंबल हो गए हैं। मैं यह कहता हूं कि सिंबल ऐसा सच असफल होने को बाध्य हैं। उसका कारण यह है कि सिंबल रियलिटी तो नहीं है कुछ और है।
मैंने एक, एक सूरज को उगते देखा सुबह, और एक आनंद से मैं भर गया। फिर मैंने एक चित्र बनाया कुछ रेखाएं खींचीं, एक सूरज बनाया, एक पेंटिंग बना कर आपको लाकर दिखाई और आपसे कहा कि बड़ा ही आनंद आया।
आपने देखा, आपने कहा, हां, ठीक है, और रख दी, क्योंकि आखिर रेखाएं रेखाएं हैं, सूरज नहीं हैं। और रंग रंग हैं, सूरज के रंग नहीं हैं। और मैंने कितनी ही कोशिश की, तब भी एक छोटे से कागज पर मैं जो खींच लाया हूं वह हजार मील दूर की ध्वनि है। वह वह बात नहीं है जो वहां थी। कितना ही सफल हो जाए सिंबल वह रियलिटी तो नहीं बनता। वह सूरज तो नहीं बन जाएगा। यानी सिंबल इसलिए असफल होने को बाध्य है कि मेरी पेंटिंग कभी भी सूरज नहीं बन पाएगी, वह सूरज नहीं बन सकती है।
हां, लेकिन एक खतरा है सिंबल के साथ और वह खतरा भी काफी काम किया और वह खतरा यह है कि हो सकता है आप कभी घर के बाहर ही न निकलें, क्योंकि आप समझें कि पेंटिंग घर में लटकी है तो सूरज घर में लटका है। हमें बाहर जाने की जरूरत क्या है, घर में तो सूरज लटका हुआ है हमारे। और आप उसी पेंटिंग से उलझे रह जाएं और सूरज को न जान पाएं।
सिंबल ने अब तक कम्युनिकेट तो किया नहीं लेकिन हिंडरेंस डाली है। गीता पकड़े बैठा कोई, सूरज घर का, किताब वाला सूरज है वह। अपने घर बैठा है, कुरान पकड़े बैठा है कोई, कोई महावीर को, कोई बुद्ध को पकड़े बैठा है। यह सब लोग थे क्योंकि महावीर हमारे लिए क्या हैं? सिर्फ सिंबलस। जो वह बोले, वही रह गया है हमारे पास। कृष्ण हमारे लिए क्या हैं? वह जो बोले। अगर कृष्ण का बोला हुआ खो जाए तो कृष्ण खो जाएंगे। न मालूम कितने कृष्ण खो गए जो कि नहीं बोले, या बोले और फिर नहीं पकड़ा जा सका तो खो गए। सिंबल पकड़ा जाता है यानी जिन्होंने कोशिश की थी उन्होंने तो चाहा था कि इस प्रतीक के द्वारा आपको कुछ कह देंगे। और कठिनाई ऐसी हो गई कि अगर आज वह मुर्दा, वह कहीं वापिस लौट सकें तो पहला काम यह करें कि आपसे गीता कैसे छुड़ा लें।
अगर कृष्ण लौट सकें तो पहला काम यह करें कि गीता को इकट्ठा करके आग कैसे लगा दें, क्योंकि सोचा तो था कि कुछ कह देंगे, कुछ कह तो न पाए और यह लोग जा सकते थे खुद भी खोज में, वह भी यह नहीं गए क्योंकि इन्होंने समझा कि हमारे पास तो उपलब्ध हो गई है, यह किताब हमारे पास है।
कला असफल हो गई है, दर्शन असफल हो गया है, शास्त्र असफल हो गए हैं, गुरु असफल हो गए हैं और असफलता का कारण यह है कि सत्य को प्रतीक कभी बनाया ही नहीं जा सकता।
सत्य सत्य है और आपको जानना है तो आपको आमने-सामने खड़ा होना पड़ेगा, बीच में प्रतीक लेने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन कम्युनिकेशन में प्रतीक आ जाता है। इसलिए कम्युनिकेशन और रियलाइजेशन अलग-अलग बातें हैं। और कम्युनिकेशन एक काम भर अगर कर दे। जो मेरी समझ है आप मुझसे पूछ सकते हैं फिर मैं क्यों मेहनत कर रहा हूं जब मैं मानता हूं कि इनटेंªसिकली एब्सर्ड है, बोल कर कुछ कहा नहीं जा सकता तो फिर मैं क्यों बोल रहा हूं? तो मेरा कुल कहना इतना है कि बोलने से केवल इतनी हालत पैदा की जा सकती है कि आपको एक दिन लगे कि एब्सर्ड है, बेकार है। कुछ न हुआ, न बोलने से कुछ हुआ, न सुनने से कुछ हुआ।
इतना निगेटिव अर्थ में ही कम्युनिकेशन का उपयोग है कि हम सिर खपाते रहें। फिर आपका भी सिर पक जाए, मेरा भी पक जाए और मैं कहूं कि बकवास बंद और आप कहें कि अब चुप हो जाइए मुझे कुछ नहीं सुनना है।
एक घड़ी ऐसी आ जाए कि आप घबड़ा जाएं और आप कहें कि नहीं जाना जा सकता। तब शायद आप घर के बाहर निकल जाएं, पेंटिंग को यहीं छोड़ जाएं। वहां सूरज है ही, कोई हमारे संवाद न करने और करने का कोई सवाल नहीं है।
रवींद्रनाथ के जीवन में बड़ा अच्छा उल्लेख है कि वह एक रात एक किताब पढ़ रहे हैं, सौंदर्य पर एक किताब पढ़ रहे हैं। रात दो बज गए हैं और पढ़ते-पढ़ते थक गए हैं। फिर क्रोध से किताब पटक दी है, दीया बुझा दिया है। और फिर खड़े होकर नाचने लगे हैं क्योंकि जब तक वह किताब पढ़ रहे थे तो उन्हें पता ही न था कि बाहर पूर्णिमा की रात है। और जैसे ही किताब पटकी है और दीया बुझाया है तो चांद की सब किरणें भीतर भर गई हैं, बजरे के अंदर जहां नाव पर वह थे। और चांद बाहर था जब तक दीया भीतर जल रहा था वह भीतर आ गए। तो वह नाचने लगे हैं और उन्होंने कहा कि मैं भी कैसा पागल था, आधी रात गंवा दी। किताब पढ़ता रहा जानने को कि सौंदर्य क्या है और सौंदर्य बाहर खड़ा ही था। और वह पूरे वक्त दरवाजे पर ठोकर दे रहा था कि तुम दीया बुझाओ, तुम किताब बंद करो तो मैं आ जाऊं।
लेकिन अब मुझे मिलने का उपाय नहीं है। अगर मैं रवींद्रनाथ को मिल सकता तो उनसे कहता कि हो सकता था सांझ आप सो गए होते और चांद फिर भी बाहर खड़ा रहता।
आधी रात तक किताब पढ़ने ने कम से कम एक हालत पैदा की। एक विपरीत हालत पैदा की कि सब बेकार है, इससे कुछ समझ में नहीं आता। किताब पटक सके आप तो ही चांद देख सके आप। किताब तो नहीं बता सकी कि सौंदर्य क्या है! लेकिन किताब को पटकना एक स्थिति है मन की, जिसके बिना हो सकता था सौंदर्य न जाना जा सकता।
यानी मैं यह कह रहा हूं कि दर्शन का एक ही उपयोग है फिलोसफी का कि वह आपको इतना परेशान कर डाले, हां इतना परेशान हो जाएं कि एक दिन किताब पटक सकें, उस फ्रस्ट्रेशन की हालत में, उस थकी-मांदी सर्वहारा दशा में जब कोई मार्ग नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई आशा नहीं। तब शायद आपकी आंख उसको देख ले जो है। वह तो है ही उससे कोई सवाल नहीं है। अगर मेरे कम्यूनिकेट करने पर उसका होना निर्भर करता तो कोई खतरा था। यानी मेरे संवादित करने पर उसके होने में कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह है ही।
खतरा तब है जबकि हम ऐसा समझा कर चलें कि संवाद हो जाएगा। संवाद एक अर्थ में असंभव है। बौद्धिक संवाद तो असंभव है। यानी वह असंभावना ही है, असंभावना का ही नाम है।
फिर क्या और कोई संवाद हो सकता है? और कोई संवाद नहीं है और क्या संवाद करिएगा? हम चुप बैठ सकते हैं लेकिन जब हम चुप बैठेंगे तो मेरे और आपके बीच बात नहीं होगी। जब हम चुप बैठेंगे तो मेरी भी जो रियलटी है उससे बात होगी और आपकी भी रियलिटी से बात होगी। अगर इसको मैं ऐसा कहूं कि शब्द जो हैं वह हमें एक-दूसरे की तरफ अभिमुख कर देते हैं। मौन जो है वह हमें सत्याभिमुख कर देता है।
जब हम बातचीत करते होते हैं तब मैं आपकी तरफ देखता हूं, आप मेरी तरफ देखते हैं, और सत्य यहां खड़ा हुआ देखता रहता है कि दोनों आपस में उलझे हुए हैं। जब शब्द बीच से खो जाते हैं तब न मैं आपकी तरफ देखता, न आप मेरी तरफ देखते हैं।
तब मजबूरी में जो है उसको हमें देखना पड़ता है। एक घड़ी आनी चाहिए जिंदगी में जब शब्द व्यर्थ हो जाएं। मगर यह आएगी भी नहीं जब तक शब्द के साथ श्रम न चले, व्यायाम न चले। हां, बिलकुल ही जाना पड़ेगा। उस तक पहुंचा दे जहां आप पार हो जाएं, थका दे, और तो कोई उपयोग नहीं। हां, कहिए?

अवर स्क्रिप्चर्स ऑल से दैट द नेचर ऑफ रियलिटी इ.ज सत्-चित्-आनंद्, एक्झिस्टेंस, नालेज एंड ब्लीस। विवेकानंद जी आलसो सेज इट। सो इ.ज इट नॉट ए डेफिनेशन ऑफ रियलिटी?

नहीं, सत्य की कोई परिभाषा नहीं हो सकती है। यह हमारी आकांक्षाओं की परिभाषा है, सत्य की नहीं। हमारी आकांक्षा है कि सत्य ऐसा हो, सत्-चित्-आनंद्, सच्चिदानंद हो। सत् भी हो, चित् भी हो, आनंद् भी हो, यह हमारी आकांक्षा है। यह आदमी की आकांक्षा है कि सत दुख न हो, नहीं तो मर गए।
यहां संसार दुख है और सत्य भी दुख है, मोक्ष भी दुख है फिर हम कहां जाएंगे। तो मोक्ष ऐसा हो जहां दुख बिलकुल न हों। मोक्ष ऐसा हो जहां कि अज्ञान बिलकुल न हो, ज्ञान ही ज्ञान हो।
मोक्ष ऐसा हो जहां अंधेरा बिलकुल न हो, प्रकाश ही प्रकाश हो। यह सच्चिदानंद जो है सत्य की परिभाषा नहीं है। यह हमारी आकांक्षा है। और हमारी आकांक्षाएं हमें बड़ी प्रीतिकर लगती हैं। इसलिए जिस शास्त्र में यह लिखी हैं उस शास्त्र को हम बड़ा प्रेम करेंगे।
और अगर विवेकानंद यह कहेंगे तो वह भी बड़े गुरु हो जाएंगे। उसका कुल कारण इतना है कि हमारी आकांक्षाओं को तृप्ति मिल रही है। अगर कोई गुरु आए और कहे कि सत्य बड़ा दुखद है और एकदम अंधकारपूर्ण है और अज्ञान ही अज्ञान है तो आप कहेंगे आपकी क्या जरूरत है? आप यहां...
हम तो काफी अज्ञान वैसे ही झेल रहे हैं और काफी दुख झेल रहे हैं और मोक्ष में भी यही होगा तो फिर तो कोई उपाय न रहा।
हमारी आकांक्षाएं हैं ऐसी कि आत्मा अमर हो, कभी न मरें हम। सुख ही सुख हो, दुख न हों। लेकिन सत्य की यह परिभाषा नहीं हैमेरी तो अपनी समझ यह है कि जहां आनंद होगा, वहां दुख के भी बड़े नए आयाम होंगे, होने ही चाहिए।
अभी जिस दुख को हम जानते हैं वह बड़ा छिछला है क्योंकि जिस सुख को जानते हैं वह भी बड़ा छिछला है। असल में इनकी मात्रा बराबर होती है। जिस दिन आनंद इतना गहरा होगा कि रोआं-रोआं कंप जाएगा, इस भूल में मत पड़ना कि उस दिन दुख भी उतना गहरा नहीं होगा। उस दिन दुख भी इतना गहरा होगा कि रोआं-रोआं कंप जाएगा।
हमारी संवेदनशीलता बराबर बढ़ती है। एक आदमी को अगर सौंदर्य का बहुत बोध है तो उसे कुरूपता का भी उतना ही बोध हो जाता है। यह असंभव है कि एक आदमी को सौंदर्य का ही सिर्फ बोध हो जाए और कुरूपता का बोध न हो। यह तो असंभव है। यह तो एक साथ बढ़ेगा। एक साथ ही अगर एक आदमी को स्वच्छ रहने का बड़ा आनंद है तो उसे अस्वच्छ होने की पीड़ा बढ़ जाएगी उसी मात्रा में।
लेकिन हमारी आकांक्षाएं चाहती हैं कि ऐसी दुनिया हो जहां अंधेरा न हो, रोशनी ही रोशनी हो। हालांकि भगवान हमारी आकांक्षाएं पूरी नहीं करता, नहीं तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ जाएं। अगर रोशनी ही रोशनी हो, तो रोशनी बहुत घबड़ाने वाली हो जाए। रोशनी में भी सुबह जो हमें सुख मालूम पड़ता है उस सुख को पाने का अर्जन भी रात के अंधेरे में ही हमने किया है। और सुबह जब किसी के प्रेम में आनंद आता है तो वह कल किसी की घृणा में झेले गए दुख का भी उसमें हाथ है, यह अकेला नहीं है। तो सत्य तो इतना बड़ा है कि उसमें दुख भी होगा और आनंद भी होगा। और अंधेरा भी होगा और प्रकाश भी होगा। और उसमें परमात्मा भी होगा और शैतान भी होगा।
सत्य तो चूंकि कांप्रिहेंसिव होगा, पूरे को घेरेगा। उसमें अमरता भी होगी तो उसमें मृत्यु भी होगी, उसमें पूरी मृत्यु भी होगी। सत्य तो सब घेर लेगा जो है, और हम जो हैं पूरे को नहीं देखना चाहते क्योंकि हम खुद ही घबड़ाते हैं कि पूरा न दिखाई पड़े। क्योंकि पूरा दिखाई पड़ने का बड़ा और ही मतलब होगा।
अभी मैं बात कर रहा था, कोई आया तो मैंने उससे कहा, आ जाओ। तो किसी ने पूछा कि आप दोनों बातें एक साथ कह रहे हैं, आ जाओ। आओ भी और जाओ भी। तो मैंने उसको कहा कि जिंदगी में तो दोनों साथ ही हैं। जहां आना है वहां जाना जड़ा हुआ है। आने का मतलब ही है जाने की शुरुआत। और जवान होने का मतलब है बूढ़ा होना। और जन्म लेने का मतलब है मरने की तैयारी।
पूरे सत्य को अगर हम देखने जाएंगे तो उसमें सब है, अपनी पूर्णता में। लेकिन हमारी न तो इतनी हिम्मत है कि हम उतनी पूर्णता को देख सकें। हम तो काट कर च्वाइस करेंगे, तो वे जो परिभाषाएं हैं, वे सब हमारे चुनाव हैं, हमारी आकांक्षाएं हैं।
अब ऋषि कहता है हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। अब इसमें ऋषि भगवान के खिलाफ बड़ी शिकायत कर रहा है। वह यह कह रहा है कि अंधकार क्यों? प्रकाश ही चाहिए। इसमें वह यह कह रहा है कि तुमने बड़ी भूल की जो अंधकार भी है। सिर्फ प्रकाश चाहिए। मुझे तो प्रकाश की तरफ ले चलो।
सत्य तो अंधकार भी है और प्रकाश भी। वह जीवन भी है और मृत्यु भी। जब हम ऐसा देखेंगे यह दोनों जो हमें विरोधी लगते हैं, जब हमें एक ही चीज के छोर दिखाई पड़ेंगे तभी हम जान पाएंगे कि क्या है?
और जब हम ऐसे विरोध को एक साथ जान पाएंगे तो हमारे चित्त के सब खंड़ विदा हो जाएंगे। फिर हमारी कोई आकांक्षा न रह जाएगी। क्योंकि आकांक्षा का फिर कोई मतलब नहीं। फिर अंधेरा होगा तो हम जानेंगे यह प्रकाश के आने की तैयारी है और प्रकाश होगा तो हम जानेंगे कि यह अंधेरे की तैयारी है। और दुख होगा तो हम जानेंगे कि आस-पास कहीं सुख है और सुख होगा तो हम जानेंगे, तैयार रहो दुख आता है।
वह हमारी तैयारी होगी। वह हम जानेंगे कि यह जीवन है। लेकिन अभिलाषाएं सुख देती हैं बहुत और धर्म के नाम पर बहुत कुछ तो हमारी मनोवांछाएं हैं, इच्छाएं हैं जो चलती हैं।
और दुखी हैं, पीड़ित हैं...
बट्रेंड रसेल ने कही है एक बहुत बढ़िया बात कही है। उसने कहा कि अगर दुनिया सच में सुखी हो जाए तो धर्मगुरुओं का क्या होगा? दुखी लोग सुख की तलाश में निकलते हैं। अगर सच में दुनिया सुखी हो जाए तो कौन...कभी आपने भी खयाल किया कि जब किसी क्षण में आनंद में होते हैं तो न तो खयाल उठता है कि दुनिया क्यों है, मैं क्यों पैदा हुआ, यह भगवान ने क्यों बनाया है सब?
नरक है, कि स्वर्ग है, कि नहीं, कुछ क्यों नहीं उठता। जब आप आनंद में होते हैं, तो सब स्वीकार होता है। जो है वह है। उसके होने में कहीं कोई, जरा भी कहीं, जरा सा प्रश्न भी नहीं उठता। लेकिन जब आप दुख में होते हैं तब सब प्रश्न उठने शुरू हो जाते हैं। और जब प्रश्न उठने शुरू हो जाते हैं तब उत्तर चाहिए। तो जो उत्तर हमारे मन के अनुकूल होते हैं उनको हम धर्म बना लेते हैं। सच्चे उत्तर का धर्म नहीं बन पाता। मनोकूल उत्तर का धर्म बन जाता है। और सच्चा उत्तर जरूरी नहीं कि मनोनुकूल हो। कोई आवश्यक नहीं है कि आपके मन के अनुकूल सत्य चलता हो। हां, सत्य के अनुकूल आप चाहें तो चल सकते हैं। लेकिन सत्य को कोई बंधन आपके अनुकूल चलने का नहीं है।
लेकिन मनोनुकूल उत्तर धर्म बन जाता है। तो जो उत्तर हमारे मन को भा जाता है और लगता है कि हां ठीक है, हमारी तृप्ति कर दी, हमारा प्रश्न इससे हल होता है।
मैं नहीं कहता इन बातों में कुछ रस है और विवेकानंद की बात आपको अच्छी लगती है वह इसलिए नहीं कि सच है, वह इसलिए कि आपके मन के अनुकूल है। अनुकूल है तो अच्छी लगती है, अनुकूल नहीं तो अच्छी नहीं लगती।

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बस उससे उलटा हमने वहां कल्पना कर ली है। लेकिन हमारी कल्पनाओं से कुछ हल नहीं होता। और हम कितना ही चाहें कि हम सुख सुख को ही वरण कर लें और दुख को इनकार कर दें, हम यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि सुख को वरण करने में ही दुख वरण हुआ जा रहा है। और ऐसे जैसे कि एक सिक्का है और मैं उसका एक पहलू फेंक देना चाहता हूं और एक पहलू बचा लेना चाहता हूं। अब मैं पागल हो जाऊंगा। क्योंकि मैंने एक ऐसा काम शुरू किया है जो पूरा हो नहीं सकता। एक हिस्सा फेंक देना चाहता हूं एक सिक्के का और एक हिस्सा बचा लेना चाहता हूं। अब ज्यादा से ज्यादा इतना ही हो सकता है कि जिस हिस्से को मैं बचाना चाहता हूं उसे ऊपर कर लूं और जिसे फेंक देना चाहता हूं उसे नीचे कर दूं। बस इससे ज्यादा कोई सफलता नहीं मिल सकती। लेकिन कितनी देर ऊपर नीचे करूंगा? जिसको मैंने नीचे किया है और जिसको मैंने ऊपर किया है। जिसको मैंने ऊपर किया है उससे थोड़ी देर में ऊब जाऊंगा। क्योंकि कब तक उसे देखता रहूंगा! और बड़े मजे की बात है कि दुख कभी उतना उबाने वाला नहीं होता जितना सुख उबाने वाला हो जाता है। असल में दुखी आदमी कभी बोर ही नहीं होता, सिर्फ सुखी आदमी बोर होता है।
बोर्डम जो वह सुखी आदमी का गुणधर्म है। इसलिए आप हैरान होंगे कि जितना समाज दुखी होता है उतनी आत्महत्या कम होती है। लोग कम परेशान नजर आते हैं। कम चिंताएं घेरती हैं क्योंकि दुखी आदमी को बोर होने की फुरसत नहीं है। वह अपने काम में लगा हुआ है, बदलने में लगा हुआ है। सिक्का उलटा कर ले, लेकिन जब सिक्का उलटा हो जाएगा फिर क्या करेगा?
एक दफा दुख को नीचे दबा दिया और सुख को ऊपर कर लिया फिर क्या करिएगा? और अब अगर सिक्के को उलटाया तो नीचे दुख है। तो जैसे ही एक आदमी सुखी हुआ कि उसकी मुसीबत शुरू हुई। देवताओं की दुनिया में अगर कोई दुख होगा तो बोर्डम का तो होगा। मोक्ष में भी अगर कोई दुख होगा तो बोर्डम का होगा। और बोर्डम इतनी हो गई होगी कि मैं नहीं समझता कि मोक्ष में अब कोई एक भी बचा हो, सब भाग गए होंगे।
उनकी बोर्डम की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते। क्योंकि जहां सुख बिलकुल उपलब्ध हो वहां करिएगा क्या? वह तो दुख में लड़ने में रस है। सुख मिलता नहीं उसके पाने की आकांक्षा में सारा मजा है। और जब मिल जाता है तब थोड़ी देर बाद हम पाते हैं कि अब क्या करें? तब आप हैरान होंगे कि सुखी आदमी अपने हाथ से दुख भी खोजने लगता है। वह ऐसी तरकीबें करता है जिनसे अब दुख आए।
एक फकीर हुआ नसरुद्दीन। उसकी कहानी कहता रहा हूं। वह एक गांव के बाहर बैठा हुआ है। सांझ का वक्त है, अंधेरी रात है और एक आदमी आकर घोड़े से उतरा है और उस आदमी ने उस नसरुद्दीन के सामने एक बहुत बड़ी थैली पटक दी है और कहा कि इसमें करोड़ों रुपये के हीरे-जवाहरात हैं और मैं किसी को भी देने को तैयार हूं, मुझे जरा सा सुख मिल जाए। और मैं गांव-गांव खोज रहा हूं, मुझे सुख नहीं मिलता है। और मैं परेशान हो गया हूं कि मैं मर जाऊं या क्या करूं, सब है मेरे पास, सुख नहीं है। तो किसी ने मुझे कहा कि फकीर नसरुद्दीन है, उसके पास चले जाओ। तुम्हीं हो, मैं तुम्हारे पास आया।
फकीर खड़ा हो गया, उसने कहा कि मैं ही हूं। उसने कहाः तो सुख चाहिए? उस आदमी ने कहा कि सुख चाहिए। सब खोने को तैयार हूं, एक क्षण भर के लिए भी सुख मिल जाए।
उस फकीर ने इतनी बात पूछी और थैली लेकर वह फकीर भाग गया। वह आदमी चिल्लाया कि यह क्या कर रहे हो? मैं तो सोचता था तुम ब्रह्मज्ञानी हो।
लेकिन जब वह नहीं रुका तो वह आदमी उसके पीछे भागा। गांव फकीर का तो जाना-माना था, वह गली-कूचे चक्कर देने लगा, सारा गांव इकट्ठा हो गया। वह चिल्ला रहा है कि मुझे लूट लिया, मैं मर गया, मेरी जिंदगी खराब हो गई। मेरी जिंदगी भर की कमाई है उस थैली में। और यह आदमी चोर निकला। यह ब्रह्मज्ञानी नहीं है। और पकड़ो और मुझे बचाओ, मैं मरा। वह सारे गांव में चक्कर लगा कर फकीर वापस उसी जगह पर आ गया। उसने थैली पटक कर झाड़ के पास खड़ा हो गया। वह अमीर आदमी आया, उसने थैली छाती से लगाई। उसने कहाः हे भगवान, धन्यवाद!
उस फकीर ने कहाः कुछ सुख मिला? यह भी एक रास्ता है सुख पाने का, उस फकीर ने कहा। और तुम्हारे लिए यही रास्ता बचा है। तुम्हारे लिए दूसरा रास्ता नहीं है क्योंकि तुम क्या करोगे?
हम जो चाहते हैं, सुख ही सुख बच जाए। वह संभव नहीं है। अगर बच भी गया तो सुख भी दुख देने लगेगा।
जब जिसको मैं कहता हूं जो जीवन को उसकी सच्चाई में देखता है, आकांक्षाओं में नहीं, दो रास्ते हैं। एक तो मैं आकांक्षाओं से जीवन को देखने जाऊं, जब मैं कहता हूं सुख ही सुख चाहिए तब मैं, तब मैं जीवन की फिक्र नहीं कर रहा, मैं यह कह रहा हूं कि मुझे चाहिए लेकिन मैं यह नहीं पूछता कि जीवन को मेरी फिक्र है कुछ?
मैं नहीं था और जीवन था और मैं नहीं रहूंगा और जीवन रहेगा और रत्ती भर कहीं कोई पत्ता नहीं हिलेगा, कहीं कोई लहर नहीं कंपेगी, कहीं कुछ भी नहीं होगा। मेरे होने न होने से जीवन को क्या फिकर है? जीवन की अपनी धार है। मैं इधर दो क्षण के लिए हूं तो मैं कहता हूं ऐसा होना चाहिए, ऐसा चाहिए, ऐसा चाहिए। जब मैं यह देखता हूं कि मैं नहीं था और सब था और मैं नहीं रहूंगा और सब होगा, तब उचित है कि मैं देखूं कि क्या है बजाए इसके कि मैं कहूं कि क्या होना चाहिए।
तो जब मैं देखूंगा कि क्या है तो मुझे पता चलेगा दुख और सुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तो किसको बचाना और किसको छोड़ना?
तब मैं राजी हूं, सुख आए तो सुख के लिए, दुख आए तो दुख के लिए। और यह जो राजी होना है, यह जो एक्सेप्टेबिलिटी है, यह एक ऐसे आनंद में उतार देती है जिसका हमें कुछ भी पता नहीं।
वह आनंद दुख विरोधी नहीं है, वह आनंद दुख में भी रहेगा। वह आनंद सुख का पर्यायवाची नहीं है क्योंकि सुख चला जाएगा तब भी वह रहेगा। और इसलिए उसको आनंद शब्द कहने से भी थोड़ी भूल हो जाती है।
इसलिए जो और थोड़ी समझपूर्वक बुद्ध ने प्रयोग किया तो बुद्ध ने आनंद का उपयोग नहीं किया। शांति का उपयोग किया, आनंद को छोड़ दिया क्योंकि आनंद में कहीं न कहीं सुख का खयाल है।
हम कितना ही उसको बचाने की कोशिश करें, आनंद में कहीं न कहीं सुख का भाव है। एक शांत मन रह जाता है, सुख है और दुख है।
और वह तभी रह सकता है जब दोनों एक से स्वीकार हो गए हैं क्योंकि दोनों हैं और स्वीकार करने की हमें चेष्टा नहीं करनी है। मतलब अस्वीकार करने का कोई अर्थ ही नहीं है यह हमें दिखाई पड़ जाए तो बात खत्म हो गई, वे हैं। लेकिन हम आकांक्षाएं आरोपित कर रहे हैं इसलिए हमने इस तरह के धर्म खड़े कर लिए हैं, गुरु भी खड़े कर लिए हैं जो हमारी आकांक्षाओं की तृप्ति के रास्ते बता रहे हैं। वे हमसे कहते हैं हम परमानंद में पहुंचा देंगे। तो फिर ठीक है, हम पहुंचने की कोशिश करते हैं। हम कभी पूछते भी नहीं कि परम आनंद में होने की आकांक्षा ही दुखी आदमी का लक्षण है।
और दुखी आदमी आनंदित हो सकता है मंत्र पढ़ लेता है। तो इतना फर्क है मतलब दुखी और परम आनंदित आदमी में कि एक मंत्र पढ़ता है और एक मंत्र नहीं पढ़ता है। इतनी सस्ती तरकीब काम कर जाएगी कि परम आनंद मिल जाएगा? क्या हम सोचते हैं परम आनंद मिल जाएगा उपवास करने से, कि रात खाना न खाने से, कि सिगरेट न पीने से, कि चाय न पीने से परम आनंद मिल जाएगा?
अगर इतना ही फासला है तो दुखी और परम आनंद आदमी में बहुत फर्क नहीं है, सिगरेट, पान इत्यादि का फर्क है, ऐसा छोटा सा फर्क है।
नहीं, फिर कोई महावीर और बुद्ध में...हां, बहुत ही...फर्क है। ऐसा कमजोर फर्क है कोई कोई हिम्मत का आदमी जाना ही नहीं चाहेगा। इतना सस्ता सा फर्क है मोक्ष में और पृथ्वी पर अगर रह कर मोक्ष में लोग सिगरेट नहीं पीते और चाय नहीं पीते और सिनेमा नहीं देखते, इतना ही अगर फर्क है तो कौन मोक्ष जाना चाहेगा? इसमें कोई मतलब नहीं रह गया है। इसमें कोई बात नहीं। फर्क कुछ ज्यादा रिडिकल होना चाहिए। यह कोई फर्क ही न हुआ।
फर्क का मतलब ही यह है कि हम जहां हैं उसमें हमारी दो तरह की जिंदगी हो सकती है। आकांक्षाओं को आरोपित करने वाली और यथार्थ को स्वीकार कर लेने वाली। बस दो तरह की जिंदगियां होती हैं। आकांक्षाओं को आरोपित करने वाला आदमी है और यथार्थ को स्वीकार कर लेने वाला आदमी है। आकांक्षाओं को आरोपित करने वाला चाहे कुछ भी करे दुख में रहेगा। ऐसा नहीं है कि जो आकांक्षाओं को आरोपित नहीं करता उसको दुख नहीं आएंगे, यह मैं नहीं कह रहा हूं। दुख तो उसको आएंगे लेकिन वह दुख में नहीं रहेगा।

उनको भी देखना तो पड़ेगा न, रियलाइज तो करना पड़ेगा न?

है ही, है ही। हम क्या कर रहे हैं, हम क्या कर रहे हैं? हम उनको भी नहीं देख रहे हैं और अनुकूल जगत को देखने की कोशिश में लगे हैं। हां, यानी हम उनको भी देख लें तो भी वे भी यथार्थ के हिस्से हैं।
आकांक्षाएं तो रियलिटी का हिस्सा हैं। वह तो यथार्थ है कि हममें हैं। अब मुझमें इच्छा है कि मैं अमर रहूं, यह मुझे जानना चाहिए। लेकिन बजाय इसको जानने के मैं वह शास्त्र पकड़ लूंगा जिसमें यह लिखा है कि हां, अमर रहना है, पक्का है। और जो हमारे पक्ष में हैं वे अमर रह जाएंगे और जो नहीं हैं पक्ष में वे मर जाएंगे।

वाई डज मैन सीक हैप्पीनेस?

क्योंकि आदमी दुखी है, क्योंकि आदमी दुखी है।

इवन आफ्टर बिकमिंग हैप्पी, ही विल बी अनहैप्पी।

हां, जो मैं कह रहा हूं यह यह कह रहा हूं कि आदमी दुखी है और इसलिए सुख खोजना चाहता है। और चूंकि सुख खोजता ही रहेगा और कभी यह न देखेगा कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं इसलिए कितना ही सुख खोजे दुखी रहेगा और सुख खोजता रहेगा।
जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं, एब्सर्डिटी उसको दिखाई नहीं पड़ रही है कि सुख की खोज में ही एक बुनियादी भूल हो रही है। वह भूल यह हो रही है कि वह दुख को अस्वीकार करके सुख को खोज रहा है जब कि सुख दुख का ही एक हिस्सा है। यानी मैं जन्म खोज रहा हूं और मरना नहीं चाहता। जवानी खोज रहा हूं और बूढ़ा नहीं होना चाहता, बड़ी मुश्किल बात है। जवान होना चाह रहा हूं तो बूढ़ा होना उसका हिस्सा ही होगा। वह उतरती हुई जवानी का नाम है। पूर आ गया तो उतरेगा भी, और सुबह हो गई तो सांझ भी होगी।
अब सुबह तो मैं खोज रहा हूं और सांझ से बचना चाहता हूं। और जब मैंने सुबह खोजी तब ही मैंने सांझ का इंतजाम कर दिया, अब सांझ होगी। अब अगर मैं सिर्फ सुबह को ही खोजूं, तो फिर शाम को दुख होगा। और रात भर फिर सुबह की खोज करूंगा, फिर सुबह आएगी, और फिर सांझ की तैयारी शुरू होगी, मैं फिर दुखी होऊंगा।
अब मजा यह है कि न तो आपकी खोज से सुबह आ रही है और न सांझ हो रही है। सुबह अपने आप आ रही है, सांझ अपने आप आ रही है। आपकी जो परेशानी है वह यह है कि एक से आप आरोप लगा रहे हैं कि बस यहीं रह जाए और एक को आप कह रहे हैं यह न हो। और उनको दोनों से आपसे मतलब नहीं है कि आप हो या नहीं हो, वह होते रहेंगे। जिंदगी में सुख और दुख घूम रहे हैं, सब घूम रहा है। आप उसमें जब चुनाव करने लगते हैं कि हम यह चुन कर रहेंगे तभी आपने तकलीफ शुरू कर दी, वह दुख का रास्ता हो गया।
जब दुखी होंगे तो और जोर से सुख खोजेंगे और जितना जोर से सुख खोजेंगे उतने जोर से दुखी होंगे। तब एक विसियस सर्कल है जिससे बचाव मुश्किल हो जाएगा। इसको देखना पड़ेगा। और हमारी क्या तकलीफ है कि अगर हम पूछते भी हैं कि हम दुखी क्यों हैं तो हम कुछ कारण खोज लेना चाहते हैं दुख के कि हमने कोई बुरा काम किया होगा इसलिए दुखी हैं, कि हमने कुछ पाप किया होगा इसलिए दुखी हैं। दूसरा आदमी सुखी है उसने कुछ पुण्य किया होगा, फलां किया होगा। सुखी और दुखी होना न तो पुण्य और पाप से संबंधित है, सुखी और दुखी होना हमारी आकांक्षाओं के आरोपण से संबंधित है। कितने जोर से आरोपित करने की आकांक्षा में लगे हैं। लेकिन किसी दिन डिसइल्युजनमेंट आता है, पता चलता है कि कुछ आरोपण से नहीं होता। सुबह आती है और आती है, सांझ आती है और आती है तब बात खत्म हो गई।
तब भी सुबह आएगी, कुछ ऐसा नहीं है कि नहीं आएगी। तब भी सांझ आएगी लेकिन दंश चला जाएगा, तकलीफ चली जाएगी, पीड़ा चली जाएगी और तब जिसने सुबह ठीक से जी ली है, कोई कारण नहीं कि सांझ को क्यों न ठीक से जी लें। यानी मामला यह है कि ठीक से जिसने सुबह को पूरी तरह जी लिया है, वह तो खुद ही दोपहर होते-होते कहेगा कि अब सांझ हो जाए। जो आदमी ठीक से जवान रह लिया है वह बुढ़ापे की आकांक्षा उसके भीतर आ जाएगी। चाहे वह बूढ़ा हो जाए। और जो आदमी ठीक से जी लिया है, वह मरना भी चाहेगा।
नीत्शे ने एक बहुत अच्छी बात कही है, नीत्शे ने कहा है कि जब फल पक जाता है तो गिरना चाहता है। राइपनैस इज आल। एक दफा पक भर जाए। और जब पक जाता है तो गिरना ही चाहता है, सिर्फ कच्चे फल घबड़ाते हैं कि कहीं गिर न जाएं कि कहीं गिर न जाएं। और क्योंकि हम जिंदगी भर कच्चे रह जाते हैं इसलिए मरने से डरते हैं। अब इस तरह चक्कर पर चक्कर पैदा होते चले जाते हैं कि मरने से डरते हैं तो उस सिद्धांत को पकड़ते हैं जो कह दे कि मरोगे नहीं।
मैं नहीं कह रहा हूं कि मर जाएंगे आप,मैं नहीं कह रहा हूं। न मैं यह कह रहा हूं कि नहीं मरोगे, मैं यह नहीं कह रहा हूं। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि हम अपनी आकांक्षाएं आरोपित न करके जो है उसे जानने की फिकर कर लें तो बात पूरी हो जाती है। नहीं तो नहीं पूरी होगी।

लेकिन यह एक्सेप्टेंस वाली बात जो है, एक्सेप्टेंस वह सोशल लेवल पर स्टेट्स-को वाली बात हो जाएगी। इसमें चेंज की फिर इंडिविजुअल लेबल पर तो ठीक है, उसकी बात आपने बताई दुख के कांट्रेस्ट में लेकिन सामाजिक जीवन में जो है उसको अगर हम एक्सेप्ट करें तो फिर वह स्टेट्स-को वाली बात हो जाती है जिसमें हम परिवर्तन की...सोशल लेबल पर...?

हूं। आपने एक बहुत अच्छा सवाल किया है। आप पूछ रहे हैं व्यक्ति के तल पर तो यह ठीक है कि हम स्वीकार कर लें लेकिन समाज के तल पर? गरीबी है, बीमारी है, दुख है, शोषण है, उस सबको भी स्वीकार कर लें? यह बहुत बढ़िया बात है। और मैं बहुत...इधर जितना सोचता हूं तो बहुत अजीब अनुभव करता हूं। पहली बात तो यह है कि यह कंट्राडिक्ट्री दिखाई पड़ेगा लेकिन ऐसा है जो व्यक्ति स्वयं के तल पर सुख-दुख को स्वीकार नहीं करता, वह समाज के तल पर सब बीमारियों को स्वीकार करने वाला होता है।
जैसे हमारा मुल्क है। हमने व्यक्ति के तल पर सुख-दुख कभी स्वीकार नहीं किया। हम मोक्ष की खोज निरंतर कर रहे हैं। जहां सुख-दुख से छुटकारा हो जाए, आवागमन से छुटकारा हो जाए। लेकिन समाज के तल पर हमने सब स्वीकार कर लिया है। अगर यह बात दिखाई पड़े तो इससे उलटा भी सत्य है कि जो व्यक्ति स्वयं के तल पर सब स्वीकार कर लेगा वह समाज के तल पर कुछ भी स्वीकार नहीं करेगा। जो स्वयं के तल पर सब स्वीकार कर लेगा, वही क्रांतिकारी हो सकता है। क्योंकि क्रांतिकारी होने में भी दुख झेलने की जो संभावना है निरंतर, है ही क्योंकि क्रांति का सुख तो किसी और को मिलेगा। क्रांति का सुख क्रांतिकारी को तो मिलता नहीं। तो क्रांति सिर्फ वही कर सकता है जो दुख को स्वीकार कर सकता है। जब एक व्यक्ति सब तरह के दुख-सुख को जैसा है वैसा स्वीकार कर लेता है तो चेष्टा नहीं करनी पड़ती उसे कि समाज के तल पर अस्वीकार करे। न उस व्यक्ति का सहज वर्तन यह हो जाता है जो समाज के तल पर वह स्वीकार नहीं कर सकता। यानी मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह स्वीकार नहीं करेगा या नहीं करना चाहिए, न ऐसा वर्तन होता है।
जो व्यक्ति स्वयं के तल पर टोटल एक्सेप्टेबिलिटी में जीता है, वह समाज के तल पर टोटल रिलैक्शन में जीता है। और जो व्यक्ति समाज के तल पर स्वीकार में जीता है वह अपने तल पर रिलैक्शन में जीता है। अपने तल पर कहता है कि मैं यह दुख...यह नहीं सोऊंगा, यह नहीं करूंगा, यह नहीं करूंगा, वह समाज के तल पर सब स्वीकार कर लेता है। उसके कारण हैं कि जो व्यक्ति व्यक्ति के लिए सब कुछ करने की चिंता में रत रहता है, उसके लिए समाज का बोध ही पैदा नहीं होता। यानी समाज की जो धारणा है, कांशसनेस है, वह उसको पैदा होती है जो व्यक्ति के तल पर निपट गया। यानी अब इधर कुछ करने का मामला बचा नहीं, इधर बात खत्म हो गई। इधर मैंने मान लिया कि जो है, है। तब मैं क्या करूंगा? आखिर मैं कुछ तो करूंगा। व्यक्ति के तल पर तो करने से मुक्त हो गया।
तो वह जो सृजन की और निर्माण की, विध्वंस की ऊर्जा जो भी है मेरे पास वह जाएगी कहंा? वह कहीं सक्रिय हो जाएगी। व्यक्ति के केंद्र पर जहां ऊर्जा का काम समाप्त हो गया, वहां वह समाज के चारों तरफ फैल कर काम में लग जाती है।
ऐसा नहीं है कि वह लगाता है, नहीं यह मैं नहीं कह रहा हूं। इट हैपंस कि वह लग जाती है।
और अगर सारी ऊर्जा इसी में लगी हुई है कि मेरा अगला जन्म कैसे सुधरे और मैं स्वर्ग कैसे जाऊं, और मैं पुण्य कैसे करूं और पाप से कैसे बचूं? और यह खाऊं कि न खाऊं, यह पीऊं कि न पीऊं?
अगर सारी चेतना यहां उलझी तो समाज की तो धारणा ही पैदा नहीं होती। हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे अलावा भी कोई है। इसलिए जो, जो कौम, जो व्यक्ति, जो समाज, ऐसा व्यक्ति तली होगा वह तो यहां तक कहेगाः न तुम्हारी कोई पत्नी है, न तुम्हारी कोई मां है, न तुम्हारा कोई पिता है, न कोई भाई है, न कोई बेटा है, यह सब भ्रम, हो तो तुम्हीं सिर्फ सत्य। बाकी सब भ्रम है, सब माया है। इससे तुम बचो। और इसके चक्कर में मत पड़ जाना। न कोई मौत में साथ देंगे, न कोई पुण्य में साथ देंगे, न कोई पाप में साथ देंगे। तुम अकेले हो निपट। अपनी फिकर करो, सारी फिकर अपनी करो। यानी इसकी भी फिकर मत करो कि औरत जब भूखी मर रही है तो मरे, वह अपने पिछले जन्म के पाप का फल भोग रही है, तुम्हारा क्या लेना-देना।
तुम्हारा बच्चा अगर सड़क पर भीख मांग रहा है तो मांग रहा होगा क्योंकि इसको मांगना पड़ेगी उसके अपने कर्म-फल हैं। तुम अपनी फिकर करो। तो यह जो यह जो व्यक्तिवादी दृष्टि थी, अगर कोई सब स्वीकार कर ले तो व्यक्ति रह नहीं जाता। अगर गौर करें तो वह जो ईगो है व्यक्ति की, वह पैदा होती है रेसिस्टेंस से। वह जितना मैं लड़ता हूं कि यह नहीं चाहिए और यह चाहिए, और यह नहीं चाहिए, इसी के संघर्ष में मेरा मैं पैदा होता हैमैं हूं।
च्वाइस मैं पैदा करती है। च्वाइसलेस ईगो नहीं हो सकती। बचने का उपाय नहीं रह जाता, मैं हूं इसका क्या मतलब है?
सुबह सूरज निकलता है, सांझ ढलता है, मैं कहां हूं? मैं कहता हूं सुबह ही होना चाहिए और सांझ नहीं। आठ घंटे दस घंटे तो सूरज को ढलने में लगेंगे। आठ-दस घंटे मैं अपने मैं को मजबूत करूंगा कि अभी तक नहीं ढलने दिया। अभी तक सूरज को रोके हुए हैं, अभी तक सुबह है। जब ढल जाएगा तब मैं सोचूंगा कि जरूर पिछले जन्मों का कोई कर्म बाधा डाल रहा है और सूरज अपने आप ढल रहा है और अपने आप उग रहा है। मुझसे कुछ लेना-देना नहीं। इधर मेरी ईगो मजबूत होती चली जाएगी। लेकिन जब मैं मान लिया कि ऐसा हो रहा है, हो रहा है तब अचानक मेरी सारी ऊर्जा और सारी शक्ति चारों तरफ फैल कर काम करने में लग जाती है यानी मेरी दृष्टि में क्रंातिकारी पैदा होता है सर्व-स्वीकार से।
उलटा लगता है क्योंकि क्रांतिकारी निषेध करता है। और जिंदगी के दो हिस्से हैं। जिसको हम विधेय और निषेध, निगेटिव, पाजिटिव कहें। अगर मैं आपने तईं पाजिटिव हूं तो समाज की तरफ निगेटिव रहूंगा, क्योंकि वह दूसरा हिस्सा है मेरा। अगर मैं अपनी तरफ निगेटिव हो गया तो समाज की तरफ पाजिटिव हो जाऊंगा, वह मेरा दूसरा हिस्सा है। कहीं एक हिस्सा रहेगा...अब कहां रखने की बात है।
अगर समाज को अच्छा करना हो तो व्यक्ति के तल पर स्वीकृति होनी चाहिए और समाज को अगर सड़ाना हो तो व्यक्ति के तल पर अस्वीकृति होनी चाहिए। इसलिए मेरी बात में निरंतर विरोध लगता है। मुझे कई लोग आकर कहते हैं कि आप सुबह के ध्यान में सिखाते हैं सब स्वीकार कर लो और सांझ की सभा में कहते हैं सब अस्वीकार कर लो।
अब मैं क्या करूं? सुबह सूरज उगता है, शाम ढलता है। इसमें मैं क्या करूं? अब सूरज से हम नहीं कहते हैं कभी जाकर कि सुबह उगते हो सांझ ढलते हो! विरोध है दोनों में, जब सुबह उगे तो सांझ ढलते क्यों हो? नहीं सुबह मैं यही कहता हूं कि स्वीकार कर लो और सांझ यही कहता हूं। और दोनों ही जिंदगी के...

एक और सवाल किसी ने पूछा है, इसको आखिरी मान लें।
पूछा हैः मानो आज रुग्ण है, और मैं यह मानता हूं कि मनुष्य जब पैदा हुआ था करोड़ों वर्ष पहले तब आदमी अवश्य ही स्वस्थ रहा होगा। तो फिर मनुष्य को कौन सा अचेतन मन है जिससे बीमारी के जंतुओं को आने दिया और वह जंतु और बीज कौन से हैं जिसने मनुष्य को अमानवीयता की शुरुआत होने दी?

और यही रोग की मूल जड़ है। ऐसी सब कल्पनाएं हैं। असल में कोई करोड़ों वर्ष पहले आदमी सुखी था, ऐसे खयाल में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। और आज कोई आदमी को दुखी होना अनिवार्य है ऐसी भी कोई बात नहीं है। कुछ लोग समझ लेते हैं वे सदा सुखी हैं, इस अर्थ में कि वे दुख को भी स्वीकार कर लेते हैं। जो नहीं समझते वे सदा दुखी हैं, इस अर्थ में कि वह दुख अस्वीकार करने में ही दुखी होते चले जाते हैं।
और ऐसा नहीं है कभी कि सारी मनुष्यता सुखी थी और सारी मनुष्यता कभी दुखी हो गई है। और ऐसा भी नहीं है कि कभी सब स्वस्थ थे और अब सब अस्वस्थ हो गए हैं, ऐसा कभी नहीं है। हर एक की अपनी बीमारियां होती हैं, अपने दुख होते हैं। बदल जाते हैं, नए युग नई बीमारियां पैदा कर लेते हैं, नये दुख पैदा कर लेते हैं। लेकिन सदा दुख है, सदा बीमारी है, सदा परेशानी है और सदा रहेगी।
हम लड़ते रहेंगे और एक तरफ से बचाएंगे और दूसरी तरफ से पैदा हो जाएगा। अभी लुई पाश्चर ने इतनी मेहनत की, वैज्ञानिकों ने इतनी मेहनत की, अब अगर लुई पाश्चर लौट आए, तो शायद घबड़ा जाए, क्योंकि उसने आदमी को बचाने की कोशिश की कि बच्चे मर न जाएं। अब बच्चे ज्यादा हो गए। अब हम उन्हें पैदा न होने दें या पैदा हो जाएं, तो उनको मारने का उपाय करें। तो भू्रण-हत्या के लिए और गर्भपात के लिए विचार करना पड़ता है। और कोई आश्चर्य नहीं है कि अगर संख्या बढ़ती चली जाए तो जिस तरह भी हम जन्म-निरोध की बात कर रहे हैं इस तरह हम एक उम्र के बाद बूढ़े आदमी को मारने के लिए मजबूर करें। कोई आश्चर्य नहीं है वह दूसरा हिस्सा है उसका जो होगा।
अगर यह नहीं रुकता है मामला, यह नहीं रुकता है। अगर हम बच्चों को नहीं रोक पाते, नहीं रोक पा रहे हैं तो दूसरा उपाय एक ही है कि जैसे हम अट्ठावन या पचपन वर्ष में रिटायर करते हैं हम...
जितनी भी बीमारियां बचाईं और दस बच्चों में से आठ बच्चे मर जाते थे उनको बचा लिए। अब झंझट की बात हो गई। अब कौन कहे कि वह ठीक हुआ क्योंकि अब हमको आठ मारने पड़ेंगे या रोकने पड़ेंगे, या कुछ करना पड़ेगा।
इधर से हम इंतजाम करते हैं उधर से कुछ बिखर जाता है। यानी मेरा मानना यह है कि पूर्ण इंतजाम नहीं हो सकता क्योंकि पूर्ण इंतजाम का कोई मतलब ही नहीं है। वह हमेशा ही एक तरफ हम इंतजाम करते हैं दूसरी तरफ ठीक उसके विपरीत चीज खड़ी हो जाती है। क्योंकि जीवन जो है वह सदा विपरीत को पैदा कर लेता है।
इसलिए संतुलन...हम खोज सकें तो बराबर उतनी ही रहेगी जितनी कभी थी, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। यह हो सकता है कि एक आदमी के पास आज फियेट कार है और आज से हजार साल पहले उसके बाप के पास सिर्फ एक बैलगाड़ी थी। बगल वाले के पास एक रथ था, अभी बगल वाले के पास एक इंपाला है। दोनों का फासला उतना ही है, जितना बैलगाड़ी और रथ का था। जितना फियेट और इंपाला का है। वह जो अनुपात है वह उतना का उतना खड़ा रहता है। रथ वाले को देख कर जितना बैलगाड़ी वाला दुखी होता है उतना इंपाला वाले को देख कर फिएट वाला दुखी होता है।
इंपाला आ गई है, बैलगाड़ी हट गई है, रथ हट गया है लेकिन वह जो मामला था वह अपनी जगह खड़ा है, अनुपात वही है। और अनुपात में बड़ी भूल हो जाती है। आपके पास दस रुपये हैं मेरे पास सौ रुपये हैं तो आप गरीब हो और मैं अमीर। कल आपके पास सौ हो जाते हैं और मेरे पास हजार हो जाते हैं, फासला उतना ही होता चला जाता है। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरी अपनी समझ यह है कि जिंदगी जैसी सदा थी, वैसी ही है। उसके रूप बदलते हैं
 आकार बदलते हैं, सब मामला वैसे ही है। उस सारे मामले में इतना ही फर्क पड़ सकता है कि कोई व्यक्ति उसको स्वीकार करे या अस्वीकार करे। और इतना उस दिन भी वही था आज भी वही है, उस दिन जो बैलगाड़ी वाला था अगर उसने स्वीकार कर लिया होता कि अच्छा है तुम्हारे पास रथ है हमारे पास बैलगाड़ी है। और चल पड़ा होता अपनी बैलगाड़ी में।
तो जितनी सुखी जाता, उतना ही आज फिएट वाला इंपाला को देख कर कहे, अच्छा तुम्हारे पास इंपाला है, हमारे पास फिएट है चल पड़ता है। उतना ही वही रस उपलब्ध हो जाएगा जो उसको हुआ होता जिसको उपलब्ध हो जाएगा।
जिंदगी वैसी ही है सदा वैसी ही है। रुख क्या हम लेते हैं इस पर निर्भर करता है। और दो तरह के रुख हैं जैसे मैंने कहा। एक तो है कि हम निरंतर आकांक्षाओं को आरोपित करते चले जाएं और एक है कि जो है उसे हम जान लें। उसे हम पहचान लें। उसे हम देख लें और जैसे ही हम उसको देखते हैं अनिवार्यरूपेण उसकी स्वीकृति आ जाती है क्योंकि सवाल ही नहीं है अस्वीकार करने का।
ऐसे स्वीकृत उपलब्ध व्यक्ति को ही मैं धार्मिक कहता हूं। और जब इतनी स्वीकृति होती है तो शांति अपने आप भर जाती है और उस शांति में हम बहुत कुछ देख पाते हैं जो हमने अशांति में कभी भी नहीं देखा था।
और पहली बात आपको दोहरा दूं इस अंत में कि उस शांति में जो हमें दिखाई पड़ता है वह कम्युनिकेबल नहीं है, उसको कहा नहीं जा सकता। उस शांति में हम कुछ जानते हैं जो कि शब्द में नहीं बंधता है। तो तड़प सकते हैं, परेशान हो सकते हैं, चिल्ला सकते हैं, मगर उससे कुछ होता नहीं।
हां, इतना ही हो सकता है कि शायद हमारी तड़प को, पीड़ा को समझाने की कोशिश को कोई पकड़ कर सोचे कि जरूर इस आदमी ने कुछ देखा है। जैसे एक गूंगा आदमी आ जाए और हमारे घर में चिल्लाने लगे जोर से, हाथ-पैर पटकने लगे और बताने लगे। हमें कुछ समझ में तो न आए लेकिन इतना समझ में आ जाए कि इस आदमी को कुछ हुआ है। और अगर वह हाथ पकड़ कर बताने लगे कि बाहर या कहीं ले जाने लगे तो शायद हम सोचेंगे चलो देख लें इस आदमी ने कुछ देखा है।
कुछ कम्युनिकेट तो वह न कर पाए लेकिन इतना कम्युनिकेट कर दे कि कम्युनिकेट नहीं कर पा रहा हूं और कुछ है। बस इतना अगर हो जाए तो शायद हम भी चले जाएं। और उतनी ही मेरी चेष्टा है उससे ज्यादा मेरा भरोसा नहीं है। यानी मैं शब्द का विश्वासी नहीं हूं। संवाद का विश्वासी नहीं हूं। बुद्धि का विश्वासी नहीं हूं।
मेरे साथ दिक्कत इसलिए होती है कि मैं दिन-रात तो समझाता हूं कि विचार करो, बिना विचार के मत मानो, विश्वास मत करो और फिर मैं कहता हूं कि मैं बुद्धिवादी नहीं हूं। और मैं यह सब इसीलिए कहता हूं कि इसको थका डालो बुद्धि को, खूब सोच लो, खूब तर्क कर लो, खूब लड़ लो, आग्र्यु कर लो और यह थक जाए एक दफा यह थक जाए और गिर जाए।
तुम इसके बाहर हो जाओ। यह सांप की केंचुल की तरह पड़ी रह जाए और सांप बाहर निकल जाए। और यह निकलेगी न अगर विश्वास कर लिया तो। क्योंकि यह थकेगी नहीं। यह निकलेगी न अगर किसी को आस्था कर ली तो। क्योंकि इसको थकना जरूरी है, इसके निकल जाने के पहले।
एक तो वह विश्वास है जो हम बुद्धि का बिना उपयोग किए ही पकड़ लेते हैं। वह बिलो इंटलेक्ट है। और एक वह श्रद्धा है जो बुद्धि की थकान पर उपलब्ध होती है, बियांड इंटलेक्ट है। और दोनों बिलकुल अलग बातें हैं। मगर दोनों एक सी मालूम पड़ सकती हैं। इसलिए कभी-कभी महाज्ञानी महामूढ़ मालूम पड़ सकता है। इसमें कोई ऐसी कठिनाई नहीं है कि महाज्ञानी महामूढ़ मालूम पड़े।
आज इतना ही

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