कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-02)
दूसरा-प्रवचन--(धर्म और क्रांति)
मेरे खयाल में, एक तो व्यक्ति के तल पर शांति की चेष्टा की जानी चाहिए। एक-एक व्यक्ति को अत्यंत शांत होने की जरूरत है। तो व्यक्ति के लिए शांति और समाज के लिए क्रांति, यह मेरी दृष्टि है। और समाज में आमूल रूपांतरण होना चाहिए। तो ये दो ही बातें मेरे खयाल में हैं।
प्रत्येक व्यक्ति को अधिकतम शांत और आनंदित होने का क्या रास्ता हो सकता हैवह खबर पहुंचानी है। और समाज रूपांतरित होविशेषकर भारतीय समाज, क्योंकि भारत का समाज करीब-करीब मरा हुआ समाज है। औैर बहुत पहले हम मर चुके हैं, यानी उस मरे हुए होने को भी हमें बहुत समय हो गया। वह घटना भी नयी नहीं है, बहुत पुरानी हो गई। यह जो हम गुणगान करते रहते हैं, जैसे इकबाल ने कहा कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। तो मेरी समझ यह है कि हस्ती हमारी इसीलिए नहीं मिटती कि हस्ती बहुत पहले मिट चुकी है। अब मिटने को बची भी नहीं है।
जिंदा आदमी मरता है, मरा हुआ आदमी फिर नहीं मरता है। कोई तीन हजार वर्ष से स्टेग्नेंट सोसाइटी है, जिसमें कोई डाइनैमिज्म नहीं, कोई गति नहीं, कहीं कोई बहाव नहीं। सब बिलकुल सड़ गया। और उसकी सड़ांध हमें खाए जा रही है।
तो उसको बदलना है। एक तो प्रश्न है कि समाज नये ढंग से कैसे रूपांतरित हो और हम भविष्य की तरफ कैसे गति करें।
हम अतीत से बंधी हुई कौम हैं। हमारी कोई भविष्योंमुख, आगे देखने वाली हमारे पास कोई आंख नहीं है। हमारी जितनी रोज-रोज की तकलीफें पैदा हो गई हैं, वे जो इमीजिएट तकलीफें मालूम होती हैं, वे वस्तुतः हमारे अतीत की ओर देखने का परिणाम हैं। क्योंकि जब तक कोई कौम अतीत की तरफ देखेगी, तब तक भविष्य और निर्माण की दिशा में कल्पना नहीं उठती।
एक तो रूस के बच्चे हैं, वे चांद पर बस्ती बसाने की सोच रहे हैं। हमारे बच्चे राम-लीला देख रहे हैं! तो चांद से लेना-देना क्या है! हम उन कल्पनाओं में हैं, जो कभी तीन हजार वर्ष पहले देखी गई थीं। और उनसे अटके हुए हैं।
यह किन कारणों से हुआ? वैल्यूज हमारी बदल गईं। हम में स्प्रिचुअल राटननेस आ गई, तो उसका क्या इकॉनामिक रीजन है? और यह डिसइंटिग्रेशन शुरू हुआ, तो हुआ ही क्यों?
पहली तो बात यह है कि यह जो राटननेस आ गई, ऐसा नहीं है। राटननेस है। एक तो यह होता है कि हम कहीं अच्छी हालत में थे, और नीचे गिर गए, ऐसा नहीं है। हम बुरी हालत में ही रहे। तो राटननेस आ नहीं गई; राटननेस हैरही है। यानी कभी ऐसा नहीं था कि हम बेहतर हालत में थे और हम उससे नीचे उतर गए। हम बेहतर हालत में पहुंचे नहीं। और न पहुंचने के पीछे कुछ हमारे बेसिक कंसेप्शंस थे, जिनकी वजह से हम नहीं पहुंच सके।
कौम जीती है बहुत गहरे में, धारणाओं पर; वह जीने के प्रति क्या रुख लेती है, इस पर। तो भारत ने एक जीवन विरोधी रुख ले लिया है हजारों साल से। एक लाइफ निगेटिव एटिट्यूड है हमारा। जीवन को स्वीकार करने का और जीवन में आनंदित होने का और जीवन का भी कोई अहोभाव है, वह हमारी स्वीकृति नहीं है। हमारी मान्यता यह है कि जीवन से बच जाना, पलायन, एस्केप, जीवन से मुक्त हो जाना, आवागमन से मुक्त हो जाना, कहीं मोक्ष में चले जानायह हमारे प्राणों की पुकार रही है। यह बड़ी खतरनाक पुकार है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि अगर मुझे इस घर में रहना नहीं; यह घर बेकार है। इस घर में हूं, तो यह सिर्फ पाप का फल है, इस घर में होना। इस घर में हूं, तो यह सिर्फ किसी तरह भोग लेना है, झेल लेना है। और जितनी जल्दी मौका मिल जाए, इस घर के बाहर हो जाना है। अगर यह मेरी दृष्टि हो, तो इस घर को मैं सुंदर भी नहीं बना सकता हूं, सजा भी नहीं सकता हूं। यह घर मेरे लिए वेटिंग रूम से ज्यादा मूल्य कभी भी नहीं ले पाएगा। यह कभी भी घर नहीं हो सकता है।
तो यह जो भारत का डिसइंटिग्रेशन दिखाई पड़ता है, व्यक्तित्व का डिटेरियोरेशन दिखाई पड़ता है, यह जो सड़ांध दिखाई पड़ती है, उसके पीछे सबसे बुनियादी मुझे यह लगता है कि हमारा पूरा का पूरा जीवन-कोण निषेध का है, निगेशन का है।
क्या सारा हिंदू एप्रोच ऐसा है?
हां, सारी भारतीय एप्रोच। मेरा मतलब जैन और बौद्ध भी उसमें पूरी तरह सम्मिलित हैं, बल्कि ज्यादा सम्मिलित हैं। यानी बजाय हिंदुओं के, जैन और बौद्धों का हाथ इस मुल्क को जीवन-विरोधी बनाने में ज्यादा है।
पर यही बात तो लागू होगी क्रिश्चिएनिटी पर भी?
बिलकुल लागू है। लेकिन क्रिश्चिएनिटी की जड़ें उन्होंने कोई तीन सौ साल से काट डाली हैं। क्रिश्चिएनिटी आज यूरोप के मन पर प्रभावी व्यक्तित्व नहीं रखती है। यूरोप के मन पर, खासकर प्रतिभा पर, खासकर इंटेलिजेंस पर आज क्रिश्चिएनिटी की कोई पकड़ नहीं है; आम जनता पर है। तो जब तक क्रिश्चिएनिटी बहुत महत्वपूर्ण थी, तब तक यूरोप विकसित ही नहीं हुआ। वह जो, जिसको स्टेग्नेंट सोसाइटी कहें, वह टूटी भी नहीं थी। स्टेग्नेंट सोसाइटी का टूटना और क्रिश्चिएनिटी की जड़ें कटना एक ही साथ हुआ। पिछले तीन सौ वर्षों में जो भी हमें विकास दिखाई पड़ता है पश्चिम में, वह साइमलटेनियस है। इधर क्रिश्चिएनिटी का प्रभाव कम हुआ और उधर यह व्यक्तित्व का विकास शुरू हुआ। हिंदुस्तान में भी पिछले धर्मों का प्रभाव जितना कम हो जाएगा, जितना क्षीण हो जाएगा, उतनी ही तीव्रता से गति हो सकेगी। और यह बहुत ही आश्चर्य की बात है।
क्या हम पिछड़े हुए थे?
हां। जो धर्म अब तक रहे, अब उन धर्मों से काम नहीं चलेगा। धर्म की हमें नई धारणा विकसित करनी होगी। तो यहां तक तो मैं पश्चिम से सहमत हूं कि उसने अपने पुराने धर्म से अपना संबंध तोड़ लिया। वह चर्च के बाहर आ गया, कम से कम बुद्धिमान वर्ग। और जो भी विकास किया है, वह आम जनता ने नहीं किया है, वह बुद्धिमान वर्ग का विकास है सारा का सारा। आम जनता हमेशा फायदा लेती है विकास का, या दुख भोगती है रुकावट का। आम जनता कुछ करती नहीं।
जो बुद्धिशाली वर्ग है, जो इंटेलिजेंसिया है, वह कुछ करता है। या तो वह एक स्टेग्नेंट सोसाइटी बनाने का उपाय करता है, तो आम जनता उसका दुख भोगती है। उसने अगर शूद्र और ब्राह्मण बना दिए, तो उसको जनता शूद्र होकर भोेगती रहेगी, फल को। वह अगर तोड़ देता इनको और नई दिशाएं खोज लेता, अगर वह टेक्नॉलाजी और साइंस खोज लेता, तो आम जनता उसका भोग करती। आम जनता सृजनात्मक नहीं है। आम जनता भोग करती है, जो भी बुद्धिमान वर्ग निर्मित करता है उसका। तो तीन सौ वर्षों से ईसाइयत उखड़ गई पश्चिम से; प्रतिभाशाली मन से उखड़ गई। उसकी जगहजीवन को देखने का सुपरस्टिशंस जहां दृष्टिकोण थाउसकी जगह साइंटिफिक दृष्टिकोण आ गया।
भारत में अभी भी जीवन को देखने का दृष्टिकोण अंधविश्वास का है, विज्ञान का अभी भी नहीं है। अब भी विज्ञान-बुद्धि नहीं है। और विज्ञान-बुद्धि हो नहीं सकती, क्योंकि हमारी पूरी शिक्षा जो है, वह दो बातों पर खड़ी है। एक तो इस बात पर खड़ी है कि विचार नहीं, विश्वास। थिंकिंग नहीं, बिलीफ। और जितना बिलीविंग माइंड होगा, उतना ही साइंटिफिक नहीं हो सकता है।
और दूसरी बात कि जब हम जीवन को असार मानते हैं, जैसा कि क्रिश्चिएनिटी भी मानती रही है। तो जब तक क्रिश्चिएनिटी थी, तब तक साइंस जन्म नहीं ले सकी। क्योंकि साइंस तभी जन्म लेती है, जब हम जीवन को सार मानते हैं और इस सारभूत जीवन को और सारपूर्ण बनाने में संलग्न होते हैं, तो साइंस पैदा होती है। साइंस का मतलब यह है कि इस जीवन को और भी कैसे सुंदर, और सत्य, और शक्तिशाली, सुखद कैसे बनाएं? तो वह पैदा होती है। जब जीवन को छोड़ना है, बल्कि और दुखद कैसे बनाएं, यह हमारी दृष्टि है कि अगर एक आदमी कपड़े पहने हुए है, तो वह कपड़े छोड़ कर नंगा खड़ा हो जाए; एक आदमी दो वक्त खाना खा रहा है, तो वह एक दफे खाना खाने लगे; एक आदमी को बिस्तर सोने को मिला है, तो वह जमीन पर सो जाए...!
आप यह बताएं कि हम में यह जीवन-निषेध आया कैसे?
यह सारी दुनिया में आया। हममें ही आया, ऐसा नहीं है। दुनिया के दूसरे कोनों से टूटना शुरू हो गया; हमारा टूटा नहीं। इतना फर्क है। सारी दुनिया में आने का कारण है। और वह कारण पैथालाजिकल है। वह कारण यह है कि समाज में कुछ लोग सदा ही जीवन का रस अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं; नहीं कर पाते। कारण हैंपरिस्थितियां, व्यक्तित्व का ढंग, गलत जीवन को पकड़ने की कोशिश।
जीवन का जो रस भोग नहीं कर पाते, वे यह कभी स्वीकार करने को राजी नहीं होते कि हमारी कोई गलती थी, जिससे हम जीवन का रस भोग नहीं कर पाए। मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति यह है कि वह दोष सदा दूसरे पर देगा। तो जो लोग भी जीवन का रस भोग नहीं कर पाते, वे कहते हैं, यह जीवन ही ऐसा है; जीवन ही दुख है; यह जीवन ही असार है।
तो इधर पांच-छह हजार वर्षों में आदमी की बहुुत तरह की तकलीफें हैं, बहुत तरह की परेशानियां हैं। उन परेशानियों की तरफ दो दृष्टियां हो सकती हैं। एक तो यह कि परेशानियां बदली जा सकती हैं। हम कुछ गलत हैं, इसलिए परेशानियां पैदा हो रही हैं। दूसरी दृष्टि यह हो सकती है कि परेशानियां ही जिंदगी है। हमारे बदलने से कुछ नहीं हो सकता। सिर्फ इतना हो सकता है कि हम परेशानियों से मुक्त होने का कोई उपाय कर सकते हैं।
इस कमरे में हम बैठे हैं। इस कमरे में अंधेरा है। तो दो स्थितियां हैं। एक तो स्थिति यह है कि अंधेरा, मैं प्रकाश जलाना नहीं जानता हूं, इसलिए है। और एक स्थिति यह हो सकती है कि अंधेरा है और प्रकाश जलाया ही नहीं जा सकता, इसलिए है। ज्यादा से ज्यादा इतना कर सकता हूं कि इस कमरे के बाहर निकल जाऊं।
स्वभावतः पहला जो दृष्टिकोण जाता है मनुष्य का, पहला वह यह जाता है कि बाहर कुछ गलत है। मनुष्य की बुनियादी पकड़ पहले बाहर पर पड़ती है, भीतर पर पहीं पड़ती। तो जैसे ही प्रिमिटिव माइंड ने सबसे पहले दुनिया देखी, उसमें सब तरह की बीमारियां हैंदुख है, मौत है, प्रियजन का बिछुड़ना है, अप्रियजन का मिलना है, गरीबी है, दीनता है, दरिद्रता है, जीवन को बचाने की सारी कठिनाई है, जीना एक लंबा श्रम और संघर्ष हैयह दिखाई पड़ा। स्वभावतः पहली जो बात दिखाई पड़ी, वह यह खयाल में आई कि जीवन ऐसा ही है और इस जीवन से मुक्त हो जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। इस जीवन को नहीं बदला जा सकता है। यह जीवन इतना बड़ा था। यह जो फस्र्ट एटिट्यूड आता है, किसी का भी दुनिया में, हमारी ही नहीं...। जब भी दुनिया में आदमी ने सोचा, तो प्रिमिटिव माइंड का जो पहला रिएक्शन था, वह यह था कि यह जगत ऐसा गलत है। इसलिए हमारे अब तक सारे धर्म जीवन को असार सिद्ध करते रहे।
इधर पांच-छह हजार वर्ष के अनुभव के बाद यह बात साफ होनी शुरू हुई कि जीवन को छोटे-मोटे रास्तों पर बदला जा सकता है। एक आदमी पैदल जाता है, वह बैलगाड़ी से जा सकता है; तकलीफ से थोड़ा बच जाता है। एक आदमी तकली चलाता है, वह चर्खा चला सकता है। और चरखे में तकलीफ कम है। तो तकली से चरखे तक पहुंचने में हमको एक अनुभव हुआ कि दुख, पीड़ा, श्रम कम किया जा सकता है।
धीरे-धीरे पांच हजार वर्षों में यह अनुभव हुआ कि दुख बहुत कम किया जा सकता है, बीमारी बहुत कम की जा सकती है, उम्र बढ़ाई जा सकती है। और अब इधर सौ वर्षों में मनोविज्ञान की जो नवीनतम खोजें हैं, उनसे यह ज्ञात हुआ कि आदमी मरने में जितना दुख उठाता है, वह दुख भी, हम नहीं समझ पाए कि दुख को कैसे बदलें, इसलिए उठाता है। अन्यथा वह भी बदला जा सकता है। तो इधर धीरे-धीरे ये धारणाएं स्पष्ट हो गईं कि जीवन दुखी है, क्योंकि जीवन को जीने की कला हम विकसित नहीं कर पाए हैं। वह हमारे हाथ में नहीं हैहो भी नहीं सकतीबिना विकसित किए हुए।
जैसे एक बच्चा पैदा होता है। एक बच्चा पैदा होता है तो जो उसकी दृष्टि होती है, जगत के प्रति, वही दृष्टि प्रिमिटिव आदमी की दृष्टि थी, जगत के प्रति। वह सब सुख चाहता है, बच्चा सब सुख चाहता है, करना कुछ भी नहीं चाहता; कर कुछ सकता भी नहीं है। और जब सुख नहीं मिलता, तो रोने और चिल्लाने के सिवाय उसके पास कोई उपाय बच नहीं रह जाता। बच्चा रोता है, क्योंकि वह कहता है, सुख मुझे मिलना चाहिए। नहीं सुख मिलता, तो कुछ करता भी नहीं; सिर्फ रोता है।
तो पुराने धर्मों ने जो जीवन को असार कहा, वह मेरे हिसाब से चाइल्डिश है। ह्युमैनिटी के रुदन का प्रतीक है, रोने का प्रतीक है। वह चिल्लाता है कि यह भी खराब है, कि वह भी खराब है; सब खराब है। और खुद कुछ कर नहीं सकता। तो यह स्वाभाविक था एक अर्थ यह होना।
ग्रीक फिलासफी जितनी रही और जितनी हमारी फिलासफी रही, तो इसमें कितना शिशु-रुदन जैसा है?
दोनों में है। लेकिन फिर भी ग्रीक फिलासफी में हमसे कम है। इसलिए पश्चिम में दूसरी तरह की धारा बह सकी। और कम होने का कुछ कारण है। सारी दुनिया में, अलग-अलग समाजों ने जो यात्रा की है, उसके भिन्न-भिन्न होने के बहुुत कारण हैं। एथेंस में जो स्थिति बनी, जब ग्रीक फिलासफी पैदा हुई वहां, तो वह स्थिति बड़ी समृद्धि की और बड़े सुख की स्थिति थी। बहुत समृद्ध नगर था। उस समृद्धि के बीच जीवन के भोग के रास्ते दिखाई पड़ते थे। जीवन को छोड़ कर भाग जाने जैसा नहीं दिखाई पड़ता था; जीवन भोगने जैसा दिखाई पड़ता था। इसलिए एपिकुरस जैसे लोग यूनान में पैदा हो सके, जिन्होंने कहा, जीवन एक रस-भोग है, एक आनंद है। और जीवन से जितना हम आनंद ले सकें, उतना आनंद हम ले सकते हैं। ऐसे लोग भारत में भी कभी पैदा हुए थेजैसे चार्वाकों की परंपरा।
मेरी दृष्टि में अगर चार्वाक भारत में प्रभावी होते, तो विज्ञान पैदा हो जाता। लेकिन चार्वाक प्रभावी नहीं हो सके। इसलिए विज्ञान पैदा नहीं हो सका। पश्चिम में एपिकुरस और फिर पीछे फ्रांस में दिदरो और वोल्तेयर और रूसो, इन सबके प्रभाव में एक सतत धारा चली और उस सतत धारा ने जीवन भोगने योग्य है, त्यागने योग्य नहींयह दृष्टि पैदा कर दी।
भारत में...न तो कभी भारत इतना समृद्ध रहा इतना कि उसे जीवन भोग मालूम पड़े। अगर समृद्ध लोग थे भी, तो वह एक बहुत छोटा वर्ग था जो समृद्ध था। देश का बड़ा हिस्सा दरिद्र और दीन रहा। एक। दूसरी बात, भारत इतना दीन और दरिद्र भी नहीं रहा कि दरिद्रता असहनीय हो जाए और उसको तोड़ देने के लिए रेवल्यूशन करें। भारत एक मध्य स्थिति में रहाएक ऐसी स्थिति में जहां कि समृद्धि इतनी नहीं है कि जीवन भोग बन जाए, और जहां दरिद्रता इतनी नहीं है कि क्रांति हो जाए। इस मध्यमवर्गीय, कुनकुनी स्थिति, ल्यूकवार्म स्थिति की वजह से न तो यहां क्रांति पैदा हुई और न जीवन के रस-भोग की धारणा पैदा हुई।
तो यह जो ल्यूक वार्म स्थिति रही भारत की, उसके परिणाम में न तो जीवन भोगने जैसा लगा, और न जीवन ऐसा लगा कि उसको तोड़ देंसहने जैसा लगा, टालरेबल लगा। और टालरेबल जो चीज लगती है, उससे हम ऊब जाते हैं। न तो जी पाते, न भोग पाते, न छोड़ पाते। उससे ऊब पैदा होगी। तो एक बोर्डम पैदा हुई भारत के मन में। और उस बोर्डम से, आउट ऑफ दैट बोर्डम, हमारे सारे रिलीजन पैदा हुए। सभी रिलीजन आउट आफ बोर्डम पैदा हुए। करीब-करीब एक जैसा दुनिया में हुआ, लेकिन दूसरे मुल्कों में वह हटना शुरू हो गया। इस मुल्क में वह हटना अभी भी शुरू नहीं हो पाया। और उसके कई कारण हैं।
एक तो कारण यह है कि भारत इन धार्मिक और जीवन की असारवादी धारणाओं के कारण और जीवन की कुनकुनी मध्यमवर्गीय स्थिति के कारण कभी भी भारत के बाहर नहीं गयाकभी बाहर नहीं गया। ऐसा भी दुखद नहीं था कि छोड़ कर चला जाए कहीं। ऐसा सुखद भी नहीं था कि यहां रहने में आनंदित अनुभव करे। जीता रहा। तो भारत कभी भी आक्रामक नहीं हो पाया, किसी भी स्थिति में। आक्रामक न होने के कारण सारे आस-पास का इलाका भारत पर आक्रमण रहा। और वह जो आक्रमणों का परिणाम होना था, वह यह था कि जीवन के प्रति हमारा रस बढ़ने के बजाय और भी हीन हो गया और जीवन एक गुलामी, एक डिपेंडेंस, एक बांडेजयह सब हमें मालूम होने लगी। एक बांडेज की कल्पना दुनिया में कहीं पैदा नहीं हुई, यह थोड़ा सोचने जैसा मामला है।
आदमी बंधा हुआ है, बांडेज में है, यह कल्पना भारत ने इतनी तीव्रता से विकसित की कि सब आदमी गुलाम हैंजीवन गुलामी ही गुलामी है! यानी गुलामी जो है, वह जन्म लेना और गुलाम होना एक ही बात है। और इतनी बांडेज की जो हमने धारणा बांधी, इसलिए मोक्ष का कांसेप्ट पैदा हुआ।
दुनिया में मोक्ष का कांसेप्ट पैदा नहीं हुआ, यह भी बहुत मजे की बात है। क्रिश्चिएनिटी में मोक्ष जैसी कोई चीज नहीं है। स्वर्ग है। स्वर्ग यानी सुख की जगह। नरक है। नरक यानी दुख की जगह। हिंदुस्तान में नरक है, स्वर्ग है, और मोक्ष है। नरक दुख की जगह, स्वर्ग सुख की जगह, मोक्ष जहां दोनों नहीं हैं।
यह थोड़ा समझने जैसा मामला है। दुनिया में मोक्ष का कांसेप्ट ओरिजनली इंडियन है।
और यह कांसेप्ट ऑफ मोक्ष हायर नहीं है?
बिलकुल हायर है। वह मैं नहीं कह रहा। बिलकुल हायर है। लेकिन यूनिक है। और यूनिक है, हिंदुस्तान की यूनिक माइंड की वजह से है, वह जो स्थिति बनी हिंदुस्तान की। वह यहां हमने दुख भी देखा, यहां हमने सुख भी देखा और दोनों ऐसे कुनकुनी हालत में देखे कि दोनों में से कोई भी हमें पकड़ने जैसा नहीं लगा। दुख को तो कोई पकड़ता नहीं, सुख को पकड़ने जैसा नहीं लगा। अगर हमने सुख बहुत गहराई में देखा होता, अनुभव किया होता तो हम स्वर्ग की कल्पना पर टिकते, जहां बहुत परिपूर्ण सुख है।
क्या उनके थिंकिंग कंडीशन को क्रैडिट देंगे?
थिंकिंग केपेसिटी को तो क्रैडिट देनी ही पड़ेगी। प्योरली नहीं है। प्योरली कभी कोई कांसेप्ट कंडीशंस से नहीं होता। प्योरली नहीं है। लेकिन अगर ये कंडीशंस न होतीं, तो थिंकिंग दूसरे रास्ते पर जाती, इस रास्ते पर नहीं जाती। इस रास्ते पर जाना कंडीशंस की वजह से है। कांसेप्ट कंडीशंस की वजह से नहीं पैदा हो जाता है, लेकिन थिंकिंग को पर्टिकुलर चैनल में जाना कंडीशंस की वजह से होता है, जब एक दफा मुल्क दुख-दारिद्र्य, दीनता, दरिद्रता, दासता, इसमें फंसा रहा, फंसा रहा, तो हमने एक बांडेज का कांसेप्ट विकसित किया, जो कि अगर फ्रीडम होती, तो हम कांसेप्ट विकसित नहीं कर पाते। अगर फ्रीडमपूरी फ्रीडम होती, तो हम कांसेप्ट विकसित नहीं कर पाते। बांडेज का कांसेप्ट फ्रीडम में विकसित नहीं होता। और जिस दिन दुनिया टोटली फ्री होगी, उस दिन बांडेज का कांसेप्ट एकदम ढीला पड़ जाएगा। तो बांडेज नेसब तरह के बांडेज ने, उसमें आर्थिक बांडेज है, और तरह के बांडेज हैं, उस सबने एक ऐसी हालत पैदा कर दी हमारे दिमाग में कि मुक्त होना है किसी तरह, यह भाव तीव्रता पकड़ने लगा। और इस तरफ माइंड को जाने की सुविधा हो गई। सिचुएशन जो थी, उसने डाइरेक्शन दिया माइंड को।
माइंड हमारे पास है। माइंड दुनिया में जितना किसी के पास है, उतना हमारे पास है। लेकिन पर्टिकुलर डाइरेक्शन में जाने की जो बात है, वह कंडीशंस पैदा करती हैं। एथेंस का माइंड दूसरी डाइरेक्शन में गया। यूरोप का माइंड भिन्न दिशा पकड़ा। हमारा माइंड भिन्न पकड़ा। चीन ने भिन्न दिशा पकड़ी। वह हम क्या, किस हालत में थे, वहां से दिमाग को रास्ता मिलना शुरू हुआ।
कहां तक आपका एक्झिस्टेंशलिज्म, फ्रेंच एक्झिस्टेंशलिज्म से मिलता-जुलता है?
बहुत थोड़ी दूर तक, बहुत थोड़ी दूर तक। बस, इतनी दूर तक जो उनका विश्लेषण है, जीवन की धारणाओं का कि एंग्विश या बोर्डम, संताप है, दुख है, ऊब है; इनकी वजह से आदमी, इनको भुलाने के लिए, इनके प्रति कंसोलेशन लाने के लिए, इनके विपरीत धारणाएं पैदा करता है। इससे मैं राजी हूं। लेकिन इससे आगे मेरा जाना होता है। मेरा मानना है कि ये सारी की सारी बातें इसीलिए पैदा होती हैंबोर्डम या एंग्विशक्योंकि हम वस्तुतः एक्झिस्टेंस क्या है, उसको अनुभव नहीं कर पाते, इसलिए पैदा होती हैं। एक्झिस्टेंसियलिस्ट का कहना है एक्झिस्टेंस इ.ज सच, कि बोर्डम पैदा होगी, एंग्विश पैदा होगी। एक्झिस्टेंस का नेचर ऐसा है कि यह होने वाला है। आदमी में एंग्जायटी पैदा होगी।
तो मेरा कहना यह है कि एंग्जाइटी और बोर्डम यह सब पैदा होती हैं, क्योंकि वी डू नाट नो ाट एग्झिस्टेंस इज। वह हमें पता नहीं चल पाता कि क्या है एक्झिस्टेंस। जिस दिन हमें एक्झिस्टेंस का पता चल जाए, उस दिन आनंद पैदा होगा, ब्लिस पैदा होगी, शांति पैदा होगी। यह जो मेरा फर्क है। तो मैं, एक्झिस्टेंस को ही मैं गॉड कहता हूं। एक्झिस्टेंस ही परमात्मा है।
क्या एक्झिस्टेंस नोएबल है?
बिलकुल। नोएबल का मतलब एक्सपीरिएंसेबल। नोएबल का मतलब यह कि अनुभव किया जा सकता है, क्योंकि हम एक्झिस्टेंस के हिस्से हैं। मैं एक्झिस्टेंस हूं। आप एक्झिस्टेंस हैं। नोएबल इस अर्थो में नहीं कि मैं उसे बाहर से देख कर जान सकूंगा। इट कैन नॉट बी नोन ऑब्जेक्टिवली। जैसे मैं आपको जान रहा हूं। कुर्सी को जान रहा हूं, दीवाल को जान रहा हूं, वैसा एग्जिस्टेंस नहीं जाना जा सकता। मैं एक्झिस्टेंस का हिस्सा हूं। मैं एक्झिस्टेंस हूं। तो जितना मैं अपने इनरमोस्ट प्राणों में प्रवेश करूं, उतना ही मुझे एक्झिस्टेंस का पता लगेगा। तो एक्झिस्टेंस इ.ज ए सब्जेक्टिव नोइंग, सब्जेक्टिव नोइंग। और इसीलिए मैं मेडिटेशन पर जोर देता हूं। क्योंकि मेडिटेशन का मेरे लिए एक ही मतलब है कि कितने गहरे मैं स्वयं में उतर जाऊं, सब्जेक्टिविटी में कितना गहरा उतर जाऊं। वहां मुझे एक्झिस्टेंस का राज, जो सीक्रेट और मिस्ट्री है, वह अनुभव होगी। वह जो अनुभव है, उसी को मैं रिलीजस एक्सपीरिएंस कहता हूं। वह जो अनुभव है, उसको हम प्रेम में ईश्वर का अनुभव कहें, कुछ नाम लें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
क्या कोई पर्सनल गॉड जैसी चीज है?
इम्फेटिकली, देयर इ.ज नो पर्सनल गॉड। गॉड मीन्स इम्पर्सनेलिटी। वह तो ठीक है, वह तो इम्पर्सनल होगा; तो डिफाइनेबल मुश्किल हो जाएगा। यह भी ठीक है। लेकिन फर्क जो मैं करूंगा वह जो उसे निराकार या इम्पर्सनल वेदांत कहना चाहता है, वह इस अर्थ में कहना चाहता है कि यह जो आकार है, यह मिथ्या है, इलूजरी है। यह जो जहां-जहां आकार दिखाई पड़ रहा है, वह इलूजरी है। मेरे लिए आकार इलूजरी नहीं है। मेरे लिए जगत इलूजरी नहीं है, माया नहीं है। झूठा नहीं है। वह एपीयरेंस नहीं है। वह भी है, उसका भी पूरा एक्झिस्टेंस है, इसलिए वह भी मेरे लिए परमात्मा है। लेकिन उसको जानने के दो रास्ते हैं। यह जो सब तरफ जगत है मेरे, यह जो एक्झिस्टेंस मुझे घेरे हुए है, इसे मैं दो तरह से जान सकता हूं। एक तो आब्जेक्टिवलीअपनी आंख से, अपने हाथ सेबाहर मेरे जो जगत है; उसको मैं जान सकता हूं। तो आब्जेक्टिवली कभी भी बहुत गहरा जानना नहीं हो सकता है, इट इ.ज नोइंग अबाउट, उसके आस-पास घूम कर मैं जान सकता हूं। आपके पास आऊं, तो आपको मैं देखूंगा, छुऊंगा, आपकी बात सुनूंगा, लेकिन आपके बाहर-बाहर घूम जाऊंगा। तो मैं कुछ भी जान कर आऊंगा, इट विल नॉट बी नोइंग यू, बट अबाउट यू।
तो एक रास्ता है अस्तित्व को बाहर से जानने का। इससे जो हम जान पाते हैं, वह हम केवल अबाउट जान पाते हैं, कभी उसका इनमोस्ट नहीं जान पाते। तो यह जो हमारा जानना है, यह अधूरा है। यह कभी पूर्ण नहीं हो सकता। इस जानने में हमारी इंद्रियों का और सारी चीजों का हाथ है। उनकी भूलें और कमियां और फैलिसी सम्मिलित होंगी। यह जो रास्ता है आब्जेक्टिवली जानने का, इसी को मैं साइंटिफिक रास्ता कहता हूं कि इसमें हम कितना इलुजन काट सकें और कितना परफेक्शन ला सकें। इस आब्जेक्टिव जानने को, आब्जेक्टिव जानने की वैज्ञानिक विधि ही विज्ञान है, वही साइंस है। तो जिनका माइंड जगत को बाहर से देख कर जानना चाहता है, वे साइंटिफिक माइंड के लोग हैं। जिनका मन जगत को बाहर से घूम कर नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर जहां अस्तित्व से जोड़ है हमारा, वहां रूट्स में उतर कर जानना चाहता है, उनको मैं रिलीजस माइंड कहता हूं।
और दो ही तरह की नोइंग है जगत में, एक साइंटिफिक नोइंग, और एक रिलीजस नोइंग। तो रिलीजस नोइंग सब्जेक्टिव है, साइंटिफिक नोइंग ऑब्जेक्टिव है। वह जो शंकर या वेदांत की जो धारणा है, वह बाहर के जगत को ही इनकार कर देते हैं। उसके इनकार करने के कारण भी भारत में साइंस पैदा नहीं हो पाई। क्योंकि जब बाहर जगत है ही नहीं, तो उसे जानने का और साइंटिफिक जानने का सवाल कहां है? तो हिंदुस्तान में साइंस को पैदा न होने देने में जितना शंकराचार्य का हाथ है, उतना और किसी आदमी का नहीं है। शंकराचार्य का जितना हाथ है हिंदुस्तान में साइंस पैदा न होने देने में, उतना किसी आदमी का नहीं। क्योंकि एपीयरेंस को जानने की जरूरत क्या है! वह है ही नहीं। और फिर उसको साइंटिफिक जानने का सवाल ही नहीं है, क्योंकि जो ट्रू ही नहीं है, उसका कोई सवाल नहीं रह जाता।
वह जो दो, वेज ऑफ नोइंगदो रास्ते हैं जानने के, इसमें इ.ज देअर ग्रेडेशन ऑफ सुपीरिआरिटी ऑर इनफीरिआरिटी? ऑर बोथ आर इक्वली पोटेंट?
इक्वली पोटेंटइक्वली पोटेंट। फर्क जो है, दोनों के जो एम रिजल्ट हैं, वे अलग हैं। इक्वली पोटेंटइक्वली नेसेसरी; लेकिन एण्ड रिजल्ट अलग हैं। हम बाहर को कितना ही जानते चले जाएं, तो हमारी शक्ति बढ़ती जाएगी, शांति नहीं। भीतर को हम जितना जानेंगे, उतनी शांति बढ़ेगी, शक्ति नहीं।
जिसे आप रिलीजस एक्सपीरिएंस कहते हैं, बाई दिस अल्टिमेटली वॉट दि एंड रिजल्ट इ.ज?
जिसको हम बिलीफ कहें...! क्योंकि अभी जो हम नहीं जानते स्वयं को, जैसा मैंने कहा, एक्झिस्टेंस को नहीं जानते, इसलिए बोर्डम है, इसलिए ऐंग्विश है, इसलिए दुख है, इसलिए पीड़ा है, चिंता है, परेशानी है। इसलिए हम एक पागलपन की हालत में दिन-रात घूमते रहते हैं। यह जो हालत है, यह हालत मिट जाएगी। दुख दूर हो जाएगा, जिसको कहें।
साइकिक और स्प्रिचुअल अनुभव में क्या फर्क है?
इन दोनों में फर्क है। यह बात हो सकती है कि जिसको हम शांति और आनंद समझ रहे हैं, वह साइकिक स्टेट भी हो सकती है, और साइकिक स्टेट नहीं भी हो सकती है; स्प्रिचुअल रियलाइजेशन भी हो सकता है, और इसमें डिस्टिंक्शन कर लेना जरूरी है। अगर हम अपने माइंड को एक खास अनुभव के लिए कल्टिवेट करते हैं और कंडीशन करते हैंजैसे एक आदमी है, बैठ कर यह भाव करता है कि मैं आनंदित हूं, मैं आनंदित हूं, मैं आनंदित हूंमैं तो आनंद ही आनंद हूं, मैं तो सच्चिदानंद हूं, ऐसा अगर करता है, तो जो परिणाम होगा, वह साइकिक स्टेट होगी। क्योंकि उसने अपने साइक को कंडीशन किया, ऑटो-हिप्नोटाइज किया। अपने को समझाने की कोशिश की कि मैं यह हूं, मैं यह हूं। और माइंड को इस बात के लिए कम्पेल किया कि माइंड यह अनुभव करे कि मैं यह हूं। यह स्थिति साइकिक होगी।
इसलिए जो पुराना धर्म है उसमें से सौ में से नब्बे संतों की स्थिति साइकिक है, ज्यादा नहीं। इसको मैं साइकिक कहूंगा, लेकिन रिलीजस नहीं कहूंगा। न स्प्रिचुअल कहूंगा। क्योंकि यह जो है, यह कंडीशन रिफ्लेक्स है।
स्प्रिचुअल किसको कहूंगा मैं? स्प्रिचुअल मैं कहूंगा अनकंडीशनिंग को। एक आदमी यह नहीं सोचता कि मैं आनंद हूं, न वह यह सोचता कि मैं परमात्मा हूं, न वह यह सोचता कि मैं ब्रह्म स्वरूप हूं। वह यह कुछ भी नहीं सोचता। ही जस्ट गोज इन टु नो वॉट इ.ज। कुछ सोचता नहीं। कोई धारणा नहीं बनाता, कोई कंसेप्शन नहीं लेता, सिर्फ खोज में जाता है भीतर कि मैं क्या हूं। कोई प्रि-कंडीशनिंग नहीं करता माइंड में कि वहां क्या होगा। एक अननोन को जानने जाता है कि वहां क्या है। इसको जानने में वह भीतर प्रवेश करता है और भीतर प्रवेश का जो रास्ता है, वह ध्यान है, मेडिटेशन है, अवेयरनेस है। वह अपने पूरे माइंड के प्रति अवेयर होता है कि क्या हूंमाइंड के एक-एक चीजों के प्रति, क्रोध के प्रति, प्रेम के प्रति, घृणा के प्रति, दुख के प्रति, चिंता के प्रति, वह एक अवेयरनेस साधता है, आब्जर्वेशन साधता है कि यह क्या है? क्या है? यह क्या है? मैं कौन हूं? इसकी खोज करता है। जैसे-जैसे इस खोज में वह जाता है वैसे-वैसे वह हैरान होता है कि जितनी यह खोज गहरी होती है, जितनी आंतरिक होती है, उतना दुख क्षीण होने लगता है, उतना क्रोध क्षीण होने लगता है, उतनी अशांति क्षीण होने लगती है। यह वह पाता है। यह उसने कभी सोचा नहीं, यह उसने कभी तय नहीं किया। इसको उसने कभी चाहा नहीं, इसे वह पाता है।
और जिस दिन वह परफेक्टली साइलेंट होता है, जहां कि कुछ भी नहीं रह जाता, टोटल वैक्यूम रह जाता है, आखिरी इनरमोस्ट सब्जेक्टिविटी में, जहां कि परिपूर्ण शून्य रह जाता है, और कुछ भी नहीं रह जाता, वहां वह पहली दफा अनुभव करता है कि ब्लिस क्या है। इसे उसने मांगा नहीं, पूछा नहीं, चाहा नहीं, खोजा नहीं। लेकिन एक क्षण में जब परिपूर्ण मन शांत होता है, तो जैसे कोई चीज भीतर फूट पड़ती है, उसका एक्सप्लोजन हो जाता है।
उस एक्सप्लोजन में वह जानता है। यह जो जानना है, यह जानना साइकिक नहीं है। क्यों नहीं है साइकिक? क्योंकि साइकिक जाना हुआ जो है, वह बार-बार खोता रहेगा, यह कभी खोएगा नहीं। यह कभी नहीं खोएगा।
दूसरी बात, साइकिक को रोज-रोज साधना पड़ेगा तभी उसको आप साध पाएंगे। अगर पंद्रह दिन आपने नहीं साधा, तो वह विलीन हो जाएगा। क्योंकि वह तो आपका कल्टीवेशन था। लेकिन अब यह आपके साथ होगासोते-जागते, उठते-बैठते जीवन में सब कुछ बदल जाए, लेकिन इस पर कोई बदलाहट नहीं आएगी।
किसका अनुभव जानना प्रामाणिक होगा, आथेंटिक होगा?
आपका अपना। दूसरे का आथेंटिक है या नहीं, यह आप फिर साइंटिफकली ही जान सकते हैं, फिर वह रिलीजस जानना नहीं होगा। यानी मेरा कहना यह है कि साइंटिफिक आथेंटिकेशन के लिए हम रिलीजन के पास नहीं जाते। साइंटिफिक वैलिडिटी के लिए हम लेबोरेटरी में जाते हैं। अब यह जो रिलीजन का अनुभव है, यह अनुभव साइंटिफिक वैलिडिटी का अनुभव नहीं होगा। मेरा मतलब आप समझे न! क्योंकि वे दोनों रिल्म, आयाम अलग हैं, और दोनों रिल्म के जो क्राइटेरिअन हैं, वे अलग हैं। इसलिए इसको दूसरे में कितना ऑथेंटिक है, यह आप नहीं जान सकते। अपने में कितना ऑथेंटिक है, यह जान सकते हैं। हां, दूसरे में इतना ही आप जान सकते हैं, जैसा कि कुछ बाहरी लक्षण हो सकते हैं जानने के। तो दूसरे में कुछ बातें दिखाई पड़ सकती हैं। वह आदमी सुख-दुख में समान मालूम पड़ सकता है। लेकिन वे अनुमान होंगे।
वे यही कहते हैं कि यह तो गूंगे का गुड़ है!
वे तो ठीक कहते हैं, बिलकुल ही ठीक कहते हैं। यह तो बिलकुल ही ठीक कहते हैं कि गूंगे का गुड़ है। यह तो बिलकुल ठीक कहते हैं। गलती वहां हो जाती है, क्योंकि गूंगे को गुड़ बाहर से लाना पड़ता है, मेरा मतलब समझे न? यह गुड़ भी नहीं है, यह गूंगे का अनुभव है। उसमें होता क्या है, वह जो बाहर से आता है, वह साइकिक ही होगा, उसके ज्यादा नहीं हो सकता। बाहर से भी स्टेट इनफ्यूज की जा सकती है।
मान लिया कि आपने तो गुड़ से नहीं किया और आपका जेनयुन एक्सपीरिएंस है, तो उसकी वैलिडिटीजब हम फिर उसी टम्र्स में कह रहे हैं...।
टम्र्स का मामला यह हैसच बात यह है कि जो पुरानी टम्र्स हैं, वे कहती कुछ नहीं हैं। वे सिर्फ इनकार कर रही हैं कहने से। अगर पाजिटिव टम्र्स होजैसे गूंगे का गुड़ हमने कहा, तो असल में हम यह कह रहे हैं कि नहीं कहा जा सकता। हम कुछ कह नहीं रहे हैं। उस अनुभव के बाबत अब तक जो भी कहा गया है, वह सब निगेटिव है। असल में निगेटिव ही हो सकता है क्योंकि पाजिटिव जब भी होगा, वह ऑजेक्ट के बाबत होगा। यानी इनहैरेंटली वह निगेटिव होगा, क्योंकि जब भी हम कुछ कहेंगे और पाजिटिव कहेंगे, तो वह आब्जेक्टिव हो जाएगा।
वे भी तो यही कहते हैं कि भई, यह तो अनुभव की चीज है।
ठीक कहते हैं, बिलकुल ठीक कहते हैं। इस मामले में मैं उनसे सहमत हूं। वे बिलकुल ठीक कहते हैं। जिनको भी वह अनुभव हुआ है, वे यही कहेंगे। लेकिन जिनको अनुभव नहीं हुआ है, वे भी यह कह सकते हैं। इसलिए मैं कह रहा हूं, इसकी आथेंटिसिटी का जहां तक सवाल है, यह स्वयं के समक्ष हो सकती है, दूसरे के समक्ष नहीं हो सकती है।
क्या चार्लटन, झूठा दावेदार हमेशा रहेगा या कि वह अभी मिट जाएगा?
रहेगा। मिट कैसे सकता है? बहुत कम हो सकता है, बहुत ज्यादा हो सकता है। बिलकुल नहीं मिट सकता। कम ज्यादा हो सकता है। आज तक वह बहुत ज्यादा रहा है, क्योंकि जिसको हमने रिलीजन डिफाइन किया था, उसमें पासिबिलिटी बहुत थीं। लेकिन दूसरी बात यह है, चार्लटन का फील्ड एकदम समाप्त भी हो सकता है, वह तभीजैसे मेरी धारणा जो है, मेरी धारणा यह है कि यह बिलकुल टोटली इंडिविजुअल एक्सपीरिएंस है। जब मैं यह कहता हूं कि टोटली इंडीविजुअल एक्सपीरिएंस है, तो मैं यह कहता हूं कि रिलीजस आर्गनाइजेशन की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जब इंडिविजुअल एक्सपीरिएंस है, तो आर्गनाइजेशन बिलकुल ही गलत बात है। चार्लटन जिंदा रह सका, क्योंकि आर्गनाइजेशन थे। आर्गनाइजेशन के बिना चार्लटन जिंदा नहीं रह सकता। पुरोहित की कोई जरूरत नहीं है, पुजारी की कोई जरूरत नहीं है। चार्लटन जिंदा रह सका, क्योंकि पुुजारी और पुरोहित की जरूरत थी। गुरुडम की कोई जरूरत नहीं है। गुरु की कोई जरूरत नहीं है। चार्लटन जिंदा रह सका, क्योंकि गुरु की जरूरत है। तो हम उधर से खत्म कर सकते हैं, चार्लटन को। लेकिन फिर भी एक संभावना यह है कि एक आदमी यह कह सकता है कि मुझे अनुभव हुआ है, आप मानें या न मानें! लेकिन वह आपके साथ चार्लटन होकर करेगा क्या! अगर मैं किसी का गुरु नहीं हूं, मंदिर का पुजारी नहीं हूं, और कोई भगवान नहीं हूं, कोई तीर्थंकर-पैगंबर नहीं हूं और मैं यह कहता हूं कि मुझे ज्योतिषी अनुभव हुआ है परमात्मा का। आप कहते हैंहम मानते हैं या हम नहीं मानते। बात खत्म। इससे ज्यादा कुछ मामला नहीं है।
दुनिया से, धर्म से, पाखंड तभी खत्म होगा, जब हम धर्म को व्यक्तिगत अनुभव का तीव्रतम प्रभाव दे देंगे। जब तक हम संगठन में हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई यह चलाएंगे, तब तक चालर्टन खत्म नहीं होगा। क्योंकि मजा यह है न, आज भी, आज भी जैन का मुनि हिंदू को थोड़े ही मुनि मालूम पड़ता है! न मुसलमान का फकीर जैन को मुनि मालूम पड़ता है, वह तो उसकी अपनी धारणा में जो फिट बैठता है, वह मुनि मालूम पड़ता है। एक आदमी पट्टी बांधे हुए है मुंह पर, तो पट्टी बांधने वाले को लगता है कि यह आध्यात्मिक हो गया।
लेकिन मैं तो सारे चिह्न छीन लेना चाहता हूं। न पट्टी की कोई जरूरत है, न आध्यात्मिक आदमी को कोेई खास वस्त्रों की जरूरत है, न गेरुए वस्त्रों की जरूरत है। आध्यात्मिक आदमी को बाहर से पहचानने का कोई उपाय नहीं छोड़ना चाहता। रह जाएगा इसलिए। फिर आखिर में मामला उसका अपना रह जाता है निजी, कि वह समझता है कि मुझे हुआ, कोई तो अपने को धोखा दे रहा होेगा; आपको तो धोखा दे नहीं सकता।
और चार्लटन तभी तक चलता है, जब तक दूसरे को धोखा देना चलता है। नहीं तो क्या प्रयोजन है? अगर मुझे उससे कुछ मिलने वाला है नहीं तो मैं किसलिए परेशान हो जाऊंगा? तो जितना इंडिविजुअल रिलीजन बनेगा दुनिया में, उतना धोखा-धड़ी और पाखंड मिटेगा; वह मिट सकता है। लेकिन एक पासिबिलिटी बाकी है कि एक आदमी कह सकता हैः मुझे ईश्वर मिला और उसको नहीं मिला हो। लेकिन इससे क्या बनता बिगड़ता है किसी का!
और इसलिए मैं आर्गनाइजेशन के अत्यंत विरोध में हूंरिलीजस आर्गनाइजेशन के। और सब तरह के आर्गनाइजेशन हो सकते हैं, रिलीजस आर्गनाइजेशन नहीं होना चाहिए। और दुनिया से जितनी जल्दी हिंदू, मुसलमान और सेक्ट्स की यह जो आर्गनाइजेशन की स्थिति है टूट जाए, उतनी आदमियत ज्यादा रिलीजस हो सकेगी। यानी इस शरारत की वजह से वह चालर्टन जो है, बहुत फायदा उठा रहा है, और अकारण फायदा उठा रहा है, जिसका कोई मतलब नहीं है।
अभी मैं जबलपुर था। एक दिगंबर मुनि हैं, जैन दिगंबर...। अब वे दूसरों को सिर्फ एक पागल आदमी मालूम पड़ते हैं, कि नंगे चले जा रहे हैं सड़क पर, लेकिन दिगंबर को लगते हैं कि वे भगवान हैं। बीच रास्ते पर खड़े होकर, हजारों आदमियों के सामने उन्होंने बाल उखाड़े, केश लुंच करते हैं। जैन दिगंबर काटता नहीं बाल, हाथ से उखाड़ता है। अब दूसरों को लग रहा है कि पैथालाजिकल है यह मामला। यह क्या पागलपन है! और इसको इतना शोरगुल और बैंड-बाजा बजा कर करने की क्या जरूरत है? आपको अपनी हजामत जैसी भी करनी हो आप करिए, लेकिन बीच रास्ते पर खड़े होकर और दस हजार लोगों को इकट्ठा करके बाल उखाड़ने का...! दूसरे समझ रहे हैं कि यह सब शरारत, बेवकूफी की बातें हैं, लेकिन जैन स्त्रियां आह भर रही हैं कि अरे, अरे इतना त्याग! अब यह जो मामला है न, जब तक हम इसको एक सोशल घटना बनाए हुए हैं, तब तक जो आदमी बाल उखाड़ सकता है, जो आदमी नंगा खड़ा हो सकता है, वह आथेंटिक हो गया। और करना क्या है। और जांचने का उपाय क्या है। इससे भीतर क्या हुआ है?
मैं इतने साधुओं से मिला हूं, मैं इतना हैरान हुआ हूं कि हमारा साधु हमारे आम आदमी से भी साधारण है। उतना भी इंटेलिजेंस नहीं है उसके पास। और सौ में से नब्बे परसेंट साधु तो इडियट की हालत में हैं। बल्कि सच बात है कि वह इडियट है, इसलिए साधु बनने में उसको आसानी पड़ गई है, नहीं तो बन नहीं सकता।
एक बुद्धिमान आदमी को कोई कहे कि तुम बाल उखाड़ो सड़क पर खड़े होकर, तो वह पच्चीस दफे सोचेगा, लेकिन इडियट कुछ नहीं सोचेगा। वह कहेगा, ठीक है। अगर इससे मुनि बनता है, तो वह उखाड़ देगा बाल एक बुद्धिमान आदमी सोचेगा कि उसको कितना खाना जरूरी है कि एक महीने भर वह उपवास कर सकता है? सवाल नहीं है। यह जो हमने अभी स्थिति बना दी है, क्योंकि हमने बाहर से मापने के साधन बना दिए और सोशल फिनामिना बना दिया। बहुत धोखाधड़ी खड़ी हो गई है, लेकिन धोखाधड़ी टूट सकती है।
आपका मिशन यह शुरू हुआ, तो दिस वा.ज इन दि शेप ऑफ रिबेलियन आर इट वा.ज आउट ऑफ कनविक्शन?
आउट ऑफ कनविक्शन। और आउट ऑफ कनविक्शन में बिलीफ आना शुरू हुआ। मुझे कुछ चीजें सोचने, विचारने, प्रयोग करने, अनुभव करने से दिखाई पड़नी शुरू हुईं और मुझे लगा कि ये चीजें इतनी जरूरी हैं कि मुझे किसी को कह देना चाहिए। हो सकता है उसके काम आ जाएं। वह मैंने कहना शुरू कर दिया। और तब जो मैं कह रहा था, वह कांफ्लिक्ट में आ गया उसके, जो कि कहा गया है। और रिबेलियन जैसा मालूम होने लगा।
रिबेलियन में मुझे रस नहीं है, तोड़-फोड़ में मुझे रस नहीं है। लेकिन तोड़-फोड़ के बिना कोई रास्ता ही नहीं है। क्योंकि जो मुझे दिखाई पड़ता है, वह उससे भिन्न है और उसके प्रतिकूल है। वह टूटे, तो ही इसको गति मिल सकती है, नहीं तो गति नहीं मिल सकती। अगर मुझे लगता है कि धर्म वैयक्तिक है, तो फिर मुझे चोट करनी पड़ेगी कि यह जो संगठन है, धर्म है, मंदिर है, मस्जिद है, कल्ट है, चर्च है, यह गलत है।
तो इस प्रकार गलत कहने से लोग क्या नाराज नहीं होंगे?
नाराज तो वे बहुत हैं मुझ पर। नाराज तो भारी हैं। लेकिन नाराजगी उनकी इम्पोटेंट साबित हो रही है। क्योंकि लोग, जिनसे मैं बात कर रहा हूं, वे मुझसे सहमत होते हुए मालूम पड़ रहे हैं।
अभी वेदांत सम्मेलन था एक अमृतसर में। कोई बीस हजार लोग सम्मेलन में थे। कोई सौ संन्यासी इकट्ठे थे। जब मैंने ये सारी बातें कहीं, तो वहां एक विवाद बन गया, तीन दिन। तो वे सारे संन्यासी मेरे खिलाफ बोल रहे हैं। मैं अकेला हूं, क्योंकि मुश्किल है किसी का मेरे साथ खड़ा होना। लेकिन अंतिम दिन मैंने लोगों से कहा कि मुझे पता होना चाहिए कि परिणाम क्या हुआ? मेरी बात आपकी समझ में पड़ी या नहीं? तो मैं हाथ उठवाना चाहता हूं, ताकि इन संन्यासियों को पता चले कि उनकी बात कितनी समझी गई, मेरी कितनी समझी गई! तो बीस हजार हाथ उठे। मुश्किल से दस-पांच हाथ होंगे, जो नहीं उठे। तो मुझे लोक-मानस तक तो बात पहुंचानी है। तो लोक-मानस और धर्म के बीच में जो एजेंटों का जाल है, उसका तो न्यस्त स्वार्थ है। मुझे ऐसा लगता है, उसको भी मेरी बात तो समझ में पड़ती है। क्योंकि जब अकेले में वह मुझसे मिलता है, तो वह इनकार नहीं करता। लेकिन जब वह बाजार में मुझे मिलता है, तो वह इनकार करता हुआ मालूम पड़ता है। वह जब मुझे सुनता है, तब राजी मालूम होता है। घर लौटते से वह इनकार में पड़ जाता है। क्योंकि उसका न्यस्त स्वार्थ भी है। धर्म जो है अकेली धार्मिक बात नहीं रह गई है। धर्म के साथ इकॉनामिक और सारे मामले जुड़े हुए हैं।
अब एक ब्राह्मणों का वर्ग है पूरा का पूरा, संन्यासियों का वर्ग है पूरा का पूरा। अब इस संन्यासी को अगर यह बात ठीक भी समझ में पड़ जाए कि धर्म वैयक्तिक है, तो भी यह समाज में जीता हैयह संन्यासी। इसका भोजन-कपड़ा सब समाज पर है। अगर धर्म वैयक्तिक है, तो तुम उठो यहां से, भागो! तुम्हें यहां खड़े रहने की जगह नहीं रह गई। तो अब इसके दूसरे स्वार्थ भी हैं।
तो यह तो मुझे समझ में आता है कि सत्य तो हमेशा समझ में आ सकता है, अगर उसमें कोई सचाई है। और किसी आथेंटिक एक्सपीरिएंस से वह आया है, तो समझाया जा सकता है। लेकिन वेस्टेड इनट्रेस्ट हैं, वे तकलीफ देते हैं, वे बाधा डालते हैं। वे बाधा हमेशा डालेंगे। और इसलिए रिबेलियन की शक्ल हो जाती है, अन्यथा रिबेलियन की कोई जरूरत भी नहीं है।
अब वे क्या कोशिश करेंगे? यह कि मेरा गांव में आना ही न हो पाए, मैं बोल ही न सकूं। सभा के लिए हाल न मिले। यह न हो...। वे ये सारी कोशिश करेंगे। और इसका परिणाम? इसका परिणाम, इसकी वजह से रिएक्शन खड़ा होना शुरू हो जाता है वहां। और जो लोग मेरे पास आते हैं, वे फिर वे लोग आ पाते हैं सबसे पहले मेरे पास, जिनका रिबेलियस माइंड है। दूसरा आदमी मेरे पास नहीं आ पाता। तो वे खड़ी कर रहे हैं तरकीब, जिससे कि वह एक रिबेलियन का रुख ले लें, अन्यथा मेरे लिए रिबेलियन का कोई सवाल नहीं है। यानी मेरे मन में शांति की जगह है, क्रांति की कोई जगह नहीं है। लेकिन शांति आ नहीं सकती। वह जो चारों तरफ, जो जोर बना हुआ है...। इसलिए क्रांति की बात करनी एकदम जरूरी हो गई। उसे तोड़े बिना कोई रास्ता नहीं है।
बंबई और अन्य जगहों में आपको सुनने के लिए किस-किस वर्ग के लोग आते हैं?
इसमें कई तरह के लोग हैं। बड़ा वर्ग तो उन लोगों का है जिनके पास संपत्ति की सुविधा है, और संपत्ति की सुविधा के कारण जिन्हें परेशान होने की, बेचैन होने की सुविधा है। बड़ा वर्ग तो उनका है। दूसरा वर्ग उनका है जिनको कोई मानसिक तकलीफ है, या कोई दूसरी परेशानी है, जिसको हल करने के लिए वे ध्यान और मेडिटेशन, उसमें उत्सुक होना चाहते हैं। तीसरा वर्ग उन लोगों का है जो जीवन के प्रति सोचते, विचारते हैं और जानना चाहते हैं कि क्या सोचा जा सकता है जीवन के बाबत? जिनके मन में अतीत के प्रति अब कोई लगाव नहीं रह गया है, और भविष्य जिन्हें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। पुराने मूल्य जिनके गिर चुके हैं और नये मूल्य बन नहीं रहे हैं। वे टटोल रहे हैं। एक वर्ग उनका है। खासकर युवकों का, युवतियों का वर्ग उनका है, जिनको पुराने की कोई पकड़ नहीं है और नये की कोई समझ नहीं है। और उनको एक बेचैनी है कि वे कहां खड़े होंगे! एक उनका वर्ग है। इस तरह के सारे वर्ग हैं।
लेकिन धीरे-धीरे जब वे मुझे सुनते हैं, तो उनका यह भेद धीरे-धीरे गिरता चला जाता है। जितना मुझे सुनते हैं, उतना यह भेद गिरता चला जाता है। और तब एक नया ही वर्ग इन सबके बीच से पैदा हो जाता है, चाहे वह किसी कारण से मेरे पास आया हो। उसका फर्क आने में था। आ जाने के बाद मेरे निकट फर्क गिरता चला जाता है धीरे-धीरे, फिर जीवन की खोज और जीवन में, जीवन के सत्य को जानने की एक आकांक्षा ही अंत में उसके साथ रह जाती है। तो आने वाला वर्ग है, और मेरे पास ठहर जाने वाला वर्ग है। जो आता है, वह तो इतने कारणों से आता है। लेकिन जो ठहर जाता है, उसका फिर एक ही कारण रह जाता है कि सत्य को जानने की, जीवन को जानने की उसकी आकांक्षा प्रबल हो जाती है। वह मेरे पास रुक जाता है।
बहुत से लोग आपको ही आदर्श मान कर आपकी प्रतिमा खड़ी कर सकते हैं, और खड़ी भी कर रहे हैं। इस बारे में आपका क्या कहना है?
हां, यह होता है, यह हो सकता है। उसका मुझे ध्यान है। उसका मुझे ध्यान है। इतने से कोई हल नहीं है, न कोई प्रयोजन है। इसलिए मैं अपने प्रति आइडियल न बने, इसके लिए सतत सचेष्ट हूं और सब तरह से उसे तोड़ने की कोशिश भी करता हूं। यानी मैं जिस ढंग का जीवन जी रहा हूं, उस जीवन में मैं बहुत सुविधा से, एकदम परमात्मा और तीर्थंकर बन सकता हूंथोड़ी होशियारी से, थोड़ी व्यवस्था से। लेकिन मैं जान कर नासमझी करता हूं और जगह-जगह से ऐसा खड़ा होने की कोशिश करता हूं, जैसे मैं एक साधारण आदमी हूं। और वह चेष्टा है ताकि मेरी प्रतिमा न बन पाए। मेरी प्रतिमा बनाने की कोई जरूरत नहीं है। मैं जो कह रहा हूं, अगर वही आपके विवेक को उचित लगे, तो ही स्वीकृत हो। मैं स्वीकृत न हो जाऊं। यानी ऐसा न हो जाए कि मैं स्वीकृत हूं, इसलिए जो मैं कहता हूं, वह ठीक है। उससे तो मैं पूरे वक्त सचेत हूं, उसको तोड़ने की कोशिश करता हूं।
अब मैं नंगा भी खड़ा हो सकता हूं, लंगोटी भी लगा सकता हूं। वही उचित होगा, अगर प्रतिमा खड़ी करनी है। उचित होगा कि मैं पैदल चलूं; वही उचित होगा। वह आसान भी है, स्वास्थ्यपूर्ण भी है, स्वास्थ्यवर्धक भी; सब तरह से अच्छा भी है। लेकिन वैसा मैं नहीं चलूंगा। अच्छा होगा कि मैं एक ही बार खाना खाऊं। अच्छा होगा कि मैं झोपड़ो में ठहरूं। अच्छा होगा कि मैं आपको पास न आने दूं; दूर एक फासला बना कर रखूं। वह मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। मोस्ट आर्डिनरी मैन की तरह कैसे जीना, उसकी सारी चेष्टा कर रहा हूंएक बिलकुल सामान्य आदमी की तरह, ताकि मेरी वजह से मेरी कोई बात आपको स्वीकार न हो। अगर बात स्वीकार हो, तो बात की वजह से स्वीकार हो। मैं तो एक मोस्ट आर्डिनरी आदमी हूं। मुझसे कुछ बल नहीं है मेरी बात को।
मेरी तरफ से जो चेष्टा है, मेरी तरफ से जो चेष्टा हैमेरी तरफ से चेष्टा यह है कि मैं एक साधारण-जन हूं, एक साधारण-जन की तरह मुझे जीना है। ताकि मैं असाधारण आपको दिखाई न पडूं। और मेरे असाधारण दिखाई पड़ने की वजह से मेरा विचार आपको कीमती न मालूम पड़े। अगर किसी दिन मैं आपको असाधारण दिखाई भी पडूं, तो मेरे कारण नहीं, मेरे विचार के कारण। अगर किसी दिन आपको दिखाई भी पडंू, तो वह जो मेरा विचार है, उसके कारण। तो हीरो वर्शिप का तो मैं दुश्मन हूं; उसको खड़ा नहीं होने देना चाहता, क्योंकि अंततः कल्ट उसी के पास खड़ा होता है। आर्गनाइजेशन उसी के पास खड़ा होता है।
तो हीरो न बन सकूं, उसकी सारी चेष्टा मेरी है। लेकिन मेरी चेष्टा अकेली पर्याप्त नहीं है। दूसरे फिर भी बना सकते हैं। आदमी का माइंड इतनी कंडीशन से भरा हुआ है कि वह किसी भी तरह के आदमी को हीरो बना सकता है। वह महावीर को हीरो बना सकता है, वह कृष्ण को भी हीरो बना सकता है। कृष्ण, जो कि औरतों से घिरा है! वह इसलिए हीरो बना लेगा कि इतनी औरतों से घिरा जो आदमी है, वह जरूर परम ब्रह्मचारी होना चाहिए। वह महावीर को हीरो बना लेगा कि वह स्त्रियों को छोड़ कर भाग गया है। नग्न सड़क पर खड़ा हो गया है। जिसने स्त्रियों का बिलकुल त्याग कर दिया है, वह परम ज्ञानी है! आदमी तो बिलकुल विरोधों के बीच भी बना सकता है। वह तो यहां तक बना सकता है कि वह किसी आदमी को इसलिए एक्स्ट्रा आर्डिनरी कह सकता है कि वह इतना आर्डिनरी है, इसीलिए। वह तो आदमी की कठिनाई है।
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