दूसरा-प्रवचन-(मैं तुमसे बोल रहा हूं)
प्रश्न-सार

02-लगातार बारह वर्षों तक सत्य-भाषण से क्या मुक्ति उपलब्ध होती है?
03-मेरा तथा अन्यों का दुख ओशो कैसे जान लेते हैं, और प्रवचन से ही सभी संदेहों और प्रश्नों का समाधान कैसे मिल जाता है?
पहला प्रश्नः तड़फते-तड़फते मेरा सीना छलनी हो गया है और मैं एक घाव हो गई हूं; मगर जागने और होश में आने की फिर भी कोई इच्छा नहीं है। क्या कारण है? और गहरा डो.ज दे ही डालिए।
अतिशयोक्ति से बचना जरूरी है। अतिशयोक्ति असत्य का ही एक रूप है..छिपा हुआ, दिखाई नहीं पड़ता। और अतिशयोक्ति को जिसने भी जीवन में पकड़ लिया, उसकी कोई भी समस्या हल होनी असंभव हो जाएगी; क्योंकि समस्या इतनी बड़ी होती ही नहीं जितनी बड़ी अतिशयोक्ति के कारण दिखाई पड़ती है। जहां सुई से काम हो जाए वहां तलवार की तो कोई जरूरत होती नहीं। लेकिन अगर अतिशयोक्ति के कारण तुम्हें ऐसे दिखाई पड़े कि तलवार की जरूरत है तो जो काम सुई से हो सकता था वह तलवार से न होगा। सुई तो जोड़ती, तलवार और तोड़ देगी, सुई से तो सीना हो जाता, तलवार से तो और कपड़े फट जाएंगे।
धर्म के मार्ग पर भी अतिशयोक्ति एक बहुत बड़ा उपद्रव है, और मन का आग्रह है अतिशयोक्ति का। मन सभी चीजों को बड़ा करके देखता है। न तो तुम्हारा दुख इतना बड़ा है जितना बड़ा करके तुम देखते हो; न तुम्हारी समस्याएं इतनी बड़ी हैं जितनी बड़ी करके तुम देखते हो।
मन सभी चीजों को मैग्निफाई करता है, क्योंकि अहंकार बड़ी चीजों में रस लेता है। दुख की बात होगी तो तुम दुख के हिमालय की चर्चा करोगे। जरा सी अशांति हो जाएगी कि आंधी और तूफानों को ले आओगे। इस बचकानी आदत से बचो। क्योंकि तब प्रारंभ से ही यात्रा गलत हो गई; समाधान का उपाय न होगा।
मैं एक घर में मेहमान था। मेजबान का छोटा सा बच्चा भागा हुआ बाहर से भीतर आया, और उसने पिता से आकर कहा कि मेरे पीछे सैकड़ों शेर लग गए..बबर शेर! बाप ने कहाः ठीक से बता। शेर यहां सड़क पर कहां मिल जाएंगे? बबर शेर तुझे कहां मिल गए?
लड़का थोड़ा चैंका। उसने कहाः शेर तो नहीं थे, कुत्ते ही थे।
बाप ने कहाः और जरा ठीक से बता। सैकड़ों कुत्ते अचानक कहां से आ जाएंगे?
उसने कहाः सैकड़ों तो नहीं थे, एक ही था।
बाप ने पूछाः वह तेरे पीछे लगा था, तुझ पर हमला किया था?
उसने कहाः वह हमला क्या करेगा? पड़ोसी का लंगड़ा कुत्ता! मगर वह पीछे-पीछे आ रहा था।
बाप का नाराज होना स्वाभाविक था। उसने कहाः दस करोड़ दफे तुझसे कह चुका हूं कि अतिशयोक्ति मत किया कर।
लड़का तो चला गया। मैंने बाप से पूछाः इस लड़के की उम्र कितनी है? उसने कहा की होगी कोई तीन साल की।
तो मैंने कहाः अगर इसके जन्म से लेकर तुम एक लाख बार कह रहे हो तब कहीं तीन साल में दस करोड़...। अतिशयोक्ति तुम उसकी रुकवाना चाहते हो; अतिशयोक्ति तुम भी कर रहे हो, और इससे ज्यादा कर रहे हो। शायद उसकी अतिशयोक्ति में तो थोड़ा सच है..थोड़ा सच यह है कि यह डर गया है; कुत्ता ही सही, लेकिन इसको डर शेर का लग गया होगा। यह घबड़ा गया है; घबड़ाहट में हजारों-सैकड़ों कर डाले इसने; कुत्ते का शेर हो गया। लेकिन इसकी अतिशयोक्ति में भी थोड़ा सच है; तुम्हारे दस करोड़ में तो इतना भी सच नहीं है। पर अपनी अतिशयोक्ति दिखाई नहीं पड़ती। दूसरे की अतिशयोक्ति सरलता से दिखाई पड़ जाती है।
पूछा हैः ‘तड़फते-तड़फते मेरा सीना छलनी हो गया है।’
अगर सच में ही इतना तड़फा हो कि सीना छलनी हो जाए तो परमात्मा से मिलना हो ही जाता है; क्योंकि तड़फ ही तो उसकी प्रार्थना है और तड़फ ही तो उसकी पूजा है। और जो इतना तड़फा हो कि सीना छलनी हो जाए...।
थोड़ा सोचना कि छलनी का मतलब क्या होता है। छेद ही छेद हो गए हों जहां, कुछ भी पकड़ने की सुविधा न रह गई हो। छलनी कुछ भी सम्हाल नहीं सकती; भरो पानी, सब बह जाता है। सीना छलनी हो जाने का मतलब यह होता है कि अब कुछ भी पकड़ने की सामथ्र्य न रही; कोई आसक्ति न रही; किसी भी चीज को परिग्रह करने का उपाय न रहा। अहंकार भी नहीं भर सकता, सीना छलनी हो जाए तो, क्योंकि वह भी बह जाएगा; वासना नहीं भर सकती; महत्वाकांक्षा नहीं भर सकती; ईष्र्या, घृणा नहीं भर सकती; मोह आसक्ति, माया-मत्सर, कुछ भी नहीं भर सकता।
सीना छलनी हो गया, तो तुम शून्य हो जाओगे। सीना छलनी हो जाए, तुम शून्य हो जाओ, तो पूर्ण से मिलने में बाधा और क्या है?
नहीं, लेकिन कविता करना एक बात है; जीवन के सत्यों को समझना बिल्कुल दूसरी बात है। लंगड़े कुत्ते को देख कर शेर बबर याद आ गया है।
‘तड़फते-तड़फते मेरा सीना छलनी हो गया है।’
और ध्यान रखना, अच्छे शब्दों में खतरा है, सुंदर शब्दों में खतरा है; क्योंकि एक शब्द के पीछे दूसरा शब्द बंधा चला आता है। तुमने कविता शुरू की; शुरू भला तुमने की हो, अंत तुमसे नहीं होता। तुमने एक पंक्ति कविता की बना ली, दूसरी पंक्ति पहली पंक्ति से अपने आप पैदा हो जाती है। इसे थोड़ा मन में सोचना और समझना और विश्लेषण करना।
जहां तुम कल्पना में उतरना शुरू हुए कि अनंत कल्पनाओं के द्वार खुल जाते हैं। फिर सब तरफ से कल्पनाएं बहना शुरू हो जाती हैं। मनुष्य का मन तो सपने देखने में बड़ा कुशल है। झूठ तो उसकी एकमात्र कला है। और तो मन कुछ जानता ही नहीं। सत्य से तो उसका कोई संबंध नहीं है।
‘और मैं एक घाव हो गई हूं।’
अगर तुम घाव ही हो जाओ, अगर तुम्हारे प्राण सिर्फ पीड़ा ही पीड़ा से भर जाएं, तो फिर और करने को बचा क्या? फिर और तुम करोगे भी क्या? फिर भी अगर परमात्मा न मिले तो उसका एक ही अर्थ होता है कि परमात्मा होगा ही नहीं। तो ऐसी चित्त-दशा के दो ही अर्थ हो सकते हैं। या तो परमात्मा है ही नहीं, क्योंकि अब और क्या किया जा सकता है...? जो करना था वह सब किया जा चुकाः तुम घाव हो गए, सीना छलनी हो गया! और या फिर परमात्मा तो है; यह घटना तुम्हें नहीं घटी है। इसकी तुमने कल्पना कर ली है। हालांकि तुम्हारा मन भी यही होगा कि जहां तक तो परमात्मा ही न होगा; क्योंकि अपने पर शक नहीं आता, परमात्मा तक पर शक लाना आसान है। मेरा सीना तो छलनी हो ही गया है, मैं तो घाव हो ही गया हूं..मन यही कहेगा, इससे साफ है कि परमात्मा नहीं है। इसलिए तो नास्तिकता पैदा होती है।
नास्तिकता अपने पर भरोसा है..जरूरत से ज्यादा, अतिशयोक्तिपूर्ण। नास्तिकता यह कहती है, मैं तू हूं, परमात्मा नहीं है। आस्तिक कहता है, मैं नहीं हूं, परमात्मा है। बस तीर को जरा सा बदल लेना है। नहीं का तीर अपने पर लगा लेना है। वही तीर परमात्मा पर लग जाए..तीर वही हैः मैं-हूं, परमात्मा नहीं है; अपने होने को तुम बड़ा करके देख लो और परमात्मा के सारे होने को पी जाओ, उसको भी अपने अहंकार में जोड़ लो..तो नास्तिक। और तुम परमात्मा को इतना होना दे दो कि अपना होना भी उसी में सम्मिलित हो जाए, उसके अतिरिक्त अपना होना न बचे..तो आस्तिक।
और दो ही तो विकल्प हैंः या तो अहंकार का भरोसा है...।
यह सब भाषा अहंकार की है। तुम यह तो मान ही नहीं सकते कि तुम्हारी तरफ से कोई कमी रह गई है। परमात्मा अगर नहीं मिल रहा है तो परमात्मा की तरफ से ही कमी होगी, अगर नहीं मिल रहा है तो कठोर होगा; अगर नहीं सुन रहा है तो बहता होगा; अगर नहीं दौड़ा चला आता है तुम्हारे घाव को देख कर तो उसके पास कोई हृदय नहीं है। अगर इसी से तुम चलते रहे..इसी तर्क पर, तो एक न एक दिन तुम कहोगे कि मैं तो .जार-.जार, छलनी-छलनी हो गया, परमात्मा कहीं है नहीं। तुम्हारे भीतर नास्तिक चल रहा है; नास्तिक पैदा होने की तैयारी कर रहा है। नास्तिक तुम्हारे गर्भ में छिपा है। अतिशयोक्ति में असत्य छिपा है, असत्य में नास्तिक छिपा है। इससे जागो।
तो, पहली बात यह है कि हजार छेद न हों तो हजार छेदों की बात मत करो। अगर तुम आस्तिक से पूछो, ठीक आस्तिकता से, तो वह यही कहेगा, मैंने तुझे पाने के लिए कुछ भी तो नहीं किया। अगर दो फूल चढ़ा दिए तो उसमें भी मेरा क्या है; तेरे ही फूल थे; तुझ पर चढ़े ही थे, उनको तोड़ लाया। कुछ बड़ा उपक्रम नहीं हो गया है। अगर तेरे सामने बैठ कर दो आंसू गिरा दिए तो तेरी ही आंखें थीं। तेरे ही आंसू थे तेरी ही चीज थी गोविंद, तुझी को समर्पित कर दी। मेरा इसमें क्या है?
आस्तिक तो अपने हृदय को भी उतार कर रख देगा परमात्मा के सामने; गर्दन भी उतार कर रख देगा, तो भी यह कहेगा कि मैं कौन हूं! तूने ही जन्म दिया था, तूने ही वापस ले लिया। े
आस्तिक अपने में कर्तत्व नहीं देखेगा; देखेगा परमात्मा को ही। और ऐसी घड़ी में कोई द्वार बंद कैसे रह सकता है? कभी नहीं रहा है। कोई तुम्हारे लिए कोई विशेष नियम थोड़े ही लागू करना होगा? एक भी छेद हो जाए हृदय में तो खाली हो जाओगे। हजार छेदों की जरूरत थोड़े ही है। नाव एक छेद से डूब जाती है; कोई छलनी थोड़े ही होना पड़ता है।
मैं तुमसे कहता हूं, अभी एक भी छेद नहीं हुआ। यह छेद की बातचीत तुम्हारी कल्पना होगी। यह भी तुम्हारे मन का मजा है। और तरह के मजे देख लिए हैंः कि मेरे पास बहुत धन है, मेरे पास बड़ा मकान है, बड़ा पद है; अब उससे तुम ऊब गए हो, अब तुम एक नई महत्वाकांक्षा में लगे हो, मगर खेल वही है कि मेरे हृदय में हजार-हजार छेद हैं; किसी के हृदय में इतने छेद परमात्मा की पीड़ा से नहीं हुए; मैं छलनी हो गया! अगर कोई दूसरा दावा करेगा की मेरे छेद तो गिनो, तुमसे ज्यादा हैं, तो बड़ी पीड़ा होगी, दुख लगेगा। वही महत्वाकांक्षा, वही अहंकार नये रूपों में पकड़ रहा है। तो ऐसे यह मूढ़ता कभी भी न टूटेगी।
तो पहली बात तो गौर से देखो, फिर से सोचना..‘तड़फते-तड़फते मेरा सीना छलनी हो गया है।’
क्या तड़पे हो? धन के लिए भी जितने तड़पे हो उतने परमात्मा के लिए नहीं तड़पे। कामवासना के लिए जितने तड़पे हो, उतने राम के लिए नहीं तड़पे। अगर अभी जेब कट जाए तो जितने रोओगे उतने भी परमात्मा के खोने से नहीं रोए हो; कि अभी मकान गिर जाए तो जैसा छाती पर दुख का पहाड़ गिरेगा, ऐसा मंदिर के गिर जाने से कब पीड़ा हुई है? अभी छोटा सा बच्चा तुम्हारा चल बसे, या पत्नी चल बसे, या पति चल बसे, तो जैसे दहाड़ मार कर तुम रोओगे, ऐसे तुम परमात्मा के खो जाने से रोए हो?
‘तड़फते-तड़फते मेरा सीना छलनी हो गया है।’... फिर से सोचना। कविता करनी हो तो कोई हर्जा नहीं है।
यूनान में एक बहुत बड़ा विचारक हुआ..प्लेटो। उसने एक ऐसे समाज की कल्पना की है..भविष्य के एक उटोपिया की, जहां सब सुंदर होगा; मगर एक उसने अजीब बात अपने उस उटोपिया में, रिपब्लिक में लिखी है कि उस दुनिया में कवि बिल्कुल नहीं होंगे। प्लेटो..के कल्पना के लोक में रामराज्य में कवियों को कोई जगह नहीं है। शिष्यों ने पूछा कि यह आप क्या कह रहे हैं; यह तो हम सोच ही नहीं सकते..और सब होगा, सब सुंदर, और सुंदर के पुजारी न होंगे?
प्लेटो ने कहाः काव्य एक झूठ है। और कवियों से ज्यादा झूठे लोग पाना मुश्किल है।
इसमें सचाई है। सौ कवियों में निन्यानबे झूठे होते हैं, और एक जो झूठा नहीं होता उसको हमने ऋषि कहा है, कवि नहीं कहा है। हमने फर्क किया है इस मुल्क में। उपनिषद के कवियों को हमने ऋषि कहा है, क्योंकि वे वही कह रहे हैं जो उन्होंने जाना है। और तुम्हारे कवि-सम्मेलनों में जो कवि इकट्ठे हो रहे हैं, उनका जानने से कोई लेना देना नहीं है। वे कल्पना करने में कुशल हैं, सपने संजोने में कुशल हैं। उनकी कविताएं सिवाय झूठ के और कुछ भी नहीं है। तुम्हें भी प्रीतिकर लगती हैैं उनकी कविताएं, क्योंकि झूठ से झूठ का तालमेल हो जाता है। तुम भी प्रफुल्लित होते हो, क्योंकि ऐसा लगता है, जो तुम कहना चाहते थे वह उन्होंने कह दिया। तुम इतनी सुघड़ता से न कह पाते शायद, उन्होंने ज्यादा सुडौल शब्द चुने, ज्यादा लयबद्ध, ज्यादा संगीतपूर्ण! वे ज्यादा कुशल हैं मात्रा, व्याकरण, काव्य-शास्त्र, छंद में तुम जो कहना चाहते थे वह उन्होंने कह दिया। लेकिन झूठ तुम्हारे भीतर भी घनीभूत है।
प्लेटो ठीक कहता है। मैं भी जानता हूं कि कवि नहीं हो सकते सुंदर लोक में, ऋषि होंगे। वे उतने की ही बात करेंगे जितना है। तुम इंच भर सत्य से हटे कि तुम बहुत दूर हट गए, जमीन-आसमान का फासला हो गया। इंच भर का फासला, जमीन-आसमान का फासला है।
‘तड़फते-तड़फते मेरा सीना छलनी हो गया है।’
फिर से सोचना। अगर ऐसा हो ही गया होता तो कहने वाला भी न बचता।
‘और मैं एक घाव हो गई हूं।’
अगर ऐसा हो ही गया होता तो प्रश्न न उठते; तुम्हारी पीड़ा ही अहर्निश हो उठती।
‘मगर जागने और होश में आने की कोई इच्छा नहीं है।’
इससे सब बात साफ है। क्योंकि जब इतनी पीड़ा हो तो कोई सोया रह सकता है?
कभी तुमने ख्याल किया, सुंदर सपना चलता हो तो नींद नहीं टूटती; लेकिन नाइटमेयर, दुख स्वप्न चलता हो तो नींद टूट जाती है? एक सीमा है दुख के झेलने की। तुम देख रहे हो कि तुम्हारी छाती पर भयंकर यमदूत बैठे हुए हैं..रात सपने में..हाथ में कृपाण उठा ली है, गर्दन पर गिरने ही वाली है, बस तुम पाओगे कि जब वह गर्दन को छूने के ही करीब थी धार उसकी, तभी नींद खुल गई।
एक सीमा है..पीड़ा को झेलने की और सोने की। जब तक तुम पीड़ा को झेलते हो और सोते हो, तब तक समझना कि पीड़ा में भी एक मिठास होगी। पीड़ा भी मीठी होती है। तुम पीड़ित भला सोचते हो कि हो रहे हो, लेकिन पीड़ा नींद तोड़ने वाली नहीं है तो पीड़ा नहीं है।
जब वस्तुतः कोई दुखी होता है तो सपना कैसे टिक सकता है? सपना टूट जाता है। दुख तो दूर की बात है, जरा सा अलार्म बजता है घड़ी का और सपना टूट जाता है। अलार्म इतना व्याघात उत्पन्न कर देता है। और तुम्हारा जीवन घाव हो गया है, अभी भी अलार्म नहीं बजता है? तुम्हारा सीना छलनी हो गया और अभी तक नींद से जगने की आकांक्षा पैदा नहीं होती? आकांक्षा का सवाल कहां है! इतनी पीड़ा में तो नींद टूट ही जाएगी। नींद के लिए सुविधा चाहिए।
तुमने ख्याल किया होगा, जरा सा कंकड़ पड़ा हो विस्तार पर तो नींद नहीं आती। छोड़ो कंकड़, तकिया तुम्हारे रोज की आदत के अनुकूल ऊंचा-नीचा न हो तो नींद नहीं आती। जरा-सी तकलीफ हो तो नींद नहीं आती। और सीना छलनी हो जाए, हृदय घाव बन जाए और नींद से उठने की इच्छा न हो..यह असंभव है।
नहीं, कहीं तुम्हारे स्वयं को देखने में भूल हो गई। देखने की तुमने फिकर ही न की। तुमने तो कविता बनाने की कोशिश की। प्रश्न नहीं लिखा, एक कविता लिख दी है, झूठ लिख दिया है। तुमने अच्छा प्रश्न बनाने की कोशिश की, सच्चा प्रश्न नहीं। तुमने मुझे प्रभावित करना चाहा, अपने को रूपांतरित नहीं। लेकिन तुम्हारी कविताओं से मैं प्रभावित होने वाला नहीं हूं। तुम्हारी कविताएं कूड़ा-करकट हैं, उनको कचरे-घर में फेंक दो। तुमसे सत्य काव्य का जन्म नहीं हो सकता, यह मैं जानता हूं, क्योंकि तुम सत्य नहीं हो। तुम्हारी कविता तुम्हारे अंधेरे जगत का ही हिस्सा होगी।
मगर जगने और होश में आने की फिर भी कोई इच्छा नहीं है! यह सबूत है कि दुख हुआ नहीं। हां यह हो सकता है कि मेरी बात सुन-सुन कर तुम्हें परमात्मा को पाने की लालसा जगी हो; लेकिन संसार से जागने की बात पैदा नहीं हुई है। यह हो सकता है। मुझे सुनो, मैं रोज परमात्मा को पाने का आनंद तुमसे कहे जाऊं। कबीर को सुनो, नानक को, दादू को, फरीद को, बुद्धों को सुनो, मीरा का नाच देखो, चैतन्य के गीत सुनो..तो तुम्हारे मन में एक लोभ उठेगा परमात्मा को पाने का। लेकिन इन लोगों ने लोभ के कारण परमात्मा को नहीं पाया है; इन्होंने तो..जीवन की पीड़ा, जीवन का दुख, जीवन का संताप, इतना गहन हो गया कि इनका हृदय टूट गया, ये जाग गए, नींद उखड़ गई..इन्होंने जाग कर पाया है। जब ये अपने जाग कर पाने की तुमसे बात करते हैं तो तुम्हारे भीतर लोभ का कीड़ा सरकता है; वह कहता है, ऐसा सुख हमें भी चाहिए, ऐसा आनंद हमें भी चाहिए, सच्चिदानंद मैं भी घर में बांध कर लाऊंगा! तब तुम्हारी अड़चन शुरू होती है। तुम इनसे पूछते होः कैसे मिलेगा यह सच्चिदानंद? वे कहते हैंः जागोगे, जीवन का दुख पहचानोगे, जीवन के चुभते कांटे को समझोगे...! तुम कहते होः जागने की तो इच्छा नहीं होती।
वस्तुतः तुम जिसे ईश्वर कहते हो, वह तुम्हारा और एक गहरा स्वप्न है। तुम ईश्वर के नाम से भी सो जाना चाहते हो। संसार की नींद पूरी नींद नहीं है, इसमें बड़ी तकलीफें हैं; तुम परमात्मा की नींद चाहते हो, तकलीफ बिल्कुल ही न हो। तुम्हारा मोक्ष तुम्हारे संसार का ही परिष्कृत रूप है, आखिरी शुद्धतम रूप है। इसलिए तुम्हारा मोक्ष और महावीर का मोक्ष अलग-अलग बातें हैं। तुम्हारे मोक्ष का नाम स्वर्ग है। महावीर के मोक्ष का नाम स्वर्ग नहीं है। स्वर्ग का मतलब है, जिन सुखों को तुम यहां पृथ्वी पर पाना चाहते हो और नहीं पा पाते, उन सबकी तुमने आकांक्षा स्वर्ग में कर ली।
सोचोः जिन्होंने स्वर्ग में कल्पवृक्षों का विचार किया है, वे संसारी लोग ही होंगे।
कल्पवृक्ष का मतलब क्या होता है?
कल्पवृक्ष के नीचे तुम भी बैठना चाहते हो। संसार में भी तुम्हारी चेष्टा यही है कि कल्पवृक्ष मिल जाए। नहीं मिलता; यह संसार की कृपा है कि नहीं मिलता। मिल जाए तो तुम वहीं ढेर हो जाओ सदा के लिए, फिर तुम वहां से हिलो न। तुम्हारी भी आकांक्षा तो यही है कि श्रम न करना पड़े और फल मिल जाए। कल्पवृक्ष का मतलब इतना है कि वहां तुम बैठ जाओ, आकांक्षा करो, पूरी हो जाती है; आकांक्षा और पूर्ति में जरा भी फासला नहीं होता। कृत्य कुछ भी नहीं करना पड़ता; बस कामना की और फल मिला।
तो स्वर्ग में तुमने कल्पवृक्ष बनाया है। वह तुम्हारी वासनाओं का वृक्ष है।
मुसलमान मानते हैं कि स्वर्ग में शराब के चश्मे बह रहे हैं। हिंदुओं का कल्पवृक्ष है। मुसलमानों के शराब के चश्मे हैं। यहां शराब वर्जित है और वहां शराब के झरने बह रहे हैं। वहां कोई बनानी भी नहीं पड़ती। वहां पानी पीने को है ही नहीं, शराब ही है। उसी में नहाओ, उसी में धोओ, उसी में डूबो, तैरो, और कोई पाबंदी नहीं है।
आदमी की वासना उसके स्वर्ग को बनाती है। वहां सुंदर स्त्रियां हैं जिनके शरीर से पसीना नहीं बहता और जो कभी बूढ़ी नहीं होतीं। उसकी उम्र सोलह पर ही टंगी रह जाती है, उससे आगे नहीं चलती; सोलह पर ही घड़ी बंद हो जाती है। उर्वशी की उम्र मालूम है, कितनी है? अप्सराएं बस सोलह पर रुक गई है, उससे आगे नहीं जातीं।
यह किन कामनाग्रस्त लोगों ने इनकी कल्पना की होगी, थोड़ा सोचो। यह किन्हीं ऋषियों का अनुभव है? यह किन्हीं बुद्धों की प्रतीति है? यह तुम्हारी वासना है।
और यहां तक तुम्हारी सीमा पहुंच जाती है कि ऐसे लोग भी हैं जमीन पर जिन्होंने स्वर्ग में न केवल सुंदर स्त्रियों की कल्पना की है सुंदर छोकरों की भी कल्पना की है, होमोसेक्सुअलिटी का भी इंतजाम किया हुआ है। अब परवर्शन और विकृत और क्या हो सकती है!
तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारी ही छाया है। महावीर का मोक्ष महावीर के मिट जाने से अनुभव में आता है। तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारा ही विस्तार है। यहां तुम्हें जो नहीं मिला है वह तुम स्वर्ग में पाना चाहते हो। संसार में तुमने जो नहीं पाया...चाहते थे दिल्ली पहुंच जाए, नहीं पहुंच पाए, चाहते थे राष्ट्रपति हो जाएं, नहीं हो पाए। आसान नहीं है। पा लो तो मिलता कुछ नहीं है लेकिन पाना बहुत मुश्किल है; क्योंकि कोई तुम अकेले थोड़े ही पागल हो, इस मुल्क में पचास करा.ेड पागल हैं..वे सभी राष्ट्रपति होना चाहते हैं। तो ये पचास करोड़ तो सिंहासन पर तो हो नहीं सकते, एक ही हो पाएगा। और जो एक किसी तरह पहुंच जाएगा, वह इन पचास करोड़ से लड़ कर पहुंचेगा; लड़ने में ही पागल हो जाएगा, इतना भयंकर उपद्रव है! और पहुंच कर भी यह निश्चित तो बैठ नहीं सकता सिंहासन पर, क्योंकि ये पचास करोड़ पागल धक्का दे रहे हैं सिंहासन को, ये कह रहे हैंः अब छोड़ो सिंहासन, जनता आती है वे चैन से थोड़े बैठने देंगे; कोई टांग खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है। धक्के देने की तैयारी चल रही है। यह कोई स्थिति थोड़े ही हो सकती है सुख की।
जिनको मिल जाता है वे दुख में हैं; जो नहीं मिल पाते, नहीं पहुंच पाते, वे दुख में हैं। फिर तुम्हारी कल्पना कहती है, इस संसार में कुछ सार नहीं। इसलिए नहीं कि तुम्हें दिखाई पड़ गया कि संसार में कोई सार नहीं है; सार तो तुम्हें संसार में ही है; तुम्हारी असफलता के कारण तुम अपने को समझा रहे होः अंगूर खट्टे हैं। अब तुम मोक्ष, परमात्मा, प्रार्थना-पूजा की आकांक्षा से भरते हो। वे तुम्हारी जीवन की समझ से पैदा नहीं हो रही हैं, जीवन के राग से ही पैदा हो रही हैं। फिर परमात्मा नहीं मिलता। होश में आने की इच्छा भी नहीं होती। ध्यान करने का मन भी नहीं होता। तुम परमात्मा को मुफ्त पाना चाहते हो।
मगर जगने और होश में आने की फिर भी कोई इच्छा नहीं है! स्वभावतः बात साफ है कि अभी नींद में रस है, इसलिए तुम जगना नहीं चाहते। और इसलिए आखिरी बात तुमने पूछी हैः क्या कारण है? कारण बिल्कुल साफ है। मुझसे क्या पूछना है? अपने भीतर ही देखो, कारण साफ है। तुम जगना नहीं चाहते। अभी जगने योग्य समझ ही नहीं है। समझ से जागरण आता है। समझ है इस बात की समझ कि संसार में सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं है। जीवन एक अंतहीनशृंखला है पीड़ा की। मौत ही मौत है यहां प्रत्येक कदम पर; कांटे ही कांटे बिछे हैं। फूल दिखते हैं..वह तुम्हारा प्रक्षेपण है। फूल तुम्हारी आकांक्षा है, लेकिन मिलते कांटे हैं। चाहते फूल हो, मिलता कांटा है। खेलना फूल से चाहते थे, उलझ कांटे से जाते हो।
तुम्हारी वही दशा है जो किसी मछली की होती है। मछलीमार आटे को लटका देता है बंसी में बांध कर। मछली आटा पकड़ने आती है, आटे में कांटा छिपा होता है। मछली कोई कांटा थोड़े ही पकड़ने आती है? कौन कांटा पकड़ने जाता है? सभी आटा पकड़ने जाते हैं, पकड़ती है आटा, फंस जाती है कांटे से। वह तो बंसी लटकाए बैठा हुआ मछलीमार है, वह कोई मछलियों पर करुणा करके यहां आटा बांटने नहीं आया है। आटा तो प्रलोभन है। वह तो सेल्समैनशिप है। वह तो विज्ञापन है। भीतर तो कांटा छिपा है। नजर तो इस पर है कि आटा पकड़ ले मछली तो बस कांटे से उलझ जाए, फंसे।
संसार में जहां-जहां तुम्हें आटा दिखता है वहीं-वहीं कांटे तुम पाओगे। तुमने सदा पाए भी हैं, लेकिन फिर भी तुम्हारी मूच्र्छा नहीं टूटती। मन कहता हैः अब तक जिन आटों को पकड़ा, कांटे पाए; लेकिन भविष्य में भी क्या सदा ऐसा ही होगा? फिर जब नया आटा लटकता है..नये रंग में नई सुगंध के साथ, फिर तुम अपने को नहीं सम्हाल पाते। तुम सोचते होः कौन जाने, इस बार आटा ही हो! कांटा तो दिखाई नहीं पड़ता जब तक चुभे न।
जिसको तुम संसार में सुख कहते हो, वह सभी दुख का आवरण है। दुख सुख के वस्त्र ओढ़े हुए है।
एक बहुत पुरानी अरबी कथा है, कि परमात्मा ने पृथ्वी बनाई, और उसने सौंदर्य और कुरूपता की देवियां बनाईं और उनको पृथ्वी पर भेजा। स्वर्ग से पृथ्वी तक आते-आते धूल-धवांस से भर गईं, एक झील के किनारे उन्होंने वस्त्र उतारे और दोनों नग्न होकर स्नान करने झील में उतर गईं। सौंदर्य की देवी तो तैरती दूर चली गई; कुरूपता की देवी किनारे के पास ही थी। जैसे ही सौंदर्य की देवी जरा दूर गई, वह निकली, उसने सौंदर्य की देवी के वस्त्र पहने और चलती बनी। जब सौंदर्य की देवी वापस किनारे पर आई तो सुबह हो गई थी, गांव के लोग जगने लगे थे, आवागमन शुरू हो गया था; वह नग्न खड़ी थी, और वस्त्र तो नदारद थे। मजबूरी में उसे कुरूपता के वस्त्र पहन लेने पड़े, और कोई उपाय न था। वे ही वस्त्र उपलब्ध थे। और कहते हैं, तब से सौंदर्य की देवी कोशिश कर रही है खोजने की कि कुरूपता की देवी मिल जाए तो उससे अपने वस्त्र ले ले, लेकिन वह मिलती नहीं। और तब से सौंदर्य कुरूपता के वस्त्र पहने घूम रहा है और कुरूपता सौंदर्य के वस्त्र पहने घूम रही है। तब से सब चीजें उलटी हो गई हैं।
कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है।
इस जगत में तुम सौंदर्य के भीतर छिपी हुई कुरूपता को पाओगे। इस जगत में सुख के भीतर छिपा हुआ दुख पाओगे। द्वार पर तख्ती लगी होगी स्वर्ग की; भीतर पहुंचोगे, नरक पाओगे। लेकिन जिस दिन तुम्हें यह अनुभव प्रगाढ़ हो जाएगा..मेरे कहने से नहीं, या बुद्ध के कहने से नहीं..जिस दिन तुम्हें यह दिख जाएगा कि जहां-जहां आटा है वहां-वहां कांटा है, उस दिन हृदय को छलनी बनाने की जरूरत न रहेगी, एक छेद काफी हो जाएगा। एक छेद पर्याप्त है डुबाने को। एक छेद पर्याप्त है उबारने को भी। कोई डुबने के लिए पूरी नाव को छलनी नहीं बनाना पड़ता। बस एक छेद तुम्हारे जीवन में हो जाए..इस बोध का कि इस जगत में सुख असंभव है, यह तुम्हारी गहन प्रतीति हो जाए..तो परमात्मा की तरफ जो प्रार्थना उठेगी, वह पहली बार वास्तविक होगी। वह सांसारिक नहीं होगी प्रार्थना। वह तुम्हारी नींद का हिस्सा नहीं होगी। अन्यथा तुम्हारी नींद में ही तुमने मंदिर भी बनाए हैं और मूर्तियां भी सजाई हैं और पूजा भी की है और दीये भी जलाए हैं..पर तुम्हारी नींद में ही।
इसीलिए तो दुनिया में इतने मंदिर हैं और आदमी जागा हुआ दिखाई नहीं पड़ता। इतनी मस्जिदें, इतने गिरजे, इतने गुरुद्वारे, और आदमी बेहोश! यह हो कैसे सकता है? जरूर यह सब नींद में ही चल रहा है। तुम मंदिर भी चले जाते हो, पूजा भी कर लेते होः न तुम्हें पता है, तुम क्यों कर रहे हो, न तुम्हें पता है यह मंदिर क्या है। और तुम इतने डरे हुए हो कि कहीं पता न चल जाए। इसलिए तुम चुपचाप करके निकल आते हो। अगर कोई तुम्हें पकड़े और झकझोरे तो तुम नाराज हो होते हो। इसलिए तुम बुद्धों को माफ नहीं कर पाते। जीसस को सूली देनी पड़ती है। सुकरात को जहर पिलाना पड़ता है। ये वे लोग हैं जो तुम्हें रास्ते में पकड़ लेते हैं और तुमसे कहते हैंः कहां जा रहे हो? यह मंदिर झूठा है। तुम खुद अभी सोए हो। सोए हुए आदमी का मंदिर सच्चा कैसे हो सकता है?
शराब पीए कोई पूजा कर रहा है, क्या उसकी पूजा सच हो सकती है? शराब पीए आदमी की न तो गाली का कोई भरोसा होता है, न पूजा का कोई भरोसा होता है। जब होश में आ जाए तब समझना। होश में आने पर शायद खुद ही हंसे कि यह मैं क्या कर रहा था; शायद छिपाए कि किसी को पता तो नहीं चल गया कि मैं पूजा करता हुआ देख लिया गया हूं। लोग हंसेंगे, कहेंगेः इतना समझदार होकर अभी तक अंधविश्वासी है।
शराब पीए हुए आदमी पूजा करे तो व्यर्थ, झगड़ा करे तो व्यर्थ; उससे सार्थक तो हो ही नहीं सकता है।
कारण पूछते हो क्या कारण है? कारण साफ हैः संसार अभी दुख नहीं हुआ और उसके पहले ही तुमने परमात्मा की मांग शुरू कर दी। नहीं, यह नहीं हो सकता। पके बिना कोई उपाय नहीं है। पकना ही होगा। दुख इतना पक जाए, जैसे वृक्ष पर फल पक जाते हैं, तो पका हुआ फल गिर जाता है..ऐसे ही पका हुआ संसार गिर जाता है, पका हुआ दुख गिर जाता है। और तब तुम उठते हो तुम्हारी निर्दोषता में। तब तुम्हारे भीतर से एक गूंज उठती है ओंकार की। तब तुम्हारे भीतर से अनाहत का नाद उठता है। तब तुम यह मुझसे पूछोगे नहीं कि इतने छेद हो गए हैं हृदय में, अब तक देर क्यों हो रही है! देर कभी हुई ही नहीं है; छेद ही नहीं हुए हैं, इसलिए देर हो रही है।
और तुमने यह मुझसे पूछा हैः और गहरा डो.ज दे ही डालिए! जैसे मेरा कोई कसूर है! जैसे जिम्मेवारी मेरी है! जागो तुम नहीं, तो तुम कहते होः तुमने ठीक से न जगाया होगा। जागो तुम नहीं तो तुम कहते होः तुमने जोर से क्यों न हिलाया?
इमेनुएल कांट जर्मनी का एक बड़ा विचारक हुआ। वह सुबह तीन बजे उठता था। जीवन भर तीन बजे ही उठा। लेकिन तीन बजे उठने की उसकी इच्छा बिल्कुल नहीं थी। पूरी जिंदगी उठ कर भी तीन बजे उसे उठाना कष्टपूर्ण रहा। वह उसके शरीर को जमता न था, उसने एक नौकर रख छोड़ा था जो इतना ही काम करता था कि उसे जबरदस्ती उठा दे। कभी-कभी मार-पीट भी हो जाती थी, क्योंकि नौकर उठा रहा है, वह नहीं उठना चाहता रहा है। झगड़ा हो जाएः नौकर खींच रहा है और बिस्तर में, पल्ली में छिप रहा है। वह नौकर को मारे भी; सुबह क्षमा भी मांगे। पहली-पहली दफे जब उसने नौकर रखा था तो उसने कहाः तीन बजे उठा देना। नौकर ने जाकर उठा दिया। वह करवट लेकर सो गया। नौकर हट गया। उसने कहाः बात खत्म हो गई। सुबह बहुत नाराज हुआ कि उठाने का मतलब उठाना; चाहे कुछ भी हो जाए..मैं अगर तुझे मारूं भी तो तू फिकर मत करना; तू भी मारना; उस वक्त न कोई नौकर है न कोई मालिक है..मगर तीन बजे उठना है! नौकर भी नहीं समझता था कि यह मामला क्या है। अगर उठना ही है तो उठ जाओ। अगर नहीं उठना है तो मार-पीट की नौबत क्या लानी! लेकिन यह जिंदगी भर चला, ऐसे ही चला।
यह भी उठना कोई उठना हुआ? और ऐसे उठ कर क्या ब्रह्ममुहूर्त का आनंद लिया जा सकता है? उठ आता होगा; आंख में तो नींद घिरी रहेगी। उठ आता होगा, लेकिन मन में तो अभी भी सपने चलते रहेंगे। उठ आता होगा..किसी तरह; खींचता होगा देह को अपनी। लेकिन जिंदगी भर जब लड़-लड़ कर मार-पीट करके उठना पड़ता हो, इस उठने में मजा न रहा।
नहीं, मैं तुम्हें मार-पीट करके पहीं उठाना चाहता। यह बात ही बड़े मजे की हो गई। तुम इशारे से उठ आओ तो ठीक है; न उठो तो जाहिर है कि तुम अभी सोना चाहते हो। मैं तुम्हारी नींद क्यों खराब करूं? इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है।
मेरे डो.ज के कम-ज्यादा देने से कुछ भी न होगा; क्योंकि यह सवाल तुम्हारी गहन आकांक्षा का है। इसकी कोई दवा नहीं हो सकती।
चिकित्सक कहते हैं कि अगर मरीज बीमार हो तो ठीक किया जा सकता है, दवा दी जा सकती है; लेकिन अगर मरीज ने जीने की आशा छोड़ दी हो तो कोई उपाय नहीं है। अगर कोई मरीज मरना ही चाहता है तो बीमारी भी ठीक हो जाए तो भी मर जाएगा, क्योंकि जीने की आकांक्षा ही छोड़ दी हो तो फिर कोई उपाय नहीं है।
ठीक ऐसी ही दशा है। अगर तुमने जागने की आकांक्षा ही न जगाई हो तो मैं लाख उपाय करूं, तुम जागोगे न; सिर्फ मुझसे नाराज हो जाओगे; सिर्फ मुझे गालियां दोगे; सिर्फ क्रोध जाहिर करोगे। लेकिन अगर तुमने जागना चाहा है तो जरा सा इशारा काफी है।
बुद्ध ने कहा हैः कुछ तो घोड़े ऐसे होते हैं कि अगर उनको मारोन तो अटक-अटक कर खड़े हो जाते हैं। वे मार-पीट से ही चलते हैं; कुछ घोड़े ऐसे होते हैं कि मारने की जरूरत नहीं होती, सिर्फ कोड़ा फटकारना पड़ता है; चोट की जरूरत नहीं होती है, कोड़े की आवाज, और घोड़ा सतेज होकर चलने लगता है।
और बुद्ध ने कहाः कुछ घोड़े ऐसे भी हैं कि कोड़ा फटकारना भी नहीं पड़ता, क्योंकि वह भी अपमानजनक है। सिर्फ कोड़ा है..इतना काफी है; कोड़े की छाया चला देती है। फटकार नहीं, कोड़े की छाया!
बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा हैः तुम तीसरे तरह के घोड़े बनना। मार-मार कर चला भी लिया तो कुछ हल न होगा। क्योंकि मार-मार कर, तुम अगर घसिट-घसिट कर पहुंच भी गए, तो कोई घसिट-घसिट कर कभी परमात्मा के मंदिर तक पहुंचता है? वह मंजिल नाच कर पहुंची जाती है। वह मंजिल ऐसी है कि तुम उत्सव से ही चले तो ही पहुंच सकोगे; तुम गीत गाते, मौज से ही चले, तो ही पहुंच सकोगे। जबरदस्ती तुम्हें धकाने का उस तरफ कोई उपाय नहीं है। यह तो सीधी समझ में आ सकने वाली बात है।
मोक्ष जबरदस्ती नहीं मिल सकता, क्योंकि मोक्ष का मतलब ही परम स्वतंत्रता है। अगर परम स्वतंत्रता भी जबरदस्ती मिलती हो तो क्या खाक स्वतंत्रता रह गई; वह तो एक तरह की गुलामी हो गई। उसे तुम्हें कोई भी नहीं दे सकता। तुम जिस दिन चाहोगे उस दिन सारा संसार तुम्हारे लिए सहयोगी हो जाएगा। तुम जब तक नहीं चाहते हो, परमात्मा भी कुछ नहीं कर सकता।
यह बड़े मजे की बात है। धर्मशास्त्रियों ने सदा से इस पर विचार किया है कि परमात्मा अगर है तो आदमी दुख में क्यों है? वह खींच क्यों नहीं लेता? यह बात विचारने जैसी है। परमात्मा महा करुणावान होगा। उसके हृदय में तो प्रेम ही प्रेम होगा। तुम नरक में सड़ रहे हो, वह खींच क्यों नहीं लेता तुम्हें, उठा क्यों नहीं लेता? इससे जाहिर होता है कि नहीं है। अगर होता, करुणावान होता तो तुम्हें खींच लेता। या तो इससे जाहिर होता है कि है हि नहीं और या इससे जाहिर होता है कि वह शैतान है, भगवान नहीं है। वह रस ले रहा है। तुम्हें सता रहा है। सैडिस्ट है। मजा ले रहा है। तुम सताए जा रहे हो नरक में, दुख में, पीड़ा में उबाले जा रहे हो उबलते तेल में, और वह बैठा मजा ले रहा है। वह उस सम्राट नीरो की भांति है जिसने पूरे रोम में आग लगवा दी थी और बैठ गया था पास की पहाड़ी पर, बांसुरी बजा रहा था, और यहां लोग जल रहे थे। और उसने पूरे रोम के चारों तरफ सिपाही खड़े कर दिए थे कि कोई भाग कर बाहर न जा सके। वे मशालें लिए खड़े थेः जो भी बाहर भागता उसको मशालों से धक्का दे कर भीतर कर देते थे। आग ही आग थी, और नीरो बांसुरी बजा रहा था।
तो या तो परमात्मा नीरो जैसा है कि तुम जल रहे हो; भागने भी नहीं देता। आत्महत्या भी करो तो सरकारें रोकती हैं, सिपाही लगा रखे हैं। कहीं जा नहीं सकते भाग कर। आत्महत्या करते पकड़े गए तो फांसी की सजा लगेगी! बड़े मजे की बात है, वह हम खुद ही करने जा रहे थे, वह सरकार कर देगी। कोई भाग नहीं सकता। और परमात्मा बैठा ऊपर जरूर बांसुरी बजा रहा होगा..और क्या करेगा?
हिंदुओं ने ठीक सोचा कि कृष्ण बांसुरी बजा रहा है। वह परमात्मा बैठा बांसुरी बजा रहा है! तुम सड़ रहे हो! या तो शैतान है, भगवान नहीं। और अगर भगवान है तो बड़ा बेबूझ है! उठा क्यों नहीं लेता? साधारण महात्मागण तक तुम्हें दुख से उठाने की कोशिश करते हैं, और परमात्मा कोशिश नहीं करता!
धर्मशास्त्री बड़ी चिंता में रहे हैं कि क्या करें। बात तो तर्कयुक्त लगती है कि या तो वह दुखवादी है, और लोग दुखी हो इसमें रस आता है उसे; तुम्हारे घाव में अंगुलियां डालता है। उसको खुद ही मनोचिकित्सा की जरूरत है। और या फिर है ही नहीं।
और ध्यान रखना; जो कहते हैं नहीं है, वही ज्यादा ठीक कह रहे हैं, बजाय उनके जो कहें कि वह दुखवादी है। शैतान होने से बेहतर है कि न हो। इसलिए तो महावीर और बुद्ध ने कह दिया, कोई परमात्मा नहीं है। क्योंकि उनके सामने दो ही विकल्प थेः या तो वे मानें कि वह दुखवादी है...दोनों तर्कयुक्त व्यक्ति थे; दोनों राजघरानों से आए थे, ठीक से संस्कृत हुए थे; ठीक तर्कशास्त्र का अध्ययन किया था; विचार में पारंगत थे..उनको बात साफ दिखाई पड़ गई कि यह विकल्प तो सीधा है! अगर परमात्मा है तो शैतान है..ऐसे परमात्मा का इनकार जरूरी है। और या फिर परमात्मा नहीं है; क्योंकि यह हम कैसे मानें कि परमात्मा है और लोग सदियों से, अनंतकाल से दुख में सड़ रहे हैं, और वह बैठा मजा कर रहा है, लीला कर रहा है, और उठाता नहीं किसी को?
मेरा क्या उत्तर है? मैं कहता हूंः परमात्मा है और शैतान नहीं है। मेरा उत्तर यह है कि परमात्मा है और तुम दुख में उसके कारण नहीं हो, तुम्हारी स्वतंत्रता के कारण हो। परमात्मा है और जगत स्वतंत्र है। परमात्मा की महिमा यही है कि उसने तुम्हें स्वतंत्र बनाया है, उसने परिपूर्ण स्वतंत्रता दी है। वह कोई तानाशाह नहीं है, और न ही उसने कोई इमरजेंसी की अवस्था घोषित कर रखी है। परमात्मा मनुष्य को गरिमा दिया है, परिपूर्ण स्वतंत्र होने की।
निश्चित ही स्वतंत्रता में खतरा है। स्वतंत्र होने का अर्थ ही यह है कि दुख भोगने की भी स्वतंत्रता है, सुख भोगने की भी। स्वतंत्रता का अर्थ ही यह है कि अपने को नष्ट कर लेने की भी स्वतंत्रता है, अपने को सृजन करने की भी। स्वतंत्रता का सीधा अर्थ है कि तुम जो भी होना चाहो..अगर तुम दुख ही भोगना चाहो तो भी बाधा न दी जाएगी। तुम्हारे ऊपर ही सब छोड़ दिया है। यही मनुष्य के लिए जोखिम है, यही उसका गौरव भी है कि वह स्वतंत्र है। वह अगर गिरना चाहे सीढ़ी से तो आखिरी खड्डे तक गिर सकता है, कोई रोकने न आएगा। वह चढ़ना चाहे तो कोई रोकने न आएगा; वह आखिरी ऊंचाई तक चढ़ सकता है।
नरक भी तुम हो, स्वर्ग भी तुम हो। तुम्हारा निर्णय ही आत्यंतिक है। तुम जिम्मेवारी किसी और पर मत छोड़ना। ऐसे ही तो तुमने सदा जिम्मेवारी किसी और पर छोड़ी है। और तब तुम निशिं्चत हो जाते हो, तुम सोच लेते हो कि मैं ही तुम्हें ठीक से डो.ज नहीं दे रहा हूं जागने का, नहीं तो तुम कभी के जाग गए होते। तुम्हारे हृदय में तो छलनी हो गई है, तुम्हारा प्राण तो घाव हो गया है! अब तुमने तुम्हारे तरफ से तुमने कोई कमी नहीं छोड़ी! अगर कमी होगी तो मेरी तरफ से होगी!
इस तरह की गलतियों में मत पड़ो, क्योंकि इस तरह तो फिर तुम कभी भी न जाग सकोगे।
ध्यान करोः दुखी हो तो तुम्हीं कारण हो; सुखी हो तो तुम्हीं कारण हो। मैं तुम्हें जगा नहीं सकता; मैं तुम्हें जागने के उपाय बता सकता हूं।
बुद्ध ने कहा हैः मैं राह बता सकता हूं, चलना तुम्हीं को पड़ेगा। मैं तुम्हें चला नहीं सकता। और जो गुरु तुम्हें चलाने की कोशिश करे, जानना वह तुम्हारा दुश्मन है। क्योंकि अगर वह तुम्हें घसीटे, अपने कंधे पर रख कर चले, तुम्हारी बैसाखी बन जाए, तो फिर तुम्हारे पैर कभी भी चलने में समर्थ न होंगे। जिस दिन वह गुरु विदा होगा उस दिन तुम वहीं पहुंच जाओगे जहां तुम पाए गए थे। फिर तुम वहीं गड्डे में गिर जाओगे।
नहीं सदगुरु मार्ग दिखाते हैं, चलना प्रत्येक को स्वयं पड़ता है।
जैसे एक छोटा बच्चा चलना शुरू करता है, कोई उसके लिए चल थोड़े ही सकता है। कई बार गिरेगा। बाप को कितनी इच्छा न होती कि मैं इसके पैर बन जाऊं! मां की कितनी आकांक्षा न होती होगी कि इसके घुटनों में चोट लगती है, मैं इसकी सुरक्षा बन जाऊं; मैं इसके लिए चलूं, इसे कंधे पर रखे रहूं। लेकिन अगर कोई मां ऐसा करे तो वह दुश्मन है, क्योंकि यह बच्चा फिर सदा के लिए पंगु हो जाएगा; यह कभी चल ही न सकेगा। नहीं, मां प्रेम से देखेगी; इशारा भी देगी कि चलो; दूर बैठे बच्चे को बुलाएगी कि आ जाओ; दोनों हाथ भी फैला कर कहेगीः घबड़ाओ मत, मैं मौजूद हूं; गिरोगे तो सम्हाल लूंगी। हालांकि बच्चा फिर भी गिरेगा, क्योंकि बिना गिरे कभी कोई चलना सीखा है? अगर कोई बच्चा गिरे ही न, बार-बार सम्हाल लिया जाए, तो भी लंगड़ा हो जाए। गिरने भी देना होगा। घुटने पर चोट भी लगेगी, तो ही मजबूती आएगी शरीर की, व्यक्तित्व की, अपने पैरों पर खड़ा होना आएगा।
मैं तुम्हारी गुलामी नहीं बनना चाहता हूं; न तुम मुझ पर निर्भर होने की कोशिश करना। मैं चाहूंगा कि तुम परिपूर्ण स्वतंत्र हो जाओ, अपने पैर से चल सको; क्योंकि तुम्हारा मंदिर तुम्हारे चलने से ही तुम्हारे करीब आएगा। तुम्हारा परमात्मा तुम्हें लंगड़ों की तरह आया हुआ देख कर प्रसन्न न होगा। तुम्हें दौड़ते और नाचते हुए आते देख कर ही तुम्हारा स्वागत हो सकता है।
दूसरा प्रश्नः एक पुरानी धारणा है कि यदि कोई व्यक्ति लगातार बारह वर्षों तक सत्य-भाषण का व्रत पूरा करे तो वह मुक्ति को उपलब्ध हो सकता है। बताएं कि इस धारणा में कितना बल है?
बारह वर्ष तक अगर कोई व्यक्ति सत्य-भाषण का व्रत पूरा करे तो वह मुक्त हो जाता है..यह धारणा कोई गणित की धारणा नहीं है। कोई ऐसा नहीं है कि बारह ही वर्ष में ऐसा होगा कि ग्यारह में नहीं हो सकता और तेरह में नहीं हो सकता। यह तो प्रतीक-धारणा है, इशारा है, एक इंगित है। इंगित कीमती है।
सचाई यह है कि बारह वर्ष तो दूर, बारह दिन भी बिना स्वभाव को उपलब्ध हुए तुम सत्य-भाषण का व्रत पूरा नहीं कर सकते। बारह वर्ष तो बहुत दूर, बारह दिन भी; बारह दिन में भी तुम हजार बार झूठ बोल चुके होओगे। शायद तुम्हें पता भी न चले कि तुमने कब झूठ बोला; क्योंकि कई झूठ तो ऐसे हैं जिनको तुम सच मानते हो। और तुमने कभी ख्याल ही नहीं किया कि यह झूठ है और तुम इसे सच मानते हो। कई झूठ तो ऐसे हैं कि तुम्हारे रग-रेशे में, खून में समाए हुए हैं..मां के दूध के साथ तुम्हें मिले हैं।
अगर कोई तुमसे रास्ते पर पूछे कि तुम कौन होः अगर तुमने कहा, मैं हिंदू हूं, तुमने झूठ बोला; तुमने कहा, मैं मुसलमान हूं, तुमने झूठ बोला। भीतर खोजोः तुम मुसलमान हो? हिंदू हो? मगर यह तुम्हें ख्याल ही न आएगा; यह तो खून में मिल गया। तुम पैदा तो हुए थे, तब तुम न हिंदू थे, न मुसलमान थे; अचानक तुम हिंदू-मुसलमान कैसे हो गए? यह सिखावन है किसी की, एक सामाजिक झूठ है, प्रचारित झूठ है। तुम्हारे चारों तरफ जो लोग थे, वे इस झूठ में भरोसा करते थे कि हिंदू हैं, या मुसलमान हैं, या जैन हैं। उन्होंने भरोसा तुम्हें भी दिला दिया। यह एक कंडिशनिंग है। उन्होंने संस्कारित कर दिया मन को, ठोक दिया बार-बार कि तुम हिंदू हो, तुम हिंदू हो, तुम हिंदू हो! अब तुम्हें पता ही नहीं। अब तुमसे कोई पूछेगा नींद में भी तुम कौन हो, तुम कहोगे हिंदू हूं।
तुमसे अगर कोई पूछेगा कि तुम्हारा नाम क्या, क्या तुम कहोगे कि मैं अनाम हूं? क्योंकि पैदा तो तुम बिना नाम के हुए थे। तुम्हारा नाम राम हो कि अब्दुल्ला हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? नाम तो झूठ हैं, ऊपर से चिपकाए गए हैं। नाम लेकर तुम आए नहीं, दूसरों ने दिया है। लेकिन इतना गहरा हो जाता है तादात्म्य..अगर तुम यहां सब सो जाओ रात और मैं आऊं और पुकारूंः राम! तो किसी को सुनाई न पड़ेगा, लेकिन जिसका नाम राम है वह चैंक कर खड़ा हो जाएगा कि कौन नींद खराब करने आ गया! रात भी सोने दोगे? किसी को पता न चलेगा; लेकिन जिसका नाम राम है, उसको कैसे पता चल गया? उसने कैसे सुन लिया? झूठ बहुत गहरा चला गया, अचेतन, अनकांशस में बैठ गया।
छूटना होगा इस तरह के झूठों से।
बारह दिन भी सत्य-भाषण का पालन कैसे करोगे? और हो सकता है, दिन में कर लो, रात सपनों का क्या होगा? सोचो। मान लो कि दिन भर होश रखा, सम्हाल कर चले, दरवाजा बंद ही कर के रहे, बोलने का मौका ही न आने दिया बारह दिन..न बोलेंगे, न झूठ निकलेगा..तो रात सपनों का क्या करोगे? सपनों में तो बहुत झूठ चलते हैं। सपना तो पूरा ही झूठ है। रात भर चलते हैं। और अगर बारह दिन कोठरी में बंद रहे तो दिन में बैठे-बैठे भी क्या करोगे, सपना देखोगे। हजार तरह के झूठ चलने लगेंगे।
झूठ तो तभी छोड़ा जा सकता है जब तुम आत्मस्थ हो जाओ। इसलिए मैंने कल फरीद की वाणी का अर्थ यह नहीं किया कि तुम सच बोलो; यह किया कि तुम सच हो जाओ। सच बोलना असंभव है जब तक तुम सच न हो जाओ। यह तो ऐसे ही है कि चंपा के वृक्ष पर चमेली के फूल लगाने की कोशिश चल रही है। तुम झूठ हो तो तुम पर झूठ के फूल लगेंगे।
बड़ी पुरानी कहानी है..सम्राट सोलोमन की। यहूदी कहते हैं, सोलोमन से बुद्धिमान आदमी दुनिया में कभी दूसरा नहीं हुआ। सोलोमन का नाम तो लोकलोकांतर में व्याप्त हो गया है। हिंदुस्तान में भी गांव के लोग भी, कोई अगर बहुत ज्यादा बुद्धिमानी दिखाने लगे तो कहते हैंः बड़े सुलेमान बने हो! वह सोलोमन का नाम है। उनको पता भी नहीं कि कौन सोलोमन था, कौन सुलेमान था; लेकिन वह प्रविष्ट हो गया है।
सेबा की रानी सोलोमन के प्रेम में पड़ गई। वह चाहती थी, दुनिया के सबसे ज्यादा बुद्धिमान आदमी से प्रेम करे। बुद्धुओं से तो प्रेम बहुत आसान है, लेकिन परिणाम सदा दुखकर होता है। तो सोलोमन की जब खबर सुनी हो सेबा की रानी ने, तो उसने कहा कि अगर प्रेम ही करना है तो इस बुद्धिमान से करेंगे, अन्यथा प्रेम दुख लाता है। बुद्धुओं से प्रेम करो..दुख में पड़ोगे। उसने सब प्रेम करके देख लिए थे। वह बड़ी सुंदर थी। कहते हैं, जैसे सोलोमन बुद्धिमान था, ऐसा सेबा की रानी सुंदर थी। उसने सोचा कि सौंदर्य और समझ, इनका मेल हो।
वह गई। पर इसके पहले कि वह सोलोमन को चुने, परीक्षा लेनी जरूरी हैः बुद्धिमान है भी या नहीं? तो अपने साथ एक दर्जन बच्चे ले गई। छह उनमें लड़कियां थीं और छह उनमें लड़के थे; लेकिन उनको एक से कपड़े पहनाए गए थे और सबकी उम्र चार-पांच साल की थी। पहचान बिल्कुल मुश्किल थी। उनके बाल एक से काटे गए थे, कपड़े एक से पहनाए गए थे। और वह जाकर खड़ी हो गई उन बारह, एक दर्जन बच्चों को लेकर, और उसने दूर से सोलोमन से कहा कि अब तुम देख लो। तुम इनमें बता दो, कौन लड़कियां हैं और कौन लड़के? यह तुम्हारी पहली परीक्षा है।
बड़ा मुश्किल था। दरबारी भी थोड़े घबड़ा गए कि यह परीक्षा तो बड़ी कठिन मालूम पड़ती हैः समझ में नहीं आता कि कौन लड़का है, कौन लड़की! पर सोलोमन ने परीक्षा कर ली। उसने कहाः एक दर्पण ले आओ। लड़कों के सामने दर्पण रखा गया, वे ऐसे ही खड़े देखते रहे; लड़कियों के सामने रखा गया, वे उत्सुक हो गईं। लड़की, और दर्पण सामने हो! बात ही बदल गई। उसने छह लड़कियां अलग निकाल दीं। कपड़े ऊपर से पहना दो, लेकिन भीतर की सत्ता अगर स्त्रैण है तो बहुत मुश्किल है बदलना। लड़की दर्पण में और ही ढंग से देखती हैः कोई लड़का देख ही नहीं सकता। वह असंभव ही है।
मैंने सुना है कि एक दिन नसरुद्दीन अपने घर में मक्खियां मार रहा था। उसकी पत्नी ने पूछाः कितनी मार चुके? उसने कहा कि दो स्त्रियां, मादाएं और दो पुरुष। पत्नी ने कहाः हद हो गई! यह कभी सुना नहीं। तुमने पता कैसे लगाया कि कौन मादा, कौन पुरुष?
उसने कहाः दो दर्पण पर बैठी थीं। वे मादा होनी चाहिए। दर्पण पर पुरुष क्या करेगा बैठ कर! वे घंटों से बैठी थीं, वहीं बैठी थीं।
भीतर का अस्तित्व, भीतर का ढंग...।
दूसरी बार सेबा दो फूलों के गुलदस्ते लेकर आई, दूर खड़ी हो गई। उसमें एक फूलों का गुलदस्ता नकली था, कागजी था, पर बड़े-बड़े कलाकारों ने बनाया था। दूसरा गुलदस्ता असली था। उसने कहाः बस, यह आखिरी परीक्षा। कौन सा असली है? क्योंकि सेबा ने सोचा कि लड़के-लड़कियां को तो इसने दर्पण से पहचान लिया; फूलों का क्या करेगा? और वह इतनी दूर खड़ी थी कि गंध न आ सके। दरबारी घबड़ाए। सोलोमन ने कहाः दरवाजे-खिड़कियां खोल दिए जाएं महल के। दरवाजे-खिड़कियां खोल दिए गए। दो क्षण में तय हो गया। दो मक्खियां उड़ती भीतर आ गईं। वे असली फूलों पर जाकर बैठ गईं। उसने कहाः वे असली फूल हैं।
मक्खियों को कैसे धोखा दोगे? मक्खी नकली फूल पर किसलिए जाएगी? असली फूल की गंध उसे बुला लाई।
जब तुम्हारे भीतर सत्य होता है तभी तुम्हारे बाहर...जब तुम्हारे भीतर सत्य नहीं होता तब तुम लाख उपाय करो, नकली फूल हो। दूसरों को भी धोखा दे दोगे; अपने को कैसे दोगे? हो सकता है, कुछ बुद्धू मक्खियां हों, मूढ़ हों, नशे में हों, और बैठ जाएं, तो भी क्या फर्क पड़ता है? लेकिन इससे भी तो कोई नकली फूल असली न हो जाएगा।
इसलिए कहावत तो बिल्कुल ठीक है, क्योंकि बारह वर्ष तक कोई सत्य भाषण का उपयोग तभी कर सकता है जब वह सत्य हो गया हो, अन्यथा कोई उपाय ही नहीं है। तो मोक्ष तो उपलब्ध हो ही जाएगा। ऐसा नहीं की बारह साल के बाद में होगा, वह पहले ही हो गया, वह बारह साल की शुरुआत में ही हो गया। जो सत्य हो गया वह मुक्त हो गया। हां, अगर तुम चेष्टा करोगे सत्य की, तो तुमसे बहुत झूठें हो जाएंगी। चेष्टा का मतलब ही यह है कि तुम भीतर आश्वस्त नहीं हो। तुम्हें निर्णय करना पड़ेगाः क्या बोलूं, क्या न बोलूं; कैसा कहूं, कैसा न कहुं; क्या ठीक होगा, क्या गलत होगा! और जिंदगी इतनी तेजी से बही जाती है कि ऐसे व्यक्ति तो कुछ बोल ही नहीं पाते। सत्य बोलना तो असंभव है; क्योंकि सत्य तो क्षण-क्षण के संवेदन से पैदा होता है।
अगर यह सोलोमन सच में ही बुद्धिमान न होता तो मुश्किल में पड़ जाता। तुम्हें ख्याल आता दर्पण का? मुश्किल होती। तुम्हें ख्याल आता खिड़कियां खुली छोड़ देने का? अब आ सकता है क्योंकि कहानी मैंने तुमसे कह दी। कहानी कहने के बाद कोई मतलब हल नहीं होता। बात खत्म हो गई। अब दुबारा रानी सेबा सोलोमन का इन ढंगों से परीक्षण नहीं कर सकती। और जिंदगी की रानी नये-नये उपाय खोजती है और कभी कोई सुलेमान पार हो जाता है, उत्तीर्ण हो पाता है।
कहावत ठीक है कि यदि कोई व्यक्ति लगातार बारह वर्षों तक सत्य भाषण के व्रत का पालन करे तो वह मुक्त हो जाएगा। लेकिन बारह साल तक सत्य-भाषण का व्रत का पालन वही कर सकता है, जो मुक्त हो ही गया हो इसलिए यह कहावत ठीक है।
मैं नहीं कहता कि बारह साल की फिकर करो। बारह क्षण जांच लेंगे। बारह क्षण काफी हैं। तुम अगर भीतर झूठ हो, बारह क्षण में कुछ न कुछ झूठ हो जाएगा; क्योंकि तुम्हारे भीतर का रूप बार-बार बाहर आ रहा है। तुम्हारे होने के ढंग में, तुम्हारे बैठने के ढंग में झूठ हो जाएगा। तुम किसी आदमी के पास से निकलोगे और तुम्हारे चलने के ढंग में झूठ आ जाएगा। हो सकता था, इसके पहले तुम सहजता से चल रहे थे; तुम एक आदमी के पास आए और सम्हल गए..झूठ शुरू हो गया। सम्हलने का क्या मतलब? क्यों सम्हल रहे हो? तुम इस आदमी को कुछ दिखलाना चाहते हो जो तुम नहीं हो। तुम इस आदमी को कुछ बतलाना चाहते हो जो तुम नहीं हो।
तुम अपने कमरे में अकेले बैठे हो, तुम और ही आदमी हो। फिर मेहमान घर में आ गए..तुम तत्क्षण बदल गए, तुम्हारे चेहरे पर रंग बदल गया। अभी तुम उदास बैठे थे, मुर्दे कि भांति; अब तुम मुस्कुराने लगे, हंस-हंस कर बातें करने लगे। तुम पड़ोसियों को दिखाना चाहते हो, तुम बड़े प्रसन्न हो। यह प्रसन्नता झूठ है।
बोलने का ही थोड़े सवाल है; भाव-भंगिमा से झूठ निकलेगा। मुद्रा से झूठ निकलेगा। उठते-बैठते तुम्हारी श्वास-श्वास से झूठ निकल रहा है। तुम अगर झूठ हो तो झूठ के फूल तुममें लगते ही रहेंगे, तुम उनसे बच न सकोगे। मैं तुमसे कहता भी नहीं कि झूठ रहते हुए तुम सच के फूल अपने ऊपर लगाओ। वह नकली गुलदस्ता होगा। उस पर मक्खियां भी न बैठेंगी, आदमियों की तो बात दूर, परमात्मा को तो तुम भूल ही जाओ। मक्खियों तक को धोखा देना आसान नहीं; परमात्मा को तुम, मोक्ष को कैसे धोखा दोगे?
नहीं, मैं तुमसे कहता हूं, सच हो जाओ; सच बोलने की फिकर छोड़ो, वह अपने आप आ जाएगा। तुम सच हो जाओ। इसलिए फरीद के वाणी का मैंने अर्थ कियाः सत्य-धर्म, तुम्हारे स्वभाव का धर्म तुम्हें उपलब्ध हो जाए। फिर सब अपने आप ठीक होता रहेगा।
कोई बुद्ध सोचते थोड़े ही हैं चलते वक्तः कैसे चलूं, कैसे उठूं, कैसे बैठूं? क्या कहूं, क्या न कहूं? क्या ठीक होगा, क्या गलत होगा? यह सवाल ही नहीं है। जैसे वृक्ष में फूल लगते हैं, ऐसे बुद्ध में सत्य लगता है। इसलिए सत्य की चिंता मत करो; सत्य होने की चिंता करो। सच बोलने से क्या होगा? बोलना तो ओंठों की बात है। अगर कंठ के नीचे झूठ है तो ओंठों के बाहर सत्य कैसे आएगा? हां, सत्य जैसा लगता है, लेकिन सत्य नहीं होगा।
एक झेन फकीर हुआ। वह अपने गुरु के पास था। उसने सब उपाय किए गुरु को तृप्त करने के लिए, लेकिन गुरु तृप्त न हो। वह उसे कहे ही जाए कि और ध्यान करो, और ध्यान करो। आखिर उसने दूसरों से पूछा कि वर्षों बीत गए, मैं ध्यान करता हूं, किसी तरह गुरु की परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होता हूं। अब तो मैं थक भी गया। क्या करूं? जिससे पूछा था, उसने कहा कि और तो हम किसी का नहीं जानते, लेकिन हम कैसे स्वीकृत हुए वह हम बता देते हैं। मैं भी वर्षों परेशान हुआ। लेकिन जब तक मैं परेशान हो रहा था, मैं अपने को बचा रहा था। मैं सिद्ध करना चाहता था कि मैं सत्य को उपलब्ध हो गया हूं। फिर मैं थक गया। जब सच में ही थक गया तो मैंने सिद्ध करने के उपाय छोड़ दिए। मैं मुर्दे की भांति हो गया। मैंने यह भी फिकर छोड़ दी कि अब उत्तीर्ण होता हूं कि नहीं होता। गुरु के पास जाता, बैठा रहता..जैसे मुर्दा हूं। और जिस दिन मैं मुर्दे की भांति हो गया, उसी दिन गुरु ने मेरी पीठ थपथपाई और कहाः तूने पा लिया! कहां पाया? तो इतना मैं तुझे बता सकता हूं।
उसने कहाः नासमझ, पहले ही क्यों न कहा? यह तो हम कभी का कर देते। तीन साल ऐसे ही गंवाए। और तू यहां पड़ोस में ही रहता है, इतनी भी करुणा नहीं की! मैं अभी जाता हूं।
वह गया। जैसे ही गुरु ने पूछाः कैसे आए हो, वह धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा। जब अभिनय ही करना हो तो पूरा ही करना, बैठना क्या? मुर्दे कहीं बैठते हैं? वह धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा। उसने आंख मूंद ली और पड़ा रहा। गुरु ने कहाः बड़े भले लग रहे हो! बिल्कुल ठीक! ध्यान का क्या हुआ? तो उसने एक आंख खोली और कहाः वह तो अभी कुछ नहीं हुआ। तो गुरु ने एक डंडा उसके सिर पर मारा और कहाः उठ! मुर्दे कहीं बोलते हैं? तू जरूर किसी से कहानी सुन कर आ गया है।
यहूदी फकीर हुआ, बालसेन, वह एक गांव से गुजर रहा था। एक स्त्री उसके पीछे आ गई। उसका पैर पकड़ कर रोने लगी रास्ते पर। भीड़ लग गई। बालसेन ने पूछाः मामला क्या है?
उस स्त्री ने कहाः मेरे बच्चे नहीं होते। और मैंने सुना है कि तुम्हारी मां को भी बच्चे नहीं होते थे, और एक सदगुरु ने आशीर्वाद दिया।
बालसेन ने कहाः बात ठीक है। मेरी मां को भी बच्चे नहीं होते थे, और एक सदगुरु के पैरों पर ऐसे ही मेरी मां भी पड़ गई थी। ऐसा मैंने सुना है। सदगुरु ने कहाः तू ऐसा कर, मेरी टोपी खो गई है, तू एक टोपी बना ला। तू टोपी दे, हम तुझे बेटा देंगे। तो वह गई और एक टोपी बना लाई। गुरु ने टोपी लगा ली और उसी रात वह गर्भस्थ हुई। ऐसे मैं पैदा हुआ।
उसी स्त्री ने कहा कि अरे! रुको, मैं अभी टोपी लेकर आती हूं।
गुरु ने कहाः ठहर! अब यह कहानी काम न करेगी। अब यह कहानी काम न करेगी; यह तो मैंने तुझे कह दी। अब कुछ और करना पड़ेगा। क्योंकि अब तो यह नकल होगी। अब तो यह केवल पुनरुक्ति होगी। अब तो यह उधार होगी। अब तो यह असत्य हो गई बात; अब इससे काम नहीं चलेगा।
वह स्त्री बोलीः ‘अब मत लौटाओ अपने वचन को। एक टोपी नहीं हजार टोपी ला दूंगी। अभी बाजार से खरीद लाती हूं। जितनी टोपी बाजार में होंगी, सब ला दूंगी। बस एक दफा तुम आशीर्वाद दे दो।
टोपियों का सवाल नहीं है..बालसेन ने कहा..यह कहानी काम न करेगी; कुछ और कहानी मुझे बनानी पड़ेगी।
थोड़ा समझनाः जीवन में आदमी की बड़ी आकांक्षा होती है अनुकरण करने की। अनुकरण असत्य है।
बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठे थे..ज्ञान हुआ। तब से हजारों लोगों ने बोधिवृक्ष के नीचे बैठ कर ठीक बुद्ध का आसन लगा कर आकांक्षा की है कि ज्ञान हो जाए, वह नहीं हुआ। महावीर बारह वर्ष मौन रहे, तब उन्हें ज्ञान हुआ। लाखों लोगों ने इन पच्चीस सौ वर्षों में मौन रहने की कोशिश की है..न केवल कोशिश की है, बल्कि जैन साधु अपने को मुनि कहता है, इसी कारण; मौन नहीं रहता, मुनि कहता है। अनुकरण कर रहा है। महावीर को मौन से ज्ञान उपलब्ध था, तो उसने अपने नाम के सामने मुनि लगा रखा है..मुनि नथमल, मुनि तुलसी, मुनि फलां-ढिंका! अब कोई मुनि लिखने से थोड़े ही ज्ञान हो जाएगा! अब कहानी पता हो गई। अब तो तुम बारह वर्ष भी मौन रहो तो धोखा होगा। महावीर ने किसी का अनुकरण न किया था। यह सहज अविर्भाव था। यह भीतर का स्वभाव था। इससे बात उठी थी।
महावीर नग्न हो गए, तो न मालूम कितने लोग महावीर के पीछे नग्न खड़े हो गए हैं। महावीर की नग्नता में एक निर्दोषता थी; इनकी नग्नता में अनुकरण है। अनुकरण असत्य है। सत्य होने की जरूरत है। अन्यथा तुम कोई ना कोई झूठ में पड़ जाओगे। तुम झूठ हो, झूठ से न बच सकोगे। तुमसे झूठ का धुआं ही उठता रहेगा। सच कैसे तुम हो जाओगे।
सच होने का एक ही उपाय है, और वह उपाय यह है कि तुम इस जगत में दिखावे की आकांक्षा छोड़ दो। सब झूठ उससे पैदा होता है। तुम इस जगत में वही हो रहो जो तुम होः बुरे तो बुरे, भले तो भले, चोर तो चोर, ईमानदार तो ईमानदार, साधु तो साधु, असाधु तो असाधु, तुम जो हो..तुम परमात्मा के सामने और संसार के सामने अपने को वैसा ही छोड़ दो, कह दोः यही मेरा होना है। यही परमात्मा ने मुझे चाहा है। जैसी उसकी मर्जी वैसे रहेंगे। अपना अब क्या करने को बचा!
तुम अगर बिल्कुल निष्कपट भाव से अपने को ऐसा ही खोल दो जैसे तुम हो, तुम्हारे जीवन से असत्य विदा हो जाएगा। असत्य पैदा होता है दिखावे की भावना से, प्रदर्शन से। असत्य इस बात की कोशिश है, जो मैं नहीं हूं वैसा तुम्हें दिखाई पडूं; जो मैं नहीं हूं वैसा लोग मुझे मानें; जो मेरी प्रतिमा नहीं है, वह लोगों के मन में मेरा आदर्श हो।
नहीं, तुम जैसे हो, जहां हो, वैसा ही खोल दो। रत्ती भर यहां-वहां डोलने डांवाडोल होने की जरूरत नहीं है।
तुम यहां किसी की प्रशंसा पाने नहीं आए हो और न किसी से प्रमाण-पत्र इकट्ठा करने। तुम यहां किसी की अपेक्षाएं भी पूरा करने को नहीं हो। यहां तुम स्वयं होने को हो। बस तुम स्वयं हो रहो। फिर जो हो...। और तुम अचानक पाओगेः तुम उठने लगे और ढंग से, बैठने लगे और ढंग से, बोलने लगे और ढंग से, देखने लगे और ढंग से, छूने लगे और ढंग से..तुम्हारे सारे जीवन का ढंग बदल गया। तुम्हारा अंतस बदल जाएगा तो तुम्हारा आचरण जाएगा।
कहावत ठीक ही है कि बारह वर्ष अगर कोई सत्य-भाषण करे तो मुक्त हो जाएगा। लेकिन बारह वर्ष क्या, बारह दिन भी सत्य-भाषण करना असंभव है। इसलिए कहावत यह कह रही है कि तुम सत्य हो जाओ तो ही सत्य-भाषण कर सकोगे। और जो सत्य हो गया, वह बारह वर्ष बाद मुक्त नहीं होता; वह सत्य होते ही मुक्त हो जाता है। क्योंकि सत्य और मोक्ष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
आखिरी प्रश्नः दुख के बारे में जब आप बोलते हैं तब मुझे तथा कई अन्यों को भी ऐसा लगता है कि यह तो मेरे जीवन का दुख है, उसे ओशो ने कैसे जान लिया! साथ ही मन में उठने वाले अनेक संदेहों और प्रश्नों का समाधान भी आप ही आप प्रवचन से मिल जाता है। बताएं कि इसका रहस्य क्या है?
पहली बातः तुम्हारा दुख और दूसरे का दुख अलग-अलग नहीं है। मनुष्यमात्र का दुख एक है। थोड़ी-बहुत मात्राओं के भेद होंगे, थोड़े-बहुत रंग-आकार के भेद होंगे; लेकिन दुख का स्वभाव एक है।
इसलिए जब मैं दुख के संबंध में बोलता हूं, तुम समझोगे तो जरूर लगेगा कि तुम्हारे ही दुख के संबंध में बोल रहा हूं। तुम्हारे दुख के संबंध में बोल नहीं रहा हूं; दुख के संबंध में बोल रहा हूं। दुख का स्वभाव एक हैः वह तुम्हारा हो कि पड़ोसी का हो कि किसी और का हो; अतीत के किन्हीं मनुष्यों का हो या भविष्य के मनुष्यों का हो..एक ही है। दुख का स्वभाव एक है।
ऐसा समझो कि कोई आदमी अंगारे से जल गया, कोई आदमी चिराग जलाते हुए जल गया, कोई आदमी चकमक तोड़ रहा था और जल गया..जलन तो एक ही होगी, चकमक अलग है, चिराग अलग है, अंगारा अलग है; मगर हाथ में आग से जो जलन होती है वह तो एक ही है। मैं जलन के संबंध में बोल रहा हूं, चकमक के संबंध में क्या बोलना? कहां तुम जले, इससे क्या लेना-देना है? कैसे तुम जले, इससे क्या प्रयोजन है? तुम्हारी जलन, जलन के शुद्ध स्वभाव के संबंध में बोल रहा हूं..इसलिए सभी को लगेगा कि उसके ही दुख के संबंध में बोल रहा हूं। इससे तुम भ्रांति में मत पड़ना कि मैं तुम्हारे दुख के संबंध में बोल रहा हूं। क्योंकि अहंकार बड़ा सूक्ष्म है; वह इसमें भी मजा लेता है कि देखो, मेरे ही दुख के संबंध में बोल रहे हैं! तुम्हारे दुख से क्या लेना-देना? तुम्हारा मुझे पता ही कहां है? दुख के संबंध में बोल रहा हूं!
लेकिन तुमने भी दुख जाना है, सबने दुख जाना है। जब तुम आनंद जानोगे तब जो मैं आनंद के संबंध में बोल रहा हूं वह भी ऐसा ही लगेगा कि तुम्हारे आनंद के संबंध में बोल रहा हूं।
तुम तो केवल निमित्तमात्र हो, जहां घटनाएं घटती हैं। उन घटनाओं का स्वभाव क्या है? अगर मैं एक-एक व्यक्ति के दुख के संबंध में बोलूं तब तो बड़ा मुश्किल हो जाए; तब तो विस्तार अनंत होगा; सभी के हृदय तक पहुंच पाना असंभव होगा। दुख के संबंध में बोलता हूं, बस..सबके हृदय तक पहुंच जाता हूं।
ऐसा समझो कि मैं सागर के संबंध में बोल रहा हूंः हिंद महासागर ने सुना, प्रशांत महासागर ने सुना, कि अरब महासागर ने सुना, कि अटलांटिक महासागर ने सुना..क्या फर्क पड़ेगा? मैंने अगर कहा कि सागर का पानी खारा है, वे सभी समझेंगे कि मेरे संबंध में बोल रहें हैं। सभी सागरों का पानी खारा है। यही तो तुम्हीं समझना है कि तुम्हारा दुख और पड़ोसी का दुख अलग-अलग नहीं है।
तुम मनुष्य होः तुम्हारे होने के ढंग में थोड़े-बहुत भेद होंगे, लेकिन तुम्हारी अंतःसत्ता तो एक है। तुम्हारे आंगन में जो आकाश समाया है वही तुम्हारे पड़ोसी के आंगन में भी समाया है। तुम्हारा आंगन तिरछा होगा, तुम्हारे आंगन में साधारण गरीब आदमी की मिट्टी की दीवाल होगी, पड़ोसी का आंगन कीमती होगा, संगमरमर जड़ा होगा..पर आकाश तुम्हारे मिट्टी के आंगन में भी वही है, संगमरमर के आंगन में भी वही है। मैं आकाश के संबंध में बोल रहा हूं, तुम्हारे आंगन के संबंध में नहीं। इसलिए तुम्हें स्वाभाविक लगेगा। इसमें रहस्य कुछ भी नहीं है, सीधा गणित है।
और स्वभावतः मैं शून्य में नहीं बोल रहा हूं; मैं तुमसे बोल रहा हूं; तुम्हारी गहनतम मनुष्यता से बोल रहा हूं। इसलिए मेरा, जिनको मैटाफिजीकल, पारलौकिक विषय कहें, उनमें मेरा कोई रस नहीं है; वह फिजूल की बकवास है। मैं तो मनोवैज्ञानिक सत्यों पर बोल रहा हूं। मैं तो तुम्हारे संबंध में बोल रहा हूं ताकि तुम जहां हो वहां से ही यात्रा शुरू हो सके।
मुझे फिकर नहीं है कि परमात्मा ने संसार बनाया कि नहीं बनाया, कि किस तारीख में बनाया, किस दिन में बनाया, कि हिंदुओं के ढंग से बनाया कि मुसलमानों के ढंग से बनाया..यह सब बकवास है, इस सबमें कोई अर्थ नहीं है। मैं कोई पागल नहीं हूं। मेरी दृष्टि में सभी दार्शनिक पागल हैं। वे जो बोल रहे हैं, उसका कोई मूल्य नहीं है, अर्थ नहीं है।
तुम दुखी हो, यह सत्य है। तुम हिंदू हो तो दुखी हो, मुसलमान हो तो दुखी हो, तुम मानते हो कि ईश्वर ने संसार बनाया तो दुखी हो, तुम मानते हो कि ईश्वर ने बनाया नहीं संसार, ईश्वर है ही नहीं, तो भी दुखी हो। तुम्हारे दुख को मिटाना है। और मेरे अनुभव में ऐसा है कि जब तुम्हारा दुख मिट जाएगा तो जो शेष रह जाता है वही परमात्मा है।
परमात्मा कोई धारणा नहीं है; धारणा-शून्य चित्त का अनुभव है। परमात्मा कोई सिद्धांत नहीं है कि जिसे सिद्ध करना है; परमात्मा एक प्रतीति है..आनंद की, परम आनंद की, अहोभाव की!
तो दो बातेंः एक तो व्यक्ति-व्यक्ति से क्या लेना-देना है; सब व्यक्तियों के भीतर जो एक सा है उसी के संबंध में बोल रहा हूं। और चेष्टा तुम्हें आकाश के सिद्धांत समझाने की नहीं है; पृथ्वी पर जहां तुम खड़े हो, जहां से तुम्हारी यात्रा शुरू होगी, उस संबंध में बोल रहा हूं।
इसलिए स्वभावतः अगर तुमने मुझे सुना है तो तुम्हें ऐसा ही लगेगा कि तुम्हारे संबंध में बोला हूं, बिल्कुल तुमसे बोला हूं। यह ठीक भी है लगना। लेकिन इस कारण अहंकार को मत खड़ा करना, अन्यथा तुम्हें लगेगा कि मैंने तुम्हें कोई विशेषता दी; यहां इतने लोग मौजूद थे, मैं तुम्हारे दुख के संबंध में बोलता रहा। इस तरह अहंकार को मत बचा लेना, नहीं तो दुख कभी भी न मिटेगा; क्योंकि अहंकार दुख की सुरक्षा है।
आज इतना ही।
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