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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

अकथ कहानी प्रेम की-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(प्रेम प्रसाद है

ओशो, सदगुरु शेख फरीद ने गाया है..

सूत्र:

(क)-तपि तपि लुहि लुहि हाथ मरोरऊं। बावली होई सो सहु लोरऊं।।
तैं सहि मन महि कोआ रोसु। मुझु अवगुन सह नाही दोसु।।
तैं सहिब की मैं सार न जानी। जोबनु खोई पीछे पछतानी।।
काली कोइल तू कित गुन काली। अपने प्रीतम के हउ विरहै जाली।।
पिरहि विहून कतहि सुखु पाए। जा होइ कृपालु ता प्रभु मिलाए।।
विधण खूही मुंध अकेली। ना कोइ साथी ना कोइ बेली।।
बाट हमारी खरी उडीणी। खंनिअहु तिखी बहुत पिईणी।।
उसु उपरी है मारगु मेरा। सेख फरीदा पंथु सम्हारि सवेरा।।

सलोक:

(ख)-जितु दिहाड़ै धनवरी साहे लह लिखाइ।
मलकु जिकंनी सुणीदा मुहु देखाले आइ।।
जिंदु निमाणी कढीए हडा कूं कड़काइ।
साहे लिखे न चलनी जिंदु कूं समझाइ।।
जिंदु बहूटी मरणु बरु लैजासी परणाइ।
आपण हथी जोलिकै कै गलि लगे धाइ।।
वालहु निकी पुरसलात कंनी न सुणीआइ।
फरीदा किड़ी पवंदई खड़ा न आपु मुहाइ।।
ओशो, हमें इनका अभिप्राय समझाने की कृपा करें।
जीवन का प्रारंभ तो सभी का एक सा है, लेकिन अंत नहीं। सुबह तो समान है, सांझ सबकी बड़ी भिन्न-भिन्न है। क्योंकि जन्म के साथ तो आता है व्यक्ति कोरे कागज की भांति; मृत्यु के क्षण जीवन की पूरी कथा लिख जाती है कागज पर।
जन्म निर्वैयक्तिक है, मृत्यु वैयक्तिक। मरने के करीब पहुंचते-पहुंचते तुम्हारा एक व्यक्तित्व, तुम्हारा एक ढंग, तुम्हारी एक शैली नियत हो जाती है। जन्माता तो परमात्मा है, मरते तुम हो। आते तो कोरे हो, जाते समय बहुत भर जाते हो। उसी भराव के कारण भेद है। उसी भराव का नाम अहंकार है।
अहंकार सबके अलग-अलग हैं; आत्मा एक है। आत्मा तो उस तत्व का नाम है जिसे तुम जन्म के साथ ले कर आए और अहंकार उस तत्व का नाम है जिसे तुमने ही जीवन में बनाया; जिसे तुम लाए न थे; जिसे तुमने ही संवारा-सजाया। तुम्हें तो परमात्मा ने बनाया है, लेकिन अहंकार के निर्माता तुम हो।
तो, एक तो संसार है परमात्मा का, उसका तो तुम्हें तो कुछ पता नहीं; एक संसार है तुम्हारे अहंकार का, बस उसमें ही तुम जीते हो, उसी में समाप्त हो जाते हो।
अहंकार का अर्थ हैः तुम जान ही न पाए उसे जो तुम थे। इसके पहले की तुम जानते अपने कोरेपन को, तुमने लिखावट से स्वयं को भर लिया। इसके पहले कि तुम जानते निर्मलता को..चैतन्य की, तुमने बहुत कूड़ा-कबाड़ इकट्ठा कर लिया।
इसलिए मैं फिर दोहराता हूंः जन्मते तो सभी एक जैसे हैं, मरते सभी अलग-अलग हैं। मौत का व्यक्तित्व है; जन्म निर्वैयक्तिक निराकार शून्यता है। और इसीलिए, मौत से ही पता चलता हैः तुम कैसे जीए; क्योंकि मौत घोषणा है तुम्हारे पूरे जीवन की, वक्तव्य है तुम्हारे पूरे जीवन भर। मरने के क्षण में तुम संग्रहीभूत हो जाते हो, तुम्हारा सत्तर-अस्सी साल का, सौ साल का जीवन एक क्षण में समा जाता है। उस क्षण में तुम प्रकट होते हो। जीवन भर चाहे तुम अपने को छिपा रहे हो, मृत्यु के क्षण में न छिपा सकोगे; क्योंकि छिपाने का होश भी न रह जाएगा। जीवन भर चाहे तुमने धोखा दिया हो, मृत्यु के क्षण में तुम धोखा न दे पाओगे। मृत्यु तुम्हारी असलियत खोल ही देगी। मृत्यु तो बता ही देगी कि तुम क्या थे। अगर तुम धन को पकड़ कर जीए थे तो हंसते हुए कैसे मर सकोगे? क्योंकि धन तो छूटता होगा। रोओगे, .जार-.जार होओगे। अगर तुम संपदा, पद प्रतिष्ठा को सब कुछ मान कर जीए थे, मरते वक्त कैसे शांति से विदा हो सकोगे? क्योंकि तुम्हारी नाव तो छूटने लगेगी; तुम्हारी पद और प्रतिष्ठाएं इसी तट पर पड़ी रह जाएंगी। तुम चीखोगे-चिल्लाओगे। तुम्हारा रोआं-रोआं तड़फेगा। तुम किनारे को पकड़ लेना चाहोगे; आखिरी टूटती श्वास से भी तुम इसी किनारे से अपनी खूंटी बांध रखना चाहोगे। तुम्हारी विदाई बड़ी दुखद होगी! तुम्हारी विदाई बड़ी विषाक्त होगी। तुम एक फूल की भांति मुस्कुराते हुए, एक सुगंध की भांति आकाश में मुक्त न हो जाओगे। तुम्हारे जाने में रुदन होगा, विषाद होगा। तुम्हारा जाना दुखांत होगा!
लेकिन जिसने जीते-जी जान लिया कि मौत करीब आती है; जिसने जीते-जी पहचान लिया कि मरना होगा; और जिसे यह बात इतनी गहराई से समझ में आ गई कि उसने मरने के पहले ही अपने को छोड़ दिया, मरने के पहले ही मार डाला अपने को; जिसने यह जान लिया कि मैं वैसा ही जाऊंगा जैसा आया था, कोरा, खाली, सब पकड़ व्यर्थ है; जो मरने के पहले फिर कोरा कागज हो गया; जिसने अपनी मौत को वैसा ही निर्विकार और शुद्ध कर लिया जैसा जन्म था..उसका जीवन एक वर्तुल हो गया; उसके जीवन में अधूरापन न रहा, एक परिपूर्णता हो गई। उसकी विदाई बड़ी भिन्न होगी। उसकी विदाई पर सारा अस्तित्व प्रसन्न होगा; क्योंकि उसकी विदाई एक परिपूर्णता की विदाई होगी। वह रोता हुआ न जाएगा। उसके ओंठों पर गीत होंगे। उसके प्राणों में उल्हास होगा, आनंद होगा। वह नाचता हुआ विदा होगा। वह जाते समय किसी से उसकी कोई शिकायत न होगी, आशीर्वाद होंगे। इस किनारे को वह धन्यवाद दे सकेगा। इस किनारे पर इतनी देर रहा, इस किनारे ने इतनी देर सम्हाला; अब वह दूसरे किनारे के लिए विदा हो रहा है..इस किनारे के प्रति भी उसके मन में बड़ी गहन कृतज्ञता होगी। उसकी विदाई ऐसे होगी जैसे कोई फूल अपनी सुगंध को मुक्त करे। वह दुर्गंध की तरह नहीं जाएगा। और उसकी मृत्यु फिर स्वभावतः मृत्यु जैसी न होगी, महाजीवन का प्रारंभ होगा।
तो, अगर हम सभी व्यक्तियों की मृत्युओं को बांटना चाहें तो दो मोटी कोटियों में बांट सकते हैंः एक, अधिक लोगों की मृत्यु जिस भांति होती है; और दूसरी, कुछ बुद्धपुरुषों की। करोड़ में एक जैसा मरता है और करोड़ जैसे मरते हैं..दो मोटे विभाजन हम कर सकते हैं। वह जो करोड़ों लोगों के मरने का ढंग है वह ऐसा है कि उसमें एक जीवन तो समाप्त हो जाता है, दूसरे का प्रारंभ नहीं होता।
इसे तुम ठीक से समझो। यह बात थोड़ी बारीक है; और तुम्हारे ख्याल में आ जाए तो तुम्हारे भीतर चेतना का एक तल ऊपर उठ जाएगा।
एक तो मौत ऐसी है..अधिक लोगों की मौत कि जीवन तो समाप्त हो जाता है, महाजीवन की शुरुआत नहीं होती, व्यक्ति अधर में टंग जाता है। सीढ़ी तो छूट जाती है। अब तक जिस सीढ़ी पर खड़े थे वह तो छूट जाती है, नई भूमि नहीं मिलती जहां पैर को रख लें..जैसे कोई गड्ढे में गिर गया। एक द्वार तो बंद हो जाता है, जिसे अब तक पहचाना था; कोई नया द्वार नहीं खुलता, सामने दीवाल आ जाती है। एक राह तो पूरी हो जाती है, जिस पर अब तक चले थे जन्म से लेकर; लेकिन कोई नई राह शुरू होती मालूम नहीं होती। यही तो करोड़ों जनों के मरते समय की पीड़ा है। काश, नया द्वार खुल जाए तो कौन रोता है पुराने द्वार के लिए! नया मार्ग खुल जाए तो कौन व्यथित होता है पुराने मार्ग के लिए! नयी भूमि मिल जाए पैर रखने को तो कौन चीखता-चिल्लाता है, कौन पागल पीछे लौट कर देखता है!
वह जो दूसरी मौत है, बहुत थोड़े से गिने-चुने लोगों की..जो कि सबकी हो सकती है, लेकिन सबकी हो सकती है, लेकिन सबकी है नहीं; जिसके सभी अधिकारी हैं, लेकिन अपने अधिकार की घोषणा नहीं कर पाते; जो सभी को मिल सकती थी, लेकिन जो उसे कमा नहीं पाते, जो जीवन को यूं ही गंवा देते हैं..उस मृत्यु में जीवन तो समाप्त होता है, महाजीवन उपलब्ध होता है। बूंद तो छूट जाती है हाथ से, लेकिन सागर हाथ में उतर आता है। रोने का प्रश्न नहीं है; महोत्सव का क्षण है! छोटा सा क्षुद्र द्वार तो बंद होता है..जैसे कि कोई टनल में, बोगदे में चलता रहा हो..और अचानक खुला आकाश आ जाता है! कौन पागल लौट कर रोएगा! सरकते थे, घसिटते थे; छोटी राह थी, संकीर्ण मार्ग था..कीड़ों कि तरह चलना पड़ रहा था; अचानक बोगदा समाप्त हुआ, खुला आकाश सामने आ गया..तारों से भराः कौन लौट कर पीछे देखता है! एक द्वार बंद हो जाता है, नया द्वार खुल जाता है! और नया द्वार महाद्वार है! अब तक जिसे जीवन कहा था वह मृत्यु जैसा मालूम पड़ता है; क्योंकि महाजीवन के समक्ष उसे जीवन कहना उचित नहीं।
श्री अरविंद ने कहा है कि जब जाना तब पाया कि जिसे जीवन कहते थे वह तो मृत्यु थी; और जिसे अब तक प्रकाश समझा था, वह तो अंधकार का एक ढंग था; और जिसे अब तक अमृत मान कर चले थे, वह महाविष सिद्ध हुआ, जहर सिद्ध हुआ। लेकिन यह तुलना तो तभी होगी संभव जब तुम अपने संकीर्ण द्वार से बाहर आ जाओ।
ऐसा ही समझो कि एक बच्चा मां के पेट में बंद है, नौ महीने तक वह उसे ही जीवन समझता है, कोई और जीवन जानता भी नहीं, वही एकमात्र जीवन है। मां के पेट में होना भी कोई जीवन है? ज्यादा से ज्यादा जीवन की तैयारी हो सकती है, जीवन नहीं। थोड़ा सोचो, अगर तुम सदा के लिए मां के पेट में ही बंद रह जाते, न सूरज की किरणें तुम्हें छूतीं, न पक्षियों के गीत तुम्हें सुनाई पड़ते, न तुम्हारे जीवन में प्रेम का आविर्भाव होता, न तुम प्रार्थना से परिचित होते, न तुम जीवन के झंझावात और तूफानों में खड़े होते, न तुम सागर की लहरें जानते, न तुम्हें हिमालय के उत्तुंग शिखर दिखाई पड़ते, तुम बंद रहते एक खोल में मां के पेट में..तो चाहे कितनी ही सुविधा रही होती, तुम थोड़ा सोचो, तुम उसे जीवन कहते? तुम उसके लिए राजी होते?
लेकिन हर बच्चा पैदा होने के पहले घबड़ाता है..मनोवैज्ञानिक कहते हैं उसे बर्थ-ट्रामा..हर बच्चा घबड़ा जाता है जन्म के पहले; क्योंकि उसे तो ऐसा ही लगता है, उसकी जानकारी में ऐसा ही आता है कि यह तो मरना हो रहा है। वह और तो कोई जीवन जानता नहीं, इस मां के पेट में बंद जीवन को ही जीवन जाना था, और इसमें सब तरह की सुविधा थी; कोई चिंता न थी, कोई बेचैनी न थी, कोई नौकरी न करनी थी, कोई बाजार न जाना था, कोई दफ्तर में काम न करना था। सब बैठे-बैठे मिल जाता था, सोए-सोए मिल जाता था। मां का खून खून बनता था, मां के भोजन से भोजन मिल जाता था, मां की श्वास श्वास बन जाती थी; खुद कुछ करने की बात ही न थी। कर्म तो था ही नहीं कुछ।
बच्चा डरता है, घबड़ाता है। और जब मां के पेट से बच्चे को पैदा होना पड़ता है तो एक सुरंग से, एक टनल से गुजरता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इसलिए सुरंग से गुजरने में डर लगता है। और जहां भी तुम्हें सरकना पड़े और जगह संकीर्ण हो जाए वहीं भय मालूम होने लगता है। क्योंकि बच्चे का जो पहला भय है, वह सुरंग का भय है। मां के पेट से पैदा होते वक्त जिस नली से उसे गुजरना पड़ता है वह अत्यंत संकरी है; वह सब तरफ से दबोचती है, सब तरफ से प्राण उसके संकट में पड़ जाते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जीवन भर जहां भी तुम्हें फिर कहीं ऐसी स्थिति आ जाएगी जहां तुम दबाए हुए अपने को अनुभव करोगे, तत्क्षण तुम्हें बर्थ-ट्रामा, वह जो जन्म की पीड़ा थी, उसका पुनः स्मरण हो जाएगा, तुम फिर घबड़ा जाओगे। इसलिए तो तुम्हें भीड़ में घबड़ाहट मालूम होती है। अगर चारों तरफ से भीड़ ही भीड़ दबा रही हो, दबोच रही हो तो तुम्हें बड़ी हैरानी मालूम होती है, बड़ी भीतर बेचैनी..जैसे गला घोंटा जा रहा हो। वह घबड़ाहट जन्म के समय बच्चे ने जो पहला अनुभव किया है उसकी घबड़ाहट है। बच्चे को ऐसा ही लगता है वह मरा। और यह बिल्कुल तर्कयुक्त है लगना; क्योंकि और तो कोई जीवन बच्चा जानता नहीं; जो जीवन था, उजड़ा; जिसे अब तक सुख-सुविधा मानी थी, वह मिटी।
मृत्यु भी एक सुरंग है। अगर घबड़ा न गए, अगर इतने न घबड़ा गए कि बेहोश हो गए घबड़ाहट में, इतने दुखी और बेचैन न हो गए, जो छूट रहा है उसके कारण कि जो मिल रहा है वह दिखाई ही न पड़े-कई बार तुम्हारे हाथ से कंकड़-पत्थर छीने जाते हैं, लेकिन कंकड़-पत्थरों को तुमने हीरे समझा था; तुम उन्हें छोड़ते नहीं, तुम मुट्ठी बांधते हो; तुम सारी ताकत लगाते हो कोई छुड़ा न ले..तुम्हें पता नहीं है कि हीरे-जवाहरात दिए जाने की तैयारी की जा रही है। तुम्हें पता हो भी कैसे सकता है? तो तुम इतना उपद्रव मचा सकते हो कंकड़-पत्थर छोड़ने में कि तुम बेहोश हो जाओ; तुम इतने दुखी हो सकते हो कि चैतन्य खो दो..फिर हीरे-जवाहरात पड़े रह जाएंगे। तुम इसी पीड़ा में पड़े रहोगे कि तुम्हारे जीवन का सब सार छीन लिया गया।
मृत्यु एक सुरंग है। जो घबड़ा गया, जो डर गया, जिसने जोर से पकड़ा, वह आगे खुलने वाले आकाश को न देख पाएगा। जो न डरा, जो न घबड़ाया, बल्कि जो उत्सुक रहा, जो बड़ी गहन जिज्ञासा से प्रतीक्षा किया, और जिसने जाना कि यह सुरंग है, पार हो जाएगी..और जिसे मैंने अब तक जीवन कहा था, वह एक सुरंग का जीवन था, संकीर्ण था बहुत, गला घोंटा जा रहा था उसमें, कुछ मिल नहीं रहा था..उसे जैसे ही खुले आकाश के दर्शन होंगे, उसके अहोभाव की कोई सीमा नहीं! उस क्षण पता चलेगा कि जिसे जीवन कहा वह मृत्यु थी; जिसे प्रकाश कहा वह अंधकार था; जिसे अमृत कहा वह जहर था। पर तुलना अभी तो नहीं पैदा हो सकती।
तो, दो तरह की मृत्युएं हैं मोटे अर्थों में। ऐसे तो प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु बड़ी निजी और वैयक्तिक है। जैसे तुम्हारे हस्ताक्षर अलग हैं ऐसे तुम्हारी मौत अलग है। जैसे तुम्हारे अंगूठे का चिह्न अलग है ऐसे तुम्हारी मौत अलग है। तुम्हारा जीवन तो एक है, लेकिन मौत अलग-अलग है। तुम्हारे भीतर छिपा विराट तो एक है, लेकिन तुम्हारी क्षुद्रता अलग-अलग है। तुम्हारे भीतर का आकाश तो एक है, लेकिन तुम्हारे आंगनों की दीवाल अलग-अलग है, अलग-अलग ढंग की है।
फिर भी मोटे अर्थों में दो विभाजन हो सकते हैं और वे दो विभाजन कीमती हैं। एक तो जागे हुए व्यक्ति की मृत्यु है..जागा हुआ यानी वह जिसने मरने के पहले मृत्यु को स्वीकार कर लिया; जो मरने के पहले मर गया। और दूसरी मृत्यु सोए हुए व्यक्ति की मृत्यु है। और तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम कैसे मरोगे; क्योंकि तुम जैसे जीयोगे वैसे ही तुम मरोगे। मृत्यु तुम्हारे पूरे जीवन का सार-निचोड़ निष्कर्ष होगी, निष्पत्ति होगी। अगर तुम गलत जिए, तुम गलत मरोगे। अगर तुम सम्यक जिए, तुम सम्यक मरोगे। अगर तुम छोड़ते हुए जिए तो मृत्यु के पहले तुमने वह सब छोड़ ही दिया होगा तो किनारा तुमसे छीना जाने वाला है; तुम खुद ही छोड़ कर नाव में बैठ गए थे, तुम तैयार ही थे कि कब पाल खुल जाए, कब इशारा मिले और नाव यात्रा पर निकल जाए।
त्याग का इतना ही अर्थ है। त्याग का अर्थ घर छोड़ कर भाग जाना नहीं, न दुकान छोड़ कर भाग जाना है। त्याग का अर्थ इतना ही हैः तुम जहां भी हो, जिस स्थिति में भी हो, उससे इतना ग्रसित मत हो जाना कि जब वह छीनी जाए तो तुम पीड़ा से भर जाओ..बस! छोड़ कर भागने की कोई जरूरत नहीं है, छोड़े हुए होने का भाव पर्याप्त है। तुम कैसे, कहां जी रहे हो..यह सवाल नहीं है; तुम्हारे भीतर की दृष्टि क्या है...। अगर तुम यह जान कर जी रहे हो कि यह सब छिन जाएगा, और इस छिनने से तुम्हें कोई पीड़ा होने की संभावना नहीं है तो तुम जहां भी जी रहे हो, तुम संन्यासी हो। अगर तुम जंगल भाग गए और एक लंगोटी रख ला पास और एक झोपड़ी बना ली, और तुम्हें डर लगता है कि अगर यह छिनेगी तो मैं छोड़ न पाऊंगा, जब मौत आकर लंगोटी मांगेगी तो मेरे हाथ सरलता से खुलेंगे नहीं..तो तुम वहां भी संसारी हो।
संसार और संन्यास दृष्टिकोण हैं, तुम्हारे भीतर की बड़ी आत्यंतिक भावदशाएं हैं।
जो व्यक्ति संन्यासी की तरह जीआ, उसकी मृत्यु महाजीवन का द्वार बन जाती है। जो व्यक्ति संसारी की तरह जीआ उसकी मृत्यु, सिर्फ जीवन का अंत तो हो जाता है, नये जीवन का आविर्भाव नहीं होता। पुराना दीया बुझ जाता है, नया सूरज उगता नहीं। सब जाना-माना खो जाता है और अपरिचित का अवतरण नहीं होता। हाथ से कंकड़-पत्थर तो छूट जाते हैं..जिन्हें हीरे-जवाहरात समझा था..और हीरे-जवाहरात हाथ में आते नहीं। इसलिए मृत्यु ऐसे व्यक्ति की बड़ी विडंबना हो जाती है।
ये दो मृत्युएं ख्याल में रखें, फरीद के वचन समझ में आ सकेंगे।
‘विरह-ज्वर से मेरा अंग-अंग जल रहा है। और मैं अपने हाथों को मरोड़ती हूं। प्रीतम से मिलने की लालसा ने मुझे बावली बना दिया है’..
तपि तपि लुहि लुहि हाथ मरोरऊं। बावलि होई सो सहु लोरऊं।।
इसके पहले फरीद ने कहा कि एक ऐसी घड़ी आती है जब आशिक माशूक हो जाता है; एक ऐसी घड़ी आती है प्रेम के ज्वर की जब कि प्रेमी प्रेयसी हो जाता है। अब ये सारे वचन फरीद प्रेयसी की भांति कह रहा है। अब परमात्मा प्रीतम है, फरीद प्रेयसी है। परमात्मा पुरुष है, फरीद स्त्री है। ये उस घड़ी के बाद के वचन हैं, ख्याल रखना; अन्यथा तुम्हें हैरानी होगी कि फरीद अचानक स्त्री के ढंग से क्यों बोलने लगा!
मैंने तुम्हें कहा कि जब तुम परमात्मा के प्रेम में शुरू-शुरू में उतरते हो तब तुम्हारा प्रेम भी आक्रामक होता है; तुम इस तरह जाते हो जैसे परमात्मा पर कोई आक्रमण बोल दिया हो, धावा बोल दिया हो; तुम्हारी प्रार्थना भी आक्रामक होती है, तुम्हारी पूजा भी आक्रामक होती है। स्वाभाविक है। लेकिन जैसे-जैसे तुम्हें पूजा और प्रार्थना का आनंद मिलना शुरू होता है और जैसे-जैसे तुम्हें यह समझ में आता है कि मेरेे आक्रमण का भाव ही मेरी पूजा की कमी है, मेरे आक्रमण का भाव ही मेरी प्रार्थना का दंश है; जैसे-जैसे तुम्हें समझ में आता है कि आक्रमण के भाव के कारण ही मेरे पूजा के दीये से अंधेरा निकलता है, प्रकाश नहीं निकलता; आक्रमण के भाव के कारण मेरा अहंकार मजबूत ेबना है, पूजा होगी कैसे, प्रार्थना होगी कैसे, मेरा अहंकार मुझे मंदिर के भीतर आने कैसे देगा?
मंदिर के भीतर तो तभी प्रवेश होता है जब तुम अहंकार को वहीं रख आते हो जहां तुम जूते उतार आते हो; वहीं छोड़ आते हो अहंकार को!
बंगाल में एक पुरानी बाउलों की कथा है कि एक व्यक्ति वृंदावन की यात्रा को गया। बाउल भक्तों के लिए वृंदावन परमात्मा का घर है, वह बैकुंठ है। यह सब छोड़ दिया है इसने, सब त्याग कर दिया; क्योंकि उस परमात्मा के घर तक जाने में क्या ले जाया जा सकता है! परमात्मा के घर की यात्रा तो ऐसे है जैसे कोई पहाड़ पर चढ़ता है, जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती है वैसे-वैसे बोझ कम करना पड़ता है; क्योंकि जितनी ऊंचाई बढ़ने लगती है, उतना बोझ ज्यादा बोझ मालूम होने लगता है। ऊंचाई पर चढ़ना हो तो बोझ कम करते जाना है। जब कोई गौरीशंकर के शिखर पर पहुंचता है तो सभी बोझ छूट जाता है, अकेला ही खड़ा होता है।
तो वृंदावन आते-आते उसने सब त्याग कर दिया, कुछ भी न बचा; सिर्फ एक जोड़ी कपड़ा रह गया पहना हुआ और एक जोड़ी कपड़ा रह गया..स्नान करके बदलने को। वह भी इसीलिए बचा लिया कि वृंदावन के मंदिर में बिना स्नान किए कैसे प्रवेश हो सकेगा? तो एक छोटी सी पोटली जिसमें एक जोड़ी कपड़ा, बस यही कुल सामान रह गया। वह भी स्नान की दृष्टि से ही बचाया था। वह भी कोई अपने शरीर को सजाने का सवाल न था..लेकिन परमात्मा के मंदिर में बिना स्नान के कैसे प्रवेश करूंगा! वह द्वार पर खड़ा हो गया मंदिर के, लेकिन द्वारपाल ने दोनों हाथ से उसे द्वार पर रोक दिया, और कहाः भीतर न जा सकोगे। भीतर तो वही जाता है जिसके पास कुछ भी न हो।
वह बाउल हंसने भी लगा, रोने भी लगा। वह हंसने लगा। उसने कहाः तुम भी पागल मालूम होते हो! मेरे पास क्या बचा है? एक पोटली है, इसमें एक जोड़ी कपड़ा है सिर्फ। वह भी मेरे लिए नहीं है, वह भी इसलिए कि मंदिर में बिना स्नान किए कैसे जा सकूंगा! और मेरे पास कुछ भी नहीं है, इसलिए तुम्हारी बात पर हंसी भी आती है। और तुम्हारी बात से रोता भी हूं कि अगर तुमने भीतर न जाने दिया तो अब क्या होगा? इसी एक आशा से तो चलता रहा हूं।
उस द्वारपाल ने कहा कि तुम्हारी पोटली में अगर कपड़े ही होते तो हम जाने देते; बड़ा सूक्ष्म अहंकार छिपा है! यह बिना स्नान किए तुम कैसे जाओगे..यह भी परमात्मा का सवाल नहीं है! परमात्मा तो तुम्हें बिना स्नान किए भी स्वीकार कर लेगा। उसके लिए तो तुम सद्यःस्नात हो, स्नान किए ही हो। उसके लिए कुछ अपवित्र कभी कुछ हुआ ही नहीं है। लेकिन तुम बिना स्नान किए कैसे जाओगे! नहीं, यह तुम्हारे अहंकार को बात नहीं रुचती। पोटली में कपड़े ही होते तो चले जाने देते; पोटली में भारी अहंकार तुम लिए हो..इसे छोड़ आओ। मंदिर के द्वार तब तक नहीं खुल सकते जब तक तुम अपने को बाहर नहीं छोड़ आए हो।
अगर स्नान का भाव अहंकार हो सकता है तो तुम्हारी पूजा, तुम्हारी प्रार्थना, तुम्हारी अर्चना, तुम्हारी गीता, तुम्हारी कुरान, तुम्हारी बाइबिल..बाइबिल, कुरान, गीता से तुम्हें कुछ लेना नहीं है..तुम्हारा! पूजा-अर्चना के तुम्हारे ढंग, विधियां, शैलियां! ये भी नहीं। तुम्हारा भगवान!
किसी का कृष्ण भगवान है, किसी का महावीर, किसी का बुद्ध। जो बुद्ध को भगवान मानता है, कृष्ण के सामने सिर नहीं झुकाता। अपने-अपने भगवान के सामने लोग सिर झुकाते हैं। ऐसा हर किसी, ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे के भगवान के सामने सिर झुका देंगे!
मैं बहुत वर्षों तक जबलपुर में रहा। वहां एक बार गणपति विसर्जन के समय एक बड़ी झंझट हो गई। नियम था कि जब भी गणपति विसर्जित होते तो जो शोभायात्रा निकलती, उसमें ब्राह्मणों के मोहल्ले के गणेश सबसे आगे, फिर क्रमशः और लोगों के गणेश होते। एक वर्ष ब्राह्मणों के गणेश को आने में थोड़ी देर हो गई। और जुलूस को तो समय पर निकलता था, क्योंकि समय पर उसे कहीं पहुंचना था विसर्जन के लिए। इसलिए जुलूस तो निकल गया; ब्राह्मण बाद में पहुंचे। बड़ा उपद्रव मच गया। और बीच रास्ते में उन्होंने जुलूस रुकवा दिया और जो बात हुई वह बड़े मजे की थी। वह आदमी के संबंध में बड़ी खबर देती है। हुआ यह कि चमारों के गणेश आगे हो गए। अब चमारों के गणेश की कोई हैसियत! तो ब्राह्मणों ने कहाः हटाओ चमारों के गणेश को पीछे! अपनी-अपनी हैसियत से रहना ठीक है। देर भले हो जाए, लेकिन गणेश तो ब्राह्मणों के ही आगे होंगे।
गणेश भी चमारों के और ब्राह्मणों के अलग-अलग हैं। वहां भी ब्राह्मण का अहंकार है!
तुम अपने भगवान के सामने झुकते हो। इसका मतलब हुआ कि तुम अपने ही सामने झुकते हो, तुम किसी के सामने नहीं झुकते। यह तुम्हारा भगवान तुम्हारे ही अहंकार की पूजा है। अन्यथा तुम झुकते; क्या लेना-देना था कि मस्जिद होती कि मंदिर होता कि चैत्यालय होता कि गुरुद्वारा होता..क्या फर्क पड़ता था? तुम्हें झुकने में अगर मजा आ गया होता तो तुम कहते, चलो मस्जिद के बहाने झुक जाएं यहां, वहां मंदिर के बहाने झुक जाएंगे; जहां कृष्ण के बहाने झुकने का मौका मिलता है, क्यों छोड़ें; वहां महावीर के बहाने भी झुक जाएंगे..क्योंकि जहां जितना मौका मिल जाए झुकने का उतना अच्छा है; क्योंकि उतने ही टूटने की सुविधा है, उतनी ही प्रार्थना बनेगी, उतना ही प्रार्थना में से दुर्गंध हट जाएगी।
लेकिन नहीं, लोग अपनी ही पूजा कर रहे हैं। तुमने कृष्ण की प्रतिमा में अपने अहंकार को ही बिठा लिया है और तुमने महावीर में भी अपने को ही खड़ा कर लिया है। यह तो दूर की बात है, मैं एक गांव में ठहरा। वहां एक जैन मंदिर है, उस पर झगड़ा चलता है वर्षों से मुकदमा है, लट्ठबाजी हो गई। अहिंसक हैं और लट्ठबाजी होती है। दो दल हैं श्वेतांबरों के, और दिगंबरों के दोनों में लट्ठबाजी हो गई। हालत यहां तक हो गई कि पुलिस को उनके भगवान पर ताला लगा देना पड़ा। मैंने पूछा कि तुम तो दोनों अहिंसक हो! उन्होंने कहा कि अहिंसक होना ठीक है, लेकिन जब भगवान की रक्षा का सवाल हो तो चाहे जान रहे की जाए... मर जाएंगे, मिटा देंगे, मगर भगवान का सवाल है! मैंने उनको कहाः मैंने तो सुना है कि भगवान तुम्हारी रक्षा करता है; तुम कब से भगवान की रक्षा करने लगे? और अगर तुम्हारे हाथ में भगवान की रक्षा पड़ जाएगी तो भगवान बड़ी मुसीबत में पड़ेगा। तुम अपनी नहीं कर पा रहे हो रक्षा, इसलिए तो भगवान को तलाशा है। अभी तुमने और उलटा उपद्रव ले लिया। खोजने गए थे रक्षक को और तुम खुद ही रक्षक हो गए।
और झगड़ा क्या है? झगड़ा ऐसा बचकाना है कि सिर्फ धार्मिक अंधों को दिखाई नहीं पड़ता। जिनके पास जरा-सी भी समझ की आंख है उनको तत्क्षण दिखाई पड़ जाएगा, हंसी आएगी कि यह कोई झगड़ा है!
झगड़ा यह है कि श्वेतांबर महावीर की मूर्ति की पूजा करते हैं..उसी मूर्ति की जिसकी दिगंबर करते हैं, कोई खास भारी फर्क नहीं है, जरा सा फर्क है..वह फर्क यह हैं कि श्वेतांबर खुले आंख महावीर की पूजा करते हैं और दिगंबर बंद आंख वाले महावीर की पूजा करते हैं। दिगंबर कहते हैं कि तीर्थंकर तो बंद आंख किए ध्यानस्थ खड़े हैं, अंतर्मुखी हैं, यह खुली आंख तो बहिर्मुखता का लक्षण है। श्वेतांबर कहते हैं कि जिसने अपने को जान ही लिया वह किसलिए आंख बंद किए खड़ा है? अब तो आंख खोल सकता है यह। यह तो साधक की बात है कि आंख बंद करे और ध्यान करे, सिद्ध की तो नहीं। सिद्ध की तो आंख खुल गई, अब क्या है? आंख ही खुल गई..अब बंद करने का कहां सवाल है? यह तो रास्ते पर चलने वालों कि बात है।
यह झगड़ा है।
तो एक ही मंदिर में पूजा करते हैं, एक ही प्रतिमा की पूजा करते हैं; लेकिन समय बांध दिए हैं; बारह बजे तक दिगंबर पूजा करेंगे..तो बंद आंख भगवान की! अब पत्थर कि मूर्तियां हैं, उनकी आंखें इतनी सरलता से खोली नहीं जा सकतीं, तो ऊपर से झूठी आंखें चिपका देते हैं, तो ऊपर से फिक्स करने वाली हैं; जैसा तुम चश्मा लगा लेते हो ऐसा ऊपर से लगा देने वाली आंखें हैं। श्वेतांबर जब पूजा करते हैं वे आंखें लगा लेते हैं; दिगंबर जब पूजा करते हैं; वे आंखें अलग कर दी जाती है। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि दिगंबरों की पूजा में जरा देर हो गई और श्वेतांबर पहुंच गए तो लट्ठबाजी हो जाती है कि हटाओ, अब भगवान की आंख खुलने का वक्त आ गया! इस पर मुकदमे चलते हैं, मारपीट हो जाती है।
पर थोड़ा सोचो, तुम्हें महावीर से लेना-देना है? अगर तुम्हें महावीर से लेना-देना होता तो ये दोनों आग्रह गलत हैं। न तो महावीर ने चैबीस घंटे आंख बंद की होगी और न महावीर ने चैबीस घंटे आंख खोली होगी; झपकते होंगे; कभी बंद भी करते होंगे, कभी खोलते भी होंगे, रात सो जाते होंगे तो आंख बंद करके सोते थे। दिन जगते थे तो आंख खोल कर ही चलते थे रास्तों पर, भिक्षा मांगने जाते थे। आंख जैसी आंख थी, जैसी तुम्हारी आंख झपकती है। जिंदा आंख झपकती है, मुर्दा आंख रुक जाती हैः बंद तो बंद, खुली तो खुली। तुम मरी हुई आंख को पूज रहे हो। जिंदा आंख को पूजते तो तुम कहते, दोनों ही घटनाएं घटती हैं, दोनों ही सही हैं। कुछ चुनाव नहीं है। जैसे नदी के दो किनारे होते हैं ऐसे चेतना की अंतर्मुखता और बहिर्मुखता है। जैसे श्वास भीतर आती है बाहर जाती है, ऐसे ही चेतना भी भीतर जाती है बाहर आती है। जिसने दोनों के मध्य अपने को साध लिया वही सिद्ध है। जो एक में जकड़ गया वही पंगु है।
लेकिन तुम्हारे भगवान वस्तुतः भगवान नहीं हैं; तुम्हारे हैं, इसलिए भगवान हैं। भगवान होने के कारण तुम्हारे होते तो बात और होती; तब तो तुम्हें मस्जिद में भी पहचान में आ जाते, जहां कोई मूर्ति न थी। तुम कहते, भगवान यहां निराकार है। कृष्ण के मंदिर में जाते, तो तुम कहते, भगवान यहां बांसुरी बजा रहे हैं। महावीर के मंदिर में जाते, तुम कहते, भगवान यहां ध्यान कर रहे हैं। तुम्हें भगवान ही दिखाई पड़ता! लेकिन तुम्हारा मैं भगवान को नहीं देखता, न देखने का उसे कोई सवाल है; वह अपने भगवान को देखता है। वह ठीक देख लेता हैः अपने ही हैं? कहीं कोई धोखा-धड़ी तो नहीं? ..तब झुकता है।
तुम ही अपने अहंकार के सामने झुकते हो। अच्छा होता! तुम क्यों व्यर्थ की मूर्तियां बनाते हो? तुम आईना लगा लो घर में, उसी में अपने को देखो, अपना रूप निहारो, पूजा के थाल सजाओ, आरती उतारो। वह कम से कम तो सचाई तो होगी; तुम्हारे संबंध में कम से कम झूठ तो न होगा। और उसमें एक फायदा है, और वह फायदा यह है कि बहुत मूर्तियों की जरूरत न रहेगी; तुम जब उतारो मूर्ति की पूजा तब तुम रहोगे; तुम्हारी पत्नी उतारे तब वह रहेगी, तुम्हारा लड़का उतारे तब वह रहेगा..एक दर्पण सभी के लिए मंदिर का काम दे देगा। हिंदू आ जाए तो हिंदू, मुसलमान आ जाए तो मुसलमान, चोटी बांधे हुए हो तो चोटी, चोटी न हो तो बिना चोटी..कम से कम दर्पण तुम्हीं को बताता रहेगा। मूर्तियों ने तुम्हें धोखा दे दिया है, लेकिन हैं वे तुम्हारी ही मूर्तियां।
यह जो फरीद कहते हैं कि ऐसी घड़ी आई...ऐसी घड़ी आती है भक्त के जीवन में जब आक्रमण बिल्कुल खो जाता है।
आक्रमण यानी अहंकार।
अहंकार शुद्धतम आक्रमण है। जब तक तुम्हारे भीतर अहंकार है तब तुम अहिंसक न हो सकोगे; तब तक तुम्हारी अहिंसा में भी हिंसा ही छिपी होगी, तब तुम अहिंसा के नाम पर भी हिंसा ही करते रहोगे, और तुम्हारी हिंसा बड़े सुंदर रूप संवार लेगी। भीतर तो भयंकर कुरूपता होगी, ऊपर से अहिंसा के वस्त्र हो जाएंगे, आवरण हो जाएंगे।
नहीं, अहंकार के रहते कोई अहिंसक नहीं हो सकता। और अहंकार के रहते जब अहिंसक ही नहीं हो सकते तो प्रेमी क्या खाक हो सकोगे? अहिंसक का तो कुल इतना ही मतलब होता है कि दूसरे को दुख न देंगे; प्रेमी का मतलब होता है, दूसरे को सुख देंगे। जब अहिंसक ही नहीं हो सकते तो क्या खाक प्रेमी हो सकोगे? प्रेम तो अहिंसा की पराकाष्ठा है। अहिंसा तो प्रेम की शुरुआत है..क ख ग बिल्कुल प्रारंभ है बारहखड़ी का। अहिंसा का तो मतलब होता है, हम कम से कम दूसरे को दुख न देंगे; इतना तो हम नहीं कह सकते कि हम सुख दे सकेंगे, इतना हमें अभी हम पर भरोसा नहीं..लेकिन इतना हम कह सकते हैं कि दुख न देंगे। अहिंसा निषेधात्मक है। फिर दूसरे कदम पर चेष्टा करेंगे; जब दुख न देंगे..ऐसी घड़ी आ जाएगी, तो फिर सुख देने की संभावना, खुलती है..तो फिर हम सुख देंगे।
अहंकार न तो अहिंसक होने देता है, प्रेमी तो कैसे होने देगा? भक्त होने का तो कोई उपाय ही नहीं; क्योंकि भक्ति तो प्रेम से भी ऊपर है। अहिंसक कहता है, दूसरे को दुख न देंगे; हिंसक कहता है, दूसरे को दुख देने में ही सुख है। अहिंसक कहता है, दूसरे को दुख न देने में सुख है। प्रेमी कहता है, दूसरे को सुख देने में सुख है। और भक्त कहता है, दूसरा दूसरा न रह जाए, मेरा मेरा न रह जाए, पराया पराया न रह जाए..तब सुख है।
भक्ति परम स्थिति है; वह आखिरी बात है। उससे ऊपर फिर कोई और ऊंचाई नहीं। वह अंतिम आकाश है।
फरीद कहते हैं; ऐसी घड़ा आती है भक्त की जब आक्रमण चला जाता है; जब वह ऐसे नहीं जाता मंदिर की तरफ जैसे कुछ छिनने जा रहा हो; ऐसे नहीं जाता मंदिर की तरफ जैसे भगवान से कोई शिकायत कर रहा हो कि इतनी देर से प्रार्थना कर रहा हूं, अभी तक नजर न हुई, इस तरफ कब देखोगे? नहीं, वह मंदिर ऐसे जाता है..शिकायत की तरह नहीं, अहोभाव की तरह, कि जो दिया है वह जरूरत से ज्यादा है; मेरी कोई योग्यता न थी और दिया है; मेरी कोई पात्रता न थी और तुम बरसाए चले जाते हो; तुम रोज मेघ बनाए चले जाते हो; तुम अमृत गिराए चले जाते हो; तुम यह भी फिकर नहीं करते कि मेरा पात्र सीधा रखा है कि उलटा रखा है, कि मेरे पात्र में सम्हलता है कि नहीं सम्हालता है! तुम औघड़दानी हो! तुम दिए ही चले जाते हो; इसकी फिकर नहीं करते कि दूसरों को चाहिए भी, अभी अक्ल भी है लेने की या नहीं! तुम लुटाए जाते हो!
इसका धन्यवाद देने जब भक्त जाने लगता है तब उसके जीवन में स्त्रैण भाव आता है; तब वह सिर्फ स्वीकार की अवस्था में होता है, आक्रमण की नहीं। वह कहता हैः तुम जो दे दोगे, ले लेंगे और नाचेंगे। तुम जो न दोगे, समझ लेंगे कि हमारे लिए खतरा था। तुम्हारे न देने को समझ के नाचेंगे। तुम हमारे नाच को न रोक सकोगे अब! बरसोगे तो नाचेंगे, न बरसोगे तो नाचेंगे; क्योंकि अब हम जानते हैं कि तुम्हारे हाथों में छोड़ दिया, अब तुम जहां ले जाओगे!
एक तो वृक्ष हैः अपने सहारे खड़ा होता है; एक लता हैः वक्ष के सहारे कंधे पर टिक कर खड़े होती है। एक तो पुरुष हैः अपने सहारे खड़ा होता है वृक्ष की भांति, एक स्त्री हैः लता की भांति वह पुरुष के कंधे का सहारा ले कर खड़ी होती है, अपने से तो गिर जाएगी।
जब तक तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारा संकल्प है तब तक पुरुष; जब तुम्हारी प्रार्थना समर्पण है, तुम लता की भांति हो गए कि तुमने परमात्मा पर ही अपने को सौंप दिया कि अब तू सम्हालेगा तो सम्हलेंगे, तू गिराएगा तो समझेंगे कि गिरने में ही हित है; अब तेरी मर्जी! जैसा दादू कहते हैंः तू जैसा रखेगा वैसे रहेंगे! जैसा जीसस ने कहा, तेरी मर्जी पूरी हो!
जहां मेरी मर्जी नहीं रह जाती, जहां मैं नहीं रहा जाता..वहीं स्त्रैण चेतना काम करना शुरू कर देती है। भक्ति के मार्ग पर पुरुष भी स्त्रैण हो जाते हैं।
रामकृष्ण के जीवन में ऐसा उल्लेख है। पता नहीं, रामकृष्ण को फरीद का पता भी था या नहीं; अगर पता होता तो रामकृष्ण उसके लिए सबसे बड़े गवाह हो जाते। इसकी कोई कहानी नहीं है कि फरीद के जीवन में यह तो क्रांति घटी, जब वह अपने को समझने लगा प्रेयसी, तब उसके शरीर में भी कुछ हुआ या नहीं; चेतना में तो हुआ, यह पक्का है, लेकिन शरीर में भी कुछ हुआ या नहीं, यह पक्का नहीं है। रामकृष्ण के तो जीवन में ऐसी घटना घटी जो इतिहास में अनोखी है; उनका शरीर भी स्त्रैण होने लगा था। जब उन्होंने भक्ति की गहन साधना की तो उनके स्तन बड़े हो गए। जब उन्होंने भक्ति की और प्रगाढ़ साधन की तो उसकी चाल बदल गई; वह स्त्रियों जैसे चलने लगे, जो की चमत्कार है। क्योंकि बड़ा कठिन है किसी पुरुष को स्त्री जैसा चलना। क्योंकि वह सवाल चलने का नहीं है, सवाल भीतर के हड्डियों के ढांचे का है। स्त्री के पेट में तो गर्भ की जगह है; उस जगह के कारण उसकी चाल अलग है। पुरुष के पेट में गर्भ की तो कोई जगह नहीं है, इसलिए उसकी चाल भिन्न है। दोनों की हड्डियों का ढांचा अलग है। स्त्री दौड़ नहीं सकती पुरुष जैसा। वह दौड़ेगी भी तो तुम दूर से कह सकते हो कि स्त्री है।
रामकृष्ण स्त्रियों जैसा चलने लगे। और बात यहीं रुक जाती तो ठीक थी; बात आखिरी कदम पर पहुंच गई जो के इतिहास में कभी भी जिसका उल्लेख नहीं; हुआ तो होगा बहुत बार, शायद बात छिपा ली गई होगी, क्योंकि भरोसे की भी नहीं है। कौन भरोसा करेगा? रामकृष्ण को मासिक धर्म शुरू हो गया। भाव इतना गहनता से स्त्रैण हो गया..निश्चित ही आशिक माशूक हो गया। पुरुष का भाव ही न रहा। आवाज बदल गई। कंठ स्त्रैण हो गया। मगर यह सब हो सकता हैः कंठ भी स्त्रैण हो सकता है, क्योंकि माधुर्य का भाव आ जाए तो हो सकता है। लेकिन मासिक धर्म का शुरू हो जाना..जैसे शरीर ने पूरा रूपांतरण कर लिया; जैसे शरीर के भीतर के हारमोन भी चेतना के रूपांतर के साथ प्रवाहित हो गए और बदल गए।
इसलिए फरीद अब ऐसी बात कर रहा है जैसे वह प्रेयसी है।
तपि तपि लुहि लुहि हाथ मरोरऊं।
अब स्त्री क्या कर सकती है और? हाथ मरोड़ती है, जलती है।
‘विरह से मेरा अंग-अंग जल रहा है, और मैं अपने हाथों को मरोड़ती हूं।’
पुरुष होता तो हमला कर देता। हाथ मरोड़ना स्त्रैण है। अगर तुम पुरुष को हाथ मरोड़ते देखो तो तुम समझोगे कि कुछ गड़बड़ है। या कुछ करना हो तो हाथ चलाओ; मरोड़ क्या रहे हो? मरोड़ने का मतलब हैः चलने का भाव नहीं है। कुछ समझ में नहीं आता, क्या करें? बड़ी बेबूझ दशा है। करने का भी मन होता है और यह भी समझ में आता है कि करने से क्या होगा! उसकी कृपा होगी तो होगा! तो ऐसी दशा में हाथ मरोड़ना बड़ा ठीक प्रतीक है।
‘विरह-ज्वर से मेरा अंग-अंग जल रहा है, और मैं अपने हाथों को मरोड़ती हूं।’
करने को कुछ बचा नहीं। करना गिर गया। अब कोई उपाय नहीं है। प्रतीक्षा करती हूं, हाथ मरोड़ती हूं, राह देखती हूं। आओगे, तब आओगे। जब आने की तुम्हारी मर्जी होगी, तभी आओगे। मेरे किए कुछ हो नहीं सकता। मैं द्वार पर खड़ी हूं; दरवाजा खुला रखा है। सेज तैयार रखी हैः तुम आओगे तो विश्राम की तैयारी है! तुम्हारे लिए भोजन बना रखा है। लेकिन अब मैं और क्या कर सकती हूं? दौड़-दौड़ आ जाती हूं द्वार पर, हाथ मरोड़ती हूं!
‘अंग-अंग जल रहा है ज्वर से।’
इसे थोड़ा समझो। जिस जीवन में प्रेम नहीं है, उस जीवन में एक तरह का उत्ताप होता है, एक तरह का ज्वर होता है। जिस जीवन में प्रेम अवतरित होता है, एक शीतलता आ जाती है, एक ज्वर खो जाता है। साधारणतः जब तुम बुखार से ग्रस्त होते हो तो होता क्या है? बुखार है क्या? ज्वर किस घटना का नाम है? और तुम्हारा शरीर उत्तप्त क्यों हो जाता है? अगर तुम समझते हो कि शरीर का उत्तप्त हो जाना ही ज्वर है तो तुम गलत समझे, तो तुमने लक्षण को बीमारी समझ लिया। शरीर का उत्तप्त हो जाना तो लक्षण है, बीमारी तो गहरे में है।
चिकित्सक कहते हैं कि बीमारी है तुम्हारे शरीर में किसी विजातीय द्रव्य का प्रवेश, विजातीय रोगाणुओं का प्रवेश; तुम्हारे शरीर में कुछ ऐसे रोगाणु प्रविष्ट हो गए हैं जो तुम्हारे शरीर के अणुओं से लड़ रहे हैं; एक गृह-युद्ध मचा है; तुम्हारा शरीर कुरुक्षेत्र हो गया है, एक महाभारत मचा है; तुम्हारे शरीर के अणु विजातीय अणुओं से संघर्ष कर रहे हैं। उस संघर्ष के कारण गरमी पैदा होती है। जैसे तुम दो हाथों को रगड़ो और गरम हो जाएं; और तुम दो चकमक पत्थरों को रगड़ो और आग पैदा हो जाए; तुम दो बांसों को रगड़ो और जंगल में आग लग जाए..ऐसे जहां भी रगड़ है, संघर्षण है, वहां उत्ताप पैदा हो जाता है। तुम्हारे शरीर के अणु विजातीय द्रव्यों से लड़ रहे हैं। जब तक उनको निकाल कर बाहर न फेंक देंगे तब तक शीतलता नहीं हो सकती। इसलिए बीमार कोई बुखार से हो तो उसका शरीर ठंडा करने में मत लग जाना, कि बर्फ से नहला दो, कि ठंडा कर दो तो ठीक हो जाएगा; ठीक नहीं होगा, समाप्त हो जाएगा।
बुखार बीमारी नहीं है, सिर्फ लक्षण हैः भीतर युद्ध मचा है, संघर्षण हो रहा है।
जब तुम किसी की प्रतीक्षा में रत हो, जब जिसे मिलना चाहिए वह तुम्हें नहीं मिला है, तब भी एक गहरा संघर्षण होता है। संसार में होना एक संघर्षण में होना है। संसार में होना बंटे हुए होना है। तुम अपने भीतर ही खंड-खंड हो; तुम्हारे खंड ही आपस में लड़ रहे हैं। तुम अखंड नहीं हो। तुम एक नहीं हो, तुम दो हो, अनेक हो। तुम एक भीड़ हो; उस भीड़ में घर्षण हो रहा है; उस संघर्ष का परिणाम है कि तुम उत्तप्त हो। तुम्हारी बेचैनी, तुम्हारा तनाव, तुम्हारी अशांति, उसी गहरे ज्वर के अलग-अलग रूप हैं।
‘विरह ज्वर से मेरा अंग-अंग जल रहा है, और मैं अपने हाथों को मरोड़ती हूं। कुछ सूझता नहीं, क्या करूं! यह मेरी दशा है विक्षिप्त जैसी। कुछ करने को नहीं है, हाथ मरोड़ती हूं और ज्वर से ग्रस्त हूं।’
प्रेम ही शांति ला सकता है। प्रेम का अर्थ हैः उससे मिल जाना जो हमारा स्वभाव है। प्रेम का अर्थ हैः उससे मिल जाना जिससे मिलना हमारी नियति है। प्रेम का अर्थ हैः उसे पा लेना जिसे पाने को हम बने हैं। प्रेम का अर्थ हैः बीज फूल हो जाए, तो सब शांत हो जाएगा। जब तक बीज बीज है तब तक भीतर एक संघर्ष चलता ही रहेगा, क्योंकि अंकुर पैदा होना है। अंकुर भी लड़ता रहेगा, क्योंकि अभी वृक्ष बनना है। वृक्ष भी संघर्षशील रहेगा, क्योंकि कलियां लानी हैं। लेकिन एक बार फूल आ गए, फूल लग गएः वृक्ष का पूरा प्राण शांत हो जाता है; जो होना था वह पूरा हो गया, अब बेचैनी का कोई कारण नहीं।
जब तक व्यक्ति परमात्मा न हो जाए तब तक ज्वरग्रस्त रहेगा, तब तक कोई उसके ज्वर को मिटा नहीं सकता। और जो उसको ज्वर को मिटाने की कोशिश करते हैं वे दुश्मन हैं। क्योंकि इसका तो मतलब हुआ कि ज्वर भीतर से मिटेगा भी नहीं, ऊपर से मिटने का धोखा भी हो जाएगा..तो व्यक्ति अपनी मंजिल से भटक जाएगा।
‘विरह ज्वर से मेरा अंग-अंग जलता है, मैं अपने हाथों को मरोड़ती हूं। प्रीतम से मिलने की लालसा ने मुझे बावली बना दिया है। मैं बिल्कुल पागल हुई जा रही हूं।’
पागल होने से कम में काम न चलेगा। भक्ति परमात्मा के लिए पागलपन है। पागल तो तुम भी होः तुम संसार के लिए पागल हो। तुम उसके लिए पागल हो जिसको पाकर भी कुछ न मिलेगा। भक्त भी पागल है, पर वह उसके लिए पागल है जिसको पाकर सब मिल जाएगा। तब तुम खुद ही सोच लो कि दोनों में कौन ज्यादा पागल है? कौन असली में पागल है? तुम ही असली में पागल हो। क्योंकि ऐसा पागलपन जो तुम्हें अपने स्वभाव से जुड़ा देगा, भला अभी पागलपन दिखता हो, अंततः वही समझदारी सिद्ध होगी। और ऐसा पागलपन जो अभी भला समझदारी दिखती हो कि धन कमा लो, पद कमा लो, प्रतिष्ठा कमा लो, बड़े महल बना लो, बड़ा साम्राज्य फैला दो..अभी बिल्कुल समझदारी दिखती है, वही अंततः पागलपन सिद्ध होगी।
एक बाउल फकीर का गीत मैं पढ़ रहा था। वह परमात्मा से कह रहा है कि पागल तो हम सब हैं; कुछ तेरी तरफ पागल हैं, कुछ तेरे विरोध में पागल हैं; कुछ तेरी तरफ आने को दीवाने हैं, कुछ तुझसे दूर जाने को दीवाने हैं। हे परमात्मा, तू ही बता, हम दोनों में कौन ज्यादा दीवाना है? कौन ज्यादा पागल है? क्योंकि जो तुझसे दूर जा रहा है, वह कहां जाएगा? वह कितने ही दूर चला जाए तो भी मंजिल तो न जाएगी। और दूर जाता रहे, और दूर जाता रहे..और जितना दूर जाएगा उतना ही ज्वर से भरता जाएगा। इसलिए अभागे हैं वे लोग जिनको तुम्हारे जिंदगी में तुम सफल कहते हो। और धन्यभागी हैं वे लोग जो तुम्हारे हिसाब से सफल नहीं होते, असफल हो जाते हैं। जिनको धन मिल गया और जीवन जिन्होंने गंवा दिया, उनको तुम सफल कहते हो। उनके जैसी असफलता तुम और कहां पाओगे? सिकंदर और नेपोलियन..इनसे ज्यादा असफल आदमी तुम कहां खोजोगे?
मैं एण्ड्रू कारनेगी का जीवन पढ़ रहा था। वह अमेरिका का सबसे बड़ा अरबपति हुआ। वह मरा तो दस अरब रुपये छोड़ कर मरा। मरते वक्त ऐसे ही कुतूहलवश, दो दिन पहले, जो व्यक्ति उसके सेक्रेटरी का काम करता था और उसका जीवन लिख रहा था, उससे उसने पूछा, एक दिन ऐसा पड़े-पड़े आंख खोली, और कहाः सुनो लिखना बाद में, पहले एक सवाल का जवाब दो। अगर तुम्हें परमात्मा यह चुनाव का मौका दे कि चाहो तो तुम एण्ड्रू कारनेगी हो जाओ और चाहो तो एण्ड्रू कारनेगी की सेक्रेटरी हो जाओ, तुम दोनों में से क्या होना पसंद करोगे?
उस सेक्रेटरी ने कहाः इसमें सोचने-विचारने का कोई सवाल ही कहां है?
एण्ड्रू कारनेगी ने समझा कि शायद वह यह कह रहा है कि इसमें सोचने का सवाल कहां है; एण्ड्रू कारनेगी होना पसंद करूंगा। वह हंसने लगा। उसने कहा कि मैं समझा।
सेक्रेटरी ने कहाः आप समझे नहीं। मैं यह कह रहा हूं कि मैं सेक्रेटरी होना ही पसंद करूंगा, एण्ड्रू कारनेगी नहीं।
एण्ड्रू कारनेगी के मन में बड़ी चिंता आ गई। उसने कहाः तुम्हारा मतलब क्या? तुम क्यों सेक्रेटरी होना चाहोगे जब तुम एण्ड्रू कारनेगी हो सकते हो?
उसने कहाः मैं सेकेट्री होना चाहूंगा। सुनिए..मैं आपका जीवन लिख रहा हूं और आपके जीवन को समझने की कोशिश कर रहा हूं। जो मैं समझ पाया उससे एक बात तो सिद्ध हो गई कि जिनको हम सफल कहते हैं वे सफल नहीं हैं। तुम्हारा जीवन लिखते-लिखते मुझे अपने संबंध में बड़ी गहरी समझ आ गई। जो भूल तुमने की है वह मैं न करूंगा।
एण्ड्रू कारनेगी अपने दफ्तर सुबह नौ बजे पहुंच जाता था, चपरासी दस बजे पहुंचते, क्लर्क साढ़े दस पहुंचते, मैनेजर्स बारह बजे पहुंचते, डायरेक्टर्स एक बजे पहुंचते, डायरेक्टर्स तीन बजे विदा हो जाते, फिर मैनेजर्स विदा हो जाते, चपरासी भी साढ़े पांच बजे चले जाते; एण्ड्रू कारनेगी रात नौ बजे घर लौटता। नौ बजे से नौ बजे! चपरासियों से गई-बीती उसकी हालत थी। और घर कहीं एण्ड्रू कारनेगी जैसे लोग लौटते हैं? क्योंकि एण्ड्रू कारनेगी की पत्नी ने कहा है उसी सेक्रेटरी को कि भूल हो गई; इतने महत्वाकांक्षी आदमी से विवाह करने में कोई अर्थ नहीं; इससे तो बिना विवाह के रह जाना भी बराबर है। क्योंकि इतनी जिसकी महत्वाकांक्षा है वह प्रेम करने के लिए समय ही नहीं निकाल पाता।
एण्ड्रू कारनेगी के बच्चों ने लिखा है कि हमें अपने पिता से कोई संबंध नहीं हो पाया। हम ऐसे ही आते-जाते नमस्कार करते रहे, बस। एक अजनबी थे वे, क्योंकि उनको फुर्सत कहां थी! जिसको करोड़ों-अरबों रुपये छोड़ जाना हो, उसे बच्चों के साथ समय गंवाने की कहां सुविधा हो सकती है।
और इस आदमी ने मरते वक्त खुद क्या कहा? मरते वक्त किसी ने कहा कि अब तो तुम तृप्त होकर मर रहे हो? ..क्योंकि जमीन पर तुमसे ज्यादा धन किसी के भी पास नहीं है।
उसने आंख खोली और उसने कहाः तृप्त! एण्ड्रू कारनेगी तृप्ति जानता ही नहीं। दस अरब रुपये छोड़ कर मर रहा हूं, लेकिन योजना सौ अरब कमाने की थी। हारा हुआ हूं। नब्बे अरब से हारा हूं।
यही सभी सफल लोगों की कथा है। असफलता सफल लोगों की कहानी है।
मैं तुमसे कहता हूंः धन्यभागी हो, अगर तुम्हारे जीवन में सफलता का भूत सवार न हो।
एक मेरे मित्र हैं। एक राज्य में मंत्री हैं, कई वर्षों से मंत्री हैं; उससे आगे नहीं बढ़ पाते। मुख्यमंत्री होने की चेष्टा करते हैं, लेकिन सफल नहीं हो पाते। थोड़े भले आदमी हैं! मुख्यमंत्री होने के लिए जैसा आदमी चाहिए, उतनी बुराई नहीं है, उतने दुर्गुण नहीं हैं, उतनी शैतानी, चालबाजी नहीं है, उतना शडयंत्र नहीं कर पाते; करते हैं फिप्टी-फिप्टी हैं; करते भी हैं और भीतर से मन में भी लगता है कि गलती काम कर रहे है, नहीं करना चाहिए। अटक गए हैं। आदमी अच्छे हैं, इसलिए कोई पीछे भी नहीं धकेलता। कई मुख्य मंत्री बन गए हैं..आए, गए; मगर वे मंत्री बने हैं। जो भी मुख्य मंत्री बनता है, उनसे कोई डर नहीं है। हटाते लोग उसको हैं जिससे डर हो। वे गऊ-पुरुष हैंः किसी सांड को उनसे कोई डर नहीं है। तो उनको हटाते भी नहीं हैं। और उनको बढ़ाए कौन? क्योंकि बढ़ना अपनी ताकत से पड़ता है; वह ताकत भी उनमें नहीं है। वे मेरे पास कई बार आते हैं। पिछली बार मेरे पास आए, कहने लगेः अब आप आशीर्वाद दे दो। बस, अब एक दफा मुख्य मंत्री हो जाऊं!
मैंने कहाः आशीर्वाद कहते हो उसको कि अभिशाप? मैं तो अगर आशीर्वाद तुम मुझसे मांगते हो तो एक ही दे सकता हूं कि तुम मंत्री भी न रह जाओ, ताकि तुम आदमी बन सको। तुम असफल हो जाओ तो तुम्हें कुछ अक्ल आए। तुम मंत्री ही बन कर क्या पा लिए हो, वह मुझे बताओ। तो तुम मुख्य मंत्री बन कर और क्या पा लोगे? हां, मैं तुम्हें बताता हूं कि मंत्री बन कर तुमने क्या-क्या खो दिया है। मुख्य मंत्री बन कर तुम और भी कुछ खो दोगे। तुम असफल हो जाओ एक बार। तुम बिल्कुल हार जाओ, टूट जाओ तो शायद तुम्हारे नये जीवन की यात्रा शुरू हो जाए।
नहीं, सफलता सौभाग्य नहीं है। और जिसको संसार समझदारी कहता है वह समझदारी नहीं है। समझदारी का कुल इतना मतलब हैः बाकी सब लोग भी तुमसे सहमत हैं कि हां, यही समझदारी है। धन कमाओः यह समझदारी है! गंवाओः कौन कहेगा समझदारी है? बुद्ध को भी बुद्ध के बाप नहीं मानते कि यह समझदार है, नासमझ है, बुद्धि नहीं है। बुद्ध के पिता को तो छोड़ दो, बुद्ध का जो सारथी उन्हें छोड़ने जंगल तक गया था, उससे भी न रहा गया। उसने भी कहां कि मैं नौकर हूं और छोटे मुंह बड़ी बात नहीं करनी चाहिए; लेकिन अब यह ऐसा मौका है कि करनी पड़ेगी। तुम नालायकी कर रहे हो। सारी दुनिया पागल है धन पाने को, राज्य पाने को; तुम छोड़ कर जा रहे हो! पछताओगे, भटकोगे। और एक बार बाप अगर नाराज हो गया और उसके द्वार बंद हो गए तो फिर जीवन भर तड़फोगे। अभी लौट चलो, अभी कुछ बिगड़ा नहीं है, किसी को खबर नहीं है। मैं किसी को न कहूंगा, मैं पुराना तुम्हारे घर का नौकर हूं। तुम्हारे बाप से मेरी उम्र ज्यादा है। मेरी सुनो।
स्वाभाविक है। सारथीः गरीब आदमी! उसकी आकांक्षाएं महलों में अटकी हैं। वह यह बात नहीं समझ सकता कि बुद्ध को क्या पागलपन हो गया है कि सब छोड़ कर जा रहा है। सुंदर तेरी पत्नी है..उसने बुद्ध से कहा..नया-नया पैदा हुआ, नवजात बच्चा है। अभी तो बगिया बस रही थी, तू उजाड़ने लगा। संन्यास भी लेना हो तो यह तो आदमी आखिरी समय में लेता है। तुझे पता नहीं हैः धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष..ये सब जो चार पुरुषार्थ हैं, इनकी एकशृंखला है। मोक्ष आखिरी है। वह तो बुढ़ापे के लिए है। जब देह जराजीर्ण हो जाती है और आदमी चलने चलने को हो जाता है और दूसरे लोग अरथी बांधने लगते हैं, तब आदमी मोक्ष की चिंता करता है। जब एक कदम कब्र में उतर जाता है और दूसरा अटका होता है कि बस अब गया, अब गया..तब आदमी परमात्मा का नाम ले लेता है। और कहानी तूने नहीं सुनी, कि एक पापी मरा था और मरते वक्त..उसके लड़के का नाम नारायण था। और उसने जोर से बुलायाः नारायण! और ऊपर के नारायण धोखे में आ गए। वह मर गया और मोक्ष को उपलब्ध हुआ। ऐसे आदमी मुक्त हो जाता है। ये तो अंतिम बातें हैं, आखिरी हैं। इनको अभी करने की क्या जरूरत है?
स्वभावतः बुद्ध पागल लगे होंगे।
इस जगत में पागल होना इतना सामान्य है कि यहां बुद्धिमान पागल मालूम होते हैं।
पश्चिम के बहुत बड़े विचारक लुई पाश्चर ने लिखा है कि समझदारों को मैंने इतना नासमझ पाया कि मैं मानता हूं कि यहां समझदार होने का मतलब सारी दुनिया की आंखों में नासमझ होना होगा। और दुनिया इतनी विक्षिप्त है कि यहां विक्षिप्त न होना एक तरह की विक्षिप्तता मालूम होती है।
पागल तो परमात्मा का प्रेमी भी है। पागल धन और पद का प्रेमी भी है। जो कहता है, चलो दिल्ली वह भी पागल है। जो मोक्ष की यात्रा कर रहा है वह भी पागल है। लेकिन पागलपन पागलपन में बड़ा भेद है। तुम उस पागलपन को चुनना जिससे तुम्हारी नियति पूरी हो। तुम उसके लिए दीवाने होना..क्योंकि दीवानेपन से कम में काम न चलेगा..जो तुम्हारे बीज को अंकुरित करे, जो तुम्हें वहां पहुंचा दे जो तुम होने को हो; क्योंकि अन्यथा कभी शांति न मिलेगी; अन्यथा तुम्हारे जीवन में आनंद-उत्सव न आ पाएगा।’
‘विरह-ज्वर से मेरा अंग-अंग जल रहा है और मैं अपने हाथों को मरोड़ती हूं। प्रीतम से मिलने की लालसा ने मुझे बावली बना दिया है।’
‘प्यारे, तू अपने मन में मुझसे रूठ गया है; सो इसमें मेरा ही दोष था, तेरा नहीं।’
यह भक्त का भाव है।
तैं सहि मन महि कोआ रोसु। मुझु अवगुन सह नाही दोसु। ।
तू मुझसे रूठा है, यह बात पक्की है, अन्यथा मिल जाता; लेकिन यह बात भी पक्की है कि तू रूठा होगा मेरे ही किसी अवगुण के कारण, क्योंकि तू तो रूठना जानता ही नहीं।
यह भक्त का मन है, समझने की कोशिश करो।
तू रूठा है, यह बात पक्की है।
भक्त अनुभव करता है कि मैं पुकार रहा हूं, द्वार खुले रखे हैं, तू आता नहीं, तेरे रथ के पहियों कि कोई आवाज नहीं आती। भागा-भागा द्वार पर आता हूं, पाता हूं हवा ने थपेड़े दिए थे। सोए रात आधी रात जग जाता हूं, लगता है कोई आया; बाहर जाकर देखता हूं, कुछ भी नहीं, सूखे पत्ते हवा में उड़ रहे हैं। कितनी बार तेरे आने का धोखा हो जाता है, तू आता नहींः निश्चित रूठा है। आंखें बिछा दी हैं तेरी राह पर, न नींद है, न चैन है। ज्वरग्रस्त है, रोआं-रोआं, अंग-अंग तप रहा है। निश्चित ही तू रूठा है। इसमें कोई शक नहीं है। अन्यथा तू आ ही गया होता। लेकिन...।
और उस लेकिन में ही भक्त का पूरा हृदय है।
इसमें मेरा ही दोष था, तेरा नहीं। मैंने ही तुझे रूठा दिया है। मैं ही ऐसा गलत चलता रहा जन्मों-जन्मों तक। मैंने ही ऐसे-ऐसे उपाय किए तुझे पास न आने देने के। मैंने ही इतनी दीवालें बनाईं। मैं ही इतना तेरी तरफ पीठ किए रहा। तेरे सन्मुख होने के जितने उपाय थे, मैंने गंवा दिए; और तुझसे विमुख होने के जितने मार्ग थे, सबका मैंने अनुकरण किया। जानता हूं कि आज यह कहना उचित नहीं है कि तू रूठ गया है; तुझे मैंने ही रूठा दिया है। रूठना तेरा गुण नहीं, तेरा धर्म नहीं। तू तो कभी का आ गया होता; लेकिन मेरे ही अनंतकाल के व्यवहार ने परदे डाल दिए हैं, आड़ें खड़ी कर दी हैं।
भक्त स्मरण भी करता है कि परमात्मा रूठा है तो भी दोषी अपने को मानता है। भक्त शिकायत भी करता है तो भी शिकायत का तीर सदा अपनी तरफ होता है।
भक्त की शिकायत ऐसी है जैसा मैंने सुनाः रोजा लग्.जमबर्ग जर्मनी की एक बहुत महत्वपूर्ण विचारक महिला हुई। किसी ने उसके खिलाफ अनर्गल बातें अखबारों में लिखीं। वह चुप ही रहीं, कोई जवाब न दिया। मित्र भी संदिग्ध हो गए। मित्रों ने कहाः जवाब क्यों नहीं देती हो? क्योंकि ऐसे जवाब न दोगी तो लोग समझेंगे कि सही होगा तभी जवाब नहीं देते।
रोजा लग्.जमबर्ग ने कहा कि मैं छोटी थी, और मेरे पिता ने मुझे एक शिक्षा दी थी जो मुझे भूलती नहीं। और वह यह थी कि जब भी तुम किसी दूसरे की तरफ निंदा की अंगुली उठाते हो तो एक अंगुली तो दूसरे की तरफ होती है, लेकिन तीन अंगुलियां तुम्हारी तरफ होती हैं। जब भी तुम किसी का अवगुण खोजते हो तो एक अंगुली तो उसकी तरफ होती है, लेकिन तीन अंगुलियां तुम्हारे अवगुणों की तरफ होती हैं।
भक्त अगर शिकायत भी करता है तो एक अंगुली परमात्मा की तरफ उठाता हो भला, लेकिन होशपूर्वक तीन अंगुलियां अपनी तरफ उठाता है। वह जानता है कि दोष उस तरफ नहीं हो सकता है।
‘प्यारे, तू अपने मन में मुझसे रूठ गया है; सो इसमें मेरा ही दोष था तेरा नहीं।’
‘मेरे स्वामी, मैंने तेरे गुणों को पहचाना नहीं। मैंने अपना यौवन गंवा दिया और पीछे बहुत पछताई।’
मुझु अवगुण सह नाही दोसु।
तैं साहिब की मैं सार न जानी। जोबनु खोई पाछे पछतानी। ।
जिन्होंने भी जवानी खो दी है, वे सभी पछताते हैं। क्योंकि जवानी का अर्थ है शक्ति का क्षण, जवानी का अर्थ है ऊर्जा का क्षण। जब ऊर्जा थी तब तुमने व्यर्थ को कमाने में लगा दी, और जब ज्वार उतर गया ऊर्जा का, हाथ में कुछ भी न रहा तब तुम पूजा-प्रार्थना करने लगे! जब तक शक्ति थी तब तक तुम संसार में दौड़ते रहे; जब दौड़ते न बना तब तुम परमात्मा की तरफ चलने लगे! अशक्ति को तुम परमात्मा में लगाते हो; शक्ति को परमात्मा में लगाते नहीं हो, संसार में लगाते हो। ऊर्जा होती है तो तुम धन पाना चाहते हो, पद पाना चाहते हो; जब ऊर्जा नहीं रह जाती तब थके-हारे तुम कहते होः अच्छा, परमात्मा, अब तू ही सही!
‘मेरे स्वामी मैंने तेरे गुणों को पहचाना नहीं। मैंने अपना यौवन गंवा दिया, पीछे बहुत पछताई।’
‘री काली कोयल, तू किस कारण काली हुई? अपने प्रीतम के विरह में जल-भुन कर? ’
और अब मैं काली हुई जा रही हूं कोयल की तरह। अब तेरे लिए जलती हूं, भुनती हूं, लेकिन ताकत नहीं है; हाथ मरोड़ती हूं। अब कोई शक्ति पास में नहीं है। शक्ति तो व्यर्थ गंवा दी। तेरे गुणों का न पहचाना। तब धन में तुझे देखा। तब पद में तुझे देखा। तब कौड़ियों में तुझे खोजा और हीरे पास पड़े थे और मुझे कोई परख न थी; मेरे पास कोई जौहरी का मन न था, कोई कसौटी न थी।
‘री काली कोयल, तू किस कारण काली हुई? अपने प्रीतम के विरह में जल-भुन कर? ’
क्या जो दशा मेरी है वही तेरी है? क्या तू प्यारे को गा-गा कर, पुकार-पुकार कर काली हो गई? क्योंकि मैं तो चली जा रही हूं। आखिरी क्षण आ गए जीवन के। अब तो सिवाय जलने-भूलने के कोई उपाय नहीं रहा। अब तो यही प्रार्थना है, यही पूजा है, यही तपश्चर्या है कि रोऊं, विरह में तड़पूं और दीवानी, और दीवानी हो जाऊं।
काली कोयल तू कित गुण काली। अपने प्रीतम के हउ विरहै जाली।।
क्या जो दशा मेरी है वही तेरी भी है?
‘अपने प्रीतम से विलग होकर क्या कभी किसी को सुख मिला? उस प्रभु से मिलना उसी की कृपा से होता है।’
पिरही विहून कतही सुख पाए। जा होई कृपालु ता प्रभु मिलाए।।
अपने प्रीतम से विलग होकर क्या कभी किसी को सुख मिला?
अपने प्रीतम से विलग होने का अर्थ है अपने से ही विलग हो जाना। प्रीतम से मिलने का अर्थ है अपने से ही मिल जाना। प्रीतम तो बहाना है; उसके बहाने हम अपने से मिल जाते हैं। साधारण जीवन में भी जब तुम्हें कभी किसी के प्रेम का अनुभव होता है तो उस प्रेम में तुम अपने से ही मिलते हो; उस प्रेम में तुम अपने से ही जुड़ जाते हो। प्रेमी के माध्यम से तुम अपने को ही पहचान पाते हो। साधारण जीवन में भी यही होता है तो उस असाधारण प्रेम की तो बात क्या कहनी! जब व्यक्ति परम से मिलता है तब उसका सारा का सारा रूप अपने सामने प्रकट हो जाता है।
परमात्मा तो बहाना है; उसके नाम, उसकी याद से अपने को ही खोजना है, अपने से ही मिलना है।
अपने प्रीतम से विलग होकर क्या कभी किसी को सुख मिला?
आनंद का एक ही अर्थ हैः अपने से मिल जाना। अपने से मिलने के मैंने तुमसे दो ढंग कहे। एकः ध्यान। उसमें परमात्मा की कोई जरूरत नहीं; तुम सीधे-सीधे अपने से मिलते हो। एकः प्रेम, उसमें परमात्मा की जरूरत होती है; तुम परमात्मा के बहाने, परमात्मा के माध्यम से अपने से मिलते हो। घटना तो एक ही घटती है..अपने से मिलने की।
ध्यान का रास्ता सूखा-सूखा है, क्योंकि सीधे-सीधे मिलना है, कोई यात्रा नहीं है उसमें। ध्यान के रास्ते पर कोई तीर्थयात्रा नहीं है; सीधा अपने से मिल जाना है; कहीं जाना न आना; बस आंख बंद करनी है और अपने में डूब जाना। लेकिन प्रेम के रास्ते पर बड़े तीर्थ हैंः काशी है, काबा है। प्रेम के रास्ते पर बड़े तीर्थ हैं। बड़ी लंबी यात्रा है, मधुर है प्रीतिकर है! बल हो तो करने जैसी है। ऊर्जा हो तो जाने जैसा है। पंख हो तो उड़ने जैसा है।
‘उस प्रभु से मिलना लेकिन उसी की कृपा से होता है।’
यह बात सदा याद रखनाः ध्यान तो अपने श्रम से हो सकता है; प्रेम उसकी कृपा से होता है। क्योंकि प्रेम कोई कृत्य नहीं है, प्रेम तो उसके आशीर्वाद की वर्षा है। वह दे तो होता है, न दे तो नहीं होता है। तो तुम क्या करोगे?
‘विरह-ज्वर से मेरा अंग-अंग जल रहा है और मैं अपने हाथों को मरोड़ती हूं। प्रीतम से मिलने की लालसा ने मुझे बावली बना दिया है।’
तुम हाथ मरोड़ो। तुम जलो। तुम बावले हो जाओ। बस इतना ही कर सकते हो, और क्या करोगे? तुम रोओ। तुम्हारी आंखें आंसुओं के झरने बन जाएं और तुम्हारे हृदय में सिर्फ उसके ही विरह का कांटा चुभने लगे। अहर्निश उसी की याद तुम्हें सताए। तुम्हारा रोआं-रोआं उसी को पुकारे। और तुम क्या करोगे? करने को कुछ और है भी नहीं।
प्रेम प्रसाद है। जिस क्षण तुम तैयार हो जाओगे; जिस क्षण तुम्हारे भीतर अहंकार पूरा ही विरह में डूब जाएगा; जिस दिन तुम्हारे भीतर तुम्हारा आपा उसके रुदन से बिल्कुल धुल जाएगा; तुम्हारे आंसू तुम्हारे आपे को बहा ले जाएंगे; तुम तुम न रहोगे; उसकी याद ही मात्र रह जाएगी; उसकी सुरति, उसका स्मरण ही बस तुम्हारा होना हो जाएगा..उसी क्षण वर्षा हो जाएगी।
प्रभु का मिलन, प्रेम का मिलन तो उसी की कृपा से होता है।
‘कुआं यह बहुत दुखदायी है, और वह बेचारी उसमें अकेली जा पड़ी है। न उसकी वहां कोई सहेली है और न बेली।’
यह परमात्मा से निवेदन चल रहा है। यह बातचीत अपने प्रीतम से हो रही है, जिनका कोई पता-ठिकाना नहीं है। यह बातचीत अपने प्रीतम से हो रही है जो कभी मिलेगा, लेकिन जिसका पक्का नहीं है। यह बड़ी नाजुक बात है।
मैंने एक कहानी पढ़ी है। एक छोटे से गांव में जर्मनी के..छोटा गांव था..चर्च था गांव का, लेकिन गांव बहुत गरीब था। वर्षों से चर्च पर पुताई भी न हुई थी, और चर्च का घंटा तो सदियों पहले कभी टूट गया था, वह दुबारा नहीं लाया जा सका था। गांव के पंच मिले। उन्होंने कहाः कुछ करना जरूरी है। यह परमात्मा का घर ऐसा अधूरा-अधूरा खंडहर पड़ा रहे, यह शोभा नहीं देता। इसकी लिपाई-पुताई करनी है, व्यवस्था जमानी है और नया घंटा खरीदना है। बिना घंटे के गांव, जिसके चर्च में घंटी न बजती हो, मुर्दा मालूम पड़ता है। अगर तुमने चर्च की घंटियां सुनी हैं सांझ-सुबह, तो तुम समझोगे कि चर्च की घंटियों का नाद गांव को एक जीवन देता है। मंदिर की घंटियों का नाद गांव को एक सुवास देता है दूसरे लोक की।
पैसे इकट्ठे किए गए। गांव बहुत गरीब था। बामुश्किल पैसे इकट्ठे हुए। बड़ा घंटा खरीदना था। और गांव जो मुखिया था वह घंटा खरीदने भेजा गया। वह गया, जिस गांव में घंटे बनते थे और बिकते थे। एक-एक दुकान पर गया। एक-एक घंटे को बजा कर उसने गौर से सुना; लेकिन कहा कि नहीं यह आवाज नहीं है। सैकड़ों घंटे देख डाले। दुकानदार भी पूछने लगे की तुम भी पागल मालूम पड़ते हो; तुम कौन सी आवाज चाहते हो यह पहले बताओ। तुम नाहक हमारा समय खराब कर रहे हो। जो घंटा तुम सुनते हो, कहते हो आंख बंद करने कि नहीं, यह आवाज नहीं। तुम कौन सी आवाज चाहते हो?
उसने कहाः यह तो बताना मुश्किल है; क्योंकि उसे मैंने अब तक सुना नहीं है, लेकिन मैं जानता हूं कि मैं पहचान लूंगा। यह जरा समझने की बात है। उसने कहा कि मैंने सुना नहीं है, क्योंकि जब से मैं पैदा हुआ, गांव के चर्च में घंटा नहीं है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि मैं जानता हूं। हालांकि मैंने सुना नहीं है कि मैं कौन सी आवाज खोज रहा हूं, लेकिन भीतर अंतर हृदय में मुझे पता है कि जब वह आवाज होगी, तत्क्षण मैं पहचान लूंगा कि यह आवाज है।
परमात्मा की खोज ऐसी ही है। तुम उसे कभी मिले नहीं, लेकिन तुम भलीभांति जानते हो कि जब वह मिलेगा, तुम तत्क्षण पहचान लोगे। एक क्षण की देरी न होगी। संदेह भी न उठेगा, प्रश्न भी न उठेगा। उसके पद-चाप पड़ेंगे नहीं तुम्हारे द्वार पर कि तुम पहचान लोगे, हालांकि तुमने कभी उसके पद-चाप सुने नहीं।
और अंततः उसने एक घंटा चुन लिया। बस उसे उस घंटे की आवाज आई, उसने कहा कि बस, ज्यादा बजाने की कोई जरूरत नहीं, जरा सा स्वाद काफी है। पहचान में आ गया, यही घंटा है। इसकी ही हम तलाश में हैं।
तुम्हें भी कई बार जीवन में ऐसा अनुभव हुआ होगा; न हुआ हो तो थोड़ा जाग कर अनुभव करने की कोशिश करना। बहुत बार ऐसा हुआ होगाः किसी स्त्री को तुमने देखा, देखते ही ऐसा लगा कि यही स्त्री है! इसलिए तो पहले प्रेम की बड़ी महिमा है। तुम कभी इससे मिले न थे, कभी इसे देखा न था। कोई कारण न था कि तुम कहो, यही स्त्री है। लेकिन अगर तुम्हारा हृदय से कोई तालमेल हो गया, जिस स्त्री की प्रतिमा को तुम हृदय में छिपाए हो उससे इसकी धुन मिल गई..तो तुम पहचान लेते हो। और ऐसी स्त्री मिल जाए तो प्रेम शाश्वत हो जाता है; ऐसा पुरुष मिल जाए तो प्रेम शाश्वत हो जाता है। फिर कोई बदलाहट नहीं है। तुमने अपने मन की स्त्री को खोज लिया! ऐसी स्त्री न मिल पाए तो रोज बेचैनी है, तो रोज हर स्त्री के निकलने में तुम्हें फिर शक होता है कि शायद वह स्त्री आ रही हो जिसकी प्रतीक्षा है।
प्रेम एक बड़ी आंतरिक पहचान है..बिना जाने, बिना पूर्व परिचय के; और हृदय पहचान लेता है। रहस्यपूर्ण है बात, अतक्र्य है; गणित और तर्क से समझाई नहीं जा सकती। लेकिन बहुत बार तुम्हें भी कभी-कभी जीवन में इसका अनुभव हुआ होगाः कभी किसी व्यक्ति के पास आए और सहज भरोसा आ गया; अभी इसका कोई कृत्य नहीं देखा, न इसके व्यवहार से कोई पहचान हुई है..बस, पर हृदय ने पहचान लिया, हृदय ने कहा कि भरोसा करो। अब यह अगर तुम्हें लूट भी ले तो भी तुम कहोगे कि लूटने में मेरा कोई हित रहा होगा; क्योंकि वह आदमी तो लूट न सकता था।
‘प्यारे, तू अपने मन में मुझसे रूठ गया है; इसमें मेरा ही दोष है, तेरा नहीं।’
वह तो लूट ही न सकता था; वह तो आदमी भरोसे का था। श्रद्धा पूरी थी। लुट भी गए तो भी तुम पाओगे कि लूट जाने में भी तुम्हारा हित है, सौभाग्य है।
गुरु का मिलन ऐसे ही होता है। इसलिए गुरु के मिलने की बड़ी झंझट है। तुम किसी को भी समझा न सकोगे कि इस आदमी को तुमने कैसे चुन लिया! इसका व्यवहार देखा, चरित्र का आंकलन किया? इसका अतीत इतिहास देखा? इसके भविष्य की सब संभावनाएं खोजीं? तुमने कैसे इसे चुन लिया? किस कसौटी पर कसा? कौन से तराजू में तोला? तुम कहोगे, कसौटी और तराजू का यहां सवाल ही नहीं है; जहां हृदय की कसौटी लग गई है, फिर किसी कसौटी की बात ही नहीं उठती। फिर कोई और तराजू नहीं चाहिए उसके लिए, जो हृदय के तराजू पर तुल गया। तुम अंधे हो जाते हो।
सब प्रेम अंधे हैं; क्योंकि हृदय के देखने के ढंग और हैं। हृदय की आंख और है। बुद्धि से उसका कुछ लेना-देना नहीं है। इसलिए तुम न तो कभी दुनिया को समझा पाओगे कि तुम इस स्त्री को प्रेम क्यों किए, इस पुरुष को तुमने क्यों चाहा? न तुम दुनिया को कभी समझा पाओगे कि यह गीत तुम्हें क्यों प्रीतिकर लगता है! न तुम दुनिया को समझा पाओगे कि यह गुलाब या यह कमल या यह फूल तुम्हें क्यों प्यारा है! तुम कहोगे बस, पसंद पड़ता है। न तुम दुनिया को कभी समझा पाओगे कि तुमने बुद्ध को क्यों चुन लिया, महावीर को क्यों चुन लिया, कृष्ण को क्यों चुन लिया! तुम कहोगे, यह भी बात कोई समझाने की है, यह निजी है, यह आत्यंतिक है। इसे बाजार में खोलने का सवाल नहीं है। और दुनिया चाहे विपरीत में कुछ भी कहे, तुम्हारा हृदय कहे ही चला जाएगा कि यही है वह जिसकी तुम्हें तलाश थी।
यह चर्चा उससे चल रही है जिससे अभी मिलन नहीं हुआ। यह चर्चा उससे चल रही है जिससे मिलन होने-होने को है। यह चर्चा उस धुन और स्वर से चल रही है जिसका पता भी है और पता नहीं भी है। कह सकते हैं एक अर्थ में कि पहचानते हैं, क्योंकि जब आएगा सामने तो पहचान लेंगे; और कह सकते है दूसरे अर्थ में कि बिल्कुल नहीं पहचानते, क्योंकि अभी तो कहीं कोई मिलना ही नहीं हुआ, पहचानेंगे कैसे?
कुआं यह बहुत दुखदायी है और वह बेचारी उसमें अकेली जा पड़ी है। न उसकी वहां कोई सहेली है न बेली।
फरीद कह रहे हैंः जरा ख्याल तो करो। कुएं में पड़ी हूं, संसार में पड़ी हूं। बड़ा गहरा कुआं है! और बिल्कुल अकेली हूं। संगी-साथी भी नहीं है और तुम भी छोड़ बैठे हो और तुम भी रूठ गए। और यह कुआं बड़ा अंधेरा है; इससे निकलने का कोई उपाय भी नहीं सूझता और इसमें होना बिल्कुल अकेला है।
जब तक परमात्मा नहीं मिलता तब तक तुम अकेले ही रहोगे। तब तक तुम लाख धोखे दे लो अपने को..कभी पत्नी, कभी पति, कभी मित्र, कभी इसमें..उसमें कि अपने संगी-साथी है, अकेला नहीं है..लेकिन धोखा ही है। जरा ही गौर करोगे तो पाओगे बिल्कुल अकेले हो। तुम अपने कुएं में पड़े हो, तुम्हारी पत्नी अपने कुएं में पड़ी हैः दोनों के कुएं अलग-अलग हैं। पास होंगे, निकट ही होंगे, पड़ोस में ही होंगे..लेकिन दोनों के कुएं अपने-अपने हैं। तुम अपने भीतर पड़े हो..अपनी गहराई, अपने एकांत में; पत्नी अपनी गहराई, अपने एकांत में पड़ी है। एक-दूसरे का साथ दे देते हो, क्योंकि जरूरत है; अन्यथा अकेलापन बहुत भारी हो जाएगा, झेलना असंभव हो जाएगा। एक-दूसरे का हाथ पकड़ लेते हो।
तुमने देखा है? आदमी अंधेरे में चलता है तो सीटी बजाने लगता है, गीत गाने लगता हैः अपनी ही आवाज सुन कर हिम्मत बढ़ती है कि जैसे कोई और भी है! बस सीटी बजा रहे हैं हम। हमारा सब संग-साथ सीटी बजाने जैसा है। हम दूसरे को हिम्मत दे देते हैं, दूसरा हमें हिम्मत दे देता हैः न तो हमारा अकेलापन मिटता, न उसका अकेलापन मिटता।
विधण खूही मुंध अकेली।
बेचारी अकेली पड़ी है और तुम भी रूठ गए।
ना कोइ साथी ना कोइ बेली।
न कोई संगी है, न कोई साथी है, एकदम अकेलापन है।
मेरी बड़ी विकट बात है..दुधारी तलवार से भी तेज और पैनी।
बड़ी विकट राह है, बड़ी विकट बाट है।
दुधारी तलवार से भी तेज और पैनी! उस पर मुझे ही चलना है। कोई संगी-साथी नहीं। शेख फरीद, तैयार हो जा उस मार्ग पर चलने को, अभी समय है।
खंनिअहु तिखी बहुतु पिईणी। उसु उपरि है मारगु मेरा। ।
दुधारी तलवार की तरह है राह। उसके ऊपर चलना है, उसके ऊपर है मेरा मार्ग। इधर गिरो तो कुआं है, उधर गिरो तो खाई; मध्य में सम्हालना है।
इसे थोड़ा समझो। अगर अकेले रह जाओ, संगी-साथी मत बनाओ तो मुसीबत..कुआं। एकांत मालूम पड़ता है। डूबे! कोई सहरा भी नहीं। कोई स्वर भी नहीं जो आवाज दे दे, पुकार दे दे, भरोसा दे दे कि कोई और भी है..एकदम सन्नाटा है। अगर संगी-साथी न बनाओ तो..कुआं। अगर संगी-साथी बनाओ तो भीड़-भाड़ हो जाती है; लेकिन भीतर का अकेलापन तो मिटता ही नहीं..तो खाई। दोनों के मध्य में खड़ा होना है। अकेले भी रहना है और अकेले नहीं भी रहना है। इसका मतलब है कि इतना एकांत साध लेना है भीतर कि भीड़ में तो कोई झूठा लगाव न रह जाए; लेकिन अपने एकांत में बिल्कुल डूब कर मर भी नहीं जाना है, क्योंकि वह तो आत्महत्या होगी। उस एकांत को ही प्रार्थना बनानी है और परमात्मा से संग जोड़ना है। अकेले होना है ताकि परमात्मा के साथ हो सकें। भीड़ में नहीं होना है, कहीं परमात्मा का साथ और न छूट जाए।
इसलिए मेरी बड़ी विकट बाट है..दोधारी तलवार से भी तेज और पैनी! उस पर ही मुझे चलना है। शेख फरीद, तैयार हो जा उस मार्ग पर चलने को, अभी समय है।
उसु उपरी है मारगु मेरा। सेख फरीदा पंथु सम्हारि सवेरा।।
बड़ा प्यारा वचन है। इसका जो अनुवाद है वह बिल्कुल ठीक-ठीक चोट नहीं करता। अनुवाद हैः उस मार्ग पर चलने को तैयार हो जा, फरीद, अभी समय है।
बात तो हो जाती है लेकिन चोट नहीं पड़ती। फरीद का मतलब और गहरा है।
सेखु फरीदा पंथु सम्हारि सवेरा।
शेख फरीदा, जिस दिन पंथ को सम्हाल लिया, उसी दिन सवेरा है। माना की बहुत समय जा चुका। माना, मैंने अपना यौवन गंवा दिया, अब पीछे बहुत पछताई।
लेकिन जिस दिन भी तुम जाग गए, उसी दिन सवेरा है। कितना ही गंवाया हो तो भी परमात्मा कुछ ऐसा है कि तुम गंवा नहीं सकते। कितनी ही देर लगाई हो तो भी परमात्मा कुछ ऐसा है कि देर आत्यंतिक नहीं हो सकती।
कहावत हैः सुबह का भूला सांझ घर लौट आए तो भूला नहीं समझा जाता। अगर अंत-अंत तक भी उसका स्मरण आ गया और उसका स्मरण ही सब कुछ प्राणों का प्राण बन गया तो कोई फिकर मत कर।
सखु फरीदा पंथु सम्हारि सवेरा।
अब तू डर मत। माना कि सवेरा निकले बहुत देर हो गई, धूप भी चढ़ गई, सूरज भी उतर गया, सांझ करीब आ रही है; पर मत घबड़ा।
सखु फरीदा पंथु सम्हारि सवेरा।
अगर अभी भी तू पैर रख दे अपनी यात्रा पर तो अभी भी सवेरा हो सकता है! अभी भी समय है। कभी भी समय गंवाया नहीं है। बड़ी दुविधा की बात हैः देर भी बहुत हो गई है। अगर अपनी तरफ देखें तो बड़ी देर हो गई है। अगर उसकी तरफ देखें तो अभी भी सवेरा है। अगर अपने सामथ्र्य की तरफ देखें तो सब चुक गया, यौवन खो बैठे। अब पछतावा ही पछतावा है। अगर उसकी करुणा की तरफ देखें, अभी भी रास्ते पर आ जाएं तो अभी सवेरा हो सकता है। अपनी तरफ देखने से तो हम चुक गए हैं; उसकी तरफ देखने से कुछ भी बिगड़ा नहीं है। क्योंकि हमारे लिए समय की सीमा है; उसके लिए समय की कोई सीमा नहीं। हमारा समय तो बंधा है; उसका समय तो अनबंधा है।
भक्त दोनों तरफ देखता है..अपनी तरफ देखता है तो रोता है कि रोने के सिवाय कुछ उपाय नहीं है अब; उसकी तरफ देखता है तो हंसता है। कहता हैः तेरे लिए तो सब उपाय हैं। और तेरे ही द्वारा तो होने वाला है; हमारे द्वारा तो होना भी न था। युवा भी होते, यौवन भी होता तो भी हमारे द्वारा तो तू मिलने वाला न था। मिलना तो तेरी कृपा से है।
‘वह दिन पहले ही लिख दिया गया था जिस दिन धनवंती का ब्याह होना था।’
शेख फरीद बड़ी प्यारी बातें कर रहा है।
जिस दूल्हे के बारे में सुन रखा था, वह अपना मुखड़ा दिखाने आ पहुंचा है। हड्डियों को खड़खड़ा कर वह उस बेचारी धनवंती को अपने साथ ले जाएगा। अपनी जीवात्मा को तू समझा दे कि जो घड़ी नियत हो चुकी है उसे बदला नहीं जा सकता। जीवात्मा दुल्हन है और मृत्यु दूल्हा है; वह उसे ब्याह कर अपने साथ ले जाएगा। विदा होते समय वह बेचारी किसके गले में बांहें डालेगी? क्या तुमने सुना नहीं कि वह दुल्हन बाल से भी अधिक महीन है? फरीद जब तेरा बुलावा आए, उठ कर खड़ा हो जाना; और अपने आप को धोखा न देना।
जीवन दो ढंग से समाप्त हो सकता है। एकः मरना तो हो जाए, अमृत का उदय न हो। एकः इधर मृत्यु घटे उधर अमृत की शुरुआत हो जाए। मृत्यु के पार दो तरह के दूल्हा तुम्हारी प्रतीक्षा करते हैं। दो घोड़ों पर अलग-अलग सवार। एक तो मृत्यु है, वह भी दूल्हे की तरह आती है। अगर जीवन तुमने गंवा दिया हो तो मृत्यु ही आती है। और दूसरा परमात्मा है। अगर जीवन तुमने सम्हाला हो..एक गीत की तरह, संगीत की तरह..तो परमात्मा आता है। मृत्यु के द्वार पर या तो तुम्हारा मृत्यु से मिलना होता है या महाजीवन से।
फरीद कहता हैः जितु दिहाड़ै धनवरी साहे लह लिखाइ।
वह दिन पहले ही लिख दिया गया था। मौत का दिन तो पहले ही से तय था। वह तो जिस दिन पैदा हुए उस दिन लिख दिया गया। जिस दिन धनवंति का विवाह होना था, वह भी लिख दिया गया था।
जिस दूल्हे के बारे में सुन रखा था, वह मुखड़ा दिखाने आ पहुंचा है। अब मौत करीब आ रही है।
साधारणतः करोड़ में एक को छोड़ कर बाकी का विवाह तो मौत से ही होता है। वह दूल्हा आ गया है, द्वार पर खड़ा है।
हड्डियों को खड़खड़ा कर वह बेचारी धनवंती को अपने साथ ले जाएगा।
फरीद कहता हैः मौत तो तय है। मिटना तो निश्चित है। इसलिए मौत के खिलाफ मत लड़ो। वह दूल्हा तो आएगा ही। वह तो आ ही चुका है। वह तो राह ही देख रहा है। वह तो घड़ी ही तय हो चुकी है। उसके लिए तुम कुछ कर न सकोगे। इसलिए मौत से बचने की कोशिश मत करो। बचने की कोशिश में जीवन गवां दोगे। मौत को स्वीकार कर लो। मृत्यु को दूल्हे की तरह स्वीकार कर लो, यमदूत की तरह नहीं..और तब दूल्हे का रूप बदल जाता है।
धनवंती को अपने साथ ले जाएगा। अपनी जीवात्मा को तू समझा दे फरीद कि जो घड़ी नियत हो चुकी है, उसे बदला नहीं जा सकता।
भाग्य का अर्थ यही है कि जीवन जैसा है उसे स्वीकार कर लो; क्योंकि उससे लड़ने में तुम्हारा समय ही व्यर्थ व्यतीत हो जाएगा। जीवन जैसा है, स्वीकार कर लो। उसे इतनी परिपूर्णता से स्वीकार कर लो कि उससे संघर्ष में जरा भी शक्ति व्यय न हो। और तब तुम अचानक पाओगे; जो शक्ति लड़ने में लग जाती थी, संघर्ष में खो जाती थी, वही शक्ति लहर बन गई समर्पण की, वह तुम्हें ले चली।
मौत से तुम अगर लड़ो तो बस मौत ही पाओगे। अगर मौत के साथ जाने को राजी हो जाओ, तुम अमृत को उपलब्ध हो जाओगे। इतना सा ही फर्क है और फर्क बहुत बड़ा भी है। मौत से जो लड़ने लगा वह मरेगा। वह भी मरेगा जो मौत के साथ जाने को राजी हुआ; लेकिन जो मौत के साथ राजी हुआ, उसके लिए मौत का मुखड़ा बदल जाता है; तब उसके लिए मौत नहीं है, अमृत का दूल्हा आया है। और जो लड़ा, उसके लिए मौत ही है केवल। तुम्हारे लड़ने के कारण परमात्मा मृत्यु जैसा दिखाई पड़ता है। तुम्हारे समर्पण की संभावना हो तो मृत्यु परमात्मा हो जाती है।
जितु दिहाड़ै धनवरी साहे लह लिखाइ।
मलकु जिकंनी सुणीदा मुहु देखाले आइ। ।
जिंदु निमाणी कढीए हडा कूं कड़काइ।
साहे लिखे न चलनी जिंदु कूं समझाइ।।
समझा दे अपनी आत्मा को कि जो घड़ी नियत हो चुकी, हो चुकी, उसे बदला नहीं जा सकता, इसलिए बदलने की आकांक्षा मत कर।
‘जीवात्मा दुल्हन है और मृत्यु है दूल्हा; वह उसे विवाह कर अपने साथ ले जाएगा।’
जिंदु बहूटी मरणु बरु लैजासी परणाइ।
आपण हथी जोलिकै कै गलि लगे धाइ।।
और ध्यान रख, मरते समय जब तू विदा होगा, तू इतना अकेला होगा कि किसी के कंधे पर हाथ रख कर रोने और विदा लेने की भी सुविधा न होगी।
विदा होते समय यह बेचारी किसके गले में बांहें डालेगी? क्या तुमने सुना नहीं कि वह दुल्हन बाल से भी अधिक महीन है।
और वह जो भीतर की आत्मा है, इतनी महीन है, बाल से भी अधिक महीन है; इतनी सूक्ष्म है कि किन्हीं स्थूल कंधों पर हाथ रख भी नहीं सकती। उसके लिए तो सिर्फ एक ही कंधा काम आ सकता है, वह परमात्मा का है। सूक्ष्म के लिए सूक्ष्म का ही कंधा काम आ सकता है। इस शरीर के लिए सहारा लेना हो तो किसी शरीर का सहारा लिया जा सकता है। इस आत्मा का सहारा खोजना हो तो बस आत्मा का ही सहारा खोजा जा सकता है।
फरीद, जब तेरा बुलावा आए तो तू उठ कर खड़ा हो जाना।
वालहु निकी पुरसलात कंनी न सुणीआइ।
फरीदा किड़ी पवंदई खड़ा न आपु मुहाइ।।
जब तेरा बुलावा आए तो तू उठ कर खड़ा हो जाना। घसीट कर ले जाना पसंद मत करना। मौत छीना-झपटी करके ले जाए, यह भी कोई बात हुई? यह भी कोई जाना हुआ? यह भी कोई इज्जत की बात हुई? ऐसी प्रतिष्ठा मत गंवाना। फरीदा जब तेरा बुलावा आए, उठ कर खड़े हो जाना। मौत तुझे तैयार पाए। अगर मौत ने तुझे तैयार पाया तो तूने मौत को असफल कर दिया। अगर मौत को तुझे घसीटना पड़ा, जबरदस्ती करनी पड़ी तो मौत जीत गई, तू हार गया। फरीदा, उठ कर खड़ा हो जाना; और अपने आप को धोखा न देना। क्योंकि उस वक्त अगर तूने अपने आप को धोखा दिया, एक मौका फिर खो गया। फिर एक जन्म होगा। फिर एक लंबी यात्रा होगी। फिर वही घड़ी वर्षों बाद आएगी। तो, मौत की घड़ी को चूक मत जाना, जीवन की घड़ी को तो चूक गया। यौवन जा चुका; वह तो गफलत में बीत गया दिन। अब एक और अवसर बाकी है जागने का; उसको मत चूक जाना। उस समय अपने आप को धोखा न देना।
क्या है धोखा देना? मौत जब आती है तो एक धोखा यह है कि तुम सोचते हो, शायद इससे बचा जा सकता है। बस, बचने की कोशिश में लग जाते हो..घसीटे जाते हो। बचने की कोशिश ही मत करना। मन को कह देना जो नियत हो गया हो गया और जब दूल्हा आ गया तो आ गया। अब विदा लेनी है। तैयार हो जाना। उठ कर खड़े हो जाना। पीछे लौट कर भी मत देखना। इस किनारे की बात ही मत उठाना। मौत झेंप जाए तुम्हारी तैयारी देख कर, मौत संकोच करने लगे कि तुम इतने तत्पर हो जाने को, तो मौत हार जाती है।
अपने को धोखा देने की कोशिश मत करना। जिंदगी भर तो चीजों को पकड़ा, मरते वक्त फिर मत पकड़ लेना। जिंदगी भर सहारे पकड़े, संबंध पकड़े; अब मरते वक्त फिर मत पकड़ लेना, अन्यथा फिर एक अवसर खो जाएगा। उस वक्त तो सब छोड़ ही देना। जिंदगी भर पकड़ पर ध्यान रखा, मरते वक्त त्याग को उपलब्ध हो जाना। लेकिन यह तभी संभव है जब जीवन भर तुमने धीरे-धीरे साधा हो।
तुम यह मत समझना फरीद की वाणी से कि चलो ठीक हुआ, मरते वक्त देखेंगे। तब तो तुम चुक जाओगे। क्योंकि मरने की कोई घड़ी कल थोड़े ही है, अभी है इसी क्षण है। अभी मौत आ सकती है। तैयार रहो। कल के लिए मत टालना, क्योंकि मौत जब भी आती है अभी जाती है, कल कभी नहीं। तुमने कभी किसी को कल मरते देखा? लोग आज मरते हैं जब भी मरते हैं। हां कल जी सकते हैं, कल की कल्पना में जी सकते हैं; लेकिन कल मर नहीं सकते हैं, मरेंगे तो अभी। मृत्यु सदा अभी घटती है, आज घटती है।
फरीदा, जब जब तेरा बुलावा आए तो उठ कर खड़े हो जाना और अपने आप को धोखा न देना।
जिसने अपने को धोखा न दिया, उसे मौत हरा नहीं पाती। जो सजग रहा, प्रवंचना से मुक्त रहा, होश को सम्हाले रहा, और जिसने स्वीकार किया बेशर्त भाव से..परमात्मा जो भी करे; मौत तो मौत, जीवन तो जीवन..जिसने अपनी मर्जी के अनुसार जीवन और मौत को चलाना न चाहा, बल्कि जो उस विराट की मर्जी से चल गया, बहने लगा उसके साथ..वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है।

आज इतना ही।

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