पांचवां-प्रवचन-(सत्य की अग्नि-परीक्षा)
दिनांक 15-05-1980 ओशो आश्रम पूना।01-हम भी मिट जाते कोई जख्मे तमन्ना बन कर
काष आती न तेरी याद मसीहा बन कर
हम भी मिट जाते...
दिल की हर आग बुझाने को, तेरी याद आई
कभी कतरा कभी षबनम कभी दरिया बन कर
हम भी मिट जाते...
रास्ता भूल गई याद किसी की वरना
हम गरीबों के घर आती न उजाला बन कर
हम भी मिट जाते कोई जख्मे तमन्ना बन कर
काष आती न तेरी याद मसीहा बन कर
जब चले दष्त की .जानिब तो देखा हमने
सामने याद खड़ी थी तेरी लैला बन कर
हम भी मिट जाते कोई जख्मे तमन्ना बन कर
काष आती न तेरी याद मसीहा बन कर
हम भी मिट जाते...
02-जनता आपको गलत ही क्यों समझे जाती है?
03-संन्यास लेने के बाद जो आनंद मिला है उसे षब्दों में नहीं कह सकता। तीस साल से षराब और सिगरेट पीने की आदत सहसा समाप्त हो गयी है। नमाज नहीं पढ़ी जाती, षब्द ही भूल जाता हूं और ध्यान की अवस्था आ जाती है। सत्य बोलने के लिए एक भीतरी ष7ि अनुभव होती है। झूठ बात अब निकलती ही नहीं। मैं आपका अनुगृहीत हूं!
05-मैं विवाह कर रहा हूं, आपके आषीर्वाद चाहिए।
पहला प्रश्नः ओशो,
हम भी मिट जाते कोई जख्मे तमन्ना बन कर
काष आती न तेरी याद मसीहा बन कर
हम भी मिट जाते...
दिल की हर आग बुझाने को तेरी याद आई
कभी कतरा कभी षबनम कभी दरिया बन कर
हम भी मिट जाते...
रास्ता भूल गयी याद किसी की वरना
हम गरीबों के घर आती न उजाला बन कर
हम भी मिट जाते कोई जख्मे तमन्ना बन कर...
काष आती न तेरी याद मसीहा बन कर
जब चले दष्त की .जानिब तो ये देखा हमने
सामने याद खड़ी थी लैला बन कर
हम भी मिट जाते कोई जख्मे तमन्ना बन कर
काष आती न तेरी याद मसीहा बनकर
हम भी मिट जाते...
ध्यानेश! मनुष्यों में और बुद्धों में बस इतना-सा ही भेद है-याद का। जिसे याद आ गयी वह बुद्ध हो गया। जिसे याद न आयी वह नाममात्र को ही मनुश्य होता है, मनुश्य भी नहीं हो पाता। कोई और भेद नहीं है। कोई मौलिक भेद नहीं है। कोई गुणात्मक भेद नहीं है।
कुछ ऐसा नहीं है कि बुद्धपुरुश आकाष से उतरते हैं और हम कीचड़ से पैदा होते हैं।ं हम भी कीचड़ से पैदा होते हैं, वे भी कीचड़ से पैदा होते हैं। कीचड़ से ही कमल पैदा होते हैं। लेकिन थोड़ा-सा भेद है और थोड़ा-सा भेद बड़ा भेद बन जाता है। इतना ही भेद है कि किसी को याद आ जाती है परमात्मा की और किसी को याद नहीं आती। कोई सोया ही चला जाता है, सपनों में ही खोया रहता है, मूच्र्छा के नए-नए आयोजन करता रहता है।
हमारी तथाकथित जीवन-व्यवस्था, जिसका हम सुख सुविधाएं कहते हैं, सिवाय मूच्र्छा को बनाए रखने के उपकरणों से और कुछ ज्यादा नहीं है। नींद न टूटे, नींद बनी रहे, ठीक होगी षैय्या, सुखद होगा वातावरण, सुख होगा, सुविधा होगी, नींद का टूटना मुष्किल होगा।
तुमने देखा, नींद टूट जाती है अगर कोई दुख-स्वप्न देखे। जैसे कि तुम्हें कोई पहाड़ से गिरा दे स्वप्न में और तुम गिरे जा रहे हो अतल खड्ड की तरफ, जहां कि चकनाचूर हो जाओगे, अब टूटे अब टूटे, अब टकराए अब टकराए-कैसे सोए रहोगे? नींद टूट ही जाएगी। कोई सिंह हमला कर दे सपने में, छाती पर सवार हो जाए, पंजे से चीरने लगे छाती को-सो सकोगे? मुष्किल हो जाएगा सोना। सोने के लिए सुखद सपने चाहिए।
और जिसको हम जीवन कहते हैं, वह कुछ और नहीं, सुखद सपनों को देखने का आयोजन है। और जिनको हम सफल कहते हैं वे वे लोग हैं, जो सुखद सपने देखने में निश्णात हो गए हैं, कुषल हो गए हैं। असफल हम उनको कहते हैं, जो सुखद सपने नहीं देख पाते।
जीवन के अंतिम गणित में बड़ी और बात हैः सफल वह है जिसका सपना टूट जाए; असफल वह है जिसका सपना मजबूत होता चला जाए। और हमारा जीवन तो बस नींद की दवाएं जुटाने के काम आता है। तो याद आए तो कैसे आए?
तुम कहते हो--
‘रास्ता भूल गयी याद किसी की वरना
हम गरीबों के घर आती न उजाला बन कर।
हम भी मिट जाते कोई जख्मे तमन्ना बन कर
काष आती न तेरी याद मसीहा बन कर।’
वह तो द्वार-द्वार पर खड़ा है। उसके लिए कुछ भेद नहीं है गरीब और अमीर का। लेकिन अमीर ने मजबूत द्वार बना रखे हैं; उन पर ताले जड़ दिए हैं, पहरे बिठा रखे हैं। परमात्मा प्रवेष भी करना चाहे तो प्रवेष नहीं कर पाएगा।
मत कहो यह कि--
‘रास्ता भूल गयी याद किसी का वरना
हम गरीबों के घर आती न उजाला बन कर।’
तुम्हारे द्वार खुले हों तो याद अभी आ जाए, तत्क्षण आ जाए। द्वार खुले हों तो सूरज यह थोड़े ही देखता है कि महल है कि झोपड़ा है! उसकी किरणें नाचती भीतर चली आती हैं। सूरज भेद थोड़े ही करता है महलों में और झोपड़ो में। सच तो यह है कि झोपड़ों में ज्यादा आसानी से चला आता है, महलों में मुष्किल हो जाती है। महलों में कहां सूरज की बिसात है, कहां सूरज प्रवेष पा सकेगा! इतने द्वार-दरवाजे, इतना पहरा, इतनी संगीनें। सूरज की नाजुक किरणें कैसे प्रवेष पा सकेंगी?
नहीं, तुम गरीब नहीं हो अगर उसकी याद आ गयी। उसकी याद आ गयी तो तुम धनी हो। उसकी याद आ गयी, तो ही तुम समृद्ध हो। गरीबों को ही उसकी याद नहीं आती। लेकिन जिनके पास धन है. उनको हम धनी समझते हैं। धन होने से कोई धनी नहीं होता। आत्मवान होने से कोई धनी होता है, क्योंकि धन ध्यान का दूसरा नाम है। धन भीतर है, बाहर नहीं। उसकी याद आए तो तुम धनी हो जाते हो। उसकी याद न आए तो तुम गरीब हो।
इस जगत में जिनके पास सब कुछ है और परमात्मा ही याद नहीं, उनसे ज्यादा दीन और दरिद्र कोई भी नहीं। उनका सब पड़ा रहा जाएगा। उन्होंने जिंदगी यूं ही गंवा दी, कूड़े-कचरे में गंवा दी। वे नाहक ही समुद्र के तट पर कंकड़-पत्थर बीनते रहे और जिंदगी हाथ से बहती चली गयी। जिंदगी, जो कि हीरे बन सकती थी, कंकड़-पत्थरों में लुट गयी।
गरीब नहीं हो ध्यानेष। तुम्हें मैंने ध्यानेष नाम दिया। उससे बड़ा कोई और धनी नहीं होता। ध्यान आ जाए, बस धन के द्वार खुल गए।
धन की परिभाशा यही हैः जिसे मृत्यु न छीन पाए, वही धन है। जिसे मृत्यु छीने ले, वह क्या खाक धन है! सिर्फ सपना है। रेत के घर हैं। कागज की नावें हैं। ताष के पत्तों के बनाए गए महल, हवा का जरा-सा झोंका और गिर जाएंगे।
मगर यह बात सच हैः उसकी याद न आए तो हम क्या हैं-सिवाय एक जख्में तमन्ना; एक घाव, एक पीड़ा, एक रूदन। उसकी याद न आए तो हम क्या हैं-सिवाय आंसुओं के! डसकी याद आए तो आंसू ही मोती हो जाते हैं। उसकी याद न आए तो आंसू पानी हैं; उसकी याद आए तो आंसू मोती हैं। उसकी याद का जादू इस जगत में सबसे बड़ा जादू है। जिसको उसकी याद ने छू लिया, उसकी मिट्टी भी सोना हो जाती है और जिसे उसकी याद ने नहीं छुआ, उसके हाथ में सोना भी मिट्टी है।
‘हम भी मिट जाते कोई जख्मे तमन्ना बन कर
काष आती न तेरी याद मसीहा बन कर।’
यह सच है। यह षत-प्रतिषत सच है।
साधारण आदमी की जिंदगी और क्या है-एक नासूर, जिससे मवाद रिसती है छिपाओ लाख, उघड़-उघड़ आती है। यहां से ढांको तो वहां से उघड़ आती है। इधर से दबाओ तो उधर से बहने लगती है। एक बीमारी मिटाओ तो दूसरी प्रगट हो जाती है। साधारण आदमी है क्या-एक विक्षिप्तता, एक पागलपन! मगर चूंकि और सारे लोग भी हम जैसे ही पागल हैं, हमें पता नहीं चलता। पागलों की भीड़ में हम बिलकुल ठीक मालूम होते हैं।
एक पागलखाने में नया डाॅक्टर आया। पागलों ने बड़ा उत्सव मनाया। नए डाॅक्टर को गले लगे, बड़े गीत गाए, फूलमालाएं पहनायीं, फूल बरसाए। पुराना डाॅक्टर बड़ा हैरान हुआ। वह विदा ले रहा था। यह समारोह दोनों का था-पुराने की विदाई थी, नए का स्वागत था। लेकिन पुराने को न तो मालाएं पहनायीं उन्होंने, न पुराने की कोई फिक्र की, उसकी उपेक्षा कर दी बिलकुल। पुराने डाॅक्टर ने कहा कि भाई, मैं तीस साल तुम्हारी सेवा किया, मुझे धन्यवाद भी नहीं और यह आदमी को तुम अभी जानते भी नहीं, नया-नया आया, इसका तुम इतना स्वागत कर रहे हो, बात क्या है? पागल हंसने लगे। उन्होंने कहा कि यह आदमी बिलकुल हम जैसा मालूम होता है। तुम एक अजनबी थे। तुम्हारा हमसे कभी तालमेल न बना। तुम ऊटपटांग बातें करते थे। सारा पागलखाना जानता है कि तुम पागल थे। यह आदमी समझदार है। इसके हर ढंग में समझ का लक्षण है। जब यह अंदर प्रविश्ट हुआ, तभी हम पहचान गए, तत्क्षण पहचान गए। अरे समझदार छिपा सकता है अपनी समझ को? जैसे अंधेरे में दीया जले, तो किसी को भी दिखाई पड़ जाए। इसने सिगरेट जलायी और कान में लगाकर पीने लगा, तभी हम पहचान गए कि यह है अपना आदमी जिसकी .जरूरत थी! क्या पहुंची हुई सूझ है!
पागलों को तो पागल लगेगा अपने जैसा। पागलों को तो पागल के साथ तालमेल लगेगा। स्वस्थ व्य7ि पागलों को जंचेगा नहीं, रूचेगा नहीं। यहां सब बीमार हैं। इन बीमारों की बस्ती में स्वस्थ होना खतरे से खाली नहीं है। इन बीमारों की बस्ती में प्रभु का स्मरण जोखम का काम है। सूफी फकीर तो कहते हैं चुपचाप करना स्मरण, किसी को कानो-कान खबर न हो, नहीं तो तुम झंझट में पड़ोगे। मगर यह मामला कुछ ऐसा है कि तुम लाख छिपाओ, यह छिपता नहीं, यह छिपाया जा नहीं सकता। छिपाने की जितनी कोषिष करोगे, उतना ही प्रगट हो जाएगा। क्योंकि परमात्मा की याद एक ऐसी मस्ती ले आती है! जब वसंत आएगा तो फूल खिलेंगे; क्या करेंगी कलियां, खुल पड़ेंगी, चटक जाएंगी, गंध बिखर जाएगी! लाख रोकना चाहें तो रूक न सकेंगी। और जब वर्शा आएगी तो मेघ बरसेंगे, मोर नाचेंगे। यह सब होगा ही। जब आम पकने के करीब होंगे, अमराई फूलेगी, तो कोयल कूकेगी, लाख रोकना चाहे। सुनतेे हो दूर कोयल की आवाज? लाख रोकना चाहे, नहीं रुक सकती। जब परमात्मा तुम्हारे भीतर याद बन कर उतरेगा तो तुम्हारे पैरों में नाच आ जाएगा, तुम्हारे होठों पर गीत आ जाएंगे, तुम्हारी आंखो में ज्योति आ जाएगी। तुम उठोगे और ढंग से, बैठोगे और ढंग से। तुम्हारी आखों में एक मादकता आ जाएगी, एक नषा आ जाएगा, एक मस्ती आ जाएगी। उसके बिना तो जिंदगी अधूरी है। उसके बिना तो जिंदगी अंधेरी है।
तो यह सच है-
‘हम भी मिट जाते, कोई जख्मे तमन्ना बन कर
काष आती न तेरी याद मसीहा बन कर
दिल की हर आग बुझाने को तेरी याद आई
कभी कतरा कभी शबनम कभी दरिया बन कर।’
बहुत रूपों में उसकी याद आती है, बस एक दफा आ जाए तो हर रूप में पहचानी जाने लगती है। एक दफा समझने की बात है। एक बार पहचान हो जाए तो फुल में भी तुम उसी की मुसकराहट पाओगे और सुबह ओस की बूंद में भी उसी चमक और सांझ जब तारे आकाष में फैलने लगेंगे तो उसी का आंचल! सूर्यास्त में भी तुम उसी को देखोगे! उसी का रंग बिखरा हुआ पाओगे बदलियों पर। लोगों की आंखो में झांकोगे तो उसी की गहराई, पषु-पक्षियों में उसी का निर्दोश भाव। उससे एक बार पहचान भर हो जाए, उसकी याद भर आ जाए, कि पत्थर-पत्थर पर तुम्हें ऋचाएं खुदी हुई मिलेंगी। फिर तुम वेदों में नहीं जाओगे, वेदों में क्या जाने की जरूरत रह जाती है! सड़ी गली किताबों में किसकी फिक्र रह जाती है! चारों तरफ जिंदा किताब मौजूद है।
परमात्मा की सृश्टि, उसकी किताब है, उसका वेद है। और सब वेद तो आदमी के रचे हुए हैं; लाख तुम कहो कि अपौरूशेय हैं, लाख हिंदू कहें कि परमात्मा ने स्वयं वेद रचे हैं, बात कुछ जंचती नहीं। क्योंकि वेदों में ऐसी बातें भरी पड़ी हैं जो परमात्मा के होंठो से निकल ही नहीं सकतीं; जिनको परमात्मा के होंठों से निकलवाने के लिए परमात्मा से बड़ी कवायद करवानी पड़ेगी, बड़ा षीर्शासन करवाना पड़ेगा। अब परमात्मा यह प्रार्थना करेगा...किससे प्रार्थना करेगा, पहली तो बात? सारा वेद प्रार्थनाओं से भरा हुआ है। परमात्मा लिख रहा है, तो प्रार्थना किससे करेगा? कोई पूछे? अब प्रार्थना तो वही कर सकता है जो परमात्मा नहीं है। परमात्मा अपनी ही प्रार्थना कर रहा है! अपने से ही प्रार्थना कर रहा है! प्रयोजन क्या है? जो उसे करना हो करे, इतना षोरगुल क्या मचाना? और प्रार्थना भी क्या छोटी-मोटी, क्या टुच्ची, कि अगर वेद को छांटने जाओ तो निन्यानबे प्रतिषत कचरा पाओगे। कचरा ऐसा कि आदमी भी लिखने में षरमाए। तुम भी अगर लिखने बैठो आज तो तुमको भी लगे कि यह लिखने योग्य है-कि हे परमात्मा, मेरे गऊ के थनों में दूध बढ़ जाए! यह भी कोई प्रार्थना हुई? तुमको भी थोड़ा सोच-विचार होगा कि यह भी क्या काम परमात्मा को सौंप रहे हैं! इसके लिए तो वेटनरी डाॅक्टर ही काम कर देगा। परमात्मा कोई पषु-चिकित्सक है? और इतना ही नहीं कि मेरे गाय के थनों में दूध बढ़ जाए, मेरे दुष्मन की गाय के थनों का दूध सूख जाए, यह भी उसमें जुड़ा है। मेरे खेत में ज्यादा वर्शा हो और पड़ोसी के खेत में वर्शा बिलकुल न हो-ये बातें परमात्मा लिखेगा?
लेकिन सारे धर्म-ग्रंथ इसी तरह की बकवास से भरे हुए हैं। और हरेक धर्म का दावा है कि ये ईष्वर ने स्वयं लिखी है बातें। मैं तुमसे कहना चाहता हूंः ईष्वर की तो सिर्फ एक ही किताब है, वह लिखी हुई किताब नहीं है। वह फूलों में है, पत्तों में है, पहाड़ों में है, पत्थर में है, नदियों में है, लोगों की आंखों में है, इस जीवन में है। यह जीवन उसकी किताब है। यही उसका एकमात्र वेद है, कुरान है! यही उसका गीत है, यही उसकी श्रीमद्भगवतगीता है।
पहचान उसकी आनी षुरू हो जाए और दिल की हर आग बुझ जाएगी। दिल की आग ही क्या है? हम इतने जले क्यों जा रहे हैं? हम इतने बेचैन क्यों हैं? हम इसीलिए बेचैन हैं कि जो हमारा है उसी से छुट गए हैं। जो अपना है उसी से टूट गए हैं। जैसे कोई वृक्ष जमीन से उखाड़ ले और उसकी जड़ें जमीन से छूट जाएं, तकलीफ न होगी, पीड़ा न होगी वृक्ष को, पत्ते कुम्हलाने लगेंगे, फूल मुरझाने लगेंगे, कलियां फिर फूल न बनेंगी, पत्ते गिरने लगेंगे। बेमौसम मौत आ गयी।
जड़ें तो जमीन मांगती हैं। आदमी के प्राण भी परमात्मा मांगते हैं। परमात्मा आदमी की भूमिका है, उसकी भूमि है। उसके बिना आदमी सूख जाता है, निर्वीर्य हो जाता है, निस्तेज हो जाता है। वही उसकी ष7ि है, वही उसकी ऊर्जा है।
‘दिल की हर आग बुझाने को, तेरी याद आयी है
कभी कतरा कभी षबनम कभी दरिया बन कर।’
बहुत रूपों में आती है उसकी याद। एक बार पहचान भर आ जाए, फिर सब जगह उसकी पहचान होने लगती है। पहली पहचान ही कठिन है। बस पहला स्मरण ही कठिन है। फिर षेश सब सुगम हो जाता है।
‘जब चले दष्त की जानिब तो यह देखा हमने
सामने याद खड़ी थी तेरी लैला बन कर
हम भी मिट जाते कोई जख्मे तमन्ना बन कर
काष आती न तेरी याद मसीहा बन कर।’
दुनिया में परमात्मा को दो ढंग से सोचा गया है। एक तो पुरूश की तरह, जैसा कि भारत के भ7ों ने किया, कि परमात्मा कृश्ण है और षेश सब जो भ7 हैं वे उसकी सखियां हैं, गोपियां हैं। यह एक ढंग है परमात्मा को स्मरण करने का। सूफियों ने इससे ठीक उलटा किया। उन्होंने परमात्मा को लैला मानः वह स्त्री है, वह प्रियतमा है, और सब मजनू हैं। सूफियों की बात भी बड़ी प्यारी है।
जो रूच जाए चुन लेना। सैद्धांतिक झगड़ों में मत पड़ना। कुछ लोग सैद्धांतिक झगड़ों में पड़ जाते हैं, समय गंवाते हैं। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि परमात्मा प्रियतम है या प्रियतमा। यह तो भाशा का भेद है। तुम्हें जो रूचे। तुम्हें जो प्रीतिकर लगे। दोनों रास्तों से उपलब्धि हो गयी है। अगर परमात्मा प्रियतमा है, तो मजनू बनने की हिम्मत रखना। और जरा महंगा काम है मजनू बनना, आसान नहीं है। सच तो यह है, मजनू बनना ज्यादा कठिन है बजाय राधा बनने के। मजनू तो दीवानापन है। मजनू तो आखिरी ऊंचाई है प्रेम के पागलपन की। मजनू को सब जगह लैला दिखाई पड़ती थी। सारा जगत लैलामय हो गया था।
तुम यह ध्यान रखना कि लैला मजनू की कहानी सूफियों की कहानी है। वह कोई साधारण प्रेम-कथा नहीं है। लोगों ने उसको साधारण प्रेम-कथा समझ कर बड़ी गलती की है। वह एक अद्भुत काव्य है और उसके भीतर अद्भुत राज छिपे हैं। अगर मजनू बनने की हिम्मत हो, अगर सब कुछ लुटा देने की हिम्मत हो, तो परमात्मा को लैला मान कर चल पड़ना। असली बात मिटने की है। अगर तुम मिट जाओ मजनू बन कर, तो उसे पा लोगे। तुम मिटो तो उसे पा लो।
लेकिन हो सकता है तुम्हें मजनू बनने की बात जमे नहीं, तुम्हें मीरा बनने की बात जमें वह भी मिटने का ढंग है। कहते हैं, मीरा जब वृन्दावन पहुंची तो वृन्दावन में एक मंदिर था कृश्ण का-सबसे बड़ा मंदिर। उसका पुजारी स्त्रियों को नहीं देखता था। एक से एक मूर्खताएं दुनिया में चलती हैं। स्त्रियों में परमात्मा देखो, यह तो समझ में आता है; मगर स्त्रियों को ही न देखो, यह चित्त-दषा तो रूग्ण है। मगर उसकी बड़ी प्रतिश्ठा थी, क्योंकि हम इस तरह के लोगों को बड़ा आदर देते हैं। पागलों की दुनिया में इस तरह के पागल खूब जंचते हैं, खूब रूचते हैं। हमारे गणित में बैठे जाते हैं, हमारे तराजू पर तुल जाते हैं। हम कहते हैंः ‘वाह-वाह, यह है त्याग, यह है तपष्चर्या!’ उस मंदिर में स्त्रियों का प्रवेष निशिद्ध था, क्योंकि कहीं पुजारी की भूल से नजर पड़ जाए, पुजारी का कहीं ब्रह्मचर्य खंडित हो जाए! खूब कच्चा ब्रह्मचर्य रहा होगा। इससे भी कच्चा ब्रह्मचर्य देखा कहीं, स्त्री देखने से ही नश्ट हो जाए? गजब के ब्रह्मचारी थे। तो स्त्रियों को तो प्रवेष निशेध था, स्त्रियां बाहर ही मंदिर के द्वार पर से ही नमस्कार करके लौट जाती थी। और वहां पहरा था सख्त कि कोई स्त्री भीतर न आए।
जब मीरा पहुंची तो मीरा तो अपना इकतारा बजाती हुई, नाचती हुई पहुंची। ऐसी तो कोई स्त्री कभी पहुंची ही न थी। उसका इकतारा, उसका नृत्य, उसका सौन्दर्य, उसकी अपूर्व भाव-दषा, उसकी समाधिस्थ भूमिका...पहरेदार तो भूल ही गए! भीड़ लग गयी वहां। वे तो तल्लीन हो गए उसके साथ। वह नाचते-नाचते मंदिर में प्रविश्ट हो गयी। यह तो पहरेदारों को बाद में एकदम होष आया कि यह क्या हुआ, स्त्री अंदर चली गयी! मगर तब तक तो बहुत देर हो गयी थी। पुजारी पूजा कर था। मीरा को देख कर उसके हाथ से तो थाली छूट गयी पूजा की। थाल गिर पड़ा जमीन पर। उसके तो जीवन भर की साधना खंडित हो गयी। उसके तो क्रोध का अंत न रहा।
तो तथाकथित ब्रह्मचारी महाक्रोधी होते हैं। ये सब दुर्वासा के ही रूप हैं। वह एकदम भनभना गया। उसने कहा कि ऐ स्त्री, तू यहां कैसे प्रविश्ट हुई? षर्म नहीं आती? तुझे पता नहीं?
मीरा तो मस्ती में थी। उसने कहाः ‘ये बातें पीछे हो लेंगी, अभी जरा नाच लूं कृश्ण के आसपास।’
मगर पुजारी ने कहाः ‘नाच इत्यादि बाद में, पहले इसका जवाब चाहिए कि तू यहां प्रविश्ट कैसे हुई? तुझे पता नहीं है?’
मीरा ने कहाः ‘अब तुम पूछते हो तो मैं तुमसे कहती हूं। मुझे आष्चर्य होता है, तुम तीस साल से कृश्ण की पूजा कर रहे हो, अभी तक तुम्हारा पुरूश-भाव नहीं गया! क्योंकि कृश्ण की पूजा का वह तो प्राथमिक चरण है कि हम सब स्त्रियां हैं और कृश्ण पुरूश हैं। यह तो कृश्ण-भ7ि का आधार है। तुम अपने को पुरूश समझते हो? तो तुम्हारा कृश्ण से क्या नाता बनेगा! और अगर तुम भी स्त्री, मैं भी स्त्री, तो झगड़ा क्या? मैं भी सखी, तुम भी सखी। आओ दोनों मिलकर नाचें!’
पुजारी के ऊपर तो जैसे हजारों घड़े ठण्डा पानी किसी ने गिरा दिया हो, जैसे नींद टूटी! चैंका। बात तो सच थी । यह तो कृश्ण भ7ि का आधार स्तम्भ है कि सिवाय कृश्ण के और कोई पुरूश नहीं है। जैसे सूफियों का है कि सिवाय परमात्मा के और कोई लैला नहीं है और कोई स्त्री नहीं है, बाकी सब पुरूश हैं। मगर दोनों का राज एक ही है, कुंजी एक ही हैः चाहे लैला बनो, चाहे मजनू बनो, दोनों में से कुछ भी बन जाओ, मिट जाओगे। यह मिटने का ढंग है। एक ढंग वह, एक ढंग यह। पूरब से प्रवेष करो कि पष्चिम से, इस द्वार से उस द्वार से, बस मिटने की कला आ जाए। तुम जिस क्षण मिट जाओगे उसी क्षण परमात्मा तुममे प्रविश्ट हो जाता है।
ध्यानेष, मिटो! पूरी तरह मिटो! अभी जो याद ही याद है, अभी सिर्फ स्मरण ही स्मरण है, वह तुम्हारा अस्तित्व भी हो सकता है। फिर याद भी नहीं करना पड़ता है। कबीर ने कहाः पहले मैं याद करता था, पुकारता फिरता था, हरि-हरि की रट लगाए रखता था। बहुत याद किया, बहुत याद किया, बहुत खोजा। अब हालत बिलकुल बदल गयी है। अब मैं तो याद करता ही नहीं, क्योंकि याद भूलती नहीं तो याद क्या करना! याद करे वे जिन्होनें भुलाया हो कभी। याद भूलती नहीं तो याद क्या करना! याद करें वे जिन्होंने भुलाया हो कभी। याद भूलती नहीं तो याद क्या करना। इसलिए अब याद तो करते ही नहीं क्योंकि याद भुलती नही। याद करें वे जिन्होंने भुलाया हो कभी। अब तो हालत बदल गयी है। अब तो वह मेरे पीछे पीछे घूमता है-‘कहत कबीर कबीर!’ कहां जा रहे हो भाई? जहां मैं जाता हूं, मेरे पीछे-पीछे डोलता है।
यह पराकाश्ठा है भीी की, जब परमात्मा तुम्हें याद करता है। कबीर ने कहाः ‘हरि मेरा सुमिरण करें।’ अब मैं तो मिट ही गया, अब तो वही याद करते हैं! अब तो मैं याद करने को भी न बचा।
ध्यान की षुरूआत होती है परमात्मा के स्मरण से और पूर्णता होती है विसर्जत से-सब विसर्जित हो जाता है। जिस दिन सब विसर्जित हो जाए, उस दिन जीवन की सबसे बड़ी धन्यता है। वही मु7ि है, निर्वाण है।
एक मरीज डाॅक्टर के पास पहुंचा। डाॅक्टर से बोला: ‘डाॅक्टर साहब, रात में जैसे ही पलंग पर सोने जाता हूं, खुजली षुरू हो जाती है। रात देर तक ऐसा चलता रहता है।’
डाॅक्टर ने कहाः ‘ठीक है, ये गोलियां रात को सोते समय खा लिया करना।’
मरीज ने पूछाः ‘ये गोलियां कौन सी हैं डाॅक्टर साहब?’
डाॅक्टर ने कहाः ‘नींद की।’ मरीज ने कहाः ‘पर मुझे तो खुजली की षिकायत है।’
डाॅक्टर ने कहाः ‘अरे भाई जब नींद ही लग जाएगी तो खुजली कहां से होगी?’
जिसको तुम अभी जीवन समझ रहे हो, वह अगर तुम अगर गौर से देखने की कोषिष करोगे तो सब परमात्म को भुलाने का उपाय है; याद करने का नहीं, भुलाने का-धन में, पद में, प्रतिश्ठा में। ये सब नींद की गोलियां हैं। ये सब षामक दवाएं हैं। जो धन की दौड़ में है उसको ध्यान की कहां फुर्सत! याद भी नहीं आती। वह कहता हैः पहले धन तो कमा लूं, फिर फुर्सत से कभी कर लेंगे याद। ऐसी जल्दी भी क्या है?’
और इस देष में तो और भी मजा है। इस देष में तो हमने धारणा बना रखी है कि एक ही जन्म नहीं है, जन्म-जन्म हैं। सो वैसे ही हम आलसी थे-इस पृथ्वी पर हम से ज्यादा आलसी कोई भी नहीं-इस धारणा ने हमारे आलस्य को और सुगमता दे दी। इसे तुम समझना। पष्चिम में जो आलस्य नहीं है, उसका कुल कारण इतना है कि पष्चिम में एक ही जीवन की धारणा है। टालने का उपाय नहीं है, स्थगित करने की संभावना नहीं है। एक ही जीवन है; जो करना हो कर लो। धन तो धन, पद तो पद, ध्यान तो ध्यान, प्रार्थना तो प्रार्थना-जो भी करना हो कर तो। दुबारा अवसर नहीं है।
मगर हमें क्या जल्दी पड़ी है! इस जन्म में नहीे तो अगले जन्म में देख लेंगे। अगले में नही ंतो और अगले में देख लेंगे। ऐसे जन्म जो मिलते ही रहे, मिलते ही रहेंगे। अनंत काल पड़ा हुआ है। अनंत काल ने हमें बड़ी सुस्ती दे दी; अद्भुत आलस्य दे दिया है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कौन सी धारणा सच है। मैं यह कह रहा हूं, किस धारणा का क्या परिणाम हुआ है। पष्चिम में जो त्वरा है, गति है, तेजी है, प्रत्येक काम को कुषलता से और पूर्णता से करने का जो एक गहन भाव है, वह पूरब में नहीं है। यहां हर आदमी टालने की कोषिष में लगा है। यहां फाईलें दफ्तर में एक टेबिल से दूसरी टेबिल पर सरकती रहती हैं। अभी कोई जल्दी भी क्या है! जन्मों जन्मों का काम है, होता रहेगा। अनंत काल पड़ा हुआ है।
चैरासी करोड़ योनियों में से तुम होकर आए हो, अभी तक तुमने प्रभु का स्मरण नहीं किया! गजब नींद है! चैरासी करोड़ योनियों में भटके, मगर प्रभु का स्मरण नहीं किया। और अभी भी अगर तुमसे कोई कहे स्मरण करो, तो तुम कहते होः ‘करेंगे भाई करेंगे। जरा बेटे की षादी हो जाए, बेटी की षादी हो जाए। जरा नाती पोते बड़े हो जाएं। जरा अभी घर-गृहस्थी कच्ची है, पक्की हो जाए। जरा दुकाने अभी-अभी खोली है, चल तो पड़े। बुढ़ापे में कर लेंगे। आखिरी वक्त कर लेंगे। और नहीं हुआ इस समय में तो अगले समय में हो जाएगा।’
मुल्ला नसरूद्दीन से एक मुसलमान फकीर ने पूछा कि नसरूद्दीन, तुम्हें तो हिन्दुस्तान में रहते बहुत समय हो गया, तुम्हारा क्या ख्याल हे पुनर्जन्म के संबंध में? क्योंकि हम मुसलमान तो पुनर्जन्म मानते नहीं, मगर तुम तो हिन्दुओं के बीच ही रहे, बड़े हुए, तुम्हारा क्या ख्याल है?
नसरूद्दीन ने कहा कि पुनर्जन्म का सिद्धांत ऐसा है गुरूदेव, कि जैसे आप मर जाएं और आपकी कब्र पर एक गुलाब का फूल खिले। फिर एक गाय आए और गुलाब के फूल को चर ले। और फिर गाय गोबर करे। और मैं सुबह-सुबह घूमने निकलूं और गोबर का ढेर लगा देखकर मैं कहूंः ‘गुरूदेव, आप बिलकुल बदले नहीं!’ यही पुनर्जन्म का सिद्धांत है, कि कुछ बदलता नहीं, आप बिलकुल वही के वही गुरूदेव! षुद्ध गोबर! जैसे पहले थे वैसे अब।
इस जन्म में भी तुम ऐसे गुजार दोगे, न मालूम कितने जन्म गुजार दिए! गुजारने की तुम्हारी आदत हो गयी है, स्थगित करने की तुम्हारी आदत हो गयी है। स्थगन की इस आदत से जागो। कल पर मत छोड़ो। कल पर जिसने छोड़ा, उसने सदा के लिए छोड़ा, याद रखना। वह बेईमानी कर रहा है-अपने साथ, अस्तित्व के साथ। याद करनी है परमात्मा की, द्वार-दरवाजे खोलो। अभी आने दो याद, कि यही क्षण उसके स्मरण का क्षण है। और उसकी याद कभी भी आने को तैयार है। वह द्वार पर दस्तक के रहा है, मगर तुम सुनो तब! तुम तो कान बंद किए पड़े हो। तुम तो नींद की दवाओं पर दवाएं लिए चले जा रहे हो। तुम तो षराब में धुत् पड़े हो। तुम तो ऐसी पीए हो!
और तरह-तरह की षराबें हैं, खयाल रखना। वह अंगूर से जो ढलती है, वही एकमात्र षराब नहीं है; वह तो कुछ खास षराब है ही नहीं। अंगूर से ढली षराब जो पी लेता है, वह हो सकता है रात भर नषे में रहे, सुबह होष में आ जाता है। मगर यहां बड़ी गहरी षराबें हैं। जिसको अब राजनीति का नषा चढ़ा है, यह कोई एकाध दिन-रात में नहीं उतरता। जिंदगी बीत जाती है, उतरता ही नहीं। यह भाग-दौड़ ऐसी है कि चलती जाती, चलती जाती! यह पद मिल गया तो और पद मिलना चाहिए। वह पद मिल गया तो और आगे को मिलना चाहिए। जो मिल गया उसको बचना है, कहीं वह छूट न जाए! और आगे कुछ है, उसे पाना है। पद की जो दौड़ में लगा है उसका नषा उतरता ही नहीं। धन की जो दौड़ में लगा है उसका नषा कैसे उतरेगा! कितना ही धन हो, कोई अंत नहीं आता उस दौड़ का। ये नये ज्यादा गहरे हैं।
लोग षराब का तो बहुत विरोध करते हैं और अक्सर यही राजनेता विरोध करते हैं, जो पद ही षराब पीए बैठे हैं और तुमने सुना, हमारे पास षब्द ही हैं पुराने-पर-मद, धन-मद। हमने क्यों ‘मद’ षब्द का उपयोग किया इनके साथ? इसीलिए कि ये सब षराबें हैं और ऐसा डुबाती हैं कि लाख कोई चेताए, तुम कहते होः ‘जरा ठहरो, एक बार प्रधानमंत्री तो हो लेने दो! फिर कर लेंगे सब। फिर परमात्मा को भी खोज लेंगे।’
बड़ा मजा ऐसा है कि जब तुम्हें व्यर्थ की दौड़ सवार होती है तो तुम अभी करना चाहते हो, आज करना चाहते हो। और सार्थक को तुम हमेषा कल पर टाल देते हो। और कल कभी आता नहीं। कल कभी आया ही नहीं। आज ही जागो! आज ही प्रार्थना, आज की ध्यान, आज ही द्वार-दरवाजे खोलो! वह तो द्वार पर ही खड़ा है। तुम ही उसको नहीं खोज रहे हो, परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है, इसे भूलना मत। तुम एक कदम उसकी तरफ उठाओ, वह हजार कदम तुम्हारी तरफ उठाने को तैयार है।
दूसरा प्रश्नः ओशो, जनता आपको गलत ही क्यों समझे जाती है?
धर्मानंद! जनता जनता है। गलत ही समझेगी, तो ही दो जनता है। ठीक ही समझ ले तो फिर जनता नहीं। फिर तो बड़े प्रबुद्ध लोग हो जाएं वे।
हमारे पास दो षब्द हैंः पृथक-जन...पृथक-जन का अर्थ होता है जनता; और प्रबुद्ध-जन। मैं जो कह रहा हूं उसे तो थोड़े से ही लोग समझ सकते हैं। इसमें कुछ आष्चर्य नहीं है। तुम्हारे प्रष्न को मैं समझता हूं, तुम्हारी पीड़ा को समझता हूं, क्योंकि तुम चाहते हो और लोग भी समझें। तुम पी रहे हो और मस्त हो रहे हो, और लोग भी पीएं और मस्त होएं! और तुम हैरान होते हो कि पीना तो दूर रहा, मस्त होने की तो बात ही नहीं उठती, वे सुनने को भी राजी नहीं हैं। कुछ का कुछ सुनते हैं। मगर उनकी भी तकलीफ समझो। उन पर दया करना। उन पर कठोर मत हो जाना। उनकी तकलीफ यह है कि उनकी समझने की आदतें बन गयी हैं। और उन्होंने जिस ढंग से समझा है, उसी ढंग से तो समझेंगे न!
मुल्ला नसरूद्दीन अपने बेटे को षिक्षा दे रहा था। राजनेता है, तो राजनेता तो राजनीति की ही षिक्षा देगा। अपने छोटे से बेटे से कहा कि बेटा, चढ़ जा सीढ़ी पर। बेटा चढ़ गया, जब बाप कहे तो बेटा चढ़ गया। जब वह पूरी सीढ़ी चढ़ गया तो नसरूद्दीन ने कहाः ‘अब बेटा कुद। मैं तुझे संभाल लूंगा।’
बेटा थोड़ा डरा। सीढ़ी ऊंची, कहीं चूक जाए बाप सम्हालने से, हाथ से छूट जाए, कहीं हाथ पर न गिरे, यहां-वहां गिर जाए तो हाथ पैर टूट जाएं! बेटे को डरता देख कर नसरूद्दीन ने कहाः ‘अरे तुझे अपने बाप पर भरोसा नहीं? अरे नालायक! तुझे मुझ पर श्रद्धा नहीं? जब मैं मौजूद हूं तो तू क्यों डर रहा है? डरपोक! कायर कहीं के! कूद जा!’
जब बहुत ही उसका उकसावा दिया, बढ़ावा दिया, लानत-मलामत की उसकी, तो आखिर बेचारा बेटा क्या करे, आंख बंद करके, सांस रोक कर, ले कर परमात्मा का नाम कूद गया। और जब कूदा तो नसरूद्दीन पीछे हट कर खड़ा हो गया। धड़ाम से वह गिरा, दोनों घुटने छिल गए, रोने लगा। नसरूद्दीन ने कहाः ‘रो मत!’
उसने कहा कि मैं पहले ही जानता था। आप हट क्यों गए पीछे?
नसरूद्दीन ने कहा कि बेटा तुझे राजनीति सिखा रहा हूं। राजनीति में अपने सगे बाप का भी कभी भरोसा नहीं करना। यह पहला पाठ।
फिर एक दिन बेटा स्कूल से लौटा-कपड़े फटे, चेहरे पर नाखून के निषान, किसी से झगड़ा हो गया, मार-पीट। वह तो एक तरफ रहा, उसको समझाना बुझाना तो दूर रहा, नसरूद्दीन ने उसकी और कुटाई की। वह कहने लगा कि हद हो गयी! सहानुभूति तो दूर, आप और पिटाई कर रहे हैं!
नसरूद्दीन ने कहाः ‘यह बात ठीक नहीं है। इससे पाठ लो। लड़ाई-झगड़ा ठीक नहीं है। इस दुनिया में जीना है अगर तो लड़ाई-झगड़े से नहीं जी सकोगे, तरकीब से जीओ, होषियारी से जीओ। जेब भी काटो तो सिफ्त से काटो। जेब भी काटो तो इस ढंग से काटो कि जिसकी जेब काटो उसको लगे कि उसके ही हित में काट रहे हो। किसी की गर्दन भी काटो तो भी उसकी ही सेवा में, उसके ही षुभ के लिए। इससे पाठ लो। कभी दुबारा इस तरह कपड़े फटे और गंदे और पिट कर नहीं आना। होषियारी से काम लो, बुद्धि से काम लो।’
दूसरे दिन लड़का लौटा-न तो पिटा था, न कपड़े फटे थे। लेकिन आज जो अंक मिले थे उसको, वे कम थे। बस नसरूद्दीन ने उसकी पिटाई की और कहा कि अगर अभी से यह फिसड्डीपन रहा तो जिंदगी में क्या करेगा रे? हमेषा नंबर एक होना चाहिए! अभी से अगर अभ्यास नंबर एक का रखेगा तो कभी प्रधानमंत्री बनेगा। फिसड्डीपन नहीं चलेगा!
अच्छी कुटाई की उसकी। ‘नंबर अच्छे आना चाहिए, नंबर एक आना चाहिए तुझे क्लास में! चाहे चोरी कर, चाहे बेईमानी कर। चाहे नकल कर, इससे कोई प्रयोजन नहीं। साधन का कोई सवाल ही नहीं है; साध्य षुभ होना चाहिए, बस। यह राजनीति का मूल मंत्र है।’
दूसरे दिन बेटे ने वही किया, जो बाप ने बताया। बेटे तो आज्ञाकारी हैं-‘रघुकुल रीत सदा चली आयी!’ वे राजा रामचंद्रजी अपने बाप की मान कर चले गए थे, हालांकि बाप बिलकुल गलत-सलत बात कर रहे थे। अगर जरा भी अक्ल होती तो इनकार करना था कि यह बात मानने योग्य नहीं है। लेकिन जब रामचंद्र जी तक चले गए, तो यह तो बेचारा नसरूद्दीन का लड़का है, इसने कहा ठीक है। नकलपट्टी की। नंबर एक आया दूसरे दिन। बड़ा खुष चला आ रहा था। आज झगड़ा भी नहीं किया था, कपड़े भी साफ-सुथरे थे और सर्टिफिकेट भी ला रहा था कि आज कक्षा में प्रथम आया है। मगर नसरूद्दीन ने आव देखा न ताव और उसकी पिटाई कर दी! वह तो एकदम कहने लगाः ‘अब यह बहुत गड़बड़ हो रही है, आप किसलिए मार रहे हैं? कपड़े भी नहीं फटे, पिटा भी नहीं। नंबर भी आज प्रथम आया हूं।’
नसरूद्दीन ने कहाः ‘बेटा, इस पिटाई से एक पाठ सीखो कि इस दुनिया में अन्याय की अन्याय है, न्याय कहीं भी नहीं।’
तो लोग अपने ही ढंग से सोचेंगे न, अपने ही ढंग से समझेंगे। ठीक कह रहा है, राजनेता ठीक कह रहा है कि यहां कहां न्याय! यहां तो जिसकी लाठी उसकी भैंस। न्याय वगैरह का क्या सवाल है! एक दफा भैंस तुम्हारी है तो बस यही न्याय है। लाठी भर तुम्हारे हाथ में होनी चाहिए।
तुम देखते नहीं अभी, जनता की सरकार थी, वही अदालतं और मुकदमे पर मुकदमे! और अब सरकार बदल गयी है, वही अदालतें हैं और सब मुकदमे गड़बड़ हुए जा रहे हैं, सब मुकदमे गिर जा रहे हैं। वही अदालतें कह रही हैं कि ये मुकदमे ठीक ही नहीं, इनमें कोई जान ही नहीं। यह मजा तुम देखते हो! जरा आंख खोल कर देखते हो, हो क्या रहा है! जिसकी लाठी उसकी भैंस। लाठी बड़ी होनी चाहिए, तुम्हारे हाथ में होनी चाहिए। ये न्यायाधीष इत्यादि वगैरह सब भैंस हैं, इनका कोई मूल्य नहीं। कानून वगैरह का कोई अर्थ नहीं। लाठी तुम्हारे हाथ में होनी चाहिए, सब तुम्हारे साथ हैं।
मैं जो कह रहा हूं, वह कोई राजनीति तो नहीं है। लोग राजनीति की भाशा समझते हैं, धर्म की भाशा नहीं समझ सकते। और लोगों को सदियों से धर्म के नाम पर राजनीति ही घोंट-घोंट कर पिलायी गयी है और वे उसी को धर्म समझने लगे हैं। और धर्म बड़ी और बात है।
जैसे कि सदियों से तुम्हें कहा गया है कि राम मर्यादा-पुरूशोत्तम हैं, क्योंकि उन्होंने पिता की आज्ञा मानी। ऐसे ही हर बेटे को अपने पिता की आज्ञा माननी चाहिए। स्वभावतः हर बाप यही चाहता है। यह बापों की जालसाजी है--यह पूरी कहानी। पंडित पूरोहित, ये सब बापों के एजेंट हैं।
मैं कह रहा हूं कि धर्म विद्रोह है, आज्ञाकारिता नहीं। मेरे लिए तो राम धार्मिक व्यत्ति नहीं हैं, क्यों क उनमें विद्रोह है ही नहीं, विद्रोह की चिनगारी भी नहीं है। लेकिन हमने हजारों साल से उनको मर्यादा-पुरुषोत्तम कहा है। किसने कहा है? धर्म के ठेकेदार उनको मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं--स्वभावतः, क्योंकि जब तुम अपने बाप की मानोगे तो समाज के जो भी न्यस्त स्वार्थ हैं उनकी भी मानोगे।
गुरजिएफ कहा करता था कि हर धर्म कहता हैः अपने बाप की बात मान कर चलो, क्योंकि अगर तुम अपने बाप की नहीं मानोगे तो परमात्मा की कैसे मानोगे? वह बड़ा बाप! और उस बड़े बाप के ठेकेदार, एजेंट-पुरोहित, पोप, षंकराचार्य इत्यादि-इत्यादि, इनकी तुम कैसे मानोगे? बाप तो सिर्फ बहाना है। फिर बाप गलत है या सही, यह तुम्हें सोचने का सवाल ही नहीं उठता।
राम में जरा भी धार्मिकता नहीं है। मुझसे अनेक लोग आकर पूछते हैंः ‘आप सब पर बोले, कृश्ण पर, महावीर पर, बुद्ध पर, जीसस पर, लाओत्सु पर, कबीर पर, नानक पर; आप राम पर क्यों नहीं बोलते?’ राम पर मैं नहीं बोल सकता हूं, क्योंकि राम में मुझे कुछ धर्म नहीं दिखाई पड़ता। बगावत की चिनगारी ही नहीं है। क्रांति का कण नहीं है। आज्ञाकारिता! और गलत बात की आज्ञाकारिता! मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आज्ञा मानो ही मत, कि बाप ठीक भी कहे तो मत मानना। ठीक हो तो मानना, लेकिन निर्णायक सदा तुम हो, तुम्हारा विवेक निर्णायक है। ठीक हो तो मानना, गलत हो तो मत मानना। यह बात ही गलत थी। लेकिन इसको मान लिया।
फिर हम लक्ष्मण की भी खूब प्रशंसा करते हैं कि पत्नी को छोड़ कर, अभी-अभी विवाहित पत्नी और उसको छोड़ कर भाई के पीछे चल पड़ा-सेवा करने के लिए। बड़ा भाई! तो बड़े भाई के लिए पत्नी की कुर्बानी दे दो। तो लक्ष्मण भी बड़े कीमती! वे भी कुर्बानी देने को तैयार हैं! पत्नी को उन्होंने चढ़ा दिया कुर्बानी पर। उर्मिला की कोई चर्चा ही नहीं होती। उर्मिला बेचारी का कोई हिसाब ही किताब रखता नहीं, कि उस गरीब पर क्या गुजरी! यह कोई षिश्ट आचरण हुआ! जिस पत्नी को अभी विवाहित करके लाए थे, उस स्त्री के साथ यह सीधा अनाचार है। मगर स्त्री का कोई मूल्य ही नहीं था, उसकी दो कौड़ी कीमत नहीं है। वह तो पैर की जूती है, जब दिल हुआ पहन लिया, जब दिल हुआ उतार दिया!
फिर एक धोबी ने कह दिया कि मुझे षक है अपनी पत्नी पर, कि मैं कोई राजा रामचंद्र थोड़े ही हूं कि तू रात भर कहीं भी रही और सुबह लौट आयी और मैं घर में रख लूं। बस यह धोबी का कहना काफी है; सीता को निकाल बाहर कर दो! पत्नी का कोई मूल्य नहीं है, कोई कीमत नहीं है! गर्भवती स्त्री का कोई मूल्य नहीं है, कोई कीमत नहीं है! ये सब धार्मिक बातें हो रही हैं! और इनको तुम्हें इतनी सदियों से पिलाया गया है कि मेरी बात अगर तुम्हें बगावत लगे और मेरी बात में अगर तुमको घबड़ाहट हो, बेचैनी हो, आष्चर्य नहीं है। तुम्हारे सोचने के ढंग निर्णायक हो गए हैं अब, बंध गए हैं बिलकुल लकीरों की तरह। उनमें मेरी बात नहीं बैठ सकती है। या तो तुम्हें अपनी लकीरें छोड़नी पड़ें, लीक छोड़नी पड़े, तो तुम मुझे समझ सकते हो; नहीं तो कोई उपाय नहीं है।
एक सट्टेबाज अखबार में तिजारती भाव का कालम पढ़ने में मग्न था। तभी धड़ाम से सीढ़ियों पर से लुढ़क कर उसकी पत्नी गिर पड़ी। सटोरिए के मुनीम ने चिल्ला कर कहाः जनाब, आपकी बीबी नीचे गिर गयी।
सटोरिए ने एकदम घबड़ा कर जवाब दियाः देर मत करो, तुरंत बेच दो!
सटोरिए को तो कोई चीज नीचे गिरे-बेचो! सटोरिए की अपनी दुनिया है, अपने सोचने के ढंग हैं।
एक मारवाड़ी की नौकरानी भागी हुई आयी और उसने कहाः मालिक-मालिक! आपकी पत्नी का बाथरूम में हार्टफेल हो गया।
मारवाड़ी एकदम भागा! बाथरूम की तरफ नहीं, चैके की तरफ। नौकरानी ने कहाः ‘मालिक, आप होष में है? मालकिन बाथरूम में गिर पड़ी हैं धड़ाम से! वहां उनका हार्टफेल हो गया है। आप कहां जा रहे हैं?’
अरे! उसने कहाः तू चुप रह! वह भाग कर एकदम पहुंचा और रसोइए से कहाः सुन, आज एक के लिए ही नाष्ता बनाना, तेरी मालकिन न रहीं!
मारवाड़ी अपने ढंग से सोचेगा। यह दो का नाष्ता बना ले और खराब एक नाष्ता जाए...अब मालाकन तो गयी सो गयी, मगर नाष्ता तो बचा ले।
अभिनेत्री की मां ने अपनी होनहर बेटी को समझाया कि चाहे कुछ भी हो जाए, बिना कुछ पहने वह किसी हिरो के सामने कभी न जाए, बिना कुछ पहने वह किसी हीरो के सामने कभी न जाए। आज्ञाकारी बेटी ने मां की बात पल्ले में बांध ली। जब भी वह किसी हिरो के सामने गयी, कुछ न कुछ जरूर पहने रही-चाहे घड़ी, चाहे अंगूठी; यहां तक कि एक बार तो वह चप्पलें ही पहने चली गयी।
अभिनेत्री का अपना सोचने का ढंग है। अंगूठी पहनी, बस पर्याप्त हो गया, नियम का पालन हो गया। चाहे नंग-धड़ंग, चलेगा। अंगूठी तो पहने हुए हैं, और क्या चाहिए! अरे लाज छिपाने को तो अंगूठी भी काफी है! जब लंगोटी काफी है तो अंगूठी क्यों काफी नहीं!
लोग मेरी बात को समझने में अड़चन तो पाएंगे धर्मानंद। यह बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि मैं जो बात कह रहा हूं वह उनकी बंधी बंधायी धारणाओं के अनुकूल नहीं है। हो भी नहीं सकती उनकी बंधी धारणाओं के अनुकूल। मेरी मजबूरी है, मैं वही कह सकता हूं जिसे मैं सत्य की तरह अनुभव करता हूं। उनकी मजबूरी है, वे उसी को सत्य मान सकते हैं जिसका सदा से सत्य मानते रहे हैं-सत्य हो या न हो। मैं झुक सकता नहीं, क्योंकि सत्य मेरा अपना अनुभव है, कोई उधार बात नहीं। मैं उसमें कोई समझौता कर सकता नहीं। मैं अपनी बात ही कहूंगा। लाख तरकीब से कोई मुझसे पूछे, मैं वही कहूंगा। जिनमें हिम्मत होगी, वे थोड़े से लोग अपनी पुरानी लकीरों को छोड़ कर मेरे साथ चलने को राजी होंगे। मेरी बात पृथक-जनों के लिए नहीं है, हो नहीं सकती। केवल थोड़े से आर्य जन!
इसलिए बुद्ध निरंतर कहते थे कि जो आर्य हैं-आर्य का मतलब, जो श्रेश्ठ हैं, जो बुद्धिमान हैं, जो सोच विचार में कुषल हैं, जिनके जीवन में प्रतिभा है, मेधा है-वे ही केवल समझ सकते हैं धर्म को। इसलिए बुद्ध ने अपने धर्म को आर्य-धर्म कहा है और अपने सत्यों को आर्य-सत्य कहा है। आर्य का अर्थ जाति से नहीं है। आर्य का अर्थ हैः प्रतिभाषाली लोग, वे चाहे कहीं पैदा हुए हों। तो जिनमें प्रतिभा है, वे आ रहे हैं सारी दुनिया के कोने-कोने से। वे आएंगे। यह स्थान काबा बनेगा। यहां लाखों लोग आएगे, मगर सिर्फ प्रतिभाषाली लोगों से ही मेरा संबंध हो सकता है। आम जनता को अड़चन रहेगी, कठिनाई रहेगी। और मैं इससे नाराज नहीं हूं। मैं उनकी मजबूरी समझता हूं। मैं उनका कश्ट समझता हूं। वे भी क्या करें! उनके सारे न्यस्त स्वार्थ, जिनसे बंधे हैं, अगर मेरी बातें मानें तो उनके हर न्यस्त स्वार्थ को धक्का पहुंचने वाला है। अगर मेरी बात मानें तो न तो वे हिंदू रह जाएंगे, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। अड़चन हो जाएगी।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैंः ‘आपकी बात हमें ठीक लगती है, मगर घर में दो बच्चियां हैं उनका विवाह करना है। पहले उनका विवाह कर लें एक दफा, फिर हम घोशणा कर देंगे कि हमें आपकी बात ठीक लगती है। क्योंकि अगर हमने अभी घोशणा की तो उनका विवाह करना मुष्किल हो जाएगा। फिर हमें लड़का मिलना मुष्किल है।’
ऐसा कुछ नहीं है लड़का मिलना मुष्किल है। कुछ लड़के यहां कम हैं? मगर लड़के के बाबत भी उनकी धारणाएं हैं कि अच्छी नौकरी पर होना चाहिए, बड़े ओहदे पर होना चाहिए, धन होना चाहिए, पद-प्रतिश्ठा होनी चाहिए, उन्हीं की जाति को होना चाहिए। एकदम बंधी हुई लकीरें हैं! कुछ मेरी बात ठीक भी लगती है तो बाकी चीजों में झंझट खड़ी होती है। और यहां तो उनको बड़ी मुष्किल खड़ी हो जाती है।
एक जैन महिला यहां आयीं, बहुत दिन से मुझे लिखती थीं कि आना है आना है। मैं उनको टाल रहा था, क्योंकि उनको मैं जानता हूं, उनको यहां नहीं रूचेगा, नहीं पचेगा। और बात पहले दिन ही गड़बड़ हो गयी। वे पहले ही दिन भोजनालय में गयीं और जिससे मुलाकात हुई-वह थी राधा मोहम्मद। राधा मोहम्मद! उन्होंने फौरन मुझे चिट्ठी लिखी--‘यह कैसा नाम है! यह स्त्री हिंदू है या मुसलमान?’
मैंने कहाः ‘यह मुसलमान थी, अब तो नहीं है। थी, उसकी याददाश्त में मोहम्मद का नाम रख दिया है।’
उन्होंने कहाः ‘तो फिर यह स्थान मेरे लिए नहीं है। मैं यहां भोजन भी नहीं कर सकती। फिर तो कुछ पक्का ही नहीं है कि कौन कौन है?’
उन्होंने कहाः ‘मैं तो बहुत हिम्मत करके आयी थी कि चलो न भी हुए जैन तो कम से कम ंिहंदू ब्राह्मण तो बनाते होंगे भोजन। लेकिन राधा मुहम्म्द भोजन बना रही है!’
तो वे यहां एक दिन रहीं भूखी। स्वभावतः भूखी कितने दिन रहें, फिर चली गयीं। फिर से उन्होंने लिखना बंद कर दिया आना वगैरह। अब नहीं आती करतीं जातीं। अब चिट्ठी वगैरह भी उनकी बंद है।
बंधी हुई धारणाएं हैं, तो एक धारणा तुम छोड़ोगे तो तुम पाओगे और पच्चीस जाल उसमें उलझे हुए हैं। न मालूम किस किस तरह के जाल हैं। कोई धारणा अकेली नहीं है। हर धारणा के साथ हजार और धारणाएं हैं और उन सबके जाल जुड़े हुए हैं। अब यह तुम बर्दाष्त न कर सकोगे कि तुम्हारी लड़की और किसी मुसलमान से या किसी ईसाई से या किसी पारसी से विवाह कर ले। बस मुष्किल हो जाएगी, अड़चन हो जाएगी। न मुसलमान बर्दाष्त कर सकते हैं, न पारसी बर्दाष्त कर सकते हैं।
तो मेरी बात ठीक भी लगे तो भी तुम्हारे खून में इस तरह की बातें घोली गयी हैं सदियों से, कि जब तक तुममें सच में ही साहस न हो रूपांतरित होने का और सब दांव पर लगा देने का, तब तक धर्मानंद, कोई उपाय नहीं है।
लेकिन साहसी लोग दुनिया में हैं। वे सदा रहे हैं। आखिर कुछ लोगों ने बुद्ध का साथ दिया और कुछ लोगों ने जीसस का साथ दिया, कुछ लोग नानक के साथ खड़े हुए, कुछ लोग कबीर के साथ भी खड़े हुए। वे कुछ लोग मेरे साथ भी खड़े होंगे। मगर ये कुछ लोगों की बातें हैं। धर्म सदा से कुछ लोगों की बातें रहा है, अधिक लोगों के लिए धर्म एक औपचारिकता है, एक सामाजिक षिश्टाचार है। जिनके लिए धर्म सामाजिक षिश्टाचार है, उनके लिए यहां कोई स्थान नहीं है। मेरा उनसे कोई संबंध नहीं हो सकता है। मैं उनके लिए नहीं हूं, वे मेरे लिए नहीं हैं।
तीसरा प्रश्नः ओशो, संन्यास लेने के बाद जो आनंद मिला है, उसे षब्दों में नहीं कह सकता। तीस साल के षराब और सिगरेट पीने की आदत सहसा समाप्त हो गयी है। नमाज नहीं पढ़ी जाती। षब्द ही भूल जाता हूं। और ध्यान की अवस्था आ जाती है। सत्य बोलने के लिए एक भीतरी ष7ि अनुभव होती है। झुठ बात अब निकलती ही नहीं। मैं आपका अनुगृहीत हूं!
आनंद मोहम्मद! यही तो ध्यान का जादू है, संन्यास का जादू है। जो इस जादू के जगत में उतरेगा वही अनुभव ले सकेंगा। एक तो चेश्टा करके षराब छोड़ी जाती है; उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम चेश्टा करके षराब छोड़ सकते हो, मगर दमन होगा। और भीतर आकांक्षा जलती ही रहेगी, जलती ही रहेगी। और कोई न कोई उपाय खोजेगी, कोई न कोई बहाना निकालेगी। और षराब न पीओगे तो कुछ और पीओगे कोई न कोई परिपूरक चाहिए पड़ेगा। नषा तो तुम कुछ करोगे ही। तुम्हें कोई दूसरा नषा मिलेगा. तो ही तुम शराब छोड़ सकोगे। और फिर भी तुम्हारे भीतर षराब पीने की आकांक्षा दबी पड़ी रहेगी। कभी भी अवसर मिल गया कि सब गड़बड़ हो जाएगी।
मुल्ला नसरुद्दीन पर अदालत में मुकदमा था, क्योंकि वह बहुत ज्यादा षराब पीए हुए सड़क पर अल्ल-बल्ल बकता हुआ पकड़ा गया। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुमने इतनी षराब क्यों पी? नसरुद्दीन ने कहाः ‘गलत सत्संग के कारण।’
मजिस्ट्रेट ने पूछाः ‘तुम्हारा क्या मतलब?’
उसने कहाः ‘हम चार आदमी थे और एक बोतल षराब थी। और तीन न पीने वाले थे। और बोतल खोल ली, कार्क खो गया। सो मुझे पूरी पीनी पड़ी। उन तीनों को सजा मिलनी चाहिए हुजूर! अब कार्क खो जाए, इसमें मैं क्या करू? और तीनों नालायक ऐसे जिद्दी कि मैंने बहुत कहा, भाई बाट लो, मैं इतनी पी जाऊंगा तो झंझट खड़ी होगी। हो गयी झंझट खड़ी। औ सजा मुझे भुगतनी पड़ेगी और जिम्मेवार वे हैं। लेकिन अब कसम खाता हूं कि अब नहीं पीऊंगा। मगर बड़ी मजबूरी है कि मेरे घर और दफ्तर के बीच में ही षराबघर है। तो किसी तरह घर से कितना ही संकल्प करके चलता हूं, बस षराबघर तक पहुंचते-पहुंचते-पहुंचते संकल्प टूट जाता है। मगर अब आपको वचन देता हूं, भरी अदालत में वचन देता हूं, इस बार माफ किया जाए।’
दूसरे दिन पूरा संकल्प करके, ढंग से नमाज पढ़कर, परमात्मा को खूब स्मरण करके मुल्ला नसरूद्दीन घर से निकला। बड़ी तेजी से कदम बढ़ाए उसने। पैर डगमगाने लगे थोड़े थोड़े, जैसे-जैसे षराबघर करीब आया, लेकिन उसने कहाः ‘कुछ हो जाए, अरे मैं भी मर्द बच्चा हूं, ऐसे झुकने वाला नहीं हूं!’ शराबघर के सामने बिलकुल लड़खड़ाया जा रहा था, मगर नहीं, हिम्मत करके निकल गया, नजर ही नहीं कि षराबघर की तरफ! दिल तो वहीं जा रहा था, आंख वहीं जा रही थीं। अंदर के कहकहे सुनाई पड़ रहे थे। लोग मस्त हो रहे थे। कोई गीत गा रहा था। कोई जाम हाथ में लिए बैठा था। भीतर के द्दष्य उसकी आंखों में दौड़ रहे थे। मगर उसने वह सब नजरअंदाज किया, बढ़ गया। सौ कदम आगे निकल गया। फिर अपनी पीठ ठोंकी और कहाः ‘बेटा नसरुद्दीन, गजब कर दिया तूने! अब आ! इस खुषी में आज हो जाए दावत!’ और लौट कर दुगनी पी। जब खुषी में ही पीने गया...तो दबाओगे तो कभी न कभी, कहीं न कहीं से निकलने का रास्ता खोज लेगा। जो भी दबाया गया है, वह मार्ग खोजता रहेगा।
तुम देखते हो, तुम्हारे तथाकथित धार्मिक-उत्सव, गणेष उत्सव...और होता क्या है गणेष-उत्सव में? अश्लील, बेहूदे, नंगे नृत्य, भद्दे! मगर वे धर्म के नाम पर चल रहे हैं तो बिलकुल ठीक। वह दबा हुआ पड़ा है, वह कहां से निकले? उस धर्म के नाम पर निकालना पड़ेगा।
तुम धार्मिक ढंग के कैलेंडर देखते हो? फिल्म अभिनेत्रियों को भी षर्म लगे। जिस ढंग से सीता मैया को बिठा देते हैं, षंकर-पार्वती! जरा तुम अपने कैलेंडर को तो देखो, मगर षंकर-पार्वती का कैलेंडर है तो सब ठीक है। अपने बैठकखाने में लटकाए हैं, कोई कुछ कह सकता है-षंकर पार्वती! मगर लटकाए किसलिए हो? यह पार्वती की शक्ल तो देखो, इनका ढंग तो देखो! कारण क्या है? कारण वही का वही है। अगर किसी अभिनेत्री का लटकाओगे तो लोग कहेंगे कि अरे, तुम जैसा धार्मिक और सज्जन आदमी, और अभिनेत्री का फोटो लटकाए हुए है! मगर पार्वती मैया, बिलकुल ठीक! मगर पार्वती मैया अभिनेत्री को मात कर रही हैं। वे बनाने वाले कौन हैं, बेचने वाले कौन हैं, खरीदने वाले कौन हैं? धर्म के नाम से निकल आएगी बात।
तुम देखते हो, इन देष में होली के दिन क्या होता है! सज्जन से सज्जन लोग गालियां बक रहे हैं, दिल खोल कर बक रहे हैं। यह जरूर साल भर इकट्ठी करते होंगे, नहीं तो ये आती कहां से है? इनके भीतर पड़ी रहती हैं। यह निकास चाहिए। जैसे घर में से गंदगी निकालने के लिए नाली बनानी पड़ती है, ऐसे ही होती बनानी पड़ी। होली का तो बहाना है, मगर यह गंदगी हर साल निकालने के लिए जरूरत है। धार्मिक देष, देवता यहां पैदा होने को तरसते हैं--और तुम जरा होली पर रंग ढंग देखो यहां लोगों के! जैसी अभद्रता, जैसी बेहूदगी तुम यहां देखोगे, दुनिया में कहीं नहीं दिखाई पड़ेगी। होली जैसा बेहूदा त्योहार दुनिया में कहीं नहीं होता; हो ही नहीं सकता, क्योंकि इतने धार्मिक ही लोग कहीं नहीं। उसके लिए धार्मिक होना जरूरी है। धार्मिक होओगे तो दबाओगे, दबाओगे तो निकलेगा।
यहां जितने धक्के-मुक्के स्त्रियों को खाने पड़ते हैं, उतने दुनिया में कहीं नहीं खाने पड़ते। दुनिया में इतना धार्मिक मुल्क ही कोई नहीं। धार्मिक मुल्क हो तो स्त्रियों को धक्के लगेंगे ही। जहां जाएं वहीं ताने कसे जाएंगे, फिकरे कसे जाएंगे, कंकड़ मारे जाएंगे, धोती खींची जाएगी, कुहनी मारी जाएगी, जो भी मौका आ जाए, जो भी बन सके वह किया जाएगा। इस देष में स्त्रियों का सार्वजनिक स्थल पर जाना मुष्किल है।
और यह कोई आज की बात नहीं है, क्योंकि शास्त्र कहते हैंः ‘बचपन में पिता रक्षा करे।’ किससे रक्षा करवा रहे हैं ये? ‘फिर जवानी में पति रक्षा करे। फिर बुढ़ापे में बेटा रक्षा करे।’ बुढ़ापे में भी सुविधा नहीं है! हद हो गयी! मतलब-रक्षा कोई करे ही! रक्षा करने का मतलब? अगर कोई गड़बड़ न कर रहा होता तो रक्षा की जरूरत पड़ती? यह जिन शास्त्रों में लिखा है, बड़े प्राचीन हैं। तो यह काम कुछ नया नहीं है कि आज होने लगा। यह मत सोच लेना कि यह कलियुग आ गया। यह बड़ा सतयुगी काम है। पहले से ही चला आया। मगर रक्षा की जरूरत है-बुढ़ापे तक! और कारण? कारण इतना है कि दमन किए बैठे हो।
आनंद मोहम्मद, मैं दमन का विरोधी हूं, रूपांतरण का पक्षपाती हूं। और रूपांतरण की कामिया हैः ध्यान। जैसे-जैसे तुम शांत होओगे, वैसे एक क्रांति घटेगी।
आदमी शराब क्यों पीना चाहता है, सवाल यह है। सवाल यह नहीं है कि पीए या न पीए, यह तो गौण बात है। क्यों पीना चाहता है? इसलिए पीना चाहता है कि जीवन में इतना दुख है, इतनी अशांति है, इतना तनाव है; उसे भुलाना चाहता है, उसे विस्मरण करना चाहता है। और कोई उपाय नहीं दिखता विस्मरण करने का। षराब पीकर थोड़ी देर को भूल जाता है, घड़ी दो घड़ी को भूल जाता है। वह भी नहीं चाहते तुम कि उसका मौका दो घड़ी दो घड़ी को भूल जाने के लिए। सो षराब भीन पीए । तुमने सताने का बिलकुल पक्का ही कर रखा है। ऐसी जिंदगी में मुसीबत खड़ी कर दी है कि तनाव ही तनाव और कहीं थोड़ी सी राहत मिलने का मौका हो, तो पाप।
शराब आदमी इसलिए पीता है कि इतनी चिंता है, इतनी अषांति है, थोड़ी देर को पी कर भूल-भाल जाता है, दुनिया भूल जाती है, खुद को भूल जाता है। चिंता-फिकर सब एक तरफ पड़ी रह जाती है। मिटती नहीं चिंता-फिकर; मगर भूल गए, यही क्या कम है! फिर देखेंगे कल जब होगा तब देखा जाएगा। चिंताएं वहीं खड़ी रहेगी, बढ़ जाएंगी कल, तक और, तो फिर थोड़ी और पीनी पड़ेगी, थोड़ी ज्यादा पीनी पड़ेगी, मात्रा बढ़ाती रहनी पड़ेगी। यह कोई हल नहीं है, समाधान नहीं है, मगर तात्कालिक रूप से राहत तो मिल जाती है।
ध्यान तुम्हारी अषांति को मिटा देगा, शराब पीने की जरूरत न रह जाएगी। ध्यान तुम्हारे तनाव को मिटा देगा, षराब पीने की जरूरत न रह जाएगी।
मैं नहीं कहता, शराब मत पीओ। मैं तो कहता हूंः ध्यान करो! उससे हम जड़ ही काट देंगे। और जड़ कट जाए तो षराब गिर जाएगी, अपने-आप गिर जाएगी।
अब तुम कहते होः ‘तीस साल से मैं षराब पीता था, सिगरेट पीता था।’
वे सब एक जैसी बातें हैं। कोई सिगरेट पी रहा है, कोई तंबाकू ही चबा रहा है, कोई पान चबा रहे हैं। और कुछ तुम्हीं कर रहे हो ऐसा नहीं है; षास्त्रों में वर्णन है कि स्वर्ग में देवी-देवता भी तांबूल चर्वण करते हैं। सो कुछ ऐसा नहीं कि तुम्हीं कर रहे हो, देवी-देवता भी यही काम कर रहे हैं। और तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी, संत-महंत गांता, भांग, अफीम ये सदियों से पीते रहे है; यह कोई नयी बात है? यह तो धार्मिक काम है।
इसलिए तो लोग कहते हैं कि मैं लोगों का धर्म बिगाड़ता हूं। ऐसे ऐसे धार्मिक काम तुम कर रहे थे, षराब तुम पी रहे थे, सिगरेट तुम पी रहे थे, अब मैंने सब गड़बड़ कर दिया आनंद मुहम्मद। और चूंकि अब तुम्हारी सिगरेट भी गयी और तुम्हारी षराब भी गयी तो तुम पंडित और मौलवियों के चक्कर से भी छूटे। अब वहां तुम किसलिए जाओगे? कोई जरूरत न रही। कोई प्रयोजन न रहा। उनके पास यही पूछने तो जाते थे कि हम इस उलझन से कैसे छूटें। और वे जो भी तरकीबें बताते थे, उनसे कुछ हल होता नहीं था। और तुम्हारी निंदा करते थे वे। उनका मजा इतना है कि तुम्हारी निंदा करें, तुम्हें नरक भेजने का वे इंतजाम करें। उनका रस ही इतना है। तुम अपराध भाव से भरे हुए जाते थे। अब तुम्हारा कोई अपराध-भाव नहीं रहा। अब तुम षान से सीना फुलाकर चल सकते हो। इससे पंडित मौलावी नाराज होंगे। सारे पंड़ित, सारे मौलावी मुझसे नाराज हैं। उनके लोगों को मैं बिगाड़ रहा हूं। उनकी धार्मिक आदतें छुड़वा रहा हूं। उन्हीं आदतों की वजह से तो वे पंडित पुजारी के चरण छूते हैं।
तुम कहते होः ‘तीस साल से षराब और सिगरेट पीने की आदत सहसा समाप्त हो गयी।’ सहसा समाप्त हो तो ही मजा है, अनायास गिर जाए तो ही मजा है। प्रयास से गिरे तो खतरा है, फिर लौट सकती है। अपने-आप गिर जाए तो फिर लौटने का कोई उपाय नहीं।
तुम कहते होः ‘नमाज नहीं पढ़ी जाती।’ जरूरत ही न रही। नमाज में है क्या? कुछ षब्द दोहराते। जिसको ध्यान आ गया, उसको निःषब्द आ गया; अब षब्दों में क्या रखा है? फिर षब्द चाहे कुरान के हों कि गीता के, क्या फर्क पड़ता है? षब्द षब्द हैं! निःषब्द का जिसको मजा आ गया, मौन का जिसको रस आ गया, अब उसे कुछ कहने की जरूरत नहीं। उसकी प्रार्थना पूरी हो गयी। वह प्रार्थना की पराकाश्ठा पर पहुंच गया। नमाज हो गयी!
चुप हो जाना नमाज है। कुछ कहने से नमाज नहीं होती। सारी दुनिया में लोग नमाज कह रहे हैं और प्रार्थनाएं कर रहे हैं, परिणाम क्या है? यही नमाज पढ़ने वाले, यही प्रार्थनाएं करने वाले छूरे भोंकते हैं। इनकी नमाज, इनकी प्रार्थना मंदिर जलाती है, मसजिद जलाती है। इनकी नमाज, इनकी प्रार्थना से जमीन लहूलुहान हो गयी है। सारा इतिहास गंदा कर दिया इन्होंने। क्या इनकी नमाज है, क्या इनकी प्रार्थना है? इन्होंने पृथ्वी को नर्क बना दिया है।
अच्छे-अच्छे षब्द बोलने से क्या होगा? यह तो तोतों को रटा दो तो वे भी राम-राम, राम-राम कहते रहते हैं। मगर तुम सोचते हो, तोता कोई स्वर्ग चला जाएगा? राम-राम कहने से! न तोता स्वर्ग जाने वाला है, न तोते की तरह रटत करने वाला कोई व्य7ि स्वर्ग जाने वाला है।
नमाज से पार हो गयी बात अब।
ध्यान का अर्थ होता हैः षून्य, चुप हो जाना। क्या कहने को है? सन्नाटा होना चाहिए, मौन होना चाहिए। मौन में ही हम परमात्मा से जुड़ते हैं। परमात्मा कोई भाशा नहीं समझता-न अरबी, न संस्कृत, न लेटिन, न ग्रीक, न हीब्रू। परमात्मा कोई भाशा नहीं समझता। जमीन पर तीन हजार भाशाएं हैं। एक जमीन पर। वैज्ञानिक कहते हैंः ‘इस तरह की कम से कम पचास हजार जमीनें हैं।’ तुम सोच लो, कितनी भाशाएं होंगी! परमात्मा कब का पगला जाता अगर इतनी भाशाएं समझे। उसकी खोपड़ी भनभना जाए। वह खुद ही षराब पीने लगा होगा। यह नमाज करने वालों से बचने के लिए, प्रार्थना करने वालों से बचने के लिए वह पीकर धुत् पड़ा रहता होगा कि भैया करो, जितनी तुम्हें नमाज करनी हो करो, हम सुनते ही नहीं।
मेरे एक मित्र थे-डाॅक्टर काटजू। वे मुख्यमंत्री थे मध्यप्रदेष के। बिलकुल बहरे थे, यंत्र लगा कर ही सुनते थे। और जब भी कोई कुछ उनसे कहने जाए, वे फौरन अपना यंत्र निकाल कर रख देते थे और मुस्कुराते रहते थे। मैंने जब उनको कई बार यह करते देखा, मैंने उनसे पूछा कि यह यंत्र काहे के लिए है? उन्होंने कहा कि यह क्या इन गधों की बकवास सुनने के लिए है! ऐसे तो मेरी खोपड़ी खा जाएं। सुबह से षाम तक यही सुनना पड़ता है। मुख्यमंत्री हूं तो यही सुनना पड़ता है। इसकी षिकायत, उसकी षिकायत। बस मैं मुस्कुराता रहता हूं, हां-हां, हूं-हूं करता रहता हूं। और ये सब प्रसन्न चले जाते हैं। और मैं भी बचा, ये भी बचे। जब ये चले जाते हैं तब मैं फिर अपना यंत्र लगा लेता हूं। यंत्र तो मैं तभी लगाता हूं जब मुझे किसी से बात करनी हो। जब सुननी ही नहीं है तो क्यों यंत्र लगाना?
तो या तो परमात्मा बहरा हो चुका होगा, यंत्र उतार कर रख देता होगा कि बचो, अब ये आनंद मोहम्मद आ रहे नमाज पढ़ने, निकालो! अब तुम से नहीं डरेगा, आनंद मुहम्मद। अब तुम जब प्रार्थना में बैठोगे, पूजा में बैठोगे, नमाज में बैठोगे, तुमसे भयभीत नहीं होगा, यंत्र लगाए रहेगा। कोई फिकर नहीं, इस आदमी से डरने की कोई जरूरत नहीं। भला आदमी है, सज्जन है। न हिंदू है न मुसलमान-बिलकुल सज्जन है! शून्य में रहोगे, मौन में रहोगे।
मौन ही एकमात्र भाशा है जो परमात्मा समझता है। और परमात्मा से कुछ कहना थोड़े ही है। परमात्मा से जुड़ना है, कहना क्या है? कहने को हमारे पास क्या है? लोग क्या कहते हैं परमात्मा से? वही क्षुद्र बातें मांगते हैं कि यह दे दो वह दे दो, ऐसा कर दो वैसा कर दो, ऐसा हो जाए वैसा हो जाए। अगर लोगों की प्रार्थनाएं तुम ठीक से समझो तो उनका मतलब यह होता है कि हम दो और दो चार रखें, लेकिन पांच हो जाएं। सारी प्रार्थनाओं का मतलब यह होता है कि दो और दो चार जोड़ें, लेकिन हो जाएं पांच। कि लाॅटरी खुल जाए। कि इस बार नम्बर ही बता दो।
मेरी बहुत मुसीबत थी। जब भी मैं बंबई से वापिस लौटता था यात्राओं में, तो बंबई से मेरी बहुत मुसीबत हो जाती थी। जैसे ही मैं अपने एयरकंडीषंड कमरे में घुसता, बंबई के सब मित्र छोड़ने आते, तो वे जो एयरकंडीषड के नौकर होते, वे देखते कि जब इतने लोग आए हुए हैं, कई सेठ मालूम पड़ते हैं, धनी मालूम पड़ते हैं, पैसे वाले मालूम पड़ते हैं, तो बाबा के पास जरूर कोई नुस्खा होना चाहिए। बस इधर गाड़ी चली कि वे मेरा पैर पकड़ लेते कि इस बार तो नंबर बताना ही पड़ेगा।
‘कहां का नंबर?’
‘अरे अब आपसे क्या कहना! आप सब समझते ही हो। इस बार तो नंबर हो ही जाए। एक बार बता दो बस। एक बार लाॅटरी खुल जाए तो फिर क्या कहना!’ उनको मैं लाख समझाऊ कि मुझे नंबर वगैरह नहीं आता, तुम देखो मेरे पास जेब तक भी नहीं है, पैसा खुद मेरे पास नहीं है...वे कहतेः ‘हम मान ही नहीं सकते यह बात। नहीं तो उतने लोग क्यों आपको छोड़ने आए थे? और उनमे कई लोग पैसे वाले दिखाई पड़ते थे, कई सटोरिए थे, कई सेठ थे। जरूर किसी मतलब से आए थे। कोई न कोई बात होनी चाहिए।’
प्रार्थना में भी क्या करेंगे लोग-यही! नंबर बता दो। पत्नी की बीमारी ठीक कर दो। लड़के की नौकरी लगवा दो। कहोगे क्या? या उसकी प्रषंसा करोगे कि तू करूणावान है। वह उसको पता है। क्या तुम कह रहे हो? कि तू महान है! उसको मालूम है।
इससे तो अच्छा वह वकील था, जिसने प्रार्थना लिख कर रख छोड़ी थी अपने बिस्तर के पास। रोज रात को कंबल ओढ़ने के पहले कहताः ‘हे प्रभु, पढ़ लेना।’ और लेट जाता। उससे भी पहुंचा हुआ एक और दूसरा वकील था। उसने इतनी भी झंझट नहीं की थी, कि पढ़ लेना। वह तो सिर्फ इतना ही कहताः ‘डिट्टो!’ और बिस्तर के अंदर हो जाता। ‘कि वह जो एक दफा कही थी जिंदगी में, फिर अब क्या बार-बार उसी को करना। वही! फिर वही, फिर वही।’ अब क्या रोज-रोज कहना कि हम पतित हैं और तुम पतितपावन हो। क्यों सिर खा रहे हो उसका?
आनंद मोहम्मद, अच्छा हुआ, अब नमाज नहीं पढ़ी जाती। षब्द भूल जाते हो, तुम कहते हो। ध्यान की अवस्था आ जाती है। यही नमाज है। यही असली नमाज है।
‘सत्य बोलने के लिए एक भीतरी शांति का अनुभव होता है।’ बस तभी सत्य का मजा है। जब जबरदस्ती बोलो तो वह सत्य नहीं होता। उसमें भीतर झूठ दबा रहता है। जब सहज भाव से सत्य आए, जब सत्य सहज होता है, उसमें सौंदर्य होता है, अपूर्व सौंदर्य होता है! और वैसा सत्य मु7िदायी है। नहीं तो तुम लाख उपाय करके सत्य बोलने की कोषिष करो, तुम्हारे सत्य में कहीं न कहीं झूठ छिपा रहता है।
कहते होः ‘अब झूठ बात निकलती नहीं। मैं आपका बहुत अनुगृहीत हूं।’
आनंद मोहम्मद, कोई अनुग्रह की जरूरत नहीं। यह मेरा मजा है, यह मेरा आनंद है कि जो मुझे मिला, तुम्हें बांटूं। अनुगृहीत भी होना हो तो मैं तुम्हारा अनुगृहीत हूं कि तुमने इतना साहस किया, तुमने इतनी हिम्मत जुटाई और मैंने जो कहा उसे समझने की कोषिष की। समझने की ही नहीं, करने की भी कोशिश की। मैं तुम्हारी कठिनाई समझता हूं। मुसलमानों के बीच जीना मेरे संन्यासी होकर कठिन मामला है--आग के बीच खड़े होना है! लेकिन तुम खरे साबित हुए हो। मैं आह्लादित हूं।
आखिरी सवालः ओशो, मैं विवाह कर रहा हूं, आपके आशीर्वाद चाहिए!
नरेंद्र सिंह! अवसर ही ऐसा है, आशीर्वाद जरूर चाहिए! ऐसी दुख की घड़ी में, ऐसे दुर्दिन में आषीर्वाद का ही सहारा है, और क्या है! और तो सब अंधकार ही अंधकार है। खतरे में उतर रहे हो, जरूर आशीर्वाद देता हूं। यह नहीं कह सकता, यह आश्वासन नहीं दे सकता कि मेरे आशीर्वाद कहां तक काम आएंगे। यह तो बहुत मुश्किल है, क्योंकि विवाह बड़े से बड़े आशीर्वादों को हरा देता है।
यह विवाह तो यूं समझो एक तरह का मुम्हमद अली है। आशीर्वाद वगैरह तो बेचारे फूल जैसे हैं। यह तो मुक्केबाज है, यह तो फूलों को चकनाचूर कर दे। यह तो चट्टान है। मगर अगर तुमने तय ही कर लिया है खतरे में सिर डालने का, तो अब मूसल से क्या डरना! अब कुटो पिटो! मेरा आशीर्वाद, कि प्रभु तुम्हारी चमड़ी मजबूत करे! कि तुम में थोड़ी बहुत बुद्धि और षेश हो, वह भी छीन ले! क्योंकि बुद्धि रही तो मुष्किल होगी। यह तो ऐसा भवसागर है जिसमें दुर्बुद्धि पार होते हैं। दुर्बुद्धियों को आंच ही नहीं आती। वे तो सौ सौ जूते खाएं, तमाशा घुस कर देखें उनको कोई फिकर ही नहीं। ऐसी ही मजबूती तुमको परमात्मा दे! आशीर्वाद मेरा तुम्हारे साथ है।
और ऐसे खतरनाक समय में कौन नहीं तुम्हारे साथ सहानुभूति प्रकट करेगा! साधारणतः मैं आशीर्वाद देता नहीं, मगर इस समय मुझे भी देना पड़ेगा।
मैंने एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन से कहाः नसरुद्दीन, तुम्हारी बैठक में सिर्फ एक ही कैलेंडर है, वह भी तीस साल पुराना और एक ही तारीख पर अटका हुआ है। मामला क्या है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने गहरी श्वास ली और कहाः भगवान, यह हमारी शादी का साल है कैलेंडर का साल, और यह हमारी शादी की तारीख है जिस पर लाल मैंने निषान लगा दिया है। इसके बाद जैसे बस थम गया। फिर आगे कुछ हुआ ही नहीं। फिर तो हम कैसे जिंदा हैं, यह चमत्कार है! उसके बाद समय वगैरह सब समाप्त हो गया। अब तो यह समझिए कि यह मृत्यु-पश्चात जीवन है।
लोग पूछते हैं कि मरने के बाद आदमी बचता है कि नहीं? नसरुद्दीन कहने लगा कि मैं सबूत हूं इस बात कि बचता है। आत्मा अमर है! मुझको ही देख लो--उसने कहा कि मरे तीस साल हो गए, मगर अभी भी जिंदा हूं! मर-मर कर नहीं मरा।
सो ऐसे ही तुम्हें भी प्रभु अमर करे!
एक दिन मैंने मुल्ला नसरुद्दीन से कहाः बड़े मियां, रात के बारह बज रहे हैं, तुम्हारी बीबीजी अभी तक मार्केटिंग करके नहीं लौटी? दोपहर की गयी हैं। क्या बात है? कहीं कुछ दुर्घटना वगैरह तो नहीं हो गयी?
मुल्ला ने गहरी श्वास छोड़ते हुए कहाः नहीं जी, नहीं जी! मैं इतना खुशनसीब कहां!
एक मुशायरा चल रहा था और एक शायर ने गजल पढ़ी, जिसकी पहली लाइन थीः मैं ताज बना देता, मगर मुमताज नहीं मिलती। जैसे ही उसने यह पंक्ति पढ़ी, मुल्ला एकदम खड़ा हो गया और गुस्से से बोलाः मियां, खुशकिस्मत हो कि कुछ लेट हो गए, अगर कुछ दिन पहले आप तशरीफ ले आते तो मुमताज मिल सकती थी। लेकिन अब तो दुर्भाग्यवश मेरी उससे शादी हो चुकी है।
नरेंद्र सिंह, अब तय ही कर लिया है विवाह का, तो अब भागना मत। अब रणछोड़दास जी मत हो जाना। अब तो जूझ जाना, क्या पीछे लौट कर देखना!
ढब्बू जी अपनी प्रेमिका से पूछ रहे थे कि फिर तुम्हारे पिता ने क्या कहा, जब उन्हें यह पता चला कि मैं तुमसे षादी करना चाहता हूं। प्रेमिका बोलीः ‘वे तो बड़े खुश हुए और बोले कि हे भगवान, जिस गधे को मैं जिंदगी भर खोजता रहा, उसे तूने घर बैठे ही भेज दिया!
नरेंद्र सिंह, अब और तुमसे क्या कहें? अब यह सिंह वगैरह होना भूले। अब अपनी असलियत समझो। अब यह नाम मात्र रह जाएगा।
पिंजरे में दो चूहे फंसे थे। ढब्बू जी के बच्चे ने कुतूहलवश पूछाः पापा-पापा, इनमें मम्मी चूहा और पापा चूहा कौन है?
ढब्बू जी ने कहाः वह जो पूंछ हिला-हिला कर इधर से उधर मटक रही है, कूद-फांद कर रही है और बार-बार मुंह को दीवाल पर रगड़-रगड़ कर सफेदी लगा रही है, वह मम्मी चूहा है। और फिर गहरी श्वास लेकर--और जो मौन, चुपचाप, षांत एवं गंभीर मुद्रा में बैठा है, वह पापा चूहा है बेटे!
अब गए सिंह वगैरह होने के दिन। लद गए समझो। अब तो जो गुजरे सो सहना। धीरज रखना। और परमात्मा तुम्हारा भला करे!
आज इतना ही।
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