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शनिवार, 1 सितंबर 2018

नानक दुखिया सब संसार-(प्रवचन-01)

नानक दुखिया सब संसार-(विविध)

पहला-प्रवचन-(ओशो)

जीवन एक पूजा

लेकिन इस भांति जीना जरूर चाहिए कि पूरा जीवन एक पूजा हो जाए। और हम बचते हैं पूरे जीवन को पूजा बनाने से। इसलिए एक कोने में पूजा कर लेते हैं और पूरेे जीवन को पूजा के बाहर छोड़ देते हैं। वह हमारी तरकीब है। घर के एक कोने में छोटा सा मंदिर बना लेते हैं औैर पूरे घर को मंदिर बनाने से बच जाते हैं। गांव में एक मंदिर बना लेते हैं फिर पूरे गांव का धर्म मंदिर में सिकुड़ जाता है, बात समाप्त हो जाती है। नहीं, पूजा नहीं करनी है किसी चीज की बल्कि इस भांति जीना है कि पूरा जीवन एक पूजा बन जाए। एक वर्शिप और एक प्रेयर बन जाए।
और इस तरह जब हम फर्क कर लेते हैं कि ज्ञान, कि चरित्र, ये फर्क बड़े झूठे हैं। ऐसा कहीं फर्क है नहीं। यानी ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जिसमें चरित्र न हो और ऐसा कोई चरित्र नहीं है जिसमें ज्ञान न हो।
असल में ज्ञान भीतरी घटना है, चरित्र उसकी बाहरी अभिव्यक्ति है। और कोई फर्क नहीं है। यानी कोई आदमी कहे कि सत्य का ज्ञान, कि सत्य का आचरण, तो इसमें, इसमें फर्क क्या करिएगा? इसमें फर्क इतना ही हुआ कि सत्य का अनुभव होगा, तो सत्य का आचरण होगा। और ज्ञान और आचरण कोई ऐसी दो चीजें नहीं हैं। हां, भला ज्ञान दिखाई नहीं पड़ता, आचरण दिखाई पड़ता है। जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं और वृक्ष दिखाई पड़ता है।

लेकिन जड़ें और वृक्ष ऐसी दो चीजें नहीं हैं। जहां जमीन से अलग भी दिखाई पड़ रही हैं, वहां भी सिर्फ अलग दिखाई ही पड़ रही हैं। कहीं किसी भी क्षण और किसी भी तल पर अलग होती नहीं हैं। और वह जो हमें फर्क दिखाई पड़ रहा है वह फर्क वृक्ष का और वृक्ष की जड़ों का नहीं है। वह एक सीमा तक मिट्टी है और एक सीमा के बाद मिट्टी नहीं है। इतना ही फर्क है। वह जिसको हम ज्ञान कहते हैं, वह भीतर है, जहां तक मिट्टी है और जिसको हम आचरण कहते हैं, वह बाहर है, जहां मिट्टी नहीं, वह दिखाई पड़ जाता है। अगर मेरी तरह से समझेें तो जो ज्ञान दिखाई पड़ जाता है उसका नाम आचरण है और जो आचरण दिखाई नहीं पड़ता है उसका नाम ज्ञान है। इससे ज्यादा कोई फर्क नहीं है। कोई नहीं है। असल में हमारी आदत पड़ गई है कि हम, हम फर्क करके देखें। कोई फर्क नहीं है।
दर्शन का मतलब हैः देखना और चरित्र का मतलब हैः जीना।
यह दरवाजा मुझे दिखाई पड़ रहा है, यह दर्शन है; और जब मैं निकलूंगा इस दरवाजे से, तो वह चरित्र है। अगर मुझे दरवाजा दिखाई पड़ गया, तो मैं दीवाल से न निकलूंगा। और अगर दरवाजा मुझे दिखाई नहीं पड़ा, तो मैं दीवाल से निकलने की कोशिश में टकरा सकता हूं।
दरवाजे का दिखाई पड़ना दर्शन है, और फिर दरवाजे से निकलना चरित्र है। और मैं नहीं सोच पाता कि जिसको दरवाजा दिखाई पड़ता है वह दरवाजे से न निकल कर कहीं और से निकलेगा, यह असंभव है। और अगर निकलता हो कहीं और से तो पक्का समझ लेना कि दरवाजा दिखाई नहीं पड़ा, और तो कोई कारण नहीं हो सकता।
सुकरात का एक वचन हैः नालेज इ.ज वच्र्यु। सैकड़ों साल तक विवाद चला उस पर क्योंकि उसने कहा ज्ञान ही चरित्र है। हम तो ऐसा सोचते हैं कि ज्ञान तो हमें है, लेकिन चरित्र कहां से लाएं। ये बात ही गलत है। ये बात ही गलत है। यानि बड़ी, ये भी होशियारी है हमारी। हम कहते हैंैं, ज्ञान तो हमें हैं। हमें मालूम है कि ठीक क्या है? हमें मालूम है कि ठीक क्या है? लेकिन फिर भी गलत हो जाता है, ये असंभव है। ऐसा हो नहीं सकता कि हमें मालूम हो कि ठीक क्या है? और गलत हो जाए। यह, यह कैसे हो सकता है? हां, ऐसा है मामला कि हमें मालूम है कि गलत ही ठीक है। और सुना हमने है कि लोग कहते हैं कि नहीं वह ठीक नहीं, ठीक कुछ और है। यह हमने सुना है। श्रवण दर्शन नहीं है। और श्रवण को हमने समझा हुआ है कि वह ज्ञान बन गया। सुना है हमने बचपन से कि क्रोध बुरा है। हमने नहीं जाना कि क्रोध बुरा है। हमें तो अभी भी कोई मौका दे दे तो, नहीं कर पाएंगे, तो लगेगा कुछ भूल हो गई है। कर पाएंगे तो लगेगा निपटारा हुआ। पछताएंगे न कर पाएंगे तो। हमें तो लगता है कि क्रोध ठीक है। हां, लोग कहते हैं, ऐसा लोग कहते रहे हैं कि क्रोध बुरा है। हमारे भीतर दोहरी दिक्कतें हो गईं। श्रवण है हमारा कुछ जिसको हम दर्शन समझ रहे हैं। नहीं लेकिन जिसे सुना है सिर्फ देखा नहीं है। सुनने व देखने में बड़ा फर्क है। सुना है मैंने कि इस तरफ दरवाजा है, देखा नहीं है। देखता तो मैं यहीं उसी दीवाल में दरवाजा देखता हूं। तो जब चलने जाता हूं तब पता चल जाता है कि श्रवण था, कि दर्शन था। क्योंकि जब चलता हूं तब इधर चला जाता हूं, क्योंकि जहां मुझे दिखता है वहां जाऊंगा। जहां मैंने सुना, है वहां नहीं जाऊंगा। अगर टकराएगा तब मैं कहूंगा बड़ी मुश्किल है, मैं जानता हूं कि दरवाजा कहां है, फिर भी टकरा जाता हूं। अब कैसे इस टकराने से बचूं? मैं नहीं कहता ऐसा। मैं कहता हूं अगर टकराते हैं तो समझ लेना दरवाजे का पता नहीं है। इसलिए आचरण को बदलने की कभी कोशिश ही मत करना। बस ठीक दर्शन की कोशिश करना। आचरण की फिकर ही मत करना। आचरण से कोई लेना-देना नहीं है। वह दो कोड़ी की बात है। उससे कोई लेना-देना नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि मुझे ठीक क्या है, वे दिखाई पड़े? और ऐसा कभी नहीं होता। जो दिखाई पड़े वह मैं हमेशा कर पाऊं। क्योंकि उस ठीक दिखाई पड़ने के साथ ही उस ठीक का आनंद भी जुड़ा है।
मैं निरंतर बुद्ध की एक घटना कहता रहता हूं कि बुद्ध एक गांव के पास से गुजरे। उस गांव के लोग उनके विरोधी थे, वे इकट्ठे हो गए। उन्होंने बुद्ध को बहुत गालियां दीं, और बहुत अपमानजनक बातें कहीं। बुद्ध ने उनकी सारी बातें सुनी और फिर उनसे कहा अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हों तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है। तो उन्होंने कहाः ये बातें न थीं, और तब वे एकदम से थोड़े परेशान भी हो गए। क्योंकि गालियां अगर बातें समझी जाएं तो जिसने दी हैं वह ही परेशान हो जाता है। वे भी थोड़े से परेशान हो गए हैं, थोड़े से हैरान हो गए हैं। क्योंकि इतनी साफ-साफ गालियां थीं। तो उन्होंने बुद्ध से कहा कि हमने गालियां दी, बातें नहीं कहीं। तो उन्होंने कहा तुमने दी होंगी गालियां, लेकिन इधर हमने लेना बंद कर दिया है। और तुम दो इससे कुछ होता नहीं फर्क जब तक हम लेें न। तुम्हारा देना तुम्हारा हक है। और लेना हमारा हक है। इस पर तो जबरदस्ती नहीं तुम्हारी न कि हमको लेना ही पड़ेगा।
पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयां लेकर आए थे, हमने कहा कि पेट भरा है तो वापिस ले गए। अब तुम गालियां लेकर आए हो और हम कहते हैं कि हम लेते नहीं। अब तुम क्या करोगे? वापस ले जाना पड़ेगा। ये गालियां वापस ले जाओ, क्योंकि हम लेते नहीं। उनमें से एक ने पूछा लेकिन आप लेते क्यों नहीं? बड़ी अजीब बात है, हम तो किसी को भी गाली देते हैं तो वह ले लेता है। हम दे भी नहीं पाते और वह ले लेता है। हमारा पूरा भी नहीं हो पाता और वह जवाब देना शुरू कर देता है। ये बड़ी अजीब बात है कि आप ये क्या कहते हैं, कि लेते नहीं। बुद्ध ने कहा दस साल पहले आना था तब मैं भी ले लेता था, क्योंकि तब मुझे पता ही नहीं था कि लेना दुख है। अब मुझे पता है कि लेना दुख है, बात खत्म हो गई। अब मैं ये देख रहा हूं कि देकर तुम उठा रहे हो दुख। और ले के मैं क्यों उठाऊं? तुम जानो तुम्हारा काम जाने। दे के तुम उठा रहे हो, मैं ले के क्यों उठाऊं? अब दिखाई पड़ गया। अगर कुछ कमी रह गई तो तो लौटते में फिर इसी रास्ते से गुजरूंगा, तुम आ जाना। गालियां और पूरी कर लेना अभी मुझे जल्दी जाना है, दूसरे गांव में लोग रास्ता देखते होंगे।
वह गांव के लोग कैसे खड़े रहे गए होंगे? वह बुद्ध का जाना, उस गांव के बाहर। और वे गांव के लोग बाहर ही खड़े रहे उनकी हालत क्या होे गई?
ऐसी हालत में नीत्शे बहुत नाराज हो जाता। और वह कहता है कि बुद्ध ने बहुत अपमान किया। अच्छा था कि एक चांटा वे मार देते, कम से कम हम दोनों बराबर तो हो जाते। नीत्शे ये कहता कि एक चांटा मार देते, एक गाली दे देते तो हम कम से कम दोनों बराबर हो जाते। बुद्ध तो चले गए होंगे और वह आदमी तो कीड़े-मकोड़ों की तरह खड़े रह गए होंगे। उनको कुछ समझ ही नहीं पड़ा होगा कि अब क्या हो? अब क्या करें? अपनी ही गाली लौट आई और घूमने लगीं होगी। नीत्शे कहता दया होती बड़ी कि एक चांटा मार देते, हम बराबर तो हो जाते। हम भी तो घर लौट जाते शान से। ठीक है हमने जो गाली दीं थी, वह लौट आई है। बराबर हो गया। इसका मतलब है, वह यह कह रहा है कि नहीं, ऐसा मत करो, यह बहुत क्रूरता है। वह बुद्ध से कह रहा है बहुत क्रूरता है।
मेरी दृष्टि यह है कि हमें दिखाई पड़ जाए तो, तो बात खत्म हो गई, फिर क्या परिणाम होता है, यह सवाल नहीं है कि हम ऐसा जीएंगे। और हमें दिखाई पड़ता नहीं है बिलकुल भी, और दर्शन शब्द बहुत साफ है। इसका सीधा मतलब देखना है। अंग्रेजी में बड़ी भूल हो रही है। अगर हम दर्शन को फिलासफी कहते हैं तो बड़ी गलती हो जाती है। फिलासफी का मतलब ही दर्शन नहीं है। फिलासफी का मतलब सोच-विचार है। और दर्शन का मतलब देखना है। और बड़े मजे की बात ये है कि सोच-विचार सिर्फ वे ही करते हैं, जो नहीं देख पाते। जो देख पाते हैं वे नहीं सोच-विचार करते। इस कमरे में एक अंधा आदमी बैठा हुआ है। जाने के पहले वह सोच-विचार करता है, दरवाजा कहां है? पूछता है दरवाजा कहां है? गुरु को खोजता है कि कोई दरवाजा बताओ? लेकिन जिसके पास आंख है, जो देखता है, न वह पूछता, न वह गुरु खोजता और न वह सोचता। सोचता भी नहीं है। निकलना है तो निकल जाता है। आप उससे पूछिए कि अरे तुम दरवाजे से निकले हो तो उसे खयाल आता है अन्यथा दरवाजे का खयाल भी नहीं आता कि दरवाजा कहां है? बस वह निकल जाता है, वह निकल जाता है। इसके लिए उसको यह भी नहीं सोचना पड़ता कि यह रहा दरवाजा और इधर से जाऊं तो पहुंच जाऊंगा दरवाजे पर। यह कुछ भी नहीं करना होता। जब उसे निकलना होता है वह निकल जाता है। बस वह निकल जाता है। जब उसे आना होता है वह आ जाता है। दरवाजा कहीं उसके विचार में बीच में आता ही नहीं। वह सिर्फ अंधे के विचार में आता है दरवाजा। बार-बार पूछता कि दरवाजा कहां है, क्योंकि उसे दिखाई नहीं देता। क्योंकि वह दर्शन के ठीक विपरीत है। दर्शन का मतलब दिखाई पड़ना है। एकदम गलत खयाल है।
एक तो दर्शन के कोई प्रकार हैं ही नहीं। वह देखने की शक्ति का नाम है। हां, उसके प्रयोग हो सकते हैं। जैसे मैं बगीचे में जाकर फूल देखूं कि कांटे देखूं कि आकाश देखूं कि जमीन देखूं, कि मकान के भीतर देखूं, कि बाहर देखूं। इससे कोई देखने में फर्क नहीं पड़ता, सिर्फ दिशाएं भिन्न होती हैं। और देखने के प्रयोग भिन्न होते हैं। इंप्लीकेशंस भिन्न होते हैं। दो-तीन तरह के दर्शन नहीं होते। दर्शन का तो मतलब हैः देखने की क्षमता। अब मैं कहां देखता हूं यह बिलकुल दूसरी बात है। यह मुझ पर निर्भर है।
वह जिसको हम बाह्य-दर्शन कहते हैं, वह बाहर देख रहा है। आदमी देखने की क्षमता उसकी उतनी ही है, जितनी किसी महावीर की हो। फर्क इतना है कि वह बाहर की तरफ उपयोग कर रहा है, महावीर भीतर की ओर उपयोग कर रहे हैं। यह उपयोग का फर्क है। यह दर्शन का फर्क नहीं है। मेरा मतलब समझ रहे हैं न। मैं बाहर की तरफ देख रहा हूं, अपनी खिड़की पर खड़े होकर और आप पीठ करके अपने मकान के अंदर कमरे की तरफ देख रहे हैं। लेकिन देखने की क्षमता का कोई फर्क नहीं है। सम्यक दर्शन का कुल इतना मतलब है कि भीतर की तरफ देखना, या बाहर की तरफ देखना। और अगर ठीक से समझें तो सम्यक दर्शन नहीं कहना चाहिए, जिसको हम भीतर की तरफ देखना कहते हैं। बाह्य-दर्शन कहते हैं, तो फिर अंतर-दर्शन कहना चाहिए। और सम्यक दर्शन का मतलब ये कि ऐसा आदमी जो दोनों तरफ जब चाहे, तब देख सकता है। उसका जो ठीक मतलब होगा, सम्यक दर्शन का मतलब ऐसा आदमी, एक आदमी ऐसा है जो कि फिक्सड हो गया है। जिसकी गर्दन अब पीछे की तरफ मुड़ती ही नहीं। वह बाहर ही देख सकता है। ये असम्यक-दर्शन हुआ। दर्शन का एक उपयोग निश्चित हो गया। एक दूसरा आदमी जो भीतर ही देख सकता है बाहर देख ही नहीं सकता। यह भी फिक्सड हो गया है। यह भी उतने ही उपद्रव में है जितना पहला आदमी। ये दोनों आधे-आधेेे आदमी हैं। सम्यक दर्शन का मतलब ऐसा आदमी जिसकी गर्दन लोचपूर्ण है, जो जब चाहे बाहर देखता, जब चाहे तब भीतर देखता है। बाहर और भीतर में जिसे कठिनाई ही नहीं होती। जो कभी भी बाहर जाता और कभी भी भीतर आता है। मेरा मतलब समझ रहे हैं न? एक तो जिसको हम कहते हैं संसारी वह बाहर देखने वाला और जिसको हम कहते हैं संन्यासी वह भीतर देखने वाला। इन दोनों से अलग एक आदमी है जिसको सम्यक-दृष्टा कहना चाहिए जो बाहर-भीतर दोनों तरफ एक साथ देख सकता है। जिसको इसमें कोई बाधा ही नहीं रही है। और जब कोई आदमी बाहर और भीतर एक साथ देख सकता है, तब उसके लिए बाहर और भीतर मिट जाते हैं क्योंकि वह देखता बाहर और भीतर दो चीजें नहीं हैं। यह एक ही चीज का फैलाव है और मैंने दो बांट लिए हैं क्योंकि मैं इकट्ठा दोनों नहीं देख पाता हूं इसलिए बांट लिए हैं। जब मैं बाहर देख रहा हूं, और जब मैं लौट कर भीतर आता हूं, तो जो मैं, जिसे मैं देखता आता हूर, वही भीतर भी है। सिर्फ चूंकि मैं एक साथ नहीं देख पाता हूं पूरे को, इसलिए मैंने खंड कर लिए हैं। अगर मैं पूरा एक साथ देख पाऊं तो खंड का कोई सवाल ही नहीं। अगर मेरी सारी खोपड़ी पर चारों तरफ बारह आंखें हों, कोई कठिनाई नहीं है। किसी दिन आदमी व्यवस्था कर ले और बारह आंखें हों उसकी खोपड़ी पे चारों तरफ। तो उसको बाहर-भीतर, मकान के क्या बाहर होगा, और क्या भीतर होगा। जब वह दरवाजे पर खड़ा होगा तो वह बाहर भी देखेगा और भीतर भी देखेगा। तो बाहर और भीतर तो एक फैलाव है, हमारी देखने की क्षमता चंूकि डाइमेंशनल है, वन डाइमेंशनल है, एक डाइमेंशन में देखती है।
वह अभी मार्थूस ने एक किताब लिखीः वन डाइमेेंशनल मैन। खयाल उसका सिंगल है कि हम एक ही तरफ देख पाते हैं यही हमारी तकलीफ है। और जिंदगी बहुत बड़ी है। और जिंदगी सब तरफ है। और सब तरफ सच है। और सम्यक-दर्शन का मेरे हिसाब में ऐसा मतलब होता है जो सब तरफ देख पाता है। इतना सम हो जाता है कि यह भी फर्क नहीं करता कि यह बुरा, यह भला, यह बाहर, यह भीतर, यह ऐसा, वह वैसा, यह नरक, यह स्वर्ग, यह भी फर्क नहीं करता, देख पाता है।

प्रश्नः एक ब्राह्मण की कथा है। जो जानता था सबके बारे में जिसने बनाया। वह एक दिन मर गया। उसका बेटा था। जिसको नमस्कार किया सबने कि यह ब्राह्मण का बेटा है, तो उसको ब्राह्मण मान लिया गया। उसने जो अपने बाप से सुना था वह लोगों को बताया, और अपने आपे ब्राह्मण बन कर बैठा रहा। फिर उसका बेटा आया और फिर इस तरह चलते-चलते एक दिन ब्राह्मण मर गया। असलियत बताने वाला कोई नहीं रहा। क्या ब्राह्मण मर गया, या यह जो ट्रेजडी साइंस थी यह ही गलत थी?

इसमें दोनों ही बातें सच हैं। एक तो ये बात सच है कि बहुत बार ऐसा हुआ है कि कुछ बातें हैं, जो जान ली गई। लेकिन कहीं नहीं जा सकी, जैसा मैं अभी कह रहा था। जो जान ली गईं लेकिन नहीं कही जा सकीं या कही गई तो कहने में गलत हो र्गइं। या कहीं र्गइं तो केवल शब्द रह गए और भीतर का अर्थ खो गया। खो ही जाएगा। तो बहुत सी सही बातें हैं जो जान ली गईं। लेकिन वे ऐसी सही बातें हैं कि हर बार हर आदमी को फिर अपनी तरह से उनको जानना पड़ेगा। उनको ट्रेडिशनली देने का उपाय नहीं है। कुछ बातें तो ऐसी हैं जिनकोे हम बता सकते हैं। उन बातों को हम बता सकते हैं, जो आॅब्जेक्टिव हैं। जैसे मैं कह सकता हूं कि यह काला रंग है। और आप भी देख लेते हैं कि ये काला रंग है। जिन चीजों को भी हम सामने रखके और सारे लोग आॅब्जर्व कर सकते हैं, उनके संबंध में प्रतीक काम कर जाते हैं। हम कहते हैं कि ये काला रंग है। इसमें हम राजी हो गए हैं और हम काला रंग कह लेते हैं और बात चल जाती है। क्योंकि काला रंग हम सबको दिखाई पड़ता है। फिर एक आदमी कहता है कि ये रहा परमात्मा। उसे दिखाई पड़ रहा है, कुछ जिसे वह परमात्मा कह रहा है, लेकिन हमें किसी को भी दिखाई नहीं पड़ रहा। काले रंग में दो चीजें हैं, काला रंग यह शब्द भी सुनाई पड़ता है और यह काला रंग भी दिखाई पड़ता है। और जब कोई कहता है कि ये रहा परमात्मा। तो सिर्फ काला रंग शब्द सुनाई पड़ता है और कोई दिखाई तो पड़ता नहीं कि ये रहा। शब्द ही रह जाता है हाथ में। सिर्फ शब्द ही रह जाता है। तो जहां तक धर्म का संबंध है, उसकी अनुभूतियां ऐसी हैं कि वह प्रत्येक बार, प्रत्येक व्यक्ति को फिर से उपलब्ध करनी पड़ती है। उनको कोई शब्दों के द्वारा दे नहीं सकता। वह जो ब्राह्मण की कोशिश थी वह विज्ञान देने की कोशिश होती तब तो न मरती। साइंस देने की कोशिश न थी। वह कोशिश थी धर्म देने की। और वह मरने को ही थी। और ऐसा नहीं है कि वह उस दिन मर गई आज नहीं मरेगी, आज भी मरेगी। अगर मैं आपसे कुछ कह रहा हूं तो वह मेरे कहने के साथ ही मर जाने वाला है। और आप अगर उसे उपलब्ध करेंगे तो फिर से आपको वही करना पड़ेगा। उसका कोई उपाय नहीं कि कोई दूसरा आपको ट्रांसफर कर सकेे। वह जो ब्राह्मण था, वह ब्रह्मांड को जानने वाला नहीं था, वह ब्रह्म को जानने वाला था। और उन दोनों में फर्क को आप समझ लें। ब्रह्मांड को जो जानता है, वह तो विज्ञान है। वह ट्रांसफरेबल है, वह सिंबल से दिया जा सकता है, वह शास्त्र से दिया जा सकता है। इसलिए पश्चिम ने जो पैदा किया उसके मरने का उपाय नहीं, जब तक आदमी न मर जाए। वहां किसी वैज्ञानिक के मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि जो जाना गया वह वस्तुगत है। वह लेबोरेटरी में जाना गया वह किसी एक आदमी ने नहीं जाना, वह हजार लोगों ने जाना है। हजार लोग प्रयोग कर सकतेे हैं। वह कभी भी प्रयोग किया जा सकता है। और वह दोहराया जा सकता है। जिसे हम ब्राह्मण कहते थे उसने उसे जाना था जो अनरिपिटेबल है। और एक अर्थ में यूनीक है। और जो एक-एक आदमी को अपने तईं ही जानना पड़ता है। कोई दूसरे के जनाए जाना नहीं जा सकता।

प्रश्नः तो ब्रह्मज्ञान।

हां, यह जो ब्रह्म का ज्ञान है, तो यह तो कभी भी परंपरा नहीं बनता है। इसे परंपरा बनाना ही भूल है। और विज्ञान जो है वह हमेशा परंपरा बनता है। उसे अगर आपने परंपरा न बनाया तो भूल हो जाएगी। यानी मैं बहुत उलटी बात कहता हूं। मैं निरंतर यह कहता हूं कि विज्ञान के शास्त्र हो सकते हैं, धर्म का शास्त्र नहीं हो सकता। हालांकि होता है धर्म का शास्त्र। और मैं यह भी कहता हूं कि विज्ञान के गुरुहो सकते हैं, धर्म का गुरु नहीं हो सकता। हालांकि होते हैं धर्मगुरु। विज्ञान के गुरु का पता नहीं चलता, क्योंकि विज्ञान जो भी कह रहा है वह बिलकुल ट्रांसफरेबल है, वह एक-दूसरे का बताया जा सकता है, समझाया जा सकता है, लेबोरेटरी में प्रयोग किया जा सकता है। वह कहीं इतना आंतरिक नहीं है कि उसे सामने रखना मुश्किल हो। वह इतना बाह्य है कि बिलकुल सामने है। आंतरिक के साथ सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि वहां आपके सिवाय कोई भी नहीं जा सकता। और बाह्य के साथ सुविधा है कि हम सब वहां साथ जा सकते हैं।
मैंने कहा कि मेरे बगीचे में एक फूल खिला है, मैं आप सबको ले चलता हूं। आप सब फूल देख लेते हैं। और मैंने कहा कि मेरे हृदय में प्रार्थना का एक फूल खिला है। और आप खड़े रह जाते हैं, कोई उपाय नहीं रह जाता है। क्या, क्या किया जाए? और मैं कहां ले जाऊं आपको, और कहां दिखाऊं आपको कैसे? क्या किया जाए? ज्यादा से ज्यादा मेरे आचरण से थोड़ा-बहुत पकड़ा जा सके कि शायद फूल खिला हो प्रार्थना का, न खिला हो। तो यह जो ब्राह्मण की जो खोज थी मूलतः वह ब्रह्मांड की खोज नहीं है। ब्रह्मांड की खोज तो पहली दफा पश्चिम के ब्राह्मण ने शुरू की, ब्रह्मांड की खोज। पूरब के ब्राह्मण ने तो ब्रह्म की खोज की है। और कहना मुश्किल है, कहना मुश्किल है, कि उसने कोई गलती की है ऐसी खोज करके। गलती हो गई उसको परंपरा बनाने में। वह परंपरा नहीं बन सकती है। और पश्चिम की तो परंपरा बनेगी। वह स्वाभाविक है। उसमें कोई कठिनाई नहीं है।
दूसरी बात यह है कि वे जो जिन सूत्रों की आप बात करते हैं जैसा कि आइंस्टीन का सूत्र है या कोई और सूत्र है। ऐसे सूत्र धर्म के हैं ही नहीं, हो भी नहीं सकते? उसके भी बहुत कारण हैं। क्योंकि विज्ञान उस ची.ज के साथ श्रम कर रहा है, जो एक अर्थ में जड़ है। जड़ से मेरा मतलब यह है कि वह करीब-करीब वैसी ही रहती है, जैसी है। पानी हजार साल पहले भी सौ डिग्री पर गर्म होता था चाहे हम जानते हों चाहे ना जानते हों। अब भी सौ डिग्री पर ही गर्म होता है चाहे हम जानें या ना जानें। पानी अपनी आदतें नहीं बदलता। पानी एक अर्थ में जड़ है कि वह जैसा रहता है वैसा ही रहता है। और धर्म का सारा संबंध उस चेतना से है, जिसकी बदलाहट ही जिसका स्वभाव है। अगर वह न बदले तो वह जड़ हो जाए। उसकी बदलाहट ही उसका स्वभाव है। तो दस हजार साल पहले आदमी के संबंध में जो सत्य था जरूरी नहीं वह आज सच हो। और जरूरी नहीं कि जो आज सच है वह दस हजार साल बाद सच हो। उसकी चेतना रोज बदल रही है। और रोज-रोज नये आयामों में प्रवेश करती है और नये अर्थ खोज लेती है। और नये जीने के ढंग खोज लेती है।
तो ब्राह्मण की जो खोज है, वह आदमी की चेतना के संबंध में है। और इसलिए पश्चिम आदमी की चेतना का विज्ञान नहीं बना पा रहा, क्योंकि बड़ी मुश्किल है। सबसे बड़ी मुश्किल तो ये है कि वह अनप्रिडिक्टेबल है। और विज्ञान बन ही नहीं सकता अगर प्रिडिक्शन न हो सके। तो कोई मतलब ही नहीं अगर दो और दो चार हमेशा न होते हों तो कोई मतलब नहीं रह जाता कि दो और दो की मर्जी पर हो तो कभी वे पांच हो जाएं, कभी वे तीन हो जाएं और कभी हम दो और दो जोड़ें तो वे तीन हो जाएं। और कभी हम दो और दो जोड़े तो वे पांच हो जाएं। तो फिर गणित नहीं बनने वाला है। तो फिर गणित कैसे बनेगा? क्योंकि वे दो और दो का कोई फिक्स्ड नहीं रहा मामला। मनुष्य के साथ दो और दो का जोड़ हमेशा चार नहीं होता। इतनी तरल घटना है वह, और जितना गहरा मनुष्य होगा उतनी ही तरल घटना होती चली जाएगी। जितना जीवंत व्यक्ति तीव्र होगा उतनी तीव्र्र परिवर्तन की और अनप्रिडिक्टेबल की संभावनाएं रहेंगी। इसलिए ये हो भी सकता है कि एक साधारण आदमी के संबंध में हम कुछ घोषणा कर सकें। इसलिए भीड़ के संबंध में घोषणा हो सकती है। जैसे मैं यह नहीं कह सकता कि मनोज इस साल कार का एक्सीडेंट करेंगे। यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन ये कहा जा सकता है कि बंबई में कितने कार के एक्सीडेंट होंगे। मेरा मतलब समझ रहे हैं न। क्योंकि भीड़ जो है जरा जड़ हो जाती है। सिर्फ बंबई में कहूं कि सौ एक्सीडेंट होंगे साल में, तो हो सकता है कि अट्ठानवे हों, एक सौ दो हो जाएं, लेकिन पूरे हिंदुस्तान में कहूं तो फासला और कम हो जाएगा। प्रिडिक्शन और करीब आ जाएगा। अगर पूरी दुनिया का हम जोड़ें तो प्रिडिक्शन और करीब जाएगा, करीब, करीब, करीब आ जाएगा। क्योंकि भीड़ जितनी बढ़ती चली जाएगी, उतनी चेतना क्षीण होती चली जाएगी। और जड़ता के नियम काम करना शुरू कर देंगे। यह बिलकुल कहा जा सकता है कि अमरीका में कितने लोग आत्महत्या करेंगे, आने वाले साल में। लेकिन कौन करेगा ये नहीं कहा जा सकता कि यह आदमी करेगा कि नहीं करेगा। क्योंकि इसके लिए कोई उपाय नहीं। ये मेरा मतलब समझ रहे हैं न। और बुद्ध या जीसस जैसे आदमी के बाबत तो और भी मुश्किल है। भीड़ की बाबत आसान है लेकिन फिर भी एक साधारण व्यक्ति के बाबत भी मुश्किल है। लेकिन जितना असाधारण व्यक्ति होगा उतना ही मुश्किल है। एकदम मुश्किल है मामला। कहना ही मुश्किल है कि वह क्या करेगा?
जैसे बुद्ध की दो-तीन घटनाएं मुझे खयाल आती हैं। बुद्ध बारह साल के बाद अपने घर लौटते हैं। वे परमज्ञानी हो गए हैं। लाखों उनके शिष्य हैं, सारा गांव उनको लेने आया लेकिन उनकी पत्नी नहीं आई है, वह नाराज है। यशोधरा नहीं आई है लेने। बुद्ध ने चारों तरफ देखा यशोधरा मौजूद नहीं है। और कोई संन्यासी होता साधारण तो प्रिडिक्टेबल हो सकता था। क्योंकि संन्यासी को क्या मतलब पत्नी से। लेकिन बुद्ध ने भिक्षुओं से कहाः भिक्षुओं देखते हो यशोधरा दिखाई नहीं पड़ती? तो आनंद ने कहा आप ऐसी बातें न करें, लोग क्या कहेंगे? आप अगर यशोधरा की बात करेंगे, तो लोग क्या कहेंगे? बुद्ध ने कहा कि मैंने कभी नहीं सोचा कि लोग क्या कहेंगे? उस तरह मैं जीया ही नहीं। और निश्चित ही आनंद वह इसलिए नहीं आई है, मैं जानता था वह नहीं आएगी। वह बड़ी माननीय है, बारह साल पहले मैं छोड़ कर उसे भाग गया था, जाते वक्त विदा भी नहीं ली थी, स्वाभाविक है, कि वह नाराज हो। मुझे चलना पड़ेगा। आनंद ने कहाः आप क्या बातें करते हैं? लोग क्या कहेंगे? बुद्ध ज्ञानी और अपनी पत्नी को मिलने घर गया? अब कौन पत्नी, अब कौन बेटा, कौन पिता, कौन माता? संन्यासी की तो अपनी भाषा है न। और इसलिए सन्यासी प्रिडिक्टेबल हो सकता है। उसने कहा क्या मतलब है, कैसी पत्नी, कैसी बात? आनंद ने कहा कि मैं तुम्हारे सूत्र से नहीं चलूंगा। माना कि मेरी कोई पत्नी नहीं हैं, लेकिन उसका पति अभी भी है। मेरी तो कोई पत्नी नहीं रही, यह तो ठीक है। लेकिन उसका तो पति अभी भी है। और अपने पति से रुठ कर वह अब भी बैठी है। आनंद ने कहा है कि लोग सदियों तक याद रखेंगे कि बुद्ध सेे थोड़ी भूल हो गई। बुद्ध ने कहा कि यह चलेगा, इससे कोई हर्जा नहीं होगा। इतना ही कहेंगे न कि बुद्ध एक आदमी थे। भगवान होने का मेरा कोई दावा भी नहीं है। मैं घर चलता हूं। ये अनप्रिडिक्टेबिलिटि साधारण संन्यासी यह नहीं करेगा। संन्यासी प्रिडिक्टेबल हो सकता है। स्वामी रामतीर्थ की पत्नी मिलने गई, तो रामतीर्थ ने दरवाजा बंद कर लिया। साथ में एक मित्र ठहरे हुए थे उनके, तुलसी, उन्होंने कहा आप यह क्या करते हैं? वर्षों बाद पत्नी मिलने आती है और आप दरवाजा बंद कर लेते हैं। अभी तक तो आप कहते थे कि सबमें ब्रह्म है, आज इस पत्नी में ब्रह्म न रहा? दरवाजा खोलें या मैं भी जाता हूं। और अब तक मैंने आपको सैकड़ों स्त्रियों से मिलते देखा है, कभी आपने कोई झिझक न दिखाई। आज इस स्त्री से मिलने से क्यों डरते हैं? क्या भय मन में पकड़ता है? और आप हैरान होंगे कि रामतीर्थ मुश्किल में पड़ गए। और रामतीर्थ ने उसी दिन गेरुवे वस्त्र छोड़ दिए। रामतीर्थ मरते वक्त गेरुवे वस्त्र नहीं पहने हुए थे। उसके छह महीने पहले पायजामा-कुर्ता पहन लिया था। वह उसी घटना से। किसी को क्या है कि ठीक ही कहते हों। और बुद्ध गए हैं घर, जब वे घर पहुंचे हैं तो दरवाजे पर अंदर गए हैं। तो आनंद उनका चचेरा भाई था। बड़ा भाई था। उम्र में ज्यादा था, रिश्ते में बड़ा था। तो जब उसने दीक्षा ली थी बुद्ध से, तो दीक्षा के पहले उसने उनसे एक शर्त ले ली थी कि दीक्षा के बाद तो मैं छोटा हो जाऊंगा। फिर तो मुझे आज्ञा माननी पड़ेगी। दीक्षा के पहले तक मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं। तुमसे एक शर्त ले लेता हूं, जो कि बाद में लागू रहेगी। वह शर्त यह थी कि मैं सदा-सदा तुम्हारे साथ रहूंगा। तुम मुझे कहीं अलग न कर सकोगे। यानी यह न कह सकोगे कि और कहीं जाके लोगों को समझाओ और विहार करो। मैं तुम्हारे साथ ही रहूंगा। यह दीक्षा के पहले बड़े भाई की हैसियत से यह ले लेता हूं। फिर दीक्षित हो गया था। तो वह उनके साथ ही था, वह उनके साथ ही चला अंदर महल के। बुद्ध ने उससे कहा, आनंद आज वह नियम न मानो। आज वह नियम छोड़ दो। क्योंकि यशोधरा बहुत नाराज होगी कि आज इतने दिन बाद आया हूं और फिर एक आदमी को साथ लेकर आ गया हूं। अगर उसको चिल्लाना हो, रोना हो, मुझे मारना हो, तो वह कुछ भी न कर पाएगी। न, आज यह नियम नहीं लागू होगा। यह जो आदमी है न, वह आनंद तो बिलकुल भौचक्का खड़ा हो गया कि आप ये क्या बातें करते हैं? आप अपनी पत्नी से अकेले मिलना चाहते हैं? कहा कि निश्चित ही यह जो मैं कह रहा हूं जितना जीसस के बाबत ऐसे उल्लेख हैं वे बड़े हैरानी के हैं। ऐसे लोगों की बाबत हम पक्का नहीं कह सकते कि कल सुबह वे क्या करेंगे? या कल सुबह क्या करते हुए पाए जाएंगे? नहीं कहा जा सकता। और इसीलिए ऐसे लोग बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं, जब जिंदा होते हैं। जब मर जाते हैं तब बड़े अच्छे हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि वे मर जाते हैं, तो प्रिडेक्टेबल हो जाते हैं। बात खत्म हो जाती है। और उनके साथ कोई झंझट नहीं रह जाता। अब हम उनको अपने ढांचे में बिठा सकते हैं। व्यवस्थित कर सकते हैं। मरे हुए संत सदा प्रीतिकर हो जाते हैं। जीवित संत अप्रीतिकर होता है। कई जगह खटकता है और दिक्कत देता है, और कठिनाई देता है।
वह जीसस की बाबत मैं कह रहा था कि जीसस के जमाने में एक वेश्या थी मेग्दलीन। जीसस एक रास्ते से गुजर रहें हैं, और दोपहर है भरी और वे थक गए हैं। और वह एक बगीचे में जाकर विश्राम करने लगे। उन्हें कुछ पता नहीं कि वह मेग्दलीन का बगीचा है। वैश्या का बगीचा है। दोपहर है, मेग्दलीन ने अपनी खिड़की से झांक कर देखा कि कौन अदभुत सा व्यक्ति उसके वृक्ष की छाया में लेटा हुआ है? उसने बहुत सुंदर लोग देखे थे, लेकिन जीसस के सौंदर्य की बात कुछ अलग थी। वह गई और उसने जाकर कहा कि युवक यहां कहां बाहर सोते हो, भीतर आओ घर में विश्राम करो? उसके द्वार पर तो बड़े सम्राटों की वापस लौट जाने की हालत हो गई थी। उसने कभी किसी को बुलाया हो ये तो था ही नहीं, पहला मौका था। उसने कभी सोचा भी न था कि उसके बुलावे को भी कोई टाल देगा। जीसस ने कहा विश्राम तो हो चुका। अब तो मैं जाने की तैयारी में हूं। लेकिन दुबारा आऊंगा तो घर के अंदर ही पहले आ जाऊंगा। उसने कभी सोचा भी न था कोई उसे इंकार कर देगा उसने कहा कि मेरी बरदाश्त से बाहर है। वह बहुत सुंदर स्त्री थी, उसने कहा कि मेरी तरफ देखो, भीतर चलो, एक-दो मिनट विश्राम करो, क्या मेरे प्रति इतना प्रेम भी प्रकट नहीं कर सकते? जीसस ने कहा प्रेम? जहां तक प्रेम का संबंध है मेरे सिवाय तुझे कोई प्रेम कर ही नहीं सकता है। जीसस ने उस वेश्या से कहा, जहां तक प्रेम का सवाल है मेरे सिवाय तुझे कोई प्रेम कर ही नहीं सकता है। जो तेरे द्वार पर आते हैं। द्वार खटखटाते हैं उनमें से किसने तुझे प्रेम किया है? मैं ही तुझे प्रेम कर सकता हूं। और जब जीसस के शिष्यों को पता चला कि एक वेश्या से उन्होंने ऐसा कहा तो वे बहुत नाराज हुए, उन्होंने कहा आप ये क्या बातें करते हैं? कि आपने एक वेश्या से कहा मैं ही प्रेम कर सकता हूं? जीसस ने कहा, कि मैंने ठीक ही कहा है, मैं ही प्रेम कर सकता हूं।
ये आदमी हमारे ढांचे और हिसाब में कहीं चूक खा जाएगा, ये वहां नहीं बैठ पाएगा। जितनी चेतना जीवंत होगी, उतनी ही विलक्षण और भविष्यवाणी के बाहर होती चली जाएगी। इसीलिए हम परमात्मा के संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते। कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकते। ये जो, जिसे धर्म मैं कह रहा हूं और ब्राह्मण ने जिसकी खोज की, वह खोज ऐसी थी, कि वहां मुट्ठी तो बंध जाती है लेकिन जिसको मुट्ठी बांधी थी, वह मुट्ठी से बाहर हो जाता है। इसलिए मुट्ठी बंद थी। जैसे हवाओं को मुट्ठी में कोई बांधता हो। तो जब तक न बांधिए तो हवा मुट्ठी में होती है और बांधिए तो मुट्ठी के बाहर हो जाती है। तो जैसे हमने शब्दों में बांधने की कोशिश की तो वह छिटक कर बाहर हो गया, जिसे हमने बांधा। सूत्र हैं लेकिन उन सूत्रों का कोई मतलब नहीं है। और वे सूत्र कुछ निश्चित नहीं हैं। वेे सूत्र रोज बदल जाते हैं। वह वैज्ञानिक अर्थों में सूत्र नहीं हैं जो कि थिर होते हैं। और सदा थिर रहते हैं। और हो सकता है कि विज्ञान भी जैसे-जैसे नीचे प्रवेश कर रहा है, वैसे-वैसे वह भी झंझट में पड़ा जा रहा है। फिर सूत्र उसके भी मुश्किल हो जाएंगे। क्वांटम या नई जो खोजें हैं उनकी, वह वहां घबड़ाहट की बातें हो गई हैं शुरू, क्योंकि जैसे-जैसे वे एटम के और परमाणु के नीचे गए हैं वैसे-वैसे ऐसा लगा है जैसे वहां प्रिडिक्शन मुश्किल हो रहा है।
एक बहुत हैरानी की घटना समझ में आई है कि वे जो इलेक्ट्रांस हैं, बिलकुल आखरी के टुकड़े, वे प्रिडिक्टेबल नहीं है। यानी यह पक्का नहीं कहा जा सकता कि वह कैसा व्यवहार करेंगे? इतनी खतरनाक बात है क्योंकि यह इस बात की खबर है कि वहां आत्मा आ गई है। यह इस बात की खबर है। नहीं तो कोई उपाय है नहीं। हम जानते हैं कि इस कुर्सी को हम इस कमरे में छोड़ जाएंगे जहां यह यहीं मिलेगी यदि नहीं हटाई गई। मतलब कुर्सी से हटने की कोई आशा नहीं है। यह हम मान कर जा सकते हैं घर से बाहर कि कुर्सी यहीं मिलेगी, तकिए वहीं रखे होंगे, सामान मूर्ति वहीं होगी। दीवालें जहां की तहां, होंगी ये यह मानके जा सकते है, यदि नहीं हटाई गई तो। कोई हटाने वाला नहीं आया तो, कुर्सी वहीं होगी जहां थी।
लेकिन इलेक्ट्रांस के बाबत बहुत नये अदभुत अनुभव हुए हैं। वह ये, एक अनुभव तो ये हुआ है कि उनकी बाबत कुछ पक्का नहीं कहा जा सकता कि वह एक सेकंड में इतना चक्कर लगा रहे हैं अगले सेकंड में भी इतना ही लगाएगा। अगले सेकंड में कम भी लगा सकता है ज्यादा भी। लगा सकता है। उसका जो रास्ता है वह अभी तक ऐसा रहा है तो अगले सेकंड में भी ऐसा ही रहेगा ये भी पक्का नहीं है। और इस सबमें भी जो सबसे हैरानी की बात समझ में आई, जिसने कि विज्ञान की पूरी की पूरी जड़ें हिला दी, वह यह कि उसके आॅब्जर्वेशन से उसके व्यवहार में फर्क पड़ता है, आॅब्जर्वेशन से।
जैसे कि आप इस कमरे में बैठे हुए हैं और आपको पता है कि कोई नहीं देख रहा है, तो आप दूसरे आदमी हैं। अपने बाथरूम में हर आदमी दूसरा होता है। कोई नहीं देख रहा है इसलिए वह दूसरा आदमी है। फिर अचानक उसे पता चलता है कि कुंजी के छेद में से कोई उसे झांक रहा है। एकदम दूसरा आदमी हो जाता है। उसके बिहेवियर में फर्क पड़ा है। समझ रहे हैं न आॅब्जर्वेशन, यह बड़ी हैरानी की बात है कि इलेक्ट्रान के आॅब्जर्वेशन से इलेक्ट्रान का रास्ता बदल जाता है। वह गड़बड़ करता है, वह जैसा चलता था, चल रहा था वैसा नहीं चलता है, उसमें चूक-चाक हो जाती है। और इससे पहली दफा यह खयाल पकड़ना शुरू हुआ है कि वहां नीचे उस गहराई पर फिर अनप्रिडिक्टेबल शुरू हो गया है। यानी मेरा मानना है कि चाहे ऊपर की तरफ ऊंचाई पर जाओ, तो जितने ऊंचे जाओगे उतना अनप्रिडिक्टेबल आ जाएगा। और चाहे नीचे गहराई की तरफ जाओ तो जितना नीचे जाओगे फिर अनप्रिडिक्टेबल आ जाएगा। और इसलिए मेरी ये भी दृष्टि है कि आज नहीं कल अगर विज्ञान भीतर, भीतर, भीतर जाता है, तो वह ब्रह्मांड से ब्रह्म की तरफ प्रवेश शुरू कर देगा। क्योंकि ब्रह्मांड की गहराई में ब्रह्म है। इसकी पूरी संभावना है क्योंकि उसकी मिस्ट्री उसकी पकड़ में आने लगी है, और वहां कुछ चूक होने लगी है उसकी। जहां उसकी पकड के बाहर है कुछ।
पर जिस ब्राह्मण की आप बात कर रहे हैं उस ब्राह्मण ने खोज ब्रह्म की कि थी जो कि अनिवार्य रूप से अनिश्चित है, तरल है, सदा भागा हुआ है, ठहरा हुआ नहीं है, गतिमान है। और इसलिए उसने जो सूत्र बनाए थे वे भी उतने ठहरे हुए नहीं हो सकते। इसलिए हर ब्राह्मण अपने सूत्र गढ़ सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं। इसमें किसी दूसरे ब्राह्मण से झगड़ा भी नहीं है। इसलिए बुद्ध अपने को ब्राह्मण कह सकते हैं। बल्कि ये भी कह सकते हैं कि मैं ही सच्चा ब्राह्मण हूं। और सब ब्राह्मणों का खंडन कर सकते हैं। और यह कह सकते हैं कि सच्चा ब्राह्मण मैं हूं। बाकी ये कोई ब्राह्मण नहीं हैं। पर वह ब्रह्म को जानने के अर्थ में और उसको विज्ञान कभी बनाने की सोचना ही मत। उसका कारण है कि विज्ञान बनाने की बात ही मत सोचना। कुछ बातें हैं जो विज्ञान नहीं बन सकती हैं और न बनें तो अच्छा है। क्योंकि जैसे ही वह विज्ञान बन जाएंगी वैसे ही व्यर्थ हो जाएंगी। असल में किसी चीज का विज्ञान बनने का मतलब यह है कि उसमें से रहस्य की हत्या कर दी गई। जिस चीज को आप विज्ञान बनाएंगे उसमें से रहस्य तिरोहित हो जाएगा। और अगर रहस्य तिरोहित न हो सके तो विज्ञान न बनेगा। विज्ञान का मतलब यह है कि जहां-जहां से रहस्य को हम हटा देते हैं, और चीजें साफ सीधी हो जाती हैं और गणित के आधार पर चलने लगती हैं, नियमबद्ध हो जाती हैं। और जहां भी मिस्टरी है, रहस्य है, वहीं विज्ञान हो जाता है। और धर्म का सारभूत ही यही है कि हमारा ऐसा मानना है, यानी ब्राह्मण का ऐसा मानना है, वह जो ब्रह्म का तलाशी है, उसका ऐसा मानना है कि कितना ही खोजो, कितना ही खोजो, कितना ही खोजो, कुछ निरंतर अनखोजा रह ही जाता है। वह कभी खोज में आता ही नहीं वह छूट ही जाता है।
समथिंग एक्स निरंतर छूट जाता है, तुम कितना ही खोजो कितना ही, ऐसा नहीं है कि कल तुम खोजोगे, परसों खाजोगे तो उसे पा लोगे, नहीं, वह छूटता ही जाएगा, छूटता ही जाएगा, छूटता ही जाएगा, ऐसा कोई क्षण नहीं होगा, जिस दिन हम कह सकेंगे कि सब जान लिया गया है। नहीं होगा, ऐसा कुछ। यह धर्म की आधारभूत पकड़ है। उसका कहना यह और इसलिए वह कहता है कि वह हम यह नहीं कहते कि ईश्वर मिस्टरी है, मैं नहीं कहता ऐसा। मैं नहीं कहता कि ईश्वर रहस्यमय है। मैं यह कहता हूं कि जो रहस्यमय है वह ईश्वर है। इस खयाल में ना जब हमने कहा कि ईश्वर रहस्यमय है, ऐसा मैं नहीं कहता। ईश्वर को बीच में लेने की जरूरत ही नहीं जो रहस्यमय है, यानि जो हमारे जानने के सदा बाहर छूट ही जाता है, छूट ही जाता है। हम पहुंचते हैं, पहंुचते हैं। और वह हाथ से बाहर हो जाता है। अननोन नहीं अननोएबल है। वह नहीं जो अज्ञात है, क्योंकि अज्ञात कल ज्ञात हो जाएगा। अज्ञेय जो कल भी ज्ञात नहीं, परसों भी ज्ञात नहीं। असल में जो ज्ञात हो ही नहीं सकता है ऐसा कुछ। अगर ऐसा कोई बिंदु है तो धर्म का कोई अर्थ है, अगर ऐसा कोई बिंदु नहीं, जीवन में तो धर्म आज नहीं तो कल मर ही जाएगा। मर ही जाना चाहिए, उसके बचने का कोई मतलब नहीं लेकिन ध्यान रहे, जिस दिन वह एक्स का बिंदु जो है रहस्य का बिंदु जो है वह मर जाए, उसी दिन धर्म ही नहीं मरेगा, साथ में काव्य भी मरेगा, कला भी मरेगी। वह साथ-साथ मरेंगे संगीत मरेगा, गीत मरेगा, वे सब साथ-साथ मरेंगे, फूल मरेगा, सौंदर्य मरेगा, नीति मरेगी, वह सब साथ-साथ मरेंगे। इधर मैं जितना इसकी तरफ देखता हूं, उतना ही हैरान होता हूं। इन सबकी बेस में धर्म हैं, हालांकि आम तौर पर धार्मिक आदमी इनके विरोध में खड़ा हुआ मालूम पड़ता है। वह काव्य के, कला के, साहित्य के विरोध में मालूम पड़ता हैै।


हां, हम जान जाएंगे सब कुछ, और जानने के लिए कुछ न रह जाएगा तो सिवाय आत्मघात करने के कुछ भी नहीं बचता है। कुछ करने को नहीं बचता है।
पश्चिम में जो इतने जोर से आत्मघात है, उसके एक कारणों में यह मानता हूं कि पश्चिम में रहस्य का बोध क्षीण हुआ है। जो रहस्य का बोध है न जो जीवन का यदि वह क्षीण हो जाए तो मरने के सिवा बचता क्या है? करने को क्या बच जाता है? इसको हम जरा सोचें कि हमने सब जान लिया जो जाना जा सकता था, फिर कल क्या है। कल सुबह उठ कर क्या करना है? एकदम सब ठप्प हो जाता है। बात खत्म हो जाती है, यात्रा बंद हो जाती है। धर्म का कहना यह है कि नहीं कुछ खत्म होता, कुछ शेष रह जाता है, भला आप पकड़ पाएं, खोज पाएं, न खोज पाएं, कुछ शेष रह जाता है। जो हमेशा जानने योग्य है। यह जो, ये जो ब्राह्मण की खोज थी, मिस्टरी की, रहस्य की वह विज्ञान की खोज नहीं उनकी खोज में बुनियादी भेद है। विज्ञान की खोज है कि मिस्टरी को खत्म करेंगे, रहस्य को न रहने देंगे, रहस्य है ही नहीं सिर्फ हमारे अज्ञान का नाम रहस्य है। विज्ञान की भाषा में इग्नोरेंस का मतलब मिस्टरी है। हम नहीं जानते इसलिए रहस्य मालूम हो रहा है, बाकी रहस्य है नहीं, जान लेंगे और सब खत्म हो जाएगा। यानी विज्ञान यह कह रहा है कि आपको फूल सुंदर मालूम हो रहा है, वह सिर्फ इसलिए मालूम हो रहा है, आपको उसका कैमिकल कैसे बना है? यह आपको पता नहीं है, यह आपको पता हो जाएगा।


वह उस हालत में बिलकुल ही धार्मिक आदमी है, वह वैज्ञानिक है नहीं। और इसलिए जो ठेठ वैज्ञानिक हैं वे आइंस्टीन के पिछले वक्तव्यों को सिर्फ मृत्यु के आने की खबर मानता है। आइंस्टीन घबड़ा गया है। पैर हिल गए हैं। वह ऐसा नहीं मानता है कि वक्तव्य वैज्ञानिक के हैं, वह मानता है कि वैज्ञानिक जो मौत से घबड़ा गया और जिसकी पुरानी पकड़ खो गई है और अब जो परेशान हो गया है और अब जो इस तरह की बातें कर रहा है। लेकिन आइंस्टीन के पहले के वक्तव्यों में ऐसी बात नहीं है। आखिर में तो बहुत सी चीजों का असर पड़ा, आखिर में तो बहुत सी चीजों का असर पड़ा। सबसे बड़ा असर तो ये पड़ा कि उसकी खोजें ही उसे किसी अंतिम उत्तर पर न ले गईं, जिसकी उसे आशा थी। उसकी हर खोज ने उसे ऐसा बताया कि और हजार नये प्रश्न भर खड़े हो गए हैं, और कुछ भी नहीं हुआ। एक प्रश्न हल करने गए थे वह जरूर हल हो गया है लेकिन उसके हल होते ही हजार प्रश्न खड़े हो गए हैं। जो उतने ही गैर-हलके हैं जितना कि पहला प्रश्न था। और जब यह रोज होता चला गया तब उसको ऐसा प्रतीत हुआ कि शायद हम एक प्रश्न से दूसरे प्रश्न पर ही जा रहे हैंै। उत्तर कहीं भी नहीं है। ऐसी अगर प्रतीति हो जाए तो मैं मानता हंू कि धर्म की शुरुआत होती है कि उत्तर कहीं भी नहीं। ऐसा आदमी एकदम धार्मिक हो जाएगा। मगर हम उलटी बात देखते हैं। आमतौर से हम देखते हैं, जिसको हम धार्मिक कहते हैं उसके पास उत्तर है। सवाल शायद न हो, आप उसके पास जाइए तो वह बता देगा कि हां, ब्रह्म हैं, ईश्वर है, आत्मा है, पुनर्जन्म है, फलाना-ढिकाना, सब उत्तर हैं उसके पास। तब मैं कहता हूं, वह धार्मिक आदमी नहीं होगा। क्योंकि अगर उत्तर हैं तो वह वैज्ञानिक हो सकता है। क्योंकि उत्तर हैं उसके पास जिसके पास रहस्य नहीं रहा। अगर रहस्य है तो धार्मिक आदमी हैजिटेट करेगा, झिझकेगा और विरोधी भाषा में बोलेगा। यानी इधर हां भी कहेगा, उधर न कहेगा। नहीं कहेगा न, बल्कि इधर हां कहेगा, इधर फौरन न कहेगा। वह दोनों एक साथ कह लेगा ताकि कोई झंझट न हो। क्योंकि वह बहुत हैजिटेट कर कहा है, बहुत मुश्किल में है, उसको चीजें साफ नहीं रहस्यपूर्ण लगती हैं।
एक मैं घटना निरंतर बुद्ध की कहता हूं कि बुद्ध एक गांव में गए। और एक आदमी मिला और उस आदमी ने बुद्ध से कहा कि मैं नास्तिक हूं और ईश्वर को नहीं मानता हूं, आपका क्या खयाल है? बुद्ध ने कहाः ईश्वर को नहीं मानते हो? ईश्वर ही है और तो कुछ है ही नहीं। क्या कहते हो ईश्वर को नहीं मानते? ईश्वर ही है और तो कुछ है ही नहीं। आनंद ने बहुत चैंक कर देखा कि बुद्ध क्या कह रहे हैं? पर वह चुप रहा। भीड़-भाड़ बढ़ गया था। दोपहर को एक आदमी और बुद्ध के पास आया, उसने कहा, मैं आस्तिक हूं, ईश्वर को मानता हूं। तो बुद्ध ने कहा कि पागल हो गए हो, ईश्वर को बहुत खोजा ईश्वर पाया ही नहीं, है ही नहीं। ईश्वर है ही नहीं। आनंद और घबड़ा गया क्योंकि उसने दोनों उत्तर सुन लिए। सांझ एक तीसरा आदमी आया, उसने बुद्ध से पूछा कि ईश्वर के संबंध में कुछ कहिएगा, मुझे कुछ पता नहीं। तो बुद्ध ने कहाः तुझे भी पता नहीं, मुझे भी पता नहीं, हम चुप ही बैठें तो हर्ज है कोई? हम चुप ही बैंठें तो कोई हर्ज है?
रात जब वे सोने लगे तो आनंद ने कहा कि अभी सो मत जाइए, पहले मुझे, मैं मुश्किल में पड़ गया हूं, मेरा दिमाग खराब हो जाएगा। सुबह आपने कहा नहीं, दोपहर आप कहते हैं कि है, सांझ आप कहते हैं कि कुछ भी पता नहीं, हम दोनों चुप बैठें तो कोई हर्ज है। तो बुद्ध ने कहा कि वे उत्तर तेरे को दिए किसने थे, तूने लिए क्यों, जिसको दिए गए थे उसकी बात थी, तुझसे क्या लेना-देना? उसने कहाः लेकिन ये तीन उत्तर बिलकुल विरोधी हैं। बुद्ध ने कहाः मेरे तीनों उत्तरों का एक ही मतलब है। मैं पहले आदमी को भी हेजिटेशन में डालना चाहता था। बड़ा पक्का था वह कि ईश्वर नहीं है, उसे मैं टहलाना चाहता था वह आदमी वैज्ञानिक हो गया था, धार्मिक नहीं रहा, पक्का था। वह दूसरा आदमी भी पक्का हो गया था वह कहता था कि ईश्वर है, वह भी चूक गया था मामला, मामला तो वह है जहां रहस्य है, उसको भी हिला दिया, थोड़ा सा धक्का दिया कि शायद हिल जाए। मेरे उत्तर की फिकर मत कर, मैं जो कह रहा था वह एक ही काम कर रहा था सुबह भी, दोपहर भी और सांझ एक बढ़िया आदमी आया था उसको कोई भी उत्तर देना खतरनाक था, क्योंकि उसको बुद्ध का उत्तर समझ कर पकड़ लेता और निशिं्चत हो जाता। उससे कहा कि तुझे भी पता नहीं मुझे भी पता नहीं तो दोनों चुप बैठें तो कोई हर्ज है।
यह जो, यह जो बुद्ध जैसा आदमी है यह एक धार्मिक आदमी है। पर धार्मिक आदमी को समझना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उसके सारे वक्तव्य विरोधी मालूम पड़ते हैं। उसके एक-एक वाक्य में भी विरोध होता है। और सारे विरोध का कारण इतना है कि उसे रहस्य का बोध हो रहा है। और रहस्य के बोध का आप खयाल करते हैं। बहुत अदभुत बात है। रहस्य के बोध का मतलब यही है कि दोनों विरोधी मौजूद हैं इसलिए रहस्य है। नहीं तो रहस्य हो नहीं सकता। यहां जन्म भी है और मौत भी है, और एक साथ हैं। यहां प्रेम भी है और घृणा भी है, और एक साथ हैं। यहां फूल भी है और कांटा भी है और बिलकुल एक साथ हैं। और एक ही डंडी पर और एक ही प्राण-धारा से आए हुए हैं। इसलिए रहस्य है।
रहस्य का मतलब ही ये है कि विरोधी जिनके बीच में कोई तालमेल ही नहीं दिखता वह भी हैं। और एक बड़ी यूनिटी में दोनों समाविष्ट हैं, दोनों मौजूद हैं। आप को मैं सुबह रोते देखता हूं, दोपहर हंसते देखता हूं, बड़ी मुश्किल हो जाती है, कि जो आदमी रोता था वह हंसता कैसे है? क्योंकि अगर आदमी सेे रोना आता था तो यह हंसना कैसे आ रहा है? यह उचित हुआ होता, सीधा साफ हुआ होता कि जो रोता वह रोता, जो हंसता वह हंसता। गणित साफ रहता। हम जानते की फलां आदमी हंसता है, फलां आदमी रोता है। यह बड़ी मुश्किल है। यहां मुश्किल ऐसी है कि वह आदमी सुबह रोता है, सांझ हंसता है। और ऐसी भी हालतें आ जाती हैं कि वह हंसता भी है और रोता भी है और दोनों एक साथ भी कर लेता है। और तब बड़ा मुश्किल हो जाता है मामला। तब कि अब हम क्या करें? तब मिस्ट्री हो जाती है। तब एक मिस्ट्री हो जाती है।
 मैं एक घर में ठहरा हुआ था। एक बहुत मजेदार घटना हो गई। सांझ को बगीचे में एक कुर्सी पर बैठा हुआ था। घर की जो गृहिणी थी, जो गृहिणी थी, वहां एक ऐसा तख्त पड़ा हुआ था मेरे सामने, मैं ऐसे कुर्सी पर बैठा हूं, सामने वह तख्त पर लेटी हुई थी, मेरा ऐसे पैर उसके सिर के पास तख्त पर रखा हुआ था और उसकी नाक मेरे पैर के करीब थी, तो मैंने अंगूठे से उसकी नाक छू दी। वह एकदम से, वह झपकी में थी, वह एकदम से घबड़ा गई, वह एकदम रोने लगी। और मुझे कुछ पता नहीं था कि उसको ऐसा, घबड़ाहट हो जाएगी। एकदम रोने लगी, तो सब इकट्ठे घर के लोग हो गए। और जब मैंने उसको कहा कि इतनी घबड़ा मत, हुआ क्या है? मैंने तो सिर्फ अंगूठा...तो वह हंसने भी लगी, तो उसकी समझ में यह भी आ गया कि मैंने उसकी नाक में सिर्फ अंगूठा लगाया है। और उसकी घबड़ाहट, और उसका हंसना, और रोना सब एक साथ हो गया। तब तो घर के लोग बहुत घबड़ा गए। क्योंकि इसका मतलब यही हुआ कि कोई गड़बड़ बात हो गई। कोई भूत-प्रेत हो गया।
जहां मिस्ट्री हैं वहां भूत-प्रेत फौरन मौजूद हो जाए न। एकदम घबड़ा गए कि क्या मामला है? अगर वह रोए तो भी ठीक समझ में आ जाए, जब वह शंात हुई तो मैंने उससे पूछा कि तूने दोनों एक साथ क्यों किया? तो वह बोली, मुझे खुद बड़ी मुश्किल हो गई। मुझे हंसी इस बात की आ रही थी कि क्या गंवारी मैं कर रही हूं, और घबड़ा तो मै गई ही थी, वह तो रुक ही नहीं रहा था, आंसू तो बहे चले जा रहे थे, मैं अपने ही आंसुओं पर रो रही थी।
तब एक तीसरा बिंदु निकला कि वह हंस भी रही थी, रो भी रही थी और दोनों के पीछे खड़े होकर देख भी रही थी। तब यह मिस्ट्री हो जाती है। वहां तब बहुत विरोधी स्वर इकट्ठे हो जाते हैं। और वे सब इकट्ठे हैं और एक ही व्यक्ति में समाए हुए हैं, और एक ही घटना में समाए हुए हैं। और एक जगत में इतना विरोध समाविष्ट है। और उसकी वजह से रहस्य है। अगर हम उसको सबको साफ-सुथरा कर लें, छांट-छांट कर अलग कर लें।...
एक घटना मैं पढ़ता था। एक विचारक किस्म का आदमी जो निरंतर सोचता रहता था, पहले महायुद्ध में भर्ती हो गया। उसे जो खाना बनाने का काम था, वहां मैस में उसको भेज दिया। वहां छोटा-मोटा कोई काम करो। उसको पहले ही दिन कहना कि उसको ऐसा छोटा-मोटा काम देना जिसमें सोच विचारने की जरूरत ही न हो। तो उसको मटर कुछ दिए हैं और उससे कहा है कि बड़े मटर और छोटे मटर अलग कर डालो। वह घंटे भर बाद कैप्टन गया तब वे वैसे ही बैठा हुआ था। और मटर वैसे ही रखे हुए थे तो वह बोला आप अभी तक अलग नहीं कर पाए इतना छोटा सा काम, उसने कहा कि मैं अलग कभी का कर लेता लेकिन कई मटर ऐसे हैं, जो न छोटे हैं न बड़े हैं, अब मैं इस चिंता में हूं कि इनको कहां किया जा सके? पहले यह पक्का तो हो जाए कि नाहक मैं मेहनत करूं, कुछ बड़े हैैं माना, कुछ छोटे हैं माना लेकिन कुछ ऐसे हैं जो न छोटे हैं, न बड़े, और जब तक उनका पक्का नहीं हो जाता तब तक अकारण श्रम में जाने की कोई जरूरत नहीं पहले पक्का हो जाना चाहिए।
अब ऐसा जो आदमी है यह मेरी दृष्टि में धार्मिक हो सकता है, इसको चीजों की अब हमें कभी भी खयाल न आता कि दोनों के बीच के भी कुछ मटर हैं। हां, ऐसे लोग भी हैं, जो संत भी नहीं हैं और असंत भी नहीं हैं। और जिनको कहीं भी नहीं रखा जा सकता। लेकिन हमने साफ बांट लिया है। साफ बांट लिया है--अच्छे लोग हैं, बुरे लोग हैं। और ऐसे लोग भी हैं जो दोनों नहीं हैं। हां, और ही अर्थ के लोग उनको हम कहां रखेंगे, वे मिस्टरी हैं। और वह मिस्टरी निरंतर है, सब तरफ है। कुछ हैं जिसको हम सौंदर्य कह देते हैं। कुछ हैं जिसको हम कुरूपता कह देते हैं। लेकिन कुछ हैं जिसको क्या कहें, वे दोनों नहीं हैं। हम कहीं बांट देते हैं अपने हिसाब से लेकिन कहीं दोनों नहीं हैं। हां, वह भी पूरी संभावना है, वह भी पूरी संभावना है, असल में कोई आदमी बिलकुल अच्छा ही नहीं है, बिलकुल बुरा है। और इन सब चीजों का इतने विरोध की जो मल्टिपलसिटी है उसका जो इकट्ठा होना है और एक ही तत्व में अस्तित्व में होना है। वह उसका रहस्य है। इसका अगर बोध हो तो हम गणित से पार चले जाते हैं। फिर हम जोड़ नहीं लगाते, क्योंकि जोड़ लगाने को नहीं बचता है, क्योंकि कुछ है जो जोड़ में आता ही नहीं, फिर जोड़ बेमानी हो जाता है। ऐसे रहस्य का बोध की खोज में हैं। ब्राह्मण उसने जो सूत्र बनाए थे वह ऐसे सूत्र नहीं थे जैसा कि गणित के सूत्र है, साइंस के सूत्र हैं। वह अलग ही सूत्र हैं। उसकी बात को विज्ञान भी कहना ठीक नहीं है। बहुत और बात है, बहुत ही और बात है।
उपनिषदो में बहुत सी अदभुत बात की हैं उन्होंने। जिसे हम आज विज्ञान कहते हैं उसको वे अविद्या कहते हैं। अविद्या। अविद्या का मतलब अज्ञान नहीं, विद्या और अविद्या, विद्या का मतलब उस तरफ ले जाए जो सच में हैं। अविद्या का मतलब है कि उस तरफ ले जाए जो है नहीं, लेकिन प्रतीत होता है कि है। अविद्या का मतलब अज्ञान नहीं है। अविद्या का इतना ही मतलब है कि ऐसा ज्ञान जो उस तरफ ले जाए जो सच में नहीं है। हां, लेकिन प्रतीत होता है कि है। तो उसकी जो छान-बीन और खोज, अगर विज्ञान का, साइंस का ठीक अनुवाद करना हो तो विज्ञान नहीं करना चाहिए, उसका अनुवाद अविद्या ही करना चाहिए। क्योंकि विज्ञान का और ही मतलब है, इस देश के चिंतन में विज्ञान का और ही मतलब था। उसका मतलब ज्ञान को विशेष धारा में बहाने से है। विज्ञान का मतलब विशेष ज्ञान। एक तो सिर्फ ज्ञान है। जिसको महावीर ने बहुत अच्छा शब्द दिया केवल ज्ञान। जस्ट नोइंग, नाॅट नोइंग एनिथिंग, जस्ट नोइंग। किसी चीज को नहीं जान रहे हैं, बस जान रहे हैं। सिर्फ जानना भर है। तो उसको तो वह कहते हैं केवल ज्ञान, मात्र ज्ञान। और विज्ञान वह उसको कहते हैं कि किसी चीज को जान रहे हैं, उसको विज्ञान कहते हैं। और विज्ञान दो तरह के हैं, विद्या और अविद्या। अविद्या मतलब वह विज्ञान जो उन चीजों को जान रहा है, जो सच में नहीं है। जैसे कोई सपने की खोज में लगा हुआ है। तो जो नहीं है लेकिन है तो, और उसकी खोज कर रहा है। कोई फ्रायड है और वह सपने की खोज कर रहा है और सारा जीवन लगा रहा है, और साइंस खड़ी कर रहा है। इसको वह कहेंगे अविद्या, सपने की खोज है न आखिर। किसी ऐसी चीज की खोज है जो है नहीं। तो विज्ञान के दो हिस्से हैं विद्या और अविद्या। नहीं जो है और नहीं है वह तो परम ही बात है। हां, सपना जब होता है तो बिलकुल ही होता है। हां, बिलकुल ही होता है, और तब भी एक अर्थ में नहीं होता है। तब भी सपना ही होता है। यानी तब भी सपना ही होता है। तब भी सत्य नहीं होता है। हां, प्र्रतीत हमें होता है कि सत्य है। मेल खा सकता है कभी, हां, कभी मेल खा सकता है। कभी मेल खा सकता है, कभी किसी सत्य से मेल खा सकता है। सपना कभी सत्य नहीं होता। किसी सत्य से मेल खा सकता है। और जिसको हम सत्य कहते हैं, उसको तो जिसको मैं व्यवहार कह रहा हूं, जिसको हम सत्य कहते हैं, उसके सामने तो वह भी सत्य नहीं सिर्फ जागा हुआ सपना है। जिसको मैं कह रहा हूं न, जिसको मैं सत्य कह रहा हूं, हमारे दो तरह के सपने हैं, एक रात के सपने जो हम सो के देखते हैं, एक दिन के सपने जो हम जाग कर देखते हैं। इसलिए जागे हुए सपने रात को खत्म हो जाते हैं, सोए में पता नहीं रह जाता उनका। और दिन में वे, हां, हां दिन के भी सपने हैं आपके।
एक बात है, असल में जब तक हम आगे जाते रहेंगे और पीछे जाते रहेंगे, कोई ठोकर लगा सकता है पीछे जाने वाली भी और कोई ठोकर लगा सकता है आगे जाने वाली भी। लेकिन एक ऐसी जगह भी है जहां न हम आगे जाते हैं, न हम पीछे जाते हैं, जहां हैं वहीं रह जाते हैं। बात करनी चाहिए हमें जो वहीं हैं, वहीं छोड़ जाएं जहां हम हैं। न आगे ले जाएं न पीछे ले जाएं, क्योंकि जिसे हम अभी आगे कहेंगे वह कल पीछे हो जाएगा। कल इसको आगे कहा था न आज पीछे हुए जा रहा है। लेकिन एक कोई जगह है जहां हम हैं। क्योंकि अगले या पिछले हमारे उपयोग पे निर्भर करते हैं। हम किस तरफ से देखना शुरू करते हैं। हाँ, उसमें कोई कठिनाई नहीं है। यानि हमारी सारी की सारी पूरब कहते हैं, पश्चिम कहते हैं, ऊपर कहते हैं, नीचे कहते हैं। ये सब कामचलाऊ बाते हैं। और कहां हम खड़े हैं, इस पर निर्भर होती हैं। और हमने कौन सी भाषा पकड़ कर तय कर लिया है। अगला जमाना कह सकते हैं। जो जा चुका है। जो आगे जा चुका है इसलिए अगला। हमारा तो पीछे जाएगा अब न उसके, और हम अगला जमाना उसको भी कह सकते हैं जो अभी नहीं आया। जो हमसे आगे आएगा। तो इसमें कोई कठिनाई नहीं है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। और बिलकुल ही सापेक्ष हैं। हां, लेकिन जो मैं कह रहा हूं, आगे और पीछे क्यों हम वहीं क्यूं न रह जाएं जहां हैं? क्योंकि आगे बहुत बार तो गए कहां पहुंचे?
अभी महेश योगी से मेरी बात हुई थी तो बहुत मजेदार बात हुई। उन्होंने कहा कि वहां जाने के लिए कुछ करना पड़ेगा। यहां से वहां जाने के लिए कुछ करना पड़ेगा। फ्राॅम हीयर टू देयर। कोई रास्ता खोजना पड़ेगा, कोई विधि बनानी पड़ेगी, कोई मार्ग बनाना पड़ेगा, जाना है यहां से वहां? तो मैंने उनसे कहा कि यहां से वहां जाना होता तो जरूर रास्ता बनाना पड़ता, जाना है यहां से और यहीं, फ्राॅम हियर टु हियर। अगर वहां से यहां आना होता तो भी कुछ रास्ता बना लेते, यहां से वहां जाना होता तो भी कोई रास्ता बना लेते, लेकिन एक ऐसा जाना भी जहां, यहां से यहां ही है। कहीं से कहीं नहीं यहां से यहीं। किसी को कहीं जाना नहीं है। एक बार हम इतना ही जान लें कि हम कहां हैं? और सब जाना बंद हो जाता है, आगे भी और पीछे भी। तो उस ठोकर की अपेक्षा ही मत करें, जो आगे ले जाए और पीछे ले जाए। उस ठोकर की प्रतीक्षा करें जो वहीं छोड़ जाए, जहां हम हैं। और वह ठोकर कोई भी नहीं दे सकता। हां, इसलिए मैं कह रहा हूं इसलिए वह ठोकर कोई भी नहीं दे सकता। वे ठोकर खुद ही खानी पड़ेगी। हां, वह खुद ही खानी पड़ेगी। वह कोई भी नहीं दे सकता। लेकिन हम क्यों जाएं आगे और क्यों जाएं पीछे?
कल्याण जी को मैं कह रहा था पीछे उस दिन। एक जेन फकीर अपने बगीचे में गड्ढा खोद रहा है। बगीचे में कुछ पौधे लगा रहा है। कोई पूछने आया है उससे। उससे कोई पूछता है कि मुझे शांत होना है, मैं क्या करूं? तो वह फकीर गड्ढा खोदता है और वह कहता है कि जो करते होे, वही करो। वह कहता है कि शायद आप काम में हैं इसलिए आप बेमन से कुछ जवाब दिए दे रहे हैं। तो फकीर कहता है कि अगर समझ में न आया हो तो बैठ कर देखो कि मैं क्या कर रहा हूं। तो वह आदमी थोड़ी देर बैठ जाता है। वह गड्ढा खोद रहा है, खोद रहा है, खोद रहा है, पसीना बहा रहा है, धूप है, वह गड्ढा खोद रहा है। वह आदमी कहता कि काफी देर हो गई देखते-देखते आप गड्ढा खोद रहे हैं। लेकिन मैं कुछ और पूछने आया हूं, मैं पूछने आया हूं कि मैं शांत कैसे हो जाऊं? तो वह फकीर कहता है कि मैं सिर्फ गड्ढा ही खोद रहा हूं और बिलकुल शांत हूं। अगर मैं गड्ढा भी खोदूं और कुछ और भी करूं तो अशांत हो जाऊंगा। मैं सिर्फ गड्ढा ही खोद रहा हूं। और अशांति का कोई उपाय नहीं है। मैं सिर्फ गड्ढा खोद रहा हूं और मैं कुछ नहीं कर रहा हूं। तो तुम भी जो करते हो वह करो। वह आदमी कहता है कि कुछ जीवनचर्या बता दें कि आप, ताकि जैसा आप कहें वैसा मैं करूं? तो वह फकीर कहता है कि जब मुझे नींद आती है तो मैं सो जाता हूं। अपनी तरफ से मैं कभी नहीं सोया। जब नींद आती है, सो जाता हूं। और जब नींद खुल जाती है, उठ आता हूं, अपनी तरफ से मैं कभी नहीं उठा। और जब भूख लगती है तो मैं मंागने चला जाता हूं, अपनी तरफ से मैंने कभी नहीं खाया। जब भूख नहीं लगती है तो मैं नहीं खाता। और सांस भीतर आती है तो भीतर आने देता हूं, बाहर जाती है तो बाहर जाने देता हूं। और मेरी कोई चर्या नहीं है और मैं बड़ा शांत हूं। और तुम्हें भी शांत होना है तो तुम भी ऐसा ही करो। वह आदमी कहता है कि ये तो हम भी सब करते हैं, जब सोते हैं, सो जाते हैं, जब खाते हैं खा लेते हैं। इसमें आप कौन सी नई बात कर रहे हैं? तो फिर उसने कहा कि तुम जाओ और जरा गौर से देखना कि जब तुम सोते हो तो तब तुम सोते ही हो, कि और भी बहुत कुछ करते हो। और गौर से देखना कि जब तुम खाते हो तो सिर्फ खाते ही हो या और भी बहुत कुछ भी करते हो। क्योंकि फकीर ने कहा कि मैंने तो ऐसा आदमी ही नहीं देखा जो सिर्फ खाता हो, तो सिर्फ खाता ही हो। आदमी खाता और कहीं और कुछ भी करता रहता है। और उस फकीर ने जाते वक्त कहा कि हमने इतना ही जाना कि हम जो हैं, वहीं हैं। जहां हैं, वहीं है। जैसे थे वहीं हैं। और हमें न कहीं जाना है, और न कहीं हमें पहुंचना है। मेरी दृष्टि में परम साधना का यही अर्थ है। और परम शांति का यही अर्थ है कि हम जहां हैं, वहीं रहें । उसमें हम पूरे राजी हो जाएं, न आगे जाएं, न पीछे जाएं। क्योंकि पीछे जाएंगे तो भी मतलब नहीं, आगे जाएंगे तो भी मतलब नहीं। क्योंकि पीछे और आगे हम जाएंगे, तो किससे पीछे जाएंगे, किससे आगे जाएंगे। अपनी ही जगह से हटते रहेंगे न। अपनी ही जगह से हटते रहेंगे।
घड़ी का पेंडुलम हैं बाएं से दाएं चला जाता है। दाएं से बाएं चला जाता है। फिर बाएं से दाएं न, चला जाता है, और एक बड़े मजे की बात, जब वह बाएं जाता है तब हमें दिखता है कि बाएं जा रहा है लेकिन बाएं जाते वक्त वह दाएं जाने की ताकत इकट्ठी कर रहा है। मोमेंट्म इकट्ठा कर रहा है उलटा जाने का। जा रहा है बाएं ताकत इकट्ठी कर रहा है दाएं जाने की। फिर वह दाएं जा रहा है तब हम समझते हैं कि वह दाएं जा रहा है, तब वह बाएं जाने की ताकत इकट्ठी कर रहा है। जब एक आदमी का जन्म हो रहा है तो वह मरने की ताकत इकट्ठी कर रहा है। और जब वह मर रहा है तब जन्म लेने की ताकत इकट्ठी कर रहा है। जो एक आदमी जवान हो रहा है तब वह बूढ़े होने की ताकत इकट्ठी कर रहा है। मगर यह हमें दिखाई नहंीं पड़ता, हमें दिखाई नहीं पड़ता। हम जब भी इस कोने से उस कोने जाएंगे तो हम फिर इसी कोने पर वापस लौटने की ताकत इकट्ठी करते रहेंगे। इसलिए कहीं न जाएं, जहां है वहीं रह जाएं। और ऐसा सोचें कि पत्थर वहीं रह गया, जहां था। और वहीं है, वहीं है, और कहीं नहीं जाता। न आगे जाता, न पीछे जाता। फिर ठोकर की कोई जरूरत नहीं है। फिर कुछ भी करने की कोई जरूरत नहीं है। और अंततः ऐसी मनोस्थिति में छूट जाएं तो सब हो जाता है। फिर रह भी नहीं जाता करने को कुछ। मैं तो ध्यान इसी को कहता हूं ऐसी स्थिति को। असल में यह जो मैं कह रहा हूं, यह सतोरी का मतलब है। यह जो मैं कह रहा हूं, जिसमें बिकमिंग नहीं है, बिकमिंग नहीं है जिसमें, जिसमें कुछ होने की दौड़ नहीं है। जिसमें कुछ भी होने की? दौड़ नहीं है, जो है वह है। जिसमें जो है उसकी निंदा नहीं है, और जो नहीं है, उसकी आकांक्षा नहीं है। जो है है। ऐसी स्थिति का नाम सतोरी है। ऐसी स्थिति में जो एक्सप्लोजन आता है, उसका नाम सतोरी है।
समाधि से बहुत अलग बात है। समाधि शब्द से होना तो समाधि का भी यही अर्थ चाहिए। मैं तो यही अर्थ करता हूं, मैं तो समाधि का यही अर्थ करता हूं। समाधि शब्द का मतलब होता हैः समाधान। उसका मतलब हैः अब कुछ न बचा करने को, अब कुछ न बचा पाने को, कुछ न बचा जाने को। समाधान का मतलब होता हैः अगर कुछ भी बचा करने को, कुछ भी बचा जाने को, तो समाधान नहीं। अभी असमाधान है, तो समाधि का मतलब है। और समाधि का दूसरा मतलब होता हैः मृत्यु। वह भी वही मतलब है। इसलिए हम कब्र को भी समाधि कहते हैं। उसका भी वही मतलब है।

मोर मैटर इन दि बुक नंबर दो प्लीज चेक एंड एड --जीवन एक पूजा

वही मतलब है कि जिंदा रहेंगे तो कहीं न कहीं जाएंगे ही आप। क्या जिंदा रहते हुए कोई आदमी ऐसा हो सकता है कि कहीं नहीं जा रहा है? एक अर्थ में मर ही गया, समाधिस्थ हो गया। समाधि का भी मतलब तो सतोरी है, लेकिन जैसा इस मुल्क में समाधि का मतलब चलता है, वह नहीं मतलब रह गया। यहां समाधि का मतलब है, जहां पहुंचना है; सतोरी का मतलब है जहां पहुंच गए। अब जहां कहीं नहीं पहुंचना है, कहीं नहीं जाना है।
आज सांझ को जो मैं कह रहा था वह क्वान है। उस पर ध्यान करिए जो असीम है। अब आप असीम पर ध्यान नहीं कर सकते, क्योंकि जब भी आप ध्यान करेंगे, तो सीमा आ जाएगी। आप असीम को सोच ही नहीं सकते, सोचेंगे तो सीमा आ जाएगी। कितना ही ब.ड़ा सोचेंगे फिर भी सीमा आ जाएगी, फिर भी घेरा आ जाएगा। आप अनादि और अनंत को सोच ही नहीं सकते। कितना ही सोचें, कितना ही सोचें, कभी तो अंत होगा। नहीं, कभी अंत नहीं होता, कभी शुरू नहीं होता, इसको सोच नहीं सकते हैं। कितना ही स्टेज को खींचते चले जाएं, खींचते चले जाएं। क्वान का मतलब है अब्सर्डिटी का बोध--किसी ऐसी चीज का बोध कि जो हो ही नहीं सकती। अगर आप उसको सोचते ही चले जाएं, सोचते ही चले जाएं, तो एक ही परिणाम होगा कि वह तो हो ही नहीं सकती, लेकिन सोचते-सोचते ठप हो जाएगा। दो ही चीजें सोची जा सकती हैं--या तो आप असीम को सोच लें, तो सोचना जीत जाता है, आप और भी बड़े विचारक होकर लौट आते हैं; लेकिन असीम को आप सोच ही नहीं सकते, और सोचना असीम को। यहां अब्सर्डिटी है; जैसे कि दो हाथ की ताली सुनी है बहुत।
किसी फकीर को कहते हैं कि जा, एक कोने में बैठ कर एक हाथ की ताली सुन। वह अब्सर्ड है। वह फिर लौट कर आता है, अपने गुरु से कहता है कि पैर पर मारने से दो हाथ हो गए। वह कहता है दीवाल पर मारने से दो हाथ हो गए। तो खयाल रखना--बिलकुल एक ही हाथ की ताली बजे, उसे तू सुन। और वह एक हाथ की ताली सुनता है, सुनता है। वह तो सुनाई पड़ नहीं सकती और उसका माइंड फौरन दूसरी ताली प्रोवाइड कर देता है। कब तक यह सोचेगा कि दीवाल पर बजा ले, जमीन पर बजा ले! वह गुरु से आकर कहता है। गुरु कहता है कि भाग तू यहां से, तू एक हाथ की ताली सुन कर आ, दो हाथ की नहीं। उसे कमरे में बंद कर देता है। वह भूखा प्यासा बैठा है। वह सोचता है, एक हाथ की ताली...एक हाथ की ताली नहीं बजती! वह कैसे बजे? बज ही नहीं सकती। लेकिन सोचना है, फिर सोचना है।
आखिर वह क्षण आ जाता है कि सोचना एकदम से खो जाता है। वह क्यों खड़ा होगा, क्योंकि जब सोचना हो ही नहीं, तो क्या करिएगा? माइंड जो भी जवाब देता है, वह दो-चार दिन में, खुद ही समझ जाता है कि यह जवाब गड़बड़ है। गुरु फिर भगा देगा। तब वह घबरा जाता है। घबरा जाता है तो फिर आखिर में सोचना एकदम से ठप हो जाता है। कोई चीज एकदम से बंद हो जाती है। उस वक्त जो खुल जाता है, उसका नाम सतोरी है, क्योंकि फिर तो कुछ होगा। वह विचार की दुनिया गई, तो निर्विचार आ गया। निर्विचार में हम जहां रहे, वहीं रह गए। अब कहीं जाना नहीं रहा, कहीं पहुंचना नहीं रहा। सतोरी एक अर्थ में बहुत और बात है गहरे से गहरा मतलब तो समाधि का वही है; लेकिन जैसा इस मुल्क ने पकड़ा है, वह गड़बड़ हो गया है। इस मुल्क में समाधि भी बिकमिंग हो गई है।
एक साधु बैठा है, वह ध्यान कर रहा है, पूजा कर रहा है, पाठ कर रहा है, वह कह रहा है मुझे परमात्मा को पाना है, मुझे मोक्ष को पाना है। वह बिकमिंग की बातें कर रहा है। एक आदमी कह रहा है, उसे धन पाना है; एक आदमी कहता है, भगवान पाना है। दोनों की बातें एक हैं, दिमाग का ट्रेंड एक है, कुछ पाना है। सतोरी वाला कह रहा है कि कुछ पाना नहीं है, जो है, है; न मोक्ष पाना है, न भगवान पाना है, इसलिए वह बड़ी अदभुत बातें भी कह देता है। वह कहता है, संसार और परमात्मा एक ही है। ये दोनों एक ही बात है।
कई दफा ऐसा हुआ कि कोई आदमी आया है पूछने और उस फकीर ने उसको उठा कर खिड़की के बाहर पटक दिया है। जब वह नीचे गिरा है, तो उसने कहा, देख जाग! अब जो वह धम्म से नीचे गिरा, तो विचार तो खो गए। यह तो स्वीकृत है कि वह फकीर कुछ भी कर सकता है। वह आपके घर नहीं आया था, बल्कि आप उससे पूछने आए थे; वह कुछ भी कर सकता है। तब वह हंस रहा है खि.ड़की पर ख.ड़े होकर। वह कहता है, देख! कई दफा ऐसा हो जाता है कि उस चोट में वह एकदम से अवेयर (प्रबुद्ध)हो जाता है। अब वह सुनता है उसकी बात को, और सतोरी हो सकती है। कभी लक.ड़ी की चोट से भी हो सकती है, कभी चांटे से भी हो सकती है, लेकिन काम किए है उन्होंने।
मैं जो बात कह रहा हूं, वह समाधि की है जिसका मैं वही अर्थ करता हूं। मुझसे लोग पूछते हैं कि आप ध्यान कब करते हैं? मैंने कभी ध्यान किया ही नहीं। वे पूछते हैं कि आप कब करते हैं? मैं तो कभी करता ही नहीं और ध्यान को करना क्या है? बस, मैं जैसा हूं, वैसा हूं। जो चल रहा है; वह चल रहा है। न कुछ पाने को है, न जाने को है, न कुछ उपलब्ध करने को है, न कहीं मंजिल है, जो हूं, हूं। फिर ध्यान करने की बात ही नहीं रह जाती। फिर जो हम कर रहे हैं, वही ध्यान है।

प्रश्नः एक सवाल है, सतोरी की जब बात आती है। जब अर्जुन श्री कृष्ण से पूछता है कि आदमी के लक्षण क्या हैं?

तो बता दिया कृष्ण ने, वह नहीं जंचता आपको? मैं तो पूछता नहीं कृष्ण से कुछ, क्योंकि कृष्ण कैसे बता पाएंगे? अर्जुन ने बड़ी गलती की कि पूछा, और भारी गलती हो गई। गीता बहुत पीछे प.ड़ गई। हजारों लोगों की गलती अर्जुन ने की और गीता हजारों को सता रही है। नहीं, मैं तो नहीं पूछता।

प्रश्नः आपने कहा कि पत्थर वहीं पड़ा रहे, आगे क्यों जाए या पीछे क्यों आए। क्या एक जगह खड़े रहना भी क्रांति है?

असल में सवाल यह है कि मैं नहीं कह रहा हूं कि वह एक जगह खड़ा रहेगा। मैं यह कह रहा हूं कि अगर वह अपने स्वभाव में रह जाए। प.ड़े हुए का मतलब यह है कि वह जो है, वह स्वभाव में होना है। जो है, वही है। यानी पत्थर आगे कब जाता है? जब पत्थर फूल बनने की कोशिश करता है तो आगे जाता है, और जब पत्थर धूल बनने की कोशिश करता है तो पीछे जाता है। आगे जाता है, इस आशा में कि फूल बन जाऊं, पीछे चला जाता है तो इस दुख में प.ड़ जाता है कि धूल न बन जाऊं। मैं कह रहा हूं कि वहीं रहने का मतलब यह है कि पत्थर पत्थर है, न उसको फूल बनना है, न धूल बनना है, तब पत्थर की भी अपनी एक फ्लावरिंग है। जेल में पत्थर के भी बगीचे बना लिए हैं, उसकी अपनी फ्लाॅवरिंग है। जब एक पत्थर अपनी पूरी शान में पड़ा होता है तो किस फूल से कम होता है?
किसी पत्थर को हम छूकर देखते नहीं हाथ में उठा कर, न हम उसे प्रेम करते हैं, क्योंकि हमारी पूरी कल्चर बाउंड है, हमारा सब कुछ बाउंड है। न कभी हम पत्थर को उठाकर हाथ में रखते हैं, न कभी हम छूते हैं, न कभी उसे आंखों से लगाते हैं, न उसके कभी स्पर्श लेते हैं। नहीं तो पत्थर भी ऐसी खबरें देगा, जो फूल ने कभी नहीं दी। मेरा यह कहना है कि जो, जो है, अगर वह, वह रह जाए, तो ऐसा नहीं है कि प्रगति नहीं होगी, तब भी प्रगति होगी, लेकिन वह प्रगति दूसरे की तुलना में, दूसरे की दौड़ में नहीं होगी, वह जस्ट आउट ग्रोथ होगी, वह उसके भीतर से आएगी, फैलेगी, फैलेगी। ऐसी होगी, जैसे एक पौधा बड़ा हो रहा है, एक दूसरा पौधा बड़ा हो रहा है। न ही यह पौधा बगल वाले पौधे की फिकर करता है कि तुम ज्यादा बड़े हो गए हो तो मैं भी ज्यादा बड़ा हो जाऊं। एक अपनी जगह बड़ा हो रहा है, दूसरा अपनी जगह बड़ा हो रहा है। लेकिन आदमी में बड़ी गड़बड़ है। वह बगल वाले को देख रहा है कि तुम बड़े हो गए हो, मैं भी थोड़ा बड़ा हो जाऊं। इस सब गड़बड़ में वह जो हो सकता था, वही नहीं हो पा रहा है। मजा यह है कि वह वही हो सकता था, जो वह हो सकता था। वह उसकी अपनी आंतरिक नियति थी, वह जो हो सकता था। मां-बाप, बच्चे को बचपन से, वह सारा का सारा जहर दे रहे हैं।

प्रश्नः आपस में काम्पिटीशन से अच्छा हो सकता है?

इससे कभी अच्छा नहीं हो सकता। तीस बच्चे हैं, एक बच्चा पहला आएगा। जो पहला आएगा, वह पहला होने की वजह से, पागल हो जाएगा। अब जिंदगी भर पहला होने की चेष्टा में लगे रहना पड़ेगा। जिस दिन पहला नहीं हुआ, उसी दिन मुसीबत में पड़ जाएगा, सुसाइड( आत्महत्या)करेगा और यह करेगा, वह करेगा, क्योंकि वह पहला नहीं आया। वह सदा के लिए दीन हो गया! जब दो चार बार पहला आ नहीं पाएगा, तो सदा के लिए हार गया। अब वह जिंदगी भर हारेगा, सब चीजों में हारेगा।
वह अकेले ही कोशिश नहीं कर रहा है, सारी दुनिया कोशिश कर रही है और हम सब की कोशिशें हैं। एक दूसरों की कोशिशों को काट रहे हैं, क्योंकि काम्पिटेटिव (प्रतिस्पद्र्धी)है। मैं यहां बैठा हूं, तुम वहां बैठे हो,तो बड़ी शांति से बात चल रही है। अभी हम इस कमरे में तय कर लें कि सबको यहां बैठना है, तो फिर भी बात चल सकती है, लेकिन वह किस तरह की बात होगी? यहां धक्का-मुक्की शुरू हो जाएगी, क्योंकि वह कोई उसकी टांग खींच रहा है, कोई उसका हाथ खींच रहा है। जो अपनी जगह बैठा है, वह अपनी जगह नहीं बैठा रह जाएगा, क्योंकि उसको यहां होना है। यह कमरा अभी पागल हो जाएगा। हमको दिखाई नहीं पड़ रहा है कि एंबीशन (महत्वकांक्षा)ने और काम्पिटीशन (प्रतिस्पर्द्धिता)ने सारी दुनिया को पागल कर दिया है। अगर मां-बाप बच्चे को प्रेम करते हैं, तो वे कहेंगे कि पहले-दूसरे का सवाल नहीं, तू जो है, सो है। अच्छी शिक्षा होगी, जो तीस लड़के पढ़ेंगे, तीस लड़के पास होंगे, फेल होंगे, लेकिन नंबर एक, नंबर दो कोई भी न होगा। कोई जरूरत नहीं, साल-भर पढ़ा दिया,वे दूसरी कक्षा में चले गए हैं। सर्टिफिकेट उनके पास यही है कि उन्होंने साल भर पढ़ा है। अगर नंबरों का पता है, तो उनके शिक्षकों को पता होना चाहिए। न बच्चों को पता होना चाहिए, न किसी को पता होना चाहिए। नंबरों का पता सिर्फ इसलिए होना चाहिए कि अगले साल जिस बच्चे को कम नंबर मिले, उसके साथ थोड़ी ज्यादा मेहनत की जा सकती है और क्या मतलब है? मेरे हिसाब में तो शिक्षा की पूरी दृष्टि दूसरी है--नाॅन-काम्पिटेटिव (प्रतिस्पद्र्धामुक्त)और नाॅन-एंबीशस (महत्वकांक्षा-मुक्त)। लेकिन हम समझ रहे हैं, बहुत अच्छा कर रहे हैं। हमारी अपनी महत्वकांक्षाएं रह जाती हैं अधूरी। बच्चों की छाती पर चढ़कर उनको पूरी कर रहे हैं।

प्रश्नः अगर वे आगे नहीं बढ़ेंगे तो?

उत्तरः बड़ा मजा यह है कि अगर हम ध्यान करेंगे, इस दुनिया में जिन साइंटिस्टों ने कुछ दिया है, उनको किसी से आगे बढ़नेे का कुछ खयाल ही नहीं था। उनकी अपनी खुशी और अपना आनंद है। आइंस्टीन, दुनिया आगे बढ़ेगी या पीछे हटेगी, इस हिसाब से नहीं कर रहा था काम। उस आनंद की खोज से दुनिया आगे जा रही है, पीछे जा रही है, यह दुनिया जाने!

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