दसवां-प्रवचन-(शाश्वत संगीत भीतर है)
प्रश्न-सार
01-॰ मैं सुखी होना चाहता हूं। अहंकार को मिटाने से तो मैं स्वयं ही मिट जाऊंगा; और मैं रहूंगा ही नहीं तो सुखी कैसे होऊंगा? अस्तित्व खोने की अपेक्षा दुखमय अस्तित्व ही क्यों न ठीक होगा?02-॰ संतों में किसी ने उस परम अनुभूति को प्रकाश कहा है, किसी ने रंगों की होली, किसी ने अमृत का स्वाद। यह भेद क्यों?
03-॰ भगवान,
जगजीवन के साथ मेरे जीवन का अंतिम मोड़ आ चुका है। आपके चरणों में लपटाई रहूं, यही प्रार्थना है।
पहला प्रश्नः मैं सुखी होना चाहता हूं। मैं जो भी करता हूं, सो सुखी होने की आशा में ही करता हूं। अब मैं धर्म साधने आया हूं, सो भी उसी आशा में। आप कहते हैं--अहंकार को मिटाओ। इससे मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार को मिटाने से मैं स्वयं ही मिट जाऊंगा; फिर मैं रहूंगा ही नहीं, तो सुखी कैसे होऊंगा? अस्तित्व खोने की अपेक्षा दुखमय अस्तित्व ही क्यों न ठीक होगा?
स्वरूपानंद! जीवन की सबसे बड़ी समस्या यही है, सबसे मूलभूत प्रश्न यही है। अहंकार जब तक है, तब तक सुख नहीं। क्योंकि अहंकार जब तक है तब तक परमात्मा से मिलन नहीं। और जब परमात्मा से मिलन होगा, सुख की वर्षा होगी, तो अहंकार न बच सकेगा--अहंकार को न बचा सकोगे। ‘मैं’ के मिट जाने से ही द्वार खुलते हैं।
पर एक बात ख्याल में रख लेना। ‘मैं’ के मिट जाने का यह अर्थ नहीं है कि तुम मिट जाते हो। वहां तुम्हारी भूल हो रही है। ‘मैं’ की वजह से तुम मिटे हुए हो। तुम हो क्या खाक! ‘मैं’ के कारण ही तुम मिटे हुए हो। तुम्हारा होना ऐसा ही है जैसे सिरदर्द के कारण सिर का होना। यद्यपि यह सच है कि सिरदर्द होता है तभी सिर का पता चलता है। नहीं तो सिर का कहां पता चलता है? लेकिन क्या सिर का पता चलाने को सिरदर्द चाहोगे? जब सिर में दर्द नहीं होता तो भी सिर तो होता है, पता नहीं चलता! चलने की जरूरत नहीं रह जाती। जब शरीर परिपूर्ण स्वस्थ होता है तो शरीर का पता नहीं चलता। बीमारी में ही पता चलता है।
इसलिए हमारे पास एक प्यारा शब्द है, दुनिया की किसी भाषा में नहीं। वह शब्द हैः वेदना। वेदना के दो अर्थ हैंः ज्ञान और दुख। वेदना उसी धातु से बना है जिससे वेद, विद्वान। वेदना का अर्थ हैः ज्ञान। और वेदना का अर्थ दुख भी। यह अनूठा शब्द है। और इन दोनों का क्या मेल होगा--दुख और ज्ञान का? मेल है। हमें किसी चीज का ज्ञान ही तब होता है जब कांटे की तरह कुछ चुभे। पैर में कांटा लगे तो पैर का पता चलता है। जूता पैर को काटे तो पैर का पता चलता है। अगर जूता बिल्कुल न काटता हो पैर को तो पैर का पता नहीं चलता।
लेकिन पता चलना और होने में फर्क है। सिर तो तब भी रहेगा जब सिरदर्द न रहेगा; लेकिन पता नहीं चलेगा। तुम तो तब भी रहोगे जब अहंकार नहीं रहेगा। अहंकार तो घाव है, चोट है, पीड़ा है--वेदना है। जब अहंकार चला जाएगा, तब भी तुम रहोगे। वेदनामुक्त, स्वस्थ। सारे घाव विदा हो गए। एक सन्नाटा होगा, एक शांति होगी; एक नीरव संगीत होगा। मिट नहीं जाओगे तुम, पहली दफा होओगे। अभी मिटे हुए हो। सिरदर्द के कारण सिर मिटा जा रहा है।
लेकिन अभी तुमने एक ही जीवन की व्यवस्था जानी--अहंकार की। और इस अहंकार के कारण तुम दुख तक को जीने को राजी हो। तुम कहते हो, यही बेहतर है, फिर दुख को ही पकड़े रहें, कम से कम हैं तो। और मैं तुम्हारा तर्क समझता हूं। यही तो सभी का तर्क है। इसीलिए तो लोग अहंकार नहीं छोड़ रहे हैं। क्योंकि उन्हें लगता है, अहंकार गया तो हम गए, फिर सुख किसको होगा? सुख किसी को नहीं होता, सुख होता है। दुख किसी को होता है। दुख में दो होते हैं। जिसको होता है, वह, और जो होता है, वह। जब सिरदर्द होता है तब दो होते हैं--सिर और सिरदर्द। द्वंद्व होता है, दुई होती है। जब पैर का पता चलता है कांटे के चुभने से तो दो होते हैं--कांटा और पैर होते हैं। जब कांटा निकल गया, पैर ही बचा, अब सुख होता है। लेकिन किसको होता है?
सुख का भी पता नहीं चलता।
तुम्हें कभी पता चलता है? तुम कभी ऐसा तो नहीं कहते लोगों से कि आज बड़ा अच्छा लग रहा है, सिर में भी दर्द नहीं है, पैर में कांटा भी नहीं गड़ा है, कमर में भी दर्द नहीं हो रहा है--बड़ा आनंद आ रहा है। अगर तुम इतना हिसाब रखो कितना-कितना नहीं हो रहा है, तो तुम्हारे आनंद की फेहरिश्त बड़ी लंबी हो जाएगी, शरीर में हजारों चीजें हैं, लाखों चीजें हैं, सब ठीक चल रही हैं। मगर किसी का तुम्हें पता नहीं चल रहा है। पता तुम्हें उसका चल रहा है जो ठीक नहीं चल रही है। जहां गड़बड़ हो रही है, उसका पता चल रहा है। पता चलने का अर्थ ही यही है कि शरीर यह कह रहा है कि कुछ करो, यहां कुछ अड़चन आ गई है, इस कांटे को अलग करो।
अहंकार का पता चलता है, आत्मा का पता नहीं चलता। आत्मा लापता है। उसकी अनुभूति होती है, अनुभव नहीं होता। उसकी प्रतीति होती है, मगर प्रत्यक्ष नहीं होता।
तुम मिट जाओगे तो सुख होगा। सुख द्वंद्व में होता ही नहीं। अभी भी कभी तुम्हारे जीवन में अगर सुख की एकाध किरण उतर आती है, तो उस क्षण तुम मिट जाते हो। देखा तुमने सांझ को डूबता हुआ सूरज, आकाश में सतरंगे बादल; घर, नीड़ों को लौटते हुए पक्षी, सांझ की उतरती हुई पायलों की झंकार; अंधेरा आता है, रात उतरने लगी, सब शांत-सन्नाटा होने लगा, और तुम क्षण भर को खो गए--डूबते सूरज को देख कर, लौटते पक्षियों को देख कर, आकाश में रंगीन बादलों को भटकते देख कर, क्षण भर को तुम खो गए, क्षण भर को तुम न रहे, तभी सुख हुआ। फिर पीछे तुम कहते हो कि बड़ी सुखद सांझ थी! बड़ा प्यारा सूरज डूब रहा था! या एक मित्र घर आ गया, बहुत दिन का बिछड़ा प्यारा घर आ गया, तुम छाती से लग गए, क्षण भर को तुम भूल गए, क्षण भर को अहंकार न रहा, क्षण भर को विस्मरण हो गया अपना, क्षण भर को सिरदर्द न रहा। फिर पीछे तुम कहते हो--बड़ा सुख मिला! मित्र को मिल कर बड़ा सुख मिला! मित्र को मिल कर सुख नहीं मिला, न सूरज को डूबते देख कर सुख मिला, न कोयल के गीत की झंकार सुन कर सुख मिला, सुख मिलता है तभी जब तुम किसी भी निमित्त से अहंकार को भूल जाते हो।
मुझे सुन रहे हो, जिन्हें मुझे सुन कर सुख मिलता है, वे जरा सोचें। सुख मिलता इसीलिए है कि मुझे सुनते-सुनते तुम अपने को भूल जाते हो। और कुछ नहीं कारण है। जो अपने को नहीं भूल पाता मुझे सुनते समय, उसे सुख नहीं मिलेगा। जिसके सिर में हजार विचार चल रहे हैं, जो सोच रहा है, विचार कर रहा है, हिसाब लगा रहा है, उसे सुख नहीं मिलेगा। जो मस्त हो गया, जो मेरे साथ एक हो गया, जो भूल ही गया कि है--तुम जब वहां मिट जाते हो, तुम जब वहां नहीं होते अहंकार की तरह, विचार की तरह, मन की तरह, जब वेदना नहीं होती तब भी तुम होते तो हो! यहां देखते हो, सन्नाटा है। कोई अचानक पास से गुजर जाएगा, उसे पता भी न चलेगा कि पांच सौ लोग बैठ कर यहां कुछ कर रहे हैं। जहां पांच सौ लोग होते हैं वहां तो बाजार भर जाता है!
ऐसा हुआ!
अजातशत्रु, बुद्ध के समय का एक सम्राट--और जैसे सम्राट होते हैं, सदा भयभीत, डरा हुआ। न मालूम कितने लोगों को मरवा डाला है उसने; अपने बाप तक को कैद में डाल दिया है; कैसे न डरेगा? कैसे न भयभीत होगा? कब कौन मार दे, कब कौन गोली चला दे, कब कौन छुरा भोंक दे! उसके वजीरों ने उसे कहा, बुद्ध का आगमन हुआ है, आप भी चलेंगे सत्संग को? उसने पूछा, कितने लोग बुद्ध के साथ आए हैं? पता चला दस हजार भिक्षु आए हैं। कहां ठहरे हैं? सब उसने पता लिया, ठिकाना लिया; उसने कहा, अच्छा मैं चलूंगा।
जब वह गया तो पूछता जाता कि अभी तक आया नहीं स्थान? तब उन्होंने कहा कि अब देखें, यह जो दूर अमराई दिखती है आमों की, बस इसी में बुद्ध ठहरे हैं। पास ही थी अमराई, थोड़े ही कदमों का फासला। अजातशत्रु ने अपनी तलवार निकाल ली! वजीरों ने कहा, आप तलवार क्यों निकाल रहे हैं? उसने कहा मुझे शक होता है, मुझे किसी धोखे का शक होता है। अगर दस हजार लोग यहां ठहरे हैं तो बाजार मचा होता! न कोई आवाज है, न कोई शोरगुल है। यहां तो लगता है अमराई खाली पड़ी है। मुझे कोई चहल-पहल नहीं दिखाई पड़ती। तुम मुझे कुछ धोखा तो नहीं दे रहे हो? तुम मुझे किसी शडयंत्र में तो नहीं डाल रहे हो? वे वजीर हंसने लगे, उन्होंने कहा कि आप निश्चिंत होकर तलवार भीतर कर लें, आपको बुद्ध के पास के लोगों का पता नहीं है। वह ऐसे हैं जैसे नहीं हैं। उनकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है। यही तो रहस्य है। यही तो उनका रस है, यही उनका आनंद है कि वे मिट गए हैं। और मिट कर हो गए हैं। एक और ढंग है उनके होने का। उनकी शैली और है। वे ध्यान को उपलब्ध लोग हैं। आप तो तलवार भीतर कर लें, आप व्यर्थ परेशान न हों, कोई शडयंत्र नहीं है। जरा चार कदम और--और हम पहुंच जाते हैं अमराई में।
और अजातशत्रु अमराई में पहुंचा तो चौंक गया। तलवार उसने यद्यपि रख ली म्यान में लेकिन मुट्ठी पर उसका हाथ रहा। जब अमराई में पहुंच गया, तब उसने तलवार से हाथ छोड़ा। निश्चित ही दस हजार लोग थे। सन्नाटा था। बुद्ध के साथ चुपचाप बैठे थे। समय था ध्यान का, सब ध्यान में लीन थे। जैसे वहां एक भी व्यक्ति न हो।
तुम्हें मुझे सुनकर कभी जब सुख की थोड़ी सी झलक मिलती है, तो वह इसलिए मिलती है कि तुम उस घड़ी में अपने को भूल गए होते हो। मिट तो नहीं जाते, तुम होते तो हो ही, मगर यह होने का नया ढंग है, यह नई शैली है। एक होने का ढंग है रुग्ण, विक्षिप्त, ज्वरग्रस्त। और एक होने का ढंग है, स्वस्थ, शांत, निर्मल, ध्यानस्थ।
स्वरूपानंद, तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो, मैं सुख की तलाश करता हूं। जीवन भर सुख की ही खोज करता रहा हूं। सुखी होने की आशा में ही जीता रहा हूं। लेकिन तुमने सुख पाया कहां? जरा इस पर विचार करके देखो। जीवन भर सुख पाने के लिए जिए हो, सुख मिला कहां? अगर जीवन भर कोई सुख पाने की तलाश करे और सुख न मिले, तो विचार तो करना चाहिए--कहीं हमारी खोज में ही बुनियादी भूल तो नहीं है। और तुम्हारी अकेले की ही बात होती तो ठीक था, इस जगत में किसको सुख की खोज करने से सुख मिला है? किसी को भी नहीं। जो सुख की खोज करता है वह तो सुख पाता ही नहीं, जितनी खोज करता है वह उतना सुख दूर होता चला जाता है। क्योंकि जितनी खोज करता है, उतना ही अहंकार। और अहंकार को बचा कर कोई कभी सुखी नहीं हो सकता।
यह तो ऐसा हुआ ही कि सिरदर्द को बचा कर तुम चाहते हो कि सिरदर्द ठीक हो जाए। यह असंभव है। तुम चाहते हो, कांटा तो गड़ा रहे--कांटे से तुम्हें मोह हो गया है। हो सकता है कांटा सोने का हो, हीरे-जवाहरात जड़ा हो--कांटे का तुम्हें मोह हो गया है और तुम चाहते हो, पैर में जो पीड़ा होती है वह भी मिट जाए। तुम असंभव की कामना कर रहे हो। और तुम्हीं नहीं; सारा जगत तुम्हारे जैसे ही लोगों से भरा है, स्वरूपानंद! और यहां तुम दुखी ही दुखी लोग देखते हो। यहां कब तुम्हें सुखी आदमी मिलता है! बड़ी मुश्किल से। और जब भी सुखी आदमी मिलेगा, वह तुमसे यही कहेगा कि मिट जाओ तो सुख हो। सुख होता ही तब है जब तुम नहीं होते। तुम्हारे और सुख के, दोनों के साथ-साथ होने का कोई उपाय नहीं, तुम कांटे हो। लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हारे मिट जाने पर भी तुम्हारा एक और तरह का होना शेष रह जाता है। लेकिन वह होना बड़ा भिन्न है। उस होने का नाम ही आत्मा है।
तो होने के दो ढंग। एक अहंकार, एक आत्मा। अहंकार दुखद ढंग है होने को, नारकीय ढंग है होने का। आत्मा सुखद ढंग है होने का, आनंदपूर्ण ढंग है... होने का। अहंकार को पकड़ोगे तो आत्मा से चूकते रहोगे। अहंकार छोड़ोगे तो आत्मा की उपलब्धि तत्क्षण हो जाती है।
अहंकार को तो छोड़ना ही होगा। इसे बिना छोड़े कोई उपाय नहीं है। और छोड़ कर तुम पाओगे, मिटे नहीं, पहली दफा हुए। छोटे से बड़े हुए। जैसे बूंद सागर में गिर जाए। तो लगता तो ऐसा ही है कि मिट गई बूंद, मगर यह एक तरफ से लगता है कि मिट गई। अहंकार की तरफ से लगता है कि मिट गई, जरा दूसरी तरफ से भी सोचो, एक और तरफ से भी द्वार खुलता है, कि बूंद सागर हो गई।
जब बूंद सागर में गिरती है तो होता क्या है, घटना क्या घटती है? उसकी सीमाएं टूट जाती हैं, बूंद तो नहीं टूटती। बूंद तो अब भी है। मगर अब सीमित नहीं है। वह जो क्षुद्र सी सीमा थी, वह सीमा खो गई। वह अब सागर की सीमा के साथ लीन हो गई। और अब बूंद उतनी ही बड़ी है जितना बड़ा सागर है।
उतने ही बड़े तुम हो, जितना बड़ा सागर है। चाहो बूंद की तरह रहो, यह एक ढंग है अहंकार का। फिर दुखी रहोगेः क्योंकि सीमा में दुख है। क्योंकि सीमा में बंधन है। क्योंकि सीमा कारागृह है। नाचोगे कैसे? गाओगे कैसे? हर तरफ दीवाल आ जाती है। कहीं पंख फैलाने का मौका नहीं मिलता। आकाश नहीं मिलता उड़ने को। यह तुम्हारे जीवन भर का अनुभव है कि तुमने सुख खोजा और सुख नहीं पाया।
अब तुम कहते हो, मैं सुखी होना चाहता हूं। सभी होना चाहते हैं। मगर सभी दुखी हैं, यह ख्याल रखना। सभी सुखी होना चाहते हैं और सभी दुखी हैं! यह दुर्घटना कैसे घट रही है? जब सभी सुखी होना चाहते हैं तो अधिकतम लोग तो सुखी होने ही चाहिए। हां, कुछ लोग भूल-चूक करें, समझ में आ जाएगा। मगर हालत उलटी है। सभी सुख चाहते हैं और सभी दुखी हैं। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि सुख की चाह में ही दुख पैदा होता है। क्योंकि जिन्होंने सुख की चाह छोड़ दी, उनके वक्तव्य बड़े भिन्न हैं। वे कहते हैं, सुख की चाह छोड़ी कि हम सुखी हो गए। इसलिए उन्होंने सुख के लिए नया नाम खोजा--आनंद; ताकि तुम्हें भ्रांति न हो। नहीं तो तुम यही समझोगे कि तुम्हारा ही सुख है।
इसलिए बुद्ध नहीं कहते कि सुख मिलेगा। क्योंकि सुख कहने से तुम्हारी पुरानी भ्रांति को कहीं बल न मिले! कहीं तुम सुख की खोज में ही न लगे रहो! तो बुद्ध कहते हैं, वासना छोड़नी होगी, कामना छोड़नी होगी, तृष्णा छोड़नी होगी। यह जो सुख की कामना है, यही तुम्हारे दुःख का आधार है। जिस दिन तुम यह देख लोगे, उसी दिन धर्म का सूत्रपात होता है। लेकिन तुम तो यह कह रहे हो कि मैं जो भी करता हूं, सुखी होने की आशा में करता हूं। पर यह तो देखो कि मिलता तो दुख है, तुम्हारी आशा से क्या संबंध है; तुम ऐसा ही समझो कि तुम तो बड़ी आशा से रेत से तेल निचोड़ना चाहते हो, मगर निकलता कहां तेल! तुम्हारी आशा से रेत से तेल निकल भी नहीं सकता, तुम्हारी आशा से रेत से तेल निकलने का संबंध क्या है? रेत में तेल होना चाहिए तो निकले। और तुम चारों तरफ लोगों को देख रहे हो कि सब रेत को पीस रहे हैं; तेल निकालने की कोशिश में लगे हैं, तेल का कोई पता नहीं।
तुम सुख की आशा से पाए नहीं सुख! सुख की आशा में भ्रांति है। सुख की आशा से ही दुख पैदा होता है। कैसे दुख होता है सुख की आशा से, उसे समझो।
तुम सोचते हो, इस बड़े महल में आवास हो जाए तो सुख हो। अब तुमने दुख के उपाय शुरू किए। अब तुम जिस झोपड़े में रहते हो, इसमें तुम्हें सुख नहीं हो सकता, पहली बात। तुलना सामने आ गई। यह महल तुम्हें सुख का सपना दे रहा है। तुम्हारा झोपड़ा इस महल के कारण, इस महल की तुलना में बहुत भद्दा हो गया, बहुत कुरूप हो गया, बहुत छोटा हो गया, बहुत तुच्छ हो गया। नहीं तो कोई झोपड़ा तुच्छ नहीं है। तुलना में ही तुच्छ होता है। झोपड़ा अपने आप में सिर्प झोपड़ा है। रहने की जगह है। न अच्छा है, न बुरा है। एक सुविधा है। लेकिन जैसे ही तुमने महल पर नजर बांधी, तुम दुखी हो गए। रहोगे तो अभी झोपड़े में, एकदम से महल में तो नहीं पहुंच जाओगे, रहोगे झोपड़े में, लेकिन अब दुखी हो गए। अब दुखी रहोगे तुम्हारे पास दस हजार रुपये थे और तुमने कहा, जब तक लाख न हो जाएंगे तब तक मैं कैसे सुखी हो सकता हूं। अब दस हजार में सुख नहीं मिलता, दस हजार से पीड़ा मिलती है, कष्ट होता है कि सिर्प दस हजार! बस दस हजार! गरीबी पता चलती है।
अमरीका का बहुत बड़ा अरबपति एण्ड्रू कारनेगी मरा तो दस अरब रुपये छोड़ कर मरा। मरने के दो घंटे पहले जो व्यक्ति उसकी जीवन-कथा लिख रहा था उसने पूछा, कारनेगी से कि आप तो तृप्त जा रहे होंगे? आप तो संतुष्ट जा रहे होंगे? दस अरब रुपया छोड़ कर कोई आदमी नहीं मरा है! नगद! एण्ड्रू कारनेगी ने आंखें खोलीं और बड़ी उदासी से कहा कि मैं एक हारा हुआ आदमी हूं, मैं पराजित जा रहा हूं, मैं दुखी जा रहा हूं, क्योंकि मेरी योजना सौ अरब रुपये कमाने की थी। नब्बे अरब से हार हुई है मेरी, कोई छोटी-मोटी हार नहीं है।
अब तुम समझो थोड़ा। दस अरब जिसके पास हैं, वह कह रहा है--नब्बे अरब से मेरी हार हुई है। कोई छोटी-मोटी हार नहीं है मेरी! अगर इस तरह से सोचो तो तुम कहीं ज्यादा सफल हो। क्योंकि नब्बे अरब से नहीं हारे हो। तुमने अगर दस हजार चाहे थे और हजार ही तुम्हारे पास हैं, तो नौ ही हजार से हारे हो। तुम्हारा दुख छोटा है। एण्ड्रू कारनेगी का दुख बड़ा है निश्चित बड़ा है। नब्बे अरब रुपये का दुख है! छाती पर पत्थर है, हिमालय रखा है!
मगर दस अरब रुपये कष्ट दे रहे हैं उसे, यह समझो! क्योंकि सौ अरब की योजना है। तुमने अगर महल पर नजर बांध ली तो तुम झोंपड़े में दुखी हो गए, पहली बात; दुख की शुरुआत हो गई। तुम्हारा दुख उतना ही बड़ा होगा जितना बड़ा महल तुमने अपनी कल्पना में सोचा है। उसी अनुपात में होगा तुम्हारा दुख। ख्याल रखना, एण्ड्रू कारनेगी की बात कि नब्बे अरब रुपयों से हार कर जा रहा हूं। पराजित! सर्वहारा! भिखमंगा भी इस बुरी तरह नहीं मरता। क्योंकि भिखमंगे की योजना ही बड़ी नहीं होती, तो दुख बड़ा नहीं हो सकता। दुख तुम्हारी आशा के अनुकूल होता है, आशा के अनुपात में होता है। और तुम्हारी बड़ी आशाएं हैं, यह मिले, वह मिले!
जितनी तुम्हारी कामनाएं हैं, उतना बड़ा तुम्हारा दुख है। जिओगे तो तुम वहां जहां तुम हो और आशाएं तुमने बांध रखी हैं बड़ी-बड़ी, वे सब तुम्हारे आस-पास प्रेतों की तरह खड़ी हो गई हैं। तुम्हें सताएंगी--बुरी तरह सताएंगी! इससे तुम दुखी हो रहे हो। तुम दुखी अपनी जीवन की स्थिति के कारण नहीं हो रहे हो, तुम अपनी तृष्णाओं के कारण दुखी हो रहे हो। तो जितनी बड़ी तृष्णा होगी, उतना बड़ा दुख होगा।
एक फकीर था अकबर के जमाने में। मरने के करीब आया तो उसने कहा कि मेरे पास कुछ पैसे इकट्ठे हो गए हैं--लोग फेंकते जाते हैं--मैं इस गांव के सबसे गरीब आदमी को दे देना चाहता हूं। बहुत लोग आए, गरीबी के दावेदार आए, बिल्कुल नंगे फकीर आए, उन्होंने कहा, हमसे ज्यादा गरीब और कौन होगा, हमारे पास कपड़ा भी नहीं है। मगर उसने कहा कि ठहरो, अभी सबसे बड़े गरीब आदमी को आने दो। लोगों ने कहा, लेकिन अब और तुम किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? अब और कौन गरीब होगा? यह देखते आदमी, लंगड़ा, लूला, कोढ़ी, नंगा, अब और क्या होगा? इसके पास कुछ नहीं है। और भी आए। कोई अंधा था, कोई कुछ था, कोई कुछ था। मगर वह आदमी कहने लगा कि नहीं, सबसे बड़ा गरीब जब आएगा।
और जिस दिन अकबर की सवारी निकली उसके झोंपड़े के सामने से, उसने पूरी थैली जाकर अकबर को भेंट कर दी। अकबर को भी खबर लग गई थी उसकी कि उसने यह घोषणा कर दीया है। अकबर ने कहा कि मामला क्या है, तुम मुझे दे रहे हो? तुमने तो घोषणा की थी, सबसे बड़े गरीब को। वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा, तुमसे बड़ा गरीब इस राजधानी में कोई और नहीं। मैं तुम्हारा दुख जानता हूं, इसलिए तुमको दे रहा हूं। हालांकि मेरी थैली से कुछ ज्यादा नहीं होगा--पत्र-पुष्प समझो, फूल की पांखुड़ी, तुम्हारी तृष्णाओं के जाल में कुछ इससे बहुत फर्क नहीं पड़ेगा--मगर मैं तुम्हें यह याद दिलाना चाहता हूं कि तुम सबसे बड़े गारीब आदमी हो यहां। क्योंकि तुम्हारी आकांक्षाएं सबसे बड़ी हैं।
आकांक्षाओं के अनुपात में आदमी गरीब होता है। उसी अनुपात में दुखी होता है। फिर तुम्हारी आकांक्षाएं बहुत हैं। सुंदरतम देह होनी चाहिए; तो गरीब हो गए। कुरूप हो गए। धन होना चाहिए, तो निर्धन हो गए। महल होना चाहिए, तो जिस मकान में रहते थे वह झोपड़ा हो गया। झोपड़पट्टी हो गया। एक सुंदर स्त्री होनी चाहिए, क्लियोपैत्रा जैसी सुंदर हो, कि नूरजहां हो, कि मुमताज महल हो, बस तुम्हारी स्त्री एकदम कुरूप हो गई। बेढंगी हो गई। तुम्हारा बेटा अलबर्ट, आइंस्टीन जैसा बुद्धिमान हो, बस, अड़चन हो गई। अब तुम्हारा बेटा बुद्धू हो गया। अब तुम दुख ही दुख में घिरे जा रहे हो। फिर तुम हिसाब लगा सकते हो। अपनी फेहरिश्त बनाना कि क्या-क्या तुम चाहते हो, जिससे तुम सुखी होओगे? उसी के कारण तुम दुखी हो।
जरा फेहरिश्त को बिदा कर दो, तुम्हारा बेटा तुम्हारा बेटा है। अलबर्ट आइंस्टीन से क्या लेना-देना? और अगर तुम किसी से तुलना न करो--और जो आशा नहीं करता; वह तुलना नहीं करता; तुलना आशा की छाया है--तब तुम्हारा बेटा जैसा है वैसा है। जरा भी दुख देने वाली नहीं है। कोई कारण दुख का नहीं रह गया। तुम्हारे पास दस हजार रुपये हैं, तो तुम दस हजार रुपये से जो सुख ले सकते हो लोगे। क्योंकि ऐसे लोग हैं बहुत, जिनके पास दस रुपये भी नहीं हैं। और जिनके पास दस रुपये नहीं हैं, वे सोचते हैं, दस हजार हो जाएं तो सुखी हो जाएंगे। तुम जरा सोचो, तुम्हारे पास दस हजार हैं, मगर तुम सुखी कहां हो? और तुम सोचते हो, दस अरब हो जाएं तो हम सुखी हो जाएंगे--तो एण्ड्रू कारनेगी का विचार करना। एण्ड्रू कारनेगी के पास दस अरब हैं, सुखी कहां है?
तुम्हारी तुलनाओं को विदा करके देखो और तुम अचानक पाओगे, दुख के पहाड़ कट गए, छंट गए।
बुद्ध ने कहा है, तृष्णा दुख का मूल है।
तो एक बात, तृष्णा जितनी बड़ी होगी, उतना बड़ा दुःख होता चला जाता है।
दूसरी बात, तुम अगर इन तृष्णाओं को किसी तरह पूरा भी कर लो, सारी जिंदगी दुख उठा-उठा कर, नरक झेल-झेल कर, भीख मांग-मांग कर, चोरी करके, बेईमानी करके, सब तरह की जालसाजियां करके किसी तरह तुम महल में पहुंच जाओ, तो भी तुम सुखी नहीं हो सकोगे। क्योंकि... वासना का दूसरा रंग भी समझ लो।
जो मिल जाता है, वासना उसीको भूल जाती है। जो नहीं मिलता उसीको याद रखती है। दस हजार रुपये हैं तो लाख की मांग करती है। जब लाख हो जाएंगे तो दस लाख की मांग करेगी। तुम्हारी और तुम्हारी वासना का अंतर सदा उतना ही रहता है जितना पहले था--उसमें अंतर नहीं पड़ता। वासना और मनुष्य के बीच जो संबंध है, वह क्षितिज जैसा है। जैसे दूर पास ही कुछ मील चल कर आकाश जुड़ता हुआ लगता है पृथ्वी से। तुम सोचते हो, घंटे दो घंटे चलूंगा तो पहुंच जाऊंगा जहां आकाश जमीन से मिलता है। या बहुत होगा तो सांझ, सुबह चलूंगा तो सांझ तक पहुंच जाऊंगा। मगर तुम कभी नहीं पहुंच पाओगे क्योंकि जितने तुम आगे बढ़ जाओगे उतना ही क्षितिज आगे बढ़ जाता है। क्षितिज कहीं है नहीं, सिर्प आभास है। ऐसी ही तुम्हारी वासना बढ़ती चली जाती है। तुम झोंपड़े में हो, तो मकान मांगती है; मकान में होते हो तो महल मांगती है, महल में हो जाते हो, और बड़ा महल मांगती है। वासना का अर्थ होता है, और... और... और... । वह वासना का स्वरूप है। वह कभी भी नहीं कहती कि बस, पर्याप्त। पर्याप्त शब्द वासना को आता ही नहीं। वह उसकी भाषा में नहीं है।
इसलिए सुख होगा कैसे? तुम नहीं पहुंचे तब तक दुःखी रहोगे और पहुंच गए तो नये दुख और नये क्षितिज निर्मित हो जाएंगे। और भी एक मजे की बात है। समझ लो कल्पना के लिए, सिर्प उदाहरण के लिए, कि तुमने सब पा लिया जो तुम पाना चाहते थे, अब पाने को कुछ भी कहीं बचा... समझ लो; ऐसा कभी होता नहीं है, न कभी हुआ है, न कभी होगा, लेकिन सिर्प विचार के लिए, काल्पनिक दृष्टांत समझ लो, मान लो कि तुमने सब पा लिया जो तुम पाना चाहते थे--सुंदरतम स्त्री तुम्हें मिल गई, सुंदरतम महल तुम्हें मिल गया, सारी सम्पदा जगत की मिल गई, तुम चक्रवर्ती सम्राट हो गए, तो क्या तुम सोचते हो तृप्ति हो जाएगी?
मैंने सुना है, सिकंदर जब भारत-विजय के लिए आता था, तो एक ज्योतिषी को उसने अपना हाथ दिखाया और कहा कि मैं विश्व-विजय को निकला हूं, सारी दुनिया को जीत कर दिखलाना है, अब तक कोई आदमी यह नहीं कर पाया, मैं करके दिखाऊंगा। ज्योतिषी ने हाथ देखा, उसने कहा कि यह तो ठीक है, लेकिन तुमने इसके आगे के संबंध में सोचा? सिकंदर ने पूछा, आगे और क्या है? जब पूरी दुनिया जीत ली तो आगे क्या है? नहीं उस ज्यातिषी ने कहा, इतना ही कहता हूं कि दूसरी कोई और दुनिया नहीं है। अगर जीत लोगे, फिर क्या करोगे? और कहानी यह कहती है कि सिकंदर यह सुन कर उदास हो गया कि दूसरी दुनिया नहीं है।
अभी जीती नहीं है।
मगर अगर जीत लोगे तो फिर क्या करोगे? तुम्हारी सारी ऊर्जा, तुम्हारी सारी महत्वाकांक्षा एकदम से चारों खाने चित्त जमीन पर गिर पड़ेगी। फिर करोगे क्या? एकदम उदास हो जाओगे, एकदम हार जाओगे; करने को कुछ भी न बचेगा; आत्मघात के अतिरिक्त और क्या बचेगा? और कहते हैं, सिकंदर उदास हो गया था यह बात सुनकर कि दूसरी कोई दुनिया नहीं। उसके हाथ-पैर शिथिल हो गए थे। अभी यह दुनिया जीती नहीं है; लेकिन अगर जीत लोगे तो फिर क्या करोगे?
कल्पना कर लो कि तुमने सब पा लिया, फिर क्या करोगे? एकदम छाती धक्क से रह जाएगी। क्योंकि करने की आशा में जीते रहे थे। यह करना है, वह करना है; उसी में उलझे रहे थे। अब सब मिल गया, अब कुछ करने को नहीं बचा, अब तुम्हारी दौड़-धूप, तुम्हारी अतीत की यात्रा, सब व्यर्थ हो गई। अब तुम करोगे क्या? जरा सोचो उस विषाद को जो तुम्हें घेर लेगा! कोई आशाओं, कल्पनाओं, कामनाओं, तृष्णाओं के माध्यम से सुख तक तो पहुंचता नहीं, दुख बहुत झेलता है।
तुम पूछते हो, ‘मैं सुखी होना चाहता हूं। और जो भी करता हूं, सुखी होने की आशा में ही करता हूं।’ यह तो ठीक है। यह तो सभी कर रहे हैं। दूसरी बात गौर करो; इसी कारण दुख पैदा हो रहा है। एक बार जरा क्षण भर को ऐसा सोचो कि चौबीस घंटे के लिए सारी कामना छोड़ दो--सुख की कामना भी छोड़ दो। चौबीस घंटे में कुछ हर्जा नहीं हो जाएगा, कुछ खास नुकसान नहीं हो जाएगा। ऐसे भी इतने दिन वासना कर-कर के क्या मिल गया है? चौबीस घंटे मेरी मानो। चौबीस घंटे के लिए सारी वासना छोड़ दो। कुछ पाने की आशा मत रखो। कुछ होने की आशा मत रखो। एक क्रांति घट जाएगी चौबीस घंटे में। तुम अचानक पाओगे, जो है, परम तृप्तिदायी है। जो भी है। रुखी-सूखी रोटी भी बहुत सुस्वादु है। क्योंकि अब कोई कल्पना न रही। अब किसी कल्पना में उसकी तुलना न रही। जैसा भी है, परम तृप्तिदायी है।
यह अस्तित्व आनंद ही आनंद से भरपूर है। पर हम इसके आनंद भोगने के लिए कभी मौका ही नहीं पाते। हम दौड़े-दौड़े हैं, भागे-भागे हैं। हम ठहरते ही नहीं। हम कभी दो घड़ी विश्राम नहीं करते। इस विश्राम का नाम ही ध्यान है। वासना से विश्राम ध्यान है। तृष्णा से विश्राम ध्यान है। अगर तुम एक घंटा रोज सारी तृष्णा छोड़ कर बैठ जाओ, कुछ न करो, बस बैठे रहो--मस्ती आ जाएगी! आनंद छा जाएगा। रस बहने लगेगा! धीरे-धीरे तुम्हें यह बात दिखाई पड़ने लगेगी, जब घंटे भर में रस बहने लगता है, तो फिर इसी ढंग से चौबीस घंटे क्यों न जिएं?
लेकिन तुम एक बड़ी गलती कर रहे हो, जो सभी करते हैं। तुम कहते हो, ‘अब मैं धर्म साधने आया हूं, सो भी उसी आशा से।’ बस चूक जाओगे। क्योंकि वही आशा अधर्म है। सुख पाने की वासना ही अधर्म है। इसलिए कोई धर्म के द्वारा सुख पाने की वासना करे, तो चूक गया। बात ही गलत हो गई। हां, धर्म से सुख मिलता है, लेकिन धर्म से सुख मिलना चाहिए, ऐसी कामना से नहीं मिलता।
यह जरा उलझन की बात तुम्हें लगेगी। इसे तुम लक्ष्य नहीं बना सकते। यह परिणाम है। ऐसा होता है। जब सब वासना छूट जाती है, कोई आशा नहीं रह जाती तब सुख बरसता है। लेकिन तुम इस आशा में अगर बैठो कि चलो ठीक है, ध्यान करने से सुख बरसेगा, इसलिए ध्यान करें, बस चूक गए। क्योंकि वह सुख की वासना शेष है। सुख की वासना दुख पैदा करवाती है। तुम आधा घड़ी बैठोगे और करवटें बदलने लगोगे और घड़ी देखने लगोगे, कहोगे अभी तक सुख नहीं बरसा और समय जा रहा है! इतनी देर दुकान पर ही बैठ लिए होते; कुछ और चार पैसे कमा लिए होते; यह फिजूल समय गया; यह कहां की नासमझी में पड़ गए, अभी तक तो कुछ सुख नहीं बरसा! बार-बार आंख खोल कर देख लोगे कि अभी आता है परमात्मा कि नहीं? दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी या नहीं? अभी तक तो नहीं आया! और यह घड़ी जा रही है, और यह घंटा बीता, और यह व्यर्थ गया, इतनी देर में कुछ और कमा लेते, बैंक-बैलेंस थोड़ा और बढ़ जाता; या फिल्म ही देख आते; या अखबार ही पढ़ लेते; कुछ काम तो पड़ता, यह खाली बुद्धू की तरह बैठे हैं? यह किसलिए बैठे हैं? इसमें क्या मिल रहा है?
अगर तुम सुख की आशा से बैठे तो ध्यान में बैठ ही न पाओगे। ध्यान में तो बैठने का अर्थ होता है, जिसने एक सत्य पहचान लिया कि सुख की कामना से सुख नहीं मिलता। जिसने सुख की कामना की व्यर्थता देख ली। अब जिसकी दौड़-धूप अपने आप शिथिल हो गई। इसलिए कभी-कभी चुप बैठ जाता है--करने को कुछ नहीं है--बैठा है--जाने को कहीं नहीं है कुछ, खोजने को नहीं है कुछ, सन्नाटे में डूबा है--परिधि खो जाती है, केंद्र का उदय हो जाता है, तुम तत्क्षण अपने भीतर मौजूद हो जाते हो। वही मौजूदगी, वही साक्षात्कार--और सुख बरस जाता है।
तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं, ध्यान से सुख मिलता है। मगर, जो लोग ध्यान से सुख पाना चाहते हैं, उनको नहीं मिलता। ध्यान से सुख उनको मिलता है जो सुख पाने की सारी आकांक्षा को व्यर्थ समझ कर, कूड़ा-करकट समझ कर फेंक देते हैं। जो कहते हैं, अब सुख इत्यादि चाहिए ही नहीं। अब तो जैसे हैं ऐसे ही जीएंगे। अब कुछ मांगेगे नहीं। रह चुके भिखमंगे बहुत। अब नहीं भीख। अब जो परमात्मा देगा, जैसा देगा, उसको वैसे ही आनंदभाव से स्वीकार करें। उसका प्रसाद जो भी बरसेगा, जैसा भी आएगा, नाचेंगे, मग्न होंगे। इस अहोभाव में तुम अपने घर लौट आते हो। और तब तुम चकित होकर देखोगे, तुम सुखी हो, सारा अस्तित्व सुखी है। कि तुम जैसे हो, वैसा ही सारा अस्तित्व हो जाता है।
नये गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें।
भीनी-भीनी खुशबू वाले
रंग-बिरंगे
यह जो इतने फूल खिले हैं
कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था
कल इनको मेरे सपनों ने सहलाया था।
पकी-सुनहली फसलों से जो
अबकी यह खलिहान भर गया
मेरी रग-रग के शोणित की बूंदें इसमें मुसकाती हैं।
नये गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें।
तब तुम अचानक पाओगे, तुम्हारी आभा और विराट की आभा मिलन करने लगी, आलिंगन करने लगी। तुम वृक्षों में फूल खिले देखोगे और लगेगा तुम ही खिल गए। कोयल कूक उठेगी और लगेगा तुम कूक उठे। झरना बहेगा और लगेगा तुम बहे। चांद उगेगा और लगेगा कि भीतर भी चांद उगा। सारा अस्तित्व एक अपूर्व आनंद से भर जाता है--बस, तुम ठहरो! ठहरने का नाम ध्यान। ठहरें पांव तो आ जाए गांव। रुकें पांव तो आ गया गांव। आशा, तृष्णा दौड़ाए रखती है, रुकते नहीं पांव, आता नहीं गांव।
तुम कहते होः ‘अब मैं धर्म करने आया हूं, सो भी उसी आशा में।’
फिर तुम चूक जाओगे।
‘आप कहते हैं--अहंकार को मिटाओ। और इससे मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार को मिटाने से मैं ही मिट जाऊंगा।’
ऐसा प्रतीत होता है, ऐसा सत्य नहीं है। अहंकार तुम हो नहीं, इसलिए अहंकार के मिट जाने से तुम कैसे मिट जाओगे? अहंकार तुम्हारी भ्रांति है।
ऐसा ही समझो कि एक आदमी रामलीला में राम का पार्ट अदा करता है और समझ लेता है कि मैं राम हूं, और घर आता है, लिए धनुषबाण, मोरमुकुट बांधे; उसकी पत्नी कहती है--उतारो, रखो यह धनुषबाण, यह मोरमुकुट, हो गया नाटक बहुत अब, रामलीला खत्म हो गई! वह कहता है, अगर मैं यह उतार दूंगा तो मैं ही मिट जाऊंगा। मैं राम हूं।
तुम इसको पागल कहोगे। यह अभिनय को असलियत समझ लिया है।
तुम्हारा अहंकार क्या है? इस जीवन के बड़े रंगमंच पर खेला गया अभिनय। तुम जब पैदा हुए थे, तो तुम नाम लेकर नहीं आए थे। फिर तुम्हें एक नाम दे दिया; कहा कि तुम्हारा नाम राम; बस तुम राम बन गए! आए थे बिना नाम कोरे कागज की भांति, लिख दया औरों ने नाम कि यह रहा तुम्हारा नाम, राम हो गए तुम। तब से तुम अपने को राम ही मान रहे हो। अब कोई अगर राम को गाली दे दे, तुम झगड़ने को खड़े हो जाते हो। तुम्हें यह ख्याल ही भूल गया है कि तुम बिना नाम के हो, तुम्हारा कोई नाम नहीं था। यह तो तुम्हारे मां-बाप को सूझ गयाः राम। अगर मुसलमान घर में पैदा हुए होते तोः अब्दुल्ला। ईसाई घर में होते तोः अलबर्ट। और अगर मेरे संन्यासी होते तोः अलबर्ट कृष्ण अली! यह तो संयोग की बात है। यह तो नाम कोई भी दिया जा सकता है। नाम तुम नहीं हो। नाम से अपने को समझ लिया कि यह मैं हूं?
और देह भी तुम नहीं हो। .जरा गौर करो; मां के पेट में पहले दिन जब तुम थे तो नंगी आंखों से तो देखे भी नहीं जा सकते थे--वह तुम्हारी देह थी। बड़ी खुर्दबीन होती तो देखे जा सकते थे। वह तुम्हारी देह थी। आज अगर तुम्हारे सामने उस देह का कोई चित्र रख दे, क्या तुम पहचान सकोगे कि यह मेरी देह है? कोई नहीं पहचान सकेगा। फिर पहले दिन जब तुम पैदा हुए थे, अगर आज उस दिन की तस्वीर तुम्हारे सामने रख दी जाए, क्या तुम पहचान सकोगे यह मेरी तस्वीर है? यह मेरी देह थी? कितने तुम बदल गए हो; गंगा का कितना पानी बह गया! रोज तुम बदल रहे हो? आज तुम्हारी जो देह है, कल नहीं रह जाएगी। लेकिन आज इस देह को पकड़े हो, कह रहे हो, यह मैं हूं। कितनी बार देह बदल गई? वैज्ञानिक कहते हैं सात साल में पूरी देह बदल जाती है। एक दफा आदमी सत्तर साल जीए तो दस बार उसकी देह पूरी की पूरी बदल जाती है। मगर श्रृंखला जारी रहती है। श्रृंखला की वजह से भ्रांति हो जाती है।
बुद्ध ने कहा है, सांझ को हम दीया जलाते हैं, क्या तुम सोचते हो सुबह तुम उसी दीये को बुझाते हो? सोचते हम यही हैं कि जो सांझ जलाया था, उसी को सुबह बुझाते हैं। लेकिन बुद्ध ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि यह दीया तो रात भर बुझता रहा, नई ज्योति जलती रही, पुरानी बुझती रही। जब तो इतना धुआं पैदा हुआ। धुआं कहां से पैदा हो रहा है? जो ज्योति तुमने जलाई थी, वह तो बुझती जाती है। वही धुआं होती जाती है। नई ज्योति उमगती आती है। पुरानी ज्योति की जगह नई ज्योति ले लेती है, लेकिन झपट्टे से लेती है जगह कि तुम देख नहीं पाते। फासला नहीं दिखाई पड़ता। सुबह तुम जिस ज्योति को बुझा रहे हो, यह वही ज्योति नहीं है, जो तुमने जलाई थी। हां, उसीकी संतति है। उसीकीशृंखला है। मगर वही नहीं है। तुम्हारे मां के पेट में जो तुम्हारी देह थी, तुम उसी श्रृंखला में हो, उसी ‘क्यू’ में हो मगर वही नहीं हो।
फिर इस देह से तुमने अपना संबंध बांध लिया है कि यह मैं हूं। जरा गोरी चमड़ी हुई, तो .जरा अकड़ गए। फर्क क्या है गोरी चमड़ी में और काली चमड़ी में? फर्क बहुत थोड़ा है। चार आने का रंग का फर्क है। दस-पंद्रह साल के भीतर इंजेक्शन उपलब्ध हो जाएंगे, कि लगवा लिया इंजेक्शन, काले हो गए, लगवा लिया इंजेक्शन, गोरे हो गए--क्योंकि चवन्नी का फर्क है। और ध्यान रखना, काले आदमी का तुमसे ज्यादा मूल्य है, उसके पास चार आने का ज्यादा रंग है। तुम्हारे पास चार आने का कम रंग है। तुम जरा गरीब हो। कि जरा नाक थोड़ी लंबी, कि अकड़ गए। न तुम नाक हो, न तुम रंग हो, न तुम आंख हो, तुम तो भीतर बैठे हुए साक्षी हो।
जैसे-जैसे तुम तोड़ते जाओगे संबंधः नाम भी नहीं, देह भी नहीं, विचार भी नहीं--क्योंकि विचार भी सब उधार हैं; दूसरों ने डाल दिए हैं। तुम विचार भी नहीं हो, तुम मन भी नहीं हो। यही है नेति-नेति की प्रक्रिया। यह भी नहीं, यह भी नहीं। फिर अंत में कौन शेष रह जाता है, जिसको इनकार नहीं किया जा सकता? सिर्फ साक्षी शेष रह जाता है। साक्षी को इनकार नहीं किया जा सकता। और सब इनकार किया जा सकता है। साक्षी में कोई अहंकार नहीं है, सिर्फ भाव है, एक चैतन्य की दशा है, एक चिन्मय स्थिति है। मगर कोई अहंकार नहीं है, ‘मैं’ का कोई रूप ही नहीं बनता वहां।
ध्यान की गहराइयों में जो जाते हैं, वे पा लेते हैं जल्दी ही कि मैं तो बच जाता हूं तब भी जब सब ‘मैं’ मिट जाता है। ‘मैं’ तो सिर्प नाटक है, ‘मैं’ तो अभिनय मंच पर खेली गई बस लीला है।
जिस दिन तुम ऐसा समझ पाओगे, उस दिन यह भ्रांति तुम्हारी जारी नहीं रहेगी कि अगर ‘मैं’ मिट गया तो सुख किसको होगा? सुख साक्षी का स्वभाव है। होता नहीं, होने की जरूरत ही नहीं है, सुख तुम्हारा स्वभाव है। इस ‘मैं’ की चट्टान के कारण तुम सुख को नहीं उपलब्ध कर पाते हो, झरना नहीं बह पाता है।
सुना है हश्र में इक हुस्ने-आलमगीर देखेंगे
ख़ुदा जाने तुझे या अपनी ही तस्वीर देखेंगे
अपनी ही तस्वीर दिखाई पड़ेगी जब परमात्मा मिलता है। वह तुम्हारी ही आत्मा की तस्वीर है और कुछ भी नहीं। तुम ही अपने शुद्धतम रूप में परमात्मा हो। तुम्हारी ही आत्मा जब सारे अहंकारों से, सारी पर्तो से मुक्त हो जाती है और सिर्प साक्षी मात्र, चिन मात्र शेष रह जाता है, वही परमात्म दशा है। परमात्मा का कोई साक्षात्कार थोड़े ही होता! कि खड़े हैं और जय रामजी की, और बातचीत की और निवेदन किया और प्रार्थनाएं कीं! परमात्मा वहां बाहर थोड़े ही मिलता है, तुम्हारे भीतर छिपा है। तुम्हारे चैतन्य में, तुम्हारी चेतना में छिपा है। तुम्हारी चेतना का ही दूसरा नाम है। अहंकार की सीमाओं के कारण चेतना प्रकट नहीं हो पा रही है। इसे प्रकट होने दो।
अहंकार मिटता है, यह तुम्हारा अंत नहीं है, तुम्हारी वास्तविक शुरुआत है, प्रारंभ है।
लेकिन भूलें होती हैं आदमी से। स्वरूपानंद की भूल सभी की भूल है। इसलिए मैंने सोचा, यह प्रश्न सब के लिए उपयोगी होगा।
एक कहानी मैंने सुनी है--
एक बादशाह, बड़ा सम्राट शिकार करते हुए भटक गया। साथियों से छूट गया। शिकार तो कुछ हाथ न लगा, मित्र भी कहां गए जंगल में, पता न चला। थका-मांदा, भूखा-प्यासा एक किसान के झोंपड़े पर पहुंचा। किसान ने बड़ा स्वागत किया। नहीं उसे पता है कि सम्राट है यह। अपनी चारपाई पर बिठाया, सूखी-रूखी रोटी खिलाई, ठंढा पानी पिलाया, बगीचे से फल तोड़ लाया। सम्राट चकित हुआ! सुस्वादु भोजनों का आदी था, मगर ऐसा स्वाद कभी न मिला था। सच तो यह थी, सम्राट होने के कारण भूख ही कभी ठीक से न लगी थी। भूख लगने का मौका ही नहीं आता। भूख के पहले ही भोजन मिल जाता है। आज भूख लगी थी! श्रम किया था, जंगल में भटका था। रोज तो अपेक्षा थी--ऐसा मिले, वैसा मिले--आज कोई अपेक्षा ही नहीं थी। आज तो हालत यह थी कि कुछ मिलेगा भी, इसकी भी संभावना नहीं थी। बिना अपेक्षा का मिला। और किसान ने ऐसे प्यार से... यद्यपि वह चारपाई गंदी थी--गरीब की चारपाई थी। मगर उस पर बैठा, ऐसा सुख पाया जैसा सिंहासन पर स्वर्ण के भी कभी न मिला था। दो आम तोड़ लाया था किसान, कुएं से ठंढा पानी भर लाया था।
सम्राट बड़ा तृप्त हुआ।
बात की किसान से; कहा कि तेरा सम्राट कौन है? क्योंकि दिखाई पड़ गया सम्राट को कि वह उसे पहचान नहीं रहा है कि वह सम्राट है। तो उस किसान ने कहा कि नाम तो मुझे पता नहीं, मगर सुना है मैंने कि बड़े दयालु हैं, बड़े सुंदर हैं, बड़े बलशाली हैं। सम्राट ने कहा, तू देखना चाहेगा सम्राट को? किसान ने कहा, मेरे धन्यभाग अगर दर्शन हो जाएं कभी! मगर नहीं, कैसे हो सकेंगे? सम्राट ने कहा, तू आ, मेरे साथ घोड़े पर बैठ जा, मुझे राह भी बता देना राजधानी की--रास्ते के भी जानने की तो जरूरत थी ही, उसे किसी को साथ ले जाना था--तू राह भी बता देना मुझे और मैं तेरा सम्राट से दर्शन भी करवा दूंगा, महल में तुझे ठहरवा भी दूंगा। सम्राट ने सोचा कि इसे भी चकित करूं।
किसान बैठ गया घोड़े पर सम्राट के साथ, चल पड़े दोनों। रास्ते में किसान ने पूछाः एक बात पूछूं? राजधानी तो मैं कभी गया नहीं, बड़ी राजधानी, वहां वजीर भी होंगे, सेनापति भी होंगे दरबार में, बड़े-बड़े लोग होंगे, मैं पहचानूंगा कैसे कि सम्राट कौन है? सम्राट मैंने कभी देख भी नहीं। मैं पहचानूंगा कैसे कि सम्राट कौन है? सम्राट ने कहा, फिकर मत कर! जैसे ही हम राजधानी में प्रवेश करेंगे, जिस व्यक्ति को सभी लोग अपनी-अपनी टोपियां और पगड़ियां उतार कर नमस्कार करें और जो अपनी पगड़ी न उतारे, टोपी न उतारे, समझ लेना वही सम्राट है। सम्राट जानता था कि जैसे ही हम प्रवेश करेंगे लोग नमस्कार करना शुरू करेंगे सम्राट को, अपनी-अपनी पगड़ियां उतार कर, सिर झुका झुका कर; किसान पहचान जाएगा और चकित होगा जान कर कि मैं सम्राट के साथ घोड़े पर बैठा हूं! आनंदमग्न हो जाएगा। जैसा आनंद इसने मुझे दिया है, उससे हजार गुना आनंद मैं इसे दे दूंगा।
राजधानी आ गई, शहर में प्रवेश भी हो गया और लोग पगड़ियां और टोपियां उतार-उतार कर नमस्कार भी करने लगे; लेकिन किसान कुछ बोला नहीं। चुप्पी साधे रहा। सम्राट ने पूछा कि बात क्या है? समझ में आया कि नहीं? उसने कहा, मैं मुश्किल में पड़ गया हूं, आप भी पगड़ी नहीं उतारते, मैं भी पगड़ी नहीं उतारता, पता नहीं सम्राट कौन है? आप हैं कि मैं हूं? यह तो बड़ी झंझट हो गई।
अहंकार ऐसी ही भ्रांति है। अहंकार को भ्रांति है आत्मा होने की। अहंकार आत्मा नहीं है। मगर एक ही घोड़े पर दोनों सवार हैं। बहुत करीब-करीब एक ही घोड़े पर सवार हैं। जैसे आदमी घोड़े पर सवार हो, तो उसकी छाया भी तो घोड़े पर सवार होती है। बस, ऐसे ही आत्मा के साथ अहंकार की छाया भी घोड़े पर सवार है। न आत्मा अपनी टोपी उतारती, तो छाया की कैसे उतरेगी? छाया की भी टोपी लगी हुई है। छाया भी अकड़ी हुई है। छाया पूरा मजा ले रही है। तुम छाया को समझ लिए हो कि यही मैं हूं। छाया के मिटने से तुम न मिटोगे। और छाया तो खोनी ही पड़ेगी अगर प्रकाश में जाना है, अगर परम प्रकाश में जाना है तो छाया तो मिट ही जाएगी। छाया नहीं बच सकती।
तुमने यह लोकोक्ति सुनी है कि देवताओं की छाया नहीं बनती? यह प्रतीक है, कि जो परमात्मा के निकट हैं उनकी छाया नहीं बन सकती, उनका अहंकार नहीं बन सकता। इसलिए स्वर्ग में देवताओं की छाया नहीं बनती। वे चलते तो हैं, मगर उनकी छाया नहीं बनती। छाया तो अज्ञान में बनती है, अंधकार में बनती है, मूर्छा में बनती है। अहंकार मूर्छा की छाया है।
मैंने सुना है, एक लोमड़ी सुबह-सुबह उठी और जब बाहर आई अपनी मांद के, सूरज उग रहा था और उसने देखा लौट कर तो उसकी बड़ी छाया बन रही थी! सुबह का सूरज, लोमड़ी की बड़ी लंबी छाया बन रही थी! लोमड़ी ने कहा आज तो लगता है हाथी मिले नाश्ते के लिए तो काम चले! छाया इतनी लंबी थी! छाया ही से तो जानती है लोमड़ी--और कैसे जाने? उसके पास कोई दर्पण भी तो नहीं है और फिर दर्पण भी क्या है? उसमें भी तो छाया ही बनती है। लोमड़ी पर हंसना मत, वही तुम्हारी हालत है, वही सबकी हालत है।
लोमड़ी से कुछ भिन्न हालत नहीं है। लोमड़ी भी क्या करे, छाया देख कर उसे लगा कि इतना बड़ा पेट, इतना बड़ा मेरा रूप, हाथी मिले नाश्ते में तो काम चले।
दोपहर तक हाथी खोजती रही। अब लोमड़ी को हाथी मिल भी जाए तो करेगी क्या? और हाथ से जान जाएगी! नहीं मिला सो अच्छा ही हुआ। ऐसे ही तुम सुख खोज रहे हो--वह हाथी की तलाश है। नहीं मिला सो अच्छा ही हुआ। मिल जाए तो उसी के नीचे दब कर मरोगे।
दोपहर तक हाथी मिला नहीं; मिल सकता भी नहीं था, मिलने से कोई अर्थ भी न था। लोमड़ी करती भी क्या? भूख बहुत जोर से लग रही थी। उसने फिर दुबारा छाया की तरफ देखा, क्योंकि वही उसके पास एक मात्र मापदंड है कि मैं, हालत क्या है मेरी? पेट सिकुड़ गया होगा, सोचा। पेट ही नहीं सिकुड़ा था, छाया ही बिल्कुल सिकुड़ गई थी--सूरज सिर पर आ गया था। छाया इतनी छोटी हो गई थी कि लोमड़ी हंसी, उसने कहा--अब तो चींटी भी मिल जाए तो भी पर्याप्त होगा।
तुम छाया से ही जी रहे हो।
और लोमड़ियों पर हंसना मत, लोमड़ियां भी बड़ी होशियार होती हैं। आदमी जैसी ही होशियार। तुमने ईसप की कहानी पढ़ी है न, कि एक लोमड़ी अंगूर के गुच्छों की तरफ छलांग लगा रही है। गुच्छे दूर हैं, और छलांग उसकी छोटी पड़ जाती है। कई बार गिरी। चारों तरफ देखा कोई देख नहीं रहा है, झटकार कर फिर छलांग लगाई। मगर एक खरगोश छुपा एक झाड़ी में देख रहा था, वह हंसने लगा। उसकी हंसी की आवाज सुन कर लोमड़ी अपना झाड़ कर शरीर चलने लगी, अकड़ कर। खरगोश ने कहा, चाची, क्या माजरा है? लोमड़ी ने कहा, मा.जरा कुछ भी नहीं है? अंगूर खट्टे हैं।
यह ईसप की प्रसिद्ध कथा है।
फिर मैंने और एक कहानी सुनी है। अब तो जमाना बदल गया है। सार्वभौम शिक्षा का जमाना, तो लोमड़ियों की भी प्रौढ़ पाठशालाएं हैं। तो एक लोमड़ी प्रौढ़ पाठशाला में पढ़ने गई। उसने वहां ईसप की कहानी सुनी, वह बहुत गुस्से से भर गई। यह तो लोमड़ियों का अपमान हो गया। यह ईसप का बच्चा कहीं मिल जाए, तो इसे पाठ पढ़ा दूं! मिल गए ईसप टहलते एक दिन जंगल में--गए होंगे और लोमड़ियों को देखने कि कोई छलांग लगाए! लोमड़ी ने झपट्टा मारकर ईसप के कंधे से मांस का एक लोथड़ा खींच लिया। ईसप तो चीख-पुकार करने लगे। उसने चखा और पटक कर कहा, खट्टा है!! अब लिखना कहानी!
लोमड़ियां भी कुछ कम होशियार नहीं। लोमड़ी पर मत हंसना; और ईसप ने लोमड़ी की कहानी लिखी भी नहीं है, आदमी की कहानी है।
आदमी चालाक बहुत है। मगर चालाकी में ही उसी शाखा पर बैठ कर उसी शाखा को काटता रहता है। और एक दिन गिरता है बुरी तरह। धूल-धूसरित। मृत्यु ही हाथ लगती है, इस सारी सुख की खोज में, और कुछ हाथ नहीं लगता।
छोड़ो भी इस खोज को! स्वरूपानंद, जैसा तुम्हारा नाम है, कुछ उस नाम पर विचार करो। स्वरूप में ही आनंद है। आनंद स्वरूप है। स्वयं में उतरो। स्वयं में पूरी तरह प्रतिष्ठित हो जाओ। वहीं से आनंद का आविर्भाव होता है।
सुख की आशा से सुख नहीं मिलता, स्वयं में प्रतिष्ठा से सुख मिलता है।
दूसरा प्रश्नः संतों में किसी ने उस परम अनुभूति को प्रकाश कहा है, किसी ने रंगों की होली, और किसी ने अमृत का स्वाद। यह भेद क्यों है?
भेद उस परम अवस्था का नहीं है, लेकिन भेद उस परम अवस्था को पहुंचने वाले व्यक्ति की अनुभूति-प्रवणता का है। सब की अलग-अलग अनुभूति-प्रवणता होती है। अब जैसे अंधे आदमी को भी परमात्मा का अनुभव हो सकता है--कोई अंधेपन से परमात्मा के अनुभव में बाधा नहीं। न तो तुम्हारी आंखों से परमात्मा का अनुभव हो रहा है, न तुम्हारी आंखों के न होने से परमात्मा का अनुभव रुकेगा। आंख से कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन अगर अंधे आदमी को परमात्मा का अनुभव हो--समझो कि सूरदास को परमात्मा का अनुभव हुआ--तो वह अनुभव प्रकाश का तो नहीं होगा। क्योंकि अंधे के पास प्रकाश शब्द है ही नहीं। उसकी प्रतीति में कहीं नहीं है। उसके भाषाकोश में कहीं नहीं है।
लेकिन अंधे आदमी के कान बड़े प्रवण होते हैं। आंखों से जितनी शक्ति बहती है, वह शक्ति भी कानों को मिल जाती है। आंखों से अस्सी प्रतिशत शक्ति बहती है हमारे शरीर की। इसलिए आंखें हमारे शरीर के सर्वाधिक जीवंत अंग हैं। और इसलिए अंधे पर बहुत दया आती है। इतनी बहरे पर दया नहीं आती; लंगड़े पर दया नहीं आती, लूले पर दया नहीं आती, गूंगे पर भी दया नहीं आती, मगर अंधे पर बड़ी दया आती है। उसका कारण यह है कि उसका अस्सी प्रतिशत जीवन अवरुद्ध है। उसने प्रकाश नहीं देखा, रंग नहीं देखा। यह जो जगजीवन ने होली की बात कही, यह कोई अंधा आदमी नहीं कह सकता। उसे रंगों का पता ही नहीं है। लेकिन अंधा कहेगा--अनाहत नाद की बात। उसे संगीत सुनाई पड़ेगा, क्योंकि उसके कान दोनों काम करते हैं। उसके कान सुनते भी हैं और देखते भी हैं। उसके पास कान ही हैं उसकी आंख भी और उसके कान भी। इसलिए अंधे अकसर संगीत में प्रवीण हो जाते हैं। गहरे उतर जाते हैं। उनका ध्वनि-बोध गहरा होता है।
अंधा आदमी तुम्हें तो नहीं देख सकता, लेकिन तुम्हारी आवाज सुन कर पहचान लेता है कि तुम कौन हो। आंख वाला नहीं पहचान सकता। आंख वाले को जरूरत ही नहीं पड़ी कभी इस तरह से पहचानने की। अंधा आदमी तो तुम्हारे पैर की आवाज सुन कर भी पहचानता है कि कौन आ रहा है। आंख वाले को कभी होश ही नहीं होता इस बात का कि कौन आ रहा है--पैर की आवाज कौन सुनता है! पति नहीं पहचान सकता आंख बंद करके बैठ कर कि यह पत्नी के पैर की आवाज है। वर्षो से साथ रह रहे हैं! लेकिन अंधा आदमी पैर की आवाज भी सुनता है। क्योंकि वे ही उसके जानने के स्त्रोत हैं, पहचानने के स्त्रोत हैं। तुम्हारी आवाज भी सुनता है। सुनने के माध्यम से ही परिचय बनाता है।
तो जब अंधे को परमात्मा का अनुभव होगा, तो अनुभव होगा स्वर का, संगीत का, नाद का। उसके भीतर अनाहत की प्रतीति होगी।
हमारे व्यक्तित्व अलग-अलग हैं। सबके अलग-अलग हैं। कुछ लोग हैं, जिनके जीवन में स्वाद की बड़ी गहराई है। तुमने देखा कभी, शराब की परख करने वाले लोग देखे? सिर्प शराब का एक घूंट मुंह में लेकर वे बता सकते हैं कि शराब किस देश की बनी हुई है। तुम न बता सकोगे। न केवल यह कि किस देश की बनी है, बल्कि किस कंपनी की बनी है। न केवल इतना कि किस कंपनी की बनी है बल्कि यह भी बता सकते हैं कि कितनी पुरानी है। सौ साल पुरानी, कि दो सौ साल पुरानी, तीन सौ साल पुरानी? ऐसे आदमी को अगर परमात्मा का अनुभव होगा, तो स्वाद का अनुभव होगा उसे, परमात्मा स्वाद की तरह आएगा। क्योंकि उसकी जीवन ऊर्जा स्वाद में ही प्रतिष्ठित है। वह जानेगा अमृत-रस। जैसे किसी ने उसके गले में, कंठ में अमृत उतार दिया।
इसलिए भेद पड़ जाता है। भेद अनुभव में नहीं है, अनुभव करने वाले व्यक्तित्व में भेद है।
मैं कबसे ढूंढ रहा हूं
अपने प्रकाश की रेखा
तम के तट पर अंकित है
निःसीम नियति का लेखा
देने वाले को अब तक
मैं देख नहीं पाया हूं।
पर पल-भर सुख भी देखा
फिर पल-भर दुख भी देखा
किसका आलोक गगन से
रवि-शशि-उडुगन बिखराते?
किस अंधकार को लेकर
काले बादल घिर आते?
उस चित्रकार को अब तक
मैं देख नहीं पाया हूं।
पर देखा है चित्रों को
बन-बन कर मिट-मिट जाते!
फिर उठना, फिर गिर पड़ना,
आशा है, वहीं निराशा!
क्या आदि-अंत संसृति का
अभिलाषा ही अभिलाषा?
अज्ञात देश से आना
अज्ञात देश को जाना
अज्ञात! अरे क्या इतनी
है हम सबकी परिभाषा?
पल भर परिचित वन-उपवन
परिचित है जग का प्रति कन
फिर पल में वही अपरिचित
हम-तुम, सुख-सुषमा, जीवन!
है क्या रहस्य बनने में?
है कौन सत्य मिटने में?
मेरे प्रकाश, दिखला दो
मेरा खोया अपनापन!
मेरे प्रकाश दिखला दो...
अब यह जो व्यक्ति ऐसी प्रार्थना कर रहा हैः ‘मेरे प्रकाश दिखला दो,’ इसकी आंखें संवेदनशील हैं। इसे परमात्मा नाद की तरह नहीं आएगा। इसे प्रकाश की तरह आएगा। ज्योतिर्मय! हजार-हजार सूरज उग आए हैं एक साथ, ऐसा आएगा। आलोक ही आलोक फैल जाएगा। भीतर-बाहर आलोक ही आलोक का सागर लहराएगा, ऐसा आएगा। ‘मेरे प्रकाश दिखला दो, मेरा खोया अपनापन!’ या--
मुझको रंगों से मोह, नहीं फूलों से।
जब उषा सुनहली जीवनश्री बिखराती
जब रात रुपहली गीत प्रणय के गाती
जब नील गगन में आंदोलित तन्मयता
जब हरित प्रकृति में नव सुषमा मुसकाती
तब जग पड़ते हैं इन नयनों में सपने;
मुझको रंगों से मोह, नहीं फूलों से।
जब भरे-भरे से बादल हैं घिर आते,
गति की हलचल से जब सागर लहराते
विद्युत के उर में रह-रह तड़पन होती
उच्छ्वास-भरे तूफान कि जब टकराते,
तब बढ़ जाती है मेरे उर की धड़कन,
मुझको धारा से प्रीति, नहीं कूलों से।
जब मुग्ध भावना मलय-भार से कंपित
जब विसुध चेतना सौरभ से अनुरंजित,
जब अलस लास्य से हंस पड़ता है मधुबन
तब हो उठता है मेरा मन-आशंकित
चुभ जाएं न मेरे वज्र सदृश चरणों में
मैं कलियों से भयभीत, नहीं फूलों से।
जब मैं सुनता हूं कठिन सत्य की बातें,
जब रो पड़ती हैं अपवादों की रातें
निर्बंध मुक्त मानव के आगे सहसा
जब अड़ जाती हैं मर्यादा की पांतें,
जो सीमा से संकुचित और लांछित हैं,
मैं उसी ज्ञान से त्रस्त, नहीं भूलों से।
मुझको रंगों से मोह, नहीं फूलों से।
कुछ लोग हैं जिन्हें फूलों से मोह है; उन्हें परमात्मा गंध की तरह आएगा। मोहम्मद को जरूर परमात्मा गंध की तरह आया होगा। इसलिए इस्लाम में गंध की महिमा हो गई। इत्र बहुमूल्य हो गया। यह मोहम्मद के कारण। यह मोहम्मद को परमात्मा जरूर गंध के रूप में आया होगा। मोहम्मद के नासापुट प्रगाढ़ संवेदनशील रहे होंगे। ‘मुझको रंगों से मोह, नहीं फूलों से,’ कुछ हैं, जिन्हें फूलों से मोह है। जिन्हें फूलों से मोह है, उन्हें परमात्मा सहस्त्रदल कमल की भांति खिलेगा।
और कुछ हैं, जिन्हें रंगों से मोह है। जगजीवन को रंगों से मोह रहा होगा। इसलिए परमात्मा के आगमन पर, ‘कैसे होली खेलूं,’ इसका भाव उठा। कैसे रंग बिखेरूं, कैसे पिचकारी चलाऊं, कैसे गुलाल उड़ाऊं?
प्रत्येक व्यक्ति की अलग संवेदनशीलता है। इसलिए दुनिया के संतों के वक्तव्यों में भेद पड़ गए। धर्म तो एक है, सत्य एक है, लेकिन उसकी अनुभूतियां बड़ी भिन्न-भिन्न हो जाती हैं। जैसे आकाश में चांद उगता है, तो सागर में भी उसका प्रतिबिंब बनता है, नदी-नालों में भी प्रतिबिंब बनता है, कुओं में भी प्रतिबिंब बनता है, तालाबों में पोखरों में भी प्रतिबिंब बनता है, लेकिन सब जगह उसके प्रतिबिंब में थोड़ा-थोड़ा भेद हो जाएगा। जिस माध्यम में प्रतिबिंब बनेगा, उस माध्यम का थोड़ा कुछ प्रतिबिंब में समाविष्ट हो जाएगा। सागर में बना प्रतिबिंब थोड़ा खारा हो जाएगा। मीठा नहीं हो सकता।
अनंत-अनंत लोगों ने परमात्मा जाना है, लेकिन लोग तो छोटे-छोटे पोखर हैं, छोटे-छोटे दर्पण हैं, उसमें परमात्मा की छाया बनती है। हमारा दर्पण जो कर सकता है प्रकट, उतना ही करेगा।
प्रतीक्षा थी, आस थी, विश्वास था
और, प्रियतम, जले हिय पर लदा
वेदनाओं का विकट इतिहास था!
कंठगत थे प्राण तेरे ध्यान में
निठुर जग तो ले रहा था रस यहां
‘पी कहां’ की मर्मवेधक तान में
सुहाई मुझको न काली घन-घटा
सुहाई मुझको न पावस की छटा
जलधि सातों ही मुझे खारे लगे
लगीं फीकी उमड़ती नदियां सभी
चित्त पर मेरे न चढ़ पाया कभी
वह सरोवर भी धवल कैलास का
टुकड़ियों में बंटे, औ बिखरे हुए
धन्य! स्वाती के जलद, तुम धन्य हो
विकल थी चिर प्यास से यह चातकी
आ गए तुम, कमी अब किस बात की
किया दर्शन, नयन शीतल हो गए
उपालंभक भाव थे, सब सो गए
आ गई है जान में अब जान रे
कर लिया मैंने अमृत का पान रे
(चार बूंदें ही मुझे पर्याप्त थीं)
फिर किसी को परमात्मा स्वाद की तरह आता है; ‘कंठगत थे प्राण तेरे ध्यान में,’ किसी का ध्यान कंठ में ही समाविष्ट हो जाता है।
कंठगत थे प्राण तेरे ध्यान में
कर लिया मैंने अमृत का पान रे
आ गई है जान में अब जान रे,
(चार बूंदें ही मुझे पर्याप्त थीं)
इस भेद के कारण इतने धर्म पैदा हो गए दुनिया में। और इतना झगड़ा, इतना विवाद पैदा हो गया। जरूर मोहम्मद भिन्न हैं महावीर से, निश्चित भिन्न हैं; और क्राइस्ट कृष्ण से भिन्न हैं, और बुद्ध जरथुस्त्र से, लाओत्सु कबीर से, नानक जगजीवन से, जगजीवन मीरा से, सब भिन्न हैं, स्वभावतः इनकी अभिव्यक्ति भिन्न होगी। लेकिन जो जानते हैं, जो जागते हैं, वे जानते हैं कि चांद तो एक है, फिर कितने ही नदी-नालों में, सागर-सरोवरों में उसका प्रतिबिंब बने, इससे भेद नहीं पड़ता।
इसलिए मैं तुमसे कह रहा हूं कि सारे शास्त्रों में उस एक की ही कथा है। बड़ी भिन्न-भिन्न हैं। और इस भिन्नता से मुझे विरोध नहीं है, इस भिन्नता का मुझे स्वागत है। क्योंकि वैविध रसपूर्ण है। एकरसता हो जाती। जरा सोचो, महावीर ही महावीर जैसे लोग होते, बड़ी एकरसता हो जाती! सुंदर है कि कोई कृष्ण भी होता। कृष्ण ही कृष्ण जैसे लोग होते, बड़ी एकरसता हो जाती। सुंदर है कि कोई क्राइस्ट जैसा व्यक्ति भी होता। जगत विविध है और विविध होने के कारण समृद्ध है। सोचो जरा, एक से ही फूल खिलते, बस गुलाब ही गुलाब के फूल होते--गुलाब प्यारा फूल है, मगर सोचे कि सारी पृथ्वी गुलाब की ही झाड़ियों से भरी होती, तो गुलाब का सारा सौंदर्य चला जाता। कौन देखता गुलाब को! लेकिन जुही भी है, और चमेली भी है, और चंपा भी है, और बेला भी है, और हजार-हजार फूल हैं, और सब फूल अपनी-अपनी मस्ती से फूले हैं, अपने-अपने रंग में डोले हैं, सब फूलों ने उसको ही प्रकट किया है क्योंकि वही सब में फूला है, मगर नये रंग, नये ढंग, नई अभिव्यक्ति, नई सजावट, नया श्रृंगार। जगत विविध होने के कारण समृद्ध है।
इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं, सारे धर्मो में एक की ही चर्चा है, फिर भी भिन्न-भिन्न हैं। गीता गीता है, कुरान कुरान है। न तो गीता कुरान है, न कुरान गीता है। और मैं नहीं चाहूंगा कि कोई एक-दूसरे में लीन हो जाए। कुरान बचनी चाहिए कुरान की तरह। उसका रस और है, उसका तरन्नुम और है। उसकी अदा और है, उसका मजा और है।
सुना है कुरान को किसत को गुनगुनाते? न समझो भाषा, मगर हृदय में कुछ डोलने लगता है। लहर कुरान की ऐसी है! सुसंस्कृत नहीं है कुरान, कोई बहुत पढ़े-लिखे मनुष्य का वक्तव्य नहीं है, मोहम्मद तो गैर पढ़े-लिखे थे, मगर गैर पढ़े-लिखे आदमी में एक सादगी होती है जो कुरान में है। जो गीत में नहीं है। गैर पढ़ा-लिखा आदमी सादा होता है, सीधा होता है, साफ-सुथरा होता है। उसके पास बड़े शब्द नहीं होते, उसके पास दर्शनशास्त्र नहीं होता, उसके पास प्रतीक भी जीवन के होते हैं। मगर खूब रस सीधे-साधे गीतों में है। गीता की अपनी खूबी है। उसका अपना सौष्ठव है। उसमें दर्शन की ऊंचाइयां हैं। उसमें बड़ी बारीक ऊंचाइयां हैं। उसमें रहस्यों के परदे पर परदे उठाने की कोशिश की गई है। सुसंस्कृत मनुष्य का वक्तव्य है।
दोनों की जरूरत है। दुनिया खाली होगी कुरान न होगा तो। गीता न होगी तो दुनिया का कुछ वंचित हो जाएगा। दुनिया के सारे शास्त्र अदभुत हैं, अनूठे हैं, सभी बचने चाहिए, सभी मनुष्य की संपदा हैं।
और मैं चाहता हूं कि मेरा संन्यासी हकदार अपने को घोषित करे सबका। किसी को भी इनकार न करे--इनकार क्या करना, इनकार करने वाला आदमी छोटे दिल का होता है। जरा सोचो जो कहता है, मैं तो महावीर को ही स्वीकार करूंगा, कितना छोटे दिल का हो गया! और यह आदमी गरीब रह जाए तो आश्चर्य क्या? आध्यात्मिक रूप से गरीब रह जाएगा। जो कहता है, मैं तो सिर्प कबीर को ही स्वीकार करूंगा, यह गरीब रह जाएगा। और कबीर बड़े प्यारे हैं! मगर यह आदमी गरीब रह जाएगा।
सारी संपदा हमारी है। प्रत्येक मनुष्य इस मनुष्य जाति के पूरे इतिहास का वसीयतदार है। मेरा संन्यासी सारे धर्मो का वसीयतदार है। इसलिए मैं सारे धर्मो पर, अलग-अलग संतों पर बोल रहा हूं। ताकि तुम्हें सब तरह की छटाएं थोड़ी-थोड़ी अनुभव में आ जाएं--भिन्न-भिन्न द्वारों से कैसा परमात्मा देखा गया है, भिन्न-भिन्न झरोखों से कैसी उसकी छवि उभरी है, भिन्न-भिन्न लोगों ने कैसा रसपूर्ण उसका वर्णन किया है? किसी ने प्रकाशरूप, किसी ने गंधरूप, किसी ने रसरूप; किसी ने स्वाद, किसी ने स्वर। ये सब तुम्हारे हैं, इसमें से किसी को भी इंकार मत करना। क्योंकि जिसको तुम इंकार कर दोगे, उतने ही तुम कम हो जाओगे, उतने ही तुम छोटे हो जाओगे। और होना है विस्तीर्ण, और फैलना है आकाश जैसा।
आकाश किसी को इनकार नहीं करता है--चमेली को भी स्वीकार करता है, चंपा को भी। और आकाश चंपा को भी आनंद से, गुलाब को भी आनंद से, कमल को भी आनंद से अंगीकार किए है, आलिंगन किए है। इसलिए आकाश समद्ध है। सभी फूलों की गंध उसमें समाती है, सारे फूलों के रंग उसमें समाते हैं, सारे स्वर उसमें गूंजते, सारा संगीत उसका है, सारा सौंदर्य उसका है।
ऐसे ही तुम भी बनो, ऐसा मेरा संन्यासी हो। उसका कोई अपना धर्म न हो, सारे धर्म उसके अपने हों। फिर भी जो उसे अनुकूल लगे, उसे वह साधे। साधना सबकी नहीं हो सकती। स्वीकार सबका हो सकता है। साधना तो एक की ही करनी होगी। जो उसे उचित लगे, उसे साधे। लेकिन, तुम्हारी साधना के कारण तुम्हें शेष को इनकार करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें प्यारे लगते हैं गुलाब, तो गुलाब की खेती करो। तुम्हारी बगिया में गुलाब ही गुलाब लगा लो, मगर यह मत कहना कि जुही के फूल फूल नहीं हैं। यह मत कहना कि चमेली के फूलों में गंध नहीं होती। यह मत कहना कि बेला झूठा है, मिथ्या है। यह क्यों कहोगे? यह कहने की जरूरत है? तुम्हारे पड़ोसी को बेला प्रीतिकर, उसने बेला लगाया हुआ है। और कभी-कभी सुंदर होगा कि बेले की बगिया में भी जाओ। इससे तुम्हारा गुलाब के प्रति रस घटेगा नहीं, बढ़ेगा। कभी-कभी अच्छा होगा कि चमेली से भी पहचान करो, जुही से भी संबंध जोड़ो। इससे तुम्हारा गुलाब के प्रति रस घटेगा नहीं, गुलाब के प्रति जो एकरसता पैदा हो रही थी, वह कम हो जाएगी। फिर-फिर, पुनः-पुनः तुम्हें गुलाब में रस आने लगेगा। लौट-लौट कर तुम फिर-फिर गुलाब के हो जाओगे।
इसलिए साधो एक, मगर स्वीकार सब करो।
यह मैं तुम्हें नया सूत्र दे रहा हूं। ऐसा सूत्र कभी पृथ्वी पर दिया नहीं गया था। क्योंकि पहले लोगों ने कहा थाः कि जो साधो, उसी को स्वीकार करो, शेष को इनकार करो। शेष से बड़ा भय था, बड़ा डर था, बड़ी घबड़ाहट थी। यह भय आदमी को छोटा कर गया है, संकीर्ण कर गया है, किसी को हिंदू कर गया है, किसी को मुसलमान कर गया, किसी को ईसाई कर गया, आदमीयत सब की खो गई। छोटे-छोटे टुकड़े होकर रह गए। यह आदमी को खंडित कर गया। एक अखंड मनुष्य चाहिए। पृथ्वी अखंड होनी चाहिए। यहां सारे भेद गिर जाने चाहिए। यहां अभेद का साम्राज्य होना चाहिए। तो ही पृथ्वी पर गान उठेगा परमात्मा का। नहीं तो हिंदू-मुसलमान लड़ते हैं और काटते हैं एक-दूसरे को। और जैन और बौद्ध विवाद करते हैं और तर्कजाल फैलाते हैं और इसी में सब उलझ जाता है। धर्म सुलझाने को चला था, उलटा उलझा दिया। सुलझ सकती है बात फिर; यह गांठ खुल सकती है, अगर तुम खोलो। यह खुलेगी तुम्हारे हृदय में। यह हृदय-हृदय में खोलनी होगी।
इसलिए जब मेरे संन्यासी से कोई पूछे कि तुम्हारा क्या धर्म? तो कहनाः सब धर्म मेरे। धर्म मात्र मेरा है। मैं सबको अपने हृदय में समाता हूं। सबका संगीत मेरा संगीत है। मैं किसी को इनकार नहीं करता। क्योंकि इनकार करके मैं ही छोटा हो जाऊंगा, मैं ही कमजोर हो जाऊंगा।
ख्वाब भी सबके अलग, ख्वाब की ताबीर अलग
प्यार की बात अलग, इश्क की तफसीर अलग
जख्मे-दामां भी अलग, नाखुने-तदबीर अलग
दिल अलग, दिल की तरफ आते हुए तीर अलग
लोग भिन्न हैं। लोग भिन्न-भिन्न हैं। और सुंदर है यह। यह बड़ा सुंदर है। अपनी मैत्री फैलाओ! तुम्हारे मित्रों में अगर मुसलमान नहीं है कोई, तो तुम किसी चीज से वंचित हो। कौन तुम्हें कुरान सुनाएगा? तुम्हारे मित्रों में अगर कोई ईसाई नहीं है, तो तुम्हें कौन उस अदभुत जीसस से परिचित कराएगा? तुम्हारे मित्रों में अगर कोई बौद्ध नहीं है, तो कौन तुम्हें खबर लाएगा धम्मपद के स्वरों की? मैत्री फैलाओ! कभी मंदिर भी जाओ, कभी मस्जिद भी, कभी गुरुद्वारा भी--वे सब तुम्हारे हैं। मेरा संन्यासी सारे मंदिरों पर कब्जा कर ले! मस्जिद में भी जाए, गुरुद्वारे में भी जाए, गिरजे में भी जाए। चौंकेंगे लोग बहुत देख कर, क्योंकि लोग कहेंगे कि भई, एक जगह कहीं! क्योंकि पुराने दिनों में यही धारणा रही है कि एक जगह कहीं। सारा अस्तित्व हमारा है, क्यों एक जगह? जो करीब होगा, जो जब उपलब्ध होगा। नहीं तो इन सब बातों के कारण बड़ी छोटी बातें हो गई हैं।
मैंने सुना एक गांव में एक प्रोटेस्टेंट ईसाई आया। उस गांव में कोई प्रोटेस्टेंट ईसाइयों का चर्च नहीं था। रविवार का दिन, चर्च जाने की उसकी पुरानी आदत। न जाए तो बेचैनी! सारे गांव में घूमा, लेकिन कोई केथालिक ईसाइयों का चर्च था ही नहीं; कोई कैथालिक ईसाई ही नहीं था गांव में। तो मजबूरी में उसने सोचा, न जाने से कहीं बेहतर है कि प्रोटेस्टेंटों के चर्च में ही चला जाऊं। है तो उसी जीसस का! बाइबिल तो वही पढ़ी जाएगी। प्रशंसा में तो जीसस के ही गीत गाए जाएंगे। माना अपना नहीं है, मगर न होने से तो बेहतर है। कहीं न जाने से तो बेहतर है; किसी होटल में बैठा रहूं उससे तो यही चर्च बेहतर है। तो चला गया। पीछे बैठ गया।
जो ईसाई पादरी प्रवचन दे रहा था--बड़ा आग्नेय प्रवचन था, जैसे अग्नि बरसा रहा हो। यही काम करते रहे हैं लोग, डराते रहे हैं लागों को। नरक का ऐसा उसने वीभत्स वर्णन किया कि किसी के भी रोंगटे खड़े हो जाएं। छोटे बच्चे रोने लगे, दो-तीन स्त्रियां बेहोश हो गयीं, बूढ़े कंपने लगे--उसने वर्णन ऐसा किया नरक का! और आखिर में उसने कहा कि सुन लो, जितने लोग यहां बैठे हों, सब नरक में सड़ोगे, अगर अभी तक जाग नहीं जाते। अभी भी समय है। इस समारोह में सम्मिलित प्रत्येक व्यक्ति सजग हो जाए, नहीं तो नरक में पड़ेगा। सारे लोग हैं, किसी के आंसू बह रहे हैं, कोई बेहोश स्त्री पड़ी है, बच्चे चिल्ला रहे हैं, बूढ़े कंप रहे हैं--क्योंकि उसने बात ही इतनी कठिनाई की कही थी।
नरक के वर्णन ऐसे किए जाते हैं। उसने वर्णन किया था कि आग में डाले जाओगे, जलोगे और मरोगे नहीं। मरने की भी सुविधा नहीं देते वे। जलते रहोगे--अनंत काल तक--मरोगे नहीं। पानी सामने होगा, मगर पी न सकोगे। क्योंकि होंठ सी दिए जाएंगे। प्यास भीतर होगी--अनंत काल तक--पानी सामने होगा, कलकल नाद पानी का सुनाई पड़ेगा, मगर पी न सकोगे क्योंकि ओंठ सी दिए जाएंगे। कीड़े-मकोड़े शरीर में छेद कर लेंगे। सब तरफ से छेद कर-कर के निकलेंगे, इधर से जाएंगे, उधर से निकलेंगे, और तुम कुछ भी न कर सकोगे--और अनंत काल तक। और ऐसी ठंढ पड़ेगी कि दांत कटकटाएंगे--अनंतकाल तक।
एक बुढ़िया खड़ी हो गई, उसने कहा, मेरे तो दांत ही नहीं हैं। तो उस पादरी ने कहा कि तू बैठ, दांत दिए जाएंगे। जिनके दांत नहीं हैं उनको नकली दांत दिए जाएंगे मगर सर्दी तो ऐसी पड़ेगी कि दांत कटकटाने ही पड़ेंगे! तू फिकर मत कर! ऐसा इंतजाम करके रखा है कि अगर नहीं होंगे दांत तो दिए जाएंगे।
ये सारे लोग घबड़ा रहे थे और बेचैन हो रहे थे, मगर वह आदमी जो केथालिक था, मस्त बैठा हंस रहा था, मुस्कुरा रहा था। पादरी ने देखा कि यह आदमी क्यों मुस्कुरा रहा है? पादरी ने उससे पूछा कि भाई मेरे, सारे लोग नरक का वर्णन सुन कर कंप रहे हैं, भयभीत हो रहे हैं, पश्चाताप कर रहे हैं, तू क्यों मुस्कुरा रहा है? उसने कहा कि हम इस चर्च के सदस्य ही नहीं हैं। हमें क्या डर! हमारा दूसरा चर्च है। हम तो ऐसे ही घूमते-घूमते आ गए। ये बिचारों की हालत बड़ी खराब होगी, यह हमें समझ में आ रहा है।
स्वाभाविक; प्रोटेस्टेंटों का चर्च, तो जिस नरक का वर्णन हो रहा है, वह भी प्रोटेस्टेंटों का नरक होगा। नरकों में भी अलग-अलग हैं। स्वर्गो में भी अलग-अलग है जैसे जीवन की आधारशिलाएं अलग-अलग हैं!
एक आदमी मरा, जर्मनी में, हिंदुस्तानी था, कहीं नौकरी करता था। मरने के पहले बड़ा घबड़ाया हुआ था। क्योंकि कोई पंडित-पुजारी नहीं, जो मरते वक्त गंगाजल पिला दे। गंगाजल भी नहीं, कोई मंत्र ही कान में बोल दे--वह भी नहीं। बड़ा भयभीत मरा। डरता हुआ मरा कि नरक जाना निश्चित है। स्वर्ग जाने का कोई उपाय ही नहीं! और जैसे ही मर कर उसने आंख खोली कि नरक के दरवाजे पर पाया। अंदर ले जाया गया। बिठाया गया। पूछा गया कि भाई, किस नरक में तू जाना चाहता है? हिंदुओं के नरक में जाना चाहता है? --हिंदुस्तानियों के नरक में जाना चाहता है? कि जर्मन नरक में जाना चाहता है? क्योंकि तू जरा झंझट में है, तू रहा तो जर्मनी में, है हिंदुस्तानी, तुझे चुनाव का मौका है। तू चाहे तो हिंदुस्तानियों के नरक में चला जाए, चाहे तो जर्मनों के नरक में चला जाए।
उस आदमी ने कहा, मैं पहले फर्क तो समझ लूं कि दोनों नरकों में फर्क क्या है? बताने वाले ने बताया कि फर्क कोई भी नहीं है। वही कष्ट हिंदुस्तानी नरक में दिए जाएंगे, वही कष्ट जर्मन नरक में दिए जाएंगे। फिर भी उसने पूछा कि फिर भेद करने का सवाल ही क्या है? फिर हिंदुस्तानी और जर्मनी का क्या सवाल है, भेज दो कहीं, फिर भेद क्या है? मगर उसने कहा एक--बात ख्याल रखना, जर्मन नरक में काम जर्मन कुशलता से किया जाता है। हिंदुस्तानी नरक में हिंदुस्तानी ढंग से किया जाता है। जिसको आना चाहिए आग जलाने, वह सुबह नहीं आया, बारह बजे आया। उतनी देर फुरसत मिल गई। कीड़े-मकोड़े भी हिंदुस्तानी हैं, सोए ही पड़े हैं! जर्मन नरक! जर्मन कुशलता, व्यवस्था से किया जाता है। तो वह सोच लो! उसने कहा, मुझे हिंदुस्तानी नरक में आना है, मुझे नहीं जाना जर्मन नरक में।
मैं भी तुमसे कहता हूं, अगर स्वर्ग जाओ तो जर्मन को चुनना। और नरक जाओ तो हिंदुस्तानी चुनना।
जीवन के नियम अलग-अलग नहीं हैं। जीवन का नियम तो एक है। जीवन का शाश्वत धर्म तो एक है। सिर्प उसकी अभिव्यक्तियां अलग-अलग हैं। अलग-अलग लोगों के जीवन में अलग-अलग संवेदनशीलताओं के कारण वे भेद पड़े हैं। बुद्ध बुद्ध की तरह बोलते हैं, कृष्ण कृष्ण की तरह बोलते हैं। बस बोलने में ही भेद है, जो बोला गया है, वह एक है।
आखिरी प्रश्नः भगवान, जगजीवन के साथ मेरे जीवन का अंतिम मोड़ आ चुका है। आपके चरण में लपटाई रहूं, यही प्रार्थना है!
अजमेर वाले बाबा ने गाया है--
मैली-मैली सब कहें, उजली कहे न कोय।
साईं आप उजली कहो, तो लोग कहें सब कोय।।
तरु! कोई काला नहीं है। सब उजले हैं। कोई अपवित्र नहीं है। सब पवित्र हैं। अपवित्रता भ्रांति है। वह भ्रांति छाया के साथ संबंध जोड़ लेने से पैदा हो गई है। छाया के कारण हम मैले-मैले लग रहे हैं। हां, हमारे वस्त्र मैले हो गए हैं, सच है, और हमारी देह पर धूल-धवांस जम गई है, सच है, और हमारा मन भी न स्वस्थ है न सुंदर है, मगर हमारे भीतर हमारा जो असली स्वरूप है, वह वैसा-का-वैसा कुवांरा है। वह कमल के फूल की तरह अलिप्त है।
मैं तुम्हें याद उसी की दिलाना चाहता हूं, बाकी सब बातें गौण हैं। बाकी सब बातें तो व्यर्थ हैं।
तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम्हें उन्हीं की बातें कर रहे हैं--ऐसा करो, वैसा करो; यह बुरा, वह शुभ; तुम्हारे कर्मो की ही चर्चा कर रहे हैं, तुम्हारे अस्तित्व की नहीं। और उनके कर्मो की अतिशय चर्चा के कारण लोग बड़े आत्म-निंदित हो गए हैं। उनका चित्त बड़ी आत्म-निंदा से भर गया है। वे घबड़ा गए हैं! उनको लग रहा है कि हम डूबे! हमारा उबरने का कोई उपाय नहीं है। और पंडित-पुरोहित इसका शोषण कर रहे हैं। क्योंकि तुम्हें जितना घबड़ा दिया जाए, उतनी ही आसानी से तुम्हारा शोषण हो सकता है।
डरा हुआ आदमी कुछ भी करने को राजी हो जाता है। उससे कहो, सत्यनारायण की कथा करो, तो वह सत्यनारायण की कथा करता। उससे कहो, यज्ञ करो, तो वह यज्ञ करता है। उससे कहो, इस में घी डालो--उसको समझ में भी आता है कि घी आग में नष्ट हो रहा है, घी लोगों को मिल नहीं रहा है, खाने को--मगर भयभीत आदमी कुछ भी करने को राजी हो जाता है; उससे कोई भी मूढ़ता करवा लो।
यज्ञों के नाम पर मूढ़ता हो रही है। पूजा-पत्री के नाम पर मूढ़ता हो रही है। भयभीत आदमी को कहीं भी झुका लो। झुकाने के पहले उसको भयभीत करना जरूरी है; नहीं तो वह झुकेगा ही नहीं। उसको कहो, यह पत्थर की मूर्ति भगवान है, झुको, वह तत्क्षण झुक जाएगा। वह भयभीत है, वह डर रहा है, वह किसी तरह अपने भय के ऊपर उठना चाहता है। मगर पुजारी तुम्हें भय से ऊपर नहीं उठने दे सकता। क्योंकि तुम भय के ऊपर उठ जाओ तो तुम पुजारी के घेरे के बाहर हो जाओगे।
पुजारी के व्यवसाय का नियम ही यही है कि तुम्हें भयभीत रखे। इसलिए वह तुम्हें कहता है; ‘मैली-मैली सब कहें।’ वह तो तुम्हें, तुम्हारी छोटी-छोटी बातों को पकड़ लेता है। यह पाप, यह बुरा; उसका सारा हिसाब-किताब यही है कि तुममें क्या-क्या बुरा है, उसकी फेहरिश्त तुम्हारे सामने अतिशय करके खड़ी कर दी जाए। ताकि तुम कंप जाओ।
मेरी चेष्टा बिल्कुल भिन्न है। मैं तुम्हें पुजारी से मुक्त करना चाहता हूं। मैं तुम्हें पंडित से मुक्त करना चाहता हूं। मैं तुम्हें मुक्त करना चाहता हूं। इसलिए मैं तुम्हें याद दिला रहा हूं कि तुम्हारे कर्म तो सब बाहर-बाहर हैं--अच्छे भी और बुरे भी, सब बाहर-बाहर हैं। उनका कोई आत्यंतिक मूल्य नहीं है। तुम परम पवित्र हो। तुम्हारे भीतर परमात्मा विराजमान है। तुम उजले हो। तुम मैले हो ही नहीं सकते! तुम्हारे मैले होने का कोई उपाय ही नहीं है--तुम मैले हो जाओगे तो फिर उजले होने का कोई उपाय नहीं। फिर कोई साबुन धो न सकेगी। आत्मा मैली हो जाएगी तो कौन साबुन धो सकेगी? और आत्मा मैली हो जाएगी, तो फिर किसी के हाथ की बात न रही।
आत्मा मैली होती ही नहीं।
आत्मा का मैला होना ऐसा ही असंभव है जैसा आकाश का मैला होना। बादल आते हैं, चले जाते हैं, आकाश मैला थोड़ा ही होता है। धूल-धवांस उठती है, आंधी उठती है, चली जाती है, फिर आकाश उजला का उजला हो जाता है। आकाश कभी मैला नहीं होता। ऐसा ही तुम्हारा अंतर-आकाश है। मैं तुम्हें उसकी ही याद दिला रहा हूं। और उसकी तुम्हें याद आ जाए तो एक क्रांति घट जाती है। उसकी याद आते ही तुम्हारे कृत्य भी उजले होने लगते हैं। क्योंकि जिसको अपने भीतर का उजलापन दिखाई पड़ गया, फिर असंभव हो जाता हैः कृत्य और मैला हो! जिसको भीतर का उजलापन दिखाई पड़ गया, उसके व्यक्तित्व में और जीवन में उजलापन बहने लगता है; उसकी धारा प्रवाहित हो जाती है। भीतर तुम्हारे एक वीणा पड़ी है, मैं उसी की तुम्हें याद दिलाता हूं।
इस अंधेरे के सुनसान जंगल में हम डगमगाते रहे, मुसकुराते रहे
लौ की मानिंद हम लड़खड़ाते रहे, पर कदम अपने आगे बढ़ाते रहे
अजनबी शहर में अजनबी रास्ते, मेरी तनहाई पर मुसकुराते रहे
मैं बहुत देर तक यूंहि चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे
कल कुछ ऐसा हुआ, मैं बहुत थक गया, इसलिए सुनके भी अनसुनी कर गया।
कितनी यादों के भटके हुए कारवां, दिल के जख्मों के दर खटखटाते रहे
जहर मिलता रहा, जहर पीते रहे, रोज मरते रहे रोज जीते रहे
जिंदगी भी हमें आजमाती रही, और हम भी उसे आजमाते रहे
सख्त हालात के तेज तूफान में घिर गया था हमारा जुनूने-वफा
वो चिरागे-तमन्ना बुझाता रहा, हम चिरागे-तमन्ना जलाते रहे
जख्म जब भी कोई मेरे दिल पर लगा, जिंदगी की तरफ एक दरीचा खुला
हम भी गोया किसी साज के तार हैं, चोट खाते रहे, गुनगुनाते रहे
कितने ही पाप किए हों, और कितने ही भटके होओ, और कितने ही जीवन में दुर्दिन और दुर्घटनाएं घटी हों, कुछ भी हुआ हो...
जख्म जब भी कोई मेरे दिल पर लगा, जिंदगी की तरफ एक दरीचा खुला
हम भी गोया किसी साज के तार हैं, चोट खाते रहे, गुनगुनाते रहे
... तुम्हारी गुनगुनाहट नहीं मिटी है, तुम्हारा गीत नहीं मिटा है--मिट नहीं सकता। तुम्हारे भीतर शाश्वत संगीत है। मैं उसी की तुम्हें याद दिला रहा हूं। याद आनी शुरू हो जाएगी और तुम्हारी दृष्टि बदलने लगेगी। और तुम्हारी दृष्टि बदली कि सृष्टि बदली।
तुझी से इब्तिदा है, तू ही इक दिन इंतिहा होगा
सदा-ए-साज होगी और न साजे-बेसदा होगा
सब शून्य हो जाएगा, उस स्वर को सुनते-सुनते। क्योंकि वह संगीत शून्य का संगीत है।
सदा-ए-साज होगी और न साजे-बेसदा होगा
तूझी से इब्तिदा है, तू ही इक दिन इंतिहा होगा
उसी परमात्मा से प्रारंभ है। उसी परमात्मा में अंत है। बीच सारा सपना है। सुख का, दुख का; गिरने का, उठने का; पाप का, पुण्य का, सब सपना है। सपने से कहीं कोई मैला हुआ! सपने कहीं मैले कर सकते हैं!
मैं तुम्हें जगा रहा हूं। तुम्हारे तथाकथित नैतिक धर्मगुरु केवल तुम्हारे सपनों को बदलने की कोशिश में लगे रहते हैं। वे कहते हैं, अच्छे सपने देखो; बुरे मत देखो। मगर जो आदमी बेहोश है, वह क्या अच्छा देखे, क्या बुरा देखे? सपनों का वह मालिक थोड़े ही है! तुम्हारे हाथ में थोड़े ही है अच्छे सपने देखना। कि रात सो गए कह के कि अच्छे सपने देखेंगे!
अकसर ऐसा हो जाएगा, जो अच्छे सपने देखना चाहते हैं, वे बुरे सपने देखते हैं। क्योंकि दिन भर बुराइयों को दबाते बैठे रहे। फिर रात वे ही दबाई हुई बुराइयां सपनों की तरह प्रकट होने लगती हैं। अकसर ऐसा हो जाता है। कि बुरे आदमी रात अच्छे सपने देखते हैं। क्योंकि वे अच्छाइयों को दबाते हैं। जो दबा रहता है, वही सपने में उभर आता है। सपनों पर तुम्हारा बस क्या है?
इसलिए मैं नहीं कहता कि सपने बदलो; मैं नहीं कहता, आचरण बदलो; मैं कहता हूं, अंतस को जगाओ! जागो, सपने वगैरह बदलने से कुछ भी न होगा।
अच्छा भी सपना देखा तो सपना ही है। सपने में साधु हो गए, क्या लाभ? कि चोर हो गए, क्या हानि? न सपने से कोई मैला होता है न कोई उजला होता है--सपने तो सपने हैं, आते हैं, चले जाते हैं। यह सारा संसार सपना है।
तरु, मैं इतनी ही बात तुम्हें याद दिला रहा हूं, रोज-रोज, अनेक-अनेक ढंगों से, अनेक-अनेक इशारों से कि जागो! तुम उजले हो। तुम परम पवित्र। तुम स्वयं परमात्मा हो। थोड़ी खोज करो, यह केंद्र दूर नहीं है। जरा सा फासला है। सिर और हृदय का फासला ही आदमी और परमात्मा का फासला है। ज्यादा नहीं है, कुछ ही इंचों का है।
बुद्धि में भटके रहे, तो संसार। हृदय में आ गए, भाव में आ गए तो भक्ति। भक्ति में आ गए तो भगवान दूर कहां!
सब गए हैं सामने के शोर तक,
कौन जाता है किसी के छोर तक।
कब मिला सूरज निशा के बीच में
ढूंढ़ना उसको पड़ा है भोर तक।
सुबह तक खोजोगे तो ही मिल पाएगा! सूरज सूरज है, सुबह भी है, मगर लोग विचारों की, सपनों की तंद्रा में, मूर्छा में खोए हैं, नींद में खोए हैं। कुछ लोग बुरे सपने देख रहे हैं, कुछ लोग अच्छे सपने देख रहे हैं। बस तुम्हारे साधु-असाधु में इतना ही फर्क है।
मैं तुम्हें चाहता हूंः न साधु, न असाधु। तुम्हारे भीतर भगवत्ता का उदय हो।
इसलिए याद दिलाता हूंः तुम उजले हो, तुम क्वांरे हो। तुमसे कभी कुछ न भूल हुई है, न हो सकती है, क्योंकि तुम कर्ता नहीं हो, साक्षी हो।
आज इतना ही।
thank you guruji
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