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सोमवार, 20 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-14)

प्रवचन-चौहदवां

बंबई, रात्रि, दिनांक 2 जून, 1972

प्रश्न एवं उत्तर

पहला प्रश्नः भगवान, आपने कल रात्रि कहा कि उसे जानने के लिए जो कि भावातीत सत्य है सब कहीं, सर्वप्रथम स्वयं के केंद्र पर ही उसकी प्रतीति होनी चाहिए। फिर आपने कहा कि इसके लिए सेंटरिंग की, केंद्रगत होने की आवश्यकता पड़ती है। क्या यह केंद्रण वही है, जिसको कि गुरजिएफ ने क्रिस्टलाइजेशन कहा है?
कृपया हमें यह भी बतलाएं कि किस तरह यह सेंटरिंग अथवा क्रिस्टलाइजेशन (केंद्रीकरण) स्वयं के अहंकार से भिन्न है और किस भांति यह उस भावातीत सत्य की और ले जाता है?
आदमी सेल्फ के साथ, स्व के साथ पैदा होता है, न कि ईगो(अहंकार) के साथ। अहंकार समाज द्वारा निर्मित है और बाद की उत्पत्ति है। अहंकार बिना संबंधों के नहीं हो सकता। आप हो सकते हैं, स्व हो सकता है, परंतु अहंकार अपने आप नहीं हो सकता। वह दूसरों के साथ संबंधों की उप-उत्पत्ति है। अहंकार मेरे और तेरे के बीच होता है। यह एक रिलेटा, एक अंर्तसंबंध है।

एक बच्चा स्व के साथ उत्पन्न होता है न कि अहंकार के साथ। बच्चा अहंकार बड़ाता है। जैसे-जैसे वह अधिक सामाजिक व लोकसंबद्ध होता जाता है, अहंकार बड़ता जाता है। यह अहंकार केवल बाह्य परिधि पर ही होता है, जहां कि आप दूसरों से संबंधित होते हैं-आपकी बीइंग, आपके स्वरूप की परिधि है और सेल्फ(स्व) आपका केंद्र है। एक बच्चा स्व के साथ पैदा होता है। वह एक स्व है, किंतु अभी उसे स्व का बोध नहीं है।
बच्चे को अपना पहला बोध अपने अहंकार के साथ होता है। वह अपने मैं के प्रति सजग होता है, न कि स्व के प्रति। वास्तव में, सब से पहले वह तू से परिचित होता है। बच्चा सर्व-प्रथम अपनी मां के प्रति सजग होता है। फिर प्रतिबिंब की तरह उसे अपना भी बोध होता है। पहले वह उसके चारों तरफ जो वस्तुएं हैं, उनसे परिचित होता है। तब धीरे-धीरे उसे अनुभव होने लगता है कि वह उनसे कुछ अलग है। यह अलग होने की प्रतीति ही अहंकार का भाव प्रदान करती है। और चूंकि बच्चा पहले अहंकार से परिचित होता है, उसका अहंकार स्व पर एक आवरण बन जाता है।
उसके बाद यह अहंकार बड़ती ही चला जाता है, क्योंकि समाज को आपकी जरूरत एक अहंकार की तरह से है, न कि स्व की तरह से। समाज के लिए स्व बेकार है, असंगत है; आपकी परिधि ही समाज के लिए अर्थपूर्ण है। और भी बहुत सी समस्याएं हैं। अहंकार बड़ाया जा सकता है, अहंकार कोफुसलाया जा सकता है, और अहंकार को जबरदस्ती आज्ञाकारी भी बनाया जा सकता है। स्व तो आंतरिक सत्ता है-विद्रोही, वैयक्तिक; उसे समाज अपना हिस्सा नहीं बना सकता।
इसलिए समाज आपके स्व में कोई रस नहीं लेता, समाज तो आपके अहंकार में ही रस लेता है, क्योंकि आपके अहंकार के साथ कुछ किया जा सकता है, और आपके स्व के साथ तो कुछ भी हनीं किया जा सकता। इसलिए समाज आपके अहंकार की मजबूत करने में सहायक होता है, और आप अपने अहंकार के इर्दगिर्द ही जीने लगते हैं। जितने आप बड़ते हैं, जितने अधिक आप सामाजिक, शिक्षित, सुसंस्कृत, सभ्य बनते हैं, उतना ही यादा परिष्कृत आपका अहंकार होता जाता है। तब फिर आप अहंकार से काम करने लगते हैं, क्योंकि स्व का आपको कुछ पता ही नहीं है।
इसलिए आपका वास्तविक स्व आपके अचेतन में उतर जाता है, आंतरिक अंधकार में, और एक झूठी बनावट, एक सामाजिक बनावट-अहंकार आपका केंद्र हो जाता है। अब आप अपने को अपने अहंकार से जोड़ लेते हैं, अपने नाम से, अपनी शिक्षा से, अपने कुटुंब से, अपने धर्म से, अपने देश से। ये सब आपके अहंकार के हिस्से हैं, स्व आपके देश का भी नहीं है, यह स्व आपके धर्म से संबंधित नहीं है, और यहां तक कि यह स्व स्वयं आपसे भी संबंधित नहीं है। यह किसी का भी नहीं है। किसी से भी संबंधित नहीं है। स्व तो एक स्वतंत्रता है; वह तो एक समग्र मुक्ति है। वह अपने आप में ही पूर्ण होता है। वह किसी से संबंधित नहीं होता; वह किसी पर भी निर्भर नहीं होता। वह तो सिर्फ होता है।
परंतु अहंकार तो समाज-संबद्ध होता है। वह एक ढांचे में जीता है। इसलिए यदि आपको एक लंबे समय के लिए अकेला छोड़ दिया जाए, तो आपका अहंकार धीरे-धीरे कम हो जाएगा। धीरे-धीरे आपके अनुभव होगा कि आपके अहंकार को भोजन नहीं मिल रहा है और वह मर रहा है। क्योंकि अहंकार को जीने कि लिए लगातार दूसरों की मदद की आवश्यकता होती है। उसे निरंतर बाह्य ऊर्जा चाहिए-दूसरों से भोजन चाहिए। इसलिए प्रेम एक बहुत ही ऊंची अहंकार की भावना को उत्प्रेरित करता है, क्योंकि प्रेम में दूसरा आपको महत्व देता है, अर्थ देता है। आप पहली बार महत्वपूर्ण हो जाते हैं। और प्रेम में पड़े प्रेम एक दूसरे के अहंकार की बहुत मदद करते हैं। प्रेम अहंकार के लिए एक बहुत ही सूक्ष्म भोजन है; अहंकार का आत्यंतिक विटामिन प्रेम है।
इसलिए महावीर, बुद्ध, मोहम्मद व क्राइस्ट, सब के सब समाज को छोड़कर चले गए। वास्तव में, यह कोई समाज से बचकर भागना नहीं था; बल्कि वे सब एकांत में चले गए थे। वह समाज के खिलाफ नहीं था। मूलतः यह जानना उनका ध्येय था कि क्या उनका अहंकार समाज के बाहर भी जी सकता है? और महावीर लगातार बारह वर्ष एकांत में थे अपने इस अहंकार, इस सामाजिक बनावट को गलाने के लिए। वे कुछ समय के लिए बिना इस बनावटी केंद्र के रहे, ताकि वह जो एक वास्तविक केंद्र, प्रामाणिक केंद्र, है-स्व है-ऊपर आ सके।
थोड़े समय अंतराल में रहना होगा। वह अंतराल एक अराजकता होगी, क्योंकि आप अहंकार में केंद्रित हैं, और वास्तविक केंद्र पीछे छिपा हुआ है। जब तक आप इस झूठे केंद्र को नहीं गला देते, आप वास्तविक केंद्र को नहीं पहुंच सकते, क्योंकि अहंकार के रहते उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं होती, अहंकार उसकी परि-पूर्ति करता रहता है। अहंकार पर्याप्त है, यहां तक संसार का, समाज का, दूसरों का संबंध है। यदि आप एकांत में चले जाए, तो यह अहंकार नहीं बच सकता, क्योंकि यह एक सेतु है मैं और तू के बीच में। यदि का दूसरा किनारा न हो, तो एक ही किनारे पर सेतु नहीं रह सकता। उसे सदैव दो किनारों की आवश्यकता होती है। इसीलिए यह एकांत में लौटना एक गहरी साधना बन जाता है।
किंतु आप अपने कोधोखा दे सकते हैं। यदि आप एकांत में चले जाएं और फिर परमात्मा से बातचीत करना शुरू कर दें, तब फिर आप अपने अहंकार को निर्मित कर लेंगे। आप ने तू को फिर से पैदा कर लिया। इसलिए यदि आप एकांत में जाते हैं और फिर परमात्मा से प्रार्थना करते है, और परमात्मा से बातचीत करना शुरू कर देते हैं, तब फिर आप एक काल्पनिक तू को निर्मित कर लेंगे और अहंकार पुनः जी उठता है। एकांत में होने का अर्थ हैः बिना तू के होना-कोई तू नहीं-पूर्णरूपण अकेले होना। तब यह अहंकार नहीं जी सकता। यह सूख जाएगा, और तब आप एक अराजक स्थिति में होंगे, क्योंकि कुछ समय तक आप बिना केंद्र के ही होगे। इस अराजक स्थिति का समाना तो आपको करना ही पड़ेगा। जब तब आप उसका सामना नहीं करेंगे, आप स्वयं अपने में केंद्रित नहीं हो सकते। आपको इस स्थिति में से गुजरना ही पड़ेगा।
ईसाई रहस्यवादियों ने इसे-आत्मा की अंधेरी रात्रि-द डार्क नाइट ऑफ द सोल कहकर पुकारा है। सचमुच व्यक्ति इसमें पागल ही हो जाता है, क्योंकि जब आपका कोई केंद्र नहीं होता, तो आप पागल हो जाते हैं। आपके पास कोई स्थान ही नहीं है जहां से कि आपको काम करना है, अब आपके पास कोई एकता नहीं है। आप केवल टुकड़े ही टुकड़े हैं, जिनमें कि कोई ऊर्जा नहीं है-बिना किसी केंद्र के, बिना किसी फोकस के आप एक भीड़ हैं।
आप पागल हो जाएंगे, इस विक्षिप्तता का सामना करना पड़ेगा। यही एकमात्र साहस का स्थान है। धार्मिक क्रांति आवश्यक रूपेण विक्षिप्ततापूर्ण होगी ही-बिना किसी केंद्र के। यही सच्ची तपश्चर्या है कि आप इसमें से गुजर जाएं बिना किसी झूठे केंद्र को निर्मित किए, इतनी ईमानदारी के साथ कि जब तक सच्चा, प्रामाणिक केंद्र नहीं मिल जाता है, तब तक आप कोई और केंद्र निर्मित नहीं करेंगे। आप केवल प्रतीक्षा करेंगे। यह प्रतीक्षा यह प्रतीक्षा कितना समय लेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
 महावीर को इस एकांत में बारह वर्ष रहना पड़ा, मोहम्मद उसमें केवल तीस दिन ही रहे। यह बहुत सी बातों पर निर्भर करता है। मैं सोचता हूं महावीर को बारह वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी, क्योंकि वे एक बड़े सम्राट के लड़के थे। वे जरूर झूठे अहंकार में गहराई से जड़ जमाए होंगे-मोहम्मद से अधिक ही। वे कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। उनका अहंकार मोहम्मद से बहुत अधिक था। मोहम्मद एक गरीब आदमी थे, बिना किसी अहंकार के बड़ाए-अशिक्षित, सचमुच ही-नो बड़ी-कुछ नहीं। वे कुछ नहीं थे। किंतु महावीर तो कुछ थे-समबड़ी। वे एक ऊंचे खानदान से थे। उनकी एक लंबी वंशावली थी-एक बहुत शानदार अहंकार वाले सुशिक्षित, सुसंस्कृत। हर प्रकार से उनका अहंकार बहुत ही सघन था और उन्हें बारह वर्ष लगे उसे ठीक से गलाने में।
जीसस केवल चालीस दिन एकांत में रहे। वे भी एक गरीब आदमी थे और कुछ भी ऐसा नहीं था जो कि उनके अहंकार को बड़ाता। सभ्यता जितनी आगे प्रगति करती है, उतना ही अधिक कठिन यह अहंकार होता जाता है, क्योंकि हर एक प्रगतिशील सभ्यता का सखत करने वाला असर अहंकार पर पड़ता है, जिससे कि सभ्यता का निर्माण होता है।
निरहंकारिता की केंद्र हीन अराजकता में से गुजरना, अंततः आपको अपने केंद्र पर फेंक देता है-वास्तविक केंद्र पर, सेल्फ, पर, स्व पर। इसकी कितनी ही विधियां हैं कि कैसे इस अराजकता से गुजरें और कैसे इस अहंकार को नष्ट करें। किंतु यह आधारभूत बात है कि आपमें इतना साहस हो कि आप कुछ समय के लिए इसमें रह सकें।
आप इसे समर्पण से भी कर सकते हैं। आप आपने को किसी को समर्पित कर सकते हैं किसी गुरु को। यदि समर्पण पूरा है, समग्र है, तो फिर आप बिना अहंकार के होंगे। आप तब स्व हो सकते हैं, क्योंकि समग्र समर्पण में अहंकार जी नहीं सकता, इसीलिए समर्पण इतना कठिन है, और जितना अहंकारी समाज होता जाता है, उतना ही समर्पण कठिन होता जाता है। समर्पण में आप अपने को दे देते हैं। आप एक छाया हो जाते हैं, आप केवल आज्ञाओं का पालन करते हैं। आप उनके बारे में कुछ भी विचार नहीं करते, क्योंकि आप स्वयं तो हैं ही नहीं। परंतु जब कभी समर्पण का विचार उठता है, हर कोई सोचने लगता है कि यदि मैं समर्पण कर देता हूं, तो फिर मेरी निजता का क्या होगा?
लेकिन यह बिल्कुल हो गलत है। क्योंकि आप समर्पण तो तभी करते हैं केवल तभी, जब आपकी निजता होती है; और अहंकार आपकी निजता नहीं है। वह झूठी है, वह सिर्फ एक मरीचिका है। यदि आप अपने झूठ का समर्पण कर देते हैं तो आपका जो वास्तविक स्व है वह अवश्य विस्फोटित होगा। और यही समर्पण की सुंदरता है कि आप स्व का समर्पण नहीं कर सकते। वह असंभव है। आप केवल अपने अहंकार का ही समर्पण कर सकते हैं। आप केवल वही छोड़ सकते हैं जो कि आपको दिया गया है। आप अपने स्व को नहीं छोड़ सकते; वह असंभव है। उसकी कोई संभावना नहीं है। कैसे आप अपना स्व छोड़ सकते हैं? आप केवल वही तो छोड़ सकते हैं, जो कि आपके भीतर भर दिया गया हैं, जो कि समाज ने आपके भीतर डाल दिया है। वास्तव में, आप केवल वही छोड़ सकते हैं, जो कि आपका हिस्सा नहीं है।
यह बड़ा विरोधाभासी लगेगा। आप केवल वही छोड़ सकते हैं जो कि आप स्वतः नहीं हैं। जो कुछ भी आप है, आप नहीं छोड़ सकते। इसलिए समर्पण में आप केवल वही छोड़ते हैं, जैसा कि आप अपने को जानते हैं। तब केवल स्व ही बचता है-जो कि आप स्वतः हैं और जिसे कि आप छोड़ नहीं सकते। जब झूठा गिर जाता है, तब ही तो सच्चे की, वास्तविकता की उपलब्धि होती है।
इसलिए दो तरीके हैं-दो आधारभूत तरीके; एक है समर्पण। समर्पण के भी कितने ही तरीके हैं, परंतु बुनियादी रूप से, सदैव किसी न किसी को समर्पित करना होता। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि किसको! असली बात तो समर्पण की घटना है। इसलिए कभी-कभी ऐसा भी होता है कि गुरु खुद ही सच्चा नहीं होता, किंतु यदि आप समर्पण करते हैं, तो आप सच्चे स्व को उपलब्ध कर सकते हैं।
एक झूठा गुरु भी सहायक हो सकता है-एक मृत गुरु भी काम का हो सकता है-क्योंकि वास्तविक बात यह नहीं है कि आप किसको समर्पण कर रहे हैं, किंतु असली बात तो यह है कि आप समर्पण कर रहे हैं। घटना आपके भीतर है। वह किसके प्रति है, यह बिल्कुल ही असंगत है। कृष्ण हुए हों या न हुए हों; बुद्ध ऐतिहासिक व्यक्ति हों, अथवा न हों; जीसस चाहे एक कहानी हों, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि आप जीसस के प्रति समर्पण करते हैं, चाहे जीसस कभी हुए हों या नहीं, वह घटना आपमें घट जाएगी। समर्पण ही मूल्यवान चीज है।
इसलिए एक बुनियादी मार्ग समर्पण का है। दूसरा है पूर्ण संकल्प का। समर्पण आप न करें। परंतु तब पूर्णतः स्वयं हो जाए। मैंने कहा कि जब आप समर्पण करते हैं, तो आपका स्व समर्पित नहीं होता। जो कुछ भी आप समर्पण करते हैं, वह सब अहंकार ही होगा झूठा मुखौटा न कि सार सत्ता। दूसरा आधार भूत मार्ग है कि आप समग्र हो जाओ। समर्पण न करो, परंतु तब पूरे संकल्पवान हो जाओ।
अहंकार का कोई संकल्प नहीं होता, हो ही नहीं सकता। अहंकार पूर्णतः संकल्प होता है, क्योंकि एक झूठे व्यक्तित्व का कोई संकल्प नहीं हो सकता। संकल्प तोप्रामाणिक का ही हो सकता है। आप तो पूरी तरह संकल्परहित हैं। सुबह आप कुछ निश्चित करते हैं, दोपहर में आप उस निश्चय को तोड़ देते हैं। जब आप निश्चय कर रहे होते हैं, उस क्षण भी आपका कोई हिस्सा उसे काट ही रहा होता है। आप कहते हैं-मैं प्रेम करता हूं। गहरे भीतर जाएं और कहीं कोने में घृणा छिपी पड़ी होगी। जिस क्षण में, आप तय करते हैं-मैं यह न करने जा रहा हूं, उसी क्षण उसका विपरीत वहां मौजूद होता है।
संकल्प का मतलब होता है कि कुछ विपरीत नहीं है मन में। संकल्प का मतलब होता हैः एक होना-दो नहीं। अहंकार का संकल्प नहीं हो सकता। अहंकार का मतलब होता हैः बहुत से विरोधी विकल्प एक साथ। जहां तक अहंकार का संबंध है, आप एक भीड़ हैं। और ऐसा होगा ही, यह प्राकृतिक है। जैसा मैंने कहा कि अहंकार संबंधों से निर्मित होता है, यह एक उप-उत्पत्ति है। आपके बहुत से संबंध हैं, और आपका अहंकार इन्हीं सारे संबंधों से बना हुआ है। वह एक नहीं हो सकता; वह एक भीड़ है; और भीड़ में संकल्प नहीं होता।
इसे इस तरह देखेंः आपके पास अहंकार का एक हिस्सा जो कि आपकी मां के साथ निर्मित हुआ-आपके अहंकार का एक टुकड़ा जो कि आपकी मां के साथ संबंधों में निर्मित हुआ। आपके अहंकार का एक दूसरा हिस्सा है जो कि आपके पिता के साथ संबंधों में निर्मित हुआ; एक और हिस्सा है जो कि पत्नी के साथ निर्मित हुआ। अब जो हिस्सा आपकी पत्नी के साथ निर्मित हुआ, वह वही नहीं हो सकता जो कि आपकी मां के साथ निर्मित हुआ था। वे एक दूसरे के विरोधी में होंगे, वे आपके भीतर लड़ेंगे। ऐसा नहीं है कि बाहर आपकी पत्नी और आपकी मां ही लड़ेंगी। आपके अहंकार के जो दो खंड हैं, वे भी लड़ेंगे। ऐसा नहीं है कि आपके माता और पिता बाहर लड़ेंगे, किंतु वे भीतर भी लड़ेंगे अहंकार के खंडों के रूप में। आपके भीतर अहंकार के नाम पर एक भीड़ है-पूरी भीड़। एक लड़ाई, एक द्वंद्व, लगातार चल रहा है। आप कुछ भी संकल्प नहीं कर सकते।
गुरजिएफ कहा करता था कि आप संकल्प नहीं कर सकते, क्योंकि आप हैं ही नहीं। आदमी की कोई सत्ता नहीं है, क्योंकि आदमी एक नहीं हैं। आप एक भीड़ हैं, एक भीड़ बिना किसी एकता के। आपके बहुत से चेहरे हैं, आपके बहुत से संकल्प हैं। किसी खास क्षण में, किसी विशेष परिस्थिति में, एक खंड मालिक होता है। तब आप कुछ बात करते हैं। फिर आप कुछ करने का निश्चय करते हैं। उस क्षण में आपको लगता है कि आपके पास भी संकल्प है, किंतु दूसरे क्षण में वह खंड तो नीचे चला गया और दूसरा खंड ऊपर आ गया, और इस खंड को आपके पूर्व निश्चय का कोई पता नहीं है।
आप क्रोध में हैं, और तब आप निश्चय करते हैं कि अब मैं क्रोध न करूंगा। जो खंड क्रोधित हुआ था, उसने यह निर्णय नहीं किया है। यह दूसरा हिस्सा है, और वे दोनों आपके जीवन में, हो सकता है कभी भी नहीं मिलें। दूसरों हिस्सा जो कि निर्णय लेता है कि मैं क्रोध नहीं करूंगा-यह वह हिस्सा ही नहीं है, जिसने कि क्रोध किया था। और उनमें कोई मिलन नहीं होता। जो खंड क्रोधित हुआ था, वह कल फिर क्रोध करेगा। और जब वह हिस्सा क्रोध करेगा, तब आप बिल्कुल ही भूल जाएंगे कि आपने क्या निर्णय किया था। आप फिर पश्चात्ताप करेंगे, दूसरा हिस्सा ऊपर आ जाएगा; और यह क्रम चलता चला जाएगा।
गुरजिएफ कहा करता था कि हम उस घर के समान हैं, जिसका मालिक या तो सोया हुआ है आ कहीं बाहर चला गया है। वर्षों से लगातार उस घर ने अपने मालिक को नहीं जाना। वहां जो बहुत से नौकर हैं, यह भूल गए हैं कि तभी कोई मालिक भी था। वर्षों से नौकर ही घर में रह रहे हैं बिना मालिक के। कोई घर के पास से गुजरता है, कोई नौकर बाहर की तरफ होता है, और वह नौकर से पूछता है कि यहां का मालिक कौन है? नौकर कहता है-मैं ही मालिक हूं।
दूसरे दिन फिर वही आदमी उस मकान के पास से निकलता है और वहां किसी और को देखता है। वह पूछता है-यहां का मालिक कौन है? दूसरा नौकर कहता है कि मैं ही मालिक हूं। प्रत्येक नौकर दावा करता है कि मैं ही मालिक हूं, और कुछ भी निश्चित नहीं किया जा सकता है कि मालिक कौन है। ये मालिक बने नौकर कुछ निर्णय तो कर सकते हैं, किंतु ये उसे पूरा नहीं कर सकते। ये कुछ वादा भी कर सकते हैं, किंतु उसे पूरा नहीं कर सकते, क्योंकि वे मालिक कतई नहीं हैं।
यही अहंकार की स्थिति है। वह संकल्प नहीं कर सकता। इसलिए दूसरा हिस्सा है कि संकल्प निर्मित करो। यदि आप संकल्प निर्मित करेंगे, तो फिर अहंकार विलीन हो जाएगा, क्योंकि केवल स्व ही संकल्प कर सकता है। इसलिए यदि आप संकल्प करना शुरू करते हैं, यदि आप संकल्प पर जोर देते हैं, तोधीरे-धीरे आप नीचे चले जाएंगे। अहंकार संकल्प नहीं कर सकता, यदि आप संकल्प पर जोर देते हैं, तो अहंकार विलीन हो जाएगा।
समर्पण एक आधारभूत मार्ग है-भक्तों का मार्ग। दूसरा आधारभूत मार्ग है-संकल्प, तप-सैनिकों का, लड़ने वालों का। प्रत्येक मार्ग की अपनी विधि होती है, परंतु विधि तो मुखय बात नहीं होती है। गुरजिएफ दूसरे मार्ग का उपयोग करता था-संकल्प के मार्ग का। वह उसे क्रिस्टलाइजेशन-(सघन होना) कहता था। वह कहता था यदि तुम संकल्प करते हो, तोधीरे-धीरे तुम सघन होते जाओगे अपने केंद्र पर। एक संकल्पवान चेतना के साथ अहंकार नहीं ठहर सकता। वह नहीं जी सकता।
इसलिए गुरजिएफ आंतरिक अखंडता के लिए बहुत गहरे प्रयोग करता था। उदाहरण के लिए, वह कहता-सात दिन तक मत सोओ। कुछ भी हो जाए, किंतु सात दिन तक मत सोओ। आप सात दिन बिना भोजन के रह सकते हैं; यह इतना कठिन नहीं है। परंतु सात दिन बिना सोए रहना बहुत कठिन है। एक आदमी बिना भोजन के कम से कम नब्बे दिन जीवित रह सकता है, बिना किसी खतरे के। किंतु नींद के बिना यह मुश्किल है।
भोजन आपकी इच्छा पर निर्भर है। आप खा भी सकते हैं, और नहीं भी खा सकते। नींद आपकी स्वेच्छा पर निर्भर हैं, और नहीं भी खा सकते। नींद आपकी स्वेच्छा पर निर्भर नहीं है, वह नॉन-वालंटरी है। या तो वह आती है, अथवा वह नहीं आती। आप उसे ला नहीं सकते। आप जबरदस्ती अपने को नहीं सुला सकते। आप अपने को नहीं खाने के लिए जबरदस्ती तैयार कर सकते हैं, अथवा अपने आपको अधिक भोजन के लिए भी जबरदस्ती राजी कर सकते हैं। वह स्वेच्छा की बात है। किंतु नींद स्वेच्छा की बात नहीं हैं। आप अपने को सोने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। और जब नींद आती है तब आप अपने अहंकार के सहित जागते नहीं रह सकते। परंतु आप जोर दे सकते हैं, आप कह सकते हैं-कुछ भी हो जाए, मैं नहीं सोऊंगा। मैं मरने को तैयार हूं, किंतु सोने को नहीं।
गुरजिएफ का मुखय शिष्य ऑस्पेन्सकी मर रहा था। परंतु वह लेटा नहीं, वह घूमता ही रहा। वह मर रहा था, और जान रहा था कि मृत्यु आ रही है। परंतु वह लेटा नहीं। डॉक्टरो ने जोर दिया, बहुत कहां, परंतु वह लेटने के लिए तैयार नहीं हुआ। उसने कह दिया-मैं चलता हुआ ही मरूंगा; मैं होशपूर्वक मरूंगा। उसने मृत्यु का उपयोग कर लिया संकल्प को निर्मित करने के लिए। और चलता हुआ ही मरा। वह पहला आदमी था मनुष्य जाति के इतिहास में जो होश पूर्वक चलता हुआ मरा।
सोचें, कल्पना करें कि उसके भीतर क्या घटना घट रही थी। यह कोई साधारण नींद नहीं थी, यह मृत्यु थी। और वह मृत्यु के समक्ष भी समर्पण करने को तैयार नहीं था। यह समर्पण का विरोधी मार्ग है। वह मृत्यु तक को समर्पण करने को राजी नहीं था। वह संघर्ष करता रहा। वह तीन दिन और तीन रात लगातार चलता रहा। शरीर बहुत रुग्ण व वृद्ध था। जो लोग उसकी देख रेख कर रहे थे, वे भी उसके साथ न चल सके। उन्हें भी सो जाना पड़ा, जब उनमें से कोई सो जाता, तो दूसरे उसकी देख रेख करते। एक बारह आदमियों का समूह बराबर उसकी निगरानी में दिन और रात रहा तीन दिन तक। वह बराबर चलता रहा, वह बैठा भी नहीं। वह मृत्यु के साथ कोई समझौता, कोई सुलह करने को राजी नहीं था। वह एक सघन व्यक्ति, क्रास्टलाइ ड आदमी होकर मरा। उसने मृत्यु का भी उपयोग किया संकल्प को निर्मित करने के लिए।
आप नींद से लड़ सकते हैं, आप भोजन से संघर्ष कर सकते हैं, आप यौन से लड़ सकते हैं, आप किसी चीज से भी लड़ सकते हैं। परंतु तब कोई समझौता नहीं, तब कोई संपर्क नहीं। तब उसमें समग्र हो जाएं। किंतु अहंकार समग्र नहीं बन सकता किसी भी चीज में। और यदि आप किसी भी चीज में समग्र हो जाते हैं, तो अहंकार विलीन हो जाता है, और अचानक आप अपने भीतर एक दूसरे ही केंद्र के प्रति जाग्रत होते हैं। अहंकार संकल्प नहीं करता, इसलिए यदि आप संकल्प करते हैं, तो अहंकार नहीं टिक सकता। इसलिए या तो पूरी तरह समर्पण करें अथवा संकल्प करें पूर्णतया। तब आप जानेंगे कि ये जो विरोधी हिस्से जैसे दिखलाई पड़ते हैं वास्तव में विरोधी नहीं हैं-समग्रता, समग्र समर्पण अथवा समग्र संकल्प। अहंकार कभी भी समग्र नहीं हो सकता किसी भी चीज में। वह सदैव विभाजित, टुकड़े-टुकड़े होते हैं। अतः समग्र हो जाएं। किसी भी रूप से, और अहंकार विलीन हो जाता है, और जब कोई अहंकार नहीं रहता, वह पहली दफा आप वास्तविक केंद्र के प्रति सजग होते हैं।
मैं इसे सेंटरिंग-केंद्रित होना कहता हूं; गुरजिएफ इसे क्रिस्टलाइजेशन-सघनीभूत होना कहता है। शब्दों का बहुत मूल्य नहीं है। इस केंद्रित होने से आप वह हो पाते हैं, जो कि आप हैं। इस तरह केंद्रित होने से आप अस्तित्व में होते हैं। पहले आप समाज में होते हैं, न कि अस्तित्व में। इसके पूर्व आप एक सभ्यता के, एक संस्कृति के एक भाषा के, एक धर्म के हिस्से होते हैं, न कि अस्तित्व के। इसके पहले इसके हिस्से होते हैं। और एक बार जब आप केंद्रित हो जाते हैं, तो उसके हिस्से हो जाते हैं जो कि उस पार है, जो कि अनिर्मित है, जो कि शाश्वत है। तब आप मूल-स्रोत को पहुंचते हैं। आप उसे परमात्मा कह सकते हैं, आप उसे आत्मा कह सकते हैं, आप उसे जो भी चाहें उस नाम से पुकार सकते हैं। उपनिषद उसे दैट-तत कहते हैं-वह जो कि अजन्मा है, वह जो कि अ-मृत है, वह जो कि बस, है।
यह केंद्रित होना असंभव नहीं है, संभव है। असंभव यह दिखलाई पड़ता है, प्रतीत होता है, यह केवल अहंकार के लिए असंभव है-आपके लिए नहीं, क्योंकि अहंकार इसे नहीं पा सकता। बल्कि इसे पाने से तो अहंकार मर जाएगा।
योग के पुराने शास्त्र कहते हैं-सुनो, जो कुछ भी गुरु कहता है और उसका अनुसरण करो, क्योंकि वह तुम्हारा ही स्व है, सेल्फ है। जो कुछ भी वह कह रहा है, वह तुम्हारी ही आंतरिक आवाज है। इसलिए वे कहते हैं कि सच्चा गुरु तुम्हारे ही अंतर में रहता है। तुम्हारे बाहर का गुरु तो सिर्फ तुम्हारे भीतर के गुरु को जगाने के लिए है। इसलिए वस्तुतः गुरु के प्रति समर्पण तुम्हारे ही स्व के प्रति समर्पण है। यह ऐसा है कि आप दर्पण के सामने खड़े होते हैं और पहली बार आप अपने चेहरे को दर्पण के माध्यम से देखते हैं। गुरु तो केवल एक दर्पण है। यदि आप समर्पण करते हैं, तो आप अपने ही स्व के प्रति सजग होते हैं। यह एक मार्ग है। दूसरा है कि आप अपने संकल्प का पता लगाए। और निर्णय करें कि आपका कौन सा मार्ग है, क्योंकि, जहां तक मैं जानता हूं, ऐसे बहुत से लोग हैं, जो कि सिर्फ सोचते रहते हैं। कभी वे समर्पण के लिए सोचते हैं, कभी वे संकल्प के लिए सोचते हैं। यही उनका रास्ता है! जब कभी आप उनसे समर्पण के लिए कहते हैं, तो वे संकल्प के बारे में सोचने लगते हैं। यदि आप उनसे संकल्प के बारे में कहते हैं, तो वे समर्पण के बारे में सोचने लगेंगे। अहंकार का यही एक ढंग है काम करने का। यह वस्तुतः उसकी सुरक्षा-नीति है, इसके अभाव में वह जी नहीं सकता।
यदि मैं आपसे कहता हूं कि समर्पण करो, तो आप सोचेंगे कि मैं समर्पण कैसे कर सकता हूं? मेरी वैयक्तिकता का क्या होगा, मेरी स्वतंत्रता का क्या होगा? और आपके पास कुछ भी नहीं है-न कोई वैयक्तिकता है और न कोई स्वतंत्रता। आप एक ऐसी चीज के खो जाने से डर रहे हैं जो कि आपके पास है ही नहीं। तब यदि मैं कहूं-समर्पण मत करो। संकल्प पैदा करो। तब आप कहते हैं कि मैं तो इतना कमजोर हूं कि मैं कैसे संकल्प पैदा कर कसता हूं। वह तो इतना कठिन है। और ये दोनों ही शिक्षाओं के हिस्से आपके अहंकार के भीतर हो सकते हैं और तब आप अनिश्चय में रहते जा सकते हैं। यह डांवाडोल स्थिति आपकी कभी मदद नहीं करेगी अपने केंद्र पर आने के लिए।
निर्णय करें, या तो यह, या वह, और तब किसी एक को मान कर चलें-समग्रता से, पूर्णरूपेण उसका अनुगमन करें, क्योंकि यह समग्रता अंततः आपके झूठे अहंकार का ढांचा नष्ट करने में मदद करती है। और जब झूठा केंद्र नहीं होता है, तभी आप वास्तविक केंद्र को जान पाते हैं। बीच में एक अंतराल होगा-एक अराजकता का अंतराल। उसका समाना आपको करना पड़ेगा। वह पीड़ादायी भी है, किंतु वह जन्म होने की पीड़ा है। किसी को भी उसमें से गुजरना ही पड़ेगा, क्योंकि वह आवश्यक है। परंतु जब आप केंद्र पर पहुंचते हैं, तब आप जानते हैं कि आपने कुछ भी तो नहीं दिया। जो कुछ भी आपने उपलब्ध किया है वह अमूल्य है, और जो कुछ आपने दिया है वह कुछ नहीं है। किंतु जब तक आप पा नहीं लेते, आपका श्रम बहुत कीमती है।
अंतिम बात, कि आपको कुछ स्पष्ट न हो, तब भी आप यह सोचते चले जा सकते हैं कि आप केंद्र पर पहुंच गए, आप सघन हो गए, क्योंकि आपने अहंकार कोधनी भूत कर लिया है। फिर इसमें क्या अंतर है? कैसे आप जानेंगे कि आप अहंकार में केंद्रित हो गए हैं अथवा स्व में? तीन बातें ख्याल में रखनी हैंः एक, यदि आप अहंकार में केंद्रित हो गए, तो आप कभी भी शांत नहीं होंगे-कभी भी नहीं। तब आप भीड़ में होंगे, बाजार में होंगे। आपका अहंकार बाजार की ही उत्पत्ति है। आप उसके साथ कभी भी शांत नहीं होंगे।
दूसरी बात, आपको आनंद का एक कण भी नहीं मिलेगा, क्योंकि आनंद केवल वास्तविक केंद्र पर ही उपलब्ध होता है। मौन केवल सच्चे केंद्र पर ही घटित होता है। आनंद और मौन वास्तविक केंद्र के गुण हैं। आपको उनके लिए कोईप्रयत्न नहीं करना पड़ता। वे तो वहां हैं ही। इसलिए यदि आप अहंकार में स्थित हैं, तो आपकी खुशी सदा भविष्य की वस्तु होगी-जो कि अभी मिली नहीं होगी, जो कि सदा मिलने को शेष होगी।
और तीसरी बात, आपका जीवन भय-केंद्रित होगा, जब आप अहंकार में होंगे। जो कुछ भी आप करेंगे, वह सब भय से उत्पन्न होगा। आप भय के ही कारण करेंगे। यदि आप प्रार्थना भी करते हैं, तो वह भी डर के मारे ही करते हैं। यदि आप परमात्मा के बारे में सोचते हैं, तो वह भी भय के कारण ही सोचते हैं। यदि आप धन भी इकिं करते हैं, तो वह भी डर के कारण से ही करते हैं। यदि आप मित्र भी बनाते हैं या जो कुछ भी आप करते हैं, आप की बुनियादी कर्तृत्व शक्ति भय ही निकली होगी।
ये तीन बात होगी। किसी प्रकार की शांति संभव नहीं होगी, क्योंकि भीतर एक भीड़ है-द्वंद्वों से भरी भीड़। तनावों की, द्वंद्वों की, चिंताओं की और संतापों की भीड़, परंतु कोई शांति नहीं है, कोई सुख नहीं है, क्योंकि सुख केंद्र पर है, न कि अहंकार में, परिधि पर। और भय पैदा होता रहेगा, क्योंकि अहंकार सदैव मृत्यु से डरता रहता है; क्योंकि अहंकार निर्मित किया हुआ है, न कि वास्तविक। इसलिए वह मृत्यु से डरता रहता है।
स्व मृत्यु से कभी नहीं डरता, स्व ने मृत्यु को कभी नहीं जाना। केंद्र-वास्तविक केंद्र की मृत्यु तो असंभव है। अमरत्व हो उसका गुण, बल्कि उसका स्वभाव है। इसलिए इसे स्मरण रखें।
मन सदैव तनाव में, संताप में रहेगा और सुख के लिए बहुत लालायित होगा- किंतु बिना किसी अनुभव के और सदैव कांपता हुआ-भय केंद्रित। आपका धर्म भी केवल एक भय होगा; आपके विश्वास, आपके दर्शन सब भय से निकले हुए होंगे। वे आपके भय को छिपाने के लिए, आपको भय से बचाने के लिए, आपकोधोखा देने के लिए ही होंगे।
यदि आप अपने वास्तविक केंद्र पर होंगे, तो शांति आप का स्वभाव होगा, जो कि किसी भी स्थिति पर निर्भर नहीं होगा। अब स्थिति ही ऐसी होगी कि आप शांत होगे। कैसी भी स्थिति हो, आप शांत होंगे, आप इसके अलावा कुछ हो भी ही नहीं सकते। अब कुछ भी आपको अशांत नहीं कर सकता। परेशानियां वहां होंगी, किंतु आप अस्पर्शित अप्रभावित ही बचे रह जाएंगे। अब कुछ भी आपके केंद्र के भीतर प्रवेश न कर सकेगा, वह कर ही नहीं सकता।
शांति तब परिस्थिति जन्य नहीं होगी। ऐसा नहीं है कि दिन अच्छा है, या कि आप सफल हो गए हैं, कि आप मित्रों से घिरे हैं, इसलिए शांति है। नहीं, वह किसी परिस्थिति पर निर्भर नहीं है। शांति बस है। कैसी भी स्थिति हो, शांति ही है, आनंद ही है-भविष्य में नहीं, किंतु अभी और यहीं-इसी क्षण। और यह आनंद कोई घटना नहीं है, किंतु एक मनोदशा है। ऐसा नहीं है कि आप प्रसन्न हैं। आप इसके अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकते। आप आनंद ही हैं, और भय खो गया है। और भय के खो जाने। के साथ वह सारा संसार भी जो हमने भय के कारण चारों तरफ निर्मित किया थे, वह भी विलीन हो गया है। आप एक अभय के जगत में प्रवेश करते हैं। और जब कोई भय नहीं है, तो केवल स्वतंत्रता ही संभव है।
भय और स्वतंत्रता, दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। केवल अपने भय के कारण ही हमने इतनी सारी दासताएं, इतनी सारी बेड़ियां निर्मित की हैं। हमारा कारागृह हमारे ही भय के कारण है। इसलिए ये तीन बातें स्मरण रखें। जब एक बार आपने असली केंद्र को जान लिया, तो आप वही नहीं हो सकते। वह पुराना आदमी अब मर गया, और नया आदमी जनम गया। यह नया जन्म होगा। जब बच्चा पैदा होता है, तब केवल शरीर ही पैदा होता है। फिर समाज के द्वारा उसे अहंकार दिया जाता है। आप इस अहं और इस शरीर के साथ जीते चले जाते हैं-बिना किसी स्व के। जब तक आप इस अहंकार को नहीं मिटाएं, और सेल्फ को, स्व को न खोज लें, आपका जीवन बेकार है। क्योंकि वह शरीर तो माता-पिता से मिल जाता है, और अहंकार समाज द्वारा दे दिया जाता है। फिर आप कौन हैं? शरीर माता-पिता का है, वंश परंपरा का है, एक लंबी क्रांखला का हिस्सा है, और अहंकार समाज का हिस्सा है, तो फिर आप कौन हैं?
गुरजिएफ कहा करता था कि आप हैं ही नहीं। आप तो केवल एक बनाया हुआ ढांचा हैं। जब तक कि आप ऐसा कुछ नहीं खोज लेते जो कि माता-पिता से नहीं आया है, जो कि समाज से भी नहीं आया है, जो कि आपके पास कहीं से भी नहीं आया है, जो कि आप अपने तइृध! हैं। जन्म के पहले से, मृत्यु के बाद भी जो आप रहेंगे, जो आप थे, और जो आप हैं; जब तक कि उसे नहीं खोज लेते, आप केंद्र को उपलब्ध व्यक्ति नहीं हैं। आप परिधि पर ही रहते रह सकते हैं। अहंकार की परिधि पर जो अस्तित्व है, इसे ही संसार के नाम से पुकारते हैं-यह के नाम से। वह जो केंद्रस्थ अस्तित्व है, उसे ही निर्वाण कहते हैं-वह।

दूसरा प्रश्नः भगवान, कैसे कोईप्रक्षेपित अनुभव व प्रामाणिक अनुभूति में अंत भेद करे?
कैसे कोईप्रक्षेपित अनुभव व प्रामाणिक अनुभूति में भेद करे? यह जरा कठिन है, क्योंकि हमें कल्पना करनी पड़ती है, इसलिए यह कठिन है। उदाहरण के लिए, आप कैसे मालूम करते हैं कि आप सच्ची आग में हाथ डाल रहे हैं या काल्पनिक आग में? यदि आपने वास्तविक आग को कभी नहीं छुआ है, तो इसके बारे में सोचना बहुत कठिन है, कोई भी सैद्धांतिक अंत र्भेद करना मुश्किल है। यदि आपने वास्तविक आग को स्पर्श किया है, तो फिर इतना कठिन नहीं है। तब आप जानते हैं कि प्रक्षेपित अनुभव एक सपने का अनुभव है।
परंतु हम कुछ बातें ख्याल में ले सकते हैं। यदि आपने कुछ प्रक्षेपित किया है, तो फिर आपको उसे निरंतर प्रक्षेपित करते रहना पड़ेगा, अन्यथा वह विलीन हो जाएगा। उदाहरण के लिए, यदि मैं कहूं कि मैंने उसे वृक्षों में देखा है, मैंने उसे आकाश में देखा है, मैंने उसे सब जगह देखा है; और यदि यह प्रक्षेपित अनुभव है-केवल मेरा प्रक्षेपण, मेरा विचार, जो वस्तुओं पर आरोपित किया हुआ है-न कि मेरा अपना अनुभव, बल्कि एक विचार, एक सिद्धांत जो कि चीजों पर थोपा गया; यदि मैं प्रक्षेपण करता हूं कि मैं एक वृक्ष को परमात्मा की भांति देख सकता हूं, तब फिर मुझे इस प्रक्षेपण की लगातार पुनरावृत्ति करनी पड़ेगी, इसे बनाए रखना पड़ेगा। यदि मैं इसे दोहराना बंद कर दूंगा, यदि मैं इसे एक क्षण के लिए भी भूल जाऊंगा, तो परमात्मा विलीन हो जाएगा और खाली वृक्ष ही रह जाएगा।
प्रक्षेपित अनुभव में आपको उसके लिए लगातार काम करना पड़ता है। आप उससे मुक्ति नहीं ले सकते; आप छुट्टी नहीं मना सकते। तथाकथित साधु-संन्यासी छुट्टी पर नहीं जा सकते। वे सदैव ही काम पर लगे होते हैं! वे बस जुटे हुए हैं रात और दिन। यदि आप उन्हें एक क्षण के लिए भी रोक दें, तो उनका प्रक्षेपित अनुभव गायब हो जाएगा।
कुछ मित्र मेरे पास एक सूफी को ले आए। वह एक वृद्ध आदमी था और उसने मुझसे कहा कि तीस सालों से वह प्रत्येक चीज में परमात्मा को अनुभव कर रहा है। और ऐसा प्रतीत होता था, ऐसा दिखलाई पड़ता था कि वह बड़ा आनंदित था, नाच रहा था; उसकी आंखें किसी अज्ञात अनुभव से प्र वलित थीं। इसलिए मैंने उस फकीर से कहा कि तीस साल से तुम अनुभव कर रहे हो; क्या तुम्हें अभी भी कोईप्रयास करना पड़ता है? उसने कहा कि मुझे लगातार स्मरण रखना पड़ता है। मुझे निरंतर याद रखना पड़ता है। यदि मैं भूल जाऊं, तो सारी बात ही विलीन हो जाएगी! मैंने उससे कहा कि सारे प्रयास छोड़ दो और तीन दिन के लिए मेरे पास रहो।
वह मेरे साथ केवल एक रात्रि के लिए रहा। दूसरे दिन सुबह उसने कहा। आपने क्या कर दिया? आपने सब नष्ट कर दिया। तीस साल तक मैंने मेहनत की और आपने सब खत्म कर दिया। वह रोने लगा। वे ही आंखें जो कि एक अज्ञात रोशनी से चमक रही थी, कुरूप दिखलाई पड़ने लगीं। तीस साल का परिश्रम, और उसने कहा कि मैं किस अभागे क्षण में आपके पास आया था? आपने क्यों मुझे तीन दिन ठहर जाने के लिए कहा? अब मैं वापस उसको कैसे पाऊं?
यह प्रक्षेपित अनुभव है। इसलिए मैंने उससे कहा-अच्छा हो कि वह अनुभव तुम्हें फिर से न मिले, क्योंकि तुमने तीस साल स्वप्न में खो दिए। तुम तीस फिर भी खो सकते हो, किंतु तुम्हें उससे क्या मिलेगा? प्रामाणिक अनुभूति के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती। जब वह होती है, तो बस होती है। अब तुम सब कुछ भूल सकते हो, तुम्हें उसे चलाए रखने की जरूरत नहीं, निरंतर बनाए रखने की कोई जरूरत नहीं है, वह तो स्वतः रहती है। तुम भूल भी जाओ, तो भी वह रहती है। तुम उसकी ओर नहीं भी देखो, तो भी वह रहती है। अब वृक्ष फिर से वृक्ष नहीं हो सकता। अब वह फिर से खाली वृक्ष नहीं हो सकता। चाहे मैं स्मरण रखूं या न रखूं वह दिव्य है।
अतः एक बातः आपको घटना के पहले प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है। स्मरण रखें, कि इसके पहले कि वह घटना घटित हो, आपकोप्रयास करने की जरूरत पड़ती है। दोनों में ही, प्रक्षेपित और प्रामाणिक अनुभव में, घटना के पहले श्रम की आवश्यकता होती है। प्रामाणिक अनुभव में, घटना के पहले श्रम की आवश्यकता होती है। प्रामाणिक अनुभव में, घटना के बाद में किसी प्रयास की जरूरत नहीं रहती। किंतु प्रक्षेपित अनुभव में, निरंतर प्रयास करना पड़ता है, आपको लगातार प्रयास करते रहना पड़ता है। यह सिनेमा हॉल की तरह से है। प्रोजेक्टर बराबर सारे समय चलता रहता है ताकि परदा भरा रहे। यदि एक क्षण के लिए भी फिल्म टूट जाए और प्रोजेक्टर रुक जाए, तो सारी चीज गायब हो जाती है। सारा सपना विलीन हो जाता है और खाली परदा बच जाता है, उस पर कुछ भी नहीं रहता।
सिनेमा हॉल में आपकोप्रोजेक्ट लगातार चालू रखना पड़ता है। तब कोई परदा नहीं होता, बल्कि एक दूसरा ही संसार वहां होता है। वही बात होती है, यदि आपको अपना मन लगातार चलाए रखना हो जैसे कि प्रोजेक्टर चलता है अथवा यदि आपको स्मरण रखना है कि आप परमात्मा हैं, कि प्रत्येक चीज परमात्मा है, तो आपके निरंतर प्रक्षेपण करना पड़ेगा बिना किसी अंतराल के। और यदि जरा भी गैप हो जाएगा, तो सारी बात ही विलीन हो जाएगी। तब वह प्रक्षेपण है। वह प्रामाणिक नहीं हैं, वह वास्तविक नहीं है।
यदि इस निरंतर प्रयत्न की कोई जरूरत नहीं हो, तभी वह प्रामाणिक है, वह वास्तविक है। तब आप उसे भूल सकते हैं। जिस दिन आप परमात्मा को भूल सकते हैं, उसी दिन जाने कि आपने उसे जाना है। यदि अभी भी आपको उसे स्मरण करना पड़ता है, तो फिर वह प्रक्षेपण है। जिस दिन आप अपना ध्यान छोड़ दें और उससे कोई भी अंतर नहीं पड़े कि आप ध्यान करते हैं या नहीं करते हैं-तभी जानें कि वह प्रामाणिक अनुभूति है। यदि आप अपना ध्यान छोड़ देते हैं, यदि आप अपनी प्रार्थना छोड़ देते हैं, यदि अपने सारे प्रयास बंद कर देते हैं, और यदि सब बात बदल जाती है और आपको लगता है, कुछ खो गया है, तो फिर यह प्रक्षेपण है-एक प्रक्षेपित अनुभूति। तब वह एक नशा है। जैसे कोई किसी मादक पदार्थ का आदी होता है, उसी प्रकार आप प्रार्थना के आदी हैं। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
भारतीय योगी सूत्र पुस्तिकाओं में जो एक सर्वाधिक गहन और सूक्ष्म पुस्तक है वह है घेरंड संहिता। यह सर्वाधिक आधारभूत पुस्तक है। वह कहती है-जब तक तुम ध्यान के भी पार नहीं चले जाओ, तब तक तुम्हारा ध्यान किसी काम का नहीं। जब तक तुम प्रार्थना का भी अतिक्रमण न कर जाओ, तब तक तुम्हारी प्रार्थना नहीं सुनी गई। जब तक कि तुम भी परमात्मा को न भूल जाओ, आप उसके साथ एक नहीं हुए हो।
बुद्ध परमात्मा के बार में बात ही नहीं करते। उसकी कोई भी जरूरत नहीं है। किसी ने कहा है कि कभी ऐसा परमात्मा रहित व्यक्ति नहीं हुआ, जैसे कि गौतम बुद्ध थे और फिर भी इतने समृद्ध कि ठीक जैसे परमात्मा स्वयं हो। इसलिए एक बात याद रखेंः लगातार प्रक्षेपण न करें। इसलिए केवल एक ही बात आप कर सकते हैं कि आपने अपने मस्तिष्क को विचार शून्य कर दें-क्योंकि विचार ही प्रक्षेपण हैं। यदि आपके पास विचार हैं, तो वे प्रक्षेपित होंगे ही। यदि आपके पास कोई विचार नहीं है, तो वह ऐसे ही होगा जैसे कि प्रोजेक्टर की मशीन तो है किंतु उसमें कोई फिल्म नहीं है-जब कोई फिल्म ही नहीं है, तो वह फिर कुछ प्रोजेक्ट भी नहीं कर सकता।
आपका मन एक प्रक्षेपण करने वाला यंत्र है और विचार फिल्म है। विचार चलते हैं और मशीन चालू हो जाती है, तब वे तोप्रक्षेपण होंगे ही। तब सारा संसार एक परदा हो जाता हैं, और आप प्रक्षेपण करते चले जाते हैं। जब आप किसी कोप्रेम करते हैं, तो वह व्यक्ति मात्र एक परदा है और आप प्रक्षेपण करते हैं। जब आप किसी को घृणा करते हैं तो वह व्यक्ति केवल एक परदा है, जिस पर प्रक्षेपण करते हैं। वे केवल आपके विचार हैं और आप प्रक्षेपण करते चले जाते हैं। जो चेहरा आज सुंदर है, दूसरे दिन वही चेहरा कुरूप हो जाता है-वही चेहरा, क्योंकि आपकी सुंदरता, आपकी कुरूपता, आपके सुंदरता के भाव, आपके कुरूपता के भाव को चेहरे से कोई मतलब नहीं है। चेहरों तो केवल परदे का काम कर रहा होता है, आपके विचारों को उप पर प्रक्षेपित करने के लिए। इसलिए यदि कोई विचार न हो, तो कोप्रक्षेपण भी न होगा इसलिए मेरा जोर इस बात पर है कि आप विचार, शून्यता के बिंदु पर जाए-निर्विचार सजगता पर-ताकि फिर कोईप्रक्षेपण हों ही न।
तब आप इस जगत को वैसा ही देखेंगे, जैसा कि यह हैं-न कि वैसा जैसा कि आपके विचार इसे बना देते हैं। यदि आप जैसा यह संसार है वैसा ही इसे देख सकें, तो आप परमात्मा को पहुंच गए। अब आप उस भेद कोअनुभव कर सकते हैं। जगत है और आप उस परमात्मा कोप्रक्षेपित करते हैं, तो यह एक विचार है आप कहते हैं-जगत परमात्मा है-यह जगत परमात्मा है-यह एक विचार है। आपको पता नहीं है। आपने ऐसा सुना है, आपने ऐसा पड़ा है, किसी ने आपसे ऐसा कहा है; आप चाहते हैं कि वह ऐसा हो, ऐसा आप चाहते हैं। आपको यह तीव्र इच्छा है वह ऐसा हो। किंतु आपने ऐसा जाना नहीं है। आप नहीं जानते कि संसार परमात्मा है। आप तो संसार को संसार ही जानते हैं।
यह धारणा कि यह जगत परमात्मा है, यह एक विचार है। अब आप प्रक्षेपण कर सकते हैं-बार-बार इसे दोहरा सकते हैं। अब आप लगातार इसे चित्त में रख सकते हैं, इसे आपके और संसार के मध्य में रख सकते हैं, तब आपका मन इस विचार के द्वारा प्रक्षेपण करेगा। तब किसी दिन यह जगत दिव्य दिखलाई पड़ने लगेगा। यह प्रक्षेपण है। आपने उसे दिव्य की तरह विचारा है और अब वह आपको ऐसा प्रतीत हो रहा है।
प्रामाणिक अनुभूति इससे पूर्णतया भिन्न होती है। आप नहीं जानते हैं कि जगत क्या है। आप नहीं कहते कि वह दिव्य है या हनीं है। आप कहते हैं-नहीं जानता हूं। इसी तरह एक वास्तविक, प्रामाणिक साधक प्रारंभ करता है। वह कहता है-मैं नहीं जानता हूं। कृत्रिम, प्रक्षेपित व्यक्ति कहता है-मैं जानता हूं। संसार दिव्य है। हर जगह परमात्मा है। सच्चा कहेगा-मुझे कुछ भी पता नहीं। मैं वृक्ष को जानता हूं; मैं पत्थर को जानता हूं। मुझे पता नहीं है कि अस्तित्व के भीतर क्या है। मैं अज्ञानी हूं।
यह भाव आपको एक नम्रता-एक गहरी नम्रता प्रदान करता है। और जब आप जानते नहीं है, तो आप प्रक्षेपण भी नहीं कर सकते, क्योंकि आप किसी भी विचार के साथ सहयोग नहीं कर सकते। तो फिर सारे विचारों को गिरा दें और कहें कि मैं नहीं जानता हूं। सारे विचारों को गिरा दें। किसी भी ज्ञान के साथ एक न हो। धीरे-धीरे सजग हो जाएं कि कोई भी विचार नहीं हो आपके और संसार के बीच में। यही मतलब है ध्यान काः एक बिना विचार का संबंध। आप यहां है, मैं आपकी ओर बिना किसी विचार के देखता हूं, बिना किसी पूर्व-धारणा के, बिना तस्वीर के, बिना किसी भी चीज को बीच में लाए। आप हैं और मैं हूं और खाली स्थान है-बिना भरा हुआ, रिक्त।
जब ऐसा संबंध आपके और संसार के बीच में बन सके तो संसार अपनी समग्रता में प्रकट होगा, अपने वास्तविक रूप में, अपने निचोड़ में सामने आएगा। तब आप जानेंगे जो कि है और वही दिव्य है। किंतु अब यह विचार नहीं है। अब कोई विचार नहीं है। आप खाली हैं, शून्य है, मौन हैं। यह प्रकटीकरण है, न कि प्रक्षेपण। इसलिए एक ध्यान चित्त विचारशून्यता की अवस्था को पहुंचता है, और तभी रहस्योदघाटन संभव है। अन्यथा आप प्रक्षेपण करते चले जाएंगे, आप प्रक्षेपित करते ही रहेंगे। विचार कुछ और कर भी नहीं सकता, वह तो सिर्फ प्रक्षेपण करेगा, क्योंकि वही उसका गुण-धर्म है-स्वभाव है-प्रकृति है।
ध्यान में गहरे चले जाएं, और वास्तविकता के साथ बिना विचारों के रहें। एक वृक्ष के नीचे बिना विचारों के बैठ जाएं। वृक्ष की ओर देखें बिना मन में किसी भी विचार को लाए, किसी पूर्ण-धारणा के। वृक्ष का साक्षात्कार अपनी चेतना के साथ होने दें। आप दर्पण की तरह हो जाए बिना विचार तरंगों के और वृक्ष को उसमें झलकने दें। और तब अचानक आपको पता चलेगा कि वृक्ष एक वृक्ष की भांति कभी भी नहीं था। वह तो केवल उसका बाहरी रूप था, एक मुखौटा, एक ऊपरी आवरण। वह दिव्य था-मात्र वृक्ष के वस्त्र पहने हुए। वृक्ष तो खाली वस्त्र था। किंतु अब आपने उसका अंतर जान लिया है। उसे स्मरण रखने की आवश्यकता नहीं। जहां भी आप ध्यान में जाएंगे, वहां परमात्मा होगा, दिव्य वहां उपस्थिति होगा।
मैं इसे इस भांति कहना चाहूंगा कि दिव्य कोई वस्तु नहीं है। आप परमात्मा को किसी एक वस्तु की तरह कहीं नहीं पा सकते। वह तो चित्त को स्थिति है। जब आपके पास वैसी मनोदशा होती है, तब वह सब कहीं है, और यदि वैसी मनस्थिति नहीं है, तो आप झूठी स्थिति निर्मित कर सकते हैं, एक वैचारिक मनोदशा। किंतु तब उसे तलवार बनाए रखना पड़ेगा, और आप कुछ भी निरंतर नहीं बनो रख सकते।
इसलिए आपको ऐसे साधु मिलेंगे, जो कि पश्चात्ताप करते हुए, रोते हुए होंगे कि उन्होंने पाप किया, क्योंकि उन्होंने उसे लगातार बनाए हुए नहीं रखा। आप निरंतर कैसे संभाले रह सकते हैं? यदि आप लगातार संभाले हुए हैं, तो आपको विश्राम भी करना पड़ेगा। किसी को भी दो क्षण को तो विश्राम चाहिए ही। यदि आपने स्मरण रखने की चेष्टा की कि वृक्ष नहीं है बल्कि परमात्मा है, तो कुछ समय बाद आप इतने तनाव से भर जाएंगे। कि आपको विश्राम की आवश्यकता पड़ेगी। आप जब विश्राम में होंगे, तब वृक्ष खाली वृक्ष होगा और उसमें से परमात्मा विलीन हो चुका होगा। तब, फिर प्रयास करें; और प्रयास करते चले जाएं प्रयत्न के साथ, विश्राम आएगा ही, पीछे-पीछे आएगा।
अतः आप चाहे जितने भी प्रयास से करें, परंतु वह आप का स्वभाव नहीं बन सकता। आप उसको खोते चले जाएंगे, बार-बार खोते जाएंगे। इसलिए यदि आप किसी विशेष भावना को खोते चले जाते हैं, तब जानें कि हम प्रक्षेपण है।
मैं आपसे एक कहानी कहना चाहूंगा। एक चीनी झेन फकीर एक वृक्ष के नीचे तीस वर्षों से रहता था। उसे एक बड़ा आत्म-ज्ञानी माना जाता था। और गांव की एक स्त्री उसकी तीस वर्षों से सेवा कर रही थी। वह फकीर पूरी तरह चरित्रवान समझा जाता था। अब तो वह बूड़ा भी हो गया था और वह स्त्री भी बूड़ी हो गई थी। वह स्त्री अपनी मृत्यु शह्नया पर पड़ी थी और इसलिए उसने एक वेश्या को गांव से बुलाया और उसे उस फकीर के पास रात्रि में, अर्द्ध-रात्रि में भेजा और कहा कि वह जाकर उसके सीने से लिपट जाए, और लौट कर यह रिपोर्ट दे कि उसने किस तरह से प्रतिक्रिया की।
उस वेश्या ने पूछा कि इससे क्या उद्देश्य पूरा होगा? उस वृद्धस्त्री ने कहा कि मैंने उसकी तीस वर्ष सेवा की है, किंतु कभी भी मुझे लगता है कि उसकी शुद्धता एक सम्हाली हुई शुद्धता है; वह अभी भी प्रयत्नरहित नहीं है। इसलिए मरने के पहले मैं जानना चाहूंगी कि क्या मैं एक सही आदमी की सेवा कर रही थी अथवा मैं भी भ्रम में ही थी जैसे कि वह भ्रम में था। इसलिए मरने के पहले, मुझे यह जानना है, पता लगाना है।
अतः वह वेश्या गई। अर्द्ध-रात्रि थी और वह साधु ध्यान कर रहा था। वह रात्रि का अंतिम ध्यान था। जैसे ही उसने उस वेश्या को आते हुए देखा, वह उसको पहचान गया। वह उसे भली-भांति जानता था। वह उसी गांव की थी। और वह उससे अच्छी तरह परिचित था, क्योंकि वह उसकी तरफ पहले कितनी ही बार आकर्षित हुआ था। वास्तव में, वह उस वेश्या के आकर्षण के विरुद्ध वर्षों से लड़ रहा था। वह तो चौंक गया। वह अपनी झोपड़ी से बाहर निकलकर भागा और चिल्लाकर बोला-तुम यहां क्यों आई हो? मुझे स्पर्श मत करना! और वह बुरी तरह से कांट रहा था और पसीने-पसीने हो गया था। वेश्या हंसने लगी, और वापस लौट गई और उसने उस वृद्ध महिला से सारी बातें कह दी-सब जो कुछ भी हुआ था।
तब उस वृद्धस्त्री ने कहा-मुझे बड़ा धोखा हुआ। वह तो वैसा का वैसा ही है। कुछ भी नहीं बदला। वह तो बहुत सामान्य रूप से प्रतिक्रिया करता है। वह डरा हुआ है। अभी भी उसका मन आसक्त है, अभी भी उसका चित्त कामुक है। यौन की एक उल्टी स्थिति भी हो सकती है। आप दो तरह से आकर्षित हो सकते हैंः विधायक रूप से व निषेधात्मक रूप से। निषेधात्मक आकर्षण भले ही ऐसा दिखलाई न पड़े कि आकर्षण है, किंतु वह भी है आकर्षण ही।
वही बात बुद्ध के साथ हुई। बुद्ध जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। कुछ युवक आए हैं मौज करने के लिए। वे अपने साथ एक वेश्या को भी लाए थे। वे पी रहे थे और खा रहे थे, और अंत में वे इतने मदहोश हो गए कि वह वेश्या डर कर वहां से निकल भागी। वे इतने नशे में डूब गए थे कि वेश्या निकल भागी। जब वे वापस होश में आए और उन्होंने जाना कि वेश्या भाग गई, तो वे भी उसके पीछे भागे।
रास्ता केवल एक ही थी जहां कि बुद्ध बैठे थे। वह वेश्या भी वहां से गुजरी। इसलिए वे युवक वहां आए और उन्होंने बुद्ध से पूछा-क्या तुमने एक नग्न सुंदर युवती को यहां से जाते हुए देखा है? क्योंकि रास्ता तो एक ही। बुद्ध ने अपनी आंखें खोलीं और कहा-यह तो कहना कठिन है कि वह स्त्री थी या नहीं। यह भी कहना कठिन है कि वह सुंदर थी या नहीं। यह भी कहना कठिन है कि वह नग्न थी कि कपड़ों में ढकी थी। परंतु कोई गुजरा अवश्य है, इतने भर का मैं साक्षी हूं कि कोई गुजरा है।
एक बात औरः रात्रि इतनी शांत है। क्या यह अच्छा होगा युवकों, कि किसी के पीछे जो कि चला गया है भागा जाए? अथवा यह अच्छा है कि मेरे पास बैठा जाए और अपने को खोजा जाए? रात्रि बहुत शांत है, इसलिए तुम क्या सोचते हो? अपने को खोजा जाए अथवा किसी और की तलाश में जाया जाए?
यह एक बिल्कुल ही अलग चित्त है-कोई आसक्ति नहीं-न नकारात्मक और न विधायक। जैसे कि सारी स्थिति ही अर्थहीन है। उसमें तभी अर्थ हो सकता है, जब कि आप विरोधी हों। बल्कि तब वह अधिक ही होती है। किसी भी प्रकार का प्रयत्न किसी भी प्रकार की मनोदशा को संभाले रखने के लिए, कोई भी प्रयास उसे बनाए रखने के लिए, इसी बात का प्रमाण देता है कि आप अभी भी लड़ रहे हैं। वह आत्मानुभूति नहीं है। वह अभी भी प्रयास ही है कुछ आरोपित करने के लिए। इसलिए मौन हो जाए, निर्विचार, और तब उसे जानें जो कि है। उसके बारे में सोचे नहीं और न ही उसके बारे में पहले से ही कोई निर्णय लें। किसी प्रकार की दार्शनिकताओं से अथवा सिद्धांतों से संबंध न रखें; किसी भी प्रकार के विचारों से न जुड़ें। केवल तभी वास्तविकता का उदघाटन होता है।
यदि आप विचारों से संबंध रखे हुए हैं, तो फिर आप वास्तविकता पर कुछ न कुछ प्रक्षेपण अवश्य करेंगे और वास्तविकता केवल एक परदे का काम करेगी। और यही खतरा है। आप कुछ भी जान सकते हैं, जो कुछ भी आप चाहते हैं, आप कुछ भी प्रक्षेपण कर सकते हैं, जो भी आप चाहते हैं।
मन की दो क्षमताएं हैंः एक यह कि वह कुछ भी प्रक्षेपित कर सकता है और दूसरी यह कि वह समग्ररूपेण रिक्त हो सकता है। ये दोनों ही संभावनाएं हैं। यदि मन को विधायक प्रक्षेपण के लिए काम में लिया जाता है तो आप, जो भी आप चाहें, उपलब्ध कर सकते हैं, किंतु वह आत्मानुभूति नहीं होगी। आप स्वप्न में जी रहे होंगे।
अतः मन को खाली करें और वास्तविकता का रिक्त मन से सामना करें, बिना किसी विचार के। तभी आप जान पाएंगे उसे जो कि है।
आज के लिए इतना ही।
बंबई, रात्रि, दिनांक 2 जून, 1972

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