दिनांक
27 अगस्त, 1971;
प्रथम
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल, बम्बई
धम्म-सूत्र:
धम्मो
मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा
संजमो तवो।
देवा
वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया
मणो ।।
धर्म
सर्वश्रेष्ठ
मंगल है। (कौन
सा धर्म?) अहिंसा, संयम
और तपरूप
धर्म। जिस
मनुष्य का मन
उक्त धर्म में
सदा संलग्न
रहता है, उसे
देवता भी
नमस्कार करते
हैं।
होगी।
और हम अपने
बाहर खड़े हैं।
हम वहां खड़े
हैं जहां हमें
नहीं होना
चाहिए; हम
वहां नहीं खड़े
हैं जहां हमें
होना चाहिए। हम
अपने को ही
छोड़कर, अपने
से ही च्युत
होकर, अपने
से ही दूर खड़े
हैं। हम
दूसरों से
अजनबी हैं—ऐसा
नहीं, हम
अपने से अजनबी
हैं—सटरेंजर्स
टु अवरसेलवज।
दूसरों का तो
शायद हमें
थोड़ा बहुत पता
भी हो, अपना
उतना भी पता
नहीं है। तप
तो विभाजित
नहीं हो सकता।
लेकिन हम
विभाजित मनुष्य
हैं। हम अपने
से ही विभाजित
हो गए हैं, इस
लिए हमारी समझ
के बाहर होगा
अविभाज्य तप।
महावीर
उसे दो
हिस्सों में
बांटते हैं, हमारे कारण।
इस बात को ठीक
से पहले समझ
लें। हमारे
कारण ही दो
हिस्सों में
बांटते हैं, अन्यथा
महावीर जैसी
चेतना को बाहर
और भीतर का कोई
अन्तर नहीं रह
जाता। जहां तक
अन्तर है वहां
तक तो महावीर
जैसी चेतना का
जन्म नहीं
होता। जहां भेद
है, जहां
फासले हैं, जहां खंड
हैं, वहां
तक तो महावीर
की अखंड चेतना
जन्मती नहीं।
महावीर तो
वहां हैं जहां
सब अखंड हो
जाता है। जहां
बाहर भीतर का
ही एक छोर हो
जाता है और
जहां भीतर भी
बाहर का ही एक
छोर हो जाता
है। जहां भीतर
और बाहर एक ही
लहर के दो अंग
हो जाते हैं; जहां भीतर
और बाहर दो
वस्तुएं नहीं,
किसी एक ही
वस्तु के दो
पहलू हो जाते
हैं, इसलिए
यह विभाजन
हमारे लिए
हैं।
महावीर
ने बाह्य तप
और अन्तर तप, दो हिस्से
किए हैं। उचित
होता, ठीक
होता कि अन्तर
तप को महावीर
पहले रखते, क्योंकि
अन्तर ही पहले
है। वह जो
आन्तरिक है, वही
प्राथमिक है।
लेकिन महा वीर
ने अन्तर तप को
पहले नहीं रखा
है, पहले
रखा है बाह्य
तप को।
क्योंकि
महावीर दो ढंग
से बोल सकते
हैं, और इस
पृथ्वी पर दो
ढंग से बोलनेवाले
लोग हुए हैं।
एक वे लोग जो
वहां से बोलते
हैं जहां वे
खड़े हैं। एक
वे लोग जो
वहां से बोलते
हैं जहां
सुननेवाला
खड़ा है।
महावीर की
करुणा उन्हें
कहती है कि वे
वहीं से बोलें
जहां सुननेवाला
खड़ा है।
महावीर के लिए
आन्तरिक
प्रथम हैं, लेकिन
सुननेवाले के
लिए आन्तरिक द्वितीय
है, बाह्य
प्रथम है।
तो
महावीर जब बाह्य
तप को पहला
रखते हैं तो
केवल इस कारण
कि हम बाहर
हैं। इससे
सुविधा तो
होती है समझने
में, लेकिन
आचरण करने में
असुविधा भी हो
जाती है। सभी
सुविधाओं के
साथ जुड़ी हुई असुविधाएं
हैं। महावीर
ने चूंकि बाह्य
तप को पहले
रखा है, इसलिए
महावीर के
अनुयायियों
ने बाह्य तप
को प्राथमिक
समझा । वहां
भूल हुई है।
और तब बाह्य
तप को करने
में ही लगे
रहने की लम्बी
धारा चली। और
आज करीब-करीब
स्थिति ऐसी आ
गयी है कि बाह्य
तप ही पूरा
नहीं हो पाता
तो आन्तरिक तप
तक जाने का
सवाल नहीं
उठता। बाह्य
तप ही जीवन को डुबा लेता
है। और बाह्य
तप कभी पूरा
नहीं होगा जब
तक कि आन्तरिक
तप पूरा न हो।
इसे भी ध्यान
में ले लें।
अन्तर
और बाह्य एक
ही चीज है।
इसलिए कोई
सोचता हो कि बाह्य
तप पहले पूरा
हो जाए तब मैं
अन्तर तप में
प्रवेश
करूंगा, तो बाह्य
तप कभी पूरा
नहीं होगा।
क्योंकि बाह्य
तप स्वयं आधा
हिस्सा है, वह पूरा
नहीं हो सकता।
जैन साधना
जहां भटक गयी
वह यही जगह है,
बाह्य तप
पहले पूरा हो
जाए तो फिर
आन्तरिक तप
में उतरेंगे। बाह्य
तप कभी पूरा
नहीं हो सकता,
क्योंकि बाह्य
जो है वह
अधूरा ही है।
वह तो पूरा
तभी होगा जब
आन्तरिक तप भी
पूरा हो। इसका
यह अर्थ हुआ
कि अगर ये
दोनों तप
साथ-साथ चलें
तो ही पूरा हो
पाते हैं, अन्यथा
पूरा नहीं हो
पाते हैं।
लेकिन विभाजन
ने हमें ऐसा
समझा दिया कि
पहले हम बाहर
को तो पूरा कर
लें, हम
बाहर को तो
साध लें, फिर
हम भीतर की यात्रा
करेंगे। अभी
जब बाहर का ही
नहीं सध रहा है
तो भीतर की
यात्रा कैसे
हो सकती है।
ध्यान रहे, तप एक ही है। बाह्य
और भीतर सिर्फ
काम चलाऊ
विभाजन हैं।
अगर
कोई अपने
पैरों को
स्वस्थ करना
चाहे और सोचे
कि पहले पैर
स्वस्थ हो
जाएं, फिर
सिर स्वस्थ कर
लेंगे, तो
वह गलती में
है। शरीर एक
है, और
शरीर का
स्वास्थ्य
पूरा होता है।
अभी तक वैज्ञानिक
सोचते थे कि
शरीर के अंग
बीमार पड़ते हैं,
लोकल होती
है बीमारी—हाथ
बीमार होता है,
पैर बीमार
होता है।
लेकिन अब धारणा
बदलती चली जा
रही है। अब
वैज्ञानिक
कहते हैं—जब
एक अंग बीमार
होता है तो वह
इसलिए बीमार
होता है कि
पूरा व्यक्ति
बीमार हो गया
होता है। हां,
एक अंग से
बीमारी प्रगट
होती है लेकिन
वह एक अंग की
नहीं होती।
मनुष्य का
पूरा व्यकितत्व
ही बीमार हो
जाता है।
यद्यपि
बीमारी उस अंग
से प्रगट होती
है जो
सर्वाधिक
कमजोर है।
लेकिन व्यक्तित्व
पूरा बीमार हो
जाता है।
इसलिए हैपोक्रेटीज
ने, जिसने कि
पश्चिम में
चिकित्सा को
जन्म दिया , उसने कहा था—ट्रीट दि
डिसीज, बीमारी
का इलाज करो।
लेकिन अभी
पश्चिम के अनेक
मेडिकल कालेजिस
में वह तख्ती
हटा दी गयी है
और वहां लिखा
हुआ है—ट्रीट
दि पेशेंट।
बीमारी का
इलाज मत करो, बीमार का
इलाज करो, क्योंकि
बीमारी लोकलाइज्ड
होती है, बीमार
तो फैला हुआ
होता है। असली
सवाल नहीं है
बीमारी, असली
सवाल है बीमार,
पूरा
व्यक्तित्व।
अन्तर
और बाह्य पूरे
व्यक्तित्व
के हिस्से
हैं। इन्हें साइमलटेनियसली, युगपत
प्रारम्भ
करना पड़ेगा।
विवेचन जब हम
करेंगे तो
विवेचन हमेशा
वन डायमेंशनल
होता है। मैं
पहले एक अंग
की बात करूंगा,
फिर दूसरे
की, फिर
तीसरे की, फिर
चौथे की।
स्वभावतः
चारों अंगों
की बात एक साथ
कैसे की जा
सकती है। भाषा
वन डायमेंशनल
है। एक रेखा
में मुझे बात
करनी पड़ेगी।
पहले मैं आपके
सिर की बात
करूंगा, फिर
आपके हृदय की
बात करूंगा, फिर आपके
पैर की बात
करूंगा।
तीनों की बात
एक साथ नहीं
कर सकता हूं।
लेकिन इसका
मतलब यह नहीं है
कि तीनों एक
साथ नहीं हैं।
वह तीनों एक
साथ हैं — आपका
सिर, आपका
हृदय, आपके
पैर; वह सब
युगपत, एक
साथ हैं; अलग-अलग
नहीं हैं। चर्चा
करने में बांट
लेना पड़ता है
लेकिन अस्तित्व
में वे इकट्ठे
हैं।
तो यह
जो चर्चा मैं
करूंगा बारह
हिस्सों की—छह
बाह्य और छह
आन्तरिक, चर्चा
के लिए क्रम
होगा—एक, दो,
तीन, चार;
लेकिन
जिन्हें
साधना है, उनके
लिए क्रम नहीं
होगा। एक साथ
उन्हें साधना
होगा, तभी
पूर्णता
उपलब्ध होती
है, अन्यथा
पूर्णता
उपलब्ध नहीं
होती। भाषा से
बड़ी भूलें
पैदा होती हैं,
क्योंकि
भाषा के पास
एक सा थ बोलने
का कोई उपाय
नहीं है।
मैं
यहां हूं; अगर मैं
बाहर जाकर
ब्यौरा दूं कि
मेरे सामने की
पंक्ति में
कितने लोग
बैठे थे तो
मैं पहले, पहले
का नाम लूंगा,
फिर दूसरे
का, फिर
तीसरे का, फिर
चौथे का। मेरे
बोलने में
क्रम होगा।
लेकिन यहां जो
लोग बैठे हैं
उनके बैठने
में क्रम नहीं
है, वे एक
साथ ही यहां
मौजूद हैं।
अस्तित्व
इकट्ठा है, एक साथ है।
भाषा क्रम बना
देती है। उसमें
कोई आगे हो
जाता है, कोई
पीछे हो जाता
है। लेकिन
अस्तित्व में
कोई आगे पीछे
नहीं होता है।
इतनी बात खयाल
में ले लें, फिर हम
महावीर के बाह्य
तप से शुरू
करें।
बाह्य
तप में महावीर
ने पहला तप
कहा है—अनशन।
अनशन के संबंध
में जो भी
समझा जाता है
वह गलत है।
अनशन के संबंध
में जो छिपा
हुआ सूत्र है, जो एसोटेरिक
है वह मैं
आपसे कहना
चाहता हूं।
उसके बिना अनशन
का कोई अर्थ
नहीं है। जो गुहय अनशन
की प्रक्रिया
है वह मैं
आपसे कहना
चाहता हूं, उसे समझकर
आपको नयी दिशा
का बोध होगा।
मनुष्य
के शरीर में
दोहरे यंत्र
हैं, डबल
मैकेनिज्म
हैं और दोहरा
यंत्र इसलिए
है ताकि इमजेसी
में, संकट
के किसी क्षण
में एक यंत्र
काम न करे तो दूसरा
कर सके। एक
यंत्र तो
जिससे हम
परिचित हैं, हमारा शरीर।
आप भोजन करते
हैं, शरीर
भोजन को पचाता
है, खून
बनाता है, हड्डियां
बनाता है, मांस-मज्जा
बनाता है। ये
साधारण यंत्र
हैं। लेकिन
कभी कोई आदमी
जंगल में भटक
जाए या सागर
में नाव डूब
जाए और कई
दिनों तक किनारा
न मिले तो
भोजन नहीं
मिलेगा। तब
शरीर के पास
एक इमजेसी
अरेंजमेंट
है, एक
संकटकालीन
व्यवस्था है,
तब शरीर को
भोजन तो नहीं
मिलेगा लेकिन
भोजन की जरूरत
तो जारी
रहेगी। क्योंकि
श्वास भी लेना
हो, हाथ भी
हिलाना हो, जीना भी हो
तो भोजन की
जरूरत है। ईधन
की जरूरत है।
आपको ईंधन न
मिले तो आपके
शरीर के पास
एक ऐसी
व्यवस्था चाहिए
जो संकट की
घड़ी में आपके
शरीर के भीतर
इकट्ठा जो ईधन
है उसको ही
उपयोग में
लाने लगे।
शरीर के पास एक
दूसरा इनर-मैकेनिज्म
है। अगर आप
सात दिन भूखे
रहें तो शरीर
अपने को ही
पचाना शुरू कर
देता है। भोजन
आपको नहीं ले
जाना पड़ता, आपके भीतर
की चर्बी ही
भोजन बननी
शुरू हो जाती
है। इसलिए
उपवास में
आपका एक पौंड
वजन रोज गिरता
चला जाएगा। वह
एक पौंड आपकी
ही चर्बी, आप
पचा गए। कोई नब्बे
दिन तक साधारण
स्वस्थ आदमी
मरेगा नहीं क्योंकि
इतना रिजर्वायर,
इतना
संग्रहीत तत्व
शरीर के पास
है कि कम- से-कम
तीन महीने तक
वह अपने को
बिना भोजन के
जिला सकता है।
ये दो हिस्से
हैं शरीर के—एक
शरीर की
व्यवस्था
सामान्य है, दैनंदिन है।
असमय के लिए, संकट की घड़ी
के लिए एक और
व्यवस्था है,
जब शरीर
बाहर से भोजन
न पा सके तो
अपने भीतर संग्रहीत
भोजन को पचाना
शुरू कर दे।
अनशन
की प्रक्रिया
का राज यह है
कि जब शरीर की एक
व्यवस्था से
दूसरी
व्यवस्था पर
संक्रमण होता
है, आप बदलते
हैं तब बीच
में कुछ
क्षणों के लिए
आप वहां पहुंच
जाते हैं जहां
शरीर नहीं
होता। वही
उसका सीक्रेट
है। जब भी आप
एक चीज से
दूसरे पर
बदलाहट करते
हैं, एक
सीढ़ी से दूसरी
सीढ़ी पर जाते
हैं तो एक
क्षण ऐसा होता
है जब आप किसी
भी सीढ़ी पर
नहीं होते हैं।
जब आप एक
स्थिति से
दूसरी स्थिति
में छलांग
लगाते हैं तो
बीच में एक
गैप, अंतराल
हो जाता है जब
आप किसी भी
स्थिति में नहीं
होते हैं, फिर
भी होते हैं।
शरीर
की एक
व्यवस्था है
सामान्य भोजन
की, अगर यह
व्यवस्था
बन्द कर दी
जाए तो अचानक
आपको दूसरी
व्यवस्था पर
रूपान्तरित
होना पड़ता है,
और इस बीच
कुछ क्षण हैं
जब आप
आत्म-स्थिति
में होते हैं।
उन्हीं
क्षणों को पकड़ना
अनशन का उपयोग
है। इसलिए जो
आदमी अनशन का
अभ्यास करेगा
वह अनशन का
फायदा न उठा
पाएगा। खयाल
रखें जो अनशन
का अभ्यास
करेगा वह अनशन
का फायदा न
उठा पाएगा।
अनशन सड़न
प्रयोग है, आकस्मिक, अचानक।
जितना अचानक
होगा, जितना
आकस्मिक होगा,
उतना ही
अंतराल का बोध
होगा। अगर आप
अभ्यासी हैं
तो आप इतने
कुशल हो
जाएंगे, एक
स्थिति से
दूसरी स्थिति
में जाने में,
कि बीच का
अन्तराल आपको
पता ही नहीं
चलेगा। इसलिए अभ्यासियों
को अनशन से
कोई लाभ नहीं
होता। और
अभ्यास करने
की जो
प्रक्रिया है
वह यही है कि
आपको बीच का
अंतराल पता न
चले। एक आदमी
धीरे-धीरे
अभ्यास करता रहे
तो वह इतना
कुशल हो जाता
है कि कब उसने
स्थिति बदल ली,
उसे पता
नहीं चलता। हम
रोज स्थिति
बदलते हैं लेकिन
अभ्यास के
कारण पता नहीं
चलता।
रात आप
सोते हैं—जागने
के लिए शरीर
दूसरे
मैकेनिज्म का
उपयोग करता है, सोने के लिए
दूसरे। दोनों
के मैकेनिज्म
अलग हैं, दोनों
का यंत्र अलग
है। आप उसी
यंत्र से नहीं
जागते जिससे आ
प सोते हैं।
इसीलिए तो अगर
आपके जागने का
यंत्र बहुत
ज्यादा
सक्रिय हो तो
आप सो नहीं
पाते। उसका और
कोई कारण नहीं
है, आप
दूसरी
व्यवस्था में
प्रवेश नहीं
कर पाते। पहली
ही व्यवस्था
में अटके रह
जाते हैं। अगर
आप दुकान, धंधे
और काम की बा त
सोचे चले जा
रहे हैं तो
आपके जागने का
यंत्र काम
करता चला जाता
है, जब तक
वह काम करता
है तब तक
चेतना उससे
नहीं हट सकती।
चेतना तभी
हटेगी, जब
वहां आपका काम
बन्द हो जाए
तो तत्काल शिफट
हो जाएगी।
चेतना दूसरे
यंत्र पर चली
जाएगी, जो
निद्रा का है।
लेकिन हमें
इतना अभ्यास
है कि हमें
पता नहीं चलता
बीच के गैप
का। वह जो जागने
और नींद के
बीच में जो
क्षण आता है
वह भी वही है
जो भोजन छोड़ने
और उपवास के
बीच में आता
है। इसलिए तो
आपको नींद में
भोजन की जरूरत
नहीं पड़ती। आप
दस घण्टे सोए
रहें तो भी
भोजन की जरूरत
नहीं पड़ती है।
दस घण्टे
जागें तो भोजन
की जरूरत पड़ती
है।
आपको
पता है, ध्रुव
प्रदेश में पोलर बियर
होता है, भालू
होता है
साइबेरिया
में। छह महीने
जब बर्फ भयंकर
रूप से पड़ती है
तो कोई भोजन
नहीं मिलता।
वह सो जाता
है। बर्फ के
नीचे दबकर सो
जाता है। वह
उसकी ट्रिक
है, वह
उसकी तरकीब
है। क्योंकि
नींद में तो
भूख नहीं
लगती। वह छह
महीने सोया
रहता है। छह
महीने के बाद
वह तभी जगता
है जब भोजन
फिर मिलने की
सुविधा शुरू
हो जाती है।
आपके भीतर जो
निद्रा का
यंत्र है वहां
आपको भोजन की
कोई जरूरत
नहीं, क्योंकि
वह यंत्र वही
यंत्र है जो
उपवास में प्रगट
होता है। वह
आपका इमजेसी
मेजरमेंट है,
खतरे की
स्थिति में
उसका उपयोग
करना होता है।
इसलिए आप
जानकर हैरान
होंगे कि अगर
बहुत खतरा पैदा
हो जाए तो
आदमी नींद में
चला जाता है।
यह आप जानकर
हैरान होंगे,
अगर इतना
खतरा पैदा हो
जाए कि आप
अपने मस्तिष्क
से उसका
मुकाबला न कर
सकें तो आप
नींद में चले
जाएंगे। आप
बेहोश हो जाते
हैं, बहुत
दुख हो जाए, तो। उसका और
कोई कारण नहीं
है, इतना
दुख हो जा ता
है कि आपका
जाग्रत
मस्तिष्क उसको
सहने में
असमर्थ है तो
तत्काल शिफट
हो जाता है और
गहरी तंद्रा
में चला जाता
है, बेहोश
हो जाता है।
बेहोशी दुख से
बचने का उपाय
है।
हम
अकसर कहते हैं—मुझे
बड़ा असहय
दुख है। लेकिन
ध्यान रहे, असहय दुख कभी
नहीं होता। असहय होने
के पहले आप
बेहोश हो जाते
हैं। जब तक
सहनीय होता है
तभी तक आप होश
में आते हैं।
जैसे ही
असहनीय हो
जाता है, आप
बेहोश हो जाते
हैं। इसलिए असहय दुख
को कोई आदमी
कभी नहीं भोग
पाता। भोग ही
नहीं सकता।
इंतजाम ऐसा है
कि असहय
दुख होने के
पहले आप बेहोश
हो जाएं।
इसलिए मरने के
पहले अधिक लोग
बेहोश हो जा ते
हैं। क्योंकि
मरने के पहले
जिस यंत्र से
आप जी रहे थे, उसकी अब कोई
जरूरत नहीं रह
जाती। चेतना शिफट हो
जाती है उस
यंत्र पर, जो
इस यंत्र के
पीछे छिपा है।
मरने से पहले
आप दूसरे
यंत्र पर उतर
जाते हैं।
मनुष्य
के शरीर में
दोहरा शरीर
है। एक शरीर
है जो दैनंदिन
काम का है —
जागने का, उठने का, बैठने
का, बात
करने का, सोचने
का, व्यवहार
का; एक और
यंत्र है छिपा
हुआ भीतर गुहय,
जो
संकटकालीन
है। अनशन का
प्रयोग उस
संकटकालीन
यंत्र में
प्रवेश का है।
इस तरह के
बहुत से प्रयोग
हैं जिनसे
मध्य का गैप, मध्य का जो
अंतराल है वह
उपलब्ध होता
है। सूफियों
ने अनशन का
उपयोग नहीं किया,
सूफियों ने
जागने का
उपयोग किया
है। एक ही बा त
है, उसमें
फर्क नहीं है।
प्रयोग अलग
हैं, परिणाम
एक हैं।
सूफियों
ने रात में
जागने का
प्रयोग किया
है — सोओ मत, जागे रहो।
इतने जागे रहो,
जब नींद पकड़े
तो मत नींद
में जाओ, जागे
ही रहो, जागे
ही रहो, जागे
ही रहो। अगर
जागने की
चेष्टा जारी
रही, और
जागने का
यंत्र थक गया
और बंद हो गया
और एक क्षण को
भी आप उस हालत
में रह गए जब
जागना भी न रहा
और नींद भी न
रही, तो आप
बीच के अंतराल
में उतर जाएंगे।
इसलिए
सूफियों ने
नाइट विजिलेंस
को, रात्रि
जागरण को बड़ा
मूल्य दिया।
महा वीर ने उसी
प्रयोग को
अनशन के
द्वारा किया
है। वही प्रयोग
है।
तंत्र
का एक अदभुत
ग्रन्थ है, विज्ञान
भैरव। उसमें
शंकर ने
पार्वती को
ऐसे सैकड़ों
प्रयोग कहे
हैं। हर
प्रयोग दो
पंक्तियों का
है। हर प्रयोग
का परिणाम वही
है कि बीच का
गैप आ जाए।
शंकर कहते हैं
— श्वास भीतर
जाती है।
श्वास बाहर
जाती है पार्वती,
तू दोनों के
बीच में ठहर
जाना तो तू
स्वयं को जान
लेगी। जब
श्वास बाहर भी
न जा रही हो और
भीतर भी न आ
रही हो, तब
तू ठहर जाना, बीच में, दोनों
के। किसी से
प्रेम होता है,
किसी से
घृणा होती है,
वहां ठहर
जाना जब प्रेम
भी न होता और
घृणा भी नहीं
होती; दोनों
के बीच में
ठहर जाना। तू
स्वयं को
उपलब्ध हो
जाएगी। दुख
होता है, सुख
होता है; तू
वहां ठहर जाना
जहां न दुख है,
न सुख; बीच
में, मध्य
में और तू
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाएगी।
अनशन
उसी का एक
व्यवस्थित
प्रयोग है। और
महावीर ने
अनशन क्यों
चुना? मैं
मानता हूं दो
श्वासों के
बीच में ठहरना
बहुत कठिन
मामला है।
क्योंकि
श्वास जो है
वह नानवालेंटरी
है, वह
आपकी इच्छा से
नहीं चलती, वह आपकी
बिना इच्छा के
चलती रहती है।
आपकी कोई
जरूरत नहीं
होती है उसके
लिए। आप रात
सोए रहते हैं,
तब भी चलती
रहती है, भोजन
नहीं चल सकता
सोने में।
भोजन वालेंटरी
है। आप की
इच्छा से रुक
भी सकता है, चल भी सकता
है। आप ज्यादा
भी कर सकते
हैं, कम भी
कर सकते हैं।
आप भूखे भी रह
सकते हैं तीस दिन,
लेकिन बिना
श्वास के नहीं
रह सकते हैं।
श्वास के बिना
तो थोड़े-से
क्षण भी रह
जाना मुश्किल
हो जाएगा और
बिना श्वास के
अगर थोड़े से
क्षण भी रहे
तो इतने बेचैन
हो जाएंगे कि
उस बेचैनी में
वह जो बीच का
गैप है, वह
दिखाई नहीं
पड़ेगा, बेचैनी
ही रह जाएगी।
इसलिए महावीर
ने श्वास का
प्रयोग नहीं
कहा। महावीर
ने एक वालेंटरी
हिस्सा चुना,
भोजन वालेंटरी
हिस्सा है।
नींद भी
सूफियों ने जो
चुना है वह भी
थोड़ी कठिन है
क्योंकि नींद
भी नानवालेंटरी
है, आप
अपनी कोशिश से
नहीं ला सकते।
आती है तब आ जाती
है। नहीं आती
तो लाख उपाय
करो, नहीं
आती। नींद भी
आपके वश में
नहीं है। नींद
भी आपके बाहर
है, बहुत
कठिन है नींद
पर वश करना।
महावीर
ने बहुत
सरल-सा प्रयोग
चुना, जिसे
बहुत लोग कर
सकें — भोजन।
एक तो सुविधा
यह है कि
नब्बे दिन तक
न भी करें तो
कोई खतरा नहीं
है। अगर नब्बे
दिन तक बिना
सोए रह जाएं
तो पा गल हो
जाएंगे।
नब्बे दिन तो
बहुत दूर है, नौ दिन भी
अगर बिना सोए
रह जाएं तो
पागल हो जाएंगे।
सब ब्लर्ड
हो जाएगा। पता
नहीं चलेगा कि
जो देख रहे
हैं वह सपना
है या सच है।
अगर नौ दिन आप
न सोएं तो
इस हाल में जो
लोग बैठे हैं
वह सच में
बैठे हैं कि
आप कोई सपना
देख रहे हैं, आप फर्क न कर पाएंगे।
ब्लर्ड
हो जाएगा।
नींद और जागरण
ऐसा कंफयूज्ड
हो जाएगा कि
कुछ पक्का न
रहेगा कि क्या
हो रहा है। आप
जो सुन रहे
हैं वह
वस्तुतः बोला
जा रहा है, या
सिर्फ आप सुन
रहे हैं, यह
तय करना
मुश्किल हो
जाएगा। और
खतरनाक भी है।
क्योंकि
विक्षिप्त
होने का पूरा
डर है।
आज माओ
के अनुयायी
चीन में जो
सबसे बड़ी पीड़ा
दे रहे हैं
अपने से
विरोधियों को, वह, उनको
न सोने देने
की है। भूखा
मारकर आप
ज्यादा
परेशान नहीं
कर सकते
क्योंकि सात
आठ दिन के बाद
भूख बन्द हो
जाती है। शरीर
दूसरे यंत्र
पर चला जाता
है। सात आठ
दिन के बाद
भूख से भोजन
पाना शुरू कर
देता है।
लेकिन नींद? बहुत
मुश्किल
मामला है। सात
दिन भी अगर
आदमी को बिना
सोए रख दिया
जाए तो वह
विक्षिप्त हो
जाता है। और वल्नरेबल
हो जाता है।
सात दिन अगर
किसी को न
सोने दिया जाए
तो उसकी
बुद्धि इतनी
ज्यादा डावांडोल
हो जाती है कि
उससे फिर आप
कुछ भी कहें, वह मानना
शुरू कर देता
है। इसलिए सात
या नौ दिन चीन
में विरोधी को
बिना सोया
रखेंगे और फिर
कम्युनिज्म
का प्रचार
उसके सामने
किया जाएगा। कम्युनिज्म
की किताब पढ़ी
जाएगी, माओ
का संदेश
सुनाया
जाएगा। और जब
वह इस हालत में
नहीं होता कि रेसिस्ट
कर सके कि तुम
जो कह रहे हो, वह गलत है; तर्क टूट
जाता है। नींद
के विकृत होने
के साथ ही
तर्क टूट जाता
है। अब उसको
मानना ही
पड़ेगा, जो
आप कह रहे हैं;
ठीक कह रहे
हैं।
नींद
का प्रयोग
महावीर ने
नहीं किया, अनशन का
प्रयोग किया।
मनुष्य के हाथ
में जो सर्वाधिक
सुविधापूर्ण,
सरलतम
प्रयोग है—दो
यंत्रों के
बीच में ठहर
जाने का, वह
भोजन है।
लेकिन आप अगर
अभ्यास कर लें
तो अर्थ नहीं
रह जाएगा। ये
प्रयोग
आकस्मिक हैं—अचानक।
आपने
भोजन नहीं
लिया है, और
जब आपने भोजन
नहीं लिया है
तब ध्यान रखें
न तो भोजन का, न उपवास का—ध्यान
रखें उस मध्य
के बिन्दु का
कि वह कब आता
है। आंख बन्द
कर लें और अब
भीतर ध्यान
रखें कि शरीर
का यंत्र कब
स्थिति बदलता
है। तीन दिन
में, चार
दिन में, पांच
दिन में, सात
दिन में, कभी
स्थिति बदली
जाएगी। और जब
स्थिति बदलती
है तब आप
बिलकुल दूसरे
लोक में
प्रवेश करते
हैं। आपको
पहली दफे पता
चलता है कि आप
शरीर नहीं हैं—न
तो वह शरीर जो
अब तक काम कर
रहा था और न यह
शरीर जो अब
काम कर रहा
है। दोनों के
बीच में एक
क्षण का बोध
भी कि मैं
शरीर नहीं हूं,
मनुष्य के
जीवन में अमृत
का द्वार खोल
देता है।
लेकिन
महावीर के
पीछे जो
परंपरा चल रही
है वह अनशन का
अभ्यास कर रही
है। अभ्यासी
है, वर्ष-वर्ष
अभ्यास कर रहे
हैं, जीवनभर
अभ्यास कर रहे
हैं। वे इतने
अभ्यासी हो गए
हैं — जितने
अभ्यासी, उतने
अंधे। अब उनको
कुछ दिखाई
नहीं पड़ेगा।
जैसे आप अपने
घर जिस रास्ते
पर रोज-रोज
आते हैं उस
रास्ते पर आप
अंधे होकर
चलने लगते हैं,
फिर आपको उस
रास्ते पर कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। लेकिन
जब कोई आदमी
पहली दफा उस
रास्ते पर आता
है उसे सब
दिखाई पड़ता
है। अगर आप
कश्मीर
जाएंगे तो डल
झील पर आपको
जितना दिखाई
पड़ता है वह जो
माझी आपको
घुमा रहा है, उसको दिखाई
नहीं पड़ता। वह
अंधा हो जाता है।
अभ्यास
अंधा कर देता
है। इसे थोड़ा
समझ लें। वह
इतनी बार देख
चुका है कि
देखने की कोई
जरूरत नहीं रह
जाती। वह बिना
देखे चलाता
रहता है। इसलिए
जिनके साथ हम
रहते हैं उनके
चेहरे हमें
दिखाई नहीं
पड़ते—जिनके
साथ हम रहते
हैं उनके
चेहरे हमें
दिखाई नहीं
पड़ते। अगर ट्रेन
में आपको कोई
अजनबी मिल गया
है तो उसका चेहरा
आपको अभी भी
याद हो सकता
है। लेकिन
अपनी मां का
या अपने पिता
का चेहरा आप
आंख बंद करके
याद करेंगे तो
ब्लर्ड
हो जाएगा, याद नहीं
आएगा। न याद
करें तो आपको
लगेगा कि मुझे
मालूम है कि
मेरे पिता का
चेहरा कैसा
है। आंख बंद
करें और याद
करें तो आप
पाएंगे कि खो
गया। नहीं
मिलता कैसा
है। पिता का
चेहरा फिर भी
दूर है, आप
अपना चेहरा तो
रोज आइने
में देखते
हैं। आंख बंद
करें और याद
करें, खो
जाएगा। नहीं
मिलेगा। आप
अंधे की तरह आइने के
सामने देख
लेते हैं।
अभ्यास पक्का
है।
अभ्यास
अंधा कर देता
है। और जो सूम
चीजें हैं वे
दिखाई नहीं पड़तीं। और
यह बहुत सूम
बिन्दु है।
भोजन और अनशन
के बीच का जो
संक्रमण है, ट्रांसमिशन
है, वह
बहुत सूम और
बारीक है, बहुत
डेलिकेट
है, बहुत
नाजुक है। जरा
से अभ्यास से
आप उसको चूक जाएंगे,
वह आपको
खयाल में नहीं
आएगा। इसलिए
अनशन का भूलकर
अभ्यास न
करें। कभी
अचानक उसका नहीं
लगती, भूख
समाप्त हो
जाती है।
क्योंकि शरीर
नए ढंग से
भोजन पाना
शुरू कर देता
है, भीतर उपयोग
बड़ा कीमती है,
बड़ा अदभुत
है। जैसे
अचानक आप यहां
सोए थे, इस
कमरे में, और
आपकी नींद
खुले, और
आप पाएं, आप
डल झील पर हैं
तो आपकी
मौजूदगी
जितनी सघन होगी
इतनी आप यहां
से यात्रा
करके डल झील
पर जाएं तो
नहीं होगी। आप
अचानक आंख
खोलें और पाएं
तो आप घबरा
जाएंगे, चौक
जाएंगे कि मैं
कहां सोया था
और कहां हूं, यह क्या हो
गया। आप इतने कांशस
होंगे, इतने
सचेत होंगे, जिसका कोई
हिसाब नहीं।
गुरजिएफ
के पास जो लोग
जाते थे साधना
के लिए—यह
आदमी इस पचास वर्षो
में बहुत
कीमती आदमी था—तो
गुरजिएफ यही
काम करता था, लेकिन
बिलकुल उल्टे
ढंग से। और
कोई जैन न सोच सकेगा
कि गुरजिएफ और
महावीर के बीच
कोई भी नाता
हो सकता है।
आप और गुरजिएफ
के पास जाते
तो पहले तो वह
आपको बहुत
ज्यादा खाना
खिलाना शुरू
करता, इतना
कि आपको लगे
कि मैं मर जाऊंगा।
इतना खाना
खिलाना शुरू
करता कि आपको
लगे, मैं
मर जाऊंगा।
वह जिद्द
करता था। कई
लोग तो इसलिए
भाग जाते थे
कि उतना खाना
खाने के लिए
राजी नहीं हो
सकते थे। रात
दो बजे तक वह
खाना खिलाता।
वह इतना आग्रह
करता—और
गुरजिएफ जैसा
आदमी आपसे
आग्रह करे, या महावीर
आपके सामने
थाली में रखते
चले जाएं कुछ,
तो आपको
इनकार करना भी
मुश्किल
होगा। और गुरजिएफ
था कि कहता कि
आ र, कि और—खिलाते
ही चला जाता।
वह इतना ओव्हरफलो
हो जाए भोजन, वह दस पांच
दिन आपको इतना
खिलाता है कि
आप खिलाने के,
खाने की
व्यवस्था से
इस बुरी तरह
अरुचिकर हो जाता।
ध्यान रहे, अनशन भोजन
में रुचि पैदा
कर सकता है। अत्याधिक
भोजन अरुचि
पैदा कर देता
है। वह इतना
खिलाता, इतना
खिलाता कि आप
घबरा जाते, भागने को हो
जाते। कहते कि
मर जाएंगे, यह क्या कर
रहे हैं आप।
पेट ही पेट का
स्मरण रहता है
चौबीस घंटे।
तब अचानक वह
आपका अनशन
करवा देता है।
तब गैप बड़ा हो
जाता है। बहुत
ज्यादा खाने
से एकदम न
खाने पर धक्का
दे देता। तो
वह जो बीच की
जगह थोड़ी बड़ी
हो जाती, क्योंकि
एकदम बहुत
खाना एक अति
से एकदम दूसरी
अति पर धक्का दे
देता। दस दिन
इतना खिलाया
कि आप रो रहे
थे, आप
हाथपैर जोड़
रहे थे, कि
अब और न
खिलाएं।
ग्यारहवें
दिन सुबह उसने
कहा कि खाना
बंद—गैप को
बड़ा किया
उसने। उस खाना
बंद करने में
आपको अभी तक
भोजन का स्मरण
था, अब
भोजन एकदम
बंद।
गुरजिएफ
गर्म पानी में
नहलाता, इतना
कि आपको जलने
लगे, और
फिर ठंडे
फव्वारे के
नीचे खड़ा कर
देता और कहता—हमारे
कारण, बी
अवेयर आफ द
गैप। वह जो
गर्म पानी में
शरीर तप्त हो
गया, हमारे
कारण
पसीना-पसीना
हो गया, फिर
एकदम ठंडे
पानी में डाल
दिया बर्फीले।
अकसर वह ऐसा
करता है कि आग
की अंगीठियां
जलाकर बिठा
देता, बाहर
बर्फ पड़ रही, पसीना-पसीना
हो जाते हैं, आप चिल्लाने
लगते हैं कि
मर जाऊंगा,
जल जाऊंगा,
मुझे बाहर निकालो, मगर वह न
मानता। अचानक
वह दरवाजा
खोलता और कहता—भागो, सामने
की झील में बर्फीले
में कूद जाओ, और कहता, बीच
में जो
संक्रमण का
क्षण है, उसका
ध्यान रखना, और न मालूम
कितने लोगों
को वह गैप
दिखाई पड़ा। दिखाई
पड़ेगा।
महावीर
के अनशन में
भी वही प्रयोग
है। मध्य का
बिन्दु खयाल
में आ जाए तो
जब एक शरीर से
दूसरे शरीर पर
बदलते हैं, बदलाहट करते
हैं—जैसे एक
नाव से कोई
दूसरी नाव पर
बदलाहट कर रहा
हो, एक
क्षण तो दोनों
नाव छूट जाती
हैं, एक
क्षण तो वह
बीच में होता
है, छलांग
लगायी, अभी
पहली नाव से
हट गया और
दूसरी नाव में
नहीं पहुंचा—अभी
झील के ऊपर है—ठीक
वैसी ही छलांग
भीतर अनशन में
लगती है। और इस
छलांग के क्षण
में अगर आप
होश से भर
जाएं, जाग्रत
होकर देख लें
तो आपको पहली
बार एक क्षणभर
के लिए एक
जरा-सा अनुभव,
एक दृष्टि,
एक द्वार
खुलता हुआ
मालूम पड़ेगा।
वही अनशन का उपयोग
है। लेकिन जैन
साधु है, वह
अनशन का
अभ्यास कर
लेता है, उसे
वह कभी नहीं
मिलेगा। वह
अभ्यास की बात
नहीं है। वह आकस्मिक
प्रयोग है।
अभ्यास तो उसी
बात को मार डालेगा
जिस बात के
लिए प्रयोग
है। इसलिए
भूलकर अनशन का
अभ्यास मत
करना।
आकस्मिक, अचानक,
छलांग लगा
लेना एक अति
से दूसरी अति
पर ताकि बीच
का हिस्सा
खयाल में आ
जाए।
अगर
आपको विश्राम
में जाना हो
तो किताबें
हैं जो आपको
समझाती हैं कि
बस लेट जाएं, एंड जस्ट
रिलेक्स
और विश्राम
करें। आप
कहेंगे, कैसे?
अगर मालूम
ही होता, "जस्ट रिलेक्स' इतना आसान
होता तो हम
पहले ही कर गए
होते। आप कहते
हैं कि लेट
जाओ, रिलेक्स कर जाओ, विश्राम
में चले जाओ।
कैसे चले जाएं?
लेकिन झेन फकीर
ऐसी सलाह नहीं
देते जापान
में। जो आदमी
नहीं सो पाता,
विश्राम
नहीं कर पाता,
वह उससे
कहते हैं —
पहले, बी टैंस ऐ मच
ऐ यू कैन। हाथ
पैरों को
खींचो, जितने
मस्तिष्क को
खींच सकते हो,
खींचो, हाथ
पैरों को
जितना तनाव दे
सकते हो, दो,
बिलकुल
पागल की तरह
अपने शरीर के
साथ व्यवहार
करो। जितने
तुम तन सकते
हो, तनो। रिलेक्स
भर मत होना, तनो, बी
टैंस। वे
कहते हैं —
मस्तिष्क को
जितना सिकोड़
सकते हो, माथे
की रेखाएं
जितनी पैदा कर
सकते हो, करो।
सारे अंगों को
ऐसे सिकोड़ लो
कि जैसे कि आखिरी
क्षण आ गया, सारी शक्ति
को सिकोड़कर
खींच डालो,
और जब एक
शिखर आता है
तनाव का, तब
झेन फकीर कहता
है — नाउ रिलेक्स, अब छोड़ दो।
आप एक अति से
ठीक दूसरी अति
में गिर जाते
हैं। और जब आप
एक अति से
दूसरी अति में
गिरते हैं तो
बीच में वह
क्षण आता है
मध्य का, जहां
स्वयं का पहला
स्वाद मिलता
है।
इसके
बहुत प्रयोग
हैं, लेकिन सब
प्रयोग एक अति
से दूसरी अति
में जाने के
हैं। कहीं से
भी एक अति से
दूसरी अति में
प्रवेश कर
जाओ। अगर
अभ्यास हो गया
तो मध्य का बिन्दु
छोटा हो जाता
है, इतना
छोटा हो जाता
है कि पता भी
नहीं चलता। उसका
फिर कोई बोध
नहीं होता।
अनशन
की कुछ और दो
तीन बातें
खयाल में ले
लेनी चाहिए कि
महावीर का जोर
अनशन पर बहुत
ज्यादा था।
कारण क्या
होंगे? एक
तो मैंने यह
कहा, यह तो
उसका एसोटेरिक,
उसका
आंतरिक
हिस्सा है, उसका गुहयतम
हिस्सा है।
उसका राज, उसका
सीक्रेट तो
इसमें है।
लेकिन और क्या
बातें थीं? महावीर
जानते हैं और जो
भी प्रयोग किए
हैं इस दिशा
में—वे भी
जानते हैं कि
शरीर से, इस
शरीर से आपका
जो संबंध है
वह भोजन के
द्वारा है। इस
शरीर और आपके
बीच जो सेतु
है, वह
भोजन है। अगर
यह जानना हो
कि मैं यह
शरीर नहीं हूं
तो उस क्षण
में जानना
आसान होगा जब
आपके शरीर में
भोजन बिलकुल नहीं
है। जोड़नेवाला
लिंक जब
बिलकुल नहीं
है, तभी
जानना आसान
होगा कि मैं
शरीर नहीं
हूं। जोड़नेवाली
चीज जितनी
ज्यादा शरीर
में मौजूद है,
उतना ही
जानना
मुश्किल
होगा। भोजन ही
जोड़ता है, इसलिए
भोजन के अभाव
में नब्बे दिन
के बाद टूट जाएगा
संबंध—आत्मा
अलग हो जाएगी,
शरीर अलग हो
जाएगा।
क्योंकि बीच
का जो जोड़नेवाला
हिस्सा था वह
अलग हो गया, वह बीच से
गिर गया। तो
महावीर कहते
हैं—जब तक
शरीर में भोजन
पड़ा है, जब
तक जोड़ है उस
स्थिति में
अपने को ले आओ—जब
शरीर में भोजन
बिलकुल नहीं
है तो तुम
आसानी से जान
सकोगे कि तुम
शरीर से अलग हो,
पृथक हो। आइडेंटिफिकेशन
टूट सकेगा, तादातमय टूट सकेगा।
यह सच
है। इसलिए
जितना ही
ज्यादा शरीर
में भोजन होता
है उतना ही
शरीर के साथ तादातमय
होता है—जितना
ज्यादा शरीर
में भोजन होता
है उतना शरीर
के साथ तादातमय
होता है।
इसलिए भोजन के
बाद नींद
तत्काल आनी शुरू
हो जाती है।
शरीर के साथ तादातमय
बढ़ जाता है तब
मूर्च्छा बढ़
जाती है। शरीर
के साथ तादातमय
टूट जाता है
तो होश बढ़ता
है। इसलिए
उपवासे आदमी
को नींद आना
बड़ा मुश्किल
होता है। बिना
खाए रात नींद
नहीं आती।
नींद मुश्किल
हो जाती है।
इससे
तीसरी बात
खयाल में ले
लें — महावीर
का सारा का
सारा प्रयोग
जा गरण का है, अमूर्च्छा का है, होश
का, अवेयरनेस
का है। तो
महावीर कहते
हैं — भोजन
चूंकि
मूर्च्छा को
बढ़ाता है, तंद्रा
पैदा करता है,
भोजन के बाद
नींद
अनिवार्य हो
जाती है इसलिए
भोजन न लिया
गया हो, भोजन
न किया गया हो,
तो इससे
उल्टा होगा।
होश बढ़ेगा, अवेयरनेस
बढ़ेगा, जागरण
बढ़ेगा। यह तो
हम सब का
अनुभव है। एक
अनुभव तो हम
सब का है कि
भोजन के बाद
नींद बढ़ती है।
रात अगर खाली
पेट सोकर
देखें तो पता
चल जाएगा कि
नींद मुश्किल
हो जाती है।
बार-बार टूट
जाती है।
पेट
भरा हो तो
नींद बढ़ती है, क्यों? तो
उसका
वैज्ञानिक
कारण है। शरीर
के अस्तित्व
के लिए भोजन
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
चीज है—सर्वाधिक,
आपकी
बुद्धि से भी
ज्यादा। एक
दफा बिना
बुद्धि के चल
जाएगा।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला नसरुद्दीन
को चोरों ने एकदफा घेर
लिया। आ र
उन्होंने कहा—जेब
खाली करते हो, नहीं, तो
खोपड़ी में
पिस्तौल मार
देंगे।
मुल्ला ने कहा
कि बिना खोपड़ी
के चल जाएगा
लेकिन खाली
जेब के कैसे
चलेगा? मुल्ला
ने कहा कि
बिना खोपड़ी के
चल जाएगा। बहुत
से लोग मैंने
देखे हैं, बिना
खोपड़ी के चला
रहे हैं, लेकिन
खाली जेब नहीं
चलेगा। तुम
खोपड़ी में
गोली मार दो।
चोर
बहुत हैरान
हुए होंगे, लेकिन
मुल्ला ने ठीक
कहा; हम भी
यही जानते
हैं।
ऐसी
कथा है कि
मुल्ला का
आपरेशन किया
गया मस्तिष्क
का। एक डाक्टर
ने नयी
चिकित्सा
विधि विकसित
की थी जिसमें
वह पूरे
मस्तिष्क को
निकाल लेता, उसे ठीक
करता और वापस
मस्तिष्क में
डालता। जब वह
मस्तिष्क को
निकालकर
दूसरे कमरे
में ठीक करने
गया और जब ठीक
करके लौटा तो
देखा कि
मुल्ला जा
चुका था। छह
साल बाद
मुल्ला लौटा।
वह डाक्टर
परेशान हो गया
था। उसने कहा
कि तुम इतने
दिन रहे कहां?
और तुम भाग
कैसे गए और
इतने दिन तुम
बचे कैसे? वह
खोपड़ी तो
तुम्हारी
मेरे पास रखी
है। मुल्ला ने
कहा—नमस्कार!
उसके बिना बड़े
मजे से दिन
कटे आ र मुझे इलेक्शन
में चुन लिया
गया, तो
मैं दिल्ली
में था।
राजधानी से
लौट रहा हूं।
और अब जरूरत
नहीं है, अब
क्षमा करें।
सिर्फ यही
कहने आया हूं
कि अब आप
परेशान न हों,
आप संभालें।
प्रकृति
भी आपकी
बुद्धि की
फिक्र में
नहीं है, आपके
पेट की फिक्र
में है। इसलिए
जैसे ही पेट
में भोजन पड़ता
है, आपके
शरीर की सारी
ऊर्जा पेट के
भोजन को पचाने
के लिए दौड़
जाती है। आपके
मस्तिष्क की
ऊर्जा जो आपको
जाग्रत रखती
है, वह पेट
की तरफ उतर जाती
है, वह पेट
को पचाने में
लग जाती है।
इसलिए आपको तंद्रा
मालूम होती
है। यह
वैज्ञानिक
कारण है। इसलिए
आपको तंद्रा
मालूम होती है
क्योंकि आपके
मस्तिष्क की
ऊर्जा, जो
मस्तिष्क में
काम आती वह अब
पेट में भोजन
पचाने में काम
आती है, इसलिए
जो लोग भी इस
पृथ्वी पर मस्तिष्क
से अधिक काम
लेते हैं, उनका
भोजन रोज-रोज
कम होता चला
जाता है। जो
लोग मस्तिष्क
से काम नहीं
लेते, उनका
भोजन बढ़ता चला
जाता है
क्योंकि वही
जीवन रह जाता,
और कोई जीवन
नहीं रह जाता।
महावीर
ने यह अनुभव
किया कि जब
भोजन बिलकुल
नहीं होता
शरीर में, तो प्रज्ञा
अपनी पूरी
शुद्ध अवस्था
में होती है
क्योंकि तब सारे
शरीर की ऊर्जा
मस्तिष्क को
मिल जाती है, क्योंकि पेट
में कोई जरूरत
नहीं रह जाती
पचाने की।
इसलिए महावीर
को और आगे
समझेंगे तो
हमें खयाल में
आ जाएगा कि
महावीर कहते
थे कि भोजन बिलकुल
बन्द हो, शरीर
की सारी
क्रियाएं
बन्द हों, शरीर
बिलकुल
मूर्ति की तरह
ठहरा हुआ रह
जाए, हाथ
भी हिले न, अंगुली
भी व्यर्थ न
हिले, सब मिनिमम पर
आ जाए, सब
न्यूनतम पर आ
जाए क्रिया, तो शरीर की
पूरी ऊर्जा जो
अलग-अलग बंटी
है वह मस्तिषक
को उपलब्ध हो
जाती है और
मस्तिष्क
पहली दफा जागने
में समर्थ होता
है। नहीं तो
जागने में
समर्थ नहीं
होता।
अगर
महावीर ने
भोजन में भी पसन्दगियां
कीं कि
शाकाहार हो, मांसाहार न
हो, तो वह
सिर्फ अहिंसा
ही कारण नहीं
था, अहिंसा
एक कारण था।
उससे भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
कारण दूसरा था
और वह यह था कि
मांसाहार पचने
में ज्यादा
शक्ति मांगता
है और बुद्धि की
मूर्च्छा
बढ़ती है।
अहिंसा अकेला
कारण होता तो
महावीर कह
सकते थे कि
मरे हुए जानवर
का मांस लेने में
कोई हर्जा
नहीं है, बुद्ध
ने कहा था।
अगर अहिंसा ही
एक मात्र कारण
है, तो
मारकर मत
क्योंकि
मारने में
हिंसा है, मांस
खाने में तो
कोई हिंसा
नहीं है! अब एक
जानवर मर गया
है, हम तो
मार नहीं रहे,
मर गया है, अब तो मांस
खा रहे हैं, तो मांस
खाने में
कौन-सी हिंसा
है? मरे
हुए के मांस
खाने में कोई
भी हिंसा नहीं
है। इसीलिए
बुद्ध ने
आज्ञा दे दी, मरे हुए
जानवर का मांस
खाया जा सकता
है। हिंसा तो
मारने में थी।
लेकिन महावीर
ने मरे हुए
जानवर का मांस
खाने की भी
आज्ञा नहीं दी।
क्योंकि
महावीर का
प्रयोजन
मात्र अहिंसा
नहीं है।
महावीर का
उससे भी गहरा
प्रयोजन यह है
कि मांस पचने
में ज्यादा
शक्ति मांगता
है, शरीर
को ज्यादा
भारी कर जाता
है, पेट को
ज्यादा
महत्वपूर्ण
कर जाता है और
मस्तिष्क की
ऊर्जा क्षीण
होती है, तंद्रा
गहरी होती है।
इसलिए
महावीर ने ऐसे
हल्के भोजन की
सलाह दी है जो
कम-से-कम
शक्ति मांगे
और मस्तिष्क
की ऊर्जा कम न
हो। यह
मस्तिष्क में
ऊर्जा का
प्रवाह बना
रहे तो ही आप
जाग्रत रह
सकते हैं, अभी जिस
स्थिति में आप
हैं। इसलिए
इसको बाह्यत्तप
कहा है, इसको
आंतरिक तप
नहीं कहा। जो
आदमी आंतरिक
तप को उपलब्ध
हो जाएगा वह
तो नींद में
भी जागा रहता
है, उसका
तो कोई सवाल
नहीं है। जो
आदमी आंतरिक
तप को उपलब्ध
हो जाता है
उसे तो आप
शराब भी पिला
दें तो भी होश
में होता है।
उसे तो मार्फिया
दे दें तो भी
शरीर ही सुस्त
हो जाता है, शरीर ही
ढीला पड़ जाता
है। भीतर उसकी
ज्योति जागती
रहती है। उसकी
प्रज्ञा पर
कोई भेद नहीं
पड़ता।
लेकिन
हमारी हालत
ऐसी नहीं है।
हमें तो
जरा-सा, भोजन
का एक टुकड़ा
भी हमारी
कांशसनेस को
बदलता है, हमारी
चेतना को
बदलता है—जरा-सा
एक टुकड़ा
हमारी चेतना
को डांवांडोल
कर देता है।
हम भीतर और हो
जाते हैं। तो
महावीर ने कहा
है—इसे पहला
तप कहा है, बाह्यत्तप में। चेतना
को बढ़ाना है
तो जब भोजन
शरीर में नहीं
है, आसानी
से बढ़ाव हो
सकेगा।
छोटी-छोटी
बातों के परिणाम
होते हैं—छोटी-छोटी
बातों के
परिणाम होते
हैं, क्योंकि
हम जहां जीते
हैं वहां हम
छोटी-छोटी चीजों
से ही भरे और
बंधे हुए हैं।
जिस दिन भी हम आदमी
को भोजन की
जरूरत से
मुक्त कर
सकेंगे उसी
दिन आदमी
परिपूर्ण रूप
से चेतना से
भर जाएगा। हम
पृथ्वी से
नहीं बंधे हैं,
पेट से बंधे
हैं। हमारा
गहरा बंधन
पदार्थ से
नहीं है, ठीक
कहें तो भोजन
से है। जिस
मात्रा में आप
भोजन के लिए
आतुर हैं, उसी
मात्रा में आप
मूर्च्छित
होंगे, स्लीपी होंगे, और
आपके भीतर
जागरण को लाने
में अड़चन
पड़ेगी, कठिनाई
पड़ेगी।
यह
सवाल इतना ही
नहीं है कि
भोजन छोड़ दिया।
यह तो सिर्फ बाह्य
रूप है। भीतर
चेतना बढ़े। तो
चेतना कैसे
बढ़े, उसको हम
आंतरिक तप में
समझ पाएंगे कि
चेतना कैसे
बढ़े। लेकिन
भोजन छोड़कर
कभी-कभी चेतना
बढ़ाने का
प्रयोग कीमती
है। लेकिन हम
जब भोजन छोड़ते
हैं तो चेतना
वगैरह नहीं
बढ़ती, केवल
भोजन का चिंतन
बढ़ता है। उसका
कारण है कि हम
भोजन भी छोड़ते
हैं तो हमें यह
पता नहीं कि
हम किसलिए
छोड़ते हैं।
हमें यह बताया
जा रहा है कि
सिर्फ भोजन
छोड़ देना ही
पुण्य है। वह
बिलकुल
पागलपन है।
अकेला भोजन
छोड़ देना
पुण्य नहीं
है। भोजन छोड़
देने के पीछे
जो रहस्य है
उसमें पुण्य
छिपा है। अगर आपने
सोचा है कि
सिर्फ भोजन
छोड़ देना पुण्य
है तो भोजन
छोड़कर आप भोजन
का चितन
करते रहेंगे,
क्योंकि
भीतर का जो
असली तत्व है
उसका तो आपको
कोई पता नहीं
है। आप बैठकर
भोजन का चिंतन
करेंगे। और
ध्यान रहे, भोजन के
चिंतन से भोजन
ही बेहतर है, क्योंकि
भोजन का चिंतन
बहुत खतरनाक
है। उसका मतलब
यह हुआ कि पेट
का काम आ प
मस्तिष्क से
ले रहे हैं जो
कि बहुत कंफयूजन
पैदा करेगा।
आपके पूरे
व्यक्तित्व
को रुग्ण कर
जाएगा। इस पर
हम पीछे बात
करेंगे, क्योंकि
दूसरे सूत्र
पर, महावीर
इस पर बहुत
जोर देंगे।
भोजन
का चिंतन न
चले, तो ही
अनशन का कोई
उपयोग है, तब,
जब भोजन भी
नहीं और भोजन
का चिंतन भी
नहीं।
आपको
पता है कि
आपके चिंतन के
दो ही हिस्से
हैं, या तो काम,
या भोजन। या
तो कामवासना
मन को घेरे
रहती है, या
स्वाद की
वासना मन को
घेरे रहती है।
गहरे में तो
कामवासना ही
है क्योंकि
भोजन के बिना
कामवासना
सम्भव नहीं
है। अगर भोजन
आपका कम कर
दिया जाए तो
कामवासना को
मुश्किल हो
जाती है, कठिनाई
हो जाती है।
तो गहरे में
तो कामवासना ही
घेरे रहती है।
चूंकि भोजन
कामवासना को
शक्ति देता है
इसलिए भोजन
घेरे रहता है।
ऊपर से हमें
भोजन का चिंतन
चलता रहता है।
महावीर से पूछेंगे
तो वे कहेंगे —
जो आदमी भोजन
में बहुत आतुर
है वह आदमी
कामवासना से
भरा होगा। वह
भोजन लक्षण
है। क्योंकि भोजन
शक्ति देता है,
काम की
शक्ति को
बढ़ाता है, और
कामवासना में दौड़ाता
है। तो महावीर
कहेंगे — जो
भोजन के चिंतन
से भरा है, भोजन
की आकांक्षा
से भरा है वह
आदमी
कामवासना से
भरा है। भोजन
की वासना छूटे
तो कामवासना
शिथिल होनी
शुरू हो जाती
है।
यह जो
हम भोजन का
चिंतन करते
हैं, वह
इसीलिए कि
नहीं मिल रहा
है भोजन तो हम सबसटीटयूट
पैदा करते
हैं। ध्यान
रहे, हमारे
मन की गहरी से
गहरी तरकीब, सबसटीटयूट क्रिएशन है,
परिपूरक
पैदा करना है।
अगर आपको भोजन
नहीं मिलेगा
तो मन आपसे
भोजन का चिंतन
करवाएगा। और
उसमें उतना ही
रस लेने
लगेगा िजतना
भोजन में।
बल्कि कभी-कभी
ज्यादा रस
लेगा, जितना
भोजन में भी
नहीं मिलता
है। ज्यादा
लेना पड़ेगा, क्योंकि िजतना
भोजन से मिलता
है, उतना
तो मिल नहीं
सकता चिंतन से,
इसलिए
चिंतन में
इतना रस लेना
पड़ेगा कि जो
भोजन की कमी
रह गयी है वह
भी चिंतन के
ही रस से पूरी होती
हुई मालूम
पड़े। इसलिए
अगर कामवासना
से बचिएगा
तो मन
कामवासना का
चिंतन करने
लगेगा । रात
कभी आप सोए
हैं और आपने
सपना देखा है
कि जाकर पानी
पी रहे हैं, वह सपना
सिर्फ सबसटीटयूट
है। आपको
प्यास लगी
होगी, प्यासे
सो गए होंगे।
भीतर प्यास चल
रही होगी और
नींद टूटना
नहीं चाहती, क्योंकि अगर
आपको पानी
पीना पड़ेगा तो
जागना पड़ेगा।
नींद टूटना
नहीं चाहती, तो नींद एक
सपना पैदा
करती है कि आप
पहुंच गए हैं
पानी के, फ्रीज
के पास — पानी
पी रहे हैं।
पानी पीकर मजे
से फिर सो गए हैं।
यह सपना पैदा
किया।
यह
सपना तरकीब है
जिससे प्यास
की जो पीड़ा है
वह भूल जाए और
नींद जारी
रहे। आपके सब
सपने बताते
हैं कि आपने
दिन में
क्या-क्या
नहीं किया। और
कुछ नहीं
बताते। आपके
सपने के बिना
आपकी जिंदगी
को समझना
मुश्किल है, इसलिए आज का
मनोवैज्ञानिक
आपसे नहीं
पूछता कि दिन
में आपने क्या
किया, वह
पूछता है — रात
में आपने क्या
सपना देखा? अब सोचें
थोड़ा, आपके
बाबत जानकारी
आपके दिन के
काम से मनोवैज्ञानिक
नहीं लेता। वह
आपसे नहीं
पूछता कि आपने
कुछ भी किया हो,
दुकान चलायी
कि मंदिर गए, उससे कोई
मूल्य नहीं
है। वह पूछता
है — सपने में
कहां गए? वह
कहता है — सपने
में आप आथेंटिक
हो, प्रामाणिक
हो, वहां
से पता चलेगा
कि आदमी कैसे
हो? आपके
जागने से कुछ
पता नहीं
चलेगा, वहां
तो बहुत धोखाधड़ी
है। जाना था
वेश्यालय में,
पहुंच गये
मंदिर में।
जागने में चल
सकता है यह, सपने में
नहीं चल सकता।
सपने में यह
धोखा आप नहीं
कर सकते खड़ा, वेश्यालय
में चले
जाएंगे। सपने
में आप ज्यादा
सरल हैं, सीधे-साफ
हैं।
इसलिए
मनोवैज्ञानिक
को — बेचारे को
आपके सपने का
पता लगाना
पड़ता है, तभी
आपके बाबत जानकारी
मिलती है।
आपसे आपके
बाबत जानकारी
नहीं मिलती।
आपका जागना
इतना झूठा है
कि उससे कुछ
पता नहीं चलता,
आपकी नींद
में उतरना
पड़ता है कि आप
नींद में क्या
कर रहे हो।
उससे पता चलेगा,
आ प आदमी
कैसे हो, असली
खोज क्या है
आपकी? तो
अगर आप दिन
में उपवास किए
तो उससे पता
नहीं चलेगा। रात
सपने में भोजन
किए या नहीं, उससे पता
चलेगा। अगर
रात सपने में
भोजन किए, दिन
का अनशन बेकार
गया, उपवास
व्यर्थ हुआ।
लेकिन जिस दिन
आप उपवास करते
हैं, उस
दिन सपने में
भोजन करना ही
पड़ता है, अनिवार्य
है। कहीं न
कहीं निमंत्रण
मिल जाता है, आप कर भी
क्या सकते हैं?
राजमहल में
भोज हो जाता
है, आप कर
भी क्या सकते
हैं। जाना
पड़ता है।
चिंतन
जो नहीं हो पा
रहा है
वास्तविक रूप
से उसे पूरा
करने की डेसपरेट
कोशिश है—भोजन
नहीं किया तो
चिंतन कर रहे
हैं। और ध्यान
रहे, भोजन
करते तो पंद्रह
मिनट में पूरा
हो जाता, चिंतन
से पंद्रह
मिनट में नहीं
चलेगा। पंद्रह
मिनट का काम
एक-सौ पचास
घंटे चलाना
पड़ेगा। चलता
ही रहेगा, चलता
ही रहेगा, क्योंकि
तृप्ति तो
मिलेगी नहीं
भोजन की, रस
तो मिलेगा
नहीं भोजन का,
शक्ति तो
मिलेगी नहीं
भोजन की, तो
फिर चिंतन में
ही उलझाए
रखना पड़ेगा।
इसलिए महावीर
ने, इस
चिंतन को अगर
आपने किया, तो महावीर
ने कहा है कि
आप शरीर से
करते हैं कोई
काम या मन से, इसमें मैं
भेद नहीं
करता। आपने
चोरी की, या
चोरी के बाबत
सोचा, मेरे
लिए बराबर है।
पाप हो गया।
यह सवाल नहीं है
कि आपने हत्या
की, या
हत्या के
संबंध में
सोचा।
अदालत
फर्क करती है—अगर
आप हत्या के
संबंध में
सोचें, कोई
अदालत आपको
सजा नहीं दे
सकती। आप खूब
सोचें मजे से।
कोई अदालत यह
नहीं कह सकती
कि आप जुर्मी
हैं, अपराधी
हैं। आप अदालत
में कह भी
सकते हैं—हम
हत्या का बहुत
रस लेते हैं, सपने भी
देखते हैं, और दिन-रात
सोचते हैं कि
इसकी गर्दन
काट दें, उसकी
गर्दन काट दें,
वह काटते ही
रहते हैं।
चाहे कहें या
न कहें। अदालत
आपका कुछ भी
नहीं बिगाड़
सकती है, आप
कानून की पकड़
के बाहर हैं।
कानून सिर्फ
कृत्य को पकड़
सकता है, कर्म
को पकड़ सकता
है
लेकिन
महावीर कहते
हैं—धर्म, भाव को भी पकड़ता
है। धर्म की
अदालत के बाहर
नहीं हो सकते।
भाव पर्याप्त
हो गया।
महावीर कहते
हैं—कृत्य तो
सिर्फ भाव की बाह्य
छाया है, मूल
तो भाव है।
अगर मैंने
हत्या करनी
चाही तो मैंने
तो हत्या कर
ही दी, बाहर
की
परिस्थितियों
ने करने दी, यह बात
दूसरी है।
पुलिसवाला
खड़ा था, अदालत
खड़ी थी, सजा
का डर था, फांसी
का तख्ता था, इसलिए नहीं
की। यह दूसरी
बात है। बाहर
की परिस्थितियों
ने नहीं करने
दी, यह
दूसरी बात है।
मेरी तरफ से
मैंने कर दी।
अगर
परिस्थिति
सुगम होती, सुविधापूर्ण
होती, पुलिसवाला
न होता या
पुलिसवाला
रिश्तेदार
होता, या
अदालत अपनी
होती, मजिसटरेट अपना होता, कानून अपना
चलता होता तो
मैंने कर दी
होती। फिर कोई
मुझे
रोकनेवाला
नहीं।
न करने
का कारण बाहर
से आ रहा है, करने का
कारण भीतर से
आ रहा है।
भीतर की ही
तौल है, अंततः
आप तौले
जाएंगे, आपकी
परिस्थितियां
नहीं तौली
जाएंगी। यह
नहीं पूछा
जाएगा कि जब
आप हत्या करना
चाह रहे थे तो
आपके पास
बंदूक नहीं थी
इसलिए नहीं कर
पाए। भाव
पर्याप्त है,
हत्या हो
गयी।
अगर
आपने भोजन का
चिंतन किया, उपवास नष्ट
हो गया। तब तो
बड़ी कठिनाई
है। इसका मतलब
यह हुआ कि आप
तब तक उपवास न
कर पाएंगे जब तक
आपका चिंतन पर
नियंत्रण न हो,
नहीं कर
पाएंगे।
इसलिए मैंने
कहा—चर्चा के
लिए हमने नंबर
एक पर रखा है, लेकिन इसको
आप अकेला न कर
पाएंगे जब तक
चिंतन पर
नियंत्रण न हो,
जब तक चिंतन
आपके पीछे न
चलता हो, जब
तक जो आप
चलाना चाहते
हो चिंतन में,
वही न चलता
हो। अभी तो
हालत यह है कि
चिंतन जो
चलाना चाहता
है वहीं आपको
चलना पड़ता है।
जहां ले जाता
है मन, वहीं
आपको जाना
पड़ता है। नौकर
मालिक हो गए
हैं।
सुना
है मैंने कि
अमरीका का एक
बहुत बड़ा करोड़पति
रथचाइल्ड, सुबह- सुबह
जो भी भिखमंगे
उसके पास आते
थे उन्हें कुछ
न कुछ देता
था। एक
भिखमंगा
नियमित रूप से
बीस वर्षो से
आता था। वह
रोज उसे एक
डालर देता था
और उसके बूढ़े
बाप के लिए भी
एक डालर देता
था। बाप कभी आता
था, कभी
नहीं आता था, बहुत बूढ़ा
था, इसलिए
बेटा ही ले
जाता था।
धीरे-धीरे वह
भिखारी इतना
आश्वस्त हो
गया कि अगर
दो-चार दिन न आ
पाता तो चा र
दिन के बाद
अपना पूरा बिल
पेश कर देता
कि पांच दिन
हो गए हैं, मैं
आ नहीं पाया
चार दिन। वह
चार डालर वसूल
करता जो उसको
मिलने चाहिए
थे। फिर उसका
बाप मर गया।
रथचाइल्ड को
पता चला कि
उसका बाप मर
गया है। लेकिन
उसने, फिर
भी उसने अपने
बाप का भी
डालर लेना
जारी रखा। महीने
भर तक
रथचाइल्ड ने
कुछ न कहा, क्योंकि
इसका बाप मरा
है, और
सदमा देना ठीक
नहीं है—देता
रहा। महीनेभर
बाद उसने कहा
कि अब तो हद हो
गयी। अब
तुम्हारा बाप
मर गया, उसका
डालर क्यों
लेते हो?
उसने
कहा—क्या
समझते हो? बाप की दौलत
का मैं हकदार
हूं कि तुम? हू इज दि हेयर।
मेरा बाप मरा
कि तुम्हारा
बाप मरा? बाप
मेरा मरा है, उसकी
संपत्ति का
मालिक मैं
हूं।
रथचाइल्ड
ने अपनी जीवनकथा
में लिखवाया
है कि भिखारी
भी मालिक हो
जा ते हैं, अभ्यास से।
चकित हो गया
रथचाइल्ड, उसने
कहा—ले जा
भाई। तू दो
डालर ले और
अपने बेटे की
वसीयत लिख
जाना। जब तक
हम हैं, देते
रहेंगे, तेरे
बेटे को भी
देना पड़ेगा
क्योंकि यह
वसीयत है।
चिंतन
सिर्फ आपका
नौकर है, लेकिन
मालिक हो गया
है। सभी
इंद्रियां
आपकी नौकर हैं,
लेकिन
मालिक हो गयी
हैं। अभ्यास
लम्बा है। आपने
कभी अपनी इंद्रियों
को कोई आज्ञा
नहीं दी। आपकी
इंद्रियों ने
आपको आज्ञा दी
है।
तप का
एक अर्थ आपको
कहता हूं—तप
का अर्थ है :
अपनी
इंद्रियों की
मालकियत, उनको
आज्ञा देने की
सामर्थ्य।
पेट कहता है, भूख लगी है, आप कहते हैं,
ठीक है, लगी
है, लेकिन
मैं आज भोजन
लेने को राजी
नहीं हूं। आप
पेट से अलग
हुए। मन कहता
है कि आज भोजन का
चिंतन करेंगे,
और आप कहते
हैं कि नहीं, जब भोजन ही
नहीं किया तो
चिंतन क्यों
करेंगे? चिंतन
नहीं करेंगे।
तो ही आप अनशन
कर पाएंगे और
उपवास कर
पाएंगे।
अन्यथा कोई
फर्क नहीं लगेगा।
पेट कहता
रहेगा, भूख
लगी है, मन
चिंतन करता
रहेगा। आप और
उलझ जाएंगे, और परेशान
हो जाएंगे। और
जैसा वह चार
दिन के बाद
अपना बिल लेकर
हाजिर हो जाता
था भिखारी, चार दिन के
उपवास के बाद
पेट अपना बिल
लेकर हाजिर हो
जाएगा कि चार
दिन भोजन नहीं
किया, अब
ज्यादा कर डालो।
तो पर्युषण के
बाद दस दिन
में सब पूरा
कर डालेंगे।
दुगुने तरह से
बदला ले
लेंगे। जो-जो
चूक गया, उसको
ठीक से भरपूर
कर लेंगे।
अपनी जगह वापस
खड़े हो
जाएंगे।
उपवास
हो सकता है
तभी जब चिंतन
पर आपका वश
हो। लेकिन
चिंतन पर आ
पका कोई भी वश
नहीं है। आपने
कभी कोई
प्रयोग नहीं
किया। हमें
चिंतन की तो ट्रेनिंग
दी गई है, हमें
विचार का तो
प्रशिक्षण
दिया गया है, लेकिन विचार
की मालकियत का
कोई
प्रशिक्षण नहीं
है। आपको
स्कूल में, कालेज में
विचार करना
सिखाया जा रहा
है, दो और
दो जोड़ना
सिखाया जा रहा
है—सब सिखाया
जा रहा है। एक
बात नहीं
सिखायी जा रही
है कि दो और दो
जब जोड़ना हो
तभी जोड़ना, जब न जोड़ना
हो तो मत
जोड़ना। लेकिन
अगर मन दो और दो
जोड़ना चाहे तो
आप रोक नहीं
सकते। आप
कोशिश करके
देख लें, आज
घर पर। कहें
कि हम दो और दो
न जोड़ेंगे और
मन दो और दो जोड़गा,
उसी वक्त जोड़ेगा।
वह आपको डिफाई
करेगा, वह
कहेगा तुम हो
क्या? हम
दो और दो चार
होते हैं। आप
आज कोशिश करना
कि दो और दो हमें
नहीं जोड़ना है,
फौरन मन
कहेगा, चार।
आप कहना हमें
जोड़ना नहीं है,
वह कहेगा
चार। वह आपको डिफाई
करता है। और
उसको डिफाई
करना चाहिए।
क्योंकि उसकी
मालकियत आप
छीन रहे हैं।
अब तक आपने
उसको मालिक
बनाकर रखा है।
एक दिन में यह
नहीं हो
जाएगा। लेकिन
अगर इसके
प्रति सजगता आ
जाए और यह
खयाल आ जाए कि
मैं अपनी ही
इंद्रियों का
गुलाम हो गया
हूं तो शायद
थोड़ी यात्रा
करनी पड़े—थोड़ी
यात्रा करनी
पड़े
इंद्रियों के
विपरीत। अनशन, वैसी ही
यात्रा की
शुरुआत है।
महावीर
कहते हैं, ठीक। आज
नहीं, बात
समाप्त हो
गयी। लेकिन
आपके नहीं और
हां में बहुत
फर्क नहीं है।
आपके
व्यक्तित्व
में हां और
नहीं में बहुत
फर्क नहीं है।
आपका बेटा आपसे
कहता है—यह
खिलौना लेना
है। आप कहते
हैं—नहीं। बड़ी
ताकत से कहते
हैं, लेकिन
बेटा वहीं पैर
पटकता खड़ा
रहता है, वह
कहता है कि
लेंगे।
दुबारा आप
कहते हैं—मान
जा, नहीं
लेंगे। आपकी
ताकत क्षीण हो
गयी है। आपका नहीं,
हां की तरफ
चल पड़ा। वह
बेटा पैर
पटकता ही रहता
है। वह कहता, लेंगे। आखिर
आप लेते हैं।
बेटा जानता है
कि आपकी नहीं
का कुल इतना
मतलब है कि
तीन चार दफे
पैर पटकना
पड़ेगा और हां
हो जाएगी। और
कुछ मतलब नहीं
ज्यादा। छोटे
से छोटे बच्चे
भी जानते हैं
कि आपके "न' की ताकत
कितनी है। एंड
हाउ मच यू
मीन बाई सेइंग
नो। बच्चे
जानते हैं और
आपके न को
कैसे काटना है,
यह भी वे
जानते हैं। और
काट देते हैं।
आपकी न को हां
में बदल देते
हैं। और जितने
जोर से आप
कहते हैं नहीं,
उतने जोर से
बच्चा जानता
है कि यह
कमजोरी की घोषणा
है। यह आप डरवाने
की कोशिश कर
रहे हैं। डरे
हुए अपने से
ही हैं कि
कहीं हां न
निकल जाए। वह
बच्चा समझ
जाता है, जोर
से बोले हैं, ठीक है, अभी
थोड़ी देर में
ठीक हो
जाएंगे। नहीं,
जो आदमी सच
में
शक्तिशाली है
वह "जोर से
नहीं' कहीं
कहता है, वह
शान्ति से कह
देता है, "नहीं'। और बात
समाप्त हो
गयी।
आपकी
इंद्रियां भी
ठीक इसी तरह
का टानट्रम
सीख लेती हैं
जैसा बच्चे
सीख लेते हैं।
आप कहते हैं—आज
भोजन नहीं; तो आप हैरान
होंगे, अगर
आप रोज ग्यारह
बजे भोजन करते
हैं तो आपको
रोज ग्यारह
बजे भूख लगती
है। लेकिन अगर
आपने कल रात
तय किया कि कल
उपवास करेंगे
तो छह बजे से
भूख लगती है।
यह बड़े
आश्चर्य की
बात है।
ग्यारह बजे
रोज भूख लगती
थी, छह बजे
कभी नहीं लगती
थी। हुआ क्या?
क्योंकि
अभी आपने, अभी
तो कुछ किया
नहीं, अभी
तो अनशन भी
शुरू नहीं हुआ,
वह ग्यारह
बजे शुरू
होगा। सिर्फ
खयाल, रात
में तय किया
कि कल अनशन
करना है, उपवास
करना है, सुबह
से भूख लगने
लगी। सुबह से
क्या, रात
से शुरू हो
जाएगी। वह
आपके पेट ने
आपके न को हां
में बदलने की
कोशिश उसी
वक्त शुरू कर
दी। उसने कहा,
तुम क्या
समझते हो? ग्यारह
बजे तक वह
नहीं रुकेगा।
भूख इतने जोर
से कभी नहीं
लगती थी। रोज
तो ऐसा था असल
में कि ग्यारह
बजे खाते थे
इसलिए खाते
थे। वह एक समय
का बंधन था।
लेकिन आज भूख
बड़े जोर से
लगेगी, और
अभी ग्यारह
नहीं बजे
इसलिए
वस्तुतः तो
कहीं कोई फर्क
नहीं पड़ा है।
रोज भी ग्यारह
बजे तक भूखे
रहते थे, कोई
फर्क नहीं पड़ा
है कहीं भी
लेकिन चित्त
में फर्क पड़
गया और
इंद्रियां
अपनी मालकियत
कायम करने की
कोशिश
करेंगी। वह
कहेंगी कि
नहीं, बहुत
जोर से भूख
लगी है, इतने
जोर से कभी
नहीं लगी थी, ऐसी भूख लगी
है।
निश्चित
ही कोई भी
अपनी मालकियत
आसानी से नहीं
छोड़ देता। एक
बा र मालकियत
दे देना आसान
है, वापस
लेना थोड़ा
कठिन पड़ता है।
वही कठिनता
तपश्चर्या
है। लेकिन, अगर आप
सुनिश्चित
हैं आ र आपके न
का मतलब न, और
हां का मतलब
हां होता है—सच
में होता है, तो
इंद्रियां
बहुत जल्दी
समझ जाती हैं।
बहुत जल्दी
समझ जाती हैं
कि आपके न का
मतलब न है और
आपके हां का
मतलब हां है।
इसलिए
मैं आपसे कहता
हूं, संकल्प
अगर करना है
तो फिर तोड़ना
मत, अन्यथा
करना ही मत।
क्योंकि
संकल्प करके
तोड़ना आपको
इतना दुर्बल
कर जाता है कि
जिसका कोई हिसाब
नहीं। संकल्प
करना ही मत, वह बेहतर
है। क्योंकि
संकल्प
टूटेगा नहीं
तो उतनी
दुर्बलता
नहीं आएगी। एक
भरोसा तो
रहेगा कि कभी
करेंगे तो
पूरा कर
लेंगे। लेकिन
संकल्प करके
अगर आपने तोड़ा
तो आप अपनी ही
आंखों में, अपने ही
सामने दीन-हीन
हो जाएंगे। और
सदा के लिए वह दीनहीनता
आपके पीछे
रहेगी। और जब
भी आप दुबारा
संकल्प करेंगे,
तब आप पहले
से ही जानेंगे
कि यह टूटेगा।
यह चल नहीं
सकता। छोटे
संकल्प से
शुरू करें, बहुत छोटे
संकल्प से
शुरू करें।
गुरजिएफ
बहुत छोटे
संकल्प से
शुरू करवाता
था। वह कहता, इस हाथ को
ऊंचा कर लो।
अब इसको नीचे
मत करना। जैसे
ही तय किया कि
नीचे मत करना,
पूरा हाथ
कहता है नीचे
करो। अब इसको
नीचे मत करना।
अब चाहे कुछ
भी हो जाए
इसको नीचे मत
करना। जब तक
कहता था
गुरजिएफ, मैं
न कहूं हाथ को
नीचे मत करना।
हाथ दलीलें करेगा।
आप सोचेंगे, हाथ कैसे
दलीलें करेगा?
हाथ दलील
करता है। वह आरगू
करेगा। वह
कहेगा—बहुत थक
गया हूं, अब
तो नीचे कर
लो। वह कहेगा,गुरजिएफ
यहां कहां देख
रहा है, एक
दफे ऊपर करके
नीचे कर लो।
उसकी तो पीठ
है। और ध्यान
रखें, गुरजिएफ
जब भी ऐसी
आज्ञा देता था
तो पीठ करके बैठता
था। हाथ
पच्चीस आरगूमेंट
खोजेगा। वह
कहेगा—ऐसे में
कहीं लकवा न
लग जाए। और
फिर हाथ कहेगा
इससे फायदा भी
क्या, हाथ
ऊंचे करने से
कोई भगवान
मिलनेवाला है?
अरे हाथ तो
शरीर का
हिस्सा है, इससे आत्मा
का क्या संबंध
है?
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं—कपड़े
बदलने से क्या
होगा? आत्मा
बदलनी है। कपड़ा
बदलने की
हिम्मत नहीं
है, आत्मा
बदलनी है। वे
कहते हैं—आत्मा
बदलने से
होगा। तो कपड़े
बदलने से क्या
होगा? वे
सोच रहे हैं
यह दलील वे दे
रहे हैं, यह
उनके कपड़े दे
रहे हैं। यह
दलील उनकी
नहीं है, यह
उनके कपड़ों की
है। यह जो घर
में साड़ियों
का ढेर लगा
हुआ है, वे साड़ियां
कह रही हैं कि
कपड़े से क्या
होगा? लेकिन
वे सोच रहे
हैं कि बहुत
आत्मिक खोज कर
लाए। वे कह
रहे हैं कि
भीतर का
परिवर्तन
चाहिए, बाहर
के परिवर्तन
से क्या होगा।
बाहर का परिवर्तन
तक करने की
सामर्थ्य
नहीं जुटती, भीतर के
परिवर्तन के
सपने देख रहे
हैं। बाहर इतना
बाहर नहीं है
जितना आप
सोचते हैं। वह
आपके भीतर तक
फैला हुआ है।
भीतर इतना
भीतर नहीं है
जितना आप
सोचते हैं, वह आपके
कपड़ों तक आ
गया है। वह सब
तरफ फैला हुआ है।
अपने
को धोखा देना
बहुत आसान है।
जो भूखा नहीं
रह सकता वह
कहेगा अनशन से
क्या होगा? भूखे मरने
से क्या होगा?
कुछ नहीं
होगा। जो नग्न
खड़ा नहीं हो
सकता, वह
कहेगा नग्न
खड़े करने से
क्या होगा? इससे क्या
होनेवाला है?
उपवास से
कुछ भी नहीं
होगा, तो
क्या भोजन
करने से हो
जाएगा? नग्न
खड़े होने से
नहीं होगा, तो क्या
कपड़े पहनने से
हो जाएगा? तो
गेरुवा
वस्त्र पहनने
से नहीं होगा
तो दूसरे रंग
के वस्त्र
पहनने से हो जाएगा?
क्योंकि
दूसरे रंग के
वस्त्र पहनते
वक्त उसने यह
दलील कभी नहीं
दी कि कपड़ों
से क्या होगा,
लेकिन गेरुवा
वस्त्र पहनते
वक्त वही आदमी
दलील लेकर आ
जाता है कि
कपड़े से क्या
होगा? हमारा
मन, हमारी
इंद्रियां, हमारे कपड़े,
हमारी
चीजें, सब
दलीलें देती
हैं और हम रेशनलाइज
करते हैं।
ध्यान
रहे, री न और रेशनलाइजेशन
में बहुत फर्क
है।
बुद्धिमत्ता
में और बुद्धिमत्ता
का धोखा खड़ा
करने में बहुत
फर्क है। और
जब हाथ कहता
है कि थक
जाएंगे, मर
जाएंगे—गुरजिएफ
कहता है कि
तुम नीचे मत
करना, अगर
हाथ थक जाएगा
तो गिर जाएगा,
तुम नीचे मत
करना। थक
जाएगा तो गिर
जाएगा, तुम
करोगे क्या? अगर हा थ सच
में ही थक
जाएगा तो
रुकेगा कैसे?
जब तक रुका
है, तब तक
तुम मत
गिराना। तुम
अपनी तरफ से
मत गिराना।
अगर हाथ गिरे
तो तुम देख
लेना कि गिर
रहा है। पर
तुम कोआपरेट
मत करना, तुम
सहयोग मत
देना। पर
बारीक है बात।
हम बड़े धोखे
से सहयोग दे
सकते हैं। हम
कह सकते हैं
यह हाथ गिर
रहा है, हम
थोड़े ही गिरा
रहे हैं। यह
हाथ गिर रहा
है, आ र आप
भली-भांति
जानते हैं कि
यह गिर नहीं
रहा है, आप
गिरा रहे हैं।
इतने भीतर
अपने को
साफ-साफ देखना
पड़ेगा अपनी बेईमानियों
को, अपनी वंचनाओं
को, अपने डिसेप्शंस
को। और जो आदमी
अपनी वंचनाओं
को नहीं देखता,
उसके हां और
न में फर्क
नहीं रह जाता।
वह न कहता है
और हां कर
लेता है। हां
कहता है और न
कर लेता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
का लड़का पैदा
हुआ। बड़ा हुआ
तो नसरुद्दीन
ने सोचा कि
क्या बनेगा, इसकी कुछ
जांच कर लेनी
चाहिए। उसने
कुरान रख दी, पास एक शराब
की बोतल रख दी,
एक दस रुपए
का नोट रख
दिया और छोड़
दिया उसको कमरे
में और छिपकर
खड़ा हो गया।
लड़का गया, उसने
दस रुपये का
नोट जेब में
रखा, कुरान
बगल में दबायी
और शराब पीने
लगा। नसरुद्दीन
भागा, अपनी
बीबी से बोला
कि यह
राजनीतिज्ञ
हो जाएगा।
कुरान पढ़ता तो
सोचते
धार्मिक हो
जाएगा, शराब
पीता तो सोचते
अधार्मिक हो
जाएगा, रुपया
जेब में रखकर
भाग गया होता
तो सोचते व्यापारी
हो जाएगा। यह पालिटिशियन
हो जाएगा। यह
कहेगा कुछ, करेगा कुछ, होगा कुछ।
यह सब एक साथ
करेगा।
हमारा
चित्त ऐसा ही
कर रहा है—धर्म
भी कर रहा है, अधर्म भी
सोच रहा है।
जो कर रहा है, जो सोच रहा
है, दोनों
से कोई संबंध
नहीं है, खुद
कुछ और ही है।
और यह सब जाल
एक साथ है।
तपश्चर्या इस
जाल को काटने
का नाम है और
व्यक्तित्व
को एक प्रतिमा
देने की
प्रक्रिया है—इस
बात की कोशिश
है कि
व्यक्तित्व
में एक स्पष्ट
रूप निखर
आए, एक
आकार बन जाए।
आप ऐसे विकृत
कुछ भी आकार न
रह जाएं, आप
में एक आकार
उभरे, आहिस्ता-आहिस्ता
आप स्पष्ट
होते जाएं, एक क्लेरिटी
हो। अगर आपको
नहीं भोजन
लेना है तो नहीं
लेना है, यह
आपके पूरे
व्यक्तित्व
की आवाज हो
जाए, बात
खत्म हो गयी।
अब यह बात
नहीं उठेगी जब
तक नहीं लेना
है।
महावीर
तो बहुत अनूठा
प्रयोग करते
थे क्योंकि यह
भी हो सकता है उसीके
बचाव के लिए
वह प्रयोग था।
यह भी हो सकता
है कि आपने तय
कर लिया है कि
चौबीस घंटे
नहीं लेंगे
भोजन और न
सोचेंगे। तो
मन कहता है —
कोई हर्जा
नहीं, चौबीस
ही घंटे की
बात है न।
चौबीस घंटे
बाद तो सोचेंगे,
करेंगे।
ठीक है किसी
तरह चौबीस
घंटे निकाल देंगे।
मन इसके लिए
भी राजी हो
सकता है।
क्योंकि इनडेफिनिट
नहीं है मामला,
डेफिनिट है, निश्चित
है। चौबीस
घंटे के बाद
तो कर ही लेना
है, तो
चौबीस ही घंटे
की बात है न! एक
मजबूरी जैसा आप
ढो लेंगे।
लेकिन तब आपको
उपवास की
प्रफुल्लता न
मिलेगी, बोझ
होगा। तब
उपवास का
आनन्द आपके
भीतर न खिलेगा।
वह एक्सटैसी,
वह लहर आपके
भीतर न आएगी
जो इंद्रियों
के ऊपर मालकियत
के होने से
आती है। तब
सिर्फ एक बोझ
होगा कि चौबीस
घंटे ढो लेना
है। गुजार
देंगे चौबीस
घंटे। निकाल
देंगे, समय
को। काट लेंगे
समय को स्थानक
में, मंदिर
में देरासर
में, कहीं
बैठकर समय
गुजार देंगे,
किसी तरह
निपटा ही
देंगे।
लेकिन
तब, तब अनशन
नहीं हुआ।
महावीर
निश्चित न करते
थे कि कब भोजन
लेंगे। और
अनिश्चय पर
छोड़ते थे, नियति
पर। बहुत
हैरानी का
प्रयोग था, वह महावीर
ने अकेले ही
इस पृथ्वी पर
किया। वे कहते
थे कि भोजन
मैं तब लूंगा
जब ऐसी घटना
घटेगी। तब
घटना अपने हाथ
में नहीं।
रास्ते पर निकलूंगा
अगर किसी बैलगाड़ी
के सामने कोई
आदमी खड़ा होकर
रो रहा होगा, अगर बैल
काले रंग के
होंगे, अगर
उस आदमी की एक
आंख फूटी होगी
और एक आंख से आंसू
टपक रहा होगा,
तो मैं भोजन
ले लूंगा। और
वह भी अगर
वहीं कोई भोजन
देने के लिए
निमंत्रण दे
देगा। नहीं तो
आगे बढ़ जाऊंगा।
अनेक दिन
महावीर गांव
में जाते, वे
जो तय करके
जाते थे—जो तय
उन्होंने कर
लिया था पहले
दिन भोजन के छोड़ने
के, वह
पूरा नहीं
होता, वे
वापस लौट आते
लेकिन वे बड़े
आनन्दित वापस
लौटते, क्योंकि
वे कहते कि जब
नियति की ही
इच्छा नहीं है
तो हम क्यों
इच्छा करें? जब कास्मिक,
जब जागतिक
शक्ति कहती है
कि नहीं आज भोजन,
तो बात खत्म
हो गयी। अब
तुम जानो, तुम्हारा
काम जाने, नियति
जाने। वे वापस
लौट आते। गांवभर
रोता, गांवभर परेशान
होता, क्योंकि
गांव में अनेक
लोग खड़े होते
भोजन ले लेकर
और अनेक
इंतजाम करके
खड़े होते।
अभी भी
खड़े होते हैं, लेकिन अब
जैन दिगम्बर
मुनि—वैसा
प्रयोग करता
है अभी भी—लेकिन
वह सब जाहिर
है कि वह
क्या-क्या
नियम लेता है।
पांच-सात नियम
जाहिर हैं, वह वही के
वही लेता है, पांच-सात
घरों में वे
नियम पूरे कर
देते हैं। किसी
घर के सामने
केले लटके
होंगे। अब वह
मालूम है। वे
केले लटका
लेते हैं सब
लोग, अपने
घर के सामने।
कोई स्त्री
सफेद साड़ी
पहनकर भोजन के
लिए निमंत्रण
करेगी, वह
मालूम है। अब
पांच-सात नियम
फिकसड हो
गए हैं।
पांच-सात नियम
पांच-सात घरों
में लोग खड़े
हो जाते हैं
करके। अब जैन
मुनि कभी बिना
भोजन लिए नहीं
लौटता।
निश्चित ही वह
महावीर से
ज्यादा
होशियार है।
कभी नहीं लौटता
खाली हाथ। तब
तो उसको मिलता
ही है, इसलिए
पक्का मा मला
है उसको और
उसको
बनानेवाले, भोजन बनानेवालों
में कोई न कोई
सांठगांठ है।
भोजन बनानेवालों
को पता है, उसको
पता है। वह
वही नियम लेता
है, वही
भोजन
बनानेवाले
पूरा कर देते
हैं। भोजन
लेकर वह लौट
जाता है। आदमी
अपने को कितने
धोखे दे सकता
है!
महावीर
की प्रक्रिया
बहुत और है।
वह यह थी—वे
किसी को
कहेंगे नहीं, वह उनके
भीतर है बात।
अब वह क्या है?
कभी-कभी तीन
तीन महीने
महावीर को
खाली, बिना
भोजन लिए गांव
से लौट जाना
पड़ा। बात खत्म
हो गयी, पर इनडेफिनिट
है। और जब मन
के लिए कोई
सीमा नहीं
होती तो मन को
तोड़ना बहुत
आसान हो जाता
है; जब मन
के लिए सीमा
होती है तो
खींचना बहुत
आसान होता है।
एक ही घंटे की
तो बात है, तो
निकाल देंगे।
चौबीस घंटे की
बात है, गुजार
देंगे लेकिन इनडेफिनिट।
महावीर का जो
अनशन था, उसकी
कोई सीमा न
थी। वह कब
पूरा होगा कि
नहीं होगा, कि यह जीवन
का अंतिम होगा
भोजन, इसके
बाद नहीं होगा
इसका भी कुछ
पक्का पता नहीं।
वह कल पर है, कल की बात
है। कल गांव
में वे जाएंगे—हो
गया, हो
गया; नहीं
हुआ, नहीं
हुआ; वापिस
लौट आएंगे, बात खत्म हो
गयी।
इसलिए
महावीर ने
उपवास और अनशन
पर जैसे गहरे
प्रयोग किए, इस पृथ्वी
पर किसी ने
कभी नहीं किए।
मगर आश्चर्य
की बात है कि
इतने कठिन
प्रयोग करके
भी महावीर को
फिर भी भोजन
तो कभी-कभी
मिल ही जाता
था। बारह वर्ष
में तीन सौ
पैंसठ बार
भोजन मिला। कभी
पंद्रह दिन
बाद, कभी
दो महीने बाद,
कभी तीन
महीने बाद, कभी चार
महीने बाद, पर भोजन
मिला। तो
महावीर कहते
थे—जो
मिलनेवाला है,
वह मिल ही
जाता है। और
महावीर कहते
थे—त्याग तो
उसी का किया
जा सकता है जो
नहीं मिलनेवाला
है। उसका तो
त्याग भी कैसे
हो सकता है जो
मिलनेवाला ही
है। और तब महावीर
कहते थे—जो
नियति से मिला
है, उसका
कर्म-बंधन
मेरे ऊपर नहीं
है। मेरा नहीं
है कोई संबंध
उससे।
क्योंकि
मैंने किसी से
मांगा नहीं, मैंने किसी
से कहा नहीं, छोड़ दिया
अनंत के ऊपर।
कि होगी जगत
को कोई जरूरत
मुझे चलाने की
तो और चला
लेगा। और नहीं
होगी जरूरत तो
बात खत्म हो
गयी। मेरी
अपनी कोई
जरूरत नहीं
है। ध्यान रहे
महावीर की सा
री प्रक्रिया
जीवेषणा
छोड़ने की
प्रक्रिया
है। महावीर
कहते हैं — मैं
जीवित रहने के
लिए कोई एषणा
नहीं करता हूं।
अगर इस
अस्तित्व को
ही, अगर इस
होने को ही
जरूरत हो मेरी
कोई, इंतजाम
तुम जुटा लेना,
वह मेरा
इंतजाम नहीं
है। और
तुम्हें कोई
जरूरत न रह
जाए तो मेरी
तरफ से जरूरत
पहले ही छोड़
चुका हूं।
लेकिन
आश्चर्य तो
यही है कि फिर
भी महावीर जिये
चालीस वर्ष —
स्वस्थ जिये, आनंद से
जिये। इस भूख
ने उन्हें मार
न डाला। इस
नियति पर छोड़
देने से वे
दीन-हीन न हो गए।
यह जीवेषणा को
हटा देने से
मौत न आ गयी।
जरूर बहुत से
राज पता चलते
हैं। हमारी यह
चेष्टा कि मैं
ही मुझे जिला
रहा हूं, विक्षिप्तता
है। आ र हमारा
यह खयाल कि जब
तक मैं न
मरूंगा, कैसे
मरूंगा? नासमझी
है। बहुत कुछ
हमारे हाथ के
बाहर है, उसे
भी हम समझते
हैं कि हमारे
हाथ के भीतर
है। जो हमारे
हाथ के बाहर
है उसे हाथ
के
भीतर समझने से
ही अहंकार का
जन्म होता है।
जो हमारे हाथ
के बाहर है, उसे हाथ के
बाहर ही समझने
से अहंकार
विसर्जित हो
जाता है।
महावीर
अपना भोजन भी
पैदा नहीं
करते। महावीर स्नान
भी नहीं करते
अपनी तरफ से।
वर्षा का पानी
जितना धुला देता
है, धुला
देता है।
लेकिन बड़ी
मजेदार बात है
कि महावीर के
शरीर से पसीने
की दुर्गंध
नहीं आती थी।
आनी चाहिए, बहुत ज्यादा
आनी चाहिए, क्योंकि
महावीर स्नान
नहीं करते
हैं। पर आपने
कभी खयाल किया
, सैकड़ों पशु पक्षी
हैं, स्नान
नहीं करते।
वर्षा का पानी
बस काफी है। उनके
शरीर से
दुर्गन्ध आती
है! एक आदमी
अकेला ऐसा
जानवर है जो
बहुत दुर्गन्धित
है, डीओडरेंट की जरूरत
पड़ती है। रोज
सुगंध छिड़को,
डीओडरेंट साबुनों से
नहाओ, सब
तरह का इंतजाम
करो, फिर
भी पांच-सात
मिनट किसी के
पास बैठ जाओ
तो असली खबर
मिल जाती है।
आदमी
अकेला जानवर
है जो दुर्गंध
देता है।
महावीर के
जीवन में जिन
लोगों को जानकारी
थी, जो उनके
निकट थे वे
बहुत चकित थे
कि उनके शरीर से
दुर्गंध नहीं
आती। असल में
महावीर ऐसे
जीते हैं, जैसे
पशु पक्षी
जीते हैं, उतने
ही नियति पर
अपने को छोड़कर।
जो मर्जी इस
विराट की, इस
अनंत सत्ता की
जो मर्जी, वही
उसके लिए राजी।
ऐसा भी नहीं
कि पसीना आएगा
तो वे परेशान
होंगे, कि
नाराज ही
होंगे। पसीने
के लिए राजी
होंगे; दुर्गंध
आएगी, दुर्गंध
के लिए राजी
होंगे। असल
में राजी होने
से एक नयी तरह
की सुगंध जीवन
में आनी शुरू
होती है। एक्सेप्टिबिलिटी।
जब हम सब
स्वीकार कर
लेते हैं तो
एक अनूठी
सुगंध से जीवन
भरना शुरू हो
जाता है। सब दुर्गंध
अस्वीकार की दुर्गंध
है। सब दुर्गंध
अस्वीकार की दुर्गंध
है और सब
कुरूपता
अस्वीकार की
कुरूपता है।
स्वीकार के
साथ ही एक
अनूठा
सौंदर्य है और
स्वीकार के साथ
ही एक अनूठी
सुगंध से जीवन
भर जाता है, एक सुवास से
जीवन भर जाता
है।
महावीर
को पानी गिरे
तो समझेंगे, स्नान कराना
था बादलों को।
इसको जब कथाओं
में लिखा गया
तो हमने बड़ी
भूलें कर दीं।
क्योंकि कथाएं
तो कवि लिखते
हैं, और जब
लिखते हैं तो
फिर प्रतीक आ
र सारा काव्य
उसमें
संयुक्त होता
है, मिथ बन
जाती है।
कवियों ने जब
इसी बात को
कहा तो खराब
हो गयी बात।
मजा चला गया।
कवियों ने कहा
— जब देवताओं
ने स्नान
करवाया, सब
बात खराब हो
गई, उसका
मजा चला गया।
वह मजा ही चला
गया, बात
ही खत्म हो
गई। अभिषेक
देवताओं ने
किया। महावीर
खुद तो स्नान
नहीं करते तो
देवता बेचैन
हो गए, वे
आए और
उन्होंने
स्नान
करवाया। असल
में ऐसी बात
नहीं है। बात
कुल इतनी ही
है कि महावीर
ने समस्त पर
स्वयं को छोड़
दिया। जब बादल
बरसे, स्नान
हो गया। लेकिन
उन दिनों लोग
बादलों को भी
देवता कहते
थे। इंद्र था,
तो कथा में
जब लिखा गया
तो लिखा गया
कि इंद्र आया
और उसने स्नान
करवाए। ये सब
प्रतीक हैं।
बात कुल इतनी है
कि महावीर ने
छोड़ दिया
नियति पर, प्रकृति
पर सब, जो
करना हो कर, मैं राजी
हूं।
यह
राजी होना
अहिंसा है। और
इस राजी होने
के लिए
उन्होंने
अनशन को
प्राथमिक
सूत्र कहा है।
क्यों? क्योंकि
आप राजी कैसे
होंगे, जब
तक आपकी सब
इंद्रियां आपसे
राजी नहीं हैं
तो आप प्रकृति
से राजी कैसे
होंगे? इसे
थोड़ा देख लें।
यह डबल हिस्सा
है। आपकी इंद्रियां
ही आपसे राजी
नहीं है — पेट
कहता है, भोजन
दो; शरीर
कहता है कपड़े,
दो; पीठ
कहती है, विश्राम
चाहिए। आपकी
एक-एक इंद्रिय
आपसे बगावत
किए हुए है।
वह कहती है, यह दो, नहीं
तो तुम्हारी
जिंदगी बेकार
है, अकारथ
है। तुम बेकार
जी रहे हो। मर
जाओ, इससे
तो बेहतर है
अगर एक अच्छा
बिस्तर नहीं
जुटा पा रहे
हो — मर जाओ।
आपकी
इंद्रियां
आपसे नाराजी
हैं, आपसे
राजी नहीं हैं।
और आपको खींच
रही हैं, तो
आप इस विराट
से कैसे राजी
हो पाएंगे!
इतने छोटे-से
शरीर में इतनी
छोटी-सी
इंद्रियां
आपसे राजी
नहीं हो पातीं,
तो इस विराट
शरीर में, इस
ब्रह्मांड
में आप कैसे
राजी हो
पाएंगे। और फिर
जब तक आपका
ध्यान
इंद्रियों
से उलझा है तब
तक आपका ध्यान
उस विराट पर
जाएगा भी कैसे, यहीं
क्षुद्र में
ही अटका रह
जाता है। कभी
पैर में कांटा
गड़ जाता है, कभी सिर में
दर्द हो जाता
है; कभी यह
पसली दुखती है,
कभी वह
इंद्रिय मांग
करती है।
इन्हीं के
पीछे दा ड़ते-दौड़ते
सब समय जाया हो
जाता है।
तो
महावीर कहते
हैं—पहले इन
इंद्रियों को
अपने से राजी
करो। अनशन का
वही अर्थ है, पेट को अपने
से राजी करो, तुम पेट से
राजी मत हो
जाओ। जानो
भलीभांति कि पेट
तुम्हारे लिए
है, तुम
पेट के लिए
नहीं हो।
लेकिन बहुत कम
लोग हैं जो
हिम्मत से यह
कह सकें कि हम
पेट के लिए
नहीं हैं।
भलीभांति वह
जानते हैं कि
हम पेट के लिए
हैं, पेट
हमारे लिए
नहीं है। हम
साधन हैं और
पेट साध्य हो
गया है। पेट
का अर्थ, सभी
इंद्रियां
साध्य हो गयी
हैं। खींचती
रहती हैं, बुलाती
रहती हैं, हम
दौड़ते रहते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन अपने
मकान पर बैठकर
खप्पर ठीक कर
रहा है। वर्षा
आने के करीब
है, वह अपने खपड़े ठीक
कर रहा है। एक
भिखारी ने
नीचे से आवाज
दी कि नसरुद्दीन
नीचे आओ। नसरुद्दीन
ने कहा कि
तुझे क्या
कहना है, वहीं
से कह दे।
उसने कहा—माफ
करो, नीचे
आओ। नसरुद्दीन
बेचारा
सीढ़ियों से
नीचे उतरा, भिखारी के
पास गया।
भिखारी ने कहा
कि कुछ खाने को
मिल जाए। नसरुद्दीन
ने कहा—नासमझ!
यह तो तू नीचे
से ही कह सकता
था। इसके लिए
मुझे नीचे
बुलाने की
जरूरत? उसने
कहा—बड़ा संकोच
लगता था, जोर
से बोलूंगा, कोई सुन
लेगा। नसरुद्दीन
ने कहा—बिलकुल
ठीक। चल, ऊपर
चल। भिखारी
बड़ा मोटा तगड़ा
था।
बामुश्किल चढ़
पाया। जाकर नसरुद्दीन
ऊपर अपने खपड़े
जमाने में लग
गया। थोड़ी देर
भिखारी खड़ा
रहा। उसने कहा
कि भूल गए
क्या? नसरुद्दीन ने कहा—भीख
नहीं देनी है,
यही कहने के
लिए ऊपर लाया
हूं। उसने कहा—तू
आदमी कैसा है,
नीचे ही
क्यों न कह
दिया? नसरुद्दीन ने कहा—बड़ा
संकोच लगा।
कोई सुन लेगा।
जब तू भिखारी
होकर मुझे
नीचे बुला
सकता है तो
मैं मालिक
होकर तुझे ऊपर
नहीं बुला
सकता?
पर सब
इंद्रियां
हमें नीचे
बुलाए चली
जाती हैं, हम
इंद्रियों को
ऊपर नहीं बुला
पाते। अनशन का
अर्थ है—इंद्रियों
को हम ऊपर बुलाएंगे,
हम
इंद्रियों के
साथ नीचे नहीं
जाएंगे।
आज
इतना ही।
कल
हम दूसरे तथ्य
पर विचार
करेंगे।
लेकिन पांच
मिनट जाएंगे
नहीं, बैठे
रहेंगे।
thank you guruji
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