दिनांक:
11 नवंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
कथनी
कथै सो सिष
बोलिये, वेद
पढै सो नाती।
रहणी
रहै सो गुरु
हमारा, हम
रहता का
साथी।।
रहता
हमारे गुरु
बोलिये, हम
रहता का चेला।
मन
मानै तो संगि
फिरै, निहतर
फिरै अकेला।।
अवधू
ऐसा ग्यान
बिचारी, तामै
झिलमिल जोति
उजाली।
जहां
जोग तहां रोग
न व्यापै, ऐसा
परषि गुरु
करना।
तन
मन सूं जे
परचा नाही, तौ
काहे कौ पचि
मरनी।।
काल
न मिट्या
जंजाल न
छूट्या, तप
करि द्या न
सूरा।
कुल
का नास करै
मति कोई, जै
गुरु मिला न
पूरा।।
सप्त
धात का काया
पींजरा, ता
महि जुगति बिन
द्या।
सतगुरु
मिलै तो ऊबरै
बाबू नहीं तो
परलै द्या।।
कंद्रप
रूप काया का
मंडण, अबिरथा
काइ उलींचौ।
गोरष
कहै सुणौ रे
भौंदू अरंड
अमी कत
सींचौ।।
चकमक
ठरकै मानि झरै
ल्युं दधि मथि
घृत कर लीया।
आपा
माही आपा
प्रगट्या, तब
गुरु संदेसा
दीया।।
दरपन
माही दरसन
देष्या, नीर
निरतरि झांइ।
आपा
माही आपा
प्रगट्या, लखै
तो दूर न
जाइ।।
गोरष
बोलै सुणि रे
अवधू पंचौ पसर
निवारी।
अपणी
आत्मा आप
बिचारी, तब
सोवौ पान
पसारी।।
हाथ
पकड़े आस्था का
चल रहा हूं!
कौन
जाने,
पहुंच
पाऊंगा
सरे
मंजिल,
कि
भटका ही
करूंगा!
आज
क्या है?
दुख—
भरी लंबी
कहानी
कल
न जाने
क्या
लिये
बैठा
हुआ हो— दर्द
ही
या
चैन भी कुछ,
शांति
भी कुछ,
अनवरत
अनुराग का
प्रतिदान
भी कुछ!
श्रमित
तन कहता,
कि
रुक जाओ,
तनिक
विश्राम कर लो,
हरे
हो लो!
किंतु—
ढलता
जा रहा है दिन
उतरती
आ रही है रात
मंजिल
का पता
अब
भी नहीं है!
चलो
पग चलते चलो
पग!
यात्रा
लंबी है, यात्रा
कठिन भी।
अनंत—अनंत
जन्मों के बाद
भी पहुंचना
हुआ नहीं है।
निश्चित ही
उलझाव है। और उलझाव
कुछ ऐसा है कि
बाहर होता तो
शायद सुलझ भी
जाता। उलझाव
यात्री के
भीतर है।
रास्ता कितना
ही लंबा होता,
पार कर लिया
जाता। लेकिन
पैरों में ही
कुछ भूल है।
चलने में ही
कुछ भूल है।
पहले कदम से
ही भ्रांति
शुरू हो जाती
है, तो फिर
मंजिल कैसे
मिले!
इस
सत्य को खूब
विचारना।
यहां तुम नये
नहीं हो, कोई
भी नया नहीं।
अनंत— अनंत
जन्मों की
यात्रा पीछे
पड़ी है। पर अब
तक पहुंचना
नहीं हुआ है, अब तक भटकना
ही हुआ है। और
बात और भी
उलझन की हो जाती
है, क्योंकि
जो जानते हैं
वे कहते हैं
कि चाहो तो अभी
मिलन हो जाये,
चाहो तो अभी
मंजिल मिल
जाये।
जिन्होंने
जाना उन्होंने
कहा : जिसे तुम
खोजते हो, तुम्हारे
भीतर मौजूद है;
जरा आंख
फेरने की बात
है। मगर आंख
फिरती नहीं। भीतर
कुछ सूझता
नहीं। जो भी
दिखाई पड़ता है,
बाहर; और
बाहर मिलन
होता नहीं।
आदमी
बाहर है और
परमात्मा
भीतर; इससे
वियोग है। योग
का एक ही अर्थ
होता है. जहां
परमात्मा है
वहीं हम भी हो
जायें। अपने
घर लौट आओ तो
योग हो जाये।
यात्रा
कठिन और लंबी
हो गयी है, क्योंकि
तुम बाहर खोज
रहे हो। और
बाहर उसे खोया
नहीं है। वह
खोजनेवाले
में बैठा है।
तुम कहां जा
रहे हो? तुम्हारा
सब जाना
व्यर्थ है। आओ,
घर आओ; अपने
पर लौट आओ। यह
दौड़ की बात
नहीं; रुक
जाने की बात
है; ठहर
जाने की बात
है; शांत, निश्चल हो
जाने की बात
है। और यह बात
हो सकती है।
हुई है, तो
हो सकती है।
एक मनुष्य को
हुई है, तो
सभी मनुष्यों
को हो सकती
है। बुद्ध को
हुई, कृष्ण
को हुई, कबीर
को, गोरख
को, तो तुम
अपवाद नहीं
हो।
हड्डी—मांस—मज्जा
से जैसे गोरख
बने, कबीर
बने, नानक
बने, वैसे
ही तुम भी बने
हो। और जैसे
तुम भटक रहे
हो, वैसे
ही कबीर भी
भटके और गोरख
भी भटके। जरा
भी भेद नहीं
है; भेद है
तो अंतिम घड़ी
में कि गोरख
पहुंच गये, तुम अभी
नहीं पहुंचे।
कहावत
है कि हर संत
का अतीत है और
हर पापी का भविष्य।
गोरख का अतीत
और तुम्हारा
अतीत तो एक जैसा
है। जरा—सा
भेद है, कि
गोरख का पैर
ठीक मंजिल पर
पड़ गया है।
तुम्हारा भी
पड़ सकता है।
तुम भी उतने
ही समर्थ हो।
आदमी
हो?
तो
उठो,
कुछ कर
दिखाओ!
क्यों
विवशता?
बेबसी
क्या चीज
श्रम
के सामने?
जो
श्रमिक है, वीर
है,
वीरत्व
का वरदान उसको,
जय—तिलक
उसके लिए!
दुनिया
उसी की,
बाहु—बल
हो जिस किसी
में,
शक्ति
हो शृंगार
जिसका,
हांसला
हो साथ चलता,
पथ
दिखाता,
श्रम
मिटाता,
पथ
उसी का,
चल
रहा जो
धीर
गति से,
शांत
मन से,
लक्ष्य
पर आंखें
जमाये!
आदमी
हो?
तो
उठो,
कुछ काम आओ!
सामने
लंबी डगर है,
पास
में संबल नहीं
है,
साथ
में साथी नहीं
है क्या हुआ,
तो
क्या हुआ?
श्रम
तुम्हारा
आप
ही संबल बनेगा,
शक्ति
अंतर की
तुम्हारा
साथ देगी,
लक्ष्य
की महिमा
तुम्हारा
श्रम हरेगी,
वृक्ष
पथ के झूमकर
पंखा झलेंगे,
वन—पखेरू
विहसकर
बातें करेंगे!
पथ
तुम्हारा साथ
देगा,
वन
तुम्हारा साथ
देगा,
साथ
अपना दे सको,
तो
सब तुम्हारा
साथ देंगे!
आदमी
हो?
तो
उठो,
कुछ कर
दिखाओ!
सोये
हो,
इसलिए
मंजिल नहीं
मिलती; जागो
तो मिल जाये; आंख खोलो तो
मिल जाये। तुम
जिसे आंख का
खोलना कहते हो,
वह आंख का
खोलना नहीं
है। बाहर आंख
खुलती है तो
भीतर आंख बंद
हो जाती है।
आंख एक तरफ ही खुल
सकती है। तुम
दो दिशाओं में
एक साथ थोड़े ही
चल सकोगे!
दृष्टि की
ऊर्जा भी दो
दिशाओं में एक
साथ नहीं बह
सकती। बाहर से
आंख बंद हो
जाती है तो
भीतर खुल जाती
है। जिसे
तुमने आंख का
खुला हुआ होना
समझा है, वही
तुम्हारी आंख
का बंद होना
है। बाहर चलते
हो तो भीतर
नहीं चल पाते।
बाहर की चाल
ठहरे तो भीतर
गति अपने से
हो जाती है।
गोरख
के जिन
सूत्रों में
हम आज प्रवेश
करते हैं, वे
सभी
अंतर्यात्रा
के सूत्र हैं।
मरौ
हे जोगी मरौ
मरौ मरण है
मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी गोरष मरि
दीठा।।
गोरख
कहते है: मर
जाओ,
बिलकुल मर
जाओ। बाहर के प्रति
बिलकुल मर
जाओ। अन्य के
प्रति बिलकुल
मर जाओ। संसार
के प्रति
बिलकुल मर
जाओ।
मरौ
हे जोगी मरौ
मरौ मरण है
मीठा।
कैसी
अदभुत बात
कहते हैं, कि
मरो, मृत्यु
बड़ी मीठी है!
क्योंकि बाहर
तुम मरे, कि
भीतर का जीवन
मिला!
तिस
मरणी मरौ..
एक
खास मरण की
बात कर रहे
हैं। एक खास
मरने की कला
की बात कर रहे
हैं।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी गोरष मरि
दीठा
गोरख
कहते हैं : मैं
भी मरा, बाहर
के प्रति मरा।
और फिर बड़ी
मिठास उपलब्ध
हुई, बड़ी
मधुरिमा उतरी,
बड़ा प्रसाद
बरसा। मैं
बाहर के प्रति
मरा, तो
भीतर के प्रति
जागा और जीया।
और वहां मैंने
देखा, वहां
दर्शन हुआ। जब
तक वह दर्शन
नहीं हुआ तब तक
अंधा था।
हम
आंख के अंधे
हैं अगर स्वयं
को न जान लें!
और फिर आंखें
न भी हों तो
कोई फिक्र
नहीं; जिसने
स्वयं को जाना
उसकी आंख खुल
गयी, उसके
अंतस—चक्षु
खुल गये। और
वही असली
चक्षु हैं। जो
स्वयं से ही
परिचित नहीं
है, उससे
ज्यादा दयनीय,
दीन और
दरिद्र और कौन
होगा? कैसे
हो यात्रा
शुरू, कहां
से हो यह
यात्रा शुरू?
कथनी
कथै सो सिष
बोलिये वेद
पखैर सो नाती।
रहणी
रहै सो गुरु
हमारा हम रहता
का साथी।।
यह
यात्रा गुरु
के मिलन से
शुरू होगी।
गुरु शब्द बड़ा
प्यारा है। दो
प्रतीक—शब्दों
से बना है। 'गु'
का अर्थ
होता है.
अंधकार। 'रु'
का अर्थ
होता है.
प्रकाश। जो
अंधकार से
प्रकाश की तरफ
ले चले—वह
गुरु। 'तमसो
मा
ज्योतिर्गमय!
अंधकार से
प्रकाश की ओर ले
चलो!' जब
तुम्हें कोई
व्यक्ति मिल
जाये जिसने
प्रकाश चखा हो;
तुम्हें तो
प्रकाश का कुछ
पता नहीं, जिसने
प्रकाश देखा
हो—तो उसकी
आंखों में तुम
थोड़ी झलक उस
प्रकाश की
पाओगे जो उसने
देखी है। जो
हिमालय होकर
लौटा हो, उसकी
तरंग में
तुम्हें
हिमालय की
थोड़ी—सी शांति
का अनुभव
होगा। जो अभी—
अभी बगिया से
भ्रमण करके
आया हो,
उसके
वस्त्रों में
भी फूलों की
गंध थोड़ी अटकी—अटकी
रह गयी होगी।
जो अभी— अभी
स्नान करके आया
है, तुम
उसके पास एक
ताजगी अनुभव
करोगे।
ठीक
ऐसा ही, जिसने
भीतर को देखा
है, जागा
है, जीया
है, उसकी
आंखों की झलक,
उसके
व्यक्तित्व
का भाव, उसके
चेहरे की
महिमा, उसकी
मौजूदगी की
तरंग बदल जाती
है। तुम उसके
पास बैठोगे तो
प्रकाश की
यात्रा शुरू
हो जायेगी।
कथनी
कथै सो सिष
बोलिए!
लेकिन
कैसे
पहचानोगे? यहां
बड़े पंडित हैं
संसार में, उन्हें वेद
कंठस्थ हैं।
वे उपनिषदों
पर टीकाएं
करते हैं।
उन्होंने
गीता की
मात्रा—मात्रा,
शब्द—शब्द
का विश्लेषण
किया है।
कुरान उनकी जबान
पर है, कि बाइबिल
पढ्ने की
उन्हें जरूरत
नहीं है, कंठस्थ
है। बहुत
पंडित हैं।
पंडित की वाणी
में जीवन नहीं
होता। 'पंडित से
गुरु का धोखा
मत खा जाना।
जो पंडित के
चक्कर में पड़
गया, वह तो
बुरी तरह
भटकेगा। अंधा
अँधा ठेलिया,
दोनों कूप
पड़त। वह तो
ऐसा ही है
जैसा कि अंधे
आदमी ने किसी
दूसरे अंधे
आदमी को
—राह दिखायी,
हाथ पकडा, मार्ग
सुझाया।
दोनों कुएं
में गिरेंगे।
इससे तो अंधा
अकेला ही चलता
तो शायद
टटोल—टटोल कर चलता,
सम्हल कर
चलता, कुएं
में गिरने से
बच जाता।
लेकिन अब तो
अकड़ कर चलेगा,
सोचेगा कि
कोई तो मेरा
हाथ पकड़े है; किसी आंख
वाले का साथ
है।
इस
दुनिया में
अगर पंडित
विदा हो जायें
तो इतना अधर्म
न रहे जितना
है,
क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति खुद
ही सोच—समझ कर चलने
लगे। अब कोई
सहारा नहीं
है। अब किसी
आँख वाले का
हाथ में हाथ
नहीं है। तो
अपनी ही लाठी टेको,
टटोलो।
इतनी भूल—चूकें
न हों दुनिया
में, इतना
अधर्म न हो।
लेकिन जब यह
भरोसा होता है
अंधे को कि
कोई तो हाथ
पकड़े है, फेंक
देता है अपनी
लकड़ी। वही
उसकी आंख थी, वह भी फेंक
बैठा! अब तो चल
पड़ता है इस
अंधे का हाथ
पकड़ कर। और यह
जो उसे ले चला
है, नेतृत्व
दे रहा है, अगर
खुद भी अंधा
है तो बड़े
खतरे में है।
और खतरा ऐसा
है कि जो पीछे
चल रहा है वह
सोचता है. कि
मैंने आंख
वाले का हाथ
पकड़ा है। और
जिसका हाथ
पकड़ा है वह
सोचता है जब
इतने लोग मेरे
पीछे चल रहे
हैं, तो
जरूर ही मैं
आंख वाला
होऊंगा; अन्यथा
इतने लोग धोखा
खा सकते थे रू
जब
तुम पर कोई
भरोसा कर लेता
है तो तुम्हें
अपने पर भरोसा
आ जाता है।
तुम्हारा
भरोसा, अपने
पर भरोसा भी
उधार होता है।
चार लोग तुम्हें
मानने लगते
हैं कि तुम
ज्ञानी हो तो
तुम भी अपने
को ज्ञानी
मानने लगते
हो। इतने लोग
गलत थोड़े ही
मानते होंगे,
इतने अंधे
थोड़े ही होंगे
दुनिया में? तो मेरी
भ्रांति ही थी
कि मैं सोचता
था कि मुझे
पता नहीं है; मुझे पता है,
दूसरे लोग
तक मानने लगे
हैं। इस तरह
बड़ी उपद्रव की
बात हो गयी
है। पीछे
चलनेवाला
सोचता है तुम्हारे
शब्दों की बात,
जिनमें कि
वेदों का
उच्चार है, तो सोचता है
जानते होओगे।
तुम सोचते हो
कि पीछे वाला
जब मेरा हाथ
पकड़े है, तो
जरूर —मेरे
पास आंख होगी;
तुम भी लकड़ी
फेंक देते हो।
यह भयंकर
स्थिति मनुष्य
की है।
तो
कसौटी देते
हैं गोरख.
कथनी
कथै सो सिष
बोलिये।
जिसे
वेद कंठस्थ
हों,
जो सुंदर
वचन दोहरा रहा
हो, पुनरुक्त
कर रहा हो, उसे
शिष्य से
ज्यादा मत
समझना। अभी
गुरु होना तो बहुत
दूर है। अभी
तो वह शिष्य
स्वयं है।
जिसके पास
उधार ज्ञान हो
वह तो अभी
स्वयं ही
विद्यार्थी
है। अभी तो
उसके पास अपना
दीया नहीं
जला। अभी तो
उसने अपनी
ज्योति नहीं
पायी। अभी तो
जो भी बोल रहा
है, सब
उद्धरण है, सब उधार है, उच्छिष्ट
है।
कथनी
कथै सो सिष
बोलिए।
जैसे
विद्यार्थी
दोहरा देते
हैं,
जा कर
परीक्षा में
लिख आते हैं; कुछ भी
उन्हें पता
नहीं है कि
क्या लिरत रहे
हैं। जो उनके
शिक्षकों ने
कहा है, वही
लिख आते हैं।
जैसा कहा है, वैसा ही लिख
आते हैं। इसकी
चिंता भी नहीं
करते हैं कि
ठीक भी है या
गलत है।
मैं
विद्यार्थी था।
मेरे जो
शिक्षक थे, उनका
मुझसे अति
प्रेम था। एम.
ए. की अंतिम
परीक्षा, उन्होंने
मुझे कहा कि
खयाल रखना, जो किताबों
में लिखा है
वही लिखना; रत्ती— भर
इधर—उधर की
बात मत करना।
तुम्हें गलत
भी मालूम पड़े,
तो भी वही
लिखना जो
किताबों में
लिखा है।
मुझे
जानते थे कि मैं
वही लिखूंगा
जो मुझे ठीक
लगता है।
मैंने वही
लिखा भी जो
मुझे ठीक लगता
है। मगर
परीक्षा में
जो लिखा गया
था,
वह तो
उन्होंने
किसी तरह
सम्हाल लिया।
फिर एक मुखाग्र
परीक्षा भी थी
अंतिम। उसमें
तो उन्होंने
मुझे बहुत
समझाया, कि
अब तो दूसरे
विश्वविद्यालय
के शिक्षक आ
रहे हैं; अब
मेरे हाथ में
बात नहीं है।
अब तो तुम ठीक
वही कहना जो
किताब में
लिखा है, नहीं
तो मैं भी कुछ
सहायता नहीं
कर सकूंगा।
वे
शिक्षक आये; अलीगढ़
विश्वविद्यालय
के
दर्शनशास्त्र
के प्रधान थे,
बुजुर्ग
थे। उन्होंने
मुझसे पहला ही
प्रश्न पूछा
कि भारतीय
दर्शन की क्या
विशिष्टता है?
मैंने उनसे
कहा कि दर्शन
भी भारतीय और
अभारतीय हो
सकता है?
मेरे
प्रोफेसर
मेरे पास ही
बैठे थे, वे
मेरी टांग में
टांग मारने
लगे कि
तुम्हें जवाब
देना है, तुम्हें
सवाल नहीं
पूछना है। जब
मैंने उनकी टांग
की कोई फिक्र
न की तो वे
मेरा कुर्ता
खींचने लगे।
तो मैंने
अलीगढ़ से आये
हुए प्रोफेसर को
कहा कि मैं
बहुत अड़चन में
हूं मैं आपका
उत्तर दूं कि
मेरे
प्रोफेसर
टांग में टांग
मारते हैं, मेरा कुर्ता
खींचते हैं, मैं इनकी
फिक्र करूं? मेरे शिक्षक
तो बहुत घबडा
गये।
उन्होंने कहा.
यह भी कोई
कहने की बात
थी! मैंने कहा
कि भारतीय
दर्शन और गैर—
भारतीय दर्शन,
ऐसा भेद हो
नहीं सकता; दर्शन तो
दर्शन है।
दर्शन का अर्थ
है दृष्टि। तो
फिर जीसस की
हुई कि कृष्ण
की, भेद
क्या होगा?
सफेद
चमडीवाला
देखे कि काली
चमडी वाला
देखे, भेद
क्या होगा? चमड़ी से कुछ
आंखों के रंग
बदल जायेंगे,
देखने के
ढंग बदल
जायेंगे? जिन्होंने
पश्चिम में भी
देखा है
उन्होंने वही
देखा है जो
पूरब में देखा
है।
हेराक्लाइटस ने
वही देखा जो
बुद्ध ने
देखा।
पाइथागोरस ने
वही देखा जो
पार्श्वनाथ
ने देखा; जरा
भी भेद नहीं
है। और
जिन्होंने
भिन्न—भिन्न
देखा, वे
सब अंधे हैं।
आँख वालों ने
एक ही देखा।
तो मैंने उनसे
पूछा : अगर दर्शनशास्त्र
में आँख वालों
की ही गिनती
करो तो कभी भी,
कहीं भी, किसी ने
देखा हो तो एक
ही बात देखी
है। और अगर अंधों
की भी गिनती
करते हो, तब
तो फिर हिसाब
लगाना बहुत
मुश्किल हो
जायेगा। पर
अंधों की
गिनती
दर्शनशास्त्र
में होनी ही
नहीं चाहिए, दर्शनशास्त्र
में तो सिर्फ
द्रष्टाओं की
गिनती होनी
चाहिए।
मेरे
प्रोफेसर को
तो पक्का हो
गया कि यह
परीक्षा गयी!
मगर अलीगढ़ से
आये उन
बुजुर्ग को
बात बहुत जमी।
उन्होंने कहा
: मैंने कभी
सोचा ही नहीं
था इस तरह कि
यह भेद ठीक
नहीं है। हमने
तो मान ही
लिया है कि
भारतीय दर्शन, पाश्चात्य
दर्शन...।
तुम्हारा
उत्तर किताब
का तो नहीं है,
मगर उत्तर
सही है।
उन्होंने
मुझे
निन्यान्नबे
अंक दिये सौ
में से। मैंने
पूछा : एक आपने
कैसे काटा? कुछ गलती हो
तो मुझे आप
बता दें।
उन्होंने
कहा : नहीं, तुम्हारी
गलती के लिए
नहीं काटा है,
यह तो केवल
अपनी रक्षा के
लिए कि लोग
सोचेंगे कि
मैंने
पक्षपात किया
है, सौ के
सौ दे दिये! सौ
ही देने
चाहिए। मुझे
क्षमा करो, दिये नहीं
जाते। सौ ही
दिये जाने
चाहिए, मगर
दिये नहीं
जाते नियम से।
अगर मैं सौ के
सौ दे दूं तो
ऐसा लगेगा कि
कुछ पक्षपात
किया है, इसलिए
निन्यान्नबे
दे रहा हूं।
एक
पंडित है, लकीर
का फकीर है।
जैसा किताब
में लिखा है, तोते की तरह
दोहरा देता
है। न सोचता, न विचार
करता; न
मनन है, न
चिंतन है, न
ध्यान है। वह
विद्यार्थी
है।
विद्यार्थियों
से सावधान
रहना; उन्हें
तो अभी स्वयं
ही पता नहीं
है।
कथनी
कथै सो सिष
बोलिए वेद पडै
सो नाती।
और
जो अभी वेद पढ़
ही रहा है, वह
तो शिष्य से
भी गया—बीता
है। शिष्य को
तो कहते हैं
बेटा, गुरु
का बेटा, पुत्र।
और वेद पढै सो
नाती। वह तो
बेटे का बेटा
है। उसकी तो
गिनती ही मत
करना, अभी
पढ़ ही रहा है।
एक तो तोता बन गया
है, एक अभी
तोता बन ही
रहा है। उसकी
तो कोई गिनती
ही मत करना।
रहणी
रहै सो गुरु
हमारा।
फिर
कौन गुरु है? रहणी
रहै सो गुरु
हमारा। यह
प्रश्न
शास्त्रों का
नहीं है, जीवन
का है। जो
परमात्मा को
जी रहा हो, वही
हमारा गुरु
है। परमात्मा
को जी रहा हो!
फिर तो. वेद, कुरान और
बाइबिल से कोई
संबंध न रहा।
फिर तो फूलों
से, वृक्षों
से, चांद—तारों
से कहीं
ज्यादा संबंध
हो गया। परमात्मा
फैला है चारों
तरफ। यह
महोत्सव उसकी
ही आनंद—लीला
है। जो इस
उत्सव में
मग्न हो, जो
इस उत्सव में
लवलीन हो, जो
जी रहा हो इस
उत्सव को, जो
परमात्मा से
मिले जीवन को
प्रसाद की तरह
स्वीकार करके
नृत्यमग्न हो,
जो डूबा हो
इस अहर्निश
नाद में, यह
जो ओंकार
व्याप्त है, यह जो कण—कण
अस्तिंत्व का
नृत्यमग्न है,
लीन है—ऐसा
जो लीन हो, इसमें
जो लीन हो; ऐसे
जिसके जीवन के
पास उत्सव की
आभा हो; जिसके
पास पहुंचकर
नाचने का मन
होने लगे; जिसके
पास बैठकर
झर—झर आनंद के
आंसू बहे, हृदय
गदगद हो—बस
उसे ही!
रहणी
रहै सो गुरु
हमारा
जिसके
रहने में वेद
हो;
जिसके
उठने—बैठने
में गीता हो; जिसके
खाने—पीने में
पूजा हो, प्रार्थना
हो, आराधना
हो, अर्चना
हो; जिसकी
आंखों में, आंखों की
झलक में कुरान
हो—उसे गुरु
मानना। यह बात
शब्दों की
नहीं है, शब्दों
के दोहराने की
नहीं; अस्तित्वगत
हो।
जिनसे
वेद पैदा हुआ
था,
उन्हें तो
कुछ वेद पता
नहीं था। उसके
पहले तो वेद
था ही नहीं।
जिनसे वेद बहा,
उन्हें तो
वेद कंठस्थ
नहीं था।
कंठस्थ होता भी
कैसे? उसके
पहले तो वेद
था ही नहीं।
जिनसे वेद बहा,
बिना वेद को
जाने, वैसी
ही घटना फिर
क्यों नहीं हो
सकती? फिर
भी हो सकती है,
क्योंकि
परमात्मा
पक्षपाती
नहीं है। अगर
वेद के ऋषियों
से बह सका था
और वेद की
अपूर्व ऋचाओं
का जन्म हुआ
था, तुम से
भी
बहेगा—द्वार
दो, राह
दो। मार्ग के
पत्थर न बनो, अवरोध न
बनो। हट जाओ, रिक्त कर दो
स्थान।
सिंहासन खाली
करो, विराजेगा
वह। तुम से भी
ऋचा जन्मेगी।
तुमसे भी
ऋतंभरा
बहेगी। तुमसे
भी मंत्र पैदा
होंगे। वही
गाया था वेद
के ऋषियों से।
वही बोला
कृष्ण से। वही
गुनगुनाया
मुहम्मद से।
वही क्यों तुम्हारे
साथ अन्याय
करेगा? तुम्हारे
साथ वही
व्यवहार होगा
जो सबके साथ हुआ
है, सिर्फ
तुम तैयारी
दिखाओ।
रहणी
रहै सो गुरु
हमारा।
गोरख
कहते हैं :
हमने तो खोज
लिया ऐसा एक
आदमी, तुम भी
खोज लेना।
गोरख ने खोज
लिया था
मच्छिंद्रनाथ
को।
रहणी
रहै सो गुरु
हमारा हम रहता
का साथी ।
और
अगर साथ ही जोड़ना
हो तो बस उससे
जोड़ना, जिसके
अस्तित्व में,
जिसके होने
में प्रमाण हो
परमात्मा का।
जो स्वयं
प्रमाण हो
परमात्मा का।
जिसे देखकर
भरोसा आये कि
ईश्वर है, कि
ईश्वर होना ही
चाहिए। जिसकी
बांसुरी सुनो,
तो ओंकार का
नाद स्मरण
आये। जिसको
मौन सुनो, तो
सारे
अस्तित्व की
शांति तुम पर
बरस उठे।
जिसके पास
घड़ी— भर बैठ जाओ
तो स्नान हो
जाये। तुम
ताजे होकर
लौटो, नये
होकर लौटो, युवा होकर
लौटो।
तुम्हारी धूल
झq जाये।
तुम्हारा
दर्पण स्वच्छ
हो जाये।
हम
रहता का साथी!
जिसके
कहने में और
जिसके करने
में भेद न हो।
जिसके कथन में
और जिसके जीवन
में भेद न हो।
जिसका कथन और
जिसका जीवन एक
ही रस से
ओतप्रोत हो।
जहां पाखंड न
हो।
लेकिन
मनुष्य को
पाखंड की बहुत
शिक्षा दी गयी
है। तुम्हें
कहा ही नहीं
गया कि तुम
अपनी निजता को
स्वीकार करो।
तुमसे कहा 'गया
है कि तुम तो
गलत हो।
तुम्हें तो
आदर्श दिये
गये हैं, जिनके
अनुसार
तुम्हें चलना
है। और
स्वभावत: वे
सारे आदर्श
असंभव हैं। उन
असंभव
आदर्शों का एक
ही परिणाम
होता है कि
तुम पाखंडी हो
जाते हो।
तुमसे कहा गया
है : संसार छोड़
दो, त्यागी
हो जाओ। यह
आदर्श इतनी
बार दोहराया
गया है कि
इसका एक ही
परिणाम हुआ है
कि जब तक तुम संसार
में हो, तब
तक तुम
आत्मनिदा से
भरे रहोगे—कि
तुम कुछ गलत
कर रहे हो, तुम
पाप कर रहे हो,
तुम नरक
जाने का आयोजन
कर रहे हो!
और
संसार को
छोड़ोगे कैसे? संसार
को परमात्मा
ने भी छोड़ा
नहीं है, तुम
कैसे छोड़ोगे?
तुम असंभव
करना चाहते हो,
जो
परमात्मा ने
नहीं किया वह
करना चाहते हो?
छोड़कर
जाओगे कहां? जहां जाओगे
वहीं संसार
है। तुम सोचते
हो हिमालय पर
संसार नहीं, तो क्या है? यह सारा
विस्तार उसी
का है।
चांद—तारों पर
भी चले जाओगे
तो भी तुम उसी
के संसार में
हो। और हिमालय
पर भी भूख
लगेगी और
प्यास लगेगी।
और हिमालय पर
भी छाया की
जरूरत होगी।
जब धूप आयेगी
और वर्षा होगी
तो गुफा
खोदोगे। चलो,
थोड़ा आदिम
किस्म का मकान
होगा, मगर
होगा तो मकान
ही! खुद न
कमाओगे तो भीख
मांगोगे।
अर्थ हुआ कोई
और कमायेगा, तुम उसकी
कमाई खाओगे।
भेद क्या पड़ा,
अंतर कहां
है? तुम
कभी भी इस
त्याग के
आदर्श को पूरा
न कर पाओगे।
परमात्मा
ही त्यागी
नहीं है, परमात्मा
परम भोगी है; इस सारे
अस्तित्व के
भोग में लीन
है। परमात्मा
स्वयं त्यागी
नहीं है, लेकिन
तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं ने
तुम्हें
त्याग समझा
दिया है। इस
त्याग के कारण
या तो तुम दीन
हो जाते
हों—एक परिणाम,
कि तुम्हें लगता
है मैं गर्हित,
मैं निंदित,
मैं पापी, मैं नारकीय,
मुझसे
त्याग नहीं
होता! या, अगर
तुम चालबाज
हुए, चालाक
हुए.. यह तो
सीधे—सादे
आदमी की बात
है कि वह
समझेगा कि मैं
निंदित हो
गया। मैं अभी
इस योग्य नहीं,
मेरी आत्मा
अभी इतनी ऊंची
नहीं कि मैं
त्याग कर
सकूं। यह तो
सीधे—सादे
आदमी की बात
है।... जो
चालबाज है, चालाक है, होशियार है,
वह तरकीब
निकाल लेगा।
वह त्याग का
आवरण खड़ा कर
लेगा। घर छोड़
देगा, आश्रम
बना लेगा।
लेकिन आश्रम
घर का ही
दूसरा ढंग है।
बाल—बच्चे छोड़
देगा, शिष्य
बना लेगा।
लेकिन शिष्य
बाल—बच्चे ही
हैं। यह पाखंड
शुरू हुआ। अब
इसके कहने और
रहने में बड़ा
भेद हो
जायेगा। यह
कहेगा कुछ, रहेगा कुछ।
अगर
तुम सच में ही
वैसे रहना
चाहते हो जैसे
तुम जीते हो, तो
तुम्हें एक
बड़ी
महत्वपूर्ण
बात समझ लेनी
पड़ेगी—तुम्हें
आदर्शों से
मुक्त हो जाना
पड़ेगा। आदर्श
या तो दीन
बनाते हैं या
पाखंडी।
तुम्हें सरल
होना पड़ेगा, सहज होना
पड़ेगा।
तुम्हें जीवन
की प्राकृतिक गति
के साथ बहना
पड़ेगा।
परमात्मा ने
तुम्हें जन्म
दिया है, स्वीकार
करो। उसने
तुम्हें
संसार दिया है,
अंगीकार
करो। उसने जो
दिया है उसे
अस्वीकार करना,
'उसका अपमान
है। तुम जहां
हो, वहीं
जीयो।
छोड़ने—छाड़ने,
भागने—
भूगने की
बातें छोड़ो।
सरलता से, सहजता
से...।
और
खयाल रखो र
वही कहो जो
तुम जीते हो, उससे
अन्यथा मत
कहो। जो तुम
हो, उसे
वैसा ही प्रगट
कर दों—नग्न; उसे छिपाओ
मत। आदमियों
से तो छिपा
लोगे, परमात्मा
से तो नहीं
छिपेगा न। और
जो उससे न छिपा,
उसे छिपाने
का फायदा भी
क्या है? उसके
सामने सब
प्रगट है। तुम
जैसे हो अपनी
नग्नता में, अत्यंत
नग्नता में, वैसे प्रगट
होओ; वैसे
ही तुम अपने
को स्वीकार
करो, अंगीकार
करो। तत्क्षण
दीनता भी चली
जायेगी, और
तत्क्षण
पाखंड भी गिर
जायेगा।
रहणी
रहै सो गुरु
हमारा हम रहता
का साथी।
गोरख
कहते हैं कि
बस हमने तो
उसका साथ खोजा, जिसने
धर्म को रहना
जाना है।
रहता
हमारे गुरु
बोलिये हम
रहता का चेला।
चेला
शब्द बड़ा
प्यारा है। एक
तो होता है
विद्यार्थी, विद्यार्थी
का अर्थ होता
है : जो आया है
ज्ञान सीखने।
किसी भी तरह
का ज्ञान—गणित
हो, भूगोल
हो, इतिहास
हो, विज्ञान
हो। किसी भी
तरह का ज्ञान
सीखने जो आया
है, वह
विद्यार्थी।
सामान्य
सीखने की
जिसकी आकांक्षा
है, वह
विद्यार्थी।
शिष्य
कहते हैं उसे, जो
धर्म सीखने
आया है। उसके
सीखने की एक
विशेष
आकांक्षा है।
गणित नहीं, भूगोल नहीं,
रसायन नहीं,
भौतिकी
नहीं, धर्म
सीखने आया
है—वह शिष्य।
मगर आया है
सीखने ही।
उसका सीखना
—विशिष्ट है, लेकिन है तो
सीखना ही।
गणित—शास्त्र
नहीं सीखता, धर्मशास्त्र
सीखता है। फिर
चेला कौन है? चेला वह है
जो सीखने ही
नहीं आया, होने
आया है।
अगर
गुरु. वह है जो
हो गया है, तो
चेला वह है जो
होने आया है।
अगर गुरु वह
है जो
परमात्मा को
जी रहा है :
परमात्मा को
ही लेता है
श्वास में भीतर
और परमात्मा
को ही छोड़ता
है श्वास में
बाहर। जिसकी
हृदय की धड़कन—
धड़कन
परमात्मा से
ही परिपूर्ण
है। अगर गुरु
वह है, तो
चेला कौन? चेला
वह है, जो
ऐसा हो जाना
चाहता' है।
जो अपने सब
पाखंड को
छोड़ने को राजी
है—फिर चाहे
कुछ भी कीमत
हो; चाहे
जीवन ही क्यों
न खोना पड़े।
सब दाव पर लगाने
को तैयार है।
आकांक्षा
सिर्फ ज्ञान
की नहीं है, जीवंत अनुभव
की है। उसे
कहते हैं
चेला।
रहता
हमारे गुरु
बोलिये हम
रहता का चेला
ज्योति
तमहर फूट निकले
दीप
बालो, दीप
बालों!
आस्था, आराधना
के,
प्रेरणा
के दीप बालो!
अल्पना
रच दो, सजनि
प्रांगण
सुचित्रित
मुस्कराए,
अल्पना
के मध्य मंगल
घट
सुशोभित हो
सुहाए!
दीप
घट पर बाल दो
चिर—ज्योति
का आह्वान कर
लो,
व्याप्त, आगत
तम—निवारण
का, सुमुखि,
सामान कर
लो!
ज्योति
आकुल फूटने को
दीप
बालो, दीप
बालो!
चेला
वह है जो दीया
जलाने आया है।
विद्यार्थी वह
है जो ज्योति
के संबंध में
समझने आया है।
चेला वह है जो
ज्योति बनने
आया है।
ज्योति
तमहर फूट
निकले
दीप
बालो, दीप
बालो
आस्था, आराधना
के
प्रेरणा
के दीप बालो!
विद्यार्थी
का काम परीक्षा
पर पूरा हो
जाता है। चेले
का काम जीवन की
अग्नि—परीक्षा
है,
जीवन से
गुजर कर पूरा
हो जाता है; तभी पूरा
होता है।
विद्यार्थी
सूचनाएं इकट्ठी
कर लेता है; स्मृति थोड़ी
समृद्ध हो
जाती है। चेला
स्मृति के लिए
चिंतित नहीं
है, अनुभव
के लिए आतुर
है।
रहता
हमारे गुरु
बोलिये हम
रहता का चेला।
मन
मानै तो सगि
फिरै निहतर
फिरै अकेला।
गोरख
सहजता के
पक्षपाती
हैं। सहज—योग
उनका योग है।
वे कहते हैं.
मन
मानै तो सगि
फिरै।
जब
तक सहजता से
अच्छा लगता है, तो
गुरु के
साथ—साथ घूमते
हैं, उसका
रसपान करते
हैं, उसका
जीवन पीते
हैं।
मन
मानै तो सगि
फिरै निहतर
फिरै अकेला।
और
फिर कभी—कभी
मन नहीं मानता
तो फिर अकेले
हो जाते हैं।
फिर अकेले ही
घूमने लगते
हैं। इस बात
को समझना।
गुरु के पास
होना सामान्य
घटना नहीं है।
गुरु के पास
होने का अर्थ
है,
उसे निरंतर
पचाना भी
होगा। फिर
कभी—कभी ऐसा
भी हो जायेगा
कि सीमा के
बाहर होने
लगेगी वर्षा...
और शिष्य को अकेले
में चला जाना
होगा। थोड़े
दिन गुरु से
अलग रहना होगा,
ताकि जितना
दिया है वह पच
जाये, रक्त—मांस—मज्जा
बन जाये। फिर
जब लगेगी भूख,
तो फिर लौट
आयेगा शिष्य।
ऐसा बहुत बार
होगा। गुरु के
पास तो निरंतर
रहना तभी संभव
हो पायेगा, जब पाचन की
क्षमता बड़ी
प्रगाढ़ हो
जायेगी। वह भी
हो जाता है
धीरे— धीरे।
लेकिन
गोरख यह कह
रहे हैं :
ध्यान रखना, जबर्दस्ती
मत करना।
क्योंकि सत्य
भी दुष्पाच्य
हो सकता है।
लोभ मत करना, सुनना अपनी
प्रकृति की।
जब तक गुरु के
साथ सहजता से,
सरलता से, निबोंझ हुए
रहने का रस
आता रहे, रहना;
अन्यथा
स्वात में चले
जाना। फिर भूख
जगेगी। जैसे
कभी—कभी बहुत
दिन भोजन के
बाद कुछ दिन
का उपवास
सुंदर होता है,
फिर से
पाचन—शक्ति
लौट आती है, फिर भूख
जगती है, फिर
भोजन में रस
आता है। ऐसे
ही कभी—कभी
गुरु से दूर
चले जाने में
कुछ हर्ज नहीं
है।
मन
मानै तो सगि
फिरै निहतर
फिरै अकेला।
अवधू
ऐसा ग्याने
बिचारी तामै
झिलमिल जोति
उजाली।
कहते
हैं कि जब से
यह बात समझ
में आ गयी...।
......तामै
झिलमिल जोति
उजाली..
तब
से एक ज्योति
झिलमिल होने
लगी है भीतर।
उतना ही ले
लेते हैं
जितनी अपनी आवश्यकता
है,
लोभ नहीं
करते।
खयाल
करना, बुरी ही
चीजों का लोभ
नहीं होता, व्यर्थ की
चीजों का ही
लोभ नहीं होता,
सार्थक
चीजों का भी
लोभ हो जाता
है।
मेरे
पास आकर
संन्यासी
कहते हैं कि
आप सुबह तो
बोलते ही हैं, सांझ
भी बोलें तो
अच्छा हो।
बोलता था सांझ
भी कभी; सुबह,
सांझ, दोपहर
तीन बार बोलता
था कभी। मगर
वह उन दिनों की
बात है जब
मेरे पास
विद्यार्थी
थे। फिर जैसे—जैसे
शिष्य आने लगे,
तीन बार
बोलने की जगह
दो बार बोलना
शुरू कर दिया।
अब चेले
इकट्ठे हो गये
हैं, अब एक
ही बार बोलना
काफी है।
तुम्हें समय
भी तो मिलना
चाहिए कि तुम
उसे पचा लो, तुम उसे
आत्मसात कर
लो। फिर
कभी—कभी देखता
हूं किसी
संन्यासी को
ज्यादा बोझ
हुआ जा रहा है,
तो उसे दूर
भेज देता हूं
कोई भी बहाना
लेकर दूर भेज
देता हूं। उसे
ऐसा ही लगता
है कि किसी काम
से भेज रहा
हूं लेकिन
वास्तविक
जरूरत यह होती
है कि वह दूर
थोड़े दिन रह
आये तो हलका
हो जाये। फिर
योग्य हो
जाये। फिर नया
दान उसे दिया
जा सके।
हे
देवि, तुम्हारा
दिव्य राग!
मूर्च्छना
बिंदु से नाद
सिंधु
रसगर्भ
लहर के रूप
ढले।
आकाश
वायु परिरंभन
में
मधुगंध
स्पर्श बन अंध
मिले।
झरता
निरवधि
प्रीणन पराग!
हे
देवि, तुम्हारा
दिव्य राग!
रच
लिये कलेवर
सीमित कर
इच्छा
प्रतीक
परमाणु बने।
बांधे
सीमायें दिशा
काल
ससृतियों
के नीहार घने।
सोये
स्पंदन सब उठे
जाग!
हे
देवि, तुम्हारा
दिव्य राग!
रहोगे
गुरु के साथ, तो
दिव्य राग
जगेगा। प्राण
झंकृत होंगे।
जीवन नयी
तरंगें लेगा,
नयी करवटें
लेगा। नये आयाम
खुलेंगे। नयी
ऊंचाइयां
छुओगे। नयी
गहराइयों में
डुबकिया
मारोगे। यह
अति जल्दी म्।
नहीं होना
चाहिए।
धीरे—धीरे, ताकि
साथ—साथ पकते
भी चलो।
अवधू
ऐसा ग्यान
बिचारी तामै
झिलमिल जोति
उजाली।
जहां
जोग तहां रोग
न व्यापै ऐसा
परषि गुरु करनां।
रोग
का अर्थ एक ही
होता है :
तृष्णा, वासना।
रोग का अर्थ
होता है : जो
तुम्हें दौड़ाये
रखे, भटकाये
रखे, भरमाये
रखे। रोग का
अर्थ होता है :
जो तुम्हें निश्चित
न होने दे, शांत
न होने दे।
स्वस्थ
शब्द का अर्थ
समझ लो तो रोग
का अर्थ समझ
में आ जायेगा।
स्वस्थ का
अर्थ होता है
स्वयं में
स्थित हो
जाना। यह शब्द
बड़ा प्यारा
है। स्वस्थ का
अर्थ होता है
स्वयं में ठहर
जाना। जो चीज
भी तुम्हें
स्वयं से दूर
ले जाये, वही
रोग। जो
तुम्हें
स्वयं से
भटकाये, अलग
करे, तोड़े,
अस्वस्थ
करे—वही रोग।
कौन करता है
तुम्हें अपने
से दूर? तुम्हारी
वासना, तुम्हारी
तृष्णा तुम्हें
भविष्य में
भटकाती है।
तुम्हारी
तृष्णा कहती
है. कल, कल
होगा धन, कल
बनेगा भवन, कल मिलेगी
सुंदर स्त्री
कि सुंदर
पुरुष, कि
कल होगा एक
बेटे का जन्म।
कल सब ठीक हो
जायेगा, आज
थोड़ी ही देर
की बात है, गुजार
दो। आता है कल,
लायेगा
स्वर्ग। आता
है कल, सब
ठीक हो जायेगा।
जरा—सी देर और
कर लो
प्रतीक्षा।
थोड़ी और आशा
को सम्हालों।
—का मत जाने दो
आशा का दीया—जलाये
रखो, उकसाये
रखो बाती को।
डालते रहो
थोड़ा तेल और।
बस थोड़ी ही
देर और, कल
आता ही होगा।
और
कल कभी आता
नहीं, कल कभी
आया नहीं। कल
का कोई
अस्तित्व ही
नहीं है। फिर
आयेगा आज और
तब भी तुम यही
करोगे कि कल
बनेगा भवन, कल होगा
उत्सव। ऐसे
टालते रहोगे,
टालते
रहोगे और एक
दिन आयेगी
मौत...। कल कभी न
आयेगा, एक
दिन आयेगी
मौत! कल तो न
आयेगा, एक
दिन आयेगा काल
और उस काल के
आते ही सब कल
समाप्त हो
जायेंगे। और
आज तो तुम
बरबाद ही करते
रहे। यह है
रोग की दशा।
रोग
का अर्थ है :
तना हुआ चित्त, खिंचा
हुआ चित्त।
नीरोग का अर्थ
है. शांत, स्वस्थ,
अभी, यहां।
न कोई कल है
बीता, न
कोई कल है
आनेवाला; आज
सब कुछ है।
जीसस
ने कहा अपने
शिष्यों से.
देखते हो खेत
में खिले लिली
के सफेद फूल, कितने
गरीब और कितने
धनी! गरीब
लिली के फूल
कहीं भी उग
आते हैं। कोई
बड़ी हिफाजत भी
नहीं करनी
पड़र्ता। और
कितने समृद्ध
कि सम्राट
सोलोमन भी
अपने स्वर्ण—
आभूषणों से लदे
हुए, हीरे—जवाहरातों
से टंके हुए
आभूषणों और
वस्त्रों में
भी इतना सुंदर
नहीं था, इतना
महिमावत नहीं
था, जितना
ये लिली के सफेद
फूल! देखते हो
लिली के सफेद
फूल! इनका रहस्य
क्या है, जीसस
ने पूछा
शिष्यों से।
शिष्य तो
चौंके खड़े रह
गये, क्या
रहस्य बतायें,
उनकी कुछ
समझ में न
आया। और जीसस
ने कहा : इनका रहस्य
बड़ा छोटा है।
ये कल की
चिंता नहीं
करते, ये
बस अभी हैं, आज हैं। ये
वर्तमान में
जीते हैं। जो
वर्तमान मैं
जीता है, वह
स्वस्थ। जो
भविष्य में
जीता है, वह
अस्वस्थ।
जहां
जोग तहां रोग
न व्यापै।
और
योग का अर्थ
होता है
परमात्मा से
मिलन। योग का
अर्थ नहीं
होता कि खड़े
हैं सिर के
बल। ये सब कवायदें
हैं। योग का
अर्थ नहीं
होता कि बैठे
हैं सांस रोक कर।
योग का अर्थ
नहीं होता कि
बैठे हैं सांस
रोक कर। योग
का अर्थ नहीं
होता कि
उलटे—सीधे, शरीर
को इरछा—तिरछा
किये सता रहे
हैं। योग का सीधा—सीधा
अर्थ है—मिलन।
योग यानी
जुड़ना। परमात्मा
से जो जुड़ गया
वही योगी है।
ये जिनको तुम
योगी समझते हो,
ये सब
सरकसों में
भर्ती करने
योग्य हैं।
इनका कोई भी
मूल्य नहीं।
अच्छा है, शरीर
के स्वास्थ्य
के लिए ठीक है,
पर इससे कुछ
परमात्मा के
मिलने का
लेना—देना नहीं
है। परमात्मा
से कौन मिलता
है? जो
स्वस्थ है। जो
स्वयं में
स्थित है। जौ
वर्तमान में
आरूढ़ है।
क्योंकि
परमात्मा का
द्वार वर्तमान
है।
अतीत
है नहीं अब, न
हो चुका; भविष्य
अभी आया नहीं,
वह भी नहीं
है। है क्या? यह क्षण! इस
क्षण से ही
तुम प्रवेश
करो तो परमात्मा
में पहुंच
सकते हो।
क्योंकि यही
क्षण वास्तविक
है, अस्तित्ववान
है। और
परमात्मा है
महा अस्तित्व।
इसी क्षण के
द्वार से सरको
और परमात्मा
में पहुंच
जाओगे।
ध्यान
की सारी
प्रक्रियाएं
इसी क्षण में
उतर जाने की
प्रक्रियाएं
हैं। जब चित्त
में कोई विचार
नहीं होता, तो
स्वभावत: समय
मिट जाता है।
क्योंकि
विचार या तो
अतीत के होते
हैं या भविष्य
के होते हैं। वर्तमान
का तो विचार
कभी होता ही
नहीं। तुम करना
भी चाहो तो न
कर सकोगे; बैठ
कर कोशिश
करना।
वर्तमान का
कोई विचार संभव
नहीं है; वह
असंभावना है।
तुम जब भी
विचार करोगे
तो अतीत का
होगा। यह भी
हो सकता है कि
सामने गुलाब
का फूल खिला
है और जैसे ही
तुमने कहा, ' अहा, कितना
सुंदर फूल!' यह अतीत हो
गया। यह
तुम्हारी जो
प्रतीति हुई
थी सौंदर्य की,
उसकी
स्मृति है अब।
यह अतीत हो
गया, यह अब
वर्तमान न
रहा। तुम बोले
कि अतीत में
गये, या
भविष्य में
गये। विचार
उठा, कि
अतीत या
भविष्य। तुम
डोल गये दायें
या बायें, मध्य
खो गया। मध्य
तो निर्विचार
में होता है।
ध्यान
का अर्थ होता
है : चुप, मौन, कोई विचार
नहीं उठता, कोई विचार
की तरंग नहीं
उठती, झील
शांत है..। यह
शांत झील
वर्तमान से
जोड़ देती है।
और जो वर्तमान
से जुड़ा, वही
योगी है।
ध्यानी योगी
है। और जो
वर्तमान से
जुड़ गया, वह
परमात्मा से
जुड़ गया; क्योंकि
वर्तमान
परमात्मा का
द्वार है।
कैसे
खोजोगे गुरु
को?
इस तरह
खोजना :
अवधू
ऐसा ग्यान
बिचारी तामै
झिलमिल जोति
उजाली।
जिसमें
तुम्हें
ज्योति का
दर्शन हो।
जहां
जोग तहां रोग
न व्यापै
जहां
तुम्हें लगे
कि परमात्मा
से मिलन हो
गया इसका।
जहां तुम्हें
कोई तृष्णा, वासना,
भविष्य न
दिखाई पड़े।
ऐसा
परषि गुरु
करना।
ऐसा
परख लेना, फिर
झुक जाना
चरणों में।
फिर उठना ही
मत।
ऐसा
परषि गुरु
करना।
गरजते
घन,
कौंधती
विद्युत,
पवन
का हास
हाहाकार—सा,
मन—प्राण
आकुल,
भीत!
क्या
विध्वस्त
हो
कर ही रहेगा
नीड़,
जिसके
सजग
तृण
— तृण में
समाहित
स्नेह
की'
उपलब्धियां,
श्रम
रागमय,
परिकल्पनाएं, स्वप्न
रसमय, मदिर,
मादक
आज
के,
कल के,
अजाने
काल के?
पर
सत्य
क्या
भय?
वज्र
जो
नभ
से गिरे,
वह
नीड़ ही खोजे
हमारा?
और
यह
आसन्न
झंझावात
क्या
अपने लिये ही?
हर
विकट
तूफान
क्या उठता
हमें
संत्रस्त
करने के लिए
ही?
कौन
जाने?
किंतु
मन
ऐसा, कि
जो
संभाव्य
सब
लगता
उसे
अपने लिये ही!
मोह, अतिशय
मोह,
जो
शंकित सदा,
संत्रस्त
अपनी
सजगता से,
हानि—
क्षति की
कल्पना
से!
किंतु
ऐसा
मोह
क्या,
जो
व्याधि बन,
अविरत
सताये?
उठो, झंझावत!
तुम
में ही
अभय
अब खोजना है!
झंझावत
उठते हैं।
लेकिन सब
झंझावात अतीत
के हैं या भविष्य
के हैं।
भविष्य और
अतीत के मोह
ही व्याधियां
बन जाते हैं।
उठो
झंझावत!
तुम
में ही
अभय
अब
खोजना
है!
चिंता
न करना मन के
विचारों की, मन
के तूफानों
की। कहना, उठो!
आने दो
विचारों के
तूफान। तुम
सजग होकर देखना
उन तूफानों
को। उठने देना
विचारों की आंधिया।
तुम साक्षी बन
कर देखना उन
आधियों को। और
उसी साक्षी
होने में तुम
उस मध्य—बिंदु
को पा जाओगे, जो सदा ही
सभी
झंझावातों के
पार है; जहां
तक कोई
झंझावात न कभी
पहुंचा न
पहुंच सकेगा।
उस मध्य—बिंदु
पर व्याधियां
मिट जाती हैं,
रोग मिट
जाते हैं। उसी
मध्य—बिंदु
पर... तामै झिलमिल
जोति उजाली..
ज्योति का
दर्शन होता
है—ऐसी ज्योति
का जो जलानी
नहीं पड़ती।
बिन बाती बिन
तेल! जो सदा से
जल ही रही है।
मगर तुम इतने
उलझ गये
बाहर—बाहर, कि भूल ही
गये अपने घर
का द्वार।
जहां
जोग तहां रोग
न व्यापै ऐसा
परषि गुरु करनां।
तन
मन सूं जे
परचा नाही तौ काहे
को पचि मरनां।
शास्त्रों
को
जाननेवालों
के चक्कर में
मत पड़ जाना; क्योंकि
न तो उन्हें
अपने तन का
परिचय है, न
अपने मन का
परिचय है।
उनकी बातों
में पड़ोगे तो
व्यर्थ पच—पच
मरोगे।
तौ
काहे कौ पचि
मरनां।
वे
तुम्हें जो
बतायेंगे, उन्होंने
स्वयं भी जाना
नहीं है।
ऐसे
बहुत लोग हैं
इस देश में, जो
दूसरों को
ध्यान करा रहे
हैं। उन्हें
स्वयं ध्यान
हुआ नहीं है।
मेरे पास आते
हैं तो पूछते
हैं ध्यान
कैसे करें? मैं चकित
होता हूं। मैं
उनसे कहता हूं
: आप तो दूसरों
को ध्यान करा
रहे हैं! वे
कहते हैं. ही, दूसरों को
करा देता हूं।
शास्त्र तो
उपलब्ध हैं, तो पढ़ लेता
हूं। विधियां
भी सब शास्त्र
में लिखी हैं,
तो बता देता
हूं। इसमें
कुछ बुराई तो
नहीं है? दूसरों
का हित ही
होता है।
हित
नहीं हो सकता।
तुमने स्वयं न
जाना हो ध्यान, तो
तुम जो भी
बताओगे उससे
अहित होगा।
अपने अनुभव से
अन्यथा कुछ भी
बताओगे तो तुम
खतरा दूसरे के
लिए पैदा कर
रहे हो। ध्यान
कोई ऐसी बात
नहीं कि किताब
से पढ़ ली और
बता दी। चूके
हो जायेंगी; ऐसी चूके हो
जायेंगी कि
लोग जीवन— भर
चेष्टा करते
रहेंगे, तो
भी ध्यान
उपलब्ध न
होगा। और
चूंकि तुम
दूसरों को
बताने चले हो
ध्यान, तुम
धीरे— धीरे यह
बताना बंद ही
कर दोगे कि
मुझे ध्यान
नहीं आता।
कैसे बताओगे
यह कि मुझे
ध्यान नहीं
आता, किस
मुंह से
बताओगे कि
मुझे ध्यान
नहीं आता? शर्म
भी तो कुछ
खाओगे! ऐसे
बहुत लोग हैं
जो ध्यान पर
किताबें
लिखते हैं और
जिन्हें
ध्यान का कोई
पता नहीं!
उनकी किताबें
पढ़कर लोग
ध्यान करते
हैं। सावधान
रहना, जिनका
अपने मन से
परिचय नहीं, अपने तन से
परिचय नहीं, जिन्होंने
अपने भीतर
झांका नहीं, उनसे सावधान
रहना!
तन
मन सूं जे
परचा नाही तौ
काहे कौ पचि
मरनां।
काल
न मिट्या
जंजाल न
छूट्या तप करि
हूवा न सूरा।
कुल
का नास करै
मति कोई जै
गुरु मिला न
पूरा।।
ध्यान
रखना, जब तक
गर्ण गुरु न
मिल जाये, तब
तक कुछ भी न हो
सकेगा।
काल
न मिट्या
जंजाल न
छूट्या.
न
तो मौत से
मुक्ति होगी, न
समय मिटेगा, न वासना और
तृष्णा का
जंजाल
मिटेगा।
तप
करि हूवा न
सूरा।
और
लाख तुम तप
करते रहो, तपश्चर्या
करते रहो—धूप
में, सर्दी
में खड़े रहो, नग्न रहो, उपवास करो, व्रत करो; कितनी ही
बहादुरी
दिखाओ और
कितना ही अपने
को सताओ, कुछ
भी न होगा।
कुल
का नास करै
मति कोई जै
गुरु मिला न
पूरा।
और
फिर—फिर
तुम्हें आना
पड़ेगा, कुल
का नाश न
होगा। फिर—फिर
लौटोगे।
वापिस नये—नये
जन्म होंगे।
फिर गर्भ, फिर
वही दौड़, फिर
वही अज्ञान, फिर वही
जंजाल...। यह
छूटता ही तब
है,
जै
गुरु मिला न
पूरा।
तब
तक नहीं जब तक
गुरु न मिल
जाये। और कौन
है पूरा गुरु?
रहता
हमारे गुरु
बोलिये हम
रहता का चेला।
कहीं
कोई व्यक्ति
मिल जाये, जिसके
जीवन में
तुम्हें
अज्ञात की गंध
का एहसास हो।
जिसकी
मौजूदगी में
तुम्हें
अनाहत का नाद अनुभव
में आये।
जिसके पास
बैठकर हृदय
मौन होने लगे,
शांत होने
लगे, ध्यान
अपने से फलित
होने लगे। तो
फिर डुबकी मार
लेना। फिर
आगा——पीछा न
करना। फिर
सोच—विचार में
मत उलझना। फिर
क्षण— भर भी न
गंवाना।
सप्त
धात का काया
पीजरा ता महि
जुगति बिन
सूवा।
अभी
तो तुम सात
धातुओं से बने
हुए पींजडे
में बंद तोते
की तरह हो।
सात धातुएं
हैं—रस, रक्त,
मांस, मेद,
अस्थि, मज्जा,
वीर्य।
सप्त
धात का काया
पीजरा ता महि
जुगति बिन
सूवा।
और
तुम बंद हो
तोते की तरह
और तोता
बिलकुल अज्ञानी
है। उसे जुगति
भी पता नहीं
कि कैसे बंद
हो गया, कहां
द्वार है? कैसे
निकल जाये, कैसे उड़
जाये? आकांक्षा
है उडने की।
खुला आकाश
दिखाइ पड़ता है।
और उड़ते हुए
तोते भी दिखाई
पड़ते होंगे।
उड़ते हुए
तोतों को
देखकर उसके
प्राणों में
भी पीड़ा उठती
होगी। मगर उसे
कुछ पता नहीं
कैसे बंद हो गया।
कैसे निकले, यह भी पता
नहीं। और
जरूरी भी नहीं
है कि वह कोई तपश्चर्या
करे तो निकल
जाये। क्या
तुम सोचते हो
तोता
तपश्चर्या
करे पींजडे
में तो निकल
सकेगा? कि
व्रत—उपवास
करे, कि
उल्टा लटका
रहे, शीर्षासन
करे...। इस सब से
क्या होगा, यह सब तो
पींजडे के
भीतर ही हो
रहा है। इससे
द्वार नहीं
खुल जायेंगे।
कोई जो बाहर
है, जो
बाहर है, वही
द्वार खोल
सकता है।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
को कहता था :
अगर कारागृह
से छुटकारा
पाना हो, तो
सबसे पहला काम
यह 'है, कारागृह
के बाहर किसी
से नाता जोड़ो।
कोई दोस्ती
बनाओ कारागृह
के बाहर। तो
शायद कोई
रस्सी फेंक
सके दीवाल से,
कि औजार
फेंक सके कि
तुम सींकचे
काट सको, कि
बाहर से दीवाल
में सेध लगा
सके, कि
पहरेदारों को
रिश्वत दे सके,
कि
पहरेदारों को
शराब पिला सके,
कि एक रात
वे
मूर्च्छित —हों और
तुम निकल
भागो...। बाहर
दोस्ती करो।
कारागृह
के भीतर से
निकलना हो तो
बाहर से सूत्र
जोड़ना पड़ेगा।
थोड़ा—सा भी
सूत्र बाहर से
जुड़ जाये, तो
कारागृह से
निकलना आसान
है, अन्यथा
असंभव है।
गुरु
का इतना ही
अर्थ —है—जो
जंजाल के बाहर
हो गया है।
उससे थोड़े
संबंध जोड़ने
से तुम भी
जंजाल के बाहर
हो सकते हो।
काल
न मिट्या
जंजाल न
छूट्या तप करि
हूवा न सूरा।
कुल
का नास करै
मति कोई जै
गुरु मिला न
पूरा।।
पूरे
गुरु से अर्थ
है जो
पूरा—पूरा जेल
के बाहर हो
गया है, कारागृह
के बाहर हो
गया है। और
पहचानने में
कठिनाई न
होगी। तुम
पहचानना ही न
चाहो तो बात
दूसरी है, अन्यथा
पहचानने में
कभी कठिनाई न
होगी।
तुम्हारा
अंतरतम
तत्क्षण
गवाही दे देगा
कि आ गयी जगह।
हां, अगर
तुमने न
पहचानने की
जिद्द कर रखी
हो, तो
दूसरी बात है।
लेकिन न
पहचानने की
जिद्द में
तुम्हारी
हानि है, किसी
और की हानि
नहीं है।
जब
तुम किसी को
गुरु स्वीकार
करते हो तो
भूल कर भी यह
मत सोचना कि
गुरु पर तुमने
कोई अनुग्रह
किया है। गुरु
को तुम्हारी
या तुम्हारे
अनुग्रह की
कोई भी
आवश्यकता नहीं
है। जिसकी कोई
वासना नहीं है, उसकी
क्या
आवश्यकता हो
सकती है? तुम
रहो शिष्य कि
न रहो शिष्य, कुछ भेद
नहीं पड़ता।
लाभ है तो
तुम्हारा, हानि
है तो
तुम्हारी।
मगर लोग बहुत
अदभुत हैं, उन्होंने
लाख बाधाएं
खड़ी कर रखी
हैं। उन्होंने
पहले से ही
अपेक्षाएं
बना रखी हैं।
पूर्व— धारणाएं
निश्चित कर ली
हैं। उन
पूर्व— धारणाओं
के अनुसार वे
जांच—परख करते
हैं।
गोरख
सीधा सूत्र दे
रहे हैं। वे
कह रहे हैं : जांच—परख
बौद्धिक
धारणाओं से
नहीं हो सकती, जांच—परख
तो केवल
हार्दिक हो
सकती है। हृदय
की तरंग ही
एकमात्र
गवाही दे सकती
है। गुरु के साथ
संबंध तो ऐसा
है जैसे प्रेम
में पड़ना।
प्रेम में पड़े
हो कभी? फिर
बुद्धि काम
नहीं आती।
बुद्धि का कोई
संबंध भी नहीं
है। —हृदय
उमंग से भर
जाता है, हृदय
उत्साह से भर
जाता है। हृदय
'ही' कह
देता है, बुद्धि
से पूछता ही
नहीं। जिसने
बुद्धि से पूछा,
वह तो शायद
कभी प्रेम कर
भी न पायेगा।
क्योंकि
बुद्धि को तो
प्रेम की भाषा
ही समझ में
नहीं आती।
बुद्धि के
गणित में
प्रेम नहीं
समाता। बुद्धि
धन के संबंध
में सोचती है,
पद के संबंध
में सोचती है,
प्रतिष्ठा
के संबंध में
सोचती है।
लेकिन प्रेम,
प्रेम
बुद्धि का
क्षेत्र नहीं
है।
सप्त
धात का काया
पीजरा ता महि
जुगति बिन
सूवा।
तुम
बंद हो सात
धातुओं के
पींजडे में, युक्ति
तुम्हें पता
नहीं।
सतगुरु
मिलै तो ऊबरै
बाबू।
और
हे बाबू जब तक
सतगुरु न मिल
जाये, तुम उबर
न सकोगे।
सतगुरु
मिलै तो ऊबरै
बाबू नहीं तो
परलै हूवा।
फिर
बिना सतगुरु
के तो तुम
प्रतीक्षा
करते रहो, तो
प्रलय तक
प्रतीक्षा
होगी! सुनते
हो यह प्यारा
वचन
सतगुरु
मिलै तो ऊबरै
बाबू।
उबर
सकते हो, एक ही
उपाय
है—कारागृह के
बाहर किसी से
दोस्ती बन
जाये। कोई तुम्हारा
हाथ पकड ले
कारागृह के
बाहर है जो। तो
फिर उपाय हो
सकते हैं।
कभी—कभी
छोटे—से उपाय,
बड़ी छोटी
युक्ति...।
मैंने
सुना है, एक
सम्राट अपने
वजीर पर नाराज
हो गया। उसने
उसे एक मीनार
पर कैद करवा
दिया। मीनार
इतनी ऊंची कि
अगर भागने की
कोशिश करे, तो मौत हो
जाये। गिरे
उससे तो मर ही
जाये। कूद
सकता नहीं...।
बड़ी मुश्किल,
बड़ी कठिनाई,
क्या करे
क्या न करे? उसकी पत्नी
एक फकीर के
पास गयी। उसने
फकीर से कहा :
अब हमारी कुछ
समझ में नहीं
आता, आप ही
कुछ कहो। आप
तो बड़ी
कारागृह से
निकल आये हो!
यह तो
छोटी—मोटी
कारागृह है।
जरूर आप कोई
उपाय बता
सकोगे। हमने
तो सुना है कि
गुरु संसार के
कारागृह से
निकाल लेता है,
तो मेरे पति
तो एक छोटी—सी
मीनार पर बंद
हैं।
उस
फकीर ने कहा
कि रास्ता है।
तू जाकर जंगल
से शृंगी नाम
के एक कीड़े
को पकड़ ला।
उसने कहा : शृंगी
नाम के कीड़े
को! उसका क्या
करेंगे? फकीर
ने कहा : तू
पहले कीड़ा ला।
ज्यादा
बातचीत में समय
खराब मत कर।
समय ज्यादा
पास में भी
नहीं है। तेरा
पति कहीं बचने
की कोशिश में
कूदने की झंझट
न कर ले, अन्यथा
समाप्त हो
जायेगा। तू
शृंगी नाम का
कीड़ा पकड़ ला।
उसने
कहा : मगर
शृंगी नाम के
कीड़े को पकड़
लाने से मेरे
पति के छूटने
का क्या नाता? उस
फकीर ने कहा :
अगर बौद्धिक
विचार करना हो
तो तू जान।
कोई
और उपाय न था, तो
बुद्धि तो
गवाही नहीं
देती थी—यह
शृंगी नाम का
कीड़ा... इसका
क्या होगा? मगर ले आयी।
फकीर नहीं
मानता, और
कोई उपाय है
भी नहीं। तो
ले आयी, बुद्धि
के विपरीत ले
आयी। उस फकीर
ने कहा कि इस
शृंगी को ले
जा। इसको दीवार
पर छोड़ देना; इसकी मूंछ
पर दो बूंद
शहद की रख
देना।
उस
वजीर की पत्नी
ने कहा कि आप
होश में हैं
या पागल हैं? और
मुझको भी पागल
बना रहे हैं!
अब शृंगी नाम
के कीड़े की
मूंछ पर शहद
की बूंद रखने
से क्या होगा?
उसने कहा :
यह तू बात ही
मत कर। और
इसकी पूंछ में
एक पतला धागा
बांध देना और
बस राह देखना।
किया।
परिणाम आये।
शृंगी कीड़ा की
मूंछ पर लगी हुई
शहद,
शहद का
प्रेमी... शहद
की बास आ रही
बिलकुल नाक के
पास; चला
कि बिलकुल पास
ही कहीं शहद
है। चल पड़ा।
मूंछ पर रखी
शहद मिल तो सकती
नहीं—ऐसी ही
शायद सब की
मूंछों पर रखी
है—पास बिलकुल,
अभी मिली, अभी
पहुंचे—पहुंचे।
चल पड़ा गरीब
कीड़ा। बास आती
ही गयी और आती
ही गयी और
कीड़ा चलता ही
गया और चलता
ही गया। वह
ठीक मूंछ पर
रखी थी तो नाक
की सीध में
चलता चला गया,
कोई उपाय भी
नहीं था
यहां—वहां
जाने का। बास
बिलकुल साफ आ
रही थी कि इसी
दिशा में शहद
है। और उसकी
पूंछ में बंधा
हुआ पतला धागा
भी उसके साथ
शिखर पर चढ़ने
लगा।
जब
शृंगी कीड़ा
ऊपर पहुंचा, वजीर
तो आतुर होकर
प्रतीक्षा
करता ही था कि
कोई उपाय करे,
कोई उपाय
करे; शायद
पत्नी कुछ करे,
मित्र कुछ
करें। तो राह
देख ही रहा था,
जागा हुआ
बैठा था। देखा
एक कीड़े को
आते। थोड़ा चौंका,
इतनी लंबी
मीनार कीड़ा चढ़
आया! फिर देखा
मूंछ पर रखी
दो बूंदें शहद
की, तो और
भी चौंका। फिर
देखा कि कीड़े
की पूंछ में
बंधा हुआ
धागा। फिर
सूत्र खुल
गया। धागे में
सूत्र था।
धागा पकड़ लिया,
धागा खींचता
चला गया।
फकीर
ने कहा था, फिर
धागे में
थोड़ी—सी रस्सी
बाध देना। फिर
रस्सी में
मोटी रस्सी
बांध देना, फिर उसमें
और मोटी रस्सी
बांध देना; फिर मामला
हल हो जायेगा।
सुबह
होते—होते
वजीर मोटी
रस्सी को पा
गया, मोटी
रस्सी से उतर
गया; जीवन
बच गया।
युक्ति
का अर्थ होता
है : कोई विधि।
लेकिन विधि तो
बाहर से ही काम
में लायी जा
सकती है, भीतर
से काम में
नहीं लायी जा
सकती। और जो
भीतर बंद है
जनम—जनम से, जिसने बाहर
जाना ही नहीं
है, उसकी
तो और भी
कठिनाई है। यह
वजीर तो जानता
था कि बाहर
क्या है।
लेकिन
तुम्हें तो
बाहर का कोई
पता ही नहीं
है। तुमने तो
पींजडे में
रहने को ही अपना
जीवन का
सार—सर्वस्व
समझ लिया है।
कुल
का नास करै
मति कोई जै
गुरु मिला न
पूरा।
इसलिए
गुरु खोजे
बिना कोई उपाय
नहीं है।
सतगुरु
मिलै तो ऊबरै
बाबू नहीं तो
परलै द्या।
बजती
देव,
तुम्हारी
वीणा!
दिवस
निशा के कोण
फिसलते,
खिंचे
किरण के तार
चमकते,
युग
मीडो औ' कल्प
मूर्च्छना से
कल्पित अंबर
यह झीना।
बजती
देव,
तुम्हारी
वीणा!
सवृति
में अवरोह
तिरोहित,
लिये
विवृति आरोह
विमोहित,
संचारी
आभोग भुक्त
अविमुक्त कोण
घातित स्वन हीना
बजती
देव,
तुम्हारी
वीणा!
निस्तरंग
आलोक सिंधु के
छवि
अभंग में नाद
बिंदु के
एक
चिरंतन स्पंद
छिपाये
कोटि—कोटि
रागिणि लयलीना।
बजती
देव,
तुम्हारी
वीणा!
जैसे
ही सदगुरु से
संबंध हो जाये, उसकी
वीणा बजने
लगती है—बाहर
ही नहीं, तुम्हारे
भीतर भी। वह
तो बाहर ही
वीणा बजाता है,
लेकिन उसकी
बाहर की वीणा
के तार
तुम्हारे भीतर
की सोई वीणा
के तारों को
झंकृत कर देते
हैं, हिला
देते हैं। वह
तो बाहर से
पुकारता है, लेकिन जल्दी
ही पुकार भीतर
सुनाई पड़ने
लगती है—समानांतर।
सदगुरु
का काम क्या
है?
इतना ही कि
तुम्हारे
भीतर जो
तुम्हारा
चैतन्य सोया पड़ा
है उसे जगा
दे। यह तो कोई
जागा हुआ आदमी
ही कर सकता
है। सोये आदमी
को जगाना हो
तो जागा हुआ
आदमी ही जगा
सकता है; वही
उसे
हिलायेगा—डुलायेगा,
ठंडा पानी
लेकर उसकी
आंखों पर
छिड़केगा। मगर
बाहर का जागा
हुआ आदमी उपाय
करे तो
तुम्हारी भीतर
की चेतना को
भी जाग्रत कर
सकता है। ठीक
ऐसी ही घटना
घटती है
सदगुरु के सत्संग
में।
सतगुरु
मिलै तो ऊबरै
बाबू नहीं तो
परलै हूवा।
कंद्रप
रूप काया का
मंगा अबिरथा
काइ उलीचौ।
गोरष
कहै सुणौ रे
भौदूं अरंड
अमी कत सीचौ
यह
शरीर तो
कामवासना से
बना है। यह
शरीर तो वासना
का पुतला है।
इस शरीर के
भीतर तुम्हें
कोई पहचान
करवा दे उसकी
जो इस शरीर के
पार है, तो ही
द्वार मिले, तो ही राह
मिले।
कंद्रप
रूप काया का
मंडणु अबिरथा
काइ उलीचौ।
यह
तो कामवासना
से ही निर्मित
है पूरी देह, यह
मन भी वासना
से ही निर्मित
है। अगर इसी
के काम में
उलझे रहे, तो
यह तुम व्यर्थ
के काम में
लगे हो। यह तो
ऐसा है जैसे
कि फूटी नाव में
से कोई पानी
उलीचता हो।
ऊपर से पानी
उलीचते जाते
हो, नीचे
से पानी चला
आता है।
व्यर्थ ही
उलीच रहे हो।
पहले नाव के
छिद्र बंद
करो।
गोरष
कहै सुणौ रे
भौदूं!
गोरख
कहते हैं :
तुम्हारी
हालत बड़ी
बुद्धओं की
है।
सुणौ
रे भौदूं...
अरंड अमी कत
सीचौ
तुम
अरंडी के
वृक्ष को, व्यर्थ
का वृक्ष जो
पूरे पर उग
आता है, अरंड
का
वृक्ष—जिसके
लिए न माली की
जरूरत है न पानी
की जरूरत है, जो कहीं भी
कूड़ा—कबाड़
इकट्ठा हो
जाये तो उग आता
है—अरंड के
वृक्ष को तुम
जीवन के अमृत
से सींच रहे
हो! व्यर्थ की
वासनाओं को..
कोई आदमी धन
इकट्ठा करने
में लगा है, दीवाना हो
कर लगा है। धन
ही बस सब कुछ
है।
मैंने
सुना है एक
भिखारी
सैकड़ों मील
चलकर दूर मरुस्थल
से जयपुर
पहुंचा। जाकर
एक बड़े मारवाड़ी
धनिक के चरणों
में पगड़ी रखी
और कहा : मेरी
बेटी जवान हो
गयी,
उसका विवाह
करना है। और
मैंने आपकी
बड़ी प्रशंसा
सुनी है, आपके
दान की बड़ी
प्रशंसा सुनी
है। आप जैसा
कोई दानवीर है
ही नहीं इस
समय देश में।
आप अपूर्व दान—दाता
हो! इसी आशा
में, इसी
भरोसे सैकड़ों
मील की पैदल
यात्रा करके
आया हूं।
मालूम
है,
मारवाड़ी ने
क्या कहा? कहा.
बिलकुल ठीक
किया जो आ
गये। अब क्या
इसी रास्ते से
वापिस भी' जाओगे?
उसने कहा.
हां मालिक, इसी रास्ते
से वापिस भी
जाऊंगा। तो
उसने कहा : एक
काम करते जाना,
जाते समय
लोगों से कहते
जाना कि वह
अफवाह झूठी
है। मेरे
संबंध में जो
दाता होने का
खयाल है, वह
बात गलत है।
जाते वक्त
लोगों से यह
कहते जाना।
एक
पैसा भी छोड़ना
मुश्किल है।
एक—एक पैसे को
लोग पकड़कर
बैठे हैं!
एक
सिपाही एक
मारवाड़ी और
सिंधी को पकड़
कर ले गया
थाने में। और
उसने कहा जा
कर थानेदार को
कि इन दोनों
ने खूब शराब
पी रखी है। पर
दोनों ने कहा
कि यह बात झूठ
है,
हमने शराब
नहीं पी है। तो
थानेदार ने
पूछा सिपाही
को कि क्या
तेरे पास कारण
हैं, किस
कारण तू कहता
है इन्होंने
शराब पी है? उसने कहा कि
निश्चित शराब
पी है, क्योंकि
मारवाड़ी सौ—सौ
रुपये के नोट
फेंक रहा था
निकाल कर खीसे
से और सिंधी
उठा—उठा कर
इसको वापिस दे
रहा था, कि
भाई, यह
रुपया तेरा
रख। इन दोनों
ने शराब पी
रखी है, नहीं
तो ऐसी असंभव
घटना कहीं घट
सकती है! एक तो मारवाड़ी
निकाल—निकाल
फेंके और फिर
सिंधी वापिस
दे!
कुछ
हैं जो धन ही
इकट्ठा करने
में लगे हैं।
कुछ हैं जो पद
की ही दौड़ में
लगे —हैं।
जीवन का यह बहुमूल्य
अमृत तुम अरंड
के वृक्षों पर
सींच रहे हो!
सतगुरु
मिलै तो ऊबरै
बाबू नहीं तो
परलै हूवा।
नहीं
तो प्रलय तक
तुम यही करते
रहोगे।
कंद्रप
रूप काया का
मंगा अंबरिथा
काइ उलीचौ।
ये
व्यर्थ की
कामवासनाओं
की जो भीड़
तुम्हारे भीतर
है,
इसी में
उलझे रहोगे?
गोरष
कहै सुणौ रे
भौदूं अरंड
अमी कत सीचौ।।
और
कब तक पागलो, व्यर्थ
के घास—फूस को
जीवन के
महा—मूल्यवान
अमृत से
सींचते रहोगे!
चकमक
ठरकै अगनि झरै
म्यू दधि मथि
घृत कर लीया।
जैसे
चकमक पत्थर को
रगड़ने से आग
पैदा हो जाती है, ऐसे
ही जरा भीतर
रगड़ को जगाओ, युक्ति
सीखो और
तुम्हारे
भीतर भी
ज्योति जल
उठे!
चकमक
ठरकै अगनि झरै
मू... दधि मथि
घृत कर लीया।
और
जैसे दही को
मथ कर.. तुम दूध
से दही बनाते, दही
को मथ कर तुम
घी बना लेते, ऐसे ही
थोड़े—से मंथन
की जरूरत है
कि तुम्हारे भीतर
जीवन का सार, तुम्हारे
भीतर जीवन की
परम उपलब्धि
फलित हो जाये।
तुम्हारे
भीतर
स्वर्ण—फूल
खिले।
आपा
मांहीं आपा
प्रगट्या तब
गुरु संदेसा
दीया
और
तुम्हारे
भीतर ही छिपा
है जिसे तुम
खोजने चले हो।
आपा
माही आपा
प्रगट्या।
वहीं
प्रगट हो
जायेगी आत्मा, वहीं
परमात्मा।
तब
गुरु संदेसा
दीया।
और
जब तुम्हारे
भीतर प्रगट हो
जायेगी आत्मा
तभी गुरु
कहेगा, जो
कहने योग्य
है। उसके पहले
तो सिर्फ जगा
रहा है। उसके
पहले तो पुकार
रहा है कि उठो
भौंदू! उसके
पहले तो सिर्फ
चिल्ला रहा है
कि जग जाओ!
कहने योग्य
बात तो तभी
कही जायेगी जब
तुम जाग
जाओगे। सोए
हुए आदमी से
क्या कोई खास
बात कही जा
सकती है, क्या
कहा जा सकता
है? पहले
तो उसे जगाना
होगा।
तो
गुरु जो बोलता
है उसमें दो
तरह की बातें
हैं।
निन्यान्नबे
प्रतिशत तो
जगाने के
सूत्र हैं, एक
प्रतिशत
सिर्फ वे
बातें हैं जो
जागे हुओं को
कही गयी हैं।
और वे एक
प्रतिशत
बातें शब्दों
से नहीं कही
जातीं, वे
तो चुपचाप मौन
में ही —कह दी
जाती हैं।
जगाने के लिए
तो खूब शोरगुल
करना पड़ता है।
लेकिन एक बार
कोई जग गया तो
उसकी आंख में
देख लेना ही
काफी है। उसका
हाथ हाथ में
ले लेना काफी
है। उसको पास
बिठा लेना
काफी है। फिर
तो चुप्पी में
ही संवाद हो
जाता है। यही
उपनिषद शब्द
का अर्थ है।
उपनिषद
का अर्थ होता
है. गुरु 'के
पास बैठ कर जो
मिला, सिर्फ
पास बैठकर जो
मिला। कहा
नहीं गया, बोला
नहीं गया, बस
पास बैठ कर जो
मिला।
आपा
मांहीं आपा
प्रगट्या तब
गुरु संदेसा
दीशा
खोल
मन के नयन
देखो
मैं
तुम्हारे साथ
ही हूं।
आस्था
हूं
साधना
हूं अर्चना,
आराधना
हूं
खोल मन
के द्वार देखो,
मैं तुम्हारी
आत्मा हूं!
अनल
हूं मैं
अनिल
हूं मैं,
व्योम
हूं
जल—स्रोत
हूं मैं
श्वास
हूं
उच्छवास
हूं मैं,
प्राण
बन
तुम
में निहित
हूं!
रम
रहा
तुम
में अहर्निश,
मैं
कहां
तुम
से अलग हूं?
वेदना
की चोट से
तुम
जब
व्यथित हो
क्षुब्ध
होते,
सांत्वना
की रागिनी
मन में
तुम्हारे
छेड़ता
हूं!
अंश
तुम हो,
सर्व
मैं हूं
भ्रांति—पट
है
बीच में,
उस
ओर तुम,
इस
ओर मैं हूं!
गहन
अंतर में
तुम्हारे
जल
रहा जो
धीर
गति से,
मैं
वही हूं दीप,
उसकी
ज्योति भी मैं
हूं!
खोल
मन के नयन
देखो
मैं
तुम्हारे साथ
ही हूं!
जिस
दिन जाग जाता
है शिष्य, गुरु
बिन बोले बोल
जाता है, संदेशा
दे जाता है।
दरपन
माही दरसन
देष्या नीर
निरतरि झांइ।
आपा
माही आपा
प्रगट्या लखै
तो दूर न जाइ।
गुरु
तो एक दर्पण
है।
दरपन
माही दरसन
देष्या...
गुरु
के दर्पण में
तुमने जो देखा, वह
तुम्हीं हो।
दरपन
माही दरसन
देष्या नीर
निरतरि झांइ।
जैसे
कोई जल में
अपनी ही छाया
देख लेता है।
गुरु तुम्हें
कुछ और देने
को भी नहीं है, सिर्फ
तुम्हीं को
दिखा देना है
तुम्हें।
दरपन
माही दरसन
देष्या नीर
निरतरि झांइ।
आपा
माही आपा
प्रगट्या लखै
तो दूर न जाइ।
और
जब एक दफे यह
समझ में आ गयी
बात कि मैं
कौन हूं गुरु
के दर्पण में
देखकर पहचान
ली यह बात कि
मैं कौन
हूं—फिर तो
गुरु के दर्पण
की भी कोई
जरूरत नहीं।
फिर तो आंख
बंद करके भी
तुम देख पाओगे
कि तुम कौन
हो। फिर तो
दूर नहीं जाना
है। लखै तो
दूर न जाइ।
गोरष
बोलै सुणि ३
अवधू पंचौ पसर
निवारी।
अगर
एक बार गुरु
के दर्पण में
तुम्हारी झलक
तुम्हें मिल
गयी तो, पांचों
इंद्रियों का
जो पसारा था
उसका निवारण
हो गया।
अपणी
आत्मा आप
बिचारी तब
सोवौ पान
पसारी।।
और
जिसकी अपने से
पहचान हो गयी, अब
कुछ करने को न
बचा। अब फैला
लो पैर... पसार
कर पैर सो जाओ!
अब विश्राम की
घड़ी आ गयी। अब
विराम का क्षण
आ गया। यही
मोक्ष है, यही
निर्वाण है।
संचय
कर लो सखि
किंचित रस,
क्यों
रिक्त रहे मन
की गागर
अवसाद
विगत का दूर
करो
कुछ
रिक्त नहीं रस
का सागर!
अमराई
में कोयल कूकी
बगिया
में फूल खिले
हंस—हंस
गुन—गुन
करते उन्मत्त
अमर
सुमनों
के मृदु रस
में फंस—फंस!
परिव्याप्त
चतुर्दिक अति
मोहक
सुषमा
नैसर्गिक
ज्योतिर्मय
छाया
मधु—ऋतु का
जादू—सा
जीवनमय, रसमय,
सौरभमय!
खोलो
अंतर—पट रस भर
लो
क्यों
रिक्त रहे मन
की गागर!
जिन्होंने
जाना है, यही
पुकार—पुकार
कर कहते रहे
हैं :
संचय
कर लो सखि
किंचित रस,
क्यों
रिक्त रहे मन
की गागर
अवसाद
विगत का दूर
करो
कुछ
रिक्त नहीं रस
का सागर!
धनी
हो तुम और
निर्धन बने
बैठे हो!
सम्राट हो तुम
और भिखारी बने
बैठे हो! गुरु
के दर्पण में
थोड़ी अपनी
परछाईं देख
लो। थोड़ी अपने
से पहचान करो।
फिर जीवन
रूपांतरित हो
जाता है। फिर
नहीं भटकन रह
जाती, नहीं
विषाद, नहीं
संताप, नहीं
आपा— धापी।
लो, कूक
उठी मन की
वंशी
विहसी
वन— श्री
अंतर्तम की!
खिल—खिल
थी
कुसुमावलिया,
झूमीं
कुसुमित हो
वल्लरियां
मानस
उपवन की
सुंदरियां
गातीं
सत की
विरदावलिया!
मदमत्त
बयारें झूम
उठीं
तरु—शाखाएं
झुक झूम उठीं,
पिक, शुक,
मैनायें
कूक उठीं
कुंजों
में कोकिल कूक
उठीं!
किस
कर का मृदु
स्पर्श हुआ
जागी, कूकी
मन की वंशी!
तम
की ठाति विकट
निशा बीती,
रज
की मोहक
तंद्रा टूटी
सत
ने जग कर
अंगड़ाई ली
जीवन
को नई दिशा दे
दी!
नव
ज्योति जगी
मन—मंदिर में
अंतर्तम
के हर कोने
में
तम
की छायाएं
सिमट गईं
आलोक—पुंज
के गहर में!
आलोक—वृष्टि
हर ओर हुई
जागी, कूकी
मन की वंशी!
एक
है
मनुष्य—अंधकार
में डूबा हुआ, विषाद
के गहल्र में
पड़ा हुआ। एक
है मनुष्य, अमावस ही
जिसका अनुभव
है। और एक है
ऐसा मनुष्य भी,
जो
पूर्णिमा को
पहचान लेता है
और पूर्णिमा
जिसकी सदा के
लिए हो जाती
है। और अमावस
में भटके
मनुष्य में और
पूर्णिमा को पा
गये मनुष्य
में कोई
स्वभावगत भेद
नहीं है, जरा—सा
भेद है, किंचित—सा।
अमावस में जो
भटका है, उसने
आंख नहीं खोली
अपने स्वभाव
के प्रति। और जिसके
जीवन में
पूर्णिमा का
चांद उगा है, उसने आंख
खोल ली है
अपने स्वभाव
के प्रति।
तुम
बुद्ध हो, कृष्ण
हो, महावीर
हो, कबीर
हो, नानक
हो, गोरख
हो। तुम में
उनमें जरा भी
भेद नहीं है, रत्ती — भर
भेद नहीं है।
तुम्हारा
स्वभाव वही है
जो उनका
स्वभाव है।
तुम्हारे
भीतर वही ज्योति
जल रही है जो
उनके भीतर जल
रही है। मगर
तुम अपरिचित
हो। तुम अपने
से ही अपरिचित
हो। इतना—सा, छोटा—सा काम
करो:
खोल
मन के नयन
देखो
मैं
तुम्हारे साथ
ही हूं।
आस्था
हूं
साधना
हूं अर्चना,
आराधना
हूं
खोल मन
के द्वार देखो
मैं
'तुम्हारी
आत्मा हूं!
अनल
हूं मैं
अनिल
हूं मैं,
व्योम
हूं
जल—स्रोत
हूँ मैं
श्वास
हूं
उच्छवास
हूं मैं
प्राण
बन
तुम
में निहित
हूं!
रम
रहा
तुम
में अहर्निश,
मैं
कहां
तुम
से अलग हूं?
वेदना
की चोट से
तुम
जब
व्यथित हो
क्षुब्ध होते,
सांत्वना
की रागिनी
मन
में तुम्हारे
छेड़ता
हूं!
अंश
तुम हो,
सर्व
मैं हूं
भ्रांति—पट
है
बीच में,
उस
ओर तुम,
इस
ओर मैं हूं!
गहन
अंतर में
तुम्हारे
जल
रहा जो
धीर
गति से,
मैं
वही हूं दीप,
उसकी
ज्योति भी
हूं!
आज
इतना ही।
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