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सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--035

विश्रांति से समता व मध्य मार्ग से मुक्ति—(प्रवचन—पैंतीसवां)

अध्याय 15 : खंड 2

पुराने समय के संत

इस अशुद्धि व अशांति से भरे संसार में कौन विश्रांति को उपलब्ध होता है?
जो स्थिरता में रुक कर अशुद्धियों को बह जाने देता है।
कौन अपनी समता व शांति को सतत बनाए रख सकता है?
जो प्रत्येक सक्रियता के बाद सहज ही घटित होने वाले विश्राम के राज को जान लेता है।
अतः जो व्यक्ति ताओ को उपलब्ध होता है,
वह हमेशा स्वयं को अति पूर्णता से बचाता है।
और चूंकि वह अति पूर्णता से बचा रहता है,
इसलिए वह क्षय और पुनर्जीवन के पार चला जाता है।

ल के सूत्र की अंतिम पंक्तियां अधूरी रह गई हैं। उनसे ही हम शुरू करें।
संत के लक्षण में अंतिम बात लाओत्से ने कही, घाटी की भांति रिक्त और मटमैले पानी की भांति विनम्र।

जैसे हम जीते हैं, जो हमारा ढंग है, वह खाली होने का नहीं, भरने का है। चाहे धन से कोई अपने को भरे और चाहे यश, पद, प्रतिष्ठा से, चाहे कोई ज्ञान से अपने को भरे और चाहे कोई त्याग से, चाहे कोई संसार की संपदा इकट्ठी करे और चाहे कोई स्वर्ग की, लेकिन हम सभी भरने को आतुर हैं। हम सभी अपने को भर लेना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि भीतर इतना खालीपन है कि वह खालीपन हमें खाए जाता है। उसे किसी भी तरह भर लेना है, ताकि खालीपन मिट जाए, रिक्तता मिट जाए, हम भरे हुए मालूम पड़ें, खाली न रह जाएं।
एक बात कि हम जीवन भर भरने की कोशिश करते हैं। और दूसरी बात कि हम अंततः खाली के खाली रह जाते हैं। कोई कभी अपने को भर नहीं पाता। चाहे दिशा हो कोई और चाहे वस्तुएं हों कोई--संसार की या पार की--हम खाली ही रह जाते हैं। सिकंदर भी मरता है, तो खाली। बड़े से बड़ा ज्ञानी भी, आइंस्टीन भी मरेगा, तो खाली। बड़ा चित्रकार, बड़ा मूर्तिकार, बड़ा राजनीतिज्ञ, बड़ा धनी मरेगा, तो खाली।
बचपन से ही दौड़ते हैं भरने के लिए और जीवन भर भरने की कोशिश भी करते हैं; फिर भी खाली मरते हैं! जो असफल हो जाते हैं इस दौड़ में, वे तो खाली मरते ही हैं। जो सफल हो जाते हैं, वे और भी ज्यादा खाली मरते हैं। क्योंकि जो असफल होता है, उसे तो एक आशा भी बनी रहती है कि यदि सफल हो जाता तो भर जाता। सुविधा नहीं थी, संयोग नहीं मिला, भाग्य ने साथ नहीं दिया, लोग विपरीत थे, परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं, इसलिए खाली रह गया। लेकिन जो सफल हो जाते हैं, उनके लिए यह बहाना भी नहीं बचता। वे यह भी नहीं कह सकते कि भरने का मौका नहीं मिला, इसलिए खाली रह गए। सिकंदर कैसे कहेगा कि भरने का मौका नहीं मिला, इसलिए मैं खाली रह गया। भरने का पूरा मौका मिला, भरने की पूरी चेष्टा की, अथक; फिर भी खाली रह गए।
शायद जिसे हम भरने चले हैं, उसका स्वभाव खाली होना है। इसलिए हम उसे नहीं भर पाते हैं।
लाओत्से संत की परिभाषा में आधारभूत और अंतिम बात कहता है, घाटी की भांति खाली। संत वह है, जिसने अपने खालीपन को स्वीकार कर लिया और उसके भरने की बात बंद कर दी--किसी निराशा से नहीं, किसी विषाद से नहीं, किसी हारे हुए होने के कारण नहीं। हिंदी के प्रतिष्ठित कवि दिनकर ने अभी-अभी एक किताब लिखी है: हारे को हरिनाम। जो हार जाता है, उसके लिए हरिनाम बचता है, और कुछ भी नहीं। और जो हार कर हरिनाम लेता है, वह हरिनाम कभी ले नहीं पाता। यह उसकी मजबूरी है, विवश है। हरिनाम ही ले सकता है अब, और कुछ ले नहीं सकता। हारे हाथ में और कुछ बचता नहीं।
लेकिन यह तो हमारी समझ में भी आ जाए, भरे हुए हाथ में भी कुछ नहीं बचता! भरा हुआ हाथ भी खाली ही सिद्ध होता है! क्योंकि हमारे भीतर जो स्वभाव है, वह स्वभाव ही खाली है। हम उसे भर नहीं सकते। जैसे हम सूरज को अंधेरा नहीं कर सकते, उसका स्वभाव ही प्रकाश है। स्वभाव के विपरीत कुछ भी नहीं हो सकता। जो विपरीत करने की कोशिश करते हैं, वे असफल होंगे। असफल होंगे, विषाद से भरेंगे, दुख से भरेंगे, पीड़ा से भरेंगे। जो प्रतिकूल कोशिश करेंगे स्वभाव के, हारेंगे, अहंकार को घाव लगेगा, चोट लगेगी, अहंकार विजित होगा, आहत होगा, टूटेगा। सब बिखरेगा, प्राण संकट में पड़ेंगे।
संत का अर्थ लाओत्से यह नहीं कहता कि जिन्होंने हार कर, कोई उपाय न देख कर हरि का नाम लिया; कोई उपाय न देख कर जिन्होंने कहा ठीक है, संतोष के लिए यही उचित है कि हम जैसे हैं, हैं। नहीं, लाओत्से यह नहीं कहता। लाओत्से यह कहता है कि संत जान लेते हैं कि यह स्वभाव है--विषाद से नहीं--तथाता से, स्वीकार से, अनुभव से। और स्वभाव के प्रतिकूल जाने का कोई अर्थ नहीं है, मूढ़ता है। यह कोई पराजय नहीं है; यह ज्ञान है। यह कोई विवश होकर अपने सूनेपन को स्वीकार नहीं किया है। अनुभव से, प्रौढ़ता से, विकास से, जीवन को जान कर पहचाना है कि भीतर जो आत्मा है, भीतर जो अस्तित्व है, रिक्त होना उसका स्वभाव है, रिक्तता उसका गुण है।
और ध्यान रहे, रिक्तता ही असीम हो सकती है। भरी हुई कोई भी चीज असीम नहीं हो सकती। जहां कोई चीज भरेगी, वहीं सीमा आ जाएगी। और ध्यान रहे, रिक्तता ही स्वयं में प्रतिष्ठित हो सकती है। भराव तो सदा पराए से होता है। एक घड़ा खाली है। खाली घड़े का अर्थ है: घड़ा सिर्फ घड़ा है। और घड़ा भर गया, तो अब वह किसी और चीज से भरेगा--पानी से भरे, कि सोने से भरे, कि मिट्टी से भरे, कि पत्थर से, कि हीरे-जवाहरात से। घड़ा जब तक खाली है, तब तक घड़ा है। जब भरेगा, तो पानी से भरेगा, पत्थर से भरेगा, हीरे-जवाहरात से भरेगा--पराए से भरेगा।
स्वयं अगर हमें होना है, तो खाली ही हो सकते हैं। भरे हुए होंगे, तो पराए से होंगे, दूसरे से होंगे। स्व का शुद्धतम रूप खाली ही होगा, क्योंकि स्वयं के अतिरिक्त वहां कुछ भी नहीं है। और जब भी हम भरेंगे, तो दूसरा मौजूद हो जाएगा। वही हमारी पीड़ा है। दूसरे से भरते हैं; मित्र से, प्रिय से, पत्नी से, प्रेमी से, धन से, पद से, किसी से भरते हैं। दूसरा वहां प्रवेश नहीं कर सकता; बाहर ही बाहर रह जाता है। दौड़ हो जाती है, थक जाते हैं, गिर पड़ते हैं, मुंह से लहू गिरने लगता है, मौत करीब आ जाती है; और पाते हैं कि भीतर सब खाली रह गया, वह भरा नहीं जा सका है।
लाओत्से कहता है, संत अपने खालीपन में जीता है। वह दूसरे से अपने को नहीं भरता--पराए से, दि अदर, चाहे वह कोई भी हो, उससे अपने को नहीं भरता।
लाओत्से कहता है, संत तो ईश्वर से भी अपने को नहीं भरता; धर्म से भी अपने को नहीं भरता; पुण्य से भी अपने को नहीं भरता। खाली होना ही उसका धर्म है; खाली होना ही उसका पुण्य है; खाली होना ही उसका ईश्वर है। क्योंकि खाली होना ही ताओ है, नियम है।
यह खालीपन हमें तो भयभीत करेगा। हम तो अकेले होने से भयभीत होते हैं। कोई दूसरा न हो, तो डर लगना शुरू हो जाता है। कोई दूसरा न हो, तो लगता है, जिंदगी बेकार हुई। दूसरा चाहिए ही। यह बहुत मजे की बात है कि हम में से कोई भी अपने साथ रहने को राजी नहीं। हम दूसरे के साथ रह सकते हैं; हम अपने साथ नहीं रह सकते।
और बड़ा मजा यह है कि जो हम अपने साथ नहीं रह सकते, वे भी सोचते हैं कि दूसरे हमारे साथ रहें तो आनंदित हों। हम अपने साथ नहीं रह सकते अकेले में, आनंदित नहीं हो सकते अपने साथ, और आकांक्षा यह होती है कि दूसरे भी हमारे साथ रह कर हमसे आनंदित हों। और दूसरे की भी हालत यही है। वह भी अपने को बर्दाश्त नहीं कर सकता अकेले में। और हम आशा करते हैं कि हम उसके साथ होकर आनंदित होंगे। वह खुद अपने साथ आनंदित नहीं हो सका है।
हम सब एक-दूसरे पर निर्भर होकर जी रहे हैं। और यह निर्भरता ऐसी नासमझी से भरी है कि जिन पर हम निर्भर हैं, वे हम पर निर्भर हैं। हम उनके बल से जी रहे हैं; वे हमारे बल से जी रहे हैं। हम सब निर्बल हैं। लेकिन धोखा इससे हो जाता है। जिंदगी का अवसर बीत जाता है।
संतत्व सत्य को देखने की चेष्टा है। जैसा भी है सत्य, उसे वैसा ही देखने की चेष्टा है। और जो व्यक्ति भी सत्य को देखने को राजी हो जाता है, वह शीघ्र ही सत्य के आनंद का भी अनुभव शुरू कर देता है। जिन्होंने भी इस बात को पहचान लिया कि भरे होने की, भरने की, भरे जाने की सारी दौड़ नर्क है, उन्होंने अपने को भरना छोड़ दिया। और उन्होंने अपने को खाली होना ही जाना, कि मैं खाली ही हूं।
यह बहुत मजे की बात है कि विगत दो सौ वर्षों में पश्चिम ने सर्वाधिक भराव पैदा किया है आदमी के लिए। चीजों से घर भर गए हैं। यांत्रिक नई ईजादों से जमीन भर गई है। हर आदमी के पास इतना है जितना कि कभी भी किसी आदमी के पास नहीं था। बड़े से बड़े सम्राट के पास जो नहीं था, वह आज एक साधारण जन के पास पश्चिम में है। सब तरफ भराव है। और पश्चिम में दो सौ साल से जिस बात की प्रगाढ़तम अनुभूति हो रही है, वह है एम्पटीनेस। अगर पश्चिम का इन दो सौ वर्षों का सबसे महत्वपूर्ण शब्द हम खोजें, तो वह है एम्पटीनेस, खालीपन, रिक्तता। कामू, सार्त्र, हाइडेगर, पोर्तेगा वाइगासिथ, वे सभी रिक्तता की बात करते हैं। वे कहते हैं, जिंदगी बिलकुल रिक्त है, खाली है। और बड़ी बेचैनी है, क्योंकि जिंदगी भरती ही नहीं।
कभी किसी गरीब समाज को इतना अनुभव नहीं हुआ था रिक्तता का। क्योंकि पेट खाली था, तो आत्मा के खाली होने का पता चलना ही नहीं हो पाता था। पेट खाली हो, तो और बड़े खालीपन दिखाई ही नहीं पड़ते। पेट को भरने में ही सारा समय व्यतीत हो जाता है। आज पश्चिम का पेट भर गया है, शरीर भर गया है; चीजें चारों तरफ इकट्ठी हो गई हैं। और आदमी को भीतर अनुभव हो रहा है, सब खाली है। कुछ भी नहीं है भीतर।
यह खालीपन, लाओत्से कहता है, इसके साथ हम दो काम कर सकते हैं। या तो इसे भरने में लग जाएं, जो कि कभी भरेगा नहीं। एक और उपाय है: या हम इसे भुलाने में लग जाएं। आदमी दो ही उपाय करता है: या तो भरने की कोशिश करता है; और जब नहीं भर पाता, तो भुलाने की कोशिश करता है। पहले सिकंदर भरने की कोशिश करेगा। और जब पाएगा कि असफल हुआ, तो शराब में भुलाएगा अपने को, नग्न स्त्रियों के नृत्य में भुलाएगा अपने को, ताकि अब खालीपन पता न चले। भरो या भुलाओ
लेकिन लाओत्से कहता है, न भरने से भरता है और न भुलाने से भूलता है।
जिंदगी के बड़े अदभुत नियम हैं। जिस चीज को जितना भुलाओ, उतनी ही याद आती है। चाह कर इस जगत में कुछ भी भुलाया नहीं जा सकता। भुलाएं! और जितना भुलाएंगे, उतना ही पाएंगे, याद आता है। असल में, भुलाने की कोशिश में भी याद तो करना ही पड़ता है। जब एक आदमी अपने भीतर के खालीपन को डुबाने को, भुलाने को शराब पी रहा है, तब भी वह गहन रूप से याद कर रहा है। होश में आएगा, तब भी गहन रूप से याद करेगा कि शराब व्यर्थ हो गई, शरीर को खराब कर गई; वह जो घाव था, वह अपनी जगह फिर खड़ा है--और भी गहरा होकर, और भी रिक्त होकर दिखाई पड़ रहा है। न तो कोई भर सकता है और न कोई भुला सकता है।
लाओत्से कहता है, संत वे हैं जो दोनों ही काम नहीं करते। वे खाली होने को राजी हो जाते हैं। वे कहते हैं, हम खाली हैं; बात समाप्त हो गई। न हम भरेंगे, न हम भुलाएंगे। और बड़ा आश्चर्य और बड़ा चमत्कार जो इस जगत में घटता है, वह यह है कि जो अपने खालीपन से राजी हो जाता है, उसका खालीपन मिट जाता है।
यह थोड़ा कठिन लगेगा। असल में, खालीपन अनुभव इसलिए होता है कि हम भरने के लिए आतुर हैं। हमारी आतुरता के कारण खालीपन है। जितने हम आतुर हैं, उतना हमें खालीपन मालूम होता है। जब हम राजी ही हो गए, जब हमने भरने की दौड़ ही छोड़ दी, जब हमने भरने का स्वप्न ही तोड़ दिया, जब हमने भुलाने के भी आयोजन नहीं किए, जब हम राजी ही हो गए और जब हमने कहा कि खालीपन मेरे भीतर है ऐसा नहीं, मैं ही खालीपन हूं, तो खालीपन खो जाता है। क्योंकि खालीपन के होने के लिए पृष्ठभूमि में भरे होने की आकांक्षा चाहिए। जैसे काले तख्ते पर सफेद खड़िया से हम कुछ लिख देते हैं। फिर काले तख्ते को कोई पीछे से खींच ले, सफेद लिखा हुआ खो जाए; क्योंकि सफेद लिखा हुआ दिखाई पड़ता था काले तख्ते के कारण।
विपरीत चाहिए अनुभव के लिए। खालीपन का अनुभव होता है, क्योंकि विपरीत हमारे भीतर महत्वाकांक्षा है भरे होने की। भरे होने की आकांक्षा नहीं है, खालीपन का अनुभव खो जाता है। हमें दुख का अनुभव होता है, क्योंकि सुख की आकांक्षा है। सुख की आकांक्षा नहीं, दुख का अनुभव खो जाता है। मृत्यु हमें डराती है, क्योंकि जीवन पर हमारी पकड़ है। जीवन पर पकड़ न हो, मृत्यु की बात समाप्त हो जाती है। अपमान हमें कांटे की तरह चुभता है, क्योंकि सम्मान के फूल पाने के लिए हम पागल हैं। सम्मान के फूल पाने की बात खो जाए, अपमान का कांटा उसके साथ ही तिरोहित हो जाता है।
विपरीत चाहिए अनुभव के लिए। अगर आपको रिक्तता अनुभव होती है, तो सबूत है कि आप भरे होने की आकांक्षा में लगे हैं। अगर आपको दुख अनुभव होता है, तो सबूत है कि आप ने सुख की मांग कर रखी है। अगर आपको अपमान पीड़ा देता है, तो आप सम्मान के लिए विक्षिप्त हैं।
अगर यह दिखाई पड़ जाए, तो लाओत्से का सूत्र समझ में आ जाए कि संत का आत्यंतिक गुण है: रिक्त हो जाना। और उसके बाद उसने कहा है कि विनम्र, मटमैले पानी की भांति।
विनम्रता दो प्रकार की है। इसे थोड़ा समझ लें। विनम्रता दो प्रकार की है। एक तो ऐसी विनम्रता है, जो सिर्फ अहंकार का आभूषण है। अगर हम उसके लिए प्रतीक चुनना चाहें, तो हम कहेंगे, गंगा के पवित्र जल की भांति। विनम्र--गंगा के पवित्र जल की भांति। पवित्रता का भी एक अहंकार है। और विनम्रता का भी एक अहंकार है। ऐसा विनम्र आदमी घोषणा करता फिरता है सब तरह से कि मैं बिलकुल विनम्र हूं, मैं आपके पैरों की धूल हूं, मैं कुछ भी नहीं। उसकी आंखों में झांकें, उसके उठने में, उसके बैठने में; और दिखाई पड़ेगा, वह सब कुछ है। और अगर उस आदमी को आप कह दें कि आपसे भी ज्यादा विनम्र आदमी का आगमन गांव में हो गया है, तो वह आदमी उतना ही पीड़ित होगा, जैसा कोई और अहंकारी पीड़ित हो। उसकी विनम्रता नंबर एक है। नंबर दो का विनम्र वह न होना चाहेगा।
विनम्रता भी नंबर एक हो सकती है? और अगर विनम्रता भी शिखर बनती है, तो विनम्रता कहां रही? शिखर तो अहंकार बनता है। तो जिसे विनम्रता का पता है, वह विनम्र नहीं है। जिसे बोध है कि मैं विनम्र हूं, वह अहंकारी है। क्योंकि बिना विपरीत के विनम्रता का बोध भी नहीं होगा। जो घोषणा करता है कि मैं विनम्र हूं, वह अहंकारी है। जो कहता है चरणों की धूल हूं, वह अहंकारी है। अन्यथा यह बोध भी नहीं होगा। इस बोध का भी कोई उपाय नहीं है। अहंकार विनम्र होने का धोखा दे सकता है; देता है। क्योंकि हम सिखा रहे हैं।
मैं एक विश्वविद्यालय में गया था। वहां मैंने तख्ती लगी देखी वाइस चांसलर के कमरे में--कि जो विनम्र हैं, वे ही सम्मान को प्राप्त होंगे। विद्यार्थियों के लिए लगाई होगी--कि जो विनम्र हैं, वे सम्मान को प्राप्त होंगे। लेकिन यह बड़े मजे की बात है। आधा हिस्सा, पिछला हिस्सा पहले हिस्से के विपरीत है। जो विनम्र हैं, वे सम्मान को प्राप्त होंगे। तो जो सम्मान पाना चाहते हैं, वे विनम्र होने की कोशिश शुरू करें।
निश्चित ही, हमारे अहंकार से भरे समाज में जिसे भी सम्मान चाहिए, उसे विनम्र होना चाहिए। नहीं तो सम्मान नहीं मिलेगा। हम उसी को सम्मान देते हैं, जो विनम्र हो जाए। और बड़े मजे की बात है कि हमें इसका खयाल नहीं कि वह इसीलिए विनम्र हो रहा है कि सम्मान मिले। सम्मान की आकांक्षा अगर विनम्र बना दे, हाथ जोड़ कर, सिर झुका कर खड़ा करवा दे...। राजनीतिक नेतागण द्वार-द्वार खड़े रहते हैं। उनकी विनम्रता गहन अहंकार की तृप्ति की दौड़ है।
तो एक तो विनम्रता ऐसी है, जिसे विनम्रता की पवित्रता का, श्रेष्ठता का बोध है। दूसरी विनम्रता की लाओत्से बात कर रहा है। दूसरी विनम्रता ऐसी है, जिसे अपनी पवित्रता का, अपनी श्रेष्ठता का, अपनी साधुता का भी कोई पता नहीं। इसलिए लाओत्से ने प्रतीक उपयोग किया है: मटमैले जल की भांति, मडी वाटर। कहीं भी बह रहा है, किसी भी जमीन पर, मिट्टी से भरा हुआ। कोई बोध नहीं है पवित्रता का, श्रेष्ठता का, गंगाजल का। संत को अगर बोध हो कि मैं संत हूं, तो वह संत नहीं रहा।
लेकिन यहीं तरकीब है। तो आप संत के पास जाएं और उससे कहें कि आप बहुत बड़े महात्मा हैं, तो वह कहेगा: नहीं, मैं तो आपके पैरों की धूल हूं। उसको भी पता है। खेल के नियम सभी को पता हैं। आपको भी पता है कि संत अगर खुद कहे कि हां, मैं संत हूं, तो कहेंगे: क्या संत रहा! उसे भी पता है कि अगर मैं कहूं कि हां, मैं संत हूं, तो यह आदमी दुबारा नहीं आएगा। वह कहता है: मैं संत? मैं कहां! मुझ सा पापी तो है ही नहीं। जो मैं खोजने निकला, तो मुझ सा पापी मैंने कोई भी नहीं पाया। तब आप चरण छूकर घर लौटते हैं कि संत उपलब्ध हुआ।
लेकिन ये एक ही खेल के दो हिस्से हो सकते हैं।
लाओत्से का संत यह भी नहीं कहेगा कि मैं सबसे भला हूं और यह भी नहीं कहेगा कि मैं सबसे बुरा हूं। क्योंकि ये दोनों ही अहंकार की घोषणाएं हैं। लाओत्से का संत अघोषित रहेगा। वह कुछ भी नहीं कहेगा। अपने संबंध में कोई वक्तव्य नहीं देगा। शायद आप उसके पास से बहुत निराश लौटें। क्योंकि दो में से कोई भी बात आपके मन को तृप्ति देती। वह कह देता कि हां, मैं महान संत हूं, तो भी आप कुछ निर्णय करके लौटते। वह कह देता कि मैं तो कुछ भी नहीं, ना-कुछ हूं, नाचीज हूं, तो भी आप कुछ निर्णय लेकर लौटते। लेकिन लाओत्से का संत कुछ भी नहीं कहेगा। क्योंकि लाओत्से कहता है कि स्वयं के बाबत कोई भी बोध विपरीत के कारण होता है। इसलिए कोई बोध नहीं होगा।
लाओत्से से खुद कोई पूछने आया है कि सुना है हमने, आप परम ज्ञानी हैं! लाओत्से सुनता रहा। उस आदमी ने कहा, कुछ कहिएगा नहीं? लाओत्से चुप रहा। और तभी एक और आदमी आया और उसने लाओत्से से कहा कि सुना है हमने कि तुम अज्ञान का प्रसार कर रहे हो! ऐसी बातें कह रहे हो, जिससे जगत भ्रष्ट हो जाए और भटक जाए! लाओत्से सुनता रहा। उस आदमी ने कहा, कुछ कहिएगा नहीं?
लाओत्से ने कहा कि तुम दोनों आपस में बैठ कर तय कर लो। यह आदमी कहता है कि महा ज्ञानी और तुम कहते हो महा अज्ञानी। मुझे कुछ भी पता नहीं। तुम दोनों जानकार हो, तुम दोनों मिल कर तय कर लो। और मुझ पर कृपा करो। मुझे हिसाब के बाहर रखो। तुम दोनों काफी जानकार हो। जिन बातों का मुझे पता नहीं, उनका तुम्हें पता है। तुम निर्णय कर लो। और मुझसे पूछने की कोई जरूरत नहीं है।
यह अघोषित व्यक्तित्व संतत्व है।
अब हम इस सूत्र को समझने की कोशिश करें।
"इस अशुद्धि से भरे संसार में कौन विश्रांति को उपलब्ध होता है? जो ठहर कर अशुद्धियों को बह जाने देता है।'
इस संबंध में बुद्ध की एक कहानी मुझे सदा प्रिय रही है, वह मैं आपसे कहूं। यह सूत्र उस पूरी कथा का शीर्षक है।
"हू कैन फाइंड रिपोज इन ए मडी वर्ल्ड? बाई लाइंग स्टिल इट बिकम्स क्लियर'
बुद्ध एक पहाड़ के पास से गुजरते हैं। धूप है तेज। गर्मी के दिन। उन्हें प्यास लगी। आनंद से उन्होंने कहा, आनंद, तू पीछे लौट कर जा; अभी-अभी हमने एक नाला पार किया है, तू पानी भर ला!
आनंद भिक्षा-पात्र लेकर पीछे गया। कोई दो फर्लांग दूर वह नाला था। जब बुद्ध और आनंद वहां से निकले थे, तो नाला बड़ा स्वच्छ था। जलधार धूप में मोतियों जैसी चमकती थी। छिछला था नाला; कंकड़-पत्थरों पर शोर-गुल की आवाज करता बहता था। पहाड़ी नाला था; स्वच्छ, ताजा जल उसमें था। लेकिन जब आनंद वापस पहुंचा, तो देखा कि कुछ बैलगाड़ियां उसके सामने ही उसमें से गुजर रही हैं और नाला गंदा हो गया। धूल और कीचड़ ऊपर उठ आई। सूखे पत्ते दबे जो जमीन में पड़े थे, वे फैल गए। सारा पानी गंदा हो गया; पीने योग्य न रहा।
आनंद वापस लौटा। आनंद के मन में हुआ: बुद्ध इतने महा ज्ञानी हैं, उन्हें यह भी पता न चला कि जब मैं जाऊंगा, तो दो गाड़ियां वहां से निकल जाएंगी, सब पानी गंदा हो जाएगा! आनंद वापस लौटा और उसने बुद्ध से कहा कि वह पानी गंदा हो गया है। गाड़ियां उस पर से गुजर गईं। अब वह पीने योग्य नहीं है। तो मैं आगे जाता हूं। तीन मील दूर आगे नदी है; वहां से पानी ले आऊं। बुद्ध ने कहा कि नहीं, पानी तो उसी नाले का मुझे पीना है। तू वापस जा! आनंद को बड़ी कठिनाई हुई कि पहले तो समझ लो कि न जानते हुए बुद्ध ने भेजा था; अब जान कर! आनंद को ठिठकते देख कर बुद्ध ने कहा, तू जा भी!
आनंद फिर गया। लेकिन उस पानी को पीने के योग्य माना नहीं जा सकता था। पानी बिलकुल गंदा था। आनंद बड़ी मुश्किल में पड़ा। उस गंदे पानी को बुद्ध के पीने के लिए लाए भी कैसे? फिर वापस लौटा; बुद्ध से कहा, क्षमा करें, वह पानी लाने योग्य बिलकुल नहीं है। बुद्ध ने कहा, तू एक बार और मेरी मान और जा! आनंद का मन हुआ कि इनकार कर दे। लेकिन बुद्ध ने इतने अनुनय के स्वर से कहा कि वह फिर वापस लौटा। जाते वक्त बुद्ध ने उससे कहा, आनंद, और अब लौटना मत। किनारे पर बैठ रहना। जब तक पानी तुझे पीने योग्य न लगे, तब तक बैठे रहना।
आनंद गया। किनारे पर बैठ गया। बैठ कर देखता रहा, देखता रहा, देखता रहा। थोड़ी देर में सूखे पत्ते बह गए, मिट्टी के कण नीचे बैठ गए, धूल हट गई। पानी पुनः स्वच्छ हो गया। पानी भर कर आनंद नाचता हुआ लौटा। बुद्ध के चरणों में गिर कर उसने कहा कि तुम्हारी अनुकंपा अपार है! क्या तुमने मुझे उस पानी की धार से कुछ संदेश दिया? मैं नासमझ क्या-क्या सोचता रहा! मुझे समझ आ गया उस नदी के, उस झरने के किनारे बैठ कर कि यह मन भी ऐसा ही गंदगी से भरा है। क्या मन के किनारे भी हम ऐसे ही बैठ कर प्रतीक्षा करें, तो यह गंदगी बह जाएगी?
बुद्ध ने कहा, इसीलिए तुझे तीन बार मुझे वापस भेजना पड़ा।
लाओत्से का सूत्र उसका शीर्षक है। हू कैन फाइंड रिपोज इन ए मडी वर्ल्ड? इस मटमैली, गंदी दुनिया में, कीचड़ से भरी दुनिया में, कौन पा सकेगा विश्रांति? बाई लाइंग स्टिल इट बिकम्स क्लियर। कुछ और करने की जरूरत नहीं है। इस संसार में प्रतीक्षा से शांत होकर बैठ जाना काफी है। सब स्वच्छ हो जाता है अपने से।
आनंद से बुद्ध ने बाद में पूछा कि आनंद, तुझे कभी ऐसा उस झरने के किनारे नहीं हुआ कि कूद पडूं और साफ कर दूं? आनंद ने कहा, हुआ ही नहीं, मैंने किया भी। लेकिन पानी और भी गंदा हो गया था।
मन के साथ हम भी सब यही करते हैं। कूद कर साफ करने की कोशिश करते हैं। जबर्दस्ती मन को साफ करने की कोशिश करते हैं। हमारी जबर्दस्ती, हमारा झरने में उतर जाना पानी को और गंदा कर जाता है।
इसलिए तथाकथित धार्मिक आदमी जो मंदिरों में बैठ कर ध्यान और पूजा और प्रार्थना करते रहते हैं, कहीं उनके मन में झांकने का आपको अवसर मिले, तो आपको पता चले कि वे मंदिर में जरूर बैठे हैं, मंदिर से उनके मन का कोई भी संबंध नहीं है। मन उनका इतनी गंदगी से इतना भर गया है जितना कि दुकान पर बैठ कर भी नहीं भरता। क्योंकि दुकान पर भी एक एकाग्रता रहती है धन पर, मंदिर में उतनी एकाग्रता भी नहीं रह जाती। और क्यों नहीं रह जाती?
सभी को यह अनुभव हुआ होगा, जो भी मन को शांत करने की कोशिश करेगा, उसे पता चला होगा कि शांत करने जाओ, तो और अशांत हो जाता है। क्योंकि शांत करने जाएगा कौन? आप अशांत हैं और आप शांत करने जा रहे हैं! तो अशांति दुगुनी हो जाएगी। बहुगुनी भी हो सकती है। तो अगर कोई बहुत ज्यादा शांत करने की कोशिश करे, तो पहले अशांत था, पीछे विक्षिप्त हो सकता है। फिर रास्ता क्या है?
लाओत्से का रास्ता खयाल में रखने जैसा है। यह परम मार्ग है। लाओत्से कहता है, मन की धारा के पास चुपचाप बैठ जाएं, लाइंग स्टिल, लेट जाएं। बहने दें धार को, होने दें गंदगी; मटमैली है धार, रहने दें। शांत बैठ जाएं, सिर्फ प्रतीक्षा करें। और कुछ न करें। कोशिश न करें शांत करने की।
कौन आदमी इस जगत में शांति को उपलब्ध हो सकता है? वही जो अशांति को मिटाने की चेष्टा से बचे। यह बहुत अजीब लगेगा--जो अशांति को मिटाने की चेष्टा से बचे। क्योंकि सब अशांति हमारी चेष्टाओं का फल है। और अब हम शांत होने की भी चेष्टा करें, तो हम और गहन अशांति पैदा कर लेंगे।
बोकोजू अपने गुरु के पास गया। गुरु से उसने जाकर कहा कि मेरा मन बड़ा अशांत है, मुझे शांत करने का उपाय दें। क्या मैं ध्यान करूं? क्या मैं उपवास करूं? क्या मैं तप करूं? उसके गुरु ने कहा, तू इतना कर-करके अभी करने से थका नहीं? तू जिंदगी भर करता ही रहा। उस करने का ही यह तेरी अशांति फल है। और अभी भी तू करने को उत्सुक है! तो फिर मेरे दरवाजे के भीतर मत आना। क्योंकि यह न करने वालों का घर है। अगर तू यहां न करने को राजी हो, तो भीतर आ; अन्यथा अभी और भटक!
बोकोजू की कुछ समझ में नहीं पड़ा। उसने कहा, अशांति बहुत है। आपको पता नहीं मेरी पीड़ा का। इसे शांत करना ही है। उसके गुरु ने कहा, यह तेरा कहना कि इसे शांत करना ही है, और दोहरी अशांति को जन्म दे रहा है। तू कुछ मत कर; तू यहां रह! तू सिर्फ मेरे पास बैठ!
बोकोजू एक साल तक अपने गुरु के पास बैठता था। दो, चार, आठ दिन में पूछता था कि अब कुछ बताएं करने को! क्योंकि बिना किए मन मानता नहीं। कुछ तो करवाएं। कोई मूढ़तापूर्ण कृत्य भी दे दें कि चलो, माला ही फेरो। तो कुछ तो करवाएं! कोई मंत्र, कोई नाम, कुछ तो पकड़ा दें कि मैं लगा रहूं। बोकोजू का गुरु कहता है कि तू काफी कर चुका। अब कुछ दिन कुछ भी नहीं करना है। महीना, पंद्रह दिन बीतता है कि बेचैनी बढ़ जाती है उसकी। कहता है, कुछ! क्या मैं पात्र नहीं हूं? क्या अपात्र हूं? आप मुझे कुछ बताते क्यों नहीं? गुरु कहता है, तू बस बैठ!
जापान में एक शब्द है झाझेन, जिसका मतलब होता है जस्ट सिटिंग, सिर्फ बैठ। तो गुरु बस उससे, साल में जब भी वह पूछता है, गुरु इतना ही कहता है, झाझेन, तू बैठ। तू कुछ और मत कर!
सिर पच गया। कुछ बताता नहीं है यह आदमी। और बोकोजू को बैठना पड़ा, बैठना पड़ा, बैठना पड़ा। फिर उसने पूछना भी छोड़ दिया, कि इस आदमी से पूछना भी क्या!
लेकिन बैठे-बैठे इस आदमी से, इसके पास, इसकी सन्निधि में, ऐसा लगाव भी बन गया कि अब छोड़ कर जाना भी न हो। इसके पास बैठे-बैठे कुछ चीजें जुड़ गईं भीतर कि अब इस घर के बाहर जाना भी न हो। आखिर जिस दिन चीजें जुड़ गईं भीतर, तो बोकोजू के गुरु ने कहा कि अब अगर तूने पूछा कि कुछ बताओ, तो दरवाजे के बाहर निकलने का ही एकमात्र कर्म बचा है। निकाल दूंगा बाहर। अब तू पूछना मत! जिस दिन बोकोजू के गुरु को लगा कि अब वह जगह आ गई, जहां से यह अब भाग भी नहीं सकता, बैठना ही पड़ेगा। और बैठ भी नहीं सकता; क्योंकि मन भीतर कहता है: कुछ करो, कोई व्यस्तता, कोई आक्युपेशन, कहीं तो उलझे रहो। कुछ तो करने को चाहिए।
कहावत है, हमने सुनी है कि खाली मन शैतान का कारखाना हो जाता है। बात गलत है। शैतान के कारखाने आप हैं। खाली में आपको पता चलता है। खाली की वजह से कोई शैतान का कारखाना नहीं बनता, शैतान के आप पूरे कारखाने हैं। लेकिन फैक्टरी इतने दिनों से चल रही है कि उसके शोरगुल का पता नहीं चलता। जब बंद होती है, तब पता चलता है।
मुश्किल में पड़ गया बोकोजू। लेकिन अब जा भी नहीं सकता, कुछ कर भी नहीं सकता, बैठा है, बैठा है, बैठा है। और ठीक वही घटना घटी, जो आनंद को उस झरने के किनारे घटी। साल पूरा होते-होते, बैठते-बैठते, बैठे-बैठे-बैठे वही-वही विचार कितनी बार सोचे? कोई उपाय नहीं। वे धीरे-धीरे विचार भी बासे पड़ गए। उनसे भी ऊब होने लगी। वे विचार भी धीरे-धीरे बह गए। मन शांत हो गया।
एक दिन बोकोजू के गुरु ने कहा कि अब अगर तेरा इरादा हो, तो कुछ करने को बताऊं। उसने गुरु के चरण छुए और कहा कि बड़ी मुश्किल से करने से छूटा हूं। अब कृपा करिए। अब भूल कर भी कुछ करने को मत बताइए। बोकोजू के गुरु ने कहा, शांत नहीं होना है? बोकोजू ने कहा कि अब मैं समझ गया, अब मेरा मजाक मत करें। होने की कोशिश ही, कुछ भी होने की कोशिश अशांति है।
होने की कोशिश ही, टु बी समथिंग, होने की कोशिश ही अशांति है। इसलिए शांत होने की कोई कोशिश जगत में नहीं हो सकती। अगर होने की कोशिश ही अशांति है, तो शांत होने की कोई कोशिश जगत में नहीं हो सकती। फिर शांत होने का एक ही मतलब हुआ कि होने की सब कोशिश छूट गई हो, तो जो शेष रह जाता है, वह शांति है।
लाओत्से कहता है, इस अशुद्धि और अशांति से भरे संसार में कौन विश्रांति को उपलब्ध होता है? जो ठहर कर, अपने में रुक कर, अपने में थिर होकर अशुद्धियों को बह जाने देता है।
लड़ना मत भीतर की अशुद्धियों से। लेकिन समस्त धर्म, जैसा हम समझते हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि कहता है लड़ो। लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि धर्म को जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने नहीं कहा कि लड़ो। क्योंकि लड़ कर कोई भी शांत नहीं हो सकता। और शांत हुए बिना कोई धार्मिक नहीं हो सकता। इसलिए कुछ वक्तव्य तो धार्मिक लोगों के इतने, इतने क्रांतिकारी हैं कि हम उन्हें पचा भी नहीं पाते।
जीसस ने कहा है, रेसिस्ट नॉट ईविल--बुराई से मत लड़ना। ईसाइयत अभी तक नहीं पचा पाई--दो हजार साल होते हैं। कोई ईसाई चिंतक ठीक से यह बात नहीं कह पाया कि जीसस का क्या...। क्या कहते हैं जीसस, बुराई से मत लड़ो? तो क्रोध से न लड़ें? तो यौन से न लड़ें? तो लोभ से न लड़ें? ये शत्रु!
मेरे पास लोग आते हैं और वे कहते हैं, इन चार शत्रुओं से छूटने का कोई उपाय बताएं। ये काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, ये चार शत्रु। इनसे छूटने का कोई उपाय बताएं। कैसे इनको नष्ट करें? और जीसस कहते हैं, रेसिस्ट नॉट ईविल, बुराई से लड़ना मत। लाओत्से कहता है, ठहर जाना, बुराई को बह जाने देना। लड़े कि हारे। अगर जीतना हो, तो लड़ना ही मत।
लेकिन तथाकथित सतही धार्मिक चिंतन लोगों से कहता है कि दूसरे से भला मत लड़ो, लेकिन अपने से तो लड़ना ही पड़ेगा। लियो टाल्सटाय ने अपनी डायरी में लिखा है कि हे परमात्मा, दूसरों को मैं क्षमा कर सकूं, ऐसा मुझे बल दे; और अपने को कभी क्षमा न कर सकूं, ऐसा भी। यह सामान्य धार्मिक आदमी की बुद्धि है। दूसरे से तो नहीं लडूं, लेकिन अपने से तो लड़ना ही पड़ेगा।
और जो लड़ेगा, वह आनंद की तरह धार में उतर गया झरने की। और गंदी हो जाएगी धार। इसलिए तथाकथित धार्मिक आदमियों के पास जैसी गंदी बुद्धि हो जाती है, वैसी गंदी बुद्धि अपराधियों के पास भी खोजनी मुश्किल है। सब तरफ उन्हें गंदगी का प्रोजेक्शन, गंदगी का विस्तार दिखाई पड़ने लगता है। कहीं भी, जहां उनकी आंख जाती है, वहीं उन्हें कुछ गंदगी दिखाई पड़ने लगती है। वह गंदगी उनके भीतर इकट्ठी हो गई है। और अब इतनी इकट्ठी हो गई है कि उसने बाहर भी विस्तार लेना शुरू कर दिया है।
एक फ्रेंच चित्रकार खजुराहो देखने आया था। उन दिनों मेरे एक परिचित मित्र विंध्य प्रदेश में मंत्री थे। उन मित्र को जिम्मा मिला कि वे उस चित्रकार को जाकर खजुराहो की मूर्तियां दिखा दें। वे दिखाने गए। वे बहुत घबड़ाए हुए थे; धार्मिक आदमी हैं। धार्मिक आदमी से मतलब रोज सुबह पूजा करते हैं, जनेऊ पहनते हैं, गीता-रामायण पढ़ते हैं, मंदिर जाते हैं, तिलक-टीका लगाते हैं। सब तरह से धार्मिक हैं। वे बड़े घबड़ाए कि अब ये खजुराहो की नग्न मूर्तियां, यौन भित्ति-चित्र संभोग और मैथुन के, बड़ी मुसीबत हुई। और यह परदेशी क्या सोचेगा कि ये भारतीय कैसे गंदे हैं! ये भी कोई चित्र बनाने का है और वह भी मंदिर के चारों तरफ? मगर मजबूरी थी, दिखाना जरूरी था। आदमी प्रतिष्ठित था और उसे मिनिस्टर से कम हैसियत का आदमी दिखाने ले जाए, यह उचित भी न था। राम-राम करके वे उसके साथ गए।
मुझे कहते थे कि मैं पूरे वक्त मन में यही कहता रहा कि हे भगवान, यह यह न पूछे कि ये अश्लील, ये नग्न चित्र किसलिए बनाए हैं? किसी तरह जल्दी उन्होंने घुमाने की कोशिश की। और वह चित्रकार एक-एक मूर्ति के पास घंटों ठहरा। और वे परेशान हों कि अब चलिए भी। और वे नीचे नजर रखें कि कहीं दिखाई न पड़ जाएं। पूरी यात्रा किसी तरह समाप्त हो गई। उस चित्रकार ने पूछा नहीं। सीढ़ियों पर उनसे ही नहीं रहा गया लौटते वक्त, मिनिस्टर से न रहा गया, उन्होंने कहा कि एक बात आपसे निवेदन कर दूं कि यह मंदिर कोई हमारी भारतीय परंपरा का केंद्रीय हिस्सा नहीं है। इससे आप हमारी संस्कृति के संबंध में कुछ मत सोच लेना। यह किसी विक्षिप्त मस्तिष्क, खराब बुंदेला सम्राट की करतूत है। यह कोई भारतीय संस्कृति का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। अश्लील हैं चित्र, हम जानते हैं। और हमारा वश चले तो इन मंदिरों पर मिट्टी पुतवा दें।
उस चित्रकार ने क्या कहा? उस चित्रकार ने कहा, मुझे फिर से भीतर जाना पड़ेगा; क्योंकि अश्लीलता मुझे कहीं दिखाई नहीं पड़ी। मुझे भीतर ले चलें! मुझे भीतर ले चलें, मुझे दुबारा देखना पड़ेगा; क्योंकि अश्लीलता मुझे कहीं दिखाई नहीं पड़ी। मैंने इतने सुंदर और इतने कलात्मक और इतने सहज और इतने निर्दोष चित्र कहीं देखे ही नहीं।
कौन आदमी धार्मिक है? ये रोज पूजा-प्रार्थना करते हैं। और कैसी धार्मिकता है? इस आदमी ने शायद पूजा-प्रार्थना कभी न की हो, पर इसे मैं धार्मिक कहूंगा। इसके पास एक कचरे से भरा हुआ मस्तिष्क नहीं है। चीजों को सीधा देख पाता है; बीच में कुछ अपनी धारणाओं को नहीं रखता।
जब आपको कोई मूर्ति अश्लील मालूम पड़ती है, तो भीतर खोजना। आपके भीतर कामवासना जोर मार रही होगी; उसकी वजह से मूर्ति अश्लील मालूम पड़ती है। अगर कोई नग्न आदमी खड़ा हो और आपको लगे कि गंदा है, अश्लील है, तो जरा भीतर झांक कर देखना। नग्न आदमी को देखने की इच्छा, वासना ही भीतर कारण है। अन्यथा कोई सवाल नहीं है। अगर कोई व्यक्ति भीतर की बुराइयों से लड़ेगा, तो इस विक्षिप्तता में उतर जाएगा, परवर्शन में।
तीन स्थितियां हैं चित्त की। एक को हम कहें भोग। भोग नैसर्गिक स्थिति है। जो भोग को दबाएगा और लड़ेगा, वह भोग से भी नीचे गिर जाता है। उसको मैं कहता हूं रोग। और जो भोग को बह जाने देगा, वह भोग से ऊपर उठ जाता है। उसे मैं कहता हूं योग। रोग, भोग, योग। भोग नैसर्गिक है। भोग को जिसने विकृत किया, वह रोग की दुनिया में प्रवेश कर जाता है। भोग को जिसने बह जाने दिया सहजता से, स्वीकार से, संघर्ष के बिना--मिट्टी बैठ जाती है, पत्ते बह जाते हैं, गंदगी हट जाती है। योग उपलब्ध होता है।
इस योग की तरफ इशारा है लाओत्से का।
"कौन अपनी समता और शांति को सतत बनाए रख सकता है? जो प्रत्येक सक्रियता के बाद सहज ही घटित होने वाले विश्राम के राज को जान लेता है।'
हू कैन मेनटेन हिज काम फॉर लांग? वक्तव्य को ठीक से समझना पड़े। बाई एक्टिविटी इट कम्स बैक टु लाइफ रेस्ट। कौन अपनी समता और शांति को सदा बनाए रख सकता है? शांति सभी को मिलती है कभी-कभी। और समता भी सभी को आती है कभी-कभी। सतत कौन बनाए रख सकता है?
तो दो उपाय हैं। एक उपाय तो है कि आदमी बिलकुल मर जाए, मरा हुआ हो जाए। अशांत होने की भी ताकत न रहे। कुछ लोग इसकी कोशिश करते हैं। अगर मन में वासना उठती है, तो भोजन इतना कम कर दो कि शरीर में शक्ति न रहे कि वासना निर्मित हो। न होगी शक्ति, न उठेगी वासना। लेकिन शक्ति का न होना वासना का न होना नहीं है। वासना प्रतीक्षा करेगी। जब भी शक्ति होगी, तब प्रकट हो जाएगी। और अगर प्रकट होने का मौका भी न दिया, तो छुटकारा नहीं है, मौजूद ही रहेगी। बीज की तरह जमी रहेगी।
अमरीका में उन्होंने एक प्रयोग किया एक विश्वविद्यालय में। तीस विद्यार्थियों को एक महीने तक भूखा रखा। पांच-सात दिन की भूख के बाद कामवासना क्षीण होने लगी। नग्न तस्वीरें रखी रहें, अश्लील चित्र प्रदर्शित किया जाए, कोई आकर्षण नहीं। नग्न से नग्न चित्र रखे हैं सुंदर से सुंदर स्त्रियों के, कोई उठा कर भी नहीं देखता। पंद्रह दिन के बाद कितनी ही काम की चर्चा करो, कोई रस नहीं लेता। तीस दिन में ऐसा लगा कि वासना बिलकुल तिरोहित हो गई। क्योंकि शक्ति चाहिए, अतिरिक्त शक्ति चाहिए वासना के लिए।
तीस दिन के बाद भोजन दिया। पहले दिन के भोजन के बाद ही रस वापस लौटने लगा। तीन दिन के भोजन के बाद वे चित्र फिर सुंदर हो गए, आकर्षक हो गए। फिर चर्चाएं और मजाक और इशारे और कामवासना की दौड़ शुरू हो गई। अगर इनको जीवन भर उस तल पर रखा जाए, जहां कि ऊर्जा ज्यादा पैदा न हो, तो इनको वहम होगा कि इनके भीतर से वासना मर गई।
अनेक साधु-संत यही करते रहते हैं। वासना मिटती नहीं, केवल शक्ति की अभिव्यक्ति न होने से छिप जाती है।
लाओत्से कहता है, इस भांति अगर कोई अपने को समता में रखना चाहे, तो वह समता नहीं, मृत्यु है। शांति नहीं, मरघट का सन्नाटा है। शांति एक जीवित घटना है, सन्नाटा एक मृत। मरघट पर भी शांति होती है। अगर वैसी ही शांति चाहिए, तो अपने को सिकोड़ना पड़े और नष्ट करना पड़े। उससे कोई आनंद को उपलब्ध नहीं होता। उससे सिर्फ गहरी उदासी में डूब जाता है--इतनी उदासी में जहां जीवन अपने पंख सिकोड़ लेता है और यात्रा बंद कर देता है।
अक्सर साधु-संत दिखाई पड़ते हैं--मुर्दा, सूख गए, रस की धार खो गई। बस इतना ही जीवन बचा है कि चल लेते हैं, फिर लेते हैं। फिर हमें लगता है कि बड़ी ऊंची स्थिति पा ली। यह स्थिति भ्रांत है। जरूर एक ऊंची स्थिति है; लेकिन वह मृतवत नहीं, और भी जीवंत है। उसका राज क्या है?
लाओत्से कहता है, उसका राज यह है। सक्रियता तो आएगी जीवन में, सक्रियता जरूरी है। जीवन का अर्थ सक्रियता है। लेकिन जो व्यक्ति इस राज को समझ लेता है कि सक्रियता भी विश्राम का द्वार है, बल्कि सक्रियता ही विश्राम की जन्मदात्री है। और जो यह समझ लेता है कि सक्रियता विश्राम के विपरीत नहीं, विश्रांति का मार्ग है, वह सदा समता को उपलब्ध हो जाता है।
इसे हम ऐसा समझें। अगर मैं दूकान पर बैठता हूं, तो क्रोध आ जाता है, लोभ आ जाता है। तो दो रास्ते हैं। दूकान छोड़ दूं। तो न होगी दूकान, न होगा क्रोध, न लोभ। पत्नी के साथ रहता हूं, तो कलह हो जाती है,र् ईष्या आ जाती है। छोड़ दूं पत्नी को। न होगीर् ईष्या, न कलह। ऐसे हटता जाऊं सब जगह से। जहां-जहां मुझे लगता हो कि गड़बड़ हो जाती है, वहां से हट जाऊं। लेकिन मैं तो मैं ही रहूंगा। चाहे दूकान से हटूं, हिमालय चला जाऊं; चाहे पत्नी को छोडूं, आश्रम में बैठ जाऊं; मैं तो मैं ही रहूंगा।
यह जो आदमी परिस्थितियों से हट रहा है, यह आदमी अपने को बदल नहीं रहा है। अपने को तो वैसा ही बचाए हुए है। यह भी हो सकता था कि विपरीत परिस्थितियां बनी रहतीं, तो शायद इसे कभी अपने को बदलना पड़ता। अब वह भी जरूरत न रहेगी। क्रोध आता ही रहता, तो एक न एक दिन इसको लगता कि क्रोध पागलपन है। अब इसने क्रोध की परिस्थिति से ही अपने को हटा लिया। कलह होती ही रहती, तो एक दिन आदमी कलह से भी ऊब जाता और ऊपर उठता। इसने कलह से अपने को हटा लिया।
यह सब तरफ से अपने को हटा ले सकता है। लेकिन यह क्रांति नहीं है, रूपांतरण नहीं है। यह आदमी वही है। सिर्फ परिस्थितियां इसने क्षीण कर दीं। इसमें कोई गहन अनुभव उपलब्ध नहीं होने वाला है।
लाओत्से कहता है कि दूकान है, तो दूकान पर रहो; बाजार है, तो बाजार; और घर है, तो घर। परिस्थितियों से भागो मत। और क्रिया से हटो मत। करते ही रहो क्रिया। और ध्यान रखो कि क्रिया विश्राम के विपरीत नहीं है, बल्कि ठीक से जो क्रिया करे, वह उतने ही ठीक से विश्राम में प्रवेश करता है।
यह लाओत्से के बुनियादी साधना के सूत्रों में से एक है। इसे थोड़ा हम समझ लें।
मैं सोच सकता हूं कि रात मुझे नींद नहीं आती, तो मैं दिन भर भी सोया रहूं, ताकि रात अच्छी नींद आ सके। तो मैं दिन भर लेटा रहूं। यह तर्कयुक्त मालूम पड़ता है कि रात नींद नहीं आती, दिन भर भी लेट कर विश्राम करो। जितना ज्यादा विश्राम का अभ्यास करोगे, रात उतना ही ज्यादा विश्राम आएगा। लेकिन जो दिन भर लेटा रहेगा, रात नींद बिलकुल असंभव हो जाएगी। क्योंकि तर्क एक बात और जीवन बिलकुल दूसरी बात है। और जीवन तर्क को मान कर नहीं चलता। तर्क को जीवन को मान कर चलना हो तो चले, जीवन किसी तर्क को मान कर नहीं चलता है। जीवन की अपनी व्यवस्था है।
और जीवन की व्यवस्था द्वंद्व की व्यवस्था है, डायलेक्टिकल है। जो आदमी दिन में खूब सक्रिय होगा, श्रम करेगा, दौड़ेगा, पत्थर तोड़ेगा, वह आदमी रात गहरी नींद में प्रवेश करेगा। क्योंकि जो जितना सक्रिय होगा, उसकी सक्रियता उतनी ही आयोजना कर देगी भीतर कि वह निष्क्रिय भी हो सके। जो एक छोर को छू लेगा द्वंद्व के, वह दूसरे छोर में अपने आप डोल जाएगा घड़ी के पेंडुलम की तरह। बाएं छू लिया, दाएं चला जाएगा। और जो आदमी रात ठीक से विश्राम कर लेगा और गहरी निद्रा में उतरेगा, तो आप यह मत समझना कि दूसरे दिन वह फिर दिन भर सोया रहेगा। जितनी गहरी नींद होगी, उतनी ही ताजगी से भरा हुआ सुबह वह उठेगा। और जितना गहरा विश्राम लिया होगा, उतने ही श्रम की क्षमता पुनः उपलब्ध हो जाएगी। इसे हम दो-चार तरफ से समझें, तो खयाल में आए।
एक आदमी सोचता है कि अगर मुझे मौन होना है, तो मुझे बिलकुल बोलना बंद कर देना चाहिए। जो आदमी ऐसा सोचता है, वह जीवन के द्वंद्व को नहीं जानता। अगर वह बिलकुल बोलना बंद कर देगा, तो वह चौबीस घंटे भीतर बोलता रहेगा। वह कभी मौन को उपलब्ध होने वाला नहीं है। मौन को तो वही उपलब्ध हो सकता है, जो जब बोलता हो तो इतनी प्रामाणिकता से बोलता हो कि सारे प्राण उसमें समाविष्ट हो जाएं, कुछ बचे न भीतर, सारी आत्मा बोलने लगे। वह आदमी जब बोलना बंद करेगा, परिपूर्ण मौन में प्रवेश कर जाएगा। जीवन द्वंद्व का नियम है। अगर आप पूरी आथेंटिसिटी से, पूरी प्रामाणिकता से बोल सकते हैं, अपने सारे प्राणों को बोलने में उंडेल दे सकते हैं, तो आप तत्क्षण, बोलना बंद होगा कि विश्राम में, मौन में प्रवेश कर जाएंगे।
लेकिन हम सोचते हैं कि अगर मौन चाहिए, तो बोलना बिलकुल बंद कर दो। अगर रात में नींद चाहिए, तो दिन में श्रम बिलकुल बंद कर दो। अगर शांति चाहिए, तो अशांति के सब स्थानों से हट जाओ।
नहीं; शांति चाहिए, जो अशांति के स्थान में पूरी तरह मौजूद हो जाओ, पूरे उपस्थित हो जाओ। भागने की कोई जरूरत नहीं है। जितनी पूर्ण उपस्थिति होगी वहां, उतनी ही शांति की तरफ यात्रा हो जाएगी।
इसलिए लाओत्से कहता है, रहस्य को समझो। हू कैन मेनटेन हिज काम फॉर लांग? लंबे समय तक कौन रह सकेगा शांत? कौन रह सकेगा समता में? बाई एक्टिविटी! उलटी बात कहते हैं।
मेरे साथ एक प्रोफेसर लाओत्से की इस किताब का, ताओ तेह किंग का अध्ययन करते थे। एक दिन उन्होंने मुझे आकर कहा कि मालूम होता है कुछ गलत छप गया है। उन्होंने कहा कि मालूम होता है बाई इन-एक्टिविटी होना चाहिए था, बाई एक्टिविटी छप गया है। उनका लगना ठीक था। क्योंकि अगर हम वचन को फिर से पढ़ें: हू कैन मेनटेन हिज काम फॉर लांग? बाई इन-एक्टिविटी। ठीक मालूम पड़ेगा। कौन रह सकता है सदा समता में? जो निष्क्रिय हो जाए। लेकिन लाओत्से कहता है कि नहीं, जो सक्रिय हो।
लेकिन सिर्फ सक्रिय होने से नहीं होगा। सक्रिय तो हम सब हैं। कौन सक्रिय नहीं है? सिर्फ सक्रिय होने से नहीं होगा। इसलिए दूसरी शर्त है, यह भी जानें, इट कम्स बैक टु रेस्ट। यह भी जानें कि सब सक्रियता अनिवार्यतया विश्राम में आ जाती है। सब सक्रियताएं अंततः निष्क्रिय हो जाती हैं। इस सत्य को जान कर जो सक्रिय रहे, वह पूर्ण समता को, सदा समता को उपलब्ध हो जाएगा।
अगर बिलकुल ठहरना हो, तो पूरा दौड़ना आना चाहिए। अगर परम शून्य में प्रवेश करना हो, परम शून्य में ठहर जाना हो, तो पूर्ण दौड़ आनी चाहिए। जो पूरा दौड़ेगा, वह एक क्षण पूर्ण रूप से ठहर जाएगा।
हम सब की तकलीफ यह है कि हमारी पूरी जिंदगी कुनकुनी है, ल्यूकवार्म है। पूरी कहीं भी नहीं है। दौड़ते हैं, तो मरे-मरे। इसलिए जब ठहरते हैं, तब भी पैर चलते रहते हैं। जागते हैं, तो मरे-मरे। इसलिए जब सोते हैं, तब भी सपने जगाए रखते हैं। भोजन करते हैं, तो मरे-मरे। इसलिए भोजन से उठ जाते हैं, लेकिन मन से भोजन नहीं उठ पाता। जो भी करते हैं, वह इतना अधूरा है कि वह जो आधा शेष रह जाता है, वह पीछा करता है।
लाओत्से कहेगा, जो भी करें, उसे इतने गहरे में करें कि विपरीत अपने आप आना शुरू हो जाए। और जब इस राज को कोई समझ लेता है, तो फिर भागता नहीं। किसी भी चीज से नहीं भागता। सक्रियता से, कर्म के जगत से नहीं भागता।
लाओत्से के लिए संन्यास का वही अर्थ है, जो कृष्ण के लिए है। लाओत्से के लिए संन्यास का यह अर्थ नहीं है कि कोई छोड़ कर जगत को भाग जाए। लाओत्से के लिए संन्यास का वही अर्थ है जो कृष्ण के लिए है कि जो कर्म में अकर्म को उपलब्ध हो जाए; जो करते हुए इस रहस्य को समझे कि मैं न करने में अभी-अभी प्रवेश कर जाऊंगा; कर लूं पूरा, ताकि न करने में भी पूरा उतर जाऊं।
ऐसा व्यक्ति सतत समता में जी सकेगा। उसकी समता को कोई भी तोड़ नहीं सकेगा। कोई तोड़ने का उपाय नहीं है। क्योंकि असमता से वह भागता नहीं है, असमता में भी जीता है। हिमालय पर जो चला गया है, उस आदमी को क्रोधित कर देना बहुत आसान है। हो सकता है, उसे तीस वर्षों से क्रोध न आया हो। लेकिन क्रोधित कर देना बहुत आसान है। लेकिन जो बाजार में बैठ कर शांत हो गया हो, भला तीस ही दिन केवल उसको शांति के उपलब्ध हुए हों, तो भी उसे क्रोधित करना बहुत मुश्किल है। क्योंकि क्रोध की सारी स्थितियां मौजूद हैं, उनके बीच वह शांत हो गया है। जो क्रोध की स्थितियां छोड़ कर शांत हो गया, उसकी शांति धोखा भी हो सकती है। सौ में निन्यानबे मौकों पर होगी। अन्यथा भागने का कोई कारण नहीं था, भयभीत होने का कोई कारण नहीं था।
"अतः जो व्यक्ति ताओ को उपलब्ध होता है, वह हमेशा स्वयं को अति पूर्णता से बचाता है।'
अब यह एक और ताओ का बुनियादी नियम है।
"और चूंकि वह अति पूर्णता से बचा रहता है, इसलिए वह क्षय और पुनर्जीवन के पार चला जाता है।'
पहले सूत्र में लाओत्से ने जो कहा, दूसरे सूत्र में जो कह रहा है, वह विपरीत मालूम पड़ेगा। विपरीत नहीं है।
पहले सूत्र में लाओत्से ने कहा कि किसी भी क्रिया की पूर्णता में प्रवेश कर जाना चाहिए। क्रिया की, ध्यान रखना, किसी भी क्रिया की पूर्णता में प्रवेश करना चाहिए--समग्र, टोटल--तो उस क्रिया के विपरीत जो स्थिति है, वह अपने आप चली आती है। इसे स्मरण रख कर जो जीएगा, वह समता को उपलब्ध हो जाता है। दूसरे सूत्र में लाओत्से कहता है, जो व्यक्ति ताओ को उपलब्ध होता है--धर्म को, स्वभाव को, परमात्मा को--वह हमेशा स्वयं को अति पूर्णता से बचाए रखता है। कर्म में तो पूर्णता होनी चाहिए, लेकिन स्वयं को--दूसरा सूत्र स्वयं के संबंध में है, पहला सूत्र कर्म के संबंध में है। पहले सूत्र के संबंध में लाओत्से कहता है, द्वंद्व है जगत, एक को पूरा करो, अगर पूरा करो, तो विपरीत में प्रवेश हो जाता है। सहज, कोई कठिनाई नहीं है। और जब ये दोनों चीजें सध जाती हैं, तो समता, संतुलन निर्मित होता है। दूसरे सूत्र में कहता है, लेकिन तुम स्वयं पूर्ण बनने के पागलपन में मत पड़ना। क्योंकि अगर स्वयं तुम पूर्ण बनना चाहो, तो जो परिणाम होंगे, वे ये होंगे कि तुम क्षय को उपलब्ध हो जाओगे और फिर-फिर तुम्हें जन्म लेना पड़ेगा।
यह बड़ा अजीब मालूम पड़ता है। क्योंकि साधारणतया हम सभी परफेक्शनिस्ट हैं। सारी दुनिया पूर्णतावादी है। हर आदमी पूर्ण होने की कोशिश में लगा है। लाओत्से कहता है, पूर्ण नहीं होना है, समग्र होना है। अंग्रेजी में दो शब्द हैं, वे हमें खयाल में ले लेने चाहिए। एक शब्द है परफेक्ट और एक शब्द है होल। पूर्ण और समग्र। पूर्ण होने का मतलब है, किसी एक दिशा में शिखर को छू लेना। और समग्र होने का अर्थ है, सभी दिशाओं को संतुलन से स्पर्श कर लेना। ऐसा समझें हम। एक व्यक्ति है। अगर वह ईमानदारी में पूर्ण होना चाहे, पूर्ण ईमानदार होना चाहे, तो उसका जीवन शांत जीवन नहीं होगा। बहुत तनाव से भरा हुआ जीवन हो जाएगा। चौबीस घंटे बेईमानी से लड़ने की ही स्थिति बनी रहेगी। और खींच-खींच कर उसे अपने को शिखर पर रखना पड़ेगा। यह अहंकार होगा, ईमानदार का अहंकार होगा। कठिन भी हो सकता है, कठोर, सख्त भी हो सकता है।
लाओत्से कहता है, ईमानदारी या बेईमानी, बेईमानी में भी पूर्ण होने की जो कोशिश में लगा है वह भी परेशानी में पड़ेगा और ईमानदारी में जो पूर्ण होने की कोशिश में लगा है वह भी परेशानी में पड़ेगा, क्योंकि ईमानदारी और बेईमानी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो अच्छा होने की कोशिश में लगा है वह भी कठिनाई में पड़ेगा, जो बुरा होने की कोशिश में लगा है वह भी कठिनाई में पड़ेगा, क्योंकि दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं। और आप सिक्के का एक हिस्सा बचा रहे हैं और दूसरा फेंकने की कोशिश कर रहे हैं। आप कठिनाई में पड़ेंगे।
लाओत्से कहता है, पूर्ण होने की कोशिश ही मत करना, दोनों द्वंद्वों के बीच में ठहर जाना। न बेईमान बनना और न ईमानदार बनना।
यह बड़ी कठिन बात है। ईमानदार बनना आसान है, बेईमान बनना आसान है, दोनों के बीच ठहर जाना बहुत ही कठिन है। क्यों? क्योंकि हमें दोनों बातें समझ में आती हैं। बेईमान बन जाओ, बिलकुल समझ में आता है। ईमानदार बन जाओ, समझ में आता है। दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। रास्ते साफ मालूम पड़ते हैं।
लाओत्से कहता है, कहीं भी पूर्ण बनने की कोशिश मत करना, बीच में ठहर जाना। ईमानदारी और बेईमानी के, शुभ और अशुभ के, अंधेरे और प्रकाश के, साधुता और असाधुता के बीच में ठहर जाना। क्योंकि जो बीच में ठहर जाएगा, उसके सारे तनाव समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि सब तनाव द्वंद्व से पैदा होते हैं। कर्म में पूरे जाना और स्वयं में हमेशा बीच में ठहर जाना।
यहां लाओत्से और बुद्ध में बड़ा तालमेल है। शायद बुद्ध की बात चीन में इतनी प्रभावी हो सकी, उसका कारण लाओत्से का यह सूत्र था। बुद्ध ने मज्झिम निकाय, दि मिडिल वे की चर्चा की है। और जगत में मज्झिम निकाय के, मध्य मार्ग के बुद्ध सबसे बड़े प्रस्तोता हैं। बुद्ध ने कहा, बीच में! कहीं अति पर मत जाना।
तो बुद्ध के जीवन की एक घटना कहूं, उससे यह खयाल में आ जाए।
बुद्ध के पास एक राजकुमार दीक्षित हुआ, श्रोण। भोगी था बहुत। फिर त्यागी हो गया बहुत। क्योंकि आदत बहुत की थी। इससे कोई अंतर न पड़ता था कि बहुत क्या था। बहुत भोगी था। छोड़ दिया भोग, बहुत त्यागी हो गया। कहते हैं, कभी खाली पैर जमीन पर न चला था। राह से गुजरता था, तो मखमल पहले बिछाई जाती, तब वह गुजरता था। फिर दीक्षित हुआ, साधु हो गया बुद्ध का। तो भिक्षु पगडंडी पर चलते थे, तो वह कंटकित, कांटे से भरे मार्ग पर चलता था। भिक्षु देख कर चलते थे कि रास्ते पर कांटे न हों; वह देख कर चलता था कि कांटे जरूर हों। पैर उसके घावों से भर गए। भिक्षु छाया में बैठते, तो वह धूप में बैठता। भिक्षु एक दिन में एक बार खाते, तो वह दो दिन में एक बार खाता। बहुत!
यह मजा है। भोग मन छोड़ सकता है, त्याग पकड़ सकता है; लेकिन अति नहीं छोड़ सकता। मन अति में जीता है। मन को अति चाहिए। छह महीने में, उसकी बड़ी सुंदर काया थी, सोने जैसा उसका शरीर था, वह सब काला पड़ गया। सारे शरीर पर फफोले हो गए। सारा शरीर जल गया। बुद्ध को अनेक बार और-और भिक्षुओं ने आकर कहा, श्रोण महा तपस्वी है! हम तो उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। बुद्ध हंसते और वे कहते कि तुम्हें पता नहीं, वह महा भोगी रहा, महा तपस्वी होना उसे आसान है।
छह महीने तक बुद्ध ने कुछ भी न कहा। श्रोण अपने को गलाता चला गया, सुखाता चला गया। फिर एक सांझ बुद्ध उसके पास गए। और बुद्ध ने कहा कि श्रोण, मैं कुछ पूछने आया हूं, कुछ बात, जिसकी मुझे कम जानकारी है, लेकिन तुम्हें है, उस संबंध में कुछ जानने आया हूं।
श्रोण चकित हुआ और उसने कहा कि आप और मुझसे जानने आए हैं! क्या?
तो बुद्ध ने कहा, मैंने सुना है कि जब तुम राजकुमार थे, तो तुम बड़े कुशल वीणावादक थे। मैं तुमसे यह पूछने आया हूं कि वीणा के तार अगर बहुत कसे हों, तो संगीत पैदा होता है या नहीं?
तो श्रोण ने कहा, तार बहुत कसे हों, तो टूट जाएंगे; संगीत पैदा नहीं होगा। टूट कर सिर्फ बिखरा हुआ विसंगीत पैदा होगा; संगीत पैदा नहीं होगा। तार टूट जाएंगे।
बुद्ध ने कहा, तो श्रोण, तार अगर बिलकुल ढीले हों, तो संगीत पैदा होता या नहीं?
तो श्रोण ने कहा, आप भी कैसी बातें पूछते हैं! तार ढीले हों, तो चोट ही नहीं पड़ सकती; संगीत कैसे पैदा होगा?
तो बुद्ध ने कहा, संगीत कब पैदा होता है?
तो श्रोण ने कहा कि तारों की एक ऐसी भी अवस्था है, जब न तो हम कह सकते कि वे कसे हैं और न कह सकते कि ढीले हैं। तार एक ऐसी समता में भी खड़े हो जाते हैं जब न कसे होते हैं और न ढीले होते हैं; तभी संगीत पैदा होता है।
तो बुद्ध ने कहा कि मैं तुमसे यही कहने आया हूं कि जो वीणा में संगीत के पैदा होने का नियम है, वही जीवन में भी संगीत के पैदा होने का नियम है। न तो जीवन के तार ढीले हों भोग की तरफ, तो भी संगीत पैदा नहीं होता। और जीवन के तार विपरीत कस जाएं त्याग की तरफ, तो भी संगीत पैदा नहीं होता। जीवन के तारों की भी एक ऐसी अवस्था है श्रोण, जब तार न ढीले होते और न कसे। एक ऐसा क्षण भी है चेतना का, जब न भोग होता और न त्याग; जब न आदमी इस अति में होता और न उस अति में, बीच में ठहर जाता है; तभी जीवन का परम संगीत पैदा होता है। उस परम संगीत का नाम ही समाधि है। तो तूने जो वीणा के साथ सीखा, जीवन के साथ भी कर। देखता हूं कि पहले तेरे तार बहुत ढीले थे, तब संगीत पैदा नहीं हुआ। अब पागल की तरह तार तूने इतने कस लिए हैं कि अब भी संगीत पैदा नहीं हो रहा है।
लाओत्से कहता है, जो ताओ को उपलब्ध होता है, वह हमेशा स्वयं को अति पूर्णता से, टू मच ऑफ परफेक्शन, वह अति पूर्णता से हमेशा अपने को बचाता है। वह सदा मध्य में रह जाता है। न इस तरफ, न उस तरफ--बीच में।
मन है अति। और जहां कोई अति नहीं होती, वहां मन नहीं होता। मन होता है या तो बाएं, या दाएं; मध्य में कभी नहीं। मन या तो होता है राइटिस्ट, या होता है लेफ्टिस्ट; बीच में कभी नहीं। बीच में मन होता ही नहीं।
अगर हम वीणा की ही बात को ठीक से समझें, तो ऐसा कह सकते हैं कि जब तार बिलकुल मध्य में होते हैं, तो तार होते ही नहीं। क्योंकि जब तक तार होगा, तब तक संगीत में बाधा देगा। लोग आमतौर से समझते हैं कि वीणा जब बजती है, तो तार से संगीत पैदा होता है। गलत है बात। तार से संगीत पैदा नहीं होता, तार की समता से संगीत पैदा होता है।
इसलिए वीणा बजाना सीखना तो बहुत आसान है, वीणा को ठीक तार की अवस्था में लाना कठिन है। वीणा तो कोई सिक्खड़ भी बजा सकता है, लेकिन साज को बिठाना बहुत कठिन है। क्योंकि साज को बिठाने का मतलब है कि तार को समता में लाने की कला चाहिए। और जब भी कोई कुशल हाथ तार को समता में ले आता है, तो बड़ा काम तो हो गया। संगीत तो पैदा कर लेना फिर बच्चे भी कर सकते हैं। लेकिन उस तार को समता में ले आना! ध्यान रहे, जब तार बिलकुल सम होता है, तो तार होता ही नहीं, संगीत ही रह जाता है। और तार जब विषम होता है, तो तार ही होता है, संगीत नहीं होता।
मन जब अति में होता है, तो मन होता है। और जब अति खो जाती है, मध्य होता है, तो मन होता ही नहीं। चैतन्य, चेतना, आत्मा ही शेष रह जाती है।
ऐसा जो व्यक्ति है, लाओत्से कहता है, वह क्षय को और पुनर्जीवन को उपलब्ध नहीं होता।
जो इस मध्य में ठहर गया, वह अमृत में ठहर जाता है। दोनों अतियों की मृत्यु है, मध्य की कोई मृत्यु नहीं है। दोनों अतियों पर तनाव है। तनाव है, इसलिए क्षय होगा। तार बहुत कसे हों, तो टूट जाएंगे। और तार बहुत ढीले हों और कोई खींचतान कर संगीत पैदा करने की कोशिश करे, तो भी टूट जाएंगे। तार जितनी समता में होंगे, उतना ही टूटना असंभव है। तनाव नहीं है, तो टूटने का उपाय नहीं है। तनाव ही तोड़ता है।
तो लाओत्से कहता है, "वह क्षय और पुनर्जीवन...।'
क्षय समाप्त हो जाता है। जहां क्षय समाप्त हो गया, वहां मृत्यु असंभव है। मृत्यु समस्त क्षय का जोड़ है। रोज-रोज क्षय होता है; फिर मृत्यु सब का जोड़ है। जो इस भीतर की समता को अनुभव कर लेता है, वह क्षय को भी उपलब्ध नहीं होता, मृत्यु को भी नहीं।
शरीर तो जाएगा; क्योंकि शरीर अतियों में ही जीता है। जन्म एक अति है, मृत्यु दूसरी। मन भी जाएगा; क्योंकि मन भी अति में जीता है। भोग-त्याग, मित्रता-शत्रुता, प्रेम-घृणा, ऐसा ही जीता है; संसार-मोक्ष, ऐसा ही जीता है। वह भी अति में ही जीता है, वह भी जाएगा। लेकिन भीतर एक तीसरी स्थिति भी है, जो समता की है। सम होते ही उसका पता चलता है। उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं है। और जहां मृत्यु नहीं, वहां फिर पुनर्जीवन नहीं है।
लाओत्से बिना आवागमन की बात किए इस सूत्र में कहता है कि आवागमन से छूट जाने का यह उपाय है। दो बातें कही हैं: कर्म में समग्रता, ताकि विपरीत अवस्था में सहज प्रवेश हो; स्वयं में मध्यता, ताकि कोई तनाव पैदा न हो। और जीवन में क्षय और मृत्यु असंभव हो जाएं।

आज इतना ही। पांच मिनट बैठेंगे, कीर्तन में सम्मिलित हों।


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