दिनांक
23 अगस्त, 1971;
प्रथम
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल,
बम्बई
धम्म-सूत्र
: 2 (संयम)
धम्मो
मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा
संजमो तवो।
देवा
वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया
मणो ।।
धर्म
सर्वश्रेष्ठ
मंगल है।
(कौन-सा धर्म?) अहिंसा,
संयम और तपरूप
धर्म। जिस
मनुष्य का मन
उक्त धर्म में
सदा संलग्न
रहता है, उसे
देवता भी
नमस्कार करते
हैं।
एक
मित्र ने पूछा
है कि महावीर
रास्ते से
गुजरते हों और
किसी प्राणी
की हत्या हो
रही हो तो महावीर
क्या करेंगे? किसी
स्त्री के साथ
बलात्कार की
घटना घट रही
हो तो महावीर
क्या करेंगे?
क्या वे
अनुपस्थित
हैं, ऐसा
व्यवहार
करेंगे? और
कोई असहय
पीड़ा से कराह
रहा हो तो
महावीर क्या
करेंगे?
इस
संबंध में
थोड़ी-सी बातें
समझ लेनी
उपयोगी हैं।
एक तो महावीर
गुजरते हुए
रास्ते से, और
किसी की हत्या
हो रही हो, तो
हत्या में जो
हम देख पाते
हैं, वह
महावीर को
नहीं दिखाई
पड़ेगा। जो
महावीर को दिखाई
पड़ेगा वह हमें
कभी दिखाई
नहीं पड़ता है।
पहले तो इस
भेद को समझ
लेना चाहिये।
जब भी हम किसी
की हत्या होते
देखते हैं तो
हम समझते हैं,
कोई मारा जा
रहा है।
महावीर को यह
नहीं दिखाई पड़ेगा
कि कोई मारा
जा रहा है।क्योंकि
महा वीर जानते
हैं कि जो भी
जीवन का तत्व
है, वह
मारा नहीं जा
सकता, वह
अमृत है।
दूसरी बात, जब भी हम
देखते हैं कि
कोई मारा जा
रहा है तो हम सोचते
हैं मारनेवाला
ही जिम्मेवार
है। महावीर को
इसमें फर्क
दिखाई पड़ेगा।
जो मारा जाता
है, वह भी
बहुत गहरे अर्थो
में
जिम्मेवार
है। और हो
सकता है केवल
अपने ही किये
गये किसी कर्म
का प्रतिफल
पाता हो।
जब भी
हम देखेंगे तो
मारनेवाला
जिम्मेवार और
मारा
जानेवाला
हमेशा
निर्दोष मालूम
पड़ेगा। हमारी
दया और हमारी
करुणा उसकी तरफ
बहेगी, जो
मारा जा रहा
है। महावीर के
लिए ऐसा जरूरी
नहीं होगा, क्योंकि
महावीर का
देखना और गहरा
है। हो सकता है
कि जो मार रहा
है वह केवल एक
प्रतिकर्म
पूरा कर रहा
हो। क्योंकि
इस जगत में
कोई अकारण नहीं
मारा जाता है।
जब कोई मारा
जाता है तो वह
उसके ही कर्मो
के फल की
श्रृंखला का
हिस्सा होता
है।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि जो मार
रहा है वह
जिम्मेवार
नहीं। लेकिन
हमारे और
महावीर के
देखने में फर्क
पड़ेगा। जब भी
हम देखते हैं, कोई
मारा जा रहा
है तो हम
सोचते हैं
निश्चित ही
पाप हो रहा है;
निश्चित ही
बुरा हो रहा
है। क्योंकि
हमारी दृष्टि
बहुत सीमित
है। महावीर
इतना सीमित
नहीं देख
सकते। महावीर
देखते हैं
जीवन की अनंत
श्रृंखला को।
यहां कोई भी
कर्म अपने में
पूरा नहीं है—
वह पीछे से
जुड़ा है, और
आगे से भी।
हो
सकता है कि
अगर हिटलर को
किसी आदमी ने
मार डाला होता
1930 के पहले तो वह
आदमी हत्यारा
सिद्ध होता।
हम नहीं देख
पाते कि एक
ऐसा आदमी मारा
जा रहा है जो
कि एक करोड़
लोगों की
हत्या करेगा।
महावीर ऐसा भी
देख पाते हैं।
और तब तय करना
मुश्किल है कि
हिटलर का हत्यारा
सचमुच बुरा कर
रहा था या
अच्छा कर रहा था।
क्योंकि
हिटलर अगर मरे
तो करोड़
लोग बच सकते
हैं। फिर भी
इसका यह अर्थ
नहीं है कि हिटलर
को जो मार रहा
था वह अच्छा
ही कर रहा था।
सच तो यह है कि
महावीर जैसे
लोग जानते हैं
कि इस पृथ्वी
पर अच्छा और
बुरा ऐसा
चुनाव नहीं है; कम
बुरा और
ज्यादा बुरा,
ऐसा ही
चुनाव है—
लेसर ईविल
का चुनाव है।
हम आमतौर से
दो हिस्सों
में तोड़ लेते
हैं— यह अच्छा
और यह बुरा।
हम जिंदगी को
अंधेरे और
प्रकाश में
तोड़ लेते हैं।
महावीर जानते
हैं कि जिंदगी
में ऐसा तोड़
नहीं है। यहां
जब भी आप कुछ
कर रहे हैं तो
ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही कहा जा
सकता है कि जो सबसे
कम, कम से
कम बुरा
विकल्प था वह
आप कर रहे
हैं। वह आदमी
भी बुरा कर
रहा है जो
हिटलर को मार
रहा है, लेकिन
जो संभव हो
सकता है हिटलर
से वह इतना बुरा
है कि इस आदमी
को बुरा कहें?
तो
पहली बात मैं
यह कहना चाहता
हूं जैसा आप
देखते हैं
वैसा महावीर
नहीं
देखेंगे। इस
देखने में यह
बात भी जोड़
लेनी जरूरी है
कि महावीर जानते
हैं कि इस
जीवन में चौबीस
घंटे अनेक तरह
की हत्या हो
ही रही है।
आपको कभी-कभी
दिखाई पड़ती
है। जब आप
चलते हैं तब
किसी की आप
हत्या कर रहे
हैं। जब आप
श्वास लेते हैं
तब आप किसी की
हत्या कर रहे
हैं। अगर आप
भोजन करते हैं
तब किसी की
हत्या कर रहे
हैं। आपकी आंख
की पलक भी
झपकी है तो
हत्या हो रही
है। हमें तो
जब कभी कोई
किसी की छाती
में छुरा
भोंकता है, तभी
हत्या दिखाई
पड़ती है।
महावीर
देखते हैं कि
जीवन की जो
व्यवस्था है वह
हिंसा पर ही
खड़ी है। यहां
चौबीस घंटे
प्रतिपल
हत्या ही हो
रही है। एक
मित्र मेरे
पास आये थे, वे
कह रहे थे कि
महावीर जहां
चलते थे, वहां
अनेक-अनेक
मीलों तक अगर
लोग बीमार
होते तो वे
तत्काल ठीक हो
जाते थे। मेरा
मन हुआ उनसे कहूं
कि शायद
उन्हें
बीमारी के
पूरे रहस्यों का
पता नहीं है।
क्योंकि जब आप
बीमार होते
हैं तो आप तो
बीमार होते
हैं लेकिन
अनेक कीटाणु आपके
भीतर जीवन
पाते हैं। अगर
महावीर के आने
से आप ठीक हो
जाएंगे तो
अन्य कीटाणु मर
जाएंगे
तत्काल। तो
महावीर इस
झंझट में न
पड़ेंगे, ध्यान
रखना। क्योंकि
आप कुछ
विशिष्ट हैं,
ऐसा महावीर
नहीं मानते।
यहां
प्रत्येक
प्राण का
मूल्य बराबर
है। प्राण का
मूल्य है। और
आप अकेले
बीमार होते
हैं तब करोड़ों
जीवन आपके
भीतर पनपते
हैं और स्वस्थ
होते हैं। आप अगर
सोचते हों कि
महावीर कृपा
करके और आपको
ठीक कर दें, तो ऐसी कृपा
महावीर को
करनी बहुत
मुश्किल होगी,
क्योंकि
आपके ठीक होने
में करोड़ों का
नष्ट होना
निहित है। और
आप इतने
मूल्यवान
नहीं हैं जितना
आप सोचते हैं।
क्योंकि वह जो
करोड़ों आपके
भीतर जी रहे
हैं, वे भी
प्रत्येक
अपने को इतना
ही मूल्यवान
समझते हैं।
आपका उनको पता
भी नहीं है।
आपके शरीर में
जब कोई रोग के
कीटाणु पलते
हैं तो उनको
पता भी नहीं
है कि आप भी
हैं। आप सिर्फ
उनका भोजन हैं।
तो
जैसा हम देखते
हैं हत्या को, उतना
सरल सवाल
महावीर के लिए
नहीं है, जटिल
है ज्यादा।
महावीर के लिए
जीवेषणा ही हिंसा
है, हत्या
है। वह किसकी
जीवेषणा है, इसका कोई
सवाल नहीं
उठता । कौन
जीना चाहता है,
वह हत्या
करेगा। ऐसा भी
नहीं है कि जो
जीवेषणा छोड़
देता है, उससे
हत्या बंद हो
जायेगी। जब तक
वह जियेगा
तब तक हत्या
उससे भी
चलेगी। इतना
महावीर कहते
हैं— उसका
संबंध
विच्छिन्न हो
गया, जीवेषणा
के कारण उसका
संबंध था।
महावीर
भी ज्ञान के
बाद चालीस
वर्ष जीवित
रहे। इन चालीस
वर्षो में
महावीर भी
चलेंगे तो कोई
मरेगा।
उठेंगे तो कोई
मरेगा।
यद्यपि
महावीर इतने
संयम में जीते
हैं कि
न्यूनतम जो
संभव हो, तो रात
एक ही करवट
सोते हैं, दूसरी
करवट नहीं
लेते। इससे कम
करना मुश्किल है।
एक ही करवट
रात को गुजार
देते हैं
क्योंकि
दूसरी करवट
लेते हैं तो
फिर कुछ जीवन
मरेंगे। धीमे
श्वास लेते
हैं, कम से
कम जीवन का ह्रास
होता हो।
लेकिन श्वास तो
लेनी ही
पड़ेगी। हम कह
सकते हैं, कूदकर
मर क्यों नहीं
जाते हैं।
अपने को समाप्त
कर दें। लेकिन
अगर अपने को
समाप्त
करेंगे तो एक
आदमी के शरीर
में सात करोड़
जीवन पलते हैं—
साधारण
स्वस्थ आदमी
के, अस्वस्थ
के तो और
ज्यादा। तो
महावीर एक पहाड़
से अपने को
कूदकर मारते
हैं तो सात करोड़
को साथ मारते
हैं। जहर पी
लें, तो भी
सात करोड़
को साथ मारते
हैं। महावीर
जब देखते हैं
हिंसा को, तब
जटिल है सवाल।
इतना आसान
नहीं है, जितना
आपकी आंखें
देखती हैं।
क्या
है हत्या? कौन-सी
चीज हत्या है?
महावीर के
देखे तो जीवन
को जीने की
कोशिश में ही
हत्या है और
जीवन को जीने
में हत्या है।
हत्या प्रतिपल
चल रही है। और
प्रत्येक
जीना चाहता है
इसलिए जब उस
पर हमला होता
है तब उसे
लगता है हत्या
हो रही है।
बाकी समय
हत्या नहीं
होती है। अगर
जंगल में आप
जाकर शेर का शिकार
करते हैं तो
वह खेल है, और
शेर जब आपका
शिकार करे तब
शिकार नहीं
कहलाता वह, तब वह हत्या
है। तब वह
जंगली जानवर
है, और आप
बहुत सभ्य
जानवर हैं।
और मजा
यह है कि शेर
आपको कभी नहीं
मारेगा जब तक
उसको भूख नहीं
लगी हो और आप
तभी उसको
मारेंगे जब
आपको भूख न
लगी हो, पेट
भरा हो। कोई
भूखे आदमी
जंगल में
शिकार करने
नहीं जाते
हैं। जिनको
ज्यादा भोजन
मिल गया है, जिनको अब
पचाने का उपाय
नहीं दिखाई
पड़ता है, वे
शिकार करने
चले जाते हैं।
शेर तो तभी
मारता है जब
भूखा हो, अनिवार्यता
हो।
मैंने
सुना है कि एक
सर्कस में
उन्होंने एक
नया प्रदर्शन
शुरू किया था
। एक भेड़
को और एक शेर
को एक ही कटघरे
में रखने का, मैत्री
का। लोग बड़े
खुश होते थे, देखकर
चमत्कृत होते
थे कि शेर और भेड़ गले
मिलाकर बैठे
हुए हैं। जैनी
देखते तो बहुत
ही खुश होते।
वे भी अपने
चित्र बनाये
बैठे हुए हैं,
शेर और गाय
को साथ
बिठलाया है।
लेकिन एक आदमी
थोड़ा चकित हुआ
क्योंकि यह
बड़ा कठिन
मामला है। तो
उसने जाकर
मैनेजर से
पूछा कि है तो
प्रदर्शन
बहुत अदभुत, लेकिन इसमें
कभी झंझट नहीं
आती?
उसने
कहा— कोई
ज्यादा झंझट
नहीं होती।
फिर भी
उसने कहा कि
शेर और भेड़
का साथ-साथ
रहना! क्या
कभी उपद्रव
नहीं होता?
उस
मैनेजर ने कहा—
कभी उपद्रव
नहीं होता। सिर्फ
हमें रोज एक
नयी भेड़
बदलनी पड़ती
है। और कोई
दिक्कत नहीं
है,
बाकी सब ठीक
चलता है। और
जब शेर भूखा
नहीं रहता तब
दोस्ती ठीक है,
फिर कोई
झंझट नहीं है।
फिर वह दोस्ती
चलती है। जब
भूखा होता है,
तब वह खा
जाता है।
दूसरे दिन हम
दूसरी बदल देते
हैं। यह
प्रदर्शन में
कोई इससे बाधा
नहीं पड़ती।
शेर भी भेड़ पर
हमला नहीं
करता जब भूखा
न हो। गैर
अनिवार्य
हिंसा कोई
जानवर नहीं
करता, सिवाय
आदमी को
छोड़कर। लेकिन
हमारी हिंसा
हमें हिंसा
नहीं मालूम
पड़ती है। हम
उसे नये-नये नाम
और
अच्छे-अच्छे
नाम दे देते
हैं। आदमी की
हिंसा न हो।
फिर आदमी के
साथ भी सवाल
नहीं है।
इसमें भी हम
विभाजन करते
हैं। हमारे
निकट जो जितना
पड़ता है, उसकी
हत्या हमें
उतनी ज्यादा
मालूम पड़ती
है। अगर
पाकिस्तानी
मर रहा हो तो
ठीक, हिन्दुस्तानी
मर रहा हो तो
तकलीफ होती
है। फिर हिन्दुस्तानी
में भी अगर
हिन्दू मर रहा
हो तो मुसलमान
को तकलीफ नहीं
होती है।
मुसलमान मर
रहा हो तो
जैनों को
तकलीफ नहीं
होती है, जैनी
मर रहा हो तो
हिन्दू को
तकलीफ नहीं
होती।
और भी
निकट हम
खींचते चले
आये हैं।
दिगंबर मर रहा
हो तो
श्वेतांबर को
कोई तकलीफ
नहीं होती। श्वेतांबर
मर रहा हो तो
दिगंबर को कोई
तकलीफ नहीं होती।
फिर और हम
नीचे निकल आते
हैं—फिर और
कुछ —फिर आपके
परिवार का कोई
मर रहा हो तो
तकलीफ होती
है। और दूसरे
परिवार का कोई
मर रहा हो तो
सहानुभूति
दिखाई जाती है, होती
तक नहीं। फिर
वहां भी, अगर
आपके ही ऊपर
सवाल आ जाए कि
आप बचें कि
आपके पिता
बचें? तो पिता
को मरना
पड़ेगा। भाई
बचे कि आप
बचें तो फिर
भाई को मरना
पड़ेगा। फिर
इसमें भी
हिसाब है। अगर
आपका सिर बचे
कि पैर बचे, तो पैर को
कटना पड़ेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के गांव में
एक सैनिक आया
हुआ है। वह
बहुत अपनी
बहादुरी की
बातें कर रहा
है,
काफी हाउस
में बैठकर। वह
कह रहा है कि मैंने
इतने सिर काट
दिये, इतने
सिर काट दिये।
मुल्ला
बहुत देर
सुनता रहा।
उसने कहा कि
दिस इज़ नथिंग।
यह कुछ भी
नहीं है। एक
दफा मैं भी
गया था युद्ध
में,
मैंने न
मालूम कितने
लोगों के पैर
काट दिये।
उस
योद्धा ने कहा
कि महाशय, अच्छा
हुआ होता कि
आप सिर काटते।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा कि सिर
कोई पहले ही
काट चुका था।
न मालूम
कितनों के पैर
काटकर हम घर आ
गये,
कोई जरा-सी
खरोंच भी नहीं
लगी। तुम तो
काफी पिटे-कुटे
मालूम होते
हो। तो आपको इकानामी
वहां भी करनी
पड़ेगी, सिर
और पैर का
सवाल आपके
काटने का हो
तो पैर को कटवा
डालियेगा
और क्या करियेगा।
मैं
हूं केन्द्र
सारे जगत का।
अपने को बचाने
के लिए सारे
जगत को दांव
पर लगा सकता
हूं। यही
हिंसा है, यही
हत्या है।
महावीर इतना
व्यापक देखते
हैं, उस पर्सपेक्टिव
में, उस
परिप्रेक्ष्य
में, आपको
जो हत्या
दिखाई पड़ गयी
है, वह
महावीर को
दिखाई पड़ेगी?
ऐसी ही
दिखाई पड़ेगी?
इतना तो तय
है कि ऐसी ही
दिखाई नहीं
पड़ेगी। और यह
तो साफ ही है
कि आपको वैसी
नहीं दिखाई पड़
सकती है जैसी
महावीर को
दिखाई पड़ेगी। इसलिए
महावीर के लिए
यह प्रश्न
बहुत जटिल है।
किसको आप
बलात्कार
कहते हैं? रास्ते
पर बलात्कार
हो रहा है, किसको
आप बलात्कार
कहते हैं? पृथ्वी
पर सौ में
निन्यानबे
मौके पर
बलात्कार ही
हो रहा है।
लेकिन किसको
आप बलात्कार
कहते हैं? पति
करता है तो
बलात्कार
नहीं होता, लेकिन अगर
पत्नी की
इच्छा न हो तो
पति का किया हुआ
भी बलात्कार
है। और कितनी
पत्नियों की
इच्छा है, कभी
पतियों
ने पूछा है?
बलात्कार
का अर्थ क्या
है?
कानून ने
सुविधा दे दी
कि यह
बलात्कार
नहीं है तो
बलात्कार
नहीं है। समाज
ने सैंक्शन
दे दिया तो
फिर बलात्कार
नहीं है।
बलात्कार है
क्या? दूसरे
की इच्छा के
बिना कुछ करना
ही बलात्कार है।
हम सब दूसरे
की इच्छा के
बिना बहुत कुछ
कर रहे हैं।
सच तो यह है कि
दूसरे की
इच्छा को तोड़ने
की ही चेष्टा
में सारा मजा
है। इसलिए जिस
पुरुष ने कभी
बलात्कार कर
लिया किसी
स्त्री से, वह किसी
स्त्री से
प्रेम करने
में और सहज
प्रेम करने
में आनंद न
पाएगा।
क्योंकि जिद्दोजहद
से, जबर्दस्ती
से वह जो
अहंकार की तृप्ति
होती है, वह
सहज नहीं होती
है।
अगर आप
किसी आदमी से
कुश्ती लड़ रहे
हों,
वह अपने आप
गिरकर लेट
जाये और कहे—बैठ
जाओ मेरी छाती
पर, हम हार
गये— तो मजा
चला गया। जब
आप उसको
गिराते हैं तो
बड़ी मुश्किल
से गिराते
हैं। जितनी
मुश्किल पड़ती
है उसे गिराने
में, उसकी
छाती पर बैठ
जाने में, उतना
ही रस पाते
हैं। रस किस
बात का है। रस
विजय का है।
इसलिए तो
पत्नी में
उतना रस नहीं
आता जितना
दूसरे की
पत्नी में रस
आता है।
क्योंकि दूसरे
की पत्नी को
अभी भी जीतने
का मार्ग है। अपनी
पत्नी जीती जा
चुकी है—टेकन
फार ग्रांटेड।
अब उसमें कुछ
मतलब है नहीं।
रस क्या है? रस इस बात का
है कि मैं
कितने विजय के
झंडे गाड़
दूं, चाहे
वह कोई भी
आयाम हो— चाहे
वह कामवासना
हो, चाहे
धन हो, चाहे
पद हो। जहां
जितना
मुश्किल है, वहां उतना
अहंकार को
जीतने का उपाय
है। वहां अहंकार
उतना विजेता
होकर बाहर
निकलता है।
अगर
महावीर से हम
पूछें, गहरे
में हम समझें
तो जहां-जहां
अहंकार चेष्टा
करता है
वहीं-वहीं
बलात्कार हो
जाता है। यह बलात्कार
अनेक रूपों
में है। लेकिन
फिर भी हम जो
देखेंगे, हम
सदा ऐसा ही
देखेंगे कि
अगर एक
व्यक्ति किसी
स्त्री के साथ
रास्ते पर
बलात्कार कर
रहा हो, तो
सदा बलात्कार
करनेवाला ही
जिम्मेवार
मालूम पड़ेगा।
लेकिन हमें
खयाल नहीं है
कि स्त्री बलात्कार
करवाने के लिए
कितनी चेष्टाएं
कर सकती है।
क्योंकि अगर
पुरुष को
इसमें रस आता
है कि वह
स्त्री को जीत
ले तो स्त्री
को भी इसमें
रस आता है कि वह
किसी को इस
हालत में ला
दे।
कीर्कगार्ड ने
अपनी एक अदभुत
किताब लिखी है—
डायरी आफ ए सिडयूसर, एक
व्यभिचारी की
डायरी। उसमें कीर्कगार्ड
ने लिखा है कि
वह जो
व्यभिचारी है,
जो डायरी
लिख रहा है, एक काल्पनिक
कथा है। वह
व्यभिचारी
जीवन के अंत
में यह लिखता
है कि मैं बड़ी
भूल में रहा, मैं समझता था,
मैं
स्त्रियों को
व्यभिचार के
लिए राजी कर
रहा हूं। आखिर
में मुझे पता
चला कि वे
मुझसे ज्यादा
होशियार हैं
कि उन्होंने
ही मेरे साथ
व्यभिचार
करवा लिया था
। दे सिडयूस्ड
मी। दैट टेकनीक
वाज निगेटिव।
इसलिए मुझे
भ्रम बना रहा।
कोई स्त्री
कभी प्रस्ताव
नहीं करती किसी
पुरुष से
विवाह करने
का। प्रस्ताव
करवा लेती है
पुरुष से ही।
इंतजाम सब
करती है कि वह
प्रस्ताव
करे।
प्रस्ताव
करती नहीं है।
यह स्त्री और
पुरुष के मन
का भेद है।
स्त्री
के मन का ढंग
बहुत सूक्ष्म
है। आप देखते
हैं कि अगर एक
आदमी जा रहा
है एक स्त्री
को धक्का मारने, तो
फौरन हमें
लगता है कि
गलती इसने
किया। और वह
स्त्री घर से
पूरा इंतजाम
करके चली है
कि अगर कोई
धक्का न मारे
तो उदास
लौटेगी।
धक्का मारे तो
भी चिल्ला
सकती है।
लेकिन
चिल्लाने का
कारण जरूरी
नहीं है कि
धक्का मारने
पर नाराजगी है।
चिल्लाने का
सौ में
निन्यानबे कारण
यह है कि बिना
चिल्लाये
किसी को पता
नहीं चलेगा कि
धक्का मारा
गया। पर यह
बहुत गहरे में
उसको भी पता न
हो, इसकी
पूरी संभावना
है। क्योंकि
स्त्री जितनी
बन-ठनकर, जिस
व्यवस्था से
निकल रही है, वह धक्का
मारने के लिए
पूरा का पूरा
निमंत्रण है।
उस निमंत्रण
में हाथ उनका
है। हमारे
सोचने के जो
ढंग हैं वे
एकदम हमेशा
पक्षपाती
हैं। हम हमेशा
सोचते हैं, कुछ हो रहा
है तो एक आदमी
जिम्मेवार
है। हमें खयाल
ही नहीं आता
कि इस जगत में जिम्मेवारी
इतनी आसान
नहीं, ज्यादा
उलझी हुई है।
दूसरा भी
जिम्मेवार हो
सकता है। और
दूसरे की
जिम्मेवारी
गहरी भी हो
सकती है। कुशल
भी हो सकती
है। चालाक भी
हो सकती है। सूक्ष्म
भी हो सकती
है। महावीर जब
देखेंगे तो
पूरा देखेंगे।
और उस पूरे
देखने में, हमारे देखने
में फर्क
पड़ेगा।
महावीर का जो
"विजन' है,
वह टोटल
होगा।
अब
दूसरी बात यह
है कि महावीर
कुछ करेंगे कि
नहीं! भला अलग
देखेंगे, यह
भी समझ लिया
जाये। कुछ
करेंगे कि
नहीं? तो
मैं आपसे कहना
चाहता हूं
महावीर कुछ न
करेंगे, जो
होगा उसे हो
जाने देंगे।
इस फर्क को
समझ लें। आप
रास्ते से
गुजर रहे हैं
और किसी की
हत्या हो रही
है तो आप खड़े
होकर सोचेंगे
कि क्या करूं।
करूं कि न
करूं? आदमी
ताकतवर है कि
कमजोर दिखता
है? करूंगा
तो फल क्या
होंगे? किसी
मिनिस्टर का
रिश्तेदार तो
नहीं है? करके
उलटा मैं तो न फंसूंगा? आप पच्चीस
बातें
सोचेंगे, तब
करेंगे।
महावीर से कुछ
होगा, सोचेंगे
वे नहीं।
सोचना वक्त
बीते जा चुका।
जिस दिन सोचना
गया, उसी दिन
वे महावीर
हुए। विचार अब
नहीं चलता।
विचार हमेशा पार्शियल
होता है, विजन
टोटल होता है।
विचार हमेशा
पक्षपाती होता
है; दृष्टि,
दर्शन, पूर्ण
होता है।
महावीर को एक
स्थिति दर्शन
में दिखाई
पड़ेगी। फिर जो
हो जाएगा वह
हो जाएगा। महावीर
लौटकर भी नहीं
सोचेंगे कि
मैंने क्या
किया? क्योंकि
उन्होंने कुछ
किया नहीं।
इसलिए महावीर
कहते हैं—
पूर्ण कृत्य,
कर्म का
बंधन नहीं
बनता। टोटल
एक्ट कोई बंधन
नहीं लाता।
कुछ उनसे होगा
कि नहीं होगा,
लेकिन उसे
हम प्रिडिक्ट
नहीं कर सकते,
उसे हम कह
नहीं सकते कि
वे क्या
करेंगे।
महावीर भी
नहीं कह सकते
पहले से कि
मैं क्या
करूंगा। उस
सिचुएशन में,
उस स्थिति
में महावीर से
क्या होगा, इसके लिए
कोई प्रिडिक्शन,
कोई
ज्योतिषी
नहीं बता
सकता।
हमारे
बाबत प्रिडिक्शन
हो सकता है, इसे
थोड़ा समझ लेना
चाहिए। जितनी
कम समझ हो, उतने
हम प्रिडिक्टेबल
होते हैं।
जितनी हमारी
नासमझी होगी,
उतनी हमारे
बाबत जानकारी
बतायी जा सकती
है कि हम क्या
करेंगे। मशीन
के बाबत हम
पूरे प्रिडिक्टेबल
हो सकते हैं।
जानवर के बाबत
थोड़ी दिक्कत
होती है, लेकिन
फिर भी नब्बे
प्रतिशत हम कह
सकते हैं कि
गाय आज सायं
घर आकर क्या
करेगी कि नहीं
कह सकते? बिलकुल
कह सकते हैं।
कभी-कभी
भूल-चूक हो
सकती है, क्योंकि
गाय एकदम
यंत्र नहीं
है। लेकिन
मशीन क्या
करेगी, यह
तो हम जानते हैं।
जैसे-जैसे
जीवन चेतना विकसित
होती है, वैसे-वैसे
अनप्रिडिक्टेबिलिटी
बढ़ती है।
साधारण आदमी
के बाबत कहा
जा सकता है कि
यह कल सुबह
क्या करेगा।
महावीर या
बुद्ध जैसे
व्यक्तियों
के बाबत नहीं
कहा जा सकता
कि वे क्या
करेंगे। उनसे
क्या होगा, यह बहुत
अज्ञात और
रहस्यपूर्ण
है। क्योंकि
उनके टोटल विजन
में, उनकी
पूर्ण दृष्टि
में क्या
दिखाई पड़ेगा,
और उस दिखाई
पड़ने को वे
सोचकर कुछ
करने नहीं जाएंगे।
वहां दिखाई
पड़ेगा, वहां
कृत्य घटित हो
जाएगा। वे
दर्पण की तरह
हैं। जो घटना
चारों तरफ घट
रही होगी वह
दर्पण में प्रतिलक्षित
हो जाएगी, परिलक्षित
हो जाएगी, रिफलेक्ट हो जाएगी।
और उसका
जिम्मा
महावीर पर
बिलकुल नहीं
है।
अगर
महावीर ने
किसी की हत्या
होते रोका या
किसी पर
व्यभिचार
होते रोका तो
महावीर कहीं
किसी से
कहेंगे नहीं
कि मैंने किसी
पर व्यभिचार
होते रोका था।
महावीर
कहेंगे कि
मैंने देखा था
कि व्यभिचार
हो रहा है और
मैंने यह भी
देखा था कि इस
शरीर ने बाधा
डाली। आई वाज़
ए विटनेस।
महावीर गहरे
में साक्षी ही
बने रहेंगे, व्यभिचार
के भी और व्यभिचार
के रोके जाने
के भी। तभी वे
बाहर होंगे
कर्म के, अन्यथा
कर्म के बाहर
नहीं हो सकते।
विचार से, वा
सना से, इच्छा
से, अभिप्राय
से, प्रयोजन
से किया गया
कर्म फल को
लाता है। महावीर
के ज्ञान के
बाद अब जो भी
वे कर रहे हैं—
वह प्रयोजन
रहित, लक्ष्यरहित,
फल रहित, विचार रहित,
शून्य से
निकला हुआ
कर्म है। शून्य
से जब कर्म
निकलता है तब
वह भविष्यवाणी
के बाहर होता
है। मैं नहीं
कह सकता कि
महावीर क्या
करेंगे। और
अगर आपने
महावीर से पूछा
होता तो
महावीर भी
नहीं कह सकते
थे कि मैं क्या
करूंगा।
महावीर
कहेंगे कि तुम
भी देखोगे
कि क्या होता
है, और मैं
भी देखूंगा कि
क्या होता है।
करना मैंने
छोड़ दिया है।
इसलिए महावीर
या लाओत्से या
बुद्ध या
कृष्ण जैसे
लोगों के कर्म
को समझना इस जगत
में सर्वाधिक
दुरूह पहेली
है।
हम
क्या करते हैं, और
हम पूछना
क्यों चाहते
हैं? हम
पूछना इसलिए
चाहते हैं कि
अगर हमें
पक्का पता चल
जाए कि महावीर
क्या करेंगे,
तो वही हम
भी कर सकते
हैं। ध्यान
रहे, महावीर
हुए बिना आप
वही नहीं कर
सकते। हां, बिलकुल वही
करते हुए
मालूम पड़ सकते
हैं, लेकिन
वही नहीं
होगा। यही तो
उपद्रव हुआ
है। महावीर के
पीछे ढाई हजार
साल से लोग चल
रहे हैं। और
उन्होंने
महावीर को
विशेष
स्थितियों में
जो-जो करते
देखा है, उसकी
नकल कर रहे
हैं। वह नकल
है। उससे
आत्मा का कोई
अनुभव उपजता
नहीं है।
महावीर के लिए
वह सहज कृत्य
था, इनके
लिए प्रयास-सिद्ध
है। महावीर के
लिए दृष्टि से
निष्पन्न हुआ
था, इनके
लिए सिर्फ
केवल एक बनायी
गयी आदत है।
अगर महावीर
किसी दिन
उपवास से रह
गये थे तो
महावीर के लिए
वह उपवास और
ही अर्थ रखता
था। उसके निहितार्थ
अलग थे। हो
सकता है उस
दिन वे इतने
आत्मलीन थे कि
उन्हें शरीर
का स्मरण ही न
आया हो। लेकिन
आज उनके पीछे
जो उपवास कर
रहा है, वह
जब भोजन करता है
तब उसे शरीर
का स्मरण नहीं
आता और जब वह
उपवास करता है
तब चौबीस घंटे
शरीर का स्मरण
आता है। अच्छा
था कि वह भोजन
ही कर लेता
क्योंकि वह महावीर
के ज्यादा
निकट होता, शरीर के
स्मरण न आने
में। और भोजन
न करके चौबीस
घंटे शरीर का
स्मरण ही कर
रहा है। और
महावीर का उपवास
फलित हुआ था
इसीलिए कि
शरीर का स्मरण
ही नहीं रहा
था तो भूख का
किसे पता चले,
कौन भोजन की
तलाश में
जाये।
महावीर
जैसे
व्यक्तियों
की अनुकृति
नहीं बना जा
सकता। कोई
नहीं बन सकता।
और सभी
परंपराएं यही
काम करती हैं।
यही काम
विनष्ट कर
देता है। देख
लेते हैं कि
महावीर क्या
कर रहे हैं।
और इसी से
दुनिया में सारे
धर्म्मो
के झगड़े खड़े
होते हैं। क्योंकि
कृष्ण ने कुछ
और किया, बुद्ध
ने कुछ और
किया, क्राइस्ट
ने कुछ और
किया, सबकी
स्थितियां
अलग थीं।
महावीर ने कुछ
और किया। तो
महावीर का
अनुसरण
करनेवाला
कहता है कि
कृष्ण गलत कर
रहे हैं
क्योंकि
महावीर ने ऐसा
कभी नहीं
किया। बुद्ध
गलत
कर रहे
हैं क्योंकि
महावीर ने ऐसा
कभी नहीं किया।
बुद्ध का माननेवाला
कहता है कि बुद्ध
ठीक कर रहे
हैं। और ऐसी
स्थिति में
महावीर ने ऐसा
नहीं किया, इससे
सिद्ध होता है
कि उन्हें
ज्ञान नहीं
हुआ था।
हम कर्मो
से ज्ञान को
नापते हैं, यहीं
भूल हो जाती
है। कर्म
ज्ञान से पैदा
होते हैं और
ज्ञान कर्म से
बहुत बड़ी घटना
है। जैसे लहर
पैदा होती है
सागर में, लेकिन
लहरों से सागर
को नहीं नापा
जाता । और अगर
हिन्द
महासागर में
और तरह की लहर
पैदा होती है
और प्रशांत
महासागर में
और तरह की हवाएं
बहती हैं, और
दिशाओं में
बहती हैं; तो
आप यह मत
समझना कि हिंद
महासागर सागर
है और प्रशांत
महासागर सागर
नहीं है; क्योंकि
वैसी लहर यहां
कहां पैदा हो
रही है! न पानी
का वैसा रंग
है।
महावीर
की स्थितियों
में महावीर
क्या करते हैं, वही
हम जानते हैं।
बुद्ध की
स्थितियों
में बुद्ध
क्या करते हैं,
वही हम
जानते हैं।
फिर पीछे
परंपरा जड़ हो
जाती है। फिर
हम पकड़कर
बैठ जाते हैं।
फिर हम
शास्त्रों
में खोजते रहते
हैं कि इस
स्थिति में
महावीर ने
क्या किया था
वही हम करें।
न तो स्थिति
है वही, और
अगर स्थिति भी
वही है तो एक बात
तो पक्की है
कि आप महावीर
नहीं हैं।
क्योंकि
महावीर ने कभी
नहीं लौटकर
देखा कि किसने
क्या किया था ,
वैसा मैं
करूं। महावीर
से जो हुआ—
इसलिए ठीक से
समझें तो
महावीर जो कर
रहे हैं वह
कृत्य नहीं है,
एक्ट नहीं
है, हैपनिंग है, वह
घटना है। वैसा
हो रहा है। वह
कोई नियमबद्ध
बात नहीं है।
वह नियम मुक्त
चेतना से घटी
हुई घटना है।
वह स्वतंत्र
घटना है। इसीलिए
कर्म का उसमें
बंधन नहीं है।
महावीर से जरूर
बहुत कुछ
होगा। क्या
होगा, नहीं
कहा जा सकता।
कर्म उसका नाम
नहीं है, होगा।
हैपनिंग
होगी। इसलिए
मैं कोई उत्तर
नहीं दे सकता
कि महावीर
क्या करेंगे।
प्रतिपल
जीवन बदल रहा
है। जिंदगी
स्टिल फोटोग्राफ
की तरह नहीं
है। जैसा कि
जड़ फोटोग्राफ
होता है, वैसी
नहीं है।
जिंदगी
चलचित्र की
भांति है—
भागती हुई
फिल्म की
भांति, डाइनेमिक! वहां सब बदल
रहा है, सब
पूरे समय बदल
रहा है। सारा
जगत बदला जा
रहा है। सब
बदला जा रहा
है। हर बार
नयी स्थिति
है। और हर बार
नयी स्थिति
में महावीर हर
बार नये ढंग
से होंगे
प्रगट।
अगर
महावीर आज हों, तो
जैनों को
जितनी कठिनाई
होगी उतनी
किसी और को
नहीं होगी।
क्योंकि उनको
बड़ी दिक्कत
होगी। वे
सिद्ध करेंगे
कि यह आदमी
गलत है, क्योंकि
वह महावीर की
पच्चीस सौ साल
पहले वाली
जिंदगी उठाकर
जांच करेंगे
कि वह आदमी
वैसे ही कर रहा
कि नहीं कर
रहा है। और एक
बात पक्की है
कि महावीर
वैसा नहीं कर
सकते, क्योंकि
वैसी कोई
स्थिति नहीं
है। सब बदल
गया है सब बदल
गया है। और जब
वह कुछ और
करेंगे— वे और
करेंगे ही— तो
जिसने जड़ बांध
रखी है वह बड़ी
दिक्कत में पड़ेगा।
वह कहेगा— यह
नहीं हो सकता
है। यह आदमी
गलत है। सही
आदमी तो वही
था जो पच्चीस
सौ साल पहले
था। इसलिए महावीर
को जैन भर
स्वीकार नहीं
कर सकेंगे।
हां, और
कोई मिल जाएं
नये लोग
स्वीकार करने
वाले, तो
अलग बात है।
यही बुद्ध के
साथ होगा, यही
कृष्ण के साथ
होगा। होने का
कारण है
क्योंकि हम कर्मो को पकड़कर बैठ
जाते हैं।
कर्म
तो राख की तरह
हैं,
धूल की तरह
हैं। टूट गये
पत्ते हैं
वृक्षों के—
सूख गये पत्ते
हैं वृक्षों
के। उनसे
वृक्ष नहीं नापे
जाते। वृक्ष
में तो
प्रतिपल नये
अंकुर आ रहे
हैं। वहीं
उसका जीवन है।
सूखे पत्ते उसका
जीवन नहीं है।
सूखे पत्ते तो
बताते यही हैं
कि अब वे
वृक्ष के लिए
व्यर्थ होकर
बाहर गिर गये
हैं। सब कर्म
आपके सूखे
पत्ते हैं। वे
बाहर गिर जाते
हैं। भीतर तो
जीवन प्रतिपल
नया और हरा
होता चला जाता
है। वह डाइनेमिक
है। हम सूखे
पत्तों को
इकट्ठा कर
लेते हैं और सोचते
हैं वृक्ष को
जान लिया।
सूखे पत्तों
से वृक्षों का
क्या
लेना-देना है!
वृक्ष का
संबंध तो सतत
धारा से है
प्राण की; जहां
नये पत्ते
प्रतिपल
अंकुरित हो
रहे हैं। नये
पत्ते कैसे
अंकुरित
होंगे, नहीं
कहा जा सकता।
क्योंकि
वृक्ष सोच-
सोचकर पत्ते
नहीं
निकालते। वृक्ष
से पत्ते
निकलते हैं।
सूरज कैसा
होगा, हवायें कैसी होंगी,
वर्षा कैसी
होगी, चांदत्ता रे कैसे
होंगे, इस
सब पर निर्भर
करेगा। उस
सबसे पत्ते
निकलेंगे।
टोटल से
निकलेगा सब, समग्र से
निकलेगा सब।
महावीर जैसे
लोग कास्मिक में
जीते हैं, समग्र
में जीते हैं।
कुछ नहीं कहा
जा सकता कि वे
क्या करेंगे।
हो सकता है
जिस पर
बलात्कार हो
रहा है, उसको
डांटें-डपटें।
कुछ कहा नहीं
जा सकता। नहीं
तो भूल हो
जाती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
गुजर रहा है
गांव से। देखा
कि एक छोटे-से
आदमी को एक
बहुत बड़ा, तगड़ा
आदमी पिटाई कर
रहा है। उसकी
छाती पर बैठा
हुआ है।
मुल्ला को
बहुत गुस्सा आ
गया। मुल्ला दौड़ा और तगड़े आदमी
पर टूट पड़ा।
बामुश्किल—तगड़ा
आदमी काफी
तगड़ा था; मुल्ला
उसके लिए और
भी काफी पड़
रहा था—किसी
तरह उसको नीचे
गिरा पाया।
दोनों ने मिलकर
उसकी अच्छी
मरम्मत की।
जैसे
ही वह छोटा
आदमी छूटा, वह
निकल भागा। वह
बड़ा आदमी बहुत
देर से कह रहा था,
मेरी सुन भी,
लेकिन
मुल्ला इतने
गुस्से में था
कि सुने कैसे।
जब वह निकल
भागा तब
मुल्ला ने कहा—
तू क्या कहता
है?
वह
बोला कि वह
मेरी जेब
काटकर भाग
गया। वह मेरी
जेब काट रहा
था,
उसी में झगड़ा
हुआ। और तूने
उल्टे कुटाई
कर दिया और
उसको निकाल
दिया।
मुल्ला
ने कहा— यह तो
बहुत बुरी बात
है। लेकिन
तूने पहले क्यों
नहीं कहा?
उस
आदमी ने कहा—
मैं बार-बार
कह रहा हूं, लेकिन
तू सुने तब न!
तू तो एकदम
पिटाई में लग
गया।
जिंदगी
बहुत जटिल है।
वहां कौन पिट
रहा है, जरूरी
नहीं कि वह पिटने
के योग्य हो। कौन
पीट रहा है, यह जरूरी
नहीं कि वह
बेचारा गलत ही
कर रहा है। मुल्ला
ने कहा—उस
आदमी को मैं ढूंढूंगा।
ढूंढ़ा
भी। लेकिन जो
छोटा-सा आदमी
इतने बड़े आदमी
की जेब काटकर
निकल भागा था—वह
मुल्ला को मिल
गया और उसने
फौरन मनीबेग
जो चुराया था,
मुल्ला को
दे दिया, कहा
इसे संभाल, असली मालिक
तू ही है।
क्योंकि मैं
तो पिट
गया था।
जिंदगी
जटिल है।
महावीर जैसे
व्यक्ति उसको
उसकी पूरी
जटिलता में
देखते हैं और
जब वह उसकी पूरी
जटिलता में
दिखाई पड़ती है
तो क्या होगा
उनसे, कहना
आसान नहीं है।
और प्रत्येक
घटना में जटिलता
बदलती चली
जाती है। डाइनेमिक
बहाव है।
संयम
पर आज कुछ समझ
लें। क्योंकि
महावीर उसे धर्म
का दूसरा
महत्वपूर्ण
सूत्र कहते
हैं। अहिंसा
आत्मा है, संयम
जैसे श्वास और
तप जैसे देह।
महावीर ने शुरू
किया, कहा
पहले अहिंसा—संजमो तवो।
तप आखिर में
कहा, संयम
बीच में कहा, अहिंसा पहले
कहा। हम जब भी
देखते हैं, तप हमें
पहले दिखाई
पड़ता है। संयम
पीछे दिखाई पड़ता
है। अहिंसा तो
शायद ही दिखाई
पड़ती है, बहुत
मुश्किल है
देखना।
महावीर
भीतर से बाहर
की तरफ चलते
हैं,
हम बाहर से
भीतर की तरफ
चलते हैं।
इसलिए हम तपस्वी
की जितनी पूजा
करते हैं उतनी
अहिंसक की न
कर पांएगे।
क्योंकि तप
हमें दिखाई
पड़ता है, वह
देह जैसा बाहर
है। अहिंसा
गहरे में है।
वह दिखाई नहीं
पड़ती, वह
अदृश्य है।
संयम का हम
अनुमान लगाते
हैं। जब हमें
कोई तपस्वी
दिखाई पड़ता है
तो हम समझते हैं,
संयमी है।
क्योंकि वह तप
कैसे करेगा!
जब कोई हमें
भोगी दिखाई
पड़ता है तो हम
समझते हैं, असंयमी है, नहीं भोग
कैसे करेगा!
जरूरी नहीं है
यह। तपस्वी भी
असंयमी हो
सकता है और
ऊपर से दिखाई पड़नेवाला
भोगी भी संयमी
हो सकता है।
इसलिए हम संयम
का सिर्फ
अनुमान लगाते
हैं, वह इनोसेंट
है। तब हमें
दिखाई पड़ जाता
है, वह साफ
है। संयम का
हम अनुमान
लगाते हैं, वह साफ नहीं
है। वह अनुमान
हमारा ऐसा ही
है जैसे
रास्ते पर
गिरा हुआ पानी
देखकर हम
सोचें कि
वर्षा हुई
होगी। म्युनिसिपल
की मोटर भी पानी
गिरा जा सकती
है। पुराने
तर्क-शास्त्रों
की किताबों
में लिखा है
कि जहां-जहां
पानी गिरा
दिखाई पड़े
समझना कि
वर्षा हुई
होगी, क्योंकि
उस वक्त म्युनिसिपल
की मोटर नहीं
थी।
संयम
हम अनुमान
लगाते हैं कि
जो आदमी तप कर
रहा है, वह
संयमी है—जरूरी
नहीं। तप
करनेवाला
असंयमी हो
सकता है, यद्यपि
संयमी के जीवन
में तप होता
है। लेकिन तपस्वी
के जीवन में
संयम का होना
आवश्यक नहीं
है। महावीर
भीतर से चलते
हैं। क्योंकि
वहीं प्राण है
और वहीं से
चलना उचित है।
क्षुद्र से विराट
की तरफ जाने
में सदा भूलें
होती हैं।
विराट से
क्षुद्र की
तरफ आने में
कभी भूल नहीं
होती।
क्योंकि
क्षुद्र से जो
विराट की तरफ
चलता है वह
क्षुद्र की
धारणाओं को
विराट तक ले
जाता है। इससे
भूल होती है।
उसकी संकीर्ण
दृष्टि को वह
खींचता है।
उससे भूल होती
है।
तो
संयम का पहले
तो हम अर्थ
समझ लें। संयम
से जो समझा
जाता रहा है, वह
महावीर का
प्रयोजन नहीं
है। जो आमतौर
से समझा जाता
है, उसका
अर्थ है—
निरोध, विरोध,
दमन, नियंत्रण,
कंट्रोल।
ऐसा भाव हमारे
मन में बैठ
गया है संयम
से। कोई आदमी
अपने को दबाता
है, रोकता
है, वृत्तियों
को बांधता
है, नियंत्रण
रखता है तो हम
कहते हैं, संयमी
है। संयम की
हमारी
परिभाषा बड़ी
निषेधात्मक
है, बड़ी
निगेटिव है।
उसका कोई
विधायक रूप
हमारे खयाल
में नहीं है।
एक आदमी कम
खाना खाता है,
तो हम कहते
हैं कि संयमी
है। एक आदमी
कम सोता है तो
हम कहते हैं
कि संयमी है।
एक आदमी विवाह
नहीं करता है
तो हम कहते
हैं, संयमी
है। एक आदमी
कम कपड़े पहनता
है तो हम कहते
हैं, संयमी
है। सीमा
बनाता है तो
हम कहते हैं, संयमी है।
जितना निषेध
करता है, जितनी
सीमा बनाता है,
जितना
नियंत्रण
करता है, जितना
बांधता
है अपने को, हम कहते हैं
उतना संयमी
है।
लेकिन
मैं आपसे कहता
हूं कि महावीर
जैसे व्यक्ति
जीवन को निषेध
की परिभाषाएं
नहीं देते। क्योंकि
जीवन निषेध से
नहीं चलता है।
जीवन चलता है
विधेय से, पाजिटिव से। जीवन की
सारी ऊर्जा
विधेय से चलती
है। तो महावीर
की यह परिभाषा
नहीं हो सकती।
महावीर की
परिभाषा तो
संयम के लिए
बड़ी विधेय की
होगी, बड़ी
विधायक होगी।
सशक्त होगी, जीवंत होगी।
इतनी मुर्दा
नहीं हो सकती
जितनी हमारी
परिभाषा है।
इसीलिए
हमारी परिभाषा
मानकर जो संयम
में जाता है
उसके जीवन का
तेज बढ़ता हुआ
दिखाई नहीं
पड़ता, और
क्षीण होता
हुआ मालूम
पड़ता है। मगर
हम कभी फिक्र
नहीं करते, हम कभी खयाल
नहीं करते कि
महावीर ने जो
संयम की बात
कही है उससे
तो जीवन की
महिमा बढ़नी
चाहिये, उससे
तो प्रतिभा और
आभामंडित
होनी चाहिये।
लेकिन जिनको
हम तपस्वी
कहते हैं उनकी
आइ्र क्यू्र
की कभी जांच
करवायी कि
उनकी बुद्धि
का कितना अंक
बढ़ा? उनकी
बुद्धि का अंक
और कम होगा
लेकिन हमें
प्रयोजन नहीं
कि इनकी
प्रतिभा नीचे
गिर रही है। हमे
प्रयोजन है कि
रोटी कितनी खा
रहे हैं, कपड़ा
कितना पहन रहे
हैं।
बुद्धिहीन से
बुद्धिहीन
टिक सकता है, अगर वह रोटी
बना ले — अगर दो
रोटी पर राजी
हो जाए, अगर
एक बार भोजन
को तैयार हो
जाए।
एक
साधु मेरे पास
आये थे। वे
मुझसे कहने
लगे कि आपकी
बात मुझे ठीक
लगती है। मैं
छोड़ देना चाहता
हूं यह
परंपरागत
साधुता।
लेकिन मैं बड़ी
मुश्किल में
पडूंगा। अभी करोड़पति
मेरे पैर छूता
है। कल वह
मुझे पहरेदार
नौकरी भी देने
को तैयार नहीं
हो सकता, वही
आदमी। कभी
सोचा है आपने
कि जिसके आप
पैर छूते हैं
अगर वह घर में
बर्तन मलने
के लिए आपके
पास आए तो आप
कहेंगे, सर्टिफिकेट
है? कहां
करते थे नौकरी,
पहले? कहां
तक पढ़े हो?
चोरी-चपाटी
तो नहीं करते?
लेकिन पैर
छूने में किसी
प्रमाण-पत्र
की कोई जरूरत
नहीं है। इतना
प्रमाण-पत्र
काफी होता है कि
आपकी बुद्धि
की समझ में आ
जाए कि यह
संयमी है।
संयम का जैसे
अपने में हमने
कोई मूल्य समझ
रखा है कि जो
अपने को रोक
लेता है तो
संयमी है। रोक
लेने में जैसे
अपना कोई गुण है।
नहीं, जीवन
के सारे गुण
फैलाव के हैं।
जीवन के सारे गुण
विस्तार के
हैं। जीवन के
सारे गुण
विधायक उपलब्धि
के हैं, निषेध
के नहीं हैं।
महावीर के लिए
संयम और है।
उसकी हम बात
करें, लेकिन
हम जिसे संयम
समझते हैं
उसको भी हम
खयाल में ले
लें।
हमारे
लिए संयम का
अर्थ है—अपने
से लड़ता हुआ
आदमी; महावीर
के लिए संयम
का अर्थ है—
अपने साथ से
राजी हुआ
आदमी। हमारे
लिए संयम का
अर्थ है— अपनी
वृत्तियों को
संभालता हुआ
आदमी; महावीर
के लिए संयम
का अर्थ है—
अपनी
वृत्तियों का
मालिक हो गया
जो। संभालता
वही है, जो
मालिक नहीं
है। संभालना
पड़ता ही इसलिए
है कि
वृत्तियां
अपनी मालकियत
रखती हैं।
लड़ना पड़ता
इसीलिए है कि
आप वृत्तियों
से कमजोर हैं।
अगर आप
वृत्तियों से
ज्यादा
शक्तिशाली
हैं तो लड़ने
की जरूरत नहीं
रहती।
वृत्तियां
अपने से गिर
जाती हैं।
महावीर के लिए
संयम का अर्थ
है— आत्मवान, इतना
आत्मवान कि
वृत्तियां
उसके सामने
खड़ी भी नहीं
हो पातीं, आवाज
भी नहीं दे
पातीं। उसका
इशारा
पर्याप्त है।
ऐसा नहीं है
कि उसे क्रोध
को दबाना पड़ता
है, ताकत
लगाकर।
क्योंकि जिसे
ताकत लगाकर
दबाना पड़े, उससे हम
कमजोर हैं। और
जिसे हमने
ताकत लगाकर
दबाया है, उसे
हम कितना ही दबायें, हम दबा न
पाएंगे। वह आज
नहीं कल टूटता
ही रहेगा, फूटता
ही रहेगा, बहता
ही रहेगा।
महावीर कहते
हैं: संयम का
अर्थ है—
आत्मवान— इतना
आत्मवान है
व्यक्ति कि
क्रोध क्षमता
नहीं जुटा
सकता कि उसके
सामने आ जाए।
एक
कालेज में मैं
था। वहां एक
बहुत मजेदार
घटना घटी। उस
कालेज के
प्रिंसिपल
बहुत
शक्तिशाली
आदमी थे। बहुत
दिन से प्रिंसिपल
थे। उम्र भी
हो गयी रिटायर
होने की, लेकिन
वे रिटायर
नहीं होते थे।
प्राइवेट कालेज
था। कमेटी के
लोग उनसे डरते
थे। प्रोफेसर
उनसे डरते थे।
फिर दस-पांच प्रोफेसरों
ने इकट्ठा
होकर कुछ ताकत
जुटाई। और
उनमें से जो
सबसे ताकतवर
प्रोफेसर था,
उसको आगे
बढ़ाने की
कोशिश की और
कहा कि तुम
सबसे ज्यादा
पुराने भी हो,
सीनियर
मोस्ट भी हो, तुम्हें
प्रिंसिपल
होना चाहिए और
इस आदमी को अब
हटना चाहिए।
सारे प्रोफेसरों
ने ताकत लगाकर
मैंने उनसे
कहा भी कि
देखो, तुम
झंझट में
पड़ोगे, क्योंकि
मैं जानता हूं
कि तुम सब
कमजोर हो। और
जिस आदमी को
तुम आगे बढ़ा
रहे हो, वह
आदमी बिलकुल
कमजोर है। फिर
भी वे नहीं
माने।
उन्होंने कहा—
सब संगठित हैं,
संगठन में
शक्ति है। सा
रे प्रोफेसर
प्रिंसिपल के
खिलाफ इकट्ठे
हो गये और एक
दिन उन्होंने
कालेज पर कब्जा
भी कर लिया।
और जिन सज्जन
को चुना था, उनको
प्रिंसिपल की
कुर्सी पर
बिठा दिया।
मैं
देखने पहुंचा
कि वहां क्या
होनेवाला है। जो
प्रिंसिपल थे
उन्हें ठीक
वक्त पर, उनके
घर खबर कर दी
गयी कि
ऐसा-ऐसा हुआ
है। उन्होंने
कहा, हो
जाने दो। वे
ठीक वक्त पर
ग्यारह बजे, जैसे रोज
आते थे, आये
दफ्तर में। वे
दफ्तर में आये
तो जिसको बिठाला
था, उस
आदमी ने उठकर
नमस्कार किया
और कहा — आइये, बैठिये। वह तत्काल
हट गया वहां
से। उस
प्रिंसिपल ने पुलिस
को खबर नहीं
की। इन लोगों
ने खबर कर रखी थी
कि कोई गड़बड़
हो तो! मैंने
उनसे पूछा कि
आपने पुलिस को
खबर नहीं की? उन्होंने
कहा— इन लोगों
के लिए पुलिस
को खबर! इनको
जो करना है, करने दो।
शक्ति
जब स्वयं के
भीतर होती है
तो वृत्तियों से
लड़ना नहीं
पड़ता ।
वृत्तियां
आत्मवान व्यक्ति
के सामने सिर
झुकाकर खड़ी हो
जाती हैं; वे
तो कमजोर
आत्मा के
सामने ही सिर
उठाती हैं।
इसलिए तो हमने
आमतौर से सुन
रखी है
परिभाषा संयम
की— कि जैसे
कोई सारथी रथ
में बंधे हुए घोड़ों की लगामें पकड़े हुए
बैठा है— ऐसा
अर्थ संयम का
नहीं है। वह
दमन का अर्थ
है, और गलत
है।
संयम
का महावीर के
लिए तो अर्थ
है— जैसे कोई
शक्तिवान
अपनी शक्ति
में
प्रतिष्ठित
है। उसकी
शक्ति में
प्रतिष्ठित
होना ही, उसका
अपनी ऊर्जा
में होना ही
वृत्तियों का
निर्बल और
नपुंसक हो
जाना है, इम्पोटेंट हो जाना है।
महावीर अपनी
कामवासना पर
वश पाकर
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
नहीं होते।
ब्रह्मचर्य
की इतनी ऊर्जा
है कि
कामवासना सिर
नहीं उठा
पाती। यह विधायक
अर्थ है।
महावीर अपनी
हिंसा से लड़कर
अहिंसक नहीं
बनते। अहिंसक
हैं, इसलिए
हिंसा सिर
नहीं उठा
पाती। महावीर
अपने क्रोध से
लड़कर
क्षमा नहीं
करते। क्षमा
की इतनी शक्ति
है कि क्रोध
को उठने का
अवसर कहां है!
महावीर के लिए
अर्थ है—
स्वयं की
शक्ति से परिचित
हो जाना संयम
है।
संयम
इसे क्यों नाम
दिया है? संयम
नाम बहुत
अर्थपूर्ण है
और संयम का, संयम शब्द
का अर्थ भी
बहुत
महत्वपूर्ण
है। अंग्रेजी
में जितनी भी
किताबें लिखी
गयी हैं और
संयम के बाबत
जिन्होंने भी लिखा
है, उन्होंने
उसका अनुवाद
कंट्रोल किया
है जो कि गलत
है। अंग्रेजी
में सिर्फ एक
शब्द है जो
संयम का अनुवाद
बन सकता है, लेकिन
भाषाशास्त्री
को खयाल में
नहीं आएगा। क्योंकि
भाषा की
दृष्टि से वह
ठीक नहीं है।
अंग्रेजी में
जो शब्द है ट्रैंक्विलिटी,
वह संयम का
अर्थ हो सकता
है। संयम का
अर्थ है— इतना
शांत कि
विचलित नहीं
होता, जो।
संयम का अर्थ
है— अविचलित, निष्कंप।
संयम का अर्थ
है — ठहरा हुआ।
गीता में
कृष्ण ने जिसे
स्थितप्रज्ञ
कहा है, महावीर
के लिए वही
संयम है। संयम
का अर्थ है—
ठहरा हुआ, अविचलित,
निष्कंप, डांवाडोल
नहीं होता है,
जो। जो यहां-वहां
नहीं डोलता
रहता, जो
कंपित नहीं
होता रहता, जो अपने में
ठहरा हुआ है।
जो पैर जमाकर
अपने में खड़ा
हुआ है।
इसे हम
और दिशा से
समझें तो खयाल
में आ जाएगा। अगर
संयम का ऐसा
अर्थ है तो
असंयम का अर्थ
हुआ कंपन, वेवरिंग,
ट्रेंबलिंग। यह जो
कंपता हुआ मन
है, और कंपते
हुए मन का
नियम है कि वह
एक अति से
दूसरी अति पर
चला जाता है।
अगर कामवासना
में जाएगा तो
अति पर चला
जाएगा। फिर ऊबेगा, परेशान
होगा— क्योंकि
किसी भी वासना
में होना संभव
नहीं है सदा
के लिए। सब
वासनाएं उबा
देती हैं, सब
वासनाएं घबरा
देती हैं
क्योंकि उनसे
मिलता कुछ भी
नहीं है।
मिलने के
जितने सपने थे,
वे और टूट
जाते हैं।
सिवाय विफलता
और विषाद के
कुछ हाथ नहीं
लगता । तो
वासना घिरा मन
अति पर जाता
है, फिर
वासना से ऊब
जाता है, घबड़ा
जाता है फिर
दूसरी अति पर
चला जाता है।
फिर वह वासना
के विपरीत खड़ा
हो जाता है।
कल तक ज्यादा
खाता था, फिर
एकदम अनशन
करने लगता है।
इसलिए
ध्यान रखना, अनशन
की धारणा
सिर्फ ज्यादा
भोजन उपलब्ध
समाजों में
होती है। अगर
जैनियों को
उपवास और अनशन
अपील करता है
तो उसका कारण
यह नहीं है कि
वे महावीर को
समझ गये हैं
कि उनका क्या
मतलब होता है।
उसका कुल मतलब
इतना है कि वह
ओवर-फैड
समाज है।
ज्यादा उनको
खाने को मिला
हुआ है, और
कोई कारण नहीं
है। कभी आपने
देखा है, गरीब
का जो धार्मिक
दिन होता है, उस दिन वह
अच्छा खाना
बनाता है। और
अमीर का जो धार्मिक
दिन होता है, उस दिन वह
उपवास करता
है। अजीब
मामला है।
अजीब मजा है।
तो जितने गरीब
धर्म हैं
दुनिया में, उनका उत्सव
का दिन ज्यादा
भोजन का दिन
है। जितने
अमीर धर्म हैं
दुनिया में, उनके उत्सव
का दिन उपवास
का दिन है।
जहां-जहां
भोजन बढ़ेगा
वहां-वहां
उपवास का कल्ट
बढ़ता है। आज
अमरीका में
जितने उपवास
का कल्ट है, आज दुनिया
में कहीं भी
नहीं है।
अमरीका में
जितने लोग आज
उपवास की
चर्चा करते
हैं और फास्टिंग
की सलाह देते
हैं, नैचरोपैथी पर लोग
उत्सुक होते
हैं, उतने
दुनिया में
कहीं भी नहीं।
उसका कारण है।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं है
कि आप महावीर
को समझकर
उत्सुक हो रहे
हैं। आप
ज्यादा खा गये
हैं, इसलिए
उत्सुक हो रहे
हैं। दूसरी
अति पर चले
जाएंगे। पर्युषण
आएगा, आठ
दिन, दस
दिन आप कम खा
लेंगे और दस
दिन योजनाएं बनाएंगे
खाने की, आगे।
और दस दिन के
बाद पागल की
तरह टूटेंगे
और ज्यादा खा
जाएंगे और
बीमार
पड़ेंगे। फिर
अगले वर्ष यही
होगा।
सच तो
यह है कि
ज्यादा
खानेवाला जब
उपवास करता है
तो उससे कुछ
उपलब्ध नहीं
होता, सिवाय
इसके कि उसको
भोजन करने का
रस फिर से उपलब्ध
हो, रीओरिएंटेशन हो जाता है। आठ-दस
दिन भूखे रह
लिये, स्वाद
जीभ में फिर आ
जाता है। और
महावीर कहते हैं—
उपवास में रस
से मुक्ति
होनी चाहिए, उनका रस और प्रगाढ़ हो
जाता है।
उपवास में
सिवाय रस के
बाबत आदमी और
कुछ नहीं
सोचता, रस
चिंतन चलता है
और योजना बनती
है। भूख जगती है,
और कुछ नहीं
होता। मर गयी
भूख, स्टिल
हो गयी भूख, फिर सजीव हो
जाती है। दस
दिन के बाद
आदमी टूट पड़ता
है जोर से
भोजन पर। अति
पर चला जाता
है मन। असंयम
है एक अति से
दूसरी अति, अति पर
डोलते रहना।
फ्राम वन
एक्सट्रीम टु
दि अदर। संयम
का अर्थ है—
मध्य में हो
जाना, अनति—
नो
एक्सट्रीम।
अगर हम
समझते हों कि
ज्यादा भोजन
असंयम है, तो
मैं आपसे कहता
हूं कि कम
भोजन भी असंयम
है, दूसरी
अति पर। सम्यक
आहार संयम है,
सम्यक आहार
बड़ी मुश्किल
चीज है।
ज्यादा भोजन
करना बहुत आसान
है। बिलकुल
भोजन न करना
बहुत आसान है।
ज्यादा खा
लेना आसान, कम खा लेना
आसान— सम्यक
आहार अति कठिन
है। क्योंकि
मन जो है, वह
सम्यक पर
रुकता ही
नहीं। और
महावीर की
शब्दावली में
अगर कोई शब्द
सबसे ज्यादा
महत्वपूर्ण
है तो वह
सम्यक है।
सम्यक का अर्थ
है— इन दि मिडल,
नैवर टु दि
एक्सट्रीम।
कभी अति पर
नहीं, सम।
जहां सब चीजें
सम हो जाती
हों, अति
का कोई तनाव
नहीं रह जाता,
जहां सब
चीजें ट्रैंक्विलिटी
को उपलब्ध हो
जाती हैं।
जहां न इस तरफ
खींचे जाते, न उस तरफ।
जहां दोनों के
मध्य में खड़े
हो जाते हैं।
वह जो सम-स्वर
है जीवन का, सभी दिशाओं
में सभी
दिशाओं में, उस सम-स्वरता
को पा लेना
संयम है। हम
उसे कभी न पा
सकेंगे। क्योंकि
हम निषेध करते
हैं। निषेध
में हम दूसरी
अति पर होते
हैं। निषेध के
लिए दूसरी अति
पर जाना जरूरी
होता है।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला नसरुद्दीन
एक चुनाव में
खड़ा हो गया।
दौरा कर रहा
था अपने कांस्टिटयूएंसी
का,
अपने चुनावक्षेत्र
का। बड़े नगर
में आया, जो
केंद्र था चुनावक्षेत्र
का। मित्रों
से मिला। एक
मित्र ने कहा
कि फलां आदमी
तुम्हारे
खिलाफ ऐसा ऐसा
बोलता था। तो
मुल्ला जितनी
गाली जानता था,
उसने सब
दीं।
उसने
कहा—वह आदमी
कोई आदमी है, शैतान
की औलाद है।
और एक दफा
मुझे चुन जाने
दो, उसे
नरक भिजवाकर
रहूंगा।
उस
मित्र ने कहा
कि मैंने तो
सिर्फ सुना था
कि मुल्ला, तुम
बहुत अच्छी
गालियां दे
सकते हो, इसलिए
मैंने यह कहा।
वह आदमी
तुम्हारा बड़ा
प्रशंसक है।
मुल्ला
ने कहा कि मैं
पहले से ही
जानता हूं, वह
देवता है। एक
दफा मुझे चुन
जाने दो, देखना,
मैं उसकी
पूजा करवा
दूंगा, मंदिरों
में बिठा
दूंगा। वह
आदमी देवता
है।
उस
आदमी ने कहा—
मुल्ला, इतनी
जल्दी तुम बदल
जाते हो?
मुल्ला
ने कहा— कौन
नहीं बदल जाता? सभी
बदल जाते हैं।
मन ऐसा ही
बदलता है। जो
आज रूप की देवी
मालूम पड़ती है,
कल वही
साक्षात
कुरूपता
मालूम पड़ सकती
है।
मन
तत्काल एक अति
से दूसरी अति
पर चला जाता
है। जिसे आज
आप शिखरों पर
बिठाते हैं, कल
उसे आप
घाटियों में
उतार देते
हैं। मन बीच में
नहीं रुकता।
क्योंकि मन का
अर्थ है— तनाव,
टैंशन। बीच में रुकेंगे
तो तनाव तो
होगा नहीं। जब
तक अति पर न हो
तब तक तनाव
नहीं होता।
इसलिए एक अति
से दूसरी अति
पर मन डोलता
रहता है। मन
जी ही सकता है
अति में। संयम
में तो मन
समाप्त हो
जाता है।
इसलिए जब आप कहते
हैं— फलां
आदमी के पास
बड़ा संयमी मन
है तब आप
बिलकुल गलत
कहते हैं।
संयमी के पास
मन होता ही
नहीं। इसलिए
झेन-बौद्धों
में जो फकीर
हैं वे कहते
हैं— संयम तभी
उपलब्ध होता
है जब
"नो-माइंड' उपलब्ध
होता है। जब
मन नहीं रह
जाता है। कबीर
ने कहा है— जब
अ-मनी अवस्था
आती है, नो-माइंड
की, अ-मनी—मन
नहीं रह जाता,
तभी संयम
उपलब्ध होता
है। अगर हम
ऐसा कहें कि मन
ही असंयम है, तो कुछ
अतिशयोक्ति न
होगी। ठीक ही
होगा यही। मन
ही असंयम है।
मन का नियम है—तनाव, खिंचे रहो। खिंचे
रहो इसके लिए
जरूरी है कि
अति पर रहो, नहीं तो खिंचे
नहीं रहोगे।
अति पर रहो, तो खिंचाव
बना रहेगा, तनाव बना
रहेगा, चित्त
तना रहेगा। और
हम सब ऐसे लोग हैं
कि जितना
चित्त तना रहे,
उतना ही
हमें लगता है
कि हम जीवित
हैं। अगर चित्त
में कोई तनाव
न हो तो हमें
लगता है— मरे, मर न जाएं, खो न जाएं।
जो लोग
ध्यान में
गहरा उतरते
हैं,
मुझे आकर
कहने लगते हैं
कि अब तो बहुत
डर लगता है।
ऐसा लगता है, कहीं मर न
जाऊं। मरने का
कोई सवाल ही
नहीं है ध्यान
में, लेकिन
डर लगने का
सवाल है। डर
इसलिए लगता है
कि जैसे-जैसे
ध्यान गहरा
होता है, मन
शून्य होता
है। और जब मन
शून्य होता है,
तो हमने तो
अपने को मन ही
समझा हुआ है, तो लगता है
हम मरे। मिट न
जाएंगे! अगर
अतीत छोड़
देंगे तो समाप्त
न हो जांएगे!
गति कहां
रहेगी, फिर
हम समाप्त ही
हो जाएंगे।
डा.
ग्रीन ने
अमरीका में एक
यंत्र बनाया
हुआ है—
फीड-बैक यंत्र
है,
और कीमती
है। और आज
नहीं कल, सभी
मंदिरों में
लग जाना चाहिए,
सभी गिरजाघरों
में, सभी चर्चो
में। एक यंत्र
है जिसकी
कुर्सी पर
आदमी बैठ जाता
है और सामने
उसकी कुर्सी
पर पर्दा लगा
होता है। उस
पद पर
थर्मामीटर की
तरह प्रकाश
घटने बढ़ने
लगता है। दो
रेखाओं में
प्रकाश ऊपर
बढ़ता है, जैसे
थर्मामीटर का
पारा ऊपर बढ़ता
है। आपके मस्तिष्क
में दोनों तरफ
खोपड़ी पर तार
बांध दिये
जाते हैं। ये
तार उन
प्रकाशों से जुड़े
होते हैं। और
आपका मन जब
अतियों में
चलता है तो एक
रेखा बिलकुल आ
समान छूने
लगती है, दूसरी
जीरो पर हो
जाती है। बहुत
अदभुत, महत्वपूर्ण
है वह। जब आप
सोच रहे होते
हैं कामवासना
के संबंध में,
तब एक रेखा
आपकी आसमान छूने
लगती है, दूसरी
शून्य पर हो
जाती है।
सामने पास में
ग्रीन खड़ा है,
वह आपको
तस्वीरें
दिखाता है, नंगी औरतों
की, और
आपके मन में
कामवासना को
जगाता है। साथ
में संगीत
बजता है, जो
आपके भीतर
कामवासना को
जगाता है। एक
रेखा आसमान को
छूने लगती है,
दूसरी
शून्य पर हो जाती
है। फिर
तस्वीरें हटा
ली जाती हैं।
फिर बुद्ध और
महावीर और
क्राइस्ट के
चित्र दिखाये
जाते हैं। फिर
संगीत बदल
दिया जाता है।
ब्रह्मचर्य
का कोई सूत्र
आदमी के सामने
रख दिया जाता
है और उनसे
कहा जाता है
ब्रह्मचर्य
के संबंध में
चिंतन करो। तो
एक रेखा नीचे
गिरने लगती है,
दूसरी रेखा
ऊपर चढ़ने
लगती है। और
वह तब तक नहीं
रुकता आदमी, जब तक कि
पहली शून्य न
हो जाए और
दूसरी पूर्ण न
हो जाए। ग्रीन
कहता है— यह
चित्त की
अवस्था है।
फिर
ग्रीन तीसरा
प्रयोग करता
है। वह कहता
है— तुम कुछ मत
सोचो। न तुम
ब्रह्मचर्य
के संबंध में
सोचो, न तुम
कामवासना के
संबंध में
सोचो। तुम तो
सामने देखो और
सिर्फ इतना ही
खयाल करो कि
यह शांत मेरा
मन हो जाए और
ये दोनों
रेखाएं समतुल
हो जाएं। वह
आदमी देखता है,
एक रेखा
नीचे गिरने
लगी, दूसरी
ऊपर बढ़ने लगी।
इसको फीड-बैक
कहता है, ग्रीन।
इससे उसकी
हिम्मत बढ़ती
है कि कुछ हो
रहा है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि ध्यान के
लिए सारे मंदिरों
में वह यंत्र
लग जाना चाहिए।क्योंकि
आपको पता नहीं
चलता कि कुछ
हो रहा है कि
नहीं हो रहा
है। पता चले
कि हो रहा है
तो आपकी
हिम्मत बढ़ती
है। तो जितनी
उसकी हिम्मत
बढ़ती है, उतनी
जल्दी उसकी
रेखाएं करीब आने
लगती हैं।
जितनी करीब
आने लगती हैं,
वह फीड-बैक
मैकेनिज्म हो
गया। वह देखता
है, उसे
लगता है कि हो
रहा है मन
शांत। वह और
शांत होता है,
और शांत
होता है।
यंत्र में
दिखाई पड़ता है,
और शांत हो
रहा है, और
शांत होने की
हिम्मत बढ़ती
है। बहुत
शीघ्र— पंद्रह
मिनट, बीस
मिनट, तीस
मिनट में
दोनों रेखाएं
साथ, समान
आ जाती हैं।
और जब दोनों
रेखाएं समान
आती हैं तब वह
आदमी कहता है—
आह! ऐसी शांति
कभी नहीं
जानी। ऐसा कभी
जाना ही नहीं।
इसको— ग्रीन
को एक नया
शब्द देना पड़ा
है क्योंकि कोई
शब्द नहीं कि
इसको कौन-सा
अनुभव कहें।
तो वह कहता है—
"अहा ऐक्सपीरिएंस!'
जब वे दोनों
रेखाएं शांत
हो जाती हैं
तब आदमी कहता
है— अहा!
और एक
दफा यह अनुभव
में आ जाए तो
संयम का खयाल
आ सकता है, अन्यथा
संयम का खयाल
नहीं आ सकता
है। संयम का
अर्थ है—
चित्त जहां
कोई भी अति
में न हो, और
"अहा ऐक्सपीरिएंस'
में आ जाए।
एक अहोभाव भर
रह जाए, एक
शांत मुद्रा
रह जाए, तो
संयम है।और
यह संयम बड़ी पाजिटिव
बात है।
जब
दोनों अतियां
साथ खड़ी हो
जाती हैं तब
दोनों
एक-दूसरे को
काट देती हैं, और
आदमी मुक्त हो
जाता है। लोभ
और त्याग
दोनों सम हो
गये, तो
फिर आदमी
त्यागी भी
नहीं होता, लोभी भी नहीं
होता। और जहां
तक लोभ होता
है वहां तक
बेचैनी होती
है और जहां तक
त्याग होता है
वहां तक भी बेचैनी
होती है।
क्योंकि
त्याग उलटा
खड़ा हुआ लोभ
ही है, और
कुछ भी नहीं
है—शीर्षासन
करता हुआ लोभ
है।
जब तक
कामवासना मन
को पकड़ती
है तब तक भी
बेचैनी होती
है और जब तक
ब्रह्मचर्य
आकर्षण देता
है तब तक भी
बेचैनी होती
है,
क्योंकि
ब्रह्मचर्य
है क्या? उलटा
खड़ा हुआ काम
है, शीर्षासन
करता हुआ काम।
वास्तविक
ब्रह्मचर्य
तो उस दिन
उपलब्ध होता
है कि जिस दिन
ब्रह्मचर्य
का भी पता
नहीं रह जाता।
वास्तविक
त्याग तो उस
दिन उपलब्ध
होता है जिस
दिन त्याग का
बोध भी नहीं
रह जाता। पता
भी नहीं रहता,
क्योंकि
पता कैसे
रहेगा? जिसके
मन में लोभ ही
न रहा, उसे
त्याग का पता
कैसे रहेगा? अगर त्याग
का पता है तो
लोभ कहीं न
कहीं पीछे छिपा
हुआ खड़ा है।
वही तो पता
करवाता है।
कंट्रास्ट
चाहिए न, पता
होने को। काली
रेखा चाहिए न,
सफेद कागज
पर! काले ब्लेक-बोर्ड
पर सफेद चाक
चाहिए न। नहीं
तो दिखेगा कैसे?
जब तक आपको
दिखता है मैं
त्यागी, तब
तक आप जानना
कि भीतर मैं
लोभी मजबूती
से खड़ा है।
नहीं तो
दिखेगा कैसे।
जब तक आपको यह
लगता है कि
मैं
ब्रह्मचारी!
तब तक आप चोटी-वोटी
बांधकर और तिलक-टीका
लगाकर जोर से
घोषणा करते
फिरते हैं खड़ाऊं
बजाकर, कि
मैं
ब्रह्मचारी!
तब तक आप
समझना कि पीछे
उपद्रव छिपा
है। आपकी चोटी
देखकर लोगों
को सावधान हो
जाना चाहिए कि
खतरनाक आदमी आ
रहा है। खड़ाऊं
वगैरह की आवाज
सुनकर लोगों
को सचेत हो
जाना चाहिए।
वह पीछे छिपा
है जो
ब्रह्मचर्य
का दावा कर
रहा है, वह
कामवासना का
ही रूप है।
संयम
महावीर कहते
हैं उस क्षण
को,
जहां न काम
रहा, न
ब्रह्मचर्य
रहा। जहां न
लोभ रहा, न
त्याग रहा।
जहां न यह अति पकड़ती है, न वह अति पकड़ती
है। जहां आदमी
अनति में, मौन
में, शांति
में थिर हो
गया। जहां
दोनो बिंदु
समान हो गये।
जहां एक-दूसरे
की शक्ति ने
एक-दूसरे को
काटकर शून्य
कर दिया। संयम
यानी शून्य।
और इसलिए संयम
सेतु है।
इसलिए संयम के
ही माध्यम से
कोई व्यक्ति
परमगति को
उपलब्ध होता
है।
इसलिए
संयम को श्वास
मैंने कहा। और
कारणों से भी
श्वास कहा है।
क्योंकि आपको
शायद पता न हो, आप
श्वास में भी
असंयमी होते
हैं। या तो आप
ज्यादा श्वास
लेते होते हैं
या कम श्वास
लेते होते
हैं। पुरुष
ज्यादा श्वास
लेने से पीड़ित
हैं, स्त्रियां
कम श्वास लेने
से पीड़ित हैं।
जो आक्रामक
हैं वे ज्यादा
श्वास लेने से
पीड़ित होते
हैं, जो
सुरक्षा के
भाव में पड़े रहते
हैं वे कम
श्वास लेने से
पीड़ित होते
हैं। हममें से
बहुत कम लोग
हैं जिन्होंने
सच में ही
संयमित श्वास
भी ली हो, और
तो दूसरे काम
करने बहुत
कठिन हैं।
श्वास तो आपको
लेनी भी नहीं
पड़ती, उसमें
कोई लाभ-हानि
भी नहीं है।
लेकिन वह भी हम
संयमित नहीं
लेते। हमारी
श्वास भी तनाव
के साथ चलती
है। खयाल करें
आप, कामवासना
में आपकी
श्वास तेज हो
जाएगी। आप उतने
ही समय में, जितनी आप
साधारण श्वास
लेते हैं, दुगुनी
और तिगुनी
श्वास लेंगे।
इसलिए पसीना आ
जाएगा, शरीर
थक जाएगा। अब
अगर कोई आदमी
ब्रह्मचर्य साधने
की कोशिश करेगा
तो साधने में
वह श्वास कम
लेने लगेगा।
ठीक विपरीत
होगा—होगा ही।
असल
में
ब्रह्मचारी
जो है, वह एक
अर्थ में
कंजूस है, सब
मामलों में।
यह नहीं कि वह
वीर्य-शक्ति
के मामले में
कंजूस है।
जैसे वह कंजूस
होता है सब
मामलों में, वैसे वह
श्वास के
मामले में भी
कंजूस हो जाता
है। अगर हम बायलाजिकली
समझने की कोशिश
करें तो जो
ब्रह्मचर्य
की कोशिश है, वह एक तरह की कांस्टिपेशन
की कोशिश है। कोष्टबद्धता
है वह। आदमी
सब चीजों को
भीतर रोक लेना
चाहता है, कुछ
निकल न जाए
शरीर से उसके।
तो श्वास भी
वह धीमी लेगा।
सब चीजों को
रोक लेगा। वह
रुकाव उसके
चारों तरफ
व्यक्तित्व
में खड़ा हो जाएगा।
ये अतियां
हैं।
श्वास
की सरलता उस
क्षण में
उपलब्ध होती
है,
जब आपको पता
ही नहीं चलता
कि आप श्वास
ले भी रहे हैं
। ध्यान में
जो लोग भी
गहरे जाते हैं
उनको वह क्षण
आ जाता है—वे
मुझे आकर कहते
हैं कि कहीं
श्वास बंद तो
नहीं हो जाती!
पता नहीं चलता,
बंद नहीं
होती श्वास।
श्वास चलती
रहती है। लेकिन
इतनी शांत हो
जाती है, इतनी
समतुल हो जाती
है, बाहर
जाने वाली
श्वास, भीतर
आने वाली
श्वास ऐसी
समतुल हो जाती
है कि दोनों
तराजू बराबर
खड़े हो जाते
हैं। पता ही
नहीं चलता।
क्योंकि पता
चलने के लिए
थोड़ा बहुत
हलन-चलन
चाहिए। पता
चलने के लिए
थोड़ी बहुत
डगमगाहट
चाहिए। पता
चलने के लिए
थोड़ा मूवमेंट
चाहिए। यह सब
मूवमेंट एक अर्थ
में थिर हो
जाता है। ऐसा
नहीं कि नहीं
चलता। चलता है,
लेकिन
दोनों तुल
जाते हैं। जो
व्यक्ति
जितना संयमी
होता है उतनी
उसकी श्वास भी
संयमित हो
जाती है। या
जिस व्य*कित
की जितनी
श्वास संयमित
हो जाती है
उतना उसके
भीतर संयम की
सुविधा बढ़
जाती है इसलिए
श्वास पर बड़े
प्रयोग
महावीर ने
किये।
श्वास
के संबंध में
भी अत्यंत
संतुलित, और
जीवन के और
सारे आया मों
में भी अत्यंत
संतुलित।
महावीर कहते हैं—
सम्यक आहार, सम्यक
व्यायाम, सम्यक
निद्रा, सम्यक
सभी कुछ सम्यक
हो। वे नहीं
कहते हैं कि कम
सोओ; वे
नहीं कहते कि
ज्यादा सोओ; वे कहते
इतना ही सोओ
जितना सम है।
वे नहीं कहते
कम खाओ, ज्यादा
खाओ; वे
कहते हैं उतना
ही खाओ जितना
सम पर ठहर
जाता है। इतना
खाओ कि भूख का
भी पता न चले
और भोजन का भी
पता न चले।
अगर खाने के
बाद भूख का
पता चलता है
तो आपने कम
खाया और अगर
खाने के बाद
भोजन का पता
चलने लगता है
तो आपने
ज्यादा खा
लिया। इतना
खाओ कि खाने
के बाद भूख का
भी पता न चले
और पेट का भी
पता न चले।
लेकिन हम
दोनों नहीं कर
पाते हैं, या
तो हमें भूख
का पता चलता
है और या हमें
पेट का पता
चलता है। भोजन
के पहले भूख
का पता चलता है
और भोजन के
बाद भोजन का
पता चलता है, लेकिन पता
चलना जारी
रहता है।
महावीर
कहते हैं— पता
चलना बीमारी
है। असल में
शरीर के उसी
अंग का पता
चलता है जो
बीमार होता है।
स्वस्थ अंग का
पता नहीं
चलता।
सिरदर्द होता है
तो सिर का पता
चलता है, पैर
में कांटा गड़ता
है तो पैर का
पता चलता है।
महावीर कहते
हैं— सम्यक
आहार, पता
ही न चले— भूख
का भी नहीं, भोजन का भी
नहीं— सोने का
भी नहीं, जागने
का भी नहीं—श्रम
का भी नहीं, विश्राम का
भी नहीं। मगर
हम दो में से
कुछ एक ही कर
पाते हैं। या
तो हम श्रम
ज्यादा कर
लेते हैं, या
विश्राम
ज्यादा कर
लेते हैं।
कारण
क्या है यह
ज्यादा कर
लेने का? कुछ
भी ज्यादा कर
लेने का? का
रण यही है कि
ज्यादा करने
में हमें पता
चलता है कि हम
हैं। हमें पता
चलता है कि हम
हैं और हम
चाहते यही हैं
कि हमें पता
चलता रहे कि
हम हैं। यही
महावीर की
अहिंसा के
बाबत मैंने
आपसे कहा कि
अहिंसा का
अर्थ है— हमें
पता ही न चले
कि हम हैं। ऐब्सेंट
हो जाएं—
अनुपस्थित।
पर हमारा मन
होता है, हमारा
पता चले कि हम
हैं। यही
अहंकार है कि
हमें पता चलता
रहे कि हम
हैं। न केवल
हमें, बल्कि
औरों को पता
चलता रहे कि
हम हैं। तो
फिर हम असंयम
के सिवाय
हमारे लिए कोई
मार्ग नहीं रह
जाता। इसलिए
जितना असंयमी
आदमी हो, उतना
ही उसका पता
चलता है।
एमाइल जोला ने
अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि अगर दुनिया
में सब अच्छे
आदमी हों तो
कथा लिखना
बहुत मुश्किल
हो जाए।
कथानक
न मिले। अच्छे
आदमी की कोई
जिंदगी की कहानी
होती है? नहीं
होती। क्या बताइयेगा?
बुरे आदमी
की जिंदगी में
कहानी होती
है। बुरे आदमी
की जिंदगी एक
कहानी होती
है। अच्छे
आदमी की
जिंदगी अगर
सच में ही
अच्छी है तो
शून्य हो जाती
है। कहानी
कहां बचती है!
कुछ नहीं बचता
है। जीसस की
जिंदगी का
बहुत कम पता
है। ईसाई बड़े
परेशान रहते
हैं कि जिंदगी
का बहुत कम
पता है। वे कोई
उत्तर नहीं दे
पाते। जीसस
पैदा हुए, इसका
पता है। फिर
पांच साल की
उम्र में एक
बार मंदिर में
देखे गये, इसका
पता है। फिर तीस
साल की उम्र
में देखे गये,
इसका पता
है। फिर तैंतीसवे
साल में सूली
लग गई, इसका
पता है। बस
इतनी कहानी
है। तीस साल
की जिंदगी का
कोई पता नहीं
है।
एक
ईसाई फकीर
मुझे मिलने
आया था। वह
कहने लगा— आप
महावीर के
संबंध में
कहते हैं, बुद्ध
के संबंध में
कहते हैं, कभी
आप क्राइस्ट
के संबंध में
कहें। और वह
जो तीस साल, जो बिलकुल
पता नहीं है, उसके संबंध
में कहें। तो
मैंने कहा—
थोड़ा तो कहा
जा सकता है।
लेकिन सच बात
यह है कि पता न
होने का कुल
कारण इतना है
कि जीसस की
जिंदगी में
कुछ भी नहीं
था, नो इवेंट।
और अगर लोग
सूली न लगाते यह
भी जीसस की जिंदगी
का इवेंट
नहीं है, लोगों
की जिंदगी का
है। लोगों ने
सूली लगा दी।
इसमें जीसस
क्या करें! और
अगर लोग सूली
न लगाते तो यह
भी कथा न
होती। लोग न
माने तो लोगों
ने सूली लगा
दी। इसलिए कथा
है, नहीं
तो जीसस का
पता ही नहीं
चलता, इस
जमीन पर। यह
सूली लगाने वालों
ने इनको टिका
दिया। तो जीसस
कोरे कागज की
तरह आते और
विदा हो जाते।
बहुत लोग आये
और इसी तरह
विदा हो गये
हैं।
अगर हम
महावीर की
जिंदगी में भी
खोजें तो किस बात
का पता है? कभी
किसी ने कान
में कीले ठोंक
दिये, इसका
पता है। लेकिन
दिस इ नाट इवेंट
इन दि महावीर
लाइफ। यह
महावीर की
जिंदगी की
घटना नहीं है,
यह तो कीले ठोंकने वाले
की जिंदगी की
घटना है।
महावीर का
क्या है इसमें
हाथ? कि
कोई आया और
महावीर के
चरणों में सिर
रख दिया। यह
भी महावीर की
जिंदगी की
घटना नहीं है।
यह तो सिर
रखने वाले की
जिंदगी की
घटना है, कि
किसी ने
चिल्लाकर
महावीर को
तीर्थकर कह
दिया, यह
भी महावीर की
जिंदगी की
घटना नहीं है।
यह भी तो किसी
के चिल्लाने
की घटना है।
अगर हम शुद्ध
रूप से महावीर
की जिंदगी
खोजने जाएं तो
कोरा कागज हो
जाएगी। अच्छे
आदमी की कोई
जिंदगी नहीं
होती। बुरे
आदमी की ही
जिंदगी होती है।
इसलिए कहानी
लिखनी हो या
सिने-कथा
लिखनी हो तो
बुरे आदमी को
ही चुनना पड़ता
है। इसके बिना
नहीं इसके
बिना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा।
रावण
के बिना हम
रामायण की
कल्पना नहीं
कर सकते। राम
के बिना कर भी
सकते हैं। राम
की जगह कोई भी
अ ब स द भी काम
दे सकता है।
लेकिन रावण
अपरिहार्य
है। उसके बिना
कहानी में जान
ही निकल
जाएगी। वही
असली कथा है।
लोग समझते हैं, राम
हैं कथा के
के*नदर, उसके
नायक। मैं
नहीं समझता।
रावण है।
हमेशा बुरा
आदमी हीरो
होता है।
इसलिए हीरो
बनने से जरा
बचना। नायक
होने के लिए
बुरा होना
बिलकुल जरूरी
है।
संयमी
व्यक्ति के
जीवन से सारी
घटनाएं विदा
हो जाती हैं।
और घटनाएं
विदा होते ही
उसे "मैं हूं' यह
कहने का भी
उपाय नहीं रह
जाता। और हम
सब कहना चाहते
हैं कि मैं
हूं। इसलिए
असंयम हमें
जरूरी होता
है। कभी
ज्यादा खाकर
हम जाहिर करते
हैं कि मैं
हूं, कभी
उपवास करके
जाहिर करते
हैं कि मैं
हूं। कभी
वेश्या लय में
जाहिर करते
हैं कि मैं
हूं, कभी
मंदिर में
जाकर जाहिर
करते हैं कि
मैं हूं।
लेकिन हमारा
जाहिर करना
जारी रहता है।
मंदिर में भी
कोई
देखनेवाला न
आये तो हमारा
जाने का मन
नहीं होता।
हम वही
करते हैं जिसे
लोग देखते हैं
और मानते हैं
कि कुछ हो।
मैं हूं, इसे
बताना होता
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं—
जितने लोग इस
जमीन पर बुरे
हो जाते हैं, अगर हम ऐसा
समाज बना सकें
कि जितना बुरे
आदमी को नाम
मिलता है— लोग
उसे बदनाम
कहते हैं, अगर
उतना अच्छे
आदमी को नाम
मिलने लगे तो
कोई आदमी बुरा
न हो। वे
अच्छे हो
जाएं। बुरा
आदमी भी
अस्मिता की, अहंकार की
खोज में ही
बुरा होता है।
आप इसको देखते
ही नहीं, आप
इसकी तरफ
ध्यान ही नहीं
देते, आप
मानते ही नहीं
कि तुम हो।
उसे कुछ न कुछ
करना पड़ता है।
उसे कुछ करके
दिखाना पड़ता
है। अखबार
किसी ध्यान
करनेवाले की
खबर नहीं
छापते, किसी
की छाती में
छुरा भोंकने वाले
की खबर छापते
हैं। अखबार
इसकी खबर नहीं
छापते कि एक
स्त्री अपने
पति के प्रति
जीवन भर निष्ठावान
रही। अखबार
इसकी खबर
छापते हैं कि कौन
स्त्री भाग
गई।
मुल्ला
नसरुद्दीन
को उसके गांव
के लोगों ने
मजिस्ट्रेट
बना दिया था , बुढ़ापे
में। पहले ही
दिन अदालत में
कोई मुकदमा
नहीं आया।
दोपहर हो गयी,
मुंशी
बेचैन होने
लगा— मुल्ला
का मुंशी जो
था वह बेचैन
होने लगा, उदास
होने लगा, मक्खी
उड़ाते-उड़ाते
वहां।
मुल्ला
ने कहा— बेचैन
मत हो, घबरा
मत। हैव फेथ
आन हयूमन
नेचर। आदमी के
स्वभाव पर
भरोसा रखो।
शाम तक कुछ न
कुछ होकर
रहेगा। तू
घबरा मत, इतना
बेचैन मत हो।
कोई न कोई
हत्या होगी, कोई न कोई
स्त्री भाग
जाएगी, कोई
न कोई उपद्रव
होकर रहेगा।
हैव फेथ
आन हयूमन
नेचर। आदमी के
स्वभाव पर
भरोसा रख।
आदमी बिना कुछ
किये नहीं
रहेगा।
आदमी
के स्वभाव पर
भरोसा सब
अखबार उसी भरोसे
पर चलते हैं, नहीं
तो कोई अखबार
नहीं चल पाता।
लेकिन कल घटनाएं
घटेंगी, अखबार में
जगह नहीं
बचेगी । पक्का
पता है, आदमी
के स्वभाव पर
भरोसा है। कोई
स्त्री भागेगी,
कोई हत्या
करेगा, कोई
चोरी करेगा, कोई गबन
करेगा, कोई
मिनिस्टर कुछ
करेगा, कोई
न कोई कुछ
करेगा। कहीं
युद्ध होगा, कहीं उपद्रव
होगा, कहीं
सेना भेजी
जाएगी, कहीं
क्रांति
होगी। आदमी के
स्वभाव पर
भरोसा है, नहीं
तो अखबार सब
मुश्किल में
पड़ जाएंगे।
भले आदमी की
दुनिया में
अखबार बहुत
मुश्किल में होंगे।
इसलिए मैंने
सुना है
स्वर्ग में
कोई अखबार
नहीं हैं, नर्क
में सब हैं।
स्वर्ग में
कोई घटना नहीं
घटती, नो इवेंट।
खबर भी क्या छापियेगा?
अगर छापियेगा
भी तो, छपते-छपते,
बस अंत में
कुछ छपेगा
नहीं।
भले
आदमी की
जिंदगी में
कोई घटना नहीं
है और हम
चाहते हैं कि
हम हों।
घटनाओं के जोड़
के बिना हम
नहीं हो सकते।
और अगर घटनाएं
चाहिये तो
आपको तनाव में
जीना पड़ेगा, अतियों
पर डोलना
पड़ेगा। क्रोध
करना पड़ेगा, क्षमा करना
पड़ेगा। भोग
करना पड़ेगा, त्याग करना
पड़ेगा।
दुश्मनी करनी
पड़ेगी, दोस्ती
करनी पड़ेगी।
संयमी का अर्थ
है— जो
द्वंद्व में
कुछ भी नहीं
करता है, जो
द्वंद्व के
बाहर सरक जाता
है। जो कहता
है— न दोस्ती
करेंगे, न
दुश्मनी
करेंगे।
महावीर किसी
से मित्रता नहीं
करते हैं
क्योंकि
महावीर जानते
हैं मित्रता
एक अति है।
महावीर किसी
से शत्रुता भी
नहीं करते
क्योंकि
महावीर जानते
हैं शत्रुता
अति है। लेकिन
हम! हम उलटा
सोचते हैं। हम
सोचते हैं कि
अगर दुनिया से
शत्रुता मिटानी
हो तो सबसे
मित्रता करनी
चाहिए। आप
गलती में हैं।
मित्रता एक
अति है, उससे
शत्रुता पैदा
होती है। इधर
आप मित्रता
करते हैं, ठीक
उतनी ही बैलैंसिंग
आपको किसी से
शत्रुता करनी
पड़ेगी। उतना
ही संतुलन
बनाना पड़ेगा।
मुसलमान
फकीर हुआ है, हसन।
बैठा है अपनी झोपड़ी
में। साधक कुछ
पा स बैठे
हैं। एक अजनबी
सूफी फकीर
भीतर प्रवेश
करता है, चरणों
में गिर जाता
है हसन के और
कहता है— तुम
भगवान हो, तुम
साक्षात
अवतार हो, तुम
ज्ञान के
साकार रूप हो।
बड़ी प्रशंसा
करता है। हसन
बैठा सुनता
रहता है। जब
वह फकीर सब प्रशंसा
कर चुकता है तो
एक और फकीर
वहां बैठा हुआ
है— बायजीद, वहां बैठा
हुआ है। वह
हसन जैसी ही
कीमत का आदमी
है। जब वह
फकीर प्रशंसा
करके जा चुका
होता है चरण
छूकर, तो
बायजीद एकदम
से हसन को
गाली देना
शुरू कर देता
है। सभी लोग
चौंक जाते
हैं। बायजीद
और हसन को
गालियां दे!
पीड़ा भी अनुभव
करते हैं, लेकिन
बायजीद भी
कीमती फकीर
है। कुछ कोई
बोल तो सकता
नहीं। हसन
बैठा सुनता
रहता है। फिर
बायजीद
गालियां देकर
चला जाता है।
बायजीद के जाते
ही शिष्यों
में से कोई
पूछता है हसन
से कि हमारी
समझ में नहीं
आया कि बायजीद
ने इस तरह का
अभद्र
व्यवहार
क्यों किया? हसन ने कहा—कुछ
नहीं, जस्ट बैलैंसिंग।
कोई अभद्र
व्यवहार नहीं
किया। वह एक
आदमी देखते हो
पहले, भगवान
कह गया। इतनी
प्रशंसा कर
गया। तो किसी
को तो बैलैंस
करना ही
पड़ेगा। कोई तो
संतुलन करेगा
ही। नाउ
एवरीथिंग इज़ बैलैंस्ड।
अब हम वही हैं
जहां इन दोनों
आदमियों के पहले
थे। अपना काम
शुरू करें।
जिंदगी
में आप इधर
मित्रता
बनाते हैं, उधर
शत्रुता
निर्मित हो
जाती है। इधर
आप किसी को
प्रेम करते
हैं, उधर
किसी को घृणा
करना शुरू हो
जाता है।
जिंदगी में जब
भी आप किसी
द्वंद्व को
चुनते हैं, तो दूसरे
द्वंद्व में
भी ताकत
पहुंचनी शुरू
हो जाती है। आप
चाहें, न
चाहें, यह
सवाल नहीं है।
जीवन का नियम
यह है। इसलिए
महावीर किसी
को मित्र नहीं
बनाते। और जब
वे कहते हैं
कि सबसे मेरी
मैत्री है, तो उसका
मतलब मित्रता
से नहीं है।
उसका मतलब है
कि मेरी किसी
से कोई
शत्रुता नहीं,
मित्रता
नहीं। जो बच
रहता है, उसको
मैत्री कहते
हैं। जो बच
रहता है! कुछ
बच नहीं रहता
है, एक
निराकार भाव
बच रहता है।
कोई संबंध बच
नहीं रहता। एक
असंबंधित
स्थिति बच
रहती है। कोई
पक्ष नहीं बच
रहता , एक
तटस्थ दशा बच
रहती है।
जब वे
कहते हैं—
सबसे मेरी
मैत्री है, तो
उसका मतलब
सिर्फ इतना ही
है— उससे हम
भूल में न
पड़ें कि यह
हमारे जैसी
मित्रता है।
हमारी
मित्रता तो
बिना शत्रुता
के हो ही नहीं
सकती। जब वे
कहते हैं—
सबसे मुझे
प्रेम है, तो
हम इस भ्रम
में न पड़ें कि
हमारे जैसा
प्रेम है।
हमारा प्रेम
बिना घृणा के
नहीं हो सकता,
बिना ईर्ष्या
के नहीं हो
सकता। इसलिए
महावीर जैसे
लोगों को
समझने की जो
सबसे बड़ी
कठिनाई है, वह यह है कि
शब्द वे वही
उपयोग करते
हैं, जो
हम। और कोई
उपाय भी नहीं
है— वही शब्द
हैं, उपयोग
करने के लिए।
और हमारे भाव
उन शब्दों से
बहुत और हैं, हमारे अर्थ
बहुत और हैं, और महावीर
के अर्थ बहुत
और हैं।
संयम
का विधायक
अर्थ है—
स्वयं में
इतना ठहर जाना
कि मन की किसी
अति पर कोई
हलन-चलन न हो।
आज
इतना ही।
फिर
हम कल बात
करेंगे। अभी
जाएं न। थोड़ी
देर बैठें।
धुन संन्यासी
करते हैं, उसमें
सम्मिलित
हों।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं