अध्याय 12 : सूत्र 1
पंचेंद्रियां
पंच रंग मनुष्य की आंखों को अंधा कर जाते हैं;
पंच स्वर उसके कानों को बहरा कर जाते हैं;
पंच स्वाद उसकी रुचि को नष्ट कर देते हैं;
घुड़दौड़ और शिकार उसके मन को पागल कर देते हैं;
दुर्लभ और विचित्र पदार्थों की खोज उसके आचरण को भ्रष्ट कर देती है।
इस कारण संत बहिर नेत्रों की दुष्पूर आकांक्षाओं की तृप्ति नहीं,
वरन उस भूख की चिंता करते हैं, जो नाभि के अंतरस्थ केंद्र में निहित है।
संत एक का निषेध और दूसरे का समर्थन करते हैं।
जहां हम जीते हैं, जैसे हम जीते हैं, उस जीवन का अंतिम फल मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता है। कहा जा सकता है कि हम सिर्फ जीने के नाम पर रोज-रोज मरते हैं। और मृत्यु एक दिन अचानक नहीं आती। अचानक इस जगत में कुछ भी नहीं होता है। जिन्हें हम घटनाएं समझते हैं, वे भी घटनाएं नहीं होतीं। वे भी लंबी प्रक्रियाएं होती हैं।
मृत्यु भी अचानक नहीं उतर आती। मृत्यु भी रोज-रोज विकसित होती है। इट इज़ नॉट एन ईवेंट, बट ए प्रोसेस; घटना नहीं, एक प्रक्रिया। जन्म से ही हम मरना शुरू हो जाते हैं। मृत्यु के दिन वह मरने की प्रक्रिया पूरी होती है।
तो एक तो मृत्यु अचानक नहीं घटती, एक विकास है। इसलिए मृत्यु भविष्य में घटेगी, ऐसा नहीं; अभी भी घट रही है। हम घंटे भर यहां होंगे, तो मृत्यु घंटे भर घट चुकी होगी। हम घंटा भर और मर चुके होंगे। जीवन एक घंटा और रिक्त हो जाएगा। दूसरी बात कि मृत्यु कोई बाहरी घटना नहीं है कि आपके ऊपर बाहर से आ जाती हो। हम सब इसी तरह सोचते हैं, जैसे मौत कहीं बाहर से आ जाती है, यमदूत उसे ले आते हैं, कोई मृत्यु का संदेशवाहक आ जाता है और हमारे प्राणों को खींच कर ले जाता है। गलत है वह दृष्टि। वह दृष्टि भी इसीलिए है कि हम सदा ही दुख कोई दूसरा लाता है, इस दृष्टि से बंधे हैं, इसलिए मृत्यु भी कोई लाता होगा।
नहीं, कोई मृत्यु लाता नहीं। मृत्यु भी आंतरिक घटना है; आपके भीतर ही घटित होती है। मृत्यु कहीं बाहर से आपके भीतर प्रवेश नहीं करती; आप ही भीतर मिट जाते हैं, बिखर जाते हैं। वह जो यंत्र था आपका, वह बिखर जाता है, और मौत घट जाती है।
तो एक तो मृत्यु एक प्रक्रिया है लंबी, जन्म से शुरू होती, मृत्यु पर समाप्त होती। दूसरा, बाहर से नहीं आती, भीतर ही विकसित होती है; अंतर-घटना है। यह बात खयाल में आ जाए, तो हमें पता चलेगा कि हमारा पूरा जीवन रोज-रोज अनेक रूपों में मरता है। आंख देख-देख कर मिटती है और नष्ट होती है। कान सुन-सुन कर मिटते हैं और नष्ट होते हैं। स्वाद, स्वाद ले-ले कर टूटता चला जाता है, बिखर जाता है। मरते हैं हम जी-जी कर। जीना ही हमारे मरने का इंतजाम है। उसी में हम घिस जाते हैं। यंत्र बिखर जाता है, टूट जाता है, उखड़ जाता है।
लाओत्से कहता है, "पंच रंग मनुष्य की आंखों को अंधा कर जाते हैं।'
कभी इस तरह सोचा न होगा आपने कि रंग और आंख को अंधा कर जाएं! रंग तो आंख का हमें जीवन मालूम होते हैं। रंग देखने के लिए ही तो आंख जीती है और चमकती है। रंग और रूप तो हमारी आंख का भोजन हैं। और लाओत्से कहता है, वे हमारी आंख की मृत्यु हैं।
दो अर्थों में हैं। एक तो, देख-देख कर ही आंख थकती, नष्ट होती, उपयोग की नहीं रह जाती है। बुढ़ापे के कारण बूढ़े की आंख कम देखती है, ऐसा नहीं है। बहुत देख चुकी होती है, इसलिए अब कम देखती है। देख-देख कर थक गई होती है, यंत्र घिस गया होता है। बूढ़े के कान बूढ़े होने के कारण नहीं सुनते, ऐसा नहीं है। सुन चुके होते हैं, काम कर चुके होते हैं, थक गए होते हैं। विश्राम का क्षण आ गया होता है। यंत्र अपनी उपयोगिता पूरी कर चुका। अगर इस तरह देखें, तो इसका अर्थ हुआ कि जितना हम देखते हैं, उतनी ही आंख मरती है। और जितना हम सुनते हैं, उतने ही कान बधिर हो जाते हैं। और जितना हम छूते हैं, उतना ही स्पर्श नष्ट होता है। जितना हम स्वाद लेते हैं, उतनी ही रुचि विनष्ट होती है।
इसका अर्थ हुआ कि प्रत्येक इंद्रिय अपनी मृत्यु की कोशिश में लगी है। और हमारा पूरा जीवन आत्मघाती है, स्युसाइडल है। कभी सिनेमागृह से लौटते वक्त आपको लगा होगा कि आंख थक गई। आपने खयाल नहीं किया होगा कि आंख तो आप वैसे भी खोले रखते हैं, सिनेमागृह में भी खोले रखे; तीन घंटे बाहर होते, तो वहां भी खोले रखते, सिनेमागृह में भी खोले रखे; पर ज्यादा क्यों थक गई है? तो अब दुबारा जब आप जाएं, तो खयाल करना। सिनेमागृह में देखते समय आपकी आंख का पलक झपना बंद हो जाता है।
वह जो आंख बीच-बीच में झपक लेती है, उससे ताजी हो जाती है। वह झपकना जो है, आंख के देखने के सिलसिले को तोड़ता जाता है। लेकिन जब भी आप कहीं इतनी त्वरा से देखने लगते हैं कि झपकना भूल जाते हैं आंख का, तो आंख थक जाती है। इसलिए सिनेमागृह से लौटा हुआ आदमी एकदम से सो भी नहीं पाता। आंख तीन घंटे अपलक खुली रहने के बाद एकदम से बंद भी नहीं हो पाती। और आंख बंद भी हो जाए, तो भी सिनेमागृह में जो उसने देखा है, वह भीतर के पटल पर चलता चला जाता है।
अक्सर ऐसा होता है, अक्सर ऐसा होता है कि पेंटर, चित्रकार जल्दी अंधे हो जाते हैं। होना नहीं चाहिए। जिनकी आंखों ने इतना देखा है, उनकी आंखें तो और ताजी हो जानी चाहिए। लेकिन रंगों में जी-जी कर अक्सर, देख-देख कर अक्सर अंधे हो जाते हैं। जिस इंद्रिय का हम ज्यादा उपयोग करते हैं, वही थक जाती है और मर जाती है।
एक तो यह अर्थ हुआ। इसका प्रयोजन यह है लाओत्से का कि हम अपनी इंद्रियों को मरते क्षण तक भी ताजा और युवा रख सकते हैं। और जिस व्यक्ति ने अपनी इंद्रियों को मरते क्षण तक ताजा और युवा रखा हो, वह मृत्यु का भी स्वाद ले सकता है। मृत्यु का भी रंग देख सकता है। वह मृत्यु का भी स्पर्श कर सकता है। वह मृत्यु को भी अनुभव कर सकता है। लेकिन मरने के पहले ही हमारे अनुभव की सब क्षमताएं टूट जाती हैं। इसलिए हम कई बार मर चुके हैं, लेकिन हमें मृत्यु का कोई अनुभव नहीं है। इसकी अड़चन है।
हम सब कई बार मर चुके हैं। लेकिन यदि हम किसी से पूछें कि मृत्यु क्या है, तो वह कहेगा मैं नहीं जानता हूं। वह भी मरा है, बहुत बार मरा है। पर उसे कुछ भी याद नहीं है। क्योंकि याद तो तभी हो सकती है, जब इंद्रियां इतनी सजग रही हों कि उन्होंने अनुभव लिया हो और अनुभव स्मृति में प्रवेश कर गया हो। मरते क्षण तक अधिक लोग, मरने की घटना बाद में घटती है, उनकी सब इंद्रियां पहले ही मर चुकी होती हैं। इसलिए मेमोरी, स्मृति निर्मित नहीं हो पाती।
इसलिए मजे की बात है कि अक्सर जिन लोगों को पिछले जन्म का स्मरण होता है, सौ में निन्यानबे मौकों पर वे लोग पिछले जन्म में युवा या बच्चे ही मर गए होते हैं। उसका कारण है। निन्यानबे मौकों पर उनका पिछला जन्म अचानक, आकस्मिक रूप से, कम उम्र में, जब सब ताजा था, इंद्रियां ताजी थीं, स्मृति ताजी थी, बुद्धि ताजी थी, तब मौत घट गई। तो वह जो इम्पैक्ट है, वह जो संस्कार है मृत्यु का, वह भूलता नहीं, वह याद रह जाता है। अभी तक ऐसी घटना नहीं घटी है कि पिछले जन्म के स्मरण करने वाले ने किसी ने कहा हो कि पिछले जन्म में मैं नब्बे वर्ष का होकर मरा। ऐसा नहीं है कि ऐसा नहीं घट सकता, ऐसा घट सकता है। लेकिन ऐसा घटने का मौका नहीं आता, क्योंकि मरने के पहले ही उसके भीतर के सब यंत्र मर चुके होते हैं।
जो साधक अमृत की खोज पर निकला है, जिसने जीवन के परम ताओ को, परम ऋत, परम धर्म को खोजना चाहा है, उसे अपनी इंद्रियों को प्रतिपल ताजा और युवा रखना जरूरी है। तो मृत्यु का अनुभव हो सकेगा--और जीवन का भी।
यह भी बड़े मजे की बात है कि जो लोग दिन-रात रंग को देखते रहते हैं, उनके रंग की आंख ही नहीं मरती, रंग का स्वाद भी मर जाता है, रंग की प्रतीति भी मर जाती है। बोथली हो जाती है, धार नहीं रह जाती। इसलिए बच्चा जब पहली दफे जगत को देखता है, तो जैसा रंगीन होता है, वैसा जगत फिर हम कभी भी नहीं देख पाते। बच्चा जब जगत को छूता है, तो स्पर्श में जैसी पुलक अनुभव होती है, वैसी फिर हमें कभी अनुभव नहीं हो पाती। बच्चा जब स्वाद लेता है, तो स्वाद जैसा उसके रोएं-रोएं को आंदोलित और आनंदित कर जाता है, वैसा फिर हम कभी नहीं कर पाते। कारण क्या है? कारण इतना ही है कि बच्चे की सभी इंद्रियां अभी ताजी हैं। और अभी वे जो भी ग्रहण करती हैं, वह समग्र रूप से प्रवेश कर जाता है।
अमरीका में सेंसिटिविटी के लिए आंदोलन चलता है, और बहुत से केंद्र हैं। एक बड़ा केंद्र कैलिफोर्निया में है--बिगसोर में। संभवतः इस सदी का महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण प्रयोग बिगसोर में चल रहा है। वह प्रयोग है कि लोगों की इंद्रिय की क्षमता को वापस लाया जाए। इक्कीस दिन के प्रयोग पर लोग जाते हैं। इक्कीस दिन में उन्हें फिर से चीजों को देखना, स्पर्श करना, स्वाद लेना सिखाया जाता है; प्रशिक्षित करना होता है।
आप जब खाना खाने बैठते हैं--सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं--तो आपको पता नहीं होगा, अगर आपकी आंख बंद कर दी जाए और आपकी नाक बंद कर दी जाए, और आपके मुंह में सेव का टुकड़ा डाला जाए और प्याज का टुकड़ा, तो आप फर्क नहीं बता सकेंगे कि प्याज में और सेव में कोई फर्क है। क्योंकि फर्क का बड़ा हिस्सा स्वाद से ही नहीं आता, आंख से भी आता है, गंध से भी आता है। तो अगर नाक और आंख बंद हैं, तो आप प्याज में और सेव में फर्क नहीं कर पाएंगे। फर्क बहुत है। अगर सिर्फ स्वाद में ही फर्क होता, तो आप कर भी लेते; लेकिन आप नहीं कर पाएंगे, क्योंकि बड़ा फर्क गंध और आंख से था।
तो बिगसोर में वे खाने के लिए देते हैं, तो वे कहते हैं, पहले खाने को स्पर्श करो, उसके रंग को देखो, उसके रूप को देखो, उसे हाथ से छुओ, उसे गाल पर लगा कर छुओ, आंख बंद करके स्पर्श करो, उसकी गंध लो, आंख से देखो, फिर मुंह में उसे डालो, फिर उसका स्वाद लो। और यह सारा सचेतन रूप से करो।
इक्कीस दिन के प्रयोग में आप भोजन में नए स्वाद, नई गंध और नए स्पर्श शुरू कर देते हैं। और उनके साथ ही आपके भोजन की पूरी प्रक्रिया बदल जाती है। क्योंकि तब उतने स्वाद, उतनी गंध और उतने रूप के द्वारा बहुत थोड़ा सा भोजन भी बहुत ज्यादा तृप्तिदायी हो जाता है।
हम सब अधिक भोजन कर रहे हैं। उसका कारण यह है कि भोजन तो हम डालते चले जाते हैं, तृप्ति बिलकुल नहीं होती। और तृप्ति की तलाश है! तो हम सोचते हैं कि इतने भोजन से नहीं हुई, तो थोड़ा और डाल लें, उससे हो जाए। थोड़ा और डाल लें। लेकिन हमें पता नहीं, जितना हम ज्यादा डालते हैं, उतनी ही हमारी तृप्ति को अनुभव करने की जो संवेदना है, वह क्षीण होती चली जाती है। एक दिन हमारा मुंह कुछ अनुभव ही नहीं करता, वह सिर्फ डालने का स्थान रह जाता है, चीजों को हम डालते चले जाते हैं। और तब हमें उत्तेजक चीजें डालनी पड़ती हैं। एक आदमी कहता, बिना मिर्च के स्वाद ही नहीं आता। उसका कुल कारण इतना है कि मिर्च जैसा तीव्र स्वाद हो, तो ही थोड़ा-बहुत आता है। स्वाद इतना मर गया है। स्वाद इतना मर गया है कि जब तक जहर ही न डाला जाए, तब तक हमें पता ही नहीं चलता कि कुछ हो रहा है।
आसाम में, बिहार के कुछ हिस्सों में, बंगाल में, जहां तंत्र की पुरानी साधनाओं के सूत्र अब भी प्रचलित हैं, वहां साधक, तंत्र के साधक...उनकी साधना का एक हिस्सा है कि समस्त तरह के नशों को लेने के बाद भी होश कायम रहना चाहिए। तो शराब तंत्र की साधना का एक अंग है। वे इतनी शराब पीने के अभ्यस्त हो जाते हैं कि शराब तो फिर उन्हें पानी जैसी हो जाती है। किसी तरह का कोई परिणाम नहीं होता। इतना गांजा पीने लगते हैं, इतनी अफीम खाने लगते हैं कि कोई परिणाम ही नहीं होता। और तब उनको अपने पास सांप पाल कर रखने होते हैं। उनसे जीभ पर कटा लेते हैं, तब उन्हें थोड़ा सा नशे का मजा आता है। तो सांप पाल कर रखना पड़ता है। उससे कम में काम नहीं चलता। फिर उसमें भी जो और आगे निकल जाते हैं, उनको छोटे-मोटे सांप भी काम नहीं देते। फिर तो भयंकर जहरीले सांप चाहिए, जो दूसरे कोई को काट लें, तो आदमी मर जाए। लेकिन ये साधक इस जगह भी पहुंच जाते हैं कि सांप काटते ही मर जाता है। तभी उनको थोड़ा सा स्वाद होता है।
हम अपनी इंद्रियों को इतना भी मार सकते हैं। हम सब ने थोड़ी-बहुत दूर तक मारा हुआ है। इसलिए जिनको हम शिष्ट अनुभव कहें, उदार अनुभव कहें, वे हमें होते ही नहीं। वे हमें होते ही नहीं। तीव्र अनुभव चाहिए। अगर बहुत मधुर वीणा बजती हो, तो हमें कुछ अनुभव नहीं होता, जॉज! जब पूरी हुड़दंग हो और पूरा पागलपन हो, तब थोड़ा सा हमें होश आता है कि कुछ आवाज हो रही है। सब मर गया है भीतर।
लाओत्से कहता है, रंग मार जाते आंखों को, स्वर कानों को बहरा कर देते, स्वाद रुचि को नष्ट कर जाते...।
यह हमारी इंद्रियों की जो मृत्यु है, यह हमारे मरने के पहले ही हमें एक कब्र में बिठा देती है। फिर हम जीते चले जाते हैं, लेकिन ताबूत के भीतर, मरे हुए, अपनी-अपनी कब्र को ढोते हुए, अपनी-अपनी लाश को घसीटते हुए। अगर हम सोचेंगे अपने को तो पता चलेगा।
इसके दोहरे दुष्परिणाम हैं। पहला तो मैंने कहा कि जीवन का जो अनुभव है, वह क्षीण हो जाता; अस्तित्व की जो प्रतीति है, वह अवरुद्ध हो जाती। और मृत्यु का जो महा अनुभव है, जो होना ही चाहिए, जिसने मृत्यु का अनुभव नहीं लिया, वह जीवन के गहरे अनुभव से वंचित रह गया। उसे जीवन का सत्य दिखाई ही नहीं पड़ेगा। उसने सिर्फ जीवन की परेशानी जानी और जीवन का परम विश्राम अनजाना रह गया। उसने दौड़ तो जानी, लेकिन विश्राम का क्षण नहीं जाना। तो मृत्यु से हम अपरिचित रह जाते हैं। यह तो एक दुष्परिणाम होता है, जो बहुत स्पष्ट है।
दूसरा दुष्परिणाम और भी गहन है। और वह यह है कि हमारी प्रत्येक इंद्रिय, कहें कि द्विमुखी है। हमारी आंख बाहर भी देखती है और हमारी आंख के भीतर वह आंख भी है जो भीतर भी देखती है। हमारे कान बाहर भी सुनते हैं और हमारे कान के पास वह अंतर-इंद्रिय भी है जो भीतर भी सुनती है।
कान बिलकुल बंद कर दें, बिलकुल बंद कर दें कि बाहर से जरा सी भी आवाज न आए, तो भी हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती रहेगी। अब यह बाहर से नहीं आ रही, क्योंकि बाहर तो हथौड़े भी पड़ रहे हैं, तो सुनाई नहीं पड़ रहा है। अब यह भीतर से आ रही है। आंख बिलकुल बंद कर लें, सारे चित्र बाहर से जो पैदा हुए हैं, उनको भी छोड़ दें, सब रूप-आकार बंद हो जाएं, तब भी भीतर नए अनुभव दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। नए रंग, जो इंद्रधनुष में नहीं हैं। नया प्रकाश, जो हमने बाहर नहीं जाना। नया अंधकार, इतना गहन, जितना बाहर कभी घटित नहीं होता। इनकी यात्रा भीतर शुरू हो जाती है। ठीक प्रत्येक इंद्रिय अपने भीतर भी अनुभव करने में सक्षम है। लेकिन चूंकि हम बाहर इतने उलझे रहते हैं कि हम धीरे-धीरे यही भूल जाते हैं कि भीतर की इंद्रिय के अनुभव का भी एक जगत था, जो बिना खुला ही रह गया।
तो लाओत्से दूसरी बात इसलिए कह रहा है कि जो लोग रंगों को देख-देख कर आंखों को अंधा कर लेंगे, उनकी बाहर की आंख तो अंधी होगी ही, भीतर की आंख बिना खुली ही रह जाएगी। बाहर की आंख को जो विश्राम देगा, उसकी भीतर की आंख सक्रिय होती है। बाहर के कान को जो विश्राम देगा, उसके भीतर नाद के अनुभव का द्वार खुलता है। बाहर के स्वाद से जो बचेगा, छुट्टी लेगा, थोड़े समय के लिए बाहर के स्वाद को बिलकुल भूल जाएगा, कबीर ने कहा है, उसे भीतर के अमृत का अनुभव शुरू होता है, उसे भीतर अमृत बरसने लगता है। भीतर भी एक मिठास है; पर इसे जरा पहचानना कठिन है।
कभी आपने खयाल किया कि जब आप क्रोध में होते हैं--पर शायद खयाल नहीं किया होगा--कि क्रोध का कोई स्वाद भी होता है! क्रोध का भी स्वाद होता है। अगर आप बहुत क्रोध में भरे हों, तो एक क्षण क्रोध को भूल कर जरा आप आंख बंद कर लें और स्वाद लेने की कोशिश करें। तो आपका मुंह सूखा हुआ होगा। तिक्त, बासापन पूरे मुंह में फैल गया होगा। मधुरता का कहीं कोई पता नहीं चलेगा। जब कभी आप प्रेम में हों, तब एक क्षण आंख बंद कर लें, प्रेम का भीतर स्वाद अनुभव करने की कोशिश करें। प्रेम का अपना स्वाद है। तब एक मधुरिमा भीतर घुलती हुई मालूम होगी। एक अपरिचित, अनजान, अदृश्य मिश्री भीतर घुल गई हो।
इसका क्रोध से और इस प्रेम के स्वाद का अंतर आपको स्पष्ट दिखाई पड़ेगा। तब आप प्रत्येक भाव-दशा का स्वाद अनुभव कर सकते हैं। ध्यान का भी एक स्वाद है। तनाव का भी एक स्वाद है। और जब समस्त विचार खो जाते हैं और समस्त इंद्रियां शांत हो जाती हैं, तो जो ध्यान का स्वाद आता है, उसका नाम अमृत है।
उसका अमृत दो कारण से नाम है। एक तो उससे मधुर कोई स्वाद नहीं। और दूसरा इस कारण भी कि उस स्वाद के मिलते ही पता चलता है कि मेरी कोई मृत्यु नहीं, मैं नहीं मर सकता हूं। मृत्यु मेरी असंभव है। उस स्वाद का अनुभव ही तय कर जाता है कि मृत्यु असंभव है। जो मरता है, वह केवल यंत्र है; मैं पुनः-पुनः शेष रह जाता हूं।
लेकिन अगर हमने अपनी सारी शक्ति बाहर की इंद्रियों में ही व्यतीत कर दी हो, अगर हमने अपनी सारी शक्ति बाहर की इंद्रियों में ही व्यय कर दी हो, और हम थक गए हों, तो हमें भीतर की इंद्रियों का तो कभी खयाल ही नहीं आता। और शक्ति भी नहीं बचती।
हम सभी को पता है, निरंतर यह होता है, अगर कोई आदमी अंधा होता है, तो उसके कान ज्यादा तीव्र हो जाते हैं। वह ज्यादा सुन पाता है। अंधे आदमी आपके पैर की आवाज से पहचान लेते हैं कि कौन आ रहा है। आंख वाला नहीं पहचान सकता। अंधा पहचानने लगता है कि कौन आ रहा है। अंधा आवाज से जानने लगता है कि कौन बोल रहा है। अंधा आवाज के द्वारा दिशा का ज्ञान कर लेता है। अंधा सड़क पर चल भी सकता है, क्योंकि लोगों के पैर की आवाज उसे अनुभव होने लगती है।
अंधे का स्पर्श-बोध भी बढ़ जाता है। अंधा दीवार के थोड़ा करीब आता है, तो उसे एहसास होने लगता है कि टक्कर होने वाली है। आपको नहीं होगा। अंधा अभी दीवार से दूर है, लेकिन दीवार के करीब आने के पहले ही उसके भीतर कोई गहन स्पर्श होने लगता है कि दीवार करीब है और टक्कर होगी। अंधे को आप चलते हुए देखें, तो ऐसे वह चलता जाएगा, दीवार जैसे ही करीब आएगी, उसकी लकड़ी उठ जाएगी और वह टटोलना शुरू कर देगा। दीवार के पास सघनता का हवा में उसे कुछ स्पर्श हो रहा है, जिसका हमें कोई पता नहीं चलता।
अगर आप किसी आंख वाले आदमी से मुस्कुराते रहें और उसका हाथ हाथ में ले लें, तो आप उसे धोखा दे सकते हैं। हो सकता है भीतर आपके बिलकुल मुस्कुराहट न हो, जरा भी प्रेम न हो, यह सिर्फ दिखावा हो; लेकिन वह आदमी आपका चेहरा देख कर धोखे में आ जाएगा। अंधे आदमी को आप धोखा नहीं दे सकते। अंधा आदमी आपके हाथ से पहचान लेगा कि यह आदमी प्रेमपूर्ण है या नहीं है। आंखों वालों के धोखे आंखों वालों के ही काम आ सकते हैं। अंधे आदमी को आप धोखा नहीं दे सकते उतनी आसानी से। क्योंकि उसके जांचने के ढंग अलग हैं और आपके धोखा देने के ढंग अलग हैं, दोनों कहीं मिलते नहीं। इसलिए अंधा आदमी अक्सर प्रज्ञावान हो जाता है। प्रज्ञावान इसीलिए हो जाता है कि उसके पास कुछ ऐसी समझ होती है, जो हमारे पास नहीं होती।
लेकिन क्यों ऐसा होता है? ऐसा होने का कुल कारण इतना है कि आंख से जो शक्ति व्यय होती थी, वह दूसरी इंद्रियों को मिल जाती है, ट्रांसफर हो जाती है। अगर सभी इंद्रियां बंद कर दी जाएं और एक इंद्रिय शेष रह जाए, तो वह इंद्रिय इतनी तीव्र हो जाएगी कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
इसीलिए पशुओं की इंद्रियां हमसे ज्यादा तीव्र हैं। क्योंकि उनके पास हमसे कम इंद्रियां हैं। जितना हम पशु जगत में पीछे लौटेंगे--अगर तीन इंद्रिय वाला पशु है, तो उसकी इंद्रियां हमसे तेज होंगी। अगर दो इंद्रिय वाला है, तो उसकी और तेज होंगी। अगर एक इंद्रिय वाला है, तो उस एक ही इंद्रिय से पांच इंद्रियों की सारी शक्ति उसकी बहती है। तो अमीबा है, जो कि सिर्फ स्पर्श करता है, उसके पास और कोई इंद्रिय नहीं। तो उसके स्पर्श का अनुभव हम कभी नहीं पा सकते कि वह स्पर्श कितनी प्रगाढ़ता से करता है।
लेकिन आप कभी प्रयोग करें। कान बंद कर लें, आंख बंद कर लें, ओंठ बंद कर लें और फिर किसी को छुएं। तब आप पाएंगे कि आपके छूने में कुछ और ही अनुभव हो रहा है, आपके छूने में कोई नई विद्युत प्रवाहित हो गई है। अंधे आदमी की आंख की ताकत दूसरी इंद्रिय को मिल जाती है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि हमारी जो इंद्रियां हैं, अगर ये बाहर नष्ट न हों, व्यतीत न हों, तो इनकी ताकत भीतर की इंद्रियों को मिल जाती है। अगर हम बाहर की इंद्रियों का बहुत संयत उपयोग करें, दुरुपयोग न करें...।
हम जो भी कर रहे हैं, वह दुरुपयोग है। रास्ते पर आप जा रहे हैं और दीवारों के पोस्टर पढ़ रहे हैं। अगर आप न पढ़ते होते, तो कोई मेहनत करके उन्हें लिखता भी नहीं। लिखने वाले भलीभांति जानते हैं कि यहां से गुजरने वाले न्यूरोटिक हैं, वे बिना पढ़े रह ही नहीं सकते। उनको पता है कि पागल गुजरते हैं यहां से, वे पढ़ेंगे ही। और आप अगर सोचते हों कि नहीं, हम चाहें तो नहीं पढ़ेंगे, तो आप कोशिश करके देखना। आप जितनी कोशिश करेंगे, पता चलेगा भीतर कोई पागल बैठा है, वह कहता है चूको मत, पता नहीं क्या लिखा हो, पढ़ ही लो! कुछ भी नहीं लिखा है, किसी को वोट देना है कि नहीं देना है, कोई साबुन बिकनी है कि नहीं, कि कोई फिल्म देखनी है कि नहीं, वह सब लिखा हुआ है। वह हजार दफे आपने देखा है, रोज उसी सड़क से निकले हैं। फिर आज देखेंगे, फिर आज पढ़ेंगे। अब तो पढ़ने की जरूरत भी नहीं पड़ती, देखा और पढ़ लिया जाता है। और आप आगे बढ़ जाते हैं। इतना अभ्यास है।
लेकिन कभी आपने सोचा कि जो आप पढ़ रहे हैं, उसमें से कितना छोड़ा जा सकता है? जो आप सुन रहे हैं, उसमें से कितना छोड़ा जा सकता है? जो आप देख रहे हैं, उसमें से कितना कम देखें तो चल सकता है?
अगर आप इस पर थोड़ा ध्यान करेंगे, तो आप पाएंगे, जो शक्ति आपकी बच जाएगी, वह आपकी भीतर की इंद्रिय को मिलनी शुरू हो जाएगी। अब एक आदमी मेरे पास आता है, वह कहता है, हम आंख बंद करके बैठते हैं, लेकिन भीतर कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
दिखाई पड़ने के लिए कुछ ऊर्जा भी बचनी चाहिए! चुक गए हैं बिलकुल, चला हुआ कारतूस जैसा होता है, वैसे हैं। अब बंदूक में भर कर उसको चला रहे हैं। वे कहते हैं, कुछ आवाज नहीं निकलती, धुआं तक नहीं निकलता। वह नहीं निकलेगा। चला हुआ कारतूस है, उसमें से क्या निकलेगा?
हम सब करीब-करीब चले हुए कारतूस हो जाते हैं। इतना चला रहे हैं, उसमें कुछ बचता नहीं। थके-मांदे रात लौटते हैं, कहते हैं कि ध्यान करने बैठे हैं। एकाध दफे राम भी नहीं कह पाते कि नींद लग जाती है। सुबह कहते हैं, पता नहीं क्यों, जब भी ध्यान करते हैं तो नींद आ जाती है।
आएगी ही। नींद भी आती है, यह भी चमत्कार है। इतनी भी शक्ति आपकी बच जाती है कि आप सो लेते हैं, यह भी काफी है। क्योंकि चिकित्सक कहते हैं, विशेषकर पूर्वीय चिकित्सक कहते हैं कि अक्सर अस्सी साल तक कोई आदमी जिंदा बच जाए, तो फिर मरना मुश्किल होता है। क्योंकि मरने के लिए भी एक खास शक्ति चाहिए, मरने के लिए भी! अगर अस्सी साल तक कोई बच जाए, तो फिर वह मरने में बड़ी देर लगाता है। फिर वह खाट पर पड़ा रहेगा; सब तरह की बीमारियां उसको पकड़े रहेंगी; चिकित्सक सोचेंगे, आज मरेगा, कल मरेगा, परसों मरेगा; वह है कि चलता ही चला जाता है। असल में, मरने के लिए भी, आखिरी भभक के लिए भी, तेल तो चाहिए ही कि आखिरी भभक हो और दीया बुझ जाए। उतना भी नहीं बचा है। अब वह इतने मिनिमम पर जी रहा है कि मर भी नहीं सकता। इतने न्यूनतम पर जी रहा है।
इसलिए बहुत हैरानी की बात है कि स्वस्थ आदमी अक्सर पहली ही बीमारी में मर जाता है। अगर एक आदमी जिंदगी भर बीमार न पड़ा हो और पहली दफे बीमार पड़े, तो पहली बीमारी मौत बन जाती है। लेकिन जिन्होंने जिंदगी भर बीमारी का रस लिया, उनको मारना इतना आसान नहीं है। उनको मारना बहुत मुश्किल है। क्योंकि वे इतने मिनिमम पर जीने के आदी हो गए हैं कि मौत के लिए भी जितनी शक्ति की जरूरत पड़ेगी, उतनी भी वहां नहीं है। वे जीए चले जाएंगे। टिमटिमाते रहेंगे। न बुझेंगे, न जलेंगे; लेकिन टिमटिमाते रहेंगे।
नींद के लिए भी ऊर्जा तो चाहिए। ये बहुत लोग नहीं भी सो पा रहे हैं आज, उसका भी कारण यही है। इतनी भी ऊर्जा नहीं बचती कि आप रिलैक्स हो सकें, इतना कि शिथिल भी हो सकें। इतनी भी ऊर्जा नहीं बचती। तने के तने ही रह जाते हैं; खिंचे के खिंचे रह जाते हैं।
लाओत्से कहता है और समस्त पूर्वीय योग जानता रहा है कि हम अगर भीतर की इंद्रियों के जगत में प्रवेश करना चाहते हैं, तो बाहर की इंद्रियों को इतना ज्यादा व्यय करना अनुचित है। इसी का नाम संयम है। संयम का और कोई अर्थ नहीं होता। संयम का केवल इतना ही अर्थ है: जितना जरूरी है, उतना बाहर व्यय करना, शेष भीतर की यात्रा के लिए बचाना। जितना जरूरी हो, उतना बाहर देख लेना, बाकी देखने की क्षमता को बचाना। क्योंकि भीतर एक और विराट जगत मौजूद है। और जब यह जगत छिन जाएगा, तब भी वह जगत आपका होगा। और जब यह मकान और ये द्वार और दरवाजे और ये मित्र और प्रियजन, पति और पत्नी और बच्चे और धन, यह सब छिनने लगेगा, तब भी एक संपदा भीतर होगी। लेकिन तब हमारे पास उसे देखने की आंख नहीं होती।
बाहर जो हमने जाना है, वह कुछ भी नहीं है उसके समक्ष जो भीतर है। जो स्वर हमने सुने हैं बाहर, जब हम भीतर की वीणा सुन पाते हैं, तब पता चलता है कि वह सिर्फ शोरगुल था जो हमने बाहर सुना। अगर बाहर भी वीणा के स्वर प्रीतिकर लगते हैं, तो अंतर के रहस्यों को जानने वालों का कहना है कि वे इसीलिए प्रीतिकर लगते हैं कि कुछ न कुछ भीतर के स्वरों की भनक उनमें है, बस इसीलिए। अंतर-संगीत की कुछ भनक उनमें है, इसीलिए। अगर बाहर प्रकाश अच्छा लगता है, तो अंतर-प्रकाश की कुछ झलक उसमें है, इसीलिए। और अगर बाहर के स्वाद अच्छे लगते हैं, तो थोड़ी सी मिठास का एक कण उसमें है, उस मिठास का कण जो भीतर भरी है अनंत, इसीलिए। अगर बाहर का संभोग भी अच्छा लगता है, तो सिर्फ इसीलिए कि अंतर-संभोग की एक किरण, एक झलक, एक प्रतिफलन, एक ईको, एक प्रतिध्वनि उसमें मौजूद है, बस इसीलिए। लेकिन उस पर अपने को चुका मत डालना; उस अनुभव पर अपने को समाप्त मत कर देना। अभी भीतर बड़े अनुभवों के द्वार खुल सकते हैं।
तो लाओत्से कहता है, "घुड़दौड़ और शिकार मन को पागल कर जाते हैं। दुर्लभ और विचित्र पदार्थों की खोज आचरण को भ्रष्ट कर देती है।'
घुड़दौड़ या शिकार, या हम नए पागलपन जोड़ सकते हैं, ये लाओत्से के जमाने के पागलपन हैं। अब तो बहुत पागलपन हैं। उस वक्त उसे दो बातें पागलपन की दिखाई पड़ी होंगी: घुड़दौड़ पर लोग दांव लगा रहे हैं, शिकार पर लोग जा रहे हैं। आज तो बहुत हैं। आज तो करीब-करीब जो भी हम कर रहे हैं, वह सभी घुड़दौड़ है और सभी शिकार है। पागल कर जाते हैं मन को।
असल में, जो व्यक्ति अपने से बाहर दांव लगाना सीख लेगा, वह पागल हो जाएगा। जिसने अपना जुआ अपने से बाहर खेलना शुरू किया, वह पागल हो जाएगा। क्योंकि वह एक ऐसी चीज के लिए दांव लगा रहा है, जो मिल नहीं सकती। स्वभावतः जिसका मिलना असंभव है, जो नहीं मिल सकती। मिल भी जाए, तो भी नहीं मिलती। कितनी ही मिल जाए, तो भी छिन जाती है।
लाओत्से का शिष्य था लीहत्जू। लीहत्जू ने लाओत्से से छुट्टी ली कि मैं कुछ दिन यात्रा पर जाना चाहता हूं। लाओत्से ने कहा, जाओ, लेकिन सम्हल कर जाना। क्योंकि यात्रा पर जाना तो आसान, लौटना बहुत मुश्किल है। लीहत्जू को कुछ समझ में नहीं आया। कम ही सौभाग्यशाली लोग हैं कि लाओत्से जैसे लोगों की बातें उनकी समझ में आ जाएं। सुन लेना एक बात, समझ लेना बिलकुल दूसरी बात है। लेकिन लीहत्जू भी जानता तो था कि समझ गया, क्योंकि शब्द तो सरल थे। शब्दों की सरलता बड़ी मुश्किल में डाल देती है; क्योंकि सरल होने से लगता है समझ गए। और सरल शब्दों को समझना इस जमीन पर सबसे ज्यादा कठिन है। क्योंकि उनका अर्थ भाषाकोश में नहीं होता, उनका अर्थ हमारे भीतर की जागरूकता में होता है। उसने लौट कर भी न पूछा लीहत्जू ने कि क्या मतलब? समझा कि कहता है लाओत्से कि जाना आसान, लौटना मुश्किल। समझ गए।
लेकिन दस दिन बाद ही लीहत्जू लौट आया। और लीहत्जू से लाओत्से ने पूछा, बड़े जल्दी लौट आए? लीहत्जू ने कहा कि जैसे-जैसे जाने लगा, वैसे-वैसे समझ में आने लगा कि जितने कदम आगे बढ़ेंगे, उतना ही पीछे लौटना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए मैंने सोचा, इसके पहले कि फंसूं, लौट चलूं। लाओत्से ने कहा, ऐसी क्या फंसावट आ गई? तो लीहत्जू ने कहा कि पहली सराय में ठहरा, सराय के मालिक ने मुझे बड़ा आदर दिया। फकीर था। पहली कुर्सी पर बिठा कर भोजन करवाया। नंबर एक उसकी सेवा की। नंबर एक के कमरे में उसे ठहराया।
लाओत्से ने कहा, तो इसमें क्या तकलीफ हुई?
लीहत्जू ने कहा, तकलीफ हुई? रात भर मैं सो न सका! अकड़ पैदा हो गई भीतर कि मैं भी कुछ हूं, मैं भी कुछ हूं। नंबर एक भोजन, नंबर एक के कमरे में ठहरना, सराय के मालिक का पैर छूना, और उसके छूते ही सारे यात्री मेरे प्रति आदर से भर गए। पता नहीं, उनका क्या हुआ, मैं रात भर नहीं सो सका।
दूसरी सराय में पहुंचा। तो सराय के बाहर ही मैंने अपने कपड़े वगैरह ठीक कर लिए, तैयार हो गया हाथ-मुंह साफ करके। मेरी चाल बदल गई। जब मैं भीतर प्रवेश किया, तो मैं वही आदमी नहीं था, जो तुम्हारे चरणों को छोड़ कर गया था। दूसरा ही आदमी था। मैं खड़े होकर देख रहा था कि जल्दी सराय का मालिक आए, पैर छुए, पहले नंबर बिठाए, पहले नंबर के कमरे में ठहराए। कोई नहीं आया। भारी पीड़ा हुई। तृतीय श्रेणी के कमरे में ठहरने को मिला। फिर भी रात भर न सो सका।
तब मुझे बड़ी हैरानी हुई। प्रथम श्रेणी में ठहरा, तब न सो सका; तृतीय श्रेणी में सोया, तब न सो सका। मैंने सोचा, लौट चलना उचित है। खतरे में उतर रहा हूं। हालांकि मन कहता था कि एक सराय में और भी तो कोशिश करके देखो। हो सकता है, यह आदमी न पहचाना हो, अज्ञानी हो। दूसरी सराय में कोई पहचान ले। तभी तुम्हारे शब्द मुझे सुनाई पड़े कि जाना तो बहुत आसान यात्रा पर, लौटना बहुत मुश्किल है। तब मैं एकदम भागा, मैंने कहा अब रुकना खतरनाक है। कहीं ऐसा न हो कि मैं उतरता ही चला जाऊं।
हम सब ऐसे ही उतर जाते हैं। दौड़ अनेक तरह की है। वह हमें बुलाती चली जाती है। और जितने हम उतरते हैं, उतने हम फंसते चले जाते हैं। फिर लौटने के दरवाजे ही धीरे-धीरे भूल जाते हैं, रास्ता भी भूल जाता है कि कहां से हम आए थे। फिर एक ही रास्ता दिखाई पड़ता है: इस पड़ाव से दूसरा पड़ाव, दूसरे पड़ाव से तीसरा पड़ाव। और पीछे लौटने में विषाद भी मालूम पड़ता है; कोई भी लौटना नहीं चाहता।
यह बड़े मजे की बात है। कोई भी लौटना नहीं चाहता। सब आगे जाना चाहते हैं। क्योंकि आगे जाने में अहंकार को तृप्ति मिलती है। लौटना शब्द ही मन को विषाद से भर देता है। और कोई कहे, लौट आए? तो ऐसा लगता है कि समाप्त, जिंदगी बेकार चली गई। बढ़ो, तो अहंकार रोज नई पुकार देता है और नई मृग-मरीचिका दिखाई पड़ने लगती है, उसे पाना है। फिर आदमी दौड़ता चला जाता है। यह दौड़, बाहर कुछ भी पाने की दौड़ अंततः मनुष्य को पागल कर जाती है।
पागल होने का मतलब ही इतना है कि ऐसा आदमी जो अपने से इतना बाहर चला गया कि अब अपने पास, अपने भीतर ही लौटने का उसे कुछ पता नहीं रहा। वह अपना घर ही भूल गया कि मेरा घर कहां है? अब उसे एक ही बात पता है कि वह दौड़ सकता है, रुक नहीं सकता। अब उसे एक ही बात पता है कि अगर यह चीज नहीं मिली, तो दूसरी चीज पाने को दौड़े। अगर मिल गई, तो भी दूसरी चीज पाने को दौड़े। अब वह दौड़ ही सकता है। अब उसका चित्त एक फीवर, एक ज्वर से भरा है, एक रोग से भरा है। और दौड़े बिना उसको कोई चारा नहीं। रुक नहीं सकता, ठहर नहीं सकता है।
एक मेरे मित्र हैं। मिलिटरी में कर्नल हैं। उनकी पत्नी मुझे सुनने आती थीं। मैंने उनसे पूछा कि तुम्हारे पति कभी-कभी मुझे मिलने तो आते हैं, कभी-कभी तुम्हें छोड़ने भी आते हैं, लेकिन कभी उन्हें मैंने बैठा नहीं देखा कि कभी उन्होंने सुना हो बैठ कर। उनकी पत्नी ने कहा, वे बैठ नहीं सकते। कर्नल हैं, वे चलते रहते हैं। वे आपको बहुत सुनना चाहते हैं। टेप करके मैं ले जाती हूं, वे लगा लेते हैं टेप और कमरे में टहलते रहते हैं, तो सुन पाते हैं। वे इतना घंटे भर एक कुर्सी पर बैठ नहीं सकते। और फिर आपके सामने उनको अच्छा भी नहीं लगता कि वे करवट बदलते रहें पूरे वक्त। और वे दस-पांच दफे बीच में उठ कर बाहर जाएं, भीतर आएं, तो वह उन्हें अशोभन भी लगता है। लेकिन वे बैठ नहीं सकते।
हम सबका चित्त ऐसी ही हालत में हो जाता है। बैठ नहीं सकता, रुक नहीं सकता, विश्राम नहीं कर सकता। और-और-और, हम भागे चले जाते हैं।
लाओत्से कहता है, मन पागल हो जाता है।
पागल का एक ही अर्थ है कि जो विश्राम करने में असमर्थ हो गया। अगर आप विश्राम करने में समर्थ हैं, तो आप समझना कि आप पागल नहीं हैं। अगर विश्राम के आप मालिक हैं, तो समझना कि आप पागल नहीं हैं। और अगर आप विश्राम करने में समर्थ नहीं हैं और अपनी मौज से विश्राम नहीं कर सकते, तो समझना कि पागलपन की कोई न कोई मात्रा आपके भीतर है। मात्रा का फर्क हो सकता है, लेकिन मात्रा है। अगर आप इतने भी मालिक अपने नहीं हैं कि लेट जाएं और कहें कि शरीर को छोड़ दिया विश्राम में और शरीर विश्राम में छूट जाए, अगर आप इतने भी मालिक नहीं हैं कि आंख बंद कर लें और आंखों से कह दें कि सो जाओ तो आंखें सो जाएं, तो आपके भीतर पागलपन की एक मात्रा है।
मात्रा कम-ज्यादा हो सकती है। मात्रा कभी भी बढ़ सकती है। और चौबीस घंटे में घटती-बढ़ती रहती है। किसी दिन आसानी लगती है विश्राम करने में, किसी दिन बहुत मुश्किल हो जाता है। घटनाएं चारों तरफ घटती रहती हैं। किसी दिन ऐसी घटना घटती है कि पागलपन ज्यादा तेजी से दौड़ने लगता है। किसी ने इतना ही कह दिया कि पता है तुम्हें कि नहीं, कोई कहता था कि तुम्हारे नाम लाटरी खुल गई है! मन एकदम दौड़ पड़ेगा पूरे पागलपन से। खरीद लेगा चीजें, जो कभी नहीं खरीदनी चाहीं। न मालूम क्या-क्या कर डालेगा! फिर उस रात नींद नहीं आ सकती। लाटरी अभी मिली नहीं, लेकिन उस रात नींद नहीं आ सकती। अब विश्राम के आप मालिक न रहे। लाटरी ने बड़ी दौड़ को गति दे दी।
चित्त को चौबीस घंटे चारों तरफ कुछ घट रहा है, जो बुलाता है, दौड़ाता है। आप दौड़ने को सदा तत्पर हैं। विश्राम तो आपको तभी होता है, जब सौभाग्य से बाहर कोई दौड़ नहीं होती।
मगर वह आपके हाथ में नहीं है। वह आपके हाथ में नहीं है। वह बिलकुल नियति है, कहें कि भाग्य है। रास्ते पर चलता एक आदमी गाली दे जाए, दौड़ हो जाएगी शुरू। वह आपके हाथ में नहीं है। करोड़ों-करोड़ों लोग हैं। लोग ही नहीं हैं, पड़ोसी का कुत्ता ही जोर से भौंकने लगे, तो रात उसका भी विचार चलता है कि क्यों भौंक रहा था! घर आएं और घर का कुत्ता पूंछ ही न हिलाए, तो भी चिंता हो जाती है कि आज कुत्ते ने पूंछ नहीं हिलाई! उससे भी हमारे संबंध बन जाते हैं। हमारा अहंकार उससे भी रस लेने लगता है। अगर कुत्ते ने पूंछ नहीं हिलाई, तो गड़बड़ हो गई, सारी जिंदगी बेकार है। घर आता है आदमी, तो देखता आता है कि कुत्ता पूंछ हिला रहा कि नहीं हिला रहा। तरहत्तरह के कुत्ते हैं, तरहत्तरह की पूंछें हैं। छोटी सी बात, लेकिन चित्त पागल है, तो पागल हो सकता है। कोई भी बहाना काफी है, कोई भी बहाना काफी है।
लेकिन इसके पागल होने का जो सीक्रेट, जो राज है, वह एक ही है। जब तक आप अपने से बाहर किन्हीं चीजों के लिए दौड़ रहे हैं, तब तक आप अपने को पागल किए चले जाएंगे। और जितने आप पागल हो जाएंगे, उतने ही दुखी, उतने ही संताप से भर जाएंगे, उतने ही बड़े नर्क में आपका निवास हो जाएगा।
"दुर्लभ पदार्थों की खोज आचरण को भ्रष्ट कर जाती है।'
असल में, आचरण बड़ी गहरी चीज है। आचरण का ऐसा मतलब नहीं है कि एक आदमी सिगरेट नहीं पीता, तो बड़ा आचरणवान है। ऐसा कुछ मतलब नहीं है। क्योंकि कभी-कभी तो ऐसा हो सकता है कि सिगरेट न पीने के कारण वह जो कर रहा हो, वह और भी बड़ी आचरणहीनता हो। क्योंकि हमको सब्स्टीटयूट खोजने पड़ते हैं, विकल्प खोजने पड़ते हैं।
इसलिए आपने अनुभव किया होगा कि अक्सर जो लोग सिगरेट पीते हैं, पान खाते हैं, चाय पीते हैं, काफी पीते हैं, कभी थोड़ी शराब भी पी लेते हैं, वे ज्यादा मिलनसार आदमी होते हैं। जो इनमें से कुछ भी नहीं करते, उनसे दोस्ती बनानी तक मुश्किल है, वे मिलनसार होते ही नहीं। बहुत अकड़े हुए होते हैं। क्योंकि वे सिगरेट नहीं पीते, चाय नहीं पीते, तो उनकी रीढ़ बिलकुल अकड़ जाती है, झुकती ही नहीं। वे दूसरे की तरफ ऐसे देखते हैं, जैसे वे आसमान पर खड़े हैं, दूसरा कीड़ा-मकोड़ा है। उनको आदमी नहीं दिखाई पड़ते। आपने सिगरेट पी, गए! आप आदमी नहीं रहे, कीड़े-मकोड़े हो गए। आप पान खा रहे हैं, आप गए। आपकी कोई स्थिति न रही। तो इससे तो बेहतर था यह आदमी सिगरेट पी लेता। सिगरेट पीने से इतना कुछ नुकसान न था। यह जो अहंकार पी रहा है, यह बहुत खतरनाक है, जहरीला है।
इसलिए तब तक मैं किसी आदमी को भला नहीं कहता, जब तक इतना भला न हो कि दूसरे की बुराई को पाप मानने की प्रवृत्ति में न पड़े। तब तक कोई आदमी भला नहीं है, तब तक आचरणवान नहीं है। आचरण का एक ही अर्थ है कि इतना भला है कि दूसरे की बुराई को भी बुराई नहीं देखता। दूसरे की निंदा करने की क्षमता का खो जाना आचरण है। तब तो हमारे तथाकथित साधु-संन्यासी आचरण में नहीं टिक सकेंगे, हैं भी नहीं। आपके और उनके आचरण में भेद नहीं है; सिर्फ चीजों का भेद है। जो आप कर रहे हो, उसकी वजह से आप पापी हो; वही वे नहीं कर रहे हैं, इसलिए पुण्यात्मा हैं। लेकिन टिके दोनों ही सिगरेट पर हैं; वे नहीं पी रहे हैं, आप पी रहे हो। लेकिन दोनों का आचरण सिगरेट से बंधा है।
अगर आप अपने साधु की साधुता पूछने जाएं, तो पता क्या चलेगा? वह यह नहीं खाता, यह नहीं पीता, यह नहीं पहनता, यह उसकी साधुता है! और आपको वह साधु लगता भी है। लगना स्वाभाविक भी है, क्योंकि आप यह खाते हैं, यह पहनते हैं, यह पीते हैं। तो यह भेद है आपके आचरण का। और अक्सर यह जो साधु है, यह खतरनाक हो जाता है। क्योंकि यह आदमी आपकी ही हैसियत का है। अगर यह सिगरेट पीता, तो आप ही जैसा होता। यह सिगरेट नहीं पीता है, तो सिगरेट न पीने का जो कष्ट उठा रहा है, जो पीड़ा झेल रहा है, उसको यह तप कहता है, उसको तपश्चर्या कहता है।
अब सिगरेट न पीना कोई तपश्चर्या है? सच तो यह है कि सिगरेट पीना ही तपश्चर्या है। धुएं को डालना और निकालना काफी तप है। साधु-संन्यासी पुराने धूनी रमा कर बैठते थे। आप अपनी धूनी साथ में लिए, पोर्टेबल धूनी अपनी साथ लिए घूम रहे हैं, तप कर रहे हैं। आग और धुआं दोनों मौजूद हैं। और जहर पी रहे हैं। एक आदमी यह नहीं पी रहा है, वह तपस्वी है! वह आपके सिर पर खड़ा हो जाएगा। वह जब भी आपकी तरफ देखेगा, तो उसकी आंखों में नर्क की तरफ का इशारा रहेगा कि सीधे नर्क जाओगे। और कहीं कोई उपाय नहीं है।
आचरण इन क्षुद्र चीजों से निर्मित नहीं होता। कम से कम लाओत्से जैसे व्यक्ति की धारणा आचरण की यह नहीं है। लाओत्से की आचरण की धारणा बड़ी अदभुत है। लाओत्से कहता है, जो लोग बाहर की वस्तुओं को पाने में दौड़ते रहते हैं, दुर्लभ, विचित्र वस्तुओं को पाने में दौड़ते रहते हैं, उनका आचरण भ्रष्ट हो जाता है। तो इसका मतलब यह हुआ कि जो बाहर की वस्तुओं को पाने के लिए नहीं दौड़ते, वे आचरण को उपलब्ध हो जाते हैं। तो आचरण का अर्थ हुआ, जो इतने तृप्त हैं अपने भीतर कि बाहर की कोई चीज उन्हें पुकारती नहीं। एक अंतःतृप्ति का नाम आचरण है। एक सेल्फ कंटेंटमेंट का नाम आचरण है। इतना तृप्त है कोई व्यक्ति अपने भीतर कि बाहर की कोई चीज उसके लिए दौड़ नहीं बनती--कोई चीज दौड़ नहीं बनती। इसका मतलब हुआ कि कोई चीज उसे दौड़ा नहीं सकती है। कोई चीज इतनी महत्वपूर्ण नहीं है कि उसे दौड़ना पड़े। जो इतना थिर है अपने में कि जगत की कोई चीज उसे दौड़ा नहीं सकती। लाओत्से कहता है कि उसके पास आचरण है, करेक्टर है। उसके पास वर्चू है, उसके पास गुण है।
निश्चित ही, अगर कोई व्यक्ति अपने में इतना भरा-पूरा है, कहीं कोई कमी अनुभव नहीं करता कि किसी चीज से भरी जाए, तो उसके पास एक आत्मा होगी, एक इंटिग्रेटेड विल, उसके पास एक समग्रीभूत संकल्प होगा। उसके पास एक भीतर व्यक्तित्व होगा, एक स्वर होगा, एक ढंग होगा। उसका जीवन एक ऐसी ज्योति की तरह होगा, जिसे हवा के झोंके हिला नहीं सकते।
हमारी ज्योति ऐसी है कि हवा के झोंके भी न हों, तो भी कंपती रहती है। असल में, हवा के झोंके न हों, तो हमको बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है कि कोई क्या कहेगा, बिना ही झोंके के कंप रहे हैं। हम झोंकों को बुलाते रहते हैं कि आओ! ताकि कम से कम यह बहाना तो रहे कि हम नहीं कंप रहे हैं, ये हवा के झोंके से हम कंप रहे हैं।
अगर आदमी को चौबीस घंटे एक कमरे में बंद कर दिया जाए, तो बड़ी हैरानी की बात कि अकेला रह कर भी वह बीच-बीच में क्रोधित हो जाता है--अकेला रह कर! तीन महीने अगर आपको बंद कर दिया जाए, तो आपको पहली दफे पता चलेगा कि क्रोध के लिए किसी दूसरे की जरूरत ही नहीं है। और जिंदगी भर आप यही सोचते रहे कि फलां आदमी ने यह कह दिया, इसलिए मैं क्रोधित हो गया। नहीं तो मैं क्यों क्रोधित होता? यह सिर्फ हवा का बहाना ले रहे हैं आप।
कभी अकेले तीन महीने रह कर देखें और नोट करें, तो आप पाएंगे कि अचानक क्रोधित होते हैं, अचानक कामवासना से भर जाते हैं। तब आपको पता चलेगा कि यह सुंदर स्त्री जो दरवाजे से निकल गई, इसने हवा का झोंका नहीं भेजा था। आप तैयार ही थे, बहाना ही खोज रहे थे कि कोई हवा का झोंका आ जाए, तो मैं कह सकूं कि इसमें मेरा क्या कसूर है? यह सुंदर स्त्री यहां से निकली क्यों? यह सुंदर क्यों है? इसने ऐसा साज-शृंगार क्यों किया? अब मैं क्या कर सकता हूं?
नहीं, आप तीन महीने अकेले बंद हों, तब आपको पता चलेगा। बहुत संभावना तो यह है कि कोई स्त्री नहीं निकलेगी और सुंदर स्त्रियां आप अपनी कल्पना में ही मौजूद कर लेंगे। और उन्हीं को आस-पास घुमाने लगेंगे। और फिर आप कंपित होने लगेंगे। यह हवा आपकी ही बनाई हुई है। यह लौ के आस-पास अपनी ही हवा के झोंके आप पैदा कर रहे हैं।
तीन महीने, वैज्ञानिक कहते हैं, एक आदमी को अगर बिलकुल ही डिप्राइव कर दिया जाए उसके सब अनुभव से, तो वह सभी अनुभवों को खुद पैदा कर लेगा। वह बातें करने लगेगा उन लोगों से...।
अपने घर में आप अकेले चुप नहीं बैठते हैं और लोगों से यही कहते हैं कि क्या करें, मित्र आ गए, इसलिए बातचीत करनी पड़ी। हालांकि आप प्रतीक्षा करते हैं! जिस दिन मित्र नहीं आते, उस दिन प्रतीक्षा करते हैं कि अब तक क्यों नहीं आए! तीन महीने आपको बंद कर दिया जाए, तो आप काल्पनिक मित्र पैदा कर लेंगे और उनसे बातचीत शुरू हो जाएगी। दोनों काम आप करेंगे: अपनी तरफ से भी बोलेंगे, उनका जवाब भी देंगे। यह हो जाएगा।
यह मैं यह कह रहा हूं कि हमारे चित्त की जो दशा है, हमारे आचरण की जो दशा है, वह डांवाडोल है। कंपन हमारा स्वभाव हो गया है। वही हमारा आचरण है।
लाओत्से कहता है, कंपित होना ही आचरण का नष्ट हो जाना है; अकंप होना ही आचरण है।
अकंप का क्या अर्थ हुआ? अकंप का क्या यह अर्थ हुआ कि यह खाना मत खाओ, वह पीना मत पीओ, यह कपड़े मत पहनो? नहीं! लेकिन कोई कपड़ा ऐसा न हो कि जो कंपित करे। और कोई खाना ऐसा न हो, जो कंपित करे। क्या अकंप होने का यह मतलब है कि किसी के साथ मत रहो? नहीं, साथ सबके रहो, लेकिन किसी का साथ कंपित न करे। और अगर किसी का साथ खो जाए, तो कंपन का पता भी न चले। अकंप का अर्थ होता है भाग जाना नहीं। अकंप का अर्थ होता है, ये सारे तूफान चलते रहें, चलते रहें, मेरी चेतना की लौ धीरे-धीरे थिर हो जाए।
यह हो जाती है। अगर हमने लाओत्से की सलाह मानी और इंद्रियों को विश्राम दिया, ताजा रखा, भीतर की इंद्रियों को जगाया, अगर हम पागलपन की चीजों के पीछे न दौड़े, अगर हमने व्यर्थ की चीजों के संग्रह को अपना मोह न बनाया, अगर हम वस्तुओं के लिए दीवाने न हुए, तो धीरे-धीरे वह आचरण उपलब्ध होता है, जो कि भीतर चेतना को थिर कर जाता है।
यह आचरण की थिरता, यह ठहर जाना चेतना का बड़ी और बात है! और जब किसी की चेतना ऐसी ठहरती है, तो वह आपको निंदा से नहीं देखता। और वह यह भी नहीं देखता कि आप यह खा रहे हैं, यह पी रहे हैं, इसलिए पापी हो गए हैं। यह कर रहे हैं, वह कर रहे हैं, इसलिए पापी हो गए हैं। नहीं, वह तो एक ही पाप जानता है कि आप चौबीस घंटे कंपित हो रहे हैं, बस। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप किस चीज से कंपित हो रहे हैं। चीजें बदल सकती हैं। कंपन जारी रह सकता है। कंपन नहीं हो जाना चाहिए, शून्य हो जाना चाहिए।
"इस कारण संत बहिर-नेत्रों की दुष्पूर आकांक्षाओं की तृप्ति नहीं करते।'
इसमें शब्द देखने जैसे हैं।
"इस कारण संत बहिर-नेत्रों की--बाहर की इंद्रियों की--दुष्पूर आकांक्षाओं की...।'
ऐसी आकांक्षाओं की जो कभी पूरी ही नहीं होतीं, जो स्वभाव से दुष्पूर हैं, जिनके पूरे होने की नियति में ही कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसा नहीं है कि हमारे श्रम की कमी है, कि हमारी दौड़ की क्षमता नहीं है। नहीं, वस्तु ही दुष्पूर है। जैसे कि कोई आदमी एक मरुस्थल में प्यास से भरा हुआ देखता है सामने भरा हुआ सरोवर। भागता है, दौड़ता है, पहुंचता है वहां, लेकिन सरोवर वहां नहीं है--और आगे दिखाई पड़ने लगा। इसमें इस आदमी के दौड़ने में कोई कमी नहीं है, इस आदमी की प्यास में कोई कमी नहीं है, इस आदमी के श्रम, उद्योग में कोई कमी नहीं है। लेकिन जिसके पीछे यह दौड़ रहा है, वह है ही नहीं। इसलिए दुष्पूर है, यह कभी पहुंचेगा नहीं। हमेशा दौड़ सकता है और हमेशा मान सकता है कि आगे अगर थोड़ा और दौड़ जाऊं, तो मिल जाएगा। जो भी हम जीवन में पा रहे हैं, वह वैसा ही दुष्पूर है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन ने पहली शादी की। तो उसने अपने नगर की जो सुंदरतम स्त्री थी, उससे विवाह किया। लेकिन दो साल बाद फिर वह नई पत्नी की तलाश में घूमने लगा। तो उसके मित्रों ने कहा कि अब क्या मामला है? तुमने सुंदरतम स्त्री को ब्याहा, अब तो गांव में उससे सुंदर कोई भी नहीं! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि अब मैं सबसे कुरूप स्त्री से विवाह करना चाहता हूं। क्योंकि सुंदर को देख लिया। जो पाया, वह सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं है। तो अब मैं सबसे कुरूप स्त्री से विवाह करना चाहता हूं। लोगों ने कहा, पागल हुए हो! जब सुंदर से सुख न मिला, तो कुरूप से क्या खाक मिलेगा! पर नसरुद्दीन ने कहा कि जरा विपरीत स्वाद, शायद! यह ढोल सुहावना सिद्ध हुआ, लेकिन ढोल निकला। अब जरा हम विपरीत को खोजें।
नहीं माना, ढूंढ़ कर उसने एक कुरूप स्त्री से शादी कर ली। दो साल बाद वह फिर तलाश में था। मित्रों ने कहा, क्या पागल हो गए हो? अब तो तुमने दोनों अनुभव ले लिए, जो कि बड़े असंभव हैं जगत में। सुंदरतम और कुरूपतम को, तुमने दोनों को पा लिया। अब तुम किसकी तलाश कर रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा कि अब की बार जब मैं आऊंगा विवाह करके, तभी तुम देखना।
बड़ी सनसनी रही गांव में। ऐसे सनसनी का आदमी था, अब यह क्या करेगा?
एक दिन आखिर बैंड-बाजा बजाता हुआ, घर के सामने पालकी लेकर हाजिर हो गया। सारा गांव इकट्ठा हो गया। नसरुद्दीन बड़ी अकड़ से अपने घोड़े पर बैठा हुआ है। दूल्हे का पूरा साज बना रखा है। लोग एकदम दीवाने और उतावले हुए जा रहे हैं कि डोली उतारी जाए, देखी जाए, किससे विवाह कर लाया है! डोली उतारी गई, खोली गई, वह खाली थी। उसमें कोई भी नहीं था। नसरुद्दीन ने कहा कि अब खाली डोली से विवाह कर आया हूं। हर बार भर कर डोली लाया, दुख उठाया। अब इस बार खाली डोली ले आया हूं।
और कहते हैं कि नसरुद्दीन अपनी वसीयत में लिख गया है कि जो उन दो स्त्रियों से नहीं पाया, वह खाली डोली से पाया। बड़ी शांति मिली; बड़ा सुख पाया।
खाली डोली से मिल सकता है। खाली डोली से मिल सकता है। क्योंकि जो खाली डोली को विवाह करने गया, उसकी मृग-मरीचिका टूट गई।
हम बदलते रहते हैं एक आब्जेक्ट से दूसरा, दूसरे से तीसरा, तीसरे से चौथा। हर बार बदल लेते हैं वस्तु को, विषय को। लेकिन दौड़ जारी रहती है। यह दौड़ दुष्पूर है। यह कभी भर नहीं सकती। ऐसा नहीं है कि किसी और के साथ भर जाती, यह भर नहीं सकती। यह वासना का स्वभाव ही दुष्पूर है।
"लेकिन संत उस भूख की चिंता करते हैं, जो कि नाभि के अंतरस्थ केंद्र में निहित है।'
उस भूख की चिंता करते हैं, जो कि नाभि के अंतरस्थ केंद्र में निहित है! मैंने पीछे आपको कहा कि लाओत्से, अस्तित्व का मूल केंद्र नाभि के निकट मानता है। और ठीक मानता है। तो एक तो हमारे बाहर इंद्रियों का फैलाव है। इन इंद्रियों का सारा का सारा संबंध मस्तिष्क से है। ध्यान रहे, आंख तो मस्तिष्क में है ही, तो उसका संबंध है; कान भी मस्तिष्क में है, उसका संबंध है; लेकिन आप जान कर हैरान होंगे कि जननेंद्रिय, सेक्स की वासना तो सिर में नहीं जुड़ी है, लेकिन वह भी मन से ही संबंधित है। इसलिए मन में जरा सी कामवासना उठे कि कामवासना का केंद्र सक्रिय हो जाता है--जरा सी वासना! तो समस्त इंद्रिय और वासनाएं मस्तिष्क में ही संयुक्त हैं। और हमारी चेतना को भी हम मस्तिष्क में ही बिठाए हुए हैं।
लाओत्से कहता है, इसे नीचे उतारो, इसे हृदय के पास लाओ। हृदय के पास आकर भी वासनाओं में रूपांतरण हो जाता है। और नीचे उतारो, नाभि के पास लाओ। तो वासनाएं शून्य हो जाती हैं और एक नई भूख का अनुभव होता है। उस भूख का नाम ही अध्यात्म है। एक नई भूख का अनुभव होता है। नाभि के पास जैसे ही चेतना आती है, एक नई भूख का अनुभव होता है। तब यह सवाल नहीं होता कि मैं क्या पा लूं, क्या हो जाऊं। तब यह सवाल नहीं होता। तब यही सवाल होता है कि जो मैं हूं, उसे जान लूं। हो जाऊं नहीं; जो मैं हूं, उसे जान लूं। यह एक नई भूख। वस्तुतः जो मेरा सत्य है, वही मेरे सामने प्रकट हो जाए। मुझे कुछ पाना नहीं, मुझे कुछ होना नहीं। मैं जो हूं सदा से, उसे ही जान लूं, उसका ही उदघाटन हो जाए। पर्दा उठ जाए और मैं पहचान लूं कि मैं हूं कौन! यह है भूख नाभि की। जैसे ही चेतना को कोई नाभि के पास लाता है, वैसे ही उसके जीवन में एक नया प्रश्न खड़ा होता है कि मैं कौन हूं?
समस्त अध्यात्म इस भूख का उत्तर है। समस्त योग, समस्त साधनाएं, इस भूख का उत्तर हैं। इस प्रश्न को खोज लेने, इसके उत्तर को पा लेने की विधियां हैं।
पर हमारी और सब तरह की भूख हमें पता है। हमें पता है कि एक बड़ा मकान, उसकी हमें भूख है; एक बड़ी संपदा की राशि, उसकी हमें भूख है; एक यश, उसकी हमें भूख है; प्रतिष्ठा, नाम, उसकी हमें भूख है। सब तरह की भूख हैं। एक भूख का हमें कोई भी पता नहीं--कि मैं कौन हूं, उसे भी जान लूं! मैं क्या हूं, उसे भी जान लूं!
यह अंतरस्थ नाभि की भूख है। और जिस व्यक्ति में यह भूख पैदा हो जाती है, उसका जीवन एक नई खोज पर निकल जाता है। क्योंकि भूख के बिना खोज नहीं। भूख न हो, तो खोज कोई क्यों करे? जिसकी भूख होती है, उसकी हम खोज करते हैं।
तो लाओत्से कहता है कि संत इस कारण न तो रंग की भूख से भरते, न स्वाद की, न ध्वनि की, न स्पर्श की। वे इंद्रियों की भूख से अपने को आपूरित नहीं करते। वे अपनी चेतना को हटाते हैं उस भूख की तरफ, जो नाभि के अंतरस्थ केंद्र पर छिपी है--स्वयं को जानने की भूख, स्वयं होने की भूख, स्वयं को पाने की भूख।
"संत पहली का निषेध और दूसरी का समर्थन करते हैं।'
संत नहीं कहते कि तुम समस्त भूख छोड़ दो। वे कहते हैं, कुछ भूखें हैं, जिनको तुम कितना ही भरो, वे कभी पूरी न होंगी। वे तात्कालिक हैं।
इसे थोड़ा समझ लें। हमारी समस्त इंद्रियों की भूखें तात्कालिक हैं। आज आपने भोजन दिया है पेट को, चौबीस घंटे भर बाद भोजन फिर देना पड़ेगा। क्योंकि भोजन चौबीस घंटे में चुक जाएगा। वह ठीक वैसा ही है जैसे अपनी कार में आपने पेट्रोल डाला है, आप चलाएंगे कार को, वह चुक जाएगा; फिर पेट्रोल डालना पड़ेगा। लेकिन तब आप कार से कोई जद्दोजहद नहीं करते कि तू कैसी कार है, अभी आठ घंटे पहले पेट्रोल दिया था, अब फिर वही बात! तब आप संयम भी नहीं करते कि अब हम बिना ही पेट्रोल डाले कार को चलाएंगे, उपवास पर रखेंगे। आप जानते हैं कि कार की जरूरत है। अगर कार में पेट्रोल नहीं डालना है, तो कृपा करके कार से नीचे उतर जाइए। अगर शरीर को भोजन नहीं देना है, तो कृपा करके शरीर से बाहर हो जाइए, छोड़िए। शरीर की चौबीस घंटे की जरूरतें हैं, वह चौबीस घंटे में पुनरुक्त मांग करेगा।
तो शरीर की जरूरतें तो मांग पैदा करती चली जाएंगी, क्योंकि शरीर तो एक यंत्र है। इसलिए रोज उसको भर दें, वह रोज खाली हो जाएगा। कभी आप शरीर के भरेपन से उस भरेपन को नहीं पा सकेंगे, जो फिर खाली न हो।
लेकिन इसमें कुछ चिंतित होने की बात भी नहीं है। यह ठीक ही है। इसमें परेशान होने की भी जरूरत नहीं है। इसलिए कुछ नासमझ शरीर के दुश्मन हो जाते हैं। वे कहते हैं, शरीर को देने से क्या फायदा, क्योंकि यह तो फिर मांगने लगता है। लेकिन शरीर को रखना है अगर...। और शरीर को वे रखे ही चले जाते हैं। खाना कम देने लगते हैं, पानी कम देने लगते हैं, विश्राम कम देने लगते हैं। सोचते हैं कि वे शरीर के साथ कोई बड़ी भारी विजय-यात्रा पर लगे हैं।
वे सिर्फ नासमझी में लगे हैं। असल में, उनकी भी आकांक्षा यही थी कि शरीर को एक दफे तृप्त कर दें और वह सदा के लिए तृप्त हो जाए। वह नहीं हुआ, इसलिए वे परेशान हैं। आपकी नासमझी यह है कि आप सोचते हैं कि रोज-रोज तृप्त करके एक दिन ऐसी जगह पहुंच जाएंगे कि फिर तृप्त करने की जरूरत न रहेगी। उनकी भी नासमझी यही थी। लेकिन वे आपसे विपरीत हो गए। वे कहते हैं, अब हम तृप्त ही न करेंगे। क्योंकि यह तृप्ति तो पूरी होती नहीं। लेकिन दोनों की उलझन एक है। एक शरीर को तृप्त करके सोच रहा है कि परम तृप्ति पा लूंगा। एक शरीर की तृप्ति रोक कर सोच रहा है कि परम तृप्ति पा लूंगा। लेकिन दोनों को उस परम भूख का ही पता नहीं है, जो परम रूप से तृप्त हो सकती है।
ध्यान रखें, क्षुद्र भूख क्षुद्र समय के लिए ही तृप्त होगी। जब पेट में भूख लगती है, तो यह कोई अल्टीमेट, कोई परम भूख तो नहीं है। जब प्यास लगती है, तो यह प्यास कोई चरम प्यास तो नहीं है। जितनी प्यास की हैसियत है, दो बूंद पानी डाल देते हैं, वह तृप्त हो जाती है। लेकिन दो बूंद की जितनी हैसियत है, उतनी देर में वह वाष्पीभूत होकर उड़ जाता है, प्यास फिर लग आती है। क्षुद्र भूख हो, तो क्षुद्र ही परिणाम होगा।
परम भूख का हमें पता ही नहीं है। परम भूख एक ही है--अस्तित्व को जानने की, अस्तित्व के साथ एक होने की, अस्तित्व के उदघाटन की। उसे सत्य कहें, उसे परमात्मा कहें, जो नाम देना चाहें दें। लेकिन वह परम भूख लाओत्से कहता है, इंद्रियों से हटाएं अपनी चेतना को, डुबाएं चेतना को नाभि के निकट, मस्तिष्क से नीचे उतारें। और जिस दिन नाभि के पास आप पहुंच जाएंगे, उसी दिन उदघाटन होगा--एक नई प्यास!
उसी प्यास का नाम प्रार्थना है, उसी प्यास का नाम ध्यान है। और उसी प्यास से जो खोज है, वह खोज धर्म है। और उस प्यास से चल कर जब आदमी उस सरोवर पर पहुंचता है जहां वह प्यास तृप्त होती है, तो उस सरोवर का नाम परमात्मा है।
आज इतना ही।
अब रुकें, जाएं न पांच मिनट। और कुछ लोग सम्मिलित होना चाहते हैं ऐसा लगता है, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाते। वे भी नीचे आ जाएं और सम्मिलित हों। और इतनी हिम्मत न हो, तो बैठ कर वहीं ताली दें, वहीं से सम्मिलित हों।
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