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शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--027

अनस्तित्व और खालीपन है आधार सब का—(प्रवचन—सताईसवां)
अध्याय 11 : सूत्र 1

अनस्तित्व की उपयोगिता

पहिए की तीसों तीलियां उसके मध्य भाग में आकर जुड़ जाती हैं,
किंतु पहिए की उपयोगिता धुरी के लिए छोड़ी गई खाली जगह पर निर्भर होती है।
मिट्टी से घड़े का निर्माण होता है, किंतु उसकी उपयोगिता
उसके शून्य खालीपन में निहित है।
दरवाजे और खिड़कियों को, दीवारों में काट कर प्रकोष्ठ बनाए जाते हैं,
किंतु कमरे की उपयोगिता उसके भीतर के शून्य पर अवलंबित होती है।
इसलिए, वस्तुओं का विधायक अस्तित्व तो लाभकारी सुविधा देता है,
परंतु उनके अनस्तित्व में ही उनकी वास्तविक उपयोगिता है।

जो व्यक्ति जीवन को ऊपर से ही देख लेते हैं और जीवन की सतह को ही सब कुछ समझ लेते हैं, उन्हें शून्य का उपयोग दिखाई नहीं पड़ेगा। जो तर्क तक ही अपने को सीमित रखते हैं और सोच-विचार से ज्यादा गहराई में कभी नहीं उतरते, उन्हें भी, जो उपस्थित नहीं है वह भी जीवन का आधार है, ऐसा कभी दिखाई नहीं पड़ेगा।
जो गणित की भाषा में सोचते हैं, उन्हें जीवन विधायक मालूम होगा, पाजिटिव मालूम होगा। लेकिन जीवन की विधायकता निगेटिव के अभाव में, नकारात्मक के अभाव में एक क्षण भी नहीं टिक सकती, यह उन्हें दिखाई नहीं पड़ेगा।
इसे हम थोड़े उदाहरण से समझें, तो खयाल में आ सके। यह लाओत्से के मौलिक सूत्रों में से एक है। मौलिक सूत्र यह है कि जीवन द्वंद्व पर आधारित है। और जीवन अपने विपरीत का विरोध नहीं करता, वरन विपरीत के सहयोग से ही चलता है। साधारणतः देखने में ऐसा लगता है कि अगर आपका शत्रु मर जाए, तो आप ज्यादा सुख में होंगे। लेकिन शायद आपको पता न हो कि आपके शत्रु के मरते ही आपके भीतर भी कुछ मर जाएगा, जो आपके शत्रु के कारण ही आपके भीतर था। इसलिए बहुत बार ऐसा होता है कि मित्र के मरने पर इतनी हानि नहीं होती, जितनी शत्रु के मरने पर हो जाती है। क्योंकि वह जो विरोध कर रहा था, वही आपके भीतर चुनौती भी जगा रहा था। वह जिसके विरोध और संघर्ष में आप सतत रत थे, वही आपका निर्माण भी कर रहा था।
इसलिए लाओत्से ने कहा है कि मित्र तो कोई भी चल जाएंगे, लेकिन शत्रु सोच कर चुनना। क्योंकि मित्र इतने प्रभावित नहीं करते हैं जीवन को, जितना शत्रु प्रभावित करता है। क्योंकि मित्र की तो उपेक्षा भी की जा सकती है, शत्रु की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। और मित्र को भूला भी जा सकता है, शत्रु को कोई कभी नहीं भूलता है।
लेकिन क्या शत्रु भी जीवन को इतना प्रभावित करता है, यह हमारे साधारण विचार में नहीं आता। भारत में अंग्रेजी राज्य न हो और महात्मा गांधी को पैदा करें, तो समझ में आएगा। महात्मा गांधी में कुछ भी बचेगा नहीं। या जो भी बचेगा, वह महात्मा गांधी की तरह पहचाना न जा सकेगा। वह जो ब्रिटिश का विरोध है, वह जो शत्रुता है, वह निन्यानबे प्रतिशत उन्हें पैदा करती है। इसलिए जब कोई देश संकट में होता है, तब वहां महापुरुष अपने आप पैदा हो जाते हैं। इसलिए नहीं कि संकट में महापुरुष को पैदा होना पड़ता है, संकट महापुरुष को पैदा करता है। संकट की घड़ी, तनाव की घड़ी महापुरुष को पैदा करती है।
हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बिना किसी बड़े युद्ध के कोई बड़ा नेता नहीं हो सकता। इसलिए बड़ा नेता होना हो, तो युद्ध बहुत जरूरी है, एकदम जरूरी है। आप ऐसे एक भी बड़े नेता का नाम नहीं बता सकते, जिसे शांति के समय ने पैदा किया हो। सभी बड़े नेता युद्ध की वजह से पैदा होते हैं। इसलिए जिसको बड़ा नेता बनना हो, उसे युद्ध का इंतजाम करना पड़ता है। बिना युद्ध का इंतजाम किए कोई बड़ा नहीं हो सकता।
जीवन विपरीत के सहयोग से चलता है। विपरीत के विरोध से दिखाई पड़ता है, लेकिन सहयोग से चलता है। इसे हम और पहलुओं से भी समझें, तो खयाल में आ जाएगा। अगर हम रावण को हटा दें रामायण से, तो अकेले राम से कथा निर्मित नहीं होती। ऐसा तो हो भी सकता है कि रावण न हो और राम पैदा हों; लेकिन राम का कहीं भी पता नहीं चलेगा। क्योंकि राम के व्यक्तित्व का सारा निखार रावण के विरोध से उभरता है। राम जितने महिमाशाली दिखाई पड़ते हैं, उस महिमा में रावण का बड़ा कंट्रीब्यूशन है, बड़ा दान है। राम अकेले निर्मित नहीं हो सकते हैं रावण के बिना; रावण भी निर्मित नहीं हो सकता है राम के बिना। वे एक-दूसरे के सहारे बड़े होते हैं। सत्य तो यही है। लेकिन ऊपर से जो देखता है, वह देखता है: वे एक-दूसरे की शत्रुता में हैं, एक-दूसरे के विरोध में हैं। लेकिन जीवन का गहन सत्य यही है कि वे साझेदार हैं। उन्हें भी पता न हो; जरूरी नहीं है कि उन्हें पता हो कि एक बहुत सूक्ष्म तल पर एक साझेदारी है, एक मैत्री है, एक सहयोग है।
जीवन निर्मित ही नहीं होता, विकसित ही नहीं होता, जब तक विपरीत न हो। विपरीत अनिवार्य है।
फ्रायड ने इस सदी में एक बहुमूल्य सत्य की खोज की, और वह यह कि हम जिसको भी प्रेम करते हैं, उसे हम घृणा भी करते हैं। बहुत चौंकाने वाली बात थी! खुद फ्रायड को भी चौंकाने वाली थी। और लोगों को बहुत सदमा लगा, खास कर प्रेमियों को बहुत सदमा लगा। क्योंकि प्रेमी कभी मान नहीं सकता कि हम जिसे प्रेम करते हैं, उसे घृणा भी करते हैं। लेकिन सभी प्रेमी जानते हैं, मानते भला न हों। इसलिए फ्रायड को इनकार बहुत किया गया, लेकिन इनकार किया नहीं जा सका। और धीरे-धीरे सत्य को स्वीकार करना पड़ा।
हम जिसे प्रेम करते हैं, उसे हम घृणा भी करते हैं; क्योंकि प्रेम बिना घृणा के खड़ा नहीं रह सकता। इसलिए अगर आपने किसी को प्रेम किया है और अगर आप ईमानदार हों और विश्लेषण करें, तो आप पाएंगे, सुबह घृणा की है, दोपहर प्रेम किया है, सांझ घृणा की है, रात प्रेम किया है। घृणा और प्रेम पीरियाडिकल बदलते रहे हैं। जिससे सुबह कलह की है और सोचा है इसके साथ क्षण भर जीना असंभव है, सांझ उससे सुलह की है और सोचा है इसके बिना क्षण भर भी जीना असंभव है।
पुराने प्रेम के जानकारों ने कहा था कि प्रेम पूर्ण तभी होता है, जब उसमें कलह न हो। और फ्रायड कहता है कि जितना पूर्ण प्रेम होगा, उतनी ही पूर्ण उसमें कलह होगी। अगर दो प्रेमियों में झगड़ा नहीं हो रहा है, तो उसका कुल मतलब इतना है कि दो प्रेमी सिर्फ धोखा दे रहे हैं, प्रेम नहीं है, फ्रायड कहता है। अगर आप और आपकी पत्नी में कोई कलह नहीं हो रही, तो उसका मतलब यह है कि पति और पत्नी होना बहुत पहले समाप्त हो गया, अब कलह की भी कोई जरूरत नहीं रह गई है। जितना गहन प्रेम होगा, तथाकथित जिसे हम प्रेम कहते हैं, किसी आध्यात्मिक प्रेम की बात फ्रायड नहीं कर रहा है। जिसे हम प्रेम कहते हैं और जिसे हम जानते हैं, आध्यात्मिक प्रेम को हम जानते भी नहीं। जिस प्रेम को हम जानते हैं, उस प्रेम में कलह, कांफ्लिक्ट अनिवार्य हिस्सा है।
लेकिन प्रेमी भी चाहेगा, प्रेयसी भी चाहेगी, पति भी चाहेगा, पत्नी भी चाहेगी कि कलह बंद हो जाए, तो प्रेम में बड़ा आनंद आए। उन्हें जीवन के सत्य का पता नहीं है। जिस दिन कलह पूरी तरह बंद होगी, उस दिन प्रेम पूरी तरह समाप्त हो चुका होगा। असल में, कलह बंद हो ही नहीं सकती उससे, जिससे हमारा प्रेम चल रहा है। कलह का मतलब ही यही है कि अपेक्षा है, बड़ी अपेक्षा है। और जितना बड़ा प्रेम है, उतनी बड़ी अपेक्षा है। और जितनी बड़ी अपेक्षा है, उतनी ही विफलता लगती है, उतना फ्रस्ट्रेशन होता है, हाथ में कुछ लगता नहीं। फिर कलह होती है। अगर कोई अपेक्षा न रह जाए, कोई एक्सपेक्टेशन न हो, कोई मांग न हो, कोई आशा न बचे, किसी सपने के पूरे होने का कोई खयाल न हो, तो कलह बंद हो जाती है। तब हम जीवन जैसा है, उसे स्वीकार कर लेते हैं।
तो फ्रायड कहता है कि बड़े प्रेमी शांति से रह ही नहीं सकते हैं।
एक बहुत अनूठे आदमी दि सादे ने अपने एक वक्तव्य में कहा है कि प्रेम एक तरह की बीमारी है। और बीमारी इसलिए कहा है कि प्रेम को तो हम निमंत्रण देते हैं और घृणा हाथ आती है। वे दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तो जिससे भी प्रेम होगा, उससे घृणा का खेल चलेगा।
अकेली घृणा भी नहीं टिक सकती। इसलिए अगर आप सोचते हों कि फलां व्यक्ति से मेरी सिर्फ घृणा है, तो आप भूल में हैं। क्योंकि अकेली घृणा नहीं टिक सकती। जिस व्यक्ति से आपका प्रेम शेष हो अभी, उससे घृणा टिक सकती है। अन्यथा घृणा भी नहीं टिक सकती है। अगर आपकी किसी से दुश्मनी गहरी है और घृणा भारी है, तो आप खोज-बीन करना, भीतर अभी भी प्रेम का सूत्र कहीं न कहीं बंधा है। अगर प्रेम का सूत्र बिलकुल टूट गया हो, तो घृणा का सूत्र भी टूट जाता है।
इसलिए मित्र और शत्रु, दोनों से हम बंधे होते हैं। मित्र से ऊपर से प्रेम होता है, नीचे से घृणा होती है। शत्रु से ऊपर से घृणा होती है, नीचे से प्रेम होता है। लेकिन बंधन दोनों से बराबर होते हैं। यह थोड़ा कठिन लग सकता है, क्योंकि प्रेम के संबंध में हमारी बड़ी अपेक्षाएं होती हैं। लेकिन हम और जीवन के दूसरे पहलू से समझें।
दिन भर एक आदमी श्रम करता है। तो होना तो यह चाहिए, जिस आदमी ने दिन भर श्रम किया है, वह रात विश्राम न कर सके। क्योंकि जिसका दिन भर का श्रम का अभ्यास है, उसे रात में नींद नहीं आनी चाहिए। लेकिन जिसका जितना श्रम का अभ्यास है, वह उतनी गहरी नींद में उतर जाता है। जिस आदमी ने दिन भर विश्राम किया है, होना तो यह चाहिए कि रात उसे गहरा विश्राम मिले, गहरी नींद आ जाए। क्योंकि दिन भर विश्राम का अभ्यास है उसका। लेकिन जिसने दिन भर विश्राम किया है, वह रात सो ही नहीं पाता। असल में, जिसने श्रम किया है, उसने श्रम का जो दूसरा विपरीत पहलू है विश्राम, वह अर्जित कर लिया। और जिसने विश्राम किया है, उसने जो विश्राम का दूसरा पहलू है श्रम, वह अर्जित कर लिया। इसलिए जिसने दिन भर विश्राम किया है, वह रात भर करवटें बदल कर श्रम करेगा। वह रात सो नहीं सकेगा।
वह जो विपरीत है, उससे हम बच नहीं सकते। वह विपरीत सदा वहां खड़ा हुआ है। अगर रात विश्राम चाहिए, तो दिन में श्रम करना पड़ेगा। और जितना ज्यादा होगा श्रम, उतना विश्राम होगा ज्यादा। इसलिए मजे की बात है, जो बहुत श्रम में जीते हैं, जिन्हें विश्राम की फुर्सत नहीं मिलती, वे गहरे विश्राम को उपलब्ध होते हैं। और जिन्हें विश्राम की पूरी सुविधा है, उन्हें विश्राम ही एक समस्या हो जाती है, क्योंकि विश्राम उपलब्ध होता नहीं है।
हम जीते हैं ऊपरी तर्क के सहारे। हम कहते हैं, अगर रात विश्राम चाहिए, तो दिन भर विश्राम करो। यह सीधा तर्क है। लेकिन जीवन का इससे कोई संबंध नहीं है। यह वही तर्क है कि अगर हम चाहते हैं किसी से प्रेम करो, तो कलह बिलकुल मत करो। वही तर्क है यह भी। लेकिन उलटा है जीवन। ठीक वैसा ही उलटा है, जैसे कि बिजली के निगेटिव और पाजिटिव छोर होते हैं, ऋणात्मक और धनात्मक विद्युत के छोर होते हैं। उन दोनों के होने से ही विद्युत की गति है और जीवन है। इसमें से एक को हम काट दें, तो दूसरा भी खो जाता है।
लेकिन विपरीत को स्वीकार करना बड़ा कठिन है। और जो विपरीत को स्वीकार कर लेता है, उसे मैं संन्यासी कहता हूं, उसे लाओत्से ज्ञानी कहता है--जो विपरीत को स्वीकार कर लेता है।
विपरीत को स्वीकार करने का मतलब यह है कि अगर आज आप मुझे सम्मान देने आए हैं, तो मुझे स्वीकार कर लेना चाहिए कि किसी तल पर आपके भीतर मेरे लिए अपमान भी इकट्ठा होगा ही। इससे बचा नहीं जा सकता। और अगर मैं आपका सम्मान स्वीकार कर रहा हूं, तो मुझे तैयारी कर लेनी चाहिए कि आज नहीं कल मुझे आपका अपमान भी सहना पड़ेगा। अगर इस जानकारी के साथ मैं आपके सम्मान को स्वीकार करता हूं, तो आपका सम्मान मुझे सुख न दे पाएगा और आपका अपमान मुझे दुख न दे पाएगा। क्योंकि मैं आपके सम्मान के भीतर गहरे में देख लूंगा कि वह भी अपमान है और आपके अपमान में भी गहरे में देख लूंगा कि वह भी सम्मान है। क्योंकि एक आदमी अगर मेरे ऊपर जूता फेंक जाए, तो यह भी अकारण वह क्यों करेगा? इतना श्रम उठाता है, तो मुझसे कुछ लगाव तो है ही। मुझसे कुछ संबंध तो है ही। और एक माला जो डाल जाता है, शायद माला सस्ती भी होती, जूता उससे थोड़ा मंहगा ही है। लगाव उसका भारी है, बेचैनी उसकी तीव्र है। वह मेरे लिए कुछ न कुछ करेगा ही।
अगर मैं उसके अपमान में उसके सम्मान को भी देख लूं कि वह मेरे लिए कुछ कर रहा है, श्रम उठा रहा है, तो उसके अपमान का दंश खो जाता है। और अगर मैं सम्मान में भी देख लूं कि आज नहीं कल दूसरा पहलू भी प्रकट होगा, तो सम्मान का जो इल्यूजन है, जो भ्रम है, जो स्वप्न है, वह तिरोहित हो जाता है। और तब सम्मान और अपमान एक ही सिक्के के दो पहलू हो जाते हैं। और जिस व्यक्ति को सम्मान और असम्मान एक ही सिक्के के दो पहलू दिखाई पड़ते हैं, वह दोनों के बाहर हो गया।
जीवन सब दिशाओं से विपरीत से बंधा हुआ है। लेकिन जब हम एक पहलू को देखते हैं, तो दूसरे को बिलकुल भूल जाते हैं। वही भूल हमारे जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। जब हम एक को देखते हैं, तो दूसरे को बिलकुल विस्मृत कर जाते हैं। जब हम कांटे देखते हैं, तो हम फूल नहीं देखते। जब हम फूल देखते हैं, तो हम कांटे नहीं देखते। और फूल और कांटे एक ही वृक्ष पर लगे हैं। और फूल और कांटों के भीतर जो रस बह रहा है, वह एक ही रस है। वह एक ही शाखा दोनों को प्राण दे रही है। और एक ही जड़ दोनों को जीवन-दान कर रही है। और एक ही सूरज दोनों पर किरणें बरसा रहा है। और एक ही माली ने दोनों को जल दिया है। और एक ही अस्तित्व से दोनों का आगमन हुआ है। वे दोनों एक हैं गहरे में। लेकिन जब हमें फूल दिखाई पड़ते हैं, तो फूल हमारी आंखों को इस बुरी तरह छा देते हैं कि कांटों को हम भूल जाते हैं। और जितने ज्यादा आप भूलेंगे, उतने जल्दी कांटे चुभ जाएंगे, देर नहीं लगेगी। लेकिन जब कांटे चुभते हैं, तो हमें फिर चुभन ही याद रह जाती है, फूल हमें बिलकुल भूल जाते हैं। हम यह भी भूल जाते हैं कि फूलों के लगाव में ही यह चुभन हमने कमाई है। फूलों में रस लिया था, इसीलिए यह फल भी भोगा है। लेकिन जब कांटा दिखाई पड़ता है, तो फूल तिरोहित हो जाता है।
हमारी दृष्टि सदा आंशिक है, पार्शियल है। आंशिक दृष्टि ही अज्ञान है। आंशिक दृष्टि गलत नहीं है। वह भी सत्य को तो देखती है, लेकिन अधूरे सत्य को देखती है। और शेष जो दूसरा हिस्सा है, वह इतना विपरीत मालूम पड़ता है कि हम दोनों में कोई संगति भी नहीं जोड़ पाते। कैसे संगति जोड़ें?
जो आदमी आज गले आकर लग गया है और जिसने कहा है कि तुम्हारे सिवाय मेरा कोई भी नहीं, और तुम्हीं मेरी खुशी और तुम्हीं मेरे गीत हो, हम कैसे कल्पना करें कि यही आदमी कल छाती में छुरा भी भोंक सकता है? संगति नहीं, कंसिस्टेंट नहीं मालूम होता। तर्क कंसिस्टेंसी चाहता है, संगति चाहिए। इसमें कोई संगति नहीं मालूम पड़ती। यह आदमी कैसे छुरा भोंक सकता है?
यही आदमी छुरा भोंक सकता है। जीवन की जो गहराई है, वह यही है। जीवन की जो गहराई है, वह यही है। क्योंकि जिससे इतना संबंध न हुआ हो, वह छाती में छुरा भोंकने भी कभी नहीं आता। क्या आप किसी आदमी को बिना मित्र बनाए शत्रु बना सकते हैं? और क्या ऐसा हो सकता है कि मित्र तो वह छोटा रहा हो और शत्रु बड़ा हो जाए? नहीं, यह नहीं हो सकता। अनुपात! जितना मित्र रहा हो, उतना ही शत्रु हो सकता है। रत्ती भर ज्यादा शत्रु नहीं हो सकता।
मैक्यावेली ने अपनी सलाह में दि प्रिंस में सम्राटों के लिए लिखा है कि जितने घनिष्ठ तुम्हारे मित्र हों, उतने ही उनसे सावधान रहना! यह सलाह तो चालाकी की है, लेकिन इसमें सत्य है। जितनी घनिष्ठ हो मित्रता, उतने ही सावधान रहना; क्योंकि उतना ही बड़ा खतरा भी निकट है। मैक्यावेली ने लिखा है कि अगर चाहते हो कि शत्रुओं को सत्य का पता न चले, तो मित्रों को पता मत चलने देना। शत्रुओं को पता न चले सत्य का, तो मित्रों को पता मत चलने देना। और यह भी लिखा है कि किसी भी शत्रु के साथ ऐसा व्यवहार मत करना कि किसी दिन वह मित्र हो जाए तो पछतावा हो, क्योंकि कोई भी शत्रु किसी भी दिन मित्र हो सकता है।
और जीवन प्रतिपल बदलता रहता है। यहां कुछ भी थिर नहीं है। एक अति से दूसरी अति पर जीवन डोलता रहता है। जीवन की गहराई में विरोध संयुक्त हैं; और जीवन की सतह पर विरोध वियुक्त हैं, अलग-अलग हैं। जो सतह को देखता है, वह लाओत्से को नहीं समझ पाएगा। क्योंकि लाओत्से जो अल्टीमेट पोलैरिटी है, जो आखिरी ध्रुवीयता है जीवन की, उसकी बात कर रहा है।
वह कहता है, "पहिए की तीसों तीलियां उसके मध्य भाग में आकर जुड़ जाती हैं, किंतु पहिए की उपयोगिता धुरी के लिए छोड़ी गई खाली जगह पर निर्भर है।'
चाक देखें बैलगाड़ी का। आरे, तीलियां जुड़ी हैं केंद्र से। लेकिन बड़ी अदभुत बात है कि चाक चलता है, तीलियां घूमती हैं; लेकिन चाक के बीच में एक खाली जगह है, एम्पटीनेस है, उसी खाली जगह पर यह सारा चाक का घूमना है। उस खाली जगह में कील है। और एक मजे की बात है कि चाक तो चलता है और कील खड़ी रहती है। खड़ी हुई कील पर चक्के का चलना घूमता है। अगर कील भी चल जाए, तो चाक न चल पाए। चाक चल सकता है, क्योंकि कील नहीं चलती। अचल है कील। अचल कील पर चलता हुआ चाक घूमता है। और जितनी अचल हो कील, चाक उतनी ही कुशलता से घूम सकता है। यह विपरीत का नियम है। और खाली जगह है, चाक के बीच में खाली जगह है, उसी में तो कील आकर बैठेगी। वह जो खाली जगह है चाक की, लाओत्से कहता है, शायद तुम्हें दिखाई भी न पड़े कि वही खाली जगह चाक का असली राज है। क्योंकि वही सेंटर है, वही केंद्र है। उस खाली जगह के बिना चाक नहीं हो सकता। इसका मतलब यह हुआ कि जहां-जहां भरापन दिखाई पड़ता हो, वहां गहरे में खालीपन भी मौजूद होगा। इसे हम थोड़ा समझ लें।
अगर आपको रास्ते पर चलते हुए भिक्षा-पात्र लिए हुए बुद्ध मिल जाएं, तो एकदम खाली आदमी मालूम पड़ेंगे। उनके पास कुछ भी नहीं है। एक भिक्षा-पात्र है, कुछ भी नहीं है। कोई धन नहीं, कोई पद नहीं, कोई प्रतिष्ठा नहीं, कोई महल नहीं। एक दिन था। अगर उस दिन आपको बुद्ध मिले होते, तो उनके पास सब कुछ था। धन था, महल था, राज्य था, साम्राज्य था; बड़ी शक्ति थी, बड़ी प्रतिष्ठा थी, वह सब था उनके चारों तरफ। एक दिन उनके पास सब था, लेकिन बुद्ध को लगा कि मैं भीतर खाली हूं। बाहर सब भरापन था, और बुद्ध को लगा कि भीतर मैं खाली हूं। चाक पूरा भरा था और कील बिलकुल खाली थी। और बुद्ध को लगा, बाहर यह सब भरा हुआ रहा आए, इससे क्या मिलेगा, जब तक मैं भीतर खाली हूं! तो बुद्ध ने वह सब छोड़ दिया। फिर एक दिन वे भिखारी की तरह सड़क पर जा रहे हैं। अब आप अगर उनको देखेंगे, तो बाहर सब खालीपन है; लेकिन भीतर वह आदमी बिलकुल भरा हुआ है।
त्याग की, तपश्चर्या की सारी धारणा इसलिए पैदा हुई, क्योंकि इस रहस्य को समझ लिया गया: अगर आप बाहर भरने में लगे रहेंगे, तो भीतर खाली रह जाएंगे। क्योंकि हर भरेपन के भीतर खाली अनिवार्य है। और अगर आप भीतर भरना शुरू करते हैं, तो बाहर आपको खाली होने के लिए राजी होना पड़ेगा। क्योंकि दोनों बातें एक साथ नहीं सम्हाली जा सकतीं। आप चाहें कि बाहर भी भरा हो, भीतर भी भरा हो, यह संभव नहीं है। क्योंकि जीवन विपरीत के नियम को मान कर चलता है। तो आपको पोलैरिटी को समझना पड़ेगा। अगर आपको भीतर भरे हुए मनुष्य होना है, चाहते हैं कि भीतर परमात्मा भर जाए, तो बाहर संसार के भराव की आपको चिंता छोड़ देनी पड़ेगी। यह बाहर की पकड़ छोड़ देनी पड़ेगी, यह क्लिंगिंग छोड़ देनी पड़ेगी। तो भीतर की पकड़ उपलब्ध होगी; लेकिन बाहर? बाहर खालीपन फैल जाएगा।
बुद्ध से मिलने एक सम्राट आया है। और उसने बुद्ध से कहा है कि तुम्हारे पास सब था, और तुम छोड़ कर क्यों चले आए? अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। किसी दुख में, किसी चिंता में, कभी ऐसी भूल हो जाती है। तुम्हारे पिता मेरे मित्र हैं, मैं उन्हें समझा ले सकता हूं और तुम्हारे घर तुम्हें वापस लौटा दे सकता हूं। अगर तुम्हारा पिता से ऐसा कुछ विरोध हो गया हो कि तुम घर जाना ही न चाहो, तो मैं भी कोई पराया नहीं, तुम्हारे पिता जैसा ही हूं। तुम मेरे घर आ जाओ। फिर तुम सोचते होओ कि किसी का एहसान लेना ठीक नहीं, तो मेरी एक ही लड़की है, मेरा कोई पुत्र नहीं, मैं तुम्हारा विवाह किए देता हूं। मेरी सारी संपत्ति, सारे साम्राज्य के तुम मालिक हो जाओ।
इस बीच जब वह ये सारे प्रपोजल्स, ये सारे प्रस्ताव दे रहा है, तब उसने एक बार भी बुद्ध की तरफ नहीं देखा कि वे हंस रहे हैं। जब वह अपनी पूरी बात कह चुका और उसने कहा कि क्या इरादे हैं? तो बुद्ध ने कहा, तुम मुझे सोचते हो कि मेरे पास कुछ नहीं है और मैं सोचता हूं कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है। ऐसे तुम भी ठीक सोचते हो, मैं भी ठीक सोचता हूं; सिर्फ हमारे सोचने के क्षेत्र अलग-अलग हैं। तुम्हारे पास बाहर सब कुछ है, मेरे पास बाहर कुछ भी नहीं। इसलिए स्वभावतः तुम्हें दिखाई पड़ता है: बेचारा! गरीब! इसे किसी तरह वापस समृद्धि में लौटा दो। मैं भी देखता हूं, मेरे भीतर सब कुछ है, तुम्हारे भीतर कुछ नहीं है। मेरा मन होता है: बेचारा! गरीब! इसे भीतर किसी तरह भर दो। तो बुद्ध ने उस सम्राट से कहा कि मैं दोनों जान चुका हूं। जो तुम मुझे दे सकते हो, वह सब मेरे पास था। जो तुम मुझे आश्वासन दे सकते हो, उससे बहुत ज्यादा मेरे पास था। उसे मैं छोड़ कर आया हूं। और मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे पास अब सब कुछ है और तब मेरे पास कुछ भी नहीं था। और तुम्हें एक ही अनुभव है, सब कुछ होने का, जिसे तुम सब कुछ समझ रहे हो। तुम मेरी मानो, और यह भिक्षा-पात्र हाथ में लो और संन्यास में दीक्षित हो जाओ।
एक विपरीतता है कहीं भी। तो लाओत्से कहता है, बैलगाड़ी का चाक चलता है। चाक की तीलियां भरी हुई हैं, लेकिन चाक अपने केंद्र पर शून्य है। उसी शून्य पर चलता है। लेकिन वह शून्य हमें दिखाई नहीं पड़ता। शून्य का मतलब ही यह होता है कि जो दिखाई नहीं पड़ता। दृश्य सदा अदृश्य के ऊपर निर्भर होता है। यह पोलैरिटी सभी तरफ रहेगी। दृश्य अदृश्य पर निर्भर होगा; शब्द मौन से पैदा होता है; जीवन मृत्यु के साथ टिका हुआ है। लेकिन वह दूसरा दिखाई नहीं पड़ता।
लाओत्से उसे समझाने के लिए फिर कहता है, "मिट्टी से घड़े का निर्माण होता है, किंतु उसकी उपयोगिता उसके शून्य खालीपन में निहित है।'
एक घड़ा हम बनाते हैं मिट्टी का। लेकिन अगर ठीक से पूछें, तो घड़ा कहां है? उस मिट्टी में या मिट्टी के भीतर जो खालीपन है, उसमें? जब आप बाजार से घड़ा खरीद कर लाते हैं, तो आप घड़े के लिए घड़ा खरीद कर लाते हैं कि वह जो खालीपन है भीतर, उसके लिए घड़े को खरीद कर लाते हैं? क्योंकि पानी घड़े में नहीं भरा जा सकेगा, खालीपन में भरा जा सकेगा। खाली जितना होगा घड़ा, उतना ही उपयोगी है। बाहर की मिट्टी की दीवार की उपयोगिता है, क्योंकि वह एक खालीपन को घेरती है और सीमा बना देती है, बस। लेकिन असली घड़ा तो खालीपन है।
लेकिन दिखाई तो हमें पड़ता है घड़ा, खालीपन तो कोई देखता नहीं। और आप बाजार में खालीपन खरीदने नहीं जाते, घड़ा खरीदने जाते हैं। आप दाम खालीपन के नहीं चुकाते, घड़े की मिट्टी के चुकाते हैं। बड़ा घड़ा होगा तो ज्यादा दाम चुकाएंगे; छोटा घड़ा होगा तो थोड़े दाम चुकाएंगे। मिट्टी पर निर्भर करेगा कि दाम कितने हैं। मिट्टी पर निर्भर करेगा कि दाम कितने हैं, खालीपन पर निर्भर नहीं करेगा। यद्यपि घड़े की परम उपयोगिता उसके खालीपन में है। घर जाकर पता चलेगा कि मिट्टी कितनी ही प्यारी रही हो, लेकिन अगर भीतर का खालीपन नहीं है, तो घड़ा बेकार हो गया। मिट्टी कितनी ही सुंदर रही हो, लेकिन अगर भीतर घड़ा बंद है और उसमें खालीपन नहीं है, मिट्टी ही भरी है, तो घड़ा बेकार हो गया, लाना व्यर्थ हो गया।
खालीपन की उपयोगिता है।
लाओत्से कहता है, हम एक मकान बनाते हैं...।
हम यहां बैठे हुए हैं, हम कहते हैं हम मकान में बैठे हुए हैं। लेकिन अगर लाओत्से से पूछें, तो वह कहेगा, हम खालीपन में बैठे हुए हैं। मकान तो ये दीवारें हैं, जो चारों तरफ खड़ी हैं। इन दीवारों में कोई भी बैठा हुआ नहीं है। ये दीवारें केवल बाहर के खालीपन को भीतर के खालीपन से अलग करती हैं, बस। इनका उपयोग सीमांत का है। बाहर के आकाश को भीतर के आकाश से विभक्त कर देती हैं। इसकी सुविधा है, इसकी जरूरत है। बस दीवार का उपयोग इतना है। लेकिन दीवार में कोई बैठता नहीं, बैठते तो हम खाली आकाश में हैं। इस भवन के भीतर उपयोग हम वस्तुतः किसका करते हैं? खालीपन का। तो जितना खालीपन हो, उतना यह उपयोगी हो जाता है। जितना खालीपन हो, उतना उपयोगी हो जाता है।
"मकान की उपयोगिता उसके खालीपन पर है। दरवाजे व खिड़कियों को दीवारों में काट कर हम प्रकोष्ठ बनाते हैं, कमरे बनाते हैं; किंतु कमरे की उपयोगिता उसके भीतर के शून्य पर अवलंबित होती है।'
लाओत्से यह कह रहा है कि जहां उपयोगिता दिखाई पड़ती है, वहां नहीं, उससे विपरीत में निर्भर होती है। जब आप मकान बनाते हैं, तो आपने कभी सोचा कि आप एक शून्य बना रहे हैं? एक खालीपन बना रहे हैं? नहीं, आप जब मकान बनाते हैं, तो दीवार का नक्शा तैयार करते हैं, दरवाजों के नक्शे तैयार करते हैं। शून्य का तो आप कोई नक्शा तैयार नहीं करते। लेकिन ठीक देखा जाए, तो दरवाजों और दीवारों के द्वारा आप शून्य का ही नक्शा तैयार करते हैं। वह जो शून्य है, उसको आकार देते हैं। लेकिन आकार ऊपर से दिखाई पड़ता है मूल्यवान, भीतर तो मूल्यवान शून्य ही है। और इसलिए कभी यह भी हो सकता है कि एक झोपड़ा भी बड़ा हो एक महल से। इस पर निर्भर करता है: भीतर कितना शून्य है, कितनी स्पेस है।
अक्सर मैंने पाया है कि अगर एक गरीब आदमी से कहो कि एक मित्र आए हैं, उन्हें अपने घर में ठहरा लो; तो वह कहता है, ठीक है, ठहरा लेंगे। अगर मैं किसी बड़े आदमी को कहता हूं कि एक मित्र आए हैं, उन्हें ठहरा लो; वे कहते हैं कि स्थान नहीं है। उनके पास स्थान ज्यादा है। लेकिन वे कहते हैं, स्थान नहीं है। क्या, हुआ क्या है? गरीब के पास वस्तुतः नापने जाएं, तो स्थान कम है। अमीर के पास स्थान ज्यादा है। लेकिन अमीर का स्थान इतनी चीजों से भरा हुआ है--भरा ही हुआ है, स्थान नहीं के बराबर है।
मैं एक करोड़पति के घर में ठहरा हुआ था। उनकी बैठक देख कर मुझे लगा कि वह बैठक नहीं कही जा सकती, क्योंकि उसमें बैठने की जगह ही नहीं थी। वह कोई म्यूजियम मालूम होता था। उन्होंने न मालूम कितने ढंग का फर्नीचर वहां इकट्ठा कर रखा था। वह फर्नीचर ऐसा नहीं था कि बैठने के लिए हो, वह फर्नीचर ऐसा था, देखने के लिए था। सदियों पुराना! वे कहते थे कि यह तीन सौ साल पुराना फ्रेंच फर्नीचर है, यह इतने सौ साल पुराना फलां फर्नीचर है। मैंने उन्हें कहा कि यह सब ठीक है, लेकिन इसमें बैठक कहां है? फर्नीचर ही था, उसमें बैठ कहीं सकते नहीं थे। जगह भी, वहां मूव करने की जगह भी नहीं थी, कि उस कमरे में से निकलना हो, तो आपको बच कर निकलना पड़े। वे उसमें भरते चले गए थे; जो भी उन्हें पसंद आता था, वे लाते चले गए थे। जब मैंने उनसे कहा कि इसमें बैठक कहां है, तो वे बहुत चौंके। उन्होंने कहा, यह तो मुझे खुद भी खयाल नहीं रहा! जब शुरू किया था, तो बैठक की तरह ही इसको शुरू किया था। फिर धीरे-धीरे सब भरता चला गया। अब तो सिर्फ कोई आता है मेहमान, तो उसे हम दिखा देते हैं लाकर। अब इसमें बैठक नहीं बची है।
ऐसा बाहर तो बहुत आसानी से घट जाता है, भीतर भी इतनी ही आसानी से घट जाता है। जब आप एक आदमी के शरीर को प्रेम करते हैं, तब आप भूल जाते हैं कि वह भीतर जो स्पेस है, जिसे हम आत्मा कहते हैं, वह भीतर जो जगह है रिक्त, वह भी है या नहीं? तो जैसे एक आदमी घड़े को खरीद लेता है ऊपर की हालत देख कर, कारीगरी देख कर, यह भूल ही जाता है कि भीतर पानी भरने की जगह भी है? वैसे ही आदमी एक शरीर को देख कर प्रेम में पड़ जाता है। यह भूल ही जाता है कि भीतर आत्मा, स्पेस जैसी कोई चीज भी है? भीतर कोई जगह है, जहां मैं प्रवेश कर सकूंगा?
नहीं, चमड़ी को देख कर, शरीर को देख कर, हड्डियों के उतार को देख कर एक आदमी प्रेम में पड़ जाता है। फिर पीछे बहुत पछताता है। फिर वह पीछे कहता है कि मैं कैसी भूल में पड़ गया! लेकिन कोई भूल नहीं, भूल इतनी है केवल कि आदमी भी शरीर से महत्वपूर्ण नहीं होता। शरीर जरूरी है। आदमी भी भीतर जितना आकाश होता है उसके, जितनी रिक्तता होती है, जितना खालीपन, विस्तार होता है, जितनी स्पेस होती है, उससे महत्वपूर्ण होता है।
उसी स्पेस का नाम आत्मा है। जब हम कहते हैं कि कितनी आत्मा है आपके भीतर, तो उसका मतलब है कि कितना समा सकते हो भीतर? कितनी जगह है? अगर एक कोई जरा सी गाली दे देता है, तो भीतर नहीं समा सकती है। तो आत्मा बहुत कम है। जरा सी गाली, अगर भवन भीतर बड़ा होता, तो शायद गूंज भी न पहुंचती, पता भी न चलता कि कोई गाली दी गई है। एक जरा सा कोई पत्थर मार देता है, तो भीतर कोई जगह नहीं कि उस पत्थर को भी विश्राम मिल जाए। नहीं, तत्काल भीतर से पत्थर दो गुना बड़ा होकर वापस लौट आता है। अगर हम एक खालीपन में पत्थर फेंकें, तो खालीपन पत्थर को वापस नहीं भेजेगा। अगर हम एक दीवार में पत्थर फेंकें, तो दीवार पत्थर को वापस भेज देगी। जो आदमी प्रतिक्रियाओं में जीता है, रिएक्शंस में, उसका मतलब है भीतर खाली नहीं है। इधर हमने फेंका, वहां से वापस लौटा। वहां कोई चीज समा नहीं सकती है। वहां कोई स्थान नहीं है।
लेकिन प्रेम का वास्तविक फूल तो इसी स्थान में खिलता है। फ्रायड वाले प्रेम की बात नहीं कर रहा हूं अब। अब उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जिसे हम जानते ही नहीं हैं। अब उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जिसमें हमारा प्रेम भी नहीं होता और हमारी घृणा भी नहीं होती। अब उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जहां फूल और कांटे दोनों ही नहीं होते। जहां तो केवल फूल और कांटों के नीचे बहने वाली रस की धार ही रह जाती है। लेकिन वह भीतर का रिक्तपन कहां हम देखते हैं? भीतर का रिक्तपन हम नहीं देखते।
लाओत्से के पास अगर कोई नमस्कार भी करता था, तो कभी-कभी ऐसा होता था कि उसने नमस्कार की और घंटे भर बाद लाओत्से जवाब देगा कि नमस्कार! वह आदमी अब तक भूल ही चुका था कि नमस्कार भी उसने की थी। अब तक वह न मालूम कितनी बातें लाओत्से के खिलाफ सोच चुका था कि यह आदमी ठीक नहीं है। मैं नमस्कार कर रहा हूं, इसने अब तक जवाब भी नहीं दिया।
लाओत्से के एक मित्र ने एक दिन लाओत्से को कहा कि यह भी कोई ढंग है! यह भी कोई शिष्टाचार है कि एक आदमी नमस्कार करता है और तुम घंटे भर बाद जवाब देते हो!
लाओत्से ने कहा, कम से कम उसका नमस्कार मुझ तक तो पहुंच जाए! मेरे हृदय में मैं उसे से लूं! मेरे हृदय में वह विश्राम कर ले! इतनी जल्दी लौटा देना अशिष्टता होगी। इतनी जल्दी लौटा देना, इतना इम्पेशेंस, इतना अधैर्य, कि किसी ने कहा नमस्कार, हमने कहा नमस्कार! न हमें कोई प्रयोजन है, न उसे कोई प्रयोजन है। यह सिर्फ निपटारा है, बात समाप्त हो गई। यह झंझट खतम हुई।
ऊपर से देखने पर लगेगा कि लाओत्से कैसी बात कर रहा है! लेकिन नमस्कार करने वाला भूल चुका है और लाओत्से अभी नमस्कार का जवाब दे रहा है, तो इस घंटे भर वह नमस्कार के साथ रहा। इस घंटे भर यह नमस्कार उसके प्राणों में गूंजी। यह सिर्फ प्रतिक्रिया नहीं है। यह बटन दबाई और पंखा चल गया, ऐसी यांत्रिक घटना नहीं है। यह जीवंत रिस्पांस है, रिएक्शन नहीं।
रिएक्शन तत्काल हो जाता है। प्रतिक्रिया का मतलब होता है वह यांत्रिक है। यहां हमने बटन दबाया, बिजली जली; बटन दबाया, बिजली बुझ गई। बिजली यह नहीं कह सकती कि तुम दबाते रहो बटन, मैं थोड़ी देर से बुझती हूं। वह यांत्रिक है। एक आदमी ने गाली दी, आपके भीतर क्रोध की लपट जग गई। वह उतनी ही यांत्रिक है। एक आदमी ने प्रेम की बात कही, आप गदगद हो गए, आपकी छाती फूल गई। वह उतनी ही यांत्रिक है। बटन कोई दबा रहा है, और आप फूल रहे हैं, सिकुड़ रहे हैं।
इसलिए चौबीस घंटे आपको कितनी मुसीबत से गुजरना पड़ता है, इसका हिसाब नहीं। कि हर कोई बटन दबा रहा है और वही आपको होना पड़ रहा है। एक आदमी ने गाली दी, और आप गए। एक आदमी ने मुस्कुरा कर देखा, और आपकी जिंदगी में बहार आ गई। और एक आदमी ने आपकी तरफ नहीं देखा, और आपके दीए बुझ गए और सब अमावस की रात हो गई। चौबीस घंटे आपको गिरगिट की तरह पूरे समय रिएक्ट करना पड़ रहा है। आपके पास कोई आत्मा नहीं है, भीतर कोई जगह नहीं है। इसलिए सतह ही से सब चीजें लौट जाती हैं।
भीतर जगह का अर्थ होता है धैर्य। भीतर जगह का अर्थ होता है एक प्रतिसंवेदन। भीतर की जगह का अर्थ होता है कि कोई बात मेरे भीतर जाएगी तो समय लेगी, यात्रा करनी पड़ेगी उसे मुझ तक पहुंचने को।
तो लाओत्से कहता है, मुझ तक पहुंचे उसका नमस्कार, मेरे प्राणों में गूंजे। फिर उसका प्रत्युत्तर निर्मित हो, फिर मैं प्रेम से उसके प्रत्युत्तर को वापस निवेदन करूं। समय लग जाएगा।
जब हम किसी व्यक्ति के शरीर के प्रेम में पड़ते हैं, तो हमें खयाल में नहीं होता कि भीतर की स्पेस, भीतर के आकाश का भी पता कर लें, फिक्र कर लें। हम घड़े को खरीद लाते हैं, भीतर की खाली जगह को भूल जाते हैं।
रवींद्रनाथ ने एक बौद्ध भिक्षु पर एक गीत लिखा है। एक बौद्ध भिक्षु गुजरता है एक राह से और नगर की जो नगरवधू है, जो नगर की वेश्या है...।
यह वेश्या शब्द बहुत अच्छा नहीं है। पुराने लोग बहुत समझदार थे, उन्होंने शब्द दिया था नगरवधू, पूरे गांव की पत्नी। अब तो हालत बिलकुल बदल गई है। अब हालत बिलकुल बदल गई है। अब तो जो आपकी पत्नी है, वह भी निजी वेश्या है--व्यक्तिगत। अब हालत बिलकुल बदल गई है। क्योंकि अगर आज आप पश्चिम के मनोवैज्ञानिक से पूछें, तो वह कहता है, कोई फर्क नहीं है वेश्या में और पत्नी में। वह सामूहिक है और स्थिर नहीं है। कोई स्थायी लाइसेंस नहीं है उसके साथ। समय का फर्क है, रात भर के लिए उसे खरीदते हैं। पत्नी के साथ जीवन भर का सौदा है, जीवन भर के लिए खरीदते हैं। लेकिन पूरब के लोग उसे कहते थे नगरवधू
वह नगरवधू, झांक कर उसने देखा है नीचे और इस भिक्षु को देखा है।
और स्वभावतः, संन्यासी के पास एक और तरह का सौंदर्य पैदा होना शुरू हो जाता है, जिसे गृहस्थ कभी नहीं जान पाता। उसके कारण हैं। क्योंकि संन्यासी के साथ पैदा होती है एक स्वतंत्रता, एक बंधनमुक्त अवस्था। उस बंधनमुक्तता में एक अनूठा सौंदर्य पैदा होने लगता है। संन्यासी के साथ पैदा होता है भीतर का रिक्त आकाश, एक आत्मा। वह प्रतिक्रियाओं से अब नहीं जीता, वह अपने ढंग से जीना शुरू करता है। दूसरे उसे जीने के लिए मजबूर नहीं करते, वह अपना ही मार्ग चुनता है। वह अपना ही जीवन चुनता है। वह अपने जीवन का एक अर्थ में स्वयं नियंता और मालिक है। तो एक अनूठा सौंदर्य, एक इंटिग्रेशन, एक समग्रता उसके भीतर पैदा होनी शुरू हो जाती है। एक और ही गरिमा और गौरव, एक और ही सौंदर्य!
वेश्या ने देखा है और वह मोहित हो गई है। उसने नीचे आकर भिक्षु को कहा कि मेरे घर आज की रात मेहमान हो जाओ। भिक्षु ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और उसने कहा, अभी तो तेरे चाहने वाले और भी बहुत होंगे। सुंदर है तू, युवा है तू। अभी मैं न भी आऊं, तो तेरी रात खाली नहीं जाएगी। किसी दिन जब तेरा कोई चाहने वाला न हो और किसी दिन जब यह गांव तुझे बाहर फेंक दे--और यह गांव फेंक ही देगा--और किसी दिन जब तू चिल्लाती हो और कोई आवाज का उत्तर भी देने वाला न हो, तब मैं आ जाऊंगा। वेश्या को दुख हुआ; अपमानित हुई। यह पहला मौका था। लोग उसके द्वार पर खटखटाते थे और वह इनकार करती थी। आज पहला मौका था कि उसने किसी के द्वार पर खटखटाया और इनकार हो गया। पीड़ा भारी थी। वह लौट गई।
कोई बीस वर्ष बाद, एक अंधेरी रात, और रास्ते के किनारे कोई चिल्ला रहा है जोर से। राह से गुजरता भिक्षु उसके पास जाकर रुका है। हाथ उसके चेहरे पर फेरा है, पूछा है उससे। प्यास उसे लगी है और पानी चाहिए। वह पास के गांव से जाकर पानी लेकर और एक दीया लेकर आया है। कोढ़ फूट गया है पूरे शरीर पर उस वेश्या के। वही वेश्या है। गांव ने उसे बाहर फेंक दिया है। कोढ़ी को भीतर रखने का कोई उपाय नहीं है। आज उसे कोई पानी देने को भी राजी नहीं है। उस भिक्षु ने कहा कि आंख खोल और देख, प्रभु की कृपा कि मैं अपना वचन पूरा कर सका हूं! मैं आ गया! बीस साल पहले तूने जो निमंत्रण दिया था, वह अब मुझ तक पहुंच गया। मैं आ गया हूं। और समय भी आ गया।
वेश्या ने आंखें खोलीं और उसने कहा कि नहीं, अब तुम न ही आते तो अच्छा था। अब आने से प्रयोजन भी क्या है? उस दिन ही आना था। उस दिन मैं युवा थी, सुंदर थी।
उस भिक्षु ने कहा, लेकिन आज, आज तुम ज्यादा अनुभवी हो, आज तुम ज्यादा ज्ञानी हो। जीवन को तुमने देखा--उसकी पीड़ा, उसके अनुभव, उसके दुख, उसका विषाद। और आज मैं समझता हूं कि तुम्हारे पास शरीर तो नहीं है, लेकिन थोड़ी आत्मा है। शरीर तो चला गया; लेकिन आज आत्मा है। उस दिन आत्मा बिलकुल नहीं थी। उस दिन शरीर ही शरीर था।
भीतर भी कुछ है, जो हमारे शरीर से विपरीत है और फिर भी संयुक्त है। शरीर की वह जो भीतर विपरीतता है, उसे अगर हम ध्यान में रख सकें, तो लाओत्से का सूत्र हमारे खयाल में आ जाए। घड़े की तो बात है समझाने के लिए। लेकिन गहरे में तो आदमी की ही बात है।
अस्तित्व के संबंध में वह कहता है, "इसलिए वस्तुओं का विधायक अस्तित्व तो लाभकारी सुविधा देता ही है, परंतु उनके अनस्तित्व में ही उनकी वास्तविक उपयोगिता है।'
जब चीजें होती हैं, तब तो उनसे सुविधा मिलती ही है; लेकिन उनके न होने की भी एक और गहरी उपयोगिता है। जैसे जब जवानी होती है, तो जवानी का एक उपयोग है। लेकिन जब जवानी खो जाती है, तब उसके खो जाने का और भी गहरा उपयोग है। उसके शून्य हो जाने का और भी गहरा उपयोग है। लेकिन उस उपयोग को हम जान नहीं पाते, क्योंकि हममें से बहुत से लोग सिर्फ शरीर से बूढ़े हो जाते हैं, उनकी चेतना में प्रौढ़ता नहीं उपलब्ध हो पाती। चेतना से वे बचकाने ही बने रहते हैं। इसलिए बूढ़ा आदमी भी चेतना से बचकाना ही बना रहता है।
एक मजे की बात है, बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी जब सपना देखता है, तो सपने में सदा अपने को जवान देखता है। सदा! हजारों सपनों के अध्ययन किए गए हैं, लेकिन अब तक ऐसा सपना नहीं पकड़ा जा सका कि किसी बूढ़े आदमी ने अपने को सपने में बूढ़ा देखा हो। इसका मतलब है साफ। वासना उसकी अभी भी जवान ही अपने को मानती है। मजबूरी है कि शरीर साथ नहीं देता। मजबूरी है कि शरीर धोखा दिए जाता है। मजबूरी है कि शरीर जराजीर्ण हो गया। लेकिन भीतर, भीतर वह जो मन है, वह अभी भी अपने को जवान माने चला जाता है। सपने में तो वह जो भीतर मन मानता है, वही प्रकट होता है।
यदि कोई व्यक्ति जवानी को ही उपयोगी समझे और जब जवानी खो जाए और उसको उपयोगिता न दिखे, तो उसे निषेध का मूल्य पता नहीं चल पाया। और अगर उसे निषेध का मूल्य पता चल जाए, तो बुढ़ापा जवानी से बहुत ज्यादा सुंदर हो जाता है। क्योंकि जवानी के सौंदर्य में भी उत्तेजना तो रहेगी ही। और जहां उत्तेजना रहेगी, वहां सौंदर्य में गहराई नहीं हो सकती, डेप्थ नहीं हो सकती। तेजी हो सकती है, त्वरा हो सकती है, गति हो सकती है, लेकिन गहराई नहीं हो सकती। इसलिए जवानी का सौंदर्य उथला होगा, ओछा होगा। अगर, जवानी जब खो जाती है, उसके खोने में भी कोई समझ पाए उपयोगिता, तो बुढ़ापे को एक सौंदर्य मिलता है, जो जवान को कभी भी नहीं मिल सकता। और ठीक भी है, क्योंकि बुढ़ापा जवानी से आगे है। ठीक भी है, ज्यादा विकासमान है। तो बुढ़ापे में एक गरिमा, एक गहराई, एक अनंत गहराई उपलब्ध हो जाती है। लेकिन वह जवानी के अभाव का उपयोग है।
जीवन में तो है ही रहस्य। लेकिन जिसने जीवन में ही रहस्य को पकड़ा और मृत्यु के रहस्य को नहीं जाना, वह पूरे रहस्य को नहीं जान पाया। जीवन में मृत्यु के सामने कुछ भी नहीं है, मृत्यु के समक्ष कुछ भी नहीं है। मृत्यु अभाव है, अनस्तित्व है।
लाओत्से कहता है, विधायक अस्तित्व, पाजिटिव एक्झिस्टेंस की उपयोगिता है। लेकिन निगेटिव एक्झिस्टेंस की तो बात ही और है। वह महा उपयोगिता है। उसका अर्थ ही और है।
लेकिन हम जीवन में तो देख पाते हैं अर्थ, मृत्यु में हमें कोई अर्थ नहीं दिखाई पड़ता। मृत्यु हमारे लिए सिर्फ एक अंत है, समाप्त हो जाना है। प्रारंभ नहीं, एक नया उदघाटन नहीं, एक नए द्वार का खुलना नहीं, सिर्फ पुराने द्वारों का अचानक बंद हो जाना है। खुलना नहीं है कुछ भी। तो हमें मृत्यु का कोई पता नहीं। इस सबका कारण एक ही है कि हम पाजिटिव से बंधे हुए हैं। वह जो विधायक है, वह हमें परेशान किए जा रहा है। निगेटिव की हमने कभी कोई खबर नहीं ली। तो इस निगेटिव को हम थोड़ी तरफ से समझें, तो फिर यह अनस्तित्व हमारे खयाल में आ जाए।
दिन में जागते हैं, तो हम जागने का हिसाब रखते हैं। और आदमी की चेष्टा होती है कि जितनी कम नींद से काम चल जाए, बेहतर। तो पश्चिम में बहुत से वैज्ञानिक विचार करते हैं कि आज नहीं कल हमें कोई इंतजाम करना चाहिए कि आदमी को सोना न पड़े। क्योंकि न सोना पड़े, तो उसकी जिंदगी में बीस साल और बढ़ जाएं। अगर आप साठ साल जीएंगे, तो बीस साल सोने में खो जाएंगे। तो बजाय इसके कि आपकी जिंदगी को बीस साल लंबा करके अस्सी साल किया जाए, क्या यह उचित न होगा कि आपके बीस साल सोने के, जो व्यर्थ जाते मालूम पड़ते हैं दिन, उनको हम बचा लें और आप साठ साल पूरा जी लें? तो वैज्ञानिक सोचते हैं कि कभी ऐसा उपाय हो जाएगा कि आदमी को सोने की जरूरत न रह जाए।
लेकिन उन्हें पता नहीं है, यह विधायक पर अति जोर का परिणाम है। जो आदमी सोना भूल जाएगा, उसका जागना बिलकुल उदास और अर्थहीन हो जाएगा। कभी आपने खयाल किया है कि सांझ जब आप बिस्तर पर सोने जाते हैं, तो आंखें आपकी बुझ चुकी होती हैं; और सुबह जब उठते हैं, तो आंखों के दीए फिर से जगमगा जाते हैं। रात सिर्फ व्यर्थ नहीं गुजर जाती, रात अनस्तित्व के द्वारा शक्ति को पाने का उपाय है। निद्रा का अर्थ है निगेटिव में, नकार में, शून्य में डूब जाना, ताकि शून्य हमें पुनः शक्ति दे दे।
इसलिए चिकित्सक कहते हैं कि आदमी की बीमारी ठीक नहीं हो सकती, कोई भी बीमारी ठीक नहीं हो सकती, अगर साथ ही नींद असंभव हो। तो फिर बीमारी ठीक नहीं हो सकती। कोई इलाज ठीक नहीं कर पाएगा। क्योंकि आदमी अगर अपने भीतर से शक्ति पाने की समस्त संभावनाएं बंद कर दे, तो ऊपर से दी गई दवाएं कुछ कर न पाएंगी। चिकित्सक अब स्वीकार करते हैं कि हम केवल बीमारी के ठीक होने में सहयोगी हो सकते हैं, सिर्फ सहयोगी। मूल रूप से तो बीमार स्वयं ही अपने को ठीक करता है। लेकिन वह ठीक कर सकता है तभी, जब सारी विधायकता को छोड़ कर रात के अंधेरे में, शून्य में खो जाए।
शून्य में खोते ही हम प्राणों के गहरे तल पर पहुंच जाते हैं, जहां जीवन का आधार है, जहां जीवन का मूल स्रोत है; वहां से हम शक्ति को वापस पा लेते हैं। वही शक्ति सुबह हमारी आंखों में ताजगी बन कर दिखाई पड़ती है। वही सुबह पक्षियों का गीत बन जाती है। वही सुबह फूलों का खिलना हो जाती है। वही शक्ति! रात वृक्ष भी सो जाते हैं, पक्षी भी सो जाते हैं, प्राणी भी सो जाते हैं, आदमी भी सो जाता है। लेकिन कुछ आदमी हैं, जो अब नहीं सो पाते हैं। और धीरे-धीरे ऐसा लगता है कि शायद पूरी आदमियत नहीं सो पाएगी। जिस दिन आदमियत नहीं सो पाएगी, उसी दिन समझना कि पूरी आदमियत पागल हो गई। फिर हम कभी स्वस्थ नहीं हो सकते। क्योंकि हमने निषेध को छोड़ दिया।
लाओत्से कहता है, सोना प्रथम है, जागना द्वितीय। क्योंकि निषेध पहले है। विश्राम पहले है, श्रम पीछे। और जितना गहरा होगा विश्राम, उतने गहरे श्रम में उतर जाओगे।
इस निषेध को, इस अनस्तित्व को समझना पड़ेगा। इसे हम कई तरफ से समझें। जैसे मैंने कहा कि नींद है, वह अनस्तित्व है। और जागरण हमारा विधायक है, नींद हमारा निषेध है। जागने में हम सक्रिय होते हैं, नींद में हम शून्य हो जाते हैं। इसलिए जो आदमी रात भर सपने देखता रहता है, वह आदमी सुबह अनुभव करता है कि नींद नहीं हो पाई। क्योंकि स्वप्न निषेध और विधेय के बीच का हिस्सा है। सोए भी हैं और सो भी नहीं पा रहे हैं, ऐसी स्थिति है। जागे भी हैं और जागे नहीं हैं, ऐसी स्थिति है। तो बीच में डोलता है मन, तो क्रिया जारी रहती है। और कई बार तो लोग सुबह उठ कर जितने थके उठते हैं, उतने सांझ थके नहीं सोते।
मैंने सुना है कि एक ग्रामीण अपने मित्र के घर देश की राजधानी में आया। जब वह राजधानी से वापस लौटा, तो उसके मित्रों ने और गांव के लोगों ने पूछा कि गांव और शहर में तुमने क्या फर्क पाया?
तो उसने कहा, मैंने फर्क पाया: गांव में लोग सांझ थके हुए होते हैं और सुबह ताजे उठते हैं। और शहर में लोग सांझ ताजे मालूम पड़ते हैं और सुबह थके उठते हैं।
रात, सांझ शहर जगा हुआ मालूम पड़ता है--ताजा। क्लब हैं, होटलें हैं, सिनेमागृह हैं, सब आदमी ताजे मालूम पड़ते हैं। सुबह? जरा उठें, जाएं, एक काल्पनिक आंख बंद करके यात्रा करें लोगों के शयनकक्षों की, बेडरूम्स की। लोग उठ रहे हैं, मुर्दा; नहीं उठना चाहते हैं, किसी तरह उठ रहे हैं। मजबूरी है, इसलिए उठ रहे हैं। दफ्तर है, इसलिए उठ रहे हैं। दुकान है, इसलिए उठ रहे हैं। लेकिन जैसे खींचे जा रहे हैं, कोई भीतर से प्राण नहीं है, जो उठ रहा हो। मुर्दे की भांति उठाए जा रहे हैं। उठ जाएंगे, बिना रीढ़ के खड़े हो जाएंगे, चल पड़ेंगे। क्या, हुआ क्या है?
नींद का जो निषेध है, वह खो गया है। नींद का जो नकार है, अनस्तित्व है, वह खो गया है। सुबह से सांझ तक हम बात कर रहे हैं, रात भी सपने में बात कर रहे हैं। रात भी लोग बड़बड़ाते रहते हैं। रात भी बोलते रहते हैं। भीतर नहीं, तो बाहर भी बोलते रहते हैं। चौबीस घंटे बोल रहे हैं। मौन अनस्तित्व है, शब्द अस्तित्व है। शब्द विधायक है, साइलेंस शून्य है। लेकिन जो व्यक्ति शब्दों में खो जाएगा और जिसके भीतर कभी भी शून्य घटित नहीं होता, और जिसको कभी भीतर शून्य का पता नहीं चलता, और जिसे कभी भीतर मौन की एक संधि नहीं मिलती--शब्द ही शब्द, शब्द ही शब्द--वह आदमी धीरे-धीरे जीवन की गहराइयों से वंचित हो जाता है।
शब्द उपयोगी है, लेकिन शब्द काफी नहीं है। शब्द जरूरी है, लेकिन बस शब्द ही पर्याप्त नहीं है। शब्द चाहिए, लेकिन उससे भी ज्यादा निःशब्द चाहिए, उससे भी ज्यादा मौन चाहिए।
इसलिए ध्यान रखें, जिन लोगों के शब्दों में वजन होता है और जिन लोगों के शब्दों में प्राण होते हैं, वे वे ही लोग होते हैं जिनके पास मौन की क्षमता होती है। इस जगत में जो विराट शब्द पैदा हुए हैं, जो महाशब्द पैदा हुए हैं, वे उन लोगों से पैदा हुए हैं जो शून्य होने की कला जानते हैं। कोई बुद्ध जब बोलता है, तो उसके बोलने में एक-एक शब्द का जादू और है। कोई महावीर जब बोलता है, तो ऐसे ही नहीं बोलता जैसे हम बोल देते हैं। उसके एक-एक शब्द में सघन मौन समाया हुआ है। जब मोहम्मद बोलते हैं, तो वर्षों के मौन के बाद। जब जीसस बोलते हैं, तो तीस साल का लंबा...। पता ही नहीं है कि तीस साल जीसस क्या करते रहे। महावीर बारह वर्षों तक जंगल में चुपचाप खड़े रहे। बारह वर्ष तक नहीं बोले, इसलिए जब जो बोले, उसका गुण ही और है, उसकी खूबी ही और है, उसकी शक्ति ही और है। तब एक-एक शब्द प्रगाढ़ हो गया मौन के अर्थ से। तब मौन से यह जो शब्द पैदा हुआ, इस शब्द का वजन, इसकी कीमत, इसका मूल्य और है।
शब्द वही आप भी बोल सकते हैं, कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि महावीर ने कोई नए शब्द नहीं बोले। बुद्ध या क्राइस्ट ने या कृष्ण ने कोई नए शब्द नहीं बोले। कृष्ण ने जो भी गीता में बोला है, वे सभी शब्द अर्जुन भलीभांति समझता था। उसने एक भी जगह ऐसा नहीं कहा कि आपके शब्द मेरी समझ में नहीं आते हैं। सब शब्द वह समझता था। वही शब्द वह भी बोल सकता था। लेकिन कृष्ण जब उसी शब्द को बोलते हैं, तो उसका मूल्य और हो जाता है। अर्जुन उसी शब्द को बोले, उसका मूल्य वही नहीं रह जाता।
तो शब्द का अर्थ एक तो भाषा-कोश में लिखा हुआ है, डिक्शनरी में लिखा हुआ है। वह एक अर्थ है। और एक और अर्थ है, जो भीतर के मौन से शब्द में प्रवेश करता है। इसलिए कोई व्यक्ति है कि वह कुछ भी बोले, तो उसके बोलने में काव्य हो जाता है। और कोई व्यक्ति है, वह कविता भी पढ़े, तो भी सब बेरौनक, सब बासा। उसके ओंठ में आकर ही शब्द जैसे मर जाते हैं। किसी के ओंठ पर आते ही शब्द अमृत हो जाते हैं, यात्रा पर निकल जाते हैं विराट की। ये वे ही ओंठ हैं, जिनके भीतर सघन मौन की क्षमता है। उसी मौन में जब कोई शब्द पलता है और बड़ा होता है, प्रिगनेंट होता है, उस मौन के गर्भ में ही जब कोई शब्द बड़ा होता है...।
अगर हम इसको इस तरह समझ लें, तो आसानी पड़ेगी। अगर एक मां के शरीर में गर्भ निर्मित हो इसी क्षण और इसी क्षण गर्भ बाहर आ जाए और नौ महीने के मौन में न डूबा रहे, तो वह गर्भपात होगा, जन्म नहीं। वह एबॉर्शन होगा और उससे प्राण नहीं निकलेगा, उससे मृत घटना घटेगी। लेकिन नौ महीने के मौन में, नौ महीने के अंधकार में, नौ महीने के निषेध में बच्चा बड़ा होता है और जीवन को उपलब्ध होता है। ठीक वैसे ही जब किसी व्यक्ति के भीतर मां के गर्भ जैसा मौन होता है और उसमें एक शब्द पलता है, पलता है, बड़ा होता है, पोषण पाता है और कभी जन्मता है, तब उसमें प्राण होते हैं।
हमारे शब्द सब गर्भपात होते हैं, एबॉर्शन होते हैं। अखबार पढ़ा, पढ़ कर भागे कि किसी को बता दें अखबार में खबर क्या है। किताब पढ़ी कि अब बेचैन हुए कि लड़का कब स्कूल से लौटे कि उसको उपदेश दें। एबॉर्शन! शब्द को जरा भी मौन में जीने की सुविधा नहीं है। हम सब एबॉर्टिव हैं दिमाग में बिलकुल। तो एक-दूसरे पर अपना-अपना गर्भपात किए चले जाते हैं। और उस पर वह जल्दी दूसरे पर फेंक रहा है, दूसरा तीसरे पर फेंक रहा है, फेंके चले जा रहे हैं।
झेन फकीर बोकोजू के पास जब कोई आता था, तो फकीर बोकोजू कहता था कि अगर शब्द से सीखना हो, तो कहीं और जाओ। अगर शून्य से सीखना हो, तो यहां रुको। हम भी शब्द का उपयोग करते हैं, लेकिन बस इतना ही--शून्य की तरफ इशारा करने को, इंगित करने को। हम भी कभी-कभी शब्द का उपयोग करेंगे, लेकिन बस इतना ही--शून्य की तरफ इशारा करने को। लेकिन असली चीज शून्य है। असली चीज मौन है।
मौन अनस्तित्व है, शब्द अस्तित्व है। और जीवन के हर पहलू पर वह जो हमें दिखाई नहीं पड़ता, वही गहन है। वह जो हमारे स्मरण में नहीं आता, हमारी प्रतीति में नहीं पकड़ता, हमारे अनुभव में नहीं पकड़ में आता, वही मूल्यवान है। जो व्यक्ति विधायक, पाजिटिव को, जो दिखाई पड़ता है, पकड़ में आता है, इंद्रियां जिसे पहचान लेती हैं, उसकी फिक्र कम करता है और उसकी फिक्र ज्यादा करने लगता है, जो अनस्तित्व है, शून्य है, नकार है, मौन है, वह व्यक्ति जीवन के परम सत्य की यात्रा पर निकल जाता है।
तो लाओत्से कहता है कि सदा खोज लेना गहराई को, सतह से मत उलझ जाना। और सदा खोज लेना उस विपरीत को, जो कि सबका मूल आधार है। सदा उसकी फिक्र कर लेना। क्योंकि उसी से जीवन का रस और उसी से जीवन का सौंदर्य और उसी से जीवन की शक्ति और ऊर्जा उपलब्ध होती है। कहीं भी, निरंतर दूसरा भी गहरे में मौजूद है। उस गहरे का खयाल रखना, तो जीवन की पूरी की पूरी दृष्टि दूसरी हो जाती है। जिसको प्रेम में भी घृणा दिखाई पड़ने लगे, वह दोनों से मुक्त हो जाता है। और तब एक अनूठे ही प्रेम का जन्म होता है। वह प्रेम हमारे लिए बिलकुल अपरिचित और अनजान है। वह प्रेम एक संबंध नहीं, वह प्रेम एक स्वभाव है।
उसी प्रेम को क्राइस्ट कहे कि वह प्रेम ईश्वर है। उसी प्रेम को महावीर ने अहिंसा कहा, बुद्ध ने करुणा कहा। लाओत्से ने उसे नाम ही नहीं दिया, क्योंकि लाओत्से ने कहा कि सभी नाम दूषित हो गए हैं। प्रेम कहो, तो लोग समझेंगे उनका प्रेम; करुणा कहो, तो लोग समझेंगे उनकी करुणा; कुछ भी कहो, लोगों के सभी शब्द दूषित हो गए हैं, विकृत हो गए हैं। सभी शब्द बीमार हो गए हैं। क्योंकि बीमार आदमियों ने इतना उनका उपयोग किया है, संक्रामक हो गए हैं। सभी शब्दों में आदमियों की बीमारियां प्रवेश कर गई हैं। एक भी शब्द अनकंटेमिनेटेड नहीं है। ऐसा शब्द खोजना मुश्किल है, जिसको हम कह सकें कि इसमें आदमियों की बीमारियों के रोगाणु नहीं पड़ गए हैं। सभी शब्द रुग्ण हो गए हैं। कोई शब्द शुद्ध नहीं है। इसलिए लाओत्से ने कहा कि मैं कोई शब्द नहीं देता। मैं तुमसे इतना ही कहता हूं कि जहां दोनों नहीं रह जाते, वहां जो रह जाता है, वही, वही पाने योग्य है।
अगर शब्द और शून्य का खयाल आ जाए, तो शब्द के पीछे शून्य छिपा है--एक बात आपको अंत में इशारा कर दूं--शब्द और शून्य का अगर खयाल आ जाए, तो शब्द के पीछे शून्य छिपा है; लेकिन जो शून्य शब्द के पीछे छिपा है, वह भी शब्द से जुड़ा हुआ है। एक और शून्य है, महाशून्य है, जहां शब्द भी नहीं और शून्य भी नहीं। लेकिन उसके लिए कोई शब्द देना मुश्किल है। अस्तित्व द्वंद्व है, दो में बंटा है, विपरीत में बंटा है और विपरीत के सहारे काम करता है। लेकिन अस्तित्व की गहराई निर्द्वंद्व है, अद्वैत है, वहां दोनों खो जाते हैं। तब यह कहना मुश्किल है कि वहां एक रह जाता है। क्योंकि हमारी भाषा जैसा मैंने कहा, जब भी हम कहें एक, तब हमें तत्काल दो का खयाल आता है। सोचना कभी बैठ कर घंटे भर कि एक का खयाल करना और दो का खयाल न आए, तो आप समझ पाएंगे कि जो मैं कह रहा हूं वह एक। लेकिन हम जब भी एक कहेंगे, तत्काल दो का खयाल आ जाएगा। हमारा एक दो की शृंखला का हिस्सा है, पार्ट, उसका अंश है। हमारे एक का कोई मतलब ही नहीं होता।
इसलिए हिंदुओं ने परमात्मा को एक नहीं कहा, अद्वैत कहा। निषेध का उपयोग किया। यह नहीं कहा कि वह एक है, कहा कि वह दो नहीं है। अद्वैत का मतलब होता है, दो नहीं है। सीधी सी बात कह सकते थे कि एक है। लेकिन एक कहने में तत्काल दो का खयाल आता है; इसलिए उन्होंने बड़ी होशियारी की बात कही, बड़ी बुद्धिमानी की, कि वह दो नहीं है। जब कहा कि दो नहीं है, तो इशारा तो किया कि एक है, लेकिन एक का उपयोग नहीं किया। सिर्फ खयाल आ जाए, भनक पड़ जाए कि वह एक है--बिना शब्द का उपयोग किए।
तो द्वंद्व को जो जान लेगा, पहचान लेगा, समझ लेगा, वह द्वंद्व के पार हो जाता है। अस्तित्व द्वंद्व है, जहां हम खड़े हैं वहां। लेकिन हमें तो द्वंद्व का भी एक ही हिस्सा दिखाई पड़ता है।
तो तीन बातें हैं। एक, हमें द्वंद्व का एक ही हिस्सा दिखाई पड़ता है, दूसरा हिस्सा भी दिखाई नहीं पड़ता। तो पहला काम तो यह है कि हमें पूरा द्वंद्व दिखाई पड़े। जब हमें पूरा द्वंद्व दिखाई पड़ेगा, तब हमें तीसरी चीज दिखाई पड़ेगी, जो द्वंद्व के पार है। हम जहां खड़े हैं, वहां हमें प्रेम दिखाई पड़ता है, घृणा दिखाई नहीं पड़ती। अगर घृणा दिखाई पड़ती है, तो प्रेम दिखाई नहीं पड़ता। अगर ये दोनों हमें दिखाई पड़ने लगें, तो हमें तीसरा दिखाई पड़ेगा, जो दोनों नहीं है, दोनों के पार है।
अद्वैत सत्य की उपलब्धि द्वंद्व की पूरी-पूरी सार्थकता को समझ लेने से संभव होती है। और द्वंद्व की पूरी सार्थकता समझनी हो, तो लाओत्से कहता है कि जहां भी पाजिटिव हो, विधायक हो, वहां निगेटिव को खोजना, नकारात्मक को खोजना। और तुम पाओगे कि नकारात्मक पर ही सारा विधायक खड़ा हुआ है। और जब दोनों ही खो जाएं, तो वह उपलब्ध होता है, जिसे उपलब्ध करने के बाद फिर कुछ और उपलब्ध करने को शेष नहीं रह जाता है।

आज इतना ही।
पाच मिनट रुकेंगे, कीर्तन में सम्मिलित हों। और बैठे न रहें, सम्मिलित हों, भागीदार बनें।


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