दिनांक
24 अगस्त, 1971;
प्रथम
पर्युषण व्याख्यानमा
ला,
पाटकर हाल,
बम्बई
धम्म-सूत्र:
धम्मो
मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा
संजमो तवो।
देवा
वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया
मणो ।।
धर्म
सर्वश्रेष्ठ
मंगल है।
(कौन-सा धर्म?) अहिंसा,
संयम और तपरूप
धर्म। जिस
मनुष्य का मन
उक्त धर्म में
सदा संलग्न
रहता है, उसे
देवता भी
नमस्कार करते
हैं।
सूर्यास्त
के समय, जैसे
कोई फूल अपनी पंखुड़ियों
को बन्द कर ले—
संयम ऐसा नहीं
है। वरन
सूर्योदय के
समय जैसे कोई
कली अपनी पंखुड़ियों
को खोल ले—संयम
ऐसा है। संयम
मृत्यु के भय
में सिकुड़ गए
चित्त की रुग्ण
दशा नहीं है।
संयम अमृत की
वर्षा में
प्रफुल्लित
हो गए, नृत्य
करते चित्त की
दशा है। संयम
किसी भय से किया
गया संकोच
नहीं है। संयम
किसी प्रलोभन
से आरोपित की
गयी आदत नहीं
है।
संयम किसी
अभय में चित्त
का फैलाव और
विस्तार है।
और संयम किसी
आनन्द की
उपलब्धि में अन्तर्वीणा
पर पैदा हुआ
संगीत है।
संयम निषेध
नहीं है, विधेय
है। निगेटिव
नहीं है, पाजिटिव है। लेकिन
परंपरा निषेध
को मानकर चलती
है। क्योंकि
निषेध आसान है
और विधेय अति
दुष्कर। मरना
बहुत आसान है,
जीना बहुत
कठिन है। हमें
लगता है कि
नहीं, जीना
बहुत आसान है,
मरना बहुत
कठिन। लेकिन
जिसे हम जीना
कहते हैं, वह
सिर्फ मरना ही
है और कुछ भी
नहीं है।
सिकुड़
जाने से
ज्यादा आसान
कुछ भी नहीं
है। खिलने
से ज्यादा कठिन
कुछ भी नहीं
है। क्योंकि खिलने के
लिए
अंतर-ऊर्जा का
जागरण चाहिए। सिकुड़ने
के लिए तो
किसी जागरण की, किसी
नयी शक्ति की
जरूरत नहीं
है। पुरानी
शक्ति भी छूट
जाए तो सिकुड़ना
हो जाता है।
नयी शक्ति का उदभव हो तो
फैलाव होता
है। महावीर तो
फूल जैसे खिले
हुए
व्यक्तित्व
हैं। लेकिन
महावीर के
पीछे जो
परंपरा बनती
है, उसमें
तो सिकुड़ गये
लोगों की धारा
की श्रृंखला
बन जा ती है।
और फिर पीछे
के युगों में
इन पीछे चलने वाले,
सिकुड़े हुए लोगों
को देखकर ही
हम महावीर के
संबंध में भी
निर्णय लेते
हैं।
स्वभावतः
अनुयायियों को
देखकर हम
अनुमान करते
हैं उनका, जिनका
वे अनुगमन
करते हैं।
लेकिन
अकसर भूल हो
जाती है। और
भूल इसलिए हो
जाती है कि
अनुयायी बाहर
से पकड़ता
है,
और बाहर से
निषेध ही खयाल
में आते हैं।
महावीर या
बुद्ध या
कृष्ण भीतर से
जीते हैं और
भीतर से जीने
पर विधेय ही
होता है। अगर
किसी को परम आनंद
उपलब्ध हो, तो उसके
जीवन में, जिन्हें
हम कल तक सुख
कहते थे, वे
छूट जाएंगे।
इसलिए नहीं कि
वे उन्हें छोड़
रहे हैं बल्कि
इसलिए कि अब
जो उसे मिला
है, उसके
लिए जगह बनानी
जरूरी है। हाथ
में कंकड़-पत्थर
थे, वे गिर
जाएंगे
क्योंकि जिसे
हीरे जीवन में
आ गए हों, अब
कंकड़-पत्थरों
को रखने के
लिए न सुविधा
है, न
शक्ति, है,
न का रण है।
लेकिन वे हीरे
तो आएंगे
अन्तर के आकाश
में। वे हमें
दिखाई नहीं
पड़ेंगे और
हाथों में जो
पत्थर थे, वे
छूटेंगे,
वे हमें
दिखाई
पड़ेंगे।
स्वभावतः हम
सोचेंगे कि
पत्थर छोड़ना
ही संयम है।
यह एक बहुत
अनिवार्य फैलेसी
है जो समस्त
जाग्रत
पुरूषों के
आसपास इकट्ठी होती
है। यह स्वाभाविक
है, लेकिन
बड़ी खतरनाक
है। क्योंकि
तब हम जो भी
सोचते हैं वह
सब गलत हो
जाता है। लगता
है महा वीर कुछ
छोड़ रहे हैं, यही संयम
है। नहीं लगता
कि महावीर कुछ
पा रहे हैं, वही संयम
है। और ध्यान
रखें, पाए
बिना छोड़ना
असंभव है। या
जो पाए बिना
छोड़ेगा, वह
रुग्ण हो
जाएगा। बीमा र
हो जाएगा। वह
अस्वस्थ होता
है, सिकुड़ता है और मरता
है। पाए बिना
छोड़ना असंभव
है।
जब मैं
कहता हूं कि
त्याग की बहुत
दूसरी धारणा
है और संयम का
बहुत दूसरा
रूप और आयाम
प्रगट होता
है। मैं कहता
हूं महावीर
जैसे लोग कुछ
पा लेते हैं, वह
पाना इतना
विराट है कि उसकी
तुलना में जो
उनके हाथ में
कल तक था वह
व्यर्थ और
मूल्यहीन हो
जाता है। और
ध्यान रहे, मूल्यहीनता
रिलेटिव है, तुलनात्मक
है, सापेक्ष
है। जब तक
आपको
श्रेष्ठतर
नहीं मिला है,
तब तक जो
आपके हाथ में
है, वही
श्रेष्ठतर
है। चाहे आप
कितना ही कहें
कि वह
श्रेष्ठतर
नहीं है, लेकिन
आपका चित्त
कहे जाएगा, वही
श्रेष्ठतर
है। क्योंकि
उससे
श्रेष्ठतर को
आपने नहीं
जाना है। जब
श्रेष्ठतर का
जन्म होता है
तभी वह
निकृष्ट होता
है। और मजे की
बात यह है कि
निकृष्ट को
छोड़ना नहीं
पड़ता और श्रेष्ठ
को पकड़ना
नहीं पड़ता।
श्रेष्ठ पकड़
ही लिया जाता है
और निकृष्ट
छोड़ ही दिया
जाता है। जब
तक निकृष्ट को
छोड़ना पड़े तब
तक जानना कि
श्रेष्ठ का कोई
पता नहीं है।
और जब तक
श्रेष्ठ को पकड़ना पड़े
तब तक जानना
कि श्रेष्ठ
अभी मिला नहीं
है। श्रेष्ठ
का स्वभाव ही
यही है कि वह
पकड़ ले; निकृष्ट
का स्वभाव यही
है कि वह छूट
जाए।
लेकिन
निकृष्ट हमसे
छूटता नहीं और
श्रेष्ठ हमारी
पकड़ में नहीं
आ ता। तो हम
निकृष्ट को
छोड़ने की
जबर्दस्त
चेष्टा करते
हैं। उसी
चेष्टा को हम
संयम कहते
हैं। और
श्रेष्ठ को
अंधेरे में
टटोलने की, पकड़ने
की कोशिश करते
हैं। वह हमारी
इस तरह पकड़
में नहीं आ
सकता। इसलिए संयम
के विधायक
आयाम को ठीक
से समझ लेना
जरूरी है।
अन्यथा संयम
व्यक्ति को
धार्मिक नहीं
बनाता केवल
अधार्मिक
होने से रोकता
है। और जो अधर्म
बाहर प्रगट
होने से रुक
जाता है, वह
भीतर जहर बनकर
फैल जाता है।
निषेधात्मक
संयम फूलों को
नहीं पैदा कर
पाता है, केवल
कांटों को
प्रगट होने से
रोकता है।
लेकिन जो
कांटे बाहर
आकाश में
प्रगट होने से
रुक जाते हैं,
वे भीतर
आत्मा में छिप
जाते हैं।
इसलिए जिसे हम
संयमी कहते
हैं, वह
आनंदित नहीं
दिखाई पड़ता
है। वह पीड़ित
दिखाई पड़ता
है। वह किसी
पत्थर के नीचे
दबा हुआ मालूम
पड़ता है, किसी
पहाड़ को ढोता
हुआ मालूम
पड़ता है। उसके
पैरों में नर्तक
की स्थिति
नहीं होती।
उसके पैरों
में कैदी की
जंजीरें
मालूम पड़ती
हैं। ऐसा नहीं
लगता कि बच्चों
जैसा सरल, उड़ने को
तत्पर हो गया
है। वह बहुत
बोझिल और भारी
हो गया है।
जिसे
हम संयमी कहते
हैं वह हंसने
में असमर्थ हो
गया होता है, उसके
चारों तरफ
आंसुओं की
धारा इकट्ठी
हो जाती है।
और जो संयमी
हंस न सके
परिपूर्ण
चित्त से, वह
अभी संयमी
नहीं है।
जिसका जीवन
मुस्कुराहट न
बन जाए, वह
अभी संयमी
नहीं है।
निषेध का
रास्ता यह है कि
जहां-जहां मन
जाता है, वहां
मन को न जाने
दो। जहां-जहां
मन खिंचता है,
वहां-वहां
मन को न खिंचने
दो, उसके
विपरीत
खींचो। तो, निषेध एक
अंतर संघर्ष
है, इनर कांफिलक्ट
है, जिसमें
शक्ति व्यय
होती है, उपलब्ध
नहीं होती है।
सभी संघर्ष
में शक्ति व्यय
होती है।
जहां-जहां मन
खिंचता है, वहां-वहां
से उसे वा पस
खींचो, लौटाओ। कौन लौटाएगा,
किसको लौटाएगा?
आप ही
खिंचते हैं, आप ही
आकर्षित होते
हैं, आप ही
विपरीत जाते
हैं। आप अपने
भीतर विभाजित
हो जाते हैं।
खंडों में टूट
जाते हैं।
जिसको
मनोचिकित्सक स्कीजोफ्रेनिया
कहता है, वह
आपके भीतर
घटित होता है।
आप खंडित हो
जाते हैं। आप
दोहरे—तेहरे
हो जाते हैं।
आपके भीतर
अनेक लोग हो
जाते हैं। आप
अपने को ही बांटकर
लड़ना शुरू कर
देते हैं।
इससे जीत कभी
नहीं होगी। और
महावीर का
सारा रास्ता
जीत का रास्ता
है। जो अपने
से लड़ेगा, वह
कभी जीतेगा
नहीं।
उल्टा
लगता है यह
सूत्र, क्योंकि
हमें लगता है
कि लड़े बिना
जीत कैसे हो
सकती है। जो
अपने से लड़ेगा
वह कभी जीतेगा
नहीं क्योंकि
अपने से लड़ना
अपने ही दोनों
हाथों को लड़ाने
जैसा है। न
बायां जीत
सकता है, न
दायां।
क्योंकि
दोनों के पीछे
मेरी ही ताकत लगती
है, मेरी
ही शक्ति लगती
है। चाहूं तो
मैं बायें को
जिता लूं, तब
भी बायां
जीतता नहीं।
चाहूं तो मैं
दायें को जिता
लूं, तब भी
दायां जीतता
नहीं।
क्योंकि
दोनों के पीछे
मैं ही होता
हूं। और यह जो
व्यक्तित्व
में खंडन हो
जाता है, डिसइंटिग्रेशन हो जाता है, यह आदमी को
विक्षिप्तता
की तरफ ले
जाने लगता है।
आदमी ऐसा लगता
है कि उसके ही
भीतर उसका दुश्मन
खड़ा है, वही
है वह। आधा
अपने को बांट
लिया। अपनी
छाया से लड़ने
जैसा पागलपन
है। नहीं, महावीर
इतना गहरा
जानते हैं कि
स्की ोफ्रेनिक,
खंडित
व्यक्तित्व
की तरफ वे
सलाह नहीं दे
सकते। वे सलाह
देंगे, अखंड
व्यक्तित्व
की तरफ—
इंटिग्रेटेड,
इकट्ठा, एकजुट।
संयम का अर्थ
है—जुड़ा हुआ, इकट्ठा, इंटिग्रेटेड।
यह
बहुत मजे की
बात है, अगर
आप असत्य
बोलें, तो
आप कभी भी इं
िटग्रेटेड
नहीं हो सकते।
अगर आप झूठ
बोलें तो आपके
भीतर एक
हिस्सा सदा ही
मौजूद रहेगा
जो कहेगा कि
नहीं बोलना था,
झूठ बोले।
झूठ के साथ
पूरी तरह राजी
हो जाना असंभव
है। अगर आप
चोरी करें, तो आप कभी भी
अखंड नहीं हो
सकते। आपके
भीतर एक हिस्सा
चोरी के
विपरीत खड़ा ही
रहेगा। लेकिन
अगर आप सत्य
बोलें तो अखंड
हो सकते हैं।
महावीर ने
उन्हीं-उन्हीं
बातों को
पुण्य कहा है,
जिनसे हम
अखंड हो सकते
हैं। और
उन्हीं-उन्हीं
बातों को पाप
कहा है, जिनसे
हम खंडित हो
जाते हैं। एक
ही पाप है—आदमी
का टुकड़ों
में टूट जाना,
और एक ही
पुण्य है—आदमी
का जुड़ जाना, इकट्ठा हो
जाना, टु
बी वन होल।
तो
महावीर लड़ने
को नहीं कह
सकते हैं।
महावीर जीतने
को जरूर कहते
हैं,
लड़ने को
नहीं कहते।
फिर जीतने का
रास्ता और है।
जीतने का
रास्ता यह
नहीं है कि
मैं अपनी
इंद्रियों से
लड़ने लगूं, जीतने का
रास्ता यह है
कि मैं अपने अतीनिदरय
स्वरूप की खोज
में संलग्न हो
जाऊं। जीतने
का रास्ता यह
है कि मेरे
भीतर जो छिपे
हुए और खजाने
हैं, मैं
उनकी खोज में
संलग्न हो
जाऊं।
जैसे-जैसे वे खजाने
प्रगट होते
जाते हैं, वैसे-वैसे
कल तक जो
महत्वपूर्ण
था, वह गैर
महत्वपूर्ण
होने लगता है।
कल तक जो खींचता
था, अब वह
नहीं खींचता
है। कल तक
बाहर की तरफ
चित्त जाता था,
अब भीतर की
तरफ आता है।
एक
आदमी हैथोड़ा
उदाहरण लेकर
समझें। एक
आदमी है, भोजन
के लिए आतुर
है, परेशान
है, बहुत
रस है। क्या
करे संयम के
लिए वह? रस
का निग्रह करे,
यही हमें
दिखाई पड़ता
है। आज यह रस न
ले, कल वह
रस न ले, परसों
वह रस न ले। यह
भोजन छोड़ दे, वह भोजन छोड़
दे। लेकिन
क्या भोजन के
परित्याग से
रस का
परित्याग हो
जाएगा? संभावना
यही है कि
भोजन के
परित्याग से
पहले तो रस
बढ़ेगा। अगर वह
जिद्द
में अड़ा रहे
तो रस कुंठित
हो जायेगा, मुक्त नहीं
होगा। लेकिन
कुंठित रस, व्यक्तित्व
को भी कुंठा
से भर जाता
है।
जो
भोजन करने तक
में भयभीत हो
जाता है, वह
अभय को उपलब्ध
होगा? भोजन
करने तक में
जो भयभीत हो
जाता है, वह
अभय को उपलब्ध
होगा? नहीं,
महावीर इसे
संयम नहीं
कहते। यद्यपि
महावीर
िजसे
संयम कहते हैं,
वैसा
व्यक्ति रस के
पागलपन से
मुक्त हो जाता
है। महावीर और
एक भीतरी रस
खोज लेते हैं—एक
और रस भी है जो
भोजन से नहीं
मिलता। एक और
रस भी है, जो
भीतर संबंधित
होने से मिल
जाता है।
हमारे बाहर
जितनी
इंद्रियां
हैं, अगर
हम ठीक से
समझें तो वे
सिर्फ कनेक्टिंग
लिंक्स हैं, जोड़ने वाले सेतु
हैं। स्वाद की
इंद्रिय भोजन
से जोड़ देती
है, आंख की
इंद्रिय
दृश्य से जोड़
देती है, कान
की इंद्रिय
ध्वनि से जोड़
देती है। अगर
महावीर की
आंतरिक
प्रक्रिया को
समझना हो, तो
महावीर यह
कहते हैं कि
जो इंद्रिय
बाहर जोड़ देती
है, वही
इंद्रिय भीतर
के जगत से भी
जोड़ सकती है।
बाहर
ध्वनियों का
एक जगत है।
कान उससे
जोड़ता है।
भीतर भी
ध्वनियों का
एक अदभुत जगत
है, कान
उससे भी जोड़
सकता है। जीभ
बाहर के रस से
जोड़ती है।
बाहर रस का एक
जगत है। अति
दीन, क्योंकि
हमें भीतर के
रस का पता
नहीं, इसलिए
वही सम्राट
मालूम होता
है। जीभ भीतर
के रस से भी
जोड़ देती है।
हमने
सुना है, आप
सबने भी सुना
होगा, लेकिन
प्रतीक
कभी-कभी कैसी
विक्षिप्तता
में ले जाते
हैं। हम सबने
सुना है कि
साधक, योगी
अपनी जीभ को
उल्टा कर लेते
हैं। लेकिन वह
केवल सिम्बालिक
है। लेकिन कुछ
पागल अपनी जीभ
के नीचे के
हिस्से को
काटकर उल्टा
करने में लगे
रहते हैं। यह
सिर्फ
सिम्बालिक है,
यह सिर्फ
प्रतीक है।
साधक अपनी जीभ
को उल्टा कर
लेता है, उसका
अर्थ यह है कि
जीभ का जो रस
बाहर पदार्थो
से जुड़ता
था, उसे वह
भीतर आत्मा से
जोड़ लेता है।
साधक अपनी आंख
उल्टी चढ़ा
लेता है, उसका
कुल अर्थ इतना
ही है कि वह जो
देखता था बाहर,
अब वह भीतर
देखने लगता
है। और एक बार
भीतर का स्वाद
आ जाए तो बाहर
के सब स्वाद
बेस्वाद हो जाते
हैं। करने
नहीं पड़ते, करने से तो
कभी नहीं होते,
करने से तो
उनका स्वाद और
बढ़ता है। या जिद्द की
जाए तो कुंठित
हो जाता है, रस ही मर
जाता है।
लेकिन
इंद्रिय बाहर
की तरफ ही पड़ी
रहती है।
इंद्रियों को
भीतर की तरफ मोड़ना
संयम की
प्रक्रिया
है।
कैसे मोड़ेंगे? कभी
छोटे-से
प्रयोग करें
तो खयाल में
आना शुरू हो
जाएगा। बैठे
हैं घर में, सुनना शुरू
करें बाहर की आवाजों को सुनना
शुरू करें
बाहर की आवाजों
को। बहुत
जागरूक होकर
सुनें कि कान
क्या-क्या सुन
रहा है। सभी
चीजों के
प्रति जागरूक
हो जाएं।
रास्ते पर गाड़ियां
चल रही हैं, हार्न बज
रहे हैं, आकाश
से हवाई जहाज
गुजरता है, लोग बात कर
रहे हैं, बच्चे
खेल रहे हैं, सड़क से लोग
गुजर रहे हैं,
जुलूस निकल
रहा है—सारी
आवाजें हैं, उसके प्रति
पूरी तरह जाग
जाएं। और जब
सारी आवाजों
के प्रति पूरी
तरह जागे हों
तब एक बार यह
भी खयाल करें
कि कोई ऐसी भी
आवाज है, जो
बाहर से न औरही
हो, भीतर
पैदा हो रही
हो। और तब आप
एक अलग ही
सन्नाटे को
सुनना शुरू कर
देंगे। इस
बाजार की भीड़
में भी एक
आवाज है, जो
भीतर भी पूरे
समय गूंज रही
है।
लेकिन
हम बाहर की
भीड़ की आवाज
में इस बुरी
तरह से संलग्न
हैं कि वह
भीतर का
सन्नाटा हमें
सुनाई नहीं
पड़ता। सारी आवाजों को सुनते
रहें, लड़ें मत,
हटें मत, सुनते रहें।
सिर्फ एक खोज
और भीतर शुरू
करें कि क्या
इन आवाजों
को, जो
बाहर से औरही
हैं; कोई
इन आवाजों
में एक ऐसी
आवाज भी है जो
बाहर से न औरही
हो, भीतर
से पैदा हो
रही हो? और
आप बहुत शीघ्र
सन्नाटे की
आवाज, जैसी
कभी-कभी
निर्जन वन में
सुनाई पड़ती है,
ठेठ बाजार
में सड़क पर भी
सुनने में
समर्थ हो जाएंगे।
सच तो यह है कि
जंगल में जो
आपको सन्नाटा
सुनाई पड़ता है,
वह जंगल का
कम बाहर की आवाजों
के हट जाने के
कारण आपके
भीतर की आवाज
का प्रतिफलन
ज्यादा होता
है। वह सुना
जा सकता है।
जंगल में जाने
की जरूरत नहीं
है। दोनों कान
भी हाथ से बंद
कर लें, तो
वही आवाज बाहर
की बंद हो
जाएगी, तो
भीतर जैसे
झींगुर बोल
रहे हों, वैसा
सन्नाटा भीतर
गूंजने
लगेगा। यह
पहली प्रतीति
है भीतर के
आवाज की।
और
इसकी प्रतीति
जैसे ही होगी
वैसे ही बाहर
की आवाजें कम
रसपूर्ण
मालूम पड़ने
लगेंगी। यह
भीतर का संगीत
आपके रस को पकड़ना
शुरू हो
जाएगा। थोड़े
ही दिनों में
यह भीतर जो सन्नाटे
की तरह मालूम
होता था, वह
सघन होने
लगेगा और रूप
लेने लगेगा।
यही सन्नाटा
सो हं
जैसा
धीरे-धीरे प्रतीत
होने लगता है।
जिस दिन यह सो हं जैसा
प्रतीत होने
लगता है, उस
दिन कोई संगीत,
जो बाहर के
वाद्यों से
पैदा होता है,
उसका
मुकाबला नहीं
कर सकता। यह
अंतर की वीणा
के वाद्यों से
पैदा होता है,
उसका
मुकाबला नहीं
कर सकता। यह
अंतर की वीणा
का संगीत आपकी
पकड़ में आना
शुरू हो गया।
अब आपको अपने
कान के रस को
रोकना न
पड़ेगा। आपको
यह न कहना
पड़ेगा कि मैं
अब सितार न सुनूंगा।
मैं सितार का
त्याग करता
हूं। नहीं, अब छोड़ने की
कोई जरूरत न
रहेगी। आप
अचानक पाएंगे
कि और भी
विराट, और
भी श्रेष्ठतर,
और भी गहन
संगीत उपलब्ध
हो गया। और तब
आप सितार के
सुनने में भी
इस संगीत को
सुन पाएंगे।
तब कोई विपरीत,
कोई विरोध,
कोई कंट्रा
डिक्शन
नहीं रह
जाएगा। तब
बाहर का संगीत
अंतर के संगीत
की फीकी
प्रतिध्वनि
रह जाएगा।
दुश्मनी नहीं
रह जाएगी, फीकी
प्रितध्वनि
रह जाएगी। और
तब आपके भीतर
अखण्ड
व्यक्तित्व खड़ा
होगा जो बाहर
और भीतर का
फासला भी नहीं
करेगा।
एक घड़ी
आती है, ऐसी
कि जैसे-जैसे
हम भीतर जाते
हैं, बाहर
और भीतर का
फासला गिरता
चला जाता है।
एक घड़ी आती है
कि न कुछ बाहर
रह जाता है, न कुछ भीतर।
एक ही रह जाता
है जो बाहर है
और भीतर है।
जिस दिन यह
घड़ी घटती है
कि जो बाहर है
वही भीतर है, जो भीतर है
वही बाहर है; उस दिन आप
संयम को, उस
इक्विलिब्रियम
को उपलब्ध हो
गए, जहां
सब सम हो जाता
है; जहां
सब ठहर जाता
है; जहां
सब मौन होता
है; जहां
कोई हलन-चलन
नहीं होती है;
जहां कोई
भाग-दौड़ नहीं
होती; जहां
कोई कंपन नहीं
होता।
किसी
भी इंद्रिय से
शुरू करें और
भीतर की तरफ बढ़ते
चले जाएं, फौरन
ही वह इंद्रिय
आपको भीतर से
भी जोड़ने
का कारण बन
जाएगी। आंख से
देखना शुरू
करें, फिर
आंख बंद कर
लें। बाहर के
दृश्य देखें,
देखते रहें,
लड़ें मत। और
धीरे-धीरे-धीरे
उसके प्रति
जागें जो बाहर
से आया हुआ
दृश्य न हो।
बहुत शीघ्र आपको
बाहर के दो
दृश्यों के
बीच में, भीतर
के बीच में, भीतर के
दृश्यों की
झलकें आनी
शुरू हो
जाएंगी। कभी
ऐसा प्रकाश
भीतर भर जाएगा
जो बाहर सूर्य
भी देने में
असमर्थ है।
कभी भीतर ऐसे
रंग फैल जाएंगे
जो कि इंद्रधनुषों
में नहीं हैं।
कभी भीतर ऐसे
फूल खिल
जाएंगे जो
पृथ्वी पर कभी
भी नहीं खिले
हैं। और जब आप
पहचानने
लगेंगे कि यह
बाहर का फूल
नहीं है, यह
बाहर का रंग
नहीं है, यह
बाहर का
प्रकाश नहीं
है; तब
आपको पहली दफे
तुलना मिलेगी
कि बाहर जो
प्रकाश है, अब उसको
प्रकाश कहें
या भीतर की
तुलना में उसे
भी अंधेरा
कहें। बाहर जो
फूल खिलते हैं,
अब उन्हें
फूल कहें या
भीतर की तुलना
में केवल
फूलों की प्रतिध्वनियां
कहें —रिजोनेंसिस,
फीके स्वर।
अब बाहर जो इंद्रधनुषों
से रंग छा
जाते हैं, वे
रंग हैं? बहुत
कठिन होगा, क्योंकि जब
भीतर कोई रंग
को जानता है
तो रंग में एक
लिविंग
क्वालिटी, एक
जीवंत गुण आ
जाता है जो बाहर
के रंगों में
नहीं है। बाहर
के रंगों में कितनी
ही चमक हो, बाहर
के रंग जड़
हैं। भीतर जब
रंग दिखाई
पड़ता है, तो
रंग पहली दफे
जीवंत हो जाता
है।
अब हम
सोच भी नहीं
सकते कि रंग
के जीवंत होने
का क्या अर्थ
होता है। रंग
और जीवित!
जानें तो ही
खयाल में आ
सकता है कि रंग
जीवित हो सकता
है;
रंग
प्राणवान हो
सकता है। और
जिस दिन भीतर
का रंग
प्राणवान
होकर दिखाई
पड़ने लगता है,
बाहर के
रंगों का
आकर्षण खो
जाता है।
छोड़ना नहीं
पड़ता, बस
खो जाता है।
प्रत्येक
इंद्रिय भीतर
ले जाने का
द्वार बन सकती
है। स्पर्श
किया है बहुत, स्पर्श
का अनुभव है
बहुत। बैठ
जाएं, आंख
बंद कर लें, स्पर्श पर
ध्यान करें।
सुंदर शरीर
छुए होंगे, सुंदर
वस्तुएं छुई
होंगी, फूल
छुए होंगे।
कभी सुबह घास
पर जम गयी ओस
को छुआ होगा।
कभी सर्द सुबह
में आग के पास
बैठकर उष्णता
का स्पर्श
लिया होगा , कभी किसी चांदत्तारों
की दुनिया में
लेटकर उनकी
चांदनी को छुआ
होगा। वे सब
स्पर्श खड़े हो
जाने दें अपने
चारों ओर। और फिर
खोजना शुरू
करें कि क्या
कोई ऐसा
स्पर्श भी है
जो बाहर से न
आया हो? और थोँड़े
श्रम से, थोड़े
ही संकल्प से
आपको ऐसा
स्पर्श
प्रतीत होने
लगेगा जो बाहर
से नहीं आया
है। जो चांदत्तारों
से नहीं मिल
सकता, जो
फूलों से नहीं,
ओस से नहीं,
जो सूर्य की
ऊष्मा से नहीं,
जो सुबह की
ठंडी हवाओं के
स्पर्श से
नहीं। और जिस
दिन आपको उस
स्पर्श का बोध
होगा, उसी
दिन आपने भीतर
का स्पर्श
पाया । उसी
दिन बाहर के
स्पर्श
व्यर्थ हो
जाएंगे। फिर
प्रत्येक
व्यक्ति को
वही इंद्रिय
पकड़ लेनी
चाहिए जो उसकी
सर्वाधिक
तीव्र और सजग
हो।
यहां
भी आपको मैं
यह कह दूं कि
जो इंद्रिय
आपकी सबसे
ज्यादा तीव्र
है,
उसे आप
दुश्मन बना
लेते हैं, अगर
आपने संयम का
निषेधात्मक
रूप समझा। अगर
आपने विधायक
रूप समझा तो
जो इंद्रिय आ
पकी सर्वाधिक सक्रिय
है, वही
आपकी मित्र
है। क्योंकि
आप उसी के
द्वारा भीतर
पहुंच
सकेंगे। अब
जिस आदमी को
रंगों में कोई
रस नहीं है, जिसने अभी
बाहर के रंगों
को भी नहीं
जीया, और न
जाना, उसे
भीतर के रंग तक
पहुंचने में
बड़ी कठिनाई
होगी। जिस
आदमी को संगीत
में कुछ
प्रयोजन नहीं
मालूम होता, सिर्फ मालूम
होता है
शोरगुल—ज्यादा
से ज्यादा
व्यवस्थित
शोरगुल, आवाजें,
ध्वनियां; ज्यादा से
ज्यादा कम से
कम परेशान
करने वाली ध्वनियां।
उस आदमी को
अंतर-ध्वनि की
तरफ जाने में
कठिनाई होगी।
उसे मुश्किल
होगी, उसे
अड़चन होगी।
नहीं, जो
इंद्रिय आपकी
सर्वाधिक
आपको परेशान
करती मालूम
पड़ती है, जिससे
निषेधवाला
लड़ना शुरू कर
देता है, वह
आपकी मित्र
है। क्योंकि
वही इंद्रिय
आपकी सबसे
पहले भीतर की
तरफ मोड़ी
जा सकती है, तो अपनी
इंद्रिय को
खोज लें।
गुरजिएफ
के पास कोई
जाता था तो वह
कहता था—"तेरी
सबसे बड़ी
कमजोरी क्या
है?
पहले तू
मुझे अपनी
सबसे बड़ी
कमजोरी बता दे,
तो मैं उसे
ही तेरी सबसे
बड़ी शक्ति में
रूपांतरित कर
दूंगा ।' वह
ठीक कहता था।
यही है शक्ति।
आपकी सबसे बड़ी
कमजोरी क्या
है? क्या
रूप आपको
आकर्षित करता
है? तो
भयभीत न हों, रूप ही आ पका
द्वार बन
जाएगा। क्या
स्पर्श आपको
बुलाता है? भयभीत न हों,
स्पर्श ही
आपका मार्ग
है। क्या
स्वाद आपको खींचता
है और आपके
स्वप्नों में
प्रवेश कर
जाता है? तो
स्वाद को
धन्यवाद दें।
वही आपका सेतु
बनेगा। जो
इंद्रिय आपकी
सर्वाधिक
संवेदनशील है,
उससे अगर आप
लड़े, तो
कुंठित हो
जाएगी। आपने
अपने ही हाथ
अपना सेतु तोड़
लिया। अगर
विधायक संयम
की धारणा से
चले तो आप उसी
इंद्रिय को
मार्ग बना
लेंगे, उसी
पर आप पीछे
लौट आएंगे।
और
ध्यान रहे, जिस
रास्ते से हम
जाते हैं, बाहर;
उसी रास्ते
से भीतर आते
हैं। रास्ता
वही होता है, सिर्फ दिशा
बदल जाती है।
चेहरा बदल
जाता है। आप
यहां आए हैं, इस भवन तक, जिस रास्ते
से आए हैं, उसी
से वापस
लौटेंगे।
सिर्फ रुख और
हो जाएगा। मुंह
अभी भवन की
तरफ था, अब
अपने घर की
तरफ होगा।
लेकिन भूलकर
भी अगर आपने
ऐसा सोचा कि
जो रास्ता
मुझे अपने घर
से इतनी दूर
ले आया, वह
मेरा दुश्मन
है, इस पर
मैं नहीं
चलूंगा, तो
आ प पक्का समझ
लें, आप
अपने घर अब
कभी भी नहीं
पहुंच
पाएंगे। कोई रास्ता
दुश्मन नहीं
है और रास्ते
दोनों दिशाओं
में खुले हैं।
तो, जिस
रास्ते से आप
बाहर के जगत में
सर्वाधिक
आकर्षित होते
हैं और खिंचे
जाते हैं—वह
चाहे आंख हो, चाहे स्वाद
हो, चाहे
ध्वनि हो, कुछ
भी हो—जिस
रास्ते से आप
सर्वाधिक
बाहर जाते हैं,
या जिस
रास्ते से आप
सर्वाधिक
अपने से दूर
चले गए हैं, वही रास्ता
आपके संयम की
विधायक दिशा
में सहयोगी
बनेगा। उसी से
आपको वापस ला
टना है। उससे लड़ना
मत। उससे लड़कर
तो आप उसको
तोड़ देंगे। तोड़कर
आपको लौटना
बहुत मुश्किल
हो जाएगा।
ध्यान रहे, यह बहुत
अजीब लगेगा।
लेकिन आपको
जोर से कहना चाहता
हूं कि लोग उन
इंद्रियों के
कारण बाहर नहीं
भटक गए हैं, लोग उन
इंद्रियों के
कारण बाहर भटक
जाते हैं जिनके
रास्ते वे तोड़
देते हैं। जिन
इंद्रियों के
रास्ते वे तोड़
देते हैं
लौटने के, उनकी
वजह से भटक
जाते हैं।
इंद्रियों की
वजह से कोई
नहीं भटकता
है। हम सब
तोड़ते हैं।
लोग
मेरे पास आते
हैं और कहते
हैं—हमारी और
कोई तकलीफ
नहीं है; बस, यह स्वाद
हमें परेशान
कर रहा है।
किसी तरह स्वाद
से छुटकारा
दिला दें।
उन्हें पता ही
नहीं है कि जो
उन्हें
परेशान कर रहा
है वही उनके
लौटने का
मार्ग है। इसे
मैं कहता हूं,
संयम की
विधायक
दृष्टि।
इसके
एक और पहलू को
खयाल में ले
लेना चाहिए। जितनी
इंद्रियां
हैं हमारे पास, उनका
एक तो प्रगट
रूप है जिसे
हम बहिर
इंद्रिय कहते
हैं। महावीर
ने आत्मा की
तीन स्थितियां
कही हैं—एक को
वे कहते हैं—बहिर
आत्मा। बहिर
आत्मा उस
आत्मा को कहते
हैं जो अभी
इंद्रियों का
बाहर की तरफ
उपयोग कर रहा
है। दूसरे को
महा वीर कहते
हैं—अंतरात्मा।
अंतरात्मा वह
आत्मा है जो
अब इंद्रियों
का भीतर की
तरफ उपयोग कर
रही है। और तीसरे
को महावीर
कहते हैं—परमात्मा।
परमात्मा वह
आत्मा है, जिसका
बाहर और भीतर
मिट गया।
जिसको न अब
कुछ बाहर है, न कुछ भीतर
है। जो न बाहर
जा रही है, न
भीतर औरही
है। जो बाहर
जा रही है वह
बहिर आत्मा है,
जो भीतर औरही
है वह
अंतरात्मा है;
जो अब कहीं
नहीं जा रही
है, जहां
है वहीं है, स्वभाव में
प्रतिष्ठित, वह परमात्मा
है।
इंद्रियों
का एक बहिर
रूप है, वे
हमें पदार्थ
से जोड़ती हैं।
जिस जगह वे
हमें पदार्थ
से जोड़ती हैं,
उस जगह जो
रूप उनका
प्रगट होता है
वह अति स्थूल
है। लेकिन वे
ही इंद्रियां
हमें स्वयं से
भी जोड़े हुए
हैं। क्योंकि
वही चीजसमझ
लें, कि
मेरा हाथ, मैं
अपने हाथ को बढ़ाकर आ
पके हाथ को
अपने हाथ में
ले लूं तो
मेरा हाथ दो
जगह जोड़ रहा
है। एक तो
आपके हाथ से
मुझे जोड़ रहा
है और हाथ
मुझसे भी जुड़ा
हुआ है। हाथ
बीच में दो को
जोड़ रहा है।
ध्यान रहे, जहां आपसे मुझे
जोड़ रहा है
वहां तो सिर्फ
आपके शरीर से
जोड़ रहा है।
लेकिन जहां
मुझे जोड़ रहा
है वहां आत्मा
से जोड़ रहा
है। इंद्रियां
जब बाहर जोड़ती
हैं तो पदार्थ
से जोड़ती हैं,
भीतर जब
जोड़ती हैं, तब चेतना से
जोड़ती हैं।
तो, इंद्रियों
का बहुत स्थूल
रूप ही बाहर
प्रगट होता
है। क्योंकि
जो हाथ आत्मा
से जोड़ सकता
है, जिसकी
इतनी क्षमता
है, वह
बाहर केवल
शरीर से जोड़
पाता है। बाहर
उसकी क्षमता
बहुत दीन हो
जाती है।
क्षमता तो
जरूर उसमें
आत्मा से भी जोड़ने की
है, अन्यथा
वह मुझसे कैसे
जुड़े। और जब
मैं कहता हूं;
मेरे हाथ
ऊपर उठ, तो
वह ऊपर उठ जाता
है। मेरा
संकल्प मेरे
हाथ को कहीं न
कहीं जुड़ा हुआ
है। जब मैं
अपने हाथ को
इनकार कर देता
हूं ऊपर उठाने
से तो हाथ ऊपर
नहीं उठ पा
ता। मेरा
संकल्प मेरे
हाथ से कहीं
जुड़ा हुआ है।
अब
बहुत हैरानी
की बात है कि
शरीर तो है
पदार्थ, संकल्प
है चेतना।
चेतना और
पदार्थ कैसे
जुड़ते होंगे,
कहां जुड़ते
होंगे! बहुत
अदृश्य होगा
वह जोड़! लेकिन
बाहर मेरा हाथ
तो सिर्फ
पदार्थ से ही
जोड़ सकता है।
लेकिन इसलिए
हाथ पर नाराज
हो जाने की
जरूरत नहीं
है। यह हाथ
भीतर आत्मा से
भी जोड़ रहा
है। अगर मैं
इस हाथ से
अपनी चेतना को
बाहर की तरफ
प्रवाहित करूं
तो यह दूसरे
के शरीर पर
जाकर अटक जाती
है। अगर इसी
चेतना को मैं
अपने साथ वापस
लौट आऊं, गंगोत्री
की तरफ लौट
आऊं, सागर
की तरफ नहीं, तो यह मेरी
आत्मा में लीन
हो जाती है।
हाथ में बहती
हुई ऊर्जा
बाहर की तरफ
बहिर आत्मा का
रूप है। हाथ
में बहती हुई
ऊर्जा भीतर की
तरफ एक
अंतरात्मा का
रूप है। ऊर्जा
बहती ही नहीं
जहां, वहां
परमात्मा है।
परमात्मा तक
पहुंचना हो तो
अंतरात्मा से
गुजरना
पड़ेगा। बहिर
आत्मा हमारी
आज की स्थिति
है, मौजूदा।
परमात्मा
हमारी
संभावना है—हमारा
भविष्य, हमारी
नियति।
अंतरात्मा
हमारा यात्रा
पथ है। उससे
हमें गुजरना
पड़ेगा।
गुजरने के
रास्ते वही
हैं जो बाहर
जाने के
रास्ते हैं।
एक बा तदूसरी
बात—बाहर
इंद्रियां
स्थूल से
जोड़ती हैं, भीतर सू*म
से। इसलिए
इंद्रियों के
दो रूप हैं—एक,
जिसको हम एंद्रिक
शक्ति कहते
हैं, और एक
जिसको
अतींद्रिय
शक्ति कहते
हैं।
पैरासाइकालाजी अध्ययन
करती है उसका—परामनोविज्ञान।
और चकित होते
हैं। योग ने
बहुत दिन
अध्ययन किया
है उसका। उसको
योग ने
सिद्धियां
कहा है, विभूति
कहा है। रूस
में आज वे उसे
एक नया नाम दे
रहे हैं। वे
उसे कहते हैं—साइकोट्रानिक्स।
कहते हैं कि
जैसे, मनोऊर्जा का जगत, जैसे
मनोशक्ति
का जगत। यह जो
भीतर हमारा
अतींद्रिय
रूप है, संयम
जैसे-जैसे
बढ़ता जाता है,
वैसे-वैसे
हम अपने
अतींद्रिय
रूप को अनुभव
करते चले जाते
हैं। किसी भी
इंद्रिय को पकड़कर
अतींद्रिय
रूप को अनुभव
करना शुरू
करें। चकित हो
जायेंगे।
पिछले
दस वर्ष पहले, 1961
में रूस में
एक अंधी लड़की
ने हाथ से पढ़ना
शुरू किया।
हैरानी की बात
थी। बहुत
परीक्षण किए
गए। पांच वर्ष
तक निरंतर
वैज्ञानिक
परीक्षण किए
गए। और फिर
रूस की जो
सबसे बड़ी
वैज्ञानिक
संस्था है, ऐकेडैमी,
उसने घोषणा
की; पांच
वर्ष के
निरंतर
अध्ययन के बाद
कि लड़की ठीक
कहती है। वह
अध्ययन करती
है। और हैरानी
की बात है कि
हाथ आंख से भी
ज्यादा
ग्रहणशील
होकर अध्ययन
कर रहे हैं।
अगर लिखे हुए
कागज पर —
ब्रेल में
नहीं, अंधों
की भाषा में
नहीं, किसी
आदमी को कभी
पता ही नहीं
चलता। संयम की
यह विधा यक
दृष्टि
अतींद्रिय
संभावनाओं के बढाने से
शुरू होती है।
और
महावीर ने
बहुत ही गहन
प्रयोग किए
हैं अतींद्रिय
संभावनाओं को
बढ़ाने के लिए।
महावीर की सारी
की सारी साधना
को इस बात से
ही समझना शुरू
करें तो बहुत
कुछ आगे प्रगट
हो सकेगा। महा
वीर अगर बिना
भोजन के रह
जाते हैं वर्षो
तक तो उसका
कारण? उसका
कारण है
उन्होंने
भीतर एक भोजन
पाना शुरू कर
दिया है। अगर
महावीर पत्थर
पर लेट जाते हैं
और गद्दे की
कोई जरूरत
नहीं रह जाती
तो उन्होंने
भीतर के एक नए
स्पर्श का जगत
शुरू कर दिया
है। महावीर
अगर कैसा भी
भोजन स्वीकार
कर लेते है —
असल में
उन्होंने एक
भीतर का स्वाद
जन्मा लिया
है। अब बाहर
की चीजें उतनी
महत्वपूर्ण
नहीं हैं।
भीतर की चीजें
ही बाहर की
चीजों पर इम्पोज
हो जाती हैं
और छा जाती
हैं। उसे घेर
लेती हैं।
इसलिए महावीर सिकुड़े
हुए मालूम
नहीं पड़ते, फैले हुए
मालूम पड़ते
हैं। उनके
व्यक्तित्व में
कोई कहीं
संकोच नहीं मा
लूम पड़ता है। खिलाव
मालूम होता
है। वे आनंदित
हैं। वे
तथाकथित तपस्वियों
जैसे दुखी नही
हैं।
बुद्ध
से यह नहीं हो
सका। यह
विचारों में
ले लेना बहुत
कीमती होगा और
समझना आसान
होगा। टाइप
अलग था। बुद्ध
से यह नहीं हो
सका। बुद्ध ने
भी यही सब
साधना शुरू की
जो महावीर ने
की है। लेकिन
बुद्ध को हर
साधना के बाद
ऐसा लगा कि
इससे तो मैं और
दीन-हीन हो
रहा हूं। कहीं
कुछ पा तो
नहीं रहा हूं।
इसलिए छह वर्ष
के बाद बुद्ध
ने सारी
तपश्चर्या
छोड़ दी।
स्वभावतः
बुद्ध ने
निष्कर्ष
लिया कि
तपश्चर्या
व्यर्थ है।
बुद्ध बुदिधमान
थे और ईमानदार
थे। नासमझ
होते तो यह
निष्कर्ष भी न
लेते। अनेक
नासमझ लोग चले
जाते हैं उन
दिशाओं में जो
उनके लिए नहीं
हैं। उन
दिशाओं में, जिनकी
उनकी क्षमता
नहीं हैं। जो
उनके
व्यक्तित्व
से तालमेल
नहीं खाती और
अपने को समझाए
चले जाते है
कि पिछले जन्मों
में किए हुए
पापों के कारण
ऐसा हो रहा
है। या शायद
मैं पूरा
प्रयास नहीं
कर पा रहा हूं
इसलिए ऐसा हो
रहा है और
ध्यान रहे, जो आपकी
दिशा नहीं है
उसमें आप पूरा
प्रयास कभी भी
न कर पाएंगे
इसलिए यह भ्रम
बना ही रहेगा
कि मैं पूरा
प्रयास नहीं
कर पा रहा
हूं।
बुद्ध
ने छह वर्ष तक
वही किया जो
महावीर कर रहे
थे। लेकिन
बुद्ध को जो
निष्पति मिली
उसे करने से, वह
वह नहीं थी जो
महावीर को
मिली। महावीर
आनंद को
उपलब्ध हो गए,
बुद्ध बहुत
पीड़ा को उपलब्ध
हो गए। महावीर
महाशक्ति को
उपलब्ध हो गए,
बुद्ध केवल
निर्बल हो गए।
निरंजना
नदी को पार
करते वक्त एक
दिन वे इतने
कमजोर थे उपवास
के कारण कि
किनारे को पकड़कर
चढ़ने की
शक्ति मालूम न
पड़ी। एक जड़ को पकड़कर
वृक्ष की
सोचने लगे कि
इस उपवास से
क्या मिलेगा
जिससे मैं नदी
भी पार करने
की शक्ति खो
चुका, उससे
इस भवसागर को
कैसे पार कर
पाऊंगा।
पागलपन है, यह नहीं
होगा। कृश हो
गए थे, हड्डियां
सब निकल आयी।
बुद्ध का बहुत
प्रसिद्ध
चित्र जो उस
समय का है वह
ठीक तथाकथित
तपस्वी जैसी
मुसीबत में पड़ेगा,
उसका चित्र
है। एक ताम्र
प्रतिमा उपलब्ध
है, बहुत
पुरानी —
जिसमें बुद्ध
का उस समय का
चित्र है, जब
वे छह महीने
तक निराहार
रहे थे। सारी
हड्डियां
दिखाई पड़ती
हैं, बाकी
सारा शरीर सूख
गया है। खून
ने जैसे बहना बंद
कर दिया हो, चमड़ी जैसे सिकुड़कर
जुड़ गयी है।
सारा शरीर
मु*द* का हो
गया। वैसे ही क्षण
में वह निरंजना
नदी को पार
करते वक्त
उन्हें खयाल
आया कि नहीं, यह सब
व्यर्थ है। और
यह सब बुद्ध
के लिए व्यर्थ
था। लेकिन इसी
सबसे महावीर
महाशक्ति को
उपलब्ध हुए।
असल में बुद्ध
ने जिनसे यह
बात सुनी और
सीखी वह सब
निषेध था वह सब
निषेध था। यह-यह
छोड़ो, यह-यह
छोड़ो, वह
छोड़ते गए।
जिसने जैसा
कहा, वह
करते चले गए।
जिस गुरु ने
जो बताया वह
उन्होंने
किया। सब
छोड़कर
उन्होंने
पाया कि सब तो
छूट गया, मिला
कुछ भी नहीं,
"और मैं
केवल दीन-हीन
और दुर्बल हो
गया हूं'— बुद्ध
के लिए वह
मार्ग न था।
बुद्ध के
व्यक्तित्व
का टाइप भिन्न
था, ढांचा
और था। फिर
बुद्ध ने सब
त्याग कर
दिया सब
त्याग का
त्याग कर
दिया। भोग को
त्याग करके देख
लिया था, उससे
कुछ पाया
नहीं। फिर सब
त्याग का
त्याग कर दिया।
और जब सब
त्याग का भी
त्याग कर दिया,
तब बुद्ध ने
पाया।
महावीर
की प्रक्रिया
में और बुद्ध
की प्रक्रिया
में बड़ा उल्टा
भा व है।
इसलिए एक ही
समय पैदा होकर
भी दोनों की
परंपरा बड़ी
विपरीत है।
बुद्ध ने भी
पाया, वहीं
पहुंचे वे
जहां कोई
पहुंचता है, महावीर
पहुंचते हैं।
लेकिन त्याग
से न पाया। क्योंकि
त्याग की जो
धारणा बुद्ध
के मन में प्रवेश
कर गयी, वह
निषेध की थी।
वहीं भूल हो
गयी। महावीर
की तो धारणा
विधेय की थी।
जब भी कोई
त्याग में निषेध
से चलेगा तो
भटकेगा और
परेशान होगा
और दुर्बल
होगा। कहीं
पहुंचेगा
नहीं। आत्मबल
तो मिलेगा ही
नहीं, शरीर
बल और खो
जाएगा।
अतींद्रिय का
तो जगत खुलेगा
ही नहीं, इनिदरयों का जगत
रुग्ण, बीमार
होकर सिकुड़
जाएगा।
अंतर-ध्वनि
सुनाई न पड़गी,
कान बहरे हो
जायेंगे। अंतदृश्य
तो दिखाई न
पड़ेंगे, आंख
धुंधली
हो जाएगी।
अंतर-स्पर्श
तो पता न
चलेगा, हाथ
जड़ हो जायेंगे
और बाहर भी
स्पर्श न कर
पायेंगे।
निषेध
से वह भूल
होती है। और
परंपरा केवल
निषेध दे सकती
है। क्योंकि
हम जो पकड़ते
हैं,
उनको वही
दिखाई पड़ता है
जो छोड़ा है।
उन्हें वह
नहीं दिखाई
पड़ता जो पाया।
तो महावीर को
अगर ठीक समझना
हो, उनके
गरिमाशाली
संयम को अगर
समझना हो, उनके
स्वस्थ, विधायक
संयम को यदि
समझना हो तो
अतींद्रिय को जगाने
के प्रयोग में
प्रवेश करना
चाहिए। और
प्रत्येक
व्यक्ति की कोई
न कोई इंद्रिय
तत्काल
अतींद्रिय
जगत में
प्रवेश करने
को तैयार खड़ी
है। थोड़े-से
प्रयोग करने
की जरूरत है
और आपको पता
चल जाएगा कि
आपकी
अतींद्रिय
क्षमता क्या
है।
दो-चार-पांच
छोटे प्रयोग
करें और आपको
एहसास होने
लगेगा कि आपकी
दिशा क्या है,
आपका द्वार
क्या है? उसी
द्वार से आगे
बढ़ जायेंगे।
कैसे
पता चले, कैसे
जाने कोई कि
उसकी
अतींद्रिय
क्षमता क्या
हो सकती है?
हम
सबको कई बार
मौके मिलते
हैं लेकिन हम
चूक जाते हैं।
क्योंकि हम
कभी उस दिशा
में सोचते नहीं।
कभी आप बैठें, अचानक
आपको खयाल आता
है किसी मित्र
का और आप
चेहरा उठाते हैं
और देखते हैं,
वह द्वार पर
खड़ा है। आप
सोचते हैं, संयोग है।
चूक गए मौके
को। कभी आप
सोचते हैं, कितने बजे
हैं, खयाल
आता है नौ।
घड़ी में देखते
हैं, ठीक
नौ बजे हैं।
आप सोचते है, संयोग है।
चूक गए। एक
अतींद्रिय
झलक मिली थी।
अगर ऐसी झलक
आपको कोई
मिलती है तो
इसके प्रयोग
करें। अगर घड़ी
पर आपने सोचा
नौ बजे हैं और
घड़ी में नौ
बजे हैं, तो
फिर अब इस पर
प्रयोग करना
शुरू कर दें।
कभी भी घड़ी
पहले मत देखें—पहले
सोचें, फिर
घड़ी देखें। और
शीघ्र ही आपको
पता चलेगा, यह संयोग
नहीं है। क्योंकि
यह इतने बार
घटने लगेगा, और यह घटने
की घटना बढ़ने
लगेगी संख्या
में कि संयोग
न रह जाएगा।
आधी
रात को उठ
आयें। पहले
सोचें कि
कितना बजा है।
सोचें कहना
ठीक नहीं, क्योंकि
सोचने में भूल
हो सकती है।
खयाल करें एकदम
से कि कितना
बजा है और जो
पहला खयाल हो,
उसको ही घड़ी
से मिलायें,
दूसरे से मत
मिलायें।
दूसरा गड़बड़
होगा। पहला जो
हो! अगर आपको
द्वार पर आये
मित्र का खयाल
आ गया तो फिर
जरा इस पर
प्रयोग करें।
जब भी द्वार
पर आहट सुनाई
पड़े, दरवाजे
की घण्टी
बजे, जल्दी
दरवाजा मत
खोलें। पहले
आंख बंद करें
और पहले जो
चित्र आए उसको
खयाल में ले
लें, फिर
दरवाजा
खोलें। थोड़े
ही दिन में आप
पायेंगे कि यह
संयोग नहीं
था। यह आपकी
क्षमता की झलक
थी जिसको आप
संयोग कहकर
चूक रहे थे।
और एकाध दिशा
में भी अगर
आपका
अतींद्रिय
रूप खुलना शुरू
हो जाए तो
आपकी
इंद्रियां
तत्काल फीकी पड़नी शुरू
हो जायेंगी
और आपके लिए
संयम का
विधायक मार्ग
साफ होने
लगेगा।
हम
पूरे जीवन
न-मालूम कितने
अवसरों को चूक
जाते हैं
न-मालूम। और
चूक जाने का
हमारा एक तर्क
है कि हम हर
चीज को
संयोग
कहकर छोड़ देते
हैं कि ऐसा हो
गया होगा। ऐसा
नहीं है कि
संयोग नहीं
होते, संयोग
होते हैं।
लेकिन बिना परीक्षा
किए मत कहें
कि संयोग है।
परीक्षा कर
लें। हो सकता
है, संयोग
न हो। और अगर
संयोग नहीं है
तो आपकी शक्ति
का आपको
अनुमान होना
शुरू हो
जाएगा। एक बार
आपको खयाल में
आ जाए आपकी
शक्ति का
सूत्र, तो
आप उसको फिर
विकसित कर
सकते हैं।
उसको
प्रशिक्षित
कर सकते हैं।
संयम उसका प्रशिक्षण
है।
एक दिन
आपने उपवास
किया और आपको
भोजन की बिलकुल
याद न आए, उस
दिन अपने को
भुलाने की
कोशिश में मत
लगना जैसा
उपवास
करनेवाले
करने लगते
हैं। एक दिन
उपवास किया तो
आदमी मंदिर
में जाकर बैठ
जाता है। भजन
कीर्तन, धुन
में लगा रहता
है। शास्त्र
पढ़ता रहता है,
साधु को
सुनता रहता
है। वह सब
इसलिए कि भोजन
की याद न आए।
वह चूक रहा
है। जिस दिन
भोजन नहीं किया,
उस दिन कुछ
न करें, फिर
खाली बैठ जाएं
और देखें, अगर
चौबीस घण्टे
में आपको भोजन
की याद न आए, तो उपवास
आपके लिए
मार्ग हो सकता
है। तो आप
महावीर जितने
लम्बे
उपवासों की
दुनिया में
प्रवेश कर सकते
हैं। वह आपका
द्वार बन सकता
है। अगर आपको भोजन-भोजन
की ही याद आने
लगे तो आप
जानना कि वह आपका
रास्ता नहीं
है। आपके लिए
वह ठीक नहीं
होगा।
किसी
भी दिशा में—पच्चीस
दिशाएं चौबीस
घण्टे खुलती
हैं। जो जानते
हैं,
वे तो कहते
हैं—हर क्षण
हम चौराहे पर
होते हैं, जहां
से दिशाएं
खुलती हैं—हर
क्षण। अपनी
दिशा को खोज
लेना साधक के लिए
बहुत जरूरी है,
नहीं तो, वह भटक सकता
है। और दूसरे
को आरोपित मत
करना, अपने
को ही खोजना
और अपने टाइप
को खोजना, अपने
ढांचे को, अपने
व्यक्तित्व
के रूप को।
नहीं तो, भूल
हो जाती है।
महावीर को माननेवाले
घर में पैदा
हो गए हैं
इसलिए आप
महावीर के मार्ग
पर जा सकेंगे,
यह
अनिवार्य
नहीं है। कोई
नहीं कह सकता
कि आपके लिए
मुहम्मद का
मार्ग ठीक
होगा । और कोई
नहीं कह सकता
कि कृष्ण का
मार्ग ठीक
नहीं होगा।
जरूरी नहीं है
कि आप कृष्ण
को माननेवाले
घर में पैदा
हो गए हैं, इसलिए
बांसुरी में
आपको कोई रस आ
जाए, यह
जरूरी नहीं
है। हो सकता
है, महावीर
आपके लिए
सार्थक हों, जिनसे
बांसुरी को कहीं
भी जोड़ा नहीं
जा सकता है, वह जन्म
नहीं है।
महावीर के पास
जो आएगा वह
चुनकर आ रहा
है। उसका बेटा
जन्म से जैन
हो जाएगा। वह
खुद चुनकर आया
था। उसका चुनाव
था। उसके
व्यक्तित्व
और महावीर के
व्यक्तित्व
में कोई कशिश,
कोई मैगनिटिज्म
था, जिसने
उसे खींचा था,
वह उनके पास
आ गया।
हाथ में बासुंरी
न हो तो कृष्ण
को पहचानना
मुश्किल है।
अगर बांसुरी
अकेली रखी हो
तो कृष्ण का खया ल आ भी
सकता है।
व्यक्तित्व
के टाइप हैं।
और अभी, जैसा
कि हमने कभी
इस मुल्क में
चार वणो*
को बांटा था, यह बहुत मजे
की बात है कि
वे चार वर्ण
हमारे चार
टाइप थे, जो
मूल आदमी के
चार रूप हो
सकते हैं।
कभी-कभी
चकित करने
वाली घटनाएं
घटती हैं। अभी
रूस के
वैज्ञानिक
फिर आदमी को इलैकिटरसिटी
के आधार पर
चार हिस्सों
में बांटना
शुरू किए हैं।
वे कहते हैं—फोर
टाइप्स।
आधार उनका है
कि व्यक्ति के
शरीर की
विद्युत का जो
प्रवाह है, वह
उसके टाइप को
बताता है और
वह विद्युत का
प्रवाह है जो
शरीर का, वह
सब का अलग-अलग
है। मैं मानता
हूं कि महावीर
का वह विद्युत
का प्रवाह पाजिटिव
था। इसलिए वे
किसी भी
सक्रिय साधना
में कूद सके।
बुद्ध का वह इलैकिटरक
प्रभाव
निगेटिव था
इसलिए वे किसी
सक्रिय साधना
से कुछ भी न पा
सके। उन्हें
एक दिन बिलकुल
ही निषिकरय
और शून्य हो
जाना पड़ा।
वहीं से उनकी
उपलब्धि का
द्वार खुला।
वह
व्यक्तित्व
का भेद है, यह
सिद्धांत का
भेद नहीं है।
अब तक
मनुष्य जाति
बहुत उपद्रव
में रही है
क्योंकि हम
व्यक्तित्व
के भेद को
सिद्धांतों
का भेद मानकर
व्यर्थ के
विवादों में
पड़े रहे हैं।
अपने व्यक्तित्व
को खोज लें।
अपनी विशिष्ट इनिद्रिय
को खोज लें।
अपनी क्षमता
का थोड़ा-सा
आंकलन कर लें
और फिर
आप
संयम की दिशा
में गति करना आसानरोज-रोज
आसान पाएंगे।
लेकिन अगर
आपने अपनी
क्षमता को
बिना आंके
किसी और की
क्षमता के
अनुकरण में
चलने की कोशिश
की तो आप अपने
को रोज-रोज
झंझट में पा
सकते हैं।
क्योंकि वह
आपका मार्ग
नहीं है, वह
आपका द्वार
नहीं है।
इसलिए
बहुत
दुर्भाग्य जो
जगत में घटा
है,
वह यह है कि
अपने धर्म को
जन्म से तय
करते हैं। इससे
बड़ी कोई
दुर्भाग्य की
घटना पृथ्वी
पर नहीं है।
क्योंकि इस
कारण सिर्फ
उपद्रव पैदा
होता है, और
कुछ भी नहीं होता
है। प्रत्येक
व्यक्ति को
अपना धर्म
सचेतन रूप से
खोजना चाहिए।
वह जीवन का जो
परम ल*य है, वह
जन्म के होने
से नहीं होता
तय, वह
आपको खोजना
पड़ेगा। वह बड़ी
मुश्किल से
साफ होगा।
लेकिन जिस दिन
वह साफ हो
जाएगा, उस
दिन आपके लिए
सब सुगम हो
जाएगा।
दुनिया
से धर्म के नष्ट
होने के
बुनियादी
कारणों में एक
यह है कि हम
धर्म को जन्म
से जोड़े हैं।
धर्म हमारी
खोज नहीं है
और इसलिए यह
भी होता है कि
महावीर के वक्त
में महावीर का
विचार जितने
लोगों के जीवन
में क्रांति
ला पाया, फिर
पच्चीस सौ साल
में भी उतने
लोगों की
जिंदगी में
नहीं ला पाया।
इसका कुल कारण
इतना है कि
महावीर के पास
जो लोग आते
हैं वह उनकी कांशस
च्वाइस है, वह जन्म
नहीं है।
महावीर के पास
जो आएगा वह चुनकर
आ रहा है।
उसका बेटा
जन्म से जैन
हो जाएगा। वह
खुद चुनकर आया
था। उसका
चुनाव था।
उसके व्यक्तित्व
और महावीर के
व्यक्तित्व
में कोई कशिश,
कोई मैगनिटिज्म
था, जिसने
उसे खींचा था,
वह उनके पास
आ गया। लेकिन
उसका बेटा? उसका बेटा
सिर्फ पैदा
होने से
महावीर के पास
जाएगा, वह
कभी पास नहीं
पहुंचेगा।
इसलिए महावीर
या बुद्ध या
कृष्ण या
क्राइस्ट, इनके
जीवन के
क्षणों में
इनके पास जो
लोग आते हैं, उनके जीवन
में आमूल
रूपांतरण हो
जाता है। फिर
यह दुबारा
घटना नहीं
घटती। और हर पीढ़ी
धीरे-धीरे
औपचारिक हो
जाती है। धर्म
और औपचारिक, फार्मल हो जाता है।
क्योंकि हम इस
घर में पैदा
हुए हैं, इसलिए
इस मंदिर में
जाते हैं। घर
और मंदिर का कोई
संबंध है? मेरा
व्यक्तित्व
क्या है, मेरी
दिशा, मेरा
आयाम क्या है।
का नसा चुंबक
मुझे खींच सकता
है, या किस
चुंबक से मेरे
संबंध जुड़
सकते हैं, वह
प्रत्येक
व्यक्ति को
स्वयं खोजना
चाहिए।
हम एक
धार्मिक
दुनिया बनाने
में तभी सफल
हो पाएंगे जब
हम प्रत्येक
व्यक्ति को
अपना धर्म चुनने
की सहज
स्वतंत्रता
दे दें।
अन्यथा
दुनिया में
धर्म न हो
पाएगा। अधर्म
होगा। और धार्मिक
लोग औपचारिक
होंगे और
अधार्मिक
वास्तविक
होंगे। क्योंकि
बड़े मजे की
बात है। कोई
आदमी कभी भी नास्तिकता
को कांशसली
चुनता है, चुनना
पड़ता है। वह
कहता है, "नहीं
है ईश्वर', तो
उसका चुनाव
होता है। और
जो आदमी कहता
है, "ईश्वर
है', यह
उसके बाप
दादों का
चुनाव है।
इसलिए नास्तिक
के सामने
आस्तिक हार
जाते हैं।
उसका कारण है।
क्योंकि आपका
तो वह चुनाव
ही नहीं है।
आप आस्तिक हैं,
पैदाइश। वह
आदमी नास्तिक
है, चुनाव
से। उसकी
नास्तिकता
में एक बल, एक
तेजी, एक
गति, एक
प्राण का स्वर
होता है। आपकी
आस्तिकता सिर्फ
फार्मल
है। हाथ में
एक कागज का
टुकड़ा है, जिस
पर लिखा है, आप किस घर
में पैदा हुए
हैं। वही होता
है। नास्तिक
से हार जाता
है आस्तिक, लेकिन
ज्यादा दिन यह
नहीं चलेगा।
अब तक ऐसा हुआ
था। अब
नास्तिकता भी
धर्म बन गयी
है।
1917 की
रूसी क्रांति
के बाद
नास्तिकता भी
धर्म है।
इसलिए रूस में
अब नास्तिक
बिलकुल कमजोर
हैं। रूस के
नास्तिक
पैदाइश से
नास्तिक हैं।
उसका बाप
नास्तिक था
इसलिए वह
नास्तिक है।
इसलिए अब
नास्तिकता भी
निर्बल, नपुंसक
हो गयी है।
उसमें भी वह
बल नहीं रह
जाएगा।
निश्चित ही बल
होता है, अपने
चुनाव में।
मैं अगर मरने
के लिए भी गङ्ढे
में कूदने
जाऊं, और
वह मेरा चुनाव
है, तो
मेरी मृत्यु
में भी जीवन
की आभा होगी।
और अगर मुझे
स्वर्ग भी मिल
जाए धक्के
देकर, फार्मल,
कोई मुझे
पहुंचा दे
स्वर्ग में, तो मैं
उदास-उदास
स्वर्ग की
गलियों में
भटकने लगूंगा।
वह मेरे लिए
नरक हो जाएगा।
उससे मेरी
आत्मा का कहीं
तालमेल नहीं
होनेवाला है।
संयम
को चुनें।
अपने को
खोजें।
सिद्धांत का बहुत
आग्रह न रखें, अपने
को खोजें।
अपनी
इंद्रियों को
खोजें। अपने
बहाव देखें कि
मेरी ऊर्जा
किस तरफ बहती
है; उससे
लड़ें मत, वही
आपका मार्ग
बनेगा। उससे
ही पीछे लौटें
और विधायक रूप
से अतींद्रिय
का थोड़ा अनुभव
शुरू करें। और
प्रत्येक
व्यक्ति के
पास अतींद्रिय
क्षमता है —
उसे पता हो, न पता हो। और
प्रत्येक
व्यक्ति
चमत्कारी रूप से
अतींद्रिय
प्रतिभा से
भरा हुआ है।
जरा कहीं
द्वार
खटखटाने की
जरूरत है और खजाने
खुलने शुरू हो
जाते हैं। और
जैसे ही यह
होता है वैसे
ही इंद्रियों
का जगत फीका
हो जाता है।
एक दोत्तीन
बातें संयम के
संबंध में और, क्योंकि
कल हम तप की
बात शुरू
करेंगे। आदमी
भूलें भी
नयी-नयी नहीं
करता है, पुरानी
ही करता है—भूलें
भी। जड़ता
का इससे बड़ा
और क्या
प्रमाण होगा?
अगर आप
जिंदगी में
लौटकर देखें
तो एक दर्जन
भूल से ज्यादा
भूलें आप न
गिना पाएंगे।
हां, उन्हीं-उन्हीं
को कई बार
किया। ऐसा
लगता है कि
अनुभव से हम
कुछ सीखते ही
नहीं। और जो
अनुभव से नहीं
सीखता वह संयम
में नहीं जा
सकेगा। संयम
में जाने का
अर्थ ही यह है
कि अनुभव ने
बताया कि
असंयम गलत था;
कि अनुभव ने
बताया कि
असंयम दुख था;
कि अनुभव ने
बताया कि
असंयम सिर्फ
पीड़ा थी और नरक
था। लेकिन हम
तो अनुभव से
सीखते ही
नहीं। अच्छा
हो कि मैं
मुल्ला की बात
आ पसे कहूं।
साठ
वर्ष का हो
गया है, मुल्ला।
काफी हाउस में
मित्रों के
पास बैठकर गपशप
कर रहा है एक
सांझ। गपशप का
रुख अनेक बातों
से घूमता इस
बात पर आ गया
कि एक बूढ़े
मित्र ने पूछा—सभी
बूढ़े हैं, साठ
साल का नसरुद्दीन
है, उसके
मित्र हैं—एक
बूढ़े ने पूछा
कि नसरुद्दीन,
तुम्हारी
जिंदगी में
कोई ऐसा मौका
आया, तुम्हें
खयाल आता है
कि जब तुम बड़ी
परेशानी में
पड़ गए होगे—बहुत
आकवर्ड
मोमेंट? नसरुद्दीन ने कहा—सभी
की जिंदगी में
आता है। लेकिन
तुम अपनी जिंदगी
का कहो तो हम
भी कहें।
तो सभी
बूढ़ों ने
अपनी-अपनी
जिंदगी के वे
क्षण बताए जब
वे बड़ी
मु*शिकल में पड़
गए हैं, जहां
कुछ निकलने का
रास्ता न रहा।
कभी किसी ने
कोई चोरी की
और रंगे हाथों
पकड़ा गया। कभी
कोई झूठ बोला
और झूठ नग्नता
से प्रगट हो
गया और कोई
उपाय न रहा, उसको बचाने
का।
नसरुद्दीन ने
कहा कि मुझे
भी याद है। घर
की नौकरानी
स्नान कर रही
है और मैं
ताली के छेद
से उसको देख
रहा था। मेरी
मां ने मुझे
पकड़ लिया। उस
वक्त मेरी
बुरी हालत
हुई।
बाकी
बूढ़े हंसे।
आंखें मिचकाईं।
उन्होंने कहा—"नहीं, इसमें
कोई इतने
परेशान मत
होओ। सभी की
जिंदगी में, बचपन में
ऐसे मौके आ
जाते हैं।'
नसरुद्दीन ने
कहा—"व्हाट आर
यू सेइंग? दिस
इज अबाउट यस्टड*।
क्या कह रहे
हो, बचपन!
यह कल की ही
बात है।'
बचपन
और बुढ़ापे में
चालाकी भला बढ़
जाती हो, भूलें
नहीं बदलतीं।
वही भूलें
हैं। हां, बूढ़ा
जरा होशियार
हो जाता है और
पकड़ में कम आता
है, यह
दूसरी बात है।
लेकिन इससे
बच्चा कम
होशियार है, पकड़ में
जल्दी आ जाता
है। अभी उसके
पास उपाय
चालाकी के
ज्यादा नहीं हैं।
या यह भी हो
सकता है कि
बच्चे को पकड़ने
वाले लोग हैं,
बूढ़े को पकड़ने
वाले लोग नहीं
हैं। बाकी
कहीं अनुभव
में कुछ भेद
पड़ता हो , ऐसा
दिखाई नहीं
पड़ता।
नसरुद्दीन
मरा। स्वर्ग
के द्वार पर
पहुंचा। सौ
वर्ष के ऊपर
होकर मरा ।
काफी जीया।
कथा है कि
सेंट पीटर ने, जो
स्वर्ग के
दरवाजे पर
पहरा देते हैं,
उन्होंने नसरुद्दीन
से पूछा—काफी
दिन रहे, बहुत
दिन रहे, लंबा
समय रहे, कौन-कौन-से
पाप किए
पृथ्वी पर?
नसरुद्दीन ने
कहा—पाप! किए
ही नहीं।
सेंट
पीटर ने समझा
कि शायद पाप
बहुत जनरलाइज
बात है, खयाल
में न आ ती हो।
बूढ़ा आदमी है।
कहा—"चोरी
की कभी?'
नसरुद्दीन ने
कहा—"नहीं।'
"कभी
झूठ बोले?'
"नहीं।'
"कभी
शराब पी?'
नसरुद्दीन ने
कहा—"नहीं।'
"कभी
स्त्रियों के
पीछे पागल
होकर भटके?'
नसरुद्दीन ने
कहा— "नहीं।'
सेंट
पीटर बहुत चौंका।
उसने कहा—"दैन
व्हाट यू हैव
बीन डूइंग
देयर फार सो
लोंग ए टाइम? सौ
साल तक तुम कर
क्या रहे थे
वहां? कैसे
गुजारे
इतने दिन?'
नसरुद्दीन ने
कहा—"अब तुमने
मुझे पकड़ा। यह
तो झंझट का
सवाल है।'
यह
झंझट का सवाल
है। लेकिन
इसका जवाब मैं
तुमसे एक सवाल
पूछकर देना
चाहता हूं।"
व्हाट हैव यू
बीन डूइंग
हियर?' तुम
क्या कर रहे
हो, यहां? हम तो सौ साल
से, तुम्हारा
तो सुनते हैं
अनंतकाल से
तुम यहां हो?
पाप न
हो तो आदमी को
लगता ही नहीं
कि जिये कैसे।
असंयम न हो तो
आदमी को लगता
ही नहीं कि
जिये कैसे। अब
महावीर जैसे
लोग हमारी समझ
के बाहर पड़ते
हैं,
इसका कारण
है। इसका कारण
एकिजस्टेंशियल
है। इंटेलेक्चुअल
नहीं। उसका
कारण बौद्धिक
नहीं है कि वह
हमारी समझ में
नहीं आता।
बुद्धि में
बिलकुल समझ
में आते हैं।
फर्क हमारे
जीने के ढंग
का है। हमारी
समझ में यह
नहीं आता कि
संयम, तो
फिर जियेंगे
क्या? न कोई
स्वाद में रस
रह जाएगा, न
कोई संगीत में
रस रह जाएगा, न कोई रूप
आकर्षित
करेगा, न
भोजन
पुकारेगा, न
वस्त्र बुलाएंगे,
महत्वाकांक्षा
न रह जाएगी।
तो फिर हम
जियेंगे कैसे?
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
कि अगर
महत्वाकांक्षा
न रही, अगर
बड़ा मकान
बनाने का खयाल
मिट गया, अगर
और सुंदर होने
का खयाल मिट
गया, तो
जियेंगे कैसे!
अगर और धन पाने
का खयाल मिट
गया, तो
जियेंगे कैसे!
हमें लगता ही
यह है कि पाप
ही जीवन की
विधि है, असंयम
ही जीवन का
ढंग है। इसलिए
हम सुन लेते हैं
कि संयम की
बात अच्छी है,
लेकिन वह
कहीं हमें छू
नहीं पाती।
हमारे अनुभव
से उसको कोई
मेल नहीं है।
और वह हमारा
सवाल ठीक ही
है क्योंकि जब
भी हमें संयम
का खयाल उठता
है तो लगता है,
निषेध—यह छोड़ो, वह
छोड़ो, यह
छोड़ो।
यही तो हमारा
जीवन है। सब
छोड़ दें! तो
फिर जीवन कहां
है! यह
निषेधात्मक
होने की वजह
से हमारी
तकलीफ है। मैं
नहीं कहता कि
यह छोड़ो, यह छोड़ो,
यह छोड़ो।
मैं कहता हूं,
यह भी पाया
जा सकता है, यह भी पाया
जा सकता है, यह भी पाया
जा सकता है।
इसे पाओ। हां,
इस पाने में
कुछ छूट जाएगा, निश्चित।
लेकिन तब खाली
जगह नहीं छूटेगी।
तब भीतर एक
नया फुल फिलमेंट,
एक नया भराव
होगा।
और हमारी
सभी
इंद्रियां एक
पैटर्न में, एक
व्यवस्था में
जीती हैं। अगर
आपको अतींद्रिय
दृश्य दिखाई
पड़ने शुरू हो
जाएं तो ऐसा
नहीं कि सिर्फ
आंख से
छुटकारा
मिलेगा। नहीं,
जिस दिन आंख
से छुटकारा
मिलता है उस
दिन अचानक कान
से भी छुटकारा
मिलना शुरू हो
जाता है।
क्योंकि अनुभव
का एक नया रूप
जब आपके खयाल
में आता है कि आंख
के जगत में भी
भीतर का दर्शन
है, तो फिर
कान के जगत
में भी भीतर
की ध्वनि होगी,
भीतर का नाद
होगा। फिर
स्पर्श के जगत
में भी भीतर
के जगत का
स्पर्श होगा।
फिर संभोग के
जगत में भी
भीतर की समाधि
होगी। वह त्काल
खयाल में आना
शुरू हो जाता
है। जब संयम
की विधायक दृष्टि
असंयम का, तो
सब जगत से
दीवार गिरनी
शुरू हो जाती
है। प्रत्येक
चीज एक ढांचे
में जीती है।
एक ई्ंट
खींच लें, सब
गिर जाता है।
जनगणना
हो रही है और नसरुद्दीन
के घर अधिकारी
गए हुए हैं, उससे
पूछने, उसके
घर के बाबत।
अकेला बैठा है,
उदास। तो
अधिकारी ने
पूछा कि कुछ
अपने परिवार का
ब्यौरा दो, जनगणना लिखने
आया हूं। तो नसरुद्दीन
ने कहा कि
मेरे पिता जेल
खाने में बंद
हैं। अपराध की
मत पूछो, क्योंकि
बड़ी लंबी
संख्या है।
मेरी पत्नी
किसी के साथ
भाग गयी है।
किसके साथ भाग
गयी है, इसका
हिसाब लगाना
बेकार है।
क्योंकि किसी
के भी साथ भाग
सकती थी। मेरी
बड़ी लड़की
पागलखाने में है।
दिमाग का इलाज
चलता है। यह
मत पूछो कि
कौन सी बीमारी
है, यह
पूछो कि कौन सी
बीमारी नहीं
है?
थोड़ा
बेचैन होने
लगा अधिकारी
कि बड़ी मुसीबत
का मामला है, कहां,
कैसे भागे।
किस तरह
सहानुभूति
इसको बताएं और
निकलें
यहां से? तभी
नसरुद्दीन
ने कहा—और
मेरा छोटा
लड़का बनारस
हिन्दू
युनिवर्सिटी
में है। तो
अधिकारी को
जरा
प्रसन्नता
हुई। उसने कहा—बहुत
अच्छा।
प्रतिभाशाली
मालूम पड़ता
है! क्या
अध्ययन कर रहा
है?
नसरुद्दीन ने
कहा—"गलती मत
समझो। हमारे
घर में कोई
अध्ययन करेगा? हमारे
घर में कोई
प्रतिभा पैदा
होगी? न तो
प्रतिभाशाली
है, न
अध्ययन कर रहा
है। बनारस
विश्वविद्यालय
के लोग उसका
अध्ययन कर रहे
हैं। दे आर स्टडींइग
हिम।' नसरुद्दीन ने कहा—"हमारे
घर के बाबत
कुछ तो समझो, जो पूरा
ढांचा है
उसमें— और रही
मेरी बात, सो
तुम न पूछो तो
अच्छा है।' लेकिन जब तक
वह यह कह रहा
था तब तक तो
अधिकारी भाग
चुका था। उसने
यह कहा तो वह
था नहीं मौजूद,
वह जा चुका
था।
ढांचे
में चीजों का
अस्तित्व
होता है। अभी
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर आपके घर
में एक आदमी
पागल होता है, तो
किसी न किसी
रूप में आपके
पूरे परिवार
में ढांचा होगा,
इसलिए है।
नया मनो विज्ञान
कहता है—एक
पागल की
चिकित्सा
नहीं की जा
सकती है जब तक उसके
परिवार की
चिकित्सा न की
जाए। परिवार
की चिकित्सा,
फैमिली थैरेपी
नयी विकसित हो
रही है। और, जो और कुछ
सोचते हैं वे
कहते हैं कि
परिवार से भी
क्या फर्क
पड़ेगा ? क्योंकि
परिवार, और
परिवारों के
ढांचे में
जीता है। तो
जब तक पूरी
सोसाइटी की
चिकित्सा न हो
जाए, जब तक
पूरे समाज की
चिकित्सा न हो
जाए, तब तक
एक पागल को
ठीक करना
मुश्किल है।
वे ग्रुप थैरेपी
की बात करते
हैं। वे कहते
हैं—पूरा
ग्रुप, वह
जो समूह है
पूरा, वह
समूह के ढांचे
में एक आदमी
पागल होता है।
चीजें
संयुक्त हैं।
लेकिन
एक बात उनके
खयाल में नहीं
है,
जो मैं कहना
चाहता हूं।
कभी खयाल में
आएगी, लेकिन
अभी उनको सौ
साल लग सकते
हैं। यह बात
जरूर सच है कि
अगर एक घर में
एक आदमी पागल
है, तो
किसी न किसी
रूप में उसके
पागलपन में
पूरे घर के
लोग कंट्रिब्यूट
किए, उन सब
ने कुछ न कुछ
सहयोग दिया
है। अन्यथा वह
पागल कैसे हो
जाता। और यह
भी सच है कि जब
तक उस घर के
सारे लोग ठीक
न हो जाएं तब
तक यह आदमी
ठीक नहीं हो
सकता। यह भी
सच है कि एक
परिवार तो बड़े
समूह का हिस्सा
है और पूरा
समूह उस
परिवार को
पागल करने में
कुछ हाथ बंटाता
है। जब तक
पूरा समूह ठीक
न होगा। लेकिन
इससे उल्टी
बात भी सच है।
अगर घर में एक
आदमी स्वस्थ हो
जाए तो पूरे
घर के पागलपन
का ढांचा
टूटना शुरू हो
जाता है। यह
बात अभी उनके
खयाल में नहीं
है। यह उनके
खयाल में कभी
न कभी आ
जाएगी। लेकिन
भारत के खयाल
में यह बात
बहुत पुरानी
है। और अगर एक
आदमी ठीक हो
जाए तो पूरे
समूह का ढांचा
टूटना शुरू हो
जाता है।
इसे हम
ऐसा भी समझें
कि अगर आपके
भीतर एक इंद्रिय
में ठीक दिशा
शुरू हो जाए
तो आपकी सारी
इंद्रियों का
पुराना ढांचा
एक जगह
से ढांचा टूट
जाए टूटना
शुरू हो जाता
है। आपकी एक
वृत्ति संयम की
तरफ जाने लगे
तो आपकी बाकी
वृत्तियां
असंयम की तरफ
जाने में
असमर्थ हो
जाती हैं।
मुश्किल पड़
जाती है।
जरा-सा इंचभर
का फर्क और
सारा का सारा
जो रूप है—सारा
का सारा रूप
बदलना शुरू हो
जाता है।
कहीं
से भी शुरू
करें, कुछ भी
एक बिंदु
मात्र आपके
भीतर संयम का
प्रगट होने
लगे तो आपके
असंयम का
अंधेरा गिरने
लगेगा। और
ध्यान रहे, श्रेष्ठतर
सदा
शक्तिशाली
है। तो मैं
मानता हूं कि
अगर एक
व्यक्ति एक घर
में ठीक हो
जाए तो वह उस
घर को पूरा
ठीक कर सकता
है क्योंकि
श्रेष्ठतर
शक्तिशाली
है। अगर एक
व्यक्ति एक
समूह में ठीक
हो जाए तो
पूरे समूह के
ठीक होने के
संचारण उसके
आसपास से होने
लगते हैं
क्योंकि
श्रेष्ठ
शक्तिशाली
है। अगर आ पके
भीतर एक विचार
भी ठीक हो जाए,
एक वृत्ति
भी ठीक हो जाए
तो आपकी सारी वृत्तियों
का ढांचा
टूटने और
बदलने लगता
है। बिखरने
लगता है। फिर
आप वही नहीं
हो सकते जो आप
थे। इसलिए
पूरे संयम की
चेष्टा में मत
पड़ना।
पूरा संयम
संभव नहीं है।
आज संभव नहीं
है, इसी
वक्त संभव
नहीं है।
लेकिन किसी एक
वृत्ति को तो
आप इसी वक्त, आज और अभी
रूपांतरित कर
सकते हैं। और
ध्यान रखना, उस एक का
बदलना आपकी और
बदलाहट के लिए
दिशा बन जाएगी।
और आपकी
जिंदगी में
प्रकाश की एक
किरण उतर आए, तो अंधेरा
कितना ही
पुराना हो, कितना ही हो,
कोई भय का
कारण नहीं है।
प्रकाश की एक
किरण अनंत गुने
अंधेरे से भी
ज्यादा
शक्तिशाली
है। संयम का
एक छोटा-सा
सूत्र, असंयम
की जिंदगियां—अनंत
जिंदगियों
को मिट्टी में
गिरा देता है।
लेकिन
वह एक सूत्र
शुरू हो, और
शुरू अगर करना
हो तो विधायक
दृष्टि रखना,
शुरू अगर
करना हो तो
उसी इंद्रिय
से काम शुरू करना
जो सबसे
ज्यादा
शक्तिशाली
हो। शुरू अगर करना
हो तो मार्ग
मत तोड़ना। उसी
मार्ग से पीछे
लौटना है जिससे
हम बाहर गए
हैं। शुरू अगर
करना हो तो
अंधानुकरण मत
करना कि किस
घर में पैदा
हुए हैं। अपने
व्यक्तित्व
की समझ को
ध्यान में
लेना। और फिर
जहां भी मार्ग
मिले, वहां
से चले जाना।
महावीर जहां
पहुंचते हैं,
वहीं
मुहम्मद पहुंच
जाते हैं।
जहां बुद्ध
पहुंचते, वहीं
कृष्ण पहुंच
जाते हैं।
जहां लाओत्से
पहुंचता है, वहीं
क्राइस्ट
पहुंच जाते
हैं।
नहीं
मालूम, आपको
किस जगह से
द्वार
मिलेगा। आप
पहुंचने की फिक्र
करना, द्वार
की जिद्द
मत करना कि
मैं इसी
दरवाजे से
प्रवेश
करूंगा। हो
सकता है वह
दरवाजा आपके
लिए दीवार
सिद्ध हो, लेकिन
हम सब इस जिद्द
में हैं कि
अगर जाएंगे तो
जिनेनद्र
के मार्ग से
जाएंगे, कि
जाएंगे तो हम
तो विष्णु को माननेवाले
हैं, हम तो
राम को माननेवाले
हैं तो हम राम
के मार्ग से
जाएंगे। आप
किसको माननेवाले
हैं, यह उस
दिन सिद्ध
होगा जिस दिन
आप
पहुंचेंगे।
उसके पहले
सिद्ध नहीं होगा।
आप किस द्वार
से निकलेंगे,
यह उसी दिन
सिद्ध होगा
जिस दिन आप
निकल चुके होंगे,
उसके पहले सिद्ध
नहीं होता है।
लेकिन आप पहले
से यह तय किए बैठे
हैं, इस
द्वार से ही
निकलूंगा।
ऐसा मालूम
पड़ता है, द्वार
का बहुत मूल्य
है, पहुंचने
का कोई मूल्य
नहीं है। जिद्द
यह है कि इस
सीढ़ी पर चढ़ेंगे।
चढ़ने से
कोई मतलब नहीं
है, न भी चढ़ें
तो चलेगा।
लेकिन सीढ़ी
यही होनी
चाहिए।
यह
पागलपन है और
इससे पूरी
पृथ्वी पागल
हुई है। धर्म
के नाम पर जो
पागलपन खड़ा
हुआ है वह
इसलिए कि आपको
मंजिल का कोई
भी ध्यान नहीं
है। साधनों का
अति आग्रह है
कि बस यही। इस
पर थोड़ा ढीला
होंगे, मुक्त
होंगे तो आप
बहुत शीघ्र
संयम की
विधायक दृष्टि
पर, न केवल
समझने में
बल्कि जीने
में समर्थ हो
सकते हैं।
आज
इतना ही।
कल
तप पर हम बात
करेंगे। बैठें, अभी
जाएं मत—एक
पांच मिनिट।
thank you guruji
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