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शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--029

ताओ की साधना--योग के संदर्भ में—(प्रवचन—उन्‍नतीसवां)

प्रश्न-सार

1-योग और ताओ में भेद व समानता।

2-ताओ की नाभि केंद्र की साधना।

3-लाओत्से की अक्रिया और कृष्ण के कर्म में भेद।

4-ताओ की अयात्रा और यात्रा क्या है?

5-प्रकृति बुराई क्यों करती है?


बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। एक प्रश्न दोत्तीन मित्रों ने पूछा है और स्वाभाविक है कि आपके मन में भी उठे।

योग ऊर्ध्वगमन की पद्धति है, ऊर्जा को, शक्ति को ऊपर की ओर ले जाना है। और लाओत्से की पद्धति ठीक विपरीत मालूम पड़ती है--ऊर्जा को नीचे की ओर, नाभि की ओर लाना है। तो प्रश्न उठना बिलकुल स्वाभाविक है कि इन दोनों पद्धतियों में कौन सी पद्धति सही है?


हमारे मन में ऐसे प्रश्न इसीलिए उठते हैं कि हम चीजों को तत्काल विपरीत में तोड़ लेते हैं, विरोध में तोड़ लेते हैं। और हमारे मन में खयाल ही नहीं आता कि विपरीत के बीच भी एक सामंजस्य है। लाओत्से उसी की ही बात कर रहा है। इसे ऐसा समझें, यह विपरीतता दिखाई पड़ती है। लाओत्से कहता है कि मस्तिष्क से जीवन-ऊर्जा को वापस नाभि के पास ले आना है। नाभि के पास आते ही अस्तित्व से मिलन हो जाएगा। योग कहता है, ऊर्जा को काम-केंद्र से, मूलाधार से उठा कर सहस्रार तक, मस्तिष्क तक लाना है। और सहस्रार के पार जाते ही विराट से मिलन हो जाएगा। ये दो अतियां हैं। और दोनों अतियों से छलांग हो सकती है। लेकिन मध्य से कहीं भी छलांग नहीं हो सकती। ये दो छोर हैं। या तो बिलकुल नीचे के केंद्र पर समस्त ऊर्जा को ले आएं, तो आप छलांग लगा सकते हैं। या फिर सबसे ऊपर के केंद्र पर ऊर्जा को ले जाएं, तो भी छलांग लगा सकते हैं।
लेकिन एक बात में योग और लाओत्से दोनों सहमत हैं कि ऊर्जा बुद्धि पर नहीं रुकनी चाहिए। या तो बुद्धि से नाभि पर आ जाए, या बुद्धि से सहस्रार पर चली जाए। बुद्धि पर नहीं रुकनी चाहिए; बीच में ऊर्जा नहीं रुकनी चाहिए। और दोनों ही अतियों से जिस जगत में छलांग लगती है, वह एक ही है।
तो तीन बातें हैं। एक तो जो विरोध हमें दिखाई पड़ता है वह हमें इसीलिए दिखाई पड़ता है कि हम, विरोध के बीच भी एक सामंजस्य है, इसे समझ नहीं पाते हैं। पानी को हम पानी से छुटकारा दिलाना चाहें, तो या तो उसे शून्य डिग्री के नीचे तक ठंडा कर देना चाहिए, ताकि वह बर्फ बन जाए; और या सौ डिग्री तक गरम कर देना चाहिए, ताकि वह भाप बन जाए। दोनों ही स्थितियों में पानी पानी नहीं रह जाएगा। दोनों स्थितियों में छलांग लग जाएगी; पानी कुछ और हो जाएगा। या तो मनुष्य की ऊर्जा पहले केंद्र पर आ जाए या अंतिम पर; दोनों से छलांग लग जाएगी।
और ज्यादा कठिन होगा समझना यह कि ऊर्जा वर्तुलाकार होती है, सरकुलर होती है। जगत में कोई भी इनर्जी सीधी नहीं चलती, वर्तुल में चलती है। असल में, ऊर्जा के चलने का मार्ग ही सदा वर्तुलाकार होता है। अगर हम एक वर्तुल खींचें, तो जिस बिंदु से मैं वर्तुल को शुरू करूं, वही बिंदु अंतिम भी होगा जब वर्तुल पूरा होगा। तो जहां नाभि केंद्र से छलांग लगा कर व्यक्ति पहुंचता है, वहीं सहस्रार से भी छलांग लगा कर पहुंचता है।
नाभि केंद्र से वर्तुल शुरू होता है, सहस्रार पर वर्तुल पूरा होता है। दोनों से छलांग लगा कर व्यक्ति वर्तुल के बाहर हो जाता है। इसलिए नाभि और सहस्रार बिलकुल दूर दिखाई पड़ते हैं हमें, क्योंकि हमारे लिए नाभि पेट में है कहीं और सहस्रार मस्तिष्क में है कहीं। और दोनों के बीच सीधी रेखा खींचें, तो बड़े फासले पर हैं। लेकिन इस शरीर की चर्चा ही नहीं हो रही है। इससे जो सूक्ष्म शरीर है, उस सूक्ष्म शरीर में नाभि और सहस्रार निकटतम बिंदु हैं। अगर हम वर्तुल बना लें, तो निकटतम हो जाएंगे। अगर हम सीधी रेखा खींचें, तो दूर हो जाएंगे। इस शरीर में हम सीधी रेखा खींचते हैं, तो दूर मालूम पड़ते हैं। लेकिन सूक्ष्म शरीर में वर्तुल निर्मित हो जाता है। सूक्ष्म शरीर ऊर्जा-शरीर है। पदार्थ नहीं, शक्ति का शरीर है। वहां वर्तुल निर्मित हो जाता है। ये दोनों छोर निकटतम हैं।
लाओत्से कहता है: पहले छोर पर लौट आओ। योग कहता है: अंतिम छोर पर चले जाओ। और दो तरह के व्यक्ति हैं; इसलिए दोनों ही बातें उपयोगी हैं। कुछ लोग हैं, जो पहले छोर पर लौटना बहुत मुश्किल पाएंगे; विशेषकर पुरुष चित्त वाले लोग पहले पर लौटना बहुत मुश्किल पाएंगे। इसलिए लाओत्से स्त्रैण व्यक्तित्व की बात करता है। पुरुष आगे बढ़ना चाहेगा, पीछे नहीं लौटना चाहेगा। लेकिन पुरुष के लिए मार्ग नहीं है सत्य तक पहुंचने का, ऐसा नहीं है। उसका मार्ग भी है। लाओत्से उस मार्ग का प्रस्तोता नहीं है। लाओत्से स्त्रैण व्यक्तित्व का प्रस्तोता है।
वह कहता है, पीछे लौट आओ। जब छलांग ही लगानी है, तो आगे बढ़ने का श्रम भी क्या करना? यह श्रम तो पीछे लौट कर भी हो सकता है। और ध्यान रखें, पीछे लौटने में श्रम नहीं पड़ता, आगे जाने में श्रम पड़ता है। पीछे लौटने में कोई श्रम नहीं पड़ता। क्योंकि आगे जाने के लिए शक्ति लगानी पड़ती है। पीछे लौटने के लिए तो हम सिर्फ शक्ति लगाना बंद कर दें, हम तत्काल पीछे लौट आते हैं। जो लोग सरल हो सकते हैं बिना साधना किए, लाओत्से का मार्ग उनके लिए है। जो सरल भी नहीं हो सकते बिना साधना किए, योग का मार्ग उनके लिए है।
इसलिए जान कर हैरानी होगी कि भारत ने योग की इतनी बड़ी परंपरा पैदा की, विराट परंपरा पैदा की, बड़ी साधना के सूत्र खोजे, लेकिन भारत में इतनी लंबी परंपरा के बीच भी स्त्रैण चित्त की कोई चिंता नहीं की गई। यह अधूरी है बात। और इसीलिए जैनों के चौबीस तीर्थंकर पुरुष हैं, हिंदुओं के अवतार पुरुष हैं, बुद्ध पुरुष हैं। हिंदुस्तान में एक भी स्त्री अवतार और तीर्थंकर नहीं है। वरन मान्यता तो ऐसी बन गई धीरे-धीरे--और बन ही जाएगी--अगर पुरुष के चित्त का हम मार्ग चुनेंगे, तो यह मान्यता बन ही जाएगी कि स्त्री की देह से मोक्ष नहीं हो सकता। इसलिए जैन मानते हैं कि स्त्री की देह से मोक्ष नहीं हो सकता। स्त्री को पहले एक जन्म पुरुष का लेना पड़ेगा और तब ही मोक्ष हो सकता है।
इस तरह का खयाल है, मुझे तो लगता है एकदम ठीक है कि जैनों में एक तीर्थंकर मल्लीनाथ पुरुष नहीं थे, स्त्री थे। मल्लीबाई उनका नाम था। लेकिन जैन यह मान ही नहीं सकते हैं कि स्त्री भी मोक्ष पा सकती है। इसलिए मल्लीबाई का नाम मल्लीनाथ कर दिया। स्त्री को पुरुष कर दिया। श्वेतांबरों और दिगंबरों में बुनियादी झगड़ों में एक झगड़ा यह भी है, श्वेतांबर मानते हैं कि वे मल्लीबाई ही थीं और दिगंबर मानते हैं वे मल्लीनाथ थे। यह झगड़ा बहुत अनूठा है, एक व्यक्ति के संबंध में झगड़ा कि वह स्त्री था या पुरुष था! लगता ऐसा है कि वे स्त्री ही रहे होंगे। लेकिन जो परंपरागत दृष्टि है, वह यह स्वीकार नहीं कर सकी कि स्त्री के शरीर से मुक्ति कैसे हो सकती है! असल में, सारी धारा पुरुष के चित्त की है।
लाओत्से स्त्रैण चित्त की बात कर रहा है। लाओत्से कहता है, साधना करके अगर सरल होना पड़े, तो वह सरलता बड़ी जटिल हो गई। अगर मुझे सरल होने के लिए भी प्रयास करना पड़े, तो वह सरलता सरलता न रही। सरलता का मतलब ही यह है कि जो मुझे कुछ न करना पड़े और उपलब्ध हो जाए। सहज का अर्थ ही यही होता है कि मुझे कुछ करना न पड़े और उपलब्ध हो जाए। अगर करके उपलब्ध हो, तो सहज कहना व्यर्थ है। तो लाओत्से दूसरी अति का पोषक है।
ये दोनों अतियां अधूरी हैं। लेकिन दोनों अतियां सत्य पर पहुंचा देती हैं। छलांग अति से ही लगती है। दि एक्सट्रीम प्वाइंट, वहीं से छलांग लगती है। अगर आप पुरुष की ही यात्रा में पड़ गए हैं, तो फिर पूरी तरह पुरुष ही हो जाएं। तो पुरुषार्थ को उस जगह तक ले जाएं कि जिसके आगे जाने की जगह न रहे। वहां से छलांग हो जाएगी। अगर आप सहजता के ही आनंद को अनुभव करते हैं, तो इतने सहज हो जाएं कि साधना मात्र व्यर्थ हो जाए। तो उसी सहजता से छलांग लग जाएगी।
जो लोग पुरुषार्थ का मार्ग पकड़ेंगे, ऊर्ध्वगमन उनकी भाषा होगी, ऊपर उठना वे कहेंगे। इसलिए वे जो प्रतीक चुनेंगे, वह प्रतीक होगा लपट का, आग का। आग सदा ऊपर उठती चली जाती है। कुछ भी करो, कहीं भी जलाओ, आग भागती है ऊपर की तरफ। इसलिए भारतीय प्रतीक है अग्नि।
लाओत्से ने जो प्रतीक चुना है, वह है जल का। वह कहता है, पानी की भांति हो जाओ--नीचे, और नीचे, सबसे आखिरी गङ्ढा चुन लो। जिसके नीचे कोई जगह न हो, वहां बैठ जाओ।
सहजता अंत में बैठ कर ही उपलब्ध हो सकती है। जो आदमी ऊपर उठना चाह रहा है, वह सहज नहीं हो सकता। ऊपर उठने में संघर्ष होगा, प्रतियोगिता होगी। पीछे बैठने की कोई प्रतियोगिता नहीं है। अगर आप कहते हैं, मैं सबसे पीछे बैठना चाहता हूं, तो कोई शायद ही आपसे प्रतियोगिता करने आए।
लाओत्से कहता है, ऐसे हो जाओ कि लोगों को पता ही न चले कि तुम हो भी। तो अंतिम गङ्ढा खोज लो। निम्नतम जो जगह हो, जहां कोई जाने को राजी न हो, जहां लोग जूते उतार देते हों, वहीं बैठ रहो। किसी पद की खोज ही मत करो। ऊपर जाने की बात ही मत सोचो। वह भाषा ही गलत है।
लाओत्से ठीक कहता है। जो लोग पानी की भांति हो सकते हैं, वे भी वहीं पहुंच जाएंगे। असल में, प्रथम और अंतिम मिल जाते हैं एक जगह, एक बिंदु पर। प्रथम भी अनंत का छोर है और अंतिम भी अनंत का छोर है। प्रथम और अंतिम एक ही चीज के दो नाम हैं। यात्रा पर निर्भर करता है! अगर आप पीछे लौट कर आए, तो उसे कहेंगे प्रथम; अगर आप घूम कर, पूरा चक्कर लगा कर आए, तो कहेंगे अंतिम। तो योग कहेगा ऊपर और लाओत्से कहेगा नीचे। योग और लाओत्से में, योग और ताओ में वह जो जीवन का परम द्वंद्व है, वह जो जीवन की पोलर डुआलिटी है, उसकी अभिव्यक्ति है।
इसलिए इसमें चिंता न लें। जो प्रीतिकर लगे, वह चुन लें--जो प्रीतिकर लगे! और सदा ध्यान रखें कि जो आपको प्रीतिकर लगे, वही आपका मार्ग है। कोई कितना ही कहे, जो आपको प्रीतिकर न लगे, वह आपका मार्ग नहीं है। अपने मार्ग पर भटक जाने से भी आदमी पहुंच जाता है; दूसरे के मार्ग पर न भटके, तो भी कभी नहीं पहुंचता है। उसका कारण है। क्योंकि जो हमारा स्वभाव है, हम उसी से पहुंच सकते हैं। तो दूसरे का कभी आकर्षक भी लगे, प्रभावित भी करे, तब भी भीतर पूछ लेना चाहिए कि मेरे अनुकूल है या नहीं! क्योंकि कई बार प्रतिकूल बातें भी आकर्षक लगती हैं, अनुकूल न हों तो भी। कई बार तो इसीलिए आकर्षक लगती हैं कि प्रतिकूल हैं, अनजानी हैं, अपरिचित हैं। सदा अपनी प्रकृति को ध्यान में रख लेना जरूरी है। अगर आपको लगता है कि मैं अंतिम बैठने में भी राजी हो सकता हूं, जरा भी पीड़ा न होगी, यही मेरे लिए सुगम है; अगर आपको लगता है कि बिना आक्रमण किए, ग्राहक होकर भी मैं सत्य को पा लूंगा, मैं सत्य को खोजने न जाऊंगा, सिर्फ अपने द्वार खोल कर बैठ जाऊंगा, प्रतीक्षा करूंगा; अगर इतना धैर्य हो--धैर्य स्त्रैण गुण है, अधैर्य पुरुष का गुण है--अगर इतना धैर्य हो कि द्वार खोल कर प्रतीक्षा की जा सके, अनंत तक प्रतीक्षा करने की सामर्थ्य हो, तो इसी क्षण द्वार पर सत्य उपस्थित हो जाएगा।
लेकिन अगर प्रतीक्षा करने का बिलकुल साहस ही न हो और दरवाजे पर बैठ कर भी अधैर्य ही जाहिर करना हो, तो उससे बेहतर यात्रा पर निकल जाना है। क्योंकि दरवाजे पर भी खड़े रहे और अधैर्य भी जाहिर करते रहे और प्राण बेचैन रहे, तो एक भीतरी यात्रा भी चलती रही और यात्रा नहीं की, तो एक भीतर कष्ट और संघर्ष और दुविधा बन जाएगी। इसलिए प्रत्येक को समझ लेना चाहिए। और दो ही विराट मार्ग हैं। एक मार्ग है, जिसे लाओत्से स्त्रैण मार्ग कहता है। और एक मार्ग है, जिसे वह पुरुष का मार्ग कहता है। लाओत्से की अपनी पसंद स्त्रैण मार्ग की है। और उन सभी लोगों की पसंद होगी, जिन्हें अहंकार में रस नहीं है। उनकी सभी की पसंद होगी।
इसलिए अगर लाओत्से का अनुयायी मिलेगा, तो हमारे योगी जैसा अकड़ा हुआ नहीं मिलेगा, अति विनम्र होगा। उसकी विनम्रता लेकिन सहज होगी; वह भी थोपी हुई नहीं होगी, वह भी चेष्टित नहीं होगी। हमारा योगी अगर विनम्रता भी दिखाए, तो वह आरोपित होगी। उसका कारण है कि उसका मार्ग ही असल में, अहंकार का है। और विनम्रता वह नाहक थोप रहा है, वह झंझट में पड़ रहा है, विपरीत मार्ग की बात सोच रहा है। आग की तरह का रास्ता चुना है और पानी की तरह होने की कोशिश कर रहा है। वह दिक्कत में पड़ेगा। उसकी विनम्रता झूठी होगी। उसने मार्ग चुना है अहं ब्रह्मास्मि का। वह उस यात्रा पर निकला है कि एक दिन कह सके कि मैं ब्रह्म हूं। लाओत्से का मार्ग है--एक दिन कह सके कि मैं हूं ही नहीं।
यह साफ खयाल में हो, तो कोई भी मार्ग पहुंचा देगा। या तो अहंकार को इतना बड़ा करो कि एक्सप्लोड हो जाए। इतना फुलाओ फुग्गे को कि फूट जाए। हालांकि फुलाने वाला यह सोच कर नहीं फुलाता है कि फूटेगा। वह सोचता है बड़ा कर रहा हूं। लेकिन फुग्गे को फुलाए चले जाओ, फुलाए चले जाओ, उसकी एक सीमा है। तुम फुलाने के लिए ही फुला रहे होओगे, कोई फिक्र नहीं। लेकिन फुग्गा अपनी सीमा पर आएगा और फूट जाएगा, और हाथ खाली रह जाएंगे। तो कोई हर्ज नहीं है, अगर अहंकार में ही रस है, तो फिर छोटे-मोटे अहंकार से राजी मत होना। फिर अहंकार को इतना फुलाना कि पूरा ब्रह्मांड बन जाए। तो फूट जाएगा। जिस दिन कोई कह सके, अहं ब्रह्मास्मि, उसी दिन अहंकार फूट जाएगा।
और या फिर अहंकार को भरो ही मत। उसमें जो थोड़ी-बहुत और हवा हो, उसको भी निकाल दो। लाओत्से कहता है, पीछे लौट आओ। खयाल ही छोड़ दो इसे भरने का, क्योंकि जो फूट ही जाना है, उसके लिए मेहनत क्या करनी? लेकिन कुछ लोग हैं, जो बिना मेहनत किए राजी न होंगे।
लाओत्से का एक शिष्य हुआ, लीहत्जूलीहत्जू से किसी ने जाकर पूछा, कि हमने सुना है कि बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठ कर और ज्ञान को उपलब्ध हो गए। और हमने सुना है कि कोई योगी मंत्र का जाप करके और वृक्ष के नीचे बैठ कर जाप से सत्य को उपलब्ध हो गया। लीहत्जू, तुम्हारा क्या खयाल है? तो लीहत्जू ने कहा, जहां तक हम समझते हैं, मंत्र करना, साधना करनी, योगासन करना, ये उन लोगों के काम हैं, जो बिना किए नहीं रह सकते हैं। लेकिन असली बात यह नहीं है कि बुद्ध साधना करके पहुंच गए; बुद्ध बैठ गए, इसलिए पहुंच गए। असली बात, बैठ गए, इसलिए पहुंच गए। कोई योगी मंत्र पढ़ता रहा और पहुंच गया; मंत्र असली चीज नहीं है, बैठ गया, इसलिए पहुंच गया। मंत्र तो बहाना है; क्योंकि वह खाली नहीं बैठ सकता, इसलिए मंत्र पढ़ता रहा।
लीहत्जू यह कह रहा है कि जो भी पहुंचे हैं, वे इसलिए पहुंचे हैं कि वे सब छोड़ कर बैठ गए। अब कुछ लोग हैं, जो बिलकुल छोड़ कर बैठ सकते हैं, जो मंत्र भी न पढ़ेंगे। क्योंकि मंत्र भी अंततः व्यर्थ है। नाहक परेशानी उठा रहे हैं। उसको भी पढ़ने की जरूरत नहीं है। सिर्फ बैठ जाएं, कुछ भी न करें।
लेकिन बड़ा कठिन है कुछ भी न करना। वह लाओत्से का खयाल समझ में आ जाए, तो कुछ न करना इतनी सरल जैसी बात मालूम पड़ती है, इतनी सरल नहीं है, सर्वाधिक कठिन है। मंत्र तो बच्चे भी पढ़ सकते हैं। असल में, बच्चों को अगर मंत्र न दिया जाए, तो उनको बिठाया ही नहीं जा सकता है। मंत्र कुछ भी हो, चाहे खिलौना हो, चाहे कुछ हो, मंत्र कुछ देना पड़े उनको, तो वे बैठ सकते हैं। नहीं तो बैठ भी नहीं सकते। बेचैनी इतनी ज्यादा है। तो हम भी...एक आदमी माला लेकर फेरने बैठ जाता है। यह सिर्फ बैठने का बहाना है। माला तो सिर्फ इसलिए है कि आप बिना माला के नहीं बैठ सकते। अब यह भीतर का बच्चा है, वह बेचैन है। वह कहता है, कम से कम गुरिए ही फिराएं। कुछ होना तो चाहिए।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान करेंगे, लेकिन कुछ बताइए कि करें क्या? अगर उनसे कहो कि कुछ भी मत करो, यही ध्यान है; तो वे कहते हैं कि यह कैसे होगा? कुछ तो सहारा चाहिए! सहारा का मतलब यह है कि उन्हें कुछ करने को बहाना चाहिए। राम-राम जपें, माला फेरें, कुछ भी करें! करें तो वे बैठ सकते हैं।
लीहत्जू कहता है, असली उपलब्धि तो बैठने से होती है। यह तो बहाना है, आप खाली नहीं बैठ सकते, तो हम कुछ पकड़ा देते हैं कि इसको करके बैठे रहो। अगर बिना ही कुछ किए बैठ जाते, तो इतनी भी मेहनत न उठानी पड़ती और उपलब्धि हो जाती। लेकिन बैठना, सिर्फ बैठ जाना, बड़ी घटना है, बड़ी हैपनिंग है--बड़ी हैपनिंग है! एक क्षण को भी कोई सिर्फ बैठा रह जाए, उसका मतलब है कोई गति न रही मन में, कोई चंचलता न रही, कोई यात्रा न रही, कोई गंतव्य न रहा। शक्ति अपने में ठहर गई और रुक गई। सब मौन और शांत हो गया भीतर। जहां से हम आए थे, उसी केंद्र पर वापस पहुंच गए। विलीन हो गए अपने में ही।
एक क्षण को भी यह घटना घट जाए, तो वही क्षण सत्य का क्षण है--दि मोमेंट ऑफ ट्रुथ! वही क्षण! यह दो तरह से घट सकता है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप कहां से छलांग लेंगे। योग भी मार्ग है, ताओ भी।

एक मित्र ने पूछा है कि लाओत्से द्वारा अंतरस्थ केंद्र व उसकी भूख का विकास साधक कैसे करे, इस पर कुछ कहें!

क तो, कभी आंख बंद करके बैठें और खयाल करें कि मेरे शरीर का केंद्र कहां है? व्हेयर इज़ दि सेंटर ऑफ दि बॉडी? आप इतने दिन जी लिए हैं, लेकिन आपने अपने शरीर का केंद्र कभी खोजा नहीं होगा। और यह बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हमें अपने शरीर के केंद्र का भी पता न हो। हमारा शरीर, उसकी कील कहां है?
अधिक लोगों को यह कील खोपड़ी में मालूम पड़ेगी। क्योंकि वहीं चलता रहता है कारोबार चौबीस घंटे। दुकान वहां खुली रहती है। बाजार वहां भरा रहता है। अधिक लोगों को ऐसा लगेगा कि कहीं खोपड़ी में ही।
लेकिन खोपड़ी बहुत बाद में विकसित होती है। मां के पेट में जिस दिन बच्चे का निर्माण होता है, उस दिन मस्तिष्क नहीं होता। फिर भी जीवन होता है। इसलिए जो बाद में आता है, वह केंद्र नहीं हो सकता।
कुछ लोगों को, जो भावपूर्ण हैं--स्त्रियां हैं, कवि हैं, चित्रकार हैं, मूर्तिकार हैं--उनको लगेगा कि हृदय केंद्र है। क्योंकि उन्होंने जब भी कुछ जाना है, सौंदर्य, प्रेम, तो उन्हें हृदय पर ही उसका आघात लगा है। इसलिए जब भी लोग प्रेम की बात करेंगे, तो हृदय पर हाथ रख लेंगे। प्रेम में चोट खाएंगे, तो हृदय पर हाथ रख लेंगे। तो जिन लोगों का भावना से भरा हुआ चित्त है, वे हृदय को केंद्र बताएंगे
लेकिन हृदय भी जन्म के साथ नहीं धड़कता। बच्चा जब पैदा हो जाता है, तब पहली श्वास लेता है और हृदय की धड़कन होती है। नौ महीने तो हृदय धड़कता ही नहीं। मां के हृदय की धड़कन को ही बच्चा सुनता रहता है, अपना उसके पास कोई हृदय नहीं होता। और इसलिए बच्चे को टिक-टिक की कोई भी आवाज आप सुना दें, वह जल्दी से सो जाता है। क्योंकि नौ महीने वह सोता रहा और टिक-टिक की आवाज, मां के हृदय की धड़कन, उसे सुनाई पड़ती रही। इसलिए टिक-टिक की आवाज किसी को भी नींद ला देती है। पानी टपक रहा हो टीन पर आपके मकान के, टप-टप-टप, नींद आनी शुरू हो जाती है। कमरे में कुछ न हो, सिर्फ घड़ी की आवाज आ रही हो, आप घड़ी की आवाज सुनते रहें, नींद आ जाएगी। नींद की सलाह देने वाले लोग कहते हैं कि घड़ी की आवाज सुनना काफी ट्रैंक्वेलाइजिंग है। और उसका कुल कारण इतना है कि नौ महीने तक बच्चा सोया रहा और टिक-टिक की आवाज, मां की धड़कन, उसको सुनाई पड़ती रही। कोई हृदय भी बच्चे के पास नहीं है, लेकिन फिर भी जीवन है।
इसलिए लाओत्से कहता है: नाभि केंद्र है, न तो हृदय और न मस्तिष्क। नाभि से ही बच्चा मां से जुड़ा होता है। इसलिए जीवन की पहली झलक नाभि है। और वह ठीक है। वह वैज्ञानिक रूप से ठीक है। तो अपने भीतर खोजें। और लाओत्से कहता है, साधना की पहली बात यह है कि खोजते-खोजते नाभि के पास अपने केंद्र को ले आएं। जिस दिन आपका असली केंद्र और आपकी धारणा का केंद्र एक हो जाएगा, उसी दिन आप इंटिग्रेटेड हो जाएंगे। जिस दिन फोकस मिल जाएगा, आपके चित्त का केंद्र, सोचने का केंद्र और आपका असली केंद्र जिस दिन करीब आकर मिल जाएंगे, उसी दिन आप पाएंगे कि आपकी जिंदगी बदल गई। आप दूसरे आदमी हो गए। ए न्यू ग्रेविटेशन, एक नई कशिश आपकी दुनिया में आ जाएगी।
लाओत्से को मानने वाले एक छोटा सा प्रयोग सदियों से करते रहे हैं। और वह प्रयोग बड़ा बढ़िया है। वे कहते हैं कि जब तक आपके भीतर केंद्र का ही आपको पता नहीं है, यू कैन नॉट ग्रो, तब तक आपमें कोई विकास नहीं हो सकता। तो वे एक छोटा सा प्रयोग करते हैं। दो छोटे से आप हौज बना लें और पानी भर दें। बराबर एक मात्रा के हौज, एक सा पानी। एक हौज में एक लोहे का डंडा लगा दें बीच में केंद्र पर। और एक हौज में डंडा न लगाएं, खाली रखें, बिना केंद्र का। दो मछलियां, एक ही उम्र की, उन दोनों में छोड़ दें। आप हैरान होंगे, जिसमें डंडा लगा हुआ है, उसकी मछली जल्दी बढ़ेगी; और जिसमें डंडा नहीं लगा है, उसकी मछली जल्दी नहीं बढ़ेगी
जिसमें डंडा लगा हुआ है, वह मछली उसका चक्कर लगाती रहेगी दिन-रात। केंद्र है और केंद्र के आस-पास वह घूमती चली जाती है, घूमती चली जाती है। जिस हौज में डंडा नहीं लगा है, उसकी मछली इधर-उधर भटकती रहेगी। कहीं कोई केंद्र नहीं है, जिसके आस-पास घूम सके। उसकी ग्रोथ नहीं होगी, वह स्वस्थ नहीं होगी, बीमार रह जाएगी। यह हजारों साल से चलता हुआ प्रयोग है और सदा इसका एक ही परिणाम होता है कि जिसमें केंद्र है जिस हौज में, उसकी मछली स्वस्थ, जल्दी विकसित होती है, ज्यादा ताजी, ज्यादा जीवंत होती है।
लाओत्से को मानने वाले कहते हैं कि जिस व्यक्ति को अपने केंद्र का पता चल जाता है, उसकी चेतना उस केंद्र का इसी मछली की तरह चक्कर लगाने लगती है। और तब चेतना में विकास शुरू हो जाता है। जिनको केंद्र का ही पता नहीं है, वे उस मछली की तरह रह जाएंगे--बेजान, लोच, निर्जीव। क्योंकि कोई केंद्र नहीं है, जिसके आस-पास वे घूम सकें और विकसित हो सकें। उनको दिशा ही नहीं मालूम पड़ेगी--कहां जाएं? क्या करें? क्या हो जाएं? भटकेंगे वे भी। एक ही परिधि पर निरंतर परिभ्रमण से चेतना विकसित होती है।
तो लाओत्से कहता है कि यह जो नाभि का केंद्र है, आपको पता चल जाए, तो आपकी चेतना को एकाग्र गति मिल जाती है--ए कनसनट्रेटेड मूवमेंट। आपकी चेतना फिर वहीं घूमती रहती है।
लाओत्से कहता है, चलो, लेकिन ध्यान नाभि का रखो। बैठो, ध्यान नाभि का रखो। उठो, ध्यान नाभि का रखो। कुछ भी करो, लेकिन तुम्हारी चेतना नाभि के आस-पास घूमती रहे। एक मछली बन जाओ और नाभि के आस-पास घूमते रहो। और शीघ्र ही तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक नई शक्तिशाली चेतना का जन्म हो गया।
इसके अदभुत परिणाम हैं। और इसके बहुत प्रयोग हैं। आप यहां एक कुर्सी पर बैठे हुए हैं। लाओत्से कहता है कि आपके कुर्सी पर बैठने का ढंग गलत है। इसीलिए आप थक जाते हैं। लाओत्से कहता है, कुर्सी पर मत बैठो। इसका यह मतलब नहीं कि कुर्सी पर मत बैठो, नीचे बैठ जाओ। लाओत्से कहता है, कुर्सी पर बैठो, लेकिन कुर्सी पर वजन मत डालो। वजन अपनी नाभि पर डालो
अभी आप यहीं प्रयोग करके देख सकते हैं। एम्फेसिस का फर्क है। जब आप कुर्सी पर वजन डाल कर बैठते हैं, तो कुर्सी सब कुछ हो जाती है, आप सिर्फ लटके रह जाते हैं कुर्सी पर, जैसे एक खूंटी पर कोट लटका हो। खूंटी टूट जाए, कोट तत्काल जमीन पर गिर जाए। कोट की अपनी कोई केंद्रीयता नहीं है, खूंटी केंद्र है। आप कुर्सी पर बैठते हैं--लटके हुए कोट की तरह।
लाओत्से कहता है, आप थक जाएंगे। क्योंकि आप चैतन्य मनुष्य का व्यवहार नहीं कर रहे हैं और एक जड़ वस्तु को सब कुछ सौंपे दे रहे हैं। लाओत्से कहता है, कुर्सी पर बैठो जरूर, लेकिन फिर भी अपनी नाभि में ही समाए रहो। सब कुछ नाभि पर टांग दो। और घंटों बीत जाएंगे और आप नहीं थकोगे
अगर कोई व्यक्ति अपनी नाभि के केंद्र पर टांग कर जीने लगे अपनी चेतना को, तो थकान--मानसिक थकान--विलीन हो जाएगी। एक अनूठा ताजापन उसके भीतर सतत प्रवाहित रहने लगेगा। एक शीतलता उसके भीतर दौड़ती रहेगी। और एक आत्मविश्वास, जो सिर्फ उसी को होता है जिसके पास केंद्र होता है, उसे मिल जाएगा।
तो पहली तो इस साधना की व्यवस्था है कि अपने केंद्र को खोज लें। और जब तक नाभि के करीब केंद्र न आ जाए--ठीक जगह नाभि से दो इंच नीचे, ठीक नाभि भी नहीं--नाभि से दो इंच नीचे जब तक केंद्र न आ जाए, तब तक तलाश जारी रखें। और फिर इस केंद्र को स्मरण रखने लगें। श्वास लें तो यही केंद्र ऊपर उठे, श्वास छोड़ें तो यही केंद्र नीचे गिरे। तब एक सतत जप शुरू हो जाता है--सतत जप। श्वास के जाते ही नाभि का उठना, श्वास के लौटते ही नाभि का गिरना--अगर इसका आप स्मरण रख सकें...।
कठिन है शुरू में। क्योंकि स्मरण सबसे कठिन बात है। और सतत स्मरण बड़ी कठिन बात है। आमतौर से हम सोचते हैं कि नहीं, ऐसी क्या बात है? मैं एक आदमी का नाम छह साल तक याद रख सकता हूं।
यह स्मरण नहीं है; यह स्मृति है। इसका फर्क समझ लें। स्मृति का मतलब होता है, आपको एक बात मालूम है, वह आपने स्मृति के रिकाघडग को दे दी। स्मृति ने उसे रख ली। आपको जब जरूरत पड़ेगी, आप फिर रिकार्ड से निकाल लेंगे और पहचान लेंगे। स्मरण का अर्थ है: सतत, कांसटेंट रिमेंबरिंग।
आप जरा कोशिश करें, एक पांच मिनट के लिए प्रयोग करें कि मैं अपने पेट के उठने और गिरने का खयाल रखूंगा, भूलूंगा नहीं। दो सेकेंड बाद आप पाएंगे, आप भूल चुके हैं, कुछ और कर रहे हैं। फिर घबड़ाहट आएगी कि यह तो मैं भूल गया, दो सेकेंड भी याद नहीं रख सका! श्वास अभी भी चल रही है, पेट अब भी हिल रहा है; लेकिन आप कहीं गए। फिर लौटा लाएं अपने स्मरण को। अगर आप निरंतर प्रयास करें, तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, सेकेंड-सेकेंड आपका स्मरण बढ़ेगा। और जिस दिन आप कम से कम तीन मिनट सतत, मुतवातिर, एक क्षण को भी बिना चूके--तीन मिनट कोई लंबा वक्त नहीं है, लेकिन जब प्रयोग करेंगे, तब आपको पता चलेगा कि तीन साल से भी लंबा मालूम पड़ेगा--एक दफे भी चूकें नहीं, तीन मिनट केवल! तो आपको पता चलेगा कि अब आपको केंद्र का ठीक-ठीक अनुभव होना शुरू हो गया। और तब सब शरीर अलग और केंद्र अलग झलकने लगेगा।
और यह केंद्र ऊर्जा का केंद्र है। इससे जो संयुक्त है, उसकी महिमा अपार है। क्योंकि वह निरंतर अनंत ऊर्जा को उपलब्ध कर रहा है।
तो एक तो सतत स्मरण रखें नाभि के केंद्र का और उसके आस-पास ही अपनी चेतना को परिभ्रमण करने दें। वही मंदिर है, उसकी ही परिक्रमा जारी रखें। कुछ भी हो जाए--क्रोध हो, घृणा हो, वैमनस्य हो,र् ईष्या हो, दुख हो, सुख हो--लाओत्से कहता है, हर हालत में, कुछ भी हो, पहला काम नाभि पर लौटने का करें, फिर दूसरा काम कुछ भी करें। किसी ने खबर दी कि प्रियजन मर गए, तो पहले नाभि पर जाएं और फिर इस खबर को ग्रहण करें। और तब, लाओत्से कहता है, कोई भी मर जाए, चित्त पर कोई चोट नहीं पहुंचेगी
कभी आपने खयाल न किया हो, लेकिन शायद कभी खयाल आया भी हो, या पीछे लौट कर प्रत्यभिज्ञा हो जाए, जब भी आपको कोई बहुत गहरी खबर सुनाता है, खुशी की या दुख की, तो चोट नाभि पर लगती है। रास्ते पर आप चले जा रहे हैं, साइकिल पर या कार में और एकदम एक्सीडेंट होने की हालत आ गई, आपने खयाल किया है कि पहली चोट नाभि पर लगती है, धड़ से नाभि पर चोट जाती है। नाभि कंपित होती है, तभी सब कुछ कंपित होता है।
लाओत्से कहता है, जब भी कुछ हो, तो आप सचेतन रूप से पहले नाभि पर जाएं। पहला काम नाभि, फिर दूसरा कोई भी काम। तो न सुख आपको सुखी कर पाएगा इतना कि आप पागल हो जाएं, न दुख आपको दुखी कर पाएगा इतना कि आप दुख से एक हो जाएं। तब आपका केंद्र अलग और परिधि पर घटने वाली घटनाएं अलग रह जाएंगी। और आप साक्षी मात्र रह जाएंगे। योग कहता है, साक्षी की साधना करो। लाओत्से कहता है, सिर्फ नाभि को सतत स्मरण रखो, साक्षी की घटना फलित हो जाएगी, घटित हो जाएगी।
यह जो नाभि का केंद्र है, जिस दिन ठीक-ठीक पता चल जाए, उसी दिन आप मृत्यु और जन्म के बाहर हो जाते हैं। क्योंकि जन्म के पहले यह नाभि का केंद्र आता है; और मृत्यु के बाद यही बचता है, बाकी सब खो जाता है। तो जो व्यक्ति भी इस केंद्र को जान लेता है, वह जान लेता है, न तो मेरा जन्म है और न मेरी मृत्यु है। वह अजन्मा और अमृत हो जाता है।
सतत स्मरण रखें। केंद्र को खोजें, सतत स्मरण रखें। पहली बात, केंद्र को खोज लें। दूसरी बात, स्मरण रखें। तीसरी बात, बार-बार जब स्मरण खो जाए, तो स्मरण खोता है इसका भी स्मरण रखें। वह थोड़ा कठिन पड़ेगा।
जैसे कि आप किसी चीज पर ध्यान दे रहे हैं। तो लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, हमने नाभि पर ध्यान दिया, लेकिन वह खो जाता है। फिर क्या करें? तो उनसे मैं कहता हूं, खो गया, इसको भी स्मरण रखें कि अब खो गया। इसको भी ध्यान का हिस्सा बनाएं। बी अटेंटिव ऑफ दि इनअटेंशन आल्सो। वह जो घटना घट रही है खोने की, उसको भी ध्यानपूर्वक! उसको भी गैर-ध्यानपूर्वक मत खोने दें। जब भी चूक जाएं, तत्काल स्मरण करें कि चूक गया। वापस लौट जाएंगे, कुछ और करने की जरूरत नहीं, सिर्फ इतना स्मरण कि चूक गया, स्मरण वापस लौट आएगा, धारा फिर जुड़ जाएगी।
और चौथी बात, जब स्मरण पूरा हो जाए, केंद्र स्पष्ट दिखाई पड़ने लगे, अनुभव होने लगे, तो सब कुछ केंद्र के लिए समर्पित कर दें, सरेंडर कर दें। उस केंद्र को ही कह दें कि तू ही मालिक है, अब मैं छोड़ता हूं। और यह आसान हो जाता है।
समर्पण बहुत कठिन है, जब तक केंद्र का पता न हो। लोग कहते हैं, परमात्मा के लिए समर्पण कर दो। लेकिन परमात्मा का कोई पता नहीं। जिसका पता नहीं, उसके लिए समर्पण कैसे कर दो? और परमात्मा आ भी जाए, तो भी समर्पण आपको करना हो, तो मालिक तो आप ही बने रहते हैं समर्पण के भी। अगर कल दिल नाराज हो जाए और लगे कि यह परमात्मा कुछ अपनी मनपसंद का नहीं, तो अपना समर्पण वापस ले ले सकते हैं कि छोड़ो, हमने अपना समर्पण वापस लिया। देने वाले हम थे, ले भी हम सकते हैं। क्या, परमात्मा करेगा क्या? अगर आप अपना समर्पण वापस ले लें, तो परमात्मा करेगा क्या? तो जो समर्पण वापस भी लिया जा सकता है, वह समर्पण तो नहीं है। वह दिया ही नहीं गया कभी।
लाओत्से की प्रक्रिया अलग है। लाओत्से कहता है, जिस दिन इस केंद्र का पता चलता है, उस दिन समर्पण करना नहीं पड़ता, आपको अनुभव होने लगता है कि केंद्र मालिक है ही, मेरे बिना केंद्र सब कुछ कर रहा है। श्वास ले रहा है, छोड़ रहा है; जीवन की धारा चल रही है; नींद आ रही है, जागरण आ रहा है; जन्म हो रहा है, मृत्यु हो रही है; सब केंद्र कर रहा है मेरे बिना कुछ किए। तो अब समर्पण का क्या सवाल है? समर्पण हो जाता है।
तो चौथी, आखिरी जो घटना है इस साधना में, वह है केंद्र के प्रति समर्पण को अनुभव कर लेना। फिर अहंकार के बचने का कोई उपाय नहीं--कोई उपाय ही नहीं। ऐसी समर्पित अवस्था में व्यक्ति परम सत्ता को उपलब्ध हो जाता है।

एक और मित्र ने पहले प्रश्न जैसा ही प्रश्न पूछा है कि लाओत्से अक्रिया पर जोर दे रहा है और कृष्ण ने कर्म पर जोर दिया, तो इन दोनों में कोई विपरीतता है या समानता है?

ये दो छोर हैं। लाओत्से यह नहीं कहता कि कर्म मत करो। लाओत्से कहता है, कर्म करो, लेकिन ऐसे जैसे कि नहीं कर रहे हो। एज इफ यू आर नॉट डूइंग इट, रादर इट इज़ हैपनिंग। हो रहा है। जैसे श्वास चल रही है; लो मत, छोड़ो मत, चलने दो। ठीक ऐसा ही जीवन। तुम अक्रिया में हो जाओ, क्रिया जितनी होती है, होने दो। कृष्ण भी वही कहते हैं दूसरे छोर से। वे कहते हैं, कर्म करो, कर्म से भागो मत, लेकिन कर्ता को छोड़ दो। यह भाव छोड़ दो कि मैं करने वाला हूं। परमात्मा करने वाला है।
लाओत्से की व्यवस्था में परमात्मा की कोई जगह नहीं है, क्योंकि वह कहता है, इतना इशारा भी करना द्वैत है। लाओत्से कहता है, यह भी कहना कि परमात्मा करने वाला है, इसमें कोई फर्क न पड़ा, अपना अहंकार परमात्मा में स्थापित किया। लेकिन कर्ता कोई रहा--हम न रहे, परमात्मा रहा।
लाओत्से कहता है, कर्ता कोई भी नहीं है, क्रिया हो रही है।
यह थोड़ा कठिन है। हमें आसानी पड़ती है कि हम कर्ता नहीं, कोई हर्ज नहीं, परमात्मा कर्ता है। लॉजिक हमारा जारी रहता है, तर्क हमारा जारी रहता है कि हम न रहे कर्ता, वह है कर्ता। लेकिन लाओत्से कहता है, उसको भी कर्ता बनाने के उपद्रव में क्यों डालते हो? जब तुम कर्ता नहीं बनना चाहते, जब तुम कर्ता बनने से कष्ट में पड़ते हो, तो परमात्मा को भी क्यों कष्ट में डालते हो? कोई कर्ता नहीं है, क्रिया हो रही है। हवा के झोंके आते हैं और पत्ता हिल रहा है। हवा के झोंके आते हैं, और सागर की लहर उठ रही है और गिर रही है। यह जगत जो है, क्रियाओं का एक समूह है, कर्ता कोई भी नहीं।
अगर यह समझ में आ जाए, तो क्रियाएं होने दो। करने वाले भी तुम नहीं हो, छोड़ने वाले भी तुम नहीं हो। जो हो रहा है उसे होने दो और देखते रहो। तो वही स्थिति बन जाएगी, कृष्ण ने जो कही है।
कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तू सब छोड़! शायद अर्जुन उतनी योग्यता का व्यक्ति नहीं था, जितनी योग्यता का व्यक्ति लाओत्से का शिष्य होने के लिए जरूरी है। तो कृष्ण को कहना पड़ा कि तू परमात्मा पर छोड़ दे, वही सब कर रहा है, तू बीच में मत आ! तू समझ कि वही करने वाला है, तू तो निमित्त मात्र है।
और ध्यान रहे, अगर लाओत्से होते कृष्ण की जगह, तो अर्जुन को इतना लंबा उपदेश मिलने वाला नहीं था। लाओत्से पहली तो बात बोलता ही नहीं। अगर बिना बोले अर्जुन समझ जाता, तो ठीक था।
लीहत्जू कहता है कि मैंने सुना है कि वे शिक्षक हैं, जो बोल कर समझाते हैं; और वे शिक्षक भी हैं, जो बिना बोले समझाते हैं। हमारा जो शिक्षक है, वह दूसरी तरह का शिक्षक है।
लीहत्जू वर्षों तक लाओत्से के पास था। न उसने कभी सवाल पूछा और न लाओत्से ने कभी जवाब दिया। कभी कोई आकर पूछता था, तो लीहत्जू एक कोने में बैठ कर सुनता रहता था। वर्षों बाद लाओत्से ने खुद लीहत्जू से पूछा कि तुझे कुछ पूछना नहीं है?
लीहत्जू ने कहा, आपकी आज्ञा हो तो पूछूं
तो लाओत्से ने कहा, इतने दिन तक तू चुपचाप बैठा रहा!
तो लीहत्जू ने कहा कि आपके पास चुपचाप बैठ कर इतना समझने को मिल रहा था कि बोल कर मैंने बाधा न डालनी चाही। बोलता, तो बाधा पड़ती।
लाओत्से ने कहा कि इसलिए अब मैं तुझसे कहता हूं कि तू पूछ सकता है। जिसको बोलने से बाधा पड़ने लगी, वह बोलने की बीमारी से मुक्त हो गया। अब बातचीत हो सकती है। अब शब्द दिक्कत न देगा। जिसने शून्य में रहने का आनंद पा लिया, अब उसे शब्द मार्ग से न हटा सकेगा। अब हम शब्द का आदान-प्रदान कर सकते हैं।
लेकिन कृष्ण के सामने जो शिष्य है, वह बहुत दूसरी तरह का है। और क्षण भी बहुत और है। युद्ध का क्षण है; यहां बारह साल चुपचाप बैठा भी नहीं जा सकता। पूरी परिस्थिति और है। और अर्जुन को अगर लाओत्से कहे कि कोई करने वाला नहीं है, जो हो रहा है, हो रहा है, तो अर्जुन भाग जाएगा। वह कहेगा, जब कोई करने वाला नहीं है, तो कोई भागने वाला भी नहीं है। वह भाग ही जाएगा, वह भाग जाएगा। यद्यपि वह भूल होगी उसकी, क्योंकि भागने में वह भागने वाला है। वह उसकी भूल है, वह सिर्फ अपने को धोखा दे रहा है।
हम सब अपने को धोखा दे सकते हैं। हम बड़े कुशल हैं। हम बड़े कुशल हैं। हम सब अपने को धोखा दे सकते हैं। अगर हमें भागना हो, तो हम कहेंगे, भागने में हमारा हाथ ही क्या है? क्रिया हो रही है, हम सिर्फ साक्षी हैं। और हम भागेंगे; क्रिया नहीं हो रही है। क्रिया नहीं हो रही है! अर्जुन की जैसी मनोदशा है, उसमें अगर वह भागेगा भी तो कर्ता रहेगा। असल में, वह कर्ता होने के कारण ही उसको खयाल आ रहा है भागने का, कि ये मेरे प्रियजन हैं, इनको मार डालूंगा तो पाप लगेगा, मुझे पाप लगेगा। इसलिए भागना चाहता है।
इसलिए कृष्ण जो लड़ रहे हैं अर्जुन से, वे इसलिए लड़ रहे हैं, वे यह कह रहे हैं कि तेरा यह जो खयाल है कि तू कुछ करने वाला है, यह गलत है। और मैं जानता हूं कि अगर अर्जुन उस स्थिति में आ जाए और मैं को छोड़ दे और फिर धनुष-बाण को रख कर चला जाए, तो कृष्ण आखिरी मनुष्य होंगे उसे रोकने वाले। लेकिन वह जाना बड़े और ढंग का है।
मुझे एक लाओत्से के अनुयायी का एक स्मरण आता है। रांग कांग उनेजी नाम का एक बहुत बड़ा धनुर्विद हुआ। अर्जुन की वजह से मुझे याद आ गया। बहुत बड़ा धनुर्विद हुआ; लाओत्से का अनुयायी था। वह कहता था, तीर तो तुम चलाओ, लेकिन हाथ की मसल न हिले। अगर मसल हिल गई, तुम कर्ता हो गए। तीर तो तुम चलाओ, लेकिन हाथ की मसल न हिले। क्योंकि मसल हिल गई, तो तुम कर्ता हो गए। फिर तुमने तीर चलाया।
बड़ी मुश्किल बात थी। सम्राट को खबर मिली। और उसने कहा कि उस उनेजी को बुला कर लाओ। यह क्या पागलपन की बात है! इतना हम समझ सकते हैं कि एक आदमी चलाते वक्त यह भाव रखे कि मैं निमित्त मात्र हूं। यह भी हम समझ सकते हैं कि एक आदमी तीर चलाते वक्त अपने को कर्ता न माने, क्रिया का साक्षी रहे। लेकिन जब तीर चलेगा और धनुष उठेगा और प्रत्यंचा पर तीर चढ़ेगा और छूटेगा, तो मसल तो हिलेगी ही।
उनेजी बुलाया गया। उनेजी ने आकर अपना धनुष-बाण जब रखा, तो सम्राट की पूरी सभा में कोई उस धनुष-बाण को उठा भी नहीं सका। वह इतना वजनी था। कहते हैं वह अकेला आदमी था पूरे चीन में, जो उस धनुष-बाण को उठा सकता था। उसने धनुष-बाण उठा लिया, उसने बाण चढ़ाया। सम्राट ने आकर उसकी मसल देखी। वह ऐसी थी, जैसे छोटे बच्चे का हाथ हो। उसमें कहीं कोई मसल नहीं थी। उनेजी ने कहा, इसलिए मैं कहता हूं कि मैं तीर नहीं चला रहा हूं, तीर चल रहा है।
अर्जुन अगर ऐसी हालत में आ जाए और कह दे कि देखो, मैं नहीं जा रहा हूं, यह जाना हो रहा है, तो कृष्ण भी उसे रोकेंगे नहीं। लेकिन वह उस हालत में न था। असल में, लाओत्से के शिष्य होने की अर्जुन की योग्यता न थी। वह था क्षत्रिय, पक्का पुरुष। और लाओत्से की सारी शिक्षा है स्त्रैण चित्त के लिए। हम मान सकते हैं कि अर्जुन प्रतीक पुरुष है। जैसा पुरुष होना चाहिए, वैसा पुरुष है। इसलिए कृष्ण तक उसको जोश चढ़ाने के लिए कहते हैं कि क्या तू नपुंसकों जैसी बात कर रहा है! वह पुरुष को पूरा कंपाने के लिए। कि क्या लोग तुझे कायर कहेंगे! पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां लोग तुझे कहेंगे कि तू कायर था, नपुंसक था, क्लीव था! ये सब चोटें उसके पुरुष के लिए हैं। कि उसका पुरुष खड़ा हो जाए और वह कहे, क्या बात करते हो? वह अपना गांडीव उठा ले और युद्ध पर उतर जाए!
लाओत्से की सारी शिक्षा स्त्रैण चित्त के लिए है। तो इस शिक्षा का जो शिष्य है, वह बुनियादी रूप से अलग है। पर बात वही है--चाहे कोई अपने अहंकार को परमात्मा के लिए विसर्जित कर दे, कर्म करता रहे और कर्ता न रह जाए; या लाओत्से कहता है, अक्रिया को समझ ले कि सब क्रियाएं हो रही हैं, मैं करने वाला हूं ही नहीं। तो लाओत्से यह भी नहीं कहता कि कर्म करता रहे। यह भी क्या कहना? कर्म होता रहे, होता हो तो होता रहे, न होता हो तो न हो, रुकता हो तो रुक जाए, चलता हो तो चलता रहे। मैं कोई हूं ही नहीं बीच में पड़ने वाला।
लेकिन इससे यह मतलब नहीं है कि लाओत्से को मानने वाले कर्म से भाग ही जाएंगे। और इसका यह भी मतलब नहीं है कि कृष्ण को मानने वाले कर्म में लगेंगे ही। हम दोनों को जानते हैं भलीभांति। लाओत्से को मानने वाले भी कर्म पर गए हैं, युद्ध पर गए हैं। अब यह उनेजी है, यह धनुर्विद्या का पारंगत है, कुशलतम व्यक्ति है। और हम हिंदुस्तान में संन्यासियों को भी जानते हैं, जो गीता बगल में दबाए हुए संसार को छोड़ कर भाग रहे हैं। और वे कहते हैं कि गीता प्राण है उनका।
आप क्या करोगे, यह न तो कृष्ण के हाथ में है और न लाओत्से के। यह सदा आपके हाथ में है, सदा आपके हाथ में है। असल में, शिक्षक कुछ भी नहीं कर सकते, जब तक आपका सहयोग न हो। और शिक्षक भी उतना ही कर सकते हैं, जितने दूर आप चलने को राजी हैं। दोनों की बातें एक हैं, बहुत अलग बिंदुओं से कही गईं। एक पुरुष के चित्त की बात है; एक स्त्रैण चित्त की बात है।

एक मित्र का फिर करीब ऐसा ही प्रश्न है कि आपके प्रवचन से लगता है कि लाओत्से अयात्रा की महिमा बताता था, फिर भी उसने साधना के सूत्र बताए हैं: नाभि केंद्र, श्वास की प्रक्रिया, इत्यादि। क्या इन दोनों में विरोध नहीं मालूम पड़ता है?

विरोध मालूम पड़ता है। क्योंकि जब भी हम कहें साधना, तो लगता है कुछ करना पड़ेगा। यह हमारी भाषा की भूल है। असल में, भाषा में अक्रिया के लिए कोई शब्द नहीं है। अक्रिया के लिए कोई शब्द नहीं है। सब शब्द क्रियाओं के हैं।
अगर हम एक आदमी को कहते हैं कि अच्छा, अब सो जाओ, तो मतलब होता है कि अब सोना पड़ेगा, सोने के लिए कुछ करना पड़ेगा। सोना एक क्रिया है। लेकिन हम सब जानते हैं कि सोना क्रिया नहीं है। और कोई भी कोशिश करके सो नहीं सकता है। या किसी दिन कोशिश करके देखें! जितनी कोशिश करेंगे, उतनी ही नींद मुश्किल हो जाती है। तो सोना क्रिया तो नहीं है, लेकिन भाषा में क्रिया है। सोने का मतलब भी वैसे ही होता है कि एक काम है; जैसे चलना, उठना, खाना, पीना, ऐसे ही सोना। लेकिन कोई आदमी क्रिया करके सो नहीं सकता। सोना होता ही तब घटित है, जब सब क्रिया बंद हो जाती है।
इसलिए जिनको नींद नहीं आती, उनकी सबसे बड़ी मुसीबत यही है कि कैसे सोएं, वे पूछते हैं कि कैसे सोएं? और कैसे जो है वह सोने का दुश्मन है। कैसे का मतलब है, व्हाट टु डू? क्या करें? और करना जो है वह नींद का दुश्मन है। आप कुछ भी करें, जो भी आप करेंगे, उससे नींद आने में देर लगेगी। तो क्या हम उससे कह दें कि कोई उपाय ही नहीं है तुम्हारे लिए? क्या हम उससे कह दें कि कोई उपाय ही नहीं है तुम्हारे लिए? जिसको नींद नहीं आती, क्या उससे हम कह दें कि कोई उपाय नहीं है, मरो! तुम ऐसे ही रहोगे, कोई उपाय नहीं है। क्योंकि नींद तो लाई नहीं जा सकती। आ जाए तो ठीक, न आ जाए तो ठीक।
यह तो बहुत क्रूर होगा और बुद्धिमानीपूर्ण भी न होगा। क्योंकि जिसे नींद नहीं आती, उसे भी नींद लाने में सहायता पहुंचाई जा सकती है। तब उसे ऐसी क्रियाएं बतानी होंगी, जो क्रियाएं इतनी उबाने वाली हैं कि अपने आप छूट जाती हैं। जैसे उससे कहा जाए कि तुम कुछ न करो, एक से लेकर सौ तक गिनती गिनो, फिर सौ से वापस लौटो एक तक, फिर एक से सौ तक जाओ--ऐसा करो।
अब यह उबाने वाली क्रिया है, बोर्डम की क्रिया है। अगर एक आदमी एक, दो से लेकर सौ तक जाए और फिर सौ, निन्यानबे, अट्ठानबे फिर वापस लौटे, यह करता रहे, थोड़ी देर में मन ऐसा ऊब जाएगा, इतना ऊब जाएगा कि इसे छोड़ने की भी याद न रहेगी। यह छूट जाएगा। इसके छूटते ही नींद घटित हो जाएगी। वह नींद इसके कारण नहीं आई; फिर भी इससे सहायता मिली। इससे सहायता मिली।
लाओत्से ने जो भी साधना-प्रक्रियाएं बताई हैं, वे सब साधना-प्रक्रियाएं निगेटिव हैं, इसी तरह की नकारात्मक हैं। वह जो भी कह रहा है, वह कह रहा है, अपने केंद्र को खोजो। अब केंद्र है; खोजने की जरूरत नहीं है वस्तुतः। और हम न भी खोज पाएं, तो भी केंद्र है। हमें न भी पता हो, तो भी है। और हमें पता नहीं है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, केंद्र केंद्र ही है। हम चाहे बुद्धि में जीएं और चाहे हृदय में जीएं, जीवन नाभि में केंद्रित है। ये हमारी भ्रांतियां हैं। लाओत्से कहता है, जरा खोजो, शायद खोजने से भ्रांतियों से चित्त हट जाए, शायद खोजते-खोजते अचानक तुम करीब आ जाओ और उदघाटन हो जाए।
चीनी कथा है कि एक सम्राट पागल हो गया। और अपने महल को छोड़ कर, महल के नीचे जो तलघरा था, कबाड़खाना था--फिजूल की चीजें, महल के काम की नहीं होती थीं, डाल दी जाती थीं--उसमें रहने लगा। पहले तो वजीरों ने समझा कि वह कोई साधना करता होगा। पहले-पहले पागल साधक मालूम पड़ते हैं और आखिर-आखिर में साधक पागल मालूम पड़ने लगते हैं। कोई साधना करता होगा, क्योंकि गुफा में नीचे चला जाता है।
लेकिन धीरे-धीरे उसने ऊपर आना बंद कर दिया। तब थोड़ा शक होना शुरू हुआ। फिर वह राज्य वगैरह की बात ही भूल गया। फिर वजीर कुछ पूछने भी जाते, तो वह सुनता रहता, वह कुछ जवाब भी न देता। फिर शक पैदा हुआ। फिर वह वहीं रहने लगा, महल में आना भी उसने बंद कर दिया। तब उसे लोग समझाने लगे कि तुम ऊपर चलो। तो वह कहता था, लेकिन महल तो यही है। ऊपर जाकर क्या करेंगे! क्या यह महल नहीं है? तो वजीर इसका भी उत्तर नहीं दे पाते थे सीधा कि नहीं है; क्योंकि था तो वह भी महल ही, वह था तो महल का ही हिस्सा। तो जब वह सम्राट पूछता था कि मुझे कहो स्पष्ट कि क्या यह महल नहीं है? और अगर गलत बोले, तो गर्दन कटवा दूंगा। तो वे वजीर बड़ी मुश्किल में पड़ते थे; क्योंकि यह भी नहीं कह सकते थे कि यह महल नहीं है; था तो महल का ही हिस्सा। फिर भी महल बिलकुल नहीं था। कबाड़खाना था, कचराघर था।
परेशान हो गए। फिर गांव के एक फकीर को जाकर कहा कि कोई रास्ता खोजें--कोई रास्ता! क्योंकि सम्राट पूछता है, क्या यह महल नहीं है? और हम कुछ जवाब नहीं दे सकते। वह आदमी खतरनाक है, वह कहता है, गर्दन कटवा देंगे अगर गलत सिद्ध हुआ। और गलत सिद्ध हो सकता है, क्योंकि यह महल का ही हिस्सा है। है सिर्फ कचराघर। और वह उसी में रह रहा है। वह कहता है, यह भी महल है, तो दूसरे महल में जाने की क्या जरूरत है? उस फकीर ने कहा, मैं चलता हूं।
उस फकीर ने कहा कि क्या तुम समझते हो यह महल है? सम्राट से उसने पूछा कि क्या तुम समझते हो यह महल है? और अगर गलत बोले, तो ऐसा अभिशाप दूंगा कि यहीं श्वास बंद हो जाएगी। सम्राट ने चारों तरफ गौर से देखा कहने के पहले, सिवाय कचरा-कबाड़ के वहां कुछ भी नहीं था। उसको भी लगा कि इसको कैसे महल कहें? इसे महल कैसे कहें, यह महल है? और झूठ भी नहीं बोल सकते। और ऐसे तो यह भी महल का हिस्सा है। उसने फकीर से कहा कि तुमने मुझे मुश्किल में डाल दिया। फकीर ने कहा, हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, हम वही तर्क का उपयोग कर रहे हैं, जिससे तुम अपने वजीरों को मुश्किल में डालते रहे। अब तुम कृपा करके एक काम करो, यह महल है या नहीं, कुछ तय नहीं होता। क्योंकि वजीर जवाब नहीं दे पाते; तुम भी जवाब नहीं दे पाते। तुम मेरे साथ ऊपर आओ। हम उस पूरी जगह को देख लें, जिसके संबंध में दावा है महल होने का। फिर पीछे निर्णय कर लेंगे।
लाओत्से यही कह रहा है। वह यह नहीं कह रहा है कि केंद्र आपका कहां है, यह कोई तय करना है! वह तय ही है। लेकिन जरा आप नीचे उतर आओ और एक बार उस केंद्र को देख लो। फिर कुछ तय नहीं करना पड़ेगा कि केंद्र कहां है और क्या है। और यह नीचे उतर आना एक वापसी है, जस्ट ए कमिंग बैक, बैक टु होम। घर की तरफ वापसी है। तो लाओत्से कहता है, यह कोई साधना भी क्या है! अपने घर वापस लौट रहे हैं, जो सदा से अपना है। यह कोई क्रिया भी नहीं है।
लेकिन फिर भी आदमी जैसा है, जिस उलझन में है, वहां उसे किसी क्रिया के बहाने की जरूरत है। कोई बहाना उसे मिल जाए। वह फकीर बहाना बन गया। सम्राट ऊपर चला गया। और उसने फिर नीचे जाने से इनकार कर दिया। और उसने कहा कि सारी दुनिया उसे कहे कि महल है, अब मैं वहां वापस जाने को नहीं हूं। मैं भूल ही गया था कि महल ऊपर है; मैं भूल ही गया था।
सिर्फ विस्मरण है। सिर्फ विस्मरण है। एक मौका चाहिए स्मरण का। एक सुविधा चाहिए। उस सुविधा का नाम साधना है। वह नकारात्मक है।
आपको किसी मित्र का नाम याद नहीं आ रहा। आप सिर पचाए डाल रहे हैं, सिर ठोंक रहे हैं, माथा रगड़ रहे हैं, नाम याद नहीं आ रहा। मैं आपसे कहता हूं कि ऐसा करो, जरा इसे छोड़ो। मैं तुम्हें एक साधना बताता हूं, जिससे मित्र का नाम याद आ जाएगा। वह पूछता है, क्या साधना? तो मैं उससे कहता हूं, तुम जरा अपनी खुरपी उठा लो और जाकर बगीचे में थोड़ी मिट्टी खोदो। वह भी कहेगा कि आप पागल हो गए हैं, क्योंकि बगीचे में जाकर मिट्टी खोदने से और मित्र के नाम के याद आने का क्या संबंध है? मैं उससे कहता हूं, तुम फिक्र छोड़ो, तुम जाकर मिट्टी खोदो
वह मिट्टी खोदने लगता है--अचानक मित्र का नाम याद आ जाता है। क्या खुरपी और मिट्टी खोदने से मित्र का नाम याद आ गया? इज़ देयर एनी कॉजल लिंक? कोई कार्य-कारण का संबंध है?
नहीं, लेकिन फिर भी संबंध है। असल में, जब वह मिट्टी खोदने में लग गया, तो एक स्थिति पैदा हुई, जिसमें मन का तनाव चला गया। जब वह कोशिश कर रहा था कि नाम याद आए, तो वह इतना तन गया था, इतना संकरा हो गया था कि उसमें से नाम आ भी नहीं सकता था।
हम अनेक बार कहते हैं कि जीभ पर रखा हुआ है। अब जब जीभ पर ही रखा हुआ है, तो अब और क्या दिक्कत है, निकालिए! लेकिन आप कहते हैं, जीभ पर रखा हुआ है, और निकल नहीं रहा। आपकी जीभ पर रखा है या किसी और की जीभ पर रखा है? और आपको पक्का पता है; आप कहते हैं, मुझे पता है कि बिलकुल जीभ पर रखा हुआ है, याद आ रहा है। फिर भी क्या गड़बड़ हो रही है? इतने तन गए हैं आप, इतने तनाव से भर गए हैं कि चेतना का रूप बिलकुल संकरा हो गया है। उसमें से एक नाम भी नहीं निकल पा रहा। वह नाम रखा हुआ है, आपको बिलकुल उसकी धड़कन मालूम पड़ रही है, वह नाम आपको छू रहा है। आपको सब कुछ मालूम पड़ रहा है कि वह नाम यह रहा। लेकिन जरा सा, इंच भर का फासला आपके और उसके बीच में है। और उस बीच में आप इतने तन गए हैं कि जगह नहीं है। आपसे कहा, खुरपी लेकर बगीचे में लग जाओ। आप खुरपी में उलझ गए, बगीचे में उलझ गए। वह तनाव हट गया, वह जो बीच में ग्रंथि बन गई थी, वह हट गई। नाम ऊपर आ गया।
अब सवाल यह है कि खुरपी और मिट्टी खोदने से इस नाम के आने का कोई भी संबंध है? कोई भी संबंध नहीं है, कोई भी संबंध नहीं है। फिर भी संबंध है। और संबंध नकारात्मक है। मिट्टी खोदने ने सिर्फ आपके ध्यान को दूसरी तरफ हटा दिया। बस, आप भीतर शिथिल हो गए, शांत हो गए, विश्राम मिल गया। उस विश्राम में बबलिंग, भीतर का बबूला ऊपर आ गया। और नाम आपको याद आ गया।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि आपको सब पता रहता है जब तक आपसे कोई पूछे न। पूछा किसी ने कि सब गड़बड़ हो जाता है। इंटरव्यू के पहले, बाहर कतार में खड़ा हुआ वह जो आदमी इंटरव्यू देने आया है, उसको सब पता होता है। दरवाजे के भीतर पैर रखा कि सब खो जाता है। लौट कर जब वह दरवाजे के बाहर फिर पैर रखता है, वह कहता है, हद हो गई! यह इतने से दरवाजे में क्या हो जाता है? यह आदमी वही का वही है। इसकी बुद्धि को हो क्या जाता है?
असल में, बुद्धि इतनी तनाव से भर जाती है कि काम करने में असमर्थ हो जाती है, लोच खो जाती है, फ्लेक्सिबिलिटी खो जाती है, सोचने की क्षमता खो जाती है। बस अटक जाता है। वह जो अटकाव है, वह बाहरी नहीं है, भीतर की व्यवस्था का अटकाव है। इस व्यवस्था को तोड़ने के उपाय हैं। सब साधनाएं इस व्यवस्था को तोड़ने के उपाय हैं।
झेन फकीर अपने साधकों से कहते रहे हैं, जब भी कोई साधक आएगा, तो झेन फकीर उससे कहते हैं कि तू ब्रह्म और आत्मा की बात मत कर। कुछ दिन हम तुझसे जो कहते हैं, वह कर। लकड़ी फाड़, पानी भर कर ला, गङ्ढा खोद, खाना बना, गाय का दूध दुह, बगीचे की सम्हाल कर, खेती-बाड़ी कर। ब्रह्मज्ञान कुछ दिन बंद! और कई बार ऐसा होता है कि साल भर वह आदमी सिर्फ लकड़ी फाड़ता रहता है, पानी ढोता रहता है, जानवर चराने चला जाता है--साल भर! वह था किसी यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि लकड़ी काटनी पड़ेगी और घास छीलना पड़ेगा। लेकिन साल भर वह यह करता रहता है।
साल भर में वह जो प्रोफेसरपन था, वह जो पागलपन था, वह छिटक जाता है। लकड़ी काटते में अब क्या करेगा? प्रोफेसर हो भी कैसे सकता है आदमी लकड़ी काटता रहे! कोई जरूरत भी नहीं है; कोई इसमें कोई बुद्धिमानी की, कोई डिग्री की, कोई ज्ञान की कोई भी जरूरत नहीं है। लकड़ी ही काट रहा है। आरा चलता रहता है, लकड़ी भी कटती रहती है, प्रोफेसर भी कटता जाता है। लकड़ी भी गिरती जाती है, प्रोफेसर भी गिर जाता है। साल भर बाद वह निपट आदमी हो जाता है, सरल आदमी।
उसका गुरु उससे कहता है, अब तू पूछ! अब तू सुन सकेगा, समझ सकेगा; क्योंकि अब तू खुला है। अब तू एक खुले आकाश की भांति हो गया है। जब तू आया था, तू एक बंद घर था, जिसमें कोई द्वार-दरवाजे नहीं थे।
तो सारी साधना का उपाय, लाओत्से की नकारात्मक साधना का उपाय इतना ही है कि हम किस भांति उस अवस्था को पैदा कर लें, जिसमें हमारे भीतर जो ब्लाकिंग, जो जगह-जगह अटकाव खड़े हो गए हैं, वे टूट जाएं, वे बिखर जाएं--बस। समझ लें कि नदी की एक धार है और बर्फ जम गई है, और अब धार नहीं बहती। क्या करें? सुबह की थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़े, सूरज निकले, नई परिस्थिति हो, सूरज की धूप पड़े--धार पिघल जाए, फिर बहने लगे। हम भी बस फ्रोजन, कहीं-कहीं धार बिलकुल अटक गई है, रुक गई है। तो परिस्थिति बदलनी पड़े कि पिघल जाए धार और बह जाए! इसलिए परिस्थिति का परिवर्तन कभी बड़े अदभुत परिणाम लाता है, अदभुत परिणाम लाता है।
गुरजिएफ के पास एक लेखिका, कैथरिन मैंसफील्ड--बड़ी लेखिका, नोबल प्राइज विनर--वह साधना के लिए आई। अब नोबल प्राइज विनर लेखिका हो, तो जरा ढंग की, सोच-समझ कर साधना देनी चाहिए। पर गुरजिएफ जैसे लोग बिलकुल बेढंगे होते हैं। गुरजिएफ ने उससे कहा कि बस तू अब एक काम कर कि सामने जो सड़क है, उसको कूट! उसके गिट्टी-पत्थर निकल गए हैं, उनको बिलकुल जमा डाल! उसने सड़क देखी, उसके प्राण के छक्के छूट गए। लंबी सड़क थी। उसने पूछा कि यह कितने समय मुझे करना पड़ेगा? गुरजिएफ ने कहा, जब तक मैं आवाज न दूं, तब तक तू अपना जारी रखा कर। जब मैं आवाज दे दूं कि बस बंद, तो तू बंद कर दिया कर। और ध्यान रखना, अगर आधी रात सोते में भी मैं कहूं कि उठ और शुरू कर, तो फिर शुरू कर देना है! और उसने कहा कि यह कितने दिन में पूरी होगी? गुरजिएफ ने कहा, उसकी फिक्र मत कर, क्योंकि कई लोग इसको उखाड़ने की साधना में भी लगते हैं। इसकी तू फिक्र ही मत कर; यह सड़क कभी सुधरती नहीं। इसे इधर तू जमाती रहेगी, उधर दूसरा तेरे सामने ही उखाड़ता रहेगा।
और जब दूसरे दिन वह सुबह साधना में लगी, तो हैरान हो गई--वह जमा नहीं पाती है कि दूसरे उसको उखाड़ रहे हैं! वह सड़क वैसी की वैसी है। पसीना-पसीना हो जाती है। कई बार देखती है कि गुरजिएफ उसको आवाज दे। मगर वह अपना मजे से बैठा हुआ सिगरेट पीता रहता है। वहीं बैठ हुआ है आरामकुर्सी पर और अपना धुआं उड़ा रहा है। और उसका पसीना-पसीना चू रहा है, कभी उसने जिंदगी में पत्थर नहीं कूटे, कभी सड़क नहीं बनाई। हाथ में फफोले आ गए हैं, लहूलुहान हुई जा रही है। कई बार वह आवाज निकालती है कि शायद उसकी आह सुन ले। मगर वह अपना धुआं उड़ाता चला जाता है। वह उसकी तरफ भी नहीं देखता कि वह वहां है भी। वह अपने हाथ देखती है, आह करती है, कि किसी तरह हाथ देख ले, कि फफोले पड़ गए। वह देखता ही नहीं उसकी तरफ। सांझ हो गई, सूरज ढलने लगा। और वह है कि बैठा हुआ है; और वह अपना कर रही है।
कोई आठ बजे उसने आवाज दी कि बस मैंसफील्ड! वह आई अंदर, तो आशा रखती है कि वह कहेगा: बहुत मेहनत की, पसीने-पसीने डूब गई, हाथ में खून आ गया है! लेकिन वह कुछ नहीं बोलता। वह कुछ बोलता ही नहीं। और रात दो बजे जाकर उसको फिर बिस्तर से उठा देता है कि वापस काम पर चलो! मैंसफील्ड कहती है कि मैं कितने दिन टिक पाऊंगी! यहां जिंदा रहना मुश्किल मालूम पड़ता है। गुरजिएफ ने कहा कि तुझे मिटाने का ही हम उपाय कर रहे हैं। और अगर तू राजी रही, तो तू तो मिट जाएगी, लेकिन उसको जान लेगी जो कभी नहीं मिटता है।
और तीन महीने बाद जब मैंसफील्ड लौटी, तो उसने वक्तव्य दिया कि वह आदमी अजीब है। उसने मेरा सब पुराना नष्ट कर दिया। मैं बिलकुल नई होकर लौटी हूं। और उसकी बड़ी कृपा थी, क्योंकि मैं सोचती थी कि शायद वह मुझे कुछ अपनी किताबों के काम में लगाएगा, कुछ साहित्य के काम में लगाएगा। अगर उसने मुझे साहित्य और किताब के काम में लगाया होता, तो मैं, मैं की मैं वापस लौट आती। उसने मुझे ऐसे विपरीत काम में डाल दिया कि मेरा सब नोबल प्राइज, और मेरी सारी प्रतिष्ठा, और सारी इज्जत, सब मिट्टी में मिल गई।
तीन महीने वह सड़क ही कूट रही थी--और उस सड़क को, जिसको वह सुबह पाएगी कि सब उखड़ी पड़ी है, फिर वहीं से काम शुरू कर देना है। बड़ा निराशाजनक काम था। सफलता तो मिल ही नहीं सकती थी उसमें। सड़क कभी पूरी हो नहीं सकती थी। लेकिन बिलकुल विपरीत था और चित्त को तोड़ने में सहयोगी था। तीन महीने में वह भूल गई। तीन महीने में वह भूल गई; तीन महीने बाद उसने लिखा है कि उसी रास्ते से लोग गुजरते थे; जिस दिन पहले दिन मैं सड़क खोद रही थी, तो मुझे पता था कि मैं नोबल प्राइज विनर लेखिका हूं; तीन महीने बाद लोग वहां से गुजरते थे, मुझे यह भी पता नहीं था कि मैं कौन हूं। मैं राजी हो गई थी कि मैं एक सड़क पर गिट्टी जमाने वाली औरत हूं, और कुछ भी नहीं हूं। और उसने मेरे सारे अहंकार को पिघला दिया।
तो सवाल कुल इतना है कि कैसे हमारे भीतर जो इकट्ठा हो जाता है, वह पिघल जाए; और हम तरल हो जाएं, लिक्विड हो जाएं, फिर बहने में समर्थ हो जाएं।

एक दोत्तीन छोटे-छोटे सवाल हैं। एक मित्र ने पूछा है कि लाओत्से के हिसाब से भलाई और बुराई रात-दिन की तरह जगत में हैं; और परमात्मा ने आदमी को स्वतंत्र बनाया, इसलिए वह बुरा भी कर सकता है, भला भी कर सकता है। लेकिन उन्होंने पूछा है कि प्रकृति क्यों बुराई कर रही है? नदी में बाढ़ आ जाती है, निर्दोष लोग डूब कर मर जाते हैं। या आग लग जाती है; या कुछ हो जाता है।

मारी कठिनाई यह है कि बुराई को हम स्वीकार नहीं कर पाते कि वह भलाई के साथ अनिवार्य है। और उसी नदी के किनारे जब बाढ़ नहीं आती और खेतों में गेहूं फलते हैं, तब? और जब उसी आग पर रोटी सिंकती है, तब? और जब उसी आग से मकान जल जाता है, तब हम कहते हैं, यह बुराई प्रकृति क्यों कर रही है? लेकिन आपको पता है कि अगर प्रकृति ऐसा इंतजाम कर दे कि आग जला न सके, तो आग से जो भलाई होती है, वह भी नहीं हो सकेगी। और प्रकृति ऐसा इंतजाम कर दे कि नदी में पानी न आए, तो फिर ठीक है, फिर भलाई भी नहीं होगी, बुराई भी नहीं होगी।
हमारी कठिनाई यह है कि हम अपने को जगत के केंद्र में रख कर सोचते हैं कि हमारे हित में जो हो रहा है, वह भलाई; और हमारे अहित में जो हो रहा है, वह बुराई। लेकिन हम यह नहीं सोचते कि जिस कारण से हित हो रहा है, उसी कारण से अहित होता है। और कारण को अगर हटाना है, तो दोनों चीजें बंद हो जाएंगी। नदी में पानी न बहे, तो कभी बाढ़ न आएगी; और आग ठंडी हो जाए, तो कभी कोई मकान नहीं जलेगा। बिलकुल ठीक है। लेकिन तब आपको पता है, पूरी जिंदगी ठंडी हो जाएगी आग के ठंडे होने के साथ ही। दोनों चीजें एक साथ घटित होती हैं, एक बात। इसलिए जब भी हम किसी चीज को स्वीकार करते हैं, तब हमें उसके बुराई के हिस्से को भी स्वीकार कर ही लेना चाहिए। जो नहीं करता, वह अप्रौढ़ है, बचकाना है।
जब मैं किसी को प्रेम करता हूं, तो मुझे जान ही लेना चाहिए कि प्रेम टूट भी सकता है। टूटेगा ही। जो जुड़ता है, वह टूटता है। जो बनता है, वह मिटता है। जब मैं एक बेटे को जन्म देता हूं और बैंड-बाजे बजाता हूं, तो मुझे घर में अरथी भी तैयार कर लेनी चाहिए। क्योंकि कल अरथी भी उठेगी ही; जो जन्मता है, वह मरता है। लेकिन जिसने बैंड-बाजे खूब बजाए और अरथी को बिलकुल भूल गया, वह छाती पीट कर कल रोएगा कि बड़ी बुराई हो रही है जगत में--आदमी मरता क्यों है? वह कभी नहीं पूछता कि आदमी जन्मता क्यों है? जन्मने को हम बिलकुल स्वीकार किए बैठे हैं और मरने की बड़ी तकलीफ उठा रहे हैं।
अब यह भी इनको बुराई क्यों मालूम पड़ती है मित्र को कि नदी आ जाती है, निर्दोष लोग मर जाते हैं। इनका मतलब यह है कि दोषी मरें, तो चलेगा। दोषी कौन है? दोषी कौन है, जिसने आपकी पार्टी को वोट नहीं दिया? कि जो आपकी मस्जिद में नहीं आता? कि जो आपके मंदिर का भक्त नहीं है? कि जो गीता नहीं पढ़ता? कौन आदमी दोषी है? वह आदमी जो शराब पीता है? आपने ठेका लिया है कि कौन आदमी क्या पीए? आप निर्णायक हैं? कौन आदमी दोषी है? और कौन तय करेगा? दोषी मर जाएं, तो चलेगा। मगर आप उसी गांव में पूछें कि दोषी कौन है, तो करीब-करीब पूरा गांव दोषी होगा--अलग-अलग लोगों से पूछना पड़ेगा--पूरा गांव दोषी सिद्ध होगा। अगर एक ही आदमी के हाथ में निर्णय न दें और पूरे गांव से पता लगा लें, तो एक भी आदमी बचने योग्य नहीं मिलेगा। पूरा गांव तय हो जाएगा कि--कोई किसी के लिए तय होगा, कोई किसी के लिए तय होगा--लेकिन पूरा गांव मरेगा।
दोषी कौन है और निर्दोष कौन है? किसको निर्दोष कहते हैं आप? क्या मापदंड है आपके पास तौलने का कि यह आदमी जो मर गया, यह निर्दोष था?
और अगर कोई रास्ता भी हो जानने का कि कौन दोषी है और निर्दोष कौन है, यह आपको कैसे पता चलता है कि मरना एक बुराई है? यह कैसे आपको पता चलता है? देख कर तो ऐसा लगता है कि सब बुराइयां जीवन में घटित होती हैं। मरने में तो कोई बुराई घटित होती देखी नहीं जाती। किसी मरे आदमी को कोई बुराई करते देखा है? अगर बुराई है, तो जिंदगी बुराई होगी। मौत ने तो अब तक कोई बुरा नहीं किया। मौत ने कोई बुरा किया है आज तक?
लेकिन जिंदगी से हमारा मोह भारी है। इसलिए हम कहते हैं मौत बड़ी बुरी चीज है। यह मौत की बुराई हम नहीं बताते, हमारी जिंदगी का मोह बताते हैं। यह खबर इस बात की है कि हम जीना चाहते हैं, बस। जीना हमारा ऐसा पागल भाव है कि मौत भर नहीं होनी चाहिए। तो हम सड़ते रहें, गलते रहें, तो भी हम जीना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते। सड़ा हुआ जीवन भी हम पसंद करेंगे स्वस्थ मौत की बजाय। क्यों? क्योंकि बस मौत बुराई है, मौत बुरी है। उसमें हम...। क्या, ऐसा क्या बुरा है? मौत ने आपको कभी सताया है, याद है? मौत ने आपको कौन सी तकलीफ दी है आज तक, पता है? जिंदगी में सब बीमारियां घटती हैं। मौत के बाद कोई बीमारी भी नहीं घटती। जिंदगी में सब उपद्रव होते हैं--मुकदमे चलते हैं, अदालतें होती हैं, चोरी होती हैं, दंगे-फसाद होते हैं, हिंदू-मुस्लिम दंगे होते हैं--यह सब होता है। मौत तो परम शांति है। फिर मौत से इतनी घबड़ाहट क्या है आपको?
जो मर गए, वे नुकसान में पड़े, इसका आपको पक्का पता है? कभी मुर्दा लोगों ने कहा है कि हम नुकसान में पड़े, तुम बड़े फायदे में हो? कौन जाने, मुर्दे सोचते हों कि ये बेचारे निर्दोष लोग बच गए और नदी में नहीं बह गए! कई निर्दोष बच गए। इन्होंने क्या बिगाड़ा था कि परमात्मा ने इनको न मारा?
यह सब दृष्टिकोण की बात है, दृष्टिकोण की बात है। और अपनी दृष्टि को जो भी अस्तित्व पर थोपेगा, वह नासमझ है। अस्तित्व आपकी दृष्टियों की फिक्र नहीं करता। आप जिस सागर में एक छोटी सी लहर हैं, आप उस पूरे सागर के संबंध में जब भी निर्णय थोपने जाते हैं, तभी नासमझी करते हैं। इसलिए ज्ञानी वह है, जो अस्तित्व के बाबत निर्णय नहीं करता। जीता है, बिना किसी निर्णय के, बिना किसी वक्तव्य के, बिना किसी भाव के। मौत है, तो मौत को देख लेता है; जीवन है, तो जीवन को देख लेता है। जानता है कि जीवन भी एक रहस्य है और मौत भी एक रहस्य है, और निर्णायक कोई भी नहीं है। इसीलिए तो जीवन एक मिस्ट्री है कि निर्णायक कोई भी नहीं है।
क्या है बुरा? क्या है भला? इतना आसान अगर होता, जितना हम सोचते हैं और जैसा हम दिन-रात कहे चले जाते हैं। हम सिर्फ अपने अज्ञान को जाहिर करते हैं। हम छोटी सी बात में कह देते हैं कि यह बुराई है, यह भलाई है। और बुराई और भलाई क्या है, अब तक निर्णीत नहीं है। अब तक निर्णीत नहीं है और कभी निर्णीत नहीं होगी।
इसका यह मतलब नहीं है कि मैं आपसे कह रहा हूं कि जो मौज में आए, करें; क्योंकि कुछ निर्णीत नहीं है। तो जाएं, दो-चार आदमियों की हत्या कर दें; क्योंकि पता नहीं भला कर रहे हों। यह मैं आपसे नहीं कह रहा हूं। अगर आपको यह भाव समझ में आ जाए, यह गहन बोध आपके भीतर उतर आए कि निर्णायक हम नहीं हैं, तो आप हत्या तो कर ही नहीं सकेंगे। क्योंकि हत्या तो निर्णय से होती है। हम मान लेते हैं कि यह आदमी बुरा है, मार डालो। इसलिए जिसको हम जितना बुरा मान लेते हैं, उतना ही मारने में आसानी हो जाती है।
इसलिए अदालतें जितने मजे से मारती हैं, उतना कोई नहीं मार सकता। क्योंकि अदालतें बिलकुल निर्णीत हैं कि यह आदमी बुरा है। उन्होंने तीन साल मुकदमा चलाया, सब एवीडेंस इकट्ठे कर लिए, सब तय हो गया मामला। इसलिए मजिस्ट्रेट जितनी आसानी से हत्या करता है, उतनी इस दुनिया में कोई हत्यारा भी नहीं कर सकता। क्योंकि मजिस्ट्रेट के पक्ष में निर्णय पूरा है; साबित हो गया कि यह आदमी बुरा है।
अभी परमात्मा इस आदमी को जिंदा रखे जा रहा था, अभी उसके सामने भी साबित नहीं था कि यह आदमी बुरा है। लेकिन एक आदमी ने एक मंच पर बैठ कर, काला चोगा पहन कर और दस-पांच और अपने ही जैसे नासमझों की कतार खड़ी करके एक फैसला तय कर लिया कि यह आदमी बुरा है। यह आदमी खतम हो गया, यह मार डाला जाएगा। और इस आदमी की बुराई क्या थी? हो सकता है इसकी बुराई यह थी कि कहा जाता है कि इसने किसी की हत्या की है।
अब यह बड़े मजे की बात है। इसने किसी की हत्या की है, इसलिए यह आदमी बुरा हो गया, इसलिए हम इसकी हत्या करने के हकदार हो गए। लेकिन अदालत आसानी से हत्या कर सकती है, क्योंकि अदालत के हाथ में ज्यादा ताकत है, राज्य की ताकत है। और मजिस्ट्रेट मजे से रात जाकर सो जाएगा निश्चिंत, क्योंकि उसे ऐसा नहीं लगता कि वह जिम्मेवार है। जहां कोई भी जिम्मेवार नहीं होता, वहां हम कुछ भी कर सकते हैं। क्योंकि गैर-जिम्मेवारी सबसे बड़ा उपद्रव है। एक मजिस्ट्रेट बिलकुल गैर-जिम्मेवार है। वह कहता है, कानून की किताब यह कहती है, बयान यह कहते हैं, गवाह यह कहते हैं, मामला तय हो गया। मैं तो कुछ हूं नहीं, मैं तो सिर्फ बीच का हिसाब लगाने वाला हूं। मैंने हिसाब लगा कर बता दिया कि दो और दो चार होते हैं। इस आदमी की फांसी होनी चाहिए। वह बाहर है। वह घर जाकर सांझ गीत गाएगा, रेडियो सुनेगा, ताश खेलेगा, खाने पर मित्रों को बुलाएगा, गपशप करेगा, रात प्रेम करेगा, सो जाएगा। वह सब करेगा। उसे बिलकुल कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वह जिम्मेवार नहीं है।
वादलेयर ने कहा है कि जब कोई आदमी पक्के भलाई के हिसाब से बुराई करता है, तो उससे बड़ी बुराई कभी भी नहीं होती। तो अगर आपको कोई सच में ही बड़ी बुराई करनी हो, तो पहले आपको सब हिसाब जुटा लेना चाहिए भलाई सिद्ध करने के। फिर आप बुराई कर सकते हैं। फिर कोई कठिनाई नहीं होती।
इस दुनिया में सब युद्ध ऐसे होते हैं, सब राजनीति ऐसी होती है। पहले सिद्ध कर लेना होता है कि यह बुराई है, फिर आप काटिए मजे से, फिर कोई कठिनाई नहीं होती। फिर किसी को भी काटिए। और फिर मजा यह है कि जिसको आपने काटा है, कल वह आपको काटना शुरू करेगा, तब उसको भी कोई बुराई नहीं दिखती। तब कोई बुराई नहीं दिखती। एक दफा तय हमने कर लिया कि यह भलाई है, फिर हमें स्वतंत्रता मिल जाती है।
पर मैं यह कहता हूं कि धार्मिक आदमी तय ही नहीं करता। वह कहता है कि हम असहाय हैं और हम अज्ञान में हैं। और जगत इतना विराट है कि हम क्या तय करें कि क्या भला है और क्या बुरा है! इस निर्णय को ही नहीं करता। और तब ऐसा व्यक्ति एक गहन संतत्व को उपलब्ध होता है। जिसमें कोई कंडेमनेशन, कोई निंदा, कोई प्रशंसा, दोनों ही नहीं होतीं। ऐसा व्यक्ति एकदम बालवत, लाओत्से ने कहा है, कमनीय, कोमल हो जाता है; बच्चे की भांति सरल हो जाता है।

जो जरूरी प्रश्न थे, वह मैंने आपसे बात कर ली। एक-दो प्रश्न छोड़ देने पड़े हैं, क्योंकि वे सीधे संबंधित नहीं हैं। तो जिन मित्रों के हैं, वे मुझसे अलग आकर बात कर लेंगे तो उचित होगा।

और एक प्रश्न ऐसा भी छोड़ना पड़ा है, जो संबंधित है, लेकिन बहुत बड़ा है। वह पुनर्जन्म के संबंध में है। उसे हम किसी अगली चर्चा में उठा सकेंगे।

अभी बैठेंगे, जाएंगे नहीं। पांच-सात-दस मिनट, आज अंतिम दिन है, तो जितने आनंद से कीर्तन में डूब सकें, डूब जाएं। और जिन मित्रों को सम्मिलित होना हो, वे भी यहां आ जाएं। और मंच पर जो लोग खड़े रहते हैं, वे खड़े न रहें। जिनको खड़े होना है, वे नीचे आ जाएं। मंच पर तो सिर्फ जो नाचें पूरी तरह, वही हों।


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