दिनांक
26 अगस्त, 1971;
प्रथम पर्युषण
व्याखानमाला,
पाटकर हाल,
बम्बई।
धम्म-सूत्र:
धम्मो
मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा
संजमो तवो।
देवा
वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया
मणो ।।
धर्म
सर्वश्रेष्ठ
मंगल है।
(कौन-सा धर्म?) अहिंसा, संयम
और तपरूप
धर्म। जिस
मनुष्य का मन
उक्त धर्म में
सदा संलग्न
रहता है, उसे
देवता भी
नमस्कार करते
हैं।
तप
के संबंध में, मनुष्य की
प्राण ऊर्जा
को रूपान्तरण
करने की प्रक्रिया
के संबंध में
और थोड़े-से
वैज्ञानिक
तथ्य समझ लेने
आवश्यक हैं।
धर्म भी
विज्ञान है, या कहें परम
विज्ञान है, सुप्रीम
साइंस है।
क्योंकि
विज्ञान केवल
पदार्थ का
स्पर्श कर
पाता है, धर्म
उस चैतन्य का
भी, जिसका
स्पर्श करना
असम्भव मालूम
पड़ता है। विज्ञान
केवल पदा र्थ को बदल
पाता है, नए
रूप दे पाता
है; धर्म
उस चेतना को
भी रूपान्तरित
करता है जिसे
देखा भी नहीं
जा सकता और
छुआ भी नहीं
जा सकता।
इसलिए परम
विज्ञान है।
विज्ञान
से अर्थ होता
है — टु नो दि हाउ। किसी
चीज को कैसे
किया जा सकता
है, इसे
जानना।
विज्ञान का
अर्थ होता है —
उस प्रक्रिया
को जानना, उस
पद्धति को
जानना, उस
व्यवस्था को
जानना जिससे
कुछ किया जा
सकता है।
बुद्ध कहते थे
कि सत्य का
अर्थ है — वह, जिससे कुछ
किया जा सके।
अगर सत्य इम्पोटेंट
है, नपुसंक
है, जिससे
कुछ न हो सके, सिर्फ
सिद्धान्त हो,
तो व्यर्थ
है। सत्य वही
है, जो कुछ
कर सके — कोई
बदलाहट, कोई
क्रांनित,
कोई
परिवर्तन। और
धर्म ऐसा ही
सत्य है।
इसलिए धर्म
चिंतन नहीं है,
विचार नहीं
है; धर्म
आमूल
रूपान्तरण है,
म्यूटेशन
है। तप धर्म
का, धर्म
के रूपान्तरण
की प्रक्रिया
का प्राथमिक
सूत्र है। तप
किन आधारों पर
खड़ा है, वह
हम समझ लें।
किन
प्रक्रियाओं
से आदमी को बदलता
है, वह हम
समझ लें।
सबसे
पहली बात इस
जगत में जो भी
हमें दिखाई
पड़ता है, वह
वैसा नहीं है
जैसा दिखाई
पड़ता है।
क्योंकि जो भी
दिखाई पड़ता है,
वह मालूम
होता है थिर
पदार्थ है, ठहरा हुआ, जमा हुआ
पदार्थ है।
लेकिन अब
विज्ञान कहता
है — इस जगत में
ठहरी हुई, जमी
हुई कोई भी
चीज नहीं है।
जो कुछ है, सभी
गत्यात्मक है,
डाइनैमिक
है। जिस
कुर्सी पर आप
बैठे हैं, वह
ठहरी हुई चीज
नहीं है; वह
पूरे समय नदी
के प्रवाह की
तरह
गत्यात्मक
है। जो दीवार
आपको चारों
तरफ दिखाई
पड़ती है, वह
दीवार ठोस
नहीं है।
विज्ञान कहता
है — अब ठोस
जैसी कोई चीज
जगत में नहीं
है। वह जो
दीवार चारों
तरफ खड़ी है, वह भी तरल और लिक्विड
है, बहाव
है। लेकिन
बहाव इतना तेज
है कि आपकी
आंखें उस बहाव
के बीच के
अन्तराल को, खाइयों को
नहीं पकड़
पातीं। जैसे
बिजली के पंखे
को हम जोर से
चला दें, इतने
जोर से चला
दें तो फिर आ प
उसकी पंखुड़ियों
को नहीं गिन
पाते। अगर
बहुत गति से
चलता हो तो
लगेगा कि एक
गोल वर्तुल ही
घूम रहा है पंखुङिँयां
नहीं। बीच की पंखुड़ियों
की जो खाली
जगह है, वह
दिखाई नहीं
पड़ती।
वैज्ञानिक
कहते हैं —
बिजली के पंखे
को इतनी तेजी
से चलाया जा
सकता है कि आप
अगर गोली मारें
तो बीच के
स्थान से नहीं
निकल सकेगी, खाली जगह से
नहीं निकल
सकेगी, पंखुड़ी को छेदकर
निकलेगी। और
इतने जोर से
भी चलाया जा
सकता है कि आप
अगर पंखे के, चलते पंखे
के ऊपर बैठ
जाएं तो आप
बीच के स्थान से
गिरेंगे
नहीं।
क्योंकि
गिरने में
जितना समय
लगता है, उतनी
देर में दूसरी
पंखुड़ी
आपके नीचे आ
जाएगी। तब—तब
पंखा ठोस
मालूम पड़ेगा,
चलता हुआ
मालूम नहीं
पड़ेगा।
अगर
गति अधिक हो
जाए तो चीजें
ठहरी हुई
मालूम पड़ती
हैं। अधिक गति
के कारण, ठहराव
के कारण नहीं।
जिस कुर्सी पर
आप बैठे हैं, उसकी गति
बहुत है। उसका
एक-एक परमाणु
उतनी ही गति
से दौड़ रहा है
अपने केंद्र
पर जितनी गति
से सूर्य की
किरण चलती हैं
— एक सैकंड में
एक लाख छियासी
हजार मील।
इतनी तीव्र
गति से चलने
की वजह से आप
गिर नहीं जाते
कुर्सी से, नहीं तो आप
कभी भी गिर
जाएं। तीव्र
गति आपको संभाले
हुए है।
फिर यह
गति भी
बहु-आयामी है, मल्टी-डायमैंशनल
है। जिस
कुर्सी पर आप
बैठे हैं उसकी
पहली गति तो
यह है कि उसके
परमाणु अपने
भीतर घूम रहे
हैं। हर
परमाणु अपने
न्यूक्लियस
पर, अपने केंद्रपर
चक्कर काट रहा
है। फिर
कुर्सी जिस
पृथ्वी पर रखी
है, वह
पृथ्वी अपनी
कील पर घूम
रही है। उसके
घूमने की वजह
से भी कुर्सी
में दूसरी गति
है। एक गति
कुर्सी की
आन्तरिक है कि
उसके परमाणु
घूम रहे हैं, दूसरी गति —
पृथ्वी अपनी
कील पर घूम
रही है इसलिए
कुर्सी भी
पूरे समय
पृथ्वी के साथ
घूम रही है।
तीसरी गति —
पृथ्वी अपनी
कील पर घूम
रही है और साथ
ही पूरे सूर्य
के चारों ओर
परिभ्रमण कर
रही है; घूमते
हुए अपनी कील
पर सूर्य का
चक्कर लगा रही
है। वह तीसरी
गति है।
कुर्सी में वह
गति भी काम कर
रही है। चौथी
गति — सूर्य
अपनी कील पर
घूम रहा है, और उसके साथ
उसका पूरा सौर
परिवार घूम
रहा है। और
पांचवी गति —
सूर्य, वैज्ञानिक
कहते हैं कि महासूर्य
का चक्कर लगा
रहा है। बड़ा
चक्कर है वह, कोई बीस करोड़
वर्ष में एक
चक्कर पूरा हो
पाता है। तो
वह पांचवीं
गति कुर्सी भी
कर रही है। और
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
छठवीं गति का
भी हमें आभास
मिलता है कि वह
जिस महासूर्य
का, यह
हमारा सूर्य
परिभ्रमण कर
रहा है; वह महासूर्य
भी ठहरा हुआ
नहीं है। वह
अपनी कील पर
घूम रहा है।
और सातवीं गति
का भी
वैज्ञानिक
अनुमान करते
हैं कि वह जिस
और महासूर्य
का, जो
अपनी कील पर
घूम रहा है, वह दूसरे
सौर परिवारों
से प्रतिक्षण
दूर हट रहा
है। कोई और महासूर्य
या कोई
महाशून्य
सातवीं गति का
इशारा करता
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं — ये
सात गतियां
पदार्थ की
हैं।
आदमी
में एक आठवीं
गति भी है, प्राण में, जीवन में एक
आठवीं गति भी
है। कुर्सी चल
नहीं सकती, जीवन चल
सकता है।
आठवीं गति
शुरू हो जाती
है। एक नौवीं
गति, धर्म
कहता है
मनुष्य में है
और वह यह है कि
आदमी चल भी
सकता है और
उसके भीतर जो
ऊर्जा है वह
नीचे की तरफ
जा सकती है या
ऊपर की तरफ जा
सकती है। उस
नौवीं गति से
ही तप का
संबंध है। आठ
गतियों तक
विज्ञान काम
कर लेता है, उस नौवीं
गति पर, दि
नाइन्थ, वह
जो परम गति है
चेतना के
ऊपर-नीचे जाने
की, उस पर
ही धर्म की सारी
प्रक्रिया
है।
मनुष्य
के भीतर जो
ऊर्जा है, वह नीचे या
ऊपर जा सकती
है। जब आप कामवासना
से भरे होते
हैं तो वह
ऊर्जा नीचे
जाती है; जब
आप आत्मा की
खोज से भरे
होते हैं तो
वह ऊर्जा ऊपर
की तरफ जाती
है। जब आप
जीवन से भरे
होते हैं तो
वह ऊर्जा भीतर
की तरफ जाती
है। और भीतर
और ऊपर धर्म
की दृष्टि में
एक ही दिशा के
नाम हैं। और
जब आप मरण से
भरते हैं, मृत्यु
निकट आती है
तो वह ऊर्जा
बाहर जाती है।
दस वर्षो पहले
तक, केवल
दस वर्षो पहले
तक वैज्ञानिक
इस बात के लिए
राजी नहीं थे
कि मृत्यु में
कोई ऊर्जा
मनुष्य के
बाहर जाती है,
लेकिन रूस
के डेविडोविच
किरलियान की
फोटोग्राफी
ने पूरी धारणा
को बदल दिया
है।
किरलियान
की बात मैंने
आपसे पीछे की
है। उस संबंध
में जो एक बात
आ ज काम की है
और आपसे कहनी
है। किरलियान
ने जीवित
व्यक्तियों
के चित्र लिए
हैं, तो उन
चित्रों में
शरीर के आसपास
ऊर्जा का वर्तुल,
इनर्जी
फील्ड
चित्रों में
आता है। हायर
सेंसिटिविटी
फोटोग्राफी
में, बहुत संवेदनशील
फोटोग्राफी
में आपके आसपास
ऊर्जा का एक
वर्तुल आता
है। लेकिन अगर
मरे आदमी
का, अभी
मर गए आदमी का
चित्र लेते
हैं तो वर्तुल
नहीं आता।
ऊर्जा के
गुच्छे आदमी
से दूर जाते
हुए, आते
हैं। ऊर्जा के
गुच्छे आदमी
से दूर हटते
हुए, भागते
हुए आते हैं।
और तीन दिन तक
मरे हुए आदमी
के शरीर से
ऊर्जा के
गुच्छे बाहर
निकलते रहते
हैं। पहले दिन
ज्यादा, दूसरे
दिन और कम, तीसरे
दिन और कम। जब
ऊर्जा के
गुच्छों का
बहिर्गमन
पूरी तरह
समाप्त हो
जाता है, तब
आदमी पूरी तरह
मरा।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि जब
तक ऊर्जा निकल
रही है तब तक
उसको
पुनरुज्जीवित
करने की कोई
विधि आज नहीं
कल खोजी जा
सकेगी।
मृत्यु
में ऊर्जा
आपके बाहर जा
रही है, लेकिन
शरीर का वजन
कम नहीं होता
है। निश्चित ही
कोई ऐसी ऊर्जा
है जिस पर
ग्रैविटेशन
का कोई असर
नहीं होता।
क्योंकि वजन
का एक ही अर्थ
होता है कि जमीन
में जो
गुरुत्वाकर्षण
है उसका
खिंचाव। आपका
जितना वजन है,
आप भूलकर यह
मत समझना कि
वह आपका वजन
है। वह जमीन
के खिंचाव का
वजन है। जमीन
जितनी ताकत से
आपको खींच रही
हो, उस
ताकत का माप
है। अगर आप
चांद पर
जाएंगे तो आपका
वजन चार गुना
कम हो जाएगा।
क्योंकि चांद
चार गुना कम
ग्रैविटेशन
रखता है। अगर
आप सौ पौंड
आपका वजन है
तो पच्चीस
पौंड चांद पर
रह जाएगा। इसे
आप ऐसा भी समझ
सकते हैं कि
अगर आप जमीन पर
छह फीट ऊंचे
कूद सकते हैं
तो चांद पर आप
जाकर चौबीस
फीट ऊंचे कूद
सकेंगे। और जब
अंतरिक्ष में
यात्री होता
है, अपने
यान में, कैप्सूल
में — तब उसका
कोई वजन नहीं
रहता, नो
वेट। क्योंकि
वहां कोई
ग्रैविटेशन
नहीं होता।
इसलिए यात्री
को पट्टों से
बांधकर उसकी कुर्सी
पर रखना पड़ता
है। अगर पट्टा
जरा छूट जाए
तो वह जैसे गैसभरा
गुब्बारा
जाकर ऊपर
टकराने लगे, ऐसा आदमी
टकराने लगेगा
क्योंकि
उसमें कोई वजन
नहीं है जो
उसे नीचे खींच
सके। वजन जो
है वह जमीन के
गुरुत्वाकर्षण
से है। लेकिन
किरलियान के
प्रयोगों ने
सिद्ध किया है
कि आदमी से ऊर्जा
तो निकलती है
लेकिन वजन कम
नहीं होता।
निश्चित ही उस
ऊर्जा पर जमीन
के गुरुत्वाकर्षण
का कोई प्रभाव
न पड़ता होगा।
योग के
लेविटेशन में
जमीन से शरीर
को उठाने के प्रयोग
में उसी ऊर्जा
का उपयोग है।
अभी एक
बहुत अदभुत
नृत्यकार था
पश्चिम में — निजिनसकी।
उसका नृत्य
असाधारण था, शायद पृथ्वी
पर वैसा
नृत्यकार
इसके पहले
नहीं था।
असाधारणता यह
थी कि वह अपने
नाच में जमीन
से इतने ऊपर
उठ जाता था
जितना कि
साधारणतया
उठना बहुत
मुश्किल है।
और इससे भी
ज्यादा
आश्चर्यजनक
यह था कि वह
ऊपर से जमीन
की तरफ आता था
तो इतने
स्लोली, इतने
धीमे आता था
कि जो बहुत
हैरानी की बात
है। क्योंकि
इतने धीमे
नहीं आया जा
सकता। जमीन का
जो खिंचाव है
वह उतने धीमे
आने की आज्ञा
नहीं देता। यह
उसका
चमत्कारपूर्ण
हिस्सा था।
उसने विवाह
किया , उसकी
पत्नी ने जब
उसका नृत्य
देखा तो वह
आश्चर्यचकित
हो गयी। वह
खुद भी नर्तकी
थी।
उसने
एक दिन निजिनसकी
को कहा — उसकी
पत्नी ने
आत्मकथा में
लिखा है, मैंने
एक दिन अपने
पति को कहा —
व्हाट ए शेम
दैट यू कैन
नाट सी
युअरसेल्फ
डांसिंग—कैसा
दुख कि तुम
अपने को नाचते
हुए नहीं देख
सकते। निजिनसकी
ने कहा — हू सैड,
आइ कैन नाट
सी। आइ डू
आलवेज सी। आइ
एम आलवेज आउट।
आइ मेक माइसेल्फ
डान्स फ्राम
दि आउटसाइड। निजिनसकी
ने कहा — मैं
देखता हूं सदा,
क्योंकि
मैं सदा बाहर
होता हूं और
मैं बाहर से
ही अपने को
नाच करवाता
हूं। और अगर
मैं बाहर नहीं
रहता हूं तो
मैं इतने ऊपर
नहीं जा पाता
हूं और अगर
मैं बाहर नहीं
रहता हूं तो
इतने धीमे जमीन
पर वापस नहीं
लौट पाता हूं।
जब मैं भीतर
होकर नाचता
हूं तो मुझ
में वजन होता
है, और जब
मैं बाहर होकर
नाचता हूं तो
उसमें वजन खो
जाता है।
योग
कहता है —
अनाहत चक्र जब
भी किसी
व्यक्ति का
सक्रिय हो जाए, तो जमीन का
गुरुत्वाकर्षण
उस पर प्रभाव
कम कर देता है
और विशेष
नृत्यों का प्रभाव
अनाहत चक्र पर
पड़ता है। अनायास
ही मालूम होता
है। निजिनसकी
ने
नाचते-नाचते
अनाहत चक्र को
सक्रिय कर
लिया। और
अनाहत चक्र की
दूसरी खूबी है
कि जिस
व्यक्ति का
अनाहत चक्र
सक्रिय हो जाए
वह आउट आफ बाडी
ऐक्सपीरिएंस,
शरीर के
बाहर के
अनुभवों में
उतर जाता है।
वह अपने शरीर
के बाहर खड़े
होकर देख पाता
है। लेकिन जब
आप शरीर के
बाहर होते हैं,
तब जो शरीर
के बाहर होता
है, वही
आपकी प्राण
ऊर्जा है। वही
वस्तुतः आप
हैं। वह जो
ऊर्जा है उसे
ही महावीर ने
जीवन-अग्नि
कहा है। और उस ऊर्जा
को जगाने को
ही वैदिक
संस्कृति ने
यज्ञ कहा है।
उस
ऊर्जा के जग
जाने पर जीवन
में एक नयी
ऊष्मा भर जाती
है। एक नया
उत्ताप, जो
बहुत शीतल है।
यही कठिनाई है
समझने की, एक
नया उत्ताप जो
बहुत शीतल है।
तो तपस्वी जितना
शीतल होता है
उतना कोई भी
नहीं होता।
यद्यपि हम उसे
कहते हैं
तपस्वी।
तपस्वी का
अर्थ हुआ कि वह
ताप से भरा
हुआ है। लेकिन
तप जितनी जग
जाती है यह
अग्नि, उतना
केंद्रशीतल
हो जाता है।
चारों ओर
शक्ति जग जाती
है, भीतर केंद्रपर
शीतलता आ जाती
है।
वैज्ञानिक
पहले सोचते थे
कि यह जो
सूर्य है हमारा, यह जलती हुई
अग्नि है, है ही, उबलती
हुई अग्नि।
लेकिन अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
सूर्य अपने केंद्रपर
बिलकुल शीतल
है, दि
कोल्डेस्ट
स्पाट इन दि युनिवर्स,
यह बहुत
हैरानी की बात
है। चारों ओर
अग्नि का इतना
वर्तुल है, सूर्य अपने केंद्रपर
सर्वाधिक
शीतल बिन्दु
है। और उसका
कारण अब खयाल में
आना शुरू हुआ
है। क्योंकि
जहां इतनी
अग्नि हो, उसको
संतुलित करने
के लिए इतनी
ही गहन शीतलता
केंद्रपर
होनी चाहिए, नहीं तो
संतुलन टूट
जाएगा।
ठीक
ऐसी ही घटना
तपस्वी के
जीवन में घटती
है। चारों ओर
ऊर्जा
उत्तप्त हो
जाती है, लेकिन
उस उत्तप्त
ऊर्जा को
संतुलित करने
के लिए केंद्रबिलकुल
शीतल हो जाता
है। इसलिए तप
से भरे
व्यक्ति से ज्यादा
शीतलता का
बिन्दु इस जगत
में दूसरा नहीं
है, सूर्य
भी नहीं। इस
जगत में
संतुलन
अनिवार्य है।
असंतुलन
चीजें बिखर
जाती हैं।
आपने
कभी गर्मी के
दिनों में उठ
गया बवंडर देखा
होगा, धूल
का। जब बवंडर
चला जाए तब आप
धूल के ऊपर
जाना या रेत
के पास जाना।
तो आप एक बात
देखेंगे कि
बवंडर चारों
तरफ था, बवंडर
के निशान
चारों तरफ बने
हैं, लेकिन
बीच में एक
बिन्दु है
जहां कोई
निशान नहीं
है। वहां
शून्य था। वह
बवंडर शून्य
की धुरी पर ही
घूम रहा था। बैलगाड़ी
चलती है, लेकिन
उसका चाक चलता
है, लेकिन
उसकी कील खड़ी
रहती है। अब
यह बहुत मजे की
बात है कि खड़ी
हुई कील पर
चलते हुए चाक
को सहारा है।
खड़ी हुई कील
पर, ठहरी
हुई कील पर, चलते हुए
चाक को चलना
पड़ता है। अगर
कील भी चल जाए
तो गाड़ी गिर
जाए। विपरीत
से संतुलन है।
जीवन का सूत्र
है — विपरीत से
संतुलन।
तो
तपस्वी की
चेष्टा यह है
कि वह इतनी
अग्नि पैदा कर
ले अपने चारों
ओर, ताकि उस
अग्नि के
अनुपात में
भीतर शीतलता
का बिन्दु
पैदा हो। वह
अपनी ओर इतनी
डाइनैमिक फोर्सज,
इतनी
गत्यात्मक
शक्ति को
जन्मा ले कि
भीतर शून्य का
बिन्दु
उपलब्ध हो
जाए। वह अपने
चारों ओर इतने
तीव्र
परिभ्रमण से
भर जाए ऊर्जा
के कि उसकी
कील ठहर जाए, खड़ी हो जाए।
उल्टा
दिखाई पड़नेवाला
यह क्रम है, इससे बड़ी
भूल हो जाती
है। इससे लगता
है कि तपस्वी
शायद ताप में
उत्सुक है।
तपस्वी
शीतलता में
उत्सुक है।
लेकिन शीतलता
को पैदा करने
की विधि अपने
चारों ओर ताप
को पैदा कर
लेना है। और
यह ताप बाह्रय
नहीं है। यह
अपने शरीर के
आसपास आग की
अंगीठी जला
लेने से नहीं
पैदा हो
जाएगा। यह ताप
आन्तरिक है।
इसलिए महावीर
ने, तपस्वी
अपने चारों
तरफ आग जलाए,
इसका निषेध
किया है।
क्योंकि वह
ताप बाह्रय
है। उससे
आंतरिक
शीतलता पैदा
नहीं होगी; ध्यान रहे
आन्तरिक ताप
होगा तो ही
आंतरिक शीतलता
पैदा होगी, बाह्र ताप होगा, तो बाह्रय
शीतलता पैदा
होगी। यात्रा
करनी है अन्तर
की तो बाहर के सबसटीटयूट्स
नहीं खोजने
चाहिए। वे
धोखे के हैं, खतरनाक हैं।
अन्तर
में क्या ताप
पैदा हो सकता
है? किरलियान
ने ऐसे लोगों
का अध्ययन
किया है, फोटोग्राफी
में जो सिर्फ
अपने ध्यान से
हाथ से लपटें
निकाल सकते
हैं। एक
व्यक्ति है
स्विस, जो
अपने हाथ में
पांच कैंडल का
बल्ब रखकर जला
सकता है, सिर्फ
ध्यान से।
सिर्फ वह
ध्यान करता है
भीतर कि उसकी
जीवन अग्नि
बहनी शुरू हो
गयी हा थ से और
थोड़ी ही देर
में बल्ब जल
जाता है।
पिछले
कोई पंद्रह
वर्ष पहले हालैंड
की एक अदालत
ने एक तलाक
स्वीकार
किया। और वह तलाक
इस बात से
स्वीकार किया
कि वह जो
स्त्री थी, उसके भीतर
कुछ दुर्घटना
घट गयी थी। वह
एक कार के
एक्सीडेंट
में गिर गयी, पत्नी। और
उसके बाद जो
भी उसको छुए
उसे बिजली के
शाक लगने शुरू
हो गए। उसके
पति ने कहा —
मैं मर जाऊंगा।
इसे छूना ही
असम्भव है।
यह
पहला तलाक है
क्योंकि इस
कारण से पहले
कभी कोई तलाक
नहीं हुआ था।
कानून में कोई
जगह न थी, क्योंकि
कानून ने कभी
सोचा न था।
लेकिन यह तलाक
स्वीकार करना
पड़ा। उस
स्त्री की
अन्तर-ऊर्जा
में कहीं
लीकेज पैदा हो
गया।
आपके
शरीर में भी ऋण
और धन विद्युत
ऊर्जा का
वर्तुल है।
उसमें कहीं से
भी टूट पैदा
हो जाए तो
आपके शरीर से
भी दूसरे को
शाक लगना शुरू
हो जाएगा। और
कभी कभी आपको
किसी अंग में
अचानक झटका
लगता है, वह
इसी आकस्मिक
लीकेज का कारण
है। आप
आकस्मिक कभी
आप रात लेटे
हैं और एकदम
झटका खा जाते
हैं। उसका और
कोई कारण नहीं
है। सोते वक्त
आपकी ऊर्जा को
शांत होना
चाहिए आपकी
निद्रा के साथ,
वह नहीं हो
पाती।
व्यवधान पैदा
हो जाता है।
शाक खा सकते
हैं आप।
यह जो
अन्तर-ऊर्जा
है, हिप्नोसिस
के प्रयोगों
ने इस पर बहुत
बड़ा काम किया
है। सम्मोहन
के द्वारा
आपकी
अन्तर-ऊर्जा
को कितना ही
घटाया और
बढ़ाया जा सकता
है। जो लोग आग
के अंगारों पर
चलते रहे हैं,
मुसलमान
फकीर, सूफी
फकीर या और
योगी — उनके
चलने का कुल कारण,
कुल रहस्य
इतना है कि वह
अपनी
अन्तर-ऊर्जा
को इतना जगा
लेते हैं कि
आग के अंगारे
की गर्मी उससे
कम पड़ती है।
अर कोई कारण
नहीं है। रिलेटिवली,
सापेक्ष
रूप से आपकी
गर्मी कम हो
जाती है इसलिए
अंगारे ठण्डे
मालूम पड़ते
हैं। उनके
शरीर की गर्मी,
अन्तर-ऊर्जा
का प्रवाह
इतना तीव्र
होता है कि उस
प्रवाह के
कारण बाहर की
गर्मी कम
मालूम होती
है।
गर्मी
का अनुभव
सापेक्ष है।
अगर आप अपने
दोनों हाथ एक हाथ
को बर्फ पर
रखकर ठण्डा कर
लें और अपने
एक हाथ को आग
की सिगड़ी
पर रखकर गर्म
कर लें। फिर
दोनों हाथ को
एक बाल्टी में
डाल दें, पानी
से भरी हुई, तो आपके
दोनों हाथ
अलग-अलग खबर
देंगे। एक हाथ
कहेगा — पानी
बहुत ठण्डा है;
एक हाथ
कहेगा — पानी
बहुत गर्म है।
जो हाथ ठण्डा
है वह कहेगा पानी
गर्म है, जो
हाथ गर्म है
वह कहेगा पानी
ठण्डा है। आप
बड़ी मुश्किल
में पड़ेंगे कि
वक्तव्य क्या
दें। अगर
अदालत में
गवाही देनी हो
कि पानी ठण्डा
है या गर्म? क्योंकि आप साधा रणतः
हमारे शरीर का
ताप एक होता
है, इसलिए
हम कह सकते
हैं पानी
ठण्डा है या
गर्म। एक हाथ
को गर्म कर
लें, एक को
ठण्डा, फिर
एक ही बाल्टी
में डाल दें।
आप मुश्किल
में पड़
जाएंगे। और
आपको महावीर
का वक्तव्य
देना पड़ेगा —
शायद पानी
गर्म है, शायद
पानी ठण्डा है—परहेप्स।
बायां हाथ
कहता है, ठण्डा
है, दायां
हाथ कहता है, गर्म है।
पानी क्या है
फिर? आपका
वक्तव्य
सापेक्ष है।
आप जो कह रहे
हैं, वह
वक्तव्य पानी
के संबंध में
नहीं, आपके
हाथ के संबंध
में है।
अगर
आपकी अन्तर-ऊर्जा
इतनी जग गयी, तो आप
अंगारे पर चल
सकते हैं और
अंगारे ठण्डे
मालूम
पड़ेंगे। पैर
पर फफोले नहीं
आएगे।
इससे -उल्टी
घटना हिप्नोसिस
में घट जाती
है। अगर मैं आपको
हिप्नोटाइज
करके बेहोश कर
दूं, जो कि
बड़ी सरल-सी
बात है, और
आपके हाथ पर
एक साधारण-सा कंकड़ रख
दूं और कहूं
कि अंगारा रखा
है, आपका
हाथ फौरन जल
जाएगा। आप कंकड़
को फेंककर चीख
मार देंगे।
यहां तक ठीक
है, आपके
हाथ पर फफोला
आ जाएगा। क्या,
हुआ क्या? जैसे ही
मैंने कहा कि
अंगारा रखा है,
आपके हाथ की
ऊर्जा घबराहट
में पीछे हट
गयी। रिलेटिव
गैप, जगह
हो गयी। खाली
जगह हो गयी, हाथ जल गया।
अंगारा नहीं
जलाता, आपकी
ऊर्जा हट जाती
है, इसलिए
आप जलते हैं।
अगर अंगारा भी
रखा जाए हिप्नोटाइज्ड
आदमी के हाथ
में, और
कहा जाए, ठण्डा
कंकड़ है —
नहीं जलाता
है। क्योंकि
हा थ की ऊर्जा
अपनी जगह खड़ी
रहती है।
इसका अर्थ
यह भी हुआ कि
ऊर्जा आपके
संकल्प से
हटती या घटती
या आ गे या
पीछे होती है।
कभी ऐसे छोटे-मोटे
प्रयोग करके
देखें, तो
आपके खयाल में
आसान हो
जाएगा।
थर्मामीटर से
अपना ता प नाप
लें। फिर
थर्मामीटर को
नीचे रख लें।
दस मिनट आंख
बन्द करके बैठ
जाएं और एक ही
भाव करें कि
तीव्र रूप से
गर्मी आपके
शरीर में पैदा
हो रही है —
सिर्फ भाव
करें। और दस
मिनट बाद आप
फिर थर्मामीटर
से नापें।
आप चकित हो
जाएंगे कि
आपने
थर्मामीटर के
पारे को और
ऊपर चढ़ने
के लिए बाध्य
कर दिया —
सिर्फ भाव से।
और अगर एक
डिग्री चढ़
सकता है थमार्मीटर
तो दस डिग्री
क्यों नहीं चढ़
सकता है। फिर
कोई कारण नहीं
है, फिर
आपके प्रयास
की बात है, फिर
आपके श्रम की
बा त है। और
अगर दस डिग्री
चढ़ सकता है तो
दस डिग्री उतर
क्यों नहीं
सकता है।
तिब्बत
में हजारों वर्षो
से साधक नग्न
बर्फ की शिलाओं
पर बैठा रहता
है; ध्यान
करने के लिए, घण्टों। कुल
कारण है कि वह
अपने आसपास, अपनी जीवन
ऊर्जा के
वर्तुल को सजग
कर देता है, भाव से।
तिब्बत
यूनिवर्सिटी,
ल्हासा
विश्वविद्यालय
अपने
चिकित्सकों
को, तिब्बतन
मैडिसिन में
जो लोग शिक्षा
पाते थे; उनको
तब तक डिग्री
नहीं देता था —
यह चीन के
आक्रमण के
पहले की बात
है — तब तक
डिग्री नहीं
देता था, जब
तक कि
चिकित्सक
बर्फ गिरती
रात में खड़ा
होकर अपने
शरीर से पसीना
न निकाल पाए।
तब तक डिग्री
नहीं देता था।
क्योंकि जिस
चिकित्सक का
अपनी
जीवन-ऊर्जा पर
इतना प्रभाव
नहीं है, वह
दूसरे की
जीवन-ऊर्जा को
क्या
प्रभावित करेगा।
शिक्षा पूरी
हो जाती थी, लेकिन
डिग्री तो तभी
मिलती थी। और
आप चकित होंगे
कि करीब-करीब
जो लोग भी
चिकित्सक हो
जाते थे, वे
सभी इसे करने
में समर्थ
होते थे। कोई
इस वर्ष, कोई
अगले वर्ष
किसी को छह
महीने लगता, किसी को सालभर।
और जो बहुत ही
अग्रणी हो
जाते थे, जिन्हें
पुरस्कार
मिलते थे, गोल्ड
मैडल मिलते थे
— वे, वे लोग
होते थे जो कि
रात में, बर्फ
गिरती रात में
एक बार नहीं, बीस-बीस बार
शरीर से पसीना
निकाल देते
थे। और हर बार
जब पसीना
निकलता तो ठण्डे
पानी से उनको
नहला दिया
जाता। वे फिर
दोबारा पसीना
निकाल देते, फिर तीसरी बार
पसीना निकाल
देते सिर्फ
खयाल से, सिर्फ
विचार से, सिर्फ
संकल्प से।
किरलियान
फोटोग्राफी
में जब कोई
व्यक्ति संकल्प
करता है ऊर्जा
का तो वर्तुल
बड़ा हो जाता है।
फोटोग्राफी
में वर्तुल
बड़ा आ जाता
है। जब आप
घृणा से भरे
होते हैं, जब आप क्रोध
से भरे होते
हैं तब आपके
शरीर से उसी
तरह की ऊर्जा
के गुच्छे
निकलते हैं, जैसे मृत्यु
में निकलते
हैं। जब आप
प्रेम से भरे
होते हैं तब
उल्टी घटना
घटती है। जब
आप करुणा से
भरे होते हैं
तब उल्टी घटती
है। इस विराट
ब्रह्म से
आपकी तरफ
ऊर्जा के
गुच्छे
प्रवेश करने
लगते हैं। अब
आप हैरान होंगे
यह बात जानकर
कि प्रेम में
आप कुछ पाते
हैं, क्रोध
में कुछ देते
हैं। आमतौर से
प्रेम में हमें
लगता है कि
कुछ हम देते
हैं और क्रोध
में लगता है, हम कुछ
छीनते हैं।
प्रेम में
हमें लगता है,
कुछ हम देते
हैं। लेकिन
ध्यान रहे, प्रेम में
आप पाते हैं।
करुणा में आप
पाते हैं, दया
में आप पाते
हैं। जीवन
ऊर्जा आपकी बढ़
जाती है इसलिए
क्रोध के बाद
आप थक जाते
हैं और करुणा
के बाद आप और
भी सशक्त, स्वच्छ,
ताजे हो
जाते हैं।
इसलिए करुणावान
कभी भी थकता
नहीं। क्रोधी
थका ही जीता
है।
किरलियान
फोटोग्राफी
के हिसाब से
मृत्यु में जो
घटना घटती है, वही छोटे
अंश में क्रोध
में घटती है।
बड़े अंश में
मृत्यु में
घटती है, बहुत
ऊर्जा बाहर
निकलने लगती
है। किरलियान
ने एक फूल का
चित्र लिया है
जो अभी डाली
से लगा है।
उसके चारों
तरफ ऊर्जा का
जीवंत वर्तुल
है और विराट
से, चारों
ओर से ऊर्जा
की किरणें फूल
में प्रवेश कर
रही हैं। ये
फोटोग्राफ अब
उपलब्ध हैं, देखे जा
सकते हैं। और
अब तो
किरलियान का
कैमरा भी तैयार
हो गया है, वह
भी जल्दी
उपलब्ध हो
जाएगा। उसने
फूल को डाली
से तोड़ लिया
फिर फोटो
लिया। तब
स्थिति बदल गई।
वे जो किरणें
प्रवेश कर रही
थीं वे वापस
लौट रही हैं।
एक सैकेंड
का फासला, डाली
से टूटा फूल। घंटेभर
में ऊर्जा
बिखरती चली
जाती है। जब
आपकी पंखुड़ियां
सुस्त होकर ढल
जाती हैं, वह
वही क्षण है
जब ऊर्जा
निकलने के
करीब पहुंचकर
पूरी शून्य
होने लगती है।
इस फूल
के साथ
किरलियान ने
और भी अनूठे
प्रयोग किए
जिससे बहुत
कुछ दृष्टि
मिलती है — तप
के लिए।
किरलियान ने
आधे फूल को
काटकर अलग कर
दिया। छह पंखुड़ियां
हैं तीन तोड़कर
फेंक दीं।
चित्र लिया है
तीन पंखुड़ियों
का, लेकिन
चकित हुआ — पंखुड़ियां
तो तीन रहीं, लेकिन फूल
के आसपास जो
वर्तुल था वह
अब भी पूरा
रहा, जैसा
कि छह पंखुड़ियों
के आसपास था।
छह पंखुड़ियों
के आसपास जो
वर्तुल, आभामंडल
था, ऑरा था;
तीन पंखुड़ियां
तोड़ दीं, वह
आभामंडल अब भी
पूरा रहा। दो पंखुड़ियां
उसने और तोड़
दीं, एक ही पंखुड़ी रह
गई। लेकिन आ भामंडल
पूरा रहा।
यद्यपि
तीव्रता से
विसर्जित
होने लगा, लेकिन
पूरा रहा।
इसीलिए, आप जब बेहोश
कर दिए जाते
हैं
अनस्थीसिया
से या
हिप्नोसिस से —
आपका हाथ काट
डाला जाए, आपको
पता नहीं
चलता। उसका
कुल कारण इतना
है कि आपका
वास्तविक
अनुभव अपने
शरीर का, ऊर्जा-शरीर
से है। वह हाथ
कट जाने पर भी
पूरा ही रहता
है। वह तो जब
आप जगेंगे और
हाथ कटा हुआ
देखेंगे तब
तकलीफ शुरू होगी।
अगर आपको गहरी
निद्रा में
मार भी डाला जाए
तो भी आपको तकलीफ
नहीं होगी।
क्योंकि गहरी
निंद्रा में,
सम्मोहन में
या
अनस्थीसिया
में आपका तादातमय
इस शरीर से
छूट जाता है
और आपके
ऊर्जा-शरीर से
ही रह जाता
है। आ पका अनुभव
पूरा ही बना
रहता है। अर
इसीलिए अगर आप
लंगड़े भी हो
गए हैं पैर से,
तब भी आपको
ऐसा नहीं लगता
कि आ पके भीतर
वस्तुतः कोई
चीज कम हो गयी
है। बाहर तो
तकलीफ हो जाती
है। अड़चन हो
जाती है लेकिन
भीतर नहीं
लगता है कि
कोई चीज कम हो
गयी है। आप
बूढ़े भी हो
जाते हैं तो भी
भीतर नहीं
लगता कि आपके
भीतर कोई चीज
बूढ़ी हो गई
है। क्योंकि
वह ऊर्जा-शरीर
है, वह
वैसा का वैसा
ही काम करता
रहता है।
अमरीकन
मनोवैज्ञानिक
और वैज्ञानिक डा्र
ग्रीन ने आदमी
के मस्तिषक
के बहुत से
हिस्से काटकर
देखे और वह
चकित हुआ।
मस्तिष्क के
हिस्से कट
जाने पर भी मन
के काम में
कोई बाधा नहीं
पड़ती। मन अपना
काम वैसा ही
जारी रखता है।
इससे ग्रीन ने
कहा कि यह
परिपूर्ण रूप
से सिद्ध हो
जाता है कि
मस्तिष्क
केवल उपकरण है, वास्तविक
मालिक कहीं
कोई पीछे है।
वह पूरा का पूरा
ही काम करता
रहता है। आपके
शरीर के आसपास
जो आभामंडल निर्मित
होता है, वह
इस शरीर का
रेडिएशन नहीं
है, इस
शरीर से
विकीर्णन
नहीं है, वरन
किरलियान ने
वक्तव्य दिया
है कि आन दि
कांट्रेरी
दिस बाडी ओनली
मिरर्स दि इनर
बाडी, वह
जो भीतर का
शरीर है, उसके
लिए यह सिर्फ
दर्पण की तरह
बाहर प्रगट कर
देती है। इस
शरीर के
द्वारा वे
किरणें नहीं
निकल रही हैं,
वे किरणें
किसी और शरीर
के द्वारा
निकल रही हैं।
इस शरीर से
केवल प्रगट
होती हैं।
जैसे
हमने एक दीया
जलाया हो, चारों तरफ
एक
ट्रांसपैरेंट
कांच का घेरा
लगा दिया हो, उस कांच के
घेरे के बाहर
हमें किरणों
का वर्तुल
दिखाई पड़ेगा।
हम शायद सोचें
कि वह कांच से
निकल रहा है
तो गलती है।
वह कांच से
निकल रहा है, लेकिन कांच
से आ नहीं रहा
है। वह आ रहा
है भीतर के
दीये से।
हमारे शरीर से
जो ऊर्जा
निकलती है वह
इस भौतिक शरीर
की ऊर्जा नहीं
है, क्योंकि
मरे हुए आदमी
के शरीर में
समस्त भौतिक
तत्व यही का
यही होता है, लेकिन ऊर्जा
का वर्तुल खो
जाता है। उस
ऊर्जा के
वर्तुल
को योग सूक्ष्म
शरीर कहता रहा
है। और तप के
लिए उस सूक्ष्म
शरीर पर ही
काम करने पड़ते
हैं। सारा काम
उस सूक्ष्म
शरीर पर है।
लेकिन
आमतौर से
जिन्हें हम
तपस्वी समझते
हैं, वे, वे
लोग हैं जो इस
भौतिक शरीर को
ही सताने
में लगे रहते
हैं। इससे कुछ
लेना-देना
नहीं है। असली
काम इस शरीर
के भीतर जो
दूसरा छिपा हुआ
शरीर है —
ऊर्जा-शरीर, इनर्जी-बाडी
— उस पर काम का
है। और योग ने
जिन चक्रों की
बात की है, वे
इस शरीर में
कहीं भी नहीं
हैं, वे उस
ऊर्जा शरीर
में हैं।
इसलिए
वैज्ञानिक जब
इस शरीर को
काटते हैं, फिजियोलाजिस्ट,
तो वे कहते
हैं —
तुम्हारे
चक्र कहीं
मिलते नहीं।
कहां है अनाहत,
कहां है
स्वाधिष्ठान,
कहां है मणिपुर
— कहीं कुछ
नहीं मिलता ।
पूरे शरीर को
काटकर देख
डालते हैं, वह चक्र
कहीं मिलते
नहीं। वे मिलेंगे
भी नहीं। वे
उस ऊर्जा-शरीर
के बिंदु हैं।
यद्यपि उन
ऊर्जा-शरीर के
बिन्दुओं को
करस्पांड
करने वाले, उनके ठीक
समतुल इस शरीर
में स्थान हैं
— लेकिन वे
चक्र नहीं
हैं।
जैसे, जब आप प्रेम
से भरते हैं
तो हृदय पर
हाथ रख लेते
हैं। जहां आप
हाथ रखे हुए
हैं, अगर
वैज्ञानिक
जांच-पड़ताल, काट-पीट
करेगा तो
सिवाय फेफड़े
के कुछ नहीं
है। हवा को
पंप करने का इन्तजा म
भर है वहां, और कुछ भी
नहीं है। उसी
से धड़कन चल
रही है। पम्पिंग
सिस्टम है।
इसको बदला जा
सकता है। अब
तो बदला जा
सकता है और
इसकी जगह पूरा
प्लास्टिक का
फेफड़ा रखा जा
सकता है। वह
भी इतना ही
काम करता है, बल्कि
वैज्ञानिक
कहते हैं, जल्दी
ही इससे बेहतर
काम करेगा।
क्योंकि न वह सड़ सकेगा, न गल सकेगा, कुछ भी
नहीं। लेकिन
एक मजे की बात
है कि प्लास्टिक
के फेफड़े में
भी हार्ट अटेक
होंगे, यह
बहुत मजे की
बात है।
प्लास्टिक के
फेफड़े में हार्ट
अटैक
नहीं होने
चाहिए, क्योंकि
प्लास्टिक और
हार्ट अटैक
का क्या संबंध
है! निश्चित
ही हार्ट अटैक
कहीं और गहरे
से आता होगा, नहीं तो
प्लास्टिक के
फेफड़े में
हार्ट अटैक
नहीं हो सकता।
प्लास्टिक का
फेफड़ा टूट जाए,
फूट जाए, लेकिन चोट
खा जाए, यह
सब हो सकता है —
लेकिन एक
प्रेमी मर जाए
और हार्ट अटैक
हो जाए, यह
नहीं हो सकता
क्योंकि
प्लास्टिक के
फेफड़े को क्या
पता चलेगा कि
प्रेमी मर गया
है। या मर भी
जाए तो
प्लास्टिक पर
उसका क्या
परिणाम हो सकता
है? कोई भी
परिणाम नहीं
हो सकता है।
अभी भी जो फेफड़ा
आ पका धड़क
रहा है उस पर
कोई परिणाम
नहीं होता।
उसके पीछे एक
दूसरे शरीर में
जो हृदय का
चक्र है, उस
पर परिणाम
होता है।
लेकिन उसका
परिणाम तत्काल
इस शरीर पर
मिरर होता है,
दर्पण की
तरह दिखाई
पड़ता है।
योगी
बहुत दिनों से
हृदय की धड़कन
को बन्द करने
में समर्थ रहे
हैं, फिर भी मर
नहीं जाते।
क्योंकि जीवन
का स्रोत कहीं
गहरे में है।
इसलिए हृदय की
धड़कन भी बन्द
हो जाती है, तो भी जीवन धड़कता
रहता है।
हालांकि पकड़ा
नहीं जा सकता।
फिर कोई यंत्र
नहीं पकड़ पाते
कि जीवन कहां धड़क रहा
है। यह शरीर
जो हमारा है, सिर्फ उपकरण
है। इस शरीर
के भीतर छिपा
हुआ और इस
शरीर के बाहर
भी चारों तरफ
इसे घेरे हुए
जो आभामंडल है,
वह हमा
रा वास्तविक
शरीर है। वही
हमारा तप-शरीर
है। उस पर जो केंद्रहै
उन पर ही काम
तप का, सारी
की सारी
पद्धति, टैक्नोलाजी,
तकनीक उन
शरीर के
बिंदुओं पर
काम करने की
है।
मैंने
आपसे पीछे कहा
कि चाइनीज
एक्युपंक्चर
की विधि मानती
है कि शरीर
में कोई सात
सौ बिन्दु हैं, जहां वह
ऊर्जा-शरीर इस
शरीर को
स्पर्श कर रहा
है — सात सौ
बिन्दु। आपने
कभी खयाल न
किया होगा, लेकिन खयाल
करना मजेदार
होगा। कभी बैठ
जाएं उघाड़े
होकर और किसी
को कहें कि
आपकी पीठ में
पीछे कई जगह
सुई चुभाएं।
आप बहुत चकित
होंगे, कुछ
जगह वह सुई चुभायी
जाएगी, आपको
पता नहीं चलेगा।
आपकी पीठ पर
ब्लाइंड स्पाट्स
हैं, जहां
सुई चुभाई
जाएगी, आपको
पता नहीं
चलेगा। और
आपकी पीठ पर
सेंसिटिव
स्पाट हैं, जहां सुई
जरा-सी चुभायी
जाएगी और आपको
पता चलेगा। एक्युपंक्चर
पांच हजार साल
पुरानी
चिकित्सा
विधि है। वह कहती
है — जिन
बिन्दुओं पर
सुई चुभाने से
पता नहीं चलता,
वहां आपका
ऊर्जा-शरीर
स्पर्श नहीं
कर रहा है। वह
डैड स्पाट है,
वहां से
आपका जो भीतर
का तपस्-शरीर
है वह स्पर्श
नहीं कर रहा
है, इसलिए
वहां पता कैसे
चलेगा!
पता तो
उसका चलता है
जो भीतर है।
संवेदनशील जगह
पर छुआ जाता
है, उसका
मतलब यह है कि
वहां से ऊर्जा
शरीर कांटैक्ट
में है। वहां
से वहां तक
चोट पहुंच
जाती है। जब
आपको
अनस्थीसिया
दे दिया जाता
है आपरेशन की टेबल
पर तो आपके
ऊर्जा शरीर का
और इस शरीर का
संबंध तोड़
दिया जाता है।
जब लोकल
अनस्थीसिया
दिया जाता है
कि मेरे हाथ
को भर
अनस्थीसिया
दे दिया गया
है कि मेरा
हाथ सो जाए, तो सिर्फ
मेरे हाथ के
जो बिन्दु हैं,
जिनसे मेरा
तपस्-शरीर
जुड़ा हुआ है, उनका संबंध
टूट जाता है।
फिर इस हाथ को
काटो-पीटो,
मुझे पता
नहीं चलता।
क्योंकि मुझे
तभी पता चल सकता
है जब मेरे
ऊर्जा-शरीर से
संबंध कुछ हो
अन्यथा मुझे
पता नहीं
चलता।
इसलिए
बहुत हैरानी
की घटना घटती
है, और आप भूल
ऐसी न करना।
कभी-कभी कुछ
लोग सोते हुए
मर जाते हैं।
आप कभी भी
सोते हुए मत
मरना। सोते
में जब कोई मर
जाता है तो
उसको कई दिन
लग जाते हैं
यह अनुभव करने
में कि मैं मर
गया। क्योंकि
गहरी नींद में
ऊर्जा-शरीर और
इस शरीर के
संबंध शिथिल
हो जाते हैं।
अगर कोई गहरी
नींद में एकदम
से मर जाता है
तो उसकी समझ
में नहीं आता
कि मैं मर
गया। क्योंकि
समझ में तो
तभी आ सकता है,
जब इस शरीर
से संबंध
टूटते हुए
अनुभव में
आएं। वह अनुभव
में नहीं आते
तो उसमें पता
नहीं चलता कि
मैं मर गया।
यह जो
सारी दुनिया
में हम शरीर
को गड़ाते
हैं या जलाते
हैं या कुछ
करते हैं
तत्काल, उसका
कुल कारण इतना
है, ताकि
वह जो
ऊर्जा-शरीर है
उसे यह अनुभव
में आ जाए कि
वह मर गया। इस
जगत से उसका
संबंध इस शरीर
के साथ इसको
नष्ट करता हुआ
वह देख ले कि
वह शरीर नष्ट
हो गया है, जिसको
मैं समझता था
कि यह मेरा
है। यह शरीर
को जलाने के
लिए मरघट और
कब्रिस्तान
और गड़ाने
के लिए सारा
इन्तजाम है, यह सिर्फ
सफाई का इंतजाम
नहीं है कि एक
आदमी मर गया —
तो उसको
समाप्त करना
ही पड़ेगा, नहीं
तो सड़ेगा,
गलेगा। इसके गहरे
में जो चिन्ता
है वह उस आदमी
की चेतना को
अनुभव कराने
की है कि यह
शरीर तेरा नहीं
है, तेरा
नहीं था। तू
अब तक इसको
अपना समझता
रहा है। अब हम
इसे जलाए
देते हैं, ताकि
पक्का तुझे
भरोसा हो जाए।
अगर हम
शरीर को
सुरक्षित रख
सकें, तो उस
चेतना को हो
सकता है, खयाल
ही न आए कि वह
मर गई है। वह
इस शरीर के
आसपास भटकती
रह सकती है।
उसके नए जन्म
में बाधा पड़ जाएगी,
क िठनाई
हो जाएगी। और
अगर उसे
भटकाना ही हो
इस शरीर के आसपास,
तो ईजिप्त
में जो ममीज
बनाई गई हैं, वे इसीलिए
बनायी गयी
थीं। शरीर को
इस तरह से ट्रीट
किया जाता था,
इस तरह के
रासायनिक
द्रव्यों से
निकाला जाता था
कि वह सड़े
न — इस आशा में
कि किसी दिन
पुनरुज्जीवन,
उस सम्राट
को फिर से
जीवन मिल
सकेगा। तो सात,
साढ़े सात हजारों
वर्ष पुराने
शरीर भी
सुरक्षित पिरामिडों
के नीचे पड़े
हैं। उस
सम्राट को
जिसके शरीर को
इस तरह रखा
जाता था, उसकी
पत्नियों को,
चाहे वे
जीवित ही
क्यों न हों, उनको भी
उसके साथ दफना
दिया जाता था।
एक दो नहीं, कभी-कभी
सौ-सौ पत्नियां
भी होती थीं।
उस सम्राट के
सारे, जिन-जिन
चीजों से उसे
प्रेम था, वे
सब उसकी ममी
के आसपास रख
दिए जाते थे, ताकि जब
उसका
पुनरुज्जीवन
हो तो वह
तत्काल पुराने
माहौल को पाए।
उसकी पत्नियां,
उसके कपड़े,
उसकी
गद्दियां, उसके
प्याले, उसकी
थालियां,
वह सब वहां
हों — ताकि
तत्काल रीहैबिलिटेड,
वह
पुनर्स्थापित
हो जाए अपने नए
जीवन में। इस
आशा में ममीज
खड़ी की गयी
थीं। और इसमें
कुछ आश्चर्य न
होगा कि जिनकी
ममीज रखी
हैं, उनका
पुनर्जन्म
होना बहुत
कठिन हो गया
है; या न हो
पाया हो; या
उनकी अनेक की
आत्माएं अपने पिरामिडों
के आसपास अब
भी भटकती हों।
हिन्दुओं
ने इस भूमि पर
प्राण-ऊर्जा
के संबंध में
सर्वाधिक
गहरे अनुभव
किए थे। इसलिए
हमने
सर्वाधिक
तीव्रता से
शरीर को नष्ट
करने के लिए
आग का इन्तजाम
किया, गड़ाने का भी नहीं।
क्योंकि गड़ाने
में भी छह
महीने लग
जाएंगे शरीर
को गलने
में, टूटने
में, मिलने
में मिट्टी
में। उतने छह
महीने तक आत्मा
को भटकाव हो
सकता है।
तत्काल जला
देने का
प्रयोग हमने किया।
वह सिर्फ
इसीलिए था
ताकि इस बीच, इसी क्षण
आत्मा को पता
चल जाए कि
शरीर नष्ट हो गया,
मैं मर गया
हूं। क्योंकि
जब तक यह
अनुभव में न आए
कि मैं मर गया
हूं, तब तक
नए जीवन की
खोज शुरू नहीं
होती। मर गया
हूं, तो नए
जीवन की खोज
पर आत्मा निकल
जाती है।
यह जो एक्युपंक्चर
ने सात सौ
बिन्दु कहे
हैं शरीर में —
रूस के एक
वैज्ञानिक एडामैंको
ने अभी एक
मशीन बनायी है
उस मशीन के
भीतर आपको खड़ा
कर देते हैं।
उस मशीन के
चारों तरफ
बल्ब लगे होते
हैं, हजारों
बल्ब लगे होते
हैं। आपको
मशीन के भीतर
खड़ा कर देते
हैं।
जहां-जहां से
आपका प्राण
शरीर बह रहा है,
वहां- वहां
का बल्ब जल
जाता है बाहर
। सात सौ बल्ब
जल जाते हैं
हजारों बल्बों
में, मशीन
के बाहर। वह
मशीन, आपकी
प्राण ऊर्जा
जहां-जहां
संवेदनशील है,
वहां-वहां
बल्ब को जला
देती है। तो
अब एडामैंको
की मशीन से
प्रत्येक
व्यक्ति के
संवेदनशील बिन्दुओं
का पता चल
सकता है।
लेकिन
योग ने सात सौ
की बात नहीं
की, सात
चक्रों की बात
की है। सात सौ
बिन्दुओं की! योग
की पकड़ एक्युपंक्चर
से ज्यादा
गहरी है।
क्योंकि योग
ने अनुभव किया
है कि एक-एक बिन्दुबिन्दु
परिधि पर है, केंद्र नहीं
है। सौ
बिन्दुओं का
एक केंद्र है।
सौ बिन्दु एक
चक्र के आसपास
निर्मित हैं। फिक्र
छोड़ दी, परिधि
की। उस केंद्र
को ही स्पर्श
कर लिया जाए, ये सौ
बिन्दु
स्पर्शित हो
जाते हैं।
इसलिए सात
चक्रों की बात
की — प्रत्येक
चक्र के आस पास
सौ बिन्दु
निर्मित होते
हैं इस शरीर
को छूने वाले।
इसलिए आपके
शरीर का समझ
लें उदाहरण के
लिए, और
आसान होगा, क्योंकि
हमारे अनुभव
की बात होती
है तो आसान हो
जाती है सैक्स
का एक सेंटर
है आपके पास, यौन का
चक्र। लेकिन
उस यौन चक्र
के सौ बिन्दु हैं
आपके शरीर
में। जहां-जहां
यौन चक्र का
बिन्दु है, वहां-वहां इरोटिक जोन हो
जाते हैं।
जैसे आपको कभी
खयाल में भी न
होगा कि जब आप
किसी के साथ
यौन संबंध में
रत होते हैं
तो आप शरीर के
किन्हीं-किन्हीं
अंगों को विशेष
रूप से छूने
लगते हैं। वह इरोटिक जोन है। वह
काम के बिन्दु
हैं शरीर पर
फैले हुए। और
कई बिन्दु तो
ऐसे हैं कि
आपको पता नहीं
होगा क्योंकि
आपके खयाल में
नहीं आएंगे।
लेकिन अलग-अलग
संस्कृतियों
ने अलग-अलग बिन्दुओं
का पता लगा
लिया है। अब
तो वैज्ञानिकों
ने सारे इरोटिक
प्वाइंट्स
खोज लिए हैं, शरीर में
कहां-कहां
हैं। जैसे
आपको खयाल में
नहीं होगा, आपके कान के
नीचे की जो
लम्बाई है, वह इरोटिक
है। वह बहुत
संवेदनशील
है। स्तन
जितने संवेदनशील
हैं, उतना
ही संवेदनशील
आपके कान का
हिस्सा है।
आपने कानफटे
साधुओं को
देखा होगा। कानफटे
साधुओं की बात
सुनी होगी, लेकिन कभी
खयाल में न
आया होगा कि
कान फाड़ने
से क्या मतलब
हो सकता है? कान फाड़कर
वे यौन के
बिन्दु को
प्रभावित
करने की कोशिश
में लगे हैं।
वह सेंसिटिव
है स्पाट, वह
जगह बहुत
संवेदनशील
है। आपने कभी
खयाल न किया
होगा कि
महावीर के कान
का नीचे का
लम्बा हिस्सा
कंधे को छूता
है। बुद्ध का
भी छूता है। जैनों
के चौबीस तीथर्करों
का छूता है। तीथर्कर
का वह एक
लक्षण समझा
जाता था कि
उसका कान का
हिस्सा इतना
लम्बा हो।
लेकिन कान का
हिस्सा इतना
लम्बा हो, उसका
अर्थ ही केवल
इतना होता है —
वह हो या न हो —
लम्बे हिस्से
का प्रतीक
सिर्फ इसलिए
है कि इस
व्यक्ति की
काम ऊर्जा
बहुत होगी, सेक्स
इनर्जी इस
व्यक्ति में
बहुत होगी। और
यही ऊर्जा
रूपांतरित
होनेवाली है,
कुंडलिनी
बनेगी। यही
ऊर्जा
रूपांतरित
होगी, ऊपर
जाएगी और तप
बनेगी। वह कान
की लम्बाई
सिर्फ प्रतीक
है, वह इरोटिक
जोन है।
वहां से आपके
काम की
संवेदनशीलता
पता चलती है।
आपके शरीर पर
बहुत से
बिन्दु हैं जो
काम के लिए
संवेदनशील
हैं। हर चक्र
के आसपास सौ
बिन्दु हैं
शरीर में।
आपके
शरीर में ऐसे
बिन्दु हैं
जिनके स्पर्श
से, जिनके
स्पर्श से, जिनकी मसाज
से आपकी
बुद्धि को
प्रभावित
किया जा सकता
है। क्योंकि
वे आपके
बुद्धि के
बिन्दु हैं।
आपके शरीर में
ऐसे बिन्दु
हैं जिनसे
आपके दूसरे
चक्रों को प्रभावित
किया जा सकता
है। समस्त योगासन
इन्हीं
बिन्दुओं को
दबाव डालने के
प्रयोग हैं।
और अलग-अलग
योगासन
अलग-अलग चक्र
को सक्रिय कर
देता है।
जहां-जहां
दबाव पड़ता है,
वहां-वहां
सक्रिय कर
देता है।
एक्युपंक्चर
ने तो बहुत ही
सरल विधि
निकाली है। वे
तो सुई से आ
पके
संवेदनशील
बिन्दु को
छेदते हैं।
छेदने से, सुई के
छेदने से वहां
की ऊर्जा
सक्रिय होकर
आगे बढ़ जाती
है। वे कहते
हैं — कोई भी
बीमारी वे एक्युपंक्चर
से ठीक कर
सकते हैं। और
अभी एक बहुत अदभुत
किताब
हिरोशिमा के
बाबत अभी
प्रकाशित हुई
है। और िजस आदमी
ने, जिस
अमरीकी
वैज्ञानिक ने
वह सारा शोध
किया है, वह
चकित हो गया
है। उसने कहा,
हमारे पास
एटम बम से
पैदा हुई रेडिएशंस
हैं, जो-जो
नुकसान होते
हैं उनको ठीक
करने के लिए कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन रेडिएशन
से परेशान
व्यक्ति को भी
एक्युपंक्चर
की सुई ठीक कर
देती है। एटम
से जो नुकसान
होते हैं
चारों तरफ के
वायुमण्डल
में उस नुकसान
को भी एक्युपंक्चर
की बिलकुल
साधारण-सी सुई
ठीक कर पाती
है।
क्या
होता है? जब
एटम गिरता है
तो इतनी ऊर्जा
पैदा होती है
बाहर कि वह
ऊर्जा आपके
शरीर की ऊर्जा
को बाहर खींच
लेती है। इतना
बड़ा
ग्रैविटेशन
होता है, एटम
की ऊर्जा का
कि आपकी तपस्-
शरीर की ऊर्जा
बाहर खिंच
जाती है। इसी
वजह से आप
दीन-हीन हो जाते
हैं। अगर पैर
की ऊर्जा बाहर
खिंच जाए तो
आप लंगड़े हो
जाते हैं। अगर
हृदय की ऊर्जा
बाहर खिंच जाए
तो आप तत्काल
गिरते हैं और
मर जाते हैं।
अगर मस्तिष्क
की ऊर्जा बाहर
खिंच जाए तो
आप ईडियट, जड़-बुद्धि
हो जाते हैं। एक्युपंक्चर,
इस खोज में
पता चला है कि
आपकी ऊर्जा की
गति को, आपकी
ऊर्जा के चक्र
को साधारण-सी
सुई के स्पर्श
से पुनः
सक्रिय कर
देता है।
योग-आसन
भी आपके शरीर
में
किन्हीं-किन्हीं
विशेष बिन्दुओं
पर दबाव डालने
के प्रयोग
हैं। निरंतर
दबाव से वहां
की ऊर्जा
सक्रिय हो
जाती है। और
विपरीत दबाव
से दूसरे केंद्रों
की ऊर्जा खींच
ली जाती है।
जैसे अगर आप
शीर्षासन
करते हैं तो
शीर्षासन का
अनिवार्य
परिणाम
कामवासना पर
पड़ता है।
क्योंकि
शीर्षासन में
आ पकी ऊर्जा
का प्रवाह
उल्टा हो जाता
है, सिर की
तरफ हो जाता
है। ध्यान रहे,
आपकी आदत
आपकी शक्ति को
नीचे की तरफ
बहाने की है।
जब आप उल्टे
खड़े हो जाते
हैं तब भी
पुरानी आदत के
हिसाब से आप
शक्ति को नीचे
की तरफ बहाते
हैं। लेकिन अब
वह नीचे की
तरफ नहीं बह
रही है, अब
वह सिर की तरफ
बह रही है।
शीर्षासन का
इतना मूल्य
सिर्फ इसीलिए
बन सका तपस्वियों
के लिए कि वह
काम ऊर्जा को
सिर की तरफ ले
जाने के लिए
सुगम है। आपकी
पुरानी आदत का
उपयोग है। आदत
है नीचे की
तरफ बहाने की,
खुद उल्टे
खड़े हो गए।
अभी भी नीचे
की तरफ बहाएंगे,
पुरानी आदत
के वश। लेकिन
अब नीचे की
तरफ का मतलब
ऊपर की तरफ हो
गया। बहेगी
नीचे की तरफ, पहुंचेगी ऊपर की तरफ।
ऊर्जा आपके
भीतर जो जीवन
ऊर्जा है उसको
तप जगाता है, शक्तिशाली
बनाता है, नए
मार्गो
पर प्रवाहित
करता है, नए
केंद्रों पर
संग्रहीत
करता है।
आज से
दो साल पहले चैकोस्लोवाकिया
की राजधानी
प्राहा के पास
एक सड़क पर एक
अनूठा प्रयोग
हुआ जिसे
देखने यूरोप
के अनेक
वैज्ञानिक
इकट्ठे थे। एक
आदमी है
बेटिस्लाव का*फका। इस
आदमी ने
सम्मोहन पर
गहन प्रयोग
किए। सम्भवतः
इस समय पृथ्वी
पर सम्मोहन के
संबंध में
सबसे बड़ा
जानकार है।
इसने अनेक लोग
तैयार किए, अनेक दिशाओं
के लिए। इसके
पास एक आदमी
है जो उड़ते
पक्षी को
सिर्फ आंख
उठाकर देखे, और आप उससे
कहें कि गिरा
दो, तो वह
पक्षी नीचे
गिर जाता है।
आकाश में उड़ता
हुआ पक्षी, वृक्ष पर
बैठा हुआ
पक्षी, आप
कहें, गिरा
दो — पच्चीस
पक्षी बैठे
हुए हैं, आप
कहें, इस
शाखा पर बैठा
हुआ यह सामने
नम्बर एक का
पक्षी है, इसे
गिरा दो, वह
आदमी एक क्षण
उसे देखता है,
वह पक्षी
नीचे गिर जाता
है। आप कहें, इसे
मारकर
गिरा दो, तो
वह पक्षी मरता
है और जमीन पर
मुर्दा होकर गिरता
है। दो साल
पहले प्राहा
की सड़क पर जब
यह प्रयोग हुआ, तो कोई दो सौ
वैज्ञानिक
पूरे यूरोप
महाद्वीप से
इकट्ठे थे, देखने को। सैकड़ों
पक्षी गिराकर
बताए गए। अब
पक्षियों को
समझाकर राजी
नहीं किया जा
सकता। न ही उस
आदमी ने अपनी
मर्जी के
पक्षी गिराए।
सड़क पर चलते
हुए वैज्ञानिकों
ने कहा कि इस
पक्षी को, तो
उस पक्षी को
गिरा दिया।
जिन्दा कहा तो
जिन्दा गिरा
दिया, मुर्दा
कहा तो मुर्दा
गिरा दिया।
उस
आदमी से पूछा
जाता है और
उसका जो
प्रधान है साथ
का, उससे
पूछा जाता है
कि क्या है
राज? तो वह
कहता है—हम
कुछ नहीं
करते। जैसा कि
वैक्यूम क्लीनर
होता है न
आपके घर में, धूल को सक-अप
कर लेता है, क्लीनर को
आप चलाते हैं
फर्श पर, धूल
को वह भीतर
खींच लेता है।
क्लीनर खाली
होता है और
खींचने का रुख
करता है—जैसे
कि आप जोर से
हवा को भीतर
खींच लें, सक
कर लें। जैसा
कि बच्चा दूध
पीता है मां
के स्तन से—सक करता
है, खींच
लेता है। तो
वह कहता है—हमने
इस आदमी को
इसी के लिए
तैयार किया है
कि उसकी प्राण
ऊर्जा को सक
कर ले, बस।
वह पक्षी बैठा
है, यह उस
पर ध्यान करता
है और
प्राण-ऊर्जा
को अपने भीतर खींचने
का संकल्प
करता है। अगर सिर्फ
इतना ही
संकल्प करता
है कि इतनी
प्राण ऊर्जा
मेरे तक आए कि
पक्षी बैठा न
रह जाए, गिर
जाए, तो
पक्षी गिरता
है। अगर यह
पूरी
प्राण-ऊर्जा को
खींच लेता है
तो पक्षी मर
जाता है। इसके
चित्र भी लिए
गए कि जब वह
सक-अप करता है,
पक्षी से
ऊर्जा के
गुच्छे उस
आदमी की तरफ
भागते हुए
चित्र में आए।
काफका
का कहना है कि
यह ऊर्जा हम
इकट्ठी भी कर
सकते हैं, और मरते हुए
आदमी को जैसे
आप आक्सीजन
देते हैं, किसी
न किसी दिन
प्राण ऊर्जा
भी दी जा
सकेगी। जब तक
आक्सीजन नहीं
दे सकते थे, तब तक आदमी आक्सीजन
की कमी से मर
जाता था। काफका
कहता है—बहुत
जल्दी
अस्पतालों
में हम
सिलिंडर रख
देंगे, जिनमें
प्राण-ऊर्जा
भरी होगी और मरनेवाले
आदमी को
प्राण-ऊर्जा
दे दी जाए।
उसकी ऊर्जा बाहर
निकल रही है, उसे दूसरी ऊर्जा दे दी
जाए तो वह कुछ
देर तक जीवित
रह सकता है, ज्यादा देर
भी जीवित रह
सकता है।
अमरीका
का एक
वैज्ञानिक था, जिसका मैंने
कल आपसे थोड़ा
उल्लेख किया,
और वह आदमी
था, विलेहम
रेक। आपने कभी
आकाश के पास
या समुद्र के
किनारे बैठकर
आकाश में देखा
हो तो आपको
कुछ आकृतियां
आंख में
ऊंची-नीची
उठती दिखाई
पड़ती हैं।
सोचते हैं कि
आंख का भ्रम
होगा और अब तक
वैज्ञानिक
समझते थे कि
सिर्फ आंख का
भ्रम है, एक
डिल्यून
है। या यह
सोचते थे कि
आंख पर कुछ
स्पाट होंगे विकृत,
उनकी वजह से
वह आकृतियां
बाहर दिखाई
पड़ती हैं।
लेकिन विलेहम
रैक की खोजों
ने यह सिद्ध
किया है कि वे
आकृतियां
प्राण-ऊर्जा
की हैं। उन
आकृतियों को
अगर कोई पीना
सीख जाए, तो
वह
महा-प्राणवान
हो जाएगा और
वे आकृतियां
हमसे ही
निकलकर हमारे
चारों तरफ फैल
जाती हैं।
उसको उसने आर्गान
इनर्जी कहा है,
जीवन ऊर्जा
कहा है।
प्राण-योग, या
प्राणायाम
वस्तुतः
मात्र वायु को
भीतर ले जाने
आ र बाहर ले
जाने पर
निर्भर नहीं
है। गहरे में
जो कि
साधारणतः
खयाल में नहीं
आता कि एक आदमी
प्राणायाम
सीख रहा है तो
वह सोचता है
बस ब्रीदिंग
की एक्सरसाइज
है, वह
सिर्फ वायु का
कोई अभ्यास कर
रहा है। लेकिन
जो जानते हैं,
और
जाननेवाले
निश्चित ही
बहुत कम हैं, वे जानते
हैं कि असली
सवाल वायु को
बाहर और भीतर
ले जाने का
नहीं है। असली
सवाल वायु के
मार्ग से वह जो
आर्गान
इनर्जी के
गुच्छे चारों
तरफ जीवन में
फैले हुए हैं,
उनको भीतर
ले जाने का
है। अगर वे
भीतर जाते हैं
तो ही प्राण-
योग है, अन्यथा
वायु-योग है, प्राण-योग
नहीं है।
प्राणायाम
नहीं है, अगर
वे गुच्छे
भीतर नहीं
जाते। वे
गुच्छे भीतर
जाते हैं तो
ही प्राण-योग
है। उन
गुच्छों से
आयी हुई शक्ति
का उपयोग तप
में किया जाता
है। खुद की
शक्ति का, चारों
तरफ जीवन की
शक्ति का, पाधों
की शक्ति का, पदार्थो की शक्ति का
प्रयोग किया
जाता है।
एक
अनूठी बात
आपको कहूं।
चकित होंगे आप
जानकर कि काफका, किरलियान, विलेहम रेक
और अनेक
वैज्ञानिकों
का अनुभव है
कि सोना
एकमात्र धातु
है जो
सर्वाधिक रूप
से प्राण
ऊर्जा को अपनी
तरफ आकर्षित
करती है। और
यही सोने का
मूल्य है, अन्यथा
कोई मूल्य
नहीं है।
इसलिए पुराने
दिनों में, कोई दस हजार
साल पुराने
रिकार्ड
उपलब्ध हैं, जिनमें
सम्राटों ने
प्रजा को सोना
पहनने की मनाही
कर रखी थी।
कोई आदमी
दूसरा सोना
नहीं पहन सकता
था, सिर्फ
सम्राट पहन
सकता था। उसका
राज था कि वह सोना
पहनकर, दूसरे
लोगों को सोना
पहनना रोककर
ज्यादा जी सकता
था। लोगों की
प्राण ऊर्जा
को अनजाने
अपनी तरफ
आकर्षित कर
रहा था। जब आप
सोने को देखकर
आकर्षित होते
हैं, तो
सिर्फ सोने को
देखकर
आकर्षित नहीं
होते, आपकी
प्राण ऊर्जा
सोने की तरफ
बहनी शुरू हो
जाती है, इसलिए
आकर्षित होते
हैं। इसलिए
सम्राटों ने सोने
का बड़ा उपयोग
किया और आम
आदमी को सोना
पहनने की
मनाही कर दी
गयी थी कि कोई
आम आदमी सोना
नहीं पहन
सकेगा ।
सोना
सर्वाधिक
खींचता है
प्राण ऊर्जा
को। यही उसके
मूल्य का राज
है अन्यथाअन्यथा
कोई राज नहीं
है। इस पर खोज
चलती है।
संभावना है कि
बहुत शीघ्र, जो प्रेशियस
स्टोन से, जो
कीमती पत्थर
हैं, उनके
भीतर भी कुछ
राज छिपे
मिलेंगे। जो
बता सकेंगे कि
वे या तो
प्राण ऊर्जा
को खींचते हैं,
या अपनी
प्राण ऊर्जा न
खींची जा सके,
इसके लिए
कोई रैजिस्टेंस
खड़ा करते हैं।
आदमी की
जानकारी अभी
भी बहुत कम
है। लेकिन
जानकारी कम हो
या ज्यादा, हजा रों साल से
जितनी
जानकारी है
उसके आधार पर
बहुत काम किया
जाता रहा है।
और ऐसा भी
प्रतीत होता
है कि शायद
बहुत- सी जानकारियां
खो गई हैं।
लुकमान
के जीवन में
उल्लेख है कि
एक आदमी को उसने
भारत भेजा आ
युव*द की
शिक्षा के लिए
और उससे कहा
कि तू बबूल के
वृक्ष के नीचे
सोता हुआ भारत
पहुंच। और
किसी वृक्ष के
नीचे मत सोना—बबूल
के वृक्ष के नीचे
सोना रोज। वह
आदमी जब तक
भारत आया, क्षय रोग से
पीड़ित हो गया।
कश्मीर
पहुंचकर उसने
पहले
चिकित्सक को
कहा कि मैं तो
मरा जा रहा
हूं। मैं तो
सीखने आया था आयुवेद, अब सीखना
नहीं है, सिर्फ
मेरी
चिकित्सा कर
दें। मैं ठीक
हो जाऊं तो
अपने घर वापस लौटूं। उस
वैद्य ने उससे
कहा," तू
किसी विशेष
वृक्ष के नीचे
सोता हुआ तो
नहीं आया?'
"मुझे
मेरे गुरु ने
आज्ञा दी थी
कि तू बबूल के
वृक्ष के नीचे
सोता हुआ
जाना।'
वह
वैद्य हंसा।
उसने कहा," तू कुछ मत
कर। तू अब नीम
के वृक्ष के
नीचे सोता हुआ
वापस लौट जा।'
वह नीम
के वृक्ष के
नीचे सोता हुआ
वापस लौट गया।
वह जैसा
स्वस्थ चला था, वैसा स्वस्थ
लुकमान के पास
पहुंच गया।
लुकमान
ने पूछा, "तू
जिन्दा लौट
आया? तब आयुव*द
में जरूर कोई
रा ज है।'
उसने
कहा, "लेकिन
मैंने कोई
चिकित्सा
नहीं की।
उसने
कहा — इसका कोई
सवाल नहीं है।
क्योंकि
मैंने तुझे जिस
वृक्ष के नीचे
सोते हुए भेजा
था, तू
जिन्दा लौट
नहीं सकता था।
तू लौटा कैसे?
क्या किसी
और वृक्ष के
नीचे सोता हुआ
लौटा?'
उसने
कहा, "मुझे
आज्ञा दी कि
अब बबूलभर
से बचूं और
नीम के नीचे
सोता हुआ लौट
आऊं।' तो
लुकमान ने कहा
कि वे भी
जानते हैं।
असल
में बबूल
सक-अप करता है
इनर्जी को।
आपकी जो
इनर्जी है, आपकी जो
प्राण ऊर्जा
है, उसे
बबूल पीता है।
बबूल के नीचे
भूलकर मत सोना।
और अगर बबूल
की दातुन की
जाती रही है
तो उसका कुल
कारण इतना है
कि बबूल की
दातुन में
सर्वाधिक
जीवन इनर्जी
होती है, वह
आपके दांतों
को फायदा
पहुंचा देती
है, क्योंकि
वह पाता रहता
है। जो भी
निकलेगा पास
से वह उसकी
इनर्जी पी
लेता है। नीम
आपकी इनर्जी
नहीं पीती है,
बल्कि अपनी
इनर्जी आपको
दे देती है, अपनी ऊर्जा
आप में उड़ेल
देती है।
लेकिन
पीपल के वृक्ष
के नीचे भी मत
सोना। क्योंकि
पीपल का वृक्ष
इतनी ज्यादा
इनर्जी उडेल
देता है कि
उसकी वजह से
आप बीमार पड़
जाएंगे। पीपल
का वृक्ष
सर्वाधिक
शक्ति
देनेवाला
वृक्ष है। इस लिए
यह हैरानी की
बात नहीं है
कि पीपल का
वृक्ष बोधि-वृक्ष
बन गया, उसके
नीचे लोगों को
बुद्धत्व
मिला। उसका
कारण है कि वह
सर्वाधिक
शक्ति दे पाता
है। वह अपने
चारों ओर से
शक्ति आप पर
लुटा देता है।
लेकिन साधारण
आदमी उतनी
शक्ति नहीं झेल
पाएगा। सिर्फ
पीपल अकेला
वृक्ष है सारी
पृथ्वी की
वनस्पतियों
में जो रात
में भी और दिन में
भी पूरे समय
शक्ति दे रहा
है। इसलिए
उसको देवता
कहा जाने लगा।
उसका और कोई
कारण नहीं है।
सिर्फ देवता
ही हो सकता है
जो ले न और देता
ही चला जाए।
लेता नहीं, लेता ही
नहीं, देता
ही चला जाता
है।
यह जो
आपके भीतर
प्राण-ऊर्जा
है, इस
प्राण-ऊर्जा
को यही आप
हैं। तो तप का
पहला सूत्र
आपसे कहता हूं
इस शरीर से
अपना तादातमय
छोड़ें। यह
मानना छोड़ें
कि मैं यह
शरीर के जो
दिखाई पड़ता है,
जो छुआ जाता
है। मैं यह
शरीर हूं, जिसमें
भोजन जाता है।
मैं यह शरीर
हूं जो पानी
पीता है, जिसे
भूख लगती है, जो थक जाता
है, जो रात
सोता है और
सुबह उठता है।
"मैं यह शरीर हूं'
इस सूत्र को
तोड़ डालें। इस
संबंध को छोड़
दें तो ही तप
के जगत में
प्रवेश हो
सकेगा। यही
भोग है। सारा
भोग इसी से
फैलता है। यह तादातमय, यह
आइडैंटिटी, यह इस भौतिक
शरीर से स्वयं
को एक मान
लेने की भ्रांति
आपके जीवन का
भोग है। फिर
इससे सब भोग पैदा
होते हैं। जिस
आदमी ने अपने
को भौतिक शरीर
समझा, वह
दूसरे भौतिक
शरीर को भोगने
को आतुर हो
जाता है। इससे
सारी
कामवासना पैदा
होती है। जिस
व्यक्ति ने
अपने को यह
भौतिक शरीर
समझा वह भोजन
में बहुत रसातुर
हो जाता है।
क्योंकि यह
शरीर भोजन से
ही निर्मित
होता है। जिस
व्यक्ति ने इस
शरीर को अपना
शरीर समझा वह
आदमी सब तरह
की इनिदरयों
के हाथ में पड़
जाता है।
क्योंकि वे सब
इनिदरयां
इस शरीर के
परिपोषण के
मार्ग हैं।
पहला
सूत्र, तप
का — यह शरीर
मैं नहीं हूं।
इस तादात्मय
को तोड़ें। इस तादात्मय
को कैसे तोड़ेंगे,
यह हम कल
बात करेंगे।
इस तादात्मय
को कैसे तोड़ेंगे?
तो महावीर
ने छह उपाय
कहे हैं, वह
हम बात
करेंगे।
लेकिन इस तादात्मय
को तोड़ना है, यह संकल्प
अनिवार्य है।
इस संकल्प के
बिना गति नहीं
है। और संकल्प
से ही तादात्मय
टूट जाता है
क्योंकि
संकल्प से ही
निर्मित है।
यह
जन्मों-जन्मों
के संकल्प का
ही परिणाम है
कि मैं यह
शरीर हूं।
आप
चकित होंगे
जानकर — आपने पुरानी
कहानियां पढ़ी
हैं, बच्चों
की कहानियों
में सब जगह
उल्लेख है। अब
नयी कहानियों
में बन्द हो
गया है
क्योंकि कोई कारण
नहीं मिलते
थे। पुरानी
कहानियां
कहती हैं कि
कोई सम्राट है,
उसका प्राण
किसी तोते में
बन्द है। अगर
उस तोते को
मार डालो
तो सम्राट मर
जाएगा। यह बच्चों
के लिए ठीक
है। हम समझते
हैं कि ऐसा कैसे
हो सकता है।
लेकिन आप
हैरान होंगे,
यह सम्भव
है।
वैज्ञानिक
रूप से सम्भव
है। और यह
कहानी नहीं है,
इसके उपयोग
किए जाते रहे
हैं। अगर एक
सम्राट को
बचाना है
मृत्यु से तो
उसे गहरे
सम्मोहन में
ले जाकर यह
भाव उसको
जतलाना काफी
है, बार-बार
दोहराना उसके
अन्तरतम में
कि तेरा प्राण
तेरे इस शरीर
में नहीं, इस
सामने बैठे
तोते के शरीर
में है। यह
भरोसा उसका
पक्का हो जाए,
यह संकल्प
गहरा हो जाए
तो वह युद्ध
के मैदान पर
निर्भय चला
जाएगा, और
वह जानता है
कि उसे कोई भी
नहीं मार
सकता। उसके
प्राण तो तोते
में बन्द हैं।
और जब वह
जानता है कि
उसे कोई नहीं
मार सकता तो
इस पृथ्वी पर
मारने का उपाय
नहीं, यह
पक्का ख्याल।
लेकिन अगर उस
सम्राट के
सामने आप उसके
तोते की गर्दन
मरोड़ दें
तो वह उसी
वक्त मर
जाएगा।
क्योंकि खयाल
ही सारा जीवन
है, विचार
जीवन है, संकल्प
जीवन है।
सम्मोहन
ने इस पर बहुत
प्रयोग किए
हैं और यह सिद्ध
हो गया है कि
यह बात सच है।
आपको कहा जाए
सम्मोहित
करके कि यह
कागज आपके
सामने रखा है, अगर हम इसे फाड़ देंगे
तो आप बीमार
पड़ जाओगे, बिस्तर
से न उठ
सकोगे। इससे
आपको सम्मोहित
कर दिया जाए, कोई तीस दिन
लगेंगे, तीस
सिटिंग लेने
पड़ेंगे — तीस
दिन पनदरह-पनदरह
मिनट आपको
बेहोश करके
कहना पड़ेगा कि
आपकी प्राण-ऊर्जा
इस कागज में
है। और जिस
दिन हम इसको फाड़ेंगे, तुम बिस्तर
पर पड़ जाओगे, उठ न सकोगे।
तीसवें दिन
आपको
होशपूर्वक आप बैठें, वह
कागज फाड़
दिया जाए, आ
प वहीं गिर
जाएंगे, लकवा
खा गए। उठ
नहीं सकेंगे।
क्या
हुआ? संकल्प
गहन हो गया।
संकल्प ही
सत्य बन जाता
है। यह हमारा
संकल्प है
जन्मों-जन्मों
का कि यह शरीर
मैं हूं। यह
संकल्प, वैसे
ही जैसे कागज
मैं हूं या
तोता मैं हूं।
इसमें कोई
फर्क नहीं है।
यह एक ही बात
है। इस संकल्प
को तोड़े बिना
तप की यात्रा
नहीं होगी। इस
संकल्प के साथ
भोग की यात्रा
होगी। यह
संकल्प हमने
किया ही इसलिए
है कि हम भोग
की यात्रा कर
सकें। अगर यह
संकल्प हम न
करें तो भोग
की यात्रा
नहीं हो सकेगी।
अगर
मुझे यह पता
हो कि यह शरीर मैं
नहीं हूं तो
इस हाथ में
कुछ रस न रह
गया कि इस हाथ
से मैं किसी
सुन्दर शरीर
को छुऊं। यह
हाथ मैं हूं
ही नहीं। यह
तो ऐसा ही हुआ
जैसा एक डंडा
हाथ में ले
लें और उस
डंडे से किसी
का शरीर छुऊं, तो कोई मजा न
आए। क्योंकि
डंडे से क्या
मतलब है? हाथ
से छूना
चाहिए। लेकिन
तपस्वी का हाथ
भी डंडे की
भांति हो जाता
है। जैसे वह
संकल्प को
खींच लेता है
भीतर कि यह हाथ
मैं नहीं हूं,
हाथ डंडा हो
गया। अब इस
हाथ से किसी
का सुन्दर चेहरा
छुओ कि न छुओ, यह डंडे से
छूने जैसा
होगा। इसका
कोई मूल्य न रहा।
इसका कोई अर्थ
न रहा। भोग की
सीमा गिरनी और
टूटनी और सिकुड़नी
शुरू हो
जाएगी।
भोग का
सूत्र है — यह
शरीर मैं हूं।
तप का सूत्र
है — यह शरीर
मैं नहीं हूं।
लेकिन भोग का
सूत्र पाजिटिव
है — यह शरीर
मैं हूं। और
अगर तप का
इतना ही सूत्र
है कि यह शरीर
मैं नहीं हूं
तो तप हार
जाएगा, भोग
जीत जाएगा।
क्योंकि तप का
सूत्र
निगेटिव है।
तप का सूत्र
नकारात्मक है
कि यह मैं
नहीं हूं।
नकार में आप
खड़े नहीं हो
सकते। शून्य
में खड़े नहीं
हो सकते। खड़े
होने के लिए
जगह चाहिए पाजिटिव।
जब आप कहते
हैं — "यह शरीर
मैं हूं', तब
कुछ पकड़ में
आता है। जब आप
कहते हैं —"यह
शरीर मैं नहीं
हूं', तब
कुछ पकड़ में
आता नहीं।
इसलिए तप का
दूसरा सूत्र
है कि मैं
ऊर्जा-शरीर
हूं। यह आधा
हुआ, पहला
हुआ कि यह
शरीर मैं नहीं
हूं, तत्काल
दूसरा सूत्र
इसके पीछे खड़ा
होना चाहिए कि
मैं
ऊर्जा-शरीर
हूं, इनर्जी
बाडी
हूं।
प्राण-शरीर
हूं। अगर यह
दूसरा सूत्र
खड़ा न हो तो आप
सोचते रहेंगे
कि यह शरीर
मैं नहीं हूं
और इसी शरीर
में जीते
रहेंगे। लोग
रोज सुबह बैठकर
कहते हैं कि
यह शरीर मैं
नहीं हूं, यह
शरीर तो
पदार्थ है। और
दिनभर
उनका व्यवहार,
यही शरीर
है। इतना काफी
नहीं है। किसी
पाजिटिव
विल को, किसी
विधायक
संकल्प को
नकारात्मक
संकल्प से
नहीं तोड़ा जा
सकता। उससे भी
ज्यादा
विधायक
संकल्प
चाहिए। यह
शरीर मैं नहीं
हूं, यह
ठीक है। लेकिन
आधा ठीक है।
मैं
प्राण-शरीर हूं,
इससे पूरा
सत्य बनेगा।
तो दो
काम करें। इस
शरीर से तादात्मय
छोड़ें और
प्राण-ऊर्जा
के शरीर से तादात्मय
स्थापित करें —
बी आइडैंटिफाइड
विद इट। मैं
यह नहीं हूं
और मैं यह हूं, और जोर पाजिटिव
पर रहे। इम्फैसिस
इस बात पर रहे
कि मैं
ऊर्जा-शरीर
हूं। ऊर्जा-शरीर
हूं, इस पर
जोर रहे — तो
मैं यह भौतिक
शरीर नहीं हूं,
यह उसका
परिणाम मात्र
होगा, छाया
मात्रा होगा।
अगर आपका जोर
इस बात पर रहा
कि यह शरीर
मैं नहीं हूं
तो गलती हो
जाएगी। क्योंकि
वह मैं जो
शरीर हूं वह
छाया नहीं बन
सकता, वह
मूल है। उसे
मूल में रखना
पड़ेगा। इसलिए
मैंने आपको
समझाया, क्योंकि
समझाने में
पहले यही
समझाना जरूरी
है कि यह शरीर
मैं नहीं हूं।
लेकिन जब आप
संकल्प करें
तो संकल्प पर
जोर दूसरे
सूत्र पर रहे,
अर्थात
दूसरा सूत्र
संकल्प में
पहला सूत्र रहे
और पहला सूत्र
संकल्प में
दूसरा सूत्र
रहे। जोर कि
मैं
ऊर्जा-शरीर
हूं, इसलिए
मैंने इतनी
ऊर्जा शरीर की
आ पसे बात की कि
ताकि आपके
खयाल में आ
जाए और यह
भौतिक शरीर मैं
नहीं हूं, यह
तप की भूमिका
है। कल से हम
तप के अंगों
पर चर्चा
करेंगे।
महावीर
ने तप के दो
रूप—आंतरिक तप
अंतर तप और
बाहृ तप कहे
हैं। अंतर तम
में उन्होंने
छह हिस्से किए
हैं, छह सूत्र
और बाह्य तप
में भी छह
हिस्से किए हैं।
कल हम बाह्य
तप से बात
शुरू करेंगे।
फिर अंतर तप
से। और अगर तप
की प्रक्रिया
खयाल में आ
जाए, संकल्प
में चली जाए
तो जीवन उस
यात्रा पर
निकल जाता है
जिस यात्रा पर
निकले बिना
अमृत को कोई
अनुभव नहीं
है। हम जहां
हैं वहां
बार-बार मृत्यु
का ही अनुभव
होगा।
क्योंकि जो हम
नहीं हैं उससे
हमने अपने को
जोड़ रखा है।
हम बार-बार टूटेंगे,
मिटेंगे,
नष्ट होंगे
और जितना टूटेंगे,
जितना मिटेंगे
उतना ही उसी
से अपने को
बार-बार जोड़ते
चले जाएंगे जो
हम नहीं हैं।
जो मैं नहीं
हूं, उससे
अपने को जोड़ना,
मृत्यु के
द्वार खोलना
है, जो मैं
हूं उससे अपने
को जोड़ना, अमृत
के द्वार
खोलना है। तप
अमृत के द्वार
की सीढ़ी है।
बारह सीढ़ियां
हैं। कल से हम
उनकी बात शुरु
करेंगे।
आज
के लिए इतना
ही।
बैठेंगे
पांच मिनट, ध्वनि
करेंगे
संन्यासी, उसमें
सम्मिलित
हों...।
thank you guruji
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