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रविवार, 12 अक्तूबर 2014

गीता दर्शन (भाग-4) प्रवचन--093

योगयुक्त मरण के सूत्र—(प्रवचन—पांचवां)
अध्याय—8

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।। 12।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्
यः प्रयाति त्यजन्देहंयाति परमां गतिम्।। 13।।
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।। 14।।

हे अर्जुन, सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर अर्थात इंद्रियों को विषयों से हटाकर तथा मन को उद्देश्य में स्थिर करके और अपने प्राण को मस्तक में स्थापन करके योगधारणा में स्थिर हुआ, जो पुरुष ओम, ऐसे इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मेरे को चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है।
और हे अर्जुन, जो पुरुष मेरे में अनन्य चित्त से स्थित हुआ सदा ही निरंतर मेरे को स्मरण करता है, उस निरंतर मेरे में युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूं।
नुष्य की चेतना दो प्रकार की यात्रा कर सकती है। एक तो अपने से दूर, इंद्रियों के मार्ग से होकर, बाहर की ओर। और एक अपने पास, अपने भीतर की ओर, इंद्रियों के द्वार को अवरुद्ध करके। इंद्रियां द्वार हैं। दोनों ओर खुलते हैं ये द्वार। जैसे आपके घर के द्वार खुलते हैं। चाहें तो उसी द्वार से बाहर जा सकते हैं, लेकिन तब द्वार खोलना पड़ता है। और चाहें तो उसी द्वार से भीतर आ सकते हैं, तब द्वार भीतर की ओर खोलना पड़ता है। एक ही द्वार बाहर ले जाता है, वही द्वार भीतर ले आता है।
इंद्रियां द्वार हैं चेतना के लिए, बहिर्गमन के या अंतर्गमन के।
लेकिन हम जन्मों-जन्मों तक बाहर की यात्रा करते-करते यह भूल ही जाते हैं कि इन्हीं द्वारों से भीतर भी आया जा सकता है। स्मरण ही नहीं रहता है कि जिस द्वार से हम घर के बाहर गए हैं, वही भीतर लाने वाला भी बन सकता है।
यह भूल विचार की निरंतर होती है। यह हमें खयाल नहीं रहता कि जिन मार्गों से हम नीचे गिरते हैं, वे ही मार्ग हमारे ऊपर उठने के मार्ग भी बन जाते हैं। और जिन सीढ़ियों से कोई नर्क में उतरता है, उन्हीं सीढ़ियों से स्वर्ग में भी चढ़ा जाता है। सीढ़ियां अलग नहीं होतीं, केवल चलने की दिशा अलग होती है।
कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर अर्थात इंद्रियों के संयम को उपलब्ध हो, जो भाव को, मन को, हृदय में स्थित करे और प्राण को मस्तक में, वह परम गति को उपलब्ध होता है।
इंद्रियों को अवरुद्ध करके, इंद्रियों के संयम से--क्या अर्थ है?
इंद्रियों को अवरुद्ध दो प्रकार से किया जा सकता है। एक तो जबरदस्ती विषयों से इंद्रियों को हटाकर--झटके से, दमन से। कोई चीज सुंदर लगती है आपको; मन खिंचता है, आकर्षित होता है, दौड़ता है, चंचल होता है। एक उपाय तो यह है कि आंखें फोड़ लें, या आंखें हटा लें, या भाग खड़े हों उस जगह से। विषय से भाग खड़े हों। जो आकर्षित करता है, उससे दूर हट जाएं।
लेकिन जो आकर्षित करता है, वह गौण है; जो आकर्षित होता है, वही प्रमुख है। इसलिए जो आकर्षण के विषय से भाग जाएगा, वह विषय से तो भाग जाएगा--वह गौण बात थी, निमित्त मात्र था--लेकिन जो आकर्षित हो रहा था, उससे कैसे भागेगा? वह तो उसके साथ ही चला जाएगा।
धन मुझे खींचता हो, धन मुझे दिखाई पड़ता हो और मेरे प्राण उस धन को उपलब्ध करने के लिए आतुर होते हों, तो धन से भाग जाना बहुत कठिन नहीं है। भागने के लिए बहुत बहादुरी की भी जरूरत नहीं है। अक्सर तो कायर ही भागने में बहुत कुशल होते हैं। भागा जा सकता है। लेकिन भागकर भी, वह जो मेरे भीतर प्राण आतुर होते थे धन को पाने के लिए, वे मेरे साथ ही चले जाएंगे।
इस जगत में स्वयं से भागने का कोई भी उपाय नहीं है। हम सबसे भाग सकते हैं, अपने को छोड़कर। हम सारे संसार को छोड़ सकते हैं, लेकिन अपने को नहीं छोड़ सकते हैं। वह हमारे साथ ही होगा--जंगल में, पहाड़ में, कंदरा में, हिमालय पर। मैं कहीं भी चला जाऊं, मैं तो अपने साथ ही रहूंगा। हां, विषयों से भाग सकता हूं, लेकिन वृत्तियां? वृत्तियां मेरे भीतर ही रहेंगी।
और एक धोखा भी हो सकता है। जब विषय नहीं होते, तो वृत्तियों को गतिमान होने का मौका नहीं मिलता। तो मैं इस भ्रांति में भी पड़ सकता हूं कि चूंकि अब मेरी वृत्ति गतिमान होती नहीं मालूम पड़ती, इसलिए समाप्त हो गई है। लेकिन इस भ्रांति में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। जैसे ही विषय फिर दिखाई पड़ेगा, वृत्ति पुनः सक्रिय हो जाएगी।
यह वृत्ति का निष्क्रिय हो जाना वैसे ही है, जैसे बारूद रखी हो और अंगारा पड़े और विस्फोट हो जाए। लेकिन अंगारा न पड़े बरसों तक, तो बारूद भी सोच सकती है कि अब मैं बहुत शांत हो गई हूं। क्योंकि अब कोई विस्फोट नहीं होता। और बारूद अगर यह सोचे कि यह अंगारे के कारण विस्फोट होता है, इसलिए मैं अंगारे से बचती रहूं तो शांत बनी रहूंगी, तो भी भ्रांति है। क्योंकि अंगारा विस्फोट नहीं करता; अंगारा केवल विस्फोट के लिए निमित्त बनता है। विस्फोट तो बारूद में ही होता है।
वह हमारे भीतर वृत्तियों की बारूद मौजूद रहे, तो हम अंगारों से कितने ही भागते रहें, कोई बचाव नहीं है। और जन्मों-जन्मों में वापस पुनः-पुनः वृत्तियां हमें उपलब्ध हो जाएंगी।
जब कृष्ण कहते हैं कि सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर, तो पहली बात ठीक से समझ लें, इस तरह के निरोध के लिए कृष्ण नहीं कहते हैं। कृष्ण का जीवन भी नहीं कहता कि इस तरह का निरोध उन्होंने किया होगा। फिर भी कृष्ण के साथ भी भूल हो जाती है।
बुद्ध के वक्तव्य में कोई खोज सकता है यह अर्थ, क्योंकि वे छोड़कर गए हैं। महावीर के व्यक्तित्व में खोज सकता है कोई यह अर्थ, क्योंकि वे भी छोड़कर गए हैं। लेकिन कृष्ण के साथ तक भ्रांति होती है और गलत अर्थ होते हैं। जब कि कृष्ण कुछ भी छोड़कर नहीं गए। निश्चित ही, कृष्ण का यह अर्थ नहीं हो सकता कि आब्जेक्ट से, विषयों से भाग जाओ। उनका अर्थ दूसरा है। वह दूसरा अर्थ बहुत भिन्न है और बहुत क्रांतिकारी है।
एक तो उपाय है कि मैं विषय से भाग जाऊं, अंगार से भाग जाऊं, बारूद को बचाए हुए। दूसरा उपाय है कि बारूद को छोड़ दूं और अंगारों से खेलता रहूं। कृष्ण तो अंगारों से खेलने के लिए संदेश दे रहे हैं अर्जुन को। वे कहते हैं, युद्ध कर, भाग मत।
और ध्यान रहे, जो युद्ध बाहर है, वह तो बहुत छोटा है। एक और अंतर्युद्ध है भीतर, जो सतत चल रहा है चेतना का विषयों के साथ, कि विषयों के प्रति आकर्षित हों या न हों। कृष्ण उस युद्ध से भी भागने की सलाह नहीं दे सकते। भागना उनकी भाषा नहीं है। एस्केपिज्म, पलायन उनके सोचने का ढंग नहीं है। कृष्ण का ढंग तो सोचने का है, युद्ध की सघनता में खड़े होकर जीवन के रूपांतरण का।
कृष्ण का अर्थ दूसरा ही हो सकता है। वह यह है, विषयों से भागने की कोई भी जरूरत नहीं। और भागकर भी कोई भाग नहीं सकता। और जहां भी हम जाएंगे, वहीं विषय मौजूद हो जाएंगे। संसार जहां भी है, वहां विषय उपलब्ध हैं। वृत्ति को विसर्जित करना ही इंद्रियों का संयम है। और वृत्ति विसर्जित हो, तो इंद्रियां अपने आप अवरुद्ध हो जाती हैं। क्योंकि वृत्ति के ऊपर ही चढ़कर चेतना इंद्रियों के द्वार से निकलती है। वृत्ति के घोड़ों पर बैठकर ही चेतना इंद्रियों के बाहर निकलती है और अनंत की बाह्य यात्रा पर भटकती है। वृत्ति के घोड़े ही अगर क्षीण हो जाएं, तो फिर इंद्रियां भागती नहीं, अवरुद्ध हो जाती हैं; उनके द्वार बंद हो जाते हैं।
ठीक समझें, तो इंद्रियों के द्वार बहुत आटोमैटिक हैं, बहुत स्वचालित हैं। जब तक चेतना भीतर से धक्का देती है उन्हें बाहर की तरफ, तभी तक वे खुले रहते हैं। और जब भीतर की चेतना धक्का नहीं देती बाहर की तरफ, वे द्वार अपने से बंद हो जाते हैं।
ऐसा समझें, आंख प्रतीक है, आंख से समझें तो सारी इंद्रियों का खयाल आ जाए। और आंख सूक्ष्मतम और सबसे ज्यादा नाजुक, डेलिकेट, बारीक इंद्रिय है। और जो आंख पर होता है, वही सब इंद्रियों पर होता है।
जब तक आपके भीतर चेतना जागना चाहती है, तब तक पलकें खुली रहती हैं। और जब चेतना सोना चाहती है, पलकें झप जाती हैं और बंद हो जाती हैं। चेतना का धक्का ही पलकों को खोले रखता है। इसलिए कितनी ही गहरी नींद आ रही हो, आपको लगता हो कि अब क्षणभर नहीं जाग सकूंगा, उसी वक्त कोई खबर दे कि घर में आग लग गई है, नींद नदारद हो जाती है। नींद का पता ही नहीं चलता; आप रातभर जाग सकते हैं। क्या हो गया? चेतना ने वापस जागने का निर्णय लिया; पलकें खुल गईं।
करीब-करीब सभी इंद्रियां इसी तरह हैं। आंख पर तो पलकें हैं, कान पर तो कोई पर्दे नहीं हैं बंद करने के। लेकिन विद्यार्थी कक्षा में बैठा है और बाहर एक पक्षी गीत गा रहा है। पक्षी का गीत सुनाई पड़ने लगता है, शिक्षक की आवाज बंद हो जाती है। शिक्षक ज्यादा करीब है, ज्यादा जोर से बोल रहा है। पक्षी बहुत दूर है, किसी अमराई में छिपा होगा; बहुत धीमी सी गूंजती उसकी आवाज आती है। लेकिन उस विद्यार्थी को आवाज सुनाई पड़ने लगी पक्षी की, शिक्षक का बोलना खो गया। बात क्या हो गई?
चेतना जिस तरफ उन्मुख होती है, उस तरफ द्वार खुल जाते हैं; और जिस तरफ उन्मुख नहीं होती है, उस तरफ द्वार बंद हो जाते हैं।
काम के भी सूक्ष्म द्वार हैं, जो बंद होते और खुलते हैं। चित्त में कामवासना भर जाती है, तो कामवासना का द्वार खुल जाता है। चेतना धक्के देती है, तो कामवासना का जो केंद्र है, उसका द्वार खुल जाता है और काम ऊर्जा बाहर प्रवाहित होने लगती है। चेतना धक्के नहीं देती, तो काम ऊर्जा का द्वार बंद है। और कोई उपाय नहीं है कि वह बाहर प्रवाहित हो जाए।
हमारे शरीर की सभी इंद्रियों के द्वार स्वचालित हैं। जब चेतना भीतर से धक्का देती है, तो द्वार खुल जाते हैं। और जब चेतना भीतर से धक्का नहीं देती, तो द्वार अपने आप बंद हो जाते हैं।
जब कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों के द्वारों को रोककर, तो वे ऐसा नहीं कहते हैं कि जबरदस्ती अपनी आंखों को बंद करके बैठ जाओ। क्योंकि जो जबरदस्ती अपनी आंखों को बंद करके बैठेगा, जिसके खिलाफ उसने आंखें बंद की हैं, वह बंद आंखों में भी मौजूद हो जाता है। उससे बचा नहीं जा सकता।
जबरदस्ती कान बंद कर लो, कुछ न सुनना हो, तो वह अनसुना भी भीतर गूंजता है, बंद नहीं होता। जबरदस्ती कामवासना को रोक लो, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। काम ऊर्जा स्खलित होती ही चली जाती है।
जबरदस्ती कोई भी उपाय नहीं। क्योंकि जबरदस्ती एक बात की खबर देती है कि भीतर से चेतना बाहर जाना चाहती है और उसी चेतना का एक हिस्सा उसे जबरदस्ती भीतर रोकना चाहता है। तो अगर रोकने वाला हिस्सा सबल हुआ, तो दरवाजे पर थोड़ी देर कशमकश होती रहती है दरवाजे के पीछे, बाहर जाने वाला धक्का देना चाहता है, रोकने वाला खींचता है। अगर सबल हुआ रोकने वाला, तो थोड़ी देर तक यह कशमकश होती है। लेकिन एक बड़े मजे का नियम है कि जो रोकता है, वह थोड़ी देर में कमजोर हो जाता है। जो हिस्सा रोकता है, उसकी ताकत रोकने में व्यय हो जाती है।
इसलिए आदमी आज कसम खाता है ब्रह्मचर्य की और कल पाता है कि मुश्किल है। वह हैरान होता है कि जब कसम खाई थी, तो बिलकुल सुलभ मालूम पड़ती थी, सरल मालूम पड़ती थी बात। कसम खाई ही इसलिए थी। चौबीस घंटे बाद क्या हो जाता है? जिस मन के हिस्से ने कसम खाई थी, वह लड़ने में लग जाता है उस मन से, जो जाना चाहता था।
और ध्यान रहे, कसम जब भी कोई खाता है, तो पक्का मान लेना, उसके भीतर दूसरा हिस्सा भी मौजूद होगा। नहीं तो कसम किसके खिलाफ खाई जाएगी? जब मैं कहता हूं कि कसम लेता हूं कि अब झूठ नहीं बोलूंगा, वह मैं किसके खिलाफ कसम खा रहा हूं! अपने ही उस मन के हिस्से के खिलाफ, जिसके बाबत मुझे पक्का पता है कि वह मुझे झूठ बोलने को मजबूर कर सकता है।
लेकिन जिस हिस्से से मैं रोकूंगा, वह रोकने में उसकी ताकत व्यय हो जाएगी; और जो हिस्सा रुका है, वह रोज-रोज शक्तिशाली होता चला जाएगा। रुके होने की वजह से शक्ति बढ़ेगी, रोकने की वजह से शक्ति कम होगी । आज नहीं कल, धक्का देकर चेतना फिर इंद्रिय के द्वार को खोल देगी। और जो हम करना चाहते हैं, उसके लिए तर्क खोज लेते हैं।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन मक्का की यात्रा पर गया। वहां उसने कसम ले ली; भाव में आ गया। कसम ले ली कि मछलियां खाना छोड़ देता हूं। कसम लेने का, मछलियां छोड़ने का असली कारण यह नहीं था कि मछलियां छोड़ने से मुल्ला को लगता हो कि कोई बहुत बड़ा स्वर्ग मिल जाएगा। असली कारण यह था कि उसके गुरु ने कहा, कुछ तो छोड़ो! तो मछलियां मुल्ला को बिलकुल पसंद नहीं थीं, इसलिए उसने मछलियां छोड़ दीं।
लेकिन छोड़ने की रात ही मुल्ला हैरान हुआ कि मछलियों का स्वप्न आया। कभी नहीं आया था। और घर लौटते-लौटते तीर्थयात्रा से, बस एक ही बात याद रह गई कि मछलियां छूट गईं। और एक ही बात गूंजने लगी मन में कि बड़ी गलती की। इतनी जल्दी क्या थी? ऐसा बातों में पड़ जाने का प्रयोजन क्या था? और घर आते-आते एक ही वासना मन में सघन हो गई, मछलियां खाने की, जो कि मन में कभी भी न थी।
कई बार ऐसा होता है। अगर किसी चीज में रस पैदा करना हो, तो छोड़ने की कसम खा लें, तो रस पैदा होना शुरू हो जाता है। क्योंकि जिसे हम छोड़ते हैं, उसके प्रति वासना पैदा होती है। पैदा इसलिए होती है कि छोड़ने से लगता है कि अब कभी भी भोग न सकेंगे। अब कभी भी भोग न सकेंगे! तो मन के किसी भी कोने में भोग की जरा-सी भी वृत्ति पड़ी हो, वह कहती है कि यह तो बड़ी गलती कर ली, एक बार तो भोग लेते! अगर भोग सकेंगे, तो वह वृत्ति विश्राम करती है, प्रतीक्षा करती है, कभी भी भोग लेंगे, कभी भी भोग लेंगे।
घर आते ही मुल्ला बेचैन हुआ। पत्नी को भी उसके गुरु ने बता दिया है आकर कि मुल्ला मछलियां छोड़ दिया है, उसे मछलियां मत देना। पत्नी का भी मन हुआ--जैसा कि सभी पत्नियों का होता है--कि पति की परीक्षा ले लें। दूसरे दिन ही उसने मछलियों का शोरबा बना डाला। मुल्ला को बास आने लगी। वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया।
आखिर जब खाने पर बैठा, सब चीजें दी गईं, शोरबा नहीं दिया गया। मुल्ला ने कहा कि मछली का शोरबा बना है, ऐसी सुगंध घर में आती है। थोड़ा-सा दो। उसकी पत्नी ने कहा, लेकिन मैंने सुना है कि आप मछलियां छोड़कर आए हैं! मुल्ला ने कहा, मछलियां छोड़ी हैं, मछलियों का शोरबा नहीं।
बात ठीक ही थी। पत्नी झिझकी तो, लेकिन शोरबा छोड़ा ही नहीं था। तो पत्नी ने बर्तन उठाया और मुल्ला की थाली में शोरबा डालने लगी। तो मछलियों के कतरे न चले जाएं, तो उसने हाथ की आड़ लगा दी। मुल्ला ने कहा कि हाथ की आड़ क्यों लगा दी? मछलियां छोड़ी हैं, लेकिन खुद जो आती हों, उन्हें रोकने का कहां नियम लिया है! अपने आप जो आने को उत्सुक हों, उनको आने दो।
फिर आदमी तर्क खोजता है। उसी के लिए तर्क खोजता है, जिसके खिलाफ तर्क खोज लिए थे। नहीं, कोई भी इस भांति जीवन के रूपांतरण को नहीं पाता। और इंद्रियों के द्वार इस तरह कभी बंद नहीं होते। इंद्रियां बल्कि इस तरह और सतेज हो जाती हैं, उनकी जंग भी झड़ जाती है।
कृष्ण का जो अर्थ हो सकता है, जो अर्थ है, जो सदा ही जानने वालों का अर्थ रहा है, वह यह है कि जो वृत्ति भीतर से धक्का देती है, उस वृत्ति का विसर्जन हो।
कैसे हो? छोड़ने से नहीं होता, भोगने से नहीं होता। भोगने से बढ़ता है, पुनरुक्ति से आदत मजबूत होती है। छोड़ने से निषेध का आकर्षण मिलता है, और निषेध से रस जगता है। न भोगने से मिटता, न छोड़ने से मिटता। वह कैसे मिटे वृत्ति का रस? कैसे इंद्रिय...वह संयम कैसे उपलब्ध हो?
उस संयम का एक ही उपाय रहा है सदा से, और वह है, जब भी कोई विषय आकर्षित करे, तो ध्यान विषय पर न रखकर वृत्ति पर रखना। जब भी कोई विषय आकर्षित करे! राह से गुजर रहे हैं आप, एक सुंदर चेहरा दिखाई पड़ता है, एक सुंदर देह दिखाई पड़ती है, स्त्री की, पुरुष की। दौड़ता है मन। उस समय आपका ध्यान उस शरीर पर होता है, जो आपको आकर्षित कर रहा है। उस वृत्ति पर नहीं होता, जो दौड़ी जा रही है। और उस चेतना पर भी नहीं होता, जो आकर्षित हो रही है।
और जहां ध्यान होता है, चेतना उसी तरफ दौड़ती है, यह नियम है। जहां ध्यान होता है, चेतना उसी तरफ दौड़ती है। जहां ध्यान, वहीं चेतना के लिए निशाना बन जाता है, और चेतना का तीर उसी तरफ चलने लगता है।
ध्यान को, जब कोई सुंदर व्यक्ति दिखाई पड़े, तो ध्यान को सुंदर व्यक्ति पर मत केंद्रित करें, तत्काल अपने पर केंद्रित करें; और देखें कि मैं सौंदर्य से आकर्षित हुआ हूं और मेरी चेतना वृत्ति बनकर सौंदर्य की तरफ बह रही है। लड़ने की जरूरत नहीं है, गाली देने की जरूरत नहीं है, कि यह पाप है सौंदर्य को देखना। बिलकुल पाप नहीं है।
सौंदर्य की प्रतीति में जरा भी पाप नहीं है। सौंदर्य के अनुभव में जरा भी पाप नहीं है। सुंदर को जानकर अगर आदमी की चेतना स्वयं में थिर हो, तो परमात्मा का ही स्मरण होगा, पाप का कोई स्मरण नहीं हो सकता है। कोई कंडेमनेशन, कोई निषेध, कोई निंदा नहीं। सिर्फ इतना कि मैं उसे जानूं जो आकर्षित हुआ है, क्योंकि वही मैं हूं। और मैं उसे जानूं जो चेतना आकर्षित होकर बह रही है।
और जैसे ही आप अपने ध्यान को स्वयं पर और अपनी बहती हुई चेतना पर ले जाएंगे, आप अचानक पाएंगे कि इंद्रिय का द्वार बंद हो गया है। क्योंकि ध्यान भीतर जाए, तो चेतना भीतर की तरफ प्रवाहित होने लगती है, बाहर की तरफ नहीं। जहां ध्यान, वहां चेतना बहती है। जैसे जहां गङ्ढा, वहां पानी बहता है। गङ्ढा खोद दें और पानी बह जाएगा।
अब कुछ पागल हैं जो पानी को रोकने की कोशिश करते हैं। पानी को रोकने से कुछ न होगा। कितना ही रोकिए, पानी गङ्ढे की तरफ ही बहेगा। और अगर बांध बनाया, तो जो झरना था, वह महासागर हो जाएगा। और आज नहीं कल, अगर झरने को ही बहने देते तो बहुत खतरे होने वाले नहीं थे, लेकिन किसी दिन यह झरना जब बांध बनकर महासागर बन जाएगा और बांध को तोड़कर बहेगा, तो महाविनाश होगा।
चित्त के साथ यही हो रहा है। इसलिए आप जानकर हैरान होंगे, जो लोग रोज छोटा-मोटा क्रोध कर लेते हैं, वे लोग कभी हत्या नहीं करते। इसलिए अगर आपके घर में कोई ऐसा आदमी हो, जो क्रोधी तो हो, लेकिन क्रोध न करता हो, तो उससे सावधान रहना। क्योंकि वह किसी दिन जब भी करेगा, तो हत्या से कम में निपटारा नहीं है! बांध बन जाएगा। जो आदमी रोज नाराज हो लेता है, वह रोज प्रसन्न भी हो जाता है। इसलिए बच्चे अभी नाराज हो रहे हैं, अभी मुस्कुरा रहे हैं। क्योंकि बांध बिलकुल नहीं है। कोई बांध नहीं है।
हम कितना ही क्रोध कर लेते हों, फिर भी बांध बांधकर चलना ही पड़ता है। दफ्तर में मालिक है, नाराज नहीं हो सकते। समय है, परिस्थिति है, नाराज नहीं हो सकते। रोक लेना पड़ता है। वह बांध बन जाता है। फिर वह बांध टूटता है। और तब जोर से क्रोध निकलता है।
इसलिए हमारा क्रोध अक्सर ही अनजस्टीफाइड होता है। क्योंकि जिस पर निकलता है, अकेला वही उसका कारण नहीं होता और पच्चीस लोगों का क्रोध भी उसमें जुड़ा होता है, जो उन पर नहीं निकल पाया और इस पर निकलता है। इसलिए जिस पर निकलता है, वह सदा सोचता है कि इतनी छोटी-सी बात और इतना क्रोध! जस्टीफाइड नहीं मालूम पड़ता उसे। हमें भी मालूम नहीं पड़ेगा पीछे सोचने पर। इतनी-सी बात थी, इतने क्रोध की क्या जरूरत थी! लेकिन बहुत-सा क्रोध जो इकट्ठा था बांध बांधकर, वह समय की तलाश में था कि जब भी गङ्ढा मिल जाएगा, बांध को तोड़ देंगे और मुक्त हो जाएंगे।
छोटे-छोटे पापी बड़े पाप कभी नहीं कर पाते। और बड़े पापी अक्सर वे ही लोग होते हैं, जो छोटे-छोटे पाप करने से अपने को बचाते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि छोटे-छोटे पाप करने के अभ्यास से कोई बड़ा पापी होता है, खयाल रखना। छोटे-छोटे पाप करने वाला कभी बड़ा पापी नहीं हो पाता। बड़ा पापी होने की आकांक्षा हो, तो छोटे-छोटे पाप करना बंद कर दें। फिर एक दिन अपने आप विस्फोट हो जाएगा। और बड़ा पाप घटित हो जाएगा।
चेतना भी ध्यान की तरफ इसी तरह बहती है, जैसे गङ्ढे की तरफ पानी बहता है। एक नेचुरल, एक निसर्ग का नियम है कि चेतना ध्यान की तरफ बहती है। जहां ध्यान, वहीं चेतना का तीर सरकने लगता है। अगर आप, कोई गाली दे, उस वक्त गाली देने वाले पर ध्यान न रखें, गाली सुनने वाले पर ध्यान रखें। आप अचानक पाएंगे, इंद्रिय का द्वार बंद हो गया और चेतना वापस भीतर लौट गई। जब कोई आपको चांटा मारे, तो चांटा मारने वाले के हाथ पर ध्यान न रखें। चांटा जिसे मारा गया है, उस पर ध्यान रखें। और आप अचानक पाएंगे कि वह आदमी भी खो गया, जिसने चांटा मारा था, वह बाहर जाता क्रोध भी विलीन हो गया। और चेतना अपने भीतर लौट गई।
और एक बार अगर आपको यह अनुभव हो जाए कि जो ऊर्जा, जो शक्ति क्रोध बनकर बाहर जा रही थी, वह बाहर नहीं गई, बल्कि लौटकर भीतर आ गई, तो आप हैरान हो जाएंगे। बाहर जाती हुई क्रोध की ऊर्जा पीड़ा में ले जाती है, वही ऊर्जा जब भीतर की तरफ लौटती है, तो क्वालिटेटिवली बदल जाती है, उसका गुणधर्म बदल जाता है; वही क्षमा बन जाती है।
और जिसने क्षमा जानी, उसके आनंद का कोई हिसाब नहीं। और जिसने क्रोध जाना, उसके पश्चात्ताप का कोई अंत नहीं।
अगर कामवासना मन को पकड़ती हो और बाहर न जाकर वापस भीतर लौट आए ध्यान के साथ, तो वही ब्रह्मचर्य बन जाती है। और जिसने कामवासना जानी, उसने फ्रस्ट्रेशन के अतिरिक्त, विषाद के अतिरिक्त कभी कुछ नहीं जाना। और जिसने कामवासना का अपने पर लौटाना जाना, उसने वह जाना है जिसे ज्ञानी ब्रह्मचर्य कहते रहे हैं। अपूर्व है उसकी शांति, अपूर्व है उसकी शक्ति, अपूर्व है उसका आनंद। उसके आनंद को मापने का कोई उपाय नहीं है।
लेकिन लौटती हुई ऊर्जा में गुणात्मक अंतर होता है। ऊर्जा की दिशा सब कुछ है। क्योंकि जब ऊर्जा मुझ से बाहर जाती है, तो मुझे गरीब कर जाती है। मेरी ही ऊर्जा जब मुझ से बाहर जाती है, माई ओन एनर्जी, जब भी बाहर जाती है, तो मुझे दरिद्र कर जाती है। मैं दीन हो जाता हूं। वह चुक जाती है, और मैं उतना गरीब हो जाता हूं। जब मेरी ऊर्जा इंद्रियों के द्वार के पास आकर, वापस लौटकर वर्तुल बना लेती है, सर्किल पूरा कर लेती है, मुझ पर वापस लौट आती है, तो मैं अनंत गुना धनी हो जाता हूं। और जो अपनी ही ऊर्जा का वर्तुल बना लेता है, वही व्यक्ति संयम को उपलब्ध होता है।
संयम का अर्थ है, स्वयं की ऊर्जा का बन गया वर्तुल। खुद की ऊर्जा एक वर्तुल में घूमने लगी, एक सर्किल में। अब बाहर जाने का कोई उपाय न रहा। अब ऊर्जा कहीं भी डिसीपेट, कहीं भी बिखर नहीं सकती। अब ऊर्जा जितनी भी बढ़ती जाएगी, भीतर होती जाएगी। और जैसे-जैसे यह वर्तुल बनता है, वैसे-वैसे ऊर्जा ऊपर उठनी शुरू हो जाती है। और धीरे-धीरे जैसे हम मंदिर के ऊपर शिखर बनाते हैं--वे इसी के प्रतीक में बनाए गए शिखर हैं। छोटा होता जाता है मंदिर का बुर्ज, ऊपर जाकर स्वर्ण-शिखर लग जाता है। छोटा होता जाता है। जैसे-जैसे ऊर्जा भीतर इकट्ठी होती है, वैसे-वैसे वर्तुल छोटा होता जाता है, सघन होता जाता है, कंडेंस्ड होता जाता है। और एक क्षण आता है, जब ऊर्जा स्वर्ण-शिखर बन जाती है। फिर ऊर्जा ऊपर की तरफ ऊर्ध्वगति को उपलब्ध होती है।
संयम का अर्थ है, स्वयं की ऊर्जा का बनाया गया वर्तुल। असंयम का अर्थ है, स्वयं की ऊर्जा का टूटा हुआ वर्तुल। उस टूटी जगह से ही लीकेज है। जहां वर्तुल टूटता है, वहीं से लीकेज है, वहीं से शक्ति बिखर जाती है और खो जाती है। जैसे शार्ट सर्किट हो जाए बिजली का, वहां से ऊर्जा बिखरने लगती है। और हमारी सारी इंद्रियों के द्वार से हम सिर्फ ऊर्जा को बिखेरते हैं, खोते हैं।
कृष्ण जैसे व्यक्ति के लिए संयम का अर्थ है, इस ऊर्जा का स्वयं में ही रमण करना, स्वयं में ही थिर हो जाना।
तो इस सीक्रेट को, इस राज को, इस गुर को समझ लें। जब भी कोई विषय आकर्षित करे, तब ध्यान विषय पर न दें, तत्काल स्वयं पर दें और स्वयं की चेतना पर दें। उसी क्षण एक क्रांति मालूम पड़ेगी। भीतर कोई चीज जा रही थी बाहर; लौट पड़ी; टर्न अबाउट; बिना कुछ किए। अपने भीतर अनुभव होगा, कोई शक्ति बाहर जाती थी, वापस लौट गई। और वापस लौटकर जब वह स्वयं पर आती है, तो अपूर्व-अपूर्व साक्षात्कार होता है अपनी ही ऊर्जा का।
इस संयम को जो उपलब्ध है; और भाव को, मन को जिसने हृदय में स्थिर कर लिया है। और ऐसी ऊर्जा होगी, तो भाव अपने आप हृदय में स्थिर हो जाता है। और प्राण जिसका मस्तिष्क में ठहर गया है।
इन दो बातों को ठीक से समझ लें।
भाव का अर्थ है, फीलिंग, संवेदना। वह जो हमारे भीतर अनुभव करने की क्षमता है, वह। वह हृदय-क्षेत्र में स्थिर हो जाती है, जब कोई संयम को उपलब्ध होता है। क्यों ऐसा होता है?
हमारे शरीर के भीतर प्रत्येक अनुभूति, प्रत्येक अनुभव के लिए अलग-अलग केंद्र हैं, सेंटर्स हैं, चक्र हैं। और जब भी किसी चक्र की ऊर्जा किन्हीं दूसरे चक्रों में प्रवेश कर जाती है, तो हम करीब-करीब पागल की तरह जीते हैं। और अभी हमारी हालत ऐसी ही है। और अभी हमारी हालत ऐसी ही है।
जैसे एक आदमी मुंह से भोजन करे, समझ में आता है। दांतों से चबाएं; गले से गटके; पेट से पचाए--समझ में आता है। लेकिन वह आदमी बैठकर केवल खाने का विचार करे, तो खाने का जो भी यंत्र है, वह बिलकुल उपयोग में नहीं आएगा; और मस्तिष्क, जहां से खाना खाया नहीं जा सकता, वह खाने के काम में लग जाएगा। तो भोजन करना सेरिब्रल हो जाएगा, मस्तिष्कीय हो जाएगा। मस्तिष्क भोजन कर नहीं सकता, लेकिन भोजन करने के भ्रम में पड़ सकता है। और भ्रम अगर भारी हो जाए, तो व्यक्तित्व का सब विखंडित हो जाता है। और ऐसे भ्रम में हम जीते हैं।
कामवासना का केंद्र है। लेकिन लोग मस्तिष्क में कामवासना को धीरे-धीरे, सोच-सोचकर, सोच-सोचकर, कामवासना के केंद्र से हटाकर मस्तिष्क में प्रवेश कर देते हैं। तो मनोचिकित्सकों के पास ऐसे लोग आते हैं, जो कहते हैं, स्वप्न में तो मैं बहुत पोटेंट मालूम पड़ता हूं, बहुत वीर्यवान मालूम पड़ता हूं। जब विचार करता हूं, तो इतनी काम ऊर्जा मालूम होती है! लेकिन जब स्त्री के निकट पहुंचता हूं, तो एकदम इंपोटेंट, निर्वीर्य हो जाता हूं। वह रोज घटता है। उसके घटने का कारण है। क्योंकि उनकी पूरी की पूरी सेक्स सेंटर की जो संभावना थी, वह हटकर मस्तिष्क में केंद्रित हो गई है। तो जब वे सोचते हैं, तब वे बड़े शक्तिशाली मालूम पड़ते हैं। लेकिन जब शक्ति को प्रकट करने का अवसर हो, तब वे एक दम शक्तिहीन हो जाते हैं।
हमारे सारे चक्रों के जो-जो विभाजन हैं, वे सबके सब कनफ्यूज्ड हैं, एक-दूसरे में प्रवेश कर गए हैं। कोई किसी की सुनता नहीं मालूम पड़ता। और कोई चक्र किसी का काम करता है, कोई चक्र किसी का काम करता है। सब उधार हो गया है। तो हम मस्तिष्क से भावना तक करने पर उतर जाते हैं। मस्तिष्क भावना नहीं कर सकता है। हृदय विचार नहीं कर सकता है।
जो जिस चक्र का काम है, अगर उस पर ही पहुंच जाए, तो व्यक्तित्व एकदम संतुलित हो जाता है। और जब ऊर्जा संयम को उपलब्ध होती है, तो प्रत्येक चक्र सिर्फ अपने ही काम को करता है।
अभी पश्चिम में एक बहुत बड़ा साधक, महायोगी था, जार्ज गुरजिएफ। तो वह कहता था, अगर तुम इतना ही कर लो कि तुम्हारा प्रत्येक चक्र शुद्ध हो जाए, कि कामवासना का चक्र केवल कामवासना का ही काम करे, तो भी तुम महाजीवन को उपलब्ध हो जाओगे।
लेकिन हमारे भीतर सब कनफ्यूज्ड है। हमारी हालत ऐसी है, जैसी किसी एक ऐसी मिलिटरी की टुकड़ी की, जिसमें पहरेदार सेनापति बनकर बैठ गया हो; जिसमें सेनापति पहरेदार के पैरों के पास बैठा हो; जिसमें जिनको आज्ञा देनी चाहिए, वे आज्ञा ले रहे हों; जिनको आज्ञा लेनी चाहिए, वे आज्ञा दे रहे हों; और किसी को पता न हो कि कौन कौन है। सब विक्षिप्त हो जाए। ऐसी हमारे चित्त की, चेतना की, हमारे व्यक्तित्व की दशा है।
कृष्ण कहते हैं, जब कोई संयम को उपलब्ध हो और भाव हृदय-देश में स्थित हो जाए, मन हृदय-देश में ठहर जाए और प्राण मस्तक में...।
ये दो बातें हैं। भाव, अनुभव करने की जो प्रतीति है; क्या कभी आपने खयाल किया है कि आप अनुभव कहां से करते हैं? आकाश में पूर्णिमा का चांद है, आप उसके नीचे खड़े हैं। आंख उठाकर आकाश को देखते हैं, तो क्या आपका मस्तिष्क कहता है कि बहुत सुंदर या आपके हृदय के पास कोई स्फुरणा होती है? यह आपको जांचना पड़े।
और आप हमेशा पाएंगे, सौ में निन्यानबे मौके पर, कि यह मस्तिष्क ही है, जो कह रहा है, बहुत सुंदर। और यह भी इसलिए नहीं कह रहा है कि इसे बहुत सुंदर का अनुभव हो रहा है। यह सिर्फ इसलिए कह रहा है कि इसने बार-बार पूर्णिमा के दिन लोगों को कहते सुना है कि बहुत सुंदर। किताबों में पढ़ा है, कविताओं में पढ़ा है, फिल्मों में देखा है, नाटकों में सुना है--बहुत सुंदर। यह भी दोहरा रहा है। यह ग्रामोफोन रिकार्ड की तरह इसके मस्तिष्क में भर गया है। इसको दोहरा रहा है। अगर इसे अनुभव हो, तो मस्तिष्क में नहीं होगा, हृदय में होगा। और जब अनुभव होगा, तो शायद आदमी शब्द भी न देना चाहे।
सुना है मैंने, लाओत्से के साथ एक मित्र रोज घूमने जाता था सुबह। मित्र का एक अतिथि भी साथ आ गया और दोनों लाओत्से के साथ घूमने गए। मित्र तो जानता है लाओत्से को कि वह चुप ही रहना पसंद करता है, वर्षों में कभी बोलता है। लेकिन परदेशी अतिथि को कुछ पता नहीं है। दोनों को चुप देखकर वह भी काफी चुप रहा। फिर एक भूल हो गई।
सुबह जब सूरज निकला और वृक्षों के ऊपर उठने लगा, और पक्षी गीत गाने लगे, और फूल खिल गए, और सुगंध भर गई उस वन-पथ पर, तो उसने कहा, कितनी सुंदर सुबह है! किसी ने उत्तर न दिया। लाओत्से ने जरूर गौर से उसे देखा, फिर चल पड़ा। मित्र थोड़ा घबड़ाया; उसने जरा संकोच से अपने अतिथि की तरफ देखा; वह भी चल पड़ा। वह अतिथि थोड़ा हैरान हुआ कि किसी ने इतना भी न कहा कि हां, ठीक कहते हो, बड़ी सुंदर सुबह है!
लौटकर लाओत्से ने अपने मित्र को कहा, कल से इस आदमी को मत लाना; बहुत बातूनी मालूम पड़ता है। दो घंटे में उसने इतना ही कहा था, बड़ी सुंदर सुबह है। उसके मित्र ने, लाओत्से के मित्र ने कहा, ज्यादा बातूनी तो नहीं है ऐसा। एक ही बात कही है।
लाओत्से ने कहा, लेकिन अगर उसे सुबह सुंदर लगी थी, तो कहने का खयाल भी न आता। अगर सुबह सुंदर लगी थी, तो वह लीन हो गया होता। वह भूल ही गया होता कि सुबह है। वह खो गया होता। उसे कुछ लगा-वगा नहीं है। सिर्फ आदत, आदतन, सुबह सुंदर है! और फिर हमको भी तो पता था, हम भी वहीं मौजूद थे। उसने कहकर सिर्फ सौंदर्य को बाधा पहुंचाई। उस सन्नाटे में, जहां पक्षियों के गीत थे, और जहां सूरज की किरणें थीं, और सुबह की सुगंधित हवाएं थीं, उसकी यह बात बड़ी कुरूप थी, और बेमानी थी, और सन्नाटे को तोड़ती थी, उस मौन को खंडित करती थी, कि सुबह बहुत सुंदर है। यह वक्तव्य बड़ा असुंदर था, अग्ली स्टेटमेंट था।
निश्चित ही, जब आपको कोई चीज सुंदर मालूम पड़ेगी, बुद्धि ठहर जाएगी, हृदय अनुभव करेगा। हो सकता है, हृदय की धड़कन बढ़ जाए। हो सकता है, रक्तचाप तेजी से हो जाए। हो सकता है, रोएं खड़े हो जाएं। लेकिन यह प्रतीति हृदय की होगी; यह बुद्धि की नहीं होगी।
लेकिन हमने हृदय से कुछ भी अनुभव करना बंद कर दिया है। हम सब बुद्धि से ही अनुभव किए जा रहे हैं। और बुद्धि अनुभव करने में असमर्थ है। वह उसका काम नहीं है।
संयमी व्यक्ति का भाव हृदय में स्थापित हो जाता है। कैसे होगा स्थापित? या तो संयम को उपलब्ध हों, तो हो जाए; या अगर भाव को भी हृदय में स्थापित कर लें, तो भी संयम का मार्ग सुगम हो जाएगा।
तो जब भी अनुभव करें, खयाल रखकर करें कि हृदय से अनुभव कर रहे हैं। जब किसी से कहें कि मैं तुझे प्रेम करता हूं, तो यह पहले मत कहें; पहले हृदय के पास किसी सनसनी को दौड़ जाने दें, कोई लहर। और जब लहर हृदय को पकड़ ले, तभी अगर जरूरी लगे, तो कहें। और अगर दूसरा बिना कहे समझ सकता हो, तो चुप ही रहें; उसे समझने का मौका दें।
अक्सर हम शब्दों से बताते नहीं, छिपाते हैं। अक्सर जब प्रेम चुक जाता है, तब हम कहते हैं कि मैं बहुत प्रेम करता हूं। यह केवल सब्स्टीटयूट है। जब प्रेम होता है, तो उसे कहने की जरूरत नहीं होती। आंखें कह देती हैं। पलकें कह देती हैं। चेहरे का भाव कह देता है। हाथ का इशारा कह देता है। उठना-बैठना कह देता है। प्रेमी के पास आकर बैठना कह देता है कि मैं प्रेम करता हूं।
लेकिन जब यह सब चुक जाता है, तब सिर्फ शब्द रह जाते हैं, कोरे और खाली, चले हुए कारतूस जैसे, जिनके भीतर कोई बारूद-वारूद नहीं है। तब हम कहते हैं, मैं बहुत प्रेम करता हूं! यह सिर्फ समझाना है। सिर्फ समझाना है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछ रही है कि जब मैं बूढ़ी हो जाऊंगी, तब भी तुम मुल्ला मुझे प्रेम करोगे या नहीं? मुल्ला ने कहा, बिलकुल करूंगा। जरूर करूंगा। तेरे पैरों की धूल सिर पर रखूंगा। फिर एकदम से कहा कि तू अपनी मां जैसी तो नहीं हो जाएगी? इतना ही खयाल रखना, अपनी मां जैसी मत हो जाना!
यह जब उसकी पत्नी पूछ रही है, तब वह बहुत बीमार पड़ी थी। वह सिर्फ खोज रही है। फिर वह पूछती है उससे कि मुल्ला, अगर मैं मर जाऊं, तो सच-सच कहो, दूसरा विवाह तो नहीं करोगे! मुल्ला ने कहा, ऐसी बातें नहीं पूछा करते। तेरी तबीयत ठीक नहीं है। ऐसी बातें नहीं पूछा करते। पर पत्नी पीछे पड़ गई, तो मुल्ला ने कहा, बड़ी मुश्किल है। अगर मैं कहूं कि करूंगा, तो कहना जंचेगा नहीं; और अगर कहूं कि नहीं करूंगा, तो वह सच न होगा।
कहते हैं कि मुल्ला किसी स्त्री को प्रेम का निवेदन किया था। और उसकी उस प्रेयसी ने पूछा था कि मुल्ला, तुम ऐसे-ऐसे पत्र लिखते हो कि मैं मर जाऊंगा अगर तू मुझे न मिली; क्या सच ही तुम मर जाओगे अगर मैं तुम्हें न मिली? मुल्ला ने कहा, दिस हैज बीन माई यूजुअल हैबिट। यह तो मैं सदा करता रहा हूं। यह सदा की मेरी आदत है। जब भी किसी से मैंने प्रेम किया और अगर वह मुझे न मिला, तो मैं फौरन मर गया!
उस स्त्री ने प्रेम नहीं किया मुल्ला से, विवाह भी नहीं किया। और कहते हैं, मुल्ला ने अपना वचन निभाया, यद्यपि सत्तर साल बाद! मर गया सत्तर साल बाद! लिख गया अपनी वसीयत में कि कोई यह न समझे कि मैं झूठा हूं। मैंने वचन दिया था अपनी प्रेयसी को कि अगर तूने मुझसे विवाह न किया, तो मैं मर जाऊंगा, और अब मैं मर रहा हूं। सत्तर साल बाद!
हमारा सारा प्रेम, प्रेम के दावे, मर जाने के वचन, आश्वासन, कहीं भी हृदय से आते नहीं मालूम पड़ते। सिर्फ बुद्धि का हिसाब-किताब है। और जितना कम होता है हृदय, बुद्धि से हमें उतना ज्यादा सब्स्टीटयूट, परिपूरण करना पड़ता है।
तो जितना कम प्रेमी, उतना ज्यादा गुहार मचाए रखता है कि मैं प्रेम करता हूं, मैं प्रेम करता हूं, मैं प्रेम करता हूं। सच में जो प्रेमी है, चुप होना भी काफी है। और अगर चुप्पी न कह सके प्रेम को, तो शब्द कभी भी न कह पाएंगे। भाव जब होता है, तो रोआं-रोआं कहता है; उपस्थिति कहती है।
तो जब आप किसी के प्रेम में हों, तो भाव को मौका दें, बुद्धि को बीच में मत लाएं। जब आप प्रार्थना में हों, तो भाव को मौका दें, बुद्धि को बीच में मत लाएं। जब आप सौंदर्य को देख रहे हों--सूरज निकला है, फूल खिल गया है; कोई आंखें हैं, सुंदर हैं--तब भाव को मौका दें, बुद्धि को बीच में मत लाएं।
भाव इतना ही कहेगा, आंखें सुंदर हैं। बुद्धि कहेगी, इन आंखों को घर में कैद करने का कोई उपाय है या नहीं! भाव इतना ही कहेगा, प्यारा है फूल; अनुभव करेगा। बुद्धि कहेगी, तोड़ो। क्योंकि बुद्धि जहां भी प्यारा कुछ लगे, उसको तोड़ना चाहती है। बुद्धि बहुत हिंसात्मक है।
अगर सच में ही किसी ने फूल को प्रेम किया है, तो मुश्किल है सोच पाना कि उसे तोड़ेगा कैसे? लेकिन आप जब भी फूल को प्रेम करते हैं, तो जो पहला काम आप करते हैं, वह फूल को तोड़ने का है। अजीब प्रेम है! अगर यही प्रेम है, तो हत्या करना किसे कहते हैं?
जब भी फूल प्यारा लगता है, तो पहला काम कि तोड़ो झटके से; उसके जीवन को नष्ट करो। उसका जो जीवंत रूप था, हटाओ। और एक मुर्दे फूल को खीसे में लगाकर घूमो। शायद फूल से आपको बिलकुल प्रेम नहीं है। शायद इस फूल को भी आप अपने अहंकार की शोभा और आभूषण बनाना चाहते हैं।
अगर कोई स्त्री मुझे सुंदर लगे, तो कैसे जल्दी इसे अपने घर में कैद करूं, यह बुद्धि का खयाल है। बुद्धि इसी भाषा में सोचती है। भाव नहीं सोचता। भाव को अगर कोई सुंदर लगता है, तो कारागृह में डालने का कोई सवाल ही नहीं है। अगर भाव को कोई सुंदर लगता है, तो कारागृह में हो भी, तो उसे मुक्त कर देने की कामना पैदा होती है। अगर किसी को फूल सुंदर लगा है और जमीन पर पड़ा है, तो वह उसे उठाकर कहीं पानी में रख देना चाहेगा कि थोड़ी देर और ज्यादा जिंदा रह जाए।
भाव की प्रक्रिया अलग है। भाव आपको कठिनाई में नहीं डालता। लेकिन बुद्धि आपके ऊपर इतनी जोर से कसकर बैठी है कि भाव बोल भी नहीं पाता कि बुद्धि अपने वक्तव्य देने शुरू कर देती है। और भाव कह भी नहीं पाता कि क्या अनुभव हुआ, बुद्धि योजना बनाने लगती है कि क्या करना चाहिए।
नहीं; सौंदर्य का अनुभव बुरा नहीं है, लेकिन सौंदर्य को कैद करने की जो बुद्धि है, वह पाप है। और अगर हम इस पृथ्वी पर किसी दिन भाव से जीना शुरू करें, और किसी के सौंदर्य को अगर आप सड़क पर खड़े होकर देखने लगें, तो वह बुरा अनुभव नहीं करेगा; नहीं करना चाहिए। क्योंकि परमात्मा की इस देन को अगर कोई आनंद से देख रहा है, तो हर्ज कहीं भी, कुछ भी नहीं है। लेकिन अभी वह बुरा अनुभव करता है, क्योंकि सबको पता है कि देखना केवल प्रारंभ है, केवल शुरुआत है एक लंबे नर्क की। इसलिए देखने के नियम हैं।
अगर मैं सरसरी नजर से आपको देखूं, तो कोई एतराज नहीं। अगर जरा समय से ज्यादा रुक जाऊं, तो खतरा शुरू हो जाता है। क्योंकि उतनी देर रुकने का मतलब है, नजर उतनी देर रुकी, उसका मतलब है कि अब मैं किसी कारागृह में डालने की योजना बना रहा हूं, या किसी वासना की तृप्ति पर उतर आया हूं। इसलिए हमारी आंख को भी हमें हिसाब में रखना पड़ता है। किसको कितनी देर देखो, हिसाब रखना पड़ता है।
अगर भाव कह भी रहा हो कि दो क्षण रुक जाओ, शायद ऐसा सौंदर्य फिर दिखाई न पड़े, शायद परमात्मा की ऐसी कुशलता फिर दिखाई न पड़े, तो भी बुद्धि कहेगी कि इतनी ज्यादा देर रुके तो खतरा हो सकता है। दूसरा भी सचेत हो जाता है! दूसरा भी सचेत हो जाता है।
किसी को घूरकर देखिए। घूरकर देखना ही बुरी बात है। घूरकर देखने का मतलब ही बुरा हो जाता है। हम तो कहते ही उस आदमी को लुच्चा हैं, जो घूरकर देखता है। लुच्चा का मतलब सिर्फ होता है, घूरकर देखने वाला। और कुछ मतलब नहीं होता इस शब्द का। लुच्चा, आंख से बना शब्द है, लोचन से। जो आंख गड़ाकर देखता है, वह लुच्चा। वैसे आलोचक का भी यही मतलब होता है। वह भी जरा आंख गड़ाकर चीजों को देखता है, कि आप क्या कह रहे हैं, वह जरा आंख गड़ाकर देखता है--क्रिटिक, आलोचक। आलोचक और लुच्चे में बहुत फर्क नहीं है। लुच्चा जरा गलत जगह लगा देता है, आलोचक जरा ठीक जगह लगा देता है।
आंख को गड़ाकर देखना, बुद्धि आ गई। दूसरी तरफ भी आ गई, इस तरफ भी आ गई; और अड़चन शुरू हो गई।
भाव! एक बच्चा अगर किसी सुंदर स्त्री को खड़ा होकर देखता रहे, तो उसे कुछ बेचैनी न होगी। क्योंकि अभी सिर्फ भाव है। भाव इनोसेंट है; भाव बहुत निर्दोष है, पवित्र है। लेकिन यही बच्चा कल जवान हो जाएगा। और यही घूरकर देखेगा, तो कठिन हो जाएगा। क्यों? अब सिर्फ भाव न रहा। अब बुद्धि योजना बनाने लगेगी और वासना के उपयोग में आने लगेगी।
हैरान होंगे जानकर आप, भाव वासना का जन्मदाता नहीं है। अगर शुद्ध भाव में कोई ठहर सके, तो वासना तिरोहित हो जाती है। वासना का जन्म होता है बुद्धि और वृत्ति के सहयोग से। भाव और वृत्ति के बीच कभी कोई सहयोग नहीं होता। बुद्धि और वृत्ति के बीच सहयोग हो जाता है। और बुद्धि रास्ता बताती है कि यह है मार्ग; जाओ बाहर। खोजो। पाने का उपाय करो। पा लोगे। ये-ये विधियां हैं। ये-ये रीतियां हैं। इस तरह चलोगे, तो सफल हो जाओगे।
और जब भी कोई व्यक्ति बुद्धि की मानकर चलने लगता है, धीरे-धीरे भाव का केंद्र सो जाता है। और जिसका भाव का केंद्र सो गया, वह चलती-फिरती लाश के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। वह एक कंप्यूटर हो सकता है कि गणित का हिसाब लगा देता हो, दफ्तर का काम कर देता हो, दुकान चला लेता हो। इंजीनियर हो, कि डाक्टर हो, कि वकील हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह सिर्फ एक कंप्यूटर है। यह जो उसकी खोपड़ी कर रही है, यह तो अब कंप्यूटर बहुत बेहतर ढंग से कर देगा।
कंप्यूटर और आदमी में एक ही फर्क है कि कंप्यूटर अभी तक भाव नहीं कर सकता; बुद्धि का तो सब काम कर देता है। अगर आप भी सिर्फ बुद्धि रह गए हैं, तो आप बहुत जल्दी रिप्लेस कर दिए जाएंगे; आप बहुत जल्दी गैर-जरूरी हो जाएंगे। और किसी कबाड़खाने में आपको उठाकर रख दिया जाएगा। क्योंकि आप महंगे भी हैं, खर्चीले भी हैं, नान-इकोनामिकल भी हैं। कंप्यूटर बेहतर है। वह भोजन करता नहीं या बहुत कम भोजन करता है। थोड़ी-सी बिजली लेता है। टूटता-फूटता नहीं। भूल-चूक कभी नहीं करता। और हजार आदमी जिस काम को कर सकें लाखों घंटों में, वह क्षण में कर देता है। तो आदमी तो आउट आफ डेट है। कंप्यूटर उसकी जगह आ जाएगा ।
आदमी के बचने की एक ही संभावना है कि आदमी अगर अपने भाव के केंद्र को पुनर्जाग्रत कर ले, तो ही कंप्यूटर से जीत सकता है। अन्यथा जीतने का अब कोई उपाय नहीं है।
और ध्यान रहे, आदमी आदमी से लड़ता रहा, यह एक बात थी। अब पहली दफा आदमी मशीन से लड़ेगा। और मशीन से लड़कर आदमी जीतेगा नहीं, क्योंकि मशीन सब कुछ आपसे ज्यादा कुशलता से कर सकती है। सिर्फ एक काम मशीन नहीं कर सकती, वह भाव है।
लेकिन भाव हमारे पास नहीं है। भाव का हमें पता ही नहीं। हृदय में हम सिर्फ एक ही बात जानते हैं कि वह जो धड़कन होती रहती है। वह भी हम तभी जानते हैं, जब कोई बीमारी, कोई अड़चन आ जाती है। लेकिन वह धड़कन तो सिर्फ फुफ्फुस है। वह धड़कन तो सिर्फ पंपिंग स्टेशन की वजह से है। श्वास को, खून को पंप कर रही है, इसलिए धड़कन है। वह हृदय नहीं है। उस धड़कन के पास एक और धड़कन भी है, जिसको नापा नहीं जा सकता। वह भाव की धड़कन है।
लेकिन भाव को फैलाएं, मौका दें, अवसर दें, और धीरे-धीरे भाव को केंद्रित करें, तो वह संयम में सहयोगी बन जाता है। या संयम हो, तो वह भाव में सहयोगी बन जाता है। साधना के जगत में सब चीजें अन्योन्याश्रित हैं, इंटरडिपेनडेंट हैं। कहीं से भी शुरू करें, दूसरी चीज सहयोगी हो जाती है।
और प्राण को मस्तक में!
प्राण से अर्थ है, जिसे बर्गसन ने एलान वाइटल कहा है, जीवन शक्ति कहा है, भारत उसे सदा से प्राण कहता रहा है। प्राण है हमारे भीतर वह ऊर्जा, जिसके सहारे हम जीते हैं। और जब यह शरीर छूटता है तो शरीर से कुछ भी नहीं जाता, सिर्फ प्राण चला जाता है। लेकिन वह प्राण अगर मस्तक में स्थापित होकर जाए, तो परम गति को उपलब्ध होता है। और अगर मस्तक में स्थापित न हो पाए, तो जिस केंद्र पर स्थापित होता है, उसी गति को उपलब्ध होता है।
परम गति, कृष्ण किसे कहते हैं, वह भी हम समझ लें। परम गति उसे ही कहा है, जिसके आगे फिर कोई गति नहीं। परम गति उसे ही कहा है, जो अंतिम गति है, दि अल्टिमेट है, जिसके आगे कुछ भी नहीं है।
इसलिए मोक्ष ही परम गति है, या ब्रह्म-उपलब्धि ही परम गति है, या निर्वाण ही परम गति है। बाकी सब गतियां परम नहीं हैं। क्योंकि उनके बाद और गतियां होंगी, और गतियां होंगी, और यात्राएं, और यात्राएं। परम यात्रा तो वही है, जिसके आगे फिर कोई मंजिल शेष नहीं रह जाती।
अगर प्राण इकट्ठा हो जाए भृकुटी-मध्य में, तो फिर कोई दूसरी गति में मनुष्य को नहीं जाना पड़ता। और जिस जगह केंद्रित होता है, उस जगह से पता चलता है कि किस गति में आदमी जाएगा।
प्रत्येक व्यक्ति का प्राण शरीर के अलग-अलग बिंदुओं से निकलता है। सभी व्यक्ति एक ही बिंदु से नहीं मरते। जिन व्यक्तियों का प्राण भ्रू-मध्य में इकट्ठा हो जाता है, उनका प्राण सहस्रार से निकलता है। आज्ञा-चक्र में जिनका प्राण स्थापित हो जाता है, तो जैसे ही आज्ञा-चक्र में प्राण का प्रवेश होता है, यह जो अंतिम चक्र है हमारा सहस्रार, दि सेवेंथ, उसे तोड़कर निकल जाता है। इसलिए परम ज्ञानियों की अक्सर खोपड़ी भी टूट जाती है उस जगह से। जरूरी नहीं है कि टूटे ही; अक्सर टूट जाती है।
लेकिन हमने इसीलिए नियम बना रखा है कि जब किसी को, मुर्दे को हम जलाने जाते हैं, तो उसकी कपाल-क्रिया कर देते हैं, खोपड़ी फोड़ देते हैं। वह खुद तो नहीं फोड़ पाए, काफी देर पहले मर गए। अब हम फोड़ रहे हैं! मुर्दे की खोपड़ी फोड़ रहे हैं। उसका कोई मतलब नहीं है। लेकिन सूचक है।
इस मुल्क ने जाने हैं ऐसे लोग, जिनकी मरते वक्त अपने आप खोपड़ी टूट जाती है। वह सूचना है कि वे परम गति को उपलब्ध हो गए। अब हम दीन-हीन, गरीब लोग हैं। मैं मर जाऊं और खोपड़ी अपने से न टूटे, तो एक बेटे को अपने पीछे छोड़ जाता हूं कि तू मेरी खोपड़ी तोड़ देना मरने के बाद! यह वैसे ही है, जैसे मरने के बाद कोई दवा दे, इंजेक्शन लगाए। इस खोपड़ी तोड़ने का कोई भी अर्थ नहीं है। यह बड़ी दीनता की सूचक है। यह खबर दे रही है कि जो होना था, वह नहीं हुआ। अब वे मुर्दे के साथ एक खेल कर रहे हैं।
लेकिन जिन्होंने यह रिवाज जारी किया, उन्हें पता था कि कभी-कभी कोई व्यक्ति उस छिद्र से भी प्राण को छोड़ता है। उस छिद्र से तभी प्राण छूटता है, जब प्राण भ्रू-मध्य में स्थापित होता है, अन्यथा नहीं छूटता।
यही प्राण हमारी जीवन ऊर्जा है, लाइफ एनर्जी है। हम इसी के द्वारा गति करते हैं। अगर भ्रू-मध्य तक वह नहीं पहुंचा, तो फिर कहीं से भी छूटे, हमें दूसरे जन्म को ग्रहण करना पड़ेगा। और जितने नीचे केंद्र से छूटेगा, उतनी नीची गति में हमारी यात्रा होती है। उतने ही निम्न मन और निम्न प्राण को और निम्न देह को लेकर हम फिर जीवन को चलाते हैं।
अक्सर अधिक लोगों का प्राण काम-केंद्र से ही छूटता है। क्योंकि वही हमारा केंद्र है सर्वाधिक सक्रिय। और जब काम-केंद्र से हमारा प्राण छूटता है, तो हम कामवासना से भरे हुए फिर नए जीवन में प्रवेश कर जाते हैं।
कामवासना समस्त वासनाओं का आधार है, मूल है। फिर सब वासनाएं उसके साथ पुनः पैदा हो जाती हैं। और एक बार नहीं अनेक बार मरकर भी हम वही भूल करते हैं कि हम ठीक से नहीं मरते।
ठीक से मरना एक कला है। ठीक से जीना तो एक कला है ही, लेकिन ठीक से मरना भी एक बड़ी कला है। हालांकि जो ठीक से जीते हैं, वही ठीक से मर पाते हैं। इसलिए हम ऐसा कह सकते हैं कि ठीक से जीना, ठीक से मरने की कला का प्राथमिक चरण है। शिखर और सेतु तो ठीक से मरना है! हाउ टु डाइ राइटली? सम्यक मृत्यु कैसे फलित हो?
कृष्ण उसी सम्यक मृत्यु की चर्चा कर रहे हैं। वे कहते हैं, प्राण स्थिर हो जाए भ्रू-मध्य में।
और ध्यान की कोई भी विधि का उपयोग करें, प्राण भ्रू-मध्य में स्थापित होने लगता है। कोई भी ध्यान की प्रक्रिया करें--भजन में लीन हों, कि प्रार्थना में, कि नमाज में, कि मौन बैठें, कि नाम स्मरण करें--कोई भी उपाय करें, जब भी ध्यान फलित होता है, तो प्राण भ्रू-मध्य की तरफ दौड़ने लगते हैं। वही ध्यान की सफलता का सूचक है, लक्षण है, कि अब भ्रू-मध्य की तरफ ध्यान दौड़ना शुरू हो गया, तो ध्यान सफल हो रहा है, स्वीकृत हो रहा है; प्रभु के मार्ग पर स्वीकृत होता जा रहा है।
जो पुरुष ऐसे क्षण में ब्रह्म को उच्चार करता हुआ, मुझे चिंतन करता हुआ, शरीर को त्याग जाता है, वह परम गति को उपलब्ध होता है।
यह बात थोड़ी समझनी पड़ेगी। जो पुरुष ओम, ऐसे अक्षर रूप ब्रह्म का उच्चार करता हुआ...।
इससे बहुत बड़ी भ्रांति होती है। क्योंकि हम एक ही तरह का उच्चारण जानते हैं, जो हम करते हैं। हमें उस उच्चार का कोई भी पता नहीं, जो होता है, दैट व्हिच हैपेंस
हम ओम का उच्चार कर सकते हैं, चेष्टा से। लेकिन जो ओम का उच्चार चेष्टा से होगा, वह हृदय तक नहीं जाता। क्योंकि चेष्टा कंठ से नीचे नहीं उतरती। कंठ से जो पैदा होता है, वह कंठ तक रहेगा। होंठ से जो पैदा होता है, वह होंठ तक रहेगा। इसलिए इस तरह के उच्चार को आहत नाद कहा है। आहत नाद का अर्थ है, जो दो चीजों के टकराने से पैदा होता है। दोनों होंठ टकराते हैं, आवाज पैदा होती है। जीभ तालू से टकराती है, उच्चार होता है। कंठ की मांस-पेशियां सिकुड़ती हैं, टकराती हैं, उच्चार पैदा होता है।
एक तरह की ध्वनि हम जानते हैं, जो आहत नाद है। आहत नाद का अर्थ है, दो चीजों के संघर्षण से पैदा हुआ शब्द, ध्वनि।
कृष्ण जिस उच्चार की बात कर रहे हैं, वह है अनाहत नाद। अनाहत नाद का अर्थ है, बिना दो चीजों के टक्कर के पैदा हुआ नाद।
हम ऐसे किसी नाद को नहीं जानते। लोग कहते हैं, एक हाथ से ताली नहीं बजती। ठीक कहते हैं। ताली बजे भी, तो दूसरा हाथ जरूरी ही होगा। हाथ न हो, तो कोई दूसरी चीज जरूरी होगी। लेकिन दूसरा जरूरी होगा। एक हाथ से ताली बजाइएगा कैसे? बजने के लिए दूसरा चाहिए, संघर्षण चाहिए।
जगत में जितना नाद है, सब आहत नाद है। चाहे वृक्षों से दौड़ती हुई सरसराती हवा, या सागर की लहरों की टक्कर चट्टानों से, कि बांसों के झुरमुट में होती गूंज, कि पक्षियों के गीत, कि आकाश की गड़गड़ाहट, कि आदमी की वाणी, कि सितार पर गूंजता हुआ स्वर, कि पानी की कल-कल, जो कुछ भी है इस जगत में, सब आहत नाद है।
एक नाद और भी है इस जगत में जो अनाहत है, वही ओम, वही ओंकार है। लेकिन वह तब पैदा होता है, जब भीतर सब संघर्ष बंद हो जाता है।
इसे ठीक से समझ लें।
जब तक भीतर किसी तरह का संघर्ष और कांफ्लिक्ट है, तब तक आहत नाद ही होता है। अब एक आदमी बैठकर अगर भीतर कहे, ओम-ओम, तो वह आहत नाद है। वह ओम नहीं है वह, जो अपने से उच्चरित होता है, जो गूंज उठता है प्राणों से और हम केवल साक्षी होते हैं, कर्ता नहीं होते।
कृष्ण कहते हैं, जो पुरुष ओम, ऐसे इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चार करता हुआ...।
यहां कर्ता की तरह करता हुआ नहीं, यहां समस्त अस्तित्व से ओम का उच्चार होता हुआ, ज्यादा ठीक होगा कहना। यहां सारी प्राण ऊर्जा ओम का उच्चार होती हुई, ओम का उच्चार बनकर जब गतिमान होती है, तो परम गति उपलब्ध होती है।
कभी अगर एक क्षण भी ऐसा अवसर मिल जाए, जब भीतर कोई संघर्षण न हो, परम मौन हो, कोई शब्द न हो, कोई स्वर न हो, तब भीतर ही आंखों और कानों को बंद करके सुनना, क्या गूंजता है भीतर? शीघ्र ही एक अनूठी ध्वनि सुनाई पड़नी शुरू हो जाएगी, जो कभी नहीं सुनी। ओम तो सिर्फ उसकी कापी है समझाने को, प्रतिलिपि है; कार्बन कापी है। ओम से पता नहीं चलता; सिर्फ इशारा है। जो गूंज वहां अनुभव होती है, वह करीब-करीब ऐसी है, जैसा ओम के उच्चार से मालूम पड़े। पर वह ठीक ऐसी नहीं है। निकटतम, एप्रॉक्सिमेटली, ऐसी है।
इसलिए अनेक लोगों ने उसे अनेक तरह से समझा है। हिंदू ओम के उच्चार से समझे हैं। हिब्रू, यहूदी, मुसलमान उसी को आमीन की तरह समझे हैं। वह ओम, जो हमने ओम समझा, वह भीतर की ध्वनि को सूफियों ने समझा, आमीन। वह आमीन जैसा भी सुनाई पड़ सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है।
ये दो ही शब्द हैं इस समय जमीन पर, आमीन और ओम। आधे धर्म दुनिया के आमीन के खयाल में हैं, आधे धर्म दुनिया के ओम के। भारत में जो धर्म पैदा हुए, वे सब ओम के खयाल में हैं। और उस खयाल में कोई और कारण नहीं है। जब हमें पता है कि ओम, जो जब पहली दफे हमें वह ध्वनि सुनाई पड़ेगी, तो ओम जैसी सुनाई पड़ेगी। जिनको पता है आमीन, उन्हें आमीन जैसी सुनाई पड़ जाएगी।
लेकिन ये दोनों ही केवल फीकी प्रतिध्वनियां हैं उस ध्वनि की। स्मृति से, बुद्धि से समझा गया उच्चार है। वह इन दोनों से भिन्न और दोनों से मिलती-जुलती है। उस ध्वनि को अनाहत कहा है, क्योंकि वह बिना किसी चीज से टकराए पैदा होती है। वह अस्तित्व की ध्वनि है। वह अस्तित्व के होने से ही पैदा हो रही है।
इस ध्वनि को उच्चार करता हुआ जो पुरुष मेरे चिंतन में रमा, शरीर को त्यागकर जाता है...।
हम शरीर को त्याग नहीं करते, हमें शरीर त्याग करना पड़ता है। बड़ी मजबूरी में, बड़ी विवशता में, बड़ी मुश्किल से; छीना-झपटी होती है हमसे। आपने कथाएं पढ़ी होंगी, कहानियां कहती हैं, धर्मगुरु समझाते हैं, वे कहते हैं कि जब मौत आती है, तो मौत के यमदूत आते हैं और बड़ी जोर-जबरदस्ती करके आत्मा को छीनकर ले जाते हैं।
उलटी है यह बात। कोई छीनकर आत्मा नहीं ले जाता। आप ही शरीर को इतने जोर से पकड़ते हैं कि छीना-झपटी हो जाती है। प्राण जाना चाहते हैं। कोई उस तरफ से नहीं खींचता आपको। किसी को खींचने की जरूरत नहीं है। प्राण जाना चाहते हैं। वक्त आ गया। समय चुक गया। शरीर व्यर्थ हो गया। और आपका मन छोड़ना नहीं चाहता। आप पकड़े हैं। नाव छूट चुकी, उसका इंजन दौड़ने लगा; और आप किनारे को पकड़े हुए हैं। जो छीना-झपटी होती है, वह उस तरफ से नहीं, इसी तरफ से होती है, हमारे द्वारा होती है। हम शरीर को फिर भी पकड़े रहना चाहते हैं, हम फिर भी चीखते-चिल्लाते हैं। और बच जाएं, एक क्षण और मिल जाए। एक श्वास और ले लूं। हम त्याग नहीं कर पाते शरीर का।
अब यह बहुत मजे की बात है। न हम भोग कर पाते, न हम त्याग कर पाते। क्योंकि अगर भोग ही कर लिया हो, तो त्याग करने में कठिनाई नहीं आनी चाहिए। क्योंकि जिस चीज को हम भोग लेते हैं, उसे छोड़ने की तैयारी हो जाती है। जब पेट भर जाता है, तो आदमी थाली छोड़ देता है। लेकिन जिंदगीभर इस शरीर में रहकर भोग भी नहीं कर पाते कि थाली छोड़ सकें। जब वक्त आए छोड़ने का, तो हम कह सकें, भर गया पेट।
न हम भोग कर पाते, न हम त्याग कर पाते। हम बड़े अजीब लोग हैं। जब भोग का समय होता है, तब हम भोग को पोस्टपोन करते रहते हैं, कल कर लेंगे! इंतजाम पहले कर लें, फिर भोग कर लेंगे। फिर इंतजाम में जिंदगी चुक जाती है, फिर मौत सामने आ जाती है, त्याग का वक्त आ जाता है। लेकिन अभी हमने भोग ही नहीं किया, तो त्याग कैसे करें! तो पकड़ने की चेष्टा चलती है।
ध्यान रहे, अगर कोई आदमी विवेकपूर्वक, बुद्धिमानीपूर्वक, होशपूर्वक भोग कर ले, तो त्याग करने में कठिनाई नहीं आनी चाहिए। क्योंकि शरीर में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे पकड़ने की आकांक्षा शेष रह जाए। सिर्फ अज्ञान ही पकड़ा सकता है। और भोग न कर पाने के कारण त्याग की क्षमता नहीं हो पाती।
भोग करें। और ठीक से भोग कर लें। और होशपूर्वक भोग कर लें। और देख लें कि शरीर क्या दे सकता है। और जान लें कि शरीर से क्या मिल सकता है। जल्दी ही आप इस नतीजे पर पहुंच जाएंगे कि शरीर से कुछ भी मिलने वाला नहीं है। अगर कुछ खोजना है, तो किसी और दिशा में खोजना पड़ेगा। फिर शरीर को छोड़ने में कठिनाई नहीं होती।
और जिसको यह प्रतीति हो जाए कि शरीर से कुछ मिलता नहीं, कुछ मिलेगा नहीं, वह तत्क्षण--तत्क्षण शरीर को त्यागने को तैयार हो सकता है। और मृत्यु तब जब आए, तो वह सहज स्वीकार कर सकता है कि ठीक है, आ जाओ। मैं तो तैयार ही था। इस शरीर को मैं देख चुका। इसमें कहीं कुछ भी नहीं है, जो पाने योग्य है। और कहीं भी कुछ भी नहीं है, जिसे खोने का कोई भय हो। मैं शरीर को देख और जान चुका हूं। ऐसे व्यक्ति को संयम भी आसान हो जाता है। और ऐसे व्यक्ति को अंतिम क्षण में शरीर का त्याग भी सरल हो जाता है।
शरीर को त्यागकर जाता है ऐसा जो पुरुष, वह परम गति को प्राप्त होता है।
परम गति, यानी जिसके आगे फिर और कोई गति नहीं है। जहां से लौटना नहीं है, जिसके आगे जाना नहीं।
शब्द बड़ा अदभुत है। गति का तो मतलब होता है मूवमेंट। गति का अर्थ होता है मूवमेंट, चलना, बदलना, परिवर्तन। परम गति का क्या मतलब होगा? वहां तो कोई चलना नहीं होता, कोई मूवमेंट नहीं; कोई जाना नहीं, कोई आना नहीं।
परम गति शब्द कंट्राडिक्टरी है, विरोधी है। असल में परम कहना और गति कहना, दो विरोधी शब्दों का एक साथ प्रयोग करना है। कहना कि अल्टिमेट मूवमेंट! मूवमेंट कभी भी अल्टिमेट नहीं हो सकता। क्योंकि गति का अर्थ ही होता है कि वह अभी किसी तरफ हो रही है। गति का अर्थ ही होता है कि अभी हो रही है। तो जिस तरफ हो रही है, वहां होगा अंत। अभी अंत नहीं हो गया। गति स्वयं में कभी अंत नहीं होती। अंत कहीं आगे होगा, जिसकी तरफ गति होती है।
परम गति विरोधी शब्द है। लेकिन जीवन में जितने गहरे सत्यों का उदघाटन करना हो, उतने विरोधी शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। और इसीलिए संतों की वाणी निरंतर कंट्राडिक्शंस से, विरोधों से, असंगतियों से भरी होती है। असल में संत बोल ही नहीं सकता, बिना कंट्राडिक्ट किए संत बोल ही नहीं सकता। और अगर कोई बोलता हो, तो उसे सत्य का कोई पता नहीं होगा।
सत्य को बोलने का मतलब ही यह है कि आपको विरोधी शब्दों का एक साथ प्रयोग करना पड़ेगा। उपनिषद कहते हैं, दूर से भी दूर और निकट से भी निकट है वह। या तो कहो दूर से भी दूर; रुको। या कहो, निकट से भी निकट; और ठहरो! कृपा करके दोनों तो एक साथ मत कहो कि दूर से भी दूर है वह और निकट से भी निकट है! कंट्राडिक्शन का तो उपयोग मत करो।
लेकिन कोई उपाय नहीं। ऐसा ही है वह। पास भी इतने कि उससे ज्यादा पास कोई नहीं। और फिर भी अनंत-अनंत यात्रा करके भी उस तक पहुंच कहां पाते हैं! दूर से भी बहुत दूर। शायद इसीलिए बहुत दूर है कि बहुत पास है। इतने पास है कि चलने का मौका ही नहीं मिलता कि कैसे चलकर उसके पास पहुंचें। जरा दूर हो, तो आदमी चलकर भी पहुंच जाए। बहुत पास हो, तो चलकर कैसे पहुंचे!
मुल्ला नसरुद्दीन एक जगह काम करता है। दफ्तर उसके घर के सामने है, लेकिन रोज ही वह देर पहुंचता है। लेट लतीफ। रोज ही। आखिर एक दिन मालिक के बरदाश्त के बाहर हुआ। उसने कहा, नसरुद्दीन, सीमा भी होती है किसी बात की। जो आदमी छः मील दूर रहता है, वह ठीक दस बजे आ जाता है। और तुम दफ्तर के सामने हो और तुम कभी भी ठीक वक्त पर नहीं आ पाते!
नसरुद्दीन ने कहा, उसका कारण है। बिकाज आई एम सो नियर, क्योंकि इतने निकट हूं। उसके मालिक ने कहा, यह कैसा कारण! समझ में नहीं आया। तो नसरुद्दीन ने कहा कि इस आदमी को अगर देर हो जाए, तो जल्दी चलकर देर की कमी पूरी कर लेता है। मुझे देर हो जाए, तो कितनी ही जल्दी चलूं, कोई फर्क नहीं! देर हो ही गई है! इस आदमी को मौका है, छः मील का फासला है। ही कैन मेक अप। आई कैन नाट मेक अप। घर से निकले कि दफ्तर! मेक अप करने की थोड़ी जगह ही नहीं है। इसलिए हम रोज लेट हो जाते हैं!
बहुत करीब हो, तो चूक सकता है, क्योंकि खयाल में ही न आए। आंखें दूर देखती हैं। पास देखने में सभी आंखें अंधी हैं। जितने पास हो जाए, दिखाई नहीं पड़ता। इस हाथ को पास पास पास, आंख के जितने पास ले आओ, उतना ही दिखाई पड़ना मुश्किल हो जाता है। फिर बिलकुल आंख से लगा लो, फिर कुछ दिखाई नहीं पड़ता। और वह आंख के भी पीछे है, तो कठिन हो जाता है।
परम गति भी विरोधी शब्द है, कंट्राडिक्शन इन टर्म्स। गति परम नहीं हो सकती; और जो परम है, वहां कोई गति नहीं हो सकती। लेकिन फिर भी सार्थक है, क्योंकि हम गति को ही पहचानते हैं। हमने बहुत गतियां की हैं। न मालूम कितनी योनियों में भ्रमण किया है। न मालूम कहां-कहां गतिमान हुए हैं। हमें तो एक ही पता है--गति, और गति, और गति।
कृष्ण कहते हैं, वह परम गति को उपलब्ध हो जाता है।
और परम गति अर्थात आखिरी गति को, जिसके आगे और कोई गति नहीं, जहां सब ठहर जाता है। परम गति का अर्थ है, जहां सब ठहर जाता है। जहां कंपन भी नहीं, लहर भी नहीं। जहां कोई मूवमेंट नहीं।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वहां मृत्यु है। यह जो ठहराव है, यह जो थिरता है, परम जीवन है; लेकिन बिना गति के। और गति का जो जीवन है, वह तो घिस जाएगा। और गति में जो जीवन है, वह आज नहीं कल गलेगा, सड़ेगा, टूटेगा, डिटेरिओरे होगा। लेकिन परम जीवन तो वही हो सकता है, शाश्वत, जहां कोई गति नहीं। क्योंकि गति में चीजें मिट जाती हैं।
हम सब गति में ही मिटते हैं। इसलिए सत्तर साल में शरीर घिस जाता है। घिस जाता है, इसका मतलब है कि सत्तर साल गति कर ली सब तरह से। मन को दौड़ाया, इंद्रियों को दौड़ाया, पैरों को चलाया; सब चले। सत्तर साल में सब घिस जाता है। शरीर छूट जाता है। फिर दूसरा शरीर पकड़ना पड़ता है।
उस परम स्थिति में जहां कोई गति नहीं, शरीर की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि वहां कोई गति नहीं। शरीर गति का यंत्र है, वाहन है। इसलिए वह स्थिति अशरीरी है। और परम है, क्योंकि उसके पार, उसको ट्रांसेंड करने वाला और कुछ भी नहीं है।
और हे अर्जुन, जो पुरुष मुझमें अनन्य चित्त हुआ, सदा ही स्मरण करता है मुझे, उस निरंतर मेरे में युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूं। अंतिम बात, कृष्ण कहते हैं, ऐसे व्यक्ति को मैं अति सुलभ हूं।
यह भी विरोधाभास है। क्योंकि परमात्मा तो अति दुर्लभ है। खड्ग की धार पर चलने जैसा है। बड़ा मुश्किल है। लाखों चलते हैं, एकाध पहुंच पाता है। बड़ा कठिन है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, ऐसे चित्तवान व्यक्ति को, जो सतत मेरे स्मरण में डूबा हुआ, भाव जिसका हृदय में आ गया, प्राण जिसका भृकुटी में और इंद्रियां जिसकी संयम को उपलब्ध हुईं और जिसके भीतर अनाहत के नाद की गूंज शुरू हो गई, ऐसे व्यक्ति को मैं अति सुलभ हूं। मुझसे ज्यादा सुलभ और ऐसे व्यक्ति को कोई और चीज नहीं है।
परमात्मा दुर्लभ है, अगर आप उलझे हुए हैं। परमात्मा बहुत सुलभ है, अगर आप सुलझे हुए हैं। सब निर्भर करता है आप पर, परमात्मा पर नहीं। जटिलता है आपकी, तो परमात्मा बहुत दुर्लभ है। और आप पीठ किए खड़े हैं सूरज की तरफ, तो सूरज का कोई कसूर नहीं है। और आप कितने ही चलते रहें पीठ किए, आप कभी भी सूरज का दर्शन न कर पाएंगे। क्योंकि जो आंखें पीठ किए हैं, वे कितनी ही चलें, कितनी ही चलें, सूरज के दर्शन का कोई सवाल नहीं। और एक कदम वापस लौटें, लौटकर देखें, और एक कदम भी फिर चलने की जरूरत नहीं; सूरज आंख के सामने है।
परमात्मा ऐसा ही सुलभ और दुर्लभ है। अगर पीठ किए रहें उसकी तरफ, तो अति दुर्लभ है। कितना ही दौड़ें जन्मों-जन्मों, नहीं मिलेगा। और लौटें, ऊर्जा को लौट आने दें भीतर, संयमित हों, ध्यान को उपलब्ध हों, समाधि को पाएं...।
समाधि, ध्यान, कुछ और नहीं, जस्टटघनग, लौटना, एन अबाउट टर्न, चित्त का लौट आना स्वयं पर; और आप इसी वक्त उपलब्ध हो जाते हैं। इसी क्षण भी उपलब्ध हो सकते हैं। बहुत सुलभ है। सब आप पर निर्भर है, इट डिपेंड्स आन यू।
लेकिन हम बड़े होशियार हैं। हम मंदिर के सामने जाकर कहते हैं कि मैं बहुत पापी हूं, मुझ से क्या होगा! तू ही कुछ करवा लेना! और अपने पाप में लौटकर बड़ी कुशलता से लग जाते हैं। अगर हम परमात्मा को परम दयालु भी कहते हैं, तो इसलिए नहीं कि हम मानते हैं, वह परम दयालु है। सिर्फ इसीलिए कि इसमें हमें सुविधा है।
उमर खय्याम ने मजाक में कहा है--मौलवी ने रोका है उसे कि शराब पीना बंद कर खय्याम--तो खय्याम कहता है कि हम तो पीते ही रहेंगे, क्योंकि हमें उस रहमान की रहमत पर भरोसा है; उस परम कारुणिक पर हमें पूरा भरोसा है। तू आस्तिक है? तू आस्तिक कैसा! नास्तिक है। मौलवी से खय्याम कहता है अपनी शराब की प्याली हाथ में लिए, तू नास्तिक है। हमें तो उसका भरोसा है। उसकी करुणा अपार है। और हम क्या खाक पाप किए! महान करुणा के सामने हम कितने ही पाप करें, सब क्षमा है।
यह उमर खय्याम हम सब पर मजाक कर रहा है। हम सब ऐसे ही हैं।
नहीं, वह सुलभ होगा तभी, जब हम उसकी ओर उन्मुख हों। वह दुर्लभ रहेगा तब तक, जब तक हम विमुख हैं। विमुखता ही उसकी दुर्लभता, और हमारी उन्मुखता ही उसकी सुलभता बन जाती है।

आज इतना ही।

पर अभी कोई उठेगा नहीं। पांच-सात मिनट उन्मुख होने की कोशिश कर लें। कौन जाने इन्हीं पांच-सात क्षणों में कुछ घटित हो जाए। कोई जाएगा नहीं; कोई उठेगा नहीं। कीर्तन भी बैठकर ही संन्यासी करेंगे। आप भी सम्मिलित हों।


2 टिप्‍पणियां:

  1. "परमगति" शब्द की संरचना का ओर-नया ही पहलू ओशो ने जिस तरह उद्धातित किया हैं मानों रोमांचित हों उठी मैं तो, वाह ओशो वाह ! ओं मेरे प्यारे ओशो !आपको शत कोटि-कोटि प्रणाम |

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