अध्याय
14 : खंड 1
पूर्व-ऐतिहासिक
स्रोत
उसे
देखें, फिर
भी वह अनदिखा
रह जाता है;
इसीलिए
उसे अदृश्य
कहा जाता है।
उसे
सुनें, फिर
भी वह अनसुना
रह जाता है;
इसीलिए
उसे अश्राव्य
कहा जाता है।
उसे
समझें, फिर
भी वह अछूता
रह जाता है;
इसीलिए
उसे
अस्पर्शनीय
कहा जाता है।
इस
प्रकार वह
अदृश्य, अश्राव्य
और
अस्पर्शनीय
हमारी
जिज्ञासा की
पकड़ से छूट
जाता है;
और
वह दुर्ग्राह्य
बना रहता है।
अस्तित्व
के परम रहस्य
के संबंध में
यह सूत्र है।
जिन
शब्दों में उस
रहस्य को कहा
जाता है, वे
सभी शब्द छोटे
पड़ जाते हैं।
न केवल छोटे, बल्कि जो
कहना चाहते
हैं हम, उससे
विपरीत उन
शब्दों से
प्रकट होता
है। इसे दोत्तीन
दिशाओं से
समझना जरूरी
होगा।
एक, मनुष्य
के सभी शब्द
अधूरे हैं।
कोई शब्द पूरा
नहीं है। और
कोई शब्द पूरा
हो भी नहीं
सकता। क्योंकि
शब्द जिस
बुद्धि से
निर्मित होते
हैं, वह
बुद्धि
अस्तित्व का
एक छोटा सा
अंश मात्र है।
और अंश से जो
भी निर्मित
होगा, वह
पूर्ण नहीं
होता। हमारे
जीवन का भी
बुद्धि एक
छोटा सा
हिस्सा है।
बुद्धि से
ज्यादा हैं हम।
बुद्धि से बड़े
हैं हम।
बुद्धि से
विराट हैं हम।
हमारा जो होना
है, उसमें
बुद्धि भी एक
बूंद है।
लेकिन वह
हमारा पूरा
सागर नहीं।
शब्द निर्मित
होते हैं
बुद्धि से।
अंश से जो भी
निर्मित होता
है, वह
पूर्ण नहीं
होता, अंश
ही होता है।
इसलिए बुद्धि
से निर्मित
सभी शब्द छोटे
पड़ जाते हैं।
दूसरी
बात,
हमारे सभी
शब्द इंद्रियों
से प्रभावित
होते हैं। अगर
हम कहें कि वह परम
सत्य देखा
जाता है, तो
उसका अर्थ हुआ
कि आंखें उसे पकड़ने में
समर्थ हैं।
अगर हम कहें
वह परम सत्य
सुना जाता है,
तो उसका
अर्थ हुआ कि
कान उसे पकड़ने
में समर्थ
हैं। अगर हम
कहें कि वह
स्पर्श किया
जा सकता है, तो उसका अर्थ
हुआ हाथ उसके
अनुभव में
समर्थ हैं।
हाथ स्पर्श
करता है, कान
सुनते हैं, आंख देखती
है। लेकिन आंख
जो भी देखेगी,
वह सीमित
होगा। आंख की
अपनी सीमा जो
है। हाथ जो भी
छुएगा, वह
सीमित होगा।
हाथ असीम नहीं
है, इसलिए।
और कान जो भी
सुनेगा, वह
क्षुद्र
होगा।
क्योंकि कान
स्वयं
क्षुद्र है।
इंद्रियां
सीमित हैं, इंद्रियों
के अनुभव
सीमित हैं। और
जब हम विराट
असीम को सोचने
चलते हैं, तो
हमारी
इंद्रियों से
प्रभावित सभी
शब्द व्यर्थ
हो जाते हैं।
क्योंकि वे
सभी शब्द
सीमाओं की खबर
देते हैं। और
असीम पर
सीमाएं लगाना
उसकी प्रकृति
को ही नष्ट कर
देना है।
तीसरी
बात,
जब भी हम
विचार से किसी
वस्तु को
सोचते हैं, तो द्वंद्व
निर्मित हो
जाता है।
विचार विभाजन
की प्रक्रिया
है। विचार
चीजों को तोड़
कर देखने का
ही प्रयोग है।
जैसे कोई सूरज
की किरण को कांच
के प्रिज्म से
निकाले, तो
वह सात टुकड़ों
में बंट जाती
है। वे ही
हमारे सात रंग
हैं। प्रिज्म
किरण को सात
हिस्सों में
तोड़ देता है, तो सात रंग
दिखाई पड़ते
हैं। किरण
रंगहीन है, टूट कर सात
रंग हो जाते
हैं। सात
रंगों को जोड़ दें,
तो फिर सफेद
निर्मित हो
जाता है। सफेद
रंग नहीं है।
कांच के टुकड़े
में से जो सात
रंग दिखाई
पड़ते हैं, वे
कांच के टुकड़े
से गुजर कर
दिखाई पड़ते
हैं। सातों
रंग जुड़ जाते
हैं तो सफेद
दिखाई पड़ता है,
कोई रंग
नहीं रह जाता।
ठीक
बुद्धि भी
प्रत्येक चीज
को दो हिस्सों
में तोड़ देती
है। कहते
हैं--ठंडा और
गर्म। यह बुद्धि
की प्रक्रिया
से टूट गई
स्थिति है।
क्योंकि जिसे
हम ठंडा कहते
हैं,
वह गरमी का
ही एक माप है।
और जिसे हम
गर्म कहते हैं,
वह भी ठंडक
का एक माप है।
ठंडा और गर्म
दो चीजें नहीं
हैं। ठंडा और
गर्म तापमान
की दो स्थितियां
हैं--एक ही
तापमान की।
लेकिन बुद्धि
दो में तोड़
देती है।
बुद्धि मानने
को राजी न
होगी कि ठंडा
और गर्म एक ही
चीज है। तब तो
बर्फ और आग हमें
एक दिखाई पड़ने
लगे!
हम
कहेंगे, बर्फ
और आग एक कैसे
हो सकती है?
लेकिन
बर्फ आग के ही
तापमान का कम
अंश है। और आग
भी बर्फ के ही
तापमान का
हिस्सा है। एक
ही तापमान की डिग्रियां
हैं। एक छोर
पर बर्फ है, दूसरे
छोर पर आग है।
लेकिन तापमान
एक है। तो
थर्मामीटर दोनों
को नाप लेगा, आग को भी और
बर्फ को भी।
अगर आग और
बर्फ दो चीजें
होतीं, तो
हमें दो
थर्मामीटर की
जरूरत पड़ती।
एक ही थर्मामीटर
दोनों को नाप
लेता है; क्योंकि
दोनों एक ही
चीज की शृंखला
हैं। लेकिन
बुद्धि दो में
तोड़ लेती है।
घृणा
और प्रेम!
ठंडक और गर्मी
को समझना तो
बहुत आसान हो
जाएगा। इतना
कठिन नहीं, क्योंकि
हमसे बहुत दूर
है। घृणा और
प्रेम भी एक
ही चीज की दो स्थितियां
हैं। मन मानने
को राजी न
होगा। कहां
घृणा, कहां
प्रेम? कहां
क्षमा, कहां
क्रोध? कहां
भोग, कहां
त्याग? कहां
संसार की
आकांक्षा, कहां
मोक्ष की? लेकिन
एक ही
थर्मामीटर
नापने में
समर्थ है। घृणा
और प्रेम एक
ही चीज के दो
छोर हैं।
इसलिए
कोई भी प्रेम
कभी भी घृणा
बन सकता है और कोई
भी घृणा कभी
भी प्रेम बन
सकती है।
अक्सर होता ही
है। प्रेम
घृणा बन जाता
है;
घृणा प्रेम
बन जाती है।
मित्र शत्रु
हो जाते हैं; शत्रु मित्र
हो जाते हैं।
अगर घृणा और
प्रेम एक ही न
होते, तो
मित्र के
शत्रु होने का
कोई उपाय न
था। शत्रु फिर
मित्र कैसे
होता?
मैक्यावेली
ने अपनी अदभुत
किताब दि
प्रिंस में
सलाह दी है
सम्राटों को
कि मित्र से
भी वह मत कहना
जो शत्रु से
कहने में डर
हो। क्योंकि
मित्र कभी भी
शत्रु हो सकता
है। और शत्रु
के भी साथ
वैसा व्यवहार
मत करना जैसे
व्यवहार के
करने से मित्र
के प्रति
दुर्भावना
प्रकट हो।
क्योंकि जो आज
शत्रु है, कभी
मित्र हो सकता
है। जो शत्रु
है, वह बीज
रूप से मित्र
है, पोटेंशियली,
आज भी। कभी
भी मित्र हो
सकता है।
शत्रुता और मित्रता
एक ही संबंध
के दो छोर
हैं।
बुद्धि
सब चीजों को
दो में तोड़
लेती है। जन्म
और मृत्यु को
तोड़ लेती है।
जन्म
और मृत्यु एक
ही जीवन के दो
छोर हैं। एक तरफ
जन्म है, दूसरी
तरफ मृत्यु
है। और इन
दोनों में
कहीं भी बीच
में कोई
व्याघात नहीं
पड़ता, कोई
गैप नहीं आता।
जन्म ही तो
मृत्यु बन
जाता है। तो
इनको दो कहना
सिर्फ नासमझी
है। जन्म और
मृत्यु के बीच
में कहीं कोई
खाली जगह है, जहां जन्म
समाप्त होता
है और मृत्यु
शुरू होती है?
जन्म ही तो
बढ़ते-बढ़ते
मृत्यु बन
जाता है। तो जन्म
मृत्यु का ही
एक छोर है। एक
तरफ से देखते
हैं जीवन को, तो जन्म
मालूम पड़ता है;
दूसरी तरफ
से देखते हैं,
तो मृत्यु
मालूम पड़ती
है। लेकिन वे
एक ही चीज के
दो हिस्से, एक ही चीज के
दो नाम, दो
छोर हैं।
बुद्धि
हर चीज को दो
में तोड़ लेती
है। और दो में
तोड़ने के कारण
बुद्धि जो भी
वक्तव्य देती
है वह अधूरा
होता है। अगर हम
ईश्वर को कहें
कि वह प्रकाश
है,
जैसा कि
बहुत
शास्त्रों ने
कहा है, कुरान
ने कहा है, उपनिषदों
ने कहा है, बाइबिल
ने कहा है, ईश्वर
को प्रकाश कहा
है। वह हमारी
आकांक्षा को
प्रकट करता है,
वहां तक तो
ठीक है। वह
हमारे भाव को
प्रकट करता है,
वहां तक तो
ठीक है। काव्य
की तरह तो ठीक
है; लेकिन
तथ्य की तरह
झूठ है।
क्योंकि फिर
अंधेरा कौन
होगा? अगर
ईश्वर ही सब
कुछ है, तो
अंधेरा कौन
होगा?
ईश्वर
प्रकाश और
अंधेरा दोनों
है। असल में, प्रकाश
और अंधेरा एक
ही चीज के दो
छोर हैं। ऐसा
कोई भी अंधेरा
नहीं है, जहां
प्रकाश मौजूद
न हो। अंधेरा
प्रकाश की ही एक
अवस्था है। और
ऐसा कोई
प्रकाश नहीं
है, जहां
अंधेरा मौजूद
न हो। ऐसा कोई
जन्म नहीं, जहां मृत्यु
न हो। ऐसी कोई
मृत्यु नहीं,
जहां जन्म न
हो। एक के ही
दो छोर हैं।
लेकिन बुद्धि
दो में तोड़
लेती है। तो
फिर अंधेरे को
हम शैतान के
हिस्से में दे
देते हैं, प्रकाश
को परमात्मा
के हिस्से
में। शुभ और
अशुभ
है--बुराई अलग,
भलाई अलग।
बुद्धि कहेगी,
परमात्मा
शुभ है। फिर
अशुभ का क्या
होगा? सचाई
यह है कि शुभ
और अशुभ
अस्तित्व में
दो नहीं, एक
हैं। बुद्धि
जब भी किसी
चीज को देखती
है, तो दो
हो जाते हैं।
यह बुद्धि के
देखने के ढंग के
कारण!
इसे
ठीक से समझ
लें। यह
बुद्धि के
देखने का ढंग
है,
जो चीजों को
दो कर देता
है। चीजें दो
नहीं हैं। अगर
हम बुद्धि को
हटा दें, इस
पृथ्वी से
बुद्धि को हटा
लें, एक
क्षण को सोचें
कि पृथ्वी से
मनुष्य विलीन
हो गया, तब
कोई चीज कुरूप
होगी और कोई
चीज सुंदर
होगी?
नहीं, कोई
चीज कुरूप
नहीं होगी, कोई चीज
सुंदर नहीं
होगी। चीजें
होंगी; लेकिन
सुंदर और
कुरूप नहीं
होंगी।
क्योंकि सुंदर
और कुरूप
बुद्धि का
विभाजन था।
बुद्धि के
हटते ही
विभाजन खो
जाएगा। सुंदर
और कुरूप एक
ही हैं, एक
ही चीज के दो
छोर हैं। वे
रह जाएंगे।
लेकिन विभाजन
करने वाला
प्रिज्म बीच
से अलग हो गया,
तो सब
किरणें एक हो
जाएंगी, रंगहीन
हो जाएंगी।
यह मजे
की बात है कि
सब किरणें मिल
कर रंगहीन हो
जाती हैं और
टूट कर रंग
वाली हो जाती
हैं। बिलकुल
विपरीत! इकट्ठे
होकर सातों
रंग सफेद बन
जाते हैं, टूट
कर सात रंग बन
जाते हैं।
बिलकुल
विपरीत! तो
जिसने
प्रिज्म से
किरण को देखा
है, वह सोच
भी तो नहीं पा
सकता कि
प्रिज्म के
बाहर किरण
कैसी होती
होगी।
इंद्रधनुष
बनता है आकाश
में। किरणें
तो सदा आकाश
में आर-पार
होती रहती
हैं। लेकिन
इंद्रधनुष तब
बनता है, जब
पानी की
बूंदें
प्रिज्म का
काम करती हैं।
पानी की
बूंदों से
गुजर कर सूरज
की किरण सात
रंगों में टूट
जाती है, इंद्रधनुष
बन जाता है।
जिसने
इंद्रधनुष
देखा है और
किरण का और
कोई रूप नहीं
देखा, वह
जो भी कहेगा
किरण के संबंध
में वह गलत
होगा। कभी वह
कहेगा वह किरण
लाल है, कभी
वह कहेगा नीली
है, कभी
कहेगा हरी है।
जो उसको
प्रीतिकर
होगा रंग, वही
चुन लेगा।
लेकिन वह किरण
रंगहीन है, यह उसे खयाल
भी न आएगा।
सात रंगों में
से किसी एक
रंग की हो
सकती है, यह
तो खयाल आएगा;
लेकिन
रंगहीन है, यह खयाल
नहीं आएगा।
यही
तकलीफ बुद्धि
की भी है।
बुद्धि से
गुजर कर चीजें
दिखाई पड़ती
हैं। तो कोई
प्रकाश मान
सकता है ईश्वर
को,
कोई अंधेरा
मान सकता है।
जीसस
जिस छोटे से
रहस्यवादियों
के संप्रदाय में
सबसे पहले
दीक्षित हुए, वह
था इजिप्त का इसेन
संप्रदाय। वह
अकेला
संप्रदाय है
जगत में, जिसने
ईश्वर को
अंधकार रूप
माना है।
ईश्वर परम
अंधकार है, टोटल
डार्कनेस। वह
भी काव्य है।
और अंधकार की भी
अपनी कविता
है। और कोई
कारण नहीं है
कि प्रकाश से
ही उस कविता
को प्रकट किया
जा सके। और कभी
तो ऐसा लगता
है कि इसेनी
साधकों ने परम
अंधकार कह कर
ईश्वर को जो
गहराई दी, वह
प्रकाश कहने
वाले कोई भी
लोग कभी नहीं
दे सके।
क्योंकि
प्रकाश में एक
तरह की
उत्तेजना है
और अंधकार में
परम शांति है।
और प्रकाश की
तो सीमा होती
है, अंधकार
असीम है। और
प्रकाश तो आता
है, जाता
है; अंधकार
सदा बना रहता
है। और प्रकाश
को तो पैदा करना
पड़ता है किसी
स्रोत से; अंधकार
स्रोतहीन
है। तो प्रकाश
तो कहीं दीए
से पैदा होता
है, कहीं
सूरज से पैदा
होता है; लेकिन
किसी चीज से
पैदा होता है।
ईंधन की भी जरूरत
पड़ती है, चाहे
दीए में हो और
चाहे सूरज
में।
वैज्ञानिक कहते
हैं, सूरज
का ईंधन भी
चुकता जाता
है। कोई
तीन-चार हजार
साल में वह
ठंडा हो
जाएगा। तो प्रकाश
तो चुक सकता
है; अंधकार
चुकता ही
नहीं।
इसलिए
इसेनी फकीरों
ने जो धारणा
की कि ईश्वर
परम अंधकार है, उसमें
बड़ी सूझ है।
हमें नहीं पकड़
में आती, उसकी
वजह है कि
हमें अंधकार
से डर लगता
है। इसलिए
सारे भयभीत
लोगों ने
ईश्वर को
प्रकाश कहा है,
वह भय के
कारण। अंधेरे
में हमें लगता
है डर, तो
ईश्वर को
अंधकार तो हम
मान नहीं
सकते। क्योंकि
फिर अंधकार को
प्रेम करना
पड़ेगा।
प्रकाश में भय
कम लगता है।
तो हम
ईश्वर को परम
प्रकाश मानते
हैं। ये हमारी
आकांक्षाएं
हैं। लेकिन
कोई असुविधा नहीं
है,
कोई ईश्वर
को अंधकार
माने तो अड़चन
नहीं है। लेकिन
वह मानना भी
उतना ही
भ्रांत है, जितना
प्रकाश।
क्योंकि हम एक
को छोड़ेंगे।
इसेनी फकीर की
भी तकलीफ
है--अगर वह
अंधकार मानता
है, तो फिर
प्रकाश नहीं
मान सकता।
क्योंकि
बुद्धि कहेगी,
दोनों एक
साथ कैसे? जो
प्रकाश मानते
हैं, वे
कहेंगे, अंधकार
फिर नहीं हो
सकता ईश्वर।
दोनों एक साथ कैसे?
बुद्धि ने
तोड़ दिया दो
में, फिर
एक ही हो सकता
है।
ईश्वर
शुभ है; सब
श्रेष्ठतम, सुंदरतम, शुभतम गुण हमने
उसमें
स्थापित कर
दिए। फिर अशुभ
की कठिनाई हो
जाती है।
लेकिन ईश्वर
को अशुभ मानने
वाले लोगों का
भी वर्ग रहा
है। शैतान को
भी पूजने वाले
लोगों का वर्ग
रहा है। और
अभी अमरीका
में बीसवीं
सदी का पहला
एक बड़ा चर्च
निर्मित हुआ
है--फर्स्ट
चर्च ऑफ
शैतान। उसके
मानने वाले
हैं कोई
हजारों की
संख्या में।
वे शैतान को
ही ईश्वर
मानते हैं।
अशुभ ही ईश्वर
है। और तर्क
में उनके भी
बल है।
क्योंकि वे कहते
हैं, शुभ
है कहां? सिर्फ
धारणा है।
तथ्य तो अशुभ
है। भलाई है
कहां? सिर्फ
कल्पना है।
बुराई तो
मौजूद है। जो
मौजूद है, वही
परमात्मा है।
जो कल्पना है,
सपना है, उसके
परमात्मा
होने की क्या
बात करनी? तो
अहिंसा होगी स्वप्न
में, हिंसा
मौजूद है।
तो
शैतान ईश्वर
है। उसके
पुरोहित हैं, उसके
चर्च हैं।
छिपे हैं, क्योंकि
जो शुभ मानने
वाले लोग हैं
ईश्वर को, वे
भी इतने शुभ
नहीं हैं कि
ये चर्च अगर
प्रकट हो जाएं,
तो इनको
बचने दें।
इनकी हत्या कर
डालें! वही तो
शैतान को
ईश्वर मानने
वाले लोगों का
कहना है कि ये
जो भला मान
रहे हैं ईश्वर
को, इन्होंने
इतनी बुराई की
है कि जिससे
सिद्ध होता है
कि असली ईश्वर
तो बुराई है।
और भलाई का बहाना
लेकर भी वही
बुराई प्रकट
होती है। भलाई
का बहाना लेकर
भी बुरा ही जब
प्रकट होता हो,
तो असलियत
बुराई ही है।
क्यों न इसे
स्वीकार कर
लें?
शैतान
को ईश्वर
मानने वालों
का कहना यह है
कि आदमी कमजोर
है,
इसलिए
बुराई को
स्वीकार नहीं
कर पाता।
अन्यथा बुराई
है। उससे
बच-बच कर भी
बचना कहां हो
पाता है? उसे
हम स्वीकार
करते हैं। वे
कहते हैं, हम
उसे पूजते हैं,
हम अंगीकार
करते हैं।
जो शैतान
मान ले ईश्वर
को,
उसको भलाई
को इनकार करना
पड़ेगा जगत से,
है ही नहीं।
जो भलाई मान
ले ईश्वर को, उसे बुराई
को इनकार करना
पड़ेगा कि
बुराई है ही
नहीं। और
बुद्धि दो में
तोड़ कर देखती
है और एक को
चुन लेती है।
इसलिए
तीसरी बड़ी
कठिनाई है, वह
यह है कि उस
परम सत्य के
लिए जो सब है
एक साथ, सातों
किरण एक साथ, रंगहीन है।
उसे लाल कहें,
तो गलती हो
जाती है; पीला
कहें, तो
गलती हो जाती
है; नीला
कहें, तो
गलती हो जाती
है। और हमारी
आंखें रंग ही
देख पाती हैं।
वह जो रंगहीन
अस्तित्व है,
वह हमें
नहीं दिखाई
पड़ता है।
इस
सूत्र को अब
हम समझने की
कोशिश करें।
"उसे
देखें, फिर
भी वह अनदिखा
रह जाता है।'
उसे
देखना तो हो
सकता है, क्योंकि
देखना मेरे
हाथ में है।
लेकिन वह दिखाई
नहीं पड़ता है।
मैं आंखें गड़ा
कर उसे खोज
सकता हूं। फिर
भी मेरी आंखें
जिस दिन उस पर
पहुंचती हैं,
उस दिन कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ता है। एक
महान रिक्तता
ही दिखाई पड़ती
है।
इसलिए
परम गोपनीय
सूत्र है
साधकों का कि
जब तक तुम्हें
कुछ दिखाई
पड़ता रहे, तब
तक समझना कि
ईश्वर नहीं
दिखाई पड़ा।
ध्यान में भी
जब तक तुम्हें
कुछ दिखाई
पड़ता रहे, तब
तक समझना कि
ईश्वर दिखाई
नहीं पड़ा। प्रकाश
दिखाई पड़े, आनंद दिखाई
पड़े, कुछ
भी दिखाई
पड़े--राम
दिखाई पड़ें, कृष्ण दिखाई
पड़ें, जीसस,
बुद्ध
दिखाई
पड़ें--जब तक
तुम्हें कुछ
दिखाई पड़े, तब तक जानना
कि वह अभी
दिखाई नहीं
पड़ा है।
यह बड़े
मजे की बात
है। यह तो
सूत्र बड़ा
विरोधी है!
क्योंकि जब तक
कुछ दिखाई पड़े, तब
तक जानना कि
वह दिखाई नहीं
पड़ा है। तब
फिर वह दिखाई
कब पड़ेगा?
जब कुछ
भी दिखाई न
पड़े,
सिर्फ
देखना मात्र
रह जाए। और
रिक्तता रह
जाए चारों ओर,
शून्य रह
जाए। आंखें
देखती हों और
देखने को कोई आब्जेक्ट,
कोई विषय न
बचे, कोरा
आकाश रह जाए।
तब जानना कि
वह दिखाई पड़ा
है। वह सदा अनदिखा
रह जाता है।
"देखें,
फिर भी वह अनदिखा रह
जाता है। लुक्ड
एट, बट कैन
नॉट बी सीन।'
लुक्ड एट, उसकी
तरफ देखा जा
सकता है; लेकिन
वह कभी दिखाई
नहीं पड़ता।
लेकिन
जो
महत्वपूर्ण
घटना घटती है, वह
उसके दिखाई
पड़ने से नहीं
घटती, उसको
देखने से घटती
है। जो
क्रांति घटित
होती है, वह
मेरी देखने की
चेष्टा से
घटित होती है,
उसके दिखाई
पड़ने से नहीं।
इसलिए जब किसी
ने कहा है कि
हो गया उसका
दर्शन, तो
उसने यह नहीं
कहा है कि वह
दिखाई पड़ गया,
उसने यही
कहा है कि
मेरी देखने की
क्षमता शुद्ध
हो गई और अब
शून्य में भी
मैं देख सकता
हूं। दर्पण
पूरा शुद्ध हो
गया। अब उसमें
कोई झलक नहीं
बनती; खाली
है। कोई आकार
नहीं बनता, कोई
प्रतिबिंब
नहीं बनता; शून्य है।
दर्पण जब इस
शून्य की
अवस्था में है,
तो वह जिसका
प्रतिबिंब बन
रहा है
उसमें--शून्य
का--वही अनदिखा,
अदृश्य
सत्य है।
अगस्तीन
ने कहा है, पूछो
मत; क्योंकि
जब तक तुम
पूछते नहीं, मैं उसे
जानता हूं।
जैसे ही तुम
पूछते हो, मैं
मुश्किल में
पड़ जाता हूं।
पूछो मत। देखा
है मैंने उसे;
लेकिन
तस्वीर उसकी
मैं न बना
सकूंगा।
स्वभावतः, कोई
भी पूछेगा कि
अगर देखा है, तो तस्वीर
तो बनाओ! थोड़ी कमोबेश
होगी, नहीं
पूरी बनेगी; लेकिन कुछ
तो खबर
मिलेगी!
तो
सूफियों की
किताब है: दि
बुक ऑफ दि बुक, किताबों
की किताब। वह
कोरी किताब है,
उसमें कुछ
भी लिखा हुआ
नहीं है। दो
सौ पन्नों की
किताब है, बिलकुल
खाली है।
उसमें तस्वीर
खींचने की कोशिश
की गई है।
उसको
कोई प्रकाशक
छापने को
तैयार नहीं
था। क्योंकि
क्या छापिएगा? तो
कोई हजार, डेढ़
हजार साल से
वह किताब
अप्रकाशित
थी। अभी किसी
एक हिम्मतवर
प्रकाशक ने
उसे प्रकाशित
की। पर वह भी
तभी प्रकाशित
करने को राजी
हुआ, जब एक
सूफी फकीर उस
पर दस पन्ने
की भूमिका लिखने
को राजी हुआ।
अन्यथा उसको छापिएगा
क्या? तो
दस पन्ने की
जो भूमिका है,
वह उसका
इतिहास है।
सबसे पहले
किसने वह
किताब लिखी; फिर उसने
किसको दी; फिर
किसने उसे
पढ़ी--पढ़ी!
आप पढ़
सकते हैं उसे, यद्यपि
पढ़ा कुछ भी न
जाएगा। लेकिन
करने जैसा प्रयोग
है--कभी दो सौ
खाली पेज पढ़ने
की कोशिश! ठीक
उतनी ही
निष्ठा से, उतने ही भाव
से, जैसे
कोई दो सौ
पन्नों के
शब्द पढ़े।
एक-एक लाइन, आंख गड़ा
कर समझने की
चेष्टा से! दो
सौ पेज। आपका
मन होगा कि
उलटा दो
शीघ्रता से।
लेकिन इतिहास
कहता है कि
फलां फकीर ने
उसे पढ़ा; बार-बार
पढ़ा; लौट-लौट
कर पढ़ा। किसी
फकीर ने उसे
जीवन में पचास
बार पढ़ा। कोई
फकीर उसे रोज
सुबह जब तक
पूरी न पढ़
लेता, तब
तक भोजन न
करता। क्या
पढ़ते रहे
होंगे वे लोग!
उस
सूने खाली
कागज पर, अगर
कोई दो सौ
पन्नों तक आंख
को गड़ा कर
देखता रहे, तो आंखें भी
सूनी और कोरी
हो जाएंगी। वह
ध्यान का एक
प्रयोग हो गया।
क्या पढ़िएगा?
लेकिन अगर पढ़ेंगे ही,
तो
धीरे-धीरे
भीतर के शब्द
खो जाएंगे।
धीरे-धीरे
भीतर कुछ भी न
बचेगा। जैसे
कोरे पन्ने
हैं, वैसा
ही कोरा मन हो
जाएगा।
तो
सूफियों में
चलती रही है
बात। लोग
पूछते हैं:
कुरान पढ़ा, ठीक
है; बाइबिल
पढ़ी, ठीक
है; किताबों
की किताब पढ़ी
या नहीं? वह
किताबों की
किताब है।
अगस्तीन
कहता है कि
उसे देखता तो
हूं;
लेकिन जब
तुम पूछते हो,
कैसा है? तो मुश्किल
में पड़ जाता
हूं।
यह
सूत्र कहता है, "उसे
देखें, फिर
भी वह अनदिखा
बना रहता है।'
इसे
खयाल रखें कि
वह कभी दिखाई
नहीं पड़ेगा।
क्योंकि जो
साधक भी उसे
देखने की
चेष्टा में लग
जाते हैं, बहुत
जल्दी अपनी
कोई कल्पना पर
ही समाप्त हो
जाते हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
कुछ तो
सहारा! राम का,
कृष्ण का, बुद्ध का, कोई तो
सहारा दें।
किस पर ध्यान
करें? अगर
उनसे कहो कि
सिर्फ ध्यान
करो, किसी
पर नहीं, तो
कठिन हो जाती
है बात। किस
पर ध्यान करें?
किसे देखें?
कहां आंखें गड़ाएं? कोई
जगह चाहिए।
कोई रूप, कोई
आकार।
आंख
आकार पर तो
टिक जाती है।
लेकिन जब तक
आंख निराकार
पर टिकना न सीखे, तब
तक उसका कोई
अनुभव न
होगा--उसका, जो परम
रहस्य है। तब
तक जो भी हम
जानेंगे, वे
हमारी बुद्धि
की ही
आकृतियां हैं,
वे हमारे ही
खिलौने हैं।
कितने ही
पवित्र और कितने
ही पूज्य, राम
हों कि कृष्ण,
कितने ही
आकाश में हम
उन्हें बिठा
दें, वे
हमारे मन के
ही आखिरी छोर
हैं। जहां तक
मन आकार बना
पाता है, वहां
तक उससे कोई
मिलन नहीं
होता, जो
निराकार है।
"इसीलिए
उसे अदृश्य
कहा जाता है।
उसे सुनें, फिर भी वह
अनसुना रह
जाता है।'
सब
सुनाई पड़ता है
जगत में।
प्रत्येक
वस्तु की ध्वनि
है,
प्रत्येक
वस्तु की ध्वनित्तरंग
है; सब
सुनाई पड़ता
है। सिर्फ
परमात्मा
सुनाई नहीं
पड़ता। उसकी
कोई ध्वनित्तरंग
नहीं मालूम
होती। उसे
कहीं से भी
पकड़ा नहीं जा
सकता कि क्या
है उसका संगीत!
क्या है उसका
स्वर! सुनें
जरूर लेकिन
उसे। तो क्या
होगा उपाय
सुनने का?
एक ही
उपाय है उसे
सुनने का कि
धीरे-धीरे
आपके कान और
सब सुनना
छोड़ते चले
जाएं, सब
ध्वनियां
छोड़ते चले
जाएं। एक घड़ी
ऐसी आए कान की
कि कान निर्ध्वनि
हो जाएं, कुछ
भी सुनाई न
पड़ता हो, शून्य
सुनाई पड़ता
हो। सन्नाटा
रह जाए, कोई
ध्वनि पकड़ में
न आती हो। तब
जो सुनाई पड़ेगा--कहना
पड़ता है कि जो
सुनाई
पड़ेगा--वह वही
है, जो सदा
अश्राव्य है,
जो कभी सुना
नहीं जाता।
श्वेतकेतु
अपने घर वापस
लौटा सब
शास्त्र पढ़ कर।
पिता ने उसके
पूछा कि तू वह
तो समझ कर आ
गया जो सुना
जा सकता है, तूने
वह भी सुना जो
अश्राव्य है?
श्वेतकेतु
बहुत अकड़ कर
घर आ रहा था।
समस्त वेदों
का ज्ञाता हो
गया था। जो भी
ज्ञान था, सब
उसकी मुट्ठी
में था। आ रहा
था बड़ी आशा से
कि पिता बहुत
आनंदित होंगे
और कहेंगे:
श्वेतकेतु, तू सब पाकर आ
गया। लेकिन
पिता ने पहला
ही प्रश्न
पूछा कि तूने
वह सुना जो
अश्राव्य है?
श्वेतकेतु
ने कहा, ऐसा
कोई शास्त्र
ही नहीं था।
सभी शास्त्र
श्राव्य हैं।
तो जो भी
मैंने पढ़ा वह
सब सुना जा सकता
है।
इसलिए
शास्त्रों का
जो भारतीय नाम
है,
वह है श्रुति
और
स्मृति--जिसे
सुना जा सके
और जिसे याद
रखा जा सके।
इसलिए
शास्त्र में
परमात्मा नहीं
हो सकता, वह
अश्राव्य है।
शास्त्र तो
सुने जा सकते
हैं, स्मरण
रखे जा सकते
हैं। वह उनसे
दूर रह जाएगा।
तो
श्वेतकेतु ने
कहा,
वह तो नहीं
सुना। तो पिता
ने कहा, वापस
जा! तू सब जो
सीख कर आया वह
व्यर्थ है।
उससे आजीविका तो
मिल सकती है, जीवन नहीं।
और मैंने तुझे
ब्राह्मण
होने के लिए
भेजा था, पुरोहित
होने के लिए
नहीं। ऐसे तो
तू ब्राह्मण
का बेटा है ही,
तो आजीविका
तो तुझे मिल
जाएगी, लेकिन
जीवन? और
ब्राह्मण तू
उसी दिन होगा,
जिस दिन वह
अश्राव्य
सुना जा सके।
ब्रह्म को
सुना जा सके, देखा जा सके,
तभी कोई
ब्राह्मण
होता है। तू
वापस जा!
श्वेतकेतु
वापस चला गया।
वर्षों बाद
लौट सका।
क्योंकि जब
उसने अपने
गुरु को जाकर
कहा कि मैं
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया
हूं। आपने तो
कहा था: जो भी
जाना जा सकता
है,
सब बता
दिया। लेकिन
मेरे पिता ने
पहले ही
प्रश्न में
मेरी सारी की
सारी असफलता
सिद्ध कर दी।
मेरे पिता ने
पूछा कि जो
अश्राव्य है,
वह सुना? मेरे पिता
ने पूछा कि जो
जाना नहीं जा
सका, जाना
नहीं जा सकता
है, उसे
जाना?
तो
गुरु ने कहा
कि मैं तो वही
बता सकता था, जो
बताया जा सकता
है। मैं तो
वही कह सकता
था, जो कहा
जा सकता है।
पागल, कहने
से वह कैसे
कहा जाएगा, जो सुना
नहीं जा सकता?
पर
श्वेतकेतु ने
कहा,
अब तो मेरे
घर लौटने का
कोई उपाय नहीं,
जब तक कि
मैं उसे न सुन
लूं।
तो
गुरु ने कहा, फिर
तू ऐसा कर! ये
गाएं हैं
आश्रम की, इनको
तू लेकर गहन
जंगल में चला
जा। और जब तक
ये हजार न हो
जाएं, तब
तक वापस मत
लौटना।
श्वेतकेतु
ने पूछा, वहां
मैं करूंगा
क्या?
तो
गुरु ने कहा, तू
गायों की
चिंता करना और
अपनी चिंता
भूल जाना। खुद
को तू भूल ही
जाना कि तू
है। बस इन
गायों की सेवा
करना। और जब
ये हजार हो
जाएं--चार सौ
गाएं थीं, कब
होंगी हजार? तब तू लौट
आना!
श्वेतकेतु
चला गया।
स्वयं को छोड़
गया गुरु के आश्रम
में ही। गायों
के साथ चला
गया। स्वयं को
छोड़ गया। अपनी
सब चिंता छोड़
गया। क्योंकि
गुरु ने कहा:
अपनी चिंता मत
करना; नहीं तो
जो अश्राव्य
है, वह
सुना नहीं जा सकता।
तू गायों की
चिंता में लगा
रहना। इनकी फिक्र
कर लेना, इनको
पानी जुटा
देना, भोजन
जुटा देना, इनका
विश्राम करा
देना। बस तू
अपने को भूल
जाना। एक ही
खयाल रखना कि
जब गाएं हजार
हो जाएं, तब
तू आ जाना!
श्वेतकेतु
गायों की सेवा
करता रहा, करता
रहा, करता
रहा। वर्ष आए
और गए। रात
तारे निकल आते,
वह देखता
हुआ सो जाता।
सुबह सूरज
उगता, वह
देखता हुआ उठ
आता। गाएं थीं,
कोई बात की
चर्चा का उपाय
न था। कोई खबर
न थी। गायों
की खाली कोरी
आंखें थीं।
हिंदुओं
के गाय को मां
मानने के बहुत
गहरे कारणों
में गाय की
आंख भी एक रही
है। वह समस्त
पशुओं में उस
जैसी निराकार
और शून्य आंख
खोजनी
मुश्किल है।
वैसी ही आंख
जब किसी
व्यक्ति की हो
जाती है, तो वह
ध्यान को
उपलब्ध हो
जाता है।
तो
गायों की
आंखों में झांकता
था। अपने को
भूलता गया, भूलता
गया, भूलता
गया। फिर
कठिनाई खड़ी हो
गई। गाएं बड़ी
मुश्किल में पड़
गईं; क्योंकि
गाएं हजार हो
गईं और
श्वेतकेतु को
गिनती का खयाल
ही न रहा। कौन
गिनती करे? तो बड़ी मीठी
कथा है कि
गायों ने एक
दिन इकट्ठे होकर
कहा, श्वेतकेतु!
हम हजार हो गए;
वापस लौटने
का वक्त आ
गया।
तो
श्वेतकेतु
गायों को लेकर
वापस लौट आया।
जब वह गुरु के
आश्रम में
प्रवेश कर रहा
था,
तो गुरु
भागे हुए आए, श्वेतकेतु
को गले लगाया
और श्वेतकेतु
से कहा, अब
कुछ पूछने को
नहीं है। तू
अपने पिता के
पास वापस लौट
जा सकता है।
श्वेतकेतु ने
पूछा कि आपको
कैसे पता चला
कि मैंने सुन
लिया वह, जो
नहीं सुना जा
सकता? तो
गुरु ने कहा
कि मैंने देखा
कि एक हजार एक
गाएं आ रही
हैं।
एक
हजार तो गाएं
थीं,
एक वह
श्वेतकेतु
था। वह बिलकुल
गाय हो गया
था। उसकी
आंखों में
शून्य आ गया
था। गायों के
बीच में वह
ऐसे चला आ रहा
था, जैसे
वह भी एक गाय
हो। तो गुरु
ने कहा, अब
कुछ कहने को
नहीं है। तू
जा सकता है।
बड़ी अदभुत
घटना घटी। जब
श्वेतकेतु
अपने गांव की
तरफ आया और
पिता ने खिड़की
से श्वेतकेतु
को आते देखा, तो
उसने अपनी
पत्नी से
कहा--श्वेतकेतु
की मां को--कि
अब मैं भाग
जाऊं यहां से;
क्योंकि
श्वेतकेतु
ब्राह्मण
होकर आ रहा है
और मेरे पैर
छुएगा तो बड़ी
अड़चन होगी।
मैं खुद अभी
ब्राह्मण
नहीं हूं।
मैंने वह नहीं
सुना, अभी
वह मैंने नहीं
सुना जो सुना
नहीं जा सकता है।
इसलिए पिता
पीछे के
दरवाजे से भाग
गया।
श्वेतकेतु
जब भीतर
पहुंचा, तो
उसने अपनी मां
से पूछा कि
पिता कहां हैं?
तो उसकी मां
ने कहा कि वे
ब्राह्मण
होने चले गए
हैं। वे अब
तभी लौटेंगे,
जब वे भी
उसे सुन लें, जिसे तू सुन
कर आ रहा है।
यह जो
अश्राव्य है, यह
उस दिन सुनाई
पड़ता है, जब
कान सारी
ध्वनियां
सुनना छोड़
देते हैं। यह जो
अदृश्य है, उस दिन
दिखाई पड़ता है,
जब आंखों
में सब दृश्य
खो जाते हैं, सब सपने खो
जाते हैं।
सत्य मिलता है
उसे, जिसके
सब सपने खो
जाते हैं, जिसकी
आंखों में फिर
कोई चित्र
नहीं बनते, कोई स्वप्न
नहीं उभरते, आंखें कोरी
और खाली हो
जाती हैं।
"उसे
समझें, फिर
भी वह अछूता
रह जाता है।'
कितना
ही समझें उसे, कितना
ही पकड़ें
उसे, कितनी
ही मुट्ठी
बांधें, सच
तो यह है कि
जितनी मुट्ठी बांधते
हैं, उतना
ही वह मुट्ठी
के बाहर हो
जाता है। हवा
की तरह है।
नहीं बांधते,
तो हवा
मुट्ठी में
होती है; बांधते
हैं, तो
हवा मुट्ठी के
बाहर हो जाती
है।
समझ भी
भीतर बुद्धि
की मुट्ठी है।
इसलिए समझदार
आदमी तनाव से
भरा रहता है; क्योंकि
उसकी बुद्धि
मुट्ठी बनी रहती
है। जिनको हम
समझदार कहते
हैं, वे
बहुत तने हुए
लोग होते हैं।
उनकी खोपड़ी के
भीतर बुद्धि
मुट्ठी बनी
रहती है। वे पकड़े रहते
हैं सारी समझ
को। और जितने
जोर से पकड़ते
हैं, उतनी
ही बुद्धि कम
होती चली जाती
है। इसलिए पंडित
और बुद्धिमान
एक साथ आदमी
नहीं हो पाता।
बहुत मुश्किल
है। क्योंकि
पंडित का मतलब
है बंधी हुई
मुट्ठी और
बुद्धिमान का
मतलब है खुली
हुई मुट्ठी।
खुला हो हाथ, तो सारी
दुनिया की हवा
हाथ पर होती
है। और हाथ बंद
हो, तो हाथ
के भीतर की
हवा भी बाहर
हो जाती है।
पकड़ें
उसे,
और छूट जाता
है। कोई पकड़
उसे पकड़ नहीं
पाती।
क्योंकि पकड़
हमारी बहुत
छोटी है, वह
बहुत बड़ा है।
तो अगर हम पकड़
की जिद्द
करेंगे, तो
आखिर में पकड़
ही हमारी पकड़
में रह जाएगी।
तो जो मुट्ठी बांधता है,
मुट्ठी ही
उसके हाथ में
रह जाती है।
तो
पंडित के पास
खोपड़ी ही रह
जाती है हाथ
में,
बंधी हुई।
वह भी खुली
हुई नहीं; सब
द्वार-रंध्र
बंद हो जाते
हैं। ज्ञानी
के हाथ में
कुछ भी नहीं
रह जाता; ज्ञानी
खाली हाथ हो
जाता है। और
इसलिए सब कुछ उसके
हाथ में आ
जाता है।
यह
सूत्र कहता है, "समझें
उसे, फिर
भी वह अछूता
रह जाता है।'
समझने
की बात को
थोड़े गहरे में
उतरना चाहिए।
समझने में हम
करते क्या हैं? जब
हम किसी चीज
को समझते हैं,
तो करते
क्या हैं? क्या
है समझ की
प्रक्रिया?
अगर
आपके सामने एक
नया जानवर खड़ा
कर दिया जाए और
आपसे कहा जाए
समझें, तो आप
क्या करेंगे?
पहाड़ों में
नीलगाय होती
है। वह गाय
नहीं है; लेकिन
गाय से
मिलती-जुलती
है। तो अगर
पहाड़ की गाय
आपके सामने
खड़ी कर दी जाए,
तो आप
कहेंगे, गाय
जैसी है।
क्योंकि गाय
को आप जानते
हैं। और जो
सामने खड़ा है
जानवर, उसे
आप जानते
नहीं।
एक
मेहमान मेरे
घर आए हुए थे।
उनके साथ एक
छोटा बच्चा
था। बगीचे
में फूल थे।
तो उस बच्चे
की मां ने उसे
मना कर दिया
था,
यहां फूल मत
तोड़ना। उसकी
मां तो मुझसे
बातचीत में लग
गई। तभी बगीचे
का माली कुछ
काम करता होगा,
कुछ फूल
काटता होगा, कुछ पत्ते
निकालता
होगा। उस लड़के
ने दौड़ कर भीतर
आकर कहा कि एक
बहुत बड़ा लड़का
फूल तोड़ रहा
है!
लड़के
से उसका परिचय
है। इस आदमी
को वह क्या कहे? बहुत
बड़ा लड़का! यह
बच्चा समझने
की कोशिश कर
रहा है कि जो
फूल तोड़ रहा
है, वह कौन
है।
समझ की
प्रक्रिया का
पहला हिस्सा
है: जो ज्ञात
है,
उसको हम
अज्ञात पर
बिठाते हैं।
जो हमें पता
है, उसको
हम उससे जोड़ते
हैं, जो
हमें पता नहीं
है। समझ का
मतलब ही यही
है कि हम
अज्ञात को
ज्ञात की भाषा
में अनुवादित
करते हैं--दि
अननोन रिडयूस्ड
टु दि लैंग्वेज
ऑफ दि नोन।
यही हम कोशिश
कर रहे हैं
पूरे समय। और
जब हम अज्ञात
को ज्ञात की
भाषा में पकड़
लेते हैं, तो
हम कहते हैं
समझ गए।
लेकिन
यह जो
परमात्मा है, यह
अगर अज्ञात
होता, अननोन
होता, तो
इसे समझने का
उपाय हो सकता
था। वह अननोन
नहीं है, अननोएबल है। वह
अज्ञात नहीं
है, अज्ञेय
है। यहीं
तकलीफ है।
विज्ञान
दो चीजें
मानता है: नोन
और अननोन, ज्ञात
और अज्ञात। ये
दो विभाजन हैं
जगत के। अज्ञात
का मतलब है, जो अभी
अज्ञात है, आज नहीं कल
ज्ञात हो
जाएगा। समझ कर
रहेंगे उसे
हम। मतलब यह
है कि जो हमें
ज्ञात है, इसकी
सीमा को हम
बड़ा करेंगे और
अज्ञात को इसी
की परिधि में
ले आएंगे। जब
इतना ज्ञात हो
सका है, तो
जो अज्ञात है,
वह भी ज्ञात
हो जाएगा। यह
समय की ही बात
है। आज नहीं
कल, आज
नहीं कल
अज्ञात कम
होता जाएगा, ज्ञात बढ़ता
जाएगा। एक दिन
ऐसा आएगा कि
हम कहेंगे, सब ज्ञात हो
गया है।
धर्म
तीन कोटियां
मानता है:
ज्ञात, अज्ञात
और अज्ञेय।
विज्ञान दो
कोटियां मानता
है: ज्ञात और
अज्ञात। यही
फर्क है धर्म
और विज्ञान
में। धर्म एक
नई कोटि मानता
है--अननोएबल।
वह कहता है, कुछ ज्ञात
है, कुछ
अज्ञात है। ये
दो विभाजन हैं,
ये बुद्धि
के विभाजन
हैं:
ज्ञात-अज्ञात,
प्रकाश-अंधेरा,
जन्म-मृत्यु।
इनके पीछे जो
छिपा है, वह
अननोएबल
है। अविभाजित,
बुद्धि के
पार जो है, वह
अज्ञेय है। वह
कभी नहीं जाना
जा सकेगा। तुम
ज्ञात को
अज्ञात बनाते
रहो, अज्ञात
को ज्ञात
बनाते रहो; लेकिन इसका
जो मौलिक आधार
है, वह सदा
ही अज्ञेय बना
रहेगा, वह
कभी भी जाना
नहीं जा
सकेगा।
यही
धर्म का
विज्ञान से
भेद है। यही झगड़ा भी
है। विज्ञान
कहता है, अज्ञात
हम मानने को
तैयार हैं।
अगर तुम कहो
कि तुम्हारा
ईश्वर अज्ञात
है, तो हम
मानते हैं। तो
फिर हम आज
नहीं कल उसको
ज्ञात कर
लेंगे। लेकिन
धर्म कहता है,
ईश्वर
अज्ञेय है।
तुम कभी भी
उसे ज्ञात न
कर सकोगे।
अज्ञेय का
मतलब है, जिसे
ज्ञात की भाषा
में
रूपांतरित
नहीं किया जा
सकता। जीवन का
जो परम सत्य
है, वह
अज्ञेय रहेगा
ही।
उसका
कारण है। उसका
कारण यह है कि
उस परम सत्य में
मेरा होना एक
परमाणु का
होना है। मैं
हूं जानने
वाला। और जिसे
मुझे जानना है, वह
यह विराट
विस्तार है, अनंत
विस्तार है, असीम
विस्तार है।
मैं हूं जानने
वाला, एक
परमाणु, जिसका
जानना बड़ी
साधारण सी
बातों पर
निर्भर है। एक
अफीम की गोली
दे दी जाए, और
जिसका जानना समाप्त
हो जाता है।
एक इंजेक्शन
दे दिया जाए मार्फिया
का, और
जानना खतम हो
जाता है। मार्फिया
के एक
इंजेक्शन से
जो जानना खो
जाता है, वह
जानने की
क्षमता कितनी
बड़ी है? सिर
पर एक पत्थर
मार दिया जाए,
और चेतना खो
जाती है। इस
विराट
अस्तित्व को
जानने चले हैं
हम उस सिर से, जो एक छोटे
से पत्थर से
विनष्ट हो
जाता है, एक
छोटी सी अफीम
की गोली जिसे
बेहोश कर देती
है। जानने की
तो बात और, एक
जरा सा
इंजेक्शन
जिसे जीवन के
पार हटा देता
है। एक छुरी
छाती में घुस
जाती है और
जीवन तिरोहित
हो जाता है।
इस अत्यल्प
शक्ति से हम
जानने चले हैं
इस विराट को!
धर्म
कहता है, हम
नहीं जान
सकेंगे। और
धर्म का कहना
वैज्ञानिक
मालूम पड़ता है,
तर्कसंगत
मालूम पड़ता
है। क्षमता
कितनी है हमारी
जानने की?
फिर इस
जानने को भी
अगर हम और
थोड़े गौर से
देखें। तो
बच्चा मां के
पेट में नौ
महीने बिलकुल
बेहोश होता है, कुछ
भी नहीं
जानता। पैदा
होता है, तो
बाईस घंटे
सोता है, बीस
घंटे सोता है,
अठारह घंटे
सोता है। सोता
रहता है। बड़ा
भी हो जाता है,
तो भी हम
अगर साठ साल
जिंदा रहें, तो बीस साल
सोते हैं। तब
हम कुछ नहीं
जानते, बेहोश
पड़े रहते हैं।
बाकी जो चालीस
साल हम सोचते
हैं कि हम जानने
की अवस्था में
होते हैं, अगर
उसमें भी
खोजबीन करने
जाएं, तो
चालीस क्षण भी
अगर मिल जाएं
जानने के तो
बहुत हैं। वह
भी नींद में
ही गुजरता है
वक्त। वह भी
नींद में ही
गुजरता है
वक्त। जानने
के लिए जितना
होश चाहिए, वह एक क्षण
को भी हम नहीं
जुटा पाते।
बेहोशी में ही
हम सरकते हैं।
इस बेहोश
चित्त से, इस
नींद से भरे
चित्त से
विराट को
जानने हम चलते
हैं।
अगर
आपसे कहा जाए
कि इस दीए की
लौ पर पांच
मिनट ध्यानपूर्वक
रुके रहें, कि
आपका मन और
कहीं न जाए, पांच मिनट
यह दीए की लौ
ही आपके लिए
एकमात्र अस्तित्व
रह जाए, तो
आपको पता चलेगा
कि कितना कठिन
है। पांच मिनट
इस दीए की लौ को
भी सतत नहीं
जाना जा सकता।
बीच में हजार
बाधाएं आ जाती
हैं, हजार
विचार आ जाते
हैं। झपकी आ
जाती है। मन
कहीं और चला
जाता है। एक
क्षण को दीए
की लौ भूल जाती
है; कुछ और
स्वप्न साकार
हो जाता है।
पांच मिनट दीए
की लौ को सतत
नहीं जाना जा
सकता, तो
इस विराट जीवन
के विस्तार को,
जो अनादि और
अनंत फैला हुआ
है, उसे
जानने की कहां
से क्षमता जुटाएंगे?
कैसे?
फिर
मैं आज हूं, कल
नहीं था, कल
फिर नहीं हो जाऊंगा।
और यह अनंत
विस्तार सदा
से है और सदा
रहेगा। मैं
नहीं था, तब
भी था। मैं
नहीं रहूंगा,
तब भी होगा।
इस सबको मैं
कैसे जानूंगा?
मेरा होना
इतना क्षणिक
है! एक लहर
छलांग लगाती
है आकाश में
और सोचती है
उस बीच कि
सागर को जान लूं।
जब तक वह सोच
भी नहीं पाती,
छलांग
समाप्त हो गई।
लहर विसर्जित
हो गई, नीचे
गिर गई। आदमी
की चेतना ऐसी
ही एक छलांग है।
जानना कैसे हो
पाएगा?
लेकिन
क्या धर्म यह
कहता है कि
अज्ञान
आत्यंतिक है, जानना
हो ही नहीं
सकेगा?
नहीं; धर्म
यह कहता है, जब तक जानने
की चेष्टा है,
तब तक जानना
नहीं हो
सकेगा।
क्योंकि
जानने की चेष्टा
में अहंकार है,
मैं है। जब
तक मुट्ठी
बांधने की
कोशिश है, तब
तक जानना नहीं
हो सकेगा।
क्योंकि
मुट्ठी क्षुद्र
है। खोलते ही
मुट्ठी विराट
हो जाती है। खोलते
ही मुट्ठी की
कोई सीमा नहीं
रह जाती। बुद्धि
को खोल दें, उसके
द्वार-दरवाजे
तोड़ दें, उसे
विराट आकाश के
साथ मिल जाने
दें, कोई
सीमा न रखें; तो जानना
घटित होगा।
लेकिन
फिर भी यह
सूत्र कहता है, समझें,
फिर भी वह
अछूता रह
जाएगा। जानना
घटित हो जाएगा,
समझ भी आएगी,
फिर भी यह
खयाल में साथ
आएगा कि वह
अस्पर्शित रह
गया। क्यों?
अनेक
कारणों से।
पहला कारण तो
यह है, कबीर ने
कहा है, मैं
खोजते-खोजते
खुद खो गया।
खोजने की
प्रक्रिया
ऐसी है कि उसमें
खोजने वाला
मिट जाता है।
तो जब खोजने
वाला मिट
जाएगा, तो
छुएगा कौन? स्पर्श
किससे होगा? यह बड़ी
अदभुत घटना है
कि कभी भी कोई
साधक का ईश्वर
से मिलन नहीं
हो पाया। होगा
भी नहीं कभी। क्योंकि
जब ईश्वर
सामने होता है,
तो साधक खो
जाता है। और
जब तक साधक
होता है, तब
तक ईश्वर
सामने नहीं
होता। साधक की
जो होने की
व्यवस्था है,
अहंकार, मैं,
वही तो बाधा
है।
निकोडेमस ने
जीसस से जाकर
पूछा कि मैं
क्या छोड़ दूं
कि मैं
परमात्मा को
पा लूं? तो
जीसस ने कहा, और कुछ
छोड़ने से नहीं
चलेगा, निकोडेमस को ही छोड़ना
पड़े। तुझे
स्वयं को ही
छोड़ना पड़े। निकोडेमस
ने कहा, और
सब तो मैं छोड़
सकता हूं, लेकिन
स्वयं को कैसे
छोडूंगा? और
सब तो मैं छोड़
कर भाग सकता
हूं, लेकिन
स्वयं को छोड़
कर कहां भागूंगा?
मैं तो अपने
साथ ही पहुंच जाऊंगा।
तो जीसस ने
कहा, वही
कला सीखनी
पड़ेगी। जिस
दिन तू भागे
और निकोडेमस
पीछे रह जाए, उस दिन ही
मिलन हो सकता
है।
जिस
दिन समझने
वाला न हो
भीतर, उस दिन
समझ आ जाएगी।
और जिस दिन
जानने वाला न
हो भीतर, उस
दिन ज्ञान
प्रकट हो
जाएगा। और जिस
दिन बांधने
वाली मुट्ठी न
हो, उस दिन
सारा आकाश हाथ
में है।
लेकिन
अहंकार बहुत
कंजूस है, बहुत
कृपण है--सभी
दिशाओं में।
और जब तक
अहंकार को
पक्का भरोसा न
आ जाए कि
मुट्ठी में
कोई चीज है, तब तक वह
नहीं मानता।
इसीलिए तो लोग
पूछते देखे
जाते हैं कि
जब तक मैं
ईश्वर को न
देख लूं, तब
तक मैं कैसे
मानूं? जब
तक मेरी
मुट्ठी में न
आ जाए!
कार्ल
माक्र्स ने
कहा है कि जब
तक प्रयोगशाला
की टेबल पर डिसेक्शन
न हो जाए
ईश्वर का, हम
उसकी चीर-फाड़
न कर लें, तब
तक हम न मान
सकेंगे।
लेकिन ईश्वर
को प्रयोगशाला
की टेबल पर
लिटाना बहुत
मुश्किल
पड़ेगा। कम से
कम ईश्वर से
बड़ी तो
प्रयोगशाला
की टेबल चाहिए
ही होगी। और
माक्र्स को भी
बड़ी कठिनाई होगी,
क्योंकि
उतनी बड़ी टेबल
पर लेटा हुआ
ईश्वर!
माक्र्स बड़ा
छोटा पड़ जाएगा
किनारे खड़ा।
जांच-पड़ताल कर
नहीं पाएगा।
बहुत छोटा पड़
जाएगा। जैसे
हिमालय के पास
कोई मच्छर
खोजबीन करता
हो।
फिर भी
मच्छर और
हिमालय में जो
अनुपात है, वह
बहुत भेद का
नहीं है, बहुत
बड़ा भेद नहीं
है। मच्छर और
एवरेस्ट में
भी अनुपात है,
वह बहुत बड़ा
नहीं है। बहुत
बड़ा फासला
नहीं है।
लेकिन
माक्र्स और
ईश्वर में जो
अनुपात है, उसमें तो
कोई हिसाब
लगाना
मुश्किल है।
एवरेस्ट के
सामने मच्छर
भी काफी बड़ा
है, ईश्वर
के सामने
माक्र्स
मच्छर भी नहीं
हो सकता है।
लेकिन
माक्र्स कहता
है,
जब तक हम
चीर-फाड़ न
कर लें टेबल
पर रख कर, तब
तक हम न मान
पाएंगे।
यह
माक्र्स ही
कहता तो ठीक
था,
हमारा सब का
मन भी यही
कहता है कि हम
विराट को भी
तभी मानेंगे,
जब हमारे
क्षुद्र की
मुट्ठी में वह
हो। जब तक मैं
न कहूं कि वह
है, तब तक
वह है ही
नहीं। उसके
होने के लिए
भी मेरी गवाही
की जरूरत है।
लाओत्से
कहता है, "उसे
समझें, फिर
भी वह अछूता
रह जाता है।'
क्योंकि
जो छू सकता था, वह
खो चुका होता
है।
"इसलिए
उसे
अस्पर्शनीय
कहा है।'
उसे
छुआ नहीं जा
सकता, क्योंकि
छूने के पहले
ही छूने वाला
पिघल जाता है
और खो जाता है।
छू ही तब पाते
हैं हम उसे, जब हम खो गए
होते हैं, पिघल
गए होते हैं।
मिटे बिना उसे
जानने का कोई
उपाय नहीं है।
हमारे
जीवन की सारी
धारा होने की
है। और धर्म की
सारी धारा
मिटने की है, न
होने की है।
इसीलिए तो
धर्म से हमारा
कोई संबंध
नहीं जुड़ पाता;
क्योंकि
हमारे चिंतन
की पूरी
प्रक्रिया
होने की है।
डार्विन
ने कहा है कि
आदमी का पूरा
जीवन--न केवल
आदमी का, पूरी
मनुष्य-जाति
का--एक शब्द
में कहा जा
सकता है: स्ट्रगल
फॉर सरवाइवल,
बचे रहने का
संघर्ष।
ठीक
डार्विन कहता
है। लेकिन
बुद्ध को नहीं
समझाया जा
सकता इस बचे
रहने के संघर्ष
से। और अगर एक
भी आदमी नहीं
समझाया जा सकता, तो
यह बचे रहने
का संघर्ष
पूरा
सिद्धांत
नहीं है।
क्योंकि
बुद्ध को अगर
हम समझाएं तो
हमें कहना
पड़ेगा: न हो
जाने का
संघर्ष, न
हो जाने की
चेष्टा, मिट
जाने की
चेष्टा, खो
जाने की
चेष्टा।
हम सब
की चेष्टा है
बने रहने की, और
हो जाने की, और ज्यादा
हो जाने की।
बुद्ध की
चेष्टा है न हो
जाने की, रिक्त,
शून्य, खो
जाने की। हम
अगर पानी हैं,
तो हम बर्फ
होना चाहते
हैं--सख्त, मजबूत,
सुरक्षित।
बुद्ध अगर
बर्फ हैं, तो
पिघल कर पानी
हो जाना चाहते
हैं--तरल। और
बस चले उनका, तो भाप हो
जाना चाहते
हैं। कोई आकार
भी न रहे। और
बस उनका चले, तो भाप भी
नहीं रह जाना
चाहते हैं।
क्योंकि उसका
भी कहीं न
कहीं
अस्तित्व में
कोई न कोई आकार
तो है।
धर्म
है मिटने का
दुस्साहस।
इसलिए जो आदमी
भी धर्म की
तरफ जाता है, उसे
ठीक से समझ
लेना चाहिए कि
मिटने की तैयारी
है? होने
का दुख खयाल
में आ गया है? होने का
नर्क समझ में
आ गया है? तो
ही धर्म की
तरफ कदम बढ़ते
हैं।
लेकिन
हमारे भी कदम
बढ़ते हैं धर्म
की तरफ। वह धर्म
झूठा हो जाता
है--हमारे
कदमों की गलती
के कारण।
क्योंकि हम
धर्म की तरफ
भी और होने के
लिए बढ़ते
हैं--स्वर्ग कैसे
मिल जाए? कि
मोक्ष कैसे
मिल जाए? कि
इस जीवन के
पार की भी
सुरक्षा कैसे
कर लूं? यहां
तो मौत दिखाई
पड़ती है; ऐसा
जीवन कैसे पा
जाऊं जहां कोई
मौत न हो? यह
तो फिर
सरवाइवल ही
है। यह तो फिर
बचने का ही उपाय
चल रहा है।
इसलिए
धर्मगुरु
लोगों को
समझाते दिखाई
पड़ते हैं कि
जो हमारे साथ
होगा, वही
बचेगा। जो
हमारे साथ
नहीं होगा, वह नहीं
बचाया जाएगा।
कयामत के दिन,
आखिरी
निर्णय के दिन,
हम ही गवाह
होंगे
तुम्हारे कि
बचाए जाओगे कि
नहीं बचाए
जाओगे। और ऐसे
गुरुओं को बड़ी
संख्या में
लोग मिल जाते
हैं। क्योंकि
सभी की आकांक्षा
बचने की है।
उस आकांक्षा
का शोषण किया
जा सकता है।
बुद्ध
जैसे गुरु को
शिष्य मिलना
मुश्किल हो जाता
है। क्योंकि
बुद्ध कहते
हैं: मिटो, खो
जाओ, बचो
ही मत।
तुम्हारा
होना ही
तुम्हारा
संताप है।
शून्य हो जाओ।
लाओत्से
कहता है, "इसलिए
उसे
अस्पर्शनीय
कहा जाता है।'
क्योंकि
छूने वाला
बचता नहीं। जब
वह सामने आता
है,
तब हम खो
जाते हैं। जब
तक हम होते
हैं, छू
सकते हैं, पकड़
सकते हैं, तब
तक वह नहीं
होता है। इन
दोनों का कहीं
मिलन नहीं है।
यह मिलन असंभव
है।
फिर भी
मिलन होता है, लेकिन
किसी दूसरे
आयाम में।
मेरे न होने
का और उसके
होने का मिलन
होता है। मेरे
होने का और
उसके होने का
कोई मिलन नहीं
होता। जब तक
मैं हूं, तब
तक वह नहीं
है। और जब मैं
नहीं हो जाता
हूं, तब
पूरा
अस्तित्व
रूपांतरित हो
जाता है, तब
वह हो जाता
है। मेरा न
होना ही उसके
देखने की आंख
बनती है, उसके
छूने का हाथ
बनता है। मेरा
न होना ही वह
जगह बनती है, जहां वह
प्रकट होता
है। मेरा न
होना ही
सिंहासन है
उसके लिए। जब
तक अपने
सिंहासन पर
मैं ही काफी
भरा हुआ बैठा
हूं, उसके
लिए कोई जगह
नहीं है।
झेन फकीरों
ने कहा है, मेहमान
घर में आता है,
तो हम जगह
बनाते हैं, कमरा खाली
करते
हैं--उसके
ठहराने के
लिए। उस परम
मेहमान को जो
बुलाने गया है,
उसे तो
बिलकुल खाली
कर देना होगा
अपने को। जरा
भी भीतर स्वयं
का होना न
बचे।
"इसलिए
वह
अस्पर्शनीय
कहा जाता है।'
"इस
प्रकार वह
अदृश्य, अश्राव्य,
अस्पर्शनीय
और हमारी
जिज्ञासा की
पकड़ के बाहर, हमारी
जिज्ञासा से
छूट-छूट जाता
है और दुर्ग्राह्य
बना रहता है।'
हमारी
जिज्ञासा से
छूट-छूट जाता
है। इसे आखिरी
बात समझ लें: इंक्वायरी, जिज्ञासा
से वह छूट-छूट
जाता है।
अभी
मैंने आपको
कहा कि
विज्ञान और
धर्म में एक
फर्क है--कैटेगरीज
का। विज्ञान
दो कोटियां
मानता है
अस्तित्व की, धर्म
तीन। वह तीसरी
कोटि ही धर्म
का आधार है।
जिज्ञासा
दर्शनशास्त्र
का स्रोत है। इंक्वायरी, पूछताछ,
प्रश्न फिलासफी
का आधार है।
दुनिया में
कोई फिलासफी,
कोई दर्शन
नहीं होगा, जिज्ञासा
अगर समाप्त हो
जाए। लेकिन
जिज्ञासा
धर्म का आधार
नहीं है।
इसलिए
पश्चिम के लोग
तो कहते हैं
कि
हिंदुस्तान
में फिलासफी
जैसी कोई चीज
ही नहीं है।
वे थोड़ी दूर
तक ठीक कहते
हैं। वे थोड़ी
दूर तक ठीक
कहते हैं। जिस
अर्थों में
यूनान में फिलासफी
रही और पश्चिम
में है, उस
अर्थों में
भारत में फिलासफी
कभी नहीं रही।
क्योंकि भारत
में जिज्ञासा
से उसे पाया
ही नहीं जा
सकता। चीन में
भी, पूर्व
में, समस्त
पूर्वीय
चिंतना में
जिज्ञासा से
उसे नहीं पाया
जा सकता, जिज्ञासा
की पकड़ के
बाहर है। हम
जो प्रश्न उठा
सकते हैं, वे
प्रश्न उसके
चरणों तक नहीं
पहुंच पाते।
हमारे प्रश्न
छोटे पड़ जाते
हैं।
हम
प्रश्न भी
क्या पूछ सकते
हैं?
प्रश्न भी
तो अनुभव से
उठते हैं।
ध्यान रखें, प्रश्न
अनुभव से उठते
हैं। हम पूछते
हैं कि ईश्वर
को जब तक मैं
आंख से न देख
लूं, तब तक
कैसे मानूं? क्योंकि
हमारा अनुभव
यह है कि जो
चीज हम आंख से
देख लेते हैं,
वह मानने
योग्य हो जाती
है। फिर उसके
झूठ होने का
कोई सवाल न
रहा।
लेकिन
इस पर हमने
बहुत खोजबीन
नहीं की है।
सपना भी हम
आंख से ही
देखते हैं। और
जब सपना देखते
हैं,
तब वह पूरा
सत्य मालूम
पड़ता है। सुबह
उठ कर पता
चलता है कि वह
नहीं था। जिस
जिंदगी को हम
जिंदगी कहते
हैं, किसी
दिन उससे भी
उठ कर अगर पता
चले कि जो
हमने देखा, वह एक लंबा
सपना था! एक
आदमी सत्तर
साल तक सपने में
सोया रखा जा
सकता है। उसे
सत्तर साल में
कभी पता नहीं
चलेगा कि जो
वह देख रहा है,
वह असत्य
है।
आंख पर
हमारा भरोसा
जरूरत से
ज्यादा है।
रेगिस्तान
में कभी जाएं
तो दिखाई पड़ता
है कि दूर पानी
का सरोवर है।
आंख बिलकुल
खबर देती है।
आंख इतनी
पक्की खबर
देती है कि
सरोवर ही नहीं
दिखाई पड़ता, उसके
किनारे खड़े
हुए वृक्षों
की छाया भी
उसमें दिखाई
पड़ती है।
लेकिन
वह केवल
किरणों का
धोखा है। और
जब पास पहुंचेंगे, तो
वृक्ष तो उस
किनारे खड़े
मिलेंगे, सरोवर
नहीं मिलेगा।
मगर इतना साफ दिखाई
पड़ रहा
था--उसमें
लहरें उठ रही
थीं! तरंगें
उठ रही थीं!
पास खड़े
वृक्षों का
प्रतिबिंब बन
रहा था! आंख ने
पूरा कहा था।
पर आंख धोखा
दे गई।
हम अगर
ईश्वर के
संबंध में
प्रश्न उठाते
हैं,
तो हमारे
प्रश्न आंख से
ही बंधे होते
हैं। हम पूछते
हैं, दिखाई
पड़े, छू
लूं हाथ से, कान से सुन
लूं। हमारे
प्रश्न क्या
हैं? हमारी
इंद्रियों के
अनुभव से उठते
हैं। और ध्यान
रहे, इंद्रियों
के अनुभव से
जो प्रश्न
उठते हैं, वे
उसके किनारे
भी नहीं पहुंच
पाएंगे; क्योंकि
वह अतींद्रिय
है। कहीं भी
उसे छू नहीं
पाएंगे।
हमारा अनुभव
हमारे प्रश्न का
आधार है। और
जो हमने जाना
ही नहीं है, उसके संबंध
में हमारे
प्रश्नों का
मूल्य क्या है?
यह बड़ी कठिन
बात मालूम
पड़ेगी। जिसे
हम जानते ही
नहीं, उसके
संबंध में हम
जिज्ञासा भी
क्या कर सकते
हैं?
समझें, किसी
अपरिचित देश
में आप जाएं, जहां गुलाब
का फूल न होता
हो। फूल ही न
होता हो। और
लोगों से आप
गुलाब के फूल
की चर्चा करें,
तो वहां के
लोग पूछें, प्रश्न
उठाएं--उनके
अपने अनुभव
से। आप कहें
बहुत सुंदर
होता है, तो
वे एक हीरा
आपके सामने रख
दें और कहें
ऐसा सुंदर? तो आपको
कठिनाई शुरू
होगी। और अगर
आप कहें ऐसा
सुंदर नहीं, तो वे कहें
कि फिर
सौंदर्य का
मतलब ही क्या
रहा? और आप
कहें कि हां, थोड़ी दूर तक
कह सकते हैं
कि ऐसा ही
सुंदर, तो
वे पूछेंगे, वह नष्ट तो
नहीं होता? क्योंकि
हीरा तो टिकता
है। आप कहें, नहीं, वह
सुबह खिलता है,
सांझ
समाप्त हो
जाता है। तो
वे कहें, यह
भी कोई बात
हुई? यह भी
कोई सौंदर्य
हुआ?
आप लाख
सिर मारें
और उनसे कहें
कि यह कुछ भी
सौंदर्य नहीं
है,
क्योंकि यह
हीरा तो
मुर्दा है, मरा हुआ है; फूल जिंदा
सौंदर्य है, जीवित होता
है; पर आप
उनको न समझा
सकेंगे। और
उनके जितने
प्रश्न होंगे,
उनके अपने
अनुभव से उठे
होंगे।
ऐसे
प्रश्न पूछे
जा सकते हैं, जो
भाषा में संगत
मालूम पड़ें, अस्तित्व
में व्यर्थ
हों। मैं पूछ
सकता हूं आपसे
कि हरे रंग की
सुगंध क्या
होती है? भाषा
में बिलकुल
संगत है। अगर
किसी आदमी ने
रंग न देखा हो,
अंधा आदमी
हो, लेकिन
सुगंध का
प्रेमी हो और
आप उससे कहें
कि हरा रंग
बड़ा सुंदर
होता है, तो
वह आदमी पूछे
कि हरे रंग
में सुगंध कौन
सी होती है? उसका अनुभव
सुगंध का है, उसका प्रेम
सुगंध से है।
आंख का अंधा
है, हरा
रंग उसने देखा
नहीं। उसका
प्रश्न गलत
नहीं है; क्योंकि
वह अपने ज्ञात
से आपके
अज्ञात का संबंध
बना रहा है।
यही तो जानने
की और समझने
की प्रक्रिया
है। वह पूछता
है, हरे
रंग की सुगंध
कैसी होती है?
आप
कहेंगे, इररेलेवेंट पूछते हो, असंगत पूछते
हो। हरे रंग
का सुगंध से
क्या लेना-देना?
तो वह आदमी
कहेगा, जब
सुगंध से ही
लेना-देना
नहीं, तो
हरे रंग से
हमारा क्या
लेना-देना? उसका अनुभव
सुगंध का है।
तो वह पूछ
सकता है कि
क्या हरे रंग
में दुर्गंध
होती है?
उसकी जिज्ञासाएं
संगत हैं, फिर
भी जिज्ञासाएं
हैं।
लाओत्से
कहता है, वह
हमारी
जिज्ञासा की
पकड़ के बाहर
है; क्योंकि
जिज्ञासा तो
उठेगी ज्ञात
से।
तो
जिज्ञासा
उपयोगी है, अगर
अज्ञात की खोज
करनी हो।
अज्ञेय की खोज
करनी हो, तो
जिज्ञासा
व्यर्थ है।
इसलिए
जिज्ञासा दर्शन
का आधार है, विज्ञान का
भी। लेकिन
जिज्ञासा
धर्म का आधार नहीं
है।
तो
हमने अपने
मुल्क में एक
नया शब्द खोजा
है। वह है
मुमुक्षा, जिज्ञासा
नहीं। वह धर्म
की आधारशिला
है। हम प्रश्न
पूछते नहीं; क्योंकि प्रश्न
तो हमारे
अनुभव से आते
हैं। और वह
हमारे अनुभव
के बाहर है अब
तक। उसके
संबंध में
हमारे प्रश्न
असंगत हैं। हम
उसके संबंध
में कुछ भी
नहीं पूछते।
हम अपने संबंध
में कुछ पूछते
हैं। तब
मुमुक्षा
शुरू हो जाती
है। इसे थोड़ा
समझ लें।
अंधा
आदमी है। वह
पूछता है कि
क्या हरे रंग
में सुगंध
होती है? यह
जिज्ञासा है।
अंधा आदमी
पूछता है कि
मुझे तो दिखाई
नहीं पड़ता, मुझे दिखाई
कैसे पड़ सकता
है, ताकि
तुम जिस रंग
की बात कर रहे
हो उसे मैं
जान पाऊं?
यह
मुमुक्षा
है--मुझे
दिखाई कैसे पड़
सकता है? हरा
रंग कैसा है, यह जिज्ञासा
है। मैं कैसा
हूं और कैसा
हो जाऊं, ताकि
हरा रंग मुझे
दिखाई पड़ सके,
जिसकी तुम
खबर लाए हो? यह मुमुक्षा
है।
जिज्ञासा
विचार में ले
जाती है, मुमुक्षा
साधना में।
जिज्ञासा
चिंतन को जन्म
देती है, मुमुक्षा
ध्यान को।
जिज्ञासु
विचारों में ही
भटकता रह जाता
है, जहां
तक धर्म का संबंध
है। मुमुक्षु
उस मंजिल पर
पहुंच जाता है,
जो
जिज्ञासा की
पकड़ के बाहर
है। जो विचार
से ही सत्य को
समझने चलेगा,
वह असफल
होगा। जो
विचार से ही
सत्य को जानने
की चेष्टा
करेगा, वह
कुछ भी न जान
पाएगा।
क्योंकि
विचार हमारा अंधापन
है। जो
निर्विचार हो
सकेगा, उसके
लिए, वह जो दुर्ग्राह्य
है, तत्क्षण
प्रकट हो जाता
है, निकट
हो जाता है, भीतर-बाहर
सब तरफ मौजूद
हो जाता है।
आज
इतना ही। पर
पांच मिनट रुकें, कीर्तन
में सम्मिलित
हों और फिर
जाएं।
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