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शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

गीता दर्शन (भाग--4) प्रवचन--091

स्मरण की कला—(प्रवचन—तीसरा)

अध्याय—8

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।। 7।।
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।। 8।।
कविं पुराणमनुशासितारम् अणोरणीयां समनुस्मरेद्यः
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।। 9।।

इसलिए हे अर्जुन, तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त हुआ निःसंदेह मेरे को ही प्राप्त होगा।
और हे पार्थ, परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त अन्य तरफ न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ पुरुष परम दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।
इससे जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले, अचिंत्यस्वरूप, सूर्य के सदृश प्रकाशरूप, अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानंदघन परमात्मा को स्मरण करता है...।
प्रभु का स्मरण या तो थोड़ी देर को हो सकता है। लेकिन थोड़ी देर को किया हुआ स्मरण प्राणों की गहराई तक प्रवेश नहीं कर पाता है। सतह ही छूती है उससे, अंतस्तल अछूता रह जाता है। श्वास की भांति सतत स्मरण चाहिए। श्वास जैसे बीच में बंद हो जाए, तो जीवन से संबंध छूट जाता है, ऐसे ही स्मरण का धागा भी क्षणभर को भी छूट जाए, तो परमात्मा से संबंध टूट जाता है। स्मरण श्वास है परमात्मा की तरफ व्यक्ति के जीवन से बहती हुई। शरीर से जुड़े रहना हो, तो श्वास चाहिए; प्रभु से जुड़ा रहना हो, तो स्मरण चाहिए।
लेकिन हम चौबीस घंटे यदि प्रभु का स्मरण करें, तो और शेष सब काम कब कर पाएंगे? यदि चौबीस घंटे प्रभु का स्मरण ही करना हो, तो कब करेंगे भोजन, कब सोएंगे, कब जागेंगे; कब दुकान, कब बाजार, कब युद्ध--यह सब कब होगा? इसलिए एक समझौता आदमी ने खोजा, और वह यह कि और सब काम भी हम करें, घड़ी आधी घड़ी को प्रभु का स्मरण कर लें।
यह ऐसे ही हुआ, जैसे कोई सोचे कि शेष समय दूसरे काम करें, घड़ी आधी घड़ी को श्वास ले लें! यह नहीं हो सकता। यह असंभव है।
कृष्ण अर्जुन को इसलिए कहते हैं, इसलिए हे अर्जुन, तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। यह स्मरण तेरे युद्ध में बाधा नहीं बनेगा। और तू अगर सोचता हो कि प्रभु को स्मरण करना है, तो जंगल में भाग जाना पड़ेगा, तो गलत सोचता है। तू युद्ध भी कर और स्मरण भी कर।
इसका अर्थ हुआ, जो व्यक्ति जो कर रहा है, उसे करता रहे, और स्मरण भी करे। लेकिन कठिनाई मालूम पड़ती है। क्योंकि जब भी हम स्मरण करेंगे, तब दूसरे काम के करने में बाधा पड़ेगी।
चित्त की व्यवस्था ऐसी है कि चित्त की नोक पर एक चीज से ज्यादा एक साथ नहीं हो सकती। जब आप एक बात को स्मरण करते हैं, तब दूसरी बात से चित्त हट जाता है। दूसरी बात पर लगाते हैं, तो पहली बात से हट जाता है। चित्त का स्वभाव एकाग्र होना है।
तो युद्ध करते हुए प्रभु को कैसे स्मरण किया जा सकता है? अगर युद्ध करते समय भी कोई राम-राम की धुन लगाए रहे, तो या तो उसका मन राम-राम में उलझेगा, और तब युद्ध से छूट जाएगा; और या युद्ध में उलझेगा, तो राम-राम को भूल जाएगा। और कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू दोनों साथ ही साथ कर। तो निश्चित ही यह स्मरण किसी और तरह का होगा--उसे हम समझ लें--जिससे युद्ध में कोई बाधा नहीं पड़ेगी।
परमात्मा का स्मरण या तो उसके नाम के दोहराने से जुड़ जाता है, जो कि सच्चा स्मरण नहीं है। सच्चे स्मरण में नाम की भी जरूरत नहीं रह जाती। असल में नाम तो बहाना है स्मरण को रखने का। जैसे कोई आदमी बाजार जाता है और कोई चीज लाने की तैयारी करके जाता है, और भूल न जाए, तो अपने कपड़े में एक गांठ लगा लेता है। भूल न जाए, इस डर से कपड़े में गांठ लगा लेता है। भूल न जाए इस डर से, जिसे भूलने का डर है, उसे गांठ लगानी पड़ती है। लेकिन जो भूल सकता है, वह बाजार जाकर यह भी भूल सकता है कि गांठ किसलिए लगाई थी।
मैंने सुना है कि रूजवेल्ट जब बोलते थे, तो अक्सर भूल जाते थे और काफी लंबा बोल जाते थे। बीस मिनट बोलना हो, तो साठ मिनट बोल जाते, अस्सी मिनट बोल जाते। बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती थी। और जब वे प्रेसिडेंट हुए, तो उनके मित्रों ने कहा, अब ऐसी भूल-चूक नहीं चलेगी। तो पहले ही दिन बोलने खड़े हुए, तो उन्होंने घड़ी हाथ से निकालकर टेबल पर रख ली और कहा कि मैं घड़ी सामने रखे लेता हूं, ताकि मुझे पता रहे कि मैं ज्यादा तो नहीं बोल गया। लेकिन शर्त एक ही है कि मुझे यह याद रह जाए कि मैंने कब बोलना शुरू किया था। घड़ी तो बता देगी कि अब दस बज गए, लेकिन यह भी याद रखना जरूरी है कि बोलना शुरू कब किया था! जो भूल सकता है, वह कुछ भी भूल सकता है।
अगर प्रभु को बिना नाम के स्मरण नहीं रखा जा सकता, तो नाम के साथ भी भूला जा सकता है। और यही हुआ है। नाम लोग दोहराते रहते हैं और प्रभु को बिलकुल स्मरण नहीं कर पाते। गांठ ही हाथ में रह जाती है; किसलिए लगाई थी, वह भूल जाता है। गांठ सहयोगी हो सकती है। लेकिन सहयोगी हो सकती है, अगर भीतर याद मौजूद हो। नाम भी सहयोगी हो सकता है। लेकिन सिर्फ सहयोगी है। नाम ही स्मरण नहीं है, सिर्फ गांठ है।
कृष्ण जिस स्मरण को कह रहे हैं, वह और है। एक तो मैं भीतर याद रखूं, परमात्मा है, परमात्मा है। और एक मैं अनुभव करूं, ज्योति है चारों ओर। दिखाई पड़ता है जो, सुनाई पड़ता है जो, सामने जो खड़ा है दुश्मन की तरह प्रत्यंचा पर तीर को चढ़ाकर, छाती को बेध देने को, वह भी प्रभु है। यह जो चारों तरफ विस्तार है, यह उसका ही विस्तार है, इसका बोध, इसकी अवेयरनेस अगर बनी रहे, तो फिर आप कुछ भी काम कर सकते हैं, स्मरण बाधा नहीं बनेगा, क्योंकि कोई भी काम स्मरण के लिए ही गांठ सिद्ध होगा।
ध्यान रखिए, एक तो नाम की गांठ लगानी पड़ती है, वह दूसरे कामों में बाधा बनेगी। लेकिन हम दूसरे समस्त कामों को ही परमात्मा को समर्पित हिस्सा समझ लेते हैं।
तो कृष्ण कहते हैं, तू युद्ध कर और स्मरण कर। युद्ध करता हुआ स्मरण कर।
इसका एक ही अर्थ है, युद्ध जो कर रहा है वह, दुश्मन जो खड़ा है वह, जो भी हो रहा है चारों ओर; कोई भी जीते, और कोई भी हारे, और कोई भी परिणाम हो; इस सबके बीच परमात्मा ही सक्रिय है। यह बोध अगर हो, तो आप दुकान पर बैठकर, दुकान का काम करते वक्त, ग्राहक से बात करते वक्त, प्रभु का स्मरण रख सकते हैं।
क्या कठिनाई है कि ग्राहक में प्रभु को न देखा जा सके? कौन-सी कठिनाई है कि जब आप कोई सामान हाथ में उठाते हों, तो उसमें प्रभु को अनुभव न किया जा सके? स्नान करते हों, तो जल की धार सिर पर पड़ती हो, वह परमात्मा की धार न बन जाए, इसमें बाधा क्या है? भोजन जब करते हों, तब वह प्रभु का ही प्रसाद हो, प्रभु ही हो, इसमें अड़चन क्या है?
अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन की समस्त धारा के कण-कण में प्रभु को स्मरण कर पाए, तो ही स्मरण अलग काम नहीं बनता। समस्त कामों के बीच, इसे ऐसे पिरो दिया जाता है, जैसे कि माला के मनकों के बीच धागा पिरोया हो। दिखाई भी नहीं पड़ता, और सब मनकों को वही सम्हाले, भीतर पिरोया होता है।
स्मरण का अर्थ है, धागे की तरह जीवन के सारे कामों के भीतर प्रवेश कर जाए और जीवन की एक माला बन जाए, और उस माला को हम प्रभु के चरणों में रखने में समर्थ हो जाएं। वह स्मरण आपके प्रत्येक काम को ही ध्यान बना दे।
कबीर कपड़ा बुनते हैं, तो भी वे गा रहे हैं, झीनी झीनी बीनी री चदरिया! वे कपड़ा बेचने जा रहे हैं, तो भी वे ऐसे भागे जा रहे हैं कि जैसे राम बाजार में कपड़ा खरीदने को आया होगा। ग्राहक सामने है, तो वे उसे चादर ऐसी फैलाकर बताते हैं। और बड़े मजे की बात है कि कबीर जब किसी ग्राहक को चादर बेचते थे, तो उससे कहते थे, राम! बहुत सम्हालकर रखना। बहुत याददाश्त के साथ इसे बुना है। इसके रोएं-रोएं में तुम्हें ही बुना है।
ग्राहक तो कभी चौंक भी जाता था कि यह किस पागल से हम चादर खरीदने आ गए! वह मुझे राम कह रहा है!
कबीर जब ज्ञानी हो गए, परम ज्ञानी हो गए, तो शिष्यों ने कहा कि अब यह कपड़े बुनने का काम बंद कर दो, यह शोभा नहीं देता। महाज्ञानी को यह शोभा नहीं देता कि वह कपड़े बुने और बाजार में बेचे, और एक बुनकर का काम करे!
कबीर ने कहा, अगर ज्ञानी को कोई काम शोभा नहीं देता, तो फिर यह परमात्मा को इतना बड़ा काम विराट विश्व का कैसे शोभा देता होगा? और अगर परमात्मा इतने विराट के काम में लीन है और छोड़कर नहीं भाग जाता, तो मैं तो छोटे-मोटे काम में लगा हूं कपड़ा बुनने के, इसे छोड़कर भाग जाने की मैं कोई जरूरत नहीं मानता हूं।
ज्ञानी छोड़कर भागे क्यों? ज्ञानी जहां है, वहीं क्यों न राम को पिरो दे? ज्ञानी जहां है, जो कर रहा है, उसी को ही क्यों न प्रभु का स्मरण बना ले? काश, ज्ञानी कम भागे होते, तो जीवन ज्यादा सुंदर होता। ज्ञानियों के भागने से जीवन अज्ञानियों के हाथ में पड़ गया है।
लेकिन कहा नहीं जा सकता। कभी किसी ज्ञानी को भागने का कर्म ही ऐसा पकड़ लेता है कि वही उसके लिए प्रभु का स्मरण बन जाता है। वह दूसरी बात है।
लेकिन अर्जुन से कृष्ण कहते हैं, तू युद्ध कर। अर्जुन की तकलीफ, अर्जुन की चिंता यही है कि वह कहता है कि यह युद्ध और धर्म दो अलग चीजें हैं। अगर मुझे युद्ध करना है, तो मैं अधार्मिक हो जाऊंगा। और अगर मुझे धार्मिक होना है, तो मुझे युद्ध छोड़कर भाग जाना चाहिए। यह अर्जुन की ही चिंता नहीं, हम सभी की चिंता है।
आज ही कोई मित्र मेरे पास थे। वे कहते थे, आप कहते हैं संन्यास। यदि मुझे संन्यास लेना है, तो मुझे घर छोड़कर जाना ही पड़ेगा। और अगर मुझे घर में रहना है, तो संन्यास मुझे नहीं लेना चाहिए।
क्यों? घर और संन्यास में ऐसा क्या विरोध है? अगर युद्ध और परमात्मा के स्मरण में विरोध नहीं, तो घर और संन्यास में क्या विरोध हो सकता है? उनसे मैंने कहा कि संन्यास भी लो और घर में भी रहो। उन्होंने कहा, आप कैसी उलटी बातें कहते हैं!
अर्जुन के मन में भी ऐसा ही हुआ होगा कि कैसी उलटी बातें कहते हैं! अगर संन्यास लेना है, घर छोड़ दो। यह समझ में आता है। घर में रहना है, संन्यास की बात छोड़ दो। यह भी समझ में आता है। यह गणित बहुत साफ है।
लेकिन साफ गणित अक्सर ही जिंदगी के गणित नहीं होते। जिंदगी बहुत बेबूझ है। और जिंदगी के मामले में जो बहुत सफाई करने की कोशिश करता है, उसके हाथ में मुर्दा चीजें हाथ लगती हैं, जिंदगी हाथ नहीं लगती। काटते ही चीजें मर जाती हैं, बांटते ही चीजें मर जाती हैं। अगर संश्लिष्ट, सिंथेटिक जीवन को समझना हो, तो जीवन बड़ा बेबूझ है। वहां युद्ध करते हुए अगर कोई ध्यान कर सके, तो ही जीवन की गहन धारा में प्रवेश करता है।
जीवन में चुनाव नहीं है। ध्यान के साथ युद्ध हो सकता है। स्मरण के साथ युद्ध हो सकता है। और सच तो यह है, जब स्मरण के साथ युद्ध होता है, तो युद्ध युद्ध नहीं रह जाता है। वही कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं। तू स्मरण कर और युद्ध कर, क्योंकि स्मरण के साथ ही युद्ध युद्ध नहीं रह जाता। और अगर तू युद्ध से भी भाग गया और स्मरण की कला न जानी, तो तेरा संन्यास भी संन्यास नहीं हो सकेगा।
अगर स्मरण की कला ज्ञात हो, तो कसाई का काम करने वाला भी मंदिर के पुजारी से बहुत पहले प्रभु के मंदिर में प्रवेश कर जा सकता है। और अगर स्मरण की कला ज्ञात न हो, तो जीवनभर मंदिर के पूजागृह में बैठकर भी, सिर पटकने पर भी कोई परिणाम नहीं होता है।
सवाल है स्मरण की कला का, दि आर्ट आफ रिमेंबरिंग। उसे हम कैसे याद करें? और उसकी याद करते-करते ही हम बदल जाते हैं। सच तो यह है, एक बार भी कोई हृदयपूर्वक प्रभु का स्मरण करे, तो फिर वही आदमी नहीं रह जाता, जिसने स्मरण किया था। यह हो नहीं सकता। अगर स्मरण किया गया है, तो स्मरण इतनी बड़ी घटना है कि उस व्यक्ति का आमूल जीवन बदल जाता है। हां, स्मरण नहीं किया गया है, तब बात और है।
युद्ध करते हुए प्रभु का स्मरण कर। इस प्रकार मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त हुआ निस्संदेह मेरे को ही प्राप्त होगा।
और तू भय मत कर। और तू डर मत। युद्ध से भाग मत। मन-बुद्धि से युक्त होकर मेरा स्मरण कर, तो तू निश्चय ही मुझे प्राप्त होगा। मन-बुद्धि से युक्त हुआ, इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए।
निरंतर ऐसा होता है। हृदय कुछ कहता है, बुद्धि कुछ कहती है, और दोनों में कभी योग नहीं हो पाता। दोनों में कभी योग नहीं हो पाता। बुद्धि कहती है, यह ठीक है; हृदय कहता है, कुछ और ठीक है। और निरंतर भीतर एक कलह, एक कांफ्लिक्ट निरंतर चलती रहती है।
हृदय कहता है, डूब जाओ भजन में। बुद्धि कहती है, पागल हुए हो? हृदय कहता है, कब तक रुके रहोगे पदार्थों के साथ; खोजो प्रभु को! बुद्धि कहती है, अभी समय बहुत है; अभी समय कहां हुआ; अभी तो जीवन बहुत पड़ा है। पहले थोड़ा संसार का तो और अनुभव ले लो। और परमात्मा को तो फिर कभी भी पाया जा सकता है। वह प्रतीक्षा करता ही रहेगा। वह कोई चुक जाने वाला नहीं है। और इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में हो जाएगा। लेकिन यह संसार का तो भोग ठीक से कर ही लो।
बुद्धि और हृदय के बीच दरार है। और कोई व्यक्ति अगर इस दरार के साथ स्मरण करेगा, तो वह स्मरण पूरा नहीं हो पाएगा।
कुछ लोग बुद्धि से ही स्मरण करते हैं। जो लोग बुद्धि से स्मरण करते हैं, उनका स्मरण एक तरह का इनवेस्टमेंट होता है। वे सोचते हैं कि अगर प्रभु को स्मरण न किया, तो कहीं नर्क न जाना पड़े। वे सोचते हैं कि अगर प्रभु को स्मरण किया, तो स्वर्ग मिल जाएगा। वे सोचते हैं कि प्रभु को स्मरण किया, तो जीवन में सफलता मिलेगी; दुख कम आएगा, सुख ज्यादा होगा। वे सोचते हैं, अगर कुछ भी न हुआ, तो भी स्मरण करने में हर्ज क्या है! अगर कहीं कोई ईश्वर है और स्मरण न किया, तो नुकसान हो सकता है। अगर नहीं है, और स्मरण कर भी लिया, तो हर्ज क्या है! कोई नुकसान तो नहीं है। ऐसा जो लोग सोचते हैं हिसाब-किताब की भाषा में, इनके हृदय में, इनके मन की गहराइयों में कहीं भी प्रभु के लिए कोई प्यास नहीं है। यह बौद्धिक व्यापार है।
लेकिन हम सभी को प्रभु के संबंध में इसी तरह का बौद्धिक व्यापार सिखाया जाता है। बचपन से कहा जाता है, प्रभु का स्मरण करो, तो परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाओगे। हमने हिसाब की बातें सिखानी शुरू कर दीं।
हमें पता नहीं है कि हम आदमी को किस भांति अधार्मिक बनाते हैं। अगर यह बच्चा, जिससे हमने कहा कि प्रभु का स्मरण करो, परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाओगे, अगर उत्तीर्ण हो गया, तो समझेगा कि स्मरण करने में लाभ है। तो भी यह आदमी अधार्मिक हो गया, क्योंकि लाभ के लिए जो स्मरण करता है, वह धार्मिक नहीं है।
लाभ के लिए स्मरण करने में धर्म क्या है? लाभ ही लक्ष्य है; स्मरण तो केवल साधन है। तो हमने प्रभु से भी थोड़ी नौकरी-चाकरी ले ली! बस, इतनी ही उस पर कृपा की। थोड़ी सेवा उससे भी ले ली। या ज्यादा कहें तो ऐसा कि थोड़ी खुशामद की कि तेरा नाम लेने से तू प्रसन्न होता है, तो चलो ठीक है। तेरा नाम लेने से तू प्रसन्न हो ले, और हमें जो पाना है, वह देकर हमें प्रसन्न कर दे। तो एक समझौता है, एक सौदा है।
अगर उस बच्चे को सफलता मिल गई, तो भी वह अधार्मिक हो जाएगा। क्योंकि लाभ-केंद्रित हो जाएगा, प्राफिट-ओरिएंटेड हो जाएगा। और अगर असफल हो गया, तो वह सदा के लिए समझ लेगा कि प्रभु वगैरह कुछ भी नहीं है, उसके नाम लेने से कुछ भी नहीं होता।
मुल्ला नसरुद्दीन के मकान में आग लगी है। और वह अपने मकान के बाहर एक वृक्ष के नीचे आराम से टिका हुआ बैठा है। आधी रात का सन्नाटा है। रास्ते पर कोई नहीं है। पड़ोसी सब सोए हुए हैं। एक अजनबी आदमी राह भटक गया है। उसने गांव में आग लगी देखी, तो भागा हुआ सड़क से आया। दरवाजे के भीतर घुसा। मुल्ला को बैठे देखा दरख्त के नीचे। उसने कहा, क्या कर रहे हो? पागल हो गए हो? मकान में आग लगी है! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि मैं प्रार्थना कर रहा हूं। और देखना है आज कि परमात्मा है या नहीं। मैं प्रार्थना कर रहा हूं कि वर्षा हो जाए, और देखना है आज कि परमात्मा है या नहीं!
हर आदमी इसी तरह देख रहा है। छोटे-मोटे दांव लगाकर कहता है कि अच्छा, इसको करके दिखा दो!
दिदरो पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक हुआ। वह अक्सर सभाओं में खड़े होकर अपनी जेब से घड़ी निकाल लेता था और कहता था, इस वक्त घड़ी में नौ बजे हैं। अगर कहीं कोई परमात्मा हो, आठ बजाकर बता दे, तो मैं मान लूं! घड़ी में नौ बजकर एक मिनट बज जाता, नौ बजकर दो मिनट बज जाते। तो फिर वह कहता, देख लो। मिल गया काफी प्रमाण कि परमात्मा नहीं है।
यदि कोई असफल होता है, तो प्रमाण मिल जाता है कि परमात्मा नहीं है। और अगर सफल होता है, तो प्रमाण मिल जाता है कि परमात्मा को भी खुशामद से फुसलाया जा सकता है; वह भी स्तुति से प्रसन्न होता है। और लाभ अगर चाहिए हो, तो उसका भी उपयोग किया जा सकता है।
प्रेम उपयोग करना नहीं जानता। प्रार्थना भी उपयोग के लिए नहीं हो सकती। और जहां उपयोग है, वहां कोई संबंध नहीं है, वहां कोई हार्दिक संबंध नहीं है।
तो बुद्धि तो या तो नास्तिक बना देती है या नास्तिक से भी बदतर आस्तिक बना देती है। नास्तिक भी ठीक है फिर भी; कहता है, नहीं है। आस्तिक से बेहतर है। आस्तिक, तथाकथित आस्तिक, तो परमात्मा का इस बुरी तरह अपमान किए चला जाता है, जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। क्योंकि लाभ! बीमारी है, तो ठीक हो जाए; और नौकरी नहीं मिलती है, तो नौकरी मिल जाए--तो परमात्मा है, इसका प्रमाण मिलता है। नहीं तो सब प्रमाण खो जाते हैं।
नहीं, बुद्धि काफी नहीं है। लेकिन हमारा सारा शिक्षण बुद्धि का है। और बुद्धि के नीचे छिपा हुआ जो गहन मन है, जो भाव जगत है, वह जो अंतस्तल है हृदय का, वह बिलकुल अछूता रह जाता है। कभी-कभी उस अछूते हृदय से भी आवाज आती है। लेकिन बुद्धि उसे दबाती रहती है।
आज ही एक मित्र मेरे सामने ही खड़े थे। कई बार मैंने अनुभव किया कि उनके भीतर तरंग आती है कि वे डूब जाएं कीर्तन में, लेकिन फिर आंख खोलकर अपने को सम्हालकर रोक लेते हैं।
यह कौन रोक रहा है भीतर? यह बुद्धि रोक रही है; वह कहती है कि आप सुशिक्षित हैं, सज्जन हैं। ऐसा नाचकर ग्रामीण जैसा काम कैसे करेंगे? विश्वविद्यालय से उपाधि-प्राप्त हैं। कोई देख लेगा, क्या सोचेगा? पागल हो गए हैं? हृदय में झनक आती है। घूंघर बजते हैं भीतर कहीं। उनके पैर कंपते हैं। फिर वे आंख खोलकर अपने को सम्हालकर खड़े हो जाते हैं! प्रतिपल आप अनुभव करेंगे, हृदय अंकुर भेजना चाहता है, लेकिन बुद्धि उसे तत्काल दबा देती है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, मन-बुद्धि से युक्त हुआ।
मन भी कहे हां और बुद्धि भी कहे हां, तो ही दोनों के बीच तालमेल निर्मित हो जाता है। दोनों के बीच सेतु बन जाता है। और उस सेतु के बंधे हुए क्षण में ही व्यक्ति पूरा का पूरा प्रभु को स्मरण कर पाता है।
कैसे यह होगा? अगर बुद्धि की ही सुनते रहे, तो यह कभी न होगा। क्योंकि बुद्धि बहुत ऊपरी बात है।
अगर कोई सागर अपनी लहरों की ही मानता चला जाए, तो उसके अंतरगर्भ में छिपे हुए मोतियों के ढेर का उसे कभी भी पता न चल सकेगा। क्योंकि लहरों को मोतियों की कोई भी खबर नहीं है। और लहरों से अगर पूछेगा कि क्या भीतर मोती हैं? तो लहरें कहेंगी, पागल हो। भीतर कुछ भी नहीं है। क्योंकि लहरें! लहरें सदा ऊपर हैं। उन्हें भीतर का कुछ भी पता नहीं है। लहरें कहेंगी, मोती! नासमझ हो। कभी-कभी सूखे पत्ते बहते हुए जरूर आ जाते हैं। कचरा-कबाड़ जरूर कभी-कभी लहरों पर आ जाता है। उन्हीं को लहरों ने जाना है; मोतियों की गहराइयों का उन्हें कुछ भी पता नहीं। अगर सागर लहरों की माने, तो अपनी ही संपदा से वंचित हो जाता है।
हम भी अपनी बुद्धि की लहरों की--बुद्धि बहुत ऊपरी सतह है। बुद्धि हमारी वह सतह है मन की, जिससे हम जगत के साथ संबंध स्थापित करते हैं। बुद्धि ठीक वैसी है, जैसे किसी राजमहल के द्वार पर कोई पहरेदार बैठा हो। वह पहरेदार बाहर के जगत और राजमहल के बीच में है।
लेकिन अगर हम, घर का मालिक भी, सम्राट भी पहरेदार से ही पूछने लगे कि इस महल के भीतर कुछ है? तो पहरेदार कहेगा, वहां क्या रखा है! जो कुछ है, यहां मेरे इस स्टूल पर बैठे रहने में है। यहीं; सारा जगत यहीं है। और मेरे पास आए बिना कभी कोई भीतर नहीं गया। इसलिए भीतर अगर कभी कुछ जाएगा भी, तो मेरे पास से गुजरकर ही जाएगा। अब तक तो मैंने कोई खजाना भीतर जाते नहीं देखा। कोई खजाना-वजाना भीतर नहीं है।
बुद्धि सिर्फ पहरा है, बाहर के जगत से हमारा संबंध है सुरक्षा का, सिक्योरिटी मेजर है। लेकिन जब हम उसी से पूछने लगते हैं अंतरतम की बातें, तो हमारी नासमझी है। हम जिससे पूछ रहे हैं, उसे पता ही नहीं है। लेकिन जिसे कुछ भी पता नहीं है, वह भी जवाब तो देने में कुशल होता ही है।
अक्सर तो ऐसा होता है, जिन्हें कुछ भी पता नहीं होता, वे जवाब देने के लिए बड़े आतुर होते हैं। कभी-कभी जिन्हें पता होता है, वे जवाब देने से रुक भी जाते हैं; लेकिन जिनको पता नहीं होता, वे बहुत जल्दी जवाब दे देते हैं। शायद इसीलिए कि कहीं झिझकें, तो पता न चल जाए कि पता नहीं है। जल्दी जवाब दे देते हैं।
बुद्धि बड़े जल्दी जवाब दे देती है। अगर आप बुद्धि से ही पूछते चले गए, तो परमात्मा की कोई सन्निधि, कोई सुगंध, कोई संगीत, कभी नहीं मिल सकेगा। जरा बुद्धि को हटाएं और भीतर के हृदय से पूछें। हां, बुद्धि का उपयोग करें। हृदय की आवाज हो; बुद्धि का उपयोग हो। हृदय से पूछें कि क्या करना है; और फिर बुद्धि से पूछें कि कैसे करना है। तब, तब बुद्धि और हृदय में एक सुसंगति बन जाती है।
इसे ठीक से समझ लें।
हृदय से पूछें लक्ष्य, बुद्धि से पूछें साधन। हृदय से पूछें अंतिम सिद्धि, बुद्धि से पूछें पहुंचने का मार्ग। हमेशा हृदय से पूछें कि क्या चाहिए और बुद्धि से पूछें कि यह चाहिए, अब इसे पाने के लिए क्या करना है। बुद्धि मैथडॉलाजी दे सकती है, विधि दे सकती है, मार्ग दे सकती है। लेकिन बुद्धि कभी लक्ष्य नहीं देती। और हम सब बुद्धि से लक्ष्य पूछकर भटक जाते हैं।
इसे ऐसा समझें तो बहुत आसान हो जाएगा। बुद्धि का जो चरम विकास है, वह विज्ञान में हुआ है। हृदय का जो चरम विकास है, वह धर्म में हुआ है।
अगर विज्ञान से पूछें कि हम किसलिए जीते हैं, तो विज्ञान कहेगा, हमें पता नहीं। अगर विज्ञान से पूछें कि हम किस तरह जीएं कि ज्यादा जी सकें, स्वस्थ जी सकें, तो विज्ञान रास्ता बता देगा। अगर विज्ञान से आपने पूछा कि जीवन का लक्ष्य क्या है, तो विज्ञान कहेगा, हमें कुछ पता नहीं है।
आइंस्टीन मरते वक्त पीड़ित था कि मैंने भी अणुबम के बनने में सहायता दी है। लेकिन मुझे यह पता ही नहीं था कि तुम क्या उपयोग करोगे। हम तो केवल इतना ही बता सकते थे कि अणुबम कैसे बन सकता है। तुम क्या करोगे, यह हमने सोचा भी नहीं था!
विज्ञान बता नहीं सकता कि क्या करो। धर्म ही बता सकता है कि क्या करो। विज्ञान बता सकता है कि कैसे करो, दि हाउ, कैसे! लेकिन किसलिए, फार व्हाट! विज्ञान के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। बुद्धि के पास भी कोई उत्तर नहीं है।
हृदय से पूछें, क्या पाना है। और फिर बुद्धि को आज्ञा दे दें कि यह पाना है। खोजो मार्ग, खोजो विधि, खोजो व्यवस्था। और तब बुद्धि और हृदय संयुक्त हो जाते हैं। बुद्धि और हृदय का संयोग जहां है, वहीं योग फलित होता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त हुआ निस्संदेह तू मुझे उपलब्ध होता है।
मेरे में अर्पण किए हुए! मजे की बात है। हृदय सदा ही अर्पण करना चाहता है। और बुद्धि सदा अर्पण करवाना चाहती है। बुद्धि कहती है, करो समर्पण। बुद्धि सदा दूसरे से समर्पण करवाना चाहती है। बुद्धि समर्पण करना जानती ही नहीं। बुद्धि अहंकार है। और हृदय! हृदय आक्रमण करना जानता ही नहीं। हृदय समर्पण है; हृदय अपूर्व विनम्रता है।
अगर कोई बुद्धि से ही खोजता रहा, तो परमात्मा के संबंध में सिर्फ तर्क कर-करके समाप्त हो जाएगा। उसे कोई भी उत्तर मिलने वाला नहीं है। अगर परमात्मा स्वयं भी सामने खड़ा हो और बुद्धि से अगर आपने पूछा कि तुम कौन हो? तो परमात्मा चुप रह जाएगा। इसलिए नहीं कि आपका प्रश्न गलत था; सिर्फ इसलिए कि बुद्धि से पूछा गया था। बुद्धि से पूछे गए इस तरह के प्रश्नों के उत्तर देने का कोई भी अर्थ नहीं है।
हृदय से पूछो, तो परमात्मा को उत्तर देना भी नहीं पड़ता, वह हृदय के ऊपर सब भांति छा जाता है, जैसे कोई बादल किसी पहाड़ को घेरकर छा ले, जैसे किसी फूल के आस-पास सब तरफ से सूरज की किरणें उसे घेर लें और छा लें। हृदय से पूछें, तो परमात्मा मौजूद भी न हो सामने, तो भी चारों तरफ से वह हृदय को घेर लेता है और हृदय की कली खिल जाती है, जैसे सुबह फूल खिल जाता है और सब तरफ से सूरज की रोशनी उसे घेर लेती है। लेकिन हृदय का सूत्र है, अर्पण।
तो कृष्ण कहते हैं, मेरे को अर्पण हुआ, मन-बुद्धि से युक्त, निस्संदेह--फिर कोई संदेह नहीं--मुझको ही उपलब्ध हो जाता है।
समर्पण ही उपलब्धि है, समर्पण ही पहुंच जाना है। जिसने रोका समर्पण से अपने को, वह वंचित रह जाएगा। जिसने छोड़ा अपने को, साहस किया, वह पहुंच जाता है।
हम सब बहुत डरे-डरे होते हैं। हम कभी भी अपने को छोड़ते नहीं। हमें जीवन में ऐसा एक भी स्मरण नहीं आता, जब हम अपने को कभी छोड़ते हैं। जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसमें भी अपने को छोड़ते नहीं। कुछ न कुछ सदा ही पीछे बचा लिया जाता है। वही बचा हुआ, कभी भी प्रेम के अनुभव तक भी हमें नहीं पहुंचने देता।
अगर मैं किसी को प्रेम भी करता हूं, तो अपने को रोककर, बहुत-सा हिस्सा पीछे छोड़ देता हूं, जरा-सा हिस्सा बाहर भेजता हूं फीलर्स की तरह, कि जरा देख तो लें कि कहां तक मामला है। जब सुरक्षित हो जाएंगे पूरे, तब थोड़ा और हृदय का हिस्सा देंगे। अगर जरा ही डर लगा, तो जैसे कछुआ सिकुड़ जाता है अपने भीतर, हम भी सिकुड़ जाएंगे।
प्रेम में भी हम अपने को बचा लेते हैं। और प्रार्थना में तो हम और भी बचा लेते हैं। क्योंकि प्रेम करने में तो सामने कोई दिखाई पड़ता है, प्रार्थना में तो वह भी नहीं दिखाई पड़ता है। तो प्रेम में कभी-कभी थोड़ी सचाई की झलक भी आ जाती है, प्रार्थना तो बिलकुल ही झूठी हो जाती है। घुटने टेकते हैं। हाथ जोड़ते हैं। नमाज पढ़ते हैं। सिर झुकाते हैं। और सब करीब-करीब एक्सरसाइज होकर रह जाता है, व्यायाम होकर रह जाता है।
क्यों ऐसा होता है? क्योंकि हमें पता ही नहीं कि हम हृदयपूर्वक कैसे करें। अर्पण का भाव ही हमें पता नहीं है। अर्पण के भाव को भी सीखना पड़ता है।
कुछ न करें, रोज सुबह जब उठें, तो कुछ भी न करें, खाली जमीन पर लेट जाएं चारों हाथ-पैर फैलाकर। छाती को लगा लें जमीन से। अगर नग्न लेट सकें, तो और भी प्रीतिकर है। जैसे कि पृथ्वी मां है और उसकी छाती पर पूरे लेट गए चारों हाथ-पैर छोड़कर। सिर रख दें जमीन में और थोड़ी देर को अनुभव करें कि अपने को सब का सब पृथ्वी में समा दिया, छोड़ दिया। मिट्टी है दोनों तरफ, इसलिए बहुत जल्दी संबंध बन जाता है; देर नहीं लगती। यह शरीर भी उसी पृथ्वी का टुकड़ा है। बहुत जल्दी इस शरीर के कणों में और पृथ्वी के कणों में तालमेल शुरू हो जाता है, संगीत प्रतिध्वनित होने लगता है। और थोड़ी ही देर में आप अनुभव करेंगे कि आप पृथ्वी हो गए। और इतने आह्लाद का अनुभव होगा, ऐसी अपूर्व प्रसन्नता का अनुभव होगा, जैसा कभी भी नहीं हुआ।
कभी सूरज की किरणों में ही लेट जाएं नग्न और सूरज की किरणों को छू लेने दें पूरे शरीर को। आंख बंद कर लें और किरणों में अपने को समर्पित कर दें। क्योंकि सूरज की किरण के बिना इस शरीर के भीतर जीवन नहीं है। इसलिए शरीर के भीतर जो भी ऊर्जा है, जीवन है, वह सूरज की किरण से जुड़ा है।
जैसे ही समर्पण का भाव होगा कि हो गए एक, ले चल सूरज मुझे अपनी किरणों पर दूर की यात्रा पर; मैं राजी हूं, मैं छोड़ता हूं अपने को। जहां तू मार्ग दिखाएगा, वहीं चल पडूंगा! थोड़ी ही देर में पाएंगे कि किरणें अब सिर्फ चमड़ी को नहीं छूतीं, कहीं भीतर हृदय को गुदगुदाना उन्होंने शुरू कर दिया है। कहीं कोई हृदय की पंखुड़ी पर भी उनकी चोट पड़ने लगी, और कहीं कोई प्राणों का पक्षी भी पंख खोलकर उड़ जाने को आतुर हो गया है।
कहीं भी सीखें, किसी तरह भी सीखें। कहीं भी सीखें, किसी तरह भी सीखें। पत्नी को भी प्रेम देते हों, तो पूरा दे दें। मां की गोद में सिर रखते हों, तो पूरा रख दें। मित्र का हाथ भी लेते हों, तो फिर पूरा ही हाथ हाथ में ले लें। किसी को गले भेंटते हों, तो सिर्फ हड्डियां ही न छुएं; छोड़ दें अपने को। एक क्षण को ले जाने दें। तो धीरे-धीरे अर्पण का भाव खयाल में आएगा।
और उस अर्पण के भाव को ही जब सर्व विराट परमात्मा के प्रति कोई लगा देता है, क्योंकि बाकी सब अनुभव में कोई न कोई मौजूद है। परमात्मा गैर-मौजूदगी है। इसलिए मौजूदगी से अनुभव लें और जब अनुभव गहरा हो जाए, तो फिर गैर-मौजूदगी की तरफ, अनुपस्थित की तरफ, जो नहीं दिखाई पड़ता, उसकी तरफ समर्पण कर दें।
वह समर्पण इसीलिए कठिन है। कोई मौजूद हो, तो समर्पण आसान मालूम पड़ता है। कोई मौजूद ही नहीं, तो समर्पण किसके प्रति? लोग पूछते हैं, किसके प्रति समर्पण?
लेकिन आदमी की चालाकी का कोई अंत नहीं है। एक बहुत अजीब अनुभव मुझे हुआ। वह यह हुआ कि अगर किसी को बताओ कि इसके प्रति समर्पण करो, तो वह कहता है, इसके प्रति समर्पण? इसमें तो इतनी खामियां हैं! और कहो कि इसके प्रति समर्पण करो, तो अहंकार को चोट लगती है कि मैं और इसके प्रति समर्पण करूं? यह भी तो मेरे जैसा आदमी है; हड्डी-मांस का बना है। भूख इसे लगती है, तो क्रोध भी जरूर लगता ही होगा। नींद इसे आती है, तो कामवासना भी सताती ही होगी। कहीं न कहीं छिपाए होगा सब। और मैं इसके प्रति! मैं भी तो ऐसा ही आदमी हूं!
अगर बताओ किसी को कि इसके प्रति करो--बुद्ध सामने खड़े हों, तो भी वही कठिनाई आ जाती है। कृष्ण सामने खड़े हों, तो भी वही कठिनाई आ जाती है। और अगर कोई सामने न हो, तो आदमी का चालाक मन कहता है, किसके प्रति समर्पण करूं? कोई दिखाई तो पड़ता नहीं!
आदमी की इस बेईमानी से बचाने के लिए, जो बहुत बुद्धिमान लोग थे, उन्होंने परमात्मा की मूर्तियां बनाईं। मूर्ति बीच की व्यवस्था थी। न तो व्यक्ति है वहां--बुद्ध और कृष्ण और महावीर और मोहम्मद नहीं हैं वहां--मूर्ति पत्थर है, तो आप यह भी न कह सकेंगे कि इस पत्थर को कहीं क्रोध तो नहीं आता! और कुछ मौजूद भी है, तो आप यह भी न कह सकेंगे कि जो मौजूद नहीं है, उसके प्रति समर्पण कैसे करूं!
लेकिन आदमी की चालाकी का कोई अंत नहीं है। उसने कहा, इस पत्थर को! पत्थर के प्रति समर्पण करवा रहे हैं! इस पत्थर में रखा ही क्या है। अभी चाहूं, तो दो टुकड़े करके इसके बता सकता हूं। जो अपनी ही रक्षा नहीं कर सकता, वह क्या खाक मेरी रक्षा करेगा!
दयानंद की सारी क्रांति इसी नासमझी से पैदा हुई। इसी नासमझी से, कि परमात्मा की मूर्ति को एक चूहा परेशान करता रहा। तो दयानंद ने कहा कि चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर पाते, तो मेरी क्या रक्षा करोगे और जगत की क्या रक्षा करोगे! सब बेकार है। चूहे की इस प्रतीति पर सारा आर्यसमाज खड़ा हुआ है! सारी दृष्टि इतनी छोटी-सी है। लेकिन मूर्ति के विरोधी हो गए दयानंद, क्योंकि मूर्ति अपनी रक्षा न कर पाई।
और पता नहीं, यह आदमी कैसा है! कुछ भी उसे कहो, वह तरकीब निकालेगा और अपनी बीमारी को बचा लेगा। जीवित आदमी हो, तो भूल-चूक मिलेगी। मूर्ति हो, तो पत्थर हो जाती है। और परमात्मा अगर गैर-मौजूद है, तो कहां उसके चरण हैं? कहां और किसके चरणों पर मैं सिर रखूं? और आदमी अपने को बचाता चला जाता है।
इसलिए मैंने कहा, अर्पण सीखें। पृथ्वी से सीखें। आकाश से सीखें। सूरज से सीखें। प्रेम में सीखें। कहीं भी सीखें। एक बात खयाल रखें कि अर्पण का अनुभव आपका जितना सघन होता चला जाए, उतना ही किसी दिन समर्पण परमात्मा के प्रति आसान हो सकेगा।
जब भी कोई आदमी मुझे आकर कहता है कि कैसे करूं समर्पण, तब मैं जानता हूं, इस आदमी ने कभी कोई प्रेम नहीं किया। इस आदमी ने कभी कोई सौंदर्य की प्रतीति नहीं की। इस आदमी को कभी फूल खिलते दिखाई नहीं पड़े; सूरज उगता नहीं दिखाई पड़ा। इसने कभी नदी के तट पर जाकर नदी की शीतल रेत में अपने को लिटाया नहीं। यह कभी पानी की धार में आंख बंद करके बैठा नहीं कि पानी की धार की सरसराहट में इसके भीतर भी कोई तरंग पैदा हो जाए।
नहीं, इस आदमी ने कुछ भी नहीं जाना। इसने तिजोरी भरी होगी। इसने कपड़े इकट्ठे किए होंगे। इसने मकान बनाया होगा। लेकिन इसकी संवेदना का कोई द्वार नहीं खुल पाया है। तो इसलिए अब यह पूछता है कि समर्पण कैसे? कैसे झुक जाऊं? कैसे सिर नवाऊं? गर्दन अकड़ गई है, पैरालाइज्ड हो गई है। अकड़े-अकड़े, चौबीस घंटे अकड़े-अकड़े गर्दन बिलकुल अकड़ गई है। झुकती नहीं है; झुक नहीं सकती।
तो कृष्ण कहते हैं, मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त हुआ निस्संदेह मुझे पा लेता है। और हे पार्थ, ध्यान के अभ्यास रूपी योग से युक्त अन्य तरफ न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ पुरुष परम दिव्य पुरुष को, परमेश्वर को प्राप्त होता है।
अभ्यास रूप योग से ध्यान को प्राप्त हुआ और अन्य की तरफ न जाता हुआ!
कोई अन्य परमात्मा तो है नहीं, परमात्मा तो एक है। इस्लाम ठीक कहता है कि सिवाय अल्लाह के और कोई अल्लाह नहीं है। देयर इज़ नो गॉड एक्सेप्ट दि गॉड, ईश्वर के सिवाय और कोई ईश्वर नहीं। ठीक कहता है। एक ही है वह।
तो अन्य तो कोई ईश्वर नहीं है। इसलिए जब कृष्ण कहते हैं कि जिसका ध्यान सतत मुझमें ही अभ्यासरत हुआ है और मेरे अतिरिक्त अन्य की तरफ नहीं जाता, तो इसका आप यह मतलब मत समझना कि कृष्ण कहते हैं, बुद्ध की तरफ नहीं जाता, महावीर की तरफ नहीं जाता, राम की तरफ नहीं जाता। भक्तों ने ऐसे-ऐसे गलत अर्थ निकाले हैं, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। कृष्ण-भक्त सोचता है कि अगर राम की तरफ गया, तो अन्य की तरफ गया। अगर बुद्ध की तरफ गया, तो अन्य की तरफ गया। कृष्ण ने तो साफ कहा है, अनन्य रूप से मेरी तरफ, अन्य की तरफ नहीं।
लेकिन भूल है समझ की। परमात्मा तो एक ही है। उसे कोई राम कहे, और कोई रहीम कहे, और कोई कृष्ण कहे, और कोई कुछ और कहे। परमात्मा तो एक ही है। यहां अन्य से क्या अर्थ है? क्या और परमात्मा भी हैं, जिनकी तरफ से बचा लो अपने को? और कोई परमात्मा नहीं है। फिर किससे बचाने को कहते होंगे?
कृष्ण इतना ही कह रहे हैं कि सवाल परमात्मा का नहीं है। लेकिन आदमी के मन में हजार-हजार चीजों की तरफ दौड़ने की वृत्ति है। हजार-हजार चीजों की तरफ दौड़ने की वृत्ति है। और एक के साथ ज्यादा देर रहने की क्षमता नहीं है। मन प्रतिपल नए को खोजता है। नया मकान बना लें; दो-चार-आठ दिन में ही पुराना पड़ जाता है। मन कहता है, अब कोई और दूसरा नया बनाओ। नए कपड़े पहन लें; चार दिन बाद मन फिर दुकानों के सामने ठिठककर रुकने लगता है, कि मालूम होता है, नए फैशन के कपड़े फिर बाजार में आ गए।
मन नए की तलाश करता है। क्यों? क्योंकि अगर एक ही चीज के साथ मन को रहना पड़े, तो मन के लिए गति नहीं मिलती, इसलिए मन ऊब जाता है। कहता है, नया लाओ।
लेकिन परमात्मा तो नया लाया नहीं जा सकता। इसलिए जो नए की निरंतर खोज में लगा है, वह परमात्मा के साथ रुक न पाएगा। परमात्मा के साथ तो वही रुक सकता है, जो उस अभ्यास में आ गया, जहां ऊब पैदा ही नहीं होती है, जहां बोर्डम पैदा ही नहीं होती है।
आदमी को अधार्मिक बनाने वाली अगर कोई एक गहरी से गहरी चीज है, तो वह बोर्डम है, वह ऊब है। हर चीज से ऊब जाता है मन। एक पत्नी से ऊब जाता है, एक पति से ऊब जाता है। एक घर से ऊब जाता है, एक मित्र से ऊब जाता है। एक धंधे से ऊब जाता है। हर चीज से ऊब जाता है। और कहता है, और कुछ लाओ, और कुछ लाओ। वह कहता ही चला जाता है कि और कुछ लाओ। उसकी मांग है, और! और! और चीज में वह कहे चला जाता है, और कुछ लाओ। दौड़ाता रहता है। अपने से ही ऊब जाता है। इसलिए कोई आदमी अपने साथ रहने को राजी नहीं है। अपने से ही घबड़ा जाता है!
सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन जब छोटा-सा बच्चा था, तो उसके मां-बाप एक दिन उसे घर छोड़कर गए हैं किसी शादी में। ले जाना संभव न था; शैतान था लड़का। तो कहा उसे कि हम ताला लगा जाते हैं बाहर। अगर तू भली तरह व्यवहार किया, अगर घर में तू शांति से रहा और अच्छा साबित हुआ, तो लौटकर हम तुझे पांच रुपए देने वाले हैं।
पांच रुपए के लोभ में नसरुद्दीन ने भले रहने की कोशिश की, जैसा कि हम सभी लोग किसी लोभ में भले रहने की कोशिश करते हैं। और इसीलिए अगर ज्यादा बड़ा लोभ मिल जाए बुरा होने के लिए, तो तत्काल बुरे हो जाते हैं। यह सवाल सब लोभ का है। तो हर आदमी की भलाई की कीमत है।
एक आदमी कहता है कि मैं रिश्वत बिलकुल नहीं लेता। उससे पूछो, कितनी नहीं लेते--पांच? दस? पंद्रह? पचास? सौ? एक जगह लिमिट आ जाएगी। वह कहेगा, बस ठहरो। क्या देने का इरादा है! सीमा है। एक आदमी कहता है, मैं चोरी बिलकुल नहीं करता। फलां आदमी के घर गया; दस रुपए का नोट पड़ा था; मैंने नहीं उठाया। पूछो उससे, दस हजार का पड़ा होता? तो वह कहेगा, एक दफे सोचने का फिर से मौका दें। सीमा है। वैसे कोई फर्क नहीं पड़ता।
इसलिए भलाई अगर कीमत से मिलती हो, तो बुराई कभी भी ली जा सकती है। इसलिए जिन लोगों को भी भला होने के लिए पुरस्कार दिए जाते हैं, उनके भले होने में सदा संदेह रहेगा। वे कभी भी बुरे हो सकते हैं। भलाई तो वही है, जो बिना पुरस्कार के हो। लेकिन उस भलाई को हम जानते नहीं।
नसरुद्दीन ने बड़ी कोशिश की भले रहने की। पांच रुपए का सवाल था। घड़ी-घंटे की बात थी। आखिर मां-बाप आ गए। देखे तो बड़े हैरान हुए कि वह घर के भीतर एक कमरे से दूसरे कमरे में गोल चक्कर लगा रहा है। पूछा उसके पिता ने कि नसरुद्दीन, यह तू क्या कर रहा है? और हमने कहा था कि भले रहने की कोशिश करना।
तो नसरुद्दीन ने कहा कि मैंने कोशिश की, आई वाज़ गुडर दैन गुड, बट देन आई कुडंट स्टैंड माइसेल्फ। मैं अच्छे से भी अच्छा हो गया और तब अपने को ही सहना मुश्किल हो गया। यह मैं सिर्फ अपने से भागने, अपने से बचने के लिए भाग रहा हूं एक कमरे से दूसरे कमरे में। जस्ट टु एस्केप फ्राम माइसेल्फ, अपने ही से बचने के लिए भाग रहा हूं। इतना अच्छा हो गया मैं कि खुद को ही सहना मुश्किल हो गया!
अच्छाई भी हो जाए बहुत, तो ऊब पैदा कर देती है। हर चीज से हम ऊब जाते हैं। और परमात्मा तो एकरस है। ध्यान का केवल एक ही अर्थ है, एकरसता से न ऊबने का अभ्यास। ध्यान का अर्थ है, एकरसता से न ऊबने का अभ्यास।
बर्ट्रेंड रसेल ने मजाक में कहीं कहा कि मैं मरकर नरक भी जाने को तैयार हूं, लेकिन हिंदुओं और बौद्धों के मोक्ष में जाने को तैयार नहीं हूं। क्यों? क्योंकि उसने कहा कि मोक्ष में तो बड़ी ऊब पैदा हो जाएगी। वहां तो सब एकरस है। आनंद है, तो आनंद ही आनंद है। वहां कभी दुख पैदा ही नहीं होता। तो आनंद से ऊब जाऊंगा। इतना आनंद कैसे सहूंगा! आनंद ही आनंद! बीच में कोई कड़वा स्वाद ही न आता हो, तो मिठाई भी उबाने वाली हो जाती है। तो तिक्त भी चाहिए। और इतना सन्नाटा है वहां कि कभी कोई वाणी ही नहीं उठती, तो मैं तो घबड़ा जाऊंगा। और फिर वहां से लौटने का भी कोई उपाय नहीं है।
रसेल कहता था, वहां जो गया, सो गया। यह तो मौत हो जाएगी, मोक्ष न होगा। लौट नहीं सकते। मोक्ष में एक ही दरवाजा है एन्ट्रेंस का, प्रवेश का। निकास का, एक्जिट का कोई दरवाजा नहीं है। तो जो गए, सो गए। तो रसेल कहता था, ये लोग कहते हैं कि वह परम मुक्ति है, मुझे लगता है, वह तो परम बंधन हो गया! वहां से निकलने का उपाय नहीं है। नरक से निकल सकते हैं। और नरक में बड़ा परिवर्तन है। चौबीस घंटे उपद्रव चल रहे हैं। जितना उपद्रव वहां है, उतना तो यहां भी नहीं है।
रसेल ठीक कह रहा है। लेकिन बात मुद्दे की है।
अगर आप परिवर्तन के बहुत आकांक्षी हैं, तो आप ध्यान में प्रवेश नहीं कर सकते। आखिर जब आप ध्यान में बैठते हैं, तो आपका मन करता क्या है? एक विचार देता है, फिर दूसरा देता है, फिर तीसरा देता है। वह दिए चला जाता है विचार। वह कहता है, घबड़ाओ मत, ऊबो मत। मैं तुम्हें नई-नई चीजें दे रहा हूं।
और आप पूछते हैं कि ध्यान कैसे लगे? ध्यान उसी दिन लगेगा, जिस दिन आप ऊबने के लिए तैयार हों, और ऊबें न। एक फूल को आप देख रहे हैं। देखे चले जा रहे हैं। बदलने की कोई इच्छा नहीं है। तो ठीक है। देखे जा रहे हैं। देखे जा रहे हैं। देखे जा रहे हैं। पहले मन ऊबेगा। वह कहेगा, क्या एक ही फूल को देखे जा रहे हो, बदलो अब। अगर आपने फूल न बदला, तो मन कहेगा, बदलो फूल, हम भीतर विचार बदलते हैं। लेकिन कुछ न कुछ बदलो। लेकिन आपने कहा, कुछ न बदलेंगे। यह फूल है और मैं हूं, और बस काफी है।
अगर आप घड़ी दो घड़ी एक फूल के पास भी रोज इस तरह बैठ जाएं, एक दिन आप पाएंगे कि ध्यान की झलक आपको आनी शुरू हो गई। फिर ऊब नहीं आती। फिर आप एक चीज के साथ होने को राजी हो गए। और जो व्यक्ति एक चीज के साथ चौबीस घंटे होने को राजी है, वही प्रभु का स्मरण कर सकता है। क्योंकि वह स्मरण तो बदला नहीं जा सकता, वह तो प्रभु एक ही है; चारों तरफ एकरस है। उसका एक ही स्वाद है।
बुद्ध कहते थे, जैसे नमक; सागर में कहीं भी चखो और नमकीन है स्वाद। ऐसा ही प्रभु को कहीं से चखो, वह बिलकुल एकरस है, एकस्वाद है।
कृष्ण कहते हैं, अन्य की तरफ जरा भी चित्त गया, तो ध्यान नहीं है। और अगर अन्य की तरफ चित्त न जाता हो, अनन्य रूप से मेरी ही तरफ लग जाता हो, या परम दिव्य पुरुष की तरफ लग जाता हो, तो परमेश्वर प्राप्त होता है। इससे जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले, अचिंत्य स्वरूप, सूर्य के सदृश प्रकाश रूप, अविद्या से अति परे परमात्मा को स्मरण करता है, वही परमात्मा को उपलब्ध होता है।
इसमें कुछ बातें कहीं, जो हम समझें।
एक, जो पुरुष सर्वज्ञ है। इस जगत में कोई कितना भी जानता हो, तो भी अल्पज्ञ ही होगा। कोई कितना ही जान ले, जानने को सदा शेष रह जाता है। कोई कितना ही जान ले, जानना चुक नहीं पाता है। देयर इज़ नो एंड टु नोइंग। हो भी नहीं सकता। इसलिए कोई भी कितना भी जान ले, वह जानना पूर्ण नहीं है। अगर जानना कहीं भी पूर्ण होगा, तो वह परमात्मा के अंतस्तल में होगा।
निश्चित ही, वह सभी कुछ जानता होगा, जो जाना जा सकता है। लेकिन उसे यह बिलकुल पता नहीं हो सकता कि मैं सब कुछ जानता हूं। क्योंकि जिसे यह पता है कि मैं सब कुछ जानता हूं, उसके भी जानने की सीमा है। इसलिए परमात्मा सर्वज्ञ है, आल नोइंग है, फिर भी उसे कोई पता नहीं कि मैं सब कुछ जानता हूं। सब कुछ जानने का पता भी अज्ञानी का ही बोध है।
इसलिए अगर कभी कोई जमीन पर घोषणा करता है कि मैं सर्वज्ञ हूं, तो वह इस बात की घोषणा करता है कि उसके भी जानने की सीमा है। वह भी अल्पज्ञ है। वह भी अज्ञानी है। सिवाय अज्ञानी के अतिरिक्त कोई सब कुछ जानने की घोषणा नहीं करता है।
लेकिन जो उस सब कुछ जानने वाले का स्मरण करता है, वह धीरे-धीरे उसके साथ एक होता चला जाता है। और एक घड़ी ऐसी आती है उस एक हो जाने की, जब खुद को भी पता नहीं रहता कि मैं कुछ जानता हूं या नहीं जानता हूं।
एक मित्र मुझे पत्र लिखे हैं और पूछे हैं कि क्या आपको सब कुछ पता है?
मैं उन्हें दो ही उत्तर दे सकता हूं। या तो कहूं, हां, सब कुछ पता है--जो कि अज्ञानी का सिद्ध सूत्र है। या मैं उन्हें कहूं कि मुझे कुछ भी पता नहीं है--जो कि ज्ञानी अक्सर कहते रहे हैं। लेकिन मुझे उसमें भी घोषणा दिखाई पड़ती है।
यदि मैं कहूं, मुझे कुछ भी पता नहीं है, तो भी मैं कुछ पता होने की घोषणा दे रहा हूं और बहुत सुनिश्चित घोषणा दे रहा हूं कि मुझे कुछ भी पता नहीं है, कम से कम इतना मुझे पता है। और कुछ भी मुझे पता नहीं है, यह बहुत एब्सोल्यूट बात है। जैसे कोई कहे, सब कुछ मुझे पता है। ऐसा ही कोई कहे, कुछ भी मुझे पता नहीं है, यह दूसरी सीमा पर पूर्ण घोषणा है।
क्या किया जाए? क्या उनको कहा जाए, मुझे कुछ-कुछ पता है और कुछ-कुछ पता नहीं है! अगर ऐसा कहा जाए, तो भी बड़ी लाजिकल फैलेसी हो जाती है। क्योंकि तब पूछा जा सकता है, कुछ-कुछ क्या पता है और कुछ-कुछ क्या पता नहीं है? और जिसका मुझे पता नहीं है, उसका भी इतना तो मुझे पता है ही कि मुझे पता नहीं है। उनको क्या उत्तर दिया जाए? और वे कहते हैं, हां या न में सीधा जवाब दें!
शायद परमात्मा आपके सामने आने से इसीलिए डरता है कि आपके सवालों का जवाब उसके पास नहीं होगा।
जैसे-जैसे कोई लीन होता है परम सत्ता में, वैसे-वैसे कुछ भी पता नहीं रह जाता, न ज्ञान का और न अज्ञान का।
यही मैं उन मित्र को कहा था, तो वे कहने लगे, लेकिन जब हम आपसे कुछ पूछते हैं और जब आपको कुछ भी पता नहीं--न ज्ञान का, न अज्ञान का--तो आप उत्तर कैसे देते हैं? क्योंकि हम सबको खयाल है कि उत्तर बंधे-बंधाए पहले से ही मौजूद रहते होंगे। आपने पूछा, उसके पहले उत्तर रेडीमेड रहते होंगे, जैसे दुकान में पैकेट बंद रखे हुए हैं चीजों के। आप कहे कि मुझे फलां चीज चाहिए, दुकानदार ने पैकेट निकाला और आपको दे दिया। जिन्हें हम पंडित कहते हैं, उनके पास ऐसे ही रेडीमेड पैकेट तैयार होते हैं। आपने पूछा; उन्होंने दुकान से निकाला, आपको दे दिया।
लेकिन जो व्यक्ति जैसे-जैसे प्रभु में लीन होगा, वैसे-वैसे उसे कुछ भी पता नहीं होता और न कुछ भी न-पता होता है। आप पूछते हैं; उत्तर आता है, दिया नहीं जाता है। ऐसे ही जैसे कोई जाकर किसी निर्जन, वीरान-सी घाटी में जोर से आवाज करे और पर्वत उसकी आवाज को प्रतिध्वनित कर दे। ऐसे ही जैसे किसी दर्पण के सामने कोई जाकर खड़ा हो जाए और दर्पण उसकी आकृति को प्रतिछवित कर दे।
कृष्ण भी जो उत्तर दे रहे हैं अर्जुन को, वे कोई उत्तर नहीं हैं। उस अर्थ में उत्तर नहीं हैं, जैसे स्कूल के अध्यापक और बच्चों के बीच होते हैं; वैसी कोई बंधी रेडीमेड बात नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन पहली दफा अपने देश की राजधानी में गया हुआ था। पहली दफा रास्ते से गुजर रहा था। अचानक जोर से कारों के हार्न बजे, ब्रेक लगे, बसें रुक गईं, घबड़ाहट फैल गई, क्योंकि नसरुद्दीन अकड़कर बीच से चला जा रहा है, बीच रास्ते से। पुलिस वाले ने बहुत हाथ हिलाया रुकने के लिए, लेकिन वह नहीं रुका। पुलिस वाला पास आया और कहा कि महानुभाव, क्या आपको समझ में नहीं आता कि मैं हाथ हिला रहा हूं!
नसरुद्दीन ने कहा, मुझे समझ में नहीं आएगा! मैं तीस साल स्कूल में मास्टर रह चुका हूं। क्या पूछना है, पूछो? वह अपने स्कूल का अभ्यासी है। लड़के जब हाथ हिलाते हैं! बोला, क्या पूछना है, पूछो! सड़क पर भी पीछा नहीं छोड़ते पूछने वाले लोग! रेडीमेड है। उसे पक्का पता है कि जब कोई हाथ हिलाता है, तो उसका मतलब क्या होता है।
कृष्ण कोई ऐसे उत्तर नहीं दे रहे हैं। कृष्ण जैसे व्यक्ति उत्तर देते ही नहीं। केवल प्रश्न को पी जाते हैं और उत्तर आता है। केवल प्रश्न को भीतर भेज देते हैं और परम शून्य से ध्वनि उठती है और लौट आती है।
सर्वज्ञ है वह, इस अर्थ में कि वही है, सो जानता ही है। जानता ही है--क्या हुआ, क्या हो रहा है, क्या होगा। फिर भी इसका उसे कुछ भी पता नहीं है। क्योंकि पता केवल अज्ञानी को होता है।
अनादि! जो कभी प्रारंभ नहीं हुआ, जिसका कभी कोई जन्म नहीं हुआ, जो कभी शुरू नहीं हुआ, जो बस है, सदा से है।
सबका नियंता। वह, सभी जिसके हाथ में है। सभी कुछ जिसके हाथ में है। चांदत्तारे जिसकी अंगुलियों पर हैं। सभी कुछ।
लेकिन नियंता शब्द से बड़ी भ्रांति हुई है। क्योंकि हम नियंता से एक ही अर्थ ले सकते हैं, सुप्रीम कंट्रोलर, जो सभी के ऊपर नियंत्रण कर रहा है। भूल हो जाएगी। क्योंकि नियंत्रण जब भी किया जाता है, तो दूसरे पर किया जाता है। लेकिन यहां तो उसके सिवाय कोई दूसरा है ही नहीं। इसलिए नियंता का अर्थ कंट्रोलर नहीं है, नियंत्रण करने वाला नहीं है।
नियंता का अर्थ है, नियम, दि लॉ। वही है। उसके अलावा तो कोई भी नहीं है। वही है। किसको नियंत्रण करेगा? नियंत्रण उसे करना भी नहीं पड़ता। उसके जीवन की जो धारा है, जो नियम है, जिसे वेदों ने ऋत कहा, और जिसे लाओत्से ने ताओ कहा है, वही। वह अपने आप...। वही नियम है। उसके अतिरिक्त कोई भी नहीं है। इसलिए वह नियंता है। इसलिए नहीं कि वह हम सबकी गर्दन को पकड़े हुए चला रहा है कि चलो, तुम चोर बन जाओ। तुम बेईमान बन जाओ। तुम साधु बन जाओ। अब तुम्हारा काम खतम हुआ, चलो, लौटो वापस।
अगर ऐसा वह कर रहा हो, तो कभी का पागल हो गया होता। हम जैसे इतने पागलों का नियंत्रण करते-करते कोई भी पागल हो सकता है।
सुना है मैंने कि इजिप्त का एक सम्राट पागल हो गया था। कोई उपाय न देखकर चिकित्सकों ने कहा, एक ही उपाय है। वह शतरंज का बड़ा खिलाड़ी था, तो कहा कि किसी बड़े खिलाड़ी को बुला लो और वह शतरंज खेलने में लगा रहे, तो शायद ध्यान लग जाए शतरंज में, तो पागलपन छूट जाए।
सम्राट बड़ा खिलाड़ी था। तो बड़े से बड़े खिलाड़ी बुलाए गए। उसके साथ कोई खेलने को भी राजी नहीं होता था। पागल के साथ कौन खेलने को राजी हो! लेकिन बहुत पुरस्कार था, तो बड़ा खिलाड़ी जो था, वह राजी हो गया।
सालभर, कहते हैं, खेल चलता रहा। थक जाता सम्राट, सो जाता। उठता, फिर खेल शुरू हो जाता। सालभर बाद चिकित्सकों ने जो कहा था, वह सही निकला, सम्राट ठीक हो गया। लेकिन खिलाड़ी पागल हो गया। सालभर पागल के साथ खेलना पड़े शतरंज, तो आप समझते हैं क्या होगा!
इतने पागलों को अगर नियंत्रण कर रहा हो परमात्मा, तो कभी का पागल हो चुका होगा। और उसके इलाज का भी उपाय नहीं है फिर।
नहीं, नियंत्रण, कोई कांशस कंट्रोल नहीं है कि एक-एक आदमी को चला रहा है पकड़-पकड़कर। नियंता का अर्थ है, वह नियम है। नियम का क्या अर्थ होता है, वह खयाल ले लें।
आप रास्ते पर चल रहे हैं। आपने तिरछा पैर रख दिया, धड़ाम से जमीन पर गिरे और सिर टूट गया। वैज्ञानिक से पूछें, क्या हुआ? वह कहेगा, ग्रेविटेशन, जमीन की कशिश का फल है। इस जमीन ने तुमको पटका।
जमीन अगर ऐसा पटकती रहे, तो बड़ी कठिनाई होगी जमीन को भी। और कहां-कहां दौड़ना पड़े दिनभर, रातभर। कौन कहां गिर रहा है! तिरछा चल रहा है! नहीं। ग्रेविटेशन कोई आपको गिराने नहीं आता। ग्रेविटेशन मौजूद है; नियम है वह। जमीन की कशिश मौजूद है। आप तिरछा पैर रखते हैं, अपने आप गिर जाते हैं। जमीन को पता भी नहीं चलता कि उसने किसी को गिराया। वह नियम है।
पानी बहा जा रहा है सागर की तरफ। अब कोई परमात्मा एक-एक नदी को धकेल नहीं रहा है कि चलो, यह रहा रास्ता। चूक मत जाना। जगह-जगह संतरी नहीं खड़े किए हैं कि देखो, यह भटक न जाए। नियम है कि पानी नीचे की तरफ बहता है। बस। वह नियम खड़ा है। नदी सूख जाए, तब भी नियम उस सूखी रेत में पड़ा है। नदी बिलकुल सूख गई है। पानी बिलकुल नहीं है। तब परमात्मा को उठा लेना चाहिए वहां से अपना कैंप। हटो, उखाड़ो तंबू, अब यहां कोई जरूरत नहीं। लेकिन उस सूखी नदी की धार में भी नियम तैयार है। जब भी वर्षा होगी, पानी आएगा, नियम सक्रिय हो जाएगा। नदी नीचे की तरफ बहने लगेगी।
नियंता का अर्थ है, नियम। परमात्मा नियम है। और इसीलिए सर्वनियंता है। इसका जो स्मरण करे...।
सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म!
आदमी की भाषा बड़ी कमजोर है। कृष्ण के पास भी वही कमजोर भाषा है, जो कमजोर से कमजोर आदमी के पास है। उनको भी कहना पड़ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म। फिर भी कोई हल तो होता नहीं। और भी आगे कह सकते हैं, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, अति सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, अति सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, तो भी कोई हल नहीं होता।
यह कृष्ण को ऐसा क्यों कहना पड़ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म! इसीलिए कहना पड?ता है कि सूक्ष्म शब्द भी बहुत स्थूल है। हम किसी चीज को कहते हैं, बहुत सूक्ष्म, लेकिन फिर भी वह होती तो है ही। हम कहते हैं, बाल बहुत सूक्ष्म है, लेकिन बाल है तो ही। काफी मोटा है, अंगुली में पकड़ा जा सकता है; स्थूल है।
अगर अणु के बाबत हम पूछें, तो वैज्ञानिक कहते हैं, एक लाख अणुओं को हम एक के ऊपर एक रखें, तो एक बाल की मोटाई के बराबर होते हैं। अति सूक्ष्म; लेकिन फिर भी होते तो हैं। और एक लाखवां हिस्सा हुआ, तो भी क्या फर्क पड़ता है। बाल का लाखवां हिस्सा हुआ, तो भी स्थूल तो है।
इसलिए कृष्ण को कहना पड़ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म।
असल में उसे बताने के लिए हमारे पास कोई सूक्ष्म शब्द नहीं है। हमारे सूक्ष्म का भी अर्थ केवल मात्रा का भेद होता है। हाथी के सामने चींटी को रखकर हम कहते हैं, बहुत सूक्ष्म। बस। लेकिन चींटी के सामने और सूक्ष्म चीजें रखी जा सकती हैं और चींटी बड़ी हो जाएगी और चीजें छोटी हो जाएंगी।
लेकिन जब हम भगवान को, परमात्मा को कहते हैं, सूक्ष्मतम, तो उसका अर्थ यह है कि उससे ज्यादा सूक्ष्म फिर और कुछ भी नहीं है। दि अल्टिमेट, आखिरी, अंतिम, उसके नीचे और कुछ गिरने का उपाय नहीं। उसके नीचे और कोई जाने का उपाय नहीं है। दि एबिस, गहराई, आखिरी, अतल। जिसे हम स्थूल कहते हैं, उससे बिलकुल भी पकड़ में न आने वाला।
लेकिन हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योंकि कल्पना भी हम केवल स्थूल की कर सकते हैं। उसकी कल्पना भी नहीं हो सकती। उसकी सिर्फ प्रतीति हो सकती है। उसका सिर्फ एहसास हो सकता है। अनुभव कहीं थोड़ा-सा स्पर्श ले सकता है।
सूर्य के सदृश प्रकाश रूप।
कितनी कमजोर भाषा आदमी की है। सूर्य बेचारा क्या है! और सूर्य के सदृश बताकर हम क्या बता रहे हैं? जैसे कोई कहे कि हमारे घर में जो रात में हम चिमनी जलाते हैं, एक दीया जलाते हैं, उस दीए के सदृश। तो आप कहेंगे, तू पागल है। दीए के सदृश बता रहा है परमात्मा को! एक फूंक मार दें, तेरा दीया बुझ जाए!
लेकिन सूर्य हमें बहुत बड़ा मालूम पड़ता है। लेकिन ज्योतिषियों से पूछें। वे कहते हैं, हमारा सूर्य, जस्टमीडियाकर स्टार, एक बहुत छोटा-सा तारा है, कुछ खास नहीं है। इससे हजार-हजार, दस-दस हजार, साठ-साठ हजार, लाख-लाख गुने बड़े सूर्य हैं। यह बेचारा क्या है! यह कुछ भी नहीं है। ऐसे बहुत बड़ा है। हमारी जमीन से तो कोई साठ हजार गुना बड़ा है। इसलिए बहुत बड़ा है। और हमारे दीए से तो बहुत ही बड़ा है। लेकिन कहीं कोई महासूर्य हैं, जिनके सामने यह हमारे दीए से भी छोटा है।
लेकिन फिर भी आदमी की भाषा कमजोर है। कृष्ण जैसे आदमी की भी भाषा कमजोर है। उसका कारण है कि भाषा ही कमजोर है, आदमी क्या करे। वह जो भी भाषा उपयोग करे, वह कमजोर है। सिर्फ एक इशारा कि सूर्य के सदृश प्रकाश रूप।
नहीं, यह इशारा भी बिलकुल ठीक नहीं पड़ता। लेकिन उपाय नहीं, कमजोर ही है। यह सूर्य भी बुझ जाएगा। यह ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है। इसका ईंधन चुका जाता है। वैज्ञानिक कहते हैं, चार हजार साल और ज्यादा से ज्यादा। इस सूरज के बुझने की घड़ी करीब आ रही है। और चार हजार साल कोई बहुत लंबा वक्त नहीं है सूर्यों के हिसाब से, क्षणभर का है।
इस जमीन को बने कोई चार अरब वर्ष हो गए। यह सूरज इससे बहुत पुराना है। यह जमीन बहुत नई है। वैज्ञानिक कहते हैं, अगर हम ऐसा समझें कि एक हजार पृष्ठ की कोई किताब हो, उसे हम सूरज की उम्र मान लें, तो जमीन की उम्र एक पृष्ठ के बराबर है। और अगर जमीन की उम्र को हम एक पृष्ठ मान लें, तो उस पृष्ठ पर जो फुल प्वाइंट रखा जाता है, उतनी उम्र आदमीयत की है। और आदमी की उम्र, मेरी या आपकी, इसका निशान नहीं बनाया जा सकता। इसका निशान कैसे बनाइएगा? फुल प्वाइंट, जो आप अपने बाल प्वाइंट पेन से लगा दें, उतनी उम्र आदमीयत की है। एक पेज के बराबर जमीन की है। एक हजार पेज के बराबर इस सूरज की है।
जमीन को हुए चार अरब वर्ष हो गए और यह सूरज अब केवल चार हजार वर्ष और जीएगा। फिर क्या हिसाब! यह तो बुझ जाएगा। लेकिन उदाहरण के लिए कृष्ण कहते हैं कि सूर्य की तरह जो प्रकाशवान है। पर उसमें फर्क जोड़ लेंगे, जो अनादि है, पहले कह दिया है। उसका कभी अंत नहीं होगा, जो कभी चुकेगा नहीं, जो कभी समाप्त नहीं होगा।
लेकिन हां, प्रकाशवान है। स्वप्रकाशी है। स्वयं ही प्रकाशित है।
इसे थोड़ा खयाल में ले लें।
जगत में दो तरह की चीजें हैं। दूसरों से प्रकाशित होने वाली; और स्वयं प्रकाशित होने वाली। हम एक दीया जलाते हैं एक कमरे में, तो कमरे की सारी चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं। हम दीया बुझा देते हैं, कमरे की चीजें नहीं दिखाई पड़ती हैं। कमरे की चीजें दिखाई पड़ सकती हैं, अगर कोई दूसरा प्रकाश मौजूद हो। लेकिन क्या आपको दीया जलाकर भी उस दीए को देखने के लिए दूसरा दीया लाना पड़ता है? नहीं, दीया स्व-प्रकाशित है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात सोया है। सर्द रात है। बहुत सर्दी है। उठने की हिम्मत उसकी पड़ती नहीं। लेकिन जल्दी नींद खुल गई है, तो अपने नौकर से कहता है कि महमूद, जरा बाहर देखकर आ कि सूरज निकला कि नहीं। महमूद भी कुड़मुड़ाया कि खुद की तो हिम्मत नहीं पड़ रही है बाहर जाने की और मुझे भेज रहा है बाहर! लेकिन मजबूरी थी। उठकर जरा-सा सरका। जरा दरवाजे से झांककर देखा। अंदर आकर कहा कि बहुत घनघोर अंधेरा है! नसरुद्दीन ने कहा, मूर्ख, अगर अंधेरा है, तो दीया ले जाकर क्यों नहीं देख लेता, सूरज निकला या नहीं!
सूरज देखने के लिए अगर दीया ले जाकर देखना पड़े, तो फैसला है। दीया स्वयं प्रकाशित है। लेकिन फिर भी दीए में ईंधन की जरूरत पड़ती है, तेल की जरूरत पड़ती है। दीया इंडिपेनडेंट नहीं है, स्वतंत्र नहीं है; परतंत्र है।
परमात्मा ऐसा प्रकाश है, जो स्वयं प्रकाशित है, स्वतंत्र है, किसी चीज पर निर्भर नहीं है; प्रकाश रूप है।
अविद्या से अति परे, अज्ञान से अति दूर, शुद्ध सच्चिदानंद परमात्मा को जो स्मरण करता है, वह उसी को उपलब्ध हो जाता है।
अविद्या से अति परे! आखिरी बात।
अज्ञान में गिरा जा सकता है। अज्ञान से उठा जा सकता है। अविद्या से अति परे का अर्थ है कि जो अज्ञान में गिरने में असमर्थ है, जो गिर ही नहीं सकता। अज्ञान में जो गिर ही नहीं सकता, तो ही अविद्या से परे है। हम तो अज्ञान में गिरते हैं। थोड़ी जटिल समस्या है। क्योंकि सभी के भीतर परमात्मा है, फिर भी हम अज्ञान में गिरते हैं! और परमात्मा अविद्या के परे है, जो अज्ञान में गिर ही नहीं सकता, फिर हम कैसे गिरते हैं?
फिर उलझन बड़ी है। और शंकर से लेकर सारे तत्वज्ञ भारत के बड़ी पीड़ा में रहे कि कैसे सुलझाएं! बड़ी अड़चन की बात है। एक तरफ कहते हैं, सभी के भीतर परमात्मा है। स्वीकार! फिर दूसरी तरफ कहते हैं, वह अविद्या से अति परे। वह अविद्या से पार है। वह कभी अज्ञान में गिर नहीं सकता। और हम सब अज्ञान में गिर रहे हैं! और हम सबके भीतर परमात्मा है। इस पहेली का क्या हो?
यह पहेली हमारी बनाई हुई है; है नहीं। हममें से भी कोई भी कभी अज्ञान में गिरता नहीं। वस्तुतः गिरता नहीं। सिर्फ खयाल है, सिर्फ खयाल। सिर्फ हमारी धारणा है। इसलिए जब कोई ज्ञान को उपलब्ध होता है, तो अज्ञान नहीं मिटता, सिर्फ अज्ञानी होने की धारणा मिटती है।
अज्ञान धारणा है ही। लेकिन धारणा की क्षमता है। प्रत्येक के पास यह क्षमता है कि वह अपने को धोखा दे ले। अपने को धोखा देने की क्षमता है। हम अपने को धोखा दे सकते हैं। हम कह सकते हैं, मैं अज्ञानी हूं। मानता रहूं, अज्ञानी हूं। तो यह मान्यता इतनी बड़ी शक्ति है मेरे भीतर कि मैं इस मान्यता को भी सही कर लूंगा। जो इम्पासिबल है, जो असंभव है, वह भी संभव होता हुआ मालूम पड़ता है। विराट शक्ति छिपी है भीतर। अगर मैं मान लूं कि मैं अज्ञानी हूं, तो मैं अज्ञानी हो जाऊंगा
अगर मैं मान लूं कि मैं अंधा हूं, पूरी सामर्थ्य से, तो आंखें इसी वक्त रोशनी खो दें। अगर मैं मान लूं कि मैं लंगड़ा हो गया, तो इसी वक्त मेरा पैर लंगड़ा हो जाएगा। मानना! और विराट शक्ति है भीतर, और मानने के लिए चेतना स्वतंत्र है।
यह हमारी मान्यता है कि हम अज्ञानी हैं। बड़ा मजेदार है! इधर अज्ञानी की मान्यता कर लेते हैं, फिर ज्ञान की तलाश में निकलते हैं। फिर ज्ञान इकट्ठा करते हैं। फिर ज्ञान इकट्ठा करके अज्ञानी के ऊपर एक नई मान्यता बिठाते हैं, कि नहीं, मैं ज्ञानी हूं। भटकाव लंबा हो जाता है। पर्त दर पर्त पागलपन हो जाता है।
वस्तुतः ज्ञानी, मैं ज्ञानी हूं, इसकी खोज में नहीं जाता। इसी खोज में जाता है कि यह मेरी मान्यता जो है, वस्तुतः है? मैं अज्ञानी हूं? और जैसे-जैसे भीतर खोजता है, मान्यता उखड़ जाती है। और एक क्षण वह पाता है कि मैं न ज्ञानी, न अज्ञानी; अविद्या से परे हूं।
दोनों, ज्ञानी और अज्ञानी, अविद्या के भीतर पड़े होते हैं। इसलिए उपनिषदों ने कहा है कि ज्ञानी भी भटक जाते हैं। अज्ञानी तो भटकते ही हैं, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं।
अविद्या से परे--न ज्ञान, न अज्ञान--वैसा हमारा स्वभाव है। इस स्वभाव की जो परम अभिव्यक्ति है, वह परमात्मा है। और जिस दिन हमारे भीतर, किसी के भी भीतर वह अभिव्यक्ति हो जाती है, तो वह भी परम परमात्मा हो जाता है। कहीं भी वह अभिव्यक्ति हो जाए, वही। और जहां नहीं है अभिव्यक्ति, वहां भी परमात्मा मौजूद है, सिर्फ आपकी भ्रांत धारणा में दबा हुआ है।
कोई आदमी अपने को मान ले कुछ, फिर वही धारणा उसे घेरती चली जाती है। यह आटो-हिप्नोसिस है। हमारी जो स्थिति है, यह आत्म-सम्मोहन है। इस आत्म-सम्मोहन को तोड़ना हो, तो प्रभु का सतत स्मरण मंत्र है।

आज इतना ही।

लेकिन कोई उठेगा नहीं, और जाएगा नहीं। पांच-सात मिनट प्रभु का स्मरण हम यहां करेंगे।
लेकिन दो बातें आपसे कह दूं। उठें नहीं। क्योंकि एक जन भी उठता है, तो पीछे के लोगों को उठना पड़ता है। और यहां कल कीर्तन में आपमें से कुछ लोग उठकर आगे आ गए। तो फिर दूसरे लोगों को उठना पड़ता है। बैठे रहें जहां हैं। वहीं से ताली बजाएं। वहीं से कीर्तन में साथ दें। गाएं। आनंदित हों। सात मिनट, इसे प्रसाद समझें और लेकर ही जाएं। उठेगा कोई भी नहीं। और बीच में कोई आगे नहीं आए।


2 टिप्‍पणियां:

  1. "नियंता" शब्द का ध्वनि स्फोट ने ओशो ने जिस तरह उजारगर किया हैं वह सच में रोमांचकारी,आनंदप्रद,विस्मयकारी,..है |ओ मेरे प्यारे ओशो ! आपको शत कोटि-कोटि प्रणाम |🙏🙏🌹🌹🙏🙏

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