ध्यान
योग शिविर
माउंट
आबू,
राजस्थान।
सूत्र :
वायुरनिलममृतमथेदं
भस्मान्तं
शरीरम्।
ओम क्रतो
स्मर कृतं
स्मर क्रतो
स्मर कृतं
स्मर।। 17।।
अब
मेरा प्राण
सर्वात्मक
वायुरूप
सूत्रात्मा
को प्राप्त हो
और यह
शरीर
भस्मशेष हो
जाए। हे मेरे
सकल्पात्मक
मन! अब तू
स्मरण
कर, अपने किए
हुए को स्मरण
कर, अब तू
स्मरण कर, अपने
किए
हुए को स्मरण
कर।। 17।।
जीवन
मिल जाए उसी
में, जहां
से जन्मा है।
आकार खो जाए
उस निराकार
में, जहां
से आकार
निर्मित हुआ
है। ये प्राण
वायु के साथ
एक हो जाएं।
शरीर धूल में,
मिट्टी में
समा जाए। ऐसे
क्षण में — और
ऐसे क्षण दो
हैं, उनकी
मैं आपसे बात
करूंगा — ऐसे क्षण
में ऋषि ने
कहा है अपने
संकल्पात्मक
मन से कि हे
मेरे संकल्प
करने वाले मन,
अपने किए
हुए कर्मों का
स्मरण कर, अपने
किए हुए
कर्मों का
स्मरण कर।
ऐसे
क्षण दो हैं, जब यह
प्रार्थना
सार्थक हो
सकती है। एक
तो मृत्यु के
क्षण में और
दूसरा समाधि
के क्षण में।
एक तो तब, जब
सच में ही
आदमी मृत्यु
को उपलब्ध
होने के दार
पर खड़ा होता
है। और या फिर
तब, जब
मृत्यु से भी
बडी मृत्यु
में, समाधि
के द्वार पर व्यक्ति
अपनी बूंद को
सागर में खोने
के लिए तत्पर
होता है।
साधारणत:
जिन लोगों ने
भी उपनिषद के
इस सूत्र की
व्याख्या की
है, उन्होंने
पहले ती अर्थ
में की है।
यही मानकर की
है कि मृत्यु
के समय ऋषि कह
रहा है कि
मेरा सब वही
मिला जा रहा
है मेरा
अस्तित्व
जहां से आया था,
उस क्षण में
कह रहा है
अपने मन से कि
मेरे
संकल्पात्मक
मन, अपने
किए हुए
कर्मों का
स्मरण कर।
लेकिन
जैसा मैं देख
पाता हूं यह स्मरण
मृत्यु के समय
में किया गया
नहीं है। यह स्मरण
समाधि के क्षण
में किया गया
है। मृत्यु के
क्षण में
इसलिए किया
गया नहीं है कि
मृत्यु की
कोई
पूर्वसूचना
नहीं होती। आप
नहीं जानते
कभी भी कि
मृत्यु किस
क्षण आ जाती है।
मृत्यु आ जाती
है, तभी
पता चलता है।
लेकिन तब तक
जिसे पता चलता
है, वह मर
चुका होता है,
वह जा चुका
होता है। जब
तक मृत्यु आई
नहीं, तब
तक पता नहीं
चलता, और
जब आती है, तब
पता चलने वाला
खो चुका होता
है।
सुकरात
मर रहा था तो
उसके मित्रों
ने उससे कहा
कि तुम भयभीत
नहीं मालूम
पड़ते —
दुखी—पीड़ित
नहीं, चिंतित
नहीं, भयातुर
नहीं! तो
सुकरात ने कहा
कि मैं सोचता
हूं कि जब तक
मृत्यु नहीं
आई है, तब
तक तो मैं
जीवित ही हूं।
और जीवित जब
तक हूं तब तक
मृत्यु की
चिंता क्यों
करूं? और
या फिर यह भी
सोचता हूं कि
जब मृत्यु आ
ही जाएगी और
मर ही जाऊंगा,
तो फिर
चिंता करने
वाला कौन
बचेगा? फिर
यह भी सोचता
हूं कि या तो
मृत्यु में
मैं मर ही
जाऊंगा, बिलकुल
मिट जाऊंगा, कोई बचेगा
ही नहीं। अगर
मृत्यु के पार
कोई बचेगा ही
नहीं, तो
भयभीत होने का
कोई कारण नहीं।
और यदि जैसा
कि और कुछ लोग
कहते हैं कि
मृत्यु आ
जाएगी, फिर
भी मैं मरूंगा
नहीं। यदि
मृत्यु आ
जाएगी और मैं
मरूंगा ही
नहीं, तो
फिर चिंता का
तो कोई भी
कारण नहीं।
मैंने
कहा, दो
क्षणों में यह
सूत्र सार्थक
हो सकता है —
मृत्यु के
क्षण में या
समाधि के क्षण
में। लेकिन
मृत्यु के
क्षण का हमें
कोई भी पता
नहीं होता।
अनप्रिडिक्टेबल
है, मृत्यु
की कोई
भविष्यवाणी
नहीं है।
अनायास है, इसीलिए किसी
भी क्षण हो
सकती है। अगले
क्षण भी हम
होंगे, इसका
कुछ पक्का
नहीं है। किसी
भी क्षण हो
सकती है, फिर
भी किस क्षण
होगी, इसकी
कोई
पूर्वसूचना
नहीं है। और
यह प्रार्थना
तो तभी हो
सकती है, जब
पूर्वसूचना
हो। जब कि ऋषि
को पता हो कि
मैं मरने के
द्वार पर खड़ा
हूं — मैं मर
रहा हूं। नहीं,
इसलिए मैं
कहता हूं कि
यह मृत्यु के
समय में किया
गया स्मरण
नहीं है। यह
महामृत्यु के
क्षण में किया
गया स्मरण है।
महामृत्यु
समाधि का नाम
है।
मृत्यु
को मैं साधारण
मृत्यु कहता
हूं क्योंकि
सिर्फ शरीर
मरता है, मन नहीं
मरता। सिर्फ
शरीर मरता है,
मन नहीं
मरता। ध्यान
को, समाधि
को मैं
महामृत्यु
कहता हूं
क्योंकि शरीर
का तो सवाल ही
नहीं, मन
ही मर जाता है।
और इसलिए भी
मैं कहता हूं
कि यह स्मरण
समाधि के समय
में किया गया
है, क्योंकि
ऋषि कह रहा है
अपने
संकल्पात्मक
मन से, स्मरण
कर अपने किए
हुए कर्मों का,
स्मरण कर।
इस
दूसरे हिस्से
के संबंध में
भी बड़ी
भ्रांति हुई
है। असल बात
यह है कि
साधारणत:
जिन्हें हम
पंडित कहते
हैं, वे
व्याख्याएं
करते हैं। वे
कितनी ही कुशल
व्याख्या
करें, उनकी
व्याख्या में
बुनियादी भूल
हो जाती है।
भूल इसलिए हो
जाती है, शब्द
वे समझते हैं
ठीक से, सिद्धांत
भी समझते हैं,
शास्त्र भी
समझते हैं, लेकिन शब्द
और शास्त्र के
पीछे जो अनकहा
छिपा है, उसे
वे बिलकुल
नहीं समझते।
और धर्म के
सत्य शब्दों
में नहीं कहे
जाते, शब्दों
के बीच में जो
खाली जगह छूट जाती
है, उसी
में कहे जाते
हैं।
पंक्तियों
में नहीं, पंक्तियों
के बीच में जो
रिक्त स्थान
छूट जाता है, उसी में कहे
जाते हैं। जो
रिक्त स्थान
को पढ़ने में
समर्थ नहीं है,
जो केवल
काले अक्षरों
को पढ़ने में
समर्थ है, वह
इन
महासूत्रों
का अर्थ करने
में समर्थ नहीं
हो सकेगा।
पश्चिम
में एक आंदोलन
चलता है
कृष्णा
कासशनेस का, कृष्ण
चेतना का। उस आंदोलन
को चलाने वाले
स्वामी भक्ति
वेदांत प्रभुपाद
की
ईशावास्योपनिषद
पर मैं एक
किताब देख रहा
था। बहुत
हैरान हुआ। इस
सूत्र का अर्थ
उन्होंने जो
किया है, इतना
चकित करने
वाला मालूम
पड़ा! इस सूत्र
का अर्थ किया
है कि मैं मर
रहा हूं मैं
मृत्यु के
द्वार पर खड़ा
हूं —हे प्रभु,
मैंने जो—जो
त्याग तेरे
लिए किए, उनका
स्मरण रखना।
मैंने जो—जो
त्याग तेरे
लिए किए, उनका
स्मरण रखना!
मैंने जो—जो
कर्म तेरे लिए
किए, उनका
स्मरण रखना!
नहीं, ये रिक्त
स्थान जो नहीं
पढ़ सकते, वे
तो ऐसा भूल
भरा अर्थ करें
तो क्षमा किए
जा सकते हैं, यह तो ऐसा
मालूम पड़ता है
कि जो शब्द भी
नहीं पढ़ सकते,
वे भी अर्थ
करते हैं।
ऋषि
कह रहा है, हे मेरे
संकल्पात्मक
मन! यहां
ईश्वर का कोई
सवाल ही नहीं
है। और ऋषि यह
तो कह ही नहीं
रहा है कि
मेरे किए हुए
कर्मों को जो
मैंने तेरे
लिए किए, मेरे
किए हुए
त्यागों को जो
मैंने तेरे
लिए किए, उनका
स्मरण रखना!
लेकिन हमारी
जो
व्यवसायात्मक
वृद्धि है, वह जो
बिजनेस माइंड
है, वह
शायद यही अर्थ
कर पाएगा।
कहेगा, मरने
का क्षण करीब
आ गया, मैंने
दान किया था, मंदिर
बनवाया था, तालाब का
पाट बनवाया था,
स्मरण रखना!
हे प्रभु, मैंने
जो—जो कर्म
किए थे तेरे
लिए, जो—जो
त्याग किए थे,
अब घड़ी आ गई,
अब मुझे ठीक
से उनका फल दे
देना, प्रतिफल
दे देना।
मेरे
संकल्पात्मक
मन...! संकल्प है
हमारे मन की अभीप्सा
का स्रोत।
संकल्प
अर्थात विल।
इसे थोड़ा समझ
लें तो आगे की
बात खयाल में
आ सके।
इच्छा
तो हमारे मन
में सबको होती
है — डिजायर, वासनाएं।
लेकिन वासना
तब तक संकल्प
नहीं बनती, जब तक वासना
से अहंकार जुड़
न जाए। वासना अहंकार
संकल्प बन
जाता है।
वासना तो सभी
लोग करते हैं,
लेकिन अगर
अपने अहंकार
से वासना को न
जोड़ पाएं तो
वासना सिर्फ
स्वप्न बनकर
रह जाती है।
वह कर्म नहीं
बन पाती। कर्म
बनने के तो
अहंकार जुड़
जाना चाहिए।
अहंकार जुड़
जाए वासना में
तो संकल्प
निर्मित होता
है। फिर किसी
कर्म को करने
की अहंता और
अस्मिता निर्मित
होती है। फिर
कर्ता बनने का
भाव निर्मित
होता है।
वासना के साथ
जैसे ही
अहंकार जुड़ा
कि आप कर्ता
बने।
ऋषि
कह रहा है, मेरे
संकल्पात्मक
मन, मेरे
अहंकार और
वासनाओं से
भरे मन, —अपने
किए हुए
कर्मों का
स्मरण कर!
क्यों
कह रहा है यह? और एक बार
नहीं, दो
बार — अपने किए
हुए कर्मों का
स्मरण कर अपने
किए हुए
कर्मों का
स्मरण कर!
क्यों? समाधि
के क्षण में
इस स्मरण की
क्या जरूरत है?
या मृत्यु
के क्षण में
भी इस स्मरण
की क्या जरूरत
है?
मजाक
कर रहा है, व्यंग्य
कर रहा है ऋषि।
वह यह कह रहा
है कि अब सब
खोया जा रहा
है समाधि के
द्वार पर — मन
खो रहा है, शरीर
खो रहा है, भूत
खो रहे हैं, सब लीन हुआ
जा रहा है — अब
मेरे मन, तू
जो सोचता था
कि मैंने यह
किया, मैंने
यह किया, अब
उसका क्या
हुआ! वह जो तू
सोचता था, मैंने
यह किया, मैंने
यह किया, वे
सब पानी पर
खींची गई
रेखाएं अब
कहां हैं? स्मरण
कर! अब तू भी खो
रहा है, तेरा
किया हुआ भी
खो गया है, अब
तू भी खो रहा
है। अब तू
स्मरण कर, लौटकर
पीछे देख।
कितने गौरव से
भरकर तूने
सोचा था, यह
मैंने किया
है! कितने
अहंकार से
भरकर तूने कहा
था, यह
मैंने किया
है! कितनी
आकांक्षाओं
को तूने संजोया
था कि यह मैं
करूंगा! जन्म—जन्म,
अनंत
यात्राओं पर,
कितने चरण—चिह्न
तूने छोड़े थे
और कहे थे कि
ये मेरे चरण—चिह्न
हैं! आज उनका
कहीं भी कोई
निशान नहीं रहा।
उनका तो निशान
रहा ही नहीं, आज तू भी
शून्य हुआ जा
रहा है। आज
तेरा भी निशान
नहीं रहेगा।
आज तू भी
मिटने के करीब
आ गया है। आज
तू भी विदा हो
रहा है। आज सब
भूत अपने में
लीन हो जाएंगे।
आज सारी
यात्रा
समाप्त होगी।
तो एक बार
लौटकर तू पीछे
देख ले, किस
भ्रम में तू
जीया था, किस
इलूजन में, किस माया
में तू जीया
था। किस
पागलपन में
कैसे सपने
तूने देखे थे
और उन सपनों
के लिए कितनी
पीड़ा झेली थी।
और उन सपनों
के लिए कितना
चिंतित हुआ था।
अगर कभी कोई
स्वप्न तेरा
पूरा नहीं हुआ
था तो कितनी
परेशानी, कितनी
विफलता, कितना
फ्रस्ट्रेशन
तूने पाया था।
और अगर कभी
कोई सपना सफल
हो गया था तो
तू कितना फूला
नहीं समाया था।
आज सब सपने भी
जा चुके, आज
सब कर्म भी खो
चुके। तू भी
खोने के करीब
आ गया। तू भी न
होने के करीब
आ गया। लौटकर
एक बार स्मरण
कर।
यह
बहुत व्यंग्य
में, अपने
ही संकल्प और
अपने ही
अहंकार को
उदबोधन है।
इसलिए मैं
कहता हूं यह
मृत्यु के समय
किया गया
उदबोधन नहीं
है, समाधि
के समय किया
गया उदबोधन है।
क्योंकि
मृत्यु में तो
सिर्फ शरीर ही
मरता है, संकल्पात्मक
मन नहीं मरता।
मृत्यु के बाद
भी आप अपने मन
को लिए चले
जाते हैं।
वही
मन तो आपके
अनंत जन्मों
का स्रोत है।
शरीर तो गिर
जाता है यहीं।
मन साथ यात्रा
करता है।
वासना साथ चली
जाती है।
अहंकार साथ
चला जाता है।
किए हुए
कर्मों की
स्मृति साथ
चली जाती है।
करने थे जो
कर्म और नहीं
कर पाए, उनकी
आकांक्षा साथ
चली जाती है।
पूरा मनोशरीर
साथ चला जाता
है। सिर्फ देह
गिरती है, सिर्फ
फिजियोलाजिकल,
सिर्फ
देहगत जो
हमारा ढांचा
है, वह भर
गिर जाता है
मृत्यु में।
लेकिन मन साथ
चला जाता है।
वही मन फिर नए
शरीर को पकड़
लेता है। वही
मन अनंत
शरीरों को पकड़
चुका है। वह
अनंत शरीरों
को पकड़ता चला
जाता है।
इसलिए
ज्ञानी
मृत्यु को
वास्तविक
मृत्यु नहीं
कहते, क्योंकि
कुछ भी तो
नहीं मरता।
सिर्फ वस्त्र
ही बदलते हैं।
शरीर वस्त्र
से ज्यादा
नहीं है। इस
बात को भी ठीक
से समझ लें।
साधारणत:
हम सोचते हैं
कि शरीर हमारा
पहले आता है, फिर उसके
भीतर मन जन्म
लेता है। और
विगत सौ दो सौ
वर्षों की
पश्चिम की
चितना और
धारणा ने सारी
दुनिया में यह
भ्रांति फैला
दी है कि शरीर
पहले निर्मित
होता है, फिर
शरीर के भीतर
से मन जन्मता
है। वह बाई
प्रोडक्ट है,
इपिफिनामिना
है। वह शरीर
का ही एक गुण
है।
ऐसे
ही, जैसे
पुराने
चार्वाकों ने
कहा है कि
शराब जिन चीजों
से मिलकर बनती
है, अगर
उनको एक—एक को
आप ले लें, तो
नशा नहीं
चढ़ेगा। उन
सबके मिल जाने
से नशा बाई
प्रोडक्ट की
तरह पैदा होता
है। नशा का
अपना कोई आगमन
नहीं है कहीं
से। नशा पांच—दस
चीजों के
मिलने से पैदा
हो जाता है।
पांच—दस चीजों
को अलग कर लें,
नशा
तिरोहित हो
जाता है। और
उन पांच—दस
चीजों को आप
अलग—अलग ले
लें, तो भी
नशा नहीं
चढ़ेगा। तो नशा
उनके मिलन से,
उनके बीच
में पैदा होता
है। इसलिए
पुराने
चार्वाक कहते
थे कि मनुष्य
का शरीर
निर्मित होता
है पंच भूतों
से और उन पंच
भूतों के मिलन
से मन निर्मित
होता है। मन
एक बाई
प्रोडक्ट है।
पश्चिम
का विज्ञान भी
फिलहाल अभी
जैसे अज्ञान
की स्थिति में
है, उसमें
वह भी मानता
है कि मन जो है,
वह शरीर के
पीछे पैदा हो
गई एक छाया
मात्र है।
लेकिन पूरब
में, जिन्होंने
बहुत गहरी खोज
की है, उनका
कहना है कि मन
पहले है और
शरीर उसके
पीछे छाया की
तरह निर्मित
होता है।
इसे
ऐसा समझें, पहले
आपके जीवन में
कर्म आता है
या पहले वासना
आती है? पहले
आती है वासना
मन में, फिर
बनता है कर्म।
लेकिन बाहर से
कोई अगर
देखेगा तो
पहले दिखाई पड़ता
है कर्म और
वासना का
अनुमान करना
पड़ता है। मेरे
भीतर आया
क्रोध, मैंने
आपको उठकर
चांटा मार
दिया। क्रोध
मेरे भीतर
पहले आया — मन
पहले — फिर हाथ
उठा, शरीर
ने कृत्य किया।
लेकिन आपको
पहले दिखाई
पड़ेगा मेरा
हाथ और चांटे
का पड़ना, पीछे
आप सोचेंगे कि
जरूर इस आदमी
को क्रोध आ गया।
पहले शारीरिक
घटना दिखाई
पड़ेगी, पीछे
मन का अनुमान
होगा। लेकिन
वास्तविक जगत
में पहले मन
निर्मित होता
है, पीछे
वास्तविक
घटना घटती हुई
मालूम होती है।
हमें
भी, जब
एक बच्चा जन्म
लेता है, तो
पहले शरीर दिखाई
पड़ता है।
लेकिन जो गहरा
जानते हैं, वे कहते हैं
कि पहले मन है।
वही मन इस
शरीर को
निर्मित
करवाता है —
वही मन। वही
मन इस शरीर को,
ढांचे को, व्यवस्था को
बनाता है। वह
मन ब्लू
प्रिंट है। वह
बिल्ट इन
प्रोग्राम है।
इस जनम में जब
मैं मरूं, तो
मेरा मन एक ब्लू
प्रिंट, एक
नक्शा लेकर
यात्रा करेगा।
वही नक्शा नए
शरीर को, नए
गर्भ को
निर्मित
करेगा।
और
आप हैरान
होंगे, साधारणत: हम
सोचते हैं कि
एक स्त्री और
पुरुष संभोग
में रत होते
हैं, तो जब
वे संभोग में
रत होते हैं, तब शरीर
निर्मित हो
जाता है, फिर
एक आत्मा
प्रवेश कर जाती
है। लेकिन
गहरे देखने पर
पता चलता है
कि जब कोई आत्मा
प्रवेश करना
चाहती है तब
दो स्त्री—पुरुष
संभोग करने के
लिए आतुर होते
हैं। लेकिन
पहले हमें
शरीर दिखाई
पड़ता है, मन
का तो हम
अनुमान करते
हैं। मन की
तरफ से
जिन्होंने
गहरी खोज की
है, वे
कहते हैं कि
पहले गर्भातुर,
गर्भ लेने
के लिए आतुर
आत्मा जब आपके
आसपास परिभ्रमण
करने लगती है,
तब संभोग की
आतुरता
जन्मती है। मन
अपना शरीर
निर्मित
करवाने की
चेष्टा करता है।
सांझ
आप सोते हैं।
कभी आपने खयाल
न किया होगा
कि.. रात सोते
वक्त खयाल
करें, आखिरी
विचार जब नींद
उतरती हो, उतर
ही रही हो, उतर
ही गई हो, तब
पकड़े अपने मन
में कि आखिरी
विचार क्या है।
फिर सो जाएं।
और जब सुबह
नींद टूटे, होश आए, तब
तत्काल पहली
खोज करें कि
सुबह जागने का
पहला विचार
कौन सा है। तो
आप बहुत चकित
होंगे। रात जो
आखिरी विचार
होता है, वही
सुबह पहला
विचार होता है।
रात सोते समय
जो चेतना में
अंतिम विचार
होता है, सुबह
जागते समय
चेतना में
पहला विचार
होता है। ठीक
ऐसे ही मरते
वक्त जो अंतिम
वासना होती है,
वह जन्म
लेते वक्त
पहली वासना
होती है।
शरीर
तो गिर जाता
है हर मृत्यु
में, लेकिन
मन चलता चला
जाता है। तो
आपके शरीर की
उम्र हो सकती
है पचास साल
हो, लेकिन
आपके मन की
उम्र पचास लाख
साल हो सकती है।
आपने जितने
जन्म लिए हैं,
उन सभी मनों
का संग्रह
आपके भीतर आज
भी मौजूद है, अभी भी
मौजूद है।
बुद्ध ने उसे
बहुत अच्छा
नाम दिया है।
पहला नाम
बुद्ध ने ही
उसको दिया।
उसे उन्होंने
नाम दिया, आलय—विज्ञान।
आलय—विज्ञान
का अर्थ होता
है स्टोर हाउस
आफ कांशसनेस।
स्टोर हाउस की
तरह आपने
जितने भी जन्म
लिए हैं, वे
सभी
स्मृतियां
आपके भीतर
संगृहीत हैं।
आपका
मन बहुत
पुराना है। और
ऐसा भी नहीं
है कि आपके
पास जो मन है
वह सिर्फ
मनुष्य—जन्मों
का है। अगर
आपके पशुओं
में जन्म हुए, जो कि हुए;
अगर आपके
वृक्षों में
जन्म हुए, जो
कि हुए; तो
वृक्षों की
स्मृति, पशुओं
की स्मृति, वे सभी
स्मृतियां
आपके भीतर
मौजूद हैं। जो
लोग आलय—विज्ञान
की प्रक्रिया
में गहरे
उतरते हैं, वे कहेंगे
कि अगर किसी
व्यक्ति को
गुलाब के फूल
को देखकर अचानक
प्रेम उमड़ता
है, तो
उसका गहरा
कारण उसका
गहरा कारण यही
है कि उसके
भीतर गुलाब के
होने की कोई
गहरी स्मृति
आज भी शेष है, जो समतुल, जो रिजोनेंस,
जो गुलाब को
देखकर
प्रतिध्वनित
हो उठती है।
अगर
एक व्यक्ति
कुत्ते को
बहुत प्रेम
किए चला जा
रहा है तो यह
बिलकुल आकस्मिक
नहीं है। उसके
भीतर के आलय—विज्ञान
में
स्मृतियां
हैं, जो
उसे कुत्ते के
साथ बड़ी
सजातीयता बड़ा
अपनापन, बड़ी
निकटता का बोध
करवाती हैं।
हमारे जीवन
में जो भी
घटता है, वह
आकस्मिक नहीं
है, एक्सीडेंटल
नहीं है। उसकी
गहरी कार्य—कारण
की प्रक्रिया
पीछे काम करती
होती है।
मृत्यु
में शरीर
गिरता है, लेकिन मन
यात्रा करता
चला जाता है।
और मन संगृहीत
होता चला जाता
है। इसलिए
आपके मन में
कई बार ऐसे
रूप आपको
दिखाई पड़ेंगे,
जिनको आप
कहेंगे, ये
मेरे नहीं हैं।
आपको भी कई
बार लगेगा कि
कुछ काम आप
ऐसे कर लेते
हैं जिनको
आपको कहना
पड़ता है, इनस्पाइट
आफ मी, मेरे
बावजूद हो गया।
एक
आदमी का किसी
से झगड़ा होता
है और वह दांत
से उसकी चमड़ी
काट लेता है।
पीछे वह सोचता
है कि मैं और
दांत से चमड़ी
काट सका! मैं
कोई जंगली
जानवर हूं? आज वह
नहीं है, कभी
वह था। और
किसी क्षण में
उसके भीतर की
स्मृति इतनी सक्रिय
हो सकती है कि
वह बिलकुल पशु
जैसा व्यवहार
करे। हममें से
सभी लोग अनेक
मौकों पर
पशुओं जैसा व्यवहार
करते हैं। वह
व्यवहार
आसमान से नहीं
उतरता, हमारे
भीतर के ही
चित्त के
संग्रह से आता
है।
हमारी
मृत्यु सिर्फ
हमारे शरीर की
मृत्यु है, संकल्पात्मक
मन मरता नहीं।
इसलिए ऋषि को
मजाक का मौका
न होता, अगर
मृत्यु हो रही
होती। इसलिए
मैं आपसे कहना
चाहता हूं कि
यह सूत्र समाधि
के क्षण का है।
समाधि के साथ
एक भेद है कि
समाधि की
पूर्वघोषणा
हो सकती है।
क्योंकि
मृत्यु आती है,
समाधि लाई
जाती है।
मृत्यु घटती
है, समाधि
का आयोजन करना
पड़ता है। एक—एक
कदम ध्यान का
उठाकर आदमी
समाधि तक
पहुंचता है।
यह
भी आप खयाल रख
लें कि समाधि
शब्द बड़ा
अच्छा है।
कब्र के लिए
भी कभी आप
समाधि बोलते
हैं। साधु मर
जाता है तो
उसकी कब्र को
समाधि कहते
हैं। सच है यह
बात। समाधि एक
तरह की मृत्यु
है। बड़ी गहरी
मृत्यु है।
शरीर तो शायद
वही रह जाता
है, लेकिन
भीतर जो मन था
वह विनष्ट हो
जाता है।
उस
मन के विनष्ट
होने के क्षण
में ऋषि कह
रहा है कि हे
मेरे
संकल्पात्मक
मन, अपने
किए हुए का
स्मरण कर, अपने
किए हुए का
स्मरण कर।
क्यों? इसलिए कि
इसी मन ने
कितने धोखे
दिए। और यह मन
आज खुद ही
नष्ट हुआ जा
रहा है। जिस
मन को हमने
समझा मेरा है,
जिसके आधार
पर जीए और मरे।
जिसके आधार पर
काम किए, हारे
और जीते।
जिसके आधार पर
जय और पराजय
की
आकांक्षाएं
बांधी। जिसके
आधार पर सुखी
और दुखी हुए।
सोचा था कि जो
सदा साथ देगा,
आज वही धोखा
दिए जा रहा है।
जिसके कंधे पर
हाथ रखकर इतनी
लंबी यात्रा
की, आज
पाया कि वह
कंधा भी विदा
हो रहा है।
जिस नाव को
समझा था कि
नाव है, आज
पाया कि वह भी
पानी ही सिद्ध
हुई और नदी
में मिली जा
रही है।
इस
क्षण में, इस क्षण
में ऋषि कहता
है, मेरे
संकल्पात्मक
मन, अब
स्मरण कर अपने
किए हुओं का, अपने किए
हुए कर्मों का।
अपने सोचे हुए
कर्मों का।
स्मरण कर —
कैसे तूने
वायदे किए थे!
क्या तेरे
प्रामिसेज
थीं, क्या
तेरा आश्वासन
था! कितने
तेरे भरोसे
थे! तूने
मुझसे क्या—क्या
करवा लिया! और
तूने मुझे, क्या—क्या
कर रहा हूं
इसका भ्रम
दिया। और तूने
कैसे—कैसे
स्वप्न मुझसे
निर्मित
करवाए। और
कैसी
विक्षिप्तताएं
मुझसे करवाईं।
और अब तू खुद
विदा हुआ जा
रहा है। और अब
मैं एक ऐसे
लोक में
प्रवेश करता
हूं जहां तू
नहीं होगा।
लेकिन अब तक
तूने सदा
मुझसे यही कहा
था कि जहां
संकल्प नहीं
होगा, वहां
तुम नहीं
होओगे। लेकिन
आज मैं देखता
हूं कि तू तो
विदा हो रहा है,
लेकिन मैं
पूरा का पूरा
हूं।
मन
सदा कहता है
कि अगर संकल्प
न रहा तो मिट
जाओगे। टिक न
पाओगे जिंदगी
के संघर्ष में।
अगर अहंकार न
रहा तो खो
जाओगे। बच न
सकोगे, सरवाइवल न
होगा। मन सदा
कहता है —
पुरुषार्थ
करो, संकल्प
करो, लड़ो।
नहीं लड़ोगे तो
बचोगें नहीं।
संघर्ष नहीं
करोगे तो मिट
जाओगे।
निश्चित, ऋषि आज
मजाक करे तो
स्वाभाविक है।
वह मन से कहे
कि तू तो खुद
मिटा जा रहा
है, लेकिन
मैं तो पूरा
का पूरा शेष
हूं। तू खो
रहा है, मैं
नहीं खो रहा
हूं। लेकिन अब
तक तूने यही
धोखा दिया था
कि तू नहीं होगा
तो मैं नहीं
बचूँगा। आज तू
तो जा रहा है
और मैं बच रहा
हूं।
इस, इस घड़ी को
ऋषि व्यंग्य
बनाए, दो
कारणों से — एक
तो अपने मन के
लिए और एक
उनके मन के
लिए भी, जो
अभी समाधि के
द्वार तक तो
नहीं पहुंचे
हैं, लेकिन
कर्म कर रहे
होंगे। जिनका
मन अभी यह कह
रहा होगा, यह
करो, यह
करो। अगर यह न
कर पाए तो
तुम्हारी
जिंदगी
व्यर्थ है।
अगर यह महल न
बना तो बेकार
हो गया। अगर
इस पद पर न
पहुचे तो क्या
तुम्हारा
अर्थ रहा। अगर
तुमने यह
पुरुषार्थ
सिद्ध न किया
तो तुम दो कौड़ी
के हो।
तुम्हारा
जीवन व्यर्थ
गया, निष्प्रयोजन
हुआ। जिनके मन
अभी यह कहे जा
रहे होंगे, उनको भी ऋषि
व्यंग्य कर
रहा है। उनसे
भी कह रहा है
कि एक दफा फिर
से सोच लेना।
मन
सबसे बड़ा धोखा
है। मन सबसे
बड़ी प्रवंचना
है। हमारी
सारी
प्रवंचना मन
से ही
आविर्भूत
होती है। हम
सब
शेखचिल्लियो
से ज्यादा
नहीं हैं। और
मन इतना कुशल
है कि कभी भी
इस सतह तक
हमें गहरे में
नहीं देखने
देता कि हमें
पता चल जाए कि हम
धोखा खा रहे
हैं। इसके
पहले कि पता
चले, मन
नया धोखा
निर्मित कर
देता है। इसके
पहले कि
पुराना धोखा
टूटे, मन
नए धोखे के
भवन बना देता
है। और कहता
है, यहां आ
जाओ, यहां
विश्राम करो।
एक आकांक्षा
पूरी होती है,
अगर मन एक
क्षण भी गैप
दे दे, एक
क्षण भी
अंतराल दे दे,
तो आपको पता
चल जाए कि जिस
वासना को पूरा
करने के लिए
इतनी पीड़ा
झेली, वह
पूरा करके कुछ
भी नहीं हाथ
में आया। राख
भी हाथ में नहीं
आई।
लेकिन
मन इतना
अंतराल नहीं
देता, इतना
मौका नहीं
देता। इधर एक
आकांक्षा
पूरी भी नहीं
हो पाती कि मन
दूसरी आकांक्षा
के बीज बोना
शुरू कर देता
है। इधर एक
आकांक्षा
पूरी होकर
व्यर्थ होती
है कि नए
अंकुर वासना
के मन खड़े कर
देता है। दौड़
फिर पुन: शुरू
हो जाती है।
कभी भी मौका
नहीं देता
विश्राम का, विराम का कि
आप देख पाएं
कि किस धोखे
में पड़े हैं।
पैर के नीचे
से जमीन का एक
टुकड़ा हटता है
तो गड्डे को
नहीं देखने
देता, नया
जमीन का टुकड़ा
दे देता है कि
इसके सहारे खड़े
रहो।
बुद्ध
एक छोटी सी और
बड़ी मीठी
कहानी कहा
करते थे, वह मैं आपसे
कहूं। सुनी भी
होगी। लेकिन
शायद इस अर्थ
में सोची नहीं
होगी। बुद्ध
कहते थे, भाग
रहा है एक
आदमी जंगल में।
दो कारणों से
आदमी भागता है।
या तो आगे कोई
चीज खींचती हो,
या पीछे कोई
चीज धकाती हो।
या तो आगे से
कोई पुल —
खींचता हो, या पीछे से
कोई पुश —
धक्का देता हो।
वह आदमी दोनों
ही कारणों से
भाग रहा था।
गया था जंगल
में हीरों की
खोज में। कहा
था किसी ने कि
हीरों की खदान
है। इसलिए दौड़
रहा था। लेकिन
अभी— अभी उसकी
दौड़ बहुत तेज
हो गई थी, क्योंकि
पीछे एक सिंह
उसके लग गया
था। हीरे तो
भूल गए थे, अब
तो किसी तरह
इस सिंह से
बचाव करना था।
भाग रहा था
बेतहाशा, और
उस जगह पहुंच
गया, जहां
आगे रास्ता
समाप्त हो गया
था। गड्ढ था
भयंकर, रास्ता
समाप्त था।
लौटने का उपाय
न था।
लौटने
को उपाय कहीं
भी नहीं है —
किसी जंगल में
और किसी
रास्ते पर। और
चाहे हीरों के
लिए भागते हों
और चाहे कोई
मौत पीछे पड़ी
हो, इसलिए
भागते हों, लौटने का
कोई उपाय कहीं
भी नहीं है।
असल में लौटने
के लिए रास्ता
बचता ही नहीं।
समय में सब
पीछे के
रास्ते नीचे
गिर जाते हैं।
पीछे नहीं लौट
सकते, एक
इंच पीछे नहीं
लौट सकते। वह
भी नहीं लौट
सकता था, क्योंकि
पीछे सिंह लगा
था। और सामने
रास्ता
समाप्त हो गया
था। बड़ी
घबराहट में, कोई उपाय न
देखकर, जैसा
निरुपाय आदमी
करे, वही
उसने किया।
गड्ढ में लटक
गया एक वृक्ष
की जड़ों को
पकड़कर। सोचा
कि तब तक सिंह
निकल जाए, तो
निकलकर वापस आ
जाए। लेकिन
सिंह ऊपर आ
गया और
प्रतीक्षा
करने लगा।
सिंह की भी
अपनी वासना है।
कभी तो ऊपर
आओगे।
जब
देखा कि सिंह
ऊपर खड़ा है और
प्रतीक्षा
करता है, तब उस आदमी
ने नीचे झांका।
नीचे देखा कि
एक पागल हाथी
चिंघाड़ रहा है।
तब उसने कहा
कि अब कोई
उपाय नहीं है।
उस आदमी की
स्थिति हम समझ
सकते हैं, कैसे
संताप में पड़
गया होगा!
लेकिन इतना ही
नहीं, संताप
जिंदगी में
अनंत हैं।
कितने ही आ
जाएं तो भी कम
हैं। जिंदगी
और भी दे सकती
है। तभी उसने
देखा कि जिस
शाखा को वह
पकड़े है, वह
कुछ नीचे
झुकती जाती है।
ऊपर आंखें
उठाईं तो दो
चूहे उसकी
जड़ों को काट
रहे हैं।
बुद्ध कहते थे,
एक सफेद
चूहा था, एक
काला चूहा था।
जैसे दिन और
रात आदमी की
जड़ों को काटते
चले जाते हैं।
तो हम समझ
सकते हैं कि
उसके प्राण
कैसे संकट में
पड़ गए होंगे।
लेकिन
नहीं, आदमी
की वासना
अदभुत है। और
आदमी के मन की
प्रवंचना का
खेल अदभुत है।
तभी उसने देखा
कि ऊपर
मधुमक्खी का
एक छत्ता है
और मधु की एक—एक
बूंद टपकती है।
फैलाई उसने
जीभ अपनी, मधु
की एक बूंद
जीभ पर टपकी। आंख
बंद की और कहा,
धन्यभाग, बहुत मधुर
है। उस क्षण
में न ऊपर
सिंह रहा, न
नीचे
चिंघाड़ता
हाथी रहा, न
जड़ों को काटते
हुए चूहे रहे।
न कोई मौत रही,
न कोई भय
रहा। एक क्षण
को वह मधुर...।
कहा उसने, बहुत
मधुर है, मधु
बहुत मधुर है!
बुद्ध
कहते थे, हर आदमी इसी
हालत में है, लेकिन मन
मधु की एक—एक
बूंद टपकाए
चले जाता है। आंख
बंद करके आदमी
कहता है, बहुत
मधुर है।
स्थिति यही है,
सिचुएशन
यही है। पूरे
वक्त यही है।
नीचे भी मौत
है, ऊपर भी
मौत है। जहां
जिंदगी है, वहां सब तरफ
मौत है।
जिंदगी सब तरफ
मौत से घिरी
है। और
प्रतिपल जीवन
की जड़ें कटती
जा रही हैं
अपने आप। जीवन
रिक्त हो रहा
है, चुक
रहा है — एक—एक
दिन, एक—एक
पल। और जीवन
की.. जैसे कि
रेत की घड़ी
होती है और एक—एक
क्षण रेत नीचे
गिरती चुकती
जाती है। ऐसे
ही जीवन से समय
चुकता जाता है
और जीवन खाली
होता चला जाता
है। लेकिन फिर
भी एक बूंद
गिर जाए मधु
की, स्वप्न
निर्मित हो
जाते हैं, आंख
बंद हो जाती
है। मन कहता
है, कैसा
मधुर है! और जब
तक एक बूंद
चुके, समाप्त
हो, तब तक
दूसरी बूंद
टपक जाती है।
मन प्रवंचना
की बूंदें
टपकाए चला जाता
है।
इसलिए
ऋषि कहता है, हे मेरे
संकल्पात्मक
मन, कितने
धोखे, कितनी
प्रवचनाएं
तूने दीं। अब
तू उन सबका एक
बार स्मरण कर।
एक बार स्मरण
कर ले, जो
तूने किया, जो तू सोचता
था, कर रहा
है। जिसका तू
कर्ता बना था।
और आज तू
समाप्त हुआ
जाता है, शून्य
हुआ जाता है, मिटा जाता
है।
समाधि
के द्वार पर
मन शून्य हो
जाता है, विचार बंद
हो जाते हैं, चित्त के
कल्प—विकल्प
ओवेलीन हो
जाते हैं।
चित्त की
तरंगें
निस्तरंग हो
जाती हैं। मन
होता ही नहीं।
जहां मन नहीं
है, वहीं
समाधि है।
मैंने
कहा कि समाधि
का एक अर्थ तो
साधु मर जाए तो
उसकी कब्र को
हम कहते हैं
समाधि। समाधि
का दूसरा अर्थ
है, समाधि
का अर्थ है, जहां समाधान
है। जहां कोई
समस्या नहीं
है। यह भी बड़े
मजे की बात है
कि जहां मन है,
वहां
समस्या और
समस्या और
समस्या —
समाधान कभी भी
नहीं है। मन
समस्याओं को
पैदा करने की
बड़ी कीमिया है।
जैसे वृक्षों पर
पत्ते लगते
हैं, ऐसे
मन में
समस्याएं
लगती हैं।
समाधान कभी
नहीं लगता। मन
के तल पर कोई
समाधान कभी भी
नहीं है। जहां
मन खो जाता है
वहां समाधान
है।
इसलिए
जब कोई आकर
मुझसे कहता है
कि मेरे मन को समाधान
करवा दें, तो मैं
उससे कहता हूं
कि तुम इस
झंझट में न पड़ो।
मन को कभी
समाधान न करवा
पाओगे। मन को
छोड़ो तो
समाधान हो पाए।
एक
मित्र आज सांझ
को ही मुझसे
कह रहे थे कि
मैं लोभ से
कैसे मुक्त हो
जाऊं? मैंने
कहा, न हो
सकोगे।
क्योंकि तुम
ही लोभ हो। जब
तक तुम हो, तब
तक लोभ से
मुक्त न हो
सकोगे। तुम न
हो जाओ, लोभ
नहीं रह जाएगा।
मन
का कभी समाधान
नहीं होता। मन
नहीं होता, तब
समाधान होता
है। इसलिए
कहते हैं उसे
समाधि। जहां
सब समाधान आ
गया, जहां
कोई समस्या न
रही। जब तक मन
है, तब तक
समस्या बनाए
ही चला जाएगा।
एक समस्या हल
करेंगे, दूसरी
समस्या
निर्मित
करेगा। और एक
समाधान अगर
कोई देगा, तो
दस समस्याएं
उस समाधान में
से निर्मित
करेगा।
एक
मित्र आए दो
दिन पहले।
मुझे
उन्होंने
पत्र लिखा था
कि आता हूं
शिविर में।
चित्त में बड़ी
अशांति है। आए।
तीन दिन के
प्रयोग ने
अशांति को
तिरोहित किया।
तीन दिन बाद
मेरे पास आए
और कहने लगे, अशांति
तो चली गई, लेकिन
यह शांति कहीं
धोखा तो नहीं
है? मन ने..
मैंने उनसे
पूछा कि
अशांति धोखा
नहीं है, ऐसा
कभी मन ने कहा
था कि नहीं? उन्होंने
कहा, मन ने
ऐसा कभी नहीं
कहा। कितने
दिन से अशांत
हैं? तो
उन्होंने कहा
कि सदा से
अशांत हूं।
लेकिन मन ने
कभी यह नहीं
कहा कि अशांति
धोखा तो नहीं
है! अभी तीन दिन
से शांत हुए, तो मन कहता
है, कहीं
शांति धोखा तो
नहीं है!
बहुत
अदभुत मन है।
अगर परमात्मा
भी आपके मन को
मिल जाए तो मन
कहेगा, पता नहीं, असली है कि
नकली — अगर मन
हो मौजूद।
इसीलिए
परमात्मा मन
के रहते मिलता
नहीं। क्योंकि
मन उसको बड़ी
दिक्कत में
डालेगा। मन को
आनंद भी मिल
जाए तो भी
संदिग्ध होता
है, पता
नहीं, है
या नहीं। मन
संदेह
निर्मित करता
है, शंकाएं
निर्मित करता
है, समस्याएं
निर्मित करता
है, चिंताएं
निर्मित करता
है। फिर भी मन
को हम इतने
जोर से क्यों
पकड़ते हैं? अगर मन सारी
बीमारियों की
जड़ है, जैसा
कि समस्त
जानने वाले
कहते हैं, तो
फिर हम मन को
इतने जोर से
क्यों पकड़े
हुए हैं?
वही
कारण है, जिससे ऋषि
व्यंग्य कर
रहा है। मन को
हम इसलिए जोर
से पकड़े हैं
कि हमको डर है
कि अगर मन
नहीं रहा तो
हम न रहेंगे।
असल में हमने
जाने—अनजाने में
मन को अपना
होना समझ रखा
है।
आइडेंटिटी कर
रखी है। समझ
लिया है कि
मैं मन हूं।
जब तक आप
समझेंगे कि
मैं मन हूं तब
तक आप समस्त बीमारियों
को पकड़े बैठे
रहेंगे, छाती
से लगाए बैठे
रहेंगे।
आप
मन नहीं हैं।
आप तो वह हैं, जो मन को
भी जानता है, जो मन को भी
देखता है, जो
मन को भी
पहचानता है।
पीछे हटना
पड़ेगा थोड़ा मन
से। थोड़ा दूर
होना होगा।
थोड़ा पार उठना
पड़ेगा। जरा
किनारे खड़े
होकर मन की
धारा को देखना
पड़ेगा कि वह
रही मन की
धारा। आप मन
नहीं हैं, लेकिन
समझा हमने यही
है कि मैं मन
हूं। जब तक आप
समझे हैं कि
मैं मन हूं तब
तक आप मन को
छोड़ेंगे कैसे
2: क्योंकि वह
तो प्राणघाती
हो जाएगी बात।
मन को छोड़ना
मतलब मरना हो
जाएगा। तो फिर
आप मन को नहीं
छोड़ सकेंगे।
मन को वही छोड़
सकता है, जो
जान ले कि मैं
मन नहीं हूं।
समाधि
का पहला चरण
यह अनुभव है
कि मैं मन
नहीं हूं। जब
यह अनुभव गहरा
होने लगता है
और इतना गहरा
हो जाता है कि
यह आपकी
स्पष्ट अनुभूति
हो जाती है कि
मैं मन नहीं
हूं जिस दिन यह
अनुभूति
पूर्ण होती है, उसी दिन
मन तिरोहित हो
जाता है। मन
उस दिन उसी
तरह तिरोहित
हो जाता है, जैसे किसी
दीए का तेल
चुक जाए। दीए
का तेल चुक
जाए तो भी
थोड़ी देर बाती
जलेगी, थोड़ी
देर। बाती में
थोड़ा तेल चढ़
गया होगा
इसलिए। लेकिन
दीए का तेल
चुक जाए तो
बाती थोड़ी देर
जलेगी चढ़े हुए
तेल से, पर
थोडी ही देर।
वही
स्थिति है ऋषि
की। तेल चुक
गया है। जान
लिया ऋषि ने
कि मैं मन
नहीं हूं।
लेकिन बाती
में जो थोड़ा
सा तेल चढ़ गया
है, अभी ज्योति
जल रही है। इस
आखिरी जलती और
अंतिम समय में
बुझती ज्योति
से ऋषि कहता
है, तूने
मुझे धोखा
दिया था कि
सदा साथ देगी
और प्रकाश
देगी। तेरा तो
बुझने का क्षण
आ गया! अब मैं
देखता हूं कि
तेल तो चुक
गया है, कितनी
देर जलेगा
मेरा
संकल्पात्मक
मन? अब तो
सारी बात समाप्त
हुई जाती है।
लेकिन फिर भी
मैं हूं। तो
अपने ही विदा
होते मन को वह
कह रहा है कि
मैं था, मैं
सदा तुझसे अलग
था, लेकिन
सदा मैंने
तुझे अपने साथ
एक समझा। वही
मेरी भ्रांति
थी। वही संसार
था। वही माया
थी।
अपने
से तो कह ही
रहा है, मैंने आपसे
कहा कि आपसे
भी कह रहा है।
शायद — शायद
आपको भी खयाल
आ जाए। लौटकर
देखें तो शायद
खयाल आ जाए।
बीस साल पहले
लौट जाएं, बच्चे
थे। क्लास में
प्रथम आने की
कैसी
आकांक्षा थी
भारी। रात—रात
नींद न आती थी।
परीक्षा
प्राणों पर
संकट मालूम
पड़ती थी। लगता
था कि सब कुछ
इसी पर टिका
है। आज न कोई
परीक्षा रही,
न क्लास रही।
लौटकर याद
करें। लौटकर
याद करें, क्या
फर्क पड़ा कि
प्रथम आए थे
कि द्वितीय, कि तृतीय, कि बिलकुल
नहीं आए थे।
क्या फर्क पड़ा?
आज कोई याद
भी नहीं आती।
दस
साल पीछे
लौटें। किसी
से झगड़ा हो
गया है, लगता है कि
जीवन—मरण का
सवाल है। आज
दस साल बाद
बात ऐसे हो गई,
जैसे पानी
पर खींची गई
रेखाएं मिट गई
हैं। किसी ने
राह में गाली
दे दी थी तो
ऐसा लगा था कि अब
कैसे बचेंगे?
बचे हैं भली
तरह। गाली भी
नहीं है, कुछ
पता भी नहीं
है, आज कोई
याद भी नहीं
आता। आज लौटकर
वापस देखें, कितना मूल्य
दिया था उस क्षण!
उतना मूल्य रह
गया है कुछ? कुछ भी
मूल्य नहीं रह
गया। आज जिस
चीज को मूल्य
दे रहे हैं, ध्यान रखना,
कल इतनी ही
निर्मूल्य हो
जाएगी। इसलिए
आज भी बहुत
मूल्य मत देना।
कल के अनुभव
से आज भी मूल्य
को खींच लेना।
ऋषि
समस्त
अनुभवों के
आधार पर कह
रहा है कि तेरे
ऊपर मैंने
बहुत मूल्य
दिया संकल्पात्मक
मन। आज आखिरी
विदा में
तुझसे कहता
हूं कि धोखा
था, वंचना
थी, मूढ़ता
थी। मैं तुझसे
अलग था, अलग
हूं। इस क्षण
में जब मन
विलीन होता है,
तो सब विलीन
हो जाता है।
क्योंकि मन के
आधार पर ही सब
जुडा है। मन
जो है, वह
न्यूक्लियस
है। उसके ऊपर
ही सारे जीवन
का चाक घूमता
है। इसलिए ऋषि
कह रहा है, वायु
वायु में लीन
हो जाएगी, अग्नि
अग्नि में लीन
हो जाएगी, आकाश
आकाश में खो
जाएगा। सब खो
जाएगा।
क्योंकि वह जो
जोड़ने वाला मन
है, अब वही
खो रहा है।
बुद्ध
को जिस दिन
ज्ञान हुआ, उन्होंने
एक अदभुत बात
कही। जिस दिन
पहली बार उनका
मन मिटा और वह
मन—शून्य दशा
में प्रविष्ट
हुए, उस
दिन उन्होंने
भी ठीक ऐसी ही
बात कही, जैसा
उपनिषद के इस
ऋषि ने कही है।
उन्होंने कहा
कि मेरे मन, अब तुझे
विदा देता हूं।
अब तक तेरी
जरूरत थी, क्योंकि
मुझे शरीर
रूपी घर बनाने
थे। लेकिन अब
मुझे शरीर
रूपी घर बनाने
की कोई जरूरत
न रही, अब
तू जा सकता है।
अब तक मुझे
जरूरत थी, शरीर
बनाना पड़ता था,
तो वह मन के
आर्किटेक्ट
को, वह मन
के इंजीनियर
को पुकारना
पड़ता था। उसके
बिना कोई शरीर
का घर नहीं बन
सकता था। आज
तुझे विदा
देता हूं
क्योंकि अब
मुझे शरीर के
बनाने की कोई
जरूरत न रही।
अब मुझे अपना
परम निवास मिल
गया है, अब
मुझे कोई घर
बनाने की
जरूरत न रही।
अब मैं वहीं
पहुंच गया हूं
जो मेरा घर है।
अब मुझे बनाने
की कोई जरूरत
न रही। अब मैं
असृष्ट
स्वरूप के घर
में पहुंच गया
हूं। स्वयं
में पहुंच गया
हूं निजता में,
अब मुझे कोई
घर बनाने की
जरूरत न रही।
अब मन तू जा
सकता है।
साधक
के लिए ऐसे
सूत्र कीमत के
हैं। कंठस्थ
करने से फायदा
नहीं है।
हृदयस्थ करने
से फायदा है।
कंठस्थ कर लें, याद कर
लें, रोज
दोहरा दें, बासे पड़
जाएंगे। धीरे—
धीरे अर्थ भी
खो जाएगा।
धीरे— धीरे
शब्द ही रह
जाएंगे —
मुर्दा, अर्थहीन।
लेकिन अगर
हृदय तक पहुंच
जाए बात, समझ
में आ जाए यह
बात —
इंटलेक्युअल
अंडरस्टैंडिंग
नहीं, केवल
बौद्धिक समझ
नहीं — यह
प्राणगत समझ
में आ जाए कि
सच ही यह मन
सिवाय धोखे के
और कुछ भी
नहीं है, तो
आपकी जिंदगी
एक नई यात्रा पर,
एक नई
क्रांति में
प्रवेश कर
जाएगी।
मैं
यदि इन
सूत्रों पर
बोल रहा हूं
तो इसलिए नहीं
कि ये सूत्र
आपकी समझ में
आ जाएं, आप थोड़े
ज्यादा
ज्ञानवान हो
जाएं। नहीं, आप जरूरत से
ज्यादा
ज्ञानवान
पहले ही हैं।
आपके शान में
बढ़ती की अब
कोई भी जरूरत
नहीं है। मैं
बोल रहा हूं
इसलिए इन
सूत्रों पर कि
आपको जीवन की
वास्तविकता
का स्मरण आ
जाए, रिमेंबरिग
आ जाए, यह
होश आ जाए कि
हम जैसे जी
रहे हैं, कहीं
ये सूत्र उस
जीने के बाबत
भी कोई प्रकाश
डालते हैं!
च्चांगत्से
चीन में एक
फकीर हुआ। एक
सांझ निकलता
है एक मरघट से।
किसी की खोपड़ी
पैर में लग
जाती है।
शिष्य उसके
साथ हैं।
च्चांगत्से
खोपड़ी को
उठाकर सिर से
लगाकर बार—बार
क्षमा मांगने
लगता है कि
मुझे माफ कर
दे। हे भाई, मुझे माफ
कर दे!
उसके
शिष्यों ने
कहा कि आप
कैसी बात कर
रहे हैं! हमने
सदा आपको
बुद्धिमान
जाना। आप यह
क्या पागलपन
कर रहे हैं? च्चांगत्से
ने कहा कि
तुम्हें पता
नहीं है, यह
छोटे लोगों का
मरघट नहीं है,
यह बड़े
लोगों का मरघट
है। यहां गांव
के जो बड़े
आदमी हैं, वे
दफनाए जाते
हैं।
उन्होंने कहा,
कोई भी हो, बड़ा हो कि
छोटा हो, मौत
सबको बराबर कर
देती है।
मौत
तो बहुत
कम्युनिस्ट
है, एकदम
समान कर देती
है।
पर
च्चांगत्से
ने कहा कि
नहीं, माफी
तो मांगनी ही
पड़ेगी। अगर यह
आदमी जिंदा
होता, तो
पता नहीं आज
मेरी क्या
हालत होती। पर
उन्होंने कहा,
यह आदमी
जिंदा नहीं है।
इसलिए तुम
चिंता मत करो।
पर
च्चांगत्से
उस खोपड़ी को
घर ले आया और
अपने कमरे में
अपने बिस्तर
के पास ही
रखने लगा। जो
भी आता, वही
चौंककर देखता
कि यह खोपड़ी
यहां क्यों है?
च्चांगत्से
कहता कि मेरा
जरा पैर लग
गया था। अब यह
आदमी मर गया
है, अब बड़ी
मुश्किल है।
माफी किससे
मांग? तो
इसकी खोपड़ी ले
आया हूं रोज
इससे माफी
मांगता हूं कि
शायद सुनाई पड़
जाए।
लोग
कहते, आप
कैसी बातें कर
रहे हैं! तो
च्चांगत्से
कहता कि इसलिए
भी इस खोपड़ी
को ले आया हूं
कि इसे देखकर
मुझे रोज खयाल
बना रहता है
कि आज नहीं कल
अपनी भी खोपड़ी
किसी मरघट पर
ऐसी ही पड़ी
होगी। लोगों
की ठोकरें
लगेंगी। कोई
माफी भी
मांगेगा तो हम
माफ करने की
हालत में भी
नहीं होंगे, नाराज होने
की तो बात अलग
है। तो जिस
दिन से इस
खोपड़ी को लाया
हूं अपनी खोपड़ी
के बाबत बड़ी
समझ पैदा हुई
है। अब अगर
कोई मेरी
खोपड़ी को लात
मार जाए, तो
मैं इस खोपड़ी
की तरफ देखकर
शांत रहूंगा।
यह
एक्सिस्टेंशियल
अंडरस्टैंडिंग
हुई। यह
अस्तित्वगत
समझ हुई, बौद्धिक
नहीं। इसका
परिणाम हो गया।
यह आदमी बदल
गया।
यह
सूत्र आपके
हृदय तक पहुंच
जाए और जब आप
कोई कर्म कर
रहे हों या
कर्म की योजना
बना रहे हों और
मन कह रहा हो
कि ऐसा करो, कि यह
इलेक्यान आ
रहा है, इसमें
लड़ो और जीत
जाओ...। जैसे यह
सूत्र
मोरारजी को दे
देना चाहिए —
अभी मन बड़े
संकल्प कर रहा
होगा। वह मरते
दम तक करता
चला जाता है
संकल्प।
हालांकि किसी
चीज से कुछ
मिलता नहीं।
अब मोरारजी
डिप्टी
कलेक्टर से
लेकर डिप्टी प्राइम
मिनिस्टर तक
की यात्रा कर
लिए। उससे कोई
हल नहीं होता।
आगे भी कितनी
यात्रा करें,
कुछ हल नहीं
होगा।
पर
मन हारे तो
मुसीबत में
डालता है, जीते तो
मुसीबत में
डालता है। मन
की हालत जुआरी
बता है। जुआरी
हार जाए तो
सोचता है, एक
दांव और लगा
लूं शायद जीत
जाऊं। और जीत
जाए तो सोचता
है कि अब
चूकना ठीक
नहीं है, एक
दांव और लगा
लूं जब जीत ही
रहा हूं।
इसलिए जुआरी
कभी जीतकर
नहीं लौटता।
जीतता है तो
और लगाता है, क्योंकि
जीतने से आशा
बढ़ जाती है।
जब तक हार न
जाए, तब तक
जीतना कहता है,
और दांव लगा
लूं। हार जाए
तो मन कहता है
कि हार गए।
हारकर लौटना
उचित है कहीं!
एक दांव और
देख लो। कौन
जाने जीत हो
जाए!
मन
जुआरी की तरह
है। इस सूत्र
को स्मरण रखना।
जब मन दांव
लगाने की बात
करे, हार—जीत
की बात करे, तब कहना कि
हे मेरे
संकल्पात्मक
मन, अपने
किए हुए का
स्मरण कर।
इससे कर्म के
प्रति जो भारी
लगाव है वह
क्षीण होगा, और कर्ता
होने की जो
जड़ता है वह
टूटेगी। और
समाधि की ओर
कदम बढ़ सकेंगे।
ध्यान की ओर
यात्रा हो
सकेगी।
ध्यान
रखें, मन
के साथ
मूर्च्छा
नहीं चलेगी।
मन के साथ
बेहोशी नहीं
चलेगी। अगर आप
बेहोश ही चले
जाते हैं मन
के साथ, मूर्च्छित
ही चले जाते
हैं मन के साथ,
तो मन
पुनरुक्त
करता रहेगा
वही, जो
उसने कल किया
था। यह बात
आपसे कहना
चाहूंगा, शायद
आपके खयाल में
न हो कि आपका
मन कोई नए काम नहीं
करता। बस, उन्हीं—उन्हीं
कामों को
पुनरुक्त
करता चला जाता
है।
कल
भी क्रोध किया
था, परसों
भी क्रोध किया
था। और मजा यह
है कि परसों
क्रोध करके भी
पछताए थे कि
अब न करेंगे।
और कल भी क्रोध
करके पछताए थे
कि अब न
करेंगे। आज भी
क्रोध किया है
और आज भी
पछताए हैं कि
अब न करेंगे।
क्रोध भी
पुराना है, पश्चात्ताप
भी पुराना है।
रोज उसको
दोहराए चले
जाते हैं। अगर
क्रोध न छूटता
हो तो कम से कम
पश्चात्ताप ही
छोड़ दें। कहीं
से तो पुराना
टूटे। लेकिन
नहीं, क्रोध
भी जारी रहेगा,
पश्चात्ताप
भी जारी रहेगा।
वही—वही
दोहरता रहेगा।
पूरी जिंदगी
एक रिपीटीशन
है। कोल्हू के
बैल से भिन्न
नहीं है।
लेकिन कोल्हू
के बैल को भी
शक पैदा होता
होगा कि बड़ी
यात्रा कर रहे
हैं। क्योंकि आंखें
तो बंधी होती
हैं, पैर
चलते रहते हैं,
तो कोल्हू
के बैल को भी
खयाल तो आता
ही होगा कि
कितना चल चुके!
न मालूम
पृथ्वी की
यात्रा कर ली,
कहां पहुंच
चुके!
मन
भी कोल्हू के
बैल की तरह
चलता है
वर्तुल में।
वही कर रहे
हैं आप रोज।
अगर एक आदमी
अपनी जिंदगी
की डायरी रखे, लेखा—जोखा
रखे, तो
बहुत चकित
होगा कि मैं
मशीन तो नहीं
हूं? वही—वही
दोहराए चला जा
रहा है! वही
सुबह है, वही
उठना है, वही
सांझ है! अगर
पति—पत्नी बीस
साल साथ रह
लेते हैं, तो
पति सांझ को
देर से लौटकर
घर में क्या
कहेगा, पत्नी
पहले से जानती
है। बीस साल
का अनुभव! पति
जो भी कहेगा, उसका क्या
परिणाम पत्नी
पर होगा, वह
पति जानता है।
फिर भी पति
वही कहेगा और
पत्नी वही
कहेगी।
इस
तरह मन की
यांत्रिकता
में जो डूबकर, मूर्च्छित
होकर चल रहा
है, उसे
कितने ही अवसर
मिलें, वह
सारे अवसर चूक
जाएगा। अवसर
हमें कम नहीं
मिलते। अवसर
बहुत हैं।
लेकिन हम हर
अवसर चूक जाते
हैं। हम अवसर
चूकने में
कुशल हैं।
जिंदगी रोज
मौका देती है
कि तुम नए हो
जाओ, मत
करो पुराना।
लेकिन हम फिर
पुराना करते
हैं।
क्यों, यह क्यों
होता होगा ऐसा?
यह अपने किए
हुए का स्मरण
कर, यह
सूत्र हमारे
खयाल में नहीं
है। जब आप कल
क्रोध करें तो
क्रोध करने के
पहले अपने मन
से कहना कि हे
मेरे मन, अपने
पहले किए हुए
क्रोधों का
स्मरण कर!
पहले इसको कह
लेना। फिर दो
क्षण रुककर
अपने पहले किए
हुए क्रोधों
का स्मरण कर
लेना। और मैं
आपसे कहता हूं
कि आप क्रोध
करने में असमर्थ
हो जाएंगे। जब
कल मन फिर
वासना से भर
जाए, तब
अपने मन को
कहना कि हे मेरे
संकल्पात्मक
मन, अपनी
पहले की हुई
वासनाओं का
स्मरण कर!
पहले उनका
स्मरण कर ले।
नई यात्रा पर
निकलने के
पहले पुराने
अनुभव को खयाल
में ले ले।
नहीं, फिर
आप यात्रा पर
नहीं निकल
पाएंगे।
वासना वहीं
ठिठककर खड़ी हो
जाएगी। इतना
होश काफी है
मन की
यांत्रिकता
को तोड़ देने
के लिए।
गुरजिएफ
ने लिखा है
अपने
संस्मरणों
में कि मेरा
पिता मर रहा
था। उसके एक
वचन ने मेरी
पूरी जिंदगी
बदल दी। मरता
था पिता।
गुरजिएफ तो
बहुत छोटा था।
घर में सबसे
छोटा लड़का था।
बाप तो बहुत
का था। सब
बेटों को बाप
ने अपने पास
बुलाकर कान
में मरते वक्त
कुछ कहा। सबसे
छोटे बेटे को
भी बुलाया।
उसको कहा कि
झुक आ मेरे
पास और एक बात
तुझसे कह जाता
हूं वह भर
स्मरण रखना।
मेरे पास तुझे
देने को और
कोई संपत्ति
नहीं है। भोला
लड़का, उसने
कान झुका लिया।
बाप ने उससे
कहा कि एक बात
का वचन मुझे
दे दे कि जब भी
कोई बुरा काम
करने का सवाल
उठे, तो तू
चौबीस घंटे
रुककर करना।
करना जरूर।
लेकिन चौबीस
घंटे रुक जाना।
वह मेरे से
वायदा कर।
क्रोध करना हो,
बिलकुल
करना। मैं मना
नहीं करता हूं।
लेकिन चौबीस
घंटे रुककर
करना। किसी की
हत्या करनी हो,
बिलकुल
करना। लेकिन
चौबीस घंटे
रुककर करना।
उसके बेटे ने
पूछा, लेकिन
इसका मतलब
क्या है? तो
उसके बाप ने
कहा कि इससे
तू अच्छी तरह
से कर सकेगा।
चौबीस घंटे
रुक जाएगा तो
ठीक से
नियोजना, योजना
बना सकेगा, प्लानिंग कर
सकेगा। और भूल—चूक
कभी नहीं होगी,
यह मेरी जिंदगी
का अनुभव है।
इसको मैं तुझे
दे जाता हूं।
गुरजिएफ
ने लिखा है कि
वह एक बात
मेरी जिंदगी बदल
गई। क्योंकि
चौबीस घंटे के
बाद तो बहुत
देर की बात हो
गई, चौबीस
क्षण भी अगर
कोई बुराई
करने में ठहर
जाए, तो
नहीं कर पाता
है। चौबीस
क्षण भी।
क्रोध
जब आपको आए, आप घड़ी देखने
लगें, और
कहें कि एक
मिनट घड़ी देख
लूं फिर
करूंगा। एक
मिनट घड़ी का
कांटा देख लें।
जब सेकेंड का
कांटा पूरे
साठ सेकेंड का
चक्कर लगा ले,
तब घड़ी नीचे
करके क्रोध
शुरू कर दें।
आप क्रोध नहीं
कर पाएंगे।
स्मरण—भा गया,
पिछले किए
हुए.. उस एक साठ
सेकेंड के बीच
में पिछले किए
हुए क्रोधों
की सारी झलक
और प्रतिबिंब
लौट आएगा। वे
सारे
पश्चात्ताप, वे सारी
कसमें जो खाई
थीं, वे सब
निर्णय कि अब
नहीं करूंगा,
वे सब दोहर
जाएंगे।
लेकिन
बुराई करने
में हम इतना
नहीं रुकते।
हां, भलाई
करने में हम
जरूर रुकते
हैं।
एक
मित्र को
संन्यास लेना
है। वह आज आए
थे। वह कहने
लगे कि मेरा
जन्मदिन आ रहा
है दों—तीन
महीने बाद — तब।
अगर क्रोध
करना हो तो
जन्मदिन तक
कोई नहीं रुकता, संन्यास
लेना हो तो
जन्मदिन तक!
मैंने उनसे कहा
कि पक्का है? ऐसा तो नहीं
है कि अगली
बार तुम कहो
कि मृत्युदिन
जब आएगा तब
लूंगा! जन्मदिन
का भरोसा है
कि वह
मृत्युदिन
नहीं बन जाएगा?
एक पल का
भरोसा है? लेकिन
भलाई को हम पोस्टपोन
करते हैं।
बुराई को हम
तत्काल करते
हैं कि कहीं
ऐसा न हो कि
समय चूक जाए
और बुराई न हो
पाए।
बुराई
को स्थगित
करना, भलाई
को तत्काल कर
लेना।
क्योंकि पल का
भरोसा नहीं है।
भलाई एक क्षण
भी चूक गई, फिर
जरूरी नहीं कि
होने का मौका
मिलेगा। और
पलभर भी बुराई
के लिए रुक गए
तो मैं कहता
हूं कि फिर
कभी न कर
पाएंगे।
क्योंकि उतना
रुकने में जो
समर्थ है, वह
बुराई करने
में असमर्थ हो
जाता है।
ध्यान रखें, एक पल बुराई
को रोकने में
जो समर्थ है, वह बुराई
करने में
असमर्थ हो
जाता है। वह
बड़ा सामर्थ्य
है — एक क्षण
रुक जाने का
सामर्थ्य। जब आंख
में खून उतरने
लगे और हाथ की
मुट्ठियां
भिंचने लगें,
तब एक क्षण
क्रोध में रुक
जाने का
सामर्थ्य इस
जगत में बड़े
से बड़ा
सामर्थ्य है।
इस
सूत्र को
इसलिए ऋषि ने
कहा है — खुद के
व्यंग्य के
लिए भी और आप
सबके व्यंग्य के
लिए भी। आप
सबकी भी खूब
हंसी है उसमें।
एक
सूत्र और ले
लें? नहीं,
आज के लिए
इतना ही।
दो—तीन
बातें ध्यान
के संबंध में
समझ लें, फिर हम
ध्यान के लिए
बैठेंगे। और
कह दूं सबसे
पहले कि ध्यान
को स्थगित मत
करना — पल भर के
लिए भी। यह मत
सोचना कि कल
कर लेंगे।
ध्यान को करना
अभी। दो—तीन
बातें समझ लें,
फिर उठें।
अभी बैठे रहें।
एक तो, जो
लोग मेरे पीछे
बैठे हैं, जिनको
मैंने कल कहा
कि पीछे बैठें,
उनसे यह
नहीं कहा है
कि बैठे रहें।
उनसे यह नहीं
कहा है कि
बैठे रहें।
कुछ ऐसा समझ
गए मालूम होता
है कि बैठे
रहो! नहीं, बैठकर
करने को कहा
है। मैंने
पीछे कल लौटकर
देखा तो
मुश्किल से आठ—दस
लोग कर रहे थे,
बाकी लोग
बैठे हुए थे।
बैठे
होने से कुछ
भी न चलेगा।
और कभी—कभी
मुझे हैरानी
होती है, इतने लोग कर
रहे हैं, इतने
लोग आंदोलित
हैं, इतने
लोग आनंदमग्न
होकर नाच रहे
हैं, क्या
आपके भीतर
पत्थर है हृदय
नहीं है, जिसमें
जरा सी भी कोई
चहल—पहल नहीं
होती! इतने
लोगों को
आनंदित देखकर
आपका कोई रोआं
नहीं कंपता!
नहीं, मुझे
लगता है कि
रोआं तो कंपता
होगा, आप
बड़े समझदार
हैं, उसको
दबाकर बैठे
रहते होंगे कि
कहीं कंप न
जाए। कृपा
करके अपने को
छोड़े। लेट गो!
इतने शरीर
जहां नाच रहे
हैं, इतने
लोग जहां
मुक्त—मन से, सरल—चित्त
से बच्चों
जैसे सरल हो
गए हैं, वहां
अपनी कठोरता
को लिए बैठे
मत रहें।
कठोरता को
छोड़े। आंदोलित
हों।
और
ध्यान रखें, कुछ
मित्रों को
ऐसा खयाल है
कि जब अपने से
होगा तब
करेंगे। सौ
में से नब्बे
प्रतिशत
लोगों को तो
अपने से हो
जाएगा, दस
प्रतिशत
लोगों को नहीं
होगा। और दस
प्रतिशत वे ही
लोग हैं जिनको
समझदार होने
का भ्रम होता
है। उनको कुछ
तोड़ना पड़ेगा
अपनी तरफ से।
तो
मैं आपसे
कहूंगा कि
जिनको अपने से
न होता हो, वे करना शुरू
करें। दो क्षण
करेंगे, तीसरे
क्षण स्पांटेनियस,
सहज
आविर्भाव हो
जाएगा। एक दफा
झरना टूट जाए,
गति आ जाए, तो सहज स्फुरणा
शुरू हो जाती
है।
आज
तो — एक दिन और
बचा है — इसलिए
मैं चाहूंगा
कि कोई भी
वंचित न रहे।
इसलिए सारे
लोग सम्मिलित
हों। नीचे जो
लोग हैं, वे खड़े हो
जाएं। ऊपर से
भी जिनको खड़े
होकर करना है
वे नीचे चले जाएं!
thank you guruji
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