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मंगलवार, 11 नवंबर 2014

भज गोविंदम मुढ़मते (आदि शंक्राचार्य) प्रवचन--07

परम-गीत की एक कड़ी—(प्रवचन—सातवां)

सूत्र :

भगवद्गीता किंचिदधीता गंगाजल लवकणिका पीता।
सकृदपि येन मुरारिसमर्चा क्रियते तस्य यमेन न चर्चा।।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे।।
रथ्याकर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः।
योगी योगनियोजितचित्तो रमते बालोन्मत्तवदेव।।
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम्।।
त्वयि मयि चान्यत्रैको विषर्‌णुव्यर्थं कुप्यसि मय्य सहिष्णुः।।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम्।।
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसंधौ।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं वांछस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम्।।



मैंने एक कथा सुनी है। एक ततैया ने विशाल भवन के बाहर खिड़की के पास अपना घर बनाया था। सर्दियों में ततैया सोती, विश्राम करती; गर्मियों में उड़ती, नाचती, फूलों से पराग इकट्ठा करती। प्रसन्नचित्त थी, आनंदित थी। पर ततैया बड़ी विशिष्ट थी, विचारक थी--सोचती बहुत और दूसरी ततैयों को बड़े निंदा के भाव से देखती; क्योंकि उनका जीवन बस वासना का जीवन था; विचार की कोई झलक भी उन्हें नहीं मिली; चिंतन-मनन उन्होंने जाना नहीं; शास्त्रों से उनकी कोई पहचान नहीं!
जिस भवन के बाहर वह रहती थी, अक्सर उसमें भीतर भी प्रवेश करती, उड़ती। वह भवन उसे बड़ा प्यारा था। उस भवन में आने-जाने वाले लोगों से उसे ज्यादा आत्मीयता मालूम होती थी, क्योंकि वे भी विचारक थे, चिंतक थे। भवन वस्तुतः एक बड़ा ग्रंथालय था। अध्यापक आते, साहित्यकार आते, दार्शनिक आते, कवि आते, ऐसे ही लोगों का वहां आगमन था। ततैया को अक्सर लोग बाहर भगा देते, फिर भी वह लौट-लौट आती।
धीरे-धीरे उसने पढ़ना-लिखना भी शुरू कर दिया। बच्चों के विभाग से शुरू किया और जल्दी ही वह दर्शन की बड़ी-बड़ी मोटी किताबें पढ़ने लगी, विज्ञान और काव्य के बड़े शास्त्रों में प्रवेश करने लगी। उसकी अकड़ बढ़ती गई। अब तो दूसरी ततैयों को देखना भी उसे बरदाश्त न था, वे सब उसे नारकीय मालूम होने लगीं। उसका अहंकार विक्षिप्त हुआ जा रहा था। अब तो रात और दिन विचार ही चलते रहते थे। वह पुराने दिनों का आनंद--धूप में नाचना, वृक्षों के चक्कर काटना, हवाओं में पर तौलना--सब उसे भूल गया। अब अधिकतर वह बैठी ही रहती--सोचती, विचारती, बड़े गहन चिंतन में लीन होती। संसार किसने बनाया, क्यों बनाया? अस्तित्व कहां से आया, कहां जा रहा है? ऐसे अनूठे प्रश्नों ने उसके हृदय में घर कर लिया।
एक दिन उड्डयन विज्ञान की एक किताब को पढ़ते वक्त वह बड़ी मुश्किल में पड़ गई। लिखा था उस किताब में--एयरोडायनामिक्स की किताब में--कि ततैया का शरीर उसके परों से बहुत ज्यादा वजनी होता है; ततैया को वस्तुतः नियमानुसार उड़ना नहीं चाहिए; उसके पर छोटे हैं, कमजोर हैं, शरीर वजनी है और बड़ा है।
वह तो घबड़ा गई। अब तक उसे पता ही न चला था कि उसका शरीर बड़ा है और पर छोटे हैं। आज पहली दफा पता चला। और जो शास्त्र में लिखा हो, उसे इनकार करना तो संभव नहीं; जो वैज्ञानिकों ने कहा हो, उसके विपरीत तो चलना संभव नहीं।
वह बड़ी उदास हो गई। उस दिन वह अपने छत्ते तक उड़ कर न आ सकी। पैदल चलती हुई आई। विज्ञान के विपरीत उड़ना कैसे संभव है! भारी उदास हो गई। अब तो हिलना-डुलना भी उसने बंद कर दिया। यद्यपि अब भी वह देखती, दूसरी ततैएं उड़ती हैं, चक्कर काटती हैं हवा में, फूलों के पास जाती हैं, लेकिन मन ही मन में वह उनके प्रति दया खाती कि ये सब अज्ञानवश उड़ रही हैं। काश, इन्हें पता होता; काश, इन्होंने विज्ञान जाना होता; तो यह सब उड़ना बंद हो जाता। ततैया उड़ कैसे सकती है? उसके पंख छोटे हैं, शरीर बड़ा है!
लेकिन एक दिन ऐसा हुआ कि एक पक्षी ने अचानक झपट्टा मारा, वह ततैया का सुबह का नाश्ता कर लेना चाहता था। घबड़ाहट में शास्त्र भूल गया, ततैया उड़ गई। जब दूर जाकर एक झाड़ी में उतरी, थोड़ा होश लौटा, घबड़ाहट बंद हुई, तब उसने सोचा कि यह क्या हुआ? ततैया उड़ नहीं सकती और मैं उड़ी! तो जरूर ही कोई अवरोध मेरे मन में, कोई ब्लाक, जो कि मेरी उड़ने की स्वाभाविक क्षमता को रोक रहा था--संकट में, भय के कारण, खतरे के कारण टूट गया है। यह मन के अवरोध के संबंध में भी उसने मनोविज्ञान की एक किताब में पढ़ा था।
लेकिन उस दिन से वह उड़ने लगी; उस दिन से उसने शास्त्र-ज्ञान छोड़ दिया; उस दिन से वह फिर ततैया हो गई, स्वाभाविक। उस दिन से उसके मन में दूसरी ततैयों के प्रति निंदा चली गई; ज्ञान से मुक्त हो गई। उसी दिन उसने स्वभाव को अनुभव किया।
धर्म ज्ञान से भी मुक्ति है। और उसी मुक्ति में परमज्ञान है।
शास्त्र तुम्हें पंगु करने को नहीं हैं, तुम्हें उड़ने की क्षमता देने को हैं। और जिन शास्त्रों ने तुम्हें पंगु किया हो, जानना कि तुम गलत समझे; तुमने व्याख्या में कहीं कोई भूल कर ली। जिन शास्त्रों ने तुम्हें उदास किया हो, समझना कि तुम चूक गए; तुम कुछ का कुछ समझ गए। जिन शास्त्रों ने तुम्हारे उड़ने की, बहने की स्वाभाविक क्षमता छीन ली हो, वे शास्त्र तुम्हारे मित्र नहीं हैं, तुमने उन्हें शत्रुओं में परिणत कर लिया। शास्त्र मुक्तिदायी हो, तो ही शास्त्र है। और शास्त्र तुम्हें स्वाभाविक करे, तो ही शास्त्र है। और शास्त्र तुम्हें दूसरों के प्रति निंदा से न भरे, वरन उनके भीतर भी छिपे हुए परमात्मा की अनुभूति कराए, तो ही शास्त्र है।
शंकर के ये वचन बड़े महत्वपूर्ण हैं।
'जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है...'
किंचित को खयाल रखना।
'जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है और गंगाजल की एक बूंद भी पी ली है और मुरारी की थोड़ी सी अर्चना की है, उसकी यमराज क्या चर्चा कर सकता है?'
गीता तो तुमने बहुत पढ़ी है। यह देश गीता तो हजारों साल से पढ़ रहा है। गीता तो प्रत्येक व्यक्ति की जबान पर है। प्रत्येक व्यक्ति आकंठ गीता से भरा है, लेकिन मुक्ति तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती, सिर्फ मृत्यु दिखाई पड़ती है।
और शंकर कहते हैं, जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है, मृत्यु उसकी विसर्जित हो गई। जिसने जरा सा भी स्वाद ले लिया है परमात्मा का। एक बूंद भी गंगाजल की जिसके कंठ में उतर गई। तुम तो स्नान कर आए हो! एक बूंद भी गंगाजल की जिसके कंठ उतर गई, जिसने थोड़ी सी भी अर्चना की है...
तुमने तो कितनी पूजा की, कितने पाठ किए, कितने यज्ञों में सम्मिलित हुए, कितने मंदिरों के द्वार पर सिर पटके! मंदिरों के द्वार के पत्थर घिस गए हैं तुम्हारे सिर के पटकने से, लेकिन तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति घटित नहीं हुई। कहीं कोई मौलिक चूक हो गई है, कोई बुनियादी भ्रांति है।
किंचित भी मुक्तिदायी है, लेकिन समझ में आए तो। अन्यथा पूरा शास्त्र भी कारागृह बन जाएगा। एक शब्द भी छुड़ा सकता है। अन्यथा शब्द ही तुम्हारी छाती पर पहाड़ बन जाएंगे। शास्त्र नहीं मुक्त करता, समझ मुक्त करती है। और समझ तुम्हें पैदा करनी पड़ेगी, शास्त्र नहीं देता।
इसे थोड़ा समझ लो।
समझ तुम्हें पैदा करनी पड़ेगी, तो ही शास्त्र सार्थक होगा। अगर तुम्हारे पास समझ न हो, तो शास्त्र तुम्हें समझ नहीं दे सकता, सिद्धांत दे सकता है। सिद्धांतों का कोई भी मूल्य नहीं है; क्योंकि सिद्धांत एक तरफ पड़ा रहता है, तुम चलते और ही ढंग से रहते हो।
मैंने एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन को पूछा कि बहुत दिन से तुम्हारे बच्चे नहीं दिखाई पड़ते?
उसने कहा, मैं तो परिवार-नियोजन में भरोसा करता हूं।
मैं थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि उसके सत्रह बच्चे हैं! और वह कहता है, मैं परिवार-नियोजन में भरोसा करता हूं। मैंने कहा, मैं समझा नहीं, तुम्हारा मतलब क्या है?
उसने कहा, मैं तो परिवार-नियोजन वालों की इस बात में भरोसा करता हूं: कि दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे। तो बाकी को मैं मोहल्ले-पड़ोस में खेलने-खाने को भेज देता हूं। उनमें से अधिकतर तो वहीं सोने भी लगे हैं। घर में मैं दोत्तीन बच्चे से ज्यादा नहीं रखता।
दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे! तो पड़ोसियों के घर में भेज देता है। सिद्धांत को पूरा कर रहा है। तुम्हारी शास्त्र से जो समझ है, बस वह ऐसे ही पूरी होती है। बच्चे पैदा करने से तुम नहीं रुकते, बच्चों को पड़ोसियों की छाती पर सवार कर देते हो। तरकीब आदमी निकाल लेता है।
सिद्धांत से बचना बड़ा सुगम है, समझ भर से बचना संभव नहीं है। सिद्धांत के पास से गुजर कर निकला जा सकता है; क्योंकि सिद्धांत तो मुर्दा है, तुम जिंदा हो। सिद्धांत तुम्हारा पीछा नहीं कर सकता; तुम सिद्धांत से अपनी चादर बचा कर निकल सकते हो। सिद्धांत क्या करेगा? पत्थर का टुकड़ा है! लेकिन समझ से बच कर तुम कहां जाओगे? समझ तुम्हारे भीतर है; तुम कहीं भी भागोगे, तुम्हारे साथ होगी।
इसलिए इस जोर को खयाल में ले लो। सिद्धांत पर बहुत जोर मत देना, समझ पर जोर देना। सिद्धांत उधार मिल सकता है, समझ खुद पैदा करनी होती है। सिद्धांत चुरा भी सकते हो--शास्त्र से, गुरुओं से। समझ तो इंच-इंच संघर्ष करने से मिलती है; समझ के लिए तो मूल्य चुकाना पड़ता है, मुफ्त नहीं मिलती। सिद्धांत मुफ्त मिल जाते हैं, उनकी कोई कीमत नहीं है। पर उनकी कोई कीमत होने की जरूरत भी नहीं है, वे कूड़ा-करकट हैं, कचरा हैं।
'जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है...'
भगवद्गीता किंचिदधीता...
जिसने जरा सी भी पढ़ ली, बस काम हो गया। कोई पूरी गीता पढ़ने के लिए थोड़े ही रुकना पड़ता है; एक शब्द भी समझ लिया। लेकिन समझ का सवाल है।
महाभारत में कथा है कि द्रोण ने सोचा था कि इन सारे पांडवों और कौरवों में युधिष्ठिर सबसे ज्यादा बुद्धिमान मालूम होता है। लेकिन थोड़े दिनों के अनुभव से लगा कि वह तो बिलकुल बुद्धू है। दूसरे बच्चे तो आगे जाने लगे, नया-नया पाठ रोज सीखने लगे और युधिष्ठिर पहले पाठ पर ही रुका रहा। आखिर द्रोण की सीमा-क्षमता भी समाप्त हो गई। द्रोण ने पूछा, तुम आगे बढ़ोगे कि पहले ही पाठ पर रुके रहोगे? लेकिन युधिष्ठिर ने कहा, जब तक पहला पाठ समझ में न आ जाए, तब तक दूसरे पाठ पर जाने से सार भी क्या है?
पहला पाठ था सत्य के संबंध में। दूसरे बच्चों ने याद कर लिया, पढ़ लिया, आगे बढ़ गए। लेकिन युधिष्ठिर ने कहा कि मैं जब तक सत्य बोलने ही न लगूं, तब तक दूसरे पाठ पर जाऊं कैसे? और आप जल्दी मत करें। तब द्रोण को समझ में आया। खुद युधिष्ठिर की इस मनोदशा को देख कर द्रोण को पहली दफा समझ में आया कि सत्य के आगे और पाठ हो भी क्या सकता है! तब उन्होंने कहा, तू जल्दी मत कर। तू पहला पाठ ही पूरा कर ले तो सब पाठ पूरे हो गए। फिर दूसरा पाठ और है कहां? अगर सत्य बोलना ही आ गया, सत्य होना आ गया, तो फिर और पाठ की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन पाठ अगर सिर्फ पढ़ने हों, तब एक बात है; पाठ अगर जीने हों, तो बिलकुल दूसरी बात है। अंत में महाभारत में कथा है कि जब सारे भाई स्वर्गारोहण के लिए गए, तो एक-एक गिरने लगा, पिघलने लगा, गलने लगा; स्वर्ग के मार्ग पर धीरे-धीरे एक-एक गिरने लगा, द्वार तक सिर्फ युधिष्ठिर पहुंचे और उनका कुत्ता पहुंचा। सत्य पहुंचा; और सत्य का जिसने गहरा सत्संग किया था, वह पहुंचा। वह कुत्ता था उनका। वह सदा उनके साथ रहा था। उसकी निष्ठा अपार थी। भाइयों की भी निष्ठा इतनी अपार न थी। भाई भी रास्ते में गल गए, कुत्ता न गला। उसकी श्रद्धा अनन्य थी। उसने कभी संदेह किया ही न था। उसने युधिष्ठिर के इशारे को ही अपना जीवन समझा था। युधिष्ठिर भी चकित हुए कि भाइयों का भी साथ छूट गया, वे भी गिर गए मार्ग पर, स्वर्ग के द्वार तक न आ सके--आ सका एक कुत्ता!
द्वार खुला, युधिष्ठिर का स्वागत हुआ, लेकिन द्वारपाल ने कहा, कृपया आप ही भीतर आ सकते हैं, कुत्ता न आ सकेगा। कुत्ता कभी इसके पहले स्वर्ग में प्रवेश भी नहीं पाया। आदमी ही मुश्किल से पाते हैं।
तो युधिष्ठिर ने कहा, फिर मैं भीतर न आ सकूंगा; जिस कुत्ते ने मेरा इतने दूर तक साथ दिया, जहां मेरे भाई भी मेरे साथी न हो सके, संगी न हो सके; जिसकी श्रद्धा ऐसी अनन्य है; जो मेरे साथ इतने दूर आया, उसका साथ मैं न छोड़ सकूंगा; अन्यथा मैं कुत्ते से भी गया-बीता हुआ। जिसने मेरा साथ दिया, उसका साथ मैं दूंगा, द्वार तुम बंद कर लो।
तब सारा स्वर्ग हंसने लगा; भीड़ इकट्ठी हो गई देवताओं की और उन्होंने कहा, आप भीतर आएं। और तब गौर से देखा युधिष्ठिर ने, तो कुत्ता न था, स्वयं विष्णु थे! वह परीक्षा थी। वह परीक्षा थी, अगर युधिष्ठिर उस समय कुत्ते को भूल जाते और भीतर प्रवेश कर देते तो स्वर्ग चूक जाता। वह परीक्षा थी--प्रेम की, श्रद्धा की, अनन्य भाव की।
एक ही पाठ युधिष्ठिर ने सीखा--सत्य। उतना काफी हुआ; उतना स्वर्ग तक ले जा सका। अर्जुन को सीखने में बड़ी देर लगी। पूरी गीता कृष्ण ने कही, तो भी संदेह उठते चले गए। युधिष्ठिर ने सिर्फ एक पाठ सीखा जीवन में, वह छोटा सा पाठ था सत्य का। गुरु तक को शक हुआ कि यह थोड़ा मंद बुद्धि मालूम होता है, पहले ही पाठ पर अटका है। लेकिन फिर समझ में आया कि पहले पाठ के आगे और पाठ कहां हैं!
जिसने एक पाठ भी सीख लिया, उसने सब सीख लिया। तुम सीखने की ज्यादा दौड़ में मत पड़ना, उसमें तुम वंचित हो जाओगे। किंचित भी--किंचिदधीता--जरा सा भी बोध परमात्मा का आ गया, परमात्मा का गीत थोड़ा सा भी सुनाई पड़ गया, एक कड़ी भी कान में पड़ गई, एक शब्द भी हृदय तक उतर गया, तो वही बीज बन जाएगा--फूटेगा, वृक्ष बनेगा, तुम अनंत सुगंध से भर जाओगे। एक बीज में सब कुछ छिपा है।
पंडित कोरे के कोरे रह जाते हैं--गीता कंठस्थ हो जाती है, गीत सुनाई नहीं पड़ता; शब्दों से मस्तिष्क भर जाता है, हृदय भीगता नहीं; दोहरा सकते हैं गीता को, आंख में एक आंसू नहीं उतरता; प्राण में कोई स्वर नहीं बजता; पैर में कोई थिरक नहीं आती; पत्थर की तरह, मुर्दे की भांति, यंत्र की भांति दोहरा देते हैं; भीतर सब अछूता ही रह जाता है; रेखा भी नहीं पड़ती, छाया भी नहीं पड़ती।
इसलिए शंकर कहते हैं: 'जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है...'
इस गीता से कोई श्रीमद् भगवद्गीता का संबंध नहीं है। क्योंकि जिसने किंचित भी कुरान पढ़ा है, वह भी पहुंच जाएगा; जिसने किंचित भी बाइबिल पढ़ी है, वह भी पहुंच जाएगा। और जिसने न बाइबिल पढ़ी है, न कुरान पढ़ा है, न गीता पढ़ी है--किंचित भी जीवन पढ़ा है, वह भी पहुंच जाएगा। जोर है इस बात पर कि जिसने थोड़ी अपनी समझ जगाई है, जिसने जाग कर देखा है; जो सोया-सोया नहीं जीया; जिसने आंखें खोलीं और जीवन को पहचाना है--जरा सा भी।
जरा सा छोर हाथ में आ जाए, फिर सारा स्वर्ग हाथ में है। एक किरण को भी तुम पकड़ लो, पूरा सूरज तुम्हारे हाथ में है। उसी किरण के सहारे अगर तुम चल पड़ो, तो सूरज कहां जाएगा? तुम अंधेरे घर में बैठे हो, खपड़ों के छेद से जरा सी एक किरण उतर रही है। उस किरण में पूरा सूरज छिपा है। तुम उसके सहारे ही चल पड़ो, तुम सूरज तक पहुंच जाओगे। पूरे सूरज को घर में उतारने की जरूरत भी नहीं है। उतने ज्यादा का करोगे क्या? अपच हो जाएगा।
तो ध्यान रखना, कहीं ऐसा न हो कि तुम शास्त्र को इकट्ठा करने में लग जाओ। अन्यथा शास्त्र तुम्हारा कारागृह बन जाएगा। उससे तुम्हारे पंख उन्मुक्त न होंगे; न तुम्हारे प्राण नाचेंगे; न तुम स्वाभाविक हो सकोगे।
शास्त्र के कारण जितने लोग अस्वाभाविक हो जाते हैं, उतने और किसी कारण से नहीं होते। अगर तुम समझ सको तो मैं तुमसे कहना चाहूंगा: शास्त्र के कारण जितने लोग अधार्मिक हो गए हैं, उतने किसी और कारण से नहीं। जितने शास्त्र बढ़ते गए हैं, उतना आदमी अंधा होता गया है; क्योंकि उसे लगता है कि सब समझ तो किताब में रखी है; पढ़ लेंगे किताब और समझ हाथ आ जाएगी।
काश समझ इतनी सस्ती होती! तो सारी दुनिया समझदार हो गई होती। गीता घर-घर में है; बाइबिल, कुरान घर-घर में है। क्या कमी है? समझ बिलकुल नहीं है। और शास्त्र जितना उपलब्ध हो जाता है, उतना ही तुम चेष्टा छोड़ देते हो। ध्यान रखना, सिद्धांतों के जंगल में मत भटक जाना।
'जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है, गंगाजल की एक बूंद भी पी ली है...'
पूरी गंगा का करोगे भी क्या? जरूरत भी क्या है? पूरी गंगा बहुत है; एक बूंद तुम्हारे लिए काफी है।
किस गंगा की बात कर रहे हैं शंकर?
जिस गंगा पर तुम तीर्थयात्रा करने गए हो, उस गंगा की बात नहीं हो रही। गंगा तो प्रतीक है। जिसने पवित्रता की एक बूंद पी ली है; जिसने निर्दोषता की एक बूंद पी ली है; जिसने सरलता की एक बूंद पी ली है; बस उसने गंगा को चख लिया। गंगा जाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि गंगा के किनारे कितने लोग ही बैठे हुए हैं, और कुछ भी नहीं हुआ। गंगा में ही जीए हैं, गंगा में ही स्नान किया है और कुछ भी नहीं हुआ।
नहीं, बाहर दिखाई पड़ने वाली गंगा का सवाल नहीं है; एक और गंगा है जो भीतर बहती है। और एक बूंद काफी है। तुम्हारे लिए एक बूंद भी जरूरत से ज्यादा है। क्योंकि हमारी सीमा एक बूंद से बड़ी कहां? हमारा होना एक बूंद से बड़ा कहां? हम इस विराट अस्तित्व में एक छोटी सी बूंद हैं। गंगा की एक छोटी सी बूंद ही हमें नहला देगी और पवित्र कर देगी।
लेकिन ठीक से समझ लेना: गंगा से अर्थ है निर्दोषता का; गंगा से अर्थ है सरलता का; गंगा से अर्थ है भीतर के कुंआरेपन का; गंगा से अर्थ है छोटे बच्चे की तरह निर्दोष हो जाने का।
एक बूंद भी तुम्हारे बचपन की तुम वापस लौटा लो, फिर से तुम एक बार दुनिया को वैसा देख लो जैसा तुमने बचपन में देखा था--उन्हीं ताजी आंखों से, बिना किसी विचार के, बिना किसी निंदा के, बिना किसी निर्णय के। ऐसे ही देख लो जगत को जैसा तुमने पहली बार आंख खोली थी संसार में और देखा था। सिर्फ देखा था, कुछ भीतर विचार न उठा था--न कहा था अच्छा, न कहा था बुरा; न सुंदर, न असुंदर; न पाप, न पुण्य--सिर्फ देखा था भर आंख; सारा जगत तुम्हारे सामने था और भीतर कोई विचार न था। वैसे ही अगर तुम पुनः देख लो, एक बूंद भी वैसे बालपन की तुम्हें फिर मिल जाए, तो गंगा की बूंद तुमने चख ली।
'गंगाजल की एक बूंद भी पी है और मुरारी की थोड़ी भी अर्चना की है...'
बहुत अर्चना से कुछ भी न होगा। बहुत अर्चना तो यही बताती है कि तुम अर्चना करना जानते नहीं। बहुत अर्चना का तो यही अर्थ है कि तुम पुनरुक्ति कर रहे हो मृत प्रक्रियाओं की। अन्यथा एक बार भी राम का नाम ले दिया तो बस काफी होना चाहिए। तुम रोज बैठे माला फेर रहे हो, राम-राम, राम-राम कहे चले जा रहे हो। कितनी बार राम-राम कहने से जीवन में राम का अवतरण होगा? कोई संख्या का हिसाब है? लोग हैं, जो हिसाब रखे बैठे हैं कि उन्होंने एक करोड़ दफे मंत्र पढ़ा है। लेकिन अगर एक बार मंत्र पढ़ने से कुछ भी न हुआ, तो एक करोड़ बार पढ़ने से क्या होगा?
इसे थोड़ा समझो। मंत्र कोई गणित थोड़े ही है। मंत्र गुणात्मक है; क्वांटिटेटिव थोड़े ही है, मंत्र तो क्वालिटेटिव है; परिमाणात्मक नहीं है, गुणात्मक है। अगर होना है तो एक बार में हो जाएगा, अगर नहीं होना है तो तुम करोड़ बार दोहराते रहो तो क्या होगा! अगर पहली बार ही तुमने गलत दोहराया है, तो दूसरी बार तुम और भी गलत दोहराओगे, तीसरी बार और भी ज्यादा गलत दोहराओगे; क्योंकि गलती मजबूत होती जाएगी; जितना दोहराओगे, उतनी लीक मजबूत होती जाएगी। फिर तुम करोड़ बार दोहराओ कि दस करोड़ बार दोहराओ, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ठीक पुकारने का सवाल है।
और तब एक हृदय की आह भी काफी है; तब एक पुकार से भी क्रांति हो जाती है। परमात्मा बहरा थोड़े ही है, और परमात्मा कोई तुम्हारी खुशामद का आतुर थोड़े ही है कि तुम बहुत बार कहो तब सुनेगा। बिना कहे भी सुन लेता है, तुम्हारे हृदय में होना चाहिए। और तुम्हारी खोपड़ी से तुम कितना ही दोहराओ, कभी नहीं सुना जाता; क्योंकि तुम्हारी चिंतना से परमात्मा का कोई संबंध नहीं है, तुम्हारी प्रार्थना से संबंध है।
मैंने सुना है, एक गांव में वर्षों से वर्षा न हुई थी। तो सारा गांव मंदिर में इकट्ठा हुआ था प्रार्थना करने को। एक छोटा बच्चा भी मंदिर जा रहा था प्रार्थना के लिए। सारे लोग रास्ते में उसका मजाक करने लगे। मंदिर का पुजारी भी कहने लगा, नासमझ! यह छाता किसलिए ले जा रहा है? वर्षों से वर्षा नहीं हुई, इसीलिए तो हम प्रार्थना करने जा रहे हैं। वह बच्चा एक छाता ले आया था। भीड़ आई थी, कोई दस हजार लोग इकट्ठे हुए थे, कोई भी छाता न लाया था।
उस बच्चे ने कहा, मैं इसलिए छाता ले आया कि जब हम प्रार्थना करेंगे तो वर्षा जरूर होगी, लौटते में छाते की जरूरत पड़ेगी।
लोग हंसने लगे, उन्होंने कहा, पागल हुआ है?
अब सवाल यह है कि इन लोगों की प्रार्थना का कोई परिणाम होगा? इस एक छोटे बच्चे की प्रार्थना का परिणाम भर हो सकता था। इसका भरोसा था गहन, यह छाता लेकर आया था; इसे प्रार्थना पर जरा भी शक न था; प्रार्थना इसकी बड़ी गहन श्रद्धा थी। लेकिन इस बच्चे के भी मन को उन बड़े लोगों ने संदेह से भर दिया। उन्होंने कहा, जा, घर छाता रख आ। कहीं ऐसे वर्षा हुई है?
प्रार्थना करने जा रहे हैं, लेकिन भरोसा नहीं है कि प्रार्थना से वर्षा होने वाली है। तो फिर प्रार्थना क्यों करते हो?
नास्तिक होना बेहतर है, लेकिन ईमानदार होना जरूरी है। आस्तिकता का क्या मूल्य है, अगर बेईमान है? तुमने कितनी बार प्रार्थना की है, लेकिन तुमने भरोसा किया था कि पूरी होगी? फिर प्रार्थना पूरी नहीं होती तो तुम कहते हो, हम तो पहले से ही जानते थे कि कहीं प्रार्थना पूरी होने वाली है। तुमने कितनी बार मंदिर के द्वार खटखटाए, लेकिन कभी तुमने हृदयपूर्वक खटखटाए? कभी तुमने संपूर्ण मन से खटखटाए? या संदेह को लेकर ही गए थे? अगर संदेह को लेकर ही गए थे, तो न जाना उचित था, कम से कम ईमानदारी तो थी। जाकर तुमने किसको धोखा दिया? जाकर तुमने अपना ही नुकसान किया; क्योंकि जाकर तुम्हारी प्रार्थना ही टूटी, और कुछ भी न हुआ। और अगर बार-बार प्रार्थना टूटे, तो धीरे-धीरे आत्मश्रद्धा खो जाती है; आत्मविश्वास खो जाता है; अपने पर भरोसा खो जाता है। फिर प्रार्थना ओंठों से होती है, प्राणों से नहीं होती।
'मुरारी की थोड़ी सी भी अर्चना जिसने की है...'
थोड़ी सी काफी है। शंकर का जोर समझ लेना। मात्रा का सवाल नहीं है कि तुमने कितनी की है, गुण का सवाल है कि तुमने कैसे की है।
मैंने एक वकील के संबंध में सुना है कि वह रोज प्रार्थना कर लेता है। लेकिन ज्यादा नहीं करता, वकील है। पहले दिन प्रार्थना की थी, दूसरे दिन कहा--डिट्टो! फिर तीसरे दिन भी डिट्टो। पूरी प्रार्थना क्या करनी है, क्या बकवास लगा रखी है! कानूनी हिसाब साफ है। एक दफा कह दिया, फिर नीचे लिख दिया--डिट्टो! वही!
लोग गणित से जी रहे हैं। प्रार्थना में भी गणित है; वहां भी होशियारी है, कुशलता है। वहां भी तुम सरल नहीं हो। जैसे अगर परमात्मा की जेब काटने का मौका मिले तो तुम छोड़ोगे नहीं। शायद इसीलिए परमात्मा छिपा है। तुम उसकी दुर्गति कर दोगे। वह तुम्हारे सामने आने से डरता है।
सरलता अपने आप में प्रार्थना है।
'जिसने थोड़ी सी भी अर्चना की है, उसकी यमराज क्या चर्चा कर सकता है?'
जिसने जरा भी प्रार्थना का स्वाद सीख लिया, मृत्यु के पार हो गया। मरते वही हैं, जो भयभीत हैं। भय मारता है। मरते वही हैं, जो अहंकारी हैं। अहंकार की मृत्यु होती है। मरते वही हैं, जिन्होंने जीवन को जाना नहीं। जिन्होंने जीवन को जरा सा भी जान लिया है, फिर कैसी मृत्यु? फिर यमराज के घर तुम्हारी चर्चा नहीं होती, तुम्हारी चर्चा बंद हो जाती है। तुम उसके हिसाब के बाहर हो गए। थोड़ा सा भी जिसने परमात्मा का गीत समझ लिया, फिर उसकी कैसी मौत? फिर तुम जैसे हो, ऐसे चाहे न रहोगे, लेकिन तुम्हारा जो अंतरतम है, वह सदा रहेगा। तुमने जिस बुद्धि से विचार किए हैं, शायद वह न रहेगी; तुमने जिस शरीर से भोग किया है, शायद वह न रहेगा; लेकिन जिस अंतरतम से तुमने श्रद्धा की है, उसे मिटाने का कोई उपाय नहीं है। श्रद्धा शाश्वत है, क्योंकि श्रद्धा तुम्हारा आत्यंतिक, आखिरी, अंतरतम है। वहां तक मृत्यु कभी प्रवेश नहीं की है, और कभी प्रवेश नहीं कर सकती। वहां तुम शाश्वत हो, सनातन हो। वहां तुम स्वयं परमात्मा हो।
जिसने परमात्मा को चाहा है, पुकारा है, उसने जल्दी ही पा लिया कि जिसे मैं पुकारता था, वह मेरे भीतर छिपा है। वह किसी मंदिर में नहीं मिलता, स्वयं के भीतर मिलता है; वह किन्हीं पहाड़ों पर नहीं छिपा है और न चांदत्तारों में छिपा है।
रूस का पहला अंतरिक्ष यात्री यूरी गागरिन जब वापस लौटा--तो रूस तो नास्तिक देश है--जो पहली बात लोगों ने उससे पूछी वह यह थी कि ईश्वर मिला चांद पर?
उसने कहा, मैंने बहुत गौर से देखा, कहीं कोई ईश्वर नहीं मिला।
लेनिनग्राड में एक बहुत बड़ा म्यूजियम बनाया गया है, जिसमें मनुष्य-जाति के इतिहास में नास्तिकता से संबंधित सभी वस्तुएं इकट्ठी की गई हैं। उस म्यूजियम की दीवाल पर यूरी गागरिन के अक्षर पत्थर में खोद कर रखे गए हैं--कि मैंने चांद पर जाकर देख लिया, अंतरिक्ष में देखा, परमात्मा कहीं भी नहीं है।
परमात्मा अगर अंतरिक्ष में होता, तो यूरी गागरिन को मिल जाता। लेकिन यूरी गागरिन भी गलत है और तुम भी गलत हो। क्योंकि तुम भी सोचते हो कि वह कहीं बाहर है। आस्तिक भी गलत है और नास्तिक भी गलत है। क्योंकि आस्तिक भी सोचता है, कहीं आकाश में परमात्मा बैठा है। और नास्तिक भी सोचता है कि अगर आकाश में बैठा है तो खोज लेंगे, आज नहीं कल पूरा आकाश भ्रमण कर लेंगे। और जब आकाश में न पाएंगे तब?
यूरी गागरिन को खुद में खोजना चाहिए, वहां बैठा है परमात्मा। वह जो देख रहा था यूरी गागरिन की आंखों से चांदत्तारे पर, वही है परमात्मा--वह जो देख रहा था। परमात्मा को कभी देखा नहीं जा सकता, वह सदा देखने वाला है। उसे तुम देखने की वस्तु नहीं बना सकते, वह तुम्हारे भीतर छिपा देख रहा है। जो देख रहा है, वही परमात्मा है। वह सदा द्रष्टा है, उसे तुम कभी दृश्य नहीं बना सकते।
लेकिन जिसने थोड़ा भी जीवन का गीत सुना--उसको ही मैं भगवद्गीता कहता हूं। कृष्ण ने जो गीत गाया है अर्जुन के सामने, वह तो उसी परम गीत की एक कड़ी है--उस जीवन के गीत की एक कड़ी है। वह तो उसी का छोटा सा टुकड़ा है। लेकिन वह गीत वृक्ष-वृक्ष में लिखा है, चट्टान-चट्टान पर खुदा है। सागर की लहर-लहर में उसी की खबर है। आकाश की शून्यता में उसी का मौन है। झरनों के कल-कल नाद में उसी का गीत है। तुम्हारी आंखों से वही देख रहा है, तुम्हारे कानों से वही सुन रहा है, तुम्हारे हृदय में वही धड़क रहा है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जिसने परमात्मा का जरा सा भी गीत समझ लिया, जिसने जीवन की थोड़ी सी भी पहचान कर ली और जिसने सरलता की एक बूंद पी ली, जिसने थोड़ी सी भी अर्चना की है...
अर्चना का अर्थ है: जिसने थोड़े भी घुटने टेके हैं अहंकार के और जो झुका है; जिसने थोड़ा भी अपना सिर नवाया है। खयाल रखना, सवाल यह नहीं है कि किसके सामने नवाया है; नवाया है, बस यही सवाल है। तुमने मस्जिद में नवाया है, ठीक; तुमने मंदिर में नवाया है, बिलकुल ठीक; तुमने गुरुद्वारा में नवाया है, बिलकुल ठीक। तुम जाकर चट्टान के सामने झुका दो, तुम वृक्ष के सामने झुको, या तुम कोरे आकाश के सामने झुको--कोई फर्क नहीं पड़ता, झुकने में असली सवाल है। तुम परमात्मा को मानते हो तो, नहीं मानते हो तो, कोई फर्क नहीं पड़ता। महावीर बिना माने झुके और पा लिया। और बुद्ध ने परमात्मा को कभी स्वीकार नहीं किया और परमात्मा हो गए। झुकने की कला जिसे आ गई।
असली सवाल परमात्मा को पाना नहीं, असली सवाल अपने को मिटाना है।
अर्चना का अर्थ है: जिसने अपने को गिरा दिया; और जिसने कहा, मैं नहीं हूं। जरूरत नहीं है कहने की कि तू है। जिसने यह कहा कि मैं नहीं हूं, उसी क्षण जाना कि बस तू ही है; कहने का कोई सवाल नहीं है। मैं के गिरते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है। वह मैं ही अकेली बाधा है। फिर यमराज के घर तुम्हारी चर्चा नहीं होती।
'अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।'
'जहां पुनः-पुनः जन्म लेना है, पुनः-पुनः मरना है, और पुनः-पुनः माता के गर्भ में गिरना है, ऐसे इस बहुदुस्तर संसार से, हे मुरारी, मेरी रक्षा करो।'
आदमी असहाय है, और आदमी के संकल्प से कुछ भी नहीं हो सकता। क्योंकि तुम जो भी करोगे, वह तुमसे छोटा होगा। परमात्मा तुमसे बहुत बड़ा है। तुममें है, तुममें झांकता है, लेकिन तुमसे बहुत बड़ा है। ऐसा ही समझो कि जैसे बूंद में सागर है। बूंद को भी चखो तो सागर का ही स्वाद है, वही खारापन है। और एक बूंद का भी विश्लेषण कर लो, तो तुम वही तत्व पाओगे जो पूरे सागर के विश्लेषण से मिलते हैं। फिर भी बूंद बड़ी छोटी है। बूंद से सागर झांका है, जैसे खिड़की से सागर झांका हो। तुमसे भी झांका है, लेकिन तुमसे बहुत बड़ा है। खिड़की से देखा गया आकाश, बूंद में छिपा सागर, बीज में छिपा वृक्ष--ऐसा परमात्मा तुमसे झांका है। तुम अपने प्रयास से उसे न पा सकोगे; तुम्हारा प्रयास बड़ा छोटा है--मुट्ठी में आकाश बांधने की चेष्टा है। तुम उसकी कृपा से ही पा सकोगे।
इसलिए शंकर कहते हैं, 'हे मुरारी, मेरी रक्षा करो।'
मैं अपने आप तो डूब जाऊंगा, तुम बचाओगे तो ही बच सकूंगा। मेरे हाथ में कोई बल नहीं मालूम पड़ता; मेरी शक्ति बड़ी छोटी है। मैं विचार भी करूंगा तो क्या विचार करूंगा! मैं सोचूंगा भी तो क्या सोचूंगा! सब सोच-विचार मेरा ही होगा। तुम अज्ञात हो, तुम विराट हो, तुम्हें पाने के लिए तुम्हारी ही सहायता की जरूरत है।
इसलिए भक्त निरंतर आकांक्षा कर रहा है कि उसका सहारा मिले। जिस दिन तुम उसका सहारा मांगने लगोगे, उसी दिन तुम पाओगे, सहारा मिलने लगा; क्योंकि तुम बड़े होने लगे; तुम्हारा सिकुड़ाव टूटने लगा; तुम फैलने लगे। जिस दिन तुम विराट जीवन का सहारा मांगते हो, उसी क्षण तुम विराट होने लगे; उसी क्षण तुम्हारा छोटापन मिटने लगा। तुमने निमंत्रण दे दिया--आ जाओ! तुम्हारे निमंत्रण भर की देर है।
बुद्ध ने कहा है कि मैं सोचता था, मैं सत्य को खोज रहा हूं। लेकिन जब पाया, तब मुझे पता चला कि सत्य भी मुझे खोज रहा था।
सत्य भी तुम्हें खोज रहा है; परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है, तुम्हें टटोल रहा है। लेकिन तुम निमंत्रण नहीं देते। अगर कभी भूल-चूक, वह तुम्हारा हाथ भी हाथ में ले ले, तो तुम हाथ छोड़ देते हो।
तुमने कभी छोटे बच्चों को देखा है? बाप छोटे बच्चे का हाथ पकड़ कर बाजार ले जा रहा है। बाप पकड़े है, लेकिन बच्चा छोड़े हुए है हाथ। क्योंकि वह स्वतंत्र होना चाहता है; वह चाहता है, छोड़ो हाथ तो मैं खुद चलूं। बाप पकड़े हुए है, लेकिन छोटा बच्चा हाथ छोड़े हुए है। वह किसी तरह परेशान है कि तुम छोड़ो किसी तरह मेरा हाथ। तो वह खुद दौड़ना चाहता है।
करीब-करीब आदमी की हालत ऐसी है। परमात्मा तो हाथ पकड़े हुए है, अन्यथा आदमी जी भी नहीं सकता। वही श्वास न ले हममें, तो हम श्वास कैसे लेंगे? वही हममें न धड़के, तो हम जीएंगे कैसे? लेकिन हमारी चेष्टा यह है कि हम अपने बल खड़े हो जाएं। अहंकार की सदा चेष्टा यही है कि मैं किसी तरह पूरी तरह स्वतंत्र अपने पैर पर खड़ा हो जाऊं, किसी के सहारे की कोई जरूरत न रहे। सहारा मांगने में बड़ी दीनता मालूम होती है। इसलिए जैसे-जैसे मनुष्य का अहंकार बढ़ता गया है, वैसे-वैसे अर्चना खो गई, पूजा खो गई, प्रार्थना खो गई।
तुमने कभी खयाल किया कि मंदिर में तुम झुकते हो, तो थोड़ी बेचैनी सी अनुभव होती है कि कोई देखे न। तुम घुटने टेकते हो, तुम हाथ जोड़ते हो, तो तुम देख लेते हो कि कोई देख तो नहीं रहा है आस-पास। किसी को पता न चल जाए, नहीं तो लोग कहेंगे, अरे तुम! और घुटने टेके बैठे हो! तुम और सिर झुका रहे हो! अहंकार को बड़ी चोट लगती है।
लोग सिर झुकाने में डरने लगे हैं, भयभीत होने लगे हैं। इससे ज्यादा दुर्भाग्य की और कोई घड़ी नहीं हो सकती थी; क्योंकि जीवन में जो भी विराट है, वह तुम्हारे झुकने से पैदा होता है। यह हालत ऐसी हो गई कि जैसे प्यास तुम्हें लगी है और नदी में तुम खड़े हो, लेकिन झुक नहीं सकते। तुम चाहते हो नदी तुम्हारे ओंठों तक आ जाए।
नदी बही जा रही है, लेकिन तुम्हें झुकना पड़ेगा, अंजुलि भरनी पड़ेगी, सिर झुकाना पड़ेगा, हाथ झुकाने पड़ेंगे, पानी भरना पड़ेगा, तो ही प्यास बुझ सकेगी। लेकिन कैसे तुम झुको, तुम्हारी रीढ़ अकड़ गई है, अहंकार झुकने नहीं देता।
अधिक लोग परमात्मा को इनकार करते हैं, इसलिए नहीं कि उनको पता चल गया है कि परमात्मा नहीं है; वे इनकार करते हैं सिर्फ इसलिए कि अगर परमात्मा है तो फिर झुकना पड़ेगा।
फ्रेडरिक नीत्शे ने लिखा है कि अगर परमात्मा है तो फिर झुकना पड़ेगा। इसलिए मैं कहता हूं परमात्मा नहीं है, क्योंकि झुक मैं कैसे सकता हूं! अगर परमात्मा है तो वह मुझसे ऊपर हो गया। इसलिए मैं कहता हूं परमात्मा नहीं है; क्योंकि मुझसे ऊपर कोई कैसे हो सकता है!
अहंकार। भयंकर अहंकार मनुष्य को घेरे हुए है। जैसे शरीर में कैंसर है, ऐसे ही आत्मा में अहंकार है। अहंकार आत्मा का कैंसर है। और जब तक तुम उससे मुक्त न हो जाओ, तब तक अर्चना के फूल न खिलेंगे, तब तक प्रार्थना की धूप न उठेगी, तब तक भगवत्-गीत तुम्हारे भीतर जन्म नहीं ले सकता। जब तक तुम अपने से भरे हो, तब तक परमात्मा तुममें उतर नहीं सकता। जगह खाली करो, सिंहासन से उतरो, उसे निमंत्रण दो।
'जहां पुनः-पुनः जन्म लेना है, पुनः-पुनः मरना है, और पुनः-पुनः माता के गर्भ में सोना है, ऐसे इस बहुदुस्तर संसार से, हे मुरारी, मेरी रक्षा करो।'
जिन्होंने भी जीवन के सत्य को समझा है, उन्होंने एक बात पहचान ली कि जीवन एक पुनरुक्ति है; वही-वही बार-बार हो रहा है। बहुत बार तुम जन्मे, बहुत बार तुम मरे; बहुत बार तुमने धन कमाया, यश कमाया; बहुत बार सफल हुए, असफल हुए; लेकिन तुम ऐसे ही घूम रहे हो, जैसे गाड़ी का चाक घूमता है। वही चाक घूमता चला जाता है--वही आरा फिर ऊपर आ जाता है, फिर नीचे चला जाता है--फिर वही आरे ऊपर आ जाते हैं।
इस पुनरुक्ति से मुक्त होने की आकांक्षा स्वाभाविक है, क्योंकि पुनरुक्ति सिर्फ उबाने वाली है। हमने संसार को इसीलिए चक्र कहा है, दुष्ट-चक्र कहा है, क्योंकि उसमें हम एक से ही घूमते चले जाते हैं, कुछ भी नया नहीं होता। तुम कल भी वैसे ही जीए थे, जैसे तुम आज जीओगे; परसों भी वैसे ही जीए थे, आने वाले कल भी ऐसे ही जीओगे। वही शाम, वही सुबह, वही क्रोध, वही लोभ, वही मोह, वही जन्म, वही मौत--दोहरता चला जाता है। निश्चित ही हमारे भीतर बड़ी गहरी मूढ़ता होनी चाहिए, तभी हम जागते नहीं हैं। अन्यथा हमें होश आ जाएगा कि वही-वही हम दुबारा क्यों किए जा रहे हैं? इतनी बार करके जब कुछ भी नहीं मिला, तो कितनी ही बार करें, कुछ भी न मिलेगा। इस चक्र के बाहर निकलना जरूरी है। इसीलिए पूरब में, विशेषकर भारत में, आवागमन से कैसे मुक्ति हो जाए, इसकी महान आकांक्षा पैदा हुई। ऐसी आकांक्षा संसार में कहीं भी पैदा नहीं हुई। पश्चिम में इस्लाम, ईसाइयत, यहूदी धर्म इस आकांक्षा से प्रेरित नहीं हैं। वे चाहते हैं, स्वर्ग मिले। स्वर्ग का अर्थ है: इस जीवन में जो दुख हैं, वे तो न हों; और जो सुख हैं, वे सब हों। स्वर्ग इसी जीवन के सुखों का विस्तार है। लेकिन भारत में एक बड़ी अनूठी आकांक्षा पैदा हुई, वही भारत की विशेषता है--मोक्ष की आकांक्षा। मोक्ष की आकांक्षा स्वर्ग की आकांक्षा नहीं है। मोक्ष की आकांक्षा का अर्थ है कि न अब दुख चाहिए, न सुख। बहुत भोग लिए दोनों, दोनों में कुछ सार न पाया--अब दोनों से मुक्ति चाहिए। दोनों से मुक्ति की आकांक्षा बड़ी अनूठी खोज है।
इसलिए मोक्ष शब्द को अनुवाद करना दुनिया की किसी भी भाषा में संभव नहीं है। स्वर्ग संभव है, नरक संभव है, लेकिन मोक्ष अनूठा शब्द है; दुनिया की किसी भाषा में ऐसा कोई शब्द नहीं है। हो भी नहीं सकता, क्योंकि शब्द तो पीछे आते हैं, पहले आकांक्षा आती है; अनुभव पहले आता है, तब शब्द बनते हैं। मोक्ष का अनुभव भारत की अपनी अनूठी खोज है। इससे ऊपर कोई खोज न गई है और न जा सकती है; क्योंकि सुख से भी केवल मुक्त हो जाने की आकांक्षा उनमें ही हो सकती है, जिन्होंने सुख को पूरी तरह जान लिया और पाया कि यह भी दुख की ही एक शक्ल है, दुख का ही एक ढंग है, दुख का ही धोखा है; यह दुख की ही तरकीब है।
'गली के चीथड़ों से जिसकी कंथा बनी है, पुण्य और पाप के विचार से जिसका मार्ग मुक्त है, योग में जिसका चित्त नियोजित है, ऐसा योगी कभी बालक की तरह क्रीड़ा करता है और कभी उन्मत्त की तरह।'
जो सड़क पर बैठा है, भिखारी की तरह दिखाई पड़ता है, लेकिन अगर गौर से देखोगे तो सम्राट को छिपा हुआ पाओगे; क्योंकि तुम्हारे सम्राटों में अगर तुम गौर से देखोगे तो भिखारी को छिपा हुआ पाओगे। उनकी मांग अभी जारी है।
एक मुसलमान फकीर हुआ फरीद। उसके गांव के लोगों ने फरीद से कहा कि अकबर तुम्हें इतना मानता है, तुम अगर उससे कहो तो वह एक मदरसा गांव में खोल दे। फरीद कभी अकबर से कुछ मांगा न था। फकीर मांगता ही नहीं, फकीर देता है। पर गांव के लोगों ने कहा तो फरीद इनकार भी न कर सका; वह गया। वह कभी राजमहल गया भी नहीं था, लेकिन गांव के लोगों ने कहा तो गया। जल्दी ही पहुंच गया, ताकि सुबह-सुबह ही सम्राट से बात हो जाए। भीतर गया तो पता चला कि सम्राट अपने निजी पूजागृह में है, मस्जिद में है; अभी प्रार्थना कर रहा है। तो फरीद ने कहा, यह तो और भी अच्छा है, प्रार्थना के बाद ही सीधा कह दूंगा। तो वह जाकर पीछे खड़ा हो गया।
अकबर को पता नहीं है। अकबर ने प्रार्थना पूरी की, दोनों हाथ आकाश की तरफ उठाए और कहा--हे परमात्मा, तूने मुझे जो दिया है, वह काफी नहीं है; अभी और पाने को बहुत शेष है। तेरी कृपा हो, मेरे राज्य को बड़ा कर! मेरे साम्राज्य को फैला! मेरे धन को, मेरे यश को बड़ा कर!
फरीद तो भरोसा न कर सका। अकबर, इतना बड़ा सम्राट--इतना बड़ा साम्राज्य कम लोगों के हाथ में रहा है--अभी भी मांग रहा है! अभी भी भिखमंगा भीतर से गया नहीं! सोचा उसने कि जब यह अभी खुद ही मांग रहा है तो इससे मांगना उचित नहीं है। क्योंकि एक मदरसे में कुछ तो खर्च लगेगा ही; उतनी और कमी हो जाएगी बेचारे को। और फिर जब यह खुद ही परमात्मा से मांग रहा है तो हम बीच में एजेंट क्यों बनाएं? हम भी उसी से मांग लेंगे। वह लौट पड़ा।
अकबर उठा तो उसने फरीद को सीढ़ियां उतरते देखा। वह दौड़ा और उसने कहा, कैसे आए? बड़ा सम्मान करता था अकबर फरीद का। कभी फरीद आया भी नहीं था, सदा वही जाता था फरीद के दर्शन करने। कैसे आए और कैसे लौट चले?
फरीद ने कहा, आया था सोच कर कि एक सम्राट से मिलने जा रहा हूं; जाता हूं देख कर कि यहां भी एक भिखमंगा है। आया था कुछ मांगने, भूल हो गई। तुम्हें खुद मांगते देख कर शर्म आ गई कि अब तुमसे क्या मांगूं! तुम तो वैसे ही गरीब हो, तुम्हें और गरीब करूं? गांव के लोग नहीं माने, पीछे पड़ गए, तो एक मदरसे के लिए कहने आया था। लेकिन अब न कहूंगा; अब मैं भी परमात्मा ही से कह दूंगा। जब तुम भी वहीं से मांगते हो, तो हम भी वहीं से मांग लेंगे; अब तुमसे बीच में क्यों बाधा डालनी।
अकबर ने बहुत प्रार्थना की कि मुझे मौका दो। मदरसा, तुम जो कहो, मैं बना दूंगा।
फरीद ने कहा, अब नहीं। सम्राट से मांगा जाता है, गरीब भिखमंगों से क्या मांगना!
तुम्हारे सम्राटों में तुम गरीब भिखमंगे पाओगे; वहां भी मांग अभी कायम है। लेकिन इस मुल्क ने ऐसे सम्राट भी पैदा किए हैं, जिनको तुम देखोगे तो भिखमंगे मालूम होंगे, उनके भीतर झांकोगे तो उन जैसे रत्न कभी भी हुए नहीं।
'गली के चीथड़ों से जिसकी कंथा बनी है...'
रास्ते पर पड़े चीथड़ों को बीन कर जिसने अपने कपड़े बना लिए हैं, अपनी गुदड़ी बना ली है; लेकिन जिसके भीतर मोक्ष अवतरित हुआ है, जिसके भीतर स्वतंत्रता ने अपने पूरे पंख फैलाए हैं।
'पुण्य और पाप के विचार से जिसका मार्ग मुक्त है...'
ध्यान रखना, धर्म कहते हैं: पाप करोगे तो नरक; पुण्य करोगे तो स्वर्ग। फिर अगर मोक्ष पाना हो, तो क्या करोगे तो मोक्ष? न पुण्य, न पाप।
जिसका जीवन पुण्य और पाप की धारणा से मुक्त हो गया है। जिसे अब न तो कुछ अच्छा दिखाई पड़ता, न कुछ बुरा; जिसका जीवन चुनाव-मुक्त हो गया है। कृष्णमूर्ति जिसे च्वाइसलेस अवेयरनेस कहते हैं। जिसके जीवन में अब सिर्फ बोध रह गया है--चुनावरहित, विकल्परहित। जो चुनता नहीं। जो न तो कहता है, यह ठीक है; न कहता है, यह गलत है; जो चुनाव ही नहीं करता; जो कहता है, सब एक जैसा है, चुनने को कुछ है ही नहीं; न कुछ सुंदर है, न कुछ असुंदर; न कुछ पाप है, न कुछ पुण्य।
यह बड़ी अनूठी बात है। यह मोक्ष के साथ जुड़ी है। इसलिए जब पहली दफा उपनिषदों का अनुवाद हुआ, तो पश्चिम में विचारक समझ नहीं सके कि ये उपनिषद क्या कह रहे हैं। क्योंकि पश्चिम में खयाल था कि धर्मशास्त्र का अर्थ होता है, जो पुण्य करना सिखाए। पाप से बचाए और पुण्य करवाए, वही धर्मशास्त्र है। लेकिन उपनिषद कहते हैं, पाप और पुण्य दोनों से जो बचाए, वही धर्मशास्त्र है। क्योंकि जब तक तुम पाप और पुण्य से भरे हो, तब तक द्वंद्व से भरे हो। जो निर्द्वंद्व बनाए। जब तक तुम कहते हो, यह पाप है, तब तक तुम्हारे मन में निंदा है; जब तक तुम कहते हो, पुण्य है, तब तक तुम्हारे मन में प्रशंसा है। जब तक तुम कहते हो, पुण्य--तो तुमने कुछ चुना; जब तक तुम कहते हो, पाप--तुमने कुछ इनकार किया। और पाप में भी परमात्मा है और पुण्य में भी। तो जिसे तुमने इनकार किया, परमात्मा को ही इनकार किया।
परमज्ञानी वही है, जिसके जीवन में न कोई इनकार है, न कोई मांग है; न जो स्वीकार करता है, न जो अस्वीकार करता है। जो थिर हो गया, जिसकी चेतना कंपती ही नहीं।
'पाप और पुण्य के विचार से जिसका मार्ग मुक्त है, योग में जिसका चित्त नियोजित है...'
जो जुड़ गया, जो एक हो गया, वही योगी है; जिसके लिए दो न बचे। जब तक दो हैं, तब तक स्वर्ग और नरक रहेंगे; सुख और दुख रहेगा; पाप और पुण्य रहेंगे। जब एक ही बच रहता है, तो स्वर्ग-नरक, सुख-दुख, अंधेरा-प्रकाश, सब खो जाते हैं। उस एक में ही परम विश्रांति है; उस एक में ही परम आनंद है। उस एक को ही जिसने पा लिया, उसने ही कुछ पाया।
ऐसा योगी कभी बालक की तरह मालूम होगा। इतना सरल, जैसे बालक हो। और कभी पागल की तरह मालूम होगा। इतना उन्मत्त, इतना आनंदित, इतना नशे में सराबोर।
योगी में पागल और बालक दोनों का मिलन होता है। बालक का अर्थ है: जिसने अभी सोचना शुरू नहीं किया; और पागल का अर्थ है: जो सोचने के पार चला गया। योगी में वर्तुल पूरा हो जाता है। वह बालक की तरह हो गया है, सोचता ही नहीं। और पागल की तरह भी हो गया है, सोचने के पार चला गया है।
इसलिए योगी को पहचानना बड़ा कठिन हो जाता है। तुम उसके संबंध में कोई भी कोटि नहीं बना सकते, कोई निर्णय नहीं ले सकते। वह क्या करेगा अगले क्षण, कुछ भी पता नहीं है; क्योंकि अपनी तरफ से वह कुछ करता ही नहीं--परमात्मा जो करवाता है। उसने अपने को उसके हाथ में छोड़ दिया है। वह बहा जाता है। परमात्मा की नदी उसे जहां ले जाती है, वहीं उसकी मंजिल है। अगर बीच में डुबा दे, तो वहीं उसकी मंजिल है। अपना कोई लक्ष्य शेष नहीं रह गया है।
योगी यानी परम स्वातंत्र्य।
'अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।'
'तुम कौन हो, मैं कौन हूं, कहां से आया, कौन मेरी माता है, कौन पिता है? इस प्रकार मनन करो। और तब पाओगे कि संसार और उसकी चिंता असार और स्वप्नवत है और तुम उस दुख-स्वप्न से मुक्त हो जाओगे। अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।'
'तुममें, मुझमें, अन्यत्र एक विष्णु का ही वास है। मेरे प्रति असहिष्णु होकर तुम व्यर्थ क्रोध करते हो। इसलिए सर्वत्र भेद-रूपी अज्ञान का त्याग कर सबमें अपने को ही देखो। अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।'
'शत्रु और मित्र, पुत्र और भाई, युद्ध और संधि में अपनी शक्ति मत गंवाओ। यदि तुम विष्णुपद को शीघ्र उपलब्ध करना चाहो, तो सर्वत्र सबके साथ समत्व भाव रखो। और हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।'
समत्व भाव एकत्व की यात्रा है। समत्व को साधो तो एकत्व सधेगा। सुख-दुख में समान, जीत-पराजय में समान, सफलता-असफलता में समान, तो धीरे-धीरे एकत्व सधेगा।
जब तक तुम द्वंद्व देखोगे, तब तक तुम दो रहोगे; क्योंकि जो तुम देखते हो, वही तुम हो जाते हो। जब तुम द्वंद्व न देखोगे, जब तुम द्वैत न देखोगे, और एक ही दिखाई पड़ने लगेगा--मित्र में और शत्रु में; शुभ में, अशुभ में; पाप में, पुण्य में; नरक में, स्वर्ग में; अच्छे में, बुरे में; अभिशाप में, वरदान में--एक ही दिखाई पड़ने लगेगा, तो तुम एक होने लगोगे; क्योंकि जो तुम देखते हो, वही तुम हो जाते हो; दर्शन ही तुम्हारा स्वभाव बन जाता है। इसलिए दो को देखने से बचना ही सारी साधना है।
कठिन होगा। कैसे देख पाओगे--जो तुम्हें गाली देता है उसमें वही, जो तुम उसमें देखते हो जो तुम्हारी प्रशंसा करता है और गीत गाता है?
लेकिन जरा गौर से देखो, गीत और गाली सब ऊपर-ऊपर हैं, भीतर एक का ही वास है। जरा गौर से देखो, मित्र और शत्रु, घृणा और प्रेम एक ही ऊर्जा के दो ढंग हैं। इसीलिए तो प्रेम घृणा बन जाता है और घृणा प्रेम बन जाती है; मित्र शत्रु बन जाते हैं और शत्रु मित्र बन जाते हैं। अगर दोनों बिलकुल अलग होते, तो यह परिवर्तन नहीं हो सकता था। जो आज मित्र है, कल शत्रु हो जाता है। जो कल शत्रु था, वह आज मित्र हो जाता है। निश्चित ही ऊर्जा एक ही है। जो तुमसे दूर जा रहा है--जिन पैरों से दूर जा रहा है, उन्हीं पैरों से तुम्हारे पास आ जाता है; पैर एक हैं। पास आना और दूर जाना, एक ही शक्ति के दो ढंग हैं।
इसे खोजने की कोशिश करो। पुरानी आदतें बाधा डालेंगी। पुराने सोचने के ढंग अड़चन डालेंगे। लेकिन अगर सतत चेष्टा रही, तो धीरे-धीरे अंधकार कटता है, प्रकाश उभरता है। और जैसे-जैसे तुम्हें विपरीत में एक ही दिखाई पड़ने लगेगा, तुम अचानक पाओगे--भीतर एक गहन शांति उतरने लगी; कोई परिपूर्ण तुम्हारे भीतर आने लगा; तुम वही नहीं रहे जो कल तक थे; तुम्हारे घर में किसी नई चेतना का आवास शुरू हो गया। जब दो मिट जाते हैं और एक रह जाता है, तभी तुम पात्र बनते हो परमात्मा के लिए, तब तुम तैयार हो। और परमात्मा तो सदा ही तैयार था। तुम्हारे तैयार होते ही मेघ बरस जाता है, तुम भर जाते हो; आनंद की, मंगल की घड़ी आ जाती है।
लेकिन दो से बचना है, दो से जागना है और एक की धारा को पकड़ना है।
समत्व को साधो, एकत्व उपलब्ध होगा। दो में कोशिश करके देखते रहो--बस यही तुम्हारा ध्यान बन जाए, यही तुम्हारी साधना हो। सफलता आए, तब गौर से देखना कि यह भी असफलता ही है; जल्दी ही असफलता कहीं छिपी होगी और आती होगी। और जब असफलता आए, तब बहुत परेशान मत हो जाना, गौर से देखना, कहीं सफलता छिपी होगी और आती ही होगी। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब एक आ गया तो दूसरा ज्यादा दूर नहीं हो सकता। और जब सफलता असफलता मालूम होने लगे, असफलता सफलता मालूम होने लगे; भेद गिर जाए, अभेद पैदा हो, तो तुम्हारा द्वार परमात्मा के लिए खुला।
परमात्मा सदा पास है, तुम्हीं अपने भेद के कारण दूर बने हो। परमात्मा सदा सामने है; क्योंकि जो भी तुम्हारे सामने है वह परमात्मा ही है। लेकिन तुम्हारी आंख बंद है। भेद में आंख अंधी हो जाती है, अभेद में खुल जाती है। भेद ऐसा है, जैसे पलक आंख पर पड़ी; अभेद ऐसा है, जैसे पलक खुली।
'अतः हे मूढ़, गोविन्द को भजो।'
भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम् मूढ़मते।
आज इतना ही।



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