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मंगलवार, 11 नवंबर 2014

भजगोविंदम मुढ़मते (आदि शंक्राचार्य) प्रवचन--06

तर्क का सम्यक प्रयोग—(प्रवचन—छठवां) 

प्रश्न-सार


1-  आपने बहुत बार कहा है कि तर्क और विवाद से कभी भी संवाद संभव नहीं होता; लेकिन शंकर ने विवाद और शास्त्रार्थ में सैकड़ों मनीषियों को पराजित किया। कृपया समझाएं कि शंकर का यह कैसा शास्त्रार्थ था?

2—जो कि मंजिल के करीब पहुंच चुका है, क्यों कर उसका पतन की खाई में गिरना संभव हो पाता है?

3—तथाकथित संन्यासी धर्म के नाम पर दुकानदारी करते हैं। और आपने अपने संन्यासियों को अपनी-अपनी दुकानें चालू रखने को कहा है। यह विरोधाभास है। कृपया इसे स्पष्ट करें।

4—ऐसा लगता है कि भज गोविन्दम् वानप्रस्थ अवस्था के लिए कहा गया है। लेकिन आप उसे सबके लिए कह रहे हैं!

5—ब्रह्म में रमण करने वाला क्या सचमुच भोग में रत हो सकता है?


पहला प्रश्न:

आपने बहुत बार कहा है कि तर्क और विवाद से कभी भी संवाद संभव नहीं होता। लेकिन शंकर ने अपनी विश्व-विजय की घोषणा की तथा विवाद और शास्त्रार्थ में सैकड़ों मनीषियों को पराजित किया। हारने पर उन्हें शंकर का शिष्यत्व स्वीकार करना पड़ता था। कृपया समझाएं कि शंकर का यह कैसा शास्त्रार्थ था?

र्क और विवाद, तर्क और खंडन से न तो कभी कोई संवाद हुआ है, न हो सकता है।
संवाद का अर्थ है: दो हृदयों की बातचीत; विवाद से अर्थ है: दो बुद्धियों का टकराव।
संवाद का अर्थ है: दो व्यक्तियों का मिलन; विवाद से अर्थ है: दो व्यक्तियों का संघर्ष।
संवाद में कोई हारता नहीं, दोनों जीत जाते हैं; विवाद में कोई जीतता नहीं, दोनों हार जाते हैं।
लेकिन मजबूरी थी और शंकर को विवाद करना पड़ा; क्योंकि विवाद के पूर्व संवाद का कोई उपाय ही न था। शंकर ने सत्य को समझाने के लिए विवाद नहीं किया। लेकिन लोग अपनी बुद्धियों में, अपने अहंकारों में, अपने पांडित्य में इस भांति भरे थे कि जब तक उनका पांडित्य तोड़ा न जाए, उनकी बुद्धि पराजित न हो, वे धूल-धूसरित होकर गिरें न, तब तक वे हृदय की बात सुनने को राजी भी न थे। तो शंकर ने विवाद से उन्हें सत्य नहीं समझाया, विवाद से केवल उनके अहंकार को झुकाया। और जो झुकने को राजी हो जाए, उससे फिर संवाद हो सकता है।
शंकर का शास्त्रार्थ तो केवल निषेधात्मक था; वह तो एक लगे कांटे को दूसरे कांटे से निकालना था। तर्क से भरे हुए मन हैं, वे केवल तर्क की भाषा ही समझते हैं। पांडित्य से भरा हुआ मन केवल पांडित्य की भाषा समझता है; प्रेम की भाषा उसे सुनाई भी नहीं पड़ती। सुनाई भी पड़े तो उसमें कोई अर्थ नहीं मालूम होता। और मौन की भाषा का तो कोई सवाल ही नहीं है।
शंकर जब पैदा हुए, तब इस देश का पांडित्य अपने शिखर पर था। उसी पांडित्य ने इस देश को बर्बाद भी किया। यह देश खोपड़ी में अटक गया; और हृदय तक जाने के इसके द्वार बंद हो गए। गर्दनें काटनी जरूरी थीं, अन्यथा हृदय तक आने का कोई उपाय न था। और बीमारी इतनी भयंकर हो गई थी कि औषधि काम नहीं कर सकती थी; शल्य-चिकित्सा जरूरी थी, आपरेशन जरूरी था; काटे बिना कोई उपाय न था। मलहम-पट्टी से इलाज होने वाला न था। बीमारी काफी दूर आगे निकल जा चुकी थी।
तो शंकर को विवाद करना पड़ा; वह मजबूरी थी। शंकर विवादी नहीं हैं। शंकर और विवादी हों, यह संभव ही नहीं है। शंकर का रस तर्क में नहीं है, अन्यथा वे भज गोविन्दम् जैसा गीत न गाएं। उनके प्राण तो भजन गाने को बने थे। शंकर को ठीक अवसर मिलता तो वे नाचते; समय परिपक्व होता, लोग हृदय की भाषा समझते, तो शंकर ने तर्क किया ही न होता। लेकिन देश बीमार था; पांडित्य अपनी आखिरी अवस्था में था; लोगों के सिर भारी थे; उनका बोझ उतारना जरूरी था। और पंडित केवल तर्क ही समझ सकता था। तर्क से पराजित हो, तर्क से हारे, तो शायद राजी हो हृदय की भाषा सुनने को। झुकाया शंकर ने लोगों को।
और ध्यान रखना, जिसने सत्य को जाना हो, वह तर्क का भी उपयोग कर सकता है--हितकर दिशा में। जिसने सत्य को न जाना हो, उसके हाथ में तो तर्क का उपयोग खतरनाक है। जिसने सत्य को न जाना हो, उसके लिए तर्क ही सब कुछ हो जाता है--साध्य। जिसने सत्य को जाना हो, वह तर्क को भी सत्य की सेवा में संलग्न कर देता है। जिसने सत्य को जाना हो, वह तर्क को अनुचर बना लेता है। सत्य तर्क पर भी सवारी कर सकता है। साधारणतया तर्क छोटे बच्चों के हाथ में पड़ गई तलवार है। उससे वे दूसरों को भी नुकसान पहुंचा देते हैं और अंततः अपने को भी नुकसान पहुंचाएंगे। लेकिन ज्ञानी के हाथ में तर्क, समझदार के हाथ में तलवार है; उससे किसी को नुकसान न पहुंचेगा। हां, दुर्घटना के क्षणों में किसी की रक्षा हो सकती है।
शंकर ने तर्क का सम्यक उपयोग किया। जहर भी औषधि बन जाता है समझदार के हाथ में। जहर जहर नहीं है, अगर समझदारी हो; तो उसका भी उपयोग हो सकता है। और शंकर ने बहुमूल्य उपयोग किया। देश में एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक वे घूमे। और जहां-जहां उन्हें लगा कि कोई रुग्ण चित्त बुद्धि में अटक गया है और हृदय की भाषा विस्मृत हो गई है, जहां-जहां उन्हें लगा कोई प्रतिभा शब्दों में उलझ गई है और शून्य के फूल तक पहुंचने का द्वार बंद हो गया है, जहां-जहां उन्हें लगा कि कोई शास्त्र में दब गया है और छटपटा रहा है, वहीं-वहीं उन्होंने विवाद किया, तर्क का उपयोग किया, शास्त्रार्थ किया। यह सिर्फ भूमिका है।
जैसे ही कोई शास्त्रार्थ में हारा, वैसे ही शंकर ने उसे शिष्यत्व में नियोजित किया। वह दूसरी बात मूल्यवान है; असली बात वही है। तर्क में जैसे ही कोई हारा, उसकी हार का उन्होंने उपयोग कर लिया। उस हार के क्षण में जब अहंकार बिखरा, चौंका व्यक्ति, तर्क काम न आए, बुद्धि ने साथ न दिया, असहाय हुआ, डूबने लगा, शंकर ने दूसरी नाव सामने कर दी--कि तर्क की नाव डूबती है, डूबने दो; मेरे पास और भी नाव है--हृदय की नाव, प्रेम की, भक्ति की। ऐसे ही क्षणों में उन्होंने गाया होगा--भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम् मूढ़मते।
यह 'मूढ़' पंडितों से ही कहा है उन्होंने। अगर तुम ठीक से समझो तो शास्त्रार्थ किया, ताकि तुम्हारी मूढ़ता काटी जा सके। कटते ही, भ्रम टूटते ही, उस संधि का उन्होंने उपयोग कर लिया--जब तुम क्षण भर को निर्भार होते हो, और जब तुम्हें खुला आकाश दिखाई पड़ता है, बादल हट गए होते हैं--उसका उन्होंने उपयोग कर लिया। शंकर ने विवाद से सत्य को नहीं समझाया, विवाद से केवल बादल छांटे, हटाए, ताकि सत्य का सूरज दिखाई पड़ सके।
सत्य को तो सिद्ध करने की कोई जरूरत ही नहीं है, सत्य तो स्वयंसिद्ध है। और ध्यान रखना, जिसे सिद्ध करना पड़े तर्क से, उसे तर्क से ही असिद्ध भी किया जा सकता है। तर्क का कोई बल थोड़े ही है, तर्क तो खेल है। ऐसी कोई भी चीज नहीं जो तर्क से सिद्ध की गई हो और तर्क से ही तोड़ी न जा सके। तर्क तो वकील है, तर्क तो वेश्या है; उसका किसी से कुछ लगाव नहीं है; वह तो दोनों तरफ हो सकता है। कोई भी तर्क ले लें, वह अपने विपरीत भी उतना ही बलशाली है।
तलवार को कोई प्रयोजन थोड़े ही होता है कि किसके हाथ में है। किसी के हाथ में हो! जिसके हाथ में हो, वहीं से काटती है। तुम्हारी तलवार भी दुश्मन के हाथ में पड़ कर तुम्हारी गर्दन को काट सकती है। तुम यह न कह सकोगे कि मेरी तलवार और मुझे ही काटती है! तलवार किसी की नहीं है। तर्क भी किसी का नहीं है। इसलिए तर्क पर जिन्होंने भरोसा किया, एक न एक दिन वे पाएंगे कि कागज की नाव में सवार थे; एक न एक दिन वे पाएंगे कि जिस तर्क के सहारे खड़े थे, उसी तर्क ने गिराया।
तुम अगर मानते हो ईश्वर को, तो तुम कहते हो, कोई बनाने वाला होना चाहिए संसार का। यह तुम्हारा तर्क है कि बिना बनाए संसार कैसे बनेगा! नास्तिक पूछता है, परमात्मा को किसने बनाया? तर्क उसका भी वही है। तुम कहते हो, बिना बने संसार कैसे बनेगा, इसलिए परमात्मा होना चाहिए। वह कहता है, फिर परमात्मा को किसने बनाया? क्योंकि बिना बनाए परमात्मा भी कैसे हो सकता है! वही पूछ रहा है, कुछ भेद नहीं है तुम्हारे-उसके तर्क में। तुम आस्तिक मालूम पड़ते हो, वह नास्तिक मालूम पड़ता है। मेरे देखे, दोनों समान हैं; क्योंकि दोनों का भरोसा एक ही तर्क पर है; और वह तर्क यह है कि कोई चीज बिना बनाए कैसे हो सकती है!
नास्तिक से तुम नाराज हो जाते हो; तुम कहते हो--चुप रहो! परमात्मा को किसी ने भी नहीं बनाया। नास्तिक यही कहता है, जब परमात्मा को किसी के बिना बनाए बनने की सुविधा है, तो संसार को बिना बनाए बनने की सुविधा क्यों नहीं है? तर्क वही है। नास्तिक-आस्तिक में इसलिए कोई भी जीत नहीं पाता। जीतोगे कैसे? तुम दोनों के तर्क समान हैं।
तर्क से कभी कुछ सिद्ध नहीं होता। जो है, वह अतक्र्य है; जो है, वह सिद्ध ही है; वह सेल्फ-इविडेंट है, स्वयंसिद्ध है।
लेकिन अगर तुम तर्क लेकर शंकर के पास जाओगे, तो शंकर तुम्हारा तर्क काटने को तैयार हैं। शंकर जैसे तर्कनिष्ठ लोग कम ही हुए हैं। तुम्हें ऐसे लोग तो मिल जाएंगे, जिन्होंने परमात्मा को जाना--रामकृष्ण--लेकिन तुम्हें ऐसे लोग बहुत मुश्किल से मिलेंगे, जिन्होंने परमात्मा को जाना और जो नास्तिक के तर्कों को भी तोड़ सकते हों। रामकृष्ण नास्तिक का तर्क नहीं तोड़ सकते। तर्क के जगत में उनकी कोई गति नहीं है। वे सीधे, शुद्ध भाव के व्यक्ति हैं। विवेकानंद तोड़ सकते हैं; लेकिन विवेकानंद को सत्य का कोई अनुभव नहीं है। शंकर ऐसे हैं, जैसे रामकृष्ण और विवेकानंद एक साथ--एक ही व्यक्तित्व में। उन्होंने जाना है, जैसा रामकृष्ण ने जाना; और जो उन्होंने जाना है, उसके पक्ष में वे सारे तर्क संयोजित कर सकते हैं, जो विवेकानंद कर सकते हैं बिना जाने। शंकर जैसे व्यक्ति अनूठे हैं।
पर ध्यान रखना, शंकर को समझने में भूल हो गई है। जिन पंडितों को तोड़ने में शंकर ने जीवन भर श्रम किया, उन्हीं पंडितों ने शंकर को भी पंडित समझ लिया है। वे पंडित यही कहे चले जाते हैं कि शंकर ने दिग्विजय की। शंकर सुनते होंगे तो हंसते होंगे।
तर्क की जीत भी कोई जीत है? किसी को तर्क से हराना भी कोई हराना है? क्योंकि तर्क से हारा हुआ चुप हो जाता है, हारता नहीं है, ध्यान रखना। तुम किसी के सामने बड़े तर्क खड़े कर दो तो हो सकता है वह उतने बड़े तर्क न जुटा पाए, तो वह चुप हो जाता है। लेकिन वह भीतर-भीतर कहता है, ठहरो, खोजेंगे कोई उपाय। तर्क से हराना ऐसा ही है, जैसे किसी की छाती पर तलवार रख दो और वह झुक जाए। लेकिन भीतर? भीतर तो अड़ा ही रहेगा। प्रतीक्षा करेगा उचित, अनुकूल समय की--जब तुम्हारी छाती पर तलवार रख दे।
तलवार से हारा हुआ कहीं हारता है? सिर्फ प्रेम से हारा हुआ हारता है। क्योंकि जब तक भीतर न झुक जाए हृदय, तब तक सब झुकना व्यर्थ है।
तो शंकर ने तर्क से तो केवल तर्क ही काटा; जो तर्क से जी रहे थे, उनको तर्क से पराजित किया। लेकिन उस पराजय के क्षण में शंकर ने बता दिया कि तुम्हारे तर्क भी व्यर्थ हैं, मेरे भी व्यर्थ हैं; तुम्हें कांटा लगा था, इसलिए मैंने कांटे से कांटा निकाल दिया; मेरा कांटा तुमसे ज्यादा मूल्यवान नहीं है। और भूल कर भी मेरे कांटे को अपने घाव में मत रख लेना, अन्यथा यह भी उतनी ही पीड़ा देगा जितना तुम्हारा कांटा दे रहा था। कांटा भी कोई मेरात्तुम्हारा होता है? दोनों को फेंक दो।
यही था उनका शिष्यत्व: बुद्धि से हट जाओ, भाव के निकट आओ। सत्य को खोजना है विचार करके नहीं; सत्य को खोजना है भावना से। सत्य को खोजना है--तर्क, शास्त्र, सिद्धांत से नहीं; सत्य को खोजना है हृदय को खोल कर। हृदय का फूल जब खिलता है, तो सत्य का सूर्य उस पर चमकता है; खिले हुए हृदय के फूल पर सत्य की किरणें नाचती हैं। शिष्यत्व का यही अर्थ था। लेकिन जो और तरह से न समझ सकते थे, शंकर ने उन्हें उनकी ही भाषा में समझाया।
शंकर अनूठे व्यक्ति हैं। और अनूठे व्यक्तियों के संबंध में नासमझी बहुत आसान है; क्योंकि वे तुम्हारी समझ की सामान्य कोटियों के पार पड़ते हैं। लोगों को लगा कि ये भी तार्किक हैं, महातार्किक हैं। लेकिन महातार्किक कहेगा, भज गोविन्दम्? कि नाचो-गाओ? परमात्मा का गीत गाओ--तार्किक कहेगा? महातार्किक कहेगा? संभव नहीं है। यह तो बड़े ही गहन हृदय से उठी हुई वाणी है। यह तो कोई परमात्मा का प्रेमी कह सकता है, तार्किक नहीं। इसे स्मरण रखो।
'आपने बहुत बार कहा कि तर्क और विवाद से कभी संवाद संभव नहीं होता।'
कभी संभव नहीं होता। तर्क और विवाद से शंकर ने संवाद की भूमि साफ की। तुम विवाद से भरे थे, विवाद से गिराया; तुम तर्क से भरे थे, तर्क से तोड़ा। इससे केवल भूमि को साफ करना है। फिर भाव के, भक्ति के बीज बोए।
अनेक लोगों को यह विचार उठता रहा है कि शंकर विरोधाभासी हैं। विरोधाभासी नहीं हैं। विरोधाभासी ऐसे ही लगते हैं, जैसे कि तुम्हारे पड़ोस में कोई आदमी अपना मकान गिरा रहा हो। तो एक दिन तुम देखते हो कि वह मकान गिराने में लगा है। महीनों मेहनत करके मकान गिराता है, कूड़ा-कबाड़ साफ करता है, भूमि तैयार करता है। फिर नींव भरता है और मकान उठाने लगता है। क्या तुम कहोगे यह आदमी विरोधाभासी है? एक दिन मकान तोड़ता है, दूसरे दिन बनाता है! विरोधाभासी तो है--लेकिन क्या तुम कहोगे यह विरोधाभासी है? नहीं, क्योंकि तुम जानते हो, नया मकान बनाना हो तो पुराना गिराना पड़ता है। इस विरोध में भी विरोध नहीं है। पुराने मकान को गिरा कर ही नया मकान बन सकता है।
शंकर विरोधाभासी नहीं हैं, तर्क से जूझ रहे हैं। और जब पुराना मकान गिर जाता है, तो निमंत्रण दिया है नाचने का। तुम कहोगे यह विरोधाभासी है--पहले विचार और तर्क की बात करता था, अब नाचने और भाव की बात!
नहीं, तर्क से केवल पुराने को गिराया था, भाव से नये को बना रहे हैं; तर्क से जमीन साफ की थी, भाव के बीज बो रहे हैं। कुछ विरोध नहीं है।
'लेकिन शंकर ने अपनी विश्व-विजय की घोषणा की।'
और यह घोषणा भी शंकर ने नहीं की; यह घोषणा उन्होंने की जो शंकर के पीछे थे, लेकिन शंकर को समझ नहीं पाए। पीछे होने से ही कोई समझ नहीं लेता। किसी के भी पीछे चलना बहुत आसान है, अनुयायी होना बहुत कठिन है। पीछे चलने में भी कोई बड़ी कला है? पीछे तो तुम किसी के भी चल सकते हो। अनुकरण में कोई कला नहीं है; अनुगमन आसान है। लेकिन वस्तुतः किसी को समझ लेना और उस समझ के अनुरूप अपने जीवन को विकसित करना बहुत कठिन है।
तो जो शंकर के पीछे चले, उन्होंने घोषणा की है शंकर की विश्व-विजय की; वे अब भी कर रहे हैं। शंकराचार्य पुरी के अब भी कर रहे हैं; करपात्री अब भी कर रहे हैं। वे अब भी कहे जाते हैं कि शंकर ने सारी दुनिया को हरा दिया; पुरी के शंकराचार्य अब भी कहे चले जाते हैं कि वे जगतगुरु हैं।
शंकर की वह घोषणा नहीं है। क्योंकि शंकर तो भलीभांति जानते हैं कि तर्क से न कभी कोई जीतता है और न कभी कोई हारता है। तर्क से केवल इतना ही सिद्ध होता है कि दूसरे का तर्क तुमसे कमजोर था, तुम थोड़े ज्यादा कुशल हो। लेकिन दूसरा कल ज्यादा कुशल होकर आ सकता है; तर्क की जीत कोई जीत नहीं है। शंकर भलीभांति जानते हैं कि तर्क की जीत कोई जीत नहीं है, जीत का धोखा है। और शंकर की चेष्टा भी नहीं है कि वे तर्क से किसी को जीत लें। उनकी चेष्टा तो बड़ी अनूठी है। लेकिन वह अनूठी चेष्टा, जो पीछे चल रहे हैं, उन्हें दिखाई नहीं पड़ेगी; उन्हें तो इतना ही दिखाई पड़ता है कि देखो एक आदमी को और हराया। वे जो पीछे चल रहे हैं, वे तो अहंकार की भाषा समझते हैं। वे यह नहीं देख रहे कि शंकर ने एक आदमी को हराया नहीं, एक आदमी को और जिताया; एक आदमी को हृदय के मार्ग पर लगाया; एक आदमी तर्क में डूबा-डूबा हार रहा था, उसे उबारा और उसे जीत का मार्ग दिया। अब जीतेगा यह आदमी।
इसलिए तो जिन्होंने--जैसे कुमारिल भट्ट ने--जो शंकर से हारे और शिष्य हो गए...कुमारिल भट्ट दुख और पीड़ा में शिष्य नहीं हुए। कुमारिल भट्ट अगर हार कर शिष्य होते तो भीतर दंश रह जाता। कुमारिल भट्ट को अगर पराजय प्रतीत होती तो वे पराजय का बदला लेने की कोई चेष्टा करते। नहीं, कुमारिल उतने ही तर्कनिष्ठ थे जैसे शंकर। शंकर से विवाद में कुमारिल को एक बात स्पष्ट दिखाई पड़ गई: तर्क व्यर्थ है। शंकर नहीं जीते, कुमारिल नहीं हारे--तर्क हारा, भाव जीता।
इसे थोड़ा समझने की कोशिश करनी जरूरी है।
शंकर से विवाद करते-करते, कुशल खिलाड़ी के साथ खेलते-खेलते कुमारिल को साफ दिख गया कि जिन चीजों पर मैंने बहुत भरोसा कर लिया था, वे हवा के झोंके में गिर जाती हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि उन्होंने शंकर का तर्क स्वीकार कर लिया। शंकर की कुशलता यही है कि विवाद में उन्होंने दिखा दिया कि तुम्हारे तर्क भी व्यर्थ हैं, मेरे तर्क भी व्यर्थ हैं; तर्क गिर गया; न कुमारिल हारे, न शंकर जीते--तर्क हारा। और चूंकि वह हार शंकर के माध्यम से आई तर्क की, कुमारिल झुके और शंकर के चरणों में गिर पड़े।
और ये बड़े माधुर्य से भरे हुए विवाद थे, बड़े प्रेम से भरे हुए विवाद थे; कहीं कोई लेशमात्र भी कटुता न थी। कोई दुश्मन की तरह नहीं लड़ रहे थे। जैसे दो व्यक्ति शतरंज खेलते हैं, वैसे तर्क की पूरी की पूरी सेना खड़ी की थी; दांव पर लगा दिया था जो भी बुद्धि में था। लेकिन शंकर हर एक चीज को काटते चले गए। उन्होंने काट-काट कर, जो अपना तर्क था, वह विरोधी के मन में नहीं रखा; वे केवल काटते चले गए। खाली जगह छूट गई। उस खाली जगह में शिष्यत्व उभरा। विरोधी ने देखा कि सामने जो खड़ा है, वह कोई सिद्धांत लेकर नहीं आया है, सत्य लेकर आया है। विरोधी ने देखा कि मेरे सब तर्क तोड़ दिए हैं, लेकिन कोई दूसरा तर्क उनकी जगह स्थापित करने को नहीं दिया है। रिक्त स्थान छूट गया--अंतराल है, खाली है, शून्य है। यह अवस्था ध्यान की बन गई। इस ध्यान के क्षण में वह झुका।
ध्यान रखना, वह कोई शंकर के प्रति झुक रहा है, यह भी तुम मत समझना; वह शंकर में जो सत्य प्रकट हुआ, उसके प्रति झुक रहा है। शंकर तो सिर्फ एक प्रतिमा हैं, एक प्रतीक हैं। वह जो सत्य सामने आया है, उसके प्रति झुक रहा है। और झुक रहा है, क्योंकि जगाया। झुक रहा है, इसलिए नहीं कि हराया; झुक रहा है, क्योंकि जगाया।
लेकिन जो पीछे खड़े हैं, उन्होंने देखा कि हार गया, झुक गया। उन पीछे चलने वालों ने घोषणा की कि शंकर की दिग्विजय हो गई; सारे संसार को हरा दिया। इन नासमझों के कारण शंकर की प्रतिमा भ्रष्ट हो गई; शंकर का वह जो आविर्भाव था, जो अनूठा भाव था, वह खो गया; एक साधारण परंपरा, एक सड़ा-संकीर्ण गलियारा बन गया; वह जो विराट पथ था खुले आकाश का, वह खुलापन न रहा।
इसलिए तुम पाओगे कि अगर शंकर को मानने वाला संन्यासी तर्कनिष्ठ है, तो वह कभी 'भज गोविन्दम्' इस तरह की बातों में नहीं पड़ेगा। ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि ये भज गोविन्दम् जैसे गीत शंकर के नाम पर दूसरों ने लिखे हैं, शंकर के नहीं हैं। क्योंकि शंकर और ऐसे गीत लिखेंगे! मीरा लिखे, समझ में आता है; चैतन्य कहें, समझ में आता है। शंकर? तर्क की ऐसी प्रखर धारा, वह ऐसे भक्ति के गीत गाए--संभव नहीं है। वे कहते हैं, ये सब दूसरों के द्वारा मिश्रित कर दिए गए हैं; शंकर की प्रतिष्ठा और नाम का लाभ उठाया है। वे इन गीतों को अलग काट देते हैं। वे तो केवल उन्हीं तर्कों पर भरोसा करते हैं, जिनका कोई भी मूल्य नहीं है।
शंकर ने तर्क दिए कि पुराना भवन गिरे, और फिर गीत बोए कि नया भवन उठे। उनकी प्रक्रिया को तुम विरोधाभासी मत मान लेना, अन्यथा तुम शंकर को समझ ही न पाओगे।
शंकर ने अपनी विश्व-विजय की घोषणा कभी नहीं की। जानने वाले महत्वाकांक्षी नहीं होते; जानने वाले अहंकारी नहीं होते।
ये विजय की घोषणाएं बड़ी बचकानी हैं। ये छोटे-छोटे बच्चों की बातें हैं। यहां कौन जीतने को है और कौन हारने को है? शंकर को दिखाई पड़ता है, एक ही परमात्मा है। अनेकता भ्रम है, एकता सत्य है। कौन जीतेगा, कौन हारेगा? हारेगा तो भी परमात्मा हारेगा, जीतेगा तो भी परमात्मा जीतेगा। जब वही जीत रहा है और वही हार रहा है, तो विश्व-विजय की घोषणा कौन करेगा?
नहीं, शंकर ऐसी भूल नहीं कर सकते। और की हो तो शंकर दो कौड़ी के हैं; फिर कोई मूल्य नहीं रह जाता। शंकर ने जगाया है, हराया नहीं।
'और विवाद और शास्त्रार्थ में सैकड़ों मनीषियों को पराजित किया।'
नहीं, सैकड़ों मनीषियों को मनीषी बनाया। उसके पहले तक झूठी मनीषा से उलझे थे, खोटे सिक्के को सम्हाले बैठे थे, असली सिक्का दिखाया। स्वभावतः, असली सिक्का दिख जाए तो खोटा खोटा हो जाता है। और कोई उपाय भी नहीं है खोटे को खोटा करने का। अगर तुम हाथ में एक खोटा सिक्का लिए बैठे हो, तो क्या उपाय है समझाने का कि यह खोटा है? असली चाहिए। असली की तुलना में ही खोटा हो सकेगा। शंकर ने असली प्रकट किया। उसके प्रागटय में खोटा खोटा हो गया।
ये विवाद पश्चिम में चलते विवादों जैसे नहीं थे। ये विवाद, आज पूरब में भी जो विवाद चलते हैं, ऐसे विवाद न थे। ये विवाद बड़ी मधुरिमा से भरे थे। ये विवाद बड़े सत्यान्वेषणियों के विवाद थे।
विवाद दो तरह से हो सकता है। एक तो तुम जो कहते हो, वह सही है; क्योंकि तुम कहते हो। तुम और गलत हो सकते हो! जो कहते हो, उसका बहुत मूल्य नहीं है; तुमने कहा है, इसलिए सही होना ही चाहिए। तब विवाद व्यर्थ विवाद है। लेकिन तुम सत्य की जिज्ञासा करते हो। तुम यह नहीं कहते कि मैंने जो कहा है, वह सत्य होना चाहिए। तुम कहते हो, अब तक मैंने जैसा जाना है, उसमें मुझे यह सत्य मालूम पड़ता है; मैं तैयार हूं, अगर और जानने को आगे कुछ हो तो मैं खुला हूं; बंद नहीं हो गया हूं; निर्णय ले नहीं लिया है; लेकिन अब तक जो भी मैंने खोजा है, उसमें यह मुझे सत्यतर मालूम होता है। मैं तैयार हूं बदले जाने को; रूपांतरित होने को; जो मैं जानता हूं, उसे छोड़ने को; अगर सत्य मेरे सामने प्रकट हो तो उसे अंगीकार करने की मेरी पूरी तैयारी है। तब विवाद भी सत्योन्मुख हो जाता है। तब विवाद भी एक प्रक्रिया बन जाती है।
पूरब ने इस विवाद का उपयोग किया था। हजारों साल की परंपरा थी, तब ऐसा हो पाया था। हजारों साल तक मनीषी विचार किए, विवाद किए--सत्यान्वेषण के लिए। सत्य पा लिया है, ऐसा नहीं; सत्य की खोज कर रहे हैं, ऐसा। और जब किसी ने तुम्हारे असत्य को दिखा दिया, तो इतना साहस रखा कि उसके चरणों में झुकें। क्योंकि सत्य की खोज थी, तो जिसने भी दिखाया, वही गुरु। इसलिए शंकर से जो हारे, वे शिष्य हो गए।
शिष्यत्व का अर्थ ही इतना है कि हम जहां तक गए थे, वहां तुम एक कदम आगे ले गए; जहां तक हमारी आंखें देखती थीं, तुमने हमें और आगे का दर्शन कराया; जहां तक हम पहुंच सकते थे, तुमने अपने कंधों पर हमें उठा लिया और दूर तक का आकाश दिखाया।
सत्यान्वेषण बड़ी और बात है। और सत्यान्वेषण पर दृष्टि हो, तो विवाद का भी उपयोग हो सकता है। इसलिए मैं कहता हूं, जहर भी औषधि हो सकती है।
पश्चिम में भी विवाद चलते रहे हैं, लेकिन उन विवादों में पूरब का मजा नहीं है। वहां लड़ने वाले लड़ते ही रहे हैं, वे कभी किसी के शिष्य नहीं बने। वे विवाद करते रहे हैं, हारे हों कि जीते हों, प्रत्येक अपना राग अलापता रहा है। कोई तय ही नहीं कर पाया कि कौन जीता, कौन हारा।
यह भी थोड़े सोचने जैसी बात है।
शंकर मंडला पहुंचे। मंडन मिश्र का नगर था। मंडन के नाम पर ही मंडला का नाम है। गांव में प्रवेश पर उन्होंने कुएं पर पानी भरती स्त्रियों से पूछा कि मंडन मिश्र का घर कहां है?
वे हंसने लगीं। उन्होंने कहा, यह भी कोई पूछने की बात है? तुम पहचान ही लोगे। उस घर की हवा बता देगी। उस घर के सामने टंगे तोते भी उपनिषद के वचन बोलते हैं। उस घर के पास की हवा पुरातन है, प्राचीन है, पावन है। यह कोई पूछने की बात है? स्त्रियां हंसने लगीं। उन्होंने कहा, अजनबी, तुम जाओ, वह घर तुम्हें अपने आप बुला लेगा। उस घर को कोई पूछता है?
शंकर उस द्वार पर पहुंचे। बात सच थी। पक्षी द्वार पर बैठे गीत गा रहे थे, जिनमें उपनिषद और वेदों के वचन थे। शंकर भीतर गए और उन्होंने निमंत्रण दिया। मंडन ख्यातिलब्ध व्यक्ति थे। शंकर से उम्र में बड़े थे। शंकर से ज्यादा उनका यश था। शंकर से ज्यादा उनके शिष्य थे। शंकर ने निमंत्रण दिया कि मैं विवाद के लिए आया हूं; सत्यान्वेषण के लिए आपसे जूझना चाहता हूं।
स्वागत हुआ, घर में ठहराए गए। यह कोई दुश्मन तो न था। मंडन ने कहा, तुम युवा हो, इसलिए हम समतुल नहीं हैं। मेरा अनुभव बहुत है, तुम अभी जवान हो। शंकर की उम्र कोई तीस साल रही होगी; मंडन कोई पचास पार कर चुके थे। मैं तुम्हारे पिता की उम्र का हूं, इसलिए यह लड़ाई समतुल नहीं है। तो मैं तुम्हें एक सुविधा देता हूं, न्यायाधीश तुम चुन लो। कौन निर्णय करेगा--कौन जीता, कौन हारा। तुम अभी जवान हो, तो तुम चुन लो जो भी तुम ठीक समझो, वह निर्णय देगा।
यह बड़े प्रेम की लड़ाई थी, इसमें कोई झगड़ा न था। बूढ़े ने ज्यादा सुविधा दी जवान को, बेटे की तरह स्वागत किया। शंकर ने बहुत खोजा, लेकिन कोई जो मंडन की प्रतिष्ठा का हो, उसी को न्यायाधीश बनाया जा सकता है। मंडन की पत्नी के सिवा कोई समझ में न आया। तो कहा कि आपकी पत्नी--भारती उसका नाम था--वही निर्णय करे।
यह कोई झगड़ा था? इसको तुम झगड़े की भाषा में समझ सकते हो? क्योंकि पत्नी अगर निर्णय करेगी तो पति की तरफ झुक सकती है। यह डर बिलकुल स्वाभाविक होना चाहिए, अगर विवाद दुश्मनी का हो। लेकिन विवाद बड़े प्रेम का था, सत्यान्वेषण का था।
पत्नी निर्णायक बनी। और विवाद के बाद पत्नी ने निर्णय दिया कि मंडन हार गए, शंकर जीत गए। लेकिन पत्नी ने कहा, रुको! यह हार अभी अधूरी है, क्योंकि मैं अर्धांग हूं; तुमने अभी आधे मंडन को जीता, अब तुम्हें मुझसे विवाद करना पड़ेगा। यह बात बड़े मजाक की थी, लेकिन बड़ी मधुर थी। बात तो ठीक थी, शंकर भी इनकार न कर सके; क्योंकि पत्नी अर्धांग है, तो अभी आधे मंडन हारे हैं। अब यह झंझट हो गई। पत्नी ने निर्णय तो दे दिया कि मंडन हार गए। जिस पत्नी ने यह निर्णय दिया होगा, वह भी अनूठी रही होगी; क्योंकि पति को हराना इतना आसान! लेकिन उसने कहा कि एक बात रह गई अधूरी, तुम्हें मुझे भी हराना पड़ेगा।
शंकर ने स्वीकार किया विवाद को। और भारती ने जो सवाल पूछे, शंकर मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि उसने कोई ब्रह्मज्ञान की बात न पूछी; वह तो समझ गई, इस विवाद को देख लिया था कि मंडन हार गए। यह युवा दिखाई युवा पड़ता है, यह सनातन, पुरातन मालूम होता है। यह तो सनातन पुरुष है; इससे ब्रह्म की बात करनी फिजूल है। उसमें तो मंडन को हारते उसने देख ही लिया था। और मंडन निश्चित ही भारती से ज्यादा जानते थे। भारती इसीलिए तो उनके प्रेम में पड़ी थी; उनकी पत्नी बनी थी; उनके चरणों की सेवा की थी। उनको हारते देख कर यह तो साफ ही हो गया था। उसने प्रश्न पूछे कामवासना के संबंध में।
शंकर युवा हैं; तीस साल उनकी उम्र है; अविवाहित हैं। मुश्किल में डाल दिया। शंकर ने कहा, छह महीने की सुविधा चाहिए। क्योंकि मैं तो अविवाहित हूं, ब्रह्मचारी हूं। प्रेम जाना नहीं, काम जाना नहीं। तो अभी जो भी उत्तर दूंगा, वे अनुभव से आए हुए न होंगे। और अनुभव से जो उत्तर न आए, वह भी कहीं सार्थक हो सकता है? शास्त्र मैंने पढ़े हैं। शंकर ने कहा कि जैसे मंडन ने शास्त्रों से पढ़ कर ब्रह्म के संबंध में बातें कीं और हारे, ऐसा ही अगर मैं कामवासना के संबंध में बातें करूंगा, वे शास्त्रों की होंगी और पक्का है कि मैं हारूंगा, तू जीत जाएगी। तू जानती है, हमने केवल सुना है; हमारा ज्ञान शास्त्रीय है, तेरा अनुभव का है। छह महीने का वक्त चाहिए, ताकि मैं भी अनुभव लेकर लौट आऊं।
ये विवाद बड़े प्रेमपूर्ण थे। भारती ने कहा, यह बिलकुल उचित है; तुम छह महीने की छुट्टी पर हो; तुम जाओ और अनुभव करके लौट आओ।
कहानी बड़ी अजीब है। शंकर बड़ी दुविधा में पड़ गए। ब्रह्मचर्य का व्रत लिया है, गुरु को वचन दिया है। अब जाकर विवाह करें या कोई स्त्री खोजें, तो सारा जीवन का ढांचा बदल जाए! तो कथा कहती है कि शंकर ने शरीर को छोड़ा और एक मृतक की देह में प्रविष्ट हुए--एक राजा मर रहा था, उसके प्राण निकले और शंकर प्रविष्ट हुए। छह महीने उसकी देह में रह कर उन्होंने शरीर और कामवासना का अर्थ समझा।
जब छह महीने बाद वे वापस लौटे, तो भारती ने उनकी तरफ देखा और कहा, विवाद की कोई जरूरत नहीं; तुम जान कर ही आए हो, बात खत्म हो गई। मुझे भी अपना शिष्य स्वीकार कर लो।
ये कोई दुश्मनी की बातें न थीं। ये बड़े प्रेम में, बड़ी गहन सहानुभूति में, एक-दूसरे के प्रति अपार श्रद्धा, अपार भाव से हुई घटनाएं थीं। मंडन और भारती शंकर के शिष्य हो गए।
शंकर ने किसी मनीषी को पराजित किया, ऐसा नहीं; मनीषियों को मनीषा दी; वे जो हारे हुए बैठे थे, उन्हें जगाया और चेताया; जिनके घरों में अंधेरा था, उनके घरों में रोशनी की। इसलिए जो उनके चरणों में झुका, वह हार कर नहीं झुका; हारने की पीड़ा वहां न थी; अहोभाव से झुका, धन्यवाद से झुका, गहन अनुकंपा के भाव से झुका।
'और हारने पर उन्हें शंकर का शिष्यत्व स्वीकार करना पड़ता था।'
ऐसा मत कहो। करना पड़ता था? हम अहंकार की भाषा से बच नहीं पाते। अगर इनकार भी करते शंकर तो भी वे शिष्यत्व स्वीकार करते। करना पड़ता था? किया! अहोभाव से किया! नाचते हुए किया! वह झुकना कोई हार का झुकना न था, वह झुकना तो बड़ी समझ में हुआ था। वह समर्पण था, पराजय न थी। उस झुकने में वे आनंदित हुए थे। उस झुकने में पहली बार वे प्रतिष्ठित हुए थे। उस झुकने में उन्होंने पहली बार जाना जीवन का अर्थ; परमात्मा की पहली झलक पाई। उन चरणों में उन्हें परमात्मा के चरण मिले।
नहीं, 'झुकना पड़ा', इस तरह की विवशता के शब्द उपयोग मत करो। वे झुके--अहोभाव से! परम आनंद से! गहन कृतज्ञता से!


दूसरा प्रश्न:

साधारण जन के पतन की बात तो समझ में आती है। लेकिन त्याग, वैराग्य, तप और साधना के पथ पर चलने वाला व्यक्ति भी, जो कि मंजिल के करीब पहुंच चुका है, क्यों कर उसका पतन की खाई में गिरना संभव हो पाता है?

साधारण जन तो पतित हो ही नहीं सकता। गिरेगा कहां? समतल भूमि पर चलने वाला गिरेगा भी तो गिरेगा कहां?
पहाड़ों के शिखरों पर जो चढ़ने की कोशिश करता है, वही गिर सकता है। गिरने के लिए पर्वत शिखर चाहिए। और पर्वत शिखरों के पास छिपी हुई खाइयां हैं, खड्ड हैं। समतल भूमि पर, राजपथ पर चलने वाला गिरेगा भी तो क्या गिरेगा? गिरा ही हुआ है।
साधारण जन कभी पतित नहीं होता, क्योंकि अब और पतित होने को जगह कहां? इसलिए तुम जब पूछते हो कि साधारण जन के पतन की बात तो समझ में आती है--तब तुम समझे नहीं। साधारण जन का पतन कैसे होगा? साधारण जन तो जीता ही उस बिंदु पर है, जिसके नीचे और पतन संभव नहीं है। वह तो शून्य डिग्री पर जीता ही है। वह तो आखिरी जगह जीता ही है। खाई-खड्ड को ही उसने घर बनाया है। सिर्फ गिरते हैं असाधारण जन--जो शिखर पर चढ़ने का अभियान करते हैं; जो ऊंचाइयों पर जाने का प्रयत्न करते हैं; जो स्वीकार करते हैं चुनौती ऊंचाई की, जो खाई में रहने को राजी नहीं होते; और जो कहते हैं, जब तक हम स्वर्ण-मंडित शिखरों को न पा लें, तब तक जीवन व्यर्थ है; जो खाई के अंधेरे में सरकने को, घर बनाने को राजी नहीं होते; जो कहते हैं, हम तो पंख खोलेंगे और उड़ेंगे आकाश में; दूर की यात्रा पर जो जाते हैं। जितनी दूर की यात्रा, उतना ही खतरा पतन का।
हमारे पास एक शब्द है, योगभ्रष्ट। तुमने कभी भोगभ्रष्ट शब्द सुना? भोगभ्रष्ट का कोई अर्थ ही नहीं होता। योगभ्रष्ट सार्थक है। योगभ्रष्ट का अर्थ है: ऊंचाई पर चढ़ने की कोशिश की थी, चूक गए।
चूकने का खतरा सदा साथ है। शायद उसी डर से तो बहुत से लोग ऊंचाई पर चढ़ने की कोशिश नहीं करते। अपने को समझा लेते हैं, खाई-खड्ड को ही ऊंचाई मानने लगते हैं। ऊंचाई की बात ही भूल जाते हैं। शिखरों की तरफ देखते ही नहीं, क्योंकि उनके देखने से चुनौती मिल सकती है।
मैंने सुना है कि जिन देशों में पक्षी दूर से--पहाड़ी पक्षी, जंगली पक्षी--दूर की यात्रा करके आते हैं। जब वे आते हैं, तो घरेलू पक्षी, पले-पुसे पक्षियों में भी चुनौती सवार हो जाती है। जैसे यूरोप के दक्षिण भागों में बतखें आती हैं साइबेरिया से उड़ कर, शीतकाल काटने। जब शीतकाल पूरा हो जाता है तो बतखें वापस जाती हैं। लेकिन घरों में पली हुई बतखें भी हैं, वे भी कभी पीढ़ियों दर पीढ़ियों पहले जंगली थीं; वे भी मुक्त थीं। जब ये पहाड़ी और जंगली बतखें वापस लौटने लगती हैं--झुंड के झुंड आकाश में उड़ते हैं--तब खेतों-खलिहानों में बैठी बतखें भी तड़फड़ाती हैं; वे भी पंख फैलाती हैं; वे भी दस-पांच फीट उड़ने की चेष्टा करती हैं और गिर-गिर जाती हैं। उनके पंख अब समर्थ नहीं रहे। लेकिन जब पहाड़ी पक्षियों को उड़ते देखती हैं--अपने ही जैसे पक्षियों को उड़ते देखती हैं--तो उनके प्राणों में भी कोई चुनौती समा जाती है; कोई अभियान, कोई अनजाना देश उन्हें भी याद आ जाता है--कोई आकाश की ऊंचाई। उनके छोटे-छोटे मनों में भी दूर साइबेरिया का खुला आकाश एक चोट करता है। यद्यपि वे गिर पड़ती हैं वापस, अपने खेतों-खलिहानों में फिर दौड़ने लगती हैं, लेकिन एक बार चेष्टा करती हैं।
जब कभी कोई बुद्ध, कोई शंकर तुम्हारे बीच से गुजरता है, तब तुम भी अपने खेत-खलिहानों में थोड़े तड़फड़ाते हो, तुम भी थोड़े पंख मारते हो। क्योंकि उसकी मौजूदगी तुम्हें खबर देती है; उसकी मौजूदगी तुम्हारे भीतर भी किसी सोए स्वर को जगा देती है; तुम भी पहचानते हो कि यह तो मेरी भी नियति है, यह अभियान मेरा भी है; इतनी ही ऊंचाइयों पर मैं भी उड़ सकता हूं। लेकिन फिर तड़फड़ा कर गिर जाते हो, फिर भूल जाते हो।
या, तुममें जो बहुत चालाक हैं, वे कहेंगे, यह बात हो ही नहीं सकती। वे बुद्ध की तरफ देखते ही नहीं; वे पीठ ही किए रहते हैं। वे बुद्ध के संबंध में अफवाहें सुनते हैं, बुद्ध को सीधा नहीं देखते। वे आंख से आंख नहीं मिलाते, क्योंकि आंख मिलाने में खतरा है। वे अपनी दुकानों पर बैठे रहते हैं। वे कहते हैं, यह सब बकवास है। कहीं कोई परमात्मा को पाया है? कि कहीं कोई ब्रह्म है? यह सब कुछ बेकार है; यह सब लोगों को उलझाने की बातें हैं। या हो सकता है यह आदमी पागल हो गया हो। या ज्यादा से ज्यादा सुंदर कविता है।
वे स्वीकार नहीं कर सकते कि ऐसे पहाड़ हैं, ऐसी ऊंचाइयां हैं, ऐसे हिम-शिखर हैं--ऐसे स्वच्छ और कुंवारे, जहां कोई कभी नहीं पहुंचा--अछूते। क्योंकि घबड़ाहट है। अगर उनका खयाल आ गया, तो अपने पंखों पर भरोसा नहीं है--उड़ सकेंगे? पहुंच सकेंगे? गिर तो न जाएंगे?
उड़ने के साथ ही गिरना जुड़ा है; बढ़ने के साथ ही फिसलना जुड़ा है। जमीन पर सरकने और रेंगने वाले जानवर गिरते नहीं। गिरेंगे कहां?
तो ध्यान रखो, यह तुम मत कहो कि साधारण जन के पतन की बात समझ में आती है। साधारण जन का कभी कोई पतन सुना है तुमने? नहीं; त्याग, वैराग्य, तप और साधना के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति ही--और जितने वे मंजिल के करीब पहुंचने लगते हैं, उतना ही खतरा बढ़ता है; मंजिल के जितने करीब आने लगते हैं, उतने ही खतरे बढ़ने लगते हैं। तब इंच-इंच खतरा है, क्योंकि इंच-इंच गिर जाने का सवाल है। जरा से चूके और गिरना हो सकता है। चूक जरा सी, गिरना बहुत बड़ा होता है। भूल छोटी...तुम भी वही भूल करो तो कुछ हर्जा नहीं है, महावीर वही भूल करें तो बहुत बुरी तरह गिरेंगे। तुम्हारी भूल से क्या होने वाला है? तुम तो भूलों में ही जी रहे हो। तुम्हारी उन बड़ी भूलों में छोटी-मोटी भूलों का तो कोई पता ही नहीं चलता। लेकिन अगर बुद्ध से वही भूल हो...
बुद्ध एक गांव से गुजर रहे हैं, आनंद उनके साथ है। वे कुछ बात कर रहे हैं; एक मक्खी आकर उनके कंधे पर बैठ गई, उन्होंने उसे उड़ा दिया--जैसे कि कोई भी उड़ा दे। फिर रुक गए, सहम गए, जैसे कि कोई बड़ी भूल हो गई हो। फिर उन्होंने हाथ उठाया, होशपूर्वक कंधे के पास ले गए और मक्खी को उड़ाया--जो अब वहां थी ही नहीं! आनंद ने पूछा, आप यह क्या कर रहे हैं?
बुद्ध ने कहा, मैंने बेहोशी में उड़ा दी; होशपूर्वक उड़ाना चाहिए। मक्खी भी होशपूर्वक उड़ानी चाहिए; क्योंकि अगर मक्खी उड़ाने में बेहोशी हो सकती है, तो किसी और चीज में भी हो सकती है।
इतनी छोटी सी बात कि मक्खी उड़ाने में बेहोशी--कि बात करते रहे और मक्खी उड़ा दी। अब इसमें भूल भी क्या हो गई थी? न तो मक्खी मर गई, न कोई हिंसा हो गई, न कुछ हुआ--इसमें क्या चिंता की बात है? लेकिन चिंता की बात बुद्ध को है। इतनी सी कालिख भी उनकी शुभ्र चादर पर बहुत कालिख हो जाएगी। तुम्हारी काली चादर पर कुछ भी पता न चलेगा। इसीलिए तो लोग ऐसे कपड़े खरीदते हैं, जो गंदे हो जाएं तो पता न चले। सफेद कपड़े पर तो कालिख तत्क्षण दिखाई पड़ती है। बुद्ध की सफेद चादर पर तो जरा सी भी कालिख दिखाई पड़ जाएगी। मक्खी भी होशपूर्वक उड़ानी है।
बुद्ध रात सोते हैं तो एक ही करवट सोते हैं। आनंद ने पूछा कि कई बार देखता हूं रात में उठ कर, आप जिस करवट सोते हैं, उसी करवट सोए रहते हैं! हाथ जहां रखते हैं पैर पर, वहीं रखे रहते हैं! हिलते भी नहीं! क्या रात भर सम्हल कर सोते हैं? कम से कम सोएं तो विश्राम से।
बुद्ध ने कहा, जिसे जागना हो, फिर सोना कहां! होशपूर्वक ही सोना है; जागते हुए ही सोना है; भीतर कोई जागता ही रहे। क्योंकि भीतर अगर जागरण खोया, सपने शुरू हो जाते हैं। और अगर भीतर सपने चलें, तो दिन में विचार चलेंगे। रात में अगर जागना न रहा, तो दिन में भी जागना असंभव है; क्योंकि जागना तो स्वाभाविक हो जाना चाहिए--रात हो कि दिन, सोना हो कि जागना। लेकिन जागना जारी ही रहे; उसकी अंतर्धारा बन जाए।
तो रात भी होशपूर्वक सोते हैं; हाथ जहां रखा है, वहीं रखे रहते हैं; नींद में भी बेहोशी को पकड़ने नहीं देते। अगर नींद में भी बेहोशी पकड़ जाए, तो बुद्ध इसको गिरना समझेंगे।
जितना तुम करीब आओगे मंजिल के, उतना ही खतरा बढ़ता जाता है। गौरीशंकर के करीब जितना पहुंचोगे, उतना ही खतरा बढ़ता जाता है। ऊंचाई बढ़ गई, और शिखर छोटा होने लगा, संकीर्ण होने लगा। ठीक गौरीशंकर पर तो एक ही आदमी खड़ा हो पाता है--इतनी ही जगह है।
अभी जो जापानी महिलाओं का दल गौरीशंकर पर गया, उसके बाद चीन ने दावा किया कि हमारा भी एक दल वहां पहुंचा दो दिन पहले, और दल में सात यात्री थे, सातों गौरीशंकर पर पहुंचे। तो जापानी महिलाओं ने इस बात का इनकार किया, क्योंकि वहां सात आदमी एक साथ खड़े ही नहीं हो सकते। शिखर छोटा होता जाता है।
तो यह तो तुम्हारा साधारण गौरीशंकर है, बुद्धों के गौरीशंकर की क्या कहोगे! वहां तो इतनी संकीर्ण जगह हो जाती है कि तुम अकेले भी खड़े नहीं हो सकते। तुम्हारा अहंकार भी बचेगा तो उस जगह से गिर जाओगे। वहां तो तुम भी शून्य हो जाओगे तो ही खड़े हो पाओगे। उस पूर्णता के शिखर पर केवल शून्य ही टिक सकता है। जरा सा अहंकार, जरा सी अस्मिता, और पतन हो जाएगा।
इसे स्मरण रखो: जितना बढ़ते हो, उतना गिरने का खतरा लेते हो। लेकिन यह चुनौती स्वीकार करने जैसी है। इसी से तो तुम्हारी गरिमा प्रकट होगी; इसी से तो तुम महिमावान बनोगे। गिरने का डर है, कोई हर्जा नहीं; हजार बार गिरना भी पड़े तो भी कोई हर्जा नहीं; शिखरों को छूना ही है! क्योंकि जब तक तुम छू न लोगे, तब तक कोई तृप्ति संभव नहीं है। जब तक तुम परमात्मा को अपने भीतर न पा लोगे, तब तक तुम कुछ और पा लो, तुम भिखारी ही रहोगे--तुम्हारी तृप्ति न होगी, संतुष्टि न होगी। सुख असंभव है, जब तक कि तुम वह न हो जाओ, जो कि तुम अंततः हो सकते हो; जब तक कि तुम्हारा पूरा भविष्य वर्तमान न बन जाए; जब तक कि तुम्हारे सब फूल खिल न जाएं--एक भी अनखिला फूल न रह जाए--तब तक तुम आनंद को उपलब्ध न हो सकोगे।
इसलिए आनंद के लिए हमारा एक शब्द है: प्रफुल्लता। प्रफुल्लता का अर्थ है: फूल का पूरा खिल जाना। उस पूरे खिलाव में ही आनंद है। उससे रत्ती भर कम पर भी राजी मत होना, अन्यथा तुम दुखी रहोगे और नरक में रहोगे।
साधारण जन गिरने से बच जाता है, लेकिन जीता अंधेरे में, पीड़ा में, दुख में है। गिरने का खतरा मोल लो। दुख में सड़ने की बजाय सुख की एक झलक भी बहुमूल्य है। जमीन पर सरकने की बजाय आकाश में एक बार का उड़ना भी पर्याप्त तृप्तिदायी है। एक बार भी तुम आकाश में उड़ लो, तो तुम्हें अपने पंखों पर भरोसा आ जाए। निश्चित ही बहुत बार गिरना होगा, बहुत बार उठना होगा। लेकिन हर गिरना एक शिक्षण है और हर उठना नया बल है। जितनी बार तुम गिरोगे, उतनी ही गिरने की संभावना कम होती जाएगी, क्योंकि तुम उठने में कुशल होते जाओगे।
लंबी यात्रा है, और परमात्मा मंजिल है। छोटे से राजी मत हो जाना; जल्दी संतुष्ट मत हो जाना; राह के किनारे बैठ कर आंख बंद मत कर लेना और सोचने मत लगना कि मंजिल आ गई। बहुतों ने यही किया है; क्योंकि यात्रा कष्टपूर्ण है, सुविधापूर्ण है राह के किनारे बैठ जाना। चलने में तपश्चर्या है, श्रम है, खून पसीना बनेगा, अपने को दांव पर लगाना पड़ेगा। जीवन एक जुआ है, उसमें जो बड़े जुआरी हैं, वही परमात्मा तक पहुंच पाते हैं।


तीसरा प्रश्न:

तथाकथित संन्यासी धर्म के नाम पर दुकानदारी करते हैं। और आपने अपने संन्यासियों को अपनी-अपनी दुकानें चालू रखने को कहा है। यह विरोधाभास जैसा है। कृपया इस स्पष्ट करें।

रा भी विरोधाभास नहीं है। तथाकथित संन्यासी धर्म के नाम पर दुकानदारी करते हैं, क्योंकि उनको उनकी दुकान से तोड़ लिया गया है। और अभी वे पके न थे; अभी दुकान करने का मन था और मंदिर में बिठा दिए गए। वे मंदिर को दुकान में बदल देते हैं।
इसलिए मैं अपने संन्यासियों को उनकी दुकान से नहीं तोड़ता; मैं कहता हूं, अगर मंदिर को दुकान में बदलना हो, तो बेहतर है दुकान को मंदिर में बदल लेना। मैं उन्हें दुकान से नहीं तोड़ता, क्योंकि तोड़े गए संन्यासियों को मैं देख रहा हूं कि उन्होंने मंदिर को दुकान बना लिया है। जब तक तुम्हारे भीतर से दुकान का रस ही न चला जाए, दुकान से तोड़ना व्यर्थ है। और रस ही चला गया हो तो तोड़ने की जरूरत क्या है? तुम दुकान पर बैठे-बैठे ही मंदिर बना लोगे।
ध्यान रहे, अगर मंदिर दुकान में बदल सकता है, तो दुकान मंदिर में क्यों नहीं बदल सकती है? दोनों प्रक्रियाएं एक जैसी हैं। मैं दूसरी पर जोर दे रहा हूं कि अगर बदलनी ही हो, तो दुकान को मंदिर में बदलना। और अगर अभी दुकान में रस हो, तो हर्जा कुछ भी नहीं है, जारी रखना। कम से कम मंदिर तो भ्रष्ट होने से बचेगा।
मैं चाहता हूं, तुम परिपक्व हो जाओ; तुम जहां हो, वहीं परिपक्वता आ जाए। और परिपक्वता मूल चीज है, बाकी तो सब ठीक है। और जीवन में बड़े सवाल हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि तुम जहां से भी कच्चे हटा लिए जाओगे, तुम वहां से हट तो जाओगे शारीरिक दृष्टि से, मानसिक दृष्टि से कैसे हटोगे? और मन में जो तुम रस ले जाओगे, वह रस तुम्हारे साथ रहेगा। और तुम जहां भी रहोगे, वह रस अपने संसार को फिर खड़ा कर लेगा। बीज तुम्हारी वासना में है; तुम्हारी परिस्थिति में नहीं है, तुम्हारी मनःस्थिति में है।
संन्यास आंतरिक क्रांति है। वह इस बात की उदघोषणा है कि मैं भीतर अपने को अब बदलूंगा। और मैं मानता हूं कि जितनी सुविधा बाजार में है बदलने की, उतनी हिमालय पर नहीं है। क्योंकि बाजार में प्रतिपल मौके हैं, जहां चुनौती है; और बाजार में प्रतिपल अवसर हैं, जहां गिरने की सुविधा है; और बाजार में प्रतिपल संघर्ष है, जहां तुम ज्यादा देर अपने को धोखा नहीं दे सकते। बाजार दर्पण है। हर आदमी जिससे तुम मिलते हो, तुम्हारे भीतर तुम्हारे किसी मन के कोने को रोशन कर देता है।
इसे थोड़ा समझो। बहुत सी बातें तुम्हें अपने संबंध में कभी पता ही न चलेंगी, अगर तुम लोगों से न मिलो। समझो कि गाली देने वाला तुम्हें कभी मिले ही न, तो तुम्हें अपने भीतर के क्रोध का पता न चलेगा। कैसे पता चलेगा? गाली देने वाला तुम्हें कभी मिले ही न, अपमान करने वाला कभी मिले ही न, तो तुम यही समझोगे कि तुम अक्रोधी हो। गाली देने वाला मिले, तब तुम्हारे भीतर के क्रोध का तुम्हें पहली दफा संस्पर्श होगा।
तो गाली देने वाले ने तुम्हारे आत्म-दर्शन में सहायता दी; उसने तुम्हारे एक पहलू को रोशन किया; तुम्हारा एक अंधेरा हिस्सा दबा पड़ा था, उसे जगाया; उसने तुम्हें बताया कि तुम्हारे भीतर क्रोध है; उसने तुम्हें स्वयं को समझने के लिए सुविधा दी।
जंगल में भाग गए संन्यासी की सुविधाएं खो जाती हैं--न कोई गाली देता, न कोई सम्मान करता, न कोई धन का प्रलोभन देता--कोई कुछ मौका नहीं देता। वह अकेला पड़ा रह जाता है; आत्म-दर्शन कठिन हो जाता है। संसार में आत्म-दर्शन का उपाय है। नहीं तो परमात्मा ने जंगल ही जंगल बनाए होते और एक-एक आदमी को एक-एक जंगल दिया होता। परमात्मा तुमसे थोड़ा ज्यादा समझदार है, इतना तो मानोगे? परमात्मा की सुनो, महात्माओं से बचो। महात्मा कोशिश कर रहे हैं परमात्मा से भी ज्यादा समझदार होने की। वे ज्यादा चालाकी दिखला रहे हैं। वे कहते हैं, हम जंगल में चले जाएंगे, वहीं साधना करेंगे।
साधना संसार में है, जंगल में तो साधना का सवाल ही नहीं है। जंगल में तो तुम सड़ोगे, साधना क्या करोगे? साधना यहां है, जहां प्रतिपल कांटे हैं। और कांटों के बीच जिस दिन तुम चलना सीख लो, और कांटों के बीच तो चलो और कांटे चुभें न--बस उसी दिन तुम समझ लेना, अब तुम योग्य हुए जंगल जाने के। अब जाना हो तो चले जाओ। फिर मैं तुम्हें रोकता नहीं। लेकिन फिर तुम खुद ही कहोगे, अब जंगल जाने की जरूरत भी क्या है; यहीं भीड़ में जंगल हो गया है।
अगर तुम्हारे भीतर प्रौढ़ता आ जाए, प्रज्ञा का जन्म हो। और कैसे होगा जन्म? संघर्षण से होता है; प्रतिपल जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने से होता है; हारने, गिरने, उठने से होता है। हजार बार गाली दी जाएगी, तुम क्रोधित होओगे। एक बार तो ऐसा क्षण पाओगे, जब गाली दी जाएगी और तुम क्रोधित न होओगे। हजार बार के अनुभव से तुम्हें समझ में आ जाएगा, अपने को जलाना व्यर्थ है; गाली कोई दूसरा दे रहा है, दंड अपने को देना व्यर्थ है। एक दिन तो ऐसा आएगा कि कोई दूसरा गाली देगा और तुम्हारे भीतर क्रोध न होगा। उसी दिन तुम्हारे भीतर एक कांटा फूल बन गया; आदमी तुम दूसरे हो गए। उस दिन तुम्हें जो शांति मिलेगी, कोई जंगल नहीं दे सकता। जंगल की शांति मुर्दा है। अगर यहां गालियों के बीच तुम शांत हो गए, तो तुम्हारी शांति में एक जीवंतता होगी। जंगल की शांति मरघट जैसी है; सन्नाटा है, क्योंकि वहां कोई है ही नहीं। वह नकारात्मक है। संसार में अगर तुम शांत हो जाओ तो विधायक है। जंगल की शांति मरने जैसी है, संसार की शांति बड़ी जीवंत है।
और मैं तुमसे कहता हूं, परमात्मा को पाना हो तो तुम भागना मत। भगोड़ों से परमात्मा का कभी कोई संबंध नहीं जुड़ता। कायरों से संबंध जुड़ भी कैसे सकता है? चुनौती स्वीकार करने वाला साहस चाहिए। माना कि साहस में गिरना भी होता है, चोट भी खानी होती है। लेकिन वही मार्ग है, वही एकमात्र मार्ग है, और कोई मार्ग नहीं है।
तुमने कभी खयाल किया, बहुत सुविधा-संपन्न घरों के बच्चे बुद्धिमान नहीं होते। हो नहीं सकते; चुनौती नहीं है। सारे बुद्धिमान बच्चे उन घरों से आते हैं, जहां बड़ा संघर्ष करना पड़ता है; जहां छोटी-छोटी बात को पाना मुश्किल है। करोड़पतियों के बच्चे अक्सर व्यर्थ होते हैं।
हेनरी फोर्ड अपने लड़कों को सड़क पर जूता पालिश करने भिजवाता था; वह कहता था, अपने जेब का खर्च तुम खुद ही पैदा करो। दुनिया का सबसे बड़ा अरबपति! पड़ोसियों ने भी उससे कहा कि यह ज्यादती है, यह तुम क्या करवा रहे हो?
उसने कहा कि मैंने खुद जूते पालिश कर-कर के पैसा कमाया है। जो मेरे जमाने में धनपति थे, भीख मांग रहे हैं। मैं भिखमंगा था; मैं आज दुनिया का सबसे बड़ा करोड़पति हो गया हूं। मैं अपने बच्चों को भिखमंगा नहीं बनाना चाहता, इसलिए उन्हें जूते पर पालिश करने सड़क पर भेजता हूं।
वह आदमी होशियार था। वह आदमी कुशल था। धनपतियों के बच्चे अक्सर मुर्दा हो जाते हैं, गोबर-गणेश हो जाते हैं। उनको खोदो तो गोबर ही गोबर पाओगे, गणेश कहीं भी न मिलेंगे; क्योंकि जीवन की चुनौती नहीं है, संघर्षण नहीं है।
अगर बहुत सुरक्षा मिले और कोई संघर्ष न हो, तो रीढ़ टूट जाती है। रीढ़ बनती ही संघर्ष में है। जितना तुम संघर्ष लेते हो, उतनी ही रीढ़ पैदा होती है; उतने ही तुम मजबूत होते हो।
संसार से भागने को मैं नहीं कहता, मैं संसार से जागने को कहता हूं। संन्यास भगोड़ापन नहीं है, संन्यास महान संघर्ष है जागरण का। और जहां चुनौती है, वहां से हट मत जाना। हां, जब तक चुनौती का काम ही पूरा न हो जाए, तब तक तो टिके ही रहना। और जल्दी ही काम पूरा हो सकता है। अगर भागने की वृत्ति न हो, तो जल्दी ही जागना हो सकता है; क्योंकि वही शक्ति जो भागने में लगती है, वही जागने में लग जाती है।
मैं तुमसे उस शांति को नहीं कहता जो मरघट पर है, मैं तुमसे उस शांति को कहता हूं जो श्रम से अर्जित की जाती है; मर कर नहीं, जो महान रूप से जीवंत होकर उपलब्ध होती है--विधायक।


चौथा प्रश्न:

ऐसा लगता है कि भज गोविन्दम् वानप्रस्थ अवस्था के लिए कहा गया है। लेकिन आप उसे सबके लिए कह रहे हैं!

वानप्रस्थ का अर्थ क्या होता है? वानप्रस्थ का अर्थ होता है: जंगल की तरफ मुंह।
सभी का है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, उस परम एकांत को खोज लेना है, जिसका नाम परमात्मा है। सभी वानप्रस्थ हैं; देर-अबेर सभी को उस परम एकांत में प्रवेश करना है, उस भीतर के वन को खोज लेना है। वानप्रस्थ से कोई शारीरिक उम्र का नाता नहीं है। नहीं तो शंकराचार्य को क्या करोगे? तैंतीस साल में तो वे चल ही बसे। तो तैंतीस साल में--उसके पहले ही वानप्रस्थ भी हो गए, संन्यस्त भी हो गए।
तुम होशियार हो। होशियारी ही तुम्हारा दुख है। तुम चालाक हो। तुम कहते हो, यह तो बूढ़ों के लिए है। वानप्रस्थ के लिए, यानी जब संसार में कुछ करने योग्य बचेगा ही नहीं--कि जब लोग ही तुम्हें जबरदस्ती रिटायर कर देंगे; तुम चिल्लाते ही रहोगे कि अभी कहां भेज रहे हो और लोग ही तुम्हारी अरथी बांधने लगेंगे--तब तुम सोचते हो कि भज गोविन्दम् करोगे? लोग मरते दम तक भी छोड़ना नहीं चाहते। मर कर भी नहीं छोड़ना चाहते!
लंदन में एक मेडिकल कालेज है, जिसमें एक आदमी की लाश रखी है। दो सौ साल पहले उस आदमी ने कालेज को दान दिया था। और दान के साथ वह यह शर्त कर गया कि जब तक जिंदा रहूंगा, तब तक तो ट्रस्टियों के बोर्ड की अध्यक्षता करूंगा ही--मरने के बाद भी! तो जब भी ट्रस्टियों के बोर्ड की अध्यक्षता होती है, उसकी लाश चेयरमैन की जगह बैठी रहती है--अभी भी। मर कर भी नहीं लोग वानप्रस्थ होते, तुम तो जिंदा की पूछ रहे हो! वह अभी भी प्रिसाइड करता है; अभी भी अध्यक्ष वही रहता है; और अभी भी ट्रस्टियों को खड़े होकर कहना पड़ता है--अध्यक्ष महोदय! तब वे दूसरों से कुछ कह पाते हैं। वह ट्रस्ट डीड है, उसको बदला भी नहीं जा सकता। वह कानूनन उसका हक है। लाश में से सब निकाल दिया गया है, भूसा भर दिया गया है, लेकिन बैठे हैं! भूसा भरा है, लेकिन पद को पकड़े हुए हैं!
वानप्रस्थ तो तुम होना ही नहीं चाहते। वह तो मन में बड़ी पीड़ा लगती है--वानप्रस्थ! संन्यस्त! ये सब आखिरी बातें हैं; अंत में कर लेंगे।
अंत में जिसने करना चाहा, वह कभी न कर पाएगा; अभी जिसने करना चाहा, वही कर सकता है। अभी के अतिरिक्त कोई समय भी नहीं है। और छोटी-छोटी बातें बाधा डाल देती हैं।
कल ही एक मित्र ने आकर कहा--संन्यास लेकर गए थे--पत्नी गेरुआ वस्त्र नहीं पहनने देती; माला नहीं पहनने देती। और वे राजी हो गए! उनकी हालत देख कर मैंने भी कहा कि अब ठीक है, अब जब पत्नी से ही हार गए तो अब और किससे जीतने की तुम सोचते हो?
जरा सा भी संघर्षण, जरा सी चुनौती--और आदमी बस चारों खाने चित्त है।
मैं तुमसे कह रहा हूं कि अभी समय है--और केवल अभी समय है! समय किसी और ढंग में आता ही नहीं। अगर तुम इस क्षण का उपयोग कर सको, और तुम्हारी चेतना वन की तरफ उन्मुख हो सके--वन तो प्रतीक है--एकांत की तरफ उन्मुख हो सके, परमात्मा की तरफ उन्मुख हो सके, तो संन्यास का फल लगेगा।
वानप्रस्थ तैयारी है संन्यस्त होने की। संसार की तरफ पीठ हो जाए; संसार में धीरे-धीरे रस खो जाए; सुख हो कि दुख संसार का, बराबर मालूम होने लगे; जीतो कि हारो, कोई फर्क न रह जाए--तुम वानप्रस्थ हो गए।
इसका शारीरिक उम्र से कोई भी संबंध नहीं है, इसका तुम्हारी मानसिक प्रौढ़ता से संबंध है; यह मानसिक उम्र की बात है। कई लोग हैं, जो अस्सी वर्ष की उम्र में भी, मानसिक उम्र उनकी आठ-दस साल से ज्यादा नहीं होती। और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आठ-दस साल के बच्चे में भी अस्सी साल की मानसिक उम्र होती है। यह तो चेतना की त्वरा और तीव्रता पर निर्भर है।
शंकराचार्य ने दस वर्ष की उम्र में जो वचन बोले, वे लोग सौ वर्ष की उम्र में नहीं बोल पाते। शंकराचार्य ने दस वर्ष की उम्र में उपनिषदों की जो परिभाषा की, वह सौ वर्ष का आदमी भी नहीं कर पाता। यह तो त्वरा की बात है, तीव्रता की बात है, सघनता की बात है।
अपने प्राण को पूरा जगाओ और अपनी पूरी शक्ति को उंडेल दो, तो तुम पाओगे इसी क्षण वानप्रस्थ हो गया, इसी क्षण संन्यस्त हो गया। लेकिन अगर तुम भागते रहे और बचते रहे और टालते रहे और स्थगित करते रहे कि कल देख लेंगे--आज सिनेमा देख लें, कल मंदिर हो आएंगे। अगर स्थगित ही करना हो तो सिनेमा को कर दो, बुढ़ापे में देख लेना। सिनेमा ही है, बुढ़ापे में देख लेना। लेकिन परमात्मा को तुम बुढ़ापे के लिए स्थगित कर रहे हो। जवानी तुम संसार को देते हो, बुढ़ापा परमात्मा को! तुम्हारे देने से पता चलता है कि मूल्य किसका है। जवानी तुम व्यर्थ को देते हो और बुढ़ापा परमात्मा को! जब शक्ति होती है तब तुम गलत करते हो और जब शक्ति नहीं होती तब तुम कहते हो कि अच्छा करेंगे। जब करने को ही कुछ नहीं बचता, तब तुम कहते हो कि अच्छा करेंगे। जब मरने लगते हो, तब तुम कहते हो समर्पण। और जब तक तुम पकड़ सकते थे, तब तक तुमने कभी समर्पण की बात न सोची। तुम किसे धोखा दे रहे हो? इसलिए तो शंकर कहते हैं, आंख के अंधे। तुम किसे धोखा दे रहे हो?
जब तक शक्ति है, तब तक करो स्मरण; क्योंकि स्मरण के लिए महाशक्ति की जरूरत है। उससे बड़ा कोई कृत्य नहीं है; वह तुम्हारी समग्रता को मांगता है; वह तुम्हारे रोएं-रोएं, श्वास-श्वास को मांगता है। जब तुम्हारे हाथ-पैर जीर्ण-जर्जर हो जाएंगे, लाठी टेक कर चलने लगोगे, आंख से दिखाई न पड़ेगा, तब तुम स्मरण करोगे? तब तुमसे गोविन्द की आवाज भी न निकलेगी; तब तुम्हारा कंठ भी अवरुद्ध हो गया होगा; तब तुम कहोगे भी मुर्दा-मुर्दा; वह परमात्मा तक पहुंचेगा?
त्वरा चाहिए; बाढ़ चाहिए; जीवन की पूरी ऊर्जा को दांव पर लगा देने की हिम्मत, तैयारी चाहिए। वह आज ही हो सकता है।
जिस दिन तुम्हें समझ आ जाए, उसी दिन वानप्रस्थ।


आखिरी प्रश्न:

ब्रह्म में रमण करने वाला क्या सचमुच भोग में रत हो सकता है, अथवा वह उसका अभिनय करता है?

ब्रह्म में रमण करने वाला ही केवल भोग में रत होता है। वही केवल भोगता है परम आनंद को। वही भोगता है, बाकी सिर्फ धोखे में हैं कि भोग रहे हैं। बाकी तो खोटे सिक्के ढो रहे हैं; भोग के नाम पर दुख भोग रहे हैं। तुम्हारे भोग को अगर सार-संक्षिप्त में कहा जाए तो दुख। वही तुमने भोगा है, और क्या भोगा है? कहते तुम हो कि हम सुख भोग रहे हैं। भोगते तुम दुख हो।
ब्रह्मज्ञानी ही केवल भोगता है। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः! जिन्होंने त्यागा, उन्होंने ही भोगा। वह परमात्मा को भोगता है। तुम क्षुद्र को भोग रहे हो और क्षुद्र को भोग कर महादुख पा रहे हो।
रामकृष्ण के पास एक दिन एक आदमी आया और उनके चरणों में उसने बहुत से रुपये रखे। रामकृष्ण ने कहा, ले जा भाई। उस आदमी ने कहा कि आप महात्यागी हैं--इसका और एक सबूत मिला। रामकृष्ण कहने लगे, महात्यागी तू है, हम नहीं। क्योंकि हम तो परमात्मा को भोग रहे हैं, तू छोड़ रहा है; तू धन बटोर रहा है, हम परमात्मा बटोर रहे हैं--त्यागी कौन है और भोगी कौन है? भोगी हम हैं, त्यागी तू है।
कंकड़-पत्थर जो बीन रहा है और हीरों को छोड़ रहा है, उसको भोगी कहोगे या त्यागी? व्यर्थ को जो सम्हाल रहा है और सार्थक को गंवा रहा है, उसको ही त्यागी कहना चाहिए।
ब्रह्म-रमण परम भोग है। वह जीवन के परम आनंद में प्रवेश है। उससे बड़ा फिर कोई आनंद नहीं। उसके अतिरिक्त सब दुख है।
इसलिए तुम यह तो पूछो ही मत कि ब्रह्म में रमण करने वाला क्या सचमुच भोग में रत हो सकता है? तुम्हारे भोग में रत नहीं हो सकता, क्योंकि तुम्हारा भोग भोग ही नहीं है। वह भोग में ही रत है, लेकिन उसका और ही भोग है। उस भोग को जानने के लिए तुम्हें तुम्हारा अपना भोग खोना पड़े, होश जगाना पड़े। तुम सपने में हो अभी, भोगा तुमने कुछ भी नहीं है, केवल भोग के सपने देखे हैं। ब्रह्मज्ञानी को सत्य का भोग उपलब्ध हुआ है, परमभोग उपलब्ध हुआ है।

आज इतना ही।





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