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मंगलवार, 14 अगस्त 2018

क्या सोवै तू बावरी-(प्रवचन-02)

क्या सोवै तू बावरी-प्रवचन-दूसरा 

दिनांक २४ फरवरी, १९६९; के. ई. एम. हास्पिटल, बंबई. 
मेरे प्रिय आत्मन् ,
एक परिवार में मैं मेहमान था। उस परिवार के द्वार पर ही एक पक्षी को, एक सुंदर पक्षी को पिंजड़े में बंद रखा गया। उस पिंजड़े की कांच की दीवालें थीं। शायद उस पक्षी को पता भी नहीं होगा कि उसके और दुनिया के बीच में कोई दीवाल है! कांच की दीवाल तो ट्रांसपेरेंट थी। उसके पार दिखाई पड़ता था। और इसीलिए पक्षी को शायद पता भी नहीं चलता हो कि उसे और आकाश को रोकने वाली कोई बीच में, कोई बाधा है।
शायद बहुत बार उसने अपनी कांच की दीवाल को चोंचें मारी होंगी, पंखे फड़फड़ाए होंगे, फिर धीरे-धीरे कोई मार्ग न देख कर उसने वह भी छोड़ दिया होगा। और वर्षों तक बंद रहने के बाद शायद अब उसे यह भी पता नहीं होगा कि उसके पंख का उपयोग क्या है। वर्षों तक जो पक्षी उड़ा न हो, उसे कैसे याद रह सका होगा कि मेरे पंख उड़ने के लिए हैं। वह पक्षी अपने पंखों को बोझ समझता होगा व्यर्थ--जिनका कोई प्रयोजन नहीं; जिनका कोई उपयोग नहीं; जो कभी-कभी पिंजड़े में चलने-फिरने में बाधा बन जाते होंगे।

उस पक्षी को अपने पंख बोझ मालूम पड़ते होंगे, जो पंख कि आकाश में उठा सकते थे! लेकिन वह पक्षी कभी आकाश में उठा नहीं था। उसे आकाश भी है--उड़ने के लिए एक मुक्त खुला आकाश भी है; बादलों के पार उठने की क्षमता भी है; सूरज के प्रकाश में नाचने की मुक्त, सारी सीमाओं को तोड़ कर उड़ने की स्वतंत्रता भी है--ये सारे खयाल ही उस पक्षी को उठने बंद हो गए होंगे।
मैं उस पक्षी को देख कर यह सब सोचने लगा और तब मुझे खयाल आया कि आदमी भी ऐसी ही ट्रांसपेरेंट दीवालों में बंद है। अगर दीवालें पत्थर की हों, तो आदमी उन्हें तोड़ने की कोशिश कर सकता है; क्योंकि पत्थर की दीवाल के पार देखना मुश्किल हो जाता है। लेकिन दीवालें अगर कांच की हों, तो पता भी नहीं चलता है कि दीवालें हैं; और ऐसा मालूम होने लगता है--यही है अस्तित्व।
आदमी भी कांच की दीवालों में बंद जी रहा है--एनकैप्सूल्ड है; जैसे कांच के कैप्सूल के भीतर बंद है। यह कांच की दीवाल विचारों से निर्मित है। विचार बहुत पारदर्शी हैं। उनके पार दिखाई पड़ता है, जैसे कांच के पार दिखाई पड़ता है। लेकिन जैसे कांच रोक लेता है उड़ने से, वैसे ही विचार भी उड़ने से रोक लेते हैं।
मनुष्य को समझने के लिए सबसे पहला तथ्य यह समझ लेना जरूरी है कि मनुष्य के जीवन में जो चीजें सहयोगी होती हैं, एक सीमा पर जाकर वे ही चीजें बाधक हो जाती हैं। अगर कोई आदमी सोचे भी, विचार भी करे, तो भी इस महत्वपूर्ण तथ्य का एकदम से दर्शन नहीं होता है। क्योंकि हम सोचते हैं, जो सहायक है, वह कभी बाधक नहीं होगा। लेकिन हर सहायक चीज एक सीमा पर बाधक हो जाती है।
अगर कोई आदमी किसी मकान की सीढ़ियां चढ़ता हो, सीढ़ियां बिना चढ़े वह मकान के ऊपर नहीं पहुंच सकता है। लेकिन अगर सीढ़ियों पर ही रुक जाए, तो भी मकान के ऊपर नहीं पहुंच सकता है। सीढ़ियां चढ़ाती भी हैं, रोक भी सकती हैं।
कोई आदमी नाव से नदी पार करे। अगर नाव पर सवार न हो, तो नदी के पार नहीं जा सकता है; लेकिन नाव पर ही सवार रह जाए, तो भी नदी के पार नहीं जा सकता। एक किनारे पर नाव पकड़ लेनी पड़ती है, दूसरे किनारे पर छोड़ देनी पड़ती है। नाव को पकड़ने और छोड़ने की दोनों क्षमता हो, तो ही आदमी नदी पार होता है।
जीवन के सारे साधन एक सीमा पर पकड़ने और दूसरी सीमा पर छोड़ देने पड़ते हैं। विचार ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है--विज्ञान दिया है, साहित्य दिया है, काव्य दिया है। विचार ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है, लेकिन एक सीमा पर जाकर विचार भी कैप्सूल बन जाता है और आदमी को जकड़ लेता है। और जो आदमी विचारों में बंद रह जाता है, वह परम सत्य को, वह जो अल्टिमेट ट्रुथ है, वह जो जीवन का चरम सत्य और आनंद है, उसे जानने से वंचित रह जाता है।
विचार को पकड़ना जरूरी है और छोड़ देना भी।
मैंने सुना है: दो भिक्षु एक नदी के पास से यात्रा करते थे। उन दोनों भिक्षुओं में उस संध्या एक विवाद चलता था। उन भिक्षुओं में एक की ऐसी मान्यता थी कि पैसे पास नहीं रखने चाहिए, पैसे व्यर्थ हैं। दूसरे भिक्षु की मान्यता थी कि पैसे पास जरूर रखने चाहिए, लेकिन पैसों को पकड़ नहीं लेना चाहिए; पकड़ना व्यर्थ है।
वे दोनों विवाद करते हुए संध्या जब सूरज डूब गया, एक नदी के तट पर पहुंचे, जिसे उन्हें पार करना था। वह जो भिक्षु कहता था, पैसे पास रखना व्यर्थ है, उसके पास पैसे नहीं थे कि वे उस छोटी नाव में सवार हो जाएं और नदी के पार चले जाएं। उसका मित्र कहने लगा, "अब क्या होगा, कैसे नदी पार करोगे, क्योंकि पैसे रखना व्यर्थ है। लेकिन मेरे पास पैसे हैं, और प्रमाणित होता है कि पैसे जरूरी हैं!' उस दूसरे मित्र ने पैसे दिए, वे दोनों नदी पार कर गए। जैसे ही वे नदी पार हुए, जिसने पैसे दिए थे, उसने कहा, "देखा, पैसे थे, तो हम पार हुए!' लेकिन उसका दूसरा मित्र हंसने लगा और उसने कहा, "तुम कहते हो पैसे थे, इसलिए पार हुए। और मैं कहता हूं तुम पैसे छोड़ सके, इसलिए हम पार हुए! अगर पैसे न छोड़ते, तो पार होना मुश्किल था।' "पैसों का होना काम नहीं आया', उसका मित्र कहने लगा, "उनका छोड़ना काम आया!'
लेकिन पैसे हों, तभी छोड़े जा सकते हैं।
अब यह बड़े मजे की बात है कि पैसे का उपयोग यह है कि वह छोड़ा जा सके। लेकिन लोग पैसे को पकड़ लेते हैं, और तब पैसे का उपयोग व्यर्थ हो जाता है। विचार का भी उपयोग यह है कि वह छोड़ा जा सके, लेकिन लोग विचार को पकड़ लेते हैं, और तब विचार दीवाल बन जाता है और आदमी को रोक लेता है।
यह ध्यान रहे--जीवन बहुत बड़ा है, विचार बहुत छोटे हैं। जीवन बहुत विराट है, विचार बहुत क्षुद्र है। विचार हम करते हैं। हमारी सीमा ही विचार की सीमा भी है। हम असीम नहीं हैं। जगत असीम है। वह जो है, वह अनंत है। उसका न कोई प्रारंभ है, न कोई समाप्ति है। हम पैदा होंगे और मर जाएंगे। एक क्षण हमारा जन्म है और एक क्षण हमारी समाप्ति है। छोटी-सी इस छोटे-से घेरे में हमारी समझ है। इस छोटी-सी समझ को अगर हम सत्य समझ लें, तो हमने अपनी आत्मा के पक्षी को बंद कर दिया--ऐसी दीवालों में कि धीरे-धीरे वह भूल ही जाएगा कि उड़ना क्या है!
केवल वे ही लोग उड़ सकते हैं अंतर के अंतरिक्ष में, भीतर के आकाश में, जो विचार को छोड़ने की क्षमता रखते हैं। लेकिन छोड़ वही सकता है, जिसके पास विचार हो।
मैंने सुना है, एक स्टेशन पर बहुत विवाद चलता था। एक मित्र था, वे हरिद्वार की यात्रा करने को उस स्टेशन पर इकट्ठे हुए थे और वह मित्र कह रहा था कि "मैं ट्रेन में नहीं सवार होऊंगा, क्योंकि मुझे हरिद्वार जाना है।' उन लोगों ने कहा, "अगर हरिद्वार जाना है, तो ट्रेन में सवार होना पड़ेगा। अगर ट्रेन में सवार नहीं होते हैं, तो हरिद्वार नहीं पहुंचिएगा।' वह मित्र कहने लगा, "फिर ट्रेन से उतरना तो नहीं पड़ेगा?' उन लोगों ने कहा, "उतरना भी पड़ेगा।' वह मित्र कहने लगा, "जिस ट्रेन से उतरना पड़ेगा, उसमें चढ़ना ही क्यों? जब उतरना ही है, तो चढ़ना फिजूल है।'
उसका तर्क, उसका लॉजिक, उसका आर्ग्युमेंट तो ठीक था कि जिस चीज से उतर ही जाना है, उसमें चढ़ने का कष्ट क्यों उठाना!
लेकिन मित्र कहने लगे कि ट्रेन जाने के करीब हो गई, सारे पैसेंजर बैठ गए हैं और हर आदमी यही चिल्ला रहा है कि "जल्दी चढ़ो। गाड़ी छूट जाने को है। सामान भीतर रखो।' मित्रों ने जबरदस्ती घसीट कर उसे भीतर कर लिया, क्योंकि उन्हें जाना था और तर्क करने का मौका नहीं था।
जिन्हें कहीं भी जाना है, उनके पास तर्क करने का मौका नहीं होता। जिन्हें कहीं भी नहीं जाना है, वे मजे से तर्क कर सकते हैं। खींच कर जबरदस्ती उसे भीतर कर लिया है। वह चिल्ला रहा है कि "फिर देखो, अगर भीतर मुझे ले गए तो मैं उतरूंगा नहीं। क्योंकि जिस चीज में मैं चढ़ जाता हूं, फिर उतरने की जरूरत नहीं मानता, नहीं तो चढ़ता ही नहीं हूं।'
फिर हरिद्वार पर उपद्रव शुरू हो गया। मित्र समझा रहे हैं कि उतरो। वह आदमी कह रहा है  जब चढ़ा था, तो उतरूं क्यों? वह आदमी बात तो ठीक ही कहता मालूम पड़ता है। जहां से उतरना है, वहां चढ़ना क्यों? और जब चढ़ ही गए, तो फिर उतरने की बात क्या है?
लेकिन वह आदमी पागल दलील दे रहा है। जिंदगी बहुत अदभुत है। यहां चढ़ना भी है और उतरना भी है--तभी कहीं पहुंचना होता है।
कुछ लोग सोचते हैं कि जब विचार छोड़ देना है, तो विचार करने की जरूरत क्या है? विचार ही मत करो। तो आदमी मूढ़ रह जाता है। तो आदमी जड़ रह जाता है। वे जो नहीं विचार करते हैं, वे जड़ रह जाते हैं, उनका कोई विकास नहीं होता वे सीढ़ी पर पैर ही नहीं रखते। लेकिन वे शास्त्रों में से उल्लेख बताएंगे कि देखो, शास्त्रों में लिखा है--विचार छोड़ दो, तर्क छोड़ दो। जिस चीज को छोड़ने के लिए लिखा है, हम उसे करते ही नहीं। न हम तर्क करते हैं, न विचार करते हैं--हम तो विश्वास करते हैं, क्योंकि विश्वास करने में न विचार करना पड़ता है, न तर्क करना पड़ता है।
लाखों लोग विश्वास में जकड़ कर मर जाते हैं, लेकिन कुछ लोग हिम्मत करते हैं विचार करने की। वे कहते हैं हम विचार करेंगे, क्योंकि जो हमें ठीक नहीं दिखाई पड़ता, उसे हम कैसे मान सकते हैं। हम तर्क करेंगे, हम बुद्धि का विकास करेंगे। ऐसे सारे लोग बहुत विचार करते हैं, और फिर धीरे-धीरे विचार से पकड़ जाते हैं और विचार में ही समाप्त हो जाते हैं। विश्वास करने वाला भी समाप्त हो जाता है, क्योंकि सीढ़ी पर नहीं चढ़ता, और सिर्फ विचार करने वाला भी समाप्त हो जाता है, क्योंकि सीढ़ी पर ही रुक जाता है।
प?ूरब के मुल्कों ने पहला काम करके अपने को नष्ट कर लिया है--विश्वास करके। इसलिए पूरब में विज्ञान का जन्म नहीं हुआ। विज्ञान का जन्म न होना पूरब की हत्या हो गई। कोई साइंस विकसित नहीं हो सकी, क्योंकि विचार के बिना विज्ञान कैसे पैदा होगा? जब हम सोचेंगे ही नहीं, तो जीवन के तथ्यों का उदघाटन कैसे होगा? पूरब ने कहा कि विचार में तो आदमी कैद हो जाता है, इसलिए हमें विचार नहीं करना। और विचार नहीं करने के कारण पूरब कैद हो गया--विश्वास में, अंधी श्रद्धा में, सुपरस्टीशन में। जो लोग भी पूरब में पैदा हुए हैं वे चाहे ऊपर-ऊपर कितना ही विचार करने लगें, भीतर उनके अंधविश्वास मौजूद रहता है।
मैं अभी एक डाक्टर के घर मेहमान था कलकत्ते में। सांझ निकलता हूं, वे मुझे लेकर किसी मीटिंग में जाते हैं, और उनकी लड़की को छींक आ गई। और डाक्टर मुझसे कहते हैं, "रुक जाइए, दो मिनट रुक जाइए।' मैंने उनसे कहा, "तुम्हारी लड़की का छींक आना और मेरे रुकने का क्या संबंध हो सकता है? तीन काल में कोई भी संबंध नहीं। और तुम्हारी लड़की की छींक से अगर मुझे रुकना पड़े तो सबको रुकना पड़ेगा, क्योंकि छींक तो घट गई है सारी पृथ्वी पर, सारे अंतरिक्ष में। सब चांदत्तारों को ठहर जाना चाहिए, क्योंकि फलां डाक्टर की लड़की को छींक आ गई है! कुछ भी नहीं रुकेगा। और फिर तुम तो भलीभांति जानते हो--तुम डाक्टर हो कि छींक क्यों आती है!' वे बोले, "वह मैं सब जानता हूं, लेकिन दो क्षण रुक जाने में हर्ज क्या है?'
वह भीतर से पूरब का आदमी बोल रहा है, जो विश्वास करता है। वे पश्चिम से शिक्षा लेकर लौटे हैं। यूरोप में सात वर्ष रहे हैं, लेकिन वह सारी शिक्षा ऊपर रह गई। वह भीतर जो पूरब का आदमी है, जो कहता है: विचार नहीं करना चाहिए, वह मौजूद है। वह नहीं छूट रहा है पीछा। वह मौजूद रहेगा।
हमारा श्रेष्ठ से श्रेष्ठ विचारक भी विचारक नहीं है। कहीं न कहीं थोड़ी गहराई में जाने पर पता चलेगा कि अंधविश्वास शुरू हो गया। थोड़ी-बहुत देर तक हाथ तड़फड़ाएगा, फिर आखिर में कहेगा कि विश्वास ही ठीक है। विचार करने से क्या फायदा? और हमें इस तरह की बातें बहुत अपील करती हैं।
गांधी जी हमारे बीच थे। वे हमेशा यह कहेंगे कि मेरी अंतर्वाणी कह रही है कि यही सच है। अब यह विचार करने से बचने की तरकीब है। आपकी अंतर्वाणी कहे कि सच है, और दूसरे की अंतर्वाणी कह रही है कि यह सच नहीं है। फिर कैसे तय होगा? हिंदुस्तान में चालीस करोड़ लोग हैं। हर एक आदमी की अंतर्वाणी कह सकती है कुछ और। जिन्ना की अंतर्वाणी दूसरी बात कहती है, और जिन्ना भी मानता है कि ईश्वर ही बोल रहा है मेरे भीतर। और गांधी की अंतर्वाणी दूसरी बात कहती है; और गोडसे की अंतर्वाणी तीसरी बात कहती है। कौन की अंतर्वाणी सच है?
विचार किए बिना तय नहीं हो सकता। लेकिन जितने लोग भी अंधश्रद्धा को भीतर पकड़े बैठे हैं, वे कहेंगे कि "नहीं; इसमें विचार करने की जरूरत नहीं है; यह ईश्वर की आवाज है। हमें जो मालूम हो रहा है, वह बिलकुल ठीक है।' विश्वास करने वाला विचार करने को राजी नहीं है। सिर्फ घोषणा करता है कि यही ठीक है।
मैंने सुना है, बगदाद में एक बार ऐसा हुआ कि एक आदमी ने आकर घोषणा कर दी कि मैं पैगंबर हूं। बगदाद के खलीफा ने उसे पकड़ लिया और कहा कि यह आदमी पागल है, क्योंकि मुहम्मद अंतिम पैगंबर हैं; अब उनके बाद कोई पैगंबर नहीं होगा। अब जरूरत भी नहीं है। जब मुहम्मद ने सब बातें भगवान की खोल ही दीं, तो अब किसी और दूसरे आदमी को पैगंबर होने की क्या आवश्यकता है?
उस आदमी को पकड़ कर कैद में डाल दिया। उसे कोड़े मारे गए, हाथ में जंजीरें डाल दीं। पंद्रह दिन बाद बगदाद का खलीफा उससे मिलने गया और कहा कि "अगर दिमाग ठीक हो गया हो, तो कह दो कि मैं एक साधारण आदमी हूं, अन्यथा पंद्र्रह दिन बाद मौत रास्ता देख रही है।'
उस आदमी ने कहा, "दिमाग! मजबूत हो गई है यह बात कि मैं पैगंबर हूं; क्योंकि जब मैं भगवान के पास से चलने लगा, तो उन्होंने कहा कि ध्यान रखना मित्र, पैगंबरों पर बड़ी मुसीबतें आती हैं। तुम्हारी मुसीबतों से सिद्ध हो गया कि मैं पैगंबर हूं। यह तो सदा से होता रहा है कि जब भी भगवान के दूत पृथ्वी पर आते हैं, तो हथकड़ियां डाली जाती हैं कोड़े मारे जाते हैं। और अगर तुमने मुझे फांसी दे दी, तो उससे बिलकुल पक्का ही हो जाएगा; उससे तो सिद्ध हो जाएगा कि मैं पैगंबर हूं!'
खलीफा बहुत हैरान हुआ। वह चौंक कर सुनने लगा। तभी पीछे सीकचों में बंद एक दूसरा आदमी चिल्लाया कि "यह आदमी गलत बोल रहा है, खलीफा!' वह भी बंद था। उसके हाथों में भी जंजीरें थीं। वह छह महीने पहले पकड़ा गया था। उस आदमी ने चिल्लाया कि "पैगंबर जो कह रहा है अपने को, बिलकुल झूठ बोल रहा है सरासर क्योंकि मैंने मुहम्मद के बाद किसी को पैगंबर बना कर भेजा ही नहीं।'
वे छह महीने पहले पकड? गए थे। उनको खुद ईश्वर होने का खयाल था! वे खुद ईश्वर ही थे! "यह आदमी गलत कहता है। मैंने तो मुहम्मद के बाद किसी को पैगंबर बनाया नहीं।'
अब कौन तय करेगा इन अंतर्वाणियों को कि ये आदमी पागल हैं!
जिंदगी विचार से चलती है। विचार कसौटी है। इसलिए पश्चिम के लोगों ने विश्वास को छोड़ दिया कि उससे कोई अर्थ नहीं है। वह जकड़ लेता है विचार करो। विचार से विज्ञान पैदा हुआ। विचार से तर्क पैदा हुआ। विचार से सारी अंध-श्रद्धाएं टूट गईं पश्चिम की। लेकिन अदभुत घटना घट गई कि जितना विश्वास में आदमी बंधा था, उतना ही विचार में बंध गया। बंधन बदल गए। बंधन खत्म नहीं हुआ। कड़ियां बदल गईं। अंधविश्वास की जंजीरों की जगह विचार की जंजीरें आ गईं।
पश्चिम में विश्वास छोड़ दिया, तो विज्ञान पैदा हुआ। पूरब के मुल्क मर गए इसलिए कि विज्ञान पैदा नहीं कर पाए, और पश्चिम के मुल्क मरने के करीब पहुंच गए हैं, क्योंकि विज्ञान बहुत पैदा हो गया। पश्चिम मरेगा विज्ञान की अति से, पूरब मरा विज्ञान के अभाव से। पूरब मरा विश्वास से, पश्चिम मर जाएगा विचार से।
क्या कोई तीसरा रास्ता नहीं है? मनुष्य का भविष्य तीसरे रास्ते पर। पूरब भी असफल हो गया है--पश्चिम भी। विश्वास भी असफल हो गया, विचार भी। धर्म भी असफल हो गया, विज्ञान भी। क्या कोई तीसरा रास्ता है?
दो महायुद्धों ने बता दिया है कि विज्ञान बुरी तरह असफल हो गया है। ऐसी जगह जाकर छोड़ दिया जहां आदमी के मरने के सिवाय कोई उपाय नहीं सूझता। हिरोशिमा और नागासाकी ने खबर दे दी कि विज्ञान असफल हो गया। अकेला विज्ञान काफी नहीं है। और हिंदुस्तान जैसे गुलाम और दरिद्र लोगों ने खबर दे दी बहुत पहले अकेला धर्म काफी नहीं है। धर्म असफल हो चुका है।
लेकिन क्या यह नहीं हो सकता कि एक सीमा पर विचार हो और एक सीमा पर विचार छोड़ दिया जाए? यह हो सकता है। यह जो थर्ड अल्टरनेटिव, जिसको मैं कहता हूं, "तीसरा विकल्प', वह विश्वास और विचार में चुनाव नहीं करता। वह कहता है, विचार एक सीढ़ी है और निर्विचार भी एक सीढ़ी है। विचार से चढ़ना है और एक जगह जाकर विचार छोड़ देना है। और जो आदमी इस कला को नहीं सीख लेता, उस आदमी को जीवन की गहराइयों-ऊंचाइयों का कोई भी पता नहीं चलता है।
अगर तुम एक गुलाब के फूल के पास जाओ और विचार ही न करो, तो तुम्हें गुलाब के फूल का कोई पता नहीं चलेगा। तुम उसके पास से ऐसे निकल जाओगे, जैसे फूल था ही नहीं। क्योंकि आदमी को सिर्फ उसी का पता चलता है, जिसका वह विचार करता है। फूल का होना ही पता नहीं चलेगा। हमें तो पता ही वही चलता है, जो हमारे भीतर विचार बन जाता है। विचार बनता है, इसलिए पता चलता है। अगर फूल का हमारे मन में कोई विचार न बने, तो हमें फूल का कोई पता नहीं चलेगा।
बहुत से लोग फूल के पास से ऐसे ही गुजर जाते हैं, उन्हें फूल का पता नहीं चलता। फूल का विचार ही उनके भीतर निर्मित नहीं होता है। जैसे फूल नहीं था--वे ऐसे ही गुजर जाते हैं। हजारों लोग--हममें से भी हजारों ऐसे लोग रात आकाश में चांदत्तारे हैं या नहीं, इनका कोई पता नहीं चलता। हम ऐसे ही गुजर जाते हैं। लेकिन कुछ लोगों को पता चलता है। कुछ लोगों को फूल एकदम पकड़ लेता है--उनके प्राणों को। वे क्षण भर को रुक जाते हैं। फूल का विचार उनके प्राणों पर छा जाता है।
और जो विचार प्राणों पर छा जाता है, प्राण उसी विचार के आनंद को अनुभव कर लेते हैं। अगर फूल का विचार किसी के प्राणों को पकड़ ले, तो फूल में जो भी रस है, फूल में जो भी सुगंध है, फूल में जो भी सौंदर्य है, वह हमारी आत्मा का हिस्सा हो जाता है। क्योंकि विचार से हम जुड़ जाते हैं, कम्युनिकेशन शुरू हो जाता है।
लेकिन जो लोग फूल का विचार करने पर ही रुक जाते हैं, वे भी फूल के पूरे प्राणों को नहीं जान पाते। क्योंकि फूल के संबंध में विचार क्या करिएगा। जो पहले पढ़ा है, सुना है, कविता में सुना है, गीत में सुना है, और लोगों ने कहा है, खुद के अनुभव से आया है--वही सब विचार फौरन आदमी कहता है: "गुलाब का फूल है बहुत सुंदर है।' यह सब पिटी-पिटाई बात हो गई। गुलाब का फूल बहुत दफे कहा जा चुका है। बहुत सुंदर है यह भी बहुत बार कहा जा चुका है। इन शब्दों के कारण पिछले गुलाब के फूल बीच में आ गए। सौंदर्य की धारणा बीच में आ गई और वह जो फूल था, वह उस तरफ रह गया, बीच में एक ट्रांसपेरेंट दीवाल हो गई, विचार की एक दीवाल खड़ी हो गई। यह आदमी ने जैसे ही कहा कि बहुत सुंदर है--यह कहेगा कैसे बहुत सुंदर है--पुराने अनुभव काम करने लगे। इसने पहले भी फूल जाना था, सुंदर लगा था। सुना है, किताब में पढ़ा है, यह कहने लगा। विचार बीच में आ गया। और जब विचार बीच में आ जाता है, तो अनुभव बीच में आ गया। और जो बीच में आ गया उसके पार फूल है। वह जो है। यह फूल पहले कभी नहीं देखा था इसने, यह फूल बिलकुल नया है। इस फूल का इसे कोई भी अनुभव नहीं है। यह फूल एकदम अनूठा है। यह फूल एकदम यूनिक है। क्योंकि दो फूल एक जैसे नहीं होते। इसने जो फूल देखे थे वे दूसरे फूल थे। और उनकी स्मृति, उनकी मेमोरी अगर बीच में आ जाए...।
और शायद आपको पता न हो, स्मृति बड़ी तीव्रता से बीच में आती है। बहुत तीव्रता से बीच में खड़ी हो जाती है।
एक आदमी कल आपको मिला। फूल के संबंध में समझना थोड़ा कठिन हो सकता है। एक आदमी कल आपको मिला और गाली दे गया। आज वह आदमी क्षमा मांगने आपके पास आ रहा है। लेकिन द्वार पर उसको खड़े देख कर आपकी आंखों में कल वाला आदमी खड़ा हो जाएगा, जो गाली दे गया था। बीच में एक प्रतिमा, एक इमेज खड़ी हो जाएगी उस आदमी की, जो गाली दे गया है। उसी इमेज से आप इस आदमी को देखेंगे। जो क्षमा मांगने आया, यह बिलकुल दूसरा आदमी है। क्योंकि गाली देने वाला और क्षमा मांगने वाला, एक ही आदमी नहीं हो सकता। यह बिलकुल और हो गया है। ये रात भर रोया है और आंसू बहाए हैं। लेकिन आपको इसकी फूली हुई आंखें देख कर खयाल में आएगा कि शायद क्रोध से भर कर आया है, गालियों की तैयारी किए हुए है। वह जो कल देखा था, वही बीच में खड़ा हो गया। और तब शायद इसको देखने से आप वंचित रह जाएं। फिर परिचय नहीं हो सकेगा। बीच में एक दीवाल खड़ी हो गई।
विचार न हो, तो फूल नहीं देखा जा सकता। और विचार अटक कर रह जाए, तो भी फूल नहीं देखा जा सकता। विचार होना चाहिए और छूट जाना चाहिए। जब विचार भी छूट जाता है, सिर्फ फूल रह जाता है और आप रह जाते हैं, बीच में कुछ भी नहीं रह जाता, तब फूल की आत्मा और आपकी आत्मा का एक मिलन है। उसे बहुत थोड़े-से लोग ही जान पाते हैं। जो जान पाते हैं, वे हैरान हो जाते हैं कि फूल में कितना छिपा था, जिसका कभी कोई पता नहीं चला। वह नहीं पता चलेगा। जीवन में भी इतना ही बहुत कुछ छिपा है। एक-एक आदमी में भी, एक-एक आंख में भी इतना ही बहुत कुछ छिपा है। लेकिन, या तो हम विचार ही नहीं करते, या विचार ही करते रह जाते हैं और भूल हो जाती है।
आने वाले भविष्य में मनुष्य के शिक्षण की चाहे कोई भी दिशा हो--चाहे कोई मेडिकल कालेज में पढ़ता हो, चाहे कोई इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ता हो, चाहे कोई आर्ट्स कालेज में पढ़ता हो, चाहे कोई कुछ भी पढ़ता हो--दो बातें सिखाई जानी चाहिए: विचार करना और निर्विचार हो जाना। अगर अकेला विचार करना सिखाया, तो आदमी परेशान, अशांत, चिंतित, दुखी, एंग्जाइटि से भरा हुआ हो जाएगा। जैसा कि होता चला जा रहा है।
बर्ट्रेंड रसेल कुछ दिनों के लिए एक आदिवासी गांव में जाकर रहा। नब्बे साल के बूढ़े आदमी ने, नब्बे साल की उम्र में यह कहा कि मैं तो जिंदगी चूक गया। आदिवासियों के बीच रह कर मुझे पता चला कि मैं तो सोच-विचार में जिंदगी गंवा दिया। न मैंने उनकी तरह नाचा, न मैंने उनकी तरह प्रेम, न मैं उनकी तरह खुश हुआ। मैंने तो कुछ भी नहीं किया। मैं सिर्फ विचार करता रहा, लाइब्रेरी में बैठ कर किताब पढ़ता रहा और विचार करता रहा और जिंदगी चूक गई।
जिंदगी जीने से पता चलती है, विचार करने से कहीं पता चलेगी। विचार के कैप्सूल में जो बंद हो गया, वह जिंदगी एक तरफ से निकल जाएगी, वह अपने विचार में बैठा रह जाएगा।
विचार करने वालों को आप देखें, उनके चारों तरफ एक दीवाल है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ रही है। जिंदगी किनारे से गुजरती चली जाएगी, वे अपने विचार में बंद बैठे हुए हैं! आप भी रास्ते से गुजर रहे हों। आपके भीतर एक विचार चल रहा है, फिर आपको रास्ता दिखाई नहीं पड़ता है। विचार भीतर पकड़ लेता है, द्वार सब बंद हो गए।
एक युवक खेलता हो खेल के मैदान पर। पैर में चोट लग गई हो। खून बह रहा हो। लेकिन जब तक खेल रहा है, तब तक पता नहीं चलता। क्योंकि तब तक खेलने का विचार इतने जोर से मन को पकड़े है कि पैर से बहते हुए खून का भी बोध नहीं हो सकता एक दीवाल खड़ी है। अपने ही पैर से खून बह रहा है, उसका भी पता नहीं चलता। खेल बंद हुआ और एकदम से दीवाल टूट गई और उसे पता चलता है कि पैर से खून बह रहा है। और न मालूम कितनी देर से बह रहा है! लेकिन दर्द इतनी देर पहले तक क्यों पता नहीं चला? दर्द पता चलता, अगर विचार की खोल बीच में न होती। वह एनकैप्सूल्ड था, माइंड बंद था, क्लोज था। एक विचार के दौरे में दौड़ रहा है, इसलिए बाहर क्या हो रहा है, पता नहीं चल रहा है।
और हम चौबीस घंटे विचार में बंद हैं, इसलिए जिंदगी के राज, जिंदगी की मिस्ट्री हमें कुछ भी पता नहीं चलती। हम अपने विचार के भीतर ही जिंदगी भर जी लेते हैं।
जैसे मैंने उस पक्षी के लिए बताया कि वह बंद है अपनी दीवाल में और जी रहा है। उसे पता भी नहीं कि एक आकाश है।
विचार के बाहर भी एक आकाश है और बहुत बड़ा आकाश है। यह अगर खयाल में आ सके, और शिक्षा ऐसी हो सके कि हम विचार करना भी सिखाएं और निर्विचार हो जाना भी सिखाएं। आदमी अगर चौबीस घंटे में आठ घंटे सोए, आठ घंटे विचार करे, काम करे--तो आठ घंटे के लिए निर्विचार भी हो जाए। आठ घंटे के लिए छोड़ ही दे विचार करना। हम कहेंगे, ये तो दोनों उलटी बातें हैं! यह तो ठीक बात नहीं है। अगर हम विचार करेंगे तो विचार ही करेंगे, अगर विचार छोड़ेंगे तो बिलकुल छोड़ देंगे। जैसे हिंदुस्तान के साधु-संन्यासी सब छोड़ कर भाग जाते हैं। वे कहते हैं कि हमने सब छोड़ दिया है। वह एक गलती है। पश्चिम के लोग कहते हैं, हम तो विचार ही करेंगे, रात हम सोएंगे भी नहीं। सोते भी नहीं, बिना दवा लिए नहीं सो सकते हैं। न्यूयार्क में तीस प्रतिशत लोग दवा लेकर सो रहे हैं। तीस प्रतिशत बड़ी संख्या है। लेकिन वहां के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सौ साल के भीतर न्यूयार्क में एक भी आदमी बिना ट्रैंक्वेलाइजर के नहीं सो सकेगा। दवा लेनी पड़ेगी।
और अभी महर्षि महेश योगी जैसे लोगों का पश्चिम में जो प्रभाव पड़ता है, उस प्रभाव का धर्म से कोई संबंध नहीं है। उसका कुल संबंध इतना है कि जिन लोगों को नींद नहीं आती, उनको किसी भी ट्रिक से नींद आ जाए, काम पूरा हो जाए। बस नींद आ जाए। और इसलिए पश्चिम में महर्षि महेश योगी का जो ट्रांसेन्डेंटल मेडिटेशन जिसको वे कहते हैं, उसको पश्चिम के लोग क्या कहते हैं? वे कहते हैं--नान मेडिसिनल ट्रैंक्वेलाइजर--बिना दवा के नींद लेने की दवा। बस नींद आ जाए काफी है।
पश्चिम परेशान है, नींद खो गई है। क्योंकि अगर सोलह घंटे तेजी से विचार किया है, तो मस्तिष्क के सारे स्नायु, पूरी की पूरी सिस्टम खिंच गई है। अब रात को वह एकदम से रिलीज़ नहीं होती वह रिलेक्स नहीं होती। वह एकदम तनी रह जाती है। वह रात को भी तनी है। आप सोने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन मस्तिष्क जोर से काम कर रहा है। वह इतने जोर से काम कर रहा है कि नींद आनी असंभव है, और रात भर नींद से लड़ कर--जितना आप लड़ेंगे, उतना ही आना असंभव है; क्योंकि लड़ना और नींद उलटी बातें हैं। अगर सोना हो तो कभी सोने की कोशिश मत करना; क्योंकि कोशिश की कि फिर कभी नहीं सो सकोगे। क्योंकि कोशिश, एफर्ट--तनाव है। और नींद है--नो टेंशन की दशा, तनावरहित।
तो जितनी कोशिश करेगा एक आदमी--राम-राम जपेगा, माला फेरेगा, उठ कर चक्कर लगाएगा, हाथ-पैर धोएगा, सिर पर पानी डालेगा, गर्म बाथ लेगा--उतनी ही नींद मुश्किल होती चली जाएगी। क्योंकि जितनी वह यह कोशिश करेगा, मस्तिष्क उतना काम करेगा; जितना मस्तिष्क काम करेगा, उतनी नींद असंभव हो जाएगी।
पश्चिम के लोगों ने विचार को इस हालत में पहुंचा दिया है कि पश्चिम पागल होने की कगार पर खड़ा हुआ है। और ठीक समझा जाए तो कोई अस्सी प्रतिशत लोग न्यूयार्क जैसे बड़े नगरों में मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं कहे जा सकते। इसलिए अब तुममें से जो लोग भी डाक्टर बनने की कोशिश कर रहे हैं, शरीर के डाक्टर बनने की फिक्र बहुत मत करना। आने वाली दुनिया पागलों की दुनिया होने वाली है। उसमें जितने मन के डाक्टर होंगे; उनके प्रोफेशन के चलने की उम्मीद है। शरीर-वरीर की अब बहुत उम्मीद नहीं है आगे।
तो आज पश्चिम में, खास कर अमरीका में, जहां कि विचार तीव्रतम हो गया है, वहां आज सबसे अच्छा प्रोफेशन तो साइकेट्रिस्ट का, मानसिक चिकित्सक का है। हर दस-पांच घर के बाद तख्ती लगी मिल जाएगी कि यहां मनोचिकित्सक रहते हैं। और मनोचिकित्सा बहुत मंहगी है। तीनत्तीन साल लग जाते हैं एक-एक आदमी को, ठीक होने में नहीं, डाक्टर बदलने में! ठीक-वीक कोई कभी नहीं होता!
यह जो विचार की अत्यंत, तीव्रतम टेंशन की दशा है, यह पूरी सिविलाइज़ेशन को पश्चिम की पागल किए दे रही है। जो लोग जानते हैं, वे कहते हैं--पश्चिम एक मेड हाउस हो गया है। वहां आदमी कोई होश में नहीं मालूम होता है, सब पागल हालत में मालूम पड़ते हैं। हर आदमी दौड़ रहा है, भाग रहा है। इतनी तेजी से भाग रहा है कि फिर एक क्षण को बैठ नहीं सकता। हमारी हालत भी यह होती चली जा रही है। एक आदमी को कुर्सी पर बैठे देखिए, टांगें हिला रहा है बैठकर! यह बैठे-बैठे भी भागने की तरकीबें बता रहा है वह। अब बैठ गए हैं तो बैठ ही जाइए। लेकिन बैठने की कहां फुर्सत है! भीतर तो मन भाग रहा है, वे पैर चल रहे हैं उसके।
आदमी को रास्ते पर गुजरते देखिए--गौर से देखिए किसी आदमी को। हालांकि फुर्सत कहां है! हर आदमी अपने में उलझा है, दूसरे को कैसे गौर से देखे! मैं आपसे कहता हूं, एक पति अपनी पत्नी के साथ बीस साल रह लेता है और गौर से नहीं देखता कि यह औरत है कौन? बीस साल उसके साथ रहेगा, सोएगा, बच्चे पैदा करेगा और उसने कभी भी गौर से नहीं देखा है कि यह औरत है कौन! हां, पहली दफे देखा होगा, फर्स्ट साइट! वह खत्म हो गई बात, उसके बाद कोई नहीं देखता। एक दफे देख लिया, मामला खत्म है।
कोई को किसी को देखने की फुर्सत कहां है, लेकिन कभी रास्ते के किनारे खड़े हो जाकर जरा दस-पच्चीस गुजरते हुए राहगीरों को देखिए, तो पता चलेगा कि उन्हें रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा होगा। कोई अपने होंठ हिलाता हुआ बातें करता चला जा रहा है; कोई हाथ से इशारे कर रहा है। किसके लिए इशारे कर रहा है! वहां कोई भी नहीं है, वह अकेला चला जा रहा है। लेकिन कोई है उसके माइंड में, जिससे वह इशारे कर रहा है, बातें कर रहा है।
यह आदमी अपने में बंद चला जा रहा है। इसको कोई पता नहीं है कि बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है। दुनिया में जो बढ़ते हुए सड़कों पर एक्सिडेंट हैं, उनका कारण मोटर-कारों की रफ्तार नहीं है। उनका कारण अपने-अपने कैप्सूल में बंद लोग हैं, जिन्हें रास्ता दिखाई पड़ते हुए भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। वे भागे जा रहे हैं! उनके भीतर एक रफ्तार चल रही है, वे उसमें उलझे हुए हैं। स्टियरिंग पर उनका हाथ है, लेकिन मस्तिष्क उनका स्टियरिंग पर नहीं है, वह कहीं और है। वह कहीं और लगा हुआ है। यह बिलकुल भगवान के भरोसे भागी जा रही है गाड़ी। यह किस जगह टकरा जाएगी, क्योंकि दूसरी तरफ भी इसी तरह के अपने-अपने में बंद लोग वे भागे चले आ रहे हैं। इसका कोई भरोसा नहीं है कहां टकरा जाएगी।
एक्सिडेंट रोज बढ़ते चले जाते हैं और एक्सिडेंट का कारण मूलतः साइकोलाजिकल है। कोई कारण दूसरा नहीं है। लेकिन यह जो पश्चिम ने सारा उपद्रव खड़ा कर लिया है। अब सब उन्होंने अब उनके पास इतना, इतने खतरनाक अस्त्र इकट्ठे कर लिए हैं कि एक राजनीतिक को रात में नींद न आए और वह एक बटन दबा दे, तो सारी दुनिया को खत्म कर दे। और राजनीतिक वैसे ही आधे पागल होते हैं, उनका कोई भरोसा नहीं है। कभी भी कोई बटन दबा सकते हैं।
तुम्हें पता होना चाहिए कि रूस और अमरीका में जहां उनके पास सुपर बम्स का जो इंतजाम किया है, एक-एक बम के उपयोग के, एक-एक मिसाइल के उपयोग के लिए तीनत्तीन चाबियों का इंतजाम कर रहे हैं, कि तीन आदमी जब तक चाबी न लगाएं--क्योंकि एक आदमी का कोई भरोसा नहीं है कि कौन आदमी गुस्से में आ जाए और चाबी लगा दे। अपनी पत्नी से लड़ कर आ जाए और सोचे कि, खत्म करो इस दुनिया को। हालांकि इसकी भी बहुत कठिनाई नहीं है कि तीन आदमी इकट्ठे अपनी पत्नियों से लड़ कर आ जाएं--यह कठिनाई नहीं है; क्योंकि पत्नियों से सिवाय लड़ने के दूसरा कोई काम होता ही नहीं।
यह जो माइंड इस जगह खड़ा है, जिसने इतना साधन इंतजाम कर लिया है कि सारी दुनिया में आज इसी क्षण आग लग जाए, अभी सब नष्ट हो जाए, वह एक ऐसे आदमी के हाथ में है जो बिलकुल नर्वस है! जिसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या कर रहा है, क्या नहीं कर रहा है!
पश्चिम ने विचार को अति मान कर खतरे पैदा कर लिए हैं, आदमी पागल हो गया है। पूरब ने विचार ही नहीं किया, इसलिए आदमी आदमी ही नहीं हो पाया। वह आदमी के पहले रह गया। हमारी स्थिति प्रिमिटिव है, हमारी स्थिति आदिम है। हम विकसित नहीं हो पाए। और अब जब पश्चिम में इतना तनाव दिखाई पड़ता है, तो हमारे साधु-संन्यासी लोगों को समझाते हैं कि देखो धर्म को छोड़ कर वे लोग कितनी दिक्कत में पड़े हैं। तुम बड़े मजे में हो। अगर कुत्ते-बिल्लियों में कोई पुरोहित होते होंगे, तो कुत्ते-बिल्लियों को समझाते होंगे कि देखो, आदमी कितनी मुसीबत में है, तुम बिलकुल मजे में हो। न हार्ट-डिज़ीज, न कैंसर, कुछ भी नहीं--मजे में हो तुम! यह आदमी देखो कितनी दिक्कत में पड़ा है।
यह बात सच है कि पश्चिम दिक्कत में पड़ा है, लेकिन पश्चिम हमसे आगे पहुंच गया है। उसने सीढ़ी पर कदम रखा है, हालांकि वह सीढ़ी से उतरने को राजी नहीं हो रहा है। यह उसकी कठिनाई है।
हम सीढ़ियों के नीचे ही खड़े हैं। पश्चिम किसी भी दिन सीढ़ी से नीचे उतर जाएगा और वहां ह्यूमैनिटी एक नए युग में प्रवेश कर जाएगी। और हम सीढ़ियों के नीचे खड़े हैं। वहां से कहीं जाने का रास्ता नहीं है। पहले सीढ़ियां चढ़नी पड़ेंगी और फिर छोड़ना पड़ेगा। और हम उनको परेशान देख कर कहते हैं कि हमें चढ़ने की जरूरत क्या है? जब ये ही सीढ़ियों पर पहुंच कर सुख में नहीं हैं, तो हम नीचे ही मजे में हैं। फायदा क्या है? कि हम टेक्नालाजीकल का विकास करें, विचार का विकास करें। जो लोग कर रहे हैं विकास, उनकी हालत बुरी है। तो हम नीचे ही मजे में हैं।
लेकिन यह बात गलत है। क्योंकि वे तनाव की किसी भी स्थिति में तकलीफ में तो पड़े हैं, क्योंकि छोड़ नहीं रहे हैं। तकलीफ में चढ़ने की वजह से नहीं पड़ गए हैं। नहीं छोड़ पा रहे हैं, इसलिए तकलीफ में पड़ गए हैं। किसी भी दिन वे छोड़ सकते हैं। और इसलिए मुझे दिखाई पड़ता है कि मनुष्य-जाति का जो आने वाला चरण है वह पश्चिम में रखा जाएगा, पूरब में नहीं। यह दुखद है बात। वह जो फ्यूचर ऑफ ह्युमैनिटी है, वह पश्चिम के हाथ में चला गया है, वह हमारे हाथ में नहीं है। हम दौड़ के बाहर पड़ गए हैं, और हम खुश हो रहे हैं, और हमारे मंदबुद्धि साधु-संन्यासी लोगों को समझा रहे हैं कि बड़े मजे की बात देखो हम कितने आनंद में हैं; हम रोज रात सो जाते हैं, दवा लेने की जरूरत नहीं पड़ती।
यह बात ठीक है। किसी जानवर को दवा लेने की जरूरत नहीं पड़ती सोने के लिए। लेकिन यह कोई गौरव की बात नहीं है। वे हमसे हायर स्टेज पर खड़े हो गए हैं। ऊंची सीढ़ी पर खड़े हो गए हैं, जहां से, जिस दिन भी उन्होंने अगला कदम उठा लिया, एक बिलकुल नई रेस का जन्म हो जाएगा, हम बिलकुल पिछड़ जाएंगे।
शायद आपको सबको अंदाज है कि हमारा यह जो सौर परिवार है--चांदत्तारों का, सूरज का--इसको बने कोई सात-आठ अरब वर्ष हुए। सूरज को बने कोई पांच अरब वर्ष हुए अंदाजन। क्योंकि इस तरह की दुनिया में सिर्फ अंदाज ही काम कर सकते हैं, कोई निश्चित कुछ हो नहीं सकता। जमीन को बने कोई चार अरब वर्ष हुए। आदमी को बने कोई दस लाख वर्ष हुए। और आदमी की सभ्यता को बने कोई दस हजार वर्ष हुए। दस लाख वर्ष पहले आदमी चार हाथ-पैर से चलता रहा होगा। और आज भी अगर बच्चे को न सिखाया जाए, तो बच्चा शायद ही अपने-आप दो हाथ दौ पैर से चलना शुरू करे; वह चार से ही चलता रहेगा। आज भी अगर बच्चे को न सिखाया जाए, तो वह चार हाथ-पैर से ही चलता हुआ बड़ा हो जाएगा। उसे पता भी नहीं चल सकता है कि दो पैर से चला जा सकता है।
और ऐसा हुआ। अभी बंगाल में कुछ वर्षों पहले दो बच्चियां पकड़ी गईं, जो भेड़ियों ने पाल लीं। आठ-दस साल की बच्चियों को भेड़ियों से छीन कर लाया गया। उनको सीधे खड़ा करना मुश्किल हो गया। वे चार हाथ-पैर से ही चलती थीं। अभी उत्तर प्रदेश में दो वर्ष पहले एक लड़का पकड़ा गया था चौदह साल का--राम। चौदह साल का लड़का है लेकिन खड़ा नहीं हो सकता था। उसकी रीढ़ तो मजबूत हो गई थी। वह तो हाथ-पैर से ही चलता है--चारों से। और इतनी तेजी से भागता है कि कोई आदमी क्या चल सकता है उसके मुकाबले में! उसको सिखाने में छह महीने लग गए। बहुत मसाज और मालिश उसकी रीढ़ की हुई, तब कहीं वह बामुश्किल...लेकिन तब भी जब वह कोशिश करके खड़ा रहे थोड़ी-बहुत देर तो खड़ा रह सकता था, लेकिन जैसे ही भूल जाए, वह फिर चार हाथ-पैर से चलना शुरू कर देता था।
दस लाख वर्ष पहले कुछ आदिम पुरुषों ने--जो वृक्षों पर चारों हाथ-पैर से चलते रहे होंगे--कोई एक इन्वेन्टिव माइंड, कोई एक आविष्कारक नीचे उतर कर दो पैर से खड़ा हुआ होगा। निश्चित ही जो दो पैर से खड़ा हुआ होगा, उसकी जिंदगी में तनाव आ गए होंगे--बजाय उनके जो चारों से चल रहे थे। क्योंकि उसने पुरानी आदत--सारे शरीर की, सारे मन की--तोड़ी थी। उन बंदरों ने जो वृक्षों पर छलांग लगा रहे थे, उन्होंने कहा होगा, "यह देखो पागल, अपने हाथ से मुसीबत में पड़ रहा है! कभी सुना है किसी को दो पैर से चलते हुए! कहीं लिखा है किसी पुराण में! कभी बाप-दादों से सुना है कि कोई दो पैर से चलता है! सदा सब लोग चार पैर से चलते रहे हैं। इसका दिमाग खराब हो गया है।'
हो सकता है कि बाकी बंदरों ने मिल कर उसकी गर्दन दबा दी हो, जैसा कि जीसस की और दूसरों की हम गर्दन दबा कर मार डालते हैं।
लेकिन वही जो दो पैर से खड़ा हो गया था, उसे बड़ी तकलीफ हुई होगी। क्योंकि दो पैर से खड़ा होना इतना अनूठा था, उसके मस्तिष्क पर बहुत जोर पड़ा होगा, बहुत बेचैनी हुई होगी। लेकिन दो पैर से खड़े हो जाने वाले पहले बंदर ने सारी मनुष्य-जाति की नई रेस को जन्म दे दिया। सैकड़ों वर्षों तक दो पैर से जो चले होंगे, वे चार पैर से चलने वालों से हमेशा तकलीफ में रहे होंगे, क्योंकि चार पैर वाले नैसर्गिक चल रहे थे। लेकिन आज हममें और बंदरों में इतना फासला है कि कोई मानने को राजी नहीं होता। चाहे डार्विन कितना ही कहे, कोई मानने को राजी नहीं होता कि ये हमारे पुरखे हैं, हमारे पिता हैं। इतना फासला पड़ गया है।
आज पश्चिम फिर तकलीफ में पड़ा है। और यह तकलीफ शारीरिक नहीं है, बंदरों की तकलीफ शारीरिक रही होगी, यह तकलीफ मानसिक है। माइंड एक जगह पहुंच गया है, एक ट्रांसपेरेंट दीवाल के पास, जहां वह जोर से धक्के मार कर तोड़ने की कोशिश कर रहा है कि दीवाल को तोड़ दें। तोड़ने की जो कोशिश कर रहा है, उसका सिर भी टकरा रहा है, खून भी बह रहा है, नींद भी हराम हो रही है, तकलीफ भी हो रही है। लेकिन दीवाल उसे मालूम पड़ रही है। हम अपना आंख बंद किए राम-राम जप रहे हैं। हम कह रहे हैं, क्यों परेशान हो रहे हो? क्यों परेशान हुए जा रहे हो? हम बड़े मजे में हैं, हमारी तरफ देखो। हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। तुम क्यों परेशान हो रहे हो? लौट आओ वापस!
अगर पश्चिम वापस लौट आया, तो मनुष्य-जाति को एक अदभुत मौका खो जाएगा। इसलिए मेरी तो समझ है कि पूरब के लोगों को, साधु-संन्यासियों को, पश्चिम में बिलकुल ही वर्जित होना चाहिए कि प्रवेश नहीं कर सकते। ये नुकसान पहुंचाएंगे वहां की कौम को। वहां जो हालत पैदा हो गई है, वह बहुत अदभुत है। वे उस जगह खड़े हैं, जहां से मनुष्य के नये रूप का आविर्भाव हो सकता है। वह अगर सिर को टकराए ही चले गए, बहुत लोग पागल हो जाएंगे, बहुत लोग पतित हो जाएंगे। बीटनिक, हिप्पी और बीटल--ये वे लोग हैं, जो सिर टकराने से इनकार कर दिए हैं। जो कहते हैं, हमें नहीं टकराना है। हम इस फिक्र को ही छोड़ते हैं।
लाखों बच्चे कह रहे हैं, हम पढ़ेंगे नहीं--यूरोप में। क्या फायदा है पढ़ने से? जो लोग पढ़-लिख कर खड़े हो गए हैं, उनको क्या मिल गया है? छोटे-छोटे बच्चे अपने बाप से पूछ रहे हैं कि आपको पढ़ने से क्या मिल गया है? हम नहीं पढ़ना चाहते। छोटे-छोटे, हाई स्कूल स्टेज के बच्चे कह रहे हैं कि हम शादी करेंगे, क्योंकि क्या पता कल जिंदगी, युद्ध हो जाए, सब खत्म हो जाए। हमें शादी करनी है। छोटे बच्चे गवर्नमेंट से यह कह रहे हैं कि हमें मैरिज एलाउंस दो, क्योंकि अभी हम कमा नहीं सकते। जब हम कमाएंगे, तब लौटा देंगे, लेकिन शादी हमें अभी करनी है। हम जीना चाहते हैं--हम नहीं पढ़ना चाहते, नहीं लिखना चाहते!
भाग रहे हैं लोग वहां, जहां सिर टकरा रहा है, लेकिन कुछ हिम्मतवर लोग वहां सिर लगाए हुए हैं। वे हिम्मतवर लोग पागल भी हो जाते हैं। नीत्शे पागल हो गया, लेकिन नीत्शे ने दुनिया के, मनुष्य-जाति के इतिहास में बार्डर लैंड पर फिक्र की। वहां, जहां कि आदमी कभी नहीं गया था। वहां जाने की कोशिश की और धक्का दिया दीवाल को तोड़ने का। दीवाल बहुत मजबूत है, लाखों साल की बनी हुई है। खुद का सिर फूट गया उसका, वह पागल हो गया।
हो सकता है पश्चिम में सौ-दो सौ वर्षों में बहुत लोग पागल हों, लेकिन अगर एक आदमी भी उस दीवाल को तोड़ कर बाहर निकल गया, तो जैसे एक बंदर दो पैर से खड़ा हो गया था, ऐसे ही एक नई ह्युमैनिटी, एक सुपर मैन का जन्म हो जाएगा। एक अति मानव का जन्म हो जाएगा। हम खड़े हुए तमाशबीन की तरह देखते रहेंगे--यहां बैठे हुए। और राम-राम जपते रहेंगे और माला फेरते रहेंगे।
ये बेवकूफियां बहुत हो चुकीं। इनसे मनुष्य का कोई विकास नहीं होता। हमें यहां फिक्र करनी पड़ेगी। हालांकि उनकी तकलीफ को देख कर हमको लगेगा कि हम ही अच्छे हैं। न हमें कोई फिक्र है, न हमें चिंता है। और हिंदुस्तान में इस तरह के शिक्षक पैदा हो रहे हैं, जो कह रहे हैं कि पीछे लौट चलो। वे कहते हैं कि क्या फायदा है बड़े नगरों का, छोटे गांव होने चाहिए, क्योंकि छोटे गांव में ज्यादा शांति है।
बिलकुल सच कहते हैं वे। जितने पीछे लौटो, उतनी ज्यादा शांति है; क्योंकि जितने पीछे लौटो उतना ही विकास करने की जो तीव्र आकांक्षा है, वह क्षीण होती चली जाती है। हवाई जहाज में चलो, तो ज्यादा अशांति होगी, बैलगाड़ी में चलो तो ज्यादा शांति होगी। जितने पीछे लौट जाओ--सारी टेक्नालाजी छोड़ दो; लौट जाओ पीछे बिलकुल; सब मकान-वकान तोड़ दो, आदिम आदमी हो जाओ तो ज्यादा शांति रहेगी। शांति इसलिए नहीं कि शांति मिल गई। बल्कि जिन अशांति के रास्तों को पार करके शांति मिल सकती थी, उनको छोड़ कर आप भाग गए। यह एस्केपिस्ट...गांधी भी यही समझाते हैं, विनोबा भी यही समझाते हैं पीछे लौट चलो।
इस समय मनुष्य-जाति वहां टकरा रही है, जहां से नये मनुष्य का जन्म होगा। अधिकतम शिक्षक पीछे लौट चलने की बात कर रहे हैं, क्योंकि उनको पता भी नहीं है कि आगे क्या होने को है, क्या हो सकता है। एक बैरियर पर हम खड़े हैं। दस लाख साल बाद यह मौका आया है कि एक नया बैरियर आया है, जिसको पार करना है। मेरी मान्यता यह है कि भारत को विचार के लिए पूरी हिम्मत से फिक्र करनी चाहिए। एक बात ध्यान में रख कर कि निर्विचार होने की प्रक्रिया भी हमारे ध्यान में हो और जारी रहे, तो हम पश्चिम की मुसीबत में नहीं पड़ेंगे--जिस मुसीबत में वे पड़ गए हैं।
और हो सकता है कि अगर भारत के सारे शिक्षा-शास्त्री और सारे विचारशील लोग मिल कर यह तय करें कि विचार को भी जन्माएंगे हम, और यूनिवर्सिटी की शिक्षा के साथ-साथ, निर्विचार ध्यान की भी शिक्षा देंगे, तो इस बात की बहुत संभावना है कि पश्चिम में जो तकलीफ हो रही है, वह हमें न हो। और इस बात की भी संभावना है कि वह जो भाग्य निर्धारित होना है कि कौन, कौन जाति नये मनुष्य को जन्म देगी, वह सौभाग्य हमें भी मिल सकता है। लेकिन वह सौभाग्य मिलेगा विचार की दीक्षा से और निर्विचार की साधना से। फिर हमें कुछ...
हमारी हालत ही अजीब है हम विचार ही करने को राजी नहीं हैं, तो निर्विचार का तो सवाल कहां आया! और हमारी दलीलें ये हैं, आरग्यूमेंट्स ये हैं कि जब निर्विचार ही होना है, तो फिर ठीक है, हम अभी हुए जाते हैं, फिर आगे की क्या बात है! जब गाड़ी से उतरना ही है, तो गाड़ी में सवार क्यों हों? जब सीढ़ी छोड़नी ही पड़ेगी, तो सीढ़ी पर चढ़ें क्यों?
भारत इन्हीं गलत दलीलों के कारण पिछड़ता चला गया है। भारत भाग्यशाली सिद्ध हो सकता है आने वाले भविष्य में, अगर इन दो बातों पर ध्यान रख लिया जाए। ये दोनों बिलकुल विरोधी बातें हैं; क्योंकि विचार की प्रक्रिया अलग बात है और निर्विचार की प्रक्रिया डायमेट्रिकलि अपोजिट है, बिलकुल उलटी है। दोनों बिलकुल उलटी बातें हैं और इसलिए बड़ी अर्थपूर्ण हैं। क्योंकि जो आदमी आठ-दस घंटे तीव्र विचार करता है, अगर वह घंटे भर के लिए निर्विचार हो जाए, तो उसकी विचार में खोई गई सारी शक्ति फिर उपलब्ध हो जाती है। जैसे आप दिन भर श्रम करते हैं जाग कर, रात सो जाते हैं। वह रात का सो जाना बिलकुल उलटा है जागने से। जागने की अवस्था और सोने की अवस्था बिलकुल उलटी है। लेकिन दिन भर जागते हैं, रात उलटी अवस्था में चले जाते हैं, तो दिन भर के जागरण का सारा श्रम विलीन हो जाता है। सुबह फिर ताजे होकर वापस आ जाते हैं।
शरीर के तल पर जागने और सोने में जो अर्थ है, मन के तल पर सोचने और न सोचने में भी वही अर्थ है। अगर एक आदमी को हम जगाए रखें और सोने न दें, तो क्या हालत होगी? या एक आदमी को हम जागने न दें और सुलाए ही रखें, तो क्या हालत होगी? पूरब के आदमी को हम सुलाए हुए हैं। पच्चीस तरह की अफीम के नशे उसको पिला रहे हैं--सोए रहो, जागो मत, क्योंकि जागने वाले तकलीफ में पड़ते हैं। स्वभावतः जो जागेगा वह थोड़ी तकलीफ में पड़ेगा। सोए आदमी को कोई तकलीफ नहीं है, क्योंकि उसे पता ही नहीं चलता कि क्या हो रहा है। कितनी तकलीफ आ जाए। मकान में आग लग जाए, उसे पता नहीं चलता।
पूरब का आदमी सोया हुआ आदमी है, उसे कुछ भी पता नहीं चलता। अकाल चला आ रहा हो, उसे पता नहीं चलता। वह अपने बच्चे पैदा करता चला जाएगा! सोया हुआ आदमी है, उसको क्या पता कि अकाल आ रहा है, बच्चे पैदा मत करो। वह यहां बच्चे पैदा करेगा और अब बैंड-बाजे भी बजाते रहेगा। उसे पता ही नहीं कि तुम बैंड-बाजे मौत के स्वागत में बजा रहे हो। अब एक-एक नया बच्चा मौत की खबर लेकर आ रहा हो पूरे कौम की। तुम बैंड-बाजे बजा रहे हो! तुम्हें पता ही नहीं कि क्या हो रहा है, आगे क्या आ रहा है! मुल्क गरीब होता चला जाएगा। किसी को पता नहीं, किसी को खयाल नहीं सोए हुए लोग हैं, चलते चले जाएंगे।
सोया हुआ आदमी तकलीफ में नहीं रहता--यह बात सच है। जागे हुए आदमी को तकलीफ होती है। लेकिन ध्यान रहे, जागता है जितना आदमी, उतने ही सोने के आनंद को भी उपलब्ध हो जाता है। जो दिन भर सोया रहता है, उसके सोने का आनंद भी चला जाता है, गहराई भी चली जाती है, डेप्थ भी चली जाती है। अगर दिन भर बिस्तर पर पड़े रहो, तो फिर रात सोने की गहराई खत्म हो जाएगी। सोने की गहराई उतनी ही होती है, जितनी जागने की गहराई होती है। अनुपात बराबर होता है। जो जितनी तेजी से जागेगा, वह उतना गहरा सोएगा। जो जितना गहरा सोएगा, उतना ज्यादा जाग सकेगा। फिर जितना ज्यादा जाग सकेगा, उतना गहरा सो सकेगा। यह बिलकुल उलटे छोरों पर मन घूमता रहता है।
जो जितना तेज विचार करेगा, उतनी ही गहराई में निर्विचार हो सकता है। और जो जितना निर्विचार हो जाएगा, बियांड थाट चला जाएगा, वह उतना ही गहरा और स्पष्ट विचार कर सकता है। विचार और निर्विचार के बीच चुनाव नहीं है अब। वे चुनाव के रास्ते खत्म हो गए। अब विचार और निर्विचार के बीच एक संतुलन, एक बैलेंस, एक संवाद की जरूरत है।
अगर भारत यह पूरा कर लेता है पश्चिम के पहले तो बहुत अदभुत घटना घट जाएगी। लेकिन यह मालूम नहीं पड़ता कि भारत कर सकेगा; क्योंकि भारत कुछ सोचता ही नहीं, विचारता ही नहीं। मुर्दों की जमात है, मरे हुए फॉसिल...। कभी के मर चुके हैं बस पोस्थ्युमस एक्जिसटेंस समझना चाहिए। पोस्ट-मार्टम के लायक हैं, और किसी काम के लायक नहीं। बैठे हैं मुर्दों की तरह, गोबर के गणेशों की तरह बैठे हुए हैं! कुछ करना नहीं है, कुछ सोचना नहीं है। बस, एक रास्ता देख रहे हैं कि भगवान कब भेजे टिकिट कि आ जाओ वापस! एक्जिट कहां है, वही खोज रहे हैं। दरवाजा कहां है, जहां से निकल जाएं, आवागमन से छुटकारा हो जाए!
बस इतना ही काम है जीवन में? जीवन उनका है, जो संघर्ष करते हैं। जीवन उनका है, जो जीवन को जीतने की कोशिश करते हैं। लेकिन जीवन सिर्फ उनका ही नहीं है, जो सिर्फ जीतने की कोशिश करते हैं। जीवन उनका है, जो जीतने की कोशिश करते हैं, और एक सीमा पर जीतने की कोशिश भी छोड़ देते हैं। मगर ये उलटी बातें हैं। और यह उलटी बातों को मैंने थोड़ा-सा समझाने की कोशिश की। अगर इन दो विरोधों के बीच, इन पैराडाक्सेज के बीच कोई संतुलन खड़ा हो सकता है, तो एक नये मनुष्य का जन्म हो सकता है। दस लाख साल से चेष्टा चल रही है।
और ध्यान रहे, आप तो मेडिकल के विद्यार्थी हैं, तो आप जानते हैं कि दस लाख साल में फिजियालाजिकली आदमी के ब्रेन में कोई फर्क नहीं पड़ा है। दो लाख साल पहले की पेकिंग आदमी की जो खोपड़ियां मिली हैं, उनकी खोपड़ियों में और हमारी खोपड़ियों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। कोई विकास नहीं हुआ है उस तल पर। उस तल पर कोई विकास नहीं हुआ है। विकास जो भी हुआ है, वह विचार के तल पर हुआ है। विकास चेतना के तल पर हुआ है। विकास शरीर के तल पर कोई भी नहीं हुआ है। अब आगे और यह विकास रुक गया है। शरीर के तल पर कोई विकास नहीं हो रहा है, रिपीटेडली, पुनरुक्ति हो रही है उसी तरह के शरीर की, उसमें कोई विकास नहीं हो रहा है।
ऐसा लगता है कि अब एक दूसरे तल पर, एक दूसरे आयाम में, एक दूसरे डायमेंशन में विकास होगा। और वह विकास है चेतना का, कांशसनेस का। कांशसनेस वहां टकरा रही है, दीवाल खड़ी है कांच की वहां। विचार को कैसे छोड़ें, वह उसकी सूझ में नहीं आ रहा है।
आज तो मैंने सिर्फ इतना ही कहा कि एक तीसरा विकल्प है। दुबारा आता हूं, तो वह तीसरा विकल्प कैसे आप पूरा कर सकते हैं, उसकी मैं बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने शांति और प्रेम से सुना उससे बहुत अनुगृहीत हूं, और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

दिनांक २४ फरवरी, १९६९; के. ई. एम. हास्पिटल, बंबई. 

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