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मंगलवार, 14 अगस्त 2018

क्या सोवै तू बावरी-(प्रवचन-03)

क्या सोवै तू बावरी-तीसरा प्रवचन 

प्रश्न: सारे विश्व की दौड़ ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुख को प्राप्त करने के लिए लगी हुई है। लेकिन लोग फिर भी स्थिर नहीं हैं और अशांत हैं--भौतिक सुखों को प्राप्त कर लेने पर भी। इस संबंध में आपकी क्या धारणा है?
ऐसा है अब मेरी धारणा बहुत अजीब है। उसको समझ लें तो एक दृष्टि खुल सकती है। जब एक आदमी धन की तलाश कर रहा है, तो आमतौर से हम सोचते हैं कि वह ईश्वर के विपरीत तलाश कर रहा है। मैं नहीं सोचता। मैं सोचता हूं, वह ईश्वर की ही तलाश कर रहा है। जब एक आदमी पद की तलाश कर रहा है, तो लोग सोचते हैं, वह ईश्वर के विपरीत खोज रहा है। मैं नहीं सोचता, मैं सोचता हूं, ईश्वर को ही खोज रहा है। और इसको मैं यूं लेता हूं।
एक आदमी को हम कल्पना में ले लें--आपको ही ले लूं। मैं आपसे कहूं, आप कितने धन पर तृप्त हो जाएंगे? तो आपका मन एक आंकड़ा तय करेगा, तत्काल और आगे निकल जाएगा कि इससे काम नहीं चलेगा। मैं कोई भी आंकड़ा आपको कहूं, कोई भी संख्या, आपका मन कहेगा: "इससे काम नहीं चलेगा!' इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ अनंत धन न मिले, तब तक काम नहीं चल सकता।

आपको मैं कोई बड़े से बड़ा पद को कहूं कि ये पद आप ले लें। इसके आगे फिर न मांगना, आप आखिरी मांग लें, तो शायद आप निर्णय नहीं कर पाएंगे। असल में परम पद पाए बिना काम नहीं चलेगा। पद की तलाश में भी परम पद पाने की खोज चल रही है। धन की तलाश में अनंत संपत्ति को पाने की तलाश चल रही है। अहंकार की तलाश में प्रभु होने की तलाश चल रही है। परमेश्वर हुए बिना किसी का अहंकार तृप्त होने को नहीं है। ये तलाशें चल रही हैं। ये तलाशें सब ईश्वरोन्मुख हैं। यानी ये सब अनंत की तरफ ले जा रही हैं।
क्योंकि इनसे कोई भी...लोग कहते हैं, "वासना अनंत है।' और मैं कहता हूं, "असल में अनंत की वासना है।' वासना अनंत है, यह तो ठीक ही है, अनंत की वासना है हमारे भीतर। अनंत को पाए बिना हम तृप्त होने वाले नहीं हैं। ठोकरें खाएंगे पच्चीसों दफा। छोटी-मोटी चीजों से अपने को तृप्त करना चाहेंगे। लेकिन हमारा मन कह देगा, हम तृप्त नहीं हैं।
लोग कहते हैं यह मन बड़ा कामी है, लोलुप है! मैं कहता हूं, असल में यह परम को पाए बिना तृप्त नहीं होने वाला। इसलिए हर छोटी-मोटी जगह पर जब हम उसे तृप्त करना चाहते हैं, वह कह देता है, हम तृप्त नहीं हैं। मन की यह जो चंचलता है, बड़ी अदभुत है। यही आध्यात्मिक जीवन में ले जाती है।
तो लोग धार्मिक लोग मन की चंचलता को गाली देते हैं, मैं उसकी कृपा समझता हूं। नहीं तो कोई आदमी कभी धार्मिक होता ही नहीं। आपने तो किसी भी घूरे पर, कचरे पर बिठाल कर तृप्ति कर ली होती। धन मिल जाता, आप तृप्त हो जाते। लेकिन मन है कि वह चंचल है--वह चंचल है। वह तृप्त नहीं होता। वह कहता है--और चाहिए, और चाहिए! अनंत दे दें उसे, तब भी वह कहेगा--और चाहिए। जब सब दौड़कर आप थक जाएंगे जन्म-जन्म, जब सब तरफ से ठोकरें खाकर वापस लौट आएंगे, जब कोई सीमित आपको तृप्त नहीं कर सकेगा, तब आपको दिखेगा कि मैं असल में मेरी प्यास तो अनंत प्रभु को पाने की थी। मैं छोटी-छोटी चीजों को तलाश रहा था।
इसके पूर्व कि वह प्यास दिखे बहुत ठोकरें खानी जरूरी हैं, ताकि वह दिखेगा। और जैसे ही यह दिखेगा, वैसे ही बात पूरी हो जाएगी।
हम खोज तो अभी भी रहे हैं उसी को--उसी को खोज रहे हैं। लेकिन बहुत अल्प से अपने को तृप्त कर लेना चाहते हैं, समझा लेना चाहते हैं अपने को। हमारा चित्त उसे समझता नहीं।
होता यह है इसीलिए समृद्ध लोग ही, समृद्ध कौमें ही धार्मिक हो पाती हैं। असमृद्ध कौमें धार्मिक नहीं हो पातीं। भारत जब समृद्ध था, तो वह धार्मिक था। जब वह असमृद्ध दरिद्र हुआ, तो धार्मिक नहीं रह गया। असल में जब सब तरह की समृद्धि होती है--जैसे महावीर या बुद्ध, इनके पास सब तरह की समृद्धि है। सारी तरह की समृद्धि के बीच में वे पाते हैं, मैं अतृप्त हूं। तब एक तो भ्रम टूट जाता है कि समृद्धि से तृप्ति हो सकती है, क्योंकि समृद्धि तो है, अगर उससे तृप्ति होती तो हो गई होती। समृद्धि के होते हुए भी जब चित्त अतृप्त है! तो इतना तो तय हो गया कि समृद्धि तृप्ति नहीं देती। समृद्ध ही समृद्धि के भ्रम को तोड़ने का कारण बन जाती है और तब प्यास किसी नये लोक में खोजने लगती है।
दरिद्र को यह भ्रम रहता है कि शायद थोड़ी-सी समृद्धि होगी, तो तृप्ती हो जाएगी। इसलिए दरिद्र जो है, वह थोड़े से में ही तृप्त होने के पीछे भागता रहता है। पर कोई समझ सके, विचार सके, तो चाहे दरिद्र हो, चाहे समृद्ध, वह इतनी बात समझ सकता है कि अनंत को पाए बिना, परम को पाए बिना, अंतिम को पाए बिना, मन तृप्त होने वाला नहीं है, इसलिए अंतिम को ही पा लूं। यह जो भ्रमणा जिसको आप कहते हैं, यह इसलिए चल पाती है कि हमको यह धोखा होता रहता है कि इस चीज से शायद तृप्ति हो जाए, इस से शायद तृप्ति हो जाए। लेकिन हर बार अनुभव हमें कह जाता है कि इससे तृप्ति होने को नहीं है।
इसी अनुभव को संयोजित करने में जन्म-जन्म लग जाते हैं। यह हमारे हाथ में है कि हम कितना लंबा दें। चाहें तो इसी क्षण जाग सकते हैं और चाहें तो देर तक सोए रह सकते हैं, यह हमारे हाथ में है।
तो मुझे ये सारी वासनाएं ईश्वर-विरोधी नहीं दिखाई पड़तीं। ये सब ईश्वरोन्मुख हैं, क्योंकि प्रत्येक के भीतर उसी की आकांक्षा छिपी है।

प्रश्न: मन क्या है?
मेरी तरफ से देखने पर मन कोई वस्तु नहीं है--केवल फंक्शन है। यह पंखा चल रहा है। एक तो पंखे की चलती हुई स्थिति है और एक पंखे की ठहरी हुई स्थिति है। जब पंखा ठहर गया, तो हम यह नहीं पूछेंगे कि वह चलना कहां गया! क्योंकि चलना कोई वस्तु नहीं थी। चलना पंखे की ही एक क्रिया थी। जो पंखा चल रहा था, वह पंखा ठहर गया। हमारे भीतर जो सत्ता है, उसकी चलित स्थिति मन है और उसकी थिर स्थिति आत्मा है।

प्रश्न: क्या दोनों विपरीत हैं।

हां, दोनों विपरीत हैं। उसकी चलती हुई स्थिति, उसकी गतिमान स्थिति मन है और उसकी ठहरी हुई, निस्पंद स्थिति आत्मा है। मन कोई वस्तु नहीं है, मन क्रिया है। तो जब तक चेतन हमारा भीतर क्रियाशील है तब तक मन; वह क्रियाओं का इकट्ठा प्रवाह मन कहलाएगा। और जब चेतन निष्क्रिय हो गया और क्रियाएं शून्य हो गई हैं, उस निष्क्रिय चैतन्य का नाम आत्मा है। सक्रिय चैतन्य मन है, परिपूर्ण ठहरा हुआ स्थिर चैतन्य आत्मा है।

प्रश्न: आत्मा को तो अपन नहीं कहते कि धोखा देता है, मन तो हम भी जानते हैं कि कभी-कभी धोखा देता है। तो दोनों एक दूसरे के विपरीत लगते हैं। ऐसा क्यों होता है?

आत्मा न तो धोखा देता है और न धोखे के विपरीत कुछ देता है, क्योंकि वह तो निष्क्रिय है। दोनों तो क्रियाएं हैं। न तो आत्मा विश्वास योग्य है, न धोखेबाज है। वे दोनों क्रियाएं हैं। वहां तो कुछ भी नहीं है। ये दोनों काम मन ही करेगा। दोनों क्रियाओं के अंग होंगे। दोनों क्रियाओं के ही अंग होंगे--सत्य भी, असत्य भी, ईमानदारी भी, बेईमानी भी, धोखा भी गैर-धोखा भी। मन की जो प्रवाहमान स्थिति है।
असल में जब हम शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो हमारे सारे के सारे शब्द वस्तु सूचक हैं। जैसे हम कहते हैं, "बुखार'। इस आदमी में बुखार है। तो बुखार शब्द से कुछ ऐसा मालूम होता है, कोई चीज इस आदमी में बुखार नाम जैसी है। असल में बुखार कोई चीज नहीं है, बल्कि इसकी शरीर की एक विशिष्ट क्रिया है--एक विशिष्ट प्रक्रिया है। एक विशिष्ट प्रक्रिया ने इसके शरीर को उत्ताप दे दिया है, उस उत्ताप को हम बुखार कह रहे हैं। उस समग्र प्रक्रिया को हम बुखार कह रहे हैं। बुखार वस्तु नहीं है।
इसलिए जब यह आदमी ठीक हो जाएगा, इसका उत्ताप गिर जाएगा, तो हम यह नहीं पूछ सकते कि बुखार कहां गया? क्योंकि बुखार कोई वस्तु नहीं थी। बुखार इसके शरीर की एक विशिष्ट उत्तप्त क्रिया का नाम था, विषमता की क्रिया का नाम था। बुखार शून्य हो गया, विषमता विलीन हो गई। इस विषमता के विलीन हो जाने पर जो क्रिया है, उसका नाम स्वास्थ्य है।
इस मनुष्य के भीतर एक स्थिति का नाम स्वास्थ्य है, एक स्थिति का नाम बुखार है। और यह एक ही चीज के दो स्पंदन हैं। एक विकृत ढंग से स्पंदित हो जाए चीज तो बुखार है और स्वरूप ढंग से स्पंदित हो जाए, तो स्वास्थ्य है। हमारे भीतर जो चैतन्य है, अगर वह किन्हीं भी विकृत--स्वरूप के विपरीत या अन्यथा मार्गों पर विचलित होकर दौड़ने लगे, तो मन है। और स्वरूप में स्थित हो जाए, परिपूर्ण स्वरूप में स्थित हो जाए, तो आत्मा है।
हमारा ही स्वरूप स्पंदित, अशांत स्थिति में मन कहलाता है। हमारा ही स्वरूप निस्पंद शांत स्थिति में आत्मा कहलाता है। इसलिए मैं कहता हूं कि ध्यान जो है, वह मन से मुक्ति है। वह मन की प्रक्रिया नहीं, क्योंकि मन की प्रक्रिया होती तो फिर वह आत्मा तक ले जाने वाली बनने वाली नहीं थी; वह मन से ही मुक्ति है।
चीन में एक साधु हुआ है। वह मरणासन्न था। अब उसने चाहा कि अपने बाद किसी व्यक्ति को वह आश्रम का प्रधान बना जाए। पांच सौ भिक्षु थे आश्रम में। मुझे बहुत प्रीतिकर है यह घटना, दुनिया में वैसी घटना कभी घटी नहीं। उसने घोषणा की कि इन पांच सौ भिक्षुओं में जो भी धर्म की अनुभूति को उपलब्ध हो गया हो, वह चार पंक्तियों में धर्म का परिपूर्ण अर्थ लिखकर मुझे दे जाए। अगर उन पंक्तियों ने यह सूचना दी कि उसे धर्म का अनुभव हुआ है, तो मैं उसे अपनी जगह पर बिठा दूंगा। लेकिन स्मरण रहे, मुझे धोखा नहीं दे सकोगे। शास्त्र-ज्ञान काम नहीं करेगा। इतना मैं जान लूंगा, इतना मैं जानता हूं कि कब तुमसे शास्त्र बोल रहा है, और कब तुम स्वयं बोल रहे हो। और लोग उस बूढ़े को जानते थे भलीभांति। उसको धोखा देना संभव नहीं था।
सैकड़ों लोगों ने सोचा, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी, क्योंकि वे जानते थे कि शास्त्र-ज्ञान है, स्वयं का अनुभव नहीं। सिर्फ एक आदमी के बाबत लोगों का खयाल था। जो आश्रम में बड़ा प्रख्यात था। और लोग पहले से जानते थे कि गुरु के बाद वह प्रधान बनेगा। लोगों ने सोचा, वही लिखेगा, उसी का चुनाव होने वाला है। उसने भी डर के मारे इतनी हिम्मत नहीं की कि वह गुरु को सामने देता। वह रात्रि को उसके दरवाजे पर लिख आया। वह चार पंक्तियां लिख आया। बड़ी सुंदर पंक्तियां उसने लिखीं। लेकिन गुरु ने सुबह कह दिया, यह सब कचरा है।
उसने चार पंक्तियां लिखीं। मनुष्य के पूरे जीवन पर उसने बात लिख दी। उसने लिखा: "मन एक दर्पण है जिस पर विकार की धूल जम जाती है। इस धूल को झाड़ दें और सत्य उपलब्ध हो जाएगा। इतना ही धर्म है।' लेकिन सुबह गुरु ने कहा, "यह सब कचरा है। बकवास! यह किसने लिखा है?' वह तो भाग गया, छिप गया। जिसने लिखा था दस्तखत वह कर नहीं गया था, इसी डर से कि वह गुरु बड़ा...!
यह खबर पूरे आश्रम में फैल गई कि इतनी बहुमूल्य पंक्तियां लिख कर भी गुरु ने कचरा कह दिया। और सब जानते हैं किसने लिखा...।
आश्रम में बारह वर्ष पहले एक युवक आया था। गुरु के पास वह गया था। गुरु ने कहा था, "तुम साधु होना चाहते हो या दिखना चाहते हो?' उसने कहा, "मैं होना चाहता हूं।' तो गुरु ने कहा, "फिर यह आश्रम में चावल जो कूटने का काम है, वह तुम करो। चावल कूटो, और तुम्हारे जिम्मे कोई काम नहीं है। सुबह से शाम तक चावल कूटो। चावल के अतिरिक्त न कुछ सोचो, न कुछ विचारो। अगर किसी दिन जरूरत पड़ी, तो मैं तुम्हें बुला लूंगा या मैं तुम्हारे पास आ जाऊंगा। तुम अब मेरे पास मत आना।'
इस घटना को घटे बारह साल हो गए थे। वह युवक फिर दुबारा गुरु के पास गया नहीं, गुरु ने उसे कभी बुलाया नहीं। वह चावल ही कूटता रहा। लोग उसको चावल कूटने वाला करके ही जानने लगे। लेकिन चावल कूटते-कूटते उसमें कुछ घटना घटी। गुरु ने कहा था कि चावल कूटना। न शास्त्र पढ़ना, न किसी से बात करना।
वह चावल कूटता रहा--सुबह से सांझ तक चावल! सांझ से सुबह तक, एक ही काम था--चावल, चावल। धीरे-धीरे सारे विचार विलीन हो गए, चित्त शून्य हो गया। चावल ही कूटता रहा, कूटता रहा। न उससे कोई बात करता था, न उसे कोई ज्ञानी समझता था। वह तो एक नौकर था आश्रम का जो चावल कूटता रहा।
उसके पास भी किसी युवक भिक्षु ने यह बात निकलते हुए कही कि "तुमने सुना! इतने बहुमूल्य वचन को उस बुङ्ढे ने कह दिया कि सब कचरा है।' वह चावल कूटते हुए बोला कि "कचरा तो जरूर है।' उसने कहा, "तुम पागल हो गए हो! जिंदगी तुम्हारी चावल कूटते बीत गई। तुम भी निर्णय करोगे? वह बोला, "कचरा ही है वह चावल कूटता रहा।' उस युवक ने कहा, "अच्छा, तो तुम लिख दो। अगर ऐसा है तो तुम लिख दो कि ठीक क्या है।' वह बोला, "मैं लिखना नहीं जानता। अगर तुम लिख दो तो मैं बोल दूंगा।'
तो उसने जाकर बोल दीं चार पंक्तियां और उस लिखने वाले ने लिख दीं। उसने चार पंक्तियां लिखवाईं कि "मन का कोई दर्पण ही नहीं, धूल जमेगी कहां? जो इस सत्य को जानता है, वह धर्म को जानता है।'
उसने लिखा था पहले आदमी ने, "मन का दर्पण है, जिस पर धूल जम जाती है विकार की। इस धूल को झाड़ दें, सत्य उपलब्ध हो जाता है।' इसने लिखवाया, "मन का कोई दर्पण ही नहीं, धूल जमेगी कहां? जो इस सत्य को जानता है, वह धर्म को जानता है।' और इस चावल कूटने वाले को स्थान मिल गया।
यह जो बात है बड़ी अदभुत है। मन का कोई दर्पण ही नहीं। असल में मन कोई वस्तु नहीं है। मन केवल एक सक्रिय, उत्तेजित क्रिया का नाम है। हमारे भीतर उत्तेजना का जो ज्वर है, हमारे भीतर उत्तेजना का जो ज्वर है। वही हमारा मन है। अगर उत्तेजना विलीन हो जाए, तो मन नहीं। अशांति मन है।
आमतौर से हम कहते हैं, "मन अशांत है।' वह वाक्य गलत है, मेरे हिसाब से। मन अशांत है, यह कहना गलत है, क्योंकि इसका मतलब है हां अशांति ही मन है। मन उत्तेजित है, यह कहना गलत है। उत्तेजना ही मन है। अगर यह दिखेगा कि उत्तेजना, अशांति, उद्वेग, इनकी संभावना ही मन है, और इनका समग्र जो प्रवाह है वह सतत है। सुबह से सांझ, जन्म से मृत्यु तक सतत उत्तेजना का प्रवाह है। उसी उत्तेजना के इकट्ठे प्रवाह से मन की एन्टाइटी का भ्रम होता है कि मन कोई चीज है।
मैं एक अंगारा लेकर जोर से घुमाऊं, तो गोल वृत्त का पता चलेगा कि कोई गोल चीज है। है वहां कोई गोल चीज नहीं! मेरा अंगारा जोर से घूम रहा है, अंगारा जोर से घूम रहा है, वृत्त दिखाई पड़ रहा है; वृत्त है नहीं। वैसे ही ये उत्तेजनाएं इतनी तीव्रता से घूम रही हैं कि इनके बीच के खाली गैप नहीं दिखाई पड़ रहे। उत्तेजना, उत्तेजना, उत्तेजना, इतनी तीव्रता से कि उत्तेजना का पूरा प्रवाह एक वस्तु मालूम होती है कि जैसे कोई वस्तु है।
जो व्यक्ति शांत होगा, वह हैरान होकर हंसेगा फिर और वह यह कहेगा कि यह तो कहीं था ही नहीं। ये फुटकर उत्तेजनाएं थीं, जो इकट्ठी दिखाई पड़ने पर मन जैसी मालूम होती है। उत्तेजना मन है, अनुत्तेजित हो जाना मन के बाहर हो जाना है। हम चूंकि अनुत्तेजित हो सकते हैं, इसलिए उत्तेजित भी हो सकते हैं। चेतना उत्तेजित हो सकती है। क्योंकि चेतना अनुत्तेजित हो सकती है। असल में दोनों क्रियाएं साथ ही हो सकती हैं। जो दौड़ सकता है, वही रुक सकता है। जो रुक सकता है, वही दौड़ सकता है।
अगर आत्मा परिपूर्ण शांत हो सकती है तो इसमें ही यह बात निहित है कि आत्मा परिपूर्ण अशांत हो सकती है। जो लोग कहते हैं, आत्मा परिपूर्ण शांत है, वे सोचते हैं कि अशांत कैसे कहें? क्योंकि अशांत उसके विपरीत हो जाएगा। लेकिन उसे शांत कहने का अर्थ यह है कि उसमें अशांत होने की क्षमता है। वे बिलकुल विपरीत शब्द हैं, लेकिन वे विपरीत शब्द एक-दूसरे को अपने भीतर लिए हैं। जो लोग कहते हैं, "आत्मा ज्ञानपूर्ण है' यह कहते ही से कि आत्मा ज्ञानपूर्ण है उसके अज्ञान में उतरने की क्षमता सूचित हो जाती है। नहीं तो उसे ज्ञानपूर्ण कहने की कोई वजह नहीं रह जाती।
अब मेरे हिसाब से तो मैं कुछ इसे और ऐसा बांटने लगा। "कुछ' है हमारे भीतर। कुछ उसको मैं कोई नाम नहीं देता। कुछ है हमारे भीतर, एक्स, वाई कोई भी नाम रख लें, कुछ है हमारे भीतर, जो अगर उत्तेजित हो, तो हम मन कहते हैं। और जो अगर शांत हो तो हम आत्मा कहते हैं। कुछ है हमारे भीतर जिसमें ये दोनों संभावनाएं हैं। उत्तेजित हो जाए, तो मन हो जाता है। उत्तेजित हो जाए, मन बन जाए, तो संसार का निर्माता बनता है। शांत हो जाए, तो आत्मा हो जाता है। शांत होकर आत्मा बन जाए, तो मुक्ति का रास्ता बन जाता है। कुछ उत्तेजक मन और कुछ अनुत्तेजक आत्मा। वे कुछ की दोनों क्षमताएं हैं। और जिसमें शांत होने की क्षमता है ताराचंद भाई, उसी में अशांत होने की क्षमता होगी। नहीं तो फिर हम उसको शांत होने की क्षमता नहीं कह सकते। यानी विपरीत गुण-धर्म साथ ही उपस्थित होंगे। वे एक ही सिक्के के दो पहलू होंगे।

प्रश्न: फिर जो कह रहे हैं कि आत्मा निर्लेप, निर्विकार है, वह तो सही नहीं रहा!

मेरे हिसाब से तो नहीं है। मेरे हिसाब से तो नहीं है। मेरे हिसाब से तो नहीं है। वह जो है, जब हम इसे कहते हैं, निर्विकार, निर्लेप, तभी हम कह रहे हैं कि उसमें विकार की संभावना है। नहीं तो उसे निर्विकार कहने का कोई कारण नहीं है। उस कुछ की एक स्थिति का नाम आत्मा है। उस कुछ को आत्मा भी कहने का कोई अर्थ नहीं। इसी वजह से बुद्ध उसको आत्मा नहीं कहे। उसको आत्मा कहने की कोई वजह नहीं है। इस भांति देखें तो ही मन की ग्रंथि खुलती है, नहीं तो मन एक ग्रंथि बनकर खड़ा हो जाता है, जिसका कोई उत्तर नहीं है; जिसका कोई उत्तर नहीं है।

प्रश्न: क्या आहार का मन पर असर होता है?

कुछ आहार उत्तेजक आहार हैं, उत्तेजना देते हैं। वे सब बाधा हैं आध्यात्मिक जीवन में। कुछ आहार अनुत्तेजक हैं। वे कोई उत्तेजना नहीं देते। वे आध्यात्मिक जीवन में सहयोगी होते हैं। कुछ आहार हैं जो मादक हैं, जो नशा देते हैं। कुछ आहार गैर-मादक हैं, नशा नहीं देते हैं। मादक आहार, उत्तेजक आहार, बाधा हैं आध्यात्मिक जीवन में, लेकिन मादक आहार के प्रति हमारी जो आकांक्षा है, जो रस है, उत्तेजक आहार को लेने की जो हमारे भीतर वासना है, वह ध्यान से विलीन होगी। जैसे-जैसे चित्त शांत होने लगेगा, वैसे-वैसे आहार में परिवर्तन होने लगेगा।
अभी मेरे पास ऐसी कुछ घटनाएं घटी हैं। कुछ मित्र थे जो मांसाहारी थे। वे जब शुरू-शुरू में मेरे पास आए, तो उन्होंने मुझसे आते से ही यह पूछा कि "हम मांसाहारी हैं, कहीं आप इस ध्यान में यह बाधा तो नहीं डालते हैं कि मांसाहार छोड़ना पड़ेगा। हम लोग यह नहीं छोड़ सकते।' तो मैंने उनसे कहा, "मैं आहार की तो कोई बात ही नहीं करता। आपको जो खाना है, मजे से खाओ। मुझे कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन ध्यान शुरू करो।'
उन्होंने ध्यान शुरू किया। एक महीना, दो महीना उन्होंने आकर मुझसे कहा, "यह तो बड़ी कठिनाई हो गई, मांसाहार करना संभव नहीं रहा। और अब यह हैरानी होती है कि इतने दिन तक हम कैसे करते रहे!' मैंने कहा, "यह अलग बात है। अब अगर छूट जाए, तो यह सहज छूट गया, यह अलग बात है। छोड़ने का प्रश्न नहीं है इसमें।'
अगर मनुष्य चित्त शांत हो जाए उसका तो चित्त की अशांति के कारण उत्तेजक आहार अच्छे लगते हैं, चित्त शांत हो जाए, उत्तेजक आहार अच्छे नहीं लगेंगे। हमने उलटी स्थिति पकड़ ली है। हम सोचते हैं कि उत्तेजक आहार पहले छूटें, तब चित्त शांत होगा। उत्तेजक आहार पहले नहीं छूट सकते। हम सोचते हैं, आदमी बहुत सुंदर वेशभूषा छोड़े, तब चित्त शांत होगा। गलत है। चित्त शांत हो जाए, तो वेशभूषा साधारण सहज हो जाएगी। मूल चीज चित्त है।

प्रश्न: क्या इसमें यौगिक क्रिया से मदद हो सकती है?

जरूर मदद हो सकती है। हांऱ्हां, आप कुछ कर रहे हैं?

प्रश्नकर्ता: हां।

उसे आप सीख लें। कोई बात नहीं है। लेकिन उसकी कोई जरूरत नहीं है। मैं आज जो आपसे प्रयोग सुबह कहा, अगर एक महीने...।

प्रश्न: आपके सामने ही प्रयोग हो सकता है?

नहीं, वह मेरे अभाव में भी हो जाएगा। वह कोई बात नहीं है। आप थोड़ा करें। एक महीने भर में मेरे बिना भी होगा; कोई कठिनाई नहीं है।

प्रश्न: लेकिन जब आप कराते हैं, तब तो खूब होता है।

अब वह भाव बन जाता है हमारा। भाव बन जाता है। असल में हो तो आपको रहा है और जब मेरे सामने हो रहा है, तब भी आपको हो रहा है। आपके भीतर ही कोई बात घट रही है न!
हां, यहां ऐसा करना चाहिए थोड़ा-सा। एक छोटी-सी कभी एक गोष्ठी महीने में पंद्र्रह दिन में एक दफा रख लेनी चाहिए और रेकार्ड लगा देना चाहिए, और उसमें प्रयोग कर लेना चाहिए। वैसे अगर आप प्रयोग करें, तो मेरे बिना भी होगा। जैसे आज रात्रि को भी आप आएं, आज रात्रि को भी प्रयोग कर लेंगे।
वहां कैसी क्या जगह है बताएं?
नहीं होगा जगह ठीक नहीं है?
आपको कहीं जाने की वहां जरूरत नहीं है। घर पर ही रात्रि में और सुबह, इस प्रयोग को करना शुरू कर दें। एक पंद्र्रह दिन में ही आपको लगेगा कि चित्त शांत होने लगा है।
क्या करती हैं आप तीन वर्ष से?
मैं अभी आपने जो बोला है किसी का नाम नहीं लेना है, मैं अभी नाम लेती हूं।
वे इसलिए आते हैं विचार। वे नहीं आएंगे, आप इसको जरा नया प्रयोग करके देखें।
असल में नाम लेने में...
कभी-कभी तो इतना अच्छा लगता है।
हां! कभी-कभी लगता होगा।
कितनी देर करती हैं?
अभी इधर टाइम मुकर्रर नहीं किया है मैं बैठती हूं...
कभी पंद्रह मिनट होते हैं, कभी तो पांच मिनट में खत्म हो जाता है।
नहीं, आप इस को करिए। घंटों हो जाएंगे, कोई दिक्कत नहीं है।
अब एक घटना घटी है। एक मेरे परिचित प्रयोग करते थे। उनका लड़का मुझे खबर देने आया कि वे छह घंटे से बैठे हुए हैं, तो हम लोग घबड़ा गए हैं कि उनको हिलाएं, उठाएं, या क्या करें? तो मैंने कहा कि "उन्हें बैठा रहने दें, कोई हर्जा नहीं।' सात घंटे बाद उठे। उनके घर के लोगों ने कहा कि यह तो अजीब बात हो गई। इतनी देर बैठिएगा, तो बड़ा मुश्किल है!' उन्होंने कहा, "मुझे तो पता नहीं चला। मुझे तो ऐसा लगा कि मैं अभी उठा।'
अगर चित्त बिलकुल शांत हो जाएगा, तो टाइम का तो पता नहीं चलेगा। अशांति की वजह से टाइम का पता चलता है। मैं तो यह कहने लगा कि चित्त की अशांति ही टाइम है। आप अनुभव करेंगे कि जब चित्त बिलकुल शांत और आनंद में होगा, तो टाइम छोटा मालूम पड़ेगा। घंटा भर बीत जाएगा, लगेगा पांच मिनट बीते, चित्त अगर दुखी है और अशांत है तो घंटा भर बीतेगा, तो लगेगा कि वर्षों बीत गए।
टाइम का जो डयूरेशन है, जो अनुभव हमको होता है, वह दुख और सुख से होता है। अगर चित्त बिलकुल शांति में, आनंद में है तो टाइम का कोई पता नहीं चलेगा। तो कितनी ही देर रहा जा सकता है।
और यह भाव मन में न रखें कि मेरे सामने होगा। यह भाव पहले ही से अगर मन में रख लिया, तो मुश्किल होगा। यह बिलकुल भाव न रखें। प्रयोग को करें, एक महीने भर धीरज से। और इस प्रयोग में नाम वगैरह न लें। वह आप अलग जो करते हैं, उसको अलग करें। इसको पंद्र्रह मिनट बिना ही नाम से करें। इसमें न कोई नाम लेना है, न कोई स्मरण करना है। न कोई मंत्र, न कोई प्रतिमा, न कोई कुछ नहीं करना। इसमें तो बस...बहुत लाभ होगा। या चाहें तो कहीं रहें। यौगिक क्रियाएं देख लें, थोड़े सा कुछ लाभ होते हैं उनसे चित्त शांति को प्राणायाम हैं और दूसरी चीजों से।

प्रश्न: ये पूछ रहे हैं कहीं इन्होंने पढ़ा कि प्रेम, दुख और मृत्यु एक ही चीजें हैं। दुख और मृत्यु तो हमको समझ में आ जाता है कि एक ही चीज है। लेकिन प्रेम! दुख और मृत्यु के साथ जो जोड़ रहा है, अजीब-सा मालूम होता है।

लेकिन यह बात ठीक है। प्रेम की हममें इसीलिए आकांक्षा है कि हम दुख और मृत्यु से डरे हुए हैं। और हम दुख और मृत्यु से इतने घबड़ाए हुए हैं कि प्रेम ही एकमात्र सहारा है, जिसको हम खोजते हैं, जिसके माध्यम से हम जी लेते हैं। जो व्यक्ति मृत्यु और दुख से ऊपर उठ जाएगा, वह प्रेम से भी ऊपर उठ जाएगा उसी वक्त। उसी वक्त उसमें प्रेम करने का कोई प्रश्न नहीं रह जाएगा। प्रेम की आकांक्षा और प्रेम पाने का कोई प्रश्न नहीं रह जाएगा।
प्रेम पाने की जो आकांक्षा है, वह मृत्यु और दुख से एस्केप है। हम उस भांति अपने को भुला लेते हैं। मृत्यु भी भूल जाती है, दुख भी भूल जाता है। और परस्पर दो प्रेमी एक-दूसरे के प्रेम में अपने दुख और मृत्यु को भुला लेते हैं। एक-दूसरे के सहारे में, एक-दूसरे के करीब एक-दूसरे की आसक्ति में, एक-दूसरे में अपने को डुबा देते हैं। उस बेहोशी में वे अपने दुख को, पीड़ा को भूल जाते हैं। अगर दुख और पीड़ा विसर्जित हो जाए, अगर मृत्यु पता चल जाए कि वह नहीं है तो आप अचानक पाएंगे कि आप आसक्ति और प्रेम के ऊपर उठ गए हैं।
उस स्थिति में उसका अर्थ यह नहीं कि आप दूसरों के प्रति बेरुखे और घृणा से भर जाएंगे। उस स्थिति में आसक्ति नहीं होगी, मोह नहीं होगा, किसी के प्रेम की आकांक्षा नहीं होगी। तब एक सहज, स्निग्ध, सहज स्वभाव दूसरों के प्रति होगा और उसको हमने अलग नाम दिए हैं--करुणा के, अहिंसा के, मैत्री के। वे नाम इसलिए अलग दिए, ताकि प्रेम से हम उनको अलग बता सकें। महावीर या बुद्ध किसी के प्रति रूखे नहीं हैं।
अगर हम बहुत ठीक से देखें, तो रूखा होना या दूसरे के प्रति घृणा से भरा होना भी प्रेम का ही एक दूसरा हिस्सा है। इसलिए जिनको प्रेम करते हैं अगर जरा-सी स्थिति बदल जाए, तो हम तत्काल घृणा भी करने लगते हैं। प्रेम के नीचे ही घृणा छिपी हुई है। बहुत वैज्ञानिक बात तो यह है कि जिसको हम प्रेम करते हैं, उसको हम भीतर घृणा भी करते हैं, उसको घृणा भी करते हैं। जरा ही मौका आ जाए, तो पहिया बदल जाएगा और जहां प्रेम था वहां घृणा हो जाएगी।
जिसको हम प्रेम नहीं करते, उसको हम घृणा भी नहीं कर सकते। जिसको हम प्रेम नहीं करते, उसको हम घृणा भी नहीं कर सकते। वैसा व्यक्ति प्रेम और घृणा दोनों से मुक्त हो जाएगा। इसलिए वह प्रेम, मृत्यु और पीड़ा उन तीनों को साथ रखा जा सकता है। वे लगते हैं बहुत अजीब से हैं, लेकिन रखा जा सकता है।
अभी जो मन की व्याख्या की है, उससे भिन्न कुछ भी नहीं है। हां! ये सब नाम भर के भेद हैं। सब फंक्श्न हैं। ये सब नाम भर हैं। चित्त या बुद्धि या मन कहें या कुछ और नाम दे लें। ये एक ही बात के अलग-अलग नाम हैं। इनमें कोई अर्थ नहीं है बहुत।

प्रश्न: क्या आत्मा ही परमात्मा है?

हां, वही सत्ता परमात्मा है। असल में जैसा हमको बचपन से खयाल दिए जाते हैं। हमको ऐसा बताया जाता है कि ईश्वर बैठा हुआ है आकाश में ऊपर, सबको चला रहा है। ऐसा कोई ईश्वर कहीं बैठा हुआ नहीं है।
समस्त विश्व केवल पदार्थ नहीं है, पदार्थ के भीतर चेतना भी छिपी हुई है। उस टोटल कांशसनेस का नाम है। वह सारे विश्व में जो चैतन्य छिपा हुआ है। उसकी पूरी टोटेलिटी का नाम ईश्वर है। ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। समग्र चैतन्य के पूरे प्रवाह का नाम ईश्वर है। और समग्र जड़ता के पूरे प्रवाह का नाम संसार है।
हम यहां इतने लोग बैठे हुए हैं। यहां दोहरी घटनाएं घट रही हैं। यहां इतने शरीर भी बैठे हुए हैं इतने चैतन्य भी बैठे हुए हैं।
प्रश्न: जब सभी पदार्थ में चैतन्य है, तो चैतन्य ही होगा, पदार्थ नहीं होगा?

अगर ऐसा कहना पड़े कि पदार्थ नहीं है, सभी चैतन्य है, तो फिर चैतन्य को चैतन्य कहने का कोई कारण नहीं रह जाएगा। वह तो हम पदार्थ के विपरीत जो है, उसको चैतन्य कहते हैं। अगर जगत में एक ही चीज है, तो उसको न तो हम पदार्थ कह सकते हैं, न चैतन्य कह सकते हैं। फिर तो कोई शब्द बेमानी है। हम उसको चैतन्य इसीलिए कहते हैं कि जगत में कुछ अचैतन्य भी है। यह बात समझे न!
अगर ऐसा मन हो कहने का, तो फिर हम उसको चैतन्य नहीं कह सकते हैं। फिर हम उसको कुछ भी नहीं कह सकते। असल में हम जब भी कुछ कहेंगे तो द्वैत होगा, डुआलिटी होगी। अगर हम इस जगत को कहें कि इसमें चैतन्य है, तो मानना होगा कि कुछ अचित भी है जिसमें चैतन्य है। अगर हम कहें इस जगत में अचैतन्य ही है तो भी हमको मानना पड़ेगा कि कुछ चैतन्य है। क्योंकि उसको अचित कहने का कोई कारण नहीं रह जाएगा।

प्रश्न: चैतन्य पदार्थ नहीं है?

न-न! असल में मेरी अगर बात समझो, जैसे मैंने अभी कहा कि कुछ है, उत्तेजित होता है तो मन कहलाता है; अनुत्तेजित होता है तो आत्मा कहलाता है। ऐसा ही कुछ है, कुछ है, कोई नाम की जरूरत नहीं है। उसको चाहे ब्रह्म कह लें, चाहे कुछ और कह लें। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि नाम देते ही दिक्कत शुरू होती है। कुछ है जो हमें दो रूपों में दिखाई पड़ता है--चैतन्य में और अचैतन्य में। एक है जहां वह बिलकुल स्पंदनशून्य है, वहां वह अचित मालूम होता है, पदार्थ मालूम होता है। और एक उसका ही वर्ग है, जहां वह परिपूर्ण स्पंदन से भरा हुआ है। वहां वह चैतन्य मालूम होता है, कांशसनेस मालूम होती है। यह एक ही वस्तु के, एक ही सत्ता के दो विभिन्न पहलू हैं, एक ही सत्ता के दो फंक्शन हैं।
चैतन्य और अचैतन्य पदार्थ नहीं हैं, वरन एक ही सत्ता के दो फंक्शन हैं। उस समग्र चैतन्य को ईश्वर का नाम दिया है। और समग्र पदार्थ को जगत का नाम दिया है। और दोनों की टोटेलिटी को ब्रह्म का नाम दिया है। मेरी बात समझोगी! समस्त चैतन्य की टोटेलिटी जो है वह है ईश्वर, समस्त पदार्थ की जो टोटेलिटी है वह है जगत, और दोनों की जो पूरी की पूरी टोटेलिटी है, वह है ब्रह्म। नाम देने की बातें हैं। नाम देने से कोई अनुभव नहीं होता है, न कोई बात है।

प्रश्न: अवतार क्या है?

सभी अवतार हैं। प्रत्येक व्यक्ति अवतार है। विशेष अवतारों को हम पूजने लगते हैं अविशेष अवतारों को भूल जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अवतार है। या तो ईश्वर सबमें है और या फिर किसी में नहीं है। ऐसा विशिष्ट मोनोपोली नहीं हो सकती राम की या कृष्ण की या किसी की कि वे हैं तो अवतार हैं और अ, ब, स अवतार नहीं हैं न उनके दावे हैं। ये हम दावा करते हैं। अगर ऐसा कोई समझे। अगर कोई ऐसा समझे कि मैं अवतार हूं और साथ ही यह न समझे कि दूसरे भी अवतार हैं, तो वह भ्रम में है। और अगर वह ऐसा समझे कि मैं भी अवतार हूं, और शेष सब भी अवतार हैं, तो वह ज्ञान में है।
प्रश्न: तो क्या गीता में जो कहा है, "यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत...।' वह क्या गलत है?

न, न, गलत-सही मैं कुछ नहीं कहता। मेरी जो बात है, वह मैं कह रहा हूं। अगर वह तुम्हें ठीक लगे, तो उसके विपरीत में सब गलत हो जाएगा। समझे मेरी बात को! किसी को गलत कहने का मुझे कोई कारण नहीं है। मुझे जो ठीक लगता है, वह भर मैं कहता हूं। तो मुझे यह ठीक लगता है कि या तो समस्त के भीतर प्रभु का अवतरण हुआ है...यह पार्शयलिटी नहीं हो सकती कि एक आदमी में ईश्वर का अवतरण हो जाए और शेष में अवतरण न हो। और जब हम कहते हैं, समग्र चैतन्य ईश्वर है, तो समग्र चैतन्य एक आदमी में कैसे अवतरित हो जाएगा!
ये जो धारणाएं हैं हमारी, ये जो इस तरह के प्रचलित खयाल हैं, इनका वास्तविक अनुभूतियों से बहुत कम संबंध है। इनका प्रचार और प्रोपेगैंडा और पच्चीस दूसरी बातों से संबंध है। तब इसका हर एक जगह...। हिंदू अपने अवतारों का नाम गिनाएंगे कि ये अवतार हैं। ईसा उसमें नहीं आते, उसमें महावीर नहीं आते, उसमें मुहम्मद नहीं आते। ये लोग नहीं हैं। ईसाइयों से पूछो, तो ईसा के सिवाय कोई ईश्वर-पुत्र नहीं है; बाकी सब विचारक होंगे। ईश्वर-पुत्र वही ईसा हैं। जैनों से पूछो, तो उनके चौबीस तीर्थंकरों के अलावा और कोई तीर्थंकर नहीं है, बाकी सब ऐसे ही हैं। यह सब प्रोपेगैंडा है। ये सब सेक्टेरियन प्रोपेगैंडा हैं। इनका सत्य से कोई संबंध नहीं है। अगर दुनियाभर के सब अवतारों का नाम जोड़ो, तो बहुत संख्या हो जाएगी।
अभी इस वक्त दुनिया में कोई तीन सौ आदमी हैं जीवित जो अपने ईश्वर होने का दावा करते हैं। अभी मैं इलाहाबाद में था तब तीन आदमी वहीं मौजूद थे। एक सम्मेलन में मैं गया, एक यज्ञ था। तो उस सम्मेलन में एक ने अपना नाम श्री भगवान रखा हुआ है। वह श्री भगवान ही अपने को कहते हैं। नाम ही उन्होंने...और कुछ नहीं है उनका। वे श्री भगवान ही हैं! तो मुझे पता चला कि यज्ञ में तीन आदमी हैं, जो कि दावा करते हैं कि वे भगवान के अवतार हैं।
यह दावा अहंकारग्रस्त है। असल में एक तरह का, मस्तिष्क का, अहंकार का अंतिम रूप होता है, जब आदमी अंतिम दावे करता है।

प्रश्न: आपने कहा न समाधि माने समाधान, समाधि में जो लोग पहुंच गए हैं!
कौन?
रामकृष्ण परमहंस

नामों की बात बहुत अर्थपूर्ण नहीं है। नामों की बहुत अर्थपूर्ण नहीं है। यह अर्थपूर्ण नहीं है कि कौन पहुंचा, कौन नहीं पहुंचा। यह हम तय नहीं कर सकते इतना ही हम तय कर सकते हैं कि हम अभी पहुंचे हैं या नहीं। क्योंकि तय करने में कोई मायने भी नहीं है। मेरी बात आप समझे न। यह तय करने में कोई मायने नहीं है कि रामकृष्ण पहुंचे या नहीं पहुंचे। इससे कोई अर्थ भी नहीं है। इसका कोई उपयोग भी नहीं है। उपयोग इस बात का है कि मैं समाधान में हूं या नहीं। लेकिन हमारी अधिकतर चिंताएं इस तरह की चलती रहती हैं कि कौन पहुंचा, कौन नहीं पहुंचा।
मैं अभी एक किताब पढ़ता था, तो उसमें एक बहुत अजीब बात मैंने देखी...।

प्रश्न: आपने कहा न, वह अहंकार है, जो अवतार मानते हैं अपने को?

हां, वह अहंकार का ही अंतिम चरम रूप है। नहीं तो कोई वजह नहीं है। जैसे ही व्यक्ति परिपूर्ण समाधि को उत्पन्न हो जाएगा, उसे तो यही पता नहीं चलेगा कि मैं भी हूं, और तुमसे अलग हूं। उसे तो यह भी पता नहीं चलेगा कि मैं तुमसे अलग हूं। लेकिन चीजें ऐसी हैं। दावे बहुत अजीब होते हैं।
रामतीर्थ अमरीका गए--पंजाब में एक साधु हुए। उनकी बड़ी ख्याति है, उनके ग्रंथों की बड़ी ख्याति है, उनके लेक्चर्स बहुत अदभुत थे। उन्होंने वेदांत की वहां, बड़ी उत्कट चर्चा की। वे वहां से वापस लौटकर भारत आए। वे काशी में ठहरे हुए थे। काशी में किसी पंडित ने यह कह दिया कि "बड़ा वेदांत-वेदांत लगाए हुए हैं, संस्कृत के दो शब्द आते नहीं हैं!' संस्कृत उनको जरूर नहीं आती थी। वे तो फारसी से पढ़े-लिखे थे। इतना कहते ही से वे इतने क्रुद्ध हो गए कि पंद्रह वर्षों से किसी ने उनमें क्रोध नहीं देखा था। रामतीर्थ में और लोग समझते थे कि वे तो ईश्वर अनुभूति को पहुंच गए हैं। वे इतने क्रुद्ध हो गए कि बीच मीटिंग छोड़कर चले गए। बड़े लोग हैरान हुए। वे जाकर काशी के पास एक गांव में संस्कृत सीखने लगे कि अब मैं संस्कृत सीख लूं।
मुझे तो मैं समझता हूं कि अगर सच में वे शांत हो गए थे, तो वे कह देते कि अगर संस्कृत जानने से वेदांत आता है, तो मैं नहीं जानता। बात खत्म थी। लेकिन संस्कृत सीखने का यह दुराग्रह तीव्र क्रोध का लक्षण है। फिर वे वहां से हिमालय गए। उनका एक शिष्य था सरदार पूर्णसिंह। उसने लिखा है कि उनके पत्नी और बच्चे उनसे मिलने आए, दर्शन करने। रामतीर्थ ने उनको दर्शन करने से इनकार कर दिया। उनको दर्शन देने से! पूर्णसिंह बहुत हैरान हुआ। उसने जाकर उनसे कहा, "यह क्या बात है! सारी दुनिया में आप कहते फिरे कि सबमें वही ब्रह्म विराजमान है। तो इस पत्नी भर में छोड़कर सबमें विराजमान है क्या? और किसी को कहीं भी आपने इनकार नहीं किया दर्शन के लिए। इस पत्नी ने क्या बिगाड़ा है! इसमें शायद ब्रह्म विराजमान नहीं है!' पूर्णसिंह ने कहा, "इससे मुझे इतना दुख होता है कि मैं जाता हूं। या तो उसे दर्शन दें या मैं भी जाता हूं। फिर मुझे भी आपके पास रहने की कोई जरूरत नहीं है।'
पूर्णसिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं उस दिन इतना चौंका कि मैं बहुत हैरान हुआ। रामतीर्थ ने बाद में आत्महत्या की। लोग कहने लगे कि जल-समाधि ले ली। लेकिन मुश्किल यह है कि नामों के साथ मोह-ग्रस्त हम इतने हो जाते हैं कि उनकी चर्चा नहीं की जा सकती। इसलिए मैं नामों की कभी चर्चा नहीं करता। क्योंकि हमारे सबसे मोह लगे होते हैं, पंथ लगे होते हैं, हिसाब-किताब लगा होता है। उनको एक दफा बड़ा मान लेने से हमारा अहंकार भी उनमें जुड़ जाता है। उनको अगर कोई कुछ कह देता है, तो दिक्कत हो। इसलिए व्यक्तियों की चर्चा करने से कोई फायदा नहीं है। फायदा तो उसूल समझ लेने का है।
इतना जानता हूं कि जिस व्यक्ति को समाधि उत्पन्न होगी, उसे "मैं' भाव विलीन हो जाएगा। वह यह कहने जाए कि मैं परमात्मा हूं, यह तो बहुत ही मुश्किल है। और अगर वह यह कहे कि मैं परमात्मा हूं और साथ में यह इम्पलीकेशन हो कि दूसरे लोग परमात्मा नहीं हैं तो इसको मैं अहंकार कहूंगा। अगर वह यह कहे कि मैं परमात्मा हूं क्योंकि तुम भी परमात्मा हो, तो मैं कहूंगा कि वह कोई बात अर्थ की है। लेकिन अगर तुम्हारे विपरीत वह ईश्वर होने का दावा करता हो तो यह अहंकार की ही कोटियां हैं। इसमें कोई बहुत भेद नहीं है। और एक कि चित्त की तरह की बातें विक्षिप्त स्थितियों के लक्षण हैं।
वहां अरब में मुहम्मद के बाद अनेकों पागलों को यह जुनून सवार हो जाता है कि मैं मुहम्मद हूं। एक बहुत बढ़िया मैं घटना पढ़ा।
दमिश्क के एक पागलखाने में वहां के बादशाह ने कुछ लोगों को बंद किया हुआ था, क्योंकि वहां तो इस पर उन्होंने कई को तो उन्होंने मार डाला, कई को तो उन्होंने मार डाला। इस वजह से कि कोई यह दावा कर दे कि मैं पैगंबर हूं। क्योंकि एक ही पैगंबर मुहम्मद, और एक ही कुरान और इसके बाद अब कोई न कुरान में तरतीम, न कोई संशोधन हो सकता है, न कोई पैगंबर आ सकता है।
किसी आदमी ने दावा किया हुआ था, तो उसको बंद किया था। बादशाह उससे मिलने जेल में गया और उससे जाकर कहा कि "क्यों, तुम्हारी तबीयत ठीक हो गई? अब तो वह भ्रम नहीं है तुम्हें मुहम्मद और पैगंबर होने का?' उसने कहा कि मैं तो हूं ही। ईश्वर ने मुझे संदेश लेकर भेजा है।' एक पागल एक कोने में पीठ किए बैठा था। वह बोला, "यह बिलकुल गलत कहता है। मैंने इसे कभी संदेश लेकर नहीं भेजा। यह बिलकुल गलत कहता है। मैंने इसे कभी संदेश लेकर नहीं भेजा है!' तब वह बादशाह तो हैरान ही हो गया। ये तो मुहम्मद ही थे! वे तो खुद ही परम पिता परमेश्वर थे। वे बोले इन्हें तो मैंने कभी भेजा ही नहीं।'
ये असल में मेनियाक स्थितियां हैं। विक्षिप्त स्थितियां हैं। अहंकार का अंतिम विस्फोट है। परम समाधि की स्थिति में तो उसे दर्शन होगा कि जो मेरे भीतर है।
बुद्ध के जीवन में एक घटना है। बुद्ध के पिछले जन्म बुद्ध ने कहे। अपने पिछले जन्मों की कथाएं जैसे महावीर ने कहीं, वैसे बुद्ध ने भी कहीं। वे पिछले जन्म में, दीपंकर नाम का एक बुद्ध था, उससे मिलने गए, तब वे स्वयं प्रबुद्ध नहीं थे; एक सामान्य जीव थे। वह जब दीपंकर को जाकर उन्होंने नमस्कार किया, तो दीपंकर ने भी झुककर उनको नमस्कार किया। तो वे बड़े हैरान हुए। उन्होंने उससे कहा कि आप तो बुद्ध हैं, और आप मुझे झुककर नमस्कार करें, तो शोभा नहीं मालूम होती। मैं तो अज्ञानी जीव हूं, मेरा नमस्कार करना योग्य है!'
तो दीपंकर ने कहा कि तुमको दिखता है कि तुम अज्ञानी हो। मुझको तो जो मेरे भीतर दिखता है, सो तुम्हारे भीतर दिखता है। तुमको मेरे भीतर अलग और अपने भीतर अलग दिखता है, क्योंकि तुम अज्ञानी हो। लेकिन मुझे तो जो मेरे भीतर दिखता है, वही तुम्हारे भीतर दिखता है, इसलिए मैं तो नमस्कार तुमको करूंगा, क्योंकि तुमने मुझे नमस्कार किया है।'
समाधि को उत्पन्न व्यक्ति को जो उसके भीतर दिख रहा है, वही तुम्हारे भीतर दिखेगा। अगर वह ये दावे करे कि मैं परमेश्वर हूं और मैं अवतार हूं और वह सारी बातें करे, तो ये दावे अर्थपूर्ण नहीं हैं। मेरा मानना यह है कि ईगो और अहंकार के अंतिम विस्फोट हैं, बड़े सात्विक विस्फोट हैं, वह और कोई दावा नहीं कर रहा, लेकिन विस्फोट अहंकार के ही हैं।

प्रश्न: शायद उन्होंने कहा भी न हो?
नहीं, कोई नहीं कहता। पीछे आरोपित होता है। कोई जरूरी नहीं कि वे कहें। पीछे आरोपित होता है, बहुत आरोपित होता है। क्योंकि हम बिना भगवान के नहीं रह सकते, बिना अवतार के नहीं रह सकते। हम किसी को भी खड़ा करके तत्काल अवतार खड़ा कर लेते हैं। हम सिक्योरिटी चाहते हैं, सुरक्षा चाहते हैं, सहयोग, सहारा चाहते हैं।
तो अगर मेरी बात ठीक है, तो इतने से काम थोड़े ही चलेगा। मेरी बात को पूरा ठीक होने के लिए जरूरी है कि मैं भगवान हो जाऊं! अगर मैं दावा न करूं, तो मुझे चार जन मिलकर दावा करेंगे, कि वे भगवान हैं। तब तो मेरी बात ठीक होगी। क्योंकि आदमी की कहीं बातें ठीक हुई हैं इस दुनिया में? बातें तो भगवान की ठीक होती हैं! तो बातें ठीक करने के लिए जरूरी होगा कि भगवान घोषित कर दो। बहुत कम लोग जगत में इतने ईमानदार हुए हैं, जो कि इस सात्विक अहंकार से बचे हैं। असल में तो गुरु होने में भी बड़े अहंकार की तृप्ति है। यह दावा करना कि मैं किसी का गुरु हूं, अहंकार की तृप्ति है। जो सच में आत्मिक जीवन को उपलब्ध हुआ है, वह न तो किसी का गुरु अपने को मानता है, न किसी को अपना शिष्य मानता है। वह यह अहंकार भी नहीं करेगा कि "मैं आपका गुरु, आपका शास्ता हूं। मैं जैसा कहूं वैसा करो।' ऐसा भी कहने का उसे कोई कारण नहीं रह जाता।
मुझे नहीं दिखता कि कोई अवतार कहीं होता है, या कोई सदगुरु होते हैं। जगत में जाग्रत पुरुष हैं, सोए हुए पुरुष हैं। जगत में जागे हुए ईश्वर हैं, सोए हुए ईश्वर हैं। मेरी बात समझे न!
मुझे दो ही बातें दिखाई पड़ती हैं। जगत में जागे हुए ईश्वर, जगत में सोए हुए ईश्वर। ऐसे लोग जिन्होंने अपने ईश्वरत्व को अनुभव कर लिया, और ऐसे लोग जो अपने ईश्वरत्व को अनुभव नहीं किए हैं। लेकिन जिन्होंने अनुभव कर लिया, वे ये दावे नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनको तो दिखाई पड़ रहा है कि दूसरे के भीतर भी वही सत्ता विराजमान है। सोए हुए ही ये दावे कर सकते हैं, या जागे हुओं के बाबत सोए हुए दावे कर सकते हैं। व्यक्तियों के नाम का कोई बहुत प्रयोजन नहीं है।

प्रश्न: अहंकार ऐसा तो अच्छा भी है। अहंकार की शक्ति के लिए लोग बहस बहुत करता है।
इसको जानने से क्या होगा यह बताइए? उलझन में पड़ जाएंगे। बंदर से आदमी हुए हैं या भगवान से आदमी हुए हैं, इससे क्या फर्क पड़ेगा! आप आदमी हो, यह तय है। और अब आपको बंदर होना है या भगवान होना है, यह आपको तय करना है।
दो रास्ते हैं या तो हम यह विचार करते रहें कि हम बंदर से आदमी हुए हैं या भगवान से आदमी हुए हैं।
पुराने लोग कहते थे, आप भगवान से आदमी हो गए हैं। नये लोग कहते हैं, आप बंदर से आदमी हो गए हैं। मेरे लिए दोनों फिजूल की बातें हैं। सवाल यह है, आप आदमी हैं। और अभी दोनों रास्ते आपके सामने खुले हुए हैं--चाहें तो बंदर हो जाएं, चाहें तो भगवान हो जाएं। महत्वपूर्ण यह है कि हमें क्या होना है। पशु भी हो सकते हैं। प्रभु भी हो सकते हैं। चिंतना को ऐसी दिशा दें, जो धीरे-धीरे मुक्ति की तरफ ले जाए। अपने को लाभदायक हो, और जो चिंतना सिर्फ चिंतना हो, जिसके परिणाम में कुछ तय न होता हो...।
मैं अभी एक जगह गया वहां मुल्ताई एक जगह गया। वहां मैं रात्रि को मीटिंग में बोलकर पहुंचा, तो दो वृद्ध लोग मेरे पास आए--ग्यारह बजे रात। दोनों काफी वृद्ध हैं, एक जैन और एक ब्राह्मण। उन दोनों ने आकर कहा कि हम दोनों बड़े पुराने मित्र हैं। बचपन के मित्र हैं। चालीस-पचास साल की मित्रता है। लेकिन हममें कई विवाद चलते रहते हैं। वे अभी तक हल नहीं हुए। जैसे एक विवाद यह ही तय नहीं हुआ कि जगत को ईश्वर ने बनाया है या नहीं बनाया है! तो हम लोग इससे परेशान हो गए हैं कई दफा। आज आपकी बातें हमको अपील कीं, दोनों को अपील कीं। ऐसा कम होता है कि हम दोनों को कोई एक ही आदमी की बात अपील करे। क्योंकि हम तो दोनों विरोधी हैं। एक दूसरे के विचार से सहमत नहीं हैं। आज हम दोनों को आपकी बातें अपील कीं, तो हमने कहा, हो सकता है हम दोनों को समाधान मिल जाए, तो आपके पास आए। यह तय होना ही चाहिए कि "जगत को ईश्वर ने बनाया है या कि नहीं बनाया है।'
तो मैंने उनसे कहा कि "अगर यह तय हो जाए कि जगत को ईश्वर ने बनाया, तो फिर आप क्या करोगे?' उन्होंने कहा, "क्या करेंगे!' और मैंने कहा, "अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर ने नहीं बनाया, तो आप क्या करोगे? इन दोनों में से कोई भी विकल्प तय हो जाए, तो आप तो जैसे हो वैसे ही रहोगे। इसलिए इनको तय करने में अगर आपने चालीस साल बकवास की, तो फिजूल खो दिए। उस विकल्प को तय करिए जो जीवन में क्रांति ला देगा। उस विकल्प को तय करिए, जिसका परिणाम परिवर्तन होगा।'
जीवन में बहुत छोटे-से प्रश्न हैं, जो तय करने जैसे हैं, और अगर वे तय हो जाएं, तो हममें फर्क होता है। अधिक प्रश्न ऐसे हैं, जो केवल व्यामोह हैं, केवल व्यर्थ का तर्क-वितर्क और विचार हैं, जिससे कोई निर्णय नहीं होता। कुछ भी तय हो जाए।
सबसे पहले हमें यह तय कर लेना चाहिए कि कुछ ऐसे बिंदु, जिनके उत्तर मेरे जीवन को बदल देंगे। तब आप पाएंगे, वे थोड़े से होंगे; बहुत ज्यादा होने वाले नहीं हैं, शायद एकाध ही होगा। जो मुक्ति की तरफ ले जाए, जो शांति की तरफ ले जाए, जो स्वज्ञान की तरफ ले जाए, ऐसी कोई जिज्ञासा स्पष्ट कर लेनी चाहिए। और नहीं तो हमारी जिज्ञासा से हम कोई भी उत्तर मिल जाएगा। मान लीजिए, यह हो जाए या वह हो जाए। यह तय हो जाए कि डार्विन ठीक है, या यह तय हो जाए कि डार्विन गलत है, तो आपमें कोई फर्क नहीं पड़ता। आप जहां हैं, वहां रहेंगे। अगर ऐसी चीजें हैं, तो ये इरलेवेंट हैं, असंगत हैं। जीवन में इनका कोई संबंध नहीं है।
सत्य की अनुभूति के लिए सम्यक जिज्ञासा जरूरी है। हमारी बहुत-सी जिज्ञासा असम्यक है, वह हम पूछते हैं। और हमको यह भी पता नहीं कि उसके पूछने से कोई लाभ होगा कि नहीं। तो मैंने भी निर्णय किया कि मैं आपके उन्हीं प्रश्नों के उत्तर दूं जिनसे आपको कोई लाभ होगा, नहीं तो नहीं दूं। क्योंकि देने से कोई मजा भी तो नहीं। देने का मजा जिनको है, उनकी बात अलग है। मुझे कोई उत्तर देने में मजा सा नहीं आता है कि कोई मजा है उसमें। यह मुझे लगे कि हां, इससे आपको कुछ लाभ, कुछ गति मिलेगी, तो मेहनत करने को मेरा मन होता है कि इस पर मेहनत की जाए।

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