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शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

उड़ियो पंख पसार-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(क्रांति का आह्वान)

दिनांक 12-5-1980 ओशो आश्रम पूना।
परिवार के भीतर शीलभंग को कैसे निर्मूल किया जाए और कैसे स्त्रियों को उससे लड़ने का बल प्राप्त हो? निंदा शीलभंग करने वाले की की जानी चाहिए, उसकी नहीं जिसका शीलभंग किया जाता है। लेकिन भारत में आक्रांत की निंदा, होती है और आक्रामक अपना खेल अबाध जारी रखता है और स्त्री मूक होकर दुख झेलती है। छोटी लड़की तक को यह दुख चुपचाप झेलना पड़ता है, जिस कारण आगे चल कर वह अपने पति के साथ वैवाहिक सुख तक भोगने से वंचित रह जाती है। पुरुष बलात्कार, शीलभंग, हिंसा आदि अपनी पाशविक प्रवृत्तियों पर काबू पाने में समर्थ क्यों नहीं हो पाता है?
पहला प्रश्न: ओशो, परिवार के भीतर शीलभंग को कैसे निर्मूल किया जाए और कैसे स्त्रियों को उससे लड़ने का बल प्राप्त हो? निंदा शीलभंग करने वाले की की जानी चाहिए, उसकी नहीं जिसका शीलभंग किया जाता है। लेकिन भारत में आक्रांत की निंदा, होती है और आक्रामक अपना खेल अबाध जारी रखता है और स्त्री मूक होकर दुख झेलती है। छोटी लड़की तक को यह दुख चुपचाप झेलना पड़ता है, जिस कारण आगे चल कर वह अपने पति के साथ वैवाहिक सुख तक भोगने से वंचित रह जाती है। पुरुष बलात्कार, शीलभंग, हिंसा आदि अपनी पाशविक प्रवृत्तियों पर काबू पाने में समर्थ क्यों नहीं हो पाता है?


यश कोहली! यह प्रश्न जटिल है। इसकी जड़ों में जाना होगा। शायद जड़ों तक जाने की तुम्हारी स्वयं भी हिम्मत न हो। ऊपर-ऊपर से देखने पर जो समस्या मालूम होती है, वह समस्या नहीं है, केवल समस्या के बाह्य लक्षण हैं। समस्या गहरे में है और ऊपर से कितनी ही लीपा-पोती करो, समस्या बदलेगी नहीं। लक्षणों को बदलने से कोई समस्या कभी बदली नहीं। जड़ काटनी होती है। और जड़ के संबंध में हमारी मनोदशा बड़ी विरोधाभासी है। जड़ को तो हम पानी देते हैं और पत्तियों को काटते हैं। जड़ को पानी देंगे, पत्तियों को काटेंगे, तो परिणाम यही होगा कि पत्तियां और घनी हो जाएंगी।
इस देश में पांच हजार वर्षों से सदाचार की शिक्षा दी जा रही है, परिणाम क्या है, नैतिकता का इतना धुआंधार प्रचार किया गया है, परिणाम क्या है? लेकिन मूल में जाने की हमारी हिम्मत नहीं पड़ती। और जब भी कोई लक्षण कोई प्रकट होता है, हम लक्षण को दबाने में लग जाते हैं। जैसे किसी आदमी को बुखार चढ़ा, अब बुखार का लक्षण तो है कि उसका शरीर गर्म हो जाएगा। लेकिन यह केवल लक्षण है, बीमारी नहीं। और यह लक्षण दुश्मन नहीं है। यह लक्षण तुम्हारा मित्र है। अगर शरीर गर्म न हो तो तुम्हें पता ही न चलेगा कि भीतर बीमारी है। भीतर की बीमारी की खबर तुम्हें मिल सके, इसलिए यह शरीर का आयोजन है कि वह शरीर को उत्तप्त कर दे, ताकि तुम्हें पता चल जाए, तुम कुछ कर सको। लेकिन ऐसे मूढ़ हैं और हम उन मूढ़ों में अग्रणीय हैं इस पृथ्वी पर कि हम इस लक्षण को बीमारी समझ लेंगे। तो फिर डुबाओ आदमी को ठंडे पानी में, बर्फीले पानी में, ताकि शरीर ठंडा हो जाए। शरीर तो ठंडा हो जाएगा, आदमी भी ठंडा हो जाएगा। समस्या तो नहीं मिटेगी। बीमारी तो नहीं मिटेगी, बीमार मिट जाएगा। यही हम कर रहे हैं।
इस समय जोर से चर्चा है, क्योंकि ये दुर्घटनाएं रोज बढ़ती जा रही हैं। बढ़ती जा रही हैं, ऐसा कहना शायद ठीक नहीं है; ये होती तो रोज रही हैं। लेकिन अखबारों के प्रचार, रेडियो के प्रचार, टेलीविजन के प्रचार, आधुनिक समस्याओं को तत्क्षण सारे देश में पहुंचा देने की सुविधा का परिणाम यह हुआ है कि हमें समस्याओं के प्रति जल्दी से खबर मिल जाती है। ये समस्यांए पुरानी हैं, नयी कुछ भी नहीं है, सदा होती रही हैं। लेकिन पता ही न चलता था। आज पता चलने लगा है। तो सारे देश के मन के सामने यह प्रश्न है।
तुम्हारा प्रश्न यश कोहली, महत्त्वपूर्ण है। लेकिन मुझे पता नहीं तुम कहां तक इसकी जड़ में जाने की तैयारी रखते हो। क्योंकि तुम्हारे प्रश्न में ही मुझे ऐसे संकेत मिलते हैं कि शायद जड़ में तुम जा न सकोगे। जैसे पहली बातः तुम इन वृत्तियों को ‘पाशविक वृत्ति’ कहते हो। पाशविक वृत्ति कहना ही इन वृत्तियों को दबाने का उपाय है, बदलने का नहीं। सदियों से हमने इन वृत्तियों को पाशविक कहा है, जैसे कि पाशविक हो तो निंदित हो जाती है। पशु को भी भूख लगती है, तुम्हें भी भूख लगती है, तो भूख पाशविक हो गयी। पशु को भी प्यास लगती है, तुम्हें भी प्यास लगती है, तो प्यास पाशविक हो गयी। पशु भी सोता है, तुम भी सोते हो, तो सोना पाशविक हो गया। तो फिर पशु जो करता है, वह तुम मत करना, नहीं तो पाशविक हो जाओगे। तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। तब तो सांस भी न ले सकोगे। सांस लेना भी पाशविक है। उठना, बैठना, चलना सब पाशविक है। फिर पाशविक क्या नहीं है? तुम्हारा सारा जीवन ही निंदित हो जाएगा।
और तुम्हारा सारा जीवन निंदित किया गया है। निंदा का एक परिणाम होता है कि आदमी दोहरा हो जाता है, उसके जीवन में दो द्वार हो जाते हैं। वह पाखंडी हो जाता है। बाहर के द्वार पर बंदनवार सजा लेता है, सुंदर फूलों की मालाएं लटका देता है, रंग बिरंगे बंदनवार, सुंगधित फूल, सुस्वागतम लिख देता है। यह द्वार असली नहीं है; इससे वह जीता नहीं। इस पर तो वह मेहमानों का स्वागत करता है। असली द्वार उसका पीछे से है, जहां से वह जीता है। लेकिन वह है पाशविक, उसको प्रकट कर सकता नहीं। उसको प्रकट करना निंदित होना है। तो हम अपने बैठकखानों को सजा लेते हैं और सारा घर गंदा।
इस देश में किसी के भी बैठकखाने को देख कर उसके घर के संबंध में अंदाज मत लगा लेना। और बैठकखाने में कोई जीता है? बैठकखाने में जो बस मेहमानों से मिलने का इंतजाम रहता है। बैठकखाने जीने के लिए नहीं होते। जहां जीता है, वहंा गंदगी है। जहां जीता है, वहां सब कूड़ा-कर्कट है। सब बैठकखाने का कूड़ा-कर्कट हटा कर सारे घर में इकट्ठा कर लिया है। वहां असली जिंदगी है। और बैठकखाना तो केवल दिखावा है। वह तो हाथी के दांत, दिखाने के और, खाने के और।
आदमी की जिंदगी दोहरी हो गयी है। पाशविक कहोगे तो दोहरी हो ही जाएगी। आखिर कौन चाहता है कि कहे कि मैं पशु हूं! मगर आदमी भी पशुओं की ही प्रक्रिया का एक अंग है। श्रेष्ठतम पशु है, मगर है तो पशु ही! परमात्मा हो सके, ऐसी संभावना वाला पशु है, लेकिन है तो पशु ही। इसलिए मुझे पाशविक शब्द में कोई निंदा नहीं मालूम होती।
और ‘पशु’ शब्द बड़ा महत्वपूर्ण भी है। पशु शब्द का अर्थ होता है: जो बंधन में पड़ा है। पाश में पड़ा हो, वह पशु। तो सिवाय बुद्धों को छोड़ कर सभी पशु हैं। सिर्फ जाग्रत पुरुषों को छोड़ कर सभी पशु हैं। धन का बंधन है, पद का बंधन है, मोह के बंधन है, लोभ के बंधन हैं, क्रोध के बंधन हैं--ये सब बंधन हैं। इस पृथ्वी पर बहुत थोड़े से ही मनुष्य हुए हैं जो पशुता के पार गए हैं। जिन्होंने परमात्मा को जाना है बस वे ही केवल पशुता के पार गए हैं। बाकी को तो उचित होगा कि वे अपनी पशुता को स्वीकार करें, क्योंकि स्वीकृति से रूपांतरण हो सकता है। जिस बीमारी को हम स्वीकार करते हैं उसे बदलने के लिए उपाय खोज सकते हैं। अस्वीकार ही कर दिया तो निदान से ही इनकार कर दिया, उपचार कैसे करोगे?
यश कोहली, तुम कहते हो: ‘पुरुष बलात्कार, शीलभंग, हिंसा आदि अपनी पाशविक वृत्तियों पर काबू पाने में समर्थ हो सकेगा?’
फिर यह भी थोड़ा सोचने जैसा है कि पशुओं में ऐसी वृत्तियां नहीं होतीं, जैसी वृत्तियां तुममें होती हैं। जैसे कोई पशु अपनी ही जाति के पशुओं को नहीं मारता, सिवाय मनुश्य को छोड़ कर। कोई सिंह किसी दूसरे सिंह की हत्या नहीं करता। कोई कुत्ता किसी दूसरे कुत्ते की हत्या नहीं करता। कुत्ते भी इतने गए-बीते नहीं होते। आदमी अकेला है जो दूसरे आदमियों को मारता है। इसको तुम पाशविक कहते हो? कौन पशु ऐसा है? तुम्हें पशुओं का सम्मान सीखना चाहिए। पशु तो ऐसा नहीं करते। यह होता ही नहीं पशुओं की दुनिया में। यही तो बड़ी गैर-पाशविक बात है। अगर पशुता ही बुराई का कारण हो, तो तो मनुश्य बड़े गजब का काम करता है जब वह आदमियों को मारता है, क्योंकि यह गैर-पाशविक काम है। जी खोल कर करो, क्योंकि इससे तुम पशुओं से पार जा रहे हो! नीचे गिर रहे हो भला, मगर कम से कम पशु तो नहीं हो!
पशु कुछ काम करते ही नहीं, जो आदमी ही करता है। जैसे कोई पशु आत्महत्या नहीं करता। तुमने सुना कि किसी कुत्ते ने आत्महत्या कर ली, कि किसी कबुतर ने आत्महत्या कर ली, कि गुटर-गूं गुटर-गूं करते थक गए, ऊब गए और लगा ली फांसी? आत्महत्या तो आदमी ही करता है। यह काम तो बड़ा गजब का है। यह तो तुम्हें एकदम पशुओं के पार ले जाता है।
कोई पशु बलात्कार नहीं करता। कोई पशु बलात्कार नहीं करता-सिवाय उन पशुओं को छोड़ कर, जो आदमियों के सत्संग में बिगड़ जाते हैं! अजायबघर में रहने वाले पशुओं की गिनती मैं नहीं कर रहा हूं, या जिन कुत्तों को तुम पाल लेते हो उनकी गिनती मैं नहीं कर रहा हूं। लेकिन पाकृतिक अवस्था में जंगल में कोई पशु बलात्कार नहीं करता। तुमने देखा होगा पशुओं को। पुरुष स्त्री के पास जाता है। जब तक स्त्री की यौन ग्रंथि एक विशेष गंध नहीं देती। उसे, तब तक वह उससे-संभोग नहीं करता। वह जो गंध है वह स्त्री की स्वीकृति है। इसलिए पशु-पुरुष स्त्री की योनि को सूंघते हैं। जब तक स्त्री सूचना न दे, स्वीकार न दे...। गंध से सूचना देती है। एक खास गंध खबर दे देती है पुरुष को कि वह राजी है।
लेकिन हमने तो बहुत तरह की गंधे ईजाद कर ली हैं। हमने इतनी गंधे ईजाद कर ली हैं कि आज तय ही करना मुश्किल है कि कौन सी गंध किस व्यक्ति की सहज गंध है। पुरुषों की स्त्रियां भी, जब किसी पुरुष में उत्सुक होती हैं संभोग के लिए तो उनकी योनि से वैसी ही गंध उठती है जैसी गंध पशुओं की योनियों से उठती है। लेकिन असंभव है उसे पहचानना। साबुनें हैं, डिओडरेंट हैं, परफ्यूम हैं--ये सब छिपाने के उपाय हैं। ये छिपाने के उपाय हैं ताकि पता न चल सके कि स्त्री हां भर रही है। ये हमारी जालसाजियां हैं। ये जालसाजियां हमें करनी पड़ीं, क्योंकि यह हो सकता है कि तुम्हारे घर एक मेहमान आए और तुम्हारी पत्नी की योनि से गंध उठने लगे उस मेहमान के लिए, फिर तुम क्या करोगे? नियमों का, कानूनों का कोई बंधन प्रकृति पर नहीं है। हो सकता है वह आतुर हो जाए, कामातुर हो जाए उस मेहमान के प्रति, तो तत्क्षण उसकी शरीर गंध देगा। लेकिन वह गंध तुम्हारी सारी सामाजिक व्यवस्था को तोड़ देगी। तो उस गंध को छिपाना जरूरी है। तो हम गंधों की पर्ते लेपे हुए हैं अपने ऊपर। फिर उनके ऊपर वस्त्रों को लपेटे हुए हैं, ताकि पता न चल सके। तो ऊपर-ऊपर शिश्टाचार चलता रहेगा।
अब जैसे अगर कोई पुरुष किसी स्त्री में उत्सुक हो जाए तो उसकी जननेंद्रिय तत्क्षण खबर दे देगी कि वह उत्सुक हो गया है। इसलिए वस्त्रों में ढांके रखना जरूरी है, ताकि ऊपर-ऊपर वह शिष्टाचार बताता रहे और भीतर-भीतर जलता रहे कामअग्नि में।
हमने मनुश्य को अप्राकृतिक कर दिया है। पाशविक नहीं, अप्राकृतिक। कोई पशु अजायबघरों को छोड़ कर होमोसेक्सुअल नहीं होते, समलैंगिक नहीं होते। हां, अजायबघरों में हो जाते हैं। अजायबघर की अजीब स्थिति है, इसलिए तो उसको अजायबघर कहते हैं। अब बंदरो को बंदरो के साथ रख दिया, उनको बंदरिएं मिलती नहीं, तो बंदर बंदरों पर हमला करने लगते हैं। मजबूरी है। कोई उपाय नहीं। उनकी नैसर्गिक वृत्ति को कोई तृप्ति नहीं मिल रही है, तो तृप्ति पाने के लिए कोई भी उपाय करेंगे।
जो हम मनुष्यों के साथ करते हैं, वही हम पशुओं के साथ करने लगे। लड़कों को हाॅस्टल में रख दिया, लड़कियों से अलग कर दिया। चैदह साल की लड़की मां बनने के योग्य हो गयी। उसके शरीर की ग्रंथियां संभोग के लिए योग्य हो गयीं। चैदह साल का युवक संभोग के योग्य हो गया। अब इन दोनों को हमने अजायबघरों में बंद कर दिया। लडका रहेगा लड़कोें के हाॅस्टल में। लड़की रहेगी लड़कियों के हाॅस्टल में। और बड़े सख्त पहरे हमने बिठा दिए हैं कि लड़कियों के हाॅस्टल में कोई लड़का प्रवेश नहीं कर सकता। करे भी प्रवेश तो रविवार के दिन, दिन में दस से बारह बजे तक-और वह भी अध्यापिकांए मौजूद रहेंगी, उनकी मौजूदगी में कुछ बातचीत करनी हो तो कर लो। और सबूत देना पड़ेगा कि भाई हूं, पिता हूं, रिश्तेदार हूं। अब इसके दुश्परिणाम होंगे। इसके दुष्परिणाम ये होंगे कि लड़के लड़कों के साथ ही लैंगिग व्यवहार शुरू कर देंगे। कौन जिम्मेवार है इसके लिए? तुम जिम्मेवार हो। लड़कों का क्या कसूर? लड़के क्या करें? कामवासना सजग हुई है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि अठारह साल की उम्र में कामवासना अपने शिखर पर होती है। और अठारह साल की उम्र में लड़का हाॅस्टल में होता है, जहां स्त्रियों से मिलने का कोई उपाय नहीं। शादी होगी उसकी पच्चीस साल में, सत्ताइस साल में, अठाइस साल में, तब तक कामवासना उतार पर आने लगी। अठारह साल में अपने शिखर पर थी, तब तो वह जला-भुना, तब तो उसने न मालूम क्या-क्या किया! हस्तमैथुन करेगा। कोई पशु हस्तमैथुन नहीं करता, कोई जरूरत नहीं है। यह कोई पाशविक काम नहीं है; यह बड़ा महान मानवीय कार्य है--हस्तमैथुन। यह कोई पशु नहीं करता। अगर तुम्हें पशुओं से ही तौल करनी है तो इस तरह के कामों का खूब प्रचार करो। महात्माओं को कहो ‘फैलाओ हस्तमैथुन लोगों में, क्योंकि यह काम तो सिर्फ आदमी ही करता है।’
धन्य है मनुश्य! बडे. आविश्कारक हैं! लेकिन तुम मजबूर कर रहे हो। अठारह साल में जब कामवासना प्रगाढ़तम है, जब कि युवक एक रात में कम से कम चार से सात बार तक संभोग करने में योग्य है, तब तुम उसे जला रहे हो। अब यह युवक अगर किसी स्त्री को रास्ते पर धक्का दे दे, किसी की साड़ी ही खींच दे, कंकड़ ही मार दे, तो इसको तुम पाशविक व्यवहार कहोगे? मैं कहता हूं: यह तुम्हारा समाज मूढ़ है, जिसका यह परिणाम है। फिर जब यह जलती हुई आग...और वासना आग है। और इस आग को रूपांतरित करने के लिए तुमने युवकों को क्या दिया है? तुमने कोई कला दी उन्हें? तुमने कोई ध्यान दिया उन्हें? तुमने कुछ योग दिया उन्हें, कि वे इस अपनी कामाग्नि को परिवर्तित कर लें, रूपांतरित कर लें? वह तो कुछ नहीं दिया। हां, तख्तियां लटका दी हैं कि ब्रह्मचर्य ही श्रेश्ठ जीवन है। तख्तियों से कुछ होता है? महात्मागण आते हैं, वे कहते हैं: ‘ब्रह्मचर्य ही श्रेश्ठ जीवन है।’ समझा रहे हैं महात्मागण कि ब्रह्मचर्य ही श्रेश्ठ जीवन है। और महात्मागणों के जीवन में भी कोई ब्रह्मचर्य नहीं है। सबको उनका जीवन भी पता है।
तुम्हारे एशि-मुनियों के जीवन में कोई ब्रह्मचर्य नहीं था। छोड़ो एशि-मुनियों के, तुम्हारे देवी-देवताओं के जीवन में कोई ब्रह्मचर्य नहीं है। और इन्हीं देवी देवताओं की पूजा चलती है। इनको तुम पाशविक नहीं करते, यश? और आदमी को पाशविक कहते हो! तुम्हारे पुराण उठा कर देखो। तुम्हारे धर्मशास्त्र जला डालने योग्य हैं, जिनकी तुम पूजा करते हो। अगर तुम्हें जड़ बदलनी है तो वहां जाना होगा। तुम्हारे सब देवी-देवता भ्रश्ट हैं। स्वर्ग में तुम्हारे देवता करते क्या हैं? नचा रहे हैं अप्सराओं को-उर्वशी नाच रही है, मेनका नाच रही है। और इतने से भी उनका मन नहीं भरता, तो ऋषि-मुनियों की पत्नियों को सताने आ जाते हैं। चंद्रमा उतर आता है छिप कर किसी एशि की....बेचारे एशि गए हैं नहाने ब्रह्ममुहूर्त में....तब मैं समझा कि क्यों एशियों को ब्रह्ममुहूर्त में नहाने भेजते हैं! भेज दिया अंधेरे में नहाने उनको तो देवी-देवता आ गए! अब देवता हैं तो वे तो कोई भी चमत्कार करें। तो वे एशि के वेश में आ गए। पत्नी समझी कि पतिदेव लौट आए हैं। वह तो बाद में पता चला जब पतिदेव लौटे नहा-धोकर। मगर तब तक सब मामला खतम ही हो चुका है। चंद्रमा उनकी स्त्री की इज्जत लूटकर चले गए। ये तुम्हारे देवी देवता हैं!
तुम जरा अपने सारे देवी-देवताओं की लिस्ट तो बनाओ और उनके नाम के आसपास उनके कृत्यों का उल्लेख तो करो! तुम चकित हो जाओगे। इनकी तुम पूजा कर रहे हो! सदियों से इनका गुणगान कर रहे हो! तुम्हारे वेद इनकी स्तुतियों से भरे हैं-‘हे इंद्र देवता! हे चंद्रदेव! हे सूर्यदेव!’ मगर इनकी कारगुजारियां तो देखो। और अगर साधारण आदमी यही काम करे, कि ऋषि-मुनि गए ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने को और उनकी स्त्रियों से मिलने पहुंच जाए, तो यह पाशविक व्यवहार कर रहा है! और तुम्हारे देवता दिव्य व्यवहार कर रहे हैं!
ये दोहरे मापदंड छोड़ने होंगे। यह बेईमानी छोड़नी होगी।
पशुओं में न तो हस्तमैथुन है, न बलात्कार है। हां, लेकिन दोनों बातें घटती हैं पशुओं में भी अजायबघर में। अजायबघर के जो लोग निरीक्षक हैं, वे लोग चकित हुए हैं कि क्या बात है, जगल में ये बातें नहीं होतीं, अजायबघर में क्यों होती हैं! बात सीधी साफ है, इसके लिए कोई बहुत बड़े शोधकार्य करने की जरूरत नहीं है। छोटी-मोटी बुद्धि का आदमी भी समझ ले कि बात सीधी साफ है। तुमने यहां वही काम कर दिया जो तुमने आदमियों के साथ किया। तुमने बांट दिए, यहां बंदरों को एक कटघरे में कर दिया, बंदरियों को दूसरे कटघरे में कर दिया। उपद्रव शुरू हो जाएगा। अड़चनें शुरू हो जाएंगी।
स्त्रियां भी हस्तमैथुन में पड़ जाती हैं। मगर स्त्रियां पकड़ी नहीं जातीं; उतनी आसानी से नहीं पकड़ी जा सकतीं जितनी आसानी से पुरुष पकड़े जा सकते हैं। क्योंकि स्त्रियों की जो यौन-तंत्र की व्यवस्था है, वह आंतरिक है। पुरुषों की यौन-यंत्र की व्यवस्था बाह्य है। वे जल्दी पकड़े जा सकते हैं। इसलिए लोग सोचते हैं आमतौर से: अगर दो पुरुषों में बहुत दोस्ती हो और गले में हाथ डाल कर और फिल्मी गीत गाते हुए तुम उनको जाते देखो, तो शक होता है। मगर दो स्त्रियां खूब सहेलियां हों गहरी तो तुम्हें शक नहीं होता। क्यों? उनको कहते हैं, वे सहेलियां हैं। और ये पुरुष, इन पर शक होने लगता है। लेकिन जो इन पुरुषों में हो रहा है वही स्त्रियों में हो रहा है, कुछ फर्क नहीं है। यह दमित वासना मार्ग खोज रही है। यह वासना इतने मार्ग खोज सकती है कि आदमियों की तो बात छोड़ दो, यह वासना पशुओं तक अपने को पहुचा सकती है। चरवाहे अक्सर पकड़े गए हैं पशुओं के साथ संभोग करते, मगर सिर्फ चरवाहे। करेंगे क्या! अब कोई चरवाहा जिंदगी भर भेड़ों को ही चराता रहे! उसके जीवन में भी वासना जगती है और भेड़ों के अतिरिक्त और कोई उपलब्ध नहीं है।
मैंने सुना है कि एक चरवाहे ने-नीग्रो था चरवाहा-अपने अंग्रेज मालिक से कहा: ‘मालिक, मेरे घर बेटा हुआ है। मगर बड़ी हैरानी की बात है। मैं भी काला, मेरी पत्नी भी काली-और बेटा बिलकुल गोरा हुआ है। मुझे बड़ा शक होता है।’ उसे शक अपने मालिक पर था।...‘क्योंकि मैं तो दिन भर चला जाता हूं जंगल तुम्हारी भेड़ें चराने, पत्नी घर छूट जाती है। मैं जवाब चाहता हूं इसका। यह कैसे हो सका?’
मालिक ने कहाः ‘अरे तू नाहक गरम हुआ जा रहा है। यह तो कई दफा हो जाता है। तूने देखा होगा...काली भेड़ और काली मादा और काला ही नर और कभी-कभी उनका सफेद बच्चा पैदा हो जाता है। यह कोई खास बात नहीं है। अपने पास ही देख, सब भेड़ें सफेद हैं, लेकिन कभी कभी काला बच्चा पैदा हो जाता है। ऐसे ही यह बात है, पाकृतिक घटना है, इसमें तू इतना परेशान न हो।’
नीग्रो ने कुछ सोचा। उसने कहा कि ठीक है, तो फिर मैं एक बात आपसे कह दूं कि मैं आपके संबंध में चुप्पी रखूंगा। और आप अगर भेड़ों को कभी काला बच्चा पैदा हो, तो उनके संबंध में चुप्पी रखना। न मैं आपके संबंध में कुछ कहूंगा, न आप मेरे संबंध में कुछ कहना।
आदमी पशुओं के साथ संभोग करता हुआ भी पाया जाता है! पशु तो ऐसा नहीं करते हैं। इसलिए पाशविक शब्द में जो निंदा भरी है, उसे छोड़ दो। यह पशुओं के साथ अन्याय है। ये तो मनुश्यों की खूबियां हैं। इनमें बेचारे गरीब पशुओं को मत गिनो।
और ये मनुष्यों की खूबियां कैसे पैदा हुई हैं, इसके लिए जिम्मेदार कौन है? तुम लोगों को पकड़ लेते हो।
मैं विश्वविद्यालय में अध्यापक था। एक दिन बैठा था पिं्रसीपल के कमरे में, एक लड़की को लाया गया। वह रो रही थी। उसने प्रिंसीपल को कहा कि एक लड़का मुझे बहुत परेशान करता है; जहां भी जाती हूं, धक्का-मुक्की करता है; चिट्ठियां लिखता है; मेरा नाम बोर्ड पर लिख देता है बड़े-बड़े अक्षरों में; दीवालों पर मेरा नाम लिख देता है; फिल्मी गाने लिख-लिख कर भेजता है। और आज मैं गुजर रही थी तो उसने मुझे पत्थर मारा। यह पत्थर है। कुछ आपको करना पड़ेगा।
मैं वहां बैठा था। प्रिंसीपल ने कहा कि आप क्या कहते हैं, क्या करना चाहिए? मैंने उस लड़की की तरफ देखा और मैंने कहा कि मैं तुझसे कुछ बातें पूछता हूं। पहली तो बात यह कि अगर कोई लड़का तुझे धक्का न मारे और कोई लड़का तेरी साड़ी न खीचें और कोई लड़का कंकड़ न मारे, कोई लड़का तेरी तरफ देखे ही नहीं, तू है भी या नहीं इसका भी कोई लड़का विचार न करे--उस अवस्था को तू चुनेगी या यह अवस्था जो चल रही है इसको तू चुनेगी?
उसने मेरी तरफ गौर से देखा। उसके आंसू सूख गए। उसने कहा: ‘मैंने इस तरह कभी सोचा नहीं।’ एम. ए. की विद्यार्थिनी थी, समझदार लड़की थी। उसने कहा: ‘मैंने इस तरह कभी सोचा नहीं।’ मैंने कहा: ‘फिर तू सोच कर आ, क्योंकि मुझे उन लड़कियों का भी पता है जिनको कोई धक्के नहीं मारता। उनके प्राणों में एक ही आकांक्षा है कि कोई धक्का मारे। मैं उन लड़कियों को भी जानता हूं जिनको कोई कंकड़ नहीं मारता। कोई कंकड़ मारता ही नहीं, भूल से भी नहीं मारता! मैं उन लड़कियों को जानता हूं जिनको हरेक लड़का अपनी बहन मानता है। और उनका दुख भी मैं जानता हूं। मुझसे एक लड़की ने कहा है कि ‘मैं क्या करूं, क्या न करूं, जो देखो वही मुझसे कहता है--बहनजी! मेरे भाग्य में यही लिखा है? कभी कोई मुझे प्रेम करेगा या नहीं करेगा!’ उसकी शक्ल ही ऐसी थी कि उसको देख कर कोई भी बहनजी कहे। उसका पति भी होगा तो उसको बहनजी ही कहेगा।
और मैंने पूछा कि से लड़के कंकड़ मार रहे हैं, फिल्मी कवितांए लिखते हैं, दीवाल पर तेरा नाम लिखते हैं, इसे तू सच बोल, ईमान से बोल, कसम खा कर बोल-तेरे भीतर कुछ प्रसन्नता होती है या नहीं होती?
उसने कहा: ‘आप भी किस तरह की बातें पूछते हैं! मैं रोती हुई आयी हूं।’
मैंने कहा: ‘मैं तेरा रोना देख रहा हूं, वह ऊपर-ऊपर है। मैं तेरे भीतर तक देख रहा हूं। तेरे रोने के भीतर एक तरह की गरिमा है, एक तरह का गौरव है; वह भी मैं तेरे आसुओं में भीतर छिपा देखता हूं।’
मैंने कहा: ‘यह प्रिंसीपल की समझ में नहीं आएगा। इनकी बुद्धि मारी गयी है। ये पिटी-पिटायी लकीरों के मालिक हैं। ये लकीर के फकीर हैं, इनकी बुद्धि में नहीं घुसेगी बात। लेकिन मैं तुझसे पूछता हूं, तेरी बुद्धि अभी भी इतनी नहीं सड़ गयी है, तू मुझे साफ-साफ कह।’
उसने कहा: ‘आप कहते हैं तो मुझे स्वीकार करना पड़ता है भीतर तो मुझे अच्छा लगता है।’
तो फिर मैंने कहा: ‘शिकायत किसलिए?’
असल बात यह है यह शिकायत करनी भी अच्छी लगती है। इस शिकायत से ही तो पता चलता है औरों को भी कि देखो वे लोग पत्थर मार रहे हैं, कि लोग धक्के मार रहे हैं, कि लोग फिल्मी गीत लिख रहे हैं!
मैंने सुना है एक कैथलिक पादरी के पास एक स्त्री हर रविवार को आती थी। कैथलिक धर्म में तो कन्फेशन होता है, तो कोई पाप किए हों तो हर रविवार को जाकर पुरोहित के सामने उनको स्वीकार कर लेने से क्षमा हो जाते हैं। वह कैथलिक पादरी घबड़ा गया था इस औरत से। न तो देखने-दिखाने में ठीक थी। सुंदर स्त्रियां हों तो कैथलिक पादरी को भी उनको पाप सुनने में आनंद आता है, रस ले-ले कर सुनता है, विस्तार में पूछता है कि फिर क्या हुआ...फिर और क्या हुआ...फिर और आगे बताओ! मगर यह स्त्री उसकी जान खाए जा रही थी। देखने में भी बदशक्ल थी, भयानक थी और हर रविवार बेचूक मौजूद हो जाती थी। एकदम मन खट्टा हो जाता था। रविवार की पुरोहित बेचारा प्रतीक्षा करता था। कैथलिक पुरोहित रविवार की प्रतीक्षा करता है। रविवार ही उसका सुख का दिन है, क्योंकि रविवार को ही लोग अपने पाप बताने आते हैं। उनमें ज्यादातर स्त्रियां ही होती हैं।
जब बहुत घबड़ा गया इस स्त्री से तो एक दिन उसने कहा कि बाई, यही का यही पाप तू कितनी दफे सुना चुकी है, मैनें तुझसे कितनी दफे कह दिया कि माफ हो गया यह तो! एक ही पाप है, वह भी तुमने कोई तीस साल पहले किया था। अब क्या बार-बार जिंदगी भर...कुछ और भी करेगी कि बस इसी इसी का...! मैं भी थक गया। एक ही पाप...तीस साल पहले कि किसी पुरुष से उसने प्रेम किया था। वही-वही सुनाती है। तो तू क्यों सुनाती है? यह तो कब का माफ हो चुका! अब इसको बार बार सुनाने की जरूरत नहीं है।
उस स्त्री ने कहा: ‘लेकिन इसे सुनाने में मुझे इतना मजा आता है कि दिल बाग-बाग हो जाता है। फिर उसके बाद तो कुछ बात घटी ही नहीं। फिर उसके बाद तो कुछ बात बनी ही नहीं। बस जो कुछ है वहीं अटका है। और रविवार की राह देखती हूं। और तो कोई सुनने को राजी भी नहीं। तुमको तो सुनना ही पड़ेगा। और मैं तो जब तक जिंदा हूं तब तक कन्फेशन करूंगी, कि मैंने यह पाप किया था कि एक रात एक पुरुष के साथ सोयी थी!’
लोग इतनी विकृति में हैं, यश-उसका कारण? सदियों से सड़ी-गली धारणाओं में उनको पाला गया है। लड़के और लड़कियों को साथ-साथ बड़ा होने दो और नब्बे प्रतिशत बेवकूफियां विदा हो जाएंगी। कुछ और करना न पड़ेगा। उनको साथ साथ बड़ा होने दो; एक ही छात्रावासों में बड़ा होने दो; एक ही स्कूलों में पढ़ने दो। स्वभाविक जीवन को स्वीकार करो। कुछ पाप नहीं है, कुछ बुराई नहीं है। और यह उचित ही है कि इसके पहले कि कोई लड़की विवाह करे, कोई लड़का विवाह करे, उनके संबंध कुछ लड़के लड़कियों से हो जाएं।
तुम किस डाक्टर के पास जाकर आपरेशन कराना पंसद करते हो? जिसने कुछ आपरेशन किए हों।
मुल्ला नसरुद्दीन आपरेशन कराने गया था डर रहा था, घबड़ा रहा था। डाक्टर ने कहा: ‘क्यों घबड़ता है भाई? बिलकुल मत घबड़ा। लेट।’
नसरूद्दीन लेट तो गया, मगर उसके हाथ-पैर कंप रहे हैं। ऐसे तो पसीना पसीना हो रहा है गरमी की वजह से, मगर हाथों में कंपन, पैरों में कंपन, जैसे सर्दी लग रही हो! डाक्टर ने कहा: ‘तू क्यों इतना घबड़ाता है? क्या बात है?’
उसने कहा: ‘मैं इसलिए घबड़ा रहा हूं डाक्टर साहब कि यह मेरा पहला ही आपरेशन है।’
उसने कहा: ‘तू बिलकुल ही निशिं्चत हो, अरे मेरा भी यह पहला ही आपरेशन है! देख मैं घबड़ा रहा हूं? तो तू क्यों घबड़ाता है?’
तुम उस डाक्टर से आपरेशन कराने जाओगे, जिसे आपरेशन का अनुभव हो। इस दुनिया में विवाह इसीलिए बरबाद होते हैं कि दोनों गैर-अनुभवी होते हैं-न पुरुष ने किन्हीं स्त्रियों को जाना है, न स्त्री ने किन्हीं पुरुषों को जाना है। यह पहली ही पहचान है। कोई अनुभव नहीं; दोनों गैर-अनुभवी हैं। यह खतरनाक धंधा है, जो हमने शुरू किया है। दो गैर-अनुभवी लोगों को साथ-साथ जोड़ देना, बांध देना उनके पल्लू, गंाठें लगा देना, सात चक्कर लगवा देना--जैसे कि बस पर्याप्त हो गया! और तुम देखते हो, सब कहानियां यहीं खत्म हो जाती हैं! शहनाई बज रही है, चक्कर सात पूरे हुए, कहानी खतम! कहानी नहीं, फिल्में तक खतम यहीं होती हैं! शहनाई बजती जाती है, और चक्कर लगते जाते हैं, मंत्रोच्चार हो रहा है और फिल्म खतम! और कहानियां कहती है: ‘उसके बाद दोनों सुख से रहने लगे।’ उसके बाद कोई कभी सुख से रहा है? इससे बड़ा झूठ तुमने सुना है? उसके बाद फिर कहां जिंदगी!
मुल्ला नसरूद्दीन की शादी हुई। पांच-सात दिन बाद एक मित्र मिलने आए-चंदूलाल और उन्होंने कहा कि भाईजान, स्वागत है, अभिनंदन है।
मुल्ला ने कहा कि ‘भाईजान’ कहना बंद करो। अब तो बस भाई ही भाई बचे है, जान कहां! बस कोरे भाई ही भाई। गुजराती भाई समझो। जान वगैरह तो गयी। वह तो उसी दिन चली गयी जिस दिन विवाह हुआ।
गैर-अनुभवी लोगों को साथ जोड़ दोगे तो उसके कई दुष्परिणाम होने वाले हैं। अपनी पत्नी से परिचित नहीं, अपने पति से परिचित नहीं, और किन्हीं दूसरे पुरुषों को जाना नहीं, और किन्हीं स्त्रियों से पहचान नहीं हुई-तो इसका एक परिणाम तो यह होता है कि मन भागा-भागा फिरता है, कि पता नहीं कोई दूसरी स्त्री तृप्ति दे देती! पुरुष का मन सोचता है कि इस स्त्री से तो तृप्ति मिल नहीं रही, यह स्त्री तो गलत साबित हो गयी, यह स्त्री तो बोझ हो गयी, यह तो उबाने वाली साबित हो रही है, शायद कोई और स्त्री! और चारों तरफ सजी-बजी स्त्रियां घूम रही हैं, तो आकर्शण स्वाभाविक है। स्त्री के मन में भी होता है, हालांकि स्त्री इतने प्रगट रूप से नहीं कह सकती। क्योंकि स्त्रियों को पांच हजार साल से दबाया गया है; इतना दबाया गया है कि उनको खुद भी पता नहीं रहा है कि उनके अचेतन में क्या-क्या छिप गया है। मगर वह भी सपने देखती है। उसके सपने में भी दिलीप कुमार...इत्यादि-इत्यादि प्रकट होते हैं। कोई पुरुषों के ही सपने में हेमामालिनी आती है, ऐसा नहीं है। मगर सपनों की बातें...
और ये आकांक्षाएं तुम प्रकट रूप से देखोगे पुरुषों में; स्त्रियों में अप्रकट रूप से देखोगे। स्त्रियां घर में तो रणचंडी बनी बैठी रहती हैं, लेकिन घर के बाहर जब जाती हैं तो उनका साज-सिंगार देखो। क्योंकि पति में तो उन्हें कोई रस है नहीं, लेकिन बाहर! बाहर वे भी दिखलाना चाहती हैं कि हम भी कुछ हैं! बाहर उनका रस है। बाहर के पुरुषों में रस है। बाहर के पुरुष उन्हें आकर्शित करते हैं। अपना पुरुष तो बिलकुल ही फिजूल मालूम पड़ता है कि कहां दुर्भाग्य से, किन कर्मो के फल से ये सज्जन मिल गए! मगर अब गुजारना पड़ेगा। यह जिंदगी तो गुजारनी ही पड़ेगी।
वह तो स्त्रियां बलात्कार नहीं कर सकती, क्योंकि उनके शरीर की व्यवस्था बलात्कार करने की नहीं है। करना भी चाहें तो बलात्कार नहीं कर सकतीं। नहीं तो स्त्रियां भी बलात्कार करतीं। पुरुष बलात्कार कर सकता है। इसलिए पुरुष बलात्कार करता है।
हम बलात्कार की तो निंदा करते हैं, लेकिन हम यह नहीं पूछते कि बलात्कार पैदा ही क्यों होता है। हम जड़ में नहीं जाते। बस हम लक्षणों के ऊपर फिकर कर लेते हैं।
मैं भी विरोधी में हूं बलात्कार के, लेकिन मैं जड़ से विरोध में हूं। मैं चाहता हूं एक और ही तरह की समाजिक व्यवस्था होनी चाहिए, एक और ही तरह की मन की आयोजना होनी चाहिए। कुछ आदिवासी समाज हैं, जैसे बस्तर का आदिवासी समाज है, वहां बलात्कार कभी नहीं हुआ। कोई उल्लेख नहीं है। तुम पूछोगे: ‘क्यों?’ अगर बस्तर के आदिवासियों के बीच बलात्कार नहीं होता, तो तुम तो सभ्य हो, सुसंस्कृत हो, तुम्हारे बीच तो बलात्कार होना ही नहीं चाहिए। मगर जितने सभ्य, जितने सुसंस्कृत उतना ज्यादा बलात्कार। सच तो यह है कि बलात्कार के हिसाब से तुम पता लगा सकते हो कि कितने सुसंस्कृत हो और कितने सभ्य हो; वही मापदंड है। आदिवासी जंगली हैं, मगर बलात्कार नहीं करते। क्या कारण होगा?
मैं तो बस्तर गया इस जांचने, देखने, रहा बस्तर कि क्या राज होगा, क्योंकि इस तरह के कबीले दुनिया से खो गए हैं। बस्तर का कबीला भी खोया जा रहा है, मिटा जा रहा है, क्योंकि हम उसको बचने नहीं देंगे। हम समझते हैं ये अशिष्ट हैं, असभ्य हैं। हम स्कूल खोल रहे हैं, अस्पताल खोल रहे हैं। ईसाई मिशनरी जा कर उनको शिक्षा दे रहे हैं। ये ही मूढ़, जिनने तुम्हें बरबाद किया है, वे उनको बरबाद करने पहुंच रहे हैं। और बड़ी आशा से कि उनकी सहायता कर रहे हैं, सेवा कर रहे हैं। जल्दी मर जाएंगे ये लोग; बच नहीं सकते, कैसे बचेंगे? हमारे पास खूब साधन हैं और हम उनको प्रलोभित कर लेते हैं आसानी से। हम उनको पकड़ा देंगे रेडिओ और हम उनको पकड़ा देंगे ट्रांजिस्टर सेट और पकड़ा देंगे उनको साइकिलें और पकड़ा देंगे सारी बीमारियां, ताकि अस्पताल जरूरी हो जाएं। और पकड़ा देंगे उनको शिक्षा, स्कूल और महत्वाकांक्षाएं और अहंकार की दौड़ कि बस सब खत्म हो जाएगा। और वहां हमारे पादरी और मिशनरी और हिंदू पंडित और पुरोहित...क्योंकि वे भी पीछे नहीं रह सकते, उनको भी डर है कि ये सब कहीं ईसाई न हो जाएं। तो आर्य-समाजी भी पंहुच गए हैं।
मेरे एक आर्य-समाजी संन्यासी मित्र हैं, वे भी वहां अड्डा जमाए थे। मैंने पूछा: ‘तुम यहां क्या कर रहे हो?’
उन्होंने कहा: ‘हम कैसे पीछे रह सकते हैं! ये सब ईसाई बनाए डाल रहे हैं, हम इनको आर्य समाजी बना कर रहेंगे।’
ये गरीब बच नहीं सकते। और इनका सबका हमला किस बात पर है? जिस बात पर हमला है, वही कारण है वहां बलात्कार के न होने का। तुम चकित होओगे जान कर। बस्तर के आदिवासियों में एक व्यवस्था है, उस व्यवस्था का नाम है--घोटूल। हर छोटे गंाव में, छोटे-छोटे गांव हैं, जहां कहीं दो सौ आदमी रहते हैं, कहीं तीन सौ आदमी रहते हैं ज्यादा से ज्यादा एक घोटूल होता है। गांव के बीच में एक सार्वजनिक मकान होता है। जैसे ही बच्चे उम्र पर आ जाते हैं, काम की दृश्टि से, यौन की दृश्टि से प्रौढ़ होने लगते हैं-लड़कीयां तेरह साल की, लड़के चैदह साल के--बस उनको घोटूल में सोना पड़ता है। उनको फिर घर नहीं सूलाते। उनको घोटूल भेज देते हैं। दिन भर वे घर रहें, काम करें, लेकिन रात घोटूल में सोएं। तो सारे गांव की लड़कीयां और सारे गांव के लड़के रात घोटूल में सोते हैं। और उनको पूरी स्वतंत्रता है कि वे प्रेम करें, संबंध बनाएं। हालांकि कुछ नियम हैं, बड़े अद्भुत नियम हैं! एक नियम यह है कि कोई भी लड़का किसी स्त्री के साथ तीन दिन से ज्यादा न रहे, ताकि सारी स्त्रियों का अनुभव कर सके। स्वभावतः सारी स्त्रियां भी सारे पुरुषों का अनुभव कर लेंगी। गांव के सारे पुरुष और सारी स्त्रियां एक-दूसरे से परिचित हो जाएंगे। दो वर्ष घोटूल में रहने के बाद वे तय करेंगे कि तुम्हें कौन सी लड़की पंसद है, किस लड़की को कौन-सा लड़का पसंद है? फिर उनकी शादी की जाएगी। ये शादी बड़ी वैज्ञानिक मालूम होती है। इन्होंने गांव की सारी लड़कियां पहचान लीं, सारे लड़के पहचान लिए, तब निर्णय लिया है। अब आकर्शण आसान नहीं रहा। अब इनको भलीभांति पता है, हर लड़की पता है, हर लड़का पता है। इसलिए अब दूसरे की पत्नी इनको आकर्शित नहीं करेगी। इन्होंने सारे अनुभव के बाद निर्णय लिया है। निणर्य कोई जन्मपत्री देख कर नहीं लिया गया है और निर्णय किसी पंडित-पुरोहित ने, बाप-दादों ने नहीं लिया है; निर्णय खुद लिया है और अनुभव से लिया है। और अपनी पहचान से लिया है। कौन-सी लड़की ने किस लड़के को सर्वाधिक तृप्ति दी और कौन-से लड़के ने किस लड़की को सर्वाधिक आनंद दिया। कौन दो एक-दूसरे से मिल कर तालमेल हो गए।
और तीन दिन से ज्यादा एक साथ रहना नहीं है, ताकि मोह पैदा न हो, आसक्ति पैदा न हो। ये देखते हैं-अनासक्ति का प्रयोग! और अगर तीन दिन से ज्यादा रहोगे तो फिर और लड़कीयों से वंचित रह जाओगे। और फिर ईश्र्या भी पैदा होगी। समझ लो कि एक सुंदर लड़की है, उसके साथ एक लड़के का मेल बन गया, वह उसको छोड़े ही नहीं, तो गांव के दूसरे लड़के उस सुंदर लड़की के प्रति आतुर होने लगेंगे, ईश्र्या जन्मेगी, संघर्श पैदा होगा। नहीं तो तीन दिन के बाद लड़कियां-लड़के अपना संबंध बदल लेंगे। एक-एक लड़की से दो साल के भीतर कई बार संबंध आएगा, मगर तीन दिन से ज्यादा नहीं।
ये घोटूल की व्यवस्था को ईसाई मिशनरी भी कहता है पाप, तुम भी कहोगे पाप, ंिक हद हो गयी पाप की! और आर्य-समाजी भी कहता है महापाप! यह घोटूल तो बंद होना चाहिए। ये तो वेश्यालय हैं। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि ये घोटूल सारी दुनिया के हर गंाव में होने चाहिए, तभी दुनिया से बलात्कार मिटेगा, नहीं तो नहीं मिट सकता।
इसलिए मैं कहता हूं कि यश, तुमने प्रश्न तो पूछा है; मेरा उत्तर पचा पाओगे कि नहीं, यह जरा मुश्किल है। मैं भी बलात्कार का विरोधी हूं। लेकिन मेरे कारण और हैं। यह बलात्कार जो चलता है दुनिया में इसके लिए जिम्मेवार तुम्हारे धर्मगुरु हैं। आर्यसमाजी और ईसाई और जैन और बौद्ध और हिंदू--ये सब इस उपद्रव के पीछे हैं। इन सब मूढ़ों ने तुम्हें आदमी की जो आज की विकृत दशा है, वह दी है। मगर इन्होंने इतने तर्क इकट्ठे किए हैं सदियों में और तुम उन तर्कों को सुनते-सुनते इतने आदी हो गए हो कि तुमने पुनर्विचार करना बंद कर दिया है।
बस्तर में कभी बलात्कार नहीं हुआ है। अंग्रेजों ने अपनी रिपोटों में यह बात उल्लेख की है कि बस्तर में कभी कोई बलात्कार का उल्लेख नहीं आया है आज तक। अंग्रेजों के इतने दिन के इतिहास में बस्तर में बलात्कार नहीं हुआ है। बस्तर में बलात्कार होता ही नहीं, होने का कारण ही नहीं रहा। बात ही समाप्त हो गयी। जीवन सहज हो गया, स्वाभाविक हो गया।
अनुभव ही तुम्हें इस मूढ़ता से मुक्ति दिला सकता है। नहीं तो बात बहुत कठिन है। पशुओं में बलात्कार नहीं होता, क्योंकि पशु मुक्त हैं; एक दूसरे से संबंध बनाने को मुक्त हैं। पुरुषों में, स्त्रियों में यह उपद्रव खड़ा होता है। यह उपद्रव नैसर्गिक नहीं है, पाशविक नहीं है-धार्मिक है। मत कहो यश कोहली कि यह पाशविक है। कहो कि धार्मिक है, सांस्कृतिक है। यह पतन धार्मिक और सांस्कृतिक है। यह तुम्हारे तथाकथित आध्यात्मिक नेताओं की दी गयी वसीयत है। यह जो तुम बोझ ढो रहे हो, यह तुम्हारी सदियों की सड़ी-गली परंपरा का परिणाम है। और यह तुम्हें सड़ाएं डाल रहा है, तुम्हें मारे डाल रहा है।
इससे मुक्त हुआ जा सकता है। और अब तो और भी आसानी से हुआ जा सकता है, क्योंकि घोटूल में तो एक खतरा था। हालांकि यह भी बड़े आश्चर्य की बात है कि यह भी कभी नहीं घटा वहां, कि घोटूल में लड़के और लड़कियां एक-दूसरे से संभोग संबंध करते हैं, मगर कभी नहीं यह घटना घटी कि कोई लड़की गर्भवती हो गयी हो। यह भी एक हैरानी की बात है। क्यों। कोई लड़की गभर्वती नहीं हुई? यह तो मनोवैज्ञानिकों के लिए बड़े शोध का काम है। होना ही चाहिए था।
मेरा अपना दृश्टिकोण यही है कि चूंकि न तो युवकों की इच्छा थी कि पिता बनें और न युवतियों की इच्छा थी अभी मां बनने की, इनके मनोविज्ञान ने ही विरोध पैदा किया। इनका मनोविज्ञान ही अभी राजी नहीं था। तो देह के संबंध तो हुए, लेकिन चूंकि मनोविज्ञान इनका विपरीत था, अभी ये मां-बाप बनना नहीं चाहते थे, अभी तो ये अनुभव से गुजरना चाहते थे, इसलिए यह गर्भ संभव नहीं हो सका।
इस पर खोज करने की जरूरत है कि क्या मनोवैज्ञानिक रूप से यह संभव है? यह संभव है कि अगर मन राजी न हो तो कोई स्त्री गर्भवती नहीं हो सकती। अगर मन ही राजी न हो, अगर मन ही भीतर इनकार कर रहा हो गर्भवती होने से...लेकिन शायद ऐसे मन को पैदा करना तो अब बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि हमने तो जो मन पैदा किया है, हम तो हर बच्ची को यह समझा रहे हैं कि तुझे मां बनना है। शादी हुई नहीं कि हम राह देखते हैं कि कब मां बनो, कब बाप बनो। अगर दो-तीन साल बीत जाएं और बच्चे पैदा न हों तो गांव में चर्चा होने लगती है कि मामला क्या है, कुछ गड़बड़ हो गयी है, कुछ गड़बड़ है। लोग संदेह की आंखें उठाने लगते हैं। लोग हंसने लगते हैं कि शायद लड़के में कोई खराबी है, बच्चे क्यों पैदा नहीं हो रहे? बच्चे तो होने ही चाहिए।
हमने एक मनोविज्ञान पैदा किया है कि शादी होते ही से बच्चे होने चाहिए। इस मूढ़ता के कारण बच्चे शीघ्रता से होने शुरू हो जाते हैं। नहीं तो मनोवैज्ञानिक रूप से भी संतति-नियमन हो सकता है। घोटूल और बस्तर में चल रहा सदियों पुराना प्रयोग इस बात का सबूत है।
मगर अब शायद मनोविज्ञान को बदलना इतना आसान नहीं होगा। ये सदियों पुराने संस्कार हैं। पर अब कोई जरूरत भी नहीं है। अब तो विज्ञान ने साधन जुटा दिए हैं। अब लड़के-लड़कियों को इतना दूर-दूर रखने का पागलपन छोड़ो। और कुछ मूढ़ताएं हमने पाल रखी हैं। कुआंरी कन्या को हम बड़ा मूल्य देते हैं। किसलिए? कुआंरी कन्या में ऐसा क्या है? लेकिन अभी भी हमारे दिमाग में वह सवार है। तो लड़कियों को बचा कर रखते हैं, मिलने-जुलने नहीं देते। जब तुम लड़कियों को बचा कर रखोगे तो तुम उनकी रीढ़ तोड़ देते हो, उनको तुम कमजोर बना देते हो।
हम बचपन से ही लड़कीयों को सिखाने लगते हैं कि तुम लड़की हो। अगर लड़कीयां वृक्षों पर चढ़े तो नहीं चढ़ने देते, कि लड़कियों का यह काम नहीं है। लड़कीयां अगर नदी तैरने जाएं तो नहीं तैरने देते। लड़कीयां अगर पहाड़ पर चढ़ना चाहें तो नहीं चढ़ने देते-‘यह तुम्हारा काम नहीं। तुम्हारा काम तो गुड्डे-गुड्डियंा बनाना, उनका विवाह रचाना, इत्यादि इत्यादि है। तुम्हारा काम तो शुरू से ही यही है कि तुम्हें पत्नी बनना है, मां बनना है।’ तो छोटी-छोटी बच्चियां अपनी गुड्डियों को लिए बैठी हैं, दूध पिला रही है। न दूध है न स्तन है, कुछ भी नहीं है, मगर छोटी-छोटी बच्चियों को दूध पिलाने का खेल चल रहा है। छोटी छोटी बच्चियां विवाह रचाती हैं।
दो बच्चों ने एक घर पर दस्तक दी-एक छोटी बच्ची और एक छोटा बच्चा। बच्ची की उम्र होगी कोई पंाच साल और लड़के की उम्र होगी कोई छःसाल। बड़े सजे-बजे आए थे। विवाह का खेल खेल कर आए थे। दरवाजा खोला गृहणी ने, देखा कि दोनों सजे-बजे खड़े हैं। लड़की वैसी सजी जैसे दुल्हन, लड़का ऐसा सजा जैसे दूल्हा। कहा: ‘आइए-आइए!’ उसने भी खेल में भाग लिया। ‘विराजिए! विवाह कब हुआ?’ तो उन्होंने विवाह बताया कि ‘अभी-अभी हुआ है। और सोचा कि आपके घर मिल आएं, आपको खबर भी कर आएं।’ चाय-नाश्ता करवाया। फिर लड़की एकदम से बोली कि अब हमें जाना है। तो गृहणी ने कहाः ‘इतनी क्या जल्दी है?’ तो उन्होंने कहा: ‘कुछ भी नहीं, मेरे पतिदेव ने पाजामे में पेशाब कर ली।’ खेल शुरू! बस यह खेल फिर जिंदगी भर चलना है।
लड़कियों को हम चढ़ने नहीं देगें वृक्षों पर, घोड़ों पर। और फिर हम चाहते हैं यश, कि लड़कियों कैसे अपनी रक्षा करें। रक्षा कैसे करेंगी? लड़के और लड़कियों को समान भाव से बढ़ने दो। यह बात ही छोड़ दो कि कौन लड़का है कौन लड़की। उनको समान भाव से बड़ा होने दो, साथ खेलने दो, साथ बड़ा होने दो। कबड्डी में, खो खो में, फुटबाल में, बाॅलीबाल में उनको साथ जूझने दो।
मगर मूढ़ताओं का कोई अंत है? अभी पाकिस्तान से खबर आयी है कि जनरल जिया ने अभी निर्णय लिया है कि पाकिस्तान में अब कोई स्त्रियां सलवार-कमीज पहने बिना खेलों में भाग न लें सकेंगी, क्योंकि छोटे छोटे पैंट पहनती हैं तो उनकी जांघे उघड़ जाती हैं। तो उघड़ जाने दो, जांघे उघड़ने से क्या होने वाला है? लोग उनकी जांघें देख लेंगे! अरे तो देख लेने दो! देख लेंगे तो देखने की आकांक्षा मिट जाएगी।
विक्टोरिया के समय में इग्लैंड में स्त्रियां ऐसे घाघरे पहनती थीं कि उनके पैर भी न दिखाई पड़ें, पंजा भी न दिखाई पड़े, घाघरा जमीन को छूना चाहिए! जो बहुत रईस होती थीं, उनके घाघरे को तो उनकी नौकरानियां उठा कर चलती थीं, क्योंकि वह घाघरा इतना बड़ा होता था कि जमीन पर फीट दा फीट सरकता था। बट्र्रेंड रसेल ने लिखा है कि उस समय अगर कभी किसी स्त्री के पैर की अंगुलियां भी दिखाई पड़ जाती थीं, तो मन कामोत्तेजना से भर जाता था। भर ही जाएगा। मगर अब? अब स्त्रियों के पैर की अंगुलियां देख कर तुम्हारा मन कामोत्तेजना से भरता है? जो चीज देख ली, उसमें रस चला जाता है।
लेकिन पाकिस्तान ने तय किया है कि अब स्त्रियां टैनिस खेलें तो भी सलवार-कमीज पहन कर खेलें। क्या खाक टैनिस खेलेंगी? फरिया भी ओढ़नी पड़ेगी, नहीं तो कहीं स्तन वगैरह दिखाई पड़ जाएं किसी को हिलते-डुलते! और दूसरा फिर और इंतजाम कि स्त्रियों के खेलों में पुरुष दर्शक नहीं हो सकेंगे।...यह बीसवीं सदी चल रही है!...और स्त्रियां केवल स्त्रियां के साथ ही खेल खेल सकेंगी। अब पुरुषों के साथ खेल नहीं खेल सकेंगी। इसलिए ओलिंपिक वगैरह में अब पाकिस्तान की स्त्रियां भाग न ले सकेंगी।
यह क्या मूर्खता है? मगर यह मूर्खता चलती है। वह तो बड़ी उनकी कृपा है कि उन्होंने यह तय नहीं किया कि स्त्रियां बुरका पहन कर हाॅकी खेलें, नहीं तो बड़ा मजा आ जाएगा। अगर एकाध भी गोल हो जाए तो चमत्कार समझो। भूल-चूक से ही हो सकता है। जैसे कोई अंधेरे में तीर चलाए और लग जाए। लग जाए तो तीर, नहीं तो तुक्का। और कहीं पाकिस्तान में कोई विरोध नहीं हुआ है, क्योंकि यह तो कुरान के बिलकुल अनुकूल है। स्त्रियों को छिपकर रहना चाहिए। यह तो बड़ी धार्मिक बात है।
तुम्हारा धर्म ही तुम्हारे उपद्रवों की जड़ है। तुमने जिसको धर्म समझा है, धर्म कम है, रोग ज्यादा है; उपचार कम है, औशधि कम है, वही बीमारी की जड़ है। मैं चाहूंगा कि निश्चित बलात्कार मिटे। लेकिन बलात्कार के मिटने का एक ही उपाय है कि स्त्री-पुरुषों को करीब लाओ, उनकी दूरी मिटाओ, उनको एक-दूसरे से परिचित होने दो। ये जो पुरुष स्त्रियों को धक्के दे रहे हैं, ये धक्के बंद हो जाएंगे। अगर स्त्रियां और पुरुष स्विमिंग पूल में और नदियों पर वस्त्र उतार कर स्नान करते हों, तो कौन धक्के देगा, किसलिए धक्के देगा? जब तुम जानते हो स्त्री के शरीर को, तो तुम किसलिए धक्के दोगे? यह धक्का भी स्त्री के शरीर से परिचित होने का एक उपाय है--गलत उपाय है, क्योंकि और उपाय बचे ही नहीं, सिवाय गलत उपाय के। कोई भीड़ में स्त्री को धक्के दे कर चलेगा, यह इसी बात का सबूत है कि स्त्री के पास होने के तुमने और कोई सुगम उपाय छोड़े नहीं। सुगम उपाय दो, ये बातें खत्म हो जाएंगी।
मगर हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता कि हमारी बीमारी की जड़ें कहां हैं। सारी दुनिया में चर्चा होती है कि वेश्याएं मिटनी चाहिए, लेकिन वेश्याएं तभी मिटेंगी जब तुम्हारी विवाह की धारणाए बदलेंगी, नहीं तो नहीं मिट सकतीं। जब तक तुम जबरदस्ती दो व्यक्तियों को--एक स्त्री और पुरुष को--विवाह में बांधे रखोगे, तब तक वेश्याएं जिंदा रहेंगी। वेश्याएं विवाह की उत्पत्ति हैं। मैं भी वेश्याओं को मिटाना चाहता हूं, क्योंकि यह अपमानजनक है कि कोई स्त्रियों को अपना शरीर बेचना पड़े। लेकिन क्या करो? अगर कुछ लोगों को मजबूरी में किसी स्त्री के साथ रहना पड़ रहा है--बच्चों के लिए, परिवार के लिए, प्रतिष्ठा के लिए, मां-बाप के लिए; या नहीं जुटा पाते हिम्मत अलग होने की, या कानून मौका नहीं देता अलग होने का, या अलग होना मंहगा सौदा है--तो क्या करें? इस स्त्री से उनको कोई रस नहीं है, तो वे कोई स्त्री खोजेंगे। खरीद लेंगे किसी स्त्री की देह। अब स्त्री की देह खरीदोगे, उससे कुछ तृप्ति मिल जाएगी? उससे तृप्ति मिलने वाली नहीं है। तो फिर कोई और स्त्री खोजो।
और हिंदुस्तान में तो सिर्फ स्त्रियां वेश्याएं होती हैं; तुम यह जान कर हैरान होओगे कि पश्चिम के मुल्कों में, जहां कि स्त्रियां अब स्वतंत्र होने लगी हैं, जहां उन्होंने समानता का हर दिशा में अधिकार मांगना शुरू किया है, वहां पुरुष-वेश्याएं भी होनी शुरू हो गयी है। उनको वेश्याएं नहीं कहनी चाहिए, वैश्य कहना चाहिए। क्योंकि जब स्त्रियां शरीर बेचती हैं तो क्यों न पुरुषों के शरीर खरीदे जाएं? लंदन में सड़कों पर अब पुरुष भी खड़े होते हैं। स्त्रियां कारें रोक कर देखती हैं कि है योग्य खरीदने के या नहीं और जैसे स्त्रियों वेश्याओं की तरह अपने शरीर का प्रदर्शन करती हैं, हाव भाव प्रगट करती हैं--भद्दे, अश्लील-वैसे ही पुरुष भी कर रहे हैं। वे भी बिकने को तैयार खड़ें हैं, खरीदे कोई। आदमी को तुमने बाजार में बिकने वाली चीज बना दिया। मगर कौन जिम्मेवार है?
आमतौर से यश कोहली, तुम और सारे लोग यही सोचते हैं कि यह आदमी की पशुता जिम्मेवार है। नहीं, यह आदमी की तथाकथित धार्मिकता जिम्मेवार है।
मैं तुम्हारे प्रश्न को फिर से पढ़ता हूं, ताकि एक-एक मुद्दे को तुम खयाल में ले सको। तुमने पूछा: ‘परिवार के भीतर शीलभंग को कैसे निर्मूल किया जाए?’ जो पति अपनी पत्नी से तृप्त नहीं है, वह खतरनाक है, वह अपनी बेटी के साथ उपद्रव कर सकता है। लेकिन अगर वह अपनी पत्नी से तृप्त है तो यह कल्पनातीत है, यह कल्पना के बाहर है कि वह अपनी बेटी के साथ संबंध बनाने का विचार भी लाए। जो पत्नी अपने पति से तृप्त नहीं है, अतृप्त है और बाहर जाने का कोई उपाय भी नहीं है, वह अपने देवर से संबंध बना लेगी। तुम ‘देवर’ शब्द पर ध्यान देते हो? उसका मतलब ही यही होता है-नंबर दो का पति। ‘देवर’ दूसरा पति! पहला काम न पड़े तो यह काम पड़ेगा। इसलिए देवर को मौका है कि वह अपनी भाभी के साथ अश्लील मजाक करे, कर सकता है। उसको हमने छुट्टी दी है। दूसरा पति है, नंबर दो का ही है, कोई ज्यादा दूर का फासला नहीं है। सिर्फ सवाल सीनियारिटी का है। अगर घर में देवर भी नहीं है तो नौकर-चाकर। अगर नौकर-चाकर भी नहीं हैं, तो तुम व्यक्तियों को मजबूर कर रहे हो कि वे परिवार में किसी तरह के नाते बनाने शुरू करें। स्त्रियां बाहर तो जा नहीं सकतीं। स्त्रियां बाहर जाएं तो खतरा है, अपमानजनक है। तो घर में ही कुछ उपद्रव शुरू होगा। तो हो सकता है बेटे से संबंध कोई मां बना ले। ऐसी घटनाएं रोज अखबारों में आती हैं। किसी बाप ने, किसी मां ने...ये अभद्र है, अमानवीय हैं। लेकिन पाशविक मैं न कहूंगा। इतना ही मैं कहूंगा कि इनके लिए जिम्मेवार तुम्हारे धर्म हैं, तुम्हारी सामाजिक धारणाएं हैं।
दो पुरुष स्त्री तभी तक साथ रहने के लिए हकदार हैं जब तक उनके भीतर प्रेम जीवित है; जिस दिन प्रेम का दीया बुझ जाए उस क्षण उन्हें अलग होने की उतनी ही सुविधा होनी चाहिए जितनी हमने इकट्ठा करने की सुविधा की थी। सच तो यह है, विवाह कठिन होना चाहिए और तलाक आसान होना चाहिए। विवाह अभी सरल है और तलाक बहुत कठिन है। अभी किसी को विवाह करना हो तो बस एकदम बैंड-बाजे बजाने लगते हैं हम और किसी को तलाक देना हो तो हर एक व्यक्ति विरोध में हो जाता है। तलाक देने वाला आदमी ही गलत। बात दूसरी ही होनी चाहिए: अगर कोई विवाह करना चाहे तो उससे कहना चाहिए कि साल दो साल रूको, जल्दी क्या है? साल दो साल साथ रहो, मिलो-जुलो, साथ जीओ, पहचानो एक-दूसरे को। क्योंकि छोटी-छोटी चीजें बिगाड़ कर देती हैं। कोई बहुत बड़ी-बड़ी चीजें नहीं हैं जिंदगी में, बड़ी छोटी-छोटी चीजें हैं, जिनका ऐसे कोई मूल्य नहीं मालूम होता। रोमांस से नहीं जीया जा सकता। यह कोई कविता नहीं है जीवन। जीवन बड़ा यथार्थ है।
एक युवती--एक बहुत बड़े परिवार की युवती--एक गरीब परिवार के लड़के के प्रेम में थी। उसने मुझसे कहा: ‘मैं क्या करूं? मेरे पिता विरोध में हैं, मेरी मां विरोध में हैं?’
मैंने कहा: ‘मैं विरोध में नहीं हूं, लेकिन मैं तुझसे यह कहूंगा कि तू पहले इस व्यक्ति के साथ कुछ दिन रह कर देख ले।’
उसने कहा: ‘इससे क्या होगा?’ मैंने कहा: ‘इससे कुछ बातें साफ हो जाएंगी तुझे। जिंदगी छोटी-छोटी चीजों पर तय है। तु शानदार ढंग से रहने की आदी है। इस लड़के के घर में बाथरूम भी नहीं है। यह तो नदी बाहर...बाथरूम यानी नदी बाहर। स्नान यानी नदी।...तो तैयारी है तेरी कि सुबह पंाच बजे उठ कर तू पाखाने के लिए गंाव के बाहर जा सकेगी? पांच बजे कभी जिंदगी में उठी है?’
उसने कहा: ‘मैं तो आठ बजे के पहले कभी उठती ही नहीं।’ मैंने कहा: ‘आठ बजे के बाद अगर नदी हो गयी तो जिंदा नहीं लौटेगी। और नदी में स्नान कर सकेगी।’
उसने कहा: ‘मुझे तो गरम पानी चाहिए।’
नदी में कहां से गरम पानी आएगा? अभी भारत में बाल्टी भर पानी गरम करना तो मुश्किल मामला है, पूरी नदी को गरम कैसे करेंगे? इसलिए तो भगवान बुद्ध कह गएः अपने दीये खुद बनो, क्योंकि यह भारतीय विद्युत का कोई भरोसा नहीं, कब आए कब चली जाए! वे पहले ही से कह गए। यही तो द्रष्टाओं का काम है कि ढाई हजार साल पहले उन्होंने देख लिया कि मामला क्या होगा भारतीय विद्युत का।
उसने कहाः ‘यह मैंने कभी सोचा नहीं। मैंने बाथरूम इत्यादि का विचार ही नहीं किया। मगर आप भी...मैं प्रेम की बातें कर रहीं हूं, आप बाथरूम की बातें उठा रहे हैं।
मैंने कहाः ‘प्रेम वगैरह तो बातचीत है, वक्त पर बाथरूम ही सवाल बनेगा। तू खाना बनाना जानती है?’
उसने कहा: ‘मैं खाना बनाना बिलकुल नहीं जानती।’
मैंने कहाः ‘तो फिर मेरे अनुभव से सुन। मैंने सिर्फ एक दफा चाय बनायी है जिंदगी में। और उससे जो मैंने अनुभव लिया, उससे मैं बुद्ध से राजी हो गया कि जीवन दुख है। चूल्हा ही न जले। आंखों से आंसू बह गए, धुआं ही धुआं। चाय बनी ही नहीं। फिर मैंने दुबारा कभी कोशिश ही नहीं की। फिर मैंने कहा कि सारी ताकत इसी में लगाओ कि आवागमन से छुटकारा हो, क्योंकि फिर लौट कर आना पड़े, फिर क्या पता चाय फिर बनानी पड़े। तुने कभी चाय बनाई है? घर में बैरा है, वह हर चीज लेकर हाजिर हो जाता है। ये सब बातें तू सोच ले। सात दिन बाद आकर मुझे कहना।’
सात दिन बाद आ उसने कहा कि मैंने मामला खत्म कर दिया, आप ठीक कहते हैं। ये काम मुझसे नहीं हो सकते।
और मैंने कहा कि प्रेम कविताओं से नहीं होता--जिंदगी का यथार्थ। अगर आदमी कविताओं से जी सकता तो बड़ी आसान बात हो जाती। लेकिन जीवन यथार्थ से जीता है।
जीवन का यथार्थ हमारा क्या है? हमने स्त्रियों को एकदम अपंग बना दिया है। अपंग बनाने में हमने फायदा पाया, क्योंकि वे पुरुष पर निर्भर हो गईं। इससे पुरुष के अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। हम स्त्रियों को कहते हैं: ‘अबला!’ शरम भी नहीं आती पुरुषों को स्त्रियों को अबला कहने में। और भलीभांति जानते हैं कि घर में किसकी चलती है। घर के बाहर सीना फुला कर चलते हैं। जब घर में आते हैं तब देखो! एकदम पूंछ दबा कर अंदर आते हैं! और फिर भी स्त्रियों को अबला कहते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी में झगड़ा हो रहा था। झगड़ा इस बात का था कि घर का मालिक कौन है। पत्नी ने कहाः ‘मैं तुझे बताती हूं घर का मालिक कौन है!’ वह लेकर बेलन उसके पीछे दौड़ी। मुल्ला भागा और बिस्तर के नीचे घुस गया। पत्नी है मोटी-तगड़ी, सो वह बिस्तर के नीचे तो घुस ही नहीं सकती। सो वही उसकी एकमात्र शरण है। जब भी कभी ज्यादा खतरा हो जाए, वह बिस्तर के नीचे। और वहां पत्नी की पहुंच नहीं। वह बिस्तर के नीचे बैठ गया पदमासन लगा कर। पत्नी ने कहाः ‘निकल बाहर।’ मुल्ला ने कहाः ‘नहीं निकलते, हम अपने मालिक हैं! अरे घर का मालिक कौन है? कौन हमें निकाल सकता है? नहीं निकलते। कर ले जो तुझे करना हो।’ तभी कोई मेहमान ने द्वार पर दस्तक दी, पत्नी ने कहा कि निकलो बाहर, निकलो! कोई मेहमान है।
‘आने दो’, मुल्ला ने कहा कि आज मेहमानों को भी पता चल जाए कि घर का मालिक कौन है। रख बेलन नीचे और घिसट नाक जमीन पर, तो बाहर निकलूंगा। नहीं तो आ जाने दे आज मेहमानों को और बुला ला मुहल्ले वालों को भी। .जाहिर ही हो जाए, एक दफा तय ही हो जाए मामला-इस तरफ या उस तरफ, कि घर का मालिक कौन है।
यह घर की मालकियत है--बिस्तर के नीचे छिपे हैं! और स्त्रियों को अबला बता रहे हैं। हर पुरुष को पता है कि स्त्री बलवान है। स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा जीती हैं-पांच साल ज्यादा-औसत। स्त्रियां पुरुषों से कम बीमार पड़ती हैं। स्त्रियां कम पागल होती हैं। स्त्रियों कम आत्महत्या करती हैं। पुरुष जरा में टूट जाता है। जरा-सा दिवाला निकल गया कि खतम, एकदम मरने की सोचने लगते हैं! इलेक्शन हार गए, रस्सी खरीदने लगते हैं कि फांसी लगा लेंगे। स्त्रियों की प्रतिरोधक शक्ति बड़ी है, नहीं तो नौ महीने बच्चे को पेट में रखना, जरा सोचो तो पुरुष हो कर रखना पड़े नौ महीने बच्चे को पेट में! अरे नौ महीने की तो छोड़ो, नौ घंटे जरा बच्चे को गोद में तो रखो! छठी का दूध याद दिला देगा।
नसरुद्दीन अपने बेटे को घुमाने ले गया था छोटी सी बग्घी में बिठाल कर। सर्दी के दिन और बेटा चीख रहा है और चिल्ला रहा है और रो रहा है। और नसरुद्दीन कह रहा है: ‘नसरुद्दीन, शांति रखो! धैर्य रखो!’
एक महिला यह सुन रही थी, वह भी घूमने गयी थी। उसने कहा: ‘बड़ा प्यारा बेटा है! और तुम भी बड़े धैर्यवान हो।’
वह महिला पास आयी, उसने बेटे के सिर पर हाथ रखा और कहा कि नसरुद्दीन, बेटा शंात हो जाओ।
नसरुद्दीन ने कहा: ‘माई, तू गलत समझ रही है। नसरुद्दीन उसका नाम नहीं, मेरा नाम है। मैं तो अपने को समझा रहा हूं कि नसरुद्दीन शांत रहो। दिल तो हो रहा है कि इस दुश्ट का गला दबा दूं!’
एक रात अपने बच्चे को तो ले कर सो जाओ, या तो खुद खिड़की से कूद जाओगे या बच्चे की गर्दन दबा दोगे। और स्त्रियों को कहते हो-‘अबला’! तुमने बनाने की कोशिश जरूर की है, मगर जीत नहीं पाए। बाहर से तुमने पंगु कर दिया, तो उनकी सारी की सारी शक्ति तुम पर टूट पड़ी है।
स्त्रियों को मौका दो। उनकी जिंदगी को सारे विस्तार में फैलने दो। मगर तुम्हारी ईष्र्या, तुम्हारा अहंकार, तुम्हारा दंभ तुम्हारी जान खाए जा रहा है। स्त्रियों को फैलने दो जिंदगी में। मगर यह भी एक घबड़ाहट है कि कहीं कोई शीलभंग न कर दे उनका! उस डर से भी उनको घर में छिपा कर रखो। कई बार ऐसा होता है कि तुम्हारे उपाय ही उपद्रव के कारण होते हैं। अगर स्त्रियां बाहर हों, मुक्त हों, सारे काम-धाम में लगी हों, जगह जगह उपलब्ध हों, किसको पड़ी है शील भंग करने की? मगर स्त्रियां मिलती मुश्किल से हैं। और जब मिल जाती हैं कभी इक्की दुक्की एकांत में किसी अवसर में, तो फिर पुरुष भी सोचता है कि मौका छोड़ना ठीक नहीं है, फिर मिले मौका न मिले! फिर वे एकदम से उसे एशियों की बातें याद आती हैं: ‘काल करंते आज कर, आज करंते अब। पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब।’ फिर वह सोचता है, अब कर ही गुजरो। अब जो करना हो सो कर ही लो। फिर कौन जाने दुबारा यह अवसर हाथ आए न आए।
यह हमारा जो झूठा विभाजन है स्त्री-पुरुष के बीच, उसने ही सारा उपद्रव खड़ा किया है। यह विभाजन गिराओ। यह विभाजन बिलकुल हटाओ। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सौ प्रतिशत शीलभंग की घटनांए समाप्त हो जाएंगी। लेकिन निन्यान्नबे प्रतिशत समाप्त हो जाएंगी। हां, एक प्रतिशत घटनाएं घटती रहेंगी, तो उनको इतना मूल्य मत दो जितना मूल्य देते हो। इतने मूल्य जैसी कोई बात ही नहीं है। शीलभंग में भी खाक भंग हो जाता है! इतना क्या शोरगुल मचाए हुए हो? क्यों इतने ज्यादा कामवासना के ऊपर आरोपित हो गए हो? क्या बिगड़ गया?
मेरी एक संन्यासिनी ईरान में थी। और ईरान की हालत तो तुम देखते हो, कि इस समय अगर दुनिया में कोई देश सबसे ज्यादा पागलपन की अवस्था में है तो वह ईरान है। अयातुल्ला खोमैनी जैसा पागल आदमी दुनिया में दूसरा इस समय तो नहीं है। मेरी एक संन्यासिनी, कमल, ईरान में थी। वह अपने प्रेमी के साथ किसी जलप्रपात पर स्नान करने गयी थी एकांत में। अमरीकन हैं तो सारे वस्त्र उतार कर वे स्नान कर रहे थे, वहां कोई और था नहीं, कि आए गए चार ईरानी, उन्होंने उस के प्रेमी को तो पकड़ लिया, कमल के, उसको तो रस्सी से बांध दिया एक वृक्ष से और उसके साथ बलात्कार किया। जाकर उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट की। पुलिस ने कहा कि हम उनको पकड़े लेते हैं। अगर वे पकड़े गए तो तुम्हें अदालत में बयान देना पड़ेगा। बस इतना बयान काफी है कि उन्होंने तुम्हारे साथ बलात्कार किया कि उन चारों को फांसी हो जाएगी।
अभी तो ईरान में कोई आदमी को मूलियों की तरह काटा जा रहा है।
कमल ने मुझे तार भेजा कि मैं क्या करूं? क्या चार आदमियों को कटवा दूं? माना कि उन्होंने मुझे सताया, मगर बात आयी और गयी हो गयी। मेरा क्या बिगड़ गया! चार आदमियों को कटवा दूं?
मैंने उसे लिखा: ‘जो तुझे ठीक लगे, क्योंकि इस संबंध में मैं तेरे ही निर्णय पर बात छोड़ता हू। मैं कुछ भी कहूंगा तो पीछे हो सकता है तुझे पछतावा हो। अगर मैं कहूं कि छुड़वा दे तो तू शायद पीछे शायद सोचे कि छुड़वाना नहीं था। और मैं कहूं कि फांसी लगवा दे तो शायद पीछे सोचे कि चार आदमियों की हत्या, एक छोटी-सी बात के लिए, जिसका कोई मूल्य नहीं है, जिसका कोई भी मूल्य नहीं! तू खुद ही निर्णय कर ले।’
मैं बहुत खुश हुआ, जब वह लौट कर आई, तो उसने अदालत में इनकार कर दिया। उसने कहा कि नहीं, मेरे साथ कोई बलात्कार नहीं हुआ। जब वह आयी तो मैंने उससे पूछा। उसने कहा कि मैं इतनी आनंदित हूं कि मैं माफ कर सकी, क्योंकि बात में रखा भी क्या था!
शीलभंग में क्या हुआ जा रहा है? अगर तुम्हारा हाथ कोई पकड़ ले तो क्या बिगड़ता है? योनि-प्रवेश से भी क्या बिगड़ता है? बहुत ही ज्यादा हो तो डूस ले कर सफाई कर लेना। इतना मूल्य मत दो। अतिशय मूल्य दे रहे हो। जिंदगी में और जरूरी चीजें हैं।
मैं खुश हुआ। मैंने उसे आशर्वाद दिया कि मैं प्रसन्न हूं, तूने ठीक निर्णय लिया। चार आदमियों की जिंदगी का मूल्य बहुत ज्यादा है। और मैंने कहा: ‘उन पर क्या गुजरी?’ उसने कहा कि उनके चेहरे देखने लायक थे। आंखों से उनके आंसू गिरने लगे। जब हम अदालत से बाहर आए, उन चारों ने मेरे पैर छुए और कहा कि हमें क्षमा कर दो। हम मूढ़ हैं! बस हमसे भूल हो गयी। हमने यह आशा ही नहीं की थी। हम तय करके ही आए थे कि अब यह मौत...क्योंकि स्त्री का कह देना काफी है ईरान में।
मगर तुम क्या कहते हो, कमल ने ठीक किया या नहीं? क्या चार आदमियों को मारना...? माना कि ये मूढ़ हैं, बेवकूफ हैं और माना कि इन्होंने गलती की, लेकिन ये भी क्या जिम्मेवार हैं, इनके पीछे हजारों अयातुल्लाओं का हाथ है। जो अयातुल्ला खोमैनी इनको फांसी लगवाएंगे उन्हीं के सिद्धांतों और शिक्षाओं का यह परिणाम है।
यहां बड़ा अदभूत काम चल रहा है इस दुनिया में! जो यहां सबसे ज्यादा उपद्रव के कारण हैं, वे पूजे जा रहे हैं। मेरी ऐसी दृश्टि नहीं है।
निन्यान्नबे प्रतिशत शीलभंग तो समाप्त हो जाएगा, एक प्रतिशत रहेगा, क्योंकि कुछ न कुछ विक्षिप्त लोग कभी भी हो सकते हैं। मगर उनकी मानसिक चिकित्सा की जा सकती है। और उतना हमें स्वीकार करके चलना चाहिए, क्योंकि आदमी कोई परिपूर्ण नहीं है, उसमें थोड़ी भूल-चूकें होती रहेंगी। मगर भूल-चूकें भूल-चूकें हैं; उनको इतना मूल्य देना कि जैसे सारा जीवन ही उन्हीं पर आधारित है, गलत है। और उसी मूल्य के कारण अड़चन खड़ी होती है।
अब तुम कहते हो कि ‘निंदा शीलभंग करने वाले की की जानी चाहिए; उसकी नहीं जिसका शीलभंग किया जाता है।’ निंदा किसी की भी नहीं की जानी चाहिए। निंदा की जानी चाहिए उस व्यवस्था की, जिसमें शीलभंग करने वाला पैदा होता है और शीलभंग करवाने वाले पैदा होते हैं। निंदा होनी चाहिए उस व्यवस्था की, उस संस्कार की, उस संस्कृति की। उसकी तुम बात नहीं उठा रहे हो, यश कोहली तुम चाहते हो इन दोनों में से तय हो जाना चाहिए।
निंदा दोनों की नहीं होनी चाहिए। दोनों एक अर्थ में निर्दोश हैं। दोनों का क्या कसूर है? एक नकारात्मक रूप से भागीदार है, एक विधायक रूप से भागीदार है, मगर दोनों निर्दोश हैं। दोशी है तो व्यवस्था है।
तुमने पूछाः ‘भारत में आक्रांत की निंदा होती है और आक्रमक अपना खेल अबाध जारी रखता है।’
यह सारी दुनिया में ऐसा है, क्योंकि पुरुष सारी दुनिया में आक्रमक रहा है। और सारे पुरुषों ने ही धर्म-शास्त्र बनाए हैं; उन्होंने ही नियम रचे, नीति रची। इसलिए स्त्रियों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी। ‘स्त्रियां नरक के द्वार हैं!’ और तुम अभी भी बाबा तुलसीदास जैसे लोगों को पूजे चले जाते हो। ‘स्त्रियां नरक के द्वार हैं! ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी!’
ये बाबा तुलसीदास इतने नाराज क्यों हैं स्त्रियों पर? और सच यह है कि इनकी स्त्री ने ही इनको बोध दिया था। ये खुद ही कामातुर थे। स्त्री गयी थी मायके, नहीं रोक सके अपने को। पहुंचे बाबा रहे होंगे! पहुंच गए बरसात में। नदी आयी हुई थी, मुर्दे को पकड़ कर नदी पार कर ली। कामांध रहे होंगे, मुर्दे को समझा कि लक्कड़ है। और फिर सांप को पकड़ कर चढ़ गए मकान के पीछे से। बाबा लोग हमेशा मकान के पीछे से चढ़ते हैं! सांप को समझा कि रस्सी है। अरे बाबा लोग तो मस्त रहते हैं, उनको क्या फर्क-रस्सी में सांप देखें, सांप में रस्सी देखें! उनके खेल का तुम कुछ पूछो ही मत!
स्त्री ने उनको चैंकाया, उनको जगाया। स्त्री ने कहाः ‘यह क्या करते हो? काश इतना प्रेम तुम्हारा राम से होता तो सर्वस्व पा लेते, जितना तुम्हारा मुझसे प्रेम है!’ चोट खाकर लौट पड़े। उसी चोट का बदला ले रहे हैं। स्त्री ने स्वर्ग का रास्ता बताया, स्त्री को कह रहे हैं--नरक का रास्ता! उसकी गिनती ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी में कर रहे हैं, कि उसको पीटो। वह स्त्री ने जो पिटाई कर दी उस दिन, वह याद भूलती नहीं, उसका घाव गहरा बैठा गया है।
ये तुम्हारे सब ऋषि-मुनि समझाते हैंः ‘स्त्री नरक का द्वार है।’ स्त्री नरक का द्वार क्यों होने लगी? मगर ये ऋषि-मुनियों का मन स्त्री में उलझा है। ये बैठे हैं धूनि रमाए वगैरह, राम-नाम की माला जप रहे हैं और भीतर काम ही काम उबल रहा है। घबड़ा रहे हैं, भयभीत हैं, बेचैन हैं, परेशान हैं। डर के कारण, अपने भीतरी डर के कारण स्त्री को गालियां दे रहे हैं। और इन्हीं ने सब शास्त्र बनाए, इन्हीं ने सब नियम बनाए, यही तुम्हारी छाती पर सवार हैं। इसलिए आक्रामक की निंदा होती है, क्योंकि आक्रामक पुरुष है और आक्रांता स्त्री है।
जब तक तुम यह सारी पुरानी परंपरा को उलटोगे नहीं, इस कचरे को एकबारगी आग ही लगा दो, एकबारगी होली में जला दो, एकबारगी अतीत से छुटकारा कर लो, एक दफा सफाई कर लो अपने मन की--तो अड़चन न रह जाए, चीजें साफ हो जाएं। लेकिन साफ नहीं हो पातीं, कयोंकि यही लोग तो तुम्हारे विचारों के निर्माता हैं। इन्हीं के आधार पर तो तुम सोचते हो। इन्हीं की लकीरों पर तो तुम दौड़ते हो। इन्होंने पटरियां बिछा दी हैं, उन्हीं पर तुम्हारे विचार की ट्रेनें दौड़ा करती हैं--आगे-पीछे।
कैसा मजा है, युधिष्ठिर को तुम कहते हो कि धर्मराज हैं! जुआ खेलें ये। स्त्री तक दांव पर लगा दिया, तो भी धर्मराज हैं! दुर्योधन को गाली देते हो और युधिष्ठिर को धर्मराज कहते हो! क्योंकि दुर्योधन हार गया और युधिश्ठिर जीत गए। जो जीत जाता है, वह नियम बनाता है। जो हार जाता है, वह कैसे नियम बनाएं, कौन उसके नियम बनाए? तो वे धर्मराज हो गए। खूब धर्मराज हैं! एक स्त्री को बांट लिया है पांच भाइयों ने, लेकिन जीत गए, तो बंटी हुई स्त्री भी पंाच महाकन्याओं में एक गिनी जाती है। जो मर्जी हो करवाओ। जीत जिसकी है...जिसके हाथ में लाठी उसकी भैंस।
पुरुष के हाथ में लाठी है, क्योंकि धन है, पद है, प्रतिश्ठा है। इसलिए जो मर्जी है, करवाए। इसलिए यह होता है कि आक्रमक की प्रशंसा या प्रशंसा नहीं तो कम से कम उपेक्षा। और जिस पर आक्रमण होता है, उसकी लोग निंदा करते हैं। स्त्री को लोग गाली देते हैं। लेकिन इसके बहुत पहलू हैं।
स्त्री जब अपने पति के साथ सती हो जाती है तब तुम सम्मान करते हो। लेकिन एक पुरुष ‘सता’ नहीं हुआ। सदियां बीत गयीं, इतनी सतियां हुई, एक पुरुष को भी सता होने की इच्छा पैदा न हुई। और ये पुरुष सतियों के चैरे बना देते हैं। और ये पुरुष झांकियां सजाते हैं।
बंबई में कुछ पागलों की जमात है! मैं हमेशा अखबार में खबरें देखता हूं--ढांढन सती की झांकी! ये पता नहीं कौन पागल ढांढन सती की झांकी मना रहे हैं! आए दिन कुछ न कुछ उपद्रव मचाए रखते हैं ढांढन सती के नाम पर! और स्त्रियां बड़े मनोभाव से सुनेंगी यह बात कि जब पुरुष मर जाए तो स्त्री को मर जाना चाहिए। पुरुष ने सिखाया स्त्रियों को कि जिंदा--जिंदा भी तुम हमारी हो, मर कर भी तुम हमारी हो। पुरुष को यह डर रहा कि अगर हम गए, पता नहीं स्त्री किसी और के साथ हो जाए, किसी और को प्रेम कर ले। यह संपदा पर कब्जा पूरा होना चाहिए! तो हम मरें, हमारे साथ ही स्त्री को मरना चाहिए। मगर पुरुष क्यों मरे? पुरुष तो मालिक है!
स्त्री को हम ‘संपत्ति’ कहते हैं। अब भी कहते हैं ‘स्त्री संपत्ति’! पुरुष को कभी तुमने ‘संपत्ति’ कहा? अब भी जब विवाह होता है किसी लड़की का तो हम कहते हैं--‘कन्यादान’। दान! लड़की कोई चीज-वस्तु है जो तुम दान कर रहे हो? शर्म नहीं आती कहते हुए कन्या-दान? लेकिन यह हमारी धारणा है। यह पुरुषों द्वारा नियोजित समाज है। अब तक स्त्री को हमने कोई सम्मान नहीं दिया। और अगर हम स्त्री को सम्मान देना चाहते हैं तो हमें अपनी पूरी नैतिक धारणाओं को, मर्यादाओं को रूपांतरित करना होगा।
वही कार्य, वही महत कार्य मैं यहां करने की कोशिश कर रहा हूं, इसलिए खूब गालियां खा रहा हूं। इसलिए जितनी गालियां मुझे पड़ रही हैं इस देश में शायद किसी को पड़ती हों। लेकिन मै। उनकी अपेक्षा करता हूं, जानता हूं कि यह स्वभाविक है। यह होगा ही।
तुम पूछते हो: ‘स्त्री मूक होकर दुख झेलती है।’
तुमने सिखाया है उसको मूक रहना। तुम बोलने कहां देते हो! स्त्री की तुमने वाणी छीन ली है। पहले तुमने उसे वेद पढ़ना रूकवा दिया। तुमने उससे पूजा के अधिकार छीन लिए, यज्ञ के अधिकार छीन लिए।
अभी कल खबर थी कि साउदी अरेबिया ने, अरेबिया से कोई स्त्री बाहर शिक्षा पाने नहीं जा सकती, इसका नियम बना लिया। यह बीसवीं सदी है या हम किसी बाबा आदम के जमाने में रह रहे हैं? स्त्रियां अब शिक्षा पाने के लिए बाहर नहीं जा सकतीं, क्यों? क्योंकि खतरा है। बाहर शिक्षा पाने जाती हैं तो वहां से लौटती हैं तो मुखर हो जाती हैं, उनको वाणी मिल जाती है। तुम स्त्रियों को शिक्षा भी देते हो तो भी इसलिए नहीं देते कि वे मुखर हो जाएं; इसलिए देते हो, ताकि ठीक वर मिल जाए; एम. ए. हो जाएं वे, ताकि कोई कलेक्टर, कोई कमिश्नर, काई डाक्टर, कोई इंजीनियर वर मिल जाए। स्त्री की शिक्षा का कुल इतना ही मूल्य है, उसके सर्टिफिकेट अच्छा वर फांसने के काम आते हैं, बस इससे ज्यादा कोई मूल्य नहीं है। इसलिए तुम स्त्रियों को किस तरह के विशय पढ़ाते हो, उस तरह के विशय पढ़ाते हो जिनका जीवन में कोई मूल्य नहीं है।
मैं दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर था। मैं चकित हुआ यह देख कर कि अधिकतर लड़कियां ही दर्शनशास्त्र पढ़ने आती हैं! मैंने पूछा कि माजरा क्या है? लड़कों को क्या हुआ? लड़के साइंस पढ़ते हैं, गणित पढ़ते हैं। लड़कियां क्या करेंगी गणित और साइंस पढ़ कर, उनको कोई दुनिया में काम थोड़े ही करना है। वे दर्शन-शास्त्र पढ़ती हैं--जिसका कोई उपयोग ही नहीं है; जो बिलकुल बेकाम है; जिसकी कोई सार्थकता नहीं जीवन में। चूल्हा फूंको और दार्शनिक चिंतन करो। और दार्शनिक चिंतन में ऐसी बातें भी हैं, पुराने दर्शन-शास्त्रों में कि पात्र घी को सम्हालता है कि घी पात्र को सम्हालता है? बस चूल्हा फूंको और सम्हाल-सम्हाल कर देखो कि पात्र घी को सम्हालता है कि घी को पात्र सम्हालता है। और करना क्या है! रहस्यपूर्ण बातें सोचो...कि जलेबी बन जाती है तो इसके भीतर रस कैसे पहुंच जाता है...कि फुलका फूल जाता है, दोनों तरफ से बंद है, छेद बिलकुल नहीं है, हवां कहां से पहुंच जाती है? ऊंची बातें, हवाई बातें! अध्यात्मिक बातें सोचो!
दर्शनशास्त्र पढ़ती है लड़कियां। काव्य शास्त्र पढ़ती हैं लड़कियां। भाषाशास्त्र पढ़ती है लड़कियां। बेकाम की बातें, जहां कोई और पढ़ने नहीं जाता! उनको सर्टिफिकेट देने पड़ते हैं, क्योंकि अगर लड़कियां भी आना बंद हो जाएं तो उनका धंधा गया। उनका धंधा ही उन पर चल रहा है।
तुमने वाणी छीन ली है उनसे। तुमने सिखाया है सदियों से कि पति जो है वह स्वामी है, तुम दासी हो। अब दासियों को कोई बोलने का हक होता है? वे तो जी-हुजूर होनी चाहिए, जो पति कहे सो ठीक। क्या-क्या कहानियां तुमने गढ़ी हैं कि असली सतियां वे थीं कि उनके पतियों ने कहा कि हमें वेश्या के यहां ले चलो तो कंधे पर रख कर पति को वेश्या के यहां पहुंचा दिया! ये थंीं सतियां, ये थीं पत्नियां! और पति को पता चल जाए कि पड़ोसी के साथ हंस-बोल कर बात कर रही थी, तो गर्दन उतार लेगा।
चीन में यह रहा है नियम कि अगर कोई पति अपनी पत्नी को मार डाले, उस पर अदालत में मुकदमा नहीं चल सकता, क्योंकि पत्नी उसकी संपत्ति है। कोई अपनी कुर्सी तोड़ दे या कोई अपनी कार को जला दे, इसमें क्या मुकदमा? कोई अपना पंखा तोड़ कर फेंक दे, इसमें क्या मुकदमा? ऐसे ही पत्नी है। ऐसे बहुत-से समाज रहे हैं जहां मेहमान घर में आता हैं तो रात के लिए पत्नी भी उसको दे देते हैं। मेहमान का स्वागत होना चाहिए! अतिथि तो देवता है! और देवताओं के काम तो तुम जानते ही हो। सो देवता आए ही शायद इसलिए हों कि सुंदर पत्नी है और देवता का तो स्वागत पूरा होना चाहिए! रात देवता अकेले कैसे सोएंगे! तो पत्नी दे दो। और पत्नियां ये भी करती रही हैं।
तुमने उनसे वीणा छीन ली है। उनको सब दिशाओं में वाणी देनी होगी। और उनको वाणी तभी मिल सकती है सब दिशाओं में, जब तुम यह हिम्मत जुटाओ कि तुम्हारी अतीत की धारणाओं में निन्यान्नबे प्रतिशत अमानवीय हैं। और उन अमानवीय धारणाओं को चाहे कितने ही बड़े ऋषियों-मुनियों का समर्थन रहा हो, उनका कोई मूल्य नहीं है। न उन ऋषि-मुनियों का मूल्य है, न उन धारणाओं का कोई मूल्य है। चाहे वे वेद में लिखी हों, चाहे रामायण में लिखी हों, कुछ फर्क नहीं पड़ता। कहां लिखी हैं, इससे कोई सवाल नहीं है। एक पुनर्विचार की जरूरत है।
और तुम पूछते हो कि इसी कारण वह अपने पति के साथ वैवाहिक सुख तक भोगने से वंचित रह जाती है।
वैवाहिक सुख किसी ने कभी भोगा है? कहां की बातें कर रहे हो, यश कोहली! विवाह तो दुख भोगने का आयोजन है। सुख भोगना हो तो अविवाहित रहना।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अचानक एक दिन धर्म-परिवर्तन कर लिया। मुझे खबर मिली तो मैं उससे मिलने गया। बाहर ही आंगन में वह बैठा था-सिर घुटाए, पीत वस्त्र पहने, पदमासन लगाए। मैंने पूछाः नसरुद्दीन, सुना है तुमने धर्म बदल लिया।
उसने धीरे से आंख खोल कर कहाः ‘हां, आपने ठीक ही सुना है। मैं अब बौद्ध हो गया हूं।
मैं बोलाः वह तो तुम्हारे रंग ढंग देख कर समझ आ गया है। मगर यह तो बताओ कि इसकी प्रेरणा तुम्हें किसने दी? तुम्हारा गुरू कौन है?
मुल्ला ने कहाः ‘गुरु की पूछते हैं! अरे एक नहीं, दो गुरु हैं! एक मेरी मां है, दूसरी मेरी बीबी। दोनों एक से एक बढ़ कर गुरु हैं। उन्हीं की कृपा से भगवान बुद्ध के वचनों पर मुझे श्रद्धा आ गयी।’
मैं बोलाः मैं कुछ समझा नहीं। गूढ़ पहेलियां न बुझाओ, सीधी-साफ बात करो। तुम्हारी मां तो कट्टर मुसलमान है और बीबी पक्की पारसी है। उन्होंने तुम्हें बौद्ध धर्म अपनाने की प्रेरणा क्यों दी?
नसरुद्दीन ने कहाः बात बिलकुल सीधी-साफ है। इन दोनों चुड़ैलों ने मिल कर मेरी ऐसी गति बनायी है कि पहला आर्य सत्य समझ आ गया, समझ आ गया, अनुभव में आ गया कि जीवन दुख है, सौ प्रतिशत दुख है। दूसरा आर्य सत्य भी समझ में आ गया, अनुभव में आ गया कि दुख के दो कारण हैं--एक मां और दूसरी बीबी। इन दोनों के बीच मैं पिसा जा रहा हूं, मरा जा रहा हूं, सड़ा जा रहा हूं। परमात्मा मेरी कोई मदद नहीं कर सका। कुरान कहती है कि वह महाकरुणावान है, एकदम गलत बात है। बुद्ध ने ठीक कहा हैः कोई ईश्वर नहीं है। बस इन सब बातों के कारण मेरा परमात्मा पर से भरोसा उठ गया और मैं बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया।
मैंने कहाः ‘नसरुद्दीन, तुम बात तो बड़े पते की कह रहे हो, लेकिन तीसरे और चैथे आर्य सत्य की चर्चा क्यों नहीं करते? बुद्ध ने कहा है, दुख निरोध का उपाय है और दुख से मुक्त दशा भी है।’
मुल्ला बोला: ‘आप तो जानते ही हैं भगवान। मैं ठहरा साधारण आदमी, दो सत्यों का पालन कर लिया, यही क्या कम है? बाकी दो की अभी मेरी हैसियत नहीं है।’
मैंने पूछाः ‘ईश्वर के न होने में तुम्हारा विश्वास पूरा-पूरा है या वह भी आधा आधा है?’
नसरुद्दीन ने गर्व से सीना फुला कर कहा: ‘उस मामले में तो मैं बुद्ध से भी सेंट परसेंट राजी हूं। कोई स्त्रश्टा नहीं है, सब अपने-आप नियमानुसार चल रहा है। धर्म ही सब कुछ है। धम्मं शरणं गच्छामि! कोई परमात्मा नहीं है--और मुहम्मद ही उसके एकमात्र पैगंबर हैं।’
वैवाहिक जीवन सुखी जीवन नहीं हो सकता, क्योंकि अब तक हम मनुश्य को प्रेम करने की सुविधा ही नहीं दे पाए। अब तक हम एक ऐसी व्यवस्था नहीं बना पाए जहां प्रेम के फूल खिल सकें। और पे्रम से अगर विवाह निकले तो सुख आ सकता है। हमने उल्टी चेश्टा की हैः हम चाहते हैं विवाह से प्रेम निकले। यह नहीं हो सकता। और यही हम अब तक करते रहे हैं। विवाह से प्रेम नहीं निकलता, सिर्फ व्यवस्था निकलती है, सुरक्षा निकलती है। कभी कोई अपवाद स्वरूप एकाध घटना घट जाती हो, उसको नियम मत मान लेना। उससे नियम सिद्ध होता है, खंडित नहीं होता।
प्रेम चाहिए पृथ्वी पर और प्रेम के लिए बड़ी क्रांति चाहिए। मैं उसी क्रांति में लिए आव्हान दे रहा हूं। प्रेम से फिर विवाह निकले न निकले, कोई चिंता नहीं। प्रेम से जो भी निकलेगा शुभ होगा। लेकिन प्रेम में जीने का अर्थ होता है: असुरक्षा में जीना। और हम सब सुरक्षा-लोलुप हैं। इसलिए हम प्रेम की झंझट में नहीं पड़ना चाहते। हम विवाह की सुरक्षा चाहते हैं, शरण चाहते हैं। इसलिए हम इन एशि-मुनियों से राजी हो गए। इन्होंने हमें व्यवस्था दे दी, इन्होंने हमें सुरक्षा दे दी।
मुझसे तो केवल वे ही लोग राजी हो सकते हैं, यश कोहली, जिनमें हिम्मत है, साहस है, दुःसाहस है--जीवन में प्रयोग करने का, जीवन को दांव पर लगा देने का। तो ये सारी बातें रूपांतरित हो सकती हैं। लेकिन इन बातों की जड़ में जाना जरूरी है। पत्तियां मत काटो। पत्तियां लक्षण हैं। समस्याएं लक्षण हैं। समाधान खोजेगे तो बहुत जड़ में उतरना पड़ेगा। और जब तक जड़ें न काटी जाएंगी, तब तक ऊपर-ऊपर तुम रंग रोगन कर लो, फिर-फिर उतर जाएगा। जरा वर्शा का झोंका आएगा, सब रंग-रोगन बह जाएगा। फिर बात वहीं के वहीं।

आज इतना ही।

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