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शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

उड़ियो पंख पसार-(प्रवचन-01)

उड़ियो पंख पसार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

यह प्रवचन माला दिनांक 11-5-1980 से 20-5-1980 तक ओशो आश्रम पूना में प्रशनोंत्तर के रूप दि गई थी।

पहला प्रवचन--(श्रद्धा के पंख)

सोबत हौ केहि नींद, मूरख अग्यानी।
भोर भये परभात, अबहिं तुम करो पयानी।।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
छुटि जैहो या दुक्ख तें, तन-सरवर के पार।।
भगवान, हमें संतश्रेष्ठ धनी धरमदास के इस पद का अभिप्राय समझाने की अनुंकपा करें। हम तो धरती पर भी पांव घसीट कर चलते हैं; आप यहां किस आकाश और किन पंखों की बात कर रहे हैं?

हम चल तो पड़े हैं जज्बा-ए दिल, जाना है किधर मालूम नहीं
आगाजे-सफर पर नाजां हैं, अंजामे-सफर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं जज्बा-ए दिल...
कब जाम भरे कब दौर चले, कब आए इधर मालूम नहीं
उठे भी अगर ठहरे भी कहां, साकी की नजर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं जज्बा-ए दिल...
हम अक्ल की हद से भी गुजरे, सहारा-ए जुनूं भी छान लिया
अब और कहां ले जाएगी, साकी की नजर मालूम नहीं

हम चल तो पड़े हैं जज्बा-ए दिल...
मुमकिन हो तो इक लमहे के लिए, तकलीफे तबस्सुम कर लीजै
हम में से अभी तक कितनों को मफहूमे सहर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं जज्बा-ए दिल...
जज्बात के सौ आलम गुजरे, एहसास की संदियां बीत गयीं
आंखों से अभी उन आंखों तक, कितना है सफर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं जज्बा-ए दिल, जाना है कहां मालूम नहीं
आगाजे-सफर पर नाजां हैं, अंजामे-सफर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं जज्बा-ए दिल...

पहला प्रश्न: ओशो,
सोबत हौ केहि नींद, मूरख अग्यानी।
भोर भये परभात, अबहिं तुम करो पयानी।।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
छुटि जैहो या दुक्ख तें, तन-सरवर के पार।।
ओशो, हमें संतश्रेष्ठ धनी धरमदास के इस पद का अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें। हम तो धरती पर भी पांव घसीटकर चलते हैं; आप यहां किस आकाश और किन पंखों की बात कर रहे हैं?
आनंद मैत्रेय! मनुष्य बना ही है आकाश में उड़ने को। न उड़े आकाश में तो फिर पैर घसीट कर ही चलना पड़ेगा। जमीन पर ही चलते रहना मनुष्य के स्वभाव के प्रतिकूल है, अनुकूल नहीं। इसलिए जीवन इतना बोझिल है, इतना भारग्रस्त है।
जीवन में दुख का एक ही अर्थ है कि हम स्वभाव के अनुकूल नहीं हैं, प्रतिकूल हैं। दुख सूचक है कि हम स्वभाव से चूक रहे हैं; कहीं हम मार्ग से उतर गए हैं; कहीं पटरी से उतर गए हैं। जैसे ही स्वभाव के अनुकूल होंगे, वैसे आनंद, वैसे ही अमृत की वर्शा होने लगेगी। लेकिन मनुष्य के पंख पक्षियों जैसे पंख नहीं हैं कि प्रगट हों; अप्रगट हैं। देह के नहीं हैं, चैतन्य के हैं। और जिस आकाश की बात चल रही है, वह बाहर का आकाश नहीं, भीतर का आकाश है--अंतराकाश है। जैसा आकाश बाहर है, वैसा ही आकाश भीतर है--इससे भी विराट, इससे भी विस्तीर्ण, इससे भी अनंत-अनंत गुना बड़ा। बाहर के आकाश की तो शायद कोई सीमा भी हो। वैज्ञानिक अभी निश्चित नहीं हैं कि सीमा है या नहीं।
अलबर्ट आइंस्टीन का तो ख्याल था कि सीमा है; हम सीमा तक पहुंच नहीं पाए हैं, कभी न कभी पहुंच जाएंगे। क्योंकि विज्ञान की दृष्टि में, कोई भी वस्तु असीम कैसे हो सकती है? वस्तु है तो सीमा होगी ही। सीमा ही तो वस्तु को निर्मित करती है। नहीं तो वस्तु की परिभाशा क्या? अगर असीम हो तो न होने के बराबर हो जाएगी।
लेकिन बाहर के आकाश की बात वैज्ञानिकों पर छोड़ दो। उस गोरखधंधे में अध्यात्म के खोजी को पड़ने की जरूरत भी नहीं है। वह उसकी चिंता का विशय भी नहीं है, न वह उसकी जिज्ञासा है। न निर्णय हो जाए कि बाहर के आकाश की सीमा है या सीमा नहीं है, तो उसे कुछ मिलेगा। उस निष्पत्ति से कुछ सार नहीं है। लेकिन भीतर के आकाश की कोई सीमा नहीं है। यह तो निश्चित हो गया, क्योंकि जो भी भीतर गया है-किसी देश में, किसी काल में-उस सभी का निरपवाद रूप से एक ही अनुभव है, एक ही साक्षात्कार है कि भीतर का आकाश अनंत है। उस भीतर के आकाश में उड़ने की क्षमता लेकर आदमी पैदा होता है; और चलता है बाहर के आकाश में, इससे घसिटता है। क्षमता में और वास्तविकता में मेल नहीं हो पाता। यह जो तालमेल नहीं है, यही हमारा दुख है। यही पीड़ा है, यही संताप है। तालमेल हो जाए, दुख मिट जाए, संगीत का जन्म हो, छंद उपजे, रस बहे, फूल खिलें।
ऐसा ही समझो कि जैस गुलाब के पौधे में कोई जुही के फूल लगाने की चेष्टा कर रहा हो। न लगेंगे फूल। आए कितना ही वसंत, हो कितनी वर्शा, उमड़-घुमड़ मेघ कितने ही मल्हार गाएं, माली कितना ही खून-पसीना करे--नहीं, गुलाब में जुही के फूल न लगेंगे, चम्पा के फूल नही लगेंगे। गुलाब में तो गुलाब के ही फूल लग सकते हैं। और अगर जुही के फूल लगाने की चेष्टा की तो खतरा यही है कि कहीं ऐसा न हो कि गुलाब के फूल भी न लगें। क्योंकि तुम्हारी चेष्टा तो जुही के लिए होगी। तुम तो लगती हुई कलियों को भी तोड़ ड़ालोगे कि ये तो जुही की नहीं हैं। तुम तो खिलते फूलों को भी नष्ट कर दोगे, क्योंकि वे तुम्हारी अपेक्षांओ के अनुकूल नहीं होंगे, कि वे तुम्हारी आकांक्षाओं के परिपूरक नहीं होंगे।
जो हो सकता है, वही हो सकता है। जो नहीं हो सकता, वह नहीं हो सकता। और मनुष्य की यहा दुविधा है, यही संकट है कि वह जो नहीं है, नहीं हो सकता है, वही होने की कोशिश में लगा है। जो है और हो सकता है, उस दिशा में उसकी आंख भी नहीं; उस दिशा में पैर भी नहीं पड़ते; उस दिशा में पंख भी नहीं खोलता। फिर रोता है, छाती पीटता है और हजार-हजार बहाने खोजता है कि शायद इस कारण सुख नहीं है; शायद धन कम है, इसलिए सुख नहीं। मगर बहुत हैं जिनके पास धन है, सुख कहां? सोचता है पद नहीं है, शायद इसलिए सुख नहीं है। फिर बहुत हैं जिनके पास पद भी हैं, पर सुख कहां?
थोड़ा धनियों की आंखों में तो झांको। थोड़ा पद पर जो प्रतिष्ठित हैं उनके प्राणों में तो टटोलो। उनके जीवन को तो थोड़ा परखो, पहचानो। उनके जीवन में भी सुख नहीं है। तो तुम सिर्फ बहाने न खोजते रहो कि समाज की व्यवस्था ठीक नहीं है इसलिए सुख नहीं है, कि आर्थिक वितरण समान नहीं है इसलिए सुख नहीं आया। और रूस से मुझे पत्र आते हैं। सुख तो दूर, स्वतंत्रता भी खो गयी। पत्र भी चोरी-छिपे आते हैं। पत्र भी सीधे नहीं आ सकते। किसी यात्रा को देते हैं लोग कि रूस के बाहर जाकर तुम ड़ाल देना, ताकि पहुंच जांए। और पत्रों की एक ही पीड़ा है कि हम सुख को कैसे पाएं, ध्यान क्या है, शांति कैसे उपलब्ध होगी!
यह जान कर तुम चकित होओगे कि रूस में भी जगह-जगह लोगों ने संन्यास लिया है। नहीं गैरिक वस्त्र पहन सकते, नहीं माला पहन कर बाहर निकल सकते, क्योंकि जीवन खतरे में पड़ जाएगा। मेरी किताबों पर पाबंदी है। मेरी किताबें प्रवेश नहीं कर सकतीं। लेकिन प्रविष्ट हो गयीं। लोग संन्यस्त हैं। रात चोरी से गैरिक वस्त्र पहन कर, माला पहन कर ध्यान कर लेते हैं, कि अपने तलघरों में मिलते हैं। रूस में अनुवादित कर ली हैं उन्होंने किताबें, हाथ से लिख कर किताबें एक हाथ से दूसरे हाथ में जा रही हैं। तो समानता भी आ जाए तो भी सुख तो नहीं आता।
और अमरीका में कितना धन है! अम्बार लग गए हैं। मनुष्य-जाति के पास कभी इतना धन इतिहास के किसी काल खण्ड में, किसी देश में, कभी भी नहीं था। लेकिन जीवन एकदम खाली-खाली है, थोथा है। जितना थोथा अमरीका में जीवन अनुभव होता है शायद कहीं और नहीं होता; कहीं और नहीं सकता। भिखारी को तो आशा रहती है कि आज नहीं कल, होना धन पास तो सुख के द्वार खुल जाएंगे, कि स्वर्ग फिर मेरा है। लेकिन जिसके पास सब है उसकी तो आशा भी मर गयी। उसके तो आशा में भी अब अंकुर नहीं आ सकते हैं। अब तो उसकी निराशा सघन है, परिपूर्ण है। अब तो वह जानता है भलीभांति कि धन हो, कि पद हो, कि प्रतिष्ठा हो, नहीं सुख मिलेगा; कोई और मार्ग खोजना होगा।
इसलिए गरीब देशों में उतनी अशांति नहीं मालूम होती। पष्चिम से मेरे पास इतने लोग आते हैं-लाखों की संख्या में। चकित होते हैं यह देख कर कि भारत के लोग बड़े शांत मालूम होते हैं! इनके पास कुछ भी नहीं है, फिर इतने शांत क्यों? और भारत के थोथे पंडित हैं, पुरोहित हैं, तथाकथित महात्मा हैं, वे इस बात का उल्टा ही अर्थ समझाते हैं। वे समझाते हैं कि भारत के लोग इसलिए शांत मालूम होते हैं कि इनके जीवन में धर्म है। यह सरासर झूठी बात है, बकवास है। धर्म के कारण यह शांति नहीं है। यह शांति है केवल गरीबी के कारण, क्योंकि गरीब को आशा होती है। इनको भी अमीर हो जाने दो और इनकी भी शांति नष्ट हो जाएगी। क्योंकि जैसे ही कोई व्यक्ति अमीर हुआ कि एक बात साफ हो जाती है कि यह आशा व्यर्थ थी; यह मृग-मरीचिका सिद्ध हो गयी; अब मरुस्थल ही मरुस्थल है। वह जो आदमी मरुस्थल में दौड़ रहा है और शांत दिखता है, समझ लेना कि उसे मृग-मरीचिका दिखाई पड़ रही है, कि वह रही; पास ही तो है जल का स्रोत, अब पहुंचा तब पहुंचा, अभी पहुंचा जाता हूं, थोड़ी देर और, दो कदम और! मगर जो आदमी इन सारी मृग-मरीचिकाओं में पहुंच चुका है और जाकर पाया कि सिवाय मरूस्थल के कुछ भी नहीं है, उसकी निराशा को समझोगे, उसकी हताशा को समझोगे? उसकी आंखों से चमक चली जाएगी। उसकी आंखों से आशा के दीए बुझ जाएगें। उसके जीवन में सपने अब नहीं पल सकते। अब कल्पनाओं में उसे कोई रस नहीं रहा। अब वह जानता है कि सब सरासर झूठ है। अब वह जहां है वही बैठा रहेगा। उठने तक साहस नहीं रह जाएगा, कदम बढ़ाने तक ही हिम्मत न रह जाएगी।
तो जिनके पास धन है उनको गौर से देखो। जिनके पास पद है उनको जरा गौर से देखो। तब तुम पाओगे कि तुमने अपने दुख के जितने कारण सोच रखे हैं वे सच्चे कारण नहीं हैं, वे केवल बहाने हैं। बहाने हैं वैसे ही बने रहने के जैसे कि तुम हो।
दुख का केवल एक ही कारण है, जो बहाना नहीं है, कारण है--और वह कारण है स्वभाव के प्रतिकूल होना। जो हमारी नियति नहीं है उससे अन्यथा होने की चेष्टा में दुख है। और हम सब वही होने में लगे हैं। हमारी नियति है परमात्मा होना। हमारी नियति है आत्म-आविष्कार। हमारी नियति है अंतर्तम के आकाश में उड़ना।
इसलिए धरती पर हम पैर घसीट कर चलते हैं, आनंद मैत्रेय। इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है, क्योंकि हम बने हैं आकाश में उड़ने को।
ऐसा ही समझो कि जैसे किसी नामसमझ के हाथ में हवाई जहाज पड़ जाए। मैंने सुना है कि ऐसा दूसरे महायुद्ध में हुआ। बर्मा के एक जंगल में एक छोटा हवाई जहाज छूट गया दूसरे महायुद्ध में। जंगल में रहने वाले आदिवासियों के हाथ में पड़ गया। अब आदिवासी हवाई जहाज का क्या करें! हवाई जहाज है, यह भी उनकी समझ में न आए। वे तो बैलगाड़ी को ही जानते थे, सो उन्होंने हवाई जहाज में बैल जोत लिए। सोचा कि नये ढंग की बैलगाड़ी है। और बैल जोत कर उससे काम भी लेने लगे। छोटा-सा हवाई जहाज था, होगा दो सीट का हवाई जहाज, तो उसमें बैल जोत कर और उसको चलाने भी लगे। महीनों हवाई जहाज बैलगाड़ी ही रहा। तुम उस हवाई जहाज की दुर्दशा समझो। अगर हवाई जहाज को जरा भी होश होता तो जार-जार रोता, तो उसकी आंखों से आंसू टपकते कि यह मेरी क्या गति हो रही है! इसके लिए मैं बना हूं? ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर...बैल जुते हवाई जहाज में। मुढ़ों के हाथ में पड़ जाएगा तो यही होना था।
फिर शहर से कोई आदमी आया। उसे भी हवाई जहाज का भाव अनुभव तो नहीं था, लेकिन बस और ट्रक उसने देखे थे। उसने कहा कि यह तुम क्या कर रहे हो! इसमें बैल जोतने की जरूरत नहीं है। यह तो छोटी बस है।
उसने कोशिश करके चलाने की चेष्टा की, दो-चार दिन में चल गया हवाई जहाज। तो बस की तरह कुछ दिन चला। आदिवासी बहुत प्रसन्न हुए कि बिना बैल के गाड़ी चल रही; बैल नहीं, गाड़ी चल रही है! देखने आते आदिवासी दूर दूर से। फिर उस आदमी ने जब शहर गया तो वहां लोगों को कहा कि ऐसा ऐसा मामला हुआ, तब किसी ने उससे कहा कि पागल, वह बस नहीं है। तू जैसा वर्णन कर रहा है, वह हवाई जहाज है।
तो एक पायलट को लेकर वह आदमी जंगल पहुंचा और तब वह हवाई जहाज आकाश में उड़ सका। तब तो आदिवासियों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
मनुष्य जैसा है, उतने पर समाप्त नहीं है। हम बैलगाड़ी ही बनाए हुए हैं उसे। घसीट रहे हैं। चिल्लाते हैं बुद्धपुरूश कि नहीं तुम इसके लिए बने हो। अनंत सम्पदा के तुम मालिक हो। प्रभु का राज्य तुम्हारा है। मगर हम सुनते नहीं। सुनें कैसे? हमने इस बाहर के जगत में अपने बहुत-से न्यस्त स्वार्थ जोड़ रखे हैं। हमने न मालूम कितने सपनों के जाल बुन रखें हैं! सुनें तो सब जाल छोड़ने पड़ें। सुनना महंगा है। सुनते हैं और अनसुनी करते हैं। सुन भी लेते हैं और सुनते भी नहीं।
धनी धरमदास ठीक कह रहे हैं। धरमदास कोई धनी नहीं थे, लेकिन भीतर के धन को पाकर ‘धनी धरमदास’ कहलाए। नहीं था कुछ उनके पास, लेकिन जो उनके पास आया उसने ही पाया कि भीतर कुछ अहर्निश बरस रहा है, कोई रसधार बह रही है! जो आया उसने पीया। जो आया पी कर वही जीया। नए जीवन को जीया! उनके ये वचन प्यारे हैंः ‘सोवत हौ केहि नींद!’ कैसी नींद में सोए हो, क्या कर रहे हो? क्या होने को आए थे, क्या हो गए हो! यह कैसी नींद? सपने को सच मान लिया! सच का विस्मरण कर दिया! अपने को भूल बैठे हो, औरों के पीछे दौड़ रहे हों! और सब कहीं जाते हो, सिर्फ अपने भीतर नहीं जाते। यह कैसी नींद? और सब जुटाते हो, सिर्फ एक ध्यान नहीं जुटाते। और वही एकमात्र धन है। उसे ही पाओ तो धनी हो जाओ। सब जुटा लोगे, मगर दीन रहोगे, दरिद्र रहोगे। खाली हाथ आए, खाली हाथ जाओगे। रोते जीए, रोते आए, रोते मरोगे।
हंसते हुए भी जीया जा सकता है। हंसने का तुम्हारा जो अनुभव है वह वास्तविक नहीं है। तुम हंसते भी हो तो उस हंसी में आनंद नहीं होता, शायद आंसुओं को छिपाने की व्यस्था है वह।
फे्रड्रिक नीत्से ने कहा है कि लोग मुझसे पूछते है कि तुम क्यों हंसते रहते हो? तो मैं उनको क्या कहूं? इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लगूं। अगर न हंसू तो आंसू टपकने लगेंगे। इसलिए किसी तरह हंस कर अपने को भुलाए रखता हूं।
जिसको तुम मनोरंजन कहते हो, वह क्या है और अपने को भूलाने के सिवाय? कोई चला फिल्म में, कोई चला नाटक में, कोई चला नृत्य में। पूछो-कहां जाते हो? कहते हैं-मनोरंजन को जाते हैं। मनोरंजन की इतनी क्या जरूरत पड़ी है? मनोरंजन की जरूरत ही किसको पड़ती है? जो दुखी है उसी को पड़ती है। सुखी को मनोरंजन की क्या जरूरत है? आनंदित को मनोरंजन की क्या जरूरत है? आनंदित व्यक्ति तीन घंटे किसी सिनेमागृह की गंदगी में बैठने को राजी नहीं होगा, कि जहां लोग सिगरेट और बीड़ी का धुआं उड़ा रहे हैं, जहां की सीटों में न मालूम कितनी बीमारियों के रोगाणु भरे हुए हैं, खटमलों का आवास है जहां, जहां न मालूम कहां-कहां किस-किस तरह के गंदे लोग रोज आकर बैठते हैं!
और तीन घंटे तुम क्या देख रहे हो? पर्द पर केवल धूप-छाया का खेल! उसमें रो भी लेते हो, हंस भी लेते हो, उदास भी हो जाते हो, प्रसन्न भी हो जाते हो। मूर्खता की भी कोई सीमा होती है! और जानते भी हो भलीभांति कि पर्दा है खाली। जब आए थे तब भी देखा था खाली है; जब आओगे तब भी देखोगे खाली है-लेकिन बीच में भरमा लिया अपने को। और इसको कहते हो मनोरंजन! और इसके लिए पैसा भी चुकाते हो! इसके लिए कतार में खड़े होते हो, धक्कम-धुक्की खाते हो।
‘सोवत हौ केहि नींद!’ कैसी नींद है तुम्हारी? क्या कर रहे हो? लोग ताश खेल रहे हैं, शतरंजें बिछाए बैठे हैं। उनसे पूछा-क्या करते हो? कहते हैं-‘समय काट रहे हैं।’ जैसे समय तुम्हारे पास बहुत ज्यादा है! इतना ज्यादा कि काटे नहीं कट रहा है!
पागलो, समय तुम्हें काट रहा है और तुम कहते हो, हम समय काट रहे हैं! और मौत जब द्वार पर दस्तक देगी, तब एक क्षण की भी भीख मांगोगे तो एक क्षण भी न मिलेगा। रोओगे, गिड़गिड़ाओगे, एक क्षण भी न मिलेगा।
सिकंदर जब भारत आया और एक फकीर से मिलने गया...सिकंदर अपनी अकड़ में था। जीतता चला आ रहा था, कहीं हारा ही नहीं था। हार उसने जानी ही नहीं थी। हार उसका अनुभव ही नहीं बनी। इसलिए तो उसे महान सिकंदर कहते हैं। नेपोलियन को हारना पड़ा। दुनिया में कोई दूसरा आदमी नहीं हुआ जिसने कभी न कभी हार न चखी हो। सिकंदर अकेला आदमी है जिसने हार नहीं चखी; जिसने विजय ही विजय चखी। कहना ही होगा महान उसको।.....लेकिन उस फकीर ने उसको ऐसे देखा नीचे से ऊपर तक जैसे कोई पुलिस वाला किसी चोर को देखे! सिकंदर थोड़ा तिलमिलाया भी। उसने कहा: ‘ऐसे कैसे देखते हो? मैं हूं महान सिकंदर!’
फकीर ने कहा: ‘चुप! नासमझ! किस बात से तू महान है?’
सिकंदर ने कहा कि किस बात से! सारी दुनिया को विजय किया हूं।
फकीर ने कहा: ‘एक बात सुन। मरूस्थल में तू खो जाए, रास्ता भटक जाए, प्यास तुझे लगे और मैं अपना यह लोटा (एक लोटा ही था फकीर के पास)...इस लोटे में पानी लेकर हाजिर हो जाऊं और तू गिड़गिड़ाए कि मुझे पानी दे दो और मैं कहूं कि क्या देगा पानी के बदले में? तो तू बोल, ज्यादा से ज्यादा कितना दे सकेगा?’
सिकंदर ने कहा: ‘अगर ऐसी हालत हो कि मरूस्थल में मर रहा होऊं, पानी के लिए तड़प रहा होऊं, प्यासा होऊं, तो अपना आधा राज्य दे दूंगा।’
लेकिन फकीर ने कहा: ‘आधे में मैं बेचता नहीं। तूने समझा क्या कि मैं बेच दूंगा ऐसे सस्ते में? ऐसा मौका मैं भी छोडूंगा? कुछ और आगे बढ़! लेना ही हो तो हिम्मत कर, कंजूसी न चलेगा।’
सिकंदर ने कहा: ‘अगर ऐसी ही हालत आ जाए तो अपना पूरा राज्य भी दे सकता हूं।’
तो उस फकीर ने कहा: ‘तो बस हो गया मतलब हल। मेरे लोटे भर पानी की कीमत है तेरे राज्य की। तो मेरा लोटा तेरे राज्य से कुछ छोटा नहीं है। तो तू क्यों अकड़ा हुआ है? ऐसी क्या अकड़! एक लोटे पानी में बिक जाएगा।’
और मैं तुमसे कहता हूं-उस फकीर ने कहा-कि जब मौत द्वार पर दस्तक देगी तो तू पूरा राज्य भी देगा तो भी एक क्षण नहीं पा सकेगा। और यही हुआ। सिकंदर जब वापिस जा रहा था भारत से तो रास्ते में मर गया। मरते वक्त सिर्फ अपने घर के चैबीस घंटे का फासला था। चैबीस घंटे और। और अपनी मां को वायदा करके आया था कि कुछ भी हो जाए, लौट कर आऊंगा और सारी दुनिया के राज्य को तेरे चरणों पर चढ़ा दूंगा। अपने वजीरों से, अपने वैद्यों से उसने कहा कि जो भी चाहो ले लो, लेकिन किसी तरह चैबीस घंटे मुझे बचा लो। उसके वैद्यों ने कहाः ‘असंभव है। कुछ भी किया नहीं जा सकता। मौत आ ही गयी। अब कोई उपाय नहीं। चैबीस घंटे भी नहीं बचा सकते।’
सिकंदर हंसने लगा। उन्होंने कहा: ‘क्यों हंसते हैं?’ उसने कहा: ‘मुझे उस फकीर की बात याद आती है। तब तो मैंने उसकी बात पर ज्यादा ध्यान न दिया था कि है फकीर। और फकीर तो उल्टी-सीधी बातें करते ही हैं, सधुक्कड़ी, तो उल्टी-सीधी बातें कर रहा है। लेकिन आज याद आती है उस फकीर की। वह ठीक कहता था। आज पूरा राज्य देकर चैबीस घंटे भी नहीं खरीद सकता हूं। तो क्या कमाया? यह जिन्दगी पानी में गयी। पानी पर रेखाएं खींचता रहा।’
‘सोवत हौ केहि नींद!’ धनी धरमदास कहते हैं: यह कैसी नींद है, जिसमें तुम सोए हो? ‘मूरख अग्यानी!’ और क्या मूढ़ता होगी?
और एैसा ही मत समझना कि तुम्हीं सोए हो, तुम्हारे पंडित सोए हैं, तुम्हारे पुरोहित सोए हैं, तुम्हारे साधु सोए हैं, तुम्हारे महात्मा सोए हैं। सब सोए हैं। तुमने अपने साधु-महात्माओं की अकड़ देखी? अहंकार देखा? वही का वही-वही रोग, वही बीमारी, जो आम आदमी को है। और बढ़-चढ़ कर उनके सिर पर सवार है। कहीं कुछ फर्क नहीं होता। संसार भी छोड़ देते हैं, मगर अकड़ नहीं जाती। और अकड़ ही असली बात है। संसार छोड़ो या न छोड़ो, अकड़ छूटनी चाहिए। कुछ लोग हैं, जो धन के कारण अकड़े हैं कि इतना हमारे पास धन है; और कुछ इसलिए अकड़े हैं कि हमने इतना धन छोड़ा है। लेकिन दोनों की अकड़ का कारण धन है।
जैन शास्त्रों को पढ़ो तो महावीर ने इतने घोड़े, इतने हाथी, इतने महल छोड़े...इतनी संख्या बताते हैं कि भरोसा नहीं आता कि इतने हाथी घोड़े और इतने महल महावीर के पास रहे हों! छोटी-मोटी जमींदारी थी। कोई बहुत बड़े सम्राट नहीं थे महावीर, क्योंकि महावीर अगर न होते तो शायद उनके वंश का पता भी नहीं होता किसी को, इतिहास मे कहीं उनके लिए पाद-टिप्पणी भी नहीं मिलती। अब भी महावीर के पिता का क्या नाम था, सिवाय जैनियों के कौन जानता है? और वह भी महावीर के कारण। दो हजार राज्य थे भारत में महावीर के समय में। दो हजार राज्यों में भारत बंटा हो तो समझ लो कि एक जिला के बराबर जागीरदारी रही होगी। इसमें इतने हाथी घोड़े खड़े कहां करोगे? मगर इतने हाथी-घोड़े हमको गिनाने पड़े, क्योंकि न गिनाएं तो त्याग छोटा हो जाता है। और मजा यह है कि जैसे जैसे समय बीतता है वैसे-वैसे संख्या बढ़ती जाती है। जितना पुराना शास्त्र है उतनी संख्या कम है, क्योंकि बौद्धों से विवाद चल रहा था। उधर बौद्ध भी अपने हाथी-घोड़े बढ़ाए जा रहे थे, तो जैन भी बढ़ाए जा रहे थे। कोई पीछे रह सकता था! अगर बुद्ध ने इतने हाथी त्यागे तो महावीर ने उससे दुगने त्यागे। छोटे बच्चों का खेल! जैसे छोटे बच्चे अपने-अपने बाप की तारीफ करने में एक-दूसरे से आगे बढ़ते जाते हैं। जो बहुत होशियार होते हैं वे कह देते हैं कि हमारे बाप सदा तुमसे एक कदम आगे; तुम जो भी कहो, उससे एक कदम आगे। वही पागलपन है। वही पागलपन सारे धर्माें में है।
महाभारत के युद्ध की कथा कहती है कि एक अरब से ज्यादा आदमी कुरूक्षेत्र के मैदान में मरे। कुरूक्षेत्र के मैदान में एक अरब आदमी खड़े भी नहीं हो सकते, मरेंगे तो गिरेंगे। एक अरब आदमी, तुम कल्पना करते हो! अभी भारत की आबादी एक अरब हुई नहीं, होने के करीब है। पूरे भारत की आबादी इस सदी के पूरे होते-होते एक अरब होगी। यह पूरे भारत की आबादी कुरूक्षेत्र के छोटे-से मैदान में इकट्ठी खड़ी भी नहीं कर सकते उसे। हां, एक आदमी के ऊपर दूसरा, दूसरे के ऊपर तीसरा, इस तरह खड़ा करो तो बात अलग। सीढ़ियां बना दो, ढेर लगा दो तो बात अलग; नहीं तो आदमियों को खड़े भी नहीं कर सकते। और युद्ध के मैदान में फिर लड़ने वगैरह के लिए, तलवार वगैरह चलाने के लिए जगह भी छोड़ोगे कि नहीं? जेब काटना तक मुश्किल हो जाएगा, गर्दन काटना तो बहुत दूर और फिर हाथी घोड़े भी हैं और रथ भी हैं। निहायत पागलपन की बात है।
बुद्ध के और महावीर के समय में भारत की आबादी कुल दो करोड़ थी, तो कृष्ण के समय में तो भारत की आबादी एक करोड़ से ज्यादा भी नहीं हो सकती। एक अरब आदमी लाए कहां से ये? एक अरब तो सारी दुनिया की भी आबादी नहीं हो सकती उस समय। अभी भी सारी दुनिया की आबादी चार अरब है केवल। पांच हजार साल पहले सारी दुनिया की आबादी करोड़ों में रही होगी, अरबों का सवाल नहीं उठता। और वह भी कुरूक्षेत्र मे मैदान में! कुरूक्षेत्र का मैदान कितना बड़ा है? हां, कोई हाकी-फुटबाॅल खेलना हो तो समझ में आता है, कि इकट्ठे हो गये कौरव और पांडव, खेलने लगे हाॅकी, कि फुटबाल का मैच हो गया। यह समझ में आ सकता है, मगर बाकी सब बातें बकवास हैं। अठारह अक्षौहिणी सेना! खड़ी भी नहीं हो सकती।
मगर हमारी आदतें...धन से ही हम तौलते हैं। दिखाना होगा तो संख्या बड़ी करनी पड़ेगी। तो महावीर ने इतना छोड़ा, बुद्ध ने इतना छोड़ा। छोड़ने पर त्याग तय होगा। त्याग की तौल भी धन से ही होगी। तराजू वही है, तराजू में फर्क नहीं पड़ता। तो अकड़ में भी फर्क नहीं पड़ सकता है।
‘सोवत हौ केहि नींद मूरख अग्यानी!’
कुछ लोग हैं जो धन की अखड़ में हैं, कुछ लोग हैं जो ज्ञान की अकड़ में हैं। किन्हीं को गीता याद है, किन्हीं को बाइबिल याद है, किन्हीं को उपनिशद् कंठस्थ हैं-उनकी अकड़। तोते हैं केवल। तोतों से ज्यादा इनका कोई मूल्य नहीं है। मशीनें ये काम कर लें, इसमें अकड़ने जैसा कुछ भी नहीं है। लेकिन आदमी कोई भी बहाना खोज ले, बस अहंकार को भरने के लिए बहाना चाहिए। और जब अहंकार है तब तक नींद है; अहंकार है, तब तक तुम मूर्ख हो, अज्ञानी हो। कितना ही ज्ञान तुम्हारे पास हो, तुम्हारी मूढ़ता नहीं कटेगी उससे। तुम्हारा ज्ञान भी तुम्हारी मूढ़ता को भरने का कारण हो जाएगा।
‘भोर भये परभात!’
मनुष्य का जन्म सुबह की तरह है। कितनी सदियां लगीं। कितने-कितने जन्मों के बाद कितनी योनियों में भटकने के बाद, पशुओं में, पक्षियों में, न मालूम कितनी यात्राओं के बाद यह सुबह हुई कि तुम मनुष्य हुए! कितनी रात और कितना अंधेरा बिता कर तुम आए हो और सुबह हुई। और तुम अब भी सोए हो! अब भी न जागे तो कब जागोगे?
धरमदास ठीक कहते हैं: ‘भोर भये परभात!’ सुबह हो गयी, लेकिन तुम्हारा प्रभात कब होगा? मनुष्य भी हो गए, लेकिन तुममें अभी मनन पैदा नहीं हुआ। इसलिए तुम नाममात्र के मनुष्य हो। अभी मनन का जन्म ही नहीं हुआ। मनन का जन्म तो तुम मन के पार जाओ तब होता है। मन के भीतर जो छिपा है उसमें प्रवेश करो तब होता है। मनातीत जो है, उसके अनुभव से ही तुम वस्तुतः मानवीय होते हो, नहीं तो नाममात्र के मनुष्य हो।
डायोजनीज--एक यूनानी फकीर--जीवन भर जलती हुई लालटेन लेकर घूमता रहा। नंग-धंड़ग! महावीर जैसा आदमी था। पश्चिम में बस महावीर के मुकाबले यही एक आदमी हुआ-डायोजनीज, जो नग्न रहा। और मैं तो कहूंगा कि महावीर से भी उसके नग्न रहने का मूल्य ज्यादा है, क्योंकि भारत में नग्न रहना बहुत आसान है। गरम देश है, यहां तो कपड़े पहनना मुश्किल है; नग्न रहना इतना मुश्किल नहीं है। लेकिन पश्चिम में जहां खून जम जाए, वैसी सर्दी में नग्न रहना..ड़ायोजनीज जरूर हिम्मत का आदमी रहा होगा। महावीर अगर नग्न रह बिहार में तो कुछ बड़ी बात नहीं। फिर यहां तो नग्न रहने की बड़ी पुरानी परम्परा है। हिन्दुओं में नागा साधु सदियों से होते रहे हैं। यहां नग्न होना कोई नयी बात नहीं है। और वैसे भी यहां आदमी करीब नंगे हैं। है ही क्या पास! वैसे ही लंगोटी लगाए हुए हैं।
लेकिन डायोजनीज नग्न रहा पश्चिम में। लेकिन एक लालटेन हाथ में रखता था -जलती हुई, दिन में भी। इससे लोग बड़े हैरान होते थे। जो भी देखे वही पूछे। न पूछो, यह हो न, यह बात बने न। तुम्हें भी मिल जाता डायोजनीज तो जिज्ञासा उठती ही-कितना ही समझाते अपने को कि अपने को क्या लेना देना, हमें क्या प्रयोजन, जो इसको करना हो करे! उसकी नग्नता से भी ज्यादा पूछने योग्य बात हो गयी उसकी लालटेन, कि दिन में तू भैया लालटेन क्यों लिए है? और जलती हुई लालटेन! और कुछ तेरे पास नहीं है, यह तुझे क्या सूझा है?
तो लोग पूछते ही उससे कि लालटेन किसलिए लिए हो। तो डायोजनीज कहता कि मैं आदमी की तलाश कर रहा हूं। अभी तक मुझे आदमी मिला नहीं।
जब डायोजनीज मर रहा था, लालटेन उसके बगल में रखी थी-वही जलती हुई लालटेन। किसी ने पूछा कि डायोजनीज, अब तो तुम मर रहे हो, आदमी मिला कि नहीं? डायोजनीज ने कहा: ‘आदमी तो नहीं मिला, लेकिन परमात्मा का धन्यवाद है किसी ने मेरी लालटेन नहीं चुरायी, यही क्या कम है? अब तो इसी धन्यवाद से मर रहा हूं कि बड़ी कृपा थी लोगों की, कि नजरें सबकी लगी रहीं, मगर किसी ने लालटेन न चुरायी! यही बहुत है। आदमी तो नहीं मिला। हरेक आदमी की आंख में लालटेन उठा कर देखता था।’
हम केवल देखने भर के आदमी हैं। जब तक अंतर-प्रवेश न हो, तब तक ज्ञान इकट्ठा करो, धन इकट्ठा करो, पद पर बैठ जाओ, प्रतिष्ठित हो जाओ, सारे जगत में नाम हो जाए-किसी काम का नहीं, दो कौड़ी का है।
‘भोर भय परभात!’ यह घड़ी छोड़ने जैसी नहीं है। यह सुबह सोने जैसी नहीं है। मगर अक्सर ऐसा होता है कि सुबह उठने का मन नहीं होता। जो रात भर जागे रहे हों वे भी सुबह-सुबह सो जाते हैं। आदमी ऐसा बेबूझ है, आधी-आधी रात तक जगे रहेंगे, मगर सुबह एकदम कंबल तान लेंगे! सुबह होने लगेगी तो एकदम बिस्तर में सिकुड़ने लगेंगे; सोचने लगेंगे, एक करवट और! अलार्म बजेगा तो बस नींद में ही बंद कर देंगे; या अलार्म बजेगा तो नींद में ही एक सपना अलार्म के आसपास बुन लेंगे कि मंदिर में गए हैं और मंदिर की घंटियां बज रही हैं, ताकि अलार्म से बचना हो जाए।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, जिन्होंने अपनी अलार्म की घड़ियां फोड़ दीं गुस्से में! खुद ही भर कर सोए थे रात कि सुबह सुबह अलार्म उठा देगा। और सुबह क्रोध में...क्योंकि सुबह उठने का मन नहीं होता, ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी; मन होता है कि एक करवट और, बस थोड़ी देर, एक आधा घड़ी। मगर वह आधा घड़ी का कभी अंत नहीं आता। और जिन्दगी में भी वही हो रहा है। आधा घड़ी आधा घड़ी करके पूरे जीवन बीत जाता है। कहते हैं कल!
कल कभी आता है? कल कभी आया है? सोचते रहते हैंः ‘कल करेंगे ध्यान, आज तो फुर्सत नहीं।’ मगर आज के सिवाय तुम्हारे हाथ में कुछ भी नहीं है। कल का भरोसा न करो। कल कौन जाने आए न आए। कहते हैं: ‘कल ले लेंगे संन्यास। कल करेंगे साधना।’
अहंकार बड़ा अद्भुत है आदमी का! वह यह भी नहीं मानना चाहता कि हमें साधना करनी नहीं है। करनी तो है, निश्चित करनी है; हम कोई नासमझ हैं जो साधना न करें? हम कोई पागल हैं जो ध्यान में न उतरें? उतरेंगे! एशि-मुनियों की संतान हैं! उस देश में पैदा हुए हैं जहां देवी-देवता पैदा होने को तरसते हैं!
अब तो मैं कभी कभी सोचता हूं कि अब देवी देवता कहां से पैदा होते होंगे! तेतीस करोड़ कुल देवी देवता हैं, सत्तर करोड़ पैदा ही हो चुके हैं भारत में, अब ये और देवी देवता कहां से चले आ रहे हैं, सब देवी-देवता तो पैदा ही हो चुके। अब तो यह ही समझो कि शैतान और शैतान के शिष्य चले आ रहे हों, इसके सिवा और तो कोई उपाय नहीं। अब तो नरक से भी लोग दिखता है कि तरसने लगे यहां आने को। या ऐसा लगता है कि नरक में भी जिनको दण्ड देते हैं उनको यहां भेज देते हैं, कि नरक में भी जो कसूर करते होंगे....कसूर करने वाले कहीं रूकने वाले हैं? तुम उनको नरक भेज दो, वहीं कसूर करेंगे, वहीं कुछ हरकत करेंगे।
मुल्ला नसरूद्दीन मरा, मैंने सुना। वह जब नरक गया तो ऐसा अकड़ कर चले कि शैतान ने कहा कि बड़े मियां, तुम तो ऐसे अकड़ कर चल रहे हो जैसे तुम्हारे बाप का हो नरक! नसरुद्दीन ने कहा: ‘मेरे बाप का नहीं तो किसका है? मेरी पत्नी ने मुझे नरक दिया है, यह उसकी भेंट है। तू कौन है बीच में गड़बड़ करने वाला? मेरी पत्नी जिंदगी भर कहती रही-अरे मुए, मर और नरक जा! उसी की वजह से तो आया हूं। अकड़ कर नहीं चलें तो क्यों...क्यों न चलें? अपनी पत्नी की भेंट है।’
यहां से गए आदमी नरक में भी बदलेंगे तो नहीं। और मैंने तो यह भी सुना है कि अब नरक में वे पूछते हैं, द्वार पर ही पूछ लेते हैं कि महाराज, कहां से आ रहे हैं?
‘पृथ्वी से आ रहे हैं।’
तो वे कहते हैं: ‘तुम नरक काफी भोग चुके, अब तुम स्वर्ग जाओ। अब तुम स्वर्ग भोगो। नरक तो तुम भोग चुके।’
एक आदमी ने दस्तक दी स्वर्ग के द्वार पर। पूछा स्वर्ग के द्वारपाल ने: ‘शादी शुदा हो?’
उसने कहा: ‘हां, शादी-शुदा हूं।’
‘तो आजा भैया! नरक तो तू भोग ही चुका।’
दूसरा आदमी उसके पीछे चला आ रहा था, उसने यह सुना, उसने कहा यह तो बड़ी अच्छी तरकीब है। द्वारपाल ने पूछा: ‘शादी-शुदा हो?’
उसने कहा: ‘एक बार नहीं, तीन बार।’
उसने कहा: ‘एक बार तो क्षम्य है। तीन बार क्षम्य नहीं है। एक बार कोई भूल करे, समझ में आता है। तू पागल है। तू वापिस पृथ्वी पर जा। पहले इलाज करवा। यहां हम पागलों को भीतर नहीं लेते।’
पृथ्वी को हमने नरक ही तो बना लिया है, नरक से बदतर बना लिया है। और सब इस पूरी विकृति का कारण: सुबह हो गयी और हम जागते नहीं। ‘भोर भये परभात, अबहिं तुम करो पयानी।’ अब वक्त आ गया कि तुम चल पड़ो। उठो, यात्रा करो! कौन सी यात्रा? अंतर्यात्रा! मनुष्य होने की यात्रा।
अभी तुम मनुष्य केवल नाममात्र को हो। बीज मात्र हो मनुष्य के। इसे वृक्ष बनाना है। वसंत आ गया और तुम बीज की तरह ही पड़े रहोगे? फूटोगे नहीं? अंकुरित नहीं होओगे? पल्लवित नहीं होओगे? फिर फूल कैसे लगेंगे? फिर गंध कैसे आकाश में उड़ेगी?
‘अब हम सांची कहत हैं’-यह बड़ा प्यारा वचन है धनी धरमदास का। कहते हैंः ‘अब हम सांची कहत हैं!’ यह शिष्यों से कही गयी बात है, हर किसी से नहीं। यह हर किसी से कही जा भी नहीं सकती। हर कोई इसे समझेगा भी नहीं। यह कोई आम जनता भीड़-भाड़ में कहने की बात नहीं है। भीड़-भाड़ को तो रामायण की कथा-कि एक हुए राम जी और एक हुई सीता जी...और लोगों को सब कथा मालूम ही है। और रात भर सुनेंगे और सुबह फिर पूछेंगे कि रामचन्द्रजी की सीता जी कौन थीं? आम जनता के लिए तो पुराण हैं, कथा कहानियां हैं। जैसे बच्चों के लिए परियों की कहानियां होती हैं, ऐसे ही आम जनता के लिए धार्मिक कहानियां हैं। यह तो शिष्यों से कहा जा रहा है।
शिष्य का अर्थ है: जो अब तैयार हो गया सुनने को; जिससे अब पते की बात कही जा सकती है; जो बेचैन नहीं होगा; जो चैंकेगा नहीं; जो चैंधिया नहीं जाएगा; जिसको अब रोशनी दिखायी जा सकती है; जिसको अब झकझोरा जा सकता है; जिसकी आंखों पर ठंडा पानी फेंका जा सकता है; जरूरत पड़े तो जिसको पूरा का पूरा ठंडा पानी में डुबाया जा सकता है। शिष्य का अर्थ होता है कि जो सीखने को राजी है।
‘अब हम सांची कहत हैं।’ उससे ही सच्ची बात कही जा सकती है। नहीं तो फिर झूठी कथाएं हैं। और झूठी कथाओं में लोगों को रस है। लोग सत्यनारायण की कथा! नाम भर सत्यनारायण की कथा है। बस लोग करवाते रहते हैं, पढ़ने वाले पढ़ते रहते हैं, सुनने वालों सुनते रहते हैं। न पढ़ने वालों के जीवन में कोई सत्य आता है, न सुनने वालों के जीवन में कोई सत्य आता है। न पढ़ने वालों को कोई मतलब है, न सुनने वालों को कोई मतलब है।
कैसी-कैसी झूठी बातें लोगों ने गढ़ी रखी हैं, कि अजामिल नाम का पापी मर रहा था और उसने अपने बेटे नारायण को बुलाया! पुराने जमाने में सभी नाम परमात्मा के होते थे। पुराने समय में सारी दुनिया में यह बात थी। समय के अनुसार फैशन बदल जातें हैं। अब फैशन बदला है। अब इस तरह के नाम रखना दकियानूसी मालूम पड़ता है। लेकिन पुराने जमाने में सभी नाम परमात्मा के होते थे। भारत में ही नहीं, और देशों में भी। अरबी में, संस्कृत में, हिब्रू में, सारे नाम परमात्मा के हैं। नाम मात्र परमात्मा के हैं। यह एक उपाय था कि शायद इससे ही धीरे-धीरे याद आ जाए, किसी दिन चोट पड़ जाए।...तो अजामिल के बेटे का नाम नारायण था। अजामिल महापापी। उसले अपने बेटे को बुलाया। लेकिन कथा कहती है कि ऊपर के नारायण धोखे में आ गए। हद हो गयी! यह तो ऊपर के नारायण की भी बदनामी करवा दी। इनमें इतनी अकल भी नहीं है कि वह अपने बेटे को बुला रहा है, वे समझे कि मुझको बुला रहा है।
अजामिल मरे, सीधे स्वर्ग गए, क्योंकि मरते वक्त उन्होंने परमात्मा का नाम लिया था। और जहां तक सम्भावना इसी बात की है कि अजामिल ने बेटे को बुलाया भी होगा तो किस लिए बुलाया होगा...जन्म भर का पापी, डाकू, लुटेरा, हत्यारा...बुलाया होगा कि बेटा सुन, कहां-कहां धन गड़ाया है, किस-किस को मारा है, किस-किस को मारना है अभी। कुछ दी होगी सीख। कुछ बताए होंगे गुर। कुछ कला अपनी दी होगी। कुछ नुस्खे सिखाए होंगे। जिन्दगी भर का अनुभव मरते वक्त बाप बेटों को दे जाते हैं। देना ही चाहिए। कुछ चाबियां थमायी होंगी-‘यह देख, यह चाबी फलां सेठ के ताले में लगती है, कि इस चाबी से राजा का खजाना खुल जाता है, कि इन-इन आदमियों को रिश्वत देना तो जिन्दगी में कभी तकलीफ न आएगी, कि इन-इन को सम्हाले रखना, इन-इन की खुशामद करते रखना तो कभी फंसेगा नहीं। मुझे देख, जिन्दगी गुजार चला, मगर कभी फंसा नहीं। कोई अदालत फांस न सकी। दुनिया जानती है कि चोर, बेईमान, लूटेरा, सब कुछ है मगर, कोई कह तो दे! जिसने कहा उसकी जबान काट ली।’
कुछ बता गया होगा मतलब की बातें। मगर ऊपर के परमात्मा धोखे में अ गए। अब ये किस तरह के बेईमान इन कहानियों को गढ़ते हैं! और जनता इन कहानियों से बड़ी प्रसन्न होती है। वह प्रसन्न होती है, वह सोचती है कि जब अजामिल तक तर गए तो हम तो तर ही जाएंगे। हमने तो ऐसा कोई बड़ा पाप किया भी नहीं। यूं कभी रिश्वत खा ली कि खिला दी थोड़ी-बहुत; कि कभी बिना टिकट ट्रेन में सफर कर लिया। अब ट्रेन से परमात्मा को क्या लेना-देना है, कि टिकट लेकर बैठे कि नहीं बैठे, परमात्मा कोई टिकट-चैकर थोड़े ही है! और क्या हिसाब रखता होगा कि लाखों लोग बैठे रहे उतर रहे, आ रहे जा रहे, कौन टिकट लिए कौन नहीं लिए हुए है! कि कभी छोटे मोटे कुछ झूठ बोल दिए, तो कौन नहीं बोलता है! कि कभी आश्वासन पूरे नहीं किए। तो यह तो सब स्वाभाविक है इस जगत में। भूल-चूक तो आदमी से होती ही है। इसलिए तो हम प्रार्थना करते रहते है मंदिरों में जा जा कर कि हम पतित हैं, तुम पतितपावन हो, कि हमसे भूल-चूक होगी, यह हमारा स्वभाव है; तुम दया करो, क्षमा करो, यह तुम्हारा स्वभाव है। तुमको एक मौका देते हैं अपना स्वभाव प्रगट करने का। हमारे बिना तुम दया भी किस पर प्रगट करोगे? हम न होंगे, पछताओगे। हम न होंगे, उदास बैठे रहोगे। हम न होंगे, दुकानदारी तुम्हारी गयी। हम हैं तो सब कुछ चल रहा है। हम हैं तो तुम महाकरूणावान हो। राम हो, रहीम हो, रहमान हो! लेकिन हमारे कारण हो, भूल मत जाना!
उमर खैयाम ने बड़ा मीठा पद लिखा है। लिखा है कि मैं नहीं मानता उनकी बातें जो कहते हैं कि शराब मत पीओ। हम तो पीएंगे, क्योंकि हमें पक्का भरोसा है कि परमात्मा महा करूणावान है। ये तो नास्तिक हैं जो कहते हैं कि मत पीओ शराब, नहीं तो नरक जाना पड़ेगा। इनको परमात्मा की करूणा पर भरोसा नहीं है! बात तो पते की कह रहा है। उमर खैयाम बात तो ठीक ही कह रहा है। अगर परमात्मा करुणावान है तो कैसे नरक भेज सकता है? और जरा-सी शराब पी ली, नरक भेज दिया-यह हो ही नहीं सकता। और कम से कम मुसलमान उमर खैयास को तो यह बात जंच ही नहीं सकती, क्योंकि बहिश्त में शराब के चश्मे बह रहे हैं, स्वर्ग में शराब के चश्मे बह रहे हैं। जब परमात्मा जहां रहता है वहां शराब की नदियां बह रही हों तो छोटे-मोटी शराब पीने वालों को नरक भेज दे, यह कोई बात जंचती है? देवी-देवता शराब में नहा रहे हैं, उछल रहे हैं, कूद रहे हैं, पी रहे हैं, पिला रहे हैं। और जो महात्मा पहुंच जाते हैं स्वर्ग, वे झरने क्या ऐसे ही बहते रहते होंगे? आखिर कोई पीता ही होगा, पिलाता ही होगा! यहां तो कुल्हड़ों में पी जा रही है और नरक भेजे जा रहे हो तुम, अगर इसका इतना दण्ड है तो स्वर्ग में रहने वालों को कितना दंड नहीं मिलेगा फिर!
नहीं; परमात्मा करुणावान है, उमर खय्यास कहता है। हमें उसकी करूणा पर भरोसा है। हम आस्तिक हैं। हम तो पीएंगे और हम तो देखेंगे। उसकी करूणा की भी तो एक जांच होनी चाहिए, कसौटी होनी चाहिए।
आदमी बड़ा होशियार है। वह अपने हिसाब से सब ईजादें कर लेता है। धनी धरमदास ने तो यह शिष्यों से कही है बात। कहा है: ‘अब हम सांची कहत हैं!’ कि अब हम तुमसे सच-सच कह देते हैं, सौ टके सच बात कह देते हैं। और सच्ची बात यह है: उड़ियों पंख पसार! कि अपने भीतर के आकाश में पंखों को पसारो और उड़ो। कथा कहानियों में मत उलझे रहो। शब्द जाल में मत उलझे रहो। यह उधार ज्ञान काम नहीं आएगा। अपने ही पंखों को फैलाओ। महावीर उड़े, बुद्ध उड़े, कृष्ण उड़े कि क्राइस्ट उड़े, इससे तुम नहीं उड़ सकोगे। तुम्हें की उड़ना होगा। अपने ही पंख काम आएंगे।
उड़ियो पंख पसार! पसारो अपने पंखों को। तौलो अपने पंखों को। हिम्मत करो। भय तो लगता है। भीतर जाने में भय लगता है, क्योंकि एकदम अकेले हो जाते हैं हम भीतर। बाहर तो अपने हैं, प्रियजन हैं, बंधु-बंाधव हैं, मित्र हैं, पत्नी है पति है, बेटे हैं, मां-बाप हैं, भाई बंधु हैं, सब हैं। बाहर तो सारा संसार है। और भीतर? भीतर न कोई भाई न बंधु, न कोई मित्र न कोई परिचित। तो हम बिलकुल अकेले हैं। अकेले होने से हम बहुत डरते हैं। अकेले होने में बड़ी घबड़ाहट लगती है। सब सहारे छूट गए, सब सुरक्षा टूट गयी। कहीं डूब न जाएं इस अकेलेपन में! यह एकाकीपन, पता नहीं फिर हम वापिस लौटे सकें न लौट सकें! कहीं गल न जाएं, पिघल न जाएं। सो हम पकड़े रहते हैं दूसरों को। पति पत्नियों को पकड़े हुए हैं, पत्नियां पतियों को पकड़े हुए हैं। और एक जन्म में ही नहीं, कहते हैं कि अगले जन्म में भी, जन्मों-जन्मों तक संग साथ रहेगा।
लोग एक-दूसरे के प्रेम में पड़ जाते हैं तो कहते हैं कि एक जन्म से ही काम नहीं चलेगा, जन्मों जन्मों तक साथ रहेंगे। कल का जिनको भरोसा नहीं है, वे जन्मों-जन्मों की बात कह रहे हैं। ये ही सज्जन कल तलाक देने के लिए अदालत में खड़े मिल जाएंगे। मगर कभी एक दिन पहले कह रहे थे कि जन्मों-जन्मों तक।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी प्रेयसी को कहा कि मैं तेरे लिए मृत्यु का भी सामना कर सकता हूं। मैं तेरे लिए क्या नहीं कर सकता! अरे मौत से जूझ जाऊं!
संयोग की बात, दूसरे दिन दोनों जंगल में घूमने गए थे कि एक चीता निकल आया झाड़ी में से। मुल्ला एकदम प्रेयसी के पीछे छिप गया। प्रेयसी ने कहा: ‘यह क्या करते हो नसरूद्दीन? तुम तो कहते थे--तेरे लिए मौत का सामना कर लूंगा?’
मुल्ला नसरूद्दीन ने कहा कि निश्चित, तेरे लिए मौत का सामना कर लूंगा। लेकिन यह चीता जिंदा है। मरा हुआ होता तो देखती, कैसा सामना करता! वह हाथ चलाता!
उस प्रेयसी से तो मामला खतम हो गया उसका, कि ऐसे आदमी से कौन नाता बांधे! यह दगा दे गया। मौके पर काम नहीं आया। दूसरी प्रेयसी से उसने कहा कि मेरा प्रेम अमर है, जन्मों-जन्मों तुझे प्रेम करूंगा! उस प्रेयसी ने कहा कि नसरुद्दीन, मैंने तुम्हारे संबंध में कुछ बातें सुन रखी हैं। तुम सच कहते हो कि तुम्हारा प्रेम अमर है? उसने कहा कि निश्चित, मैं जन्मों-जन्मों तुझसे प्रेम करूंगा। सातवीं मंजिल पर बैठे हुए थे मकान की, उसने कहा: ‘तो कूद जाओ अच्छा।’ उसने कहा: ‘यह मैं नहीं कर सकता। मैंने तुझसे पहले ही कह दिया कि मेरा प्रेम अमर है, मैं मर नहीं सकता। कभी नहीं! मैं सदा-सदा तुझे प्रेम करूंगा, मैं मर नहीं सकता। मेरा प्रेम अमर है।’
लोग नाते-रिश्ते बना रहे हैं, अमरता के जाल गूंथ रहे हैं। एक-दूसरे को झूठे आश्वासन दे रहे हैं, भरोसे दे रहे हैं। भीतर जाएंगे तो अकेले हो जाएंगे। और भीतर डर लगता है, कि पता नहीं, क्या हो!
फिर भीतर जब कोई पहली दफा प्रवेश करता है तो अधंकार ही मिलता है, प्रकाश नहीं मिलता। प्रकाश तो अंधकार को खोदते-खोदते मिलता है। हमने जन्मों-जन्मों तक तो अधंकार ही इकट्ठा किया है, उसकी पर्ते इकट्ठी हो गयी हैं। गहरी खुदाई करनी पड़ेगी। जैसे कोई कुआं खोदता है, तो एकदम से पानी नहीं मिल जाता। यद्यपि पानी है, लेकिन पहले तो कंकड़-पत्थर आएंगे हाथ, कूड़ा-कचरा आएगा हाथ, गंदी मिट्टी हाथ आएगी, फिर सूखी मिट्टी हाथ आएगी, फिर गीली मिट्टी हाथ आएगी, फिर गंदा पानी हाथ आएगा। ऐसा खोदते गए, खोदते गए, खोदते गए तो एक दिन निर्मल झरने उपलब्ध होंगे। ऐसी ही अंतर-खुदाई करनी होती है।
उतनी प्रतीक्षा नहीं है हम में। उतना धैर्य नहीं है हम में। हम चाहते हैं सब जल्दी हो जाए, सब तत्क्षण हो जाए। कोई दूसरा कर दे। कोई दूसरा कर दे, इस कारण ही तो हम पंडितों पुरोहितों के जाल में पड़े हैं। हम सोचते हैं ये हमारे लिए प्रार्थना कर लें, ये हमारे लिए पूजा कर लें।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं: ‘हमारे लिए आप परमात्मा से प्रार्थना करें।’
मैंने कहा: यह भी खूब रही! पाप तुम करो, प्रार्थना मैं करूं! पाप करते वक्त नहीं आते मुझसे कहने। प्रार्थना मैं करूं! प्रार्थना तुम्हें करने योग्य लगती नहीं, यह किसी और पर टाल दो, यह बोझ किसी और पर रख दो। और मेरी प्रार्थना तुम्हारे कैसे काम आएगी?
एक सज्जन आते हैं, वर्शों से आते हैं। बस उनका एक ही स्वर हमेशा का-पैर छूकर कहते हैं कि बस आपका आशीर्वाद चाहिए! अरे आपके आशीर्वाद से क्या नहीं हो सकता! मुझे न ध्यान करना है, न मुझ प्रार्थना करनी है। मुझे तो बस आपका आशीर्वाद चाहिए। मैंने उनसे कहा कि अगर तुम्हें मेरे आशीर्वाद पर इतना भरोसा है तो तुम ऐसा करो, दुकान भी बंद कर दो, धंधा भी बंद कर दो। कहो कि क्या करना धंधे का, क्या करना दुकान; मुझे तो आपका आशीर्वाद चाहिए!
उन्होंने कहा: ‘यह जरा मुश्किल है।’
तो मैंने कहा कि तुम समझते हो भलीभांति कि धंधा छोड़ा, दुकान छोड़ी तो मेरे आशीर्वाद से क्या होगा-धंधा खतम, दुकान खतम! जो तुम करना चाहते हो वह तो तुम खुद ही कर रहे हो और जो तुम नहीं करना चाहते, वह सोचते हो अगर मुफ्त मिल जाए तो क्या हर्ज! अरे मुफ्त मिले तो ले ही लो। अगर मुफ्त मिलता हो परमात्मा, तो कौन नहीं ले लेना चाहेगा! मगर मुफ्त!
श्रम करने को कोई राजी नहीं। और भीतर श्रम करना होगा, साधना करनी होगी। उड़ियो पंख पसार! पंख उड़ाने, फड़फड़ाने होंगे। और जन्मों-जन्मों से तुमने हिलाए भी नहीं, तो तुम भूल ही गए ही पंख हैं भी तुम्हारे पास।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो पक्षी बहुत दिन तक पींजड़े में बंद रह गया, उसको तुम पींजड़े से छोड़ दो, वह उड़ नहीं सकता; वह भूल ही गया कि उसके पास पंख हैं। अगर उड़ने की कोशिश करेगा तो शायद गिर पड़े, फड़ाफड़ा कर गिर पड़े। अक्सर तोते जो पींजड़ों में कुछ दिन तक रह गए हैं, छोड़ दिए जाने पर जल्दी ही मर जाते हैं। या तो कोई बिल्ली खा जाएगी, या कोई चील झपट्टा मार देगी। अपने को बचा नहीं सकते, क्योंकि वे भूल ही गए कि उनके पास पंख हैं। विस्मरण हो गया। बीच में बड़ा पर्दा पड़ गया विस्मरण का।
तुम कब से अपने भीतर नहीं गए हो, याद है? सोचोगे तो पता चलेगा कि कभी गए ही नहीं। जब कभी नहीं गए भीतर, तो आज एकदम से जाने में भय लगेगा। अज्ञात में प्रवेश करने में भय लगता है।
इसलिए केवल शिष्यों से यह बात कही जा सकती है। शिश्य का अर्थ होता है, जिसमें साहस है।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार!
छुटि जैहो या दुक्ख तें, तन-सरवर के पार।’
अगर खोल सको पंख अपने, उड़ सको अपने स्वभाव में, उड़ सको अपने स्वरूप में, अपनी निजता में, तो हो जाओगे दुख के पार, हो जाओगे इस शरीर के सरवर के पार। यह भवसागर पार हो जाएगा।
ये प्यारे वचन हैं। ये बहुमूल्य वचन हैं।
आनंद मैत्रेय, तुमने पूछा कि इसका अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें! अभिप्राय तो सीधा साफ है, लेकिन अकेला अभिप्राय समझने से कुछ भी न होगा। अनुभव करना होगा। अनुभव ही एकमात्र अभिप्राय समझा सकता है। मैं अर्थ समझा दूंगा, मगर मेरा अर्थ मेरा अनुभव होगा। तुम सुन लोगे, शब्द तुम्हारे कान तक पहुंच जाएंगे, अनुभव नहीं पहुंचेगा। तुम्हें पंख खोलने पड़ेंगे। तुम्हें अंतर्यात्रा करनी होगी।
इशारे मैं दे सकता हूं, इंगित मैं दे सकता हूं। कैसे पंख फड़फड़ाओ, कैसे पहला कदम भीतर उठाओ-ये सब सूचनाएं तुम्हें दी जा सकती हैं। मगर यात्रा तुम्हें करनी होगी, कोई ओर तुम्हारे लिए यात्रा नहीं कर सकता। प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा तक स्वयं ही चलकर पहुंचना होता है; यह यात्रा उधार नहीं हो सकती।

दूसरा प्रश्न: ओशो,
हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल
जाना है किधर मालूम नहीं
आगा.जे.-सफर पर ना.जां हैं
अन्जामे-सफर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल...

कब जाम भरे, कब दौर चले
कब आए इधर मालूम नहीं
उट्ठे भी अगर, ठहरे भी कहां,
साकी की न.जर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल...

हम अक्ल की हद से भी गुजरे,
सहरा-ए-जुनूं भी छान लिया
अब और कहां ले जाएगी
साकी की न.जर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल...

मुमकिन हो तो एक लमहें के लिए
तकली.फे तबस्सुम कर लीजे
हममें से अभी तक कितनों को
मफहूमे सहर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल...

ज.जबात के सौ आलम गुजरे
एहसास की सदियां बीत गईं
आंखों से अभी उन आंखों तक
कितना है सफर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल...

जाना है किधर मालूम नहीं
आ.गा.जे-सफर पर ना.जां हैं
अन्जामे-सफर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल...

 स्वभाव! संन्यास का यही अर्थ है--एक अज्ञात यात्रा। भीतर चलना ऐसा नहीं है जैसा बाहर चलना होता है। बाहर तो सीधे-साफ रास्ते हैं। मील के पत्थर लगे हैं। नक्शे उपलब्ध हैं। अतंर्यात्रा तो आकाश की यात्रा है।
अभी-अभी धनी धरमदास का पद तुमने सुना ही-उड़ियो पंख पसार! वह आकाश की यात्रा है। आकाश में रास्ते नहीं होते। पगडंडियां भी नहीं होतीं। बनाना भी चाहो तो नहीं बन सकतीं। मील के पत्थर भी नहीं होते। पक्षी आकाश में उड़ते हैं तो उनक पद चिन्ह भी नहीं छूट जाते।
बुद्ध ने कहा है कि बुद्धों का कोई पद-चिह्न नहीं छूट जाता, क्योंकि उनकी यात्रा आकाश की यात्रा है। इसलिए कोई चाहे कि उनके पद-चिह्नों पर चल सके तो नहीं चल सकता। पद-चिह्न बनते ही नहीं आकाश में। तो ऐसे ही चलना होता है अज्ञात में। मंजिल साफ नहीं होती, बहुत धुंधली होती है। सिर्फ एक प्रबल अभीप्सा होती है, प्राणों में एक प्यास होती है। जल है भी या नहीं, यह भी पक्का नहीं। मगर इतना भर भरोसा होता है कि अगर प्यास है तो जल भी होगा ही। क्योंकि इस जीवन का यह नियम है: यहां भूख है तो भूख के पहले भोजन है।
तुमने देखा नहीं, मां के पेट में बच्चा आता है तो जैसे ही बच्चा पैदा होता है वैसे ही मां के स्तन दूध से भर जाते हैं! बच्चे के आते आते, अभी बच्चा आ ही रहा है कि तैयारी हो गयी। अभी बच्चा पैदा भी नहीं हुआ और स्तन दूध से भर गए। अभी बच्चे की भूख भी नहीं जगी और भोजन तैयार हो गया। मां के पेटे में बच्चे की आंखे तैयार हो जाती हैं; अभी देखने को कुछ भी नहीं है। पैदा होगा, तब आंखें खुलेंगी। तब सारा दृश्य, सारा जगत देखने को होगा।
इस जगत का नियम यह है, शाश्वत नियम यह है कि यहां जिस बात की भी अभीप्सा है, अभीप्सा के पहले ही उसका कुछ आयोजन है। यह कोई अराजकता नहीं है। यहां एक गहरी अन्तर-व्यवस्था का नाम ही धर्म है। धर्म का अर्थ है वह नियम, जो सारे जीवन को सम्हाले हुए है। अगर तुम्हारे भीतर सत्य की प्यास है तो सत्य होना ही चाहिए। तो चलना तो ऐसा ही होगा।
‘हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल,
जाना है किधर मालूम नहीं।’
मालूम हो भी नहीं सकता। और जिसने सोचा हो कि पहले से सब मालूम कर लेंगे तब चलेंगे, वह चल नहीं सकता। वह कायर है। वह तो ऐसा आदमी है जो कहता है कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं तब तक पानी में न उतरूंगा। मगर तैरना सीखोगे कैसे, अगर पानी में न उतरोगे? पानी में उतरोगे, तो ही तैरना सीखोगे। बिना पानी में उतरे कोई तैरना सीख नहीं सकता।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि जब तक हमें पूरा पक्का न हो जाए कि ध्यान से उपलब्ध क्या होगा, इसका पूरा प्रमाण न मिल जाए, तब तक हम ध्यान न करेंगे। तो मैं उनसे कहता हूं: तुम फिर ध्यान कभी भी न कर सकोगे, क्यों कि ये बातें प्रमाण की नहीं हैं। तुम्हारे भीतर अभीप्सा हो तो तलाश देखो, खोज देखो। इतना तुमसे कह सकता हूं कि मैंने खोजा और पाया। इतना तुमसे कह सकता हूं कि जिन्होंने भी खोजा उन्होंने पाया। जिन खोजा तिन पाइयां! लेकिन खोजने वाले को इतना दुस्साहस तो करना ही होता है कि एक दिन चल पड़ना होता है-सिर्फ अभीप्सा के आधार पर, आकांक्षा के आधार पर, प्यास के आधार पर।
‘हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल!’
भावना से चलना होता है, तर्क से नहीं। हृदय से चलना होता है, बुद्धि से नहीं। प्रेम से चलना होता है, प्रमाण से नहीं। तर्क से नहीं चलना होता। जो तर्क से चलना चाहेगा, चलता ही नहीं, किनारे पर ही खड़ा रह जाएगा। वह तो विचार ही करता रहेगा, सोच-विचार में ही उलझा रहेगा। वह तो कदम भी नहीं उठा सकता। पहला कदम भी नहीं उठा सकता।
आ.गा.जे-सफर पर नां.जा हैं,
अन्जामे-सफर मालूम नहीं।’
बस यही जरूरी भी है। यही संन्यास की आधारशिला है कि यात्रा के प्रारंभ पर नाज होना चाहिए, कि हम चल पड़े, कि हमने हिम्मत की, कि हमने साहस जुटाया, कि हमने नाव छोड़ दी अनंत सागर में; अब दूसरा किनारा है भी या नहीं, क्या पता! मगर कहीं एक किनारा होता है? किनारे दो होते ही हैं। दिखे कि न दिखे, धुंध में छिपा हो कि इतने दूर हो कि वहां तक आंख न पहुंचती हो, मगर किनारे तो दो ही होते हैं। दूसरा किनारा भी है। पर अभी तो सिर्फ श्रद्धा, कि दूसरा भी होगा। इसका कोई निर्णीत निश्चय आज नहीं हो सकता।
नाव छोड़नी पड़ती है और तूफान भी है। और इस किनारे पर सुरक्षा भी है, यह भी ख्याल रखना। नाव बंधी हो किनारे पर, डूबने का डर नहीं है। तिरने की संभावना नहीं है, डूबने का भी डर नहीं है। और जब तैरना चाहोगे, तिरना चाहोगे तो डूबने का खतरा उठाना ही पड़ेगा। हालंाकि इतना तुमसे मैं कहना चाहूंगा कि जो हिम्मत से चल पड़े हैं, अगर वे डूब भी जाएं, मझधार में भी डूब जाएं तो भी उन्हें किनारा मिल जाता है। उन्हें डूबने से भी किनारा मिल जाता है। एक ऐसा किनारा भी है जो डूबने से ही मिलता है। एक ऐसा किनारा भी है जो मिटने से ही मिलता है। एक ऐसी पूर्णता है जो शून्य होने से मिलती है। एक ऐसा जीवन है जो अहंकार की मृत्यु से ही उपलब्ध होता है।

‘हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल,
जाना है किधर मालूम नहीं
आ.गा.जे-सफर पर नाजां हैं
अन्जामे-सफर मालूम नहीं।’

किसको मालूम है, मालूम हो भी कैसे सकता है अन्जामे-सफर, कि अंत क्या होगा यात्रा का? सिर्फ भरोसा हो सकता है, श्रद्धा हो सकती है; प्रमाण तो कुछ भी नहीं हो सकता। जिन्होंने पा लिया है, उनकी मौजूदगी में प्रीति जग सकती है, श्रद्धा उमग सकती है, प्यास पैदा हो सकती है, मगर प्रमाण नहीं मिल सकता।
बुद्ध से किसी ने पूछा है कि क्या आप प्रमाण दे सकते हैं परम सत्य का? उन्होंने कहा: ‘नहीं। प्यास दे सकता हूं, प्रमाण नहीं।’ और प्यास ही असली चीज है। और प्यास सबके भीतर है। सदगुरू का काम है कि उसे प्रज्ज्वलित कर दे, उसमें ईंधन डाल दे। सदगुरु के शब्र्द इंधन बन जाते हैं। उसकी मुद्रा, उसकी भावदशा, उसकी उपस्थिति ईंधन बन जाती है। तुम्हारे भीतर एक प्यास प्रज्ज्वलित होकर जलने लगती है; पैर तड़फने लगते हैं चल पड़ने को; नाव छूटने को आतुर होने लगती है; जंजीरें टूटने लगती हैं अपने से। दूसरे किनारे की अहर्निश पुकार आने लगती है, कि आओ! जाना ही होगा! ऐसा आमंत्रण सघन हो उठता है, कि सब दांव पर लगाने की तैयारी हो जाती है।

‘कब जाम भरे कब, दौर चले
कब आए इधर मालूम नहीं
उट्ठे भी अगर, ठहरे भी कहां,
साकी की नजर मालूम नहीं।’

कुछ भी पहले से तय नहीं हो सकता, स्वभाव। काश तय होता सब तो बात सस्ती हो जाती। तय होता तो सांसरिक हो जाती। तय होता तो बीमा-कम्पनी बीमा कर देती। तय नहीं हो सकता है। यही तो मजा है, यही तो राज है, यही तो रहस्य है। कुछ पक्का नहीं है-‘कब जाम भरे, कब दौर चले!’
जाम लिए बैठे रहो, प्रतीक्षा करो। जाम को साफ करो। अपनी अंजुलि को निखारो और राह देखो-शांत, मौन, प्रार्थनापूर्ण!
‘कब जाम भरे, कब दौर चले।’
हमारे हाथ में नहीं कि कब दौर चले। मगर एक बात पक्की है कि जब भी किसी के भीतर का पात्र तैयार हो जाता है तो दौर चलता है। सदा चला है। तुम्हारे साथ ही अपवाद नहीं हो सकता। जब भी कोई राजी हो गया है परमात्मा को झेलने को, परमात्मा उतर आया है। जब तक न उतरे, जानना कि अभी हम राजी न थे; जानना कि अभी हम तैयार न थे; हमारे पात्र में कहीं खामी थी, कहीं छिद्र थे। देर लगती है हमारे कारण, उसके कारण नहीं।
लोगों ने कहावत बना रखी है कि देर है अंधेर नहीं। देर भी नहीं है, अंधेर भी नहीं है। अगर देर है तो हमारे कारण और अगर अंधेरा है तो भी हमारे कारण। उसकी तरफ से न देर है न अंधेर है। वह तो सुराही लिए खड़ा ही हुआ है। साकी तो मौजूद है, तुम्हारे सामने खड़ा है, मगर तुम आंख बंद किए बैठे हो। और तुम्हारा पात्र अभी इस योग्य नहीं कि उसमें अमृत ढाला जा सके। उसमें तुम जहर ही भरते रहे-घृणा का, ईष्र्या का, माया का, मोह का, मत्सर का, क्रोध का, घृणा का, लोभ का। तुमने सब तरह के जहर उसमें भरे हैं। तुम्हारे पात्र में जगह भी कहां है?
झेन कथा है, प्रसिद्ध झेन फकीर नानिन के पास एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने जाकर प्रार्थना की कि मुझे ईश्वर के संबंध में कुछ समझाएं, निर्वाण के संबंध में कुछ समझाएं। यह ध्यान का राज क्या है, इस संबंध में कुछ समझाएं!
उसने तो एक सांस में सब कुछ पूछ डाला-ईश्वर, निर्वाण, ध्यान; कुछ बचा ही नहीं। फकीर ने क्या कहा? फकीर ने कहा: ‘आप थके मांदे, पहाड़ चढ़ कर आए, माथे पर पसीने की बूंदें, बैठे जाएं, थोड़ा सुस्ता लें। तब तक मैं चाय बना दूं। एक प्याली चाय पी लें, फिर फुर्सत से बात हो। थोड़ा यात्रा का बोझ कम हो जाए, थकान मिट जाए, थोड़ा विश्राम हो जाए, तो फिर बात कर लेंगे। और यह भी हो सकता है कि शायद चाए पीते-पीते ही बात हो जाए।’
अरे कौन जाने--नानिन ने कहा कि प्याली में चाय ढालते-ढालते ही बात हो जाए! प्याली में चाय ढालने में ही बात हो जाए।’
प्रोफेसर तो थोड़ा हैरान हुआ कि आदमी पागल तो नहीं मालूम होता! निर्वाण, ईश्वर, ध्यान-प्याली में चाय ढालते-ढालते बात हो जाएगी! मैं भी कहां चला आया! इतनी लम्बी यात्रा करके आया हूं। भर दोपहरी में पहाड़ा चढ़ा हूं। ठीक, लेकिन अब आ ही गया हूं तो कम से कम चाय तो पी ही लूं। और तो कुछ ज्यादा आशा नहीं दिखती।
नानिन ने चाय बनायी, प्याली हाथ में दी। प्याली में केतली से चाय ढाली और चाय ढालता ही गया। प्याली भर गयी, प्याली से चाय गिरने लगी। बसी भी भर गयी। फिर तो बसी से भी चाय गिरने को होने लगी तो प्रोफेसर चिल्लाया कि रूकिए, आप होश में हैं, पागल हैं! अब चाय फर्श पर गिर जाएगी। अब एक बूंद भी चाय इस प्याली में नहीं रखी जा सकती।
फकीर ने कहा: ‘मैं तो सोचता था कि तुम में बुद्धि नहीं है, लेकिन तुम बुद्धिमान आदमी हो! तुम्हें यह बात समझ में आ गयी कि प्याली इतनी भरी है कि इसमें एक बूंद भी चाय नहीं बन सकती। और तुम्हारी भीतर की प्याली में तुम सोचते हो निर्वाण समा सकता है, ध्यान समा सकता है, ईश्वर समा सकता है? तुमने कभी नजर की कि भीतर की प्याली कितनी भरी है? लबालब भरी है! अरे, मेरे फर्श पर चीजें गिर रही हैं तुम्हारे भीतर की प्याली से! तुम जब जाओगे, मुझे फर्श की घिस-घिस कर सफाई करनी पड़ेगी। पहले प्याली साफ करके आओ, फिर पूछना ऐसे गहरे सवाल। ये सवाल नहीं हैं कि जिनके कोई भी जवाब दे दे। पात्रता चाहिए!’
‘कब जाम भरे, कब दौर चले!’
स्वभाव, जाम भी भरेगा, दौर भी चलेगा। ‘कब आए इधर मालूम नहीं!’ आना भी होगा उसका। आया ही हुआ है। ‘उट्ठे भी अगर, ठहरे भी कहां!’ मत घबड़ाओ कि साकी कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें छोड़ कर ही चला जाए, कि किसी दूसरे के पात्र में ढाल दे और तुम्हारा पात्र खाली ही रह जाए। साकी की नजर मालूम नहीं, कहां रूके, कहां न रूके, हम पर रूके न रूके।
नहीं, न वहां देर हैं न अंधेर है परमात्मा की तरफ से। परमात्मा चाहो तो परमात्मा कहो, जीवन का परम नियम कहना चाहो तो परम नियम कहो--तुम्हारी मौज। ये सिर्फ शब्दों की बातें हैं। धर्म कहना चाहो तो धर्म हो। ये सूफियों के शब्द हैं-‘साकी की नजर’। ये सूफियों के शब्द हैं--‘जाम’, ‘दौर का चलना’। ये सूफियों के प्रतीक-शब्द हैं। यह सूफियाना भाशा है। मगर बड़ी प्यारी! बड़े पते की बातें हैं!
मत घबड़ाओ! बस अपने पात्र को निखार कर रखो। तुम्हारी श्रद्धा में कमी न हो, तुम्हारा समर्पण पूरा हो। फिर बात होती है। होना अपरिहार्य है।
‘कब जाम भरे, कब दौर चले
कब आए इधर मालूम नहीं
उट्ठे भी अगर, ठहरे भी कहां
साकी की नजर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल...।’
बस तुम चलते चलो। ‘हम अक्ल की हद से भी गुजरे!’ गुजरना ही पड़ता है। अक्ल की हद में जो रह गए, वे तो व्यर्थ जीए और व्यर्थ मरे। अक्ल की हद तो बड़ी छोटी हद है। खोपड़ी की बिसात कितनी! बड़ी छोटी सी चीज है।
हम अक्ल की हद से भी गुजरे
सहरा-ए-जुनूं भी छान लिया
अब और कहां ले जाएगी
साकी की न.जर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल...।’
जहां ले जाए उसकी नजर-अक्ल की हद से गुजारेगी, पागलपन में भी ले जाएगी, दीवानेपन में भी ले जाएगी-लेकिन ध्यान रखना, अक्ल के भी पार जाना होता है और दीवानेपन के भी पार जाना होता है! अक्ल से पार जाने के लिए दीवानापन काम आ जाता है। दीवानापन ऐसा ही है जैसे पैर में एक कांटा लगा हो और दूसरे कांटे से हम पहले कांटे को निकाल लें। इसलिए भक्त दीवाना हो जाता है। दीवानेपन से अक्ल का कांटा निकल जाता है। मगर फिर दीवानेपन को मत पकड़ लेना। दोनों कांटे बेकार हैं। दोनों कांटे फेंक देना। अक्ल के भी पार जाना है और दीवानेपन के भी पार जाना है। तभी पहुंचना होता है। दीवानापन भी अक्ल का ही दूसरा पहलू है; इसका ही नकारात्मक पहलू है।
और जहां ले जाए उसकी नजर, चलते चलो। अपने पर भरोसा करके बहुत तो देख लिया, कहां पहुंचे? अब उस अज्ञात पर भरोसा करके देखो। और उस अज्ञात पर भरोसे का मजा ही और है!
 ‘मुमकिन हो तो एक लमहें के लिए
तकली.फे-तबस्सुम कर लीजे
हममें से अभी तक कितनों को
मफहूमे-सहर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल...
ज.जबात के सौ आलम गुजरे
एहसास की सदियां बीत गईं
आंखों से अभी उन आंखों तक
कितना है सफर मालूम नहीं
हम चल तो पड़े हैं ज.जबा-ए दिल...।’
सफर बहुत नहीं है। आंखों में आंखें पड़ी हैं, सामने ही आंखें हैं। मगर हमारी आंखें पर पर्दे हैं, परमात्मा की आंखों पर कोई पर्दे नहीं हैं और न कहीं परमात्मा बहुत दूर है। हमारी आंखों पर पर्दे हैं। हमारी आंखों पर जाले हैं। हमारी आंखों पर न मालूम कितने जाल हैं-सिद्धांतो के, शास्त्रों के, शब्दों के, न मालूम कैसे-कैसे जाल हैं! ये सारे जाल काट देने जरूरी हैं। एक छोटे बच्चे की तरह सरल भाव पैदा कर लेना जरूरी है।
धन्यभागी हैं वे छोटे बच्चों की भांति सरल हो जाते हैं। ध्यान की पूरी प्रक्रिया ही यही है कि तुम्हें छोटे बच्चों की भांति सरल कर दे, निर्मल कर दे, स्वच्छ कर दे, दर्पण से सारी धूल पोंछ डाले। फिर देर नहीं लगती, तत्क्षण आंखों से आंखें मिल जाती हैं। तत्क्षण हृदय से हृदय मिल जाता है। तत्क्षण बूंद उसके सागर में लीन हो जाती है।
और लीन होने में तुम कुछ खोते नहीं, ख्याल रखना। लीन होने में तुम पाते ही हो। बूंद की तरह मिट जाते हो, लेकिन सागर हो जाते हो। यह कोई खोना हुआ? यह तो पाना ही पाना है।
परमात्मा के रास्ते पर पाना ही पाना है, लेकिन अगर बुद्धि से पूछा तो मुश्किल खड़ी हो जाती है। बुद्धि कहती है: ‘खोना ही खोना है। सम्हलो, बचो!’ बुद्धि की दृश्टि से सब खोना ही खोना है; हृदय की दृष्टि से पाना ही पाना है।
ध्यान तुम्हें बुद्धि से हटाता है और हृदय में ले आता है। और जैसे-जैसे तुम हृदय के करीब आते हो वैसे-वैसे ही पात्रता निर्मित होती है। संन्यास का केवल इतना ही अर्थ है, स्वभाव-सरलता, श्रद्धा; यह जो अनंत अस्तित्व है, इस पर आस्था। और वह आस्था मुक्तिदायी है, निर्वाणदायी है, आनंददायी है!

आज इतना ही।

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