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शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

उड़ियो पंख पसार-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(संन्यासः जीवन का महारास)

दिनांक 13-05-1980 ओशो आश्रम पूना। 
अधिकांश समाचार-पत्र आपके विशय में बहुत ऊलजलूल बातें छापते हैं, जिससे लोगों में भी बहुत ही गलत तरह की बातें प्रचारित होती हैं और गलत अपेक्षांए लिए लोग आश्रम देखने चले आते हैं। भगवान, क्या समय रहते इसे रोकने का कोई उपाय करना जरूरी नहीं है?

मैंने सत्य के अनुभव के लिए कई धर्मों को अपनाया। उनके द्वारा बताई विधियों से ध्यान भी करता रहा, परंतु सफलता नहीं मिली। अब संन्यास लेने में गेरूआ वस्त्र व माला अड़चन बन रही है। कोई हल बतावें! क्या केवल ध्यान करने से संन्यास मिल सकता है, जिससे सत्य का अनुभव हो?

 पहला प्रश्नः ओशो, अधिकंाश समाचार-पत्र आपके विशय में बहुत ऊलजलूल बातें छापते हैं, जिससे लोगों में भी बहुत ही गलत तरह की बातें प्रचारित होती हैं और गलत अपेक्षांए लिए लोग आश्रम देखने चले आते हैं। भगवान, क्या समय रहते इसे रोकने का कोई उपाय करना जरूरी नहीं है?

चैतन्य कीर्ति! सत्य के विपरीत असत्य ज्यादा देर टिकता नहीं। सत्य को असत्य की चिंता भी नहीं करनी चाहिए। असत्य यदि असत्य है, तो अपने से मिट जाएगा, और अगर सत्य है तो मिटना ही नहीं चाहिए। हमारी और से चेष्टा करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। जो कहा जा रहा है वह सत्य होगा, तो जीएगा और जीतेगा। और सत्य को जीतना ही चाहिए! सत्य की विजय हो, यही तो हम सबकी आकांक्षा है। और अगर वह असत्य है तो लाख उपाय करो, कितना ही उसे सम्हालों, सजाओ, तुम मुर्दे में सांसें न फूंक सकोगे; तुम लाश को चला न सकोंगे। थोड़ी-बहुत देर शायद किसी को धोखा दे सको, लेकिन थोड़ी-बहुत देर का धोखा-बहुत देर का धोखा अंततः धोखा देने वालों को ही महंगा पड़ जाता है। क्योंकि जो लोग उन ऊलजलूल और व्यर्थ की बातों को सुन कर यहां आ जाते हैं, वे कम से कम यहां तो आ जाते हैं। इतना काम तो वे समाचार पत्र और उनका प्रचार कर देता है। यह तो हमारी सेवा हुई। और इस सेवा के लिए हम उन्हें कुछ दे भी नहीं रहे हैं।
 यहां जो आएगा, कुछ तो देखेगा, कुछ तो सुनेगा, कुछ तो पहचानेगा! जैसा आया था वैसा ही वापस नहीं जा सकता। जो धारणाएं ले कर आएगा, उन धारणाओं में से कुछ निश्चित ही खंडित हो जाएंगी, धूल-धसरित हो जाएंगी। कुछ नयी दृष्टि लेकर लौटेगा।
 इसलिए उनके कृत्य को रोकना उचित नहीं है। उनके कृत्य को चलने ही दो।
 सत्य छिपाए छिपता नहीं; असत्य, कितना ही प्रचारित करो, कितना हो चलाओ, गिर-गिर जाता है। असत्य के पास अपने पैर नहीं होते, उधार पैर होते हैं; अपने पंख नहीं होते, उधार पंख होते हैं। उधारी से कितनी देर काम चल सकता है। थोड़े से लोगों को थोड़ी देर के लिए धोखा दिया जा सकता है। और जो लोग इस तरह की बातों में आ जाते हैं, वे किसी भी तरह की बातों में आ जाएंगे; उनका कोई मूल्य भी नहीं है। वे कुएं में न गिरेंगे तो खाई में गिरेंगे। उन्होंने जैसे गिरने का तय ही कर लिया है। उन्हें रोका भी नहीं जा सकता। आखिर प्रत्येक व्यक्ति को गिरने की भी स्वतंत्रता है! और प्रत्येक व्यक्ति को जो भी उसे मानना हो, असत्य को भी मानना हो, तो इसकी भी तो स्वतंत्रता है, जन्मसिद्ध अधिकार है।
 असत्य दूर से प्रभावित कर सकता है; पास आते ही उसका पाखंड टूट जाता है।
 तो मैं तो मानता हूं कि वे सारे अखबार मेरे कान में ही लगे हैं। उनसे मैं नाराज नहीं हूं।
 बुद्ध के जीवन में एक बहुत प्यारा उल्लेख है। उस कहानी को मैंने बहुत बार कहा है और हर बार चाहा था कि कहानी में थोड़ा सुधार करूं। आज ठीक-ठीक मौका है कि उस कहानी में थोड़ा सुधार करूं।
 बुद्ध का एक शिष्य, ‘पूर्ण’ सच में ही पूर्ण हो गया, बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया। उसके जीवन में ज्योति जगी। उसने अपने को पहचाना। उसे साक्षात्कार हुआ सत्य का। अंधकार मिटा, सुबह का सूरज निकला। बुद्ध ने पूर्ण को बुला कर कहा: ‘अब जरूरत नहीं है कि तू मेरी छाया बना हुआ घूमे। अब तू जा, दूर-दूर लोगों तक मेरा संदेश पहुंचा। अब तू समर्थ है। अब तू योग्य है। तू कहां जाना चाहेगा?’
 तो बिहार का एक हिस्सा था-‘सूखा’। बहुत सूखे लोग रहे होगें उस हिस्से के, जिनका हृदय मर चुका होगा, शायद इसीलिए उसको ‘सूखा’ कहते होंगे; जिनके भीतर रसधार सूख गयी होगी; जिनके जीवन में भावना जैसी कोई चीज शेश न रही होगी। पूर्ण ने कहा: ‘आप आज्ञा दें तो मैं सूखा प्रदेश जाना चाहता हूं, क्योंकि अब तक हमारा कोई भी संन्यासी, कोई भी भिक्षु आपका संदेश ले कर वहां नहीं गया।’
 बुद्ध ने कहा: ‘पूर्ण, तू अभी युवा है, अभी तू अनुभवी नहीं है। माना कि सत्य का तुझे साक्षात्कार हुआ है, मगर संसार का तुझे अनुभव नहीं है। तू इससे ही पाठ ले कि अभी तक कोई संन्यासी वहां नहीं गया। बुजुर्ग से बुजुर्ग ज्ञानी वहां नहीं गए, क्यों? कारण साफ है। वहां के लोग हृदयहीन हैं, दृष्ट हैं, बहुत अमानवीय हैं, पशु जैसे हैं। बहुत बुरा व्यवहार करेंगे। पहले तो तेरी सुनेंगे नहीं। तू कुछ कहेगा, वे कुछ सुनेंगे। तू कुछ कहेगा, वे कुछ फैलाएंगे। आदमी ही गलत हैं वे। अपमान करेंगे तेरा, निंदा करेंगे तेरी। अंधे हैं लोग वे। उनके पास प्रेम की आंख ही जैसे फूट गयी है। तर्क में जरूर कुशल हैं। इसलिए वाद-विवाद भी बहुत करेंगे। और ये बातें वाद-विवाद की तो नहीं हैं; ये बातें तो प्रेम में, प्रीति में, हृदय और हृदय से ही समझे जाने की हैं। ये सिर टकराने से हल होने वाली समस्याएं नहीं हैं। ये समाधान हैं, जो हृदय में भाव के फूल खिलते हैं तो ही उपलब्ध होते हैं। अब तो तू अपने अनुभव से जानता है। तू व्यर्थ झंझट में क्यों पड़ना चाहता है? तू अभी नया-नया है, युवा है, कोई और प्रदेश चुन ले।’
 लेकिन पूर्ण ने तो जिद बांध ली। पूर्ण ने तो कहा कि वहां कोई गया नहीं, इसीलिए मैं जाना चाहता हूं। और अगर लोग बुरे हैं तो आखिर उन बुरे लोगों को भी तो आपका संदेश सुनाने की जरूरत है! कौन उन्हें आपकी खबर देगा? अगर वे बीमार हैं तो उन्हीं को तो चिकित्सा की ज्यादा जरूरत है। अगर उनकी भावनाएं मर गयी हैं तो उन्हीं की भावनाओं को ही तो जगाना है। अगर वे सुख गए हैं तो आप के रहते अगर उनके जीवन में हरियाली न आयी तो फिर कब हरियाली आएगी? फिर उनके सौभाग्य का उदय कब होगा? मुझे आज्ञा दें! बुद्ध ने कहा: ‘आज्ञा तो दूंगा। तू मांगता है तो आज्ञा दूंगा। लेकिन तीन प्रश्न पूछना चाहता हूं। उनके तू ठीक उत्तर दे देगा तो आज्ञा दूंगा। पहला: वे तेरा अपमान करेंगे तो तेरे मन में क्या होगा?’
 तो पूर्ण ने कहा: ‘मत पूछों। आप जानते हैं भलीभांति कि मेरे मन में क्या होगा। मैं आल्हादित होऊंगा, आनंदित होऊंगा, प्रफुल्लित होऊंगा कि वे केवल अपमान ही करते हैं; मारते तो नहीं, पीटते तो नहीं। लोग तो उनके संबंध में क्या-क्या कहते थे-हत्यारे हैं, पाशविक हैं! इतने बुरे तो नहीं लोग, जितना लोग कहते थे; सिर्फ अपमान करते हैं, तो अपमान में मेरा क्या बिगड़ता है? गाली यहां से आयी वहां से गयी। गाली तो हवा है। गाली मुझे छुएगी ही नहीं। मैं पकड़ूंगा ही नहीं गाली को, तो मेरा गाली क्या बिगाड़ लेगी? मैं धन्यवाद दूंगा कि भले लोग हैं कि सिर्फ अपमान करते हैं, मारते-पीटते नहीं।’
 बुद्ध ने कहा: ‘फिर दूसरा प्रश्न-अगर वे मारें-पींटे तो तुझे क्या होगा?’
 पूर्ण ने कहा: ‘आप भलीभांति जानते हैं कि मुझे क्या होगा; फिर भी पूछते हैं तो मैं उत्तर देता हूं कि वे मुझे मारेगे तो मैं कहूंगा-भले लोग हैं, मार भी डाल सकते थे, लेकिन सिर्फ मारते ही हैं। अब मारने में क्या बनता-बिगड़ता है! मार भी डालते तो भी कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। देह तो मिटनी ही है-आज कि कल, कल कि परसों। यह तो क्षणभंगुर है। आपने ही तो समझाया और मैंने जाना भी कि जो जन्म है मरेगा। फिर भी मारते नहीं हैं, मार नहीं डाल रहे हैं; सिर्फ मारते-पीटते हैं। चलो थोड़ी चोट मार दी कि चांटा मार दिया, क्या बन-बिगड़ जाएगा! घाव भी लग गया तो भर जाएगा। ऐसे भी तो घाव लग जाते हैं। ऐसे भी तो देह बीमार पड़ जाती है। लोग इतने बुरे नहीं, जितना लोग कहते थे। सिर्फ मारते हैं, मार ही नहीं डालते हैं।’
 और बुद्ध ने कहा कि तीसरा प्रश्न तुझसे पूछता हूं-अगर वे तुझे मार ही डालें तो मरते-मरते तेरे मन में क्या होगा?
 कहानी तो यही कहती है। यहीं में फर्क करना चाहता हूं। बहुत दिन से करना चाहता था। किया नहीं। सोचा कि न छेड़ो शास्त्र को, जैसा है रहने दो। मगर मुझे अखरता हमेशा था। कहानी तो यही कहती है कि पूर्ण ने कहा कि जब वे मुझे मार ही डालें, तब भी मैं धन्यवाद से मरूंगा, क्योंकि मैं सोचूंगा: उस जीवन से छुटकारा दिलाए दे रहे हैं जिस जीवन में कोई भूल-चूक हो सकती थी। भले लोग हैं, शुभ लोग हैं। जिस जीवन में कोई भटकाव हो सकता था, रास्ते से च्युत हो सकता था, मार्ग भूल सकता था-उस जीवन से छुटकारा दिलाए दे रहे हैं। अच्छे लोग हैं। झंझट से छूटे, उपद्रव कटा। ऐसे सद्भाव से मरूंगा।
 बुद्ध ने आज्ञा दी कि तू जा। अब तू कहीं भी जा। अब कोई अड़चन नहीं है। तुझसे सत्य प्रगट होगा। गहन से गहन अंधेरी रात में, अमावस में भी प्रगट होगा! और सूखे से सूखे लोगों में भी तेरे कारण सत्य का अंकुरण होगा! तू जा, जहां तेरी मर्जी हो जा! मुझ तेरी आकांक्षा शुभ मालूम होती है! मेरे आशीर्वाद सदा तेरे साथ हैं!
 इस कहानी में मैं तीसरे अंग में थोड़ा-सा फर्क करना चाहता हूं। इसलिए फर्क करना चाहता हूं कि जो व्यक्ति परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, वह चाहे तो भी उससे कोई भूल हो नहीं सकती। इसलिए पूर्ण यह कहेगा कि ‘उस जीवन से मेरा छुटकारा करवा दिया, जिसमें कोई भूल हो सकती थी’, यह बात जंचती नहीं। यह बात असंभव है। परम ज्ञानी भूल करना चाहे तो अभिनय कर सकता है, लेकिन भूल कर नहीं सकता। वह तो असंभव है। वह मार्ग-च्यूत हो नहीं सकता, क्योंकि वह जहां चले वही मार्ग है। वह मार्ग च्यूत हो जाए तो वह च्यूत होना ही मार्ग है। जिसके भीतर का दीया जल गया, उसके लिए अब कहीं भी अंधेरा नहीं हो सकता; वह अंधेरे से अंधेरे में भी चला जाए तो भी उसके भीतर रोशनी है। उसके चारों तरफ रोशनी बिखरती रहेगी। वह तो रोशनी में ही होगा-रात हो कि दिन, जन्म हो कि मृत्यु। जो परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया है उसे जीवन बोझ नहीं है कि उससे वह छूटना चाहे। इतनी भी आकांक्षा उसके भीतर नहीं रह सकती कि चलो एक बोझ से छुटकारा हुआ।
 इसीलिए तीसरी बात पूर्ण ने कही होगी, ऐसा में नहीं मानता। कहीं शास्त्रों में भूल हो गयी है। कहीं लिखने वालों की चूक हो गयी है। अगर में पूर्ण की जगह होता तो तीसरे उत्तर में मैंने कहा होता कि भले लोग हैं, मैं आनंदित मर रहा हूं-इस कारण कि कम से कम इन्होंने मेरी उपेक्षा तो नहीं की। उपेक्षा भी कर सकते थे। और इस जगत में सत्य के लिए कोई बड़े से बड़ा खतरा हो सकता है तो वह उपेक्षा है।
 तुम जरा सोचो, अगर जीसस को सूली न दी होती लोगों ने, उपेक्षा कर गए होते, तो शायद तुमने जीसस का कभी नाम भी न सुना होता। उस बढ़ई के बेटे में ऐसी और क्या बात थी जो उसके नाम को इतना महत्वपूर्ण बना देती कि इतिहास में कोई दूसरा नाम उतनी महत्ता नहीं रखता है? इतिहास ही इस नाम से आधार पर विभाजित हो गया। जो ईसाई नहीं हैं वे भी इतिहास को ईसा के नाम से ही विभाजित करते हैं-ईसा-पूर्व और ईसा-पश्चात। सारा जगत ईसा को रेखा मान कर चलता है, कि ईसा के पहले एक दुनिया थी, वह ईसा-पूर्व और फिर ईसा के बाद एक और ही दुनिया है। जैसे मनुष्य-जाति ने एक नया सोपान चढ़ लिया, एक नया शिखर छू लिया-ईसा पश्चात। इस बढ़ई के बेटे ने अद्भूत किया, कमाल किया!
 अगर बुद्ध को लोगों ने पूजा तो पूजने में यह भी कारण हो सकता है कि वे सम्राट के बेटे थे। महावीर को अगर लोगों ने पूजा तो उसमें कारण हो सकता है कि वे सम्राट के बेटे थे। जैनों के चैबीस तीर्थंकर ही राजाओं के बेटे हैं, इस बात को कभी भूलना मत। एक भी तीर्थंकर किसी गरीब घर से नहीं आया है। आ सकता नहीं। गरीब बेटे को कौन पूजेगा! राजाओं के बेटे स्वभावतः पूज्य हो गए। वैसे ही पूज्य थे, फिर उन्होंने राजमहल छोड़ दिए तो और भी पूज्य हो गए। जैनों के चैबीस तीर्थंकर ही राजपुत्र हैं। बुद्ध भी राजपुत्र हैं। राम भी, कृष्ण भी, हिन्दुओं के अवतार भी, भारत में तो जिनको भी हमने परम सत्कार दिया है, वे सब राजाओं के बेटे हैं। जीसस की कौन फिक्र करता! जीसस तो बिलकुल बेपढ़े-लिखे, गांव के गंवार थे। लेकिन सूली ने बात बदल दी। सूली ने इतिहास बदल दिया। सूली ने एक बात साफ कर दी कि जिस आदमी को सूली देनी पड़ी है वह आदमी कीमती होना ही चाहिए, नहीं तो सूली देने की जरूरत न पड़ती।
 सुकरात को लोगों ने जहर पिला कर मारा। जब सुकरात मर रहा था तो उसके एक शिष्य ने, त्रेटो ने उससे पूछा: ‘गुरूदेव, अब आपकी अंतिम घड़ी है। आप हमें संदेश दें कि आप अपना अंतिम संस्कार कैसे करवाना चाहेंगे? आप कहेंगे कि देह जलायी जाए, जैसा कि पूरब में लोग करते हैं या कि गडायी जाए, जैसा कि पश्चिम में लोग करते हैं? या कि कोई और विधि आपकी दृष्टि में है? क्योंकि आपकी हर चीज के संबंध में एक मौलिक सूझ-बूझ है।’
 सुकरात मर रहा था। उसने आंख खोलीं और कहा: ‘त्रेटो, वे लोग समझते हैं, जो मेरे दुश्मन हैं, कि मुझे मार डाल कर मिटा देंगे। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, मुझे मार कर वे अमर किए दे रहे हैं। मैं वैसे ही मर जाता। लेकिन वे मुझे मार रहे हैं, इसलिए मुझे अमर किए दे रहे हैं। और तुम इस फिक्र में पड़े हो कि कैसा मेरा दाहसंस्कार करोगे! अरे जब मैं जा ही चुका तो तुम गड़ाओ, जलाओ कि नदी में बहाओ, क्या फर्क पड़ता है? जाने वाला जा चुका। पक्षी उड़ चुका, पिंजड़ा पड़ा है, पिंजड़े के साथ तुम्हें जो करना हो वही कर लेना। उनको खयाल है कि वे मुझे मार रहे हैं; तुमको खयाल है कि तुम मुझ गड़ाओगे, मेरा अंतिम संस्कार करोगे! और मैं तुमसे कहता हूं कि उनका नाम भी अगर कभी याद किया जाएगा तो सिर्फ इसलिए कि उन्होंने सुकरात को जहर पिलाया था और तुम्हारा भी नाम अगर याद रहेगा दुनिया में तो सिर्फ इसलिए कि तुमने सुकरात से पूछा था कि आपका अंतिम संस्कार कैसे किया जाए।’
 और यह बात सच है। त्रेटो का नाम कौन याद रखता, किस कारण याद रखता! लेकिन सुकरात ने कहा कि मैं उनको जो मुझे मार रहे हैं और तुमको जो मेरा दाह-संस्कार करोगे, सबको गड़ा कर भी जिंदा रहूंगा। और वह ठीक कह रहा है। उसका कुल कारण इतना है कि जिस व्यक्ति को तुम्हें जहर पिलाना पड़ रहा है, उसने एक बात तो सिद्ध कर दी कि उसकी बातों में कुछ बल है--ऐसा बल है कि उसने तुम्हें तिलमिला दिया है। उसने तुम्हारी जड़ें हिला दी हैं। उसने तुम्हारी न्यस्त स्वार्थों की व्यवस्था को झकझोर दिया है। उसने तुम्हारे स्थापित मूल्यों को पुनर्विचार के योग्य बना दिया है; प्रश्न-चिह्न लगा दिए हैं तुम्हारे शाश्वत मूल्यों पर; जिनको तुम सोचते थे कि ये हमारे शाश्वत मूल्य हैं, उनको उसने पुनःविचारणीय बना दिया है। उसने तुम्हारी सदियों पुरानी लकीरों, परंपराओं, लीकों पर गहन आघात कर दिए हैं। उसने तुम्हारे पैरों के नीचे से जमीन खींच ली है। उसने तुम्हें अधर में लटका दिया है। उसने तुम्हें मजबूर कर दिया है कि निर्णय करना होगा।
 सुकरात या जीसस या मंसूर ऐसे लोग हैं-या तो तुम उनके साथ हो सकते हो या उनके दुश्मन, इन दो के अलावा कोई और उपाय नहीं है। आज फिर मेरे साथ वैसी ही बात हुई जा रही है। या तो तुम मेरे दोस्त हो सकते हो या मेरे दुश्मन, मेरी उपेक्षा नहीं कर सकते। और इसलिए मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूं। उन सबका धन्यवाद करता हूं जो मेरी उपेक्षा नहीं कर सकते। वे बांटे दे रहे हैं लोगों को अपने-आप। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि कितने लोग मेरे साथ हैं और कितने लोग मेरे विरोध में हैं। निश्चित ही ज्यादा लोग मेरे विरोध में होंगे और कम लोग मेरे साथ में होंगे, क्योंकि साथ में होने के लिए हिम्मत चाहिए, दुष्साहस चाहिए। विरोध में होने के लिए तो कुछ भी नहीं चाहिए। वह तो कायरों के लिए बिलकुल आसान है। भीड़ के साथ होना कायर को बिलकुल ही सुगम है। मेरे साथ होना खतरे से खाली नहीं है। सब तरह की असुविधा है। मेरे साथ होने का अर्थ है कि तुम अपने को मुसीबत में डालोगे। मेरे साथ होने का अर्थ है कि तुम अपने हाथ से अपने लिए झंझटें खड़ी कर लोगे।
 अभी कल एक जर्मनी के बहुत प्रतिष्ठित इंजीनियर ने संन्यास लिया। संन्यास लेने के बाद उन्होंने खबर भेजी। वे विश्वविख्यात इंजीनियर की जो फर्म है-साहमन्स-उसके बहुत बड़े ओहदे पर हैं। साठ इंजीनियर उनके नीचे काम करते हैं और तीन ह.जार दूसरे विशेशज्ञ काम करते हैं। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं गैरिक वस्त्रों में जाऊंगा तो झंझट होने वाली है। यह बड़ी नौकरी, यह बड़ी कार, यह बड़ा मकान, यह बड़ी प्रतिष्ठा-यह सब मैं दांव पर लगाने को राजी हूं। यह मैंने संन्यास लेने के पहले ही सोच लिया कि यह जाएगा, यह बच नहीं सकता। क्योंकि वे बर्दाश्त न कर सकेंगे मेरे गैरिक वस्त्रों को। तो आप क्या कहते हैं? मैं राजी हूं सब दांव पर लगाने को। मैं सब छोड़ने को राजी हूं। सिर्फ आपकी आज्ञा चाहिए। आप जैसा कहें। यह सब छोड़-छाड़ कर यहां आ जाऊं या यह सब छोड़-छाड़ कर वहां आपके काम में लग जाऊं? या आप चाहते हैं कि साइमन्स की फर्म को अदालत में घसीटूं, क्योंकि कानूनी ढंग से वे मुझे अलग नहीं कर सकते हैं। कानूनी ढंग से कोई पाबंदी नहीं है गैरिक वस्त्रों पर, न माला पर। जल्दी ही कानूनी ढंग से भी व्यवस्था होने लगेगी।
 मैंने उनसे कहा कि पहले अदालत। पहले पूरी टक्कर दो। जीतो पहले और फिर छोड़ देना। छोड़ना तो है, क्योंकि क्या मजा रहा! लेकिन छोड़ना जीतने के बाद। पहले पूरी टक्कर। पूरा झकझोर दो उनको भी। इस बीच तीन हजार विशेशज्ञों में और साठ इंजीनियरों में जितनों को भी गैरिक बना सको बना डालो। यह मौका क्यों छोड़ना!
 यह बात उन्हें जंची। उन्होंने कहा: ‘तो फिर मैं जाता हूं। फिर पहले वहां टक्कर लूंगा।’
 ‘पहले वहां जीत, फिर जीत कर इस्तीफा दे देना, उसमें शान है।’
 मेरे साथ होने के लिए हिम्मत तो चाहिए पड़ेगी। मगर ये सारी अफवाहें एक अच्छा काम किए दे रही हैं, वे लोगों को बांटे दे रही हैं। हजारों लोग आश्रम देखने आते हैं। नियमित रूप से सैकड़ों लोग आश्रम देखने आते हैं। उनमें से कुछ आंदोलित हो कर लौटते हैं, प्रभावित हो कर लौटते हैं, हैरान हो कर लौटते हैं, किंकर्तव्य-विमूढ़ हो कर लौटते हैं। क्योंकि वे आते कुछ और ही आशा में हैं। वे शायद कभी न आए होते, अगर ये अखबार मेरे खिलाफ ऊलजलूल प्रचार न करते। यहां से लौट कर जाते हैं तो चुप तो नहीं रहेंगे; जो अनुभव हुआ है वह कहेंगे तो; जो देखा है वह कहेंगे तो। इतनी बात तो साफ हो जाएगी कि जो कहा गया है वह सरासर झूठ है।
 निश्चित ही बहुत झूठ कहे जा रहे हैं। और इसी देश में कहे जा रहे हैं, ऐसा नहीं है; करीब-करीब सारी दुनिया में। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो। बुद्ध को गालियां पढ़ी थीं, मगर बिहार तक सीमित रहीं। महावीर को गालियां पड़ी थीं, वे बिहार तक सीमित रहीं। जीसस को गालियां पड़ी थीं, वे जेरूसलम तक सीमित रहीं। सुकरात को गालियां पड़ीं, वे एथेंस के बाहर नहीं गयीं। मेरा मामला पहला मामला है, जिसको सार्वभौमिक रूप से गालियां पड़ रही हैं। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश हो जहां मेरे संबंध में ऊलजलूल बातें नहीं छापी जा रही हैं और जितना दूर है देश, उतनी ऊलजलूल बातें छापी जा रही हैं, क्योंकि वहां के लोग सोचते हैं कि कुछ भी यहां करो, कौन जाने वाला है! लेकिन लोग वहां से भी आने लगे। और जब वे आ कर देखते हैं तो बहुत हैरान होते हैं, चकित होते हैं।
 जर्मनी के एक प्रसिद्ध अखबार ने छापा कि ‘जब हमारा पत्रकार आश्रम पहुंचा, तो पंाच बजे सुबह उसने द्वार पर दस्तक दी। द्वार खुले। एक नग्न सुंदरी ने द्वार खोला। उस पत्रकार को अंदर ले गयी। आश्रम पंद्रह वर्गमील के क्षेत्र में बना हुआ है। (पद्रंह वर्गमील में शायद पूरा पूना भी नहीं है) और वहंा हजारों जोड़े नग्न घूम रहे थे!’
 ब्रह्ममुहूर्त ऋशि-मुनियों का प्राचीन समय से ही काल रहा है। हालांकि मेरे आश्रम में कोई ब्रह्ममुहूर्त में नहीं उठता, क्योंकि हम तो मानते यह हैं कि जब आंख खुली तब ब्रह्ममुहूर्त। जब ब्रह्म जगे तब ब्रह्ममुहूर्त। जब ब्रह्म अभी सो ही रहे हैं तो कैसे ब्रह्ममुहूर्त!
 ‘वह महिला एक वृक्ष के पास ले गयी। उसने वृक्ष से एक फल तोड़ा, जो देखने में सेब जैसा लगता था!’
 यह रहा होगा वही फल, जो शैतान ने हव्वा को दिया था और हव्वा ने आदम को खिलाया था और जिसको खाने की वजह से आदम और हव्वा को ईश्वर ने स्वर्ग के बगीचे से निकाला था। सेब जैसा वह भी लगता था।
 ‘और उस महिला ने कहा: इसे खाओ। इसे खाने से तुम सौ वर्श जीओगे। न केवल सौ वर्श जीओगे, बल्कि सौ वर्श तक तुम्हारी काम-ऊर्जा युवा बनी रहेगी।’
 फिर उस महिला ने आश्रम घुमाया, जहां बड़ी-बड़ी झीलें हैं, जिनमें नग्न लोग स्नान कर रहे हैं! बड़े जलप्रपात हैं। फिर भूमिगत स्थानों पर ले गयी।’
 तुम खयाल रखना, तुम भूमिगत भवन में बैठे हुए हो!.....‘भूमिगत भवन में मेरा प्रवचन चल रहा था, जहां पांच हजार संन्यासी नग्न बैठे हुए थे, क्योंकि प्रवचन सुनने की पहली शर्त है नग्न होना।’
 यह जिस आदमी ने लिखा होगा, कल्पनाशील है, कवि मालूम होता है। और बातें मुझे जंची। मैंने सोचा कि खयाल बुरा नहीं है। पंद्रह वर्गमील में होना ही चाहिए आश्रम-होगा! झीलें भी होंगी। और द्वार पर स्वागत भी ढंग से ही होना चाहिए किसी का। फलाहार कोई बुरी बात तो नहीं।
 फिर जर्मनी से लोग आने शुरू हो गए, जो आ कर पूछने लगे कि वह वृक्ष कहां है, झीलें कहां हैं? पांच हजार लोग बैठ सकें, वह भूमि के अंतर्गत भवन कहां है?
 मैंने कहा: भई यह तुम उससे पूछो। हमें तो खयाल मिल गया तो नया जो आश्रम बनेगा, उसमें हमस ब ये इंतजाम करने की कोशिश करेंगे। और भेजे हैं हमने तलाश में लोग, जो उस फूल को भी ले आएं, क्योंकि बात हमें भी जंची है; तुम्ही को नहीं जंची। मगर अभी मजबूरी है कि हम उनकी अपेक्षाएं पूरी नहीं कर सकते।
 इस तरह की ऊलजलूल बातें कितनी देर तक चल सकती हैं? क्या इनका मूल्य हो सकता है? लेकिन ये बातें कई लोगों को यहां ले आयी। तो लाभ तो हुआ, हानि क्या हुई? मेरा बिगड़ा क्या?
 झूठ चलता नहीं; लाख चलाओ, गिर-गिर पड़ता है। और ऐसी बेहूदी जगह गिरता है कि बोलने वाले को भी चैपट कर जाता है। अब ये लोग वापस लौटे। इन्होंने अखबारों में पत्र लिखें कि ये सरासर झूठी बातें हैं। और यह आदमी, जिसने यह लेख लिखा है, कभी गया भी नहीं है आश्रम, इसका आश्रम से कुछ लेना-देना भी नहीं है।
 मुल्ला नसरूद्दीन का एक युवती से नया-नया प्रेम हुआ था। युवती ने एक दिन बातों-बातों में कहा कि कभी हमारे घर आइए न!
 नसरूद्दीन बोला: ‘जरूर-जरूर, क्यों नहीं!’
 दूसरे दिन मुल्ला युवती का पता लेकर बहुत खोजे, लेकिन मकान कुछ ऐसा कि मिले ही न। आखिर एक वृद्ध व्यक्ति को रोककर मुल्ला ने पूछा कि बड़े मियां, क्या आप बता सकते हैं कि ये मिस सलमा कहां रहती हैं?
 वृद्ध ने ऊपर से नीचे तक नसरूद्दीन को देखा और पूछा कि क्या मैं आपका परिचय जान सकता हूं कि आप कौन हैं?
 नसरूद्दीन बोला: ‘जी, मैं उनका भाई हूं।’
 वृद्ध बोला: ‘बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर। आइए-आइए, मैं उसका पिता हूं!’ झूठ कितनी देर चलेगी? एक कदम भी न चली और चारों खाने चित हो गए! अब पिता जी से ही मिलना हो गया, जिनका पहले कभी दर्शन ही न हुआ था। और एक झूठ निकलती है तो पीछे हजार झूठें निकल आती हैं, क्योंकि एक झूठ को सम्हालने के लिए और झूठों की जरूरत पड़ती है। झूठ की एक खूबी है कि तुम्हें एक झूठ को अगर सम्हालना हो तो उसके सहारे के लिए दस झूठें खड़ी करनी पड़ती हैं। फिर हर दस झूठ को सम्हालने के लिए और दस-दस झूठें। इसका कोई अंत नहीं है।
 सत्य की एक खूबी है: सत्य अकेला खड़ा हो जाता है। उसके लिए किसी सहारे की कोई जरूरत नहीं होती। सत्य अपना सहारा है। यही तो उसकी स्वतंत्रता है। यही तो उसका बल है, उसकी प्रतिभा है, उसकी ओजस्विता है। झूठ को तो लाख उपाय करो, तुम्हें और झूठ लाने ही पड़ेंगे। और कहीं न कहीं तुम फंस जाओगे, क्योंकि झूठ का इतना बड़ा जाल तुम सम्हाल न पाओगे।
 एक नेताजी ने चंदूलाल पर मुकदमा चलाया कि इसने भरी होटल में, जहां कोई पचास आदमी मौजूद थे, मुझ उल्लू का पट्ठा कहा है। नेताजी बड़े आदमी थे, अदालत में भी सिक्का था, दबदबा था। मजिस्ट्रेट ने भी बहुत धमकाया चंदूलाल को, कि क्यों रे चंदूलाल, तेरी यह हिम्मत कि तूने नेताजी को उल्लू का पट्ठा कहा! अरे बेशरम! तेरे पास इसके उत्तर में कुछ कहने को है?
 चंदूलाल ने कहा: ‘हां हुजूर, नेताजी को मैंने उल्लू का पट्ठा कहा ही नहीं। आप किसी से भी पूछ लें। वहां तो पचासों लोग थे। मैनें कोई नाम नहीं लिया नेताजी का। नेताजी ने बात उड़ते ही पकड़ ली, नाहक अपने पर ले ली। अरे यह मैं तो किसी और से कह रहा था। ये बीच में टपक पड़े और एकदम मेरे ऊपर टूट पड़े कि तुमने मुुझे उल्लू का पट्ठा कहा है।’
 नेताजी ने कहा कि मैं अपना गवाह साथ लाया हूं। मुल्ला नसरूद्दीन को खड़ा किया। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि नसरूद्दीन, तुम क्या कहते हो? नसरूद्दीन ने कहा कि यह मैं बिलकुल निश्चित रूप से कहता हूं। इस चंदूलाल के बच्चे ने नेताजी को ही उल्लू का पट्ठा कहा है। और मजिस्ट्रेट ने कहा: ‘इसमे कोई नाम नहंी लिया था, तो तुम्हें यह निश्चित कैसे हुआ?’
 मुल्ला नसरूद्दीन ने कहा: ‘निश्चय की जरूरत ही क्या है! वहां उल्लू का पट्ठा सिवाय नेताजी के और कोई था ही नहीं। यह हरामजादा सरासर झूठ बोल रहा है। यह किसको उल्लू का पट्ठा कहेगा? इनके सिवाय वहां कोई था ही नही! पचास आदमी जरूर थे, मगर उल्लू का पट्ठा एक भी नहीं था। मैं नेताजी को इनके बचपन से जानता हूं। इनके बाप को भी जानता हूं। मैं आपसे ठीक कहता हूं हुजूर, इसने इन्हीं को कहा है।’
 क्या करोगे?
 झूठ बोलोगे, कहीं न कहीं से सच बाहर आ जाएगा।
 मोटर साइकिल पर बहुत तेजी से जाते हुए मुल्ला नसरूद्दीन को रोककर ट्रैफिक पुलिस-इंस्पेक्टर ने कहा: ‘क्यों श्रीमान जी, क्या आप जानते नहीं कि इस रोड पर बीस किलोमीटर प्रति घंटे से अधिक चलना सख्त मना है? आप पर दस रूपए जुर्माना किया जाता है।’
 नसरूद्दीन ने सफाई पेश करते हुए कहा: ‘इंस्पेक्टर साहब, मेरा घर यहां से पचास किलोमीटर दूर है और आप देख ही रहे हैं कि शाम हो चुकी है, अंधेरा ढल रहा है, यदि मैं तेज रफ्तार से न जाऊं तो फिर मुश्किल है घर पहुंचना, क्योंकि मेरी मोटर-बाइक का बल्ब खराब है।’
 इंस्पेक्टर बोला: ‘बल्ब खराब है! तब तो पचास जुरमाना होगा। समझे? बल्ब को सुधरवाया क्यों नहीं?’
 मुल्ला ने बहाना बनाते हुए कहा: ‘दरअसल बात यह है साहब कि अच्छे मैकेनिक ही नहीं मिलते, मैं क्या करूं? कल एक गैरज में सुधरवाने डाली थी, उसने बल्ब तो सुधारा नहीं, सालों ने ब्रेक तक और हार्न भी खराब कर दिया। मैं किसी अच्छे मैकनिक की तलाश में हूं।’
 ‘क्या कहा! हार्न और ब्रेक भी खराब हैं?’ पुलिस वाले ने क्रोध भरी आवाज में कहा। ‘सुनो मिस्टर, तुम्हें पूरे पांच सौ रूपए से हाथ धोना पड़ेगा।’
 बेचारे नसरूद्दीन ने जितनी बचने की कोशिश की उतना ही मुसीबत में फंस गया। यह देख पीछे की सीट पर बैठी गुलजान को दया आ गयी। उसने पति की तरफदारी करते हुए पुलिस अफसर को समझाया: ‘सुनिए महाशय जी, आप इनकी बातों पर अधिक ध्यान न दीजिए! जब ये ज्यादा पी लेते हैं तो फिर कुछ भी उल्टा-सीधा बकने लगते हैं।’
 इंस्पेक्टर ने घुर्रा कर कहा: ‘इसका मतलब है कि तुम नशे की हालत में ड्राइविंग कर रहे हो! जब तुम्हें ड्राइविंग-लाइसेंस दिया था, क्या उस समय ये सब बातें तुम्हें नहीं समझाई गयी थीं?’
 मुल्ला ने बड़े भोलेपन से अपना बचाव करते हुए जवाब दिया: ‘हुजूर, सच बात यह है कि मुझे ये सब कायदे-कानून मालूम ही नहीं, क्योंकि अभी तक मैंने लाइसेंस कभी लिया नहीं। आप कहें तो आज ही चला जाऊंगा। कहां मिलता है यह लाइसेंस? क्या बहुत मंहगा मिलता है?
 पुलिस अफसर का गुस्सा अब आसमान पर चढ़ गया। वह बोला: ‘उल्लू के पट्ठे, चल मेरे साथ थाने, वहां तुझे मजा चखाऊंगा! पूरे पांच हजार का जुर्माना होगा। नानी याद आ जाएगी और गाड़ी अलग जब्त होगी।’
 यह सुन गुलजान तिलमिला उठी, बोली: ‘सुन लो अब, मेरी बात नहीं मानोगे तो ऐसा ही होगा। मैंने कितना कहा था कि मंगलवार के दिन ही अपने लिए अशुभ है, मगर तुमने एक न सुनी और बेचारे चंदूलाल को मंगलवार के दिन ही धोखा दे कर नकली रूपए थमा कर मोटर साइकिल खरीद ली। अब भुगतो! मोटर साइकिल भी हाथ से गयी और अपने जेब के पांच हजार रूपए भी अलग से।’
 नसरूद्दीन ने झिड़कते हुए अपनी बीबी से कहा: ‘तुम तो हो अंधविश्वासी, यह व्यर्थ की बकवास बंद करो! न कोई दिन शुभ होता न कोई अशुभ। अरे मैंने पिछले मंगलवार को ही ढब्बूजी का कैमरा चुराया था, अभी तक क्या हुआ, हुआ कुछ, बोलो!’
 एक के पीछे एक...कतार लग जाएगी। एक झूठ उघड़ेगा तो दूसरा झूठ पकड़ में आएगा। दूसरा उघड़ेगा तो तीसरा झूठ पकड़ में आएगा। झूठों की पर्त पर पर्त होती है। सत्य अकेला होता है। झूठ की भीड़ होती है।
 चैतन्य कीर्ति, चिंता न करो। तुम कहते हो: ‘अधिकांश समाचार-पत्र आपके विशय में बहुत ऊलजलूल बातें छापते हैं, जिससे लोगों में बहुत ही तरह की गलत बातें प्रचारित होती हैं।’
 प्रचारित तोे होती हैं न, गलत ही सही! एक दफा प्रचार होने दो, ठीक करने में बहुत देर न लगेगी। एक दफा उन तक खबर पहुंचने दो, फिर ठीक भी पहुंचा देंगे। उसमें बहुत अड़चन नहीं है।
 और तुम कहते हो: ‘और गलत अपेक्षाएं लिए लोग आश्रम देखने चले आते हैं।’
 आश्रम देखने तो चले आते हैं न! क्या अपेक्षाएं ले कर आते हैं, वे तो हम यहां तोड़ लेगें। मगर यहां तक तो आ जाएं। अब मैं तो कहीं जाता नहीं उन्हीं को यहां लाना है। और बेचारे अखबार वाल मुफ्त सेवा में संलग्न हैं। तुम नाहक उन पर नाराज हो!
 जब भी अखबार वाले तुम्हें मिल जाएं, जितनी ऊलजलूल और झूठी बातें तुम उन्हें बता सको, बताया करो। ऐसी झूठी, ऐसी ऊलजलूल कि उनका भी दिल खुश हो जाए! और वे कुछ और बढ़ाएंगे-चढ़ाएंगे, नमक-मिर्च-मसाला मिलाएंगे। और इस सबका परिणाम यह होगा कि कुछ लोग यहां आएंगे। आखिर उनके पास आंखें हैं, लोग बिलकुल अंधे नहीं हैं। लोगों के पास भी कान हैं, वे भी सुनते हैं, समझते हैं। सुनेंगे, समझेंगे, देखेंगे।
 कोई कठिनाई नहीं है; इन सब बातों से न कभी कोई सत्य को नुकसान हुआ है, न हो सकता है।
 तुम पूछते हो कि ‘भगवान, इसे समय रहते रोकने का क्या कोई उपाय करना जरूरी नहीं?’
 पागल हो गए हो? रोकना है? अरे बढ़ाना है!

 दूसरा प्रश्न: ओशो, मैंने सत्य के अनुभव के लिए कई धर्मों को अपनाया। उनके द्वारा बताई विधियों से ध्यान भी करता रहा, परंतु सफलता नहीं मिली। अब संन्यास लेने में गेरूआ वस्त्र व माला अड़चन बन रही है। कोई हल बतावें! क्या केवल ध्यान करने से संन्यास मिल सकता है, जिससे सत्य का अनुभव हो?

डाक्टर मुंशी सिंह! आदमी तुम कमजोर मालूम होते हो। निपट कायर! तुमने क्या खाक धर्मो को अपनाया होगा और तुमने क्या खाक कोई साधना की होगी! जो वस्त्र तक बदलने में घबड़ता हो, वह और क्या बदलेगा? वस्त्र जैसी व्यर्थ चीज भी बदलने में जिसका प्राण सकपकाता हो, वह मन को बदलेगा, आत्मा को बदलेगा? फोड़ा-फुंसी फुड़वाने में तुम्हारी जान निकल रही है और तुम कैंसर का आॅपरेशन करवाना चाहते हो!
 तुम कहते हो: ‘मैंने सत्य के अनुभव के लिए कई धर्मो को अपनाया।’
 यूं ही बाहर ही बाहर घूमते रहे होओगे मंदिरों के। अपनाने का क्या मतलब? अगर तुम गेरूआ वस्त्र तक पहनने में घबड़ा रहे हो, माला तक पहनने में तुम्हारी जान निकली जा रही है, जैसे कोई फांसी लग रही हो, तुमने क्या अपनाया होगा धर्मो का? और सत्य का अनुभव करना चाहते हो! इतना सस्ता! तुम मुफ्त चाहते हो। तुम चाहते हो कोई दे दे; कोई चम्मच में रख कर और तुम्हारे मुंह में डाल दे। तुम पका-पकाया भोजन चाहते हो। तुम चबाना भी नहीं चाहते। उतनी झंझट भी तुम लेना नहीं चाहते।
 सत्य सिर्फ उनके लिए है, जो अज्ञात की यात्रा पर साहसपूर्वक निकलने को तैयार हैं; जो राजी हैं तूफानों में अपनी नाव छोड़ देने को। तुम किनारा ही नहीं छोड़ना चाहते। तुम तो किनारे से नाव को बांध कर बैठे हो, खूब अच्छी मजबूत रस्सियों से, कि कहीं छूट न जाए, कहीं हवा के झोंकों में, कहीं तूफान में आंधी में, कहीं चली न जाए सागर में! तुम कह जरूर रहे हो कि मैंने सत्य के अनुभव के लिए....। लेकिन सत्य से तुम्हें कोई मतलब नहीं है। तुमने सत्य शब्द सीख लिया है-तोते की तरह।
 सत्य के अनुभव के लिए तुम क्या चुकाने को राजी हो? सत्य का अनुभव उनको होता है जो जीवन भी देने को राजी हैं। और तुम्हारी दिक्कत है कि तुम्हें गेरूआ वस्त्र और माला अड़चन बन रही है। गेरूआ वस्त्र पहनने में क्या होगा? लोग हंसेगे न बहुत से बहुत, तो हंसने दो। दो-चार मरीज कम आएंगे तो न आने दो। दुकानदारी थोड़ी कम चलेगी, तो मत चलने दो। थोड़ी हिम्मत तो करनी पड़ेगी। माला पहनने में क्या अड़चन आ जाने वाली है? यही कहेंगे न लोग कि हो गए तुम भी पागल! तो सत्य पाने के लिए पागल होने की भी तैयारी नहीं है; परवाने बनने चल हो, शमा में जलने की हिम्मत नहीं है-तो फिर लिख लो अपनी खोपड़ी पर परवाना और घर में बैठे रहो। फिर तुम झूठे ही परवाने रहोगे। परवाने का मजा तो जब शमा में कोई जलता है तभी है। यह तो दीवानों का रास्ता है।
 डाॅक्टर मुंशी सिंह, यह काम तुम्हारा नहीं। अभी चलने दो आगमन दस-पांच जन्म और। ऐसी जल्दी भी क्या है? इसलिए तो हिंदुओं ने सिद्धान्त पकड़ रखा है जन्म-जन्मान्तर का। आलसी, सुस्त लोग हैं, इसलिए। क्योंकि इतना तो उनको पक्का ही है, इतने जल्दी अपने से कुछ होने वाला नहीं। इसलिए जन्म-जन्म में होगा। तो यही बहुत है अभी कि तुमने सत्य की कम से कम बात तो चलायी। ऐसे ही चलते-चलते बात कभी बन जाएगी। और फिर जल्दी क्या है, अनंत काल पड़ा है! धैर्य रखो। पहले डाॅक्टरी कर लो। पहले खूब कमाई कर लो। फिर देखेंगे कभी मौका, मरते वक्त ले लेना राम-नाम। अजामिल की कथा तो पढ़ी है न, बस मरते वक्त ले लेना राम-नाम। काम खत्म। और तुम न ले पाओ तो पंडित-पुजारी, किराए के नौकर-चाकर, वे तुम्हारे कान में मंत्र पढ़ कर सुना देंगे। तुम जो चाहो सो मंत्र। चाहो तो गायत्री सुना दें, चाहो तो नमोकार सुना दें, जो तुम्हार दिल हो। पूरी गीता सुना दें। मरते वक्त सुन लेना मंत्र। गंगाजल बोतल में रख लो घर में, जब मरो तो गंगाजल पी लेना। और क्या करोगे? सस्ता काम करो कुछ। दो-चार साल में गंगा नहा आए, कभी-कभी जा कर मंदिर में सिर रगड़ आए। सुबह उठ कर दो-चार दफे राम-राम राम-राम जप लिया। न किसी को पता चलेगा, न कोई झंझट आएगी। और पता भी चले तो लाभ ही होगा तुम्हें। अगर मरीज देख लेंगे कि डाॅक्टर भी राम-राम जपते हैं तो और ज्यादा आने लगेंगे, कि बड़ धार्मिक हैं, भक्त हैं! तुम यहां कहां आ गए! गलत जगह में आ गए।
 तुम कहते हो: ‘मैंने सत्य के अनुभव के लिए कई धर्मो का अपनाया।’ तुमने एक को नहीं अपनाया। अपनाने के लिए तुमने हिम्मत कहां जुटायी? और तुम कहते हो: ‘उनके द्वारा बतायी विधियों से ध्यान भी करता रहा।’ यूं ही करते रहे हाओगे ऊपर-ऊपर नाटक, क्योंकि ध्यान की तो कोई भी एक विधि अगर कोई पूरी तरह करे, सब कुछ लगा दे दांव पर, तो परिणाम हो जाता हैं। मगर नाटक से काम नहीं चलता। और लोग नाटक ही कर रहे हैं। लोग सोचते हैं शायद परमात्मा को भी धोखा दे लेंगे। मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, दुकान पर बैठें हैं, थैली के भीतर माला को रखे हुए हैं। थैली के भीतर माला के गुरिए सरकाते रहते हैं, राम-राम राम-राम राम-राम जपते रहते हैं। ग्राहक आ गया तो नौकर को इशारा कर देते हैं। कुत्ता आ गया तो नौकर का कहते हैं-भगाओ! और वह राम-राम भी चल रहा है और माला भी फेरी जा रही है! और फिर एक दिन कहेंगे कि इतने दिन हो गए माला फेरते, कुछ होता नहीं। ये कोई माला फेरने के ढंग हैं?
 अकबर एक सांझ जंगल में शिकार खेलने गया था। लौट रहा था, सांझ हो गयी, नमाज पढ़ने बैठा। जब नमाज पढ़ रहा था, अपना दस्तरखान बिछा कर, एक युवती भागती हुई निकली। अल्हड़ युवती रही होगी। थी युवती कि मुझे मिल जाती तो मेरी संन्यासिनी होती। एक धक्का मार दिया अकबर को। वे बेचारे बैठे थे अपना नमाज पढ़ने, धक्का खा कर गिर पड़े। मगर नमाज में बीच में बोलना ठीक भी नहीं। बीच में बोलना तो बहुत चाहा, दिल तो हुआ कि गर्दन पकड़ कर दबा दें इस औरत की, कि गर्दन उतार दें, मगर नमाज बीच में तोड़ी नहीं जा सकती। इसलिए पी गए जहर का घूंट। और युवती जब लौट रही थी तो नमाज तो खत्म हो गयी, अकबर राह देख रहा था उसकी। जब वह लौटी तो अकबर ने कहा कि रूक बदतमीज! तुझे इतनी भी तमीज नहीं कि कोई नमाज पढ़ता हो तो उसे धक्का मारना चाहिए? फिर तुझे यह भी नहीं दिखाई पड़ता कि मैं सम्राट हूं! साधारण आदमी को भी नमाज पढ़ने में धक्का नहीं मारना चाहिए, सम्राट को धक्का मारा!
 युवती ने कहा: ‘क्षमा करें, अगर आप को धक्का लगा हो! मुझे कुछ याद नहीं। बहुत दिनों बाद मेरा पे्रमी आ रहा था। मैं तो उसका स्वागत करने भागी चली जा रही थी। मुझे कुछ ओर दिखाई पड़ नहीं रहा था सिवाए उसके। मुझे याद भी नहीं। आप कहते हैं तो जरूर धक्का लगा होगा। हालांकि जब आपको धक्का लगा तो मुझको भी लगा होगा, क्योंकि हम दोनों टकराए होंगे; मगर मुझे कुछ याद नहीं। मुझे क्षमा कर दें, या जो दंड देना हो दे दें। मैं दीवानी हूं! मैं प्रेमी के पागलपन में चली जा रही थी भागी, मुझे पता नहीं कौन नमाज पढ़ रहा था, कौन नहीं पढ़ रहा था, कौन रास्तें में था, कौन नहीं था, किससे टकरायी, किससे नहीं टकरायी। लेकिन एक बात आपसे पूछती हूं, सजा जो देनी हो दे दें, एक बात का जवाब मुझे जरूर दे दें। मैं अपने पे्रमी से मिलने जा रही थी और इतनी दीवानी थी और आप परमात्मा से मिलने गए हुए थे और मेरा धक्का आपको याद आ गया! और मेरा धक्का आपको दिखाई पड़ गया! और मेरे धक्के का आपको पता चल गया! मैं तो अपने साधारण से प्रेमी से मिलने जा रही थी-एक साधारण भौतिक-सी बात; और आप तो आध्यात्मिक नमाज में थे, प्रार्थना में थे; पूजा में थे, ध्यान में थे! आप तो परमात्मा से मिलन कर रहे थे! आपको मेरा धक्का पता चल गया! यह बात मेरी समझ में नहीं आती।’
 कहते हैं अकबर का सिर झुक गया शर्म से। उसने अपने जीवन में उल्लेख करवाया है कि उस युवती ने मुझे पहली दफा बताया कि मेरी नमाज सब थोथी है, औपचारिक है। बस करता हूं, क्योंकि करनी चाहिए। उस युवती से मैंने पहली दफा जाना कि नमाज में एक दीवानापन होना चाहिए, एक मस्ती होनी चाहिए। अपने प्रेमी से मिलने जा रही थी तो कैसी मस्त थी, कैसी अल्हड़ थी! और मैं परमात्मा से मिलने जा रहा था, क्या खाक मिलने कहीं गए थे! वहीं बैठे थे, नाहक आंखें बंद किए।
 मैं राजस्थान जाता था तो बीच के एक स्टेशन पर ट्रेन बदलती थी। ट्रेन बदलने में कोई चालीस मिनट, पचास मिनट लगते थे, कभी घंटा भी लगता। तो बहुत-से मुसलमान उसी ट्रेन से अजमेर जा रहे होते, उनका नमाज का वक्त होता, सांझ का समय, तो प्लेटफार्म पर वे नमाज पढ़ने बैठ जाते। मुझे भी कुछ काम नहीं होता था, तो मुझसे भी जितना सहयोग उनका हो सकता करता था। उनके पीछे घूमता रहता और जो भी मुझे दिखायी पड़ता कि लौट-लौट कर देख रहा है कि गाड़ी छूट न जाए, उसकी गर्दन पकड़ कर सीधी कर देता। वे मुझसे कुछ बोल तो सकते नहीं थे जब नमाज पढ़ रहे; नमाज के बाद एकदम....कि ‘आप किस तरह के आदमी हैं! देखने-दाखने में साधु जैसे मालूम पड़ते हैं। हमारी नमाज खराब कर दी!’
 मैंने कहा: ‘मैं नमाज ठीक कर रहा था। मुझे तो कुछ नमाज वगैरह पढ़नी नहीं है। मैं तो सिर्फ टहल रहा था, देख रहा था किस-किस की नमाज गड़बड़ हो रही है, उसकी ठीक कर रहा था। तुम गाड़ी लौट-लौट कर क्यों देख रहे थे? गाड़ी देखनी थी तो नमाज बंद करो और नमाज पढ़नी है तो छूटे गाड़ी तो छूट ही जाए। एक दफा तो नमाज ऐसी पढ़ लो कि गाड़ी भी छूट जाए तो फिक्र नहीं। एक दफा तो पढ़ लो जिंदगी में ऐसी नमाज! यह कोई खाक नमाज हुई तुम्हारी, कि दस दफा तुमने लौट कर देखा पीछे कि गाड़ी तो नहीं छूट गयी! तो ऐसा ही था तो गाड़ी की तरफ ही मुंह कर के नमाज पढ़ते, पीठ काहे को किए थे गाड़ी की तरफ? गाड़ी में ही बैठ कर करते नमाज, डर ही मिट जाता कि जब छूटेगी छूट जाएगी। यह बाहर दस्तरखान बिछा कर यह इतना दिखावा क्यों कर रहे थे?’
 जवाब तो उनके पास कुछ था नहीं, भुनभुना कर रह जाते थे। मैं अक्सर राजस्थान जाता था। कुछ तो लोग मुझे पहचानने लगे थे! उस स्टेशन के स्टेशन-मास्टर मुसलमान थे। वे तो जैसे ही मुझे देखते टहलते, वे कहते कि भाईजान, कृपा करके किसी को परेशान न करिए!

 मैंने कहा: ‘मैं किसी को परेशान नहीं कर रहा। मेरा तो काम ही यह है कि लोगों की नमाज में सहायता देना।’
 वे कहते: ‘आप आइए, दफ्तर में बैठिए।’
 मैंने कहा: ‘मैं नहीं बैठ सकता। जब इतने भक्तगण यहां बैठे हैं तो मैं भी सत्संग करूंगा।’
 डाॅक्टर मुंशी सिंह, तुम कहते तो हो कि तुमने कई विधियों से ध्यान किया। एक विधि से भी तुमने नहीं किया। विधियों का थोड़े ही सवाल है, डूबने की बात है। गलत विधि में भी कोई ठीक से डूब जाए तो पहुंच जाता है और ठीक विधि में भी कोई न डूबे तो क्या होगा पहुंचना? असली सवाल डूबने का है। मस्त हो जाने को है, अलमस्त हो जाने का है। ये दीवानों की बातें हैं। ये मस्तों की बातें हैं। ये दुकानदारी की बातें नहीं हैं। तुम पक्के दुकानदार मालूम पड़ते हो।
 तुम कहते हो: ‘पर सफलता नहीं मिली।’ सफलता, यह हिसाब भी दुकानदार का है। ध्यानी सफलता की फिक्र ही कहां करता है, ध्यान में उतर गए, यही सफलता है। ध्यान में मजा आ गया यहा सफलता है। ध्यान में डोल लिए, यही सफलता है।
 मेरे पास लोग आते हैं-दुकानदार किस्म के लोग-तो वे पूछते हैं: ‘ध्यान करेंगे तो इससे क्या लाभ होगा?’ लाभ पहले! ये वे ही लोग जो लिखे रहते हैं अपनी दुकान पर: लाभ-हानि। खाता-बही शुरू करते हैं तो पहले लिखते हैं: लाभ, शुभ लाभ। श्री गणेशाय नमः! इनको लाभ ही लाभ की पड़ी है। लाभ क्या होगा!
 तुम्हें ध्यान का पता ही नहीं। तुम वैसी ही बात पूछ रहे हो जैसे कोई पूछे कि प्रेम का क्या लाभ है! प्रेम का कोई लाभ होता है? प्रेम स्वंय ही अपना अंत है, किसी चीज का साधन नहीं है। प्रेम अपने में आनंद है। इससे कुछ लाभ नहीं होता। ऐसा नहीं कि प्रेम में गहरे उतर जाओगे तो एकदम धन-संपत्ति बढ़ेगी। मगर तुम प्रार्थना भी ऐसे ही करते हो-जय जगदीश हरे! उसमें तुम देखो, आते हैं ये वचन-धन संपत्ति बढ़े! वे ही लोग यहां आ जाते हैं, वे कहते हैं-जय रजनीश हरे! धन-संपत्ति बढ़े!’ कुछ फर्क नहीं। मैं बैठा होता हूं, सुनता हूं, मस्त होता हूं कि वाह, क्या गजब के बीमार हैं! जहां जाएंगे वहीं बीमारी ले कर पहुंचेंगे।.......‘सुख-संपत्ति घर आवे!’ हर जगह सफलता!
 सो तुम बीच-बीच में देख रहे होते होओगे कि छप्पर अभी तक टूटा कि नहीं, क्योंकि वह जब देता है छप्पर तोड़ कर देता है। छाता वगैरह लगा कर करते हो ध्यान कि नहीं? नहीं तो एकदम छप्पर टूट जाए और एकदम धन बरसे और खोपड़ी खुल जाए।
 सफलता किस बात की? सफलता से जो जाग गया है वही ध्यान में उतरता है; जो समझ लिया कि सफलता-असफलता सब बच्चों के खेल हैं, दो कौड़ी की बातें हैं। सफल भी हो गए तो क्या? असफल भी हो गए तो क्या? यहां हार क्या, जीत क्या? जैसे शतरंज में कोई हार जाए कि शतरंज में कोई जीत जाए। मगर तलवारें खिंच जाती हैं वहां भी। ऐसे मूढ़ पड़े हैं दुनिया में-महामूढ़! शतरंज खेल रहे हैं, कुछ असली नहीं; नकली घोड़े, नकली हाथी; न राजा असली न वजीर असली, सब लकड़ी के खिलौने-मगर तलवारें खिंच जाएंगी, क्योंकि हार गए! ताश खेलते हैं, लट्ठ चल जाते हैं, क्योंकि हार गए, किसी ने धोखा दे दिया।
 तुम्हारे मन में सफलता और असफलता का जो रोग है वही तो संसार है। ध्यान उन्हें मिलता है जो इस बात से छूट गए; जिनने देख लिया कि यहां सफल भी हो जाओ तो भी असफल हो, असफल होओ तो तो असफल हो ही। इस जगत में सब खिलवाड़ चल रहा है। अपने भीतर डुबकी मारनी है। क्या सफलता क्या असफलता! अपने भीतर विराजमान हो जाना है। मगर अगर तुमने ध्यान रखा बार-बार कि अभी तक सफलता मिली कि नहीं मिली, तो बस अड़चन हो जाएगी। वही बाधा बन जाएगी। उसी के कारण तुम्हारा अटकाव हो जाएगा। बीच-बीच में आंख खोल कर देख लोगे: ‘अभी तक सफलता नहीं मिली। कब तक मिलेगी! बड़ी देर हुई जा रही है।’
 इसलिए तुम बहुत धर्म बदल लिए होओगे। एक जिंदगी और तुम कहते हो कि कई धर्मो को अपनाया। बड़ी जल्दी में रहे! दो-चार दिन इधर देखा, टटोला कि अरे कुछ नहीं, अभी तक सफलता नहीं मिली, छप्पर नहीं टूटा, चले और कहीं। चलो और कहीं तलाशें! दो-चार दिन वहां भी देखा, चलो कहीं और! ऐसे ही तुम यहां तो नहीं आ गए? यह मामला दो-चार दिन वाला नहीं है। और यहां सफलताओं का कोई आश्वासन ही नहीं देता मैं। वे तुम्हारे थोथे गुरू तुम्हें सफलता का भी आश्वासन देते हैं।
 महर्शि महेश योगी लोगों को समझाते हैं कि आध्यात्मिक भी लाभ होगा-अगर तुमने भावातीत ध्यान किया-और भौतिक लाभ भी होगा। नौकरी में बढ़ती होगी, पद बढ़ेगा, प्रतिष्ठा बढ़ेगी। जिनको नौकरी नहीं है उनको नौकरी मिलगी। स्वास्थ्य भी अच्छा होगा। बीमारियां दूर होंगी। और आध्यात्मिक लाभ, वह तो अलग ही है; वह तो समझो ब्याज। मूल चीजें तो ये हैं। लोग कहते हैं कि फिर क्यों छोड़ना! जब सभी कुछ मिलने वाला है, तो लूट सके तो लूट! नहीं तो फिर पीछे पछताना पड़ेगा। तो लोग एकदम पीछे पड़ जाते हैं कि पकड़ो। मगर दो-चार दिन में फिर वे देखते हैं कि कुछ नहीं मिला, न कोई बाहर न कुछ भीतर, चले उठाया डेरा-कहीं और! ये एक गुरू दूसरे गुरू के पास घूमते रहते हैं। और ये गुरू हैं जो इनको बस वही आश्वासन, वही धोखे।
 यहां न कोई आश्वासन है, न कोई प्रलोभन है। मैं तुम्हे कोई वायदा नहीं करता कि तुम्हें कुछ मिलेगा। मिलने की बात ही गलत है। मिलने का मतलब ही होता है: भविष्य। और जिसके मन में भविष्य का अभी इतना आकर्शण है, वह ध्यान में नहीं उतर सकता। ध्यान का अर्थ होता है: वर्तमान में जीना। और सफलता का अर्थ होता है: भविष्य की आकांक्षा। इनका कोई तालमेल नहीं है। ये विपरीत हैं। ध्यान का अर्थ होता है: यह क्षण पर्याप्त है। इस क्षण में डूब जाना। न तो अतीत की कोई सत्ता है और न भविष्य की। अतीत जा चुका, भविष्य अभी आया नहीं; अगर है कुछ मौजूद तो यही क्षण है-अभी और यहीं!
 तुम यहां बैठे हो। यहां तीन तरह के लोग बैठे हुए हैं। एक तो वे जो यहां बैठे हुए अतीत का हिसाब लगा रहे हैं, कि मैं जो कह रहा हूं इसका गीता से मेल खाता कि नहीं, कुरान से मेल खाता कि नहीं; यह बात समयसार के अनुकूल है या नहीं; कुंदकुंद, उमास्वाति और इनकी बातों में कुछ विरोध तो नहीं है; जीसस, जरथुस्त्र, उनकी बातों में और इनकी बातों में कुछ विरोध तो नहीं है। वे कुछ बैठे हैं जो यही हिसाब लगा रहे हैं। वे चूक गए। वे इसी कचरे में पड़े रहेंगे। वे अगर कृष्ण के समय में होते तो गीता पढ़ते वक्त हिसाब लगाते कि इसका वेद से मेल खाता कि नहीं। अगर वे वेद के समय में होते तो भी यही करते, क्योंकि तब वे और हिसाब लगाते आगे का कि और-और पीछे, जो हो चुके हैं ऋशि-मुनि, उनसे मेल खाता कि नहीं। उनका ढंग ही यह है कि हमेशा अतीत से मेल खानी चाहिए कोई बात, क्योंकि उनकी धारणाएं अतीत की बंधी कोई धारणाएं हैं। उनसे मेल खाएं तो ठीक। मतलब उन्हें सत्य की कोई चिंता नहीं है।
 तुम कहते हो कि मैं सत्य की खोज कर रहा हूं। सत्य वगैरह की तुम खोज नहीं कर रहे हो। तुम खोज इस बात की कर रहे हो कि तुम्हारी जो मान्यताएं हों, उनको कोई सत्य का सील-मुहर दे दे; हस्ताक्षर कर दे कि हां यह बिलकुल सत्य है, कि मुंशी सिंह, तुम बिलकुल ठीक कहते हो! बस तो तुम्हारा दिल खुश हो जाए।
 अगर तुम यहां आए इस आशा में, तो बिलकुल गलत जगह आ गए। यहां तो तुम्हारी एक-एक बात तोड़ी जाएगी, व्यवस्था से तोड़ी जाएगी। एक-एक ईट खिसकाई जाएगी मुंशी सिंह-जब तक कि तुम्हें बिलकुल सपाट न कर दिया जाए; जब तक कि बिलकुल पूरा मैदान न हो जाए। क्योंकि मैं पहले मकान गिराता हूं, फिर ही नया बनाता हूं। रिनोवेशन में मेरा भरोसा ही नहीं है कि उसी पुराने मकान में कर रहे हैं लीपा-पोती; कि जरा इधर सीमेंट लगा दी उधर छप्पर ठीक कर दिया, इधर एक टेका लगा दिया उधर दीवाल पुरानी थी उस पर रंग-रोशन कर दिया, इधर दरवाजा नया बिठा दिया, तस्वीरें बदल दीं, केलैंडर पुराने की जगह नए लटका दिए। इस सब में मेरा भरोसा नहीं है। मैं तो मामला बिलकुल मूल से ही करता हूं, जड़ से ही शुरू करता हूं। पहले तो खत्म ही करूंगा, बिलकुल खत्म करूंगा कि तुम्हारा पता-ठिकाना न रहेगा। जब तुम्हें बिलकुल सपाट कर दूंगा, जब तुम बिलकुल चारों खाने चित, फिर धीरे-धीरे तुममें सांस फूकेंगे कि भैया अब उठो, मुंशी सिंह आॅपरेशन खत्म हुआ, कि अब आप वापिस आओ, कि अब आप फिर से सांस लो, कि अब आपका नया जन्म हुआ!
 तो कुछ हैं जो अतीत मं बैठे हैं। वे अतीत में ही अटके रहते हैं। वे वहीं हिसाब-किताब जमाए रहते हैं। और कुछ हैं जो भविष्य में हैं। वे हिसाब लगाए रखते हैं कि अगर हम इनकी बातें मानें तो लाभ क्या होगा, सफलता मिलेगी कि नहीं मिलेगी, फायदा क्या है, हानि क्या है? हिसाब-किताब लगात हैं। तराजू लिए बैठे हैं। कितना लाभ कितनी हानि। कहीं ज्यादा हानि तो नहीं है, ज्यादा लाभ तो नहीं है? तराजू कहां जा रहा है, देखते रहते हैं। ये दोनों चूक जाते हैं।
तीसरे तरह के लोग हैं, जो मौन शांत यहां बैठे हैं; जो इस क्षण पूरा आनन्द ले रहे हैं। न अतीत से कुछ लेना-देना है, न भविष्य से कुछ प्रयोजन है। ध्यान उनका अभी घट रहा है। ध्यान की उन्हें कोई विधि भी जरूरत नहीं है। ध्यान है वर्तमान में होने की कला। किसी भी बहाने वर्तमान में हो जाओ, ध्यान हो गया। रात तारों से भरी हो और तुम तारों से भरी रात के साथ एक हो जाओ, लीन हो जाओ-ध्यान हो गया। संगीत में डूब जाओ कि दूर कोयल की कूक उठती हो, उसके साथ तल्लीन हो जाओ-ध्यान हो गया।
 ध्यान का कुल इतना ही अर्थ होता है कि तुम्हारा चित्त तरंगें खो दे अपनी, विचार खो दे अपने। विचार होते ही अतीत और भविष्य के हैं; वर्तमान का कोई विचार नहीं होता। वर्तमान निर्विचार है। और जहां निर्विचार स्थिति होती है, वहां चैतन्य का जन्म हो जाता है, वहां चैतन्य प्रगट हो जाता है। विचार की धूल तुम्हारे चैतन्य को ढांके हुए है।’
 तुम कहते हो: ‘इधर से वहां गया, वहां से यहंा गया, कई विधियों से ध्यान करता रहा, परंतु सफलता नहीं मिली। अब संन्यास लेने में गेरूआ वस्त्र व माला अड़चन बन रही है।
 अगर इतनी छोटी चींजे अड़चन बनती हैं तो तुम खतरा मत लो। तुम आदमी ज्यादा होशियार हो। तुम पांव फूंक-फूंक कर रखोगे। तुम अब छांछ भी फूंक-फूंक कर पी रहे हो। जैसी तुम्हारी मर्जी। यह मैं भी जानता हूं कि कोई कपड़े बदलने से संन्यासी नहीं हो जाता; लेकिन जिसकी कपड़े बदलने तक की हिम्मत नहीं है वह क्या खाक संन्यासी होगा! यह तो मैं भी जानता हूं कि माला पहनने से क्या होगा। कोई माला पहनने से संन्यासी हो जाएगा, मोक्ष हो जाएगा? लेकिन जो इतना भी हिम्मत नहीं रखता, जो इतना कायर है कि चार आदमियों में जाहिर न कर सके कि मैं दीवानों की महफिल में सम्मिलित हो गया हूं, कि मैं इन पियक्कड़ों की जमात में सम्मिलित हो गया हूं, उस आदमी के वश के बाहर की बात है। वह अपनी दुकान चलाए, अपना बैंक-बैलेंस बढ़ाए। अच्छा यही है कि मरते दम तक कुछ धन-संपत्ति छोड़ जाए और कुछ औलाद छोड़ जाए। तभी तो लोग कहते हैं: उल्लू मर गए, औलाद छोड़ गए! तुम तो मर जाओगे, मगर औलाद छोड़ जाना। औलाद भी यही करेगी; वह और औलाद छोड़ जाएगी। ऐसे उल्लुओं की जमात बढ़ती चली जाती है।
 हिम्मत करो! यह तुम क्या कहते हो कि ‘क्या केवल ध्यान करने से संन्यास मिल सकता है?’ संन्यास की जरूरत ही क्या है तुम्हें? अगर तुम ध्यान ही कर सकते हो तो संन्यास की जरूरत ही क्या है? संन्यास तो केवल भुमिका है, जिसके भीतर ध्यान का फूल खिलेगा। तुम तो कह रह हो: ‘क्या बिना जमीन के फूल खिल सकता है?’ जरूर खिल सकता है, लेकिन कागजी फूल होगा, प्लास्टिक का फूल होगा। वैसे प्लास्टिक के फूल की बड़ी खूबियां होती हैं-न मरता कभी, न सड़ता कभी, न गलता कभी, एक दफा ले आए सो सदा के लिए हो गया। बड़ा शाश्वत, बड़ा सनातन! ठीक हिंदू धर्म जैसा-सनातन धर्म! हेर-फेर कुछ होता ही नहीं। जब दिल चाहे, साबुन से धो लो, फिर ताजा का ताजा। न पानी देने की झंझट, न खाद जुटाने की झंझट, न जमीन की जरूरत। लेकिन अगर असली फूल चाहते हो, गुलाब के फूल चाहते हो, तो फिर जमीन तैयार करनी होगी, कंकड़-पत्थर हटाने होंगे, घास-पात उखाड़ना होगा! खाद भी देनी होगी, पौधे को सम्हालना भी होगा। पानी भी देना होगा, धूप का भी इंतजाम करना होगा। पौधे को बागुड़ लगा कर रक्षा भी करनी होगी कि जंगली जानवर न चर जाएं, बच्चे न उखाड़ ले जाएं, मुहल्ले-पड़ोस के लोग पौधे न चुरा लें।
 संन्यास तो केवल भूमिका है; ध्यान उसका फूल है।
 तुम कहते हो: ‘क्या केवल ध्यान करने से बात हो जाएगी?’
 तुम्हारी मर्जी। बात तो हो जाएगी, मगर मामला कागजी रहेगा। क्योंकि जो आदमी संन्यास की हिम्मत नहीं कर सका, वह आदमी ध्यान की हिम्मत कर सकेगा? ध्यान तो बहुत हिम्मत का काम है। ध्यान का अर्थ होता है: मृत्यु। मरना है-शरीर के प्रति, मन के प्रति, तब कहीं तुम्हें आत्मा का बोध होगा। और तुम कपड़े तक बदलने में घबड़ा रहे हो!
 मैं एक घर में मेहमान होता था। उस घर की गृहिणी हमेशा कहती थी कि मैं तो आपकी संन्यासिनी ही हूं, लेकिन बस कपड़े बदलने को मत कहिए। मैंने उससे कहा कि देख, मुझे भलीभांति पता है मामला क्या है। तू मेरी संन्यासिनी है और इतनी-सी मेरी आज्ञा मानने को राजी नहीं है कि मैं कहता हूं कपड़े बदल, तो मैं कुछ और कहूंगा, तू मानेगी? मैं कहूंगा कूद जा मकान से, कूदेगी? कूद जा कुएं में, कूदेगी?
 उसने कहा: ‘आप कभी ऐसा कह ही नहीं सकते।’
 मैंने कहा: तू छोड़ फिक्र, मैं कुछ भी कह सकता हूं। तू अपनी बता। और न हो भरोसा तो चल कुएं पर।’
 नीचे ही कुआं था बगीचे में। मैंने कहा: ‘चल!’
 वह थोड़ी घबरायी। उसने कहा: ‘पति को तो आ जाने दें।’
 मैंने कहा: ‘पति से इसका क्या लेना-देना? कोई उनको भी कुदवाना है? तू क्या कर सकती हे मेरी मान कर, यह बता। मुफ्त संन्यास! बस कहने की बात! औपचारिक! और मैं कारण जानता हूं कि कपड़े क्यों नहीं बदलना चाहती, क्योंकि तीन सौ साड़ियां तूने इकट्ठी कर रखी हैं।’
 उसके कमरे में मैं सोता था तो मैंने देखी थी उसकी अलमारी, तीन सौ साड़ियां कम से कम; ज्यादा ही हो सकती हैं, कम तो नहीं।
 अब तुम जरा सोचो, किसी बेचारी स्त्री की दशा। उसको कहो कि गेरूआ ही पहनना अब और तीन सौ साड़ियां उसके पास हैं। वह घंटों तो अलमारी खोल कर विचार करती थी रोज कि कौन-सी पहननी, कौन-सी नहीं पहननी। बस सिर्फ गैरिक ही पहनना! मैंने कहा: ‘ये तू बांट दे तीन सौ साड़ियां, फिर आसान हो जाएगा संन्यास लेना।’
 उसने कहा: ‘यह क्या आप कहते हैं! मैंने बमुश्किल इकट्ठी की हैं, एक से एक कीमती साड़ियां हैं। सब बांट दूं!? जरा ठहर जाएं। जरा मेरे लड़के की शादी हो जाने दें, बहू को दूंगी।’
 मैंने कहा: ‘तू बहाने मत खोज। लड़के को दे दे। जब उसकी बहू आएगी वह समझे वह जाने। और तू बहू को क्यों फंसाती है तीन सौ साड़ियां के चक्कर में, क्योंकि हो सकता है बहू भी संन्यास लेना चाहे, फिर? ये तीन सौ साड़िया का चक्कर बड़ा मुश्किल हो जाएगा।’
 तुम डर रहे हो संन्यास लेने से-कुल कपड़े के कारण, कुल माला के कारण! और कहते हो ध्यान! यह तो केवल प्रतीक है। संन्यास तो केवल तुम्हारी तरफ से एक इशारा है, एक इंगित है, कि हम राजी हैं, कि अब आप हमें कुछ कहें, हम करने को राजी हैं। तुम इतना न कर सकोगे? तो तुम फिर और बड़ी बातें कैसे कर सकोगे?
 और इस जिंदगी में छोटी बातें न कर सको तो बड़ी न कर पाओगे। लेकिन लोग अक्सर यह बात करते दिखाई पड़ते हैं कि हम बड़ी बातें करने को राजी हैं; छोटी बातें...ये तो छोटी-छोटी बातें हैं। बड़ी बातों का मजा यह है कि वे भीतरी है, किसी को दिखाई तो पड़ती नहीं। अगर मैं कहूं ध्यान करोगे, तुम कहोगे, हां ध्यान करेंगे! अब वह किसी को दिखाई तो पड़ता नहीं! लेकिन मैं कहूं कपड़े बदलो, तो वे सारी दुनिया को दिखाई पड़ेंगे। और ध्यान तुम करते हो कि नहीं करते हो, अब मैं कोई पुलिसवाला तो तुम्हारे पीछे नहीं लगा दूंगा। कपड़े तुमने बदले तो सारी बस्ती पुलिसवाली हो जाती है। लोग मुझे.....तुम्हारे दुश्मन खबर करेंगे अगर तुम नहीं पहनोगे तो। यहां चिट्ठी आ जाती है मेरे पास-उनकी, जो दुश्मन हैं, कि आपका फलां संन्यासी कपड़े नहीं पहन रहा है, कि वह माला छिपाए रहता है भीतर। संन्यासी है कि माला छिपाए रखता है भीतर! जब पूना जाता है तो माला बाहर निकाल लेता है और जैसे ही पूना में से स्टेशन पर पहुंचा, ट्रेन में बैठा कि माला एकदम भीतर कर लेता है! जब पूना जाता है तो एकदम गैरिक वस्त्र पहनता है और घर आता है तो इसने ऐसे फीके गैरिक वस्त्र बनाए हैं कि अगर तुम चश्मा लगा कर देखो तो ही समझ में आते हैं कि हां-हां कुछ-कुछ रंग है, कि थोड़ा-थोड़ा रंग मालूम होता है।
 तो मुझे कोई जरूरत नहीं पुलिसवाला लगाने की। सारी बस्ती तुम पर निगरानी रखेगी कि कहीं भूल-चूक तो नहीं हो रही, कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं कर रहे। मेरा संन्यासी कहीं सिनेमा में दिखाई पड़ जाता है, फौरन चिट्ठियां आ जाती हैं कि आपका संन्यासी सिनेमा में खड़ा था, कैसा संन्यासी है! अब मैंने किसी संन्यासी को कहा नहीं कि सिनेमा मत जाना।
 एक संन्यासी ने मुझे आ कर कहा कि अच्छी मुसीबत में डाल दिया! मैंने कहा: ‘मुसीबत में डालना मेरा काम है।’...कि अपनी पत्नी के साथ मैं चला जा रहा था, दो आदमियों ने मुझे पकड़ लिया, कि यह औरत किसकी है? संन्यासी होकर इसको कहां भगा कर ले जा रहा है?
 अरे मैंने कहा, भई यह मेरी औरत है!
 उन्होंने कहा: ‘तुम्हें शर्म नहीं आती कहते, संन्यासी और तुम्हारी औरत! पुलिसथाने चलो।’
 तो उसने कहा कि अब आप कृपा करके मेरी पत्नी को भी संन्यास दे दो, नहीं तो यह झंझट बढ़ेगी। ये दोनों बदमाश थे, मगर उन्होंने उपद्रव तो खड़ा कर दिया, भीड़ इकट्ठी कर दी। वे तो दो-चार पहचान के लोग आ गए, उन्होंने कहा: भई नहीं, ये और तरह के संन्यासी हैं, इनको जाने दो।’ इनकी पत्नी का संन्यास हुआ ऐसे। पांच-सात दिन बाद वे फिर हाजिर हो गए, उन्होंने कहा: ‘आपने अच्छी झंझट खड़ी की, हम दोनों ट्रेन में बंबई जा रहे थे, हमें ट्रेन में ही बस, डब्बे में लोगों ने घेर लिया और कहा कि बच्चे को कहां भगा कर ले जा रहे हो? आजकल कई बच्चों को भगाने वाले चल रहे हैं।’
 ‘यह मगर हमार बच्चा है!’ हमने कहा: ‘हमारा बच्चा है!’
 उन्होंने कहा: ‘तुम संन्यासी हो, तुम्हें शर्म नहीं आती, तुम्हारा बच्चा है! अरे संन्यासी को ब्रह्मचारी होना चाहिए, और यह औरत किसकी है? तुम दोनों संन्यासी हो ठीक है, मगर तुम साथ रहते हो क्या? संन्यासियों को, क्या स्त्री-पुरूशों को साथ रहना चाहिये? और बच्चा किसका है? न तुमसे मेल खाता है इसका चेहरा, न तुम्हारी पत्नी से मेल खाता है।’
 अब वे दोनों आए कि हम करें भी क्या, मेल नहीं खाता तो हम इसमें क्या करें! आप इसको भी संन्यास दो।
 अब वे तीनों संन्यासी हैं।
 एक मित्र ने संन्यास लिया, वे शराब पीते हैं। कहने लगे कि मैं शराब पीता हूं, क्या आप मुझे भी संन्यास देंगे? मैंने कहा कि मैं ये छोटी-मोटी बातों की फिक्र ही नहीं करता। पहले संन्यास, फिर पीछे सब निपट लेंगे। आए पांच-सात दिन बाद और कहा कि मैं समझ गया मतलब आपका। शराब-घर में घुस ही रहा था कि एक आदमी ने पकड़ लिया कि स्वामी जी, आप कहां जा रहे हैं? अरे यह शराबघर है! सो मैं एकदम लौट पड़ा। मैंने कहा कि अरे-अरे, मुझे क्या मालूम कि यह शराबघर है! तब से शराबघर नहीं जा सकता, क्योंकि अब मुझे डर है कि कोई न कोई पांव पकड़ लेगा, पैर छूते हैं लोग। अब जब जिसके पैर छुओ वह शराबघर जाए तो ठीक नहीं मालूम पड़ता।
 इसीलिए तो लोग संन्यासियों को आदर देते हैं; वह उनकी तरकीब है। वह उनकी तरकीब है तुम्हें व्यवस्थित रखने की कि महाराज, हम आपके पैर छूते हैं, जरा खयाल रखना! इधर-उधर गड़बड़ हुए कि फौरन पकड़े जाओगे।
 तो मैंने कहा: ‘भई अब तुम समझो। तुम्हारा काम समझो। मैंने तो झंझट डाल दी।’
 तो मुंशी सिंह, पहला तो काम है: गैरिक वस्त्र और माला। पहले तो इस मुसीबत में उतरो। फिर ध्यान पीछे। पहले यह बाह्य साहस जुटाओ, फिर अंतर्यात्रा शुरू हो सकती है। तुम अब तक जिनके पास गए हो, रहे होंगे दो कौड़ी के लोग, सस्ते लोग-जिनको खुद भी न कोई ध्यान है, न ध्यान का कोई अनुभव है।
 मैं इस देश के सारे बड़े से बड़े संन्यासियों को जानता हूं-हिन्दू, जैन, बौद्ध। वे सब मुझसे एकांत में पूछे हैं कि हम ध्यान कैसे करें। उन्हें खुद भी पता नहीं है। आचार्य तुलसी मुझसे पूछे हैं कि हम ध्यान कैसे करें। और जब मुझसे पूछा तो उन्होंने सारे लोगों को कहा कि अलग हो जाओ, हम एकान्त में बात करना चाहते हैं, कुछ गूढ़ बात करनी है। मैंने पूछा: ‘कितनी ही हो गूढ़ बात, इन लोगों को रहने दें, क्योंकि ये भी बेचारे सुनें, इनको भी लाभ हो जाए।’
 नहीं, कहा कि यह बहुत गूढ़ बात है। गूढ़ बात यह थी कि उनको पूछना था कि ध्यान कैसे करें। अब ये सबके सामने कैसे पूछें?
 मुझसे आनंद ऋशि ने पूछा है कि ध्यान कैसे करें। मुझसे सुशील मुनि ने पूछा है कि हम ध्यान कैसे करें। विनोबा भावे ने पूछा है कि हम ध्यान कैसे करें। और ये सारे लोग लोगों को ध्यान करवा रहे हैं। ये सारे लोग लोगों को ध्यान समझा रहे हैं। ये तुम्हारे ब्रह्मज्ञानी हैं! इनको खुद ध्यान का कुछ पता नहीं है, इनको खुद कोई अनुभव नहीं है। मगर किताबों में सब लिखा हुआ है, पढ़ लो, तोतों की तरह दोहराए चले जाओ। बहुत आसान है। कठिनाई कहां है?
 तुम जिनके पास गए होओगे, ऐसे ही लोग होंगे। इस देश में तो इतना अध्यात्म चलता है कि जिसका हिसाब नहीं। सब कूड़ा-करकट है! अब तुम आ गए हो तलवार की धार के पास, हिम्मत हो तो गर्दन कटेगी। हालांकि तुमसे पूछ कर ही काटूंगा; तुम्हारी स्वीकृति से ही काटूंगा; तुम हां भरोगे तो ही काटूंगा।
 कबीर ने कहा है: ‘कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर बारै आपना चले हमारे साथ।’ जिसकी हिम्मत हो, हम तो लट्ठ लिए बाजार में खड़े हैं, हो जिसकी हिम्मत घर जलाने की, घर फूंक डालने की, वह हो ले हमारे साथ। यह घर फूंकने का धंधा है। और तुम चाहो कि कोई सस्ता नुस्खा लेने आ गए हो यहां, तो तुम गलती में हो।
 लोगों का यही खयाल है कि मैंने संन्यास को बहुत सरल बना दिया है। वे गलत सोच रहे हैं। उनको पता नहीं, मैंने संन्यास को अति कठिन बना दिया है। तुम भी चैकोगे, क्योंकि आम तौर से यही दिखाई पड़ता है: मैं संन्यासी को नहीं कहता घर छोड़ो, नहीं कहता परिवार छोड़ो, नहीं कहता दुकान छोड़ो, धंधा छोड़ो। तो लोगों को लगता है सरल बना दिया। पुराना संन्यास बड़ा कठिन था-तपश्चर्या करो, त्याग करो, घर छोड़ो, पत्नी छोड़ो!
 नहीं! पुराना संन्यास बहुत सरल था। ऐसा कौन आदमी है जो पत्नी को छोड़ कर नहीं भागना चाहता? तुम किसी के भी दिल से पूछ लो। ऐसी कौन पत्नी है जो पछताती नहीं कि किस उपद्रव में पड़ गयी, किस जाल में उलझ गयी! अब निकले तो कैसे निकले! ऐसा कौन है सांसरिक, जो रो नहीं रहा है? और अपने आंसू छिपाए हुए है, क्योंकि अब रोने से भी क्या फायदा? रोओ भी तो किसके सामने रोओ! रो कर और अपनी भद्द क्या खुलवानी!
 पुराना संन्यास बहुत आसान था, क्योंकि वह भगोड़ेपन को आदर देता था। और भगोड़े दुनिया में बहुत हैं। भगोड़ापन सरल बात है और मुफ्त में मिल जाता आदर। तुम देखते हो, जिन संन्यासियों को तुम आदर देते हो-जैन हों, हिंदू हों, बौद्ध हों-वे संन्यासी अगर संन्यासी न हों तो शायद तुम उनको घर में बर्तन मांजने की नौकरी पर भी न रखो, रसोइए की तरह भी न रखो; उसमें भी तुम सर्टिफिकेट मांगो; उसमें भी तुम पूछो कि योग्यता क्या है, पात्रता क्या है? लेकिन कोई आदमी घर छोड़ कर भाग गया, बस पर्याप्त है कि तुम उसके चरण छुओ; पर्याप्त है कि तुम आदर दो; पर्याप्त है कि उसके पैर धोओ और धोवन का पानी पीओ। यही आदमी तुम्हारे द्वार पर आ कर खड़ा हो जाए साधारण वस्त्रों में और कहे कि मुझे नौकरी की जरूरत है, तो तुम कहोगे: ‘आगे बढ़ो! ऐसे-गैरे-नत्थू खैरे को हम नौकर नहीं रख सकते! हम तुम्हें पहचानते तक नहीं, चोर-चपाटी बढ़ रही है दुनिया में, हर किसी को घर में रख लें, कल तुम कुछ लेकर भाग जाओ, फिर?’
 और यही आदमी संन्यास हो कर बैठ जाए, भभूत रमा ले धूनी जला ले और तुम पैर छूने को तैयार हो! तुम सब चढ़ा देने को तैयार हो! अजीब लोग हो। अजीब तुम्हारा गणित है। भगोड़ों को तुमने खूब तरकीब दे थी!
 मेरा संन्यास भगोड़ों का संन्यास नहीं है। भगोड़ापन कायरता का सबूत है। मेरा संन्यास कठिन है, क्योंकि भगोड़ों को एक फायदा है, सरलता है-न पत्नी है, न बच्चे हैं। तो स्वभावतः परिस्थितियां नहीं हैं, जिन परिस्थितियों मे क्रोध आए, जिन परिस्थितियों में चिताएं आएं। तो अगर तुम्हारा संन्यास मुफ्तखोर होकर बन कर बैठ जाता है और उसको चिंता नहीं आती, क्रोध नहीं आता, तो कोई आश्चर्य की बात है? तुमको भी अगर मु्फ्तखोरी मिले, तुमको भी चिंता नहीं आएगी। चिंता ही किसलिए आती है? चिंता तुमको आती है, क्योंकि कल धंधा चलेगा कि नहीं, कल कोई ग्राहक आएगा कि नहीं; आज दिन भर हो गया, कोई ग्राहक नहीं आया, कल रोटी कैसे मिलेगी! मगर संन्यासी की रोटी निश्चित है। कल भी रोटी मिलेगी। वह बुद्धू जो आज दे गए हैं, कल भी दे जाएंगे। उसका पक्का है इंतजाम। वह निश्चिंत रह सकता है। उसे कोई कमी होने वाली नहीं है। उसे क्रोध क्यों आए, उसका कोई अपमान नहीं करता। जिंदगी में जगह-जगह अपमान है, मगर संन्यासी का कोई अपमान करता है? उसका तो सभी सम्मान करते हैं। जब सभी सम्मान करते हैं तो उसे क्रोध क्यों आए? लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उसके भीतर से क्रोध समाप्त हो गया। इसका केवल इतना ही अर्थ है कि बारूद को तुमने आग से दूर कर लिया, और कुछ अर्थ नहीं है। एक चिनगारी पड़ जाए कि भभक उठे अभी आग।
 ले आओ वापिस संन्यासी को दुनिया में! इसलिए तो वह घबडा.ता है। संन्यासी घबड़ाता है। एकांत में छोड़ दो उसे किसी स्त्री के पास, पसीना-पसीना हो जाएगा। क्यों? इतनी क्या घबड़ाहट है? रोज तो समझाता था कि स्त्री के शरीर में है ही क्या, अरे यहा मांस-रक्त-मवाद, यही कफ-पित्त, है ही क्या स्त्री के शरीर में! और यही शरीर देख कर पसीना-पसीना हुआ जा रहा है। ये कफ-पित्त को देख कर पसीना-पसीना! ये मांस-मज्जा को देख कर ऐसे क्या घबड़ा रहे हो? और यह मांस मज्जा जरा पास आ जाए कि हाथ हाथ में ले ले, तो तुम्हारे प्राण क्यों निकले जा रहे हैं? तुम्हारी घिग्घी क्यों बंद हो गयी? मंत्र-तंत्र यब भूल क्यों गए एकदम? बस आग बारूद के पास आए, तब पता चलता है। इसी संन्यासी को अपमान करो, इसको किसी अपमानजनक स्थिति में खड़ा करो, तब पता चलेगा कि कितने दूर तक क्रोध मिटा है।
 मगर हमने संन्यासी को बिलकुल सुरक्षा दे दी। उसको हमने बिलकुल कवच दे दिया है। न कोई अपमान करता है उसका; अपमान की जगह सम्मान। न उसे हम ऐसी कोई परिस्थिति देते हैं, जिसमें काम-क्रोध को जगने का मौका हो। मगर इससे तुम इस भ्रांति में मत रहना कि उसका काम-क्रोध मिट जाता है; भीतर जल रहा है, प्रज्ज्वलित हो कर जल रहा है, जोर से जल रहा है, भयानक हो कर जल रहा है। कुछ बदला नहीं है, सिर्फ ऊपर-ऊपर मुखौटा लगाए बैठा है।
 मैंने संन्यास को पूरी कठिनाई दे दी है। मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हें घर में रहना है और कामवासना से मुक्त होना है। काम से ही गुजरकर कामवासना से मुक्त होना है। तुम्हें बाजार में रहना है और बाजार से मुक्त होना है। तुम्हें धन-संपत्ति के बीच रहना है और ऐसे रहना है जैसे कमल जल में और फिर भी जल उसे छुए न। रहो संसार में, लेकिन संसार तुम्हारे भीतर न हो। यह संन्यास की वास्तविक प्रक्रिया है। और इससे ज्यादा संन्यास कभी भी कठिन नहीं था।
 पुराना संन्यास दो कौड़ी का था, सस्ता था। मैंने उसे पूरी चुनौती दे दी है, क्योंकि मैं चाहता हूं: तुम जीवन के सघनपन में खड़े हो कर, युद्ध के स्थल पर खड़े हो कर, शांत हो जाओ, मौन हो जाओ, शून्य हो जाओ। और यह हो सकता है। और यह हो जाए तो ही समझना कि कुछ हुआ, क्योंकि फिर तुम्हें कोई चीज डिगा न सकेगी। जो आग में खड़ा हुआ शांत हुआ, समझ लो कि उसकी बारूद समाप्त हो गयी। आग से भाग कर शांत दिखाई पड़ता है, उसकी शांति धोखे की है परीक्षा कहां होगी?
 मेरे संन्यासी को प्रतिपल परीक्षा है।
 फिर मैं किसी चीज के विरोध में नहीं हूं। मेरी पूरी प्रक्रिया उल्टी है। मैं कहता हूं: जिस चीज से भी मुक्त होना है, उससे भाग कर नहीं, उसे छोड़ कर नहीं, उसे जी कर, उसके अनुभव से। जिस चीज से भी मुक्त होना है, वस्तुतः उसको त्यागना नहीं है, उसका रूपांतरण करना है। क्रोध ही रूपांतरित हो कर करूणा बनती है। जिसने क्रोध को दबा दिया, उसके जीवन में करूणा नहीं होगी। और काम ही रूपांतरित हो कर प्रेम बनता है। जिसने काम को दबा दिया, उसका जीवन प्रेम-शून्य हो जाएगा। और जहां ने प्रेम है, न करूणा है, न संगीत है, न काव्य है, न सौंदर्य है--उस संन्यास का क्या करोगे? उस कचरा संन्यास का क्या मूल्य है?
 संन्यास तो नृत्य है, जीवन का महारस है।
 विष्णु-सहस्र-नाम में भगवान के नामों में एक नाम है: ओम् महाभोगाय नमः! वह परमात्मा महाभोगरूप है। यह सबसे प्यारा नाम है। हजार नाम गिनाए हैं, लेकिन महाभोग मैं चुनता हूं कि श्रेष्ठतम नाम है। परमात्मा महाभोग है। त्याग नहीं, महाभोग!
 मेरा संन्यास त्यागी नहीं है, महाभोगी है। महाभोग साधारण भोग नहीं है। साधारण भोग तो दुख-भरा है; वहां क्रोध है, काम है, ईष्र्या है, मत्सर है। महाभोग आनंद है, महारस है! वहां सारी क्षुद्र चीजें रूपांतरित हो गयी हैं।
 जो भी तुम्हारे जीवन में अभी गलत लग रहा है, उसी में सही छिपा पड़ा है। कीचड़ में कमल दबे पड़े हैं। लेकिन कीचड़ से कमल को मुक्त करना सीखो। उसकी कला सीखो।
 अगर सच में ही तुम्हें ध्यान को, समाधि को उपलब्ध होना है, तो यह संन्यास भूमिका है। इस भूमिका के बिना कुछ भी होना संभव नहीं है।

 आज इतना ही।

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