तीसरा-प्रवचन-(अनुभूति और अभिव्यक्ति)
बंबई; 15 नवंबर, 1969जीवन में सभी कुछ बुद्धि के तल पर नहीं समझा जा सकता है, और ऐसा मैं मानता भी नहीं हूं कि सभी कुछ समझे जाने की कोशिश भी उचित है।
बुद्धि बहुत कुछ समझ सकती है। सीमाएं हैं बुद्धि की, और एक जगह आ जाती है, जहां आगे नहीं समझ पाती है। जहां सीमाएं आ जाती हैं वहां दो उपाय हैं, या तो हम वापस लौट जाएं, और या हम बुद्धि को छोड़ कर बुद्धि के ऊपर उठें।
निश्चित ही कम्युनिकेशन का जहां तक सवाल है, वह वहीं तक संभव है, जहां तक बुद्धि की बात है। उसके आगे बुद्धिगत, इंटेलेक्चुअल कम्युनिकेशन संभव नहीं है।
लेकिन रैपर्ट संभव है। रैपर्ट बड़ी और बात है। अगर हम सहानुभूति से किसी दूसरे व्यक्ति की ऐसी बातों को भी समझने के लिए आतुर हैं, खुले हैं, जो तर्क और बुद्धि में नहीं पकड़ में आती हैं, तो शायद उस सहानुभूति के क्षण में वे बातें भी कोई झलक ला सकती हैं, और किसी तल पर संवाद, कम्युनिकेशन हो सकता है। लेकिन उस तल पर हुए संवाद के लिए न कोई तर्क है, न तर्क का कोई अर्थ है।
अब जैसे, रात मैंने सपना देखा। मैंने सपना देखा है या नहीं देखा, आपके लिए तर्कगत समझाने के लिए मेरे पास कोई उपाय नहीं है। मैं कहता हूं, मैंने सपना देखा और आप पूछ सकते हैं कि हम कैसे मानें कि आपने सपना देखा। सपना देखने का भी सपना हो सकता है। सिर्फ आपका खयाल हो। आप वहम में हों। सुबह आपको लगता है कि आपने सपना देखा, आपने कभी न देखा हो! तो मेरे पास तर्कगत कोई उपाय नहीं है। मेरे सिर में दर्द हो, तो कोई रास्ता नहीं है कि मैं आपको समझा सकूं कि मेरे सिर में दर्द है। और दर्द है तो कैसा दर्द है! एक सहानुभूति तो समझ सकती है मेरी पीड़ा को, लेकिन फिर भी वह अनुमान ही है बाहर से। उस दर्द को समझाने का कोई बौद्धिक उपाय नहीं है।
मेरे एक शिक्षक थे...। एक मजाक मेरे खयाल में आता है। मेरे एक शिक्षक थे, वे वर्ष शुरू होता तो पहली बार विद्यार्थियों से यह कहते थे कि मैं सिर्फ बुखार को बीमारी मानता हूं। पेट दर्द और सिर दर्द को मैं बीमारी नहीं मानता। इसलिए पेट दर्द और सिर दर्द हो तो छुट्टी नहीं मिल सकेगी, उनको मैं बीमारी मानता ही नहीं। मैं सिर्फ बुखार को बीमारी मानता हूं। उसको मैं जांच सकता हूं। तुम्हारे सिर दर्द का मुझे कोई भरोसा नहीं, तुम्हारे पेट दर्द का मुझे कोई भरोसा नहीं। इसलिए अगर हो भी तो तुम जानो, लेकिन उनके लिए छुट्टी नहीं दे सकता हूं।
जब मैं पहली दफा उनकी कक्षा में गया, तो सच में मैं भी मुसीबत में पड़ा। मैंने उनसे कहाः आप कह क्या रहे हैं! उन्होंने कहा कि मैं मानता ही नहीं सिर दर्द। और अगर है तुम्हें, तो मुझे समझाना पड़ेगा और जब तक बौद्धिक रूप से मुझे न समझा दोगे, तब तक मैं छुट्टी देने को राजी नहीं। तब मैंने समझा कि बात कठिन ही है। नहीं समझाया जा सकता कि सिर दर्द है, लेकिन फिर भी सिर दर्द है। जो नहीं समझाया जा सकता, वह इसी कारण नहीं है, ऐसा मानने का कोई उपाय नहीं है।
जैसे कि मैंने कहा कि पिछले जन्म का अनुभव। पिछले जन्म का अनुभव समझाना बहुत मुश्किल है। एक ही रास्ता है समझाने का और वह रास्ता यह है कि जिस भांति मैं पिछले जन्म के अनुभव में गया हूं, उस विधि को आपको बताऊं और शायद आप भी सफल हो जाएं। और तो कोई उपाय नहीं है। जिस भांति मेरे सिर में दर्द हुआ है दीवाल से टकरा कर तो मैं आपसे कहूं कि आप भी दीवाल से टकरा लें, तो शायद दर्द हो जाए। फिर भी पक्का नहीं है। क्योंकि सभी सिर दीवाल से टकराएं तो भी दर्द हो जाए, यह भी पक्का नहीं है।
तो इतना ही कह सकता हूं कि पिछला जन्म है, ऐसी मेरी समझ है। और इसके लिए क्या दलील हो सकती है! इसके लिए एक ही दलील मेरे पास हो सकती है, वह यह कि जिस विधि से मैं पिछले जन्म में गया हूं, वह विधि आपको कहूं।
आपको लगे कि देखना है जाकर तो आप देख लें। जरूरी नहीं है कि मेरी विधि आपको काम कर जाए। और यह भी जरूरी नहीं है कि मेरी विधि से आपको जो अनुभव हो, वह आपको सत्य मालूम पड़े या सपना मालूम पड़े, यह भी जरूरी नहीं है। हो सकता है आपको लगे, यह भी एक सपना है, जो आंख पर आकर खुल गया!
एक महिला मेरे पास कुछ दिन तक प्रयोग कर रही थी। उसको बड़ी आतुरता थी, जो आपने पूछा है, वही उसने मुझसे पूछा था। वह कालेज में प्रोफेसर है। उसने मुझे पूछाः और सब बातें तो ठीक हैं, लेकिन कुछ बातें आप ऐसी कह देते हैं कि बात मुश्किल में पड़ जाती है। एक तरफ आप कहते हैं कि दूसरे पर विश्वास मत करो, दूसरी तरफ आप ऐसी बात कह देते हैं कि सिवाय विश्वास के उसमें कोई उपाय नहीं! तो मेरा उससे कहना था, कि न तो मैं यह कहता हूं कि विश्वास करो; न मैं यह कहता हूं कि अविश्वास करो। इतना भी मान सकते हैं कि कुछ बातें हैं, जो यह आदमी कह रहा है, जो कि तर्क के भीतर नहीं पकड़ में आती हैं। लेकिन सभी कुछ तर्क के भीतर पकड़ में नहीं आता। मैंने उससे कहा प्रयोग करके देखो पिछले जन्म के लिए।
उस महिला ने प्रयोग करना शुरू किया। वह छह महीने सच में निष्ठा से प्रयोग की। उस प्रयोग के कोई एक दिन, रात के दो बजे वह आई और इतनी घबड़ा गई थी, इतनी परेशान थी! उसने कहाः मुझे किसी भी तरह भूल जाना है, जो मुझे दिखाई पड़ा है उसे। क्योंकि उसे खयाल आया है कि वह पिछले जन्म में देवदासी थी किसी मंदिर में और वेश्या का काम करती थी। और जो उसे स्मरण आना शुरू हुआ, वह उसके आज के अहंकार को भी पीड़ाजनक और दुखदायी था। फिर वह मुझसे कहने लगी कि मैं यह भी चाहती हूं कि यह मुझे याद न आए, और फिर मुझे यह भी पक्का नहीं होता है कि यह सच है या यह सपना देख रही हूं!
यह भी पक्का नहीं हो सकता। इसका भी पक्का करना बहुत कठिन है कि सपना ही तो नहीं है। लेकिन सपने और अनुभव के सत्यों की जांच करने का भी निजी, सबजेक्टिव उपाय है। रात सपने में मैं खाना खा लेता हूं, तब मुझे पता नहीं चलता कि यह सपना है या सच है। सुबह जाग कर पता चलता है कि सपना था, क्योंकि पेट तो खाली रह गया है! रात सपने में भी सिर दर्द हो और दिन में जागने में सिर दर्द हो, तो सपने में पता लगाना मुश्किल है कि जो दर्द हो रहा है, वह सच में हो रहा है या सिर्फ कल्पना है। लेकिन जागने में पता चलता है, शायद कल्पना ही थी, क्योंकि जागने पर वह दर्द कहीं भी नहीं रह गया; नींद टूटते ही खो गया है।
पुनर्जन्म के जो स्मरण हैं, वे सपने नहीं हैं, क्योंकि दो कारण हैं। एक ही सपने में दुबारा प्रवेश असंभव है। आप एक ही सपने में दुबारा प्रवेश नहीं कर सकते। आप लाख उपाय करें तो उसी सपने को फिर ला नहीं सकते। आपके हाथ के बाहर है। वालेंटरी नहीं है। लेकिन पिछले जन्म की स्मृति मेंएक ही स्मृति में लाख दफे प्रवेश कर सकते हैं। वह ठीक वैसे ही वापस दोहरती है, जैसे पहली बार दोहरी थी। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है।
यह जो मैं पिछले जन्म की बात कह रहा हूं, उसमें कम्युनिकेशन संभव नहीं है, एक्सपेरिमेंटेशन संभव है। और जब मैं वह बात कर रहा हूं, तो सिर्फ इसलिए कर रहा हूं, ताकि शायद किन्हीं को खयाल आ जाए तो वे प्रयोग करें। मेरी इच्छा भी नहीं है कि मेरी बात आप मानें। संदिग्ध होना उचित है। और मैं तो यह भी कहता हूं कि आपको भी अनुभव हो जाए, तब भी एकदम से मान लें, वह भी उचित नहीं है। तब भी संदिग्ध होना उचित है। क्योंकि कुछ भी कहा नहीं जा सकता।
मन इतना अदभुत है और इतने धोखे पैदा कर लेता है कि कुछ भी कहना मुश्किल है। लेकिन यह भी एक धोखा हो जाएगा कि हम यह कह दें कि ऐसे कोई तथ्य होते ही नहीं, जो कम्युनिकेट नहीं किए जा सकते।
तो ऐसा मैं मानता हूं कि बहुत कुछ तो संवादित हो जाता है, बहुत कुछ संवाद के बाहर रह जाता है। और जब बहुत कुछ संवादित होता है, तब भी जो शब्द कहते हैं, वही संवादित नहीं होता बल्कि शब्दों के आस-पास बहुत कुछ संवादित हो जाता है, जो कि शब्द नहीं कहते हैं। और जब हम तर्क देते हैं और जब हम तर्क से कुछ चीज समझाने की कोशिश करते हैं, तब भी जरूरी नहीं है कि हम जो तर्क से सिद्ध करने जा रहे थे, वही संवादित हो। अक्सर तो यह होता है कि अगर सहानुभूति हो, और लोगों ने बात की है, डायलॉग किया है, चर्चा की है, तो बहुत कुछ परिधि में संवादित होता है।
मेरी दृष्टि में मुझे पिछला जन्म एक सत्य मालूम पड़ता है और ऐसी भी मेरी समझ है कि पिछले जन्म के अनुभव इस जन्म के अनुभवों को प्रभावित करते हैं।
असल में कल का अनुभव अगर कल था, तो आज को प्रभावित करेगा ही। यह भी हो सकता है कि मैं कल का अनुभव भूल गया होऊं, तब भी वह आज मुझे प्रभावित करेगा। स्मरण जरूरी नहीं है प्रभावित होने के लिए।
तो वह जो मैंने कहाः संभोग के अनुभव पिछले जन्मों से भी काम करते हैं। सारे गहरे अनुभव काम करते हैं। फिर जितने गहरे अनुभव हों, उतने ज्यादा काम करते हैं। और संभोग मेरी दृष्टि में पीक एक्सपीरिएंस में से है, गहरे से गहरे अनुभव में से है। अगर वह हुआ है अनुभव, तो वह जन्मों-जन्मों प्रभाव-रेखा छोड़ेगा।
लेकिन यह मेरी बात है। और आप बिलकुल ठीक कहते हैं कि यहां जाकर आपको लगा कि कम्युनिकेशन नहीं हुआ। नहीं होगा। क्योंकि मैं अपने अनुभव की बात कर रहा हूं। जो आपका अनुभव नहीं है। अनुभव कम्युनिकेशन के लिए जरूरी है।
प्रश्नः पर्सनली मैं बिलीफ करता हूं।
बिलीफ करने की भी बात नहीं है, पासिबिलिटी की बात ही काफी है। उतनी सहानुभूति संवाद के लिए पर्याप्त है कि हम एक दूसरे की संभावना को स्वीकार करके चलें कि ऐसा हो सकता है। इतना ही अगर है, तो संवाद हो जाएगा। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि आपने रिफ्यूट किया। रिफ्यूट आप नहीं कर रहे हैं। आप एक तथ्य ही कह रहे हैं। आपको वहां जाकर लगा कि यहां कोई बात हमारी पकड़ से छूट गई, जो हमारी पकड़ में नहीं आ रही है। हमारी पकड़ में भी वही आ पाता है, जो हमारा किसी तरह का समान अनुभव हो, नहीं तो पकड़ में नहीं आ पाता।
अब जैसे कि आप जो यह कह रहे हैं, उसी घटना को लेकर और लोगों ने भी मुझे लिखा कि हमें संभोग का अनुभव है, लेकिन टाइमलेसनेस का नहीं। उन्होंने मुझे लिखा है कि आप जो कहते हैं कि संभोग से कालरहितता आ जाती है, कालातीत मन हो जाता है, तो हमको संभोग का अनुभव है, लेकिन हमने तो कभी ऐसा क्षण अनुभव नहीं किया, जब समय मिट गया हो। समय तो पूरी तरह बना रहा। पिछले जन्म की बात ही छोड़ दें, उनको यहीं जाकर बात अटकाव की हो गई है। और ठीक भी है, उनका अटकाव भी ठीक है। क्योंकि बहुत से लोग, असल में संभोग के नाम पर जो करते हैं, वह संभोग है ही नहीं। एक तो संभोग का एक पाजिटिव अर्थ है, और एक निगेटिव अर्थ है।
एक तो संभोग है जो आपके किसी बोझ को उतार जाता है। कहीं आपको ले नहीं जाता, कहीं पहुंचाता नहीं; किसी गहराई में किसी अनुभव को नहीं लाता। हां, एक तनाव है, एक बोझ है, एक परेशानी है, उसको निकाल जाता है। एक फिजियोलॉजिकल अर्थ है, इससे ज्यादा अर्थ नहीं है। एक बेचैनी है शरीर के तल पर, वह उससे आपको मुक्त कर जाता है। अगर ऐसा ही संभोग का अनुभव हो, तो उसमें कालरहितता का अनुभव नहीं होगा। और तब फिर बात कम्युनिकेट नहीं होगी, क्योंकि इससे लगेगा कि टाइमलेसनेस जैसी कोई चीज मालूम नहीं पड़ती, न ईगोलेसनेस जैसी कोई चीज मालूम पड़ती है। तब इसका मतलब यह हुआ कि...मेरी तरफ से मतलब यह हुआ कि संभोग का अनुभव ही नहीं हुआ।
असल में वीर्य-स्खलन संभोग नहीं है। और उस स्खलन के कितने भी उपाय हम खोज लें, उससे संभोग का कोई सीधा संबंध नहीं है। संभोग तो एक मनोदशा है, दो व्यक्तियों के इतने तीव्र आतुर मिलन की अवस्था है, जहां कि उनकी सारी सीमाएं खो गई हैं, सारा व्यक्तित्व खो गया है। जहां कि उनका अपने होने का बोध जो है, वह भी चला गया। और किसी बड़े बोध में वे दोनों समाविष्ट हो गए हैं, बड़े वृत्त में समाविष्ट हो गए हैं। जिसमें दो इकाइयां नहीं हैं, अब एक ही इकाई है। ऐसी प्रतीति का अगर अनुभव हो सके, तो ही समयमुक्तता और अहंकारमुक्तता का अनुभव होगा।
लेकिन यह भी कम्युनिकेट नहीं हो पाएगा। और कम्युनिकेशन की कठिनाइयां तो बहुत ही हैं। सबसे बड़ी कठिनाई तो यह है कि जैसे ही हम शब्द में कहते हैं, वैसे ही जो कहना चाहते हैं, वह ठीक-ठीक उतर नहीं पाता। फिर जब हम सुनते हैं, तो जो हम सुनते हैं, वह वही नहीं होता है, जो कहा गया होता है। क्योंकि हम वही सुन सकते हैं जो हम सुन सकते हैं। बस, फासले पड़ने शुरू हो जाते हैं। अब यह बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि शब्द के अतिरिक्त कोई माध्यम नहीं है और शब्द से विकारग्रस्त कोई माध्यम नहीं है। कोई उपाय नहीं है। शब्द से ही कहना पड़ेगा और शब्द से कुछ भी नहीं कहा जा पाता है, तो अंधेरे में टटोलते रह जाते हैं।
कम्युनिकेशन बड़े से बड़ा प्रॉब्लम है। और दो आदमियों के बीच, दो व्यक्तियों के बीच, शायद प्रेम के क्षण में तो कोई चीज संवादित हो जाती है, बातचीत में संवादित नहीं हो पाती है। और जब हम बोल रहे हैं, तब उस क्षण में प्रेम की मनोदशा खोजनी बड़ी मुश्किल हो जाती है।
पर मेरा अपना खयाल यह है कि जब भी मैं बोल रहा हूं, तो किसी न किसी अर्थ में बोलना आक्रमण है। आपके ऊपर हमला कर रहा हूं और जाने-अनजाने आप डिफेंस की हालत में भीतर कुछ इंतजाम कर लेते हैं और सुरक्षा की तैयारी कर लेते हैं, तब बातचीत चलती रहती है। और उसमें बराबर एक संघर्ष बन जाता है बजाय संवाद के। और जहां संवाद की स्थिति होती है, जैसे प्रेम के क्षण में कि मैं किसी को प्रेम करता हूं और उसके पास बैठा हूं, जहां कि कोई आक्रमण नहीं है, कोई सुरक्षा का सवाल नहीं है, तो वहां शब्द खो जाते हैं, क्योंकि प्रेम इतना महत्वपूर्ण मालूम प.ड़ता है कि बोलने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जहां संवाद होता है, वहां बोलना खो जाता है। जहां बोलना होता है, वहां संवाद की संभावना कम हो जाती है। यह कठिनाई है। अब दो प्रेमी संवादित हो सकते हैं, लेकिन बोलते न रहें, चुप हो जाएं। तो दो जन बोलते हैं, बोलने की चेष्टा करते हैं, समझने की, सुनने की चेष्टा, समझाने की भी चेष्टा करते हैं, लेकिन पे्रमी नहीं होते।
हमारी पुरानी जो धारणा थी, वह मुझे मूल्यवान मालूम पड़ती है। गलत शब्द दे दिया था इसलिए वह गड़बड़ हो गई है। हम इस देश में मानते थे कि श्रद्धा के बिना समझना नहीं हो सकता। श्रद्धा शब्द जरा गलत हो गया, गलत यात्रा ले ली उसने। लेकिन श्रद्धा का मतलब मेरी दृष्टि में कुल इतना ही होता है कि ऐसे क्षण में जब कि हम बड़े प्रेम से भरे हुए हैं, जबकि समझने की आतुरता कम और प्रेम का भाव ज्यादा है, तब शायद संवाद हो सकता है। क्योंकि तब कोई आक्रामक नहीं है और कोई डिफेंस में नहीं है। लेकिन आप जब एक शब्द उपयोग करते हैं, तो बहुत बढ़िया है, आप कहते हैं इंटलेक्चुअल है। और इंटलेक्ट बहुत छुईमुई है, वह पूरे वक्त सजग है सुरक्षा के लिए। कोई हमला न हो जाए! और उसका काम भी यही है, होना जरूरी भी है। बुद्धि का मतलब यह है कि वह अपनी सुरक्षा करे सब तरफ से। तो वह बहुत सुरक्षा की तैयारी में है, फिकर है कि कोई हमला न हो। और सबसे बड़ा डर उसे यह है कि उससे विजातीय कोई विचार उसके भीतर न चला जाए। जो उसकी अब तक की मान्यता है, समझ है, एक लय है, एक हार्मनी है, उसमें एक विजातीय बात चली जाए भीतर तो उपद्रव खड़ा होगा, परेशानी होगी और किसी तरह का रास्ता खोज लेना पड़ेगा।
प्रश्नः बुद्ध होने की तैयारी बुद्धि के बिना कैसे होगी?
इसमें फर्क है। शब्द की बहुत गहराई में जाएं प्राचीन से प्राचीन, तो वही मतलब है, लेकिन बुद्ध होने में और बुद्धिमान होने में बड़ा फर्क है। बुद्ध से हम मतलब लेते हैं प्रबुद्ध होने का, एनलाइटंड होने का, जागे हुए होने का। बुद्धि से मतलब लेते हैं सोच-विचार का। और मजा यह है कि इन दोनों बातों में बड़ा विरोध है। जितना जागा हुआ आदमी होगा, उतना कम सोच-विचार करता है। जितना कम जागा हुआ आदमी होगा, उतना ज्यादा सोच-विचार करता है। असल में सोच-विचार सब्स्टिट्यूट है जागे होने का।
एक अंधा आदमी है, उसको इस कमरे के बाहर जाना है तो वह सोचता है, दरवाजा कहां है, रास्ता कहां है, पूछता है। उठने के पहले पच्चीस दफे सोचता है, कहीं टकरा न जाऊं। एक आंख वाला है, वह उठता है और निकल जाता है। वह सोचता ही नहीं कि दरवाजा कहां है। वह पूछता ही नहीं कि दरवाजा कहां है। वह जो अंधा आदमी है उसके लिए पूछना, सोचना, खोजना, सब करना पड़ता है। वह आंख न होने की वजह से ये सारे काम करने पड़ते हैं। आंख वाले आदमी से तो आप पूछिएगा कि दरवाजा कहां है, तब वह बताएगा। निकलते वक्त उसको पता ही है, वह दरवाजे से निकल जाएगा। वह निकल ही गया है और उसने न सोचा कि यह दरवाजा है, न फिकर की, न किसी से पूछा है। बस निकल गया है। निकल जाना इतना सहज हुआ है कि उसको कहीं सोच-विचार नहीं आया।
जिस अर्थ में ‘बुद्ध’ शब्द का प्रयोग करते हैं, वहां विचार नहीं है वह। वहां उसका मतलब है ऐसा व्यक्ति जो देख रहा है और निकल गया है देखने से। जहां हम ‘बुद्धि’ का उपयोग करते हैं, वहां बड़ी और बात है। वहां हम यह कह रहे हैं, जहां हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है, लेकिन हम सोच-सोच कर, टटोल-टटोल कर निकलने की कोशिश कर रहे हैं। जो देखने वाला कर सका है बिना सोचे-विचारे, वह हम सोच-विचार कर करने की कोशिश कर रहे हैं।
तो ऐसा हो सकता है, बुद्ध तो जाग कर बुद्ध होते हैं, उनके पीछे जो अनुयायी होता है, वह सोच-विचार से होता है। वह सब सोच-विचार कर तैयारी करता है। उसी ढंग का खाना खाता है। उसी ढंग के कप.ड़े पहनता है। वैसे ही चलता है, बैठता है, उठता है। वह पूछता है बुद्ध से कि कैसे उठते हो, कैसे बैठते हो, कैसे सोते हो! वह वैसा ही करता है। वह सब कर लेता है, फिर भी पाता है कि वह बात नहीं घटी। वह घट भी नहीं सकती, क्योंकि वह जो प्रबुद्ध होना है, वह बुद्धि का जोड़ नहीं है।
असल में प्रबुद्ध होना एक अर्थ में बुद्धि का पूरी तरह असफल होकर टूट जाना है। यानी वह उस क्षण में घटित होगा, जब बुद्धि ने असमर्थता पा ली है अपनी और खोज-बीन करके उस जगह आ गई है, जहां वह थक गई है और जहां उसने कहा है कि आगे हमारी कोई गति नहीं है और सब व्यर्थ हो गया है। कुछ खोजने को बचा नहीं; खोज सकते नहीं। सब टूट गया।
बुद्धि की जो परिपूर्ण असफलता है, वही प्रबुद्ध होने की पहली संभावना है। जहां सब सोच-विचार थक गया, और उसने कहाः नहीं कुछ होता है। जहां फिलासफी हार गई है, टूट गई है और गिर गई है, वहां रिलीजन शुरू, और वहां धर्म प्रारंभ होता है।
इसलिए शब्द से जो आप कहते हैं...ठीक ही कहते हैं कि बुद्ध और बुद्धि में एक ही शब्द प्रयोग हुए हैं, लेकिन अलग भाव से प्रयुक्त हुए हैं। बुद्ध को बुद्धिमान आदमी नहीं कह सकते। बुद्ध को प्रबुद्ध ही कह सकते हैं। ऐसा आदमी जो जाग गया, अब बुद्धि का जिसे सवाल ही नहीं रह गया।
तो वह जो मैं कह रहा था कि जब हम कहते हैं, इंटलेक्चुअल कम्युनिकेशन, तब और बड़ा मुश्किल हो जाता है मामला। मेरे खयाल से बौद्धिक-संवाद जैसी चीज तो असंभव है। असंभव ही है। इसलिए असंभव है कि बुद्धि का जो काम है, वह संवाद नहीं है। बुद्धि का जो काम है, वह विवाद है। यानी बुद्धि का जो मौलिक काम है, वह विवाद का है, संवाद का नहीं है। और इसलिए जहां हम संवाद में होते हैं, वहां अक्सर हम हृदय की बातें करने लगते हैं, बुद्धि की बात तत्काल छोड़ देते हैं। और उसका और कोई कारण नहीं है। हम किसी को प्रेम करते हैं, तो यह नहीं कहते हैं कि मैं बौद्धिक रूप से प्रेम करता हूं। उसका कोई मतलब ही नहीं होता‘बौद्धिक रूप से।’ तो मैं कहता हूं, उसमें बुद्धि का कुछ लेना-देना नहीं है, हृदय से प्रेम करता हूं। हृदय जैसी कोई चीज होती नहीं है कहीं शरीर में। हम कह रहे हैं कि यहां बुद्धि का कुछ लेना-देना नहीं है।
एक बहुत अच्छी घटना घटी है। मजनू को उसके गांव के राजा ने बुला लिया है और उससे कहा कि तू बिलकुल पागल हो गया है लैला के लिए। इतनी साधारण लड़की, इतना दीवाना क्यों है? कुछ तो सोच, कुछ तो समझ! तो मजनू ने कहाः अगर सोच-समझ ही सकता, तो जो आप कहते हैं, वही मैं भी कहता। वही तो तकलीफ हो गई कि सोच-समझ नहीं पा रहा हूं। उस राजा ने कहाः मैं और अच्छी लड़कियां बुला देता हूं। मेरे महल में लड़कियां हैं, तू उनको देख। एक से एक सुंदर लड़कियां हैं। उसने कहाः मैं सबको देखूंगा, लेकिन लैला मुझे दिखाई न पड़ेगी। क्योंकि जो उन लड़कियों को देखेगा, उससे मैंने लैला को नहीं देखा। जिससे मैंने लैला को देखा, उससे अब मैं किसी लड़की को देख नहीं सकता। उपाय ही नहीं है कोई। राजा ने कहाः तू बिलकुल मूढ़ है। उसने कहाः ऐसा ही कहें। अगर मूढ़ न होता, तो जो आप कहते हैं, वही मैं भी कहता। आप जो कहते हैं, बिलकुल ठीक कहते हैं। जहां तक बुद्धि की बात है, आप ठीक ही कहते हैं। मैं ही गलत हूं। लेकिन बुद्धि से मैंने प्रेम किया नहीं। और मैं पूछता हूं कि बुद्धि से कब प्रेम किया गया है? जवाब तो नहीं दे सका राजा। अब भी हम नहीं दे सकते जवाब कि बुद्धि से कब प्रेम किया गया है!
असल में, अगर हम ठीक से देखें, तो हमारी बुद्धि का भी सारा विकास जीवन के संघर्ष से पैदा हुआ है। एक इंस्टमेंट की तरह हमने जीवन के संघर्ष में उसका उपयोग किया है, जीवन की लड़ाई में उपयोग किया है। वह जो सर्वाइवल की जो लड़ाई चल रही है, उसमें बुद्धि ने हमें काम दिया है। शायद इसीलिए आदमी बच गया और जानवर हार गए।
जहां लड़ाई का संबंध है, वहां तो बुद्धि बड़ी उपयोगी होती है। और जहां प्रेम का संबंध है, वहां बुद्धि एकदम बेकार है। इसलिए परमात्मा से बुद्धि का नाता जोड़ना, सत्य से बुद्धि का नाता जोड़ना जरा कठिन है। लड़ाई करनी हो, हिंसा करनी हो, बम बनाना हो, तो बुद्धि का काम हो जाता है।
तो संवाद जो है, वह एक तरह की लड़ाई नहीं है, बल्कि लड़ाई से हट जाना है। और हम कहते हैं कि बौद्धिक-संवाद, तब कंट्राडिक्ट्री हैं वे दोनों शब्द। संवाद और बौद्धिक का कोई मतलब नहीं है।
लेकिन इसका मतलब नहीं है कि हम बुद्धि को खो दें, तब संवाद होगा। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि हम अबुद्धिमान हो जाएं, या हम मूढ़ होकर, अंधे होकर बैठ जाएं तो संवाद होगा।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
जो न कहा जा सकता हो, उसे न ही कहा जाए। लेकिन यह भी कहना हो गया। यू हैव असर्टेड इट। अगर मैं यह कहूं कि परमात्मा को नहीं कहा जा सकता, तो हमने काफी कह दिया। जो कहा जा सकता था, वह कह ही दिया!
हमारी कठिनाई यह है कि हमारे पास सिवाय भाषा के कोई उपाय नहीं है। यानी मामला ऐसा है कि मेरे हाथ में तलवार है और उसी से मुझे आपका आलिंगन करना है। यह बड़ी मुसीबत की बात है। आलिंगन करना है, और है तलवार हाथ में और कोई हाथ नहीं है मेरे पास। प्रेम करना है आपसे और गले मिलना है आपसे, तलवार ही मेरे पास है। यह तलवार की वजह से गला कटने का डर है, और तलवार के सिवाय मेरे पास कोई उपाय नहीं है।
आदमी की सारी तकलीफ यह है कि उसके पास कहने को शब्द हैं, बताने को तर्क हैं, उपयोग करने के लिए बुद्धि है। और ये तीनों के तीनों बिलकुल बेमानी हैं किसी अर्थ में। कुछ है, जहां ये सब बेमानी हैं। अब वह विटगिंस्टीन की सारी जिंदगी की तकलीफ यह है। और उसकी तकलीफ नहीं समझी जा सकी थी। नहीं समझी जा सकी, इसलिए कि वह तो एकाध ही दो वाक्य में कहा उसने। यह तो कभी वह कहता है कि जो न कहा जा सके, उस संबंध में चुप रहना उचित है। और फिर बाकी में तो वह सब भाषा का ही खंडन कर रहा है कि नहीं कहा जा सकता है। उसकी बड़ी किताबों में एकाध दो वाक्य ऐसे खो जाते हैं कि उनकी कोई फिकर ही नहीं है। लेकिन वही महत्वपूर्ण है। बाकी सब बेमानी है। जहां वह यह कह रहा है कि कुछ है, जो नहीं कहा जा सकता, लेकिन फिर भी कहने की इच्छा तो है, इशारा करने की इच्छा भी है। और उसे शब्द से ही कहना पड़ेगा। इसका रास्ता क्या निकले? रास्ता एक ही है कि हम शब्द का उपयोग करें और शब्द की निरर्थकता को जानते हुए उपयोग करें।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
असल में अगर हम ठीक से देखें, तो सारी कलाएं जैसे-जैसे सत्य को बताने की दिशा में आगे बढ़ी हैं, वैसे-वैसे सत्य को बताने में तो समर्थ न होंगी, जो कुछ बता पा रही थीं, उसको भी बताने में असमर्थ हो जाएंगी। वैसा ही हुआ है, हो रहा है। नई मूर्ति है, या नई पेंटिंग है, नई कविता है, या नया संगीत है। चेष्टा है इस बात की कि वह जो फार्म बाधा डालता है, वह जो आकार और आकृति, और वह जो मीडियम बाधा डालता है, उससे हम मुक्त होकर इतना ट्रांसपेरेंट हो सकें कि वह बाधा न डाले, बल्कि मार्ग बन जाए। लेकिन परिणाम क्या होता है? परिणाम यह होता है कि वह बाधा डालता था, अगर उससे हम मुक्त होने की कोशिश करते हैं, तो हम मुक्त तो हो जाते हैं, लेकिन तब वह ट्रांसपेरेंसी ही रह जाती है। उससे कुछ आगे आरपार कुछ दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि वह जो दिखाई पड़ता था, वह आकार ही था।
मैं इस तरह के शब्दों का उपयोग कर सकता हूं, जो बाधा न डालें। मगर वे शब्द सब अर्थहीन होंगे। ‘ओम’ जैसे शब्द होंगे वे। या ‘कोकाकोला’ जैसे शब्द होंगे, जिसका कोई मतलब नहीं होगा। अब जैसे ‘ओम’ है। अब इसका कोई मतलब नहीं है। यह हमने बहुत पहले इसका प्रयोग किया है, इसीलिए कि अर्थहीन है। इसका उपयोग करो, क्योंकि जितने अर्थवान शब्द हैं, सब उपयोग करके झंझट में डाल देते हैं, और फिर भी झंझट नहीं सुलझती। अब यह ओम है, इसका उच्चारण कर दो, इसका कोई अर्थ नहीं। इससे कुछ इंगित नहीं होता। और इससे हम यह इंगित कर रहे हैं कि कुछ है, जो शब्द के बाहर है, उसके लिए हमने यह शब्द चुना। ओम से क्या फर्क पड़ता है, कितने ही ओम कहें, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। उसका भी इंगित कहीं नहीं हो पाता।
प्रश्नः लेकिन मंत्र-शास्त्री आपकी व्याख्या को मान्य नहीं करेंगे?
वह मंत्र-शास्त्री से बात करनी चाहिए। मैं तो यहां यह कह रहा हूं कि नई कलाएं इस तरह के उपयोग कर रही हैं जो एब्सर्ड हैं। इस तरह की मूर्तियां बन रही हैं, जिनको आप किसी की मूर्ति नहीं कह सकते। अगर आदमियत की मूर्ति बनानी है तो ऐसी बनानी पड़ेगी, जिसमें किसी का चेहरा न आए, क्योंकि किसी का भी आ जाएगा, तो वह किसी का हो जाएगा, आदमी का नहीं रह जाएगा। अब आदमियत की अगर मूर्ति बनानी हो, तो उसमें मेरा चेहरा नहीं होना चाहिए, उसमें आपका चेहरा नहीं होना चाहिए, उसमें किसी का चेहरा नहीं होना चाहिए। उसमें कोई पर्टिकुलर चेहरा हुआ, तो वह आदमी का हो जाएगा, आदमियत का न रह जाएगा। तब हम एक ऐसी मूर्ति बनाएं, जिसमें किसी का चेहरा न हो। बन जाएगी ऐसी मूर्ति। लेकिन हम सोचते थे, वह आदमियत की बन जाएगी। वह एक आदमी की भी न रह जाएगी। जो मैं कह रहा हूं, कि आदमियत की तो बनेगी नहीं वह, वह जो एक आदमी की बन सकती थी, वह भी नहीं बनेगी अब। वह वहां से भी विदा हो जाएगी। वह फेसलेस हो जाएगी। आदमियत की बनाने में सिर्फ चेहरा खो जाएगा। और ऐसा ही हुआ है। इसलिए नई कला के सारे के सारे प्रयोग फेसलेसनेस की तरह हैं, सब चेहरे खो गए हैं वहां से। और तब हमारी समझ के बाहर हो गया है। जो कुछ लोग कहते हैं कि हमारी समझ में आ रहा है, वह या तो फैशन की वजह से कहते हैं, या वे इस वजह से कहते हैं कि नहीं तो बुद्धिहीन मालूम पड़ेंगे। बाकी नई कला के सारे आयाम, सारे डाइमेंशन ऐसे हैं कि वे आपको समझ में नहीं आ रहे हैं। न आना चाहिए। कोशिश यह है कि समझ में आ गए, तो अर्थ पकड़ में आ गया। और अर्थ अगर पकड़ में आ गया, तो आकार पकड़ में आ गया। तो फार्म हो गया, बात खत्म हो गई।
नहीं। समझ में नहीं आ रहा है, यही तो सारी चेष्टा है कि समझ में आपके न आ जाए। लेकिन समझ में आने वाले शब्द से भी नहीं बता पाते थे, न समझ में आने वाले शब्द से क्या बता पाएंगे? यानी मैं यह कह रहा हूं कि जब समझ में आने वाला शब्द ही नहीं बता पाया, तो समझ में न आने वाला शब्द भी न बता पाएगा।
इसका मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब यह है कि यदि हमें बुद्धि की पूरी की पूरी असमर्थता का बोध हो जाए, उसमें जरा भी आशा न रह जाए...। होपिंग अगेंस्ट होप चल रही है बहुत दिनों से। तो वह चलती जाती है। कुछ लोग छिटक जाते हैं रास्ते के किनारे और वे कह देते हैं कि होपलेस हो गया मामला, उनकी बात अलग है। लेकिन आमतौर से हम आशा बांधे चले जाते हैं कि कोई रास्ता खोज लेंगे। अगर कालिदास नहीं खोज पाए, तो इजरा खोज लेंगे। अगर हमारे मूर्तिकार पुराने नहीं खोज पाए तो पिकासो खोज लेगा। हम इस कोशिश में लगे हैं कि कोई न कोई रास्ता खोज लेंगे कि जो न कहे जाने जैसा है, वह कह देंगे।
मैं यह कह रहा हूं कि जिस दिन किसी व्यक्ति को यह समझ में आ जाता है कि यह मामला ऐज सच एब्सर्ड है, यानी यह सवाल नहीं है कि हम और किसी तरकीब से कह देंगे। सवाल यह है कि कहा ही नहीं जा सकता। यह सवाल नहीं है कि हम कोई और अच्छा शब्द खोज लेंगे; अच्छी आकृति, अच्छी कविता, अच्छी पेंटिंगयह सवाल नहीं है। जो है वह कहे जाने योग्य ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि आज तक नहीं कहा गया, आगे कहा जा सकेगा। नहीं, कहा ही नहीं जा सकता। वह जो रियलिटी जिसको आप कह रहे हैं, वह कही नहीं जा सकती। उसका मतलब यह है कि वह सिर्फ जानी जा सकती है। और तब जानने और कहने के फर्क के फासले को समझ लेना उपयोगी होगा।
वह जो नहीं कहा जा सकता, वह भी जाना जा सकता है। हमारी क्या तकलीफ है? हम इस कोशिश में लगे हैं कि जो जाना जा सकता है, वह कहा भी जाना चाहिए। जैसे बुद्ध कहते हैं कि मैंने जाना निर्वाण। तो हम यह पूछते हैं कि ‘कहो, क्या है निर्वाण!’ एक आदमी कहता है, हमने ईश्वर को जाना। तो हम पूछतेे हैं, ‘बोलो फिर, क्या है ईश्वर?’ अगर वह नहीं बोल पाता, तो हम हंसते हैं। हम कहते हैं, ‘फिर जाना ही नहीं होगा। क्योंकि अगर जाना है, तो बोलो। और अगर नहीं बोल सकते हो, तो स्वीकार कर लो कि नहीं जाना है। क्योंकि जो जाना गया है, वह बोला क्यों नहीं जा सकता है!’
यह बात जरूर सच है कि एक मानवीय जरूरत हैएक बुनियादी जरूरत है कि जो हमने जाना है, वह हम कहना चाहते हैं। क्योंकि जो हमने जाना, हम उसमें दूसरों को साझीदार बनाना चाहते हैं, भागीदार बनाना चाहते हैं। अगर मैं घर के पीछे गया और मैंने वहां एक फूल खिला देखा, जिससे मैं नाचने लगा और आनंदित हो गया, तो मैं लौट कर घर के मित्रों को कह देना चाहता हूं कि पीछे फूल खिला है और बहुत आनंदित हूं। यानी आनंद का एक हिस्सा बांटना भी है। आनंद का ही।
दुख का एक हिस्सा न बांटना भी है। अगर मैं दुखी हूं, तो मैं दरवाजा बंद करके कमरे के एक कोने में बैठ जाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं, कोई न आए। दुख सिकोड़ देता है। और अगर मैं आनंदित हुआ हूं, तो मैं बांट देना चाहता हूं, फैल जाना चाहता हूं, और दस लोगों को खबर देना चाहता हूं।
यह बिलकुल स्वाभाविक है कि जो आदमी जाने, वह उसे कहने जाए। वह उसकी एक बेसिक जरूरत है, लेकिन हमारी सब जरूरतें जरूरी नहीं हैं कि पूरी हों। हमारी बुनियादी जरूरतें भी पूरी हों, यह भी जरूरी नहीं है।
हम जानते हैं और हम कहना भी चाहते हैं और कहने की कोशिश में हम सिंबल्स भी खोजतेे हैं, क्योंकि बिना उसके तो कोई उपाय नहीं है कहने का। हम सिंबल्स खोजते हैं। सिंबल्स या प्रतीक जो हैं, वे हमारी चेष्टा हैं बताने की, जो हमने जाना। लेकिन हमारी चेष्टा सफल नहीं हो पाती। कला असफल है, काव्य असफल है, मूर्ति असफल है, सब असफल है। और जितना बड़ा मूर्तिकार होगा, उतनी असफलता अनुभव करेगा। और जितना बड़ा कवि होगा, उतनी असफलता अनुभव करेगा। और जितना बड़ा संत होगा, उतनी असफलता अनुभव करेगा। छोटा होगा, तो उतनी असफलता अनुभव नहीं करेगा।
अगर उधार अनुभव को दोहराना है, तो बराबर शब्द कह सकते हैं। लेकिन आपका कोई अनुभव हुआ है, तो आप पहली दफे पाएंगे कि कोई शब्द ही नहीं है, क्योंकि वह अनुभव आपका है। और आप पहली दफा हुए हैं जमीन पर और कोई शब्द नहीं है, क्योंकि आप जैसा अनुभव किसी को कभी नहीं हुआ है। हां, अगर कोई उधार अनुभव हुआ है, अगर स्त्री के चेहरे में आपको भी चांद दिखा है, तो कालिदास से लेकर सब उसको कहते रहे हैं चांद। आप भी एक कविता बना सकते हैं, जिसमें स्त्री के चेहरे में चांद दिख जाए। लेकिन यह अनुभव बहुत उधार और बासा और सेकेंड हैंड है। हजार हाथ से गुजरा हुआ अनुभव है। और आप कह पाते हैं और दूसरा भी समझ पाता है। क्योंकि वह सबका अनुभव है।
लेकिन जितना अनुभव निजी होता जाएगा...। जितना गहरा होगा, उतना निजी होगा। और परमात्मा का अनुभव चूंकि आत्यंतिक चरम अनुभव है, उससे गहरा कोई अनुभव नहीं है, वह नितांत निजी है। वह पहली दफा आपको ही हो रहा है। आपको जैसा हुआ, वैसा पहले कभी किसी को नहीं हुआ। उस गहराई में आप कोई शब्द नहीं पाते और कोई सिंबल नहीं पाते; बनाने की कोशिश करते हैं। जब आप बनाने की कोशिश करते हैं, तभी उपदव शुरू होता है। क्योंकि आप कहते हैं, समझा कुछ जाता है। आप बताते कुछ हैं, सुना कुछ जाता है। और तब एक उपद्रव शुरू हो जाता है, जो हजारों साल तक चलता है।
जैसे कृष्ण की गीता है। अब टीका चल रही है उसकी। इसका मतलब यह है कि जो उन्होंने कहा था, वह अभी तक नहीं समझा गया। नहीं तो टीका की अब कोई जरूरत नहीं है। एक हजार टीकाएं लिखी जा चुकी हैं और अभी टीकाएं लिखे जा रहे हैं लोग! यानी मामला यह है कि वह आदमी जो बेचारा बोला था वह अभी तक उपद्रव में पड़ा है कि वह क्या बोला था। उस पर टीका चल रही है कि वह यह बोला था। वह यह बोला था। गांधी कहते हैं, यह बोला। तिलक कहते हैं, यह बोला। शंकर यह कहते हैं। विनोबा यह कहते हैं। हजारों लोग बता रहे हैं कि वह क्या बोला। और मजा यह है कि जब वही बोला और हम न समझ पाए, तो विनोबा या तिलक या गांधी के कहने से हम क्या समझेंगे? अब उन पर टीकाएं चलेंगी। फिर तिलक बोले, उसका क्या मतलब है? और इसका कोई अंत नहीं है। यह बिलकुल इनफिनिट रिग्रेशन है। इसका कोई अंत नहीं कि इसका हम कहां अंत कहें!
फिर भी शब्द से ज्यादा गहराई में दूसरे सिंबल्स पहुंचते हैं। ऐसा हो सकता है कि मैं शब्द में आपसे एक बात न कह पाऊं, लेकिन उठूं आपको गले से लगा लूं और कोई बात कह दूं। क्योंकि शरीर जो है, स्पर्श जो है, वह शब्द से बहुत पुराना है। शब्द तो बहुत बाद की चीज है। और मेरे शब्द और आपके शब्द अलग हो सकते हैं, लेकिन मेरे शरीर का स्पर्श अलग नहीं हो सकता है। यह हो सकता है कि जो मैं शब्द में न कह सकूं, उठाऊं एक तंबूरा और नाचने लगूं। और यह कहना चाहूं कि मैं बहुत खुश हूं और न कह पाऊं। क्योंकि आप पूछें, ‘खुशी यानी क्या? खुशी कैसी है आपको?’ तो मैं नाचूं और शायद मेरे नाचने से खुशी की झलक मिल जाए। लेकिन फिर भी ये सिंबल्स ही हैं। फिर भी वह नहीं कह पाता हूं, जो मैं कहना चाह रहा हूं। नाच कर जब मैं थक जाऊंगा, आपकी तरफ देखूंगा और आपकी ताली सुनूंगा। तो मैं समझूंगा कि आप कुछ समझे। मेरे व्यायाम का थोड़ा सा फल हुआ। लेकिन जो मैं कहना चाहता था, वह नहीं पहुंचा। मैं शायद उदास चला जाऊंगा। वह नहीं पहुंचाया जा सका, वह जो कहना था।
नाच से भी, कला से भी, चित्र से भी कुछ कहने की कोशिश की गई है। सब तरफ कोशिश की गई है। मैं यह कह रहा हूं कि सिंबल्स से कहने की कोशिश की गई है, लेकिन सिंबल असफल हो गए हैं, यह हमें अब तक पूरा बोध नहीं हो पाया, और सब सिंबल असफल हो गए हैं और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सिर्फ असफल ये सिंबल हो गए हैं। मैं कहता हूं, सिंबल ऐज सच, असफल होने को बाध्य हैं। उसका कारण यह है कि सिंबल रियलिटी तो नहीं है, कुुछ और है।
मैंने एक सूरज को उगते देखा सुबह और मैं आनंद से भर गया। फिर मैंने एक चित्र बनाया, रेखाएं खींचीं, एक सूरज बनाया, एक पेंटिंग बना कर लाकर आपको दिखाई और आपसे कहा कि बड़ा ही आनंद आया। आपने देखा, आपने कहा, हां ठीक है। और रख दी। क्योंकि आखिर रेखाएं रेखाएं हैं, सूरज नहीं है। और रंग रंग हैं, सूरज के रंग नहीं हैं। और मैंने कितनी ही कोशिश की तब भी एक छोटे से कागज पर जो खींच लाया हूं, वह हजार मील दूर की ध्वनि है। क्योंकि वह बात नहीं है, जो वहां थी।
कितना ही सफल हो जाए सिंबल, वह रियलिटी तो नहीं बनता है, वह सूरज नहीं बन जाएगा। यानी सिंबल इसलिए असफल होने को बाध्य है कि मेरी पेंटिंग कभी भी सूरज नहीं बन पाएगी, वह सूरज नहीं बन सकती। हां, लेकिन एक खतरा है सिंबल के साथ और वह खतरा यह है कि हो सकता है कि आप कभी घर के बाहर ही न निकलें, क्योंकि आप समझें कि पेंटिंग घर में लटकी है, तो सूरज घर में लटका है! बाहर जाने की जरूरत क्या है? तो घर में तो सूरज लटका हुआ है और आप उसी पेंटिंग से उलझे रह जाएं और सूरज को कभी न जान पाएं।
सिंबल ने अब तक तो कम्युनिकेट किया नहीं, लेकिन हिंड्रेंस डाली है। गीता पकड़े बैठा है, क्योंकि सूरज घर का, किताब वाला सूरज है। अपने घर बैठा है। कुरान पकड़े बैठा है! कोई महावीर को, कोई बुद्ध को पकड़े बैठा है। ये सब लोग सिंबल थे, क्योंकि महावीर हमारे लिए क्या हैंसिर्फ सिंबल। जो बोले, वही रह गया है हमारे पास। कृष्ण हमारे लिए क्या हैं, वे जो बोले उसके सिवाय? अगर कृष्ण का बोला हुआ खो जाए तो कृष्ण खो जाएं। न मालूम कितने कृष्ण खो गए, जो कि नहीं बोले। या बोले और फिर नहीं पकड़ा जा सका इसलिए खो गए।
सिंबल पकड़ा जाता है, यानी जिन्होंने कोशिश की थी, उन्होंने तो चाहा था कि इस प्रतीक के द्वारा आपको तो कुछ कह देंगे और कठिनाई ऐसी हो गई कि अगर आज वे जिंदा होकर वापस लौट सकें, तो पहला काम यह करें कि आपसे गीता कैसे छुड़ा लें। अगर कृष्ण लौट सकें, तो पहला काम यह करेंगे कि गीता को इकट्ठा करके आग कैसे लगा दें। क्योंकि सोचा तो था कि कुछ कह देंगे। कुछ कह तो न पाए, और ये लोग जा सकते थे खुद भी खोजने, वह भी ये नहीं गए, क्योंकि इन्होंने समझा कि हमें गीता उपलब्ध हो गई है, किताब हमारे पास है!
कला असफल हो गई है, दर्शन असफल हो गया है, शास्त्र असफल हो गए हैं, गुरु असफल हो गए हैं और असफलता का कारण यह है कि सत्य को प्रतीक कभी बनाया ही नहीं जा सकता। सत्य सत्य है और आपको जानना है, तो आपको आमने-सामने खड़ा होना पड़ेगा, बीच में प्रतीक लेने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन कम्युनिकेशन में प्रतीक आ जाता है, इसलिए कम्युनिकेशन और रियलाइजेशन अलग-अलग बातें हैं। बस, कम्युनिकेशन एक काम भर अगर कर दे, जो मेरी समझ है...।
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि मैं क्यों मेहनत कर रहा हूं, जब मैं मानता हूं कि अल्टिमेटली एब्सर्ड है? बोल कर कुछ कहा नहीं जा सकता, तो मैं फिर क्यों बोलता हूं? तो मेरा कुल कहना इतना है कि बोलने से केवल इतनी हालत पैदा की जा सकती है कि आपको एक दिन लगे कि एब्सर्ड है, बेकार है। कुछ न हुआ। न बोलने से कुछ हुआ, न सुनने से कुछ हुआ। इतने निगेटिव अर्थ में ही कम्युनिकेशन का उपयोग है कि हम सिर खपाते रहें, खपाते रहें; आपका भी सिर पक जाए, मेरा भी पक जाए और मैं कहूं कि बकवास बंद। आप कहें, अब चुप हो जाइए, अब मुझे कुछ नहीं सुनना है। एक घड़ी ऐसी आ जाए कि आप घबड़ा जाएं और आप कहें, कि नहीं जाना जा सकता, तो शायद आप घर के बाहर निकल जाएं, पेंटिंग को यहीं छोड़ दें। वहां सूरज है, यहां सूरज है नहीं कोई, हमारे संवाद न करने और करने का कोई सवाल नहीं है।
रवींदनाथ के जीवन में एक बड़ा अच्छा उल्लेख है। वे रात एक किताब पढ़ रहे हैं। सौंदर्य पर एक किताब पढ़ रहे हैं। रात दो बज गए हैं। और पढ़ते-पढ़ते थक गए हैं। क्रोध से किताब पटक दी है; दीया बुझा दिया है और फिर खड़े होकर नाचने लगे हैं। क्योंकि जब तक वे किताब पढ़ रहे थे, उनको पता ही न था कि बाहर पूर्णिमा की रात है। और जैसे ही किताब रख दी है और दीया बुझाया है, चांद की सब किरणें भीतर भर गई हैं बजरे के अंदर। जहां नाव पर वे थे और चांद बाहर था, पर दीया भीतर जल रहा था। फिर चांदनी भीतर हो गई, तो वे नाचने लग गए हैं और उन्होंने कहा कि मैं भी कैसा पागल था, आधी रात गंवा दी। किताब पढ़ता था जानने को कि सौंदर्य क्या है और सौंदर्य बाहर खड़ा ही था! और वह पूरे वक्त दरवाजे पर ठोकर दे रहा था कि तुम दीया बुझाओ, तुम किताब बंद करो, तो मैं आ जाऊं!
लेकिन अब मुझे मिलने का उपाय नहीं, अगर मैं रवींद्रनाथ को मिल सका, मिल सकता तो उनसे कहता कि हो सकता था, सांझ आप सो गए होते और चांद फिर भी बाहर खड़ा रहता। आधी रात किताब पढ़ने में कम से कम एक हालत पैदा की, एक विपरीत हालत पैदा की कि सब बेकार है, इससे कुछ समझ में नहीं आता। किताब पटक सके आप तो ही चांद देख सके। किताब तो नहीं बता सकी सौंदर्य क्या है? लेकिन किताब को पटकना एक स्थिति है मन की, जिसके बिना हो सकता था, सौंदर्य न जाना जा सकता।
मैं यह कह रहा हूं कि दर्शन का एक ही उपयोग है, फिलासफी का कि इतना आप परेशान हो जाएं कि एक दिन किताब पटक सकें। उस फ्रस्टेशन की हालत में, उस थकी-मांदी सर्वहारा दशा में जब कोई मार्ग नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई आशा नहीं, तब शायद आप उसको देख लें, जो है। वह तो है ही। उसका कोई सवाल नहीं है। अगर मेरे कम्युनिकेट करने पर उसका होना निर्भर होता, तो कोई खतरा था। लेकिन मेरे संवादित करने पर और उसके होने में कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह है ही। खतरा तब है, जब कि हम ऐसा समझ कर चलें कि संवाद हो जाएगा।
संवाद एक अर्थ में असंभव है। बौद्धिक संवाद तो असंभव है। यानी वह असंभावना ही है, असंभावना का ही नाम है। फिर क्या और कोई संवाद हो सकता है? और कोई संवाद नहीं है, और क्या संवाद करिएगा?
हम चुप बैठ सकते हैं, लेकिन जब हम चुप बैठेंगे तो मेरे और आपके बीच बात नहीं होगी। जब हम चुप बैठेंगे, तो मेरी भी जो रियलिटी है, उससे बात होगी और आपकी भी रियलिटी से बात होगी। अगर इसको मैं ऐसा कहूं जो है, वे हमें एक दूसरे की तरफ अभिमुख कर देते हैं। मौन जो है, वह हमें सत्याभिमुख कर देता है। जब हम बातचीत करते होते हैं, तब मैं आपकी तरफ देखता हूं, आप मेरी तरफ देखते हैं और सत्य यहां खड़ा हुआ देखता रहता है कि दोनों आपस में उलझे हुए हैं। जब शब्द बीच से खो जाते हैं, तब न मैं आपकी तरफ देखता, न आप मेरी तरफ देखते हैं और मजबूरी में, जो है, उसको हमें देखना पड़ता है। एक घड़ी आनी चाहिए जिंदगी में जब शब्द व्यर्थ हो जाएं। मगर यह आएगी भी नहीं, जब तक शब्द के साथ श्रम न चले, व्यायाम न चले।
प्रश्नः हमारे गुरु कहते हैं कि सत्य का स्वभाव सच्चिदानंद है। विवेकानंद जी ने भी ऐसा ही कहा है। क्या सत्य की व्याख्या यह नहीं है?
नहीं, सत्य की कोई परिभाषा नहीं हो सकती है। यह हमारी आकांक्षाओं की परिभाषा है। हमारी आकांक्षा है कि सत्य ऐसा हो। सच्चिदानंद हो। सत भी हो, चित भी हो, आनंद भी हो। यह हमारी आकांक्षा है। यह आदमी की आकांक्षा है कि सत दुख न हो, नहीं तो मर गए। यहां संसार दुख है और सत्य भी दुख है, मोक्ष भी दुख है, तो हम कहां जाएंगे? तो मोक्ष ऐसा हो, जहां दुख बिलकुल न हो। मोक्ष ऐसा हो, जहां कि अज्ञान बिलकुल न हो, ज्ञान ही ज्ञान हो। मोक्ष ऐसा हो जहां अंधेरा बिलकुल न हो, प्रकाश ही प्रकाश हो।
तो सच्चिदानंद जो है, सत्य की परिभाषा नहीं है। यह हमारी आकांक्षा है। और हमारी आकांक्षा हमें बड़ी प्रीतिकर लगती है। इसलिए जिस शास्त्र में यह लिखी हो, उस शास्त्र को हम बड़ा प्रेम करेंगे, और अगर विवेकानंद कहेंगे, तो वे भी बड़े गुरु हो जाएंगे। इसका कुल कारण इतना है कि हमारी आकांक्षाओं को तृप्ति मिले। अगर कोई गुरु आए और कहे कि सत्य बड़ा दुखद है और एकदम अंधकारपूर्ण है, और अज्ञान ही अज्ञान है, तो आप कहेंगे कि आपकी क्या जरूरत है? आप यहां किसलिए हैं? हम तो काफी अज्ञान वैसे ही झेल रहे हैं, काफी दुख झेल रहे हैं, और मोक्ष में भी यही होगा, तो फिर तो कोई उपाय न रहा! हमारी आकांक्षाएं हैं ऐसी कि आत्मा अमर हो, कभी न मरें हम। सुख ही सुख हो, दुख न हो। लेकिन सत्य की यह परिभाषा नहीं है।
मेरी तो अपनी समझ यह है कि जहां आनंद होगा, वहां दुख के भी बड़े नये आयाम होंगे, होने भी चाहिए। अभी जिस दुख को हम जानते हैं, वह बड़ा छिछला है। जिस सुख को जानते हैं, वह भी बड़ा छिछला है। असल में, इनकी मात्रा बराबर होती है। जिस दिन आनंद इतना गहरा होगा कि रोआं-रोआं कंप जाए, इस भूल में मत पड़ना कि उस दिन दुख भी इतना गहरा नहीं होगा। उस दिन दुख भी इतना ही गहरा होगा कि रोआं-रोआं कंप जाएगा। हमारी संवेदनशीलता बराबर बढ़ती है।
एक आदमी को अगर सौंदर्य का बहुत बोध है, तो उसको कुरूपता का भी उतना ही बोध हो जाता है। यह असंभव है कि एक आदमी को सौंदर्य का ही सिर्फ बोध हो और कुरूपता का बोध न हो। यह तो असंभव है, यह तो एक साथ बढ़ेगा। एक साथ ही अगर एक आदमी को स्वच्छ रहने का बड़ा आनंद है, तो उसे अस्वच्छ होने की पीड़ा बढ़ जाएगी उसी मात्रा में। लेकिन हमारी आकांक्षाएं चाहती हैं कि ऐसी दुनिया हो, जहां अंधेरा न हो और रोशनी ही रोशनी हो। हालांकि, भगवान हमारी आकांक्षाएं पूरी नहीं करता, नहीं तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ जाएं। और रोशनी ही रोशनी हो, तो रोशनी बहुत घबड़ाने वाली हो जाए। रोशनी में भी, सुबह जो हमें सुख मालूम पड़ता है, उस सुख को पाने का अर्जन भी रात के अंधेरे में ही हमने किया है। और सुबह जब किसी के प्रेम में आनंद आता है, तो वह कल किसी की घृणा में झेले गए दुख का भी उसमें हाथ है। यह अकेला नहीं है।
सत्य तो इतना बड़ा है कि उसमें दुख भी होगा और आनंद भी होगा और प्रकाश भी होगा। और उसमें परमात्मा भी होगा और शैतान भी होगा। सत्य तो टोटेलिटी से होगा, पूरे को घेरेगा। उसमें अमरता भी होगी, तो उसमें मृत्यु भी होगी, उसमें पूर्ण मृत्यु भी होगी। सत्य तो सब घेर लेगा, जो है। और हम जो हैं, पूरे को नहीं देखना चाहते हैं क्योंकि हम खुद ही घबड़ाते हैं कि पूरा न दिखाई पड़े। क्योंकि पूरा दिखाई पड़ने का बड़ा और ही मतलब होगा।
अभी मैं बात कर रहा था, कोई आया, तो मैंने उससे कहा कि आ जाओ। किसी ने पूछाः आप दोनों बातें एक साथ कह रहे हैं, आजाओ। आओ भी और जाओ भी! तो मैंने उनको कहा कि जिंदगी में दोनों साथ ही हैं। जहां आना है, वहां जाना जुड़ा हुआ है। आने का मतलब ही है, जाने की शुरुआत। और जवान होने का मतलब है बूढ़ा होना। और जन्म लेने का मतलब है मरने की तैयारी।
पूरे सत्य को अगर हम देखने जाएंगे, तो उसमें सब है अपनी पूर्णता में, लेकिन हमारी न तो हिम्मत है कि उतनी पूर्णता को देख सकें। हम तो काट कर च्वाइस करेंगे। तो वे जो परिभाषाएं हैं, वे तो हमारे चुनाव हैं, हमारी आकांक्षाएं हैं। अब ऋषि कहता है, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। इसमें ऋषि भगवान के खिलाफ बड़ी शिकायत कर रहा है। वह यह कह रहा है, अंधकार क्यों है? प्रकाश ही चाहिए। वह यह कह रहा है कि तुमने बड़ी भूल की जो अंधकार दिया; सिर्फ प्रकाश चाहिए। मुझे तो प्रकाश की तरफ ले चल।
सत्य तो अंधकार भी है और प्रकाश भी; वह जीवन भी है, मृत्यु भी। जब हम ऐसा देखेंगेये दोनों, जो हमें विरोधी लगते हैं, जब हमें एक ही चीज के छोर दिखाई पड़ेंगे, तभी हम जान पाएंगे कि क्या है। और जब हम ऐसे विरोध को एक साथ जान पाएंगे, तो हमारे चित्त के सब खंड विदा हो जाएंगे, तब हमारी कोई आकांक्षा न रह जाएगी, क्योंकि आकांक्षा का फिर कोई मतलब नहीं है। फिर अंधेरा होगा, तो हम जानेंगे कि प्रकाश के आने की तैयारी है। प्रकाश होगा, तो यह अंधेरे की तैयारी है। और दुख होगा तो जानेंगे, आस-पास कहीं सुख है। और सुख होगा, तो हम जानेंगे कि तैयार रहो, दुख आता है। दुख के लिए हमारी तैयारी होगी। हम जानेंगे कि यह हमारा जीवन है। लेकिन अभिलाषाएं सुख देती हैं बहुत। और धर्म के नाम पर तो बहुत कुछ हमारी मनोकांक्षाएं हैं, इच्छाएं हैं जो चलती हैं। जो दुखी हैं, पीड़ित हैं।
बट्र्रेंड रसेल ने एक बहुत बढ़िया बात कही है। उसने कहा है कि अगर दुनिया सच में सुखी हो जाए, तो धर्म-गुरुओं का क्या होगा? क्योंकि दुखी लोग सुख की तलाश में निलकते हैं, अगर सच में दुनिया सुखी हो जाए तो कौन...? कभी आपने खयाल किया कि जब आप किसी क्षण में आनंद में होते हैं, तो क्यों नहीं उठताकि दुनिया क्यों है; मैं क्यों पैदा हुआ; यह भगवान ने क्यों बनाया यह सब; नरक है कि स्वर्ग है, कि नहीं। कुछ ‘क्यों’ नहीं उठता। जब आप आनंद में होते हैं, तो सब स्वीकार होता है। जो है, वह है! उसके होने में कहीं भी जरा, कोई जरा सा प्रश्न भी नहीं लगता। लेकिन जब आप दुख में होते हैं, तब सब प्रश्न उठने शुरू हो जाते हैं। और जब प्रश्न उठने शुरू हो जाते हैं, तो उत्तर चाहिए। तो जो उत्तर हमारे मन के अनुकूल होते हैं, उनके हम धर्म बना लेते हैं।
सच्चे उत्तर का धर्म नहीं बन पाता, मनोनुकूल उत्तर का धर्म बन जाता है। और सच्चा उत्तर जरूरी नहीं कि मनोनुकूल हो। कोई आवश्यक नहीं है कि आपके मन के अनुकूल सत्य चलता हो! हां, सत्य के अनुकूल आप चाहें तो चल सकते हैं। सत्य में कोई बंधन आपके अनुकूल चलने का नहीं है। लेकिन मनोनुकूल उत्तर धर्म बन जाता है। तो उत्तर हमारे मन को भा जाता है और लगता है कि हां! हमारी तृप्ति कर दी, हमारा प्रश्न इससे हल होता है।
मैं नहीं कहता कि इन बातों में कुछ सार है। और विवेकानंद की बात आपको अच्छी लगती है, वह इसलिए नहीं कि सच है, वह इसलिए कि आपके मन के अनुकूल है। अनुकूल है तो अच्छी लगती है, अनुकूल नहीं है तो अच्छी नहीं लगती है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
बस, उससे उलटी हमने वहां कल्पना कर ली है। लेकिन हमारी कल्पनाओं से कुछ हल नहीं होता। और हम कितना ही चाहें, सुख सुख को ही वरण कर लें और दुख को इनकार कर दें...। हम यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि सुख को वरण करने में ही दुख वरण हुआ जा रहा है। वह ऐसे है, जैसे एक सिक्का है और उसका एक पहलू फेंक देना चाहता हूं और एक पहलू बचा लेना चाहता हूं। अब मैं पागल हो जाऊंगा, क्योंकि मैंने एक ऐसा काम शुरू किया है, जो पूरा हो नहीं सकता। एक हिस्सा फेंक देना चाहता हूं एक सिक्के का, और एक हिस्सा बचा लेना चाहता हूं। ज्यादा से ज्यादा इतना ही हो सकता है कि जिस हिस्से को मैं बचाना चाहता हूं उसे ऊपर कर लूं, और जिसे फेंक देना चाहता हूं उसे नीचे कर लूं। इससे ज्यादा कोई सफलता नहीं मिल सकती है। लेकिन कितनी देर ऊपर-नीचे करूंगा। जिसको मैंने ऊपर किया है उससे थोड़ी देर में ऊब जाऊंगा, क्योंकि कब तक उसे देखता रहूंगा!
और बड़े मजे की बात है कि दुख कभी उतना उबाने वाला नहीं होता है, जितना सुख उबाने वाला होता है। असल में दुखी आदमी कभी बोर ही नहीं होता है, सिर्फ सुखी आदमी बोर होता है। बोर्डम जो है, वह सुखी आदमी का गुण-धर्म है। इसलिए आप हैरान होंगे कि जितना समाज दुखी होता है, उतनी आत्महत्या कम होती है, लोग कम परेशान नजर आते हैं, कम चिंताएं घेरती हैं। क्योंकि दुखी आदमी को बोर होने की फुर्सत नहीं है, वह काम में लगा हुआ है, बदलने में लगा हुआ है कि सिक्के को उलटा कर ले, लेकिन जब सिक्का उल्टा हो जाएगा, फिर क्या करेगा? एक दफा दुख को नीचे दबा दिया और सुख को ऊपर कर लिया, फिर क्या करिएगा? और अब अगर सिक्के को उल्टाया तो नीचे दुख है। तो जैसे ही एक आदमी सुखी हुआ कि मुसीबत शुरू हुई।
देवताओं की दुनिया में अगर कोई दुख होगा, तो बोर्डम का होगा। मोक्ष में भी अगर कोई दुख होगा, तो बोर्डम का होगा। और बोर्डम इतनी होती होगीमैं नहीं समझता कि मोक्ष में कोई एक भी बचा होगा, सब भाग गए होंगेउनकी बोर्डम की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। क्योंकि जहां सुख बिलकुल उपलब्ध हो, वहां करिएगा क्या? वह तो दुख से लड़ने में रस है। सुख मिलता नहीं, उसके पाने की आकांक्षा में सारा मजा है। और जब मिल जाता है, तब थोड़ी देर बाद हम पाते हैं कि अब क्या करें? तब आप हैरान होंगे कि सुखी आदमी अपने हाथ से दुख भी खोजने लगता है। वह ऐसी तरकीबें करता है, जिसके साथ दुख आए।
मैं, एक फकीर हुआ है नसरुद्दीन, उसकी कहानी कहता रहता हूं। वह एक गांव के बाहर बैठा हुआ है। सांझ का वक्त है, अंधेरी रात है और एक आदमी आकर घोड़े से उतरा है। और उस आदमी ने उस नसरुद्दीन के सामने एक बहुत बड़ी थैली पटक दी है और कहा है कि इसमें करोड़ों रुपयों के हीरे-जवाहरात हैं और इसे मैं किसी को भी देने को तैयार हूं, मुझे जरा-सा सुख मिल जाए। और मैं गांव-गांव खोज रहा हूं, मुझे सुख नहीं मिलता। मैं परेशान हो गया कि मैं मर जाऊं कि क्या करूं। सब है मेरे पास, सुख नहीं है। किसी ने मुझसे कहा कि एक फकीर है नसरुद्दीन, उसके पास चले जाओ। तुम्हीं हो? मैं तुम्हारे पास आया हूं। फकीर खड़ा हो गया, उसने कहा कि मैं नहीं हूं। उसने कहाः तुझे सुख चाहिए? उस आदमी ने कहाः सुख चाहिए, सब खोने को तैयार हूं। मुझे एक क्षण भर के लिए भी सुख मिल जाए।
उस फकीर ने इतनी बातचीत की और थैली लेकर भागा। वह आदमी चिल्लाया कि यह क्या कर रहे हो? मैं तो सोचता था कि तुम ब्रह्मज्ञानी हो! लेकिन जब वह नहीं रुका, तो वह आदमी उसके पीछे भागा। गांव फकीर का तो जाना-माना था। वह गली-कूचे में चक्कर देने लगा। सारा गांव इकट्ठा हो गया। और वह चिल्ला रहा है कि मुझे लूट लिया, मैं मर गया, मेरी जिंदगी खराब हो गई। मेरी जिंदगी भर की कमाई है उस थैले में। और यह आदमी चोर निकला, यह ब्रह्मज्ञानी नहीं है। इसे पक.ड़ो और मुझे बचाओ, मैं मरा!
वह सारे गांव में चक्कर लगा कर फकीर वापस अपनी जगह आ गया और थैली पटक कर झाड़ के पास खड़ा हो गया। वह अमीर आदमी आया, उसने थैली छाती से लगाई और कहाः हे भगवान, धन्यवाद! उस फकीर ने कहाः कुछ सुख मिला? यह भी एक रास्ता है सुख पाने का, उस फकीर ने कहा। और तुम्हारे लिए यही रास्ता बचा है। तुम्हारे लिए दूसरा रास्ता नहीं है। अब तुम क्या करोगे?
हम जो चाहते हैं कि सुख ही सुख बच जाए, वह संभव नहीं है। अगर बच भी गया, तो सुख भी दुख देने लगेगा। तब मैं कहता हूं कि जो जीवन को उसकी सचाई में देखता है, आकांक्षाओं में नहीं...। दो रास्ते हैं, एक तो मैं आकांक्षाओं से जीवन को देखने जाऊं। जब मैं कहता हूं, सुख ही सुख चाहिए, तब मैं जीवन की फिकर नहीं कर रहा। मैं यह कह रहा हूं कि मुझे चाहिए। लेकिन मैं यह नहीं पूछता कि जीवन को मेरी फिकर है कुछ? मैं नहीं था और जीवन था। और मैं नहीं रहूंगा और जीवन रहेगा और रत्तीभर कहीं कोई पत्ता नहीं हिलेगा, कहीं कोई लहर नहीं कंपेगी, कहीं कुछ नहीं होगा। मेरे होने न होने से जीवन को क्या फिकर है! जीवन की अपनी धार है। मैं इधर दो क्षण को हूं तो मैं कहता हूं, ऐसा चाहिए, ऐसा चाहिए, ऐसा चाहिए। जब मैं यह देखता हूं कि मैं नहीं था और सब था, और मैं नहीं रहूंगा और सब होगातब उचित है कि मैं देखूं कि क्या है, बजाय इसके कि मैं कहूं कि क्या होना चाहिए।
तो जब मैं देखूंगा कि क्या है, तो मुझे पता चलेगा कि दुख और सुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और जब दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं, तो किसको बचाना और किसको छोड़ना? तब मैं राजी हूंसुख आए तो सुख के लिए, दुख आए तो दुख के लिए।
और यह जो राजी होना है, यह जो एक्सेप्टेबिलिटी है, यह एक ऐसे आनंद में उतार देती है, जिसका हमें कुछ भी पता नहीं। वह आनंद दुख-विरोधी नहीं है। वह आनंद दुख में भी रहेगा। वह आनंद सुख का पर्यायवाची नहीं है, क्योंकि सुख चला जाएगा, तब वह रहेगा। और इसलिए उसको आनंद कहने से भी था.ेड़ी भूल हो जाती है।
तो बुद्ध ने ‘आनंद’ का उपयोग नहीं किया, ‘शांति’ का उपयोग किया। आनंद शब्द छोड़ दिया। क्योंकि आनंद में कहीं न कहीं सुख का खयाल है। हम कितना ही उसको बचाने की कोशिश करें, आनंद में कहीं न कहीं सुख का भाव है। एक शांत मन रह जाता है; सुख है। और वह तभी रह सकता है, जब दोनों एक से स्वीकारे गए हों, क्योंकि दोनों हैं। स्वीकार करने की हमें चेष्टा नहीं करनी है। ‘अस्वीकार करने का कोई अर्थ ही नहीं है’, यह हमें दिखाई पड़ जाए, तो बात खत्म हो गई।
लेकिन हम आकांक्षाएं आरोपित कर रहे हैं, इसलिए हमने इस तरह के धर्म खड़े कर लिए हैं, गुरु भी खड़े कर लिए हैं जो हमारी आकांक्षाओं की तृप्ति के रास्ते बता रहे हैं। वे हमसे कहते हैं, हम परम आनंद में पहुंचा देंगे। हम पहुंचने की कोशिश करते हैं। हम कभी पूछते भी नहीं कि परम आनंद में होने की आकांक्षा ही दुखी आदमी का लक्षण है। और दुखी आदमी कैसे परम आनंदित हो सकता है मंत्र पढ़ने से? तो इतना ही फर्क है दुखी और परम आनंदित आदमी में? एक मंत्र पढ़ता है, एक मंत्र नहीं पढ़ता है? इतनी सस्ती तरकीब काम कर जाएगी और परम आनंद मिल जाएगा? कि हम सोचते हैं कि परम आनंद मिल जाएगा उपवास करने से, कि रात खाना न खाने से? कि सिगरेट न पीने से, कि चाय न पीने से परम आनंद मिल जाएगा? अगर इतना ही फासला है तो दुखी और परम आनंदित आदमी में बहुत फर्क नहीं है। सिगरेट, पान इत्यादि का फर्क है! बहुत ही मिडियाकर फर्क है। ऐसा कमजोर फर्क है कि कोई हिम्मत का आदमी जाना नहीं चाहेगा। इतना सस्ता सा फर्क मोक्ष में और पृथ्वी पर! कि मोक्ष में लोग सिगरेट नहीं पीते, चाय नहीं पीते और सिनेमा नहीं देखते! इतना ही अगर फर्क है तो कौन मोक्ष जाना चाहे! तो उसमें कोई मतलब नहीं रह गया है, उसमें कोई बात नहीं।
फर्क कुछ ज्यादा रैडिकल होना चाहिए। यह कोई फर्क ही न हुआ। फर्क का मतलब ही यह है कि हम जहां हैं, उसमें हमारी दो तरह की जिंदगी हो सकती हैआकांक्षाओं को आरोपित करने वाली और यथार्थ को स्वीकार कर लेने वाली। ये दो तरह की जिंदगियां हैं। आकांक्षाओं को आरोपित करने वाला आदमी है, और यथार्थ को स्वीकार कर लेने वाला आदमी है।
आकांक्षाओं को आरोपित करने वाला चाहे कुछ भी करे, दुख में रहेगा। ऐसा नहीं है कि जो आकांक्षाओं को आरोपित नहीं करता, उसको दुख नहीं आएंगे। दुख उसको भी आएंगे, लेकिन वह दुख में नहीं रहेगा।
प्रश्नः मगर आकांक्षा है, यह भी रियलाइज तो करना पड़ेगा न?
आकांक्षा है ही। हम क्या कर रहे हैं? हम उनको नहीं देख रहे हैं; उनके अनुकूल जगत को देखने की कोशिश में लगे हैं। हम उनको भी देख लें, तो वे भी यथार्थ के हिस्से हैं। आकांक्षाएं भी तो रियलिटी का हिस्सा हैं। वे तो यथार्थ हैं, कि हममें हैं। और मुझमें इच्छा है कि मैं अमर रहूं। यह मुझे जानना चाहिए। लेकिन बजाय इसको जानने के, मैं वह शास्त्र पकड़ लूंगा, जिसमें लिखा है कि हां, अमर रहना पक्का है; और जो हमारे पक्ष में हैं, वे अमर रह जाएंगे, जो हमारे पक्ष में नहीं हैं, वे मर जाएंगे।
प्रश्नः मनुष्य आनंदित क्यों नहीं है?
क्योंकि मनुष्य दुखी है। जो मैं कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं कि आदमी दुखी है, क्योंकि सुख खोजना चाहता है। और चूंकि सुख खोजता ही रहेगा और कभी यह न देखेगा कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इसलिए कितना ही सुख खोजे, दुखी रहेगा और सुख खोजता रहेगा। जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं कि एब्सर्डिटी उसको दिखाई नहीं पड़ रही है कि सुख की खोज में यह एक बुनियादी भूल हो गई है। वह भूल यह हो रही है कि वह दुख को अस्वीकार करके सुख को खोज रहा है, जब कि सुख दुख का ही हिस्सा है। यानी मैं जन्म खोज रहा हूं और मरना नहीं चाहता। जवानी खोज रहा हूं और बूढ़ा नहीं होना चाहता! तो बड़ी मुश्किल बात है। जवान होना चाह रहा हूं, तो बूढ़ा होना उसका हिस्सा ही होगा। वह उतरती हुई जवानी का नाम है। पूर आ गया, तो उतरेगा ही।
सुबह हो गई, तो सांझ भी होगी। अब सुबह तो मैं खोज रहा हूं और सांझ से बचना चाहता हूं। और जब मैंने सुबह खोजी, तभी मैंने सांझ का इंतजाम कर दिया कि सांझ होगी। अगर मैं सिर्फ सुबह को ही खोजूं, तो फिर शाम को दुख होगा। और रातभर फिर सुबह की खोज करूंगा। फिर सुबह आएगी और फिर सांझ की तैयारी शुरू होगी, मैं फिर दुखी होऊंगा। और मजा यह है कि न तो आपकी खोज से सुबह आ रही है, न सांझ हो रही है। सुबह अपने आप आ रही है, सांझ अपने आप आ रही है। आपकी जो परेशानी है, वह यह है कि एक से आप राग लगा रहे हैं कि बस यही रह जाए, और एक को आप कह रहे हैं, यह न हो। और उनको दोनों को आपसे मतलब नहीं है। आप हों या नहीं हों, वे होते रहेंगे।
जिंदगी में सुख और दुख घूम रहे हैं। सब घूम रहा है। आप जब उसमें चुनाव करने लगते हैं कि हम यह चुन कर रहेंगे, तभी आपने तकलीफ शुरू कर दी, वह दुख का रास्ता हो गया। जब दुखी होंगे, तब और जोर से सुख खोजेंगे, और जितने जोर से सुख खोजेंगे, उतने जोर से दुखी होंगे। तब एक वीसियस सर्किल है, जिससे बचाव मुश्किल हो जाएगा। इसको देखना पड़ेगा।
हमारी तकलीफ है कि अगर हम पूछते भी हैं कि हम दुखी क्यों हैं, तो हम कुछ कारण खोज लेना चाहते हैं दुख के कि हमने कोई बुरा काम किया होगा इसलिए दुखी हैं। हमने कुछ पाप किया होगा इसलिए दुखी हैं। दूसरा आदमी सुखी है, उसने कुछ पुण्य किया होगा, फलां किया होगा।
सुखी और दुखी होना पुण्य और पाप से संबंधित नहीं है। सुखी और दुखी होना हमारी आकांक्षाओं के आरोपण से संबंधित है। कितने जो ऐसे आरोपित करने की आकांक्षा में लगे हैं, लेकिन किसी दिन डिसइलूजनमेंट आता है। पता चलता है, कुछ आरोपण से नहीं होता है। सुबह आती है और जाती है। सांझ आती है और आती है। बात खत्म हो गई।
तब भी सुबह आएगी, कुछ ऐसा नहीं कि नहीं आएगी। तब भी सांझ आएगी, लेकिन दंश चला जाएगा। तकलीफ चली जाएगी, पीड़ा चली जाएगी। और तब जिसने सुबह ठीक से जी ली है, कोई कारण नहीं कि सांझ को ठीक से क्यों न जी ले? यानी मामला यह है कि ठीक से जिसने सुबह को पूरी तरह जी लिया है, वह तो खुद ही दोपहर होते-होते कहेगा, अब सांझ हो जाए। जो आदमी ठीक से जवान रह लिया है, बुढ़ापे की आकांक्षा उसके भीतर आ जाएगी। जब वह बूढ़ा हो जाएगा, जो आदमी ठीक से जी लिया है, वह मरना भी चाहेगा।
नीत्शे ने एक बहुत अच्छी बात कही है। नीत्शे ने कहा है कि जब फल पक जाता है, तो गिरना चाहता है। राइपनेस इ.ज ऑल। एक दफा पक भर जाए। और जब पक जाता है, तो गिरना ही चाहता है। सिर्फ कच्चे फल घबड़ाते हैं। पक जाता है, तो गिरना ही चाहता है। सिर्फ कच्चे फल घबड़ाते हैं कि कहीं गिर न जाएं, कि कहीं गिर न जाएं! और चूंकि हम जिंदगीभर कच्चे रह जाते हैं, इसलिए मरने से डरते हैं। अब इस तरह चक्कर पर चक्कर पैदा होते चले जाते हैं कि मरने से डरते हैं तो उस सिद्धांत को पकड़ते हैं, जो कहते हैं कि मरोगे नहीं। न मैं यह कह रहा हूं कि मर जाएंगे आप, न मैं यह कह रहा हूं कि नहीं मरोगे। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि हम अपनी आकांक्षाएं आरोपित न करके, जो है, उसे जानने की फिकर करें, तो बात पूरी हो जाती है। नहीं तो नहीं पूरी होती है।
प्रश्नः व्यक्ति के तल पर तो यह ठीक है कि हम स्वीकार कर लेंगे। लेकिन समाज के तल पर गरीबी है, बीमारी है, दुख है, शोषण है, उस सबको भी स्वीकार कर लें?
यह बहुत बढ़िया बात है। मैं इधर जितना सोचता हूं, बहुत अजीब अनुभव करता हूं। पहली बात तो यह है कि यह कंट्राडिक्ट्री दिखाई पड़ेगा, लेकिन ऐसा है। जो व्यक्ति स्वयं के तल पर सुख-दुख स्वीकार नहीं करता, वह समाज के तल पर सब बीमारियों को स्वीकार करने वाला होता है। जैसे हमारा मुल्क है। हमने व्यक्ति के तल पर सुख-दुख कभी स्वीकार नहीं किए, हम मोक्ष की खोज निरंतर कर रहे हैं, जहां सुख-दुख से छुटकारा हो जाए, आवागमन से छुटकारा हो जाए। लेकिन समाज के तल पर हमने सब स्वीकार कर लिया है। अगर यह बात भी दिखाई पड़े, तो इससे उलटा भी सत्य है कि जो व्यक्ति स्वयं के तल पर सब स्वीकार कर लेगा, वह समाज के तल पर कुछ भी स्वीकार नहीं करेगा। जो स्वयं के तल पर सब स्वीकार कर लेगा, वही क्रांतिकारी हो सकता है।
जो स्वयं के तल पर सब स्वीकार कर लेगा, वही क्रांतिकारी हो सकता है। क्योंकि क्रांति का सुख तो किसी और को मिलेगा, क्रांति का सुख क्रांतिकारी को तो मिलता नहीं! तो क्रांति सिर्फ वही कर सकता है, जो दुख को स्वीकार कर सकता है। जब एक व्यक्ति सब तरह के दुख-सुख को जैसा है, वैसा स्वीकार कर लेता है, तो चेष्टा नहीं करनी पड़ती है उसे कि वह समाज के तल पर अस्वीकार करे। न, उस व्यक्ति का सहज वर्तन यह हो जाता है कि समाज के तल पर वह स्वीकार नहीं कर सकता है। यानी मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह स्वीकार नहीं करेगा, या कि स्वीकार नहीं करना चाहिए। न, ऐसा वर्तन होता है।
जो व्यक्ति स्वयं के तल पर टोटल एक्सेप्टेबिलिटी में जीता है, वह समाज के तल पर रिजेक्शन में जीता है। जो अपने तल पर कहता है, मैं यह दुख में नहीं रहूंगा, यह नहीं करूंगा, वह समाज के तल पर सब स्वीकार कर लेता है। उसके कारण हैं।
जो व्यक्ति व्यक्ति के लिए सब कुछ करने की चिंताओं में रत रहता है, उसके लिए समाज का बोध ही पैदा नहीं होता है। यानी समाज की जो धारणा है, कांशसनेस है, वह उसको पैदा होती है जो व्यक्ति के तल पर निपट गया, यानी अब इधर कुछ करने का मामला बचा नहीं। बात खत्म हो गई। इधर मैंने मान लिया कि जो है, है। तब मैं क्या करूंगा? आखिर मैं कुछ तो करूंगा! व्यक्ति के तल पर तो करने से मुक्त हो गए। तो वह जो सृजन की, निर्माण की, विध्वंस की ऊर्जा जो भी है मेरे पास, वह जाएगी कहां? वह अब कहीं सक्रिय हो जाएगी।
व्यक्ति के केंद्र पर जहां ऊर्जा का काम समाप्त हो गया, वहां वह समाज के चारों तरफ फैल कर काम में लग जाती है। ऐसा नहीं है कि वह मन लगाता है, यह मैं नहीं कह रहा हूं। इट हैपन्स। वह लग जाती है।
और अगर सारी ऊर्जा इसी में लगी हुई है कि मेरा अगला जन्म शुद्ध कैसे रहे और मैं स्वर्ग कैसे जाऊं, मैं पुण्य कैसे करूं और पाप से कैसे बचूं, और यह खाऊं, यह पीयूं कि न पीयूं, अगर सारी चेतना यहां उलझी, तो समाज की तो धारणा ही नहीं पैदा होगी। हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे अलावा भी कोई है।
इसलिए जो कौम, जो व्यक्ति, जो समाज ऐसा व्यक्तिवादी होगा, वह तो यहां तक कहेगा, न तुम्हारी कोई पत्नी है, न तुम्हारी कोई मां है, न तुम्हारा कोई पिता है, न कोई भाई है, न कोई बेटा है। यह सब भ्रम है। हो तो तुम्हीं सिर्फ सत्य। बाकी सब भ्रम है। सब माया है।
इससे तुम बचो। और इसके चक्कर में न पड़ जाना। न कोई मौत में साथ देंगे, न कोई पुण्य में साथ देंगे, न कोई पाप में साथ देंगे। तुम अकेले हो निपट। अपनी फिकर करो। सारी फिकर अपनी करना। इसकी फिकर मत करना कि औरत अगर भूखी मर रही है तो मर रही है, वह अपने पिछले जन्मों का पाप-फल भोग रही है। तुम्हारा क्या लेना-देना है? तुम्हारा बच्चा जब सड़क पर भीख मांग रहा होगा, तो मांग रहा होगा। भीख उसको मांगनी पड़ेगी। यह उसका कर्मफल है। तुम अपनी फिकर करो।
यह जो व्यक्तिवादी दृष्टि थी, अगर कोई सब स्वीकार कर ले, तो व्यक्ति रह ही नहीं जाता। अगर गौर करें, तो वह जो इगो है व्यक्ति की, वह पैदा होती रहती है रेसिस्टेंस से। वह जितना मैं लड़ता हूं कि यह नहीं चाहिए, यह नहीं चाहिए, यह नहीं चाहिए, इसी संघर्ष से मेरा ‘मैं’ पैदा होता है कि मैं हूं। च्वाइस ‘मैं’ पैदा करती है। च्वाइसलेस इगो नहीं हो सकती। फिर कोई बचने का उपाय नहीं रह जाता।
मैं हूं का क्या मतलब है? सुबह सूरज निकलता है, सांझ सूरज ढलता है, मैं कहा हूं! मैं कहता हूं कि सुबह ही होनी चाहिए। और आठ घंटे, दस घंटे सूरज को ढलने में तो लगेंगे। आठ-दस घंटे मैं अपने ‘मैं’ को मजबूत करूंगा कि अभी तक सूरज नहीं ढलने दिया, अभी तक सूरज को रोके हुए हूं! अभी तक सुबह है! जब ढल जाएगा तब सोचूंगा। जरूर पिछले जन्म का कोई कर्म बाधा डाल दिया। और सूरज अपने आप ढल रहा है और अपने आप डूब रहा है! मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। इधर मेरी इगो मजबूत होती चली जाएगी। लेकिन जब मैंने मान लिया कि ऐसा हो रहा है, तब अचानक मेरी सारी ऊर्जा और सारी शक्ति चारों तरफ फैल कर काम करने में लग जाती है। यानी मेरी दृष्टि में, क्रांतिकारी पैदा होता है सर्व स्वीकार से। उलटा लगता है, क्योंकि क्रांतिकारी निषेध करता है।
और जिंदगी के दो हिस्से हैं, वह जिसको हम विधेय और निषेध, निगेटिव और पाजिटिव कहें। अगर मैं अपने तईं पाजिटिव हूं, तो समाज की तरफ निगेटिव रहूंगा, क्योंकि वह दूसरा हिस्सा है मेरा। अगर मैं अपनी तरफ निगेटिव हो गया, तो समाज की तरफ पाजिटिव हो जाऊंगा; वह मेरा दूसरा हिस्सा है। कहीं एक हिस्सा रहेगा। अब कहां रखने की बात है। अगर समाज को अच्छा करना हो, तो व्यक्ति के तल पर स्वीकृति होनी चाहिए। समाज को अगर सड़ाना हो, तो व्यक्ति के तल पर अस्वीकृति होनी चाहिए। इसलिए मेरी बात में निरंतर विरोध लगता है।
मुझे कई लोग आकर कहते हैं कि आप सुबह के ध्यान में सिखाते हैं कि सब स्वीकार कर लो और सांझ की सभा में कहते हैं, सब अस्वीकार कर दो। अब मैं क्या करूं? सुबह सूरज उगता है, सांझ ढलता है, इसमें मैं क्या करूं? अब सूरज से हम नहीं कहते कभी जाकर कि सुबह उगते हो और सांझ ढलते हो! विरोध है दोनों में। जब सुबह उगे, तो सांझ ढलते क्यों हो? नहीं, सुबह मैं यही कहता हूं कि स्वीकार कर लो, सांझ यही कहता हूं कि अस्वीकार कर लो। वे दोनों ही जिंदगी के हिस्से हैं।
एक और सवाल किसी ने पूछा है, इसको आखिरी मान लें।
पूछा है, मानव आज रुग्ण है, और मैं यह मानता हूं कि जब मनुष्य पैदा हुआ करोड़ों वर्ष पहले, तब आदमी अवश्य ही स्वस्थ रहा होगा। फिर मनुष्य का कौन सा अचेतन मन है, जिसने बीमारी के जंतुओं को आने दिया? और वे जंतु और बीज कौन से हैं, जिसने मनुष्य की अमानवीयता की शुरुआत होने दी?
ऐसी सब कल्पनाएं हैं। असल में कोई करोड़ों वर्ष पहले आदमी सुखी था, ऐसे खयाल में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। और कोई आदमी को दुखी होना अनिवार्य है, इसकी भी कोई बात नहीं है। कुछ लोग समझ लेते हैं, वे सदा सुखी हैं, इस अर्थ में कि वे दुख को भी स्वीकार कर लेेते हैं। जो नहीं समझते हैं, वे सदा दुखी हैं, इस अर्थ में कि वे दुख को अस्वीकार करने में ही दुखी होते चले जाते हैं। और ऐसा नहीं है कभी कि सारी मनुष्यता सुखी थी और सारी मनुष्यता कभी दुखी हो गई है। और ऐसा भी नहीं है कि कभी सब स्वस्थ थे और अब सब अस्वस्थ हो गए हैं। ऐसा कभी नहीं है।
हर एक की अपनी बीमारियां होती हैं, अपने दुख होते हैं। कभी दुख बदल जाते हैं, नई-नई बीमारियां पैदा कर लेते हैं, नये दुख पैदा कर लेते हैं। लेकिन सदा दुख है, सदा बीमारी है, सदा परेशानी है और सदा रहेगी। हम लाते रहेंगे। और एक तरफ से बचाएंगे और एक तरफ से पैदा हो जाएगा।
अभी ल्यूतश्योर ने इतनी मेहनत की, वैज्ञानिकों ने इतनी मेहनत की! अब अगर ल्यूतश्योर लौट आए, तो बहुत घबड़ा जाएगा, क्योंकि उसने आदमी को बचाने की कोशिश में कहा कि बच्चे मर जाएं। अब बच्चे ज्यादा हो गए हैं। अब उन्हें पैदा न होने दें, या पैदा हो जाएं तो उनको मारने का उपाय करें। तो भ्रूण-हत्या के लिए और गर्भपात के लिए विचार करना पड़ता है। और कोई आश्चर्य नहीं है कि अगर संख्या बढ़ती चली जाए, तो जिस तरह हम जन्म-निरोध की बात कर रहे हैं, इस तरह हम एक उम्र के बाद बूढ़े आदमी को मरने के लिए मजबूर करें! कोई आश्चर्य नहीं है। वह उसका दूसरा हिस्सा है, जो होगा। अगर यह नहीं रुकता है मामला, अगर हम बच्चों को नहीं रोक पाते हैंनहीं रोक पा रहे हैंतो दूसरा उपाय एक ही है, जैसा हम अट्ठावन या पचपन में रिटायर करते हैं, हम सत्तर साल में कहें कि आप जिंदगी से रिटायर हो जाइए, क्योंकि बच्चे आए चले जा रहे हैं और अब कोई बचाव का उपाय नहीं है। अब वैज्ञानिक जिसने कि बीमारियां बचाईं और दस बच्चों में से आठ बच्चे मर जाते थे, उनको बचा लिया। बहुत झंझट की बात हो गई। अब कौन कहे कि वह ठीक हुआ, क्योंकि अब हमको आठ मारने पड़ेंगे या रोकने पड़ेंगे, या कुछ करना पड़ेगा। इधर से हम इंतजाम करते हैं, उधर से कुछ बिखर जाता है।
यानी मेरा मानना यह है कि पूर्ण इंतजाम कभी नहीं हो सकता है, क्योंकि पूर्ण इंतजाम का कोई मतलब ही नहीं है। वह हमेशा ही एक तरफ हम इंतजाम करते हैं, दूसरी तरफ ठीक उसके विपरीत चीज खड़ी हो जाती है। क्योंकि जीवन जो है, वह सदा विपरीत को पैदा कर लेता है, इसलिए संतुलन है। और अगर तौल कर भी हम खोज सकें, तो वह बराबर उतनी ही रहेगी, जितनी कभी थी, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। यानी यह हो सकता है कि एक आदमी के पास आज फिएट कार है और आज से हजार साल पहले उसके बाप के पास सिर्फ बैलगाड़ी थी। बगल वाले के पास एक रथ था, अभी बगल वाले के पास एक इंपाला है। दोनों का फासला उतना ही है, जितना बैलगाड़ी और रथ का था, जितना फिएट और इंपाला का है। वह जो अनुपात है, वह उतना का उतना खड़ा है। रथवाले को देख कर जितना बैलगाड़ी वाला दुखी होता था, उतना इंपाला वाले को देख कर फिएट वाला दुखी हो रहा है! इंपाला आ गई, बैलगाड़ी हट गई है, रथ हट गया है। लेकिन, वह जो मामला है अपनी जगह खड़ा हैअनुपात वही है। और अनुपात में बड़ी भूल हो जाती है। आपके पास दस रुपये हैं, मेरे पास सौ रुपये हैं, तो आप गरीब और मैं अमीर। कल आपके पास सौ हो जाएं, तो मेरे पास हजार हो जाते हैं। फासला उतना ही होता चला जाता है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता।
मेरी अपनी समझ यह है कि जिंदगी जैसी सदा थी, वैसी ही है। उसके रूप बदलते हैं, आकार बदलते हैं, सब मामला वैसा ही है। उस सारे मामले में इतना ही फर्क पड़ सकता है कि व्यक्ति इसको स्वीकार करे या अस्वीकार करे। और उस दिन भी वही था, आज भी वही है। उस दिन जो बैलगाड़ी वाला था और उसने स्वीकार कर लिया होता कि अच्छा है तुम्हारे पास रथ है, हमारे पास बैलगाड़ी है और चल पड़ा होता अपनी बैलगाड़ी में, तो जितना सुखी हो जाता, उतना आज फिएट वाला, इंपाला वाले को देख कर कहता, अच्छा तुम्हारे पास इंपाला है हमारे पास फिएट है। चल पड़ता है। उतना ही, वही रस उपलब्ध हो जाएगा जो उसको हुआ होता, वह इसको उपलब्ध हो जाएगा।
जिंदगी वैसी ही है, सदा वैसी ही है। रुख क्या हम लेते हैं, इस पर निर्भर करता है। और दो तरह के रुख हैं, जैसा मैंने कहा। एक तो है कि हम निरंतर आकांक्षाओं को निरोपित करते चले जाएं, और एक है कि जो है, उसे हम जान लें, उसे हम पहचान लें, उसे हम देख लें। और जैसे ही हम उसे देखते हैं, अनिवार्यरूपेण उसकी स्वीकृति आ जाती है, क्योंकि सवाल ही नहीं है अस्वीकार करने का। ऐसे स्वीकृत उपलब्ध व्यक्ति को ही मैं धार्मिक व्यक्ति कहता हूं। और जब इतनी स्वीकृति होती है, तो शांति अपने आप भर जाती है। और उस शांति में हम बहुत कुछ देख पाते हैं, जो हमने अशांति में कभी भी नहीं देखा था।
और पहली बात आप को दोहरा दूं अंत में कि उस शांति में जो हमें दिखाई पड़ता है, वह कम्युनिकेबल नहीं है, उसको कहा नहीं जा सकता। उसको अंत में हम कुछ जानते हैं, जो कि शब्द में नहीं बंधता है तो तड़प सकते हैं, परेशान हो सकते हैं, चिल्ला सकते हैं, मगर उससे कुछ होता नहीं है। हां, इतना ही हो सकता है कि शायद हमारी तड़फ को, पीड़ा को, कोई समझने की कोशिश करे। कोई सोचे कि जरूर इस आदमी ने कुछ देखा है। जैसे, एक गूंगा आदमी आ जाए और हमारे घर में चिल्लाने लगे जोर से, हाथ-पैर पटकने लगे और बताने लगे, तो हमें कुछ समझ में तो न आए लेकिन इतना समझ में आ जाए कि इस आदमी को कुछ हुआ है। वह अगर हाथ पकड़ कर बताने लगे बार-बार, या कहीं ले जाने लगे, तो शायद हम सोचें कि चलो देख लें, इस आदमी ने कुछ देखा है। कुछ कम्युनिकेट तो वह न कर पाए, लेकिन इतना कम्युनिकेट कर दे कि कम्युनिकेट नहीं कर पा रहा हूं और कुछ है। बस, इतना अगर हो जाए, तो शायद हम चले जाएं।
उतनी ही मेरी चेष्टा है, उससे ज्यादा मेरा भरोसा नहीं है। मैं शब्द का विश्वासी नहीं हूं, संवाद का विश्वासी नहीं हूं, बुद्धि का विश्वासी नहीं हूं। मेरे साथ दिक्कत इसलिए होती है कि मैं दिन-रात तो समझाता हूं कि विचार करो। बिना विचार के मत मानो; विश्वास मत करो। और फिर मैं कहता हूं, मैं बुद्धिवादी नहीं हूं। और मैं यह सब इसीलिए कहता हूं कि थका डालो बुद्धि को, खूब तर्क कर लो, खूब लड़ लो; आरग्यू कर लो। और यह थक जाएएक दफा यह थक जाए और गिर जाए, तो तुम इससे बाहर हो जाओ। यह सांप की केंचुली की तरह पड़ी रह जाए और सांप बाहर निकल जाए। और यह निकलेगी न, अगर विश्वास कर लिया, क्योंकि यह थकेगी नहीं। यह निकलेगी न, अगर किसी की आस्था कर ली, क्योंकि इसको थकना जरूरी है। इसके निकल जाने के लिए।
एक तो वह विश्वास है, जो हम बुद्धि का बिना उपयोग किए ही पकड़ लेते हैं, तो वह बिलो इंटलेक्ट है। और एक वह श्रद्धा है, जो बुद्धि के थकान पर उपलब्ध होती है, वह बियांड इंटलेक्ट है। और दोनों बिलकुल अलग बातें हैं, मगर दोनों बिलकुल एक सी मालूम पड़ सकती हैं। इसलिए कभी-कभी महाज्ञानी महामूढ़ मालूम पड़ सकता है। इसमें कोई ऐसी कठिनाई नहीं है। क्योंकि ये दोनों छोर, एक बुद्धि के नीचे है और एक बुद्धि के पार है। इन दोनों के व्यवहार भी बहुत दफा एक जैसे मालूम पड़ते हैं।
बंबई; 15 नवंबर, 1969
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