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बुधवार, 15 अगस्त 2018

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन--हम सतनाम के वैपारी

सारसूत्र:

हम सतनाम के वैपारी।
कोई कोई लादे कांसा पीतल, कोई कोई लौंग सुपारी।
हम तो लाद्यो नाम धनी को, पूरन खेप हमारी।।
पूंजी न टूटे नफा चैगुना, बनिज किया हम भारी।
हाट जगाती रोक न सकिहै, निर्भय गैल हमारी।।
मोती बूंद घटहिं में उपजे, सुकिरत भरत कोठारी।
नाम-पदारथ लाद चला है, धरमदास वैपारी।।
थोड़े दिन की जिंदगी, मन चेत गंवार।।
कागद के तन पूतरा, डोरा साहब हाथ।
नाना नाच नचावही, नाचे संसार।।
काचि माटि के घइलिया, भरि लै पनिहार।
पानी परत गल जावही, ठाड़ी पछिताए।।
जस धूआं के धरोहरा, जस बालू के रेत।
हवा लगे सब मिटि गए, जस करतब प्रेत।।
ओछे जल कै नदिया हो, बहै अगम अपार।
उहां नाव नहिं बेरा हो, कस उतरब पार।।
धरमदास गुरु समरथ हो, जाको अदल अपार।
साहेब कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन निवार।।


यह मोहब्बत में ही देखा है कमाल
जिसने कुछ खोया वही कुछ पा गया
धरमदास धनी थे तो गरीब थे। व्यापारी थे तो भिखमंगे थे। जब सब लुटा दिया, भिखारी हुए तो सम्राट हो गए। निर्धन हुए तो धनी हो गए।
पकड़ गरीब की होती है। जहां पकड़ है वहां गरीबी है। जितनी पकड़ है उतनी गरीबी है। गरीबी का कोई संबंध नहीं है इस बात से कि क्या तुम्हारे पास है, क्या तुम्हारे पास नहीं है। न ही अमीरी का कोई संबंध है इस बात से।
गरीबी और अमीरी तुम्हारी पकड़ की मात्राओं का नाम है। गरीब जोर से पकड़ता है, डरा है कि कहीं छिन न जाए। प्राण कंप रहे हैं, कहीं छूट न जाए। कौड़ियों पर सारे जीवन को आधारित किया है। अमीर वही है जिसे जाने का भय चला गया; जो मुट्ठी खोल देता है वही अमीर है। मुट्ठी तभी खुलती है जब भीतर का धन मिल जाए। भीतर का धन मिल जाए तो बाहर का धन अपने से व्यर्थ हो जाता है। बड़ा धन मिल जाए तो छोटा धन अपने से व्यर्थ हो जाता है। असली सिक्के मिल जाएं तो नकली दो कौड़ी के हो जाते हैं। जब तक असली की झलक नहीं है, तब तक नकली की पकड़ है।
तो ध्यान रखना, मैं तुमसे नहीं कहता हूं कि तुम नकली को छोड़ दो। मैं तुमसे कहता हूं असली को पा लो, नकली अपने से छूट जाएगा। मैं तुमसे नहीं कहता हूं संसार से भाग जाओ, मैं कहता हूं, परमात्मा को अपने में बुला लो, संसार तुम से भाग जाएगा। तुम संसार में ही रहोगे और फिर भी संसार तुम्हारे भीतर नहीं होगा। यही धनी का लक्षण है। ऐसी ही घड़ी में कबीरदास ने अपने इस शिष्य धरमदास को धनी धरमदास कहा था।
धरमदास बड़े व्यापारी थे, लाखों का व्यवसाय था। स्वभावतः जब परम संपदा मिली तो व्यापारी व्यापारी की भाषा में ही बोलेगा। हमारी भाषा तो हमारे अनुभव पर टिकी होती है। जीसस बोलते हैं उसी तरह, जिस तरह एक बढ़ई का बेटा बोले। और कबीर बोलते हैं उस तरह, जैसे एक जुलाहा बोले। मीरा बोलती है उस तरह, जैसे एक स्त्री का हृदय बोले। बुद्ध बोलते हैं उस तरह, जैसे एक सम्राट बोले।
अनुभव तो सभी को एक हुआ है। जो जाना वह तो एक है। लेकिन जो कहा, वह बड़ा भिन्न-भिन्न है। क्योंकि कहने की भाषा अलग-अलग अनुभव से आई है। बुद्ध लाख उपाय करें तो भी कबीर जैसा नहीं बोल सकते। महल छोड़ दिया, राज्य छोड़ दिया, परिवार छोड़ दिया, लेकिन वह भाषा जो महलों में जन्मी थी वह कैसे छूटेगी? वे शब्द जो महलों में सीखे गए थे, वह परिष्कार, वह संस्कार, वह कैसे छूटेगा? उसका तो उपयोग करना ही होगा।
ज्ञान की परम घटना एक है। लेकिन दुनिया में इतनी अभिव्यक्तियां हैं, उन अभिव्यक्तियों के कारण बड़ी अड़चन हो गई। लोग सोचते हैं जैसे सभी ने अलग अलग सत्य जाने होंगे। अलग-अलग सत्य हैं नहीं जानने को। जानने की उस घड़ी में न तो सत्य अलग होते हैं न जानने वाला अलग होता है। जानने की उस घड़ी में तो जानने वाला मिट ही जाता है। लेकिन जब लौटता है उस शिखर से, उस गौरीशंकर से जानन ेवाला वापस दुनिया में--तुमसे कहने, सोयों को जगाने, भटकों को बुलाने, राह देने, खबर देने कि मैंने पा लिया है, यह रही राह, यह रहा मार्ग, इशारा करने, तब स्वभावतः अपने पुराने मन, अपने पुराने संस्कार, अपनी पुरानी भाषा का उपयोग करता है।
तो जैसा धरमदास बोल सकते हैं वैसा कोई भी नहीं बोल सकता। बुद्ध नहीं कह सकते, हम सतनाम के वैपारी। व्यापार कभी किया नहीं। कैसे कहेंगे, हम सतनाम के वैपारी? यह भाषा धरमदास की ही हो सकती है।
और यह सुंदर है, शुभ है कि सारे संतों की भाषाएं अलग हैं। इतना वैविध्य है! जितना वैविध्य उतना रस। बगिया में सभी फूल एक जैसे हों तो बगिया बड़ी उदास लगेगी। कितने ही सुंदर फूल हों, बगिया सिर्फ गुलाब ही गुलाब की बगिया हो, कितनी देर टिकोगे? लेकिन बगिया में सब तरह के फूल खिले हैं। गुलाब भी है और कमल भी है, और जुही भी है और चमेली भी है। सभी एक भूमि से रस पाते हैं। सभी एक ही सौंदर्य को प्रकट करते हैं। लेकिन सबके प्रकट करने का ढंग अलग-अलग है। वह जो चमेली में सफेद है, वही गुलाब में लाल है--वही एक; इसे याद रखना। तो धरमदास की भाषा समझना सुगम हो जाएगी।
लेकिन यह जो उपलब्धि धरमदास को हुई, यह ऐसे ही नहीं हो गई है। ये जो प्यारे वचन हैं, ये जो हृदयग्राही वचन हैं, ये ऐसे ही रास्तों पर पड़े नहीं मिल जाते। इन्हें प्राणों की पीड़ा में जन्माना होता है। इन्हें रो रोकर निखारना होता है।
हमने रो-रो कर रात काटी
आंसुओं पर यह रंग तब आया
आंसुओं पर भी रंग आ जाता है। आंसू भी अलग-अलग मूल्य के हो जाते हैं। आदमी का मूल्य उसकी हर बात में हो जाता है। यही शब्द कोई दूसरा उपयोग करेगा तो साधारण होंगे। धरमदास के ओंठों पर बड़े असाधारण हो गए हैं। सुनते हो!
हम सतनाम के वैपारी।
कह रहे हैं, हमारा धंधा सतनाम का है। हम सतनाम ही बेचते हैं। हमारे पास और कुछ बेचने को नहीं।
मैंने सुना है, एक पंजाबी कहानी है। एक फकीर, ऐसा ही हो गया होगा सतनाम का व्यापारी! गांव-गांव चिल्लाता फिरता थाः नाम ले लो। जिसको भी लेना हो, नाम ले लो। चूको मत, दो-चार दिन ही इस गांव में और ठहरूंगा। ऐसे चिल्लाते हुए एक धनी ने उसे सुना।
नाम, नाम का पंजाबी में एक गहना भी होता है। उस धनी को अपनी बेटी का विवाह करना था, और वह सोच ही रहा था गहने बनवाने की; और यह आदमी नाम बेचने आ गया। तो उसने सोचा कि इसके पास गहना होगा, बेचना चाहता है। तुम देखते हो, शब्द कैसे अर्थ बदल लेते हैं! फकीर चिल्लाता है, किसी को नाम लेना हो तो ले लो, दो-चार दिन हम टिकेंगे। घड़ी दो घड़ी की जिंदगी है। थोड़े दिन की जिंदगी, मन चेत गंवार! किसी को लेना हो तो नाम ले लो। इस बस्ती में हम ज्यादा देर न रुकेंगे।
धनी ने सोचा, चलो अच्छा हुआ, कोई नाम बेचता है--नाम, नाम का गहना। उसने कहा, इसका पता ले लूं। नौकर को दौड़ाया, फकीर का पता ले लिया, सांझ को दुकान बंद करके फकीर के घर पहुंचा। फकीर तो था नहीं। उसकी बेटी थी। होगी दस-बारह साल की लड़की। उसने कहा, मैं नाम लेने आया हूं। तेरे पिता को चिल्लाते देखा था, वह कहां है? उसने कहा, पिता तो बाहर गए हैं। लेकिन नाम मैं ही दे दूंगी। लड़की ने देखा था पिता को नाम देते। कहा, मैं ही दे दूंगी।
तो उसने कहा, ठीक है, तू ही दे दे। दाम क्या होंगे?
लड़की ने कहा कि जरा ठहरें, पता चल जाएगा। वह भीतर गई, छुरा निकाल कर धार रखने लगी। इस आदमी ने खिड़की से झांक कर देखा कि बड़ी देर हो गई है, यह करती क्या है! वह छुरे पर धार रख रही है। वह तो थोड़ा हैरान हुआ कि आदमी किस तरह के हैं, ये लोग किस तरह के हैं! उसने पूछा कि भई, तू छुरे पर धार रख रही है, मैं नाम के लिए बैठा हूं। उसने कहा कि छुरे पर बिना धार रखे नाम मिलेगा कैसे? मेरे पिता जो भी आता है उससे यही कहते हैं, जब तक गरदन न उतरेगी, नाम न मिलेगा।
अब लड़की का अपना समझना! उसने सुना था बाप को कहते कि गरदन दोगे तो नाम मिलेगा। उसे नाम का पता नहीं था कि क्या नाम है। मगर इतना उसे पता था कि जो गरदन देता है उसको मिलता है। वह धनी तो चिल्लाया, पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे कर लिए। कहा, यह फकीर नहीं है, ये तो हत्यारे हैं। इनको पकड़ा जाना चाहिए।
तब तक बाप भी आ गया, लोगों ने बाप को पकड़ लिया। वह हंसा और उसने कहा कि पागल हुए हो? उसने अपनी लड़की को कहा, बेटी! इतने सस्ते में नहीं बेचा जाता। यह ऊपर की गर्दन के उतरने से कुछ नहीं होता, तू छुरे पर धार क्यों रख रही है? यह छुरा काम नहीं आएगा, यह गर्दन भी काम नहीं आएगी। भीतर की गर्दन काटनी पड़ती है बेटी, तुझे पता नहीं। यह बड़ा महंगा सौदा है।
हमने रो-रो कर रात काटी
आंसुओं पर यह रंग तब आया
चैंकोगे तुम। धरमदास को यह कहते सुन कर कि हम सतनाम के व्यापारी हैं। लेकिन ठीक ही कह रहे हैं वह। लेकिन यह व्यापार भी अनूठा व्यापार है। इसमें दिया तो बहुत जाता है, लिया कुछ भी नहीं जाता। इसमें बांटना ही बांटना है। व्यापार में तुम जितना देते हो उससे ज्यादा लेते हो; तो ही तो लाभ होता है। लाभ का अर्थ ही क्या है? जितना दिया उससे ज्यादा लिया। तो जो मार्जिन में बचा, वही लाभ है। सतनाम को देनेवाला तो सिर्फ देता है, तुम उसे कुछ देना भी चाहो तो क्या दोगे? तुम्हारे पास देने को है भी क्या? कोई मूल्य चुकाया नहीं जा सकता। लेकिन फिर भी तुम्हें कुछ देना पड़ता है।
वह कुछ--समझना। वह कुछ ऐसा है जो तुम्हारे पास नहीं है, लेकिन तुम्हें भ्रांति है कि तुम्हारे पास है। तुम्हें वही देना पड़ता है जो तुम्हारे पास नहीं है लेकिन तुम मानते हो कि है। अहंकार देना पड़ता है। और अहंकार तुम्हारे पास नहीं है। अज्ञान देना पड़ता है। और अज्ञान क्या है, सिर्फ अंधेरा है।
अंधेरे की कोई सत्ता थोड़े ही होती है! अंधेरा तो सिर्फ प्रकाश के अभाव का नाम है। अंधेरा तो सिर्फ शब्द है। उसका कोई अस्तित्व नहीं है। इसीलिए तो तुम अंधेरे को धक्के मार कर निकाल नहीं सकते। और न पड़ोसी से अंधेरा मांग कर अपने घर ला सकते हो। हां, पड़ोसी से रोशनी मांग कर ला सकते हो। अंधेरा मांग कर नहीं ला सकते। और अंधेरे को तुम धक्के मार कर नहीं निकाल सकते। हां, दीये को बुझा दो तो अंधेरा आ जाता है। अंधेरा आता है यह कहना भाषा की बात है। न तो अंधेरा आता, न जाता; सिर्फ दीया आता और दीया जाता। अंधेरे की कोई सत्ता नहीं है। अंधेरे का कोई होना नहीं है। अंधेरा अभाव है।
ऐसे ही अज्ञान है। तुम जागते हो, अज्ञान खो जाता है। तुम सो जाते हो, अज्ञान हो जाता है। बस तुम्हारी मौजूदगी में ज्ञान, और तुम्हारी गैर मौजूदगी में अज्ञान है। गुरु तुमसे तुम्हारी गैर मौजूदगी मांगता है। वह कहता है, तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे दे दो। तुम्हारी बेहोशी मुझे दे दो। तुम्हारी नींद मुझे दे दो। तुम्हारे सपने मुझे दे दो। अब सपने कुछ हैं थोड़े ही! मगर अगर, तुम गुरु को जो नहीं है वह दे सके तो दूसरा चमत्कार घटता है--जो तुम्हारे पास सदा से है वही तुम्हें मिल जाता है। ये दो चमत्कार हैं आध्यात्मिक जीवन के। जो नहीं है वह छोड़ना है, और जो है वह पाना है।
यह बात बेबूझ लगती है। क्योंकि जो है ही उसे क्या पाना? और जो नहीं है उसे क्या छोड़ना? मगर ऐसा ही है। जो नहीं है उसको तुमने पकड़ रखा है और उसकी पकड़ के कारण जो है, वह छूट गया है। तुम्हारी आंखें नहीं से जुड़ गई हैं और है से उखड़ गई हैं। इसी को मैं नास्तिकता कहता हूं--जिसकी आंखें नहीं से जुड़ गईं। जो आदमी कहता है ईश्वर नहीं है, यह तो नहीं का ही एक रूप है। जिसकी आंखें नहीं के साथ जुड़ गई हैं, जो जगत में और जीवन में है को नहीं देख पाता वही नास्तिक है। नास्तिक यानी नहीं की जकड़ में आ गया।
आस्तिक कौन है? ईश्वर है, ऐसा मानने वाला ही सिर्फ आस्तिक नहीं है। वह तो है का एक रूप हुआ। है बहुत बड़ा है। जिसने नहीं से अपनी जकड़ खोल ली, नहीं से अपने बंधन छोड़ लिए, जो है के सागर में उतर गया। जिसके भीतर है की धुन उठने लगी, सर्व स्वीकार का भाव पैदा हुआ, तथाता का भाव पैदा हुआ। दुख आए तो दुख के प्रति भी हां भाव। दुख के प्रति भी नहीं नहीं। मृत्यु आए तो मृत्यु का भी स्वागत। मृत्यु आए तो उसके साथ भी ऐसे ही चले जाने की तैयारी, जैसे कोई अपने प्रेमी के साथ चला जाए। जैसे कोई अपने मित्र के हाथ में हाथ डाल कर चला जाए। जो आए उसी को स्वीकार करने का भाव आस्तिकता। और तभी कोई ईश्वर को जान पाता है।
और जो भी है उसमें नहीं को खोज लेना, जो भी है उसमें नकार को देख लेना...ऐसे लोग हैं जिनको तुम गुलाब की झाड़ी के पास ले जाओ तो कांटे ही गिनते हैं; वे नास्तिक। और ऐसा नहीं है कि कांटे नहीं हैं। कांटे तो हैं ही। मगर वहां गुलाब का फूल भी खिला था। जो कांटे गिनता है वह गुलाब का फूल देखने से वंचित रह जाता है। और जो गुलाब के फूल को देख लेता है, उसको कहां कांटे! कांटे गड़ जाएं तो भी पता नहीं चलता। कांटे हैं लेकिन जिसकी आंखों में फूल भर गया, उसके लिए कांटे भी फूल हो जाते हैं। और जिसकी आंखों में कांटे गड़ गए, उसके लिए फूल भी कांटे हो जाते हैं। तुम्हारी आंख की बात है। दृष्टि, सृष्टि है।
पुरनूर है दिन, रात भी तारीक नहीं है
कुछ हुस्न-ए-नजर हो तो हर एक चीज हसीन है
दिन तो उजाले से भरा ही है--
पुरनूर है दिन, रात भी तारीक नहीं है
लेकिन रात भी अंधेरी नहीं है। जिसने दिन की रोशनी देख ली, उसको फिर रात भी अंधेरी नहीं रह जाती। और जिसने सिर्फ रातों के अंधेरेपन को गिना है उसके लिए दिन भी उजाला नहीं रह जाता।
पुरनूर है दिन, रात भी तारीक नहीं है
कुछ हुस्न-ए-नजर हो तो हर एक चीज हसीन है
बस, सौंदर्य को देखने की दृष्टि हो तो सारा जगत सौंदर्य से लबालब है। पत्ते-पत्ते पर, फूल-फूल पर सौंदर्य नाच रहा है। पत्थर-पत्थर में परमात्मा छिपा है। सब तरफ उसी की धुन है, उसी का गीत है, उसी का नृत्य है। मगर कुछ हुस्ने-नजर हो तो! आंख-आंख की बात है।
आस्तिकता और नास्तिकता सिद्धांत की बात नहीं है, आंख की बात है। ऐसा भी हो सकता है कि कोई कहने को तो नास्तिक हो लेकिन उसके पास आंख आस्तिक की हो, तो वह आस्तिक है। और ऐसा भी होता है और रोज तुम्हें ऐसे आस्तिक मिल जाएंगे जो आस्तिक नहीं हैं, जिनके पास आंख नास्तिक की है। यद्यपि मंदिर जाते हैं, पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, मगर आंख शिकायत की है। आंख में शिकवा है। आंख में स्वीकार नहीं है।
प्रार्थना भी उनकी शिकायत से भरी होती है। वे परमात्मा को थोड़ी सलाह देने जाते हैं कि तू ऐसा कर, वैसा कर। यह ठीक नहीं हो रहा है, वह ठीक नहीं हो रहा है। वे थोड़ी अपनी बुद्धिमत्ता परमात्मा को देने मंदिर भी चले जाते हैं। इतना कष्ट भी उठाते हैं मगर स्वीकार का भाव नहीं। क्योंकि जिसके पास स्वीकार है उसकी प्रार्थना में मांग नहीं रह जाएगी। मांग-रहित हुई प्रार्थना कि परमात्मा बरस पड़ता है। जब तक मांग है तब तक परमात्मा से दूरी है। क्योंकि जब तक तुमने कुछ और मांगा है, तब तक तुमने परमात्मा को मांगा ही नहीं।
अजब आरजू है, अनोखी तलब है,
तुझी से तुझे मांगना चाहता हूं।
उसी दिन प्रार्थना फलती है जिस दिन सिवाय परमात्मा के तुम और कुछ नहीं मांगना चाहते हो। परमात्मा कहे कि दुनिया का साम्राज्य ले लो, तुम कहोगे क्या करूंगा? तुम काफी हो। परमात्मा कहे मोक्ष ले लो, तुम कहोगे क्या करूंगा? तुम्हारे चरणों की धूल हो जाऊं, बस इतना बहुत है, मेरा मोक्ष हो गया। और कैसी मुक्ति? तुम्हारे साथ बंध जाना भी मोक्ष है। तुम्हारे बिना मोक्ष में भी रहना बंधन में ही रहना होगा।
न गरज किसी से, न वास्ता
मुझे काम अपने ही काम से
तेरे जिक्र से, तेरे फिक्र से
तेरी याद से, तेरे नाम से
प्रार्थना में मांग नहीं है कुछ। जिक्र खूब है, फिकर खूब है, याद भी खूब है। आंसुओं की झड़ी भी लगती है। गीत भी उमगते हैं।
न गरज किसी से, न वास्ता
मुझे काम अपने ही काम से
तेरे जिक्र से, तेरे फिक्र से
तेरी याद से, तेरे नाम से
और फिर तो हालतें ऐसी हो जाती हैं, याद ऐसी घनी हो जाती है, बेखुदी ऐसी हो जाती है...
ये कैसी बेखुदी है! लिख गया हूं मैं
अपने नाम के बदले तेरा नाम
फिर तो यह भूल ही जाता है कि कौन कौन है। कौन भक्त है और कौन भगवान है। जब ऐसी घड़ी घट जाती है तो सतनाम का जन्म होता है--इस बेखुदी में।
फिर आज के सूत्र समझेंः
हम सतनाम के वैपारी
सतनाम का अर्थ होता है, जिसका कोई नाम नहीं। या जिसके सब नाम हैं और फिर भी जो अनाम है। लाओत्सु ने कहा है, मुझे उसका नाम पता नहीं इसलिए ताओ कह कर पुकारूंगा। यह कामचलाऊ है। कोई भगवान कहता है, कोई ईश्वर कहता है, कोई ताओ कहता है, कोई धर्म कहता है, कोई ऋतु कहता है, कोई अल्लाह कहता है, कोई गाॅड कहता है, मगर ये सब नाम उसके हैं जिसका कोई नाम नहीं।
सूफियों में भगवान के सौ नाम हैं। निन्यानबे गिनाए गए हैं। एक बिना गिना छोड़ दिया है। सूफी फकीरों से कोई पूछे कि, क्यों? तुम कहते हो सौ नाम हैं लेकिन लिस्ट में तो केवल निन्यानबे? तो वे कहते हैं, निन्यानबे इशारे हैं उसकी तरफ, सौवें की तरफ। उसको कहा नहीं जा सकता। असली को कहा नहीं जा सकता। शब्दातीत है, गुणातीत है। आकार के पार है, निराकार है। शब्द बड़े छोटे हैं। समाएं भी तो इसमें समा नहीं सकते। शब्द तो सीमित है। असीम को कैसे कहें? तो निन्यानबे नाम हैं उसकी तरफ इशारा करने को, जिसका कोई नाम नहीं है। जिसका कोई नाम नहीं है उसके लिए कुछ तो नाम देकर काम चलाना पड़ेगा। बात करनी है न! विचार करना है। जागे हुए को, सोए हुए से चर्चा करनी है।
खयाल रखना, दो जागे हुए मिलें तो कोई चर्चा नहीं होती; हो ही नहीं सकती। चर्चा करने को कुछ नहीं बचता। दोनों एक दूसरे की आंखों में झांक लेंगे, दर्पण में दर्पण का प्रतिबिंब बनेगा, बात खत्म हो जाएगी। यहां भी शून्य होगा, वहां भी शून्य होगा। यहां भी सौवां बैठा है, वहां भी सौवां बैठा है, अब निन्यानबे की बात उठाने की जरूरत न आएगी। जो उठाए वह पागल है।
कहते हैं कबीर और फरीद का मिलना हुआ था। दोनों दो दिन शांत बैठे रहे एक दूसरे को देखते। कभी-कभी मुस्कुराते और कभी-कभी रोते भी। दोनों के भक्त इकट्ठे थे और परेशान थे। सुनने को आतुर थे कि कुछ तो ये दो बोलें। एक दूसरे से कुछ तो कहें। मगर एक शब्द न बोला गया।
जब विदा हो गए तो कबीर के शिष्यों ने भी पूछा और फरीद के शिष्यों ने भी पूछा, कि हो क्या गया आप लोगों को? ऐसे तो आप इतना बोलते हो, फिर एकदम चुप क्यों हो गए, गूंगे क्यों हो गए थे? फरीद ने कहा, जो बोलता वह नासमझ सिद्ध होता। दूसरी तरफ भी उतना ही जानने वाला था, जितना जानने वाला इस तरफ। हमने एक दूसरे की आंख में झांका और पहचान लिया। हम एक दूसरे का रंग पहचान गए, फिर कहने को कुछ बचा नहीं। कहने को क्या था? जो पहले बोलता वही नासमझ सिद्ध होता।
जब मैंने यह कहानी पढ़ी तो मुझे एक चीनी घटना याद आई। सबसे पहला पश्चिमी आदमी चीन पहुंचा। जब वह चीन के बंदरगाह पर उतरा तो उसने एक बड़ा अनूठा दृश्य देखा। एक भीड़ लगी थी और दो आदमी लड़ने की तैयारी कर रहे थे। तैयारी, लड़ नहीं रहे। उछलते, कूदते, एक दूसरे की छाती के बिलकुल पास आ जाते, लेकिन छूते भी नहीं। बड़ा चिल्लाते, बड़ा चीखते। एक तो चीनी भाषा, और फिर चीखना, और चिल्लाना! बड़ी कर्कश आवाज मच रही। बड़ी चीं-चूं--चीनी भाषा! वह आदमी भी भीड़ में खड़े होकर देखने लगा, वह भी उत्सुक है, उसकी भी छाती धड़क रही है, अब कुछ होता ही है। मगर होता कुछ नहीं है। और दोनों आग-बबूला हो रहे हैं और आंखें सुर्ख हो रही हैं। मगर यह मामला क्या है! इतनी देर में तो दुनिया में कोई हत्या हो जाए। हत्या की पूरी तैयारी है, मगर खरोंच भी नहीं पहुंची।
उसने अपने पड़ोस में खड़े आदमी से पूछा कि यह मामला क्या है? किस तरह की बात हो रही है? यह क्या तमाशा है? उस आदमी ने कहा, ये दोनों ताओ वादी हैं। ये दोनों एक दूसरे को भड़का रहे हैं। जो भड़क जाएगा, जो पहले हमला कर देगा वह हार गया। भीड़ विदा हो जाएगी। जो पहले हमला कर देगा वह हार गया। ये दोनों ताओ वादी फकीर हैं। ये एक दूसरे को उकसा रहे हैं कि देखें तुम कितने गहरे हो। यह गहराई की प्रतिस्पर्धा चल रही है। ये एक दूसरे को भड़का रहे हैं। जो पहले भड़क जाएगा और हमला कर देगा, वहीं बात खतम हो जाएगी। हार गया वह। जो पहले क्रोध में आ जाएगा और हमला कर देगा, वह हार गया।
खयाल रखना, कमजोर पहले क्रोध में आ जाता है। कमजोर ही पहले हमला करता है। कमजोर ही को पहले हमला करना पड़ता है। कमजोर वही जो सबसे पहले नियंत्रण खो देता है। फरीद ने ठीक ही कहा, हम दो में से पहले जो बोलता वही हार जाता। इसलिए बोलना हो ही नहीं सका, सन्नाटा रहा। एक दूसरे को देख-देख कर हम आनंदित भी हुए, पुलकित भी हुए। एक दूसरे को देख-देख कर आनंद के अश्रु भी बहे।
यही कबीर ने भी कहा अपने शिष्यों को कि बोलते कैसे? बोलने को था क्या? दोनों हम गूंगे हैं। दोनों को स्वाद मिल गया है। दोनों हम जानते हैं कि स्वाद को कहने का कोई उपाय नहीं। फिर कहने की कोई जरूरत नहीं। दूसरे को भी मिल गया है। हमने भी चखा, उसने भी चखा, अब कहने को क्या है? अब स्वाद की चर्चा क्या उठानी! दो ज्ञानी मिलें तो चर्चा न होगी।
दो अज्ञानी मिलें तो खूब चर्चा होती है। हालांकि कुछ भी नहीं होता। चर्चा बहुत होती है, सिर मारा-मारी काफी होती है। मगर परिणाम कुछ नहीं होता, संवाद होता ही नहीं। दो ज्ञानी मिलते हैं तो संवाद होता है, शब्द शून्य। दो अज्ञानी मिलते हैं तो शब्दों की काफी फेंक-फांक होती हैं। लेकिन संवाद शून्य। तुमने देखा नहीं, घंटों बात करके भी कुछ हाथ नहीं लगता! इधर से कचरा फेंका गया, उधर से कचरा फेंका गया, मगर हाथ कुछ नहीं लगता। क्या तुम्हें यह अनुभव नहीं हुआ है कि बात तो करते हो तुम लोगों से लेकिन न वह तुम्हें समझता है, न तुम उसे समझते हो।
दूसरों की तो बात छोड़ दो, जो तुम्हारे निकट हैं, तुम्हारी पत्नी तुम्हारी बात कहां समझती है? तुम कुछ कहते हो, वह कुछ समझती है। वह कुछ कहती है, तुम कुछ समझते हो। धीरे-धीरे पति पत्नी तय ही कर लेते हैं कि बेहतर है न कहना। क्योंकि कहो कि झंझट शुरू होती है। कुछ का कुछ समझ लिया जाता है। फिर उसको समझाओ, उसमें से कुछ का कुछ समझ लिया जाता है। फिर उसका कोई अंत नहीं।
इसलिए पति पत्नी को तुम अक्सर चुपचाप बैठे देखोगे। इसलिए नहीं कि वे ज्ञानी हो गए हैं वह इसलिए नहीं बोल रहे हैं कि कौन बोले, कौन फंसे! कुछ बोले झंझट की शुरुआत हो जाएगी। फिर पत्नी भी कुछ बोलेगी। और समझ तो संभव ही नहीं है।
दो अज्ञानियों के बीच संवाद होता ही नहीं। शब्द ही शब्द होते हैं। थोथे, व्यर्थ शब्द, निर्जीव शब्द, निष्प्राण शब्द। दो ज्ञानियों के बीच शब्द नहीं होते, संवाद होता है--शून्य में, शांति में, मौन में। फिर बात कहां हो सकती है? फिर सार्थक बात कहां हो सकती है? दो ज्ञानियों के बीच हो नहीं सकती, दो अज्ञानियों के बीच कभी हुई नहीं, हो नहीं सकती।
एक ज्ञानी और एक अज्ञानी के बीच सार्थक बात होती है। अगर अज्ञानी सुनने को राजी हो और ज्ञानी कहने को राजी हो तो अज्ञानी और ज्ञानी के बीच सार्थक वार्ता हो सकती है। यही शिष्य और गुरु का संबंध है। इस वार्ता के लिए शब्द खोजने पड़ते हैं। ईश्वर को नाम देना पड़ता है। उस परम तत्व को, जो अनाम है, हम किसी शब्द को देकर वार्ता के योग्य बनाते हैं।
हम सतनाम के वैपारी।
धरमदास कहते हैं, अब एक ही काम हमारा है। जो हमने जाना है उसे हम दूसरों को जना दें। अब हम एक ही व्यवसाय करते हैं, अब हम सतनाम बेचते हैं। खरीद लो जिसको खरीदना हो। और मजा यह है कि खरीदने वाले का कुछ खर्च नहीं होता। सिर्फ बीमारियां जाती हैं और स्वास्थ्य आता है। और देने वाले का भी कुछ जाता नहीं। देने वाला जितना देता है उससे हजार गुना पाता है। लेनेवाले से नहीं पाता, परमात्मा से पाता है। क्योंकि जितना ही यहां से सतनाम बांटा जाएगा, उतना ही सतनाम भरता जाएगा।
जैसे तुम कुएं से पानी खींच लेते हो और झरनों से कुएं में नया पानी आ जाता है। ऐसा ही जो समाधिस्थ हो गया, उसके झरने परमात्मा से जुड़ गए। वह जितना अपने को लुटाता है उतना झरनों से नया जल आता चला जाता है। कभी चुकता नहीं।
कोई कोई लादे कांसा पीतल, कोई कोई लौंग सुपारी।
ये और व्यापारियों की बात कर रहे हैं।
कोई कोई लादे कांसा पीतल, कोई कोई लौंग सुपारी।
हम तो लाद्यो नाम धनी को, पूरन खेप हमारी।
हमने तो आखिरी चीज बेचने का काम शुरू किया है। अब हम छोटी-छोटी चीजें नहीं बेचते। ये किनकी बात कर रहे हैं वे--कोई कोई लादे कांसा पीतल? परमात्मा के नाम से कुछ लोग परमात्मा को नहीं बेच रहे हैं, कुछ और बेच रहे हैं। कोई परमात्मा के नाम पर स्वास्थ्य बेच रहा है। कोई परमात्मा के नाम पर यश बेच रहा है। कोई परमात्मा के नाम पर समृद्धि बेच रहा है, सफलता बेच रहा है--वह सब कांसा पीतल। कोई परमात्मा के नाम पर सिर्फ शास्त्र बेच रहा है, सिद्धांत बेच रहा है, सत्य बेच रहा है, वह सब लौंग-सुपारी।
हम तो लाद्यो नाम धनी को...
हमने तो उस मालिक को--या मालिक। हमने तो उस मालिक को ही भर बेचने की तैयारी की है। उसी धनी को पाकर तो धरमदास भी धनी हो गए हैं। उस मालिक से जो जुड़ गया वह मालिक हो गया। उस मालिक से जो अलग है वह गुलाम है। वह गुलाम ही रहेगा। उसके पास कितना ही धन हो, कितना ही यश, कितना ही पद, वह गुलाम है और गुलाम ही रहेगा। सिकंदर गुलाम ही मरता है। क्योंकि उस मालिक से जुड़े बिना कोई मालकियत नहीं है दुनिया में।
इसलिए इस देश में हम संन्यासी को स्वामी कहते हैं। स्वामी यानी धनी, मालिक। या मालिक! वह जुड़ गया मालिक से। कम से कम आशा यही है कि जुड़ने की चेष्टा करेगा। इशारा यही है। अब अपनी मालकियत की चेष्टा नहीं करेगा, अब परमात्मा मेरा मालिक हो जाए इसकी चेष्टा करेगा।
जिस दिन परमात्मा तुम्हारा मालिक है, उसी दिन तुम भी मालिक हो जाते हो क्योंकि तब तुम उसीकी किरण हो। तब तुम उसी की लहर हो। जब तक तुम अलग-अलग अपनी मालकियत तय करने की कोशिश कर रहे हो तब तक तुम गुलाम रहोगे। तब तक तुम भिखमंगे रहोगे, तब तक तुम क्षुद्र रहोगे। परमात्मा से अलग रहकर जो अपनी चेष्टा कर रहा है वही संसारी है। और परमात्मा के साथ जुड़ कर जो चलने लगा, बहने लगा उसी की रौ में, उसी के धारे में, वही संन्यासी है।
संन्यासी और संसारी में इतना ही फर्क है। क्या फर्क है? संसारी अपनी निजी आकांक्षाएं लिए है। ऐसा करके दिखा दूं, वैसा करके दिखा दूं, यह हो जाए, वह हो जाए। संन्यासी वह है, जिसने अपनी निजी आकांक्षा छोड़ दी। जो कहता है, वही है; मैं अलग हूं ही नहीं। इसलिए जो होगा, ठीक होगा। जो नहीं होगा वह भी ठीक होगा। उसकी मर्जी मेरी मर्जी। उसकी योजना मेरी योजना। उससे अन्यथा मेरा कोई स्वर नहीं। मैं उसका गीत हूं, मैं उसके हाथ की बांसुरी हूं। वह जो गाएगा वही ठीक।
बांसुरी का अपना कोई स्वर नहीं होता। बांसुरी का अपना कोई आग्रह नहीं होता कि यही गीत गाया जाए। जिस बांसुरी का अपना आग्रह है कि यही गीत गाया जाना चाहिए, वह संसारी। और जिस बांसुरी ने यह सत्य समझा कि मैं तो पोला बांस मात्र हूं, स्वर तो उसके हैं, ओंठ उसके हैं, धुन उसकी है, गीत उसके हैं। मैं सिर्फ मार्ग बनूं। मैं अड़चन न डालूं, मैं बाधा न डालूं। ऐसी समर्पित चेतना का नाम संन्यास है। लेकिन मजे की बात यह है, जो लड़ता है वह हारता है और जो हार गया वह जीत जाता है।
कोई कोई लादे कांसा पीतल, कोई कोई लौंग सुपारी।
हम तो लाद्यो नाम धनी को, पूरन खेप हमारी।
वह कहते हैं कि हम तो पूर्ण को ही बेचने चले हैं। वही पूर्ण जिसको ईशावास्य कहता है, पूर्ण भी निकाल लो उससे, तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। उसमें पूर्ण भी जोड़ दो तो भी पूर्ण-पूर्ण ही रहता है, हटा लो तो भी पूर्ण-पूर्ण ही रहता है। उस शाश्वत, अविनश्वर को ही हम बेचने चले हैं। इस जगत में तो सभी अपूर्ण हैं।
इस जगत में तो सभी की सीमा है। लेकिन कभी-कभी कोई झरोखा खुल जाता है। और इस जगत में किरण उतरती है उस जगत की।
तेरी सूरत से नहीं मिलती किसी की सूरत
हम जहां में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं
फिर जिसको दिखाई पड़ जाती है उसकी सूरत, एक झलक भी मिल जाती है उसकी सूरत की, फिर वह सारे जगत में उसकी तस्वीर लिए फिरता है। फिर वह सबके द्वार-दरवाजों पर चोट करता है कि तुम्हारा भी झरोखा खुल सकता है। खोल लो। यह तस्वीर है। यह मुझे दिखा है, यह तुम्हें भी दिख सकता है। यह मैंने जाना और जान कर मैं पूरा हो गया हूं। जानकर सब समाप्त हो गया। जानते ही परितृप्ति हो गई। तुम भी परितृप्त हो जाओगे।
हम तो लाद्यो नाम धनी को, पूरन खेप हमारी।।
पूंजी न टूटे, नफा चैगुना, बनिज किया हम भारी।
धरमदास कहते हैं, बड़ा मजे का धंधा हम कर रहे हैं। पूंजी न टूटे...कभी इसमें दिवाला निकलता ही नहीं। क्योंकि लुटाने से धन बढ़ता है। बाकी तो सब धन ऐसे हैं कि बचाओ बचाओ तो भी कहां बचते हैं! बचाते-बचाते भी लुट ही जाते हैं। आखिर में हर आदमी खाली हाथ जाता है। जिंदगी भर सम्हाला, जिंदगी गंवाई सम्हालने को और फिर सब यहीं पड़ा रह जाता है।
सब ठाठ पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा
पूंजी न टूटे नफा चैगुना...
धरमदास कहते हैं, हमने बड़े मजे का धंधा किया है। ऐसा धंधा कि इसमें पूंजी कभी टूटती ही नहीं। मूल तो टूटता ही नहीं, बढ़ता ही जाता है। और नफा चैगुना। और ऐसा-वैसा नफा नहीं है कि दो-चार परसेंट! चैगुना! चारों दिशाओं से आता है। तुम एक हाथ से फेंको, उसके चारों हाथ से आता है। इसलिए हम परमात्मा के चार हाथ बनाते हैं। चतुर्भुज! उसका मतलब है; चारों दिशाओं से देता है, जब वह देता है। बस हम लेने को राजी हों। तो ऐसा नहीं कि एकाध हाथ से देता है, चारों हाथ से देता है। चार हाथ यानी चार दिशाएं। सब ओर से आता है। फिर आने में कंजूसी नहीं करता। तुम्हीं जाने में कंजूसी कर रहे हो इसलिए अड़चन हो रही है। तुम हटो, तुम जगह दो, तुम स्थान बना दो।
उन स्थान बनाने की प्रक्रियाओं का नाम ध्यान, भक्ति, भजन, कीर्तन--वह प्रक्रियाएं हैं तुम्हारे भीतर स्थान बनाने की। ताकि अगर वह चारों दिशाओं से आना चाहे तो तुम्हारे भीतर अवकाश भी तो चाहिए न! आकाश तो चाहिए उसको समाने को! तुम ही कंजूस हो अपने को छोड़ने में। एक बार तुम अपने को छोड़ दो तो उसकी तरफ से कंजूसी नहीं है।
पूंजी न टूटे नफा चैगुना, बनिज किया हम भारी।
धरमदास कहते हैं, पहले हम व्यर्थ के धंधे में लगे थे। पूंजी भी टूट जाती थी कभी, और लाभ भी होता था तो बस ऐसे ही दो-चार परसेंट। और चोरी-चपाटी बहुत। झूठ बेईमानी बहुत। और फिर भी हर चीज क्षुद्र की क्षुद्र ही रहती थी। कितना ही धन पा लो, कहां कोई धनी हो पाता है! दौड़ तो जारी रहती है--और मिल जाए, और मिल जाए, और मिल जाए। इस और का अंत कहां है? ऐसी कोई घड़ी नहीं आती जहां यह और समाप्त हो जाए।
पूंजी न टूटे नफा चैगुना, बनिज किया हम भारी।
धरमदास कहते हैं, अब हम असली वणिक हुए। अब हमने असली धंधा किया। यह कबीर के साथ जो साझेदारी हो गई, अब हमने असली धंधा किया। अब तक हम यूं ही व्यर्थ की बातों में पड़े रहे। अब हमने ऐसा धंधा किया है जिसमें हार तो होती ही नहीं, जीत ही जीत होती है। एक हार के लिए तुम राजी हो जाओ, फिर जीत ही जीत है। अहंकार की हार के लिए राजी हो जाओ, फिर जीत ही जीत है। और अहंकार की जीत में उत्सुक रहो, हार ही हार है। यह गणित है।
दिल नजर बन जाएगा गम खुशी हो जाएगी
आपके आते ही दुनिया दूसरी हो जाएगी
--पर तुम जाओ तो आपका आना हो।
लाखों में इंतकाब के काबिल बना दिया
जिस दिल को तुमने देख लिया, दिल बना दिया
एक उसकी नजर पड़ जाए, तो तुम्हारे भीतर सोना ही सोना हो जाता है। सब मिट्टी सोना हो जाती है। इसलिए हमने परमात्मा को पारस पत्थर कहा है। और कहीं मत खोजना, पारस पत्थर और कहीं नहीं होता। बच्चों की कहानियों में मत उलझे रहना कि कहीं पारस पत्थर होता है, जो मिल जाए अगर सोने को बनाने के काम आ जाएगा। लोहे को छुओगे सोना हो जाए। पारस पत्थर तो परमात्मा का नाम है। ये तो कहानियां बच्चों को समझाने के लिए लिखी गई हैं।
जिसको परमात्मा का पत्थर मिल गया उसके भीतर सब मिट्टी सोना हो जाती है। तब स्वभावतः फिर आदमी और कुछ नहीं चाहता। चाहे ही क्यों? चाहा था, उससे हजार गुना मिल गया। जितना सोचा नहीं था उतना मिल गया। जितने सपने नहीं देखे थे वे भी पूरे हो गए। जो सपने देखे थे वे तो पूरे हुए ही, जो नहीं देखे थे वे भी पूरे हुए।
मुझे तमाम आलम की आरजू क्यों हो
बहुत है मेरे लिए एक आरजू तेरी
जब यह दिख जाता है तो बस फिर एक परमात्मा पर्याप्त है। लेकिन बस एक बात का खयाल रखना, वहीं से यात्रा अटकती या शुरू होती है। मैं को तो गंवाना पड़ेगा, तभी यह बड़ा व्यापार कर पाओगे, जहां--
पूंजी न टूटे नफा चैगुना, बनिज किया हम भारी।
अनीश आशा नहीं आबाद करना घर मोहब्बत का
यह काम उनका है जो जिंदगी बरबाद करते हैं
एक तरफ तो तुम्हें बरबाद होना ही पड़ेगा। इस तरफ से तो तुम्हें मिटना ही होगा। जितनी देर करोगे उतनी ही तृप्ति में देरी हो जाएगी, जल्दी करो! थोड़े दिन की जिंदगी, मन चेत गंवार।
और उसके आए बिना कोई मोक्ष नहीं। उसके आए बिना कोई वसंत नहीं। और वह आता तुम्हारे जाने पर। यह एक बात ही सारे सत्पुरुषों ने निरंतर दोहराई है।
फसले गुल आने तो दो, फसले खिजां जाने तो दो
खुद-दब-खुद खुल जाएंगी कड़ियां मेरी जंजीर की।
एक ही वसंत है, और वह है, तुम्हारा हट जाना और उसका आगमन। और ध्यान रखना, ये दोनों बातें एक साथ घट जाती हैं। तुम्हारा हटना और उसका आगमन इन दोनों के बीच समय का अंतराल नहीं होता। इधर दीया जला, उधर अंधेरा हटा। इधर तुम गए, उधर वह आया। युगपत!
पूंजी न टूटे नफा चैगुना, बनिज किए हम भारी।
हाट जगाती रोक न सकी है, निर्भय गैल हमारी।।
और अब कोई कर उगाहने वाला भी नहीं आता। अब कोई चुंगी-नाके पर भी नहीं रोकता। और इसी जमीन के चुंगी-नाके नहीं, उस परलोक में भी अगर कोई चुंगी-नाके होंगे तो वहां भी अब कोई रोकनेवाला नहीं। अब तुम मालिक हुए। अब तुम मालिक के हुए।
हाट जगाती रोक न सकी है, निर्भय गैल हमारी।।
अब हमारे रास्ते सब अभय हो गए, अब कोई डर नहीं है। बाहर के धन को पकड़ो, डर बढ़ता जाता है।
अब यह थोड़ा समझना। यह आदमी की विडंबना थोड़ी समझना। आदमी धन इसलिए कमाता है कि डर कम हो जाए। जिंदगी में भय कम हो जाए। पास होगा कुछ तो भय नहीं रहेगा। बीमारी होगी तो उपचार हो सकेगा। बुढ़ापा आएगा, पास पैसा होगा तो कोई फिकर करेगा, सेवा करेगा। पास पैसा होगा तो समाज भी चिंता लेता है। रिश्तेदार भी आस-पास इकट्ठे होते हैं।
गरीब का कोई रिश्तेदार होता है? सब रिश्तेदार अमीर के होते हैं। तुम अमीर हो जाओ, तुम अचानक पाओगे लोग आने शुरू हो गए। जिनकी शक्लें तुमने कभी नहीं देखी थीं। कोई कहता है हम तुम्हारे चचेरे भाई हैं, कोई कहता है हम तुम्हारे ममेरे भाई हैं। रिश्तेदार एकदम से पनप जाते हैं। जैसे वर्षा में एकदम घास हरी हो जाती है। तुम गरीब हो जाओ, सब खो जाए, जो अपने थे वे भी रास्ता काट जाते हैं। रास्ते पर मिल जाते हैं तो दूसरी गली से निकल जाते हैं। जय रामजी करने में संकोच करते हैं।
तो धन होगा तो मित्र होंगे, प्रियजन होंगे, धन होगा तो जिनको तुम अपने कहते हो वे भी अपने होंगे, नहीं तो वे भी अपने नहीं हो जाते। गरीब बाप का बेटा भी अपना नहीं होता। बाप के पास धन हो तो बेटा भी अपना होता है। धन की वजह से अपना होता है, इस जगत के सारे नाते-रिश्ते बड़े अजीब हैं। धन हो तो पत्नी अपनी होती है। धन न हो तो पत्नी भी पराई हो जाती है।
तो आदमी धन इकट्ठा करता है क्योंकि धन में सुरक्षा मालूम होती है। बैंक में बैलेंस होगा, इंश्युरेंस होगा, सुरक्षा होगी। लेकिन परिणाम उलटा घटता है। जितना धन होता है उतना भय बढ़ता है। जितना धन होता है उतना यह डर लगता है कहीं छिन न जाए। जिनके पास है उन्हीं को तो छिनने का भी डर होता है। इसलिए तो धनी रात में सो नहीं पाता। सोने के लिए धन बाधा बन जाता है। सोएं कैसे? कहीं चोर न घुस जाएं। सोएं कैसे, दिन भर की चिंताएं पीछा नहीं छोड़तीं। सोएं कैसे, मन में तो हजार-हजार विचार दौड़ते रहते हैं। यह धंधा किया, वह धंधा किया। यह उलझाव, वह उलझाव। सट्टा और न मालूम क्या-क्या! सोएं कैसे? अमीर आदमी की नींद खो जाती है।
जितना कोई देश अमीर होता जाता है उतनी नींद कम होती जाती है। अमरीका में सर्वाधिक कम नींद है। किसी देश की अमीरी नापनी हो तो उस देश की नींद की मात्रा समझ लेनी चाहिए। उसकी नींद की मात्रा से तय हो जाता है कि देश कितना अमीर है। किसी आदमी की अमीरी नापनी हो तो यही पता लगा लेना चाहिए कि रात सोता है कि नहीं। अगर सोता है तो अभी गरीब है। अभी कुछ खास नहीं हुआ। अभी सोने लायक चल रही है हालत। अभी इतना नहीं है कि घबड़ा जाए और रात सो भी न पाए।
तुमने सुना न, कहानियां कहती हैं, अमीर आदमी मर जाता है तो फिर सांप होकर अपने गड़े हुए धन पर बैठ जाता है। मर कर बैठता हो, न बैठता हो, जिंदगी में बैठा रहता है। सांप बन कर रात भर, दिन भर। सबसे भयभीत हो जाता है। अमीर आदमी अपने बेटे को भी अपने पास नहीं बुलाता ज्यादा। अपनी पत्नी से भी फासला रखता है। अपने खाते-बही सबसे छिपाता है। कितना उसके पास है किसी को कभी पता नहीं चलने देता। यह तो भय कम न हुआ और बढ़ गया।
धरमदास कहते हैंः
हाट जगाती रोक न सकि है, निर्भय गैल हमारी।
वह बाहर का उपद्रव हमने जिस दिन से छोड़ा उस दिन से अभय हो गए। अभी एक ऐसा धन है जिसे कोई चुरा नहीं सकता। यह एक ऐसा धन है जिसे मृत्यु भी नहीं छीन सकती, और तो कोई क्या छीनेगा! यह अमृत है। अब सारा भय गया।
मोती बूंद घटहिं में उपजे...
और यह ऐसा धन है, एक ऐसा मोती है जो तुम्हारे घट में ही उपजता है, यह बाहर पैदा नहीं होता। जो बाहर से आया है वह बाहर से छीना जा सकता है, ध्यान रखना। जो भीतर उमगा है वही बाहर से नहीं छीना जा सकता। जो भीतर का है वही तुम्हारा है। जो बाहर का है वह तो तुमने किसी से छीन लिया है, तुमसे भी कोई छीन लेगा। वहां तो छीना-झपटी चल रही है। थोड़ी-बहुत देर के लिए तुम्हारे हाथ में है, बस थोड़ी-बहुत देर के लिए। तुम सोचो न! तुमने भी किसी से छीना है तुमसे भी छिन जाएगा। यहां दो-चार दिन की सारी शान-शौकत है।
मोती बूंद घटहिं में उपजे...
जैसे मोती भी तो सीप के घट में पैदा है, ऐसे ही यह परम धन भी तुम्हारे हृदय के अंतरतम में प्रकट होता है।
मोती बूंद घटहिं में उपजे, सुकिरत भरत कोठारी।
और फिर तुम भरते जाओ इस मोती के धन को, जितना भरना हो। इस पुण्य के तुम जितने ढेर लगाना चाहो, लगाओ। इस परमार्थ के, इस परम धन के तुम जितनी ज्यादा उपलब्धि करनी हो, करो। कोई छीनने वाला नहीं है। सच तो यह है, तुम इसे बांटोगे, बचाओगे नहीं। क्योंकि यह बांटने से बढ़ता है, बचाने से सड़ता है। ज्ञानी को ज्ञान बांटना ही होता है। विचार तो उसे भी आता है क्योंकि पुरानी आदतें! सदा चीजों को रोककर रखा है। जब पहली दफा ज्ञान भी घटता है तो उसको भी विचार आता है कि क्या करूं? किसी से कहूं कि न कहूं?
इश्क का राज जमाने से कहूं या न कहूं?
इस अंधेरे में कोई शमा जलाऊं कि नहीं?
सोचता है कि क्या करना, मैं क्यों झंझट में पड़ूं? हम झंझट के बाहर हो गए, अब क्या झंझट लेनी! अब क्यों सिर मारूं? सभी ज्ञानियों को यह प्रश्न उठता ही है। क्योंकि बामुश्किल तो झंझट के बाहर हुए। किसी तरह तो बाजार से छुटकारा मिला। लोगों से मुक्ति हुई, अब फिर चलो बाजार की तरफ?
महावीर बारह वर्ष जंगल में रहे, तब परम ज्ञान घटा। फिर चले बाजार की तरफ। फिर आ गए बस्ती में। बुद्ध छह बरस तक वृक्षों के नीचे बैठ-बैठे, बैठे-बैठे ज्ञान को पाए। फिर चले, उठे। फिर बयालीस वर्ष तक बांटते रहे गांव-गांव। बुद्ध को विचार आया था, सात दिन तक चुप बैठे रह गए थे। सोचा था, क्या सार है? अब पा लिया, अब कहां जाना?
लेकिन कोई भी रुक नहीं सकता पाकर। क्योंकि जैसे ही तुम पाते हो, जल्दी ही यह बात भी समझ में आ जाती है कि यह धन ऐसा है कि इसे बांटोगे तो बढ़ेगा, रोकोगे तो सड़ जाएगा।
जिस कुएं से कोई पानी न भरे, वह कुआं उदास हो जाता है। जिस कुएं से पानी न भरा जाए, उस कुएं का पानी आज नहीं कल जहर हो जाएगा, पीने योग्य न रह जाएगा। और जिस कुएं से कोई पानी न भरे उसमें झरने नये पानी नहीं लाते। झरने क्यों लाएंगे? पुराना ही नहीं चुका है तो नये को लाने की कोई जरूरत नहीं है। कुआं जितना उलीचा जाता है उतना जवान रहता है। जितनी ज्यादा पनघट पर पनिहारिन इकट्ठी होती हैं, जितना कुआं भरा जाता है, खींचा जाता है, उतना कुआं गीत गाता है। उतना कुआं मग्न होता है, क्योंकि चला आता है, नये स्रोत खुलते हैं, नया जल बहता है।
नये के बहाव में जिंदगी है। नया रोज-रोज उतरता रहे, नये का प्रवाह बना रहे, यही तो जीवंतता है। जवानी की खूबी क्या है? क्योंकि जवानी में नये का प्रवाह होता है। बुढ़ापे का दुख क्या है? क्योंकि नये का आना बंद हो गया, जलस्रोत सूख गए। अब कोई पानी भरने नहीं आता।
ज्ञानी मरते दम तक जवान रह सकता है, अगर बांटता रहे। और यह बात जल्दी ही समझ में आ जाती है। ज्ञानी की समझ में न आएगी तो किसकी समझ में आएगी? हालांकि शुरू में उसके सामने सवाल उठता है कि अब तो ठीक है, अपना पा लिया, अब क्या पंचायत में पड़ना! अब आंख बंद करो और मजा करो। चैन की बांसुरी बजाओ। लेकिन ज्यादा देर कोई आंख बंद करके नहीं बैठ सकता। जब तक सत्य को नहीं पाया है तब तक आंख बंद रखनी पड़ती है। जब सत्य को पा लिया तो आंख खोल कर खोजना पड़ता है उन लोगों को, जो सत्य के लिए प्यासे हैं। जो झोली लिए भटक रहे हैं, जो रोशनी के दीवाने हैं।
मोती बूंद घटहिं में उपजे, सुकिरत भरत कोठारी।
नाम-पदारथ लाद चला है, धरमदास वैपारी।।
और धरमदास कहते हैं, लाद लिया हैं नाम पदारथ। निकल पड़े हैं बेचने। यह काफिला बेचने निकला है। गांव-गांव जाएंगे। हृदय-हृदय को ठकठकाएंगे। द्वार-द्वार पर आवाज लगाएंगेः खरीद ले कोई नाम!
थोड़े दिन की जिंदगी, मन चेत गंवार।।
पुकारेंगे लोगों को, चिल्लाएंगे। जीसस ने कहा है, चढ़ जाओ घर की मुंडेरों पर और चिल्लाओ कि हमें मिल गया है। जिसे चाहिए वह आ जाए और ले ले।
थोड़े दिन कि जिंदगी, मन चेत गंवार।।
कहो लोगों से जाकर। वही धरमदास कहने लगे लोगों से जाकर, कि बहुत थोड़े दिन की जिंदगी है। चेत जाओ, जाग जाओ। न जागे तो भी यह जिंदगी चली जाएगी। जाग गए तो ऐसी जिंदगी मिल जाएगी, जो कभी नहीं जाती। अगर बिना जागे चले गए तो अवसर खोया। फिर बहुत पछताओगे। यह जिंदगी, इस जिंदगी के सारे सपने क्षणभंगुर हैं।
मेरे ख्वाबों के झरोखों को सजाने वाली
तेरे ख्वाबों में कहीं मेरा गुजर है कि नहीं
पूछ कर अपनी निगाहों से बता दे मुझको
मेरी रातों के मुकद्दर में सहर है कि नहीं
चार दिन की यह रफाकत जो रफाकत भी नहीं
उम्र भर के लिए आजार हुई जाती है
जिंदगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर सांस गिराबार हुई जाती है
मेरी उड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी ख्वाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी कभी गैर नजर आती है
कभी इखलास की मूरत, कभी हरजाई है
प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी
तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं
तूने खुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओं का इजहार करूं या न करूं
तू किसी और के दामन की कली है लेकिन
मेरी रातें तेरी खुशबू से बसी रहती हैं
तू कहीं भी हो तेरे फूल से आरिज की कसम
तेरी पलकें मेरी आंखों में झुकी रहती हैं
तेरे हाथों की हरारत तेरे सांसों की महक
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में
ढूं.ढ़ती रहती हैं तखील की बांहें मुझको
सर्द रातों की सुलगती हुई तनहाई में
तेरा अल्ताफो-करम एक हकीकत है मगर
यह हकीकत भी हकीकत में फंसाना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोहताब पयाम
दिल के खूं करने का एक और बहाना ही न हो
कौन जाने मेरे इमरोज का फरदा क्या है
कुरबतें बढ़के पशेमान भी हो जाती हैं
दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीन नजरें
देखते-देखते अनजान भी हो जाती है
जिंदगी, जिंदगी के प्रेम, जिंदगी के लगाव, जिंदगी के संबंध, सब सपने हैं। सपने का अर्थ समझ लेना। जो टूट जाता है वह सपना है। जो नहीं टूटता वह सत्य है। जो सदा है वह सत्य है। जो कभी-कभी है वह सपना है। सपने का अर्थ यह नहीं होता कि जो नहीं है। सपने का इतना ही अर्थ होता है, जो पानी के बबूले की तरह है।
तेरा अल्ताफो-करम एक हकीकत है मगर
ये हकीकत भी हकीकत में फंसाना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोहताब पयाम
दिल के खूं करने का एक और बहाना ही न हो
यहां जिंदगी में जितने हम उपाय खोज लेते हैं, ये सिर्फ समय को गंवाने के उपाय हैं। यहां का प्रेम भी सपना है। यहां का धन भी सपना है। यहां का पद भी सपना है। इन सपनों से जो जागता है, वह सतनाम को उपलब्ध होता है।
थोड़े दिन की जिंदगी, मन चेत गंवार।।
आज हम हैं, कल हम नहीं होंगे। इसलिए जो भी हम आज कर रहे हैं इस बात को दृष्टि में रख कर किया जाना चाहिए कि कल हम नहीं होंगे। अगर हमें कल आने वाली मौत का स्मरण रहे, तो हमारी जिंदगी में क्रांति हो जाएगी। फिर शायद तुम इतना धन इकट्ठा करने के पीछे पागल न होओ। जिंदगी इतनी छोटी है, इतने धन का करोगे क्या? फिर शायद तुम किसी ऐसे धन की तलाश में लग जाओ, जो मौत के पार भी तुम्हारे साथ जाएगा।
लेकिन मौत को हम टालते हैं। मौत को हम मानते भी नहीं। मौत की हम बात भी नहीं करते। मौत को हम बीच में भी नहीं लाते हैं। मौत को हमने गांव के बाहर कर रखा है--अंत्यज! मरघट भी बाहर बना दिए हैं, कब्रिस्तान भी बाहर बना दिए हैं। कोई लाश निकलती है तो मां अपने बेटे को अंदर बुला लेती है कि भीतर आ जा। दरवाजा बंद कर देती है।
मौत को हम झुठलाना चाहते हैं। हम मन में यह बात मानकर जीना चाहते हैं और लोग मरते हैं, मैं थोड़े ही मरूंगा! मैं अपवाद हूं। कहीं भीतर हमारे यह भाव होता है। और फिर अगर मरूंगा भी, समझो कि मरना भी पड़ेगा तो आज थोड़े ही मर रहा हूं! अभी बहुत दिन पड़े हैं। हम उन दिनों की गिनती भी नहीं करते। कितने होंगे बहुत दिन? सात वर्ष कि सत्तर वर्ष, क्या फर्क पड़ता है? आज नहीं कल मौत द्वार पर दस्तक दे देगी। और मौत के द्वार पर दस्तक देते ही तुम्हारी सारी योजनाओं पर पानी फिर जाएगा। तुमने जो मनसुबे बांधे थे, सब गिर जाएंगे। तुमने जो आशाएं सजाई थीं, सब राख हो जाएंगी। जो आशाएं मौत के एक धक्के से गिर जाती हैं, उन आशाओं में बहुत सत्व नहीं है। उनसे जो जाग जाता है, वही गंवार नहीं हैं। अन्यथा सब गंवार हैं।
थोड़े दिन की जिंदगी, मन चेत गंवार।।
कागद के तन पूतरा, डोरा साहब हाथ।
तुम ऐसे हो जैसे कागज की पुतली।..ड़ोरा साहब हाथ!
कभी पुतलियों का नाच देखा? जरूर देखना चाहिए क्योंकि वह तुम्हारा ही नाच है। पुतलियां खूब नाचतीं, घूमतीं, प्रेम करतीं, विवाह होता है, युद्ध भी हो जाता है। तलवारें निकल आती हैं और डोरा पीछे छिपा है किसी हाथ में। पुतलियों को भी थोड़ा होश होता तो वे भी यही सोचतीं की हम ही यह सब कर रहे हैं। यह लड़ाई, यह झगड़ा, यह प्रेम, यह दोस्ती, यह दुश्मनी हम कर रहे हैं। उनको भी तो डोरा दिखाई नहीं पड़ता। तुमको नहीं दिखाई पड़ता तो उनको कैसे दिखाई पड़ेगा? डोरा उसके हाथ में है। वही लाता है तो हम आते हैं। वही ले जाता है तो हम चले जाते हैं। उसके किए ही हम हैं। उसके ना किए हम नहीं हो जाएंगे। फिर भी डोरा हम नहीं देखते। डोरा अदृश्य है।
और यह शरीर कागज से ज्यादा नहीं है। जैसे ही प्राणपखेरू उड़े--प्राणपखेरू उड़े, अर्थात डोरा टूटा--वैसे ही जिनको तुमने प्रेम किया था सदा, जिन्होंने तुम्हारे शरीर की बड़ी प्रशंसाएं की थीं, बड़ा सुंदर कहा था, वे ही जल्दी से अरथी बांधने लगेंगे। जल्दी से ले चले मरघट। चिता तैयार होने लगी।
जरा सोचो तो, कभी तुमने बैठ कर इस पर विचार किया, ध्यान किया? करना। कि तुम्हारा बेटा, तुम्हारे पिता, तुम्हारे भाई, तुम्हारे मित्र यही कंधे पर रख कर तुम्हारी लाश को ले जाने लगेंगे। इतनी जल्दी मच जाती है जैसे ही कोई मरता है कि जल्दी करो क्योंकि मरे हुए आदमी को देख कर जिंदा आदमियों को बेचैनी होने लगती है। उनको खयाल आने लगता है हमको भी मरना होगा। वे जल्दी से, अच्छे वस्त्र पहना कर और कपड़े-लत्ते ढांक कर, फूल डाल कर मौत को छिपा कर चले। और जिसने जिंदगी भर राम का नाम नहीं लिया उसकी लाश के सामने कहते हैं, राम नाम सत्य है।
किसी व्यापारी से राम नाम ले लो, इसके पहले कि ये नासमझ जिनको खुद भी राम नाम नहीं मिला है, राम नाम सत्य करें। ये तुम्हारे पड़ोसी राम नाम सत्य करेंगे। जैसे तुम दूसरों का कर आए ऐसे ही ये तुम्हारा कर आएंगे। यही तो लोक रीति है। तुम खुद ही राम का सत्य नाम कर लो। वही तो कह रहे हैंः हम सतनाम के वैपारी। तुम किसी धनी से ले लो राम नाम--तुम ही गुंजा लो अपने भीतर जीते जी। तुम ही मोती को अपनी सींप में बना लो। यह देह तो--
कागद के तन पूतरा, डोरा साहब हाथ।
नाना नाच नचावही, नाचे संसार।।
काचि माटी के घइलिया, भरि लै पनिहार।
कहते हैं धरमदास कि इतने नाच तुम जो नाच रहे हो, यह मत सोचना कि तुम्हीं इसके मालिक हो। वहीं भ्रांति है आदमी की, वहीं उसका अहंकार है। जिस दिन तुम्हें दिखाई पड़ता है, मालिक नचाता है, हम नाचते हैं, उस दिन अहंकार गया।
अर्जुन यही तो कह रहा था कि मैं चला युद्ध छोड़कर। यह नाच मैं नहीं नाचना चाहता हूं। यह मेरा नाच नहीं है। मैं अपनों को कैसे मारूं? इस तरफ भी मेरे भाईबंद हैं, उस तरफ भी मेरे भाईबंद हैं। मेरे गुरु उस तरफ खड़े हैं। मेरे पूज्य उस तरफ खड़े हैं, इस तरफ खड़े हैं। यह मुझसे नहीं होगा। यह नाच मैं नहीं नाचना चाहता।
कृष्ण की पूरी गीता का सार कितना है? इतना ही--कागद के तन पूतरा, डोरा साहब हाथ। बस इसमें सारी गीता आ गई। डोरा साहब हाथ--इसमें पूरी भगवद्गीता आ गई। कृष्ण इतना ही समझा रहे हैं कि पागल, तेरा नाच है ही नहीं यहां कुछ। करने वाला वह है। तू उपकरण मात्र, निमित्त मात्र। डोरा साहब हाथ! जरा डोरे को देख। उसकी मर्जी तो युद्ध हो रहा है। तो तलवारें खींच, युद्ध होने दे। उसकी मर्जी होगी, संन्यस्त होगा। लेकिन उसकी मर्जी से होगा, तेरे किए कुछ नहीं होगा। तू अपने को बीच में मत ला।
गीता को समझोगे तो दो बातें समझ में आएंगी। अर्जुन अहंकार की घोषणा कर रहा है यद्यपि अहिंसा के नाम से। अहिंसा के नाम से भी आदमी अहंकार की घोषणा कर सकता है। बात तो बड़ी प्यारी लगती है, त्यागी, तपस्वी बन रहा है, संन्यासी बन रहा है। छोड़ दूं यह सब। युद्ध में क्या रखा है! मारने में क्या सार है! मारने में तो पाप ही पाप है। बात जंचती है।
तुम भी अगर सोचोगे तो अर्जुन की बात जंचेगी। तुम्हारी जिंदगी में भी अर्जुन की बात ही मान कर तुम चल रहे हो, कृष्ण की बात मान कर चल नहीं रहे हो। मैंने सैकड़ों गीता के पढ़नेवाले देखे हैं। वे पढ़ते गीता हैं, मानते अर्जुन को हैं, कृष्ण को नहीं। मगर इस तरह पढ़ते हैं तोतों की तरह कि उन्हें याद ही नहीं आता कि वे क्या पढ़ रहे हैं और क्या कर रहे हैं!
कृष्ण कुछ और कह रहे हैं। कृष्ण यह कह रहे हैं, यह तेरी अहिंसा, यह तेरा ज्ञान, यह तेरा धर्म, यह तेरा पुण्य सिर्फ तेरे अहंकार की छिपी हुई घोषणाएं हैं। तू यह कह रहा है कि मैं नियंता हूं। और मैं तुझसे चाहता हूं कि तू ठीक से देख ले--डोरा साहब हाथ। वह जैसा नाच नचाए वैसा नाच। नाना नाच नचावहि, नाचे संसार। आज उसकी मर्जी युद्ध की है। पुतलियों को आज लड़ाना चाहता है। तेरे किए कुछ न होगा। तू इस भ्रांति को छोड़ दे।
यही भ्रांति मनुष्य का अहंकार है। अर्जुन अहिंसा की बात कर रहे हैं, कृष्ण निर-अहंकारिता की। बस इतना ही। और वास्तविक धार्मिक में और झूठे धार्मिक में यही फर्क है। झूठा धार्मिक अर्जुन जैसा होता है। बातें तो बड़ी ऊंची करता है। लेकिन सारी ऊंची बातों के पीछे अहंकार छिपा होता है। कृष्ण की बात इतनी ऊंची जंचती भी नहीं। युद्ध करवाने की बात कैसे ऊंची हो सकती है? हिंसा करवाने की बात कैसे ऊंची हो सकती है? इतनी ऊंची जंचती भी नहीं। मगर बड़ी ऊंची है। क्योंकि उसके भीतर जो सार सूत्र है वह यह है, कि तू अहंकार को हटा ले। तू कह दे, जो तेरी मर्जी। फिर जो उसकी मर्जी!
और तुम यह मत सोचना कि कृष्ण यह कह रहे हैं कि तू युद्ध कर ही। कृष्ण सिर्फ इतना ही कह रहे हैं, तू उसकी मर्जी पर छोड़ दे। युद्ध किया अर्जुन ने क्योंकि जैसे ही उसकी मर्जी पर छोड़ा, उसके हाथ जो कुछ करवाएं वही हुआ। यह जरूरी नहीं था। यह भी हो सकता था कि अर्जुन संन्यस्त हो जाता, लेकिन तब संन्यास असली होता।
अपने से लिया गया संन्यास असली नहीं होता। परमात्मा के हाथ में अपने को छोड़ देने से असली संन्यास फलित होता है।
काचि माटी के घइलिया...
यह जिंदगी तो कच्ची मिट्टी का घड़ा है।
...भरि लै पनिहार।
कहते हैं धरमदास, इसके पहले कि यह फूट जाए--यह कभी भी फूट जाएगी। कच्ची माटी की चीज है। इसके पहले भर ले। इस अवसर को उस पूरण से भर ले। इस मिट्टी में उस पारस को बुला लो। इसके पहले कि यह मिट्टी पिघल जाए, मौत आ जाए और मिट्टी में मिट्टी गिर जाए...
काचि माटी के घइलिया, भरि लै पनिहार।
मन चेत गंवार!
पानी परत गल जावही...
यह मौत आएगी और सब गल जाएगा। इस घड़े की बहुत देख रेख मत करते रहो। इस घड़े का उपयोग कर लो।
लेकिन लोग देख रेख में लगे हैं, घंटों आईनों के सामने खड़े हैं, सजावट कर रहे हैं। यह पहनें कि वह पहनें, ऐसे बाल कटाएं कि वैसे बाल कटाएं।
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन बाल बनवाने गया। होशियार आदमी है। पहले पूछा कि भाई, कितने तरह के बाल यहां बनाए जाते हैं? तो सब तरह के बताए उसने कि अगर संन्यासी के ढंग के बनवाने हों तो बिलकुल सफाचट! चार आने में बना देता हूं। अगर दिलीप कुमार कट बनवाने हों तो एक रुपया लगता है। ऐसे उसने सब बताया। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहाः अच्छा ठीक, पहले तो संन्यासी...। पहले सस्ते से शुरू करो। उसने सिर घोंट दिया। तब उसने कहा, अच्छा ठीक, अब दिलीप कुमार कट! कहाः तुम पागल हो गए हो?
मुल्ला ने कहाः तू घबड़ा मत। पैसे की फिकर मत कर। अभी तो हम सब तरह के कट बनवाएंगे। यह तो अभी सिर्फ शुरुआत है। चवन्नी से तो शुरुआत की है।
आदमी जिंदगी भर सब तरह के कट, सब तरह की जिंदगियां जी लेना चाहता है। अभिनेता की भी, नेता की भी, धनी की भी, यशस्वी की भी, नाम वाले की भी, पुण्यात्मा की भी--सब तरह की जिंदगी जी लेना चाहता है। और सारे के पीछे यह खयाल है कि जैसे मैं सदा रहूंगा।
और यह शरीर मिट्टी का घड़ा है। और जब तुम इसको सजाने में समय गंवा रहे हो, यह घड़ा खाली का खाली है। तुम इसके ऊपर ही बेल-बूटे निकाल रहे हो। तुम इस पर चांदी-सोना चढ़ा रहे हो, हीरे-जवाहरात लगा रहे हो। और घड़ा खाली है और मौत करीब आ रही है। और मौत की पहली फुहार, कि यह घड़ा मिट्टी में गिर जाएगा। सब तुम्हारा चांदी-सोना, तुम्हारी सब नक्काशियां, तुम्हारे बेल-बूटे, सब मिट्टी में पड़े रह जाएंगे।
भरि लै पनिहार! इसके पहले कि यह घटना घटे, भर लो।
आईना तोड़ दिया?
तोड़ दिया, तोड़ दिया!
शक्ल एक बार जरा देख तो लो
देखो अब कैसी नजर आती हो
फिर वही आंखों में रंग आता है
या झिझक जाती हो, डर जाती हो!
इसी आईने में देखा था वह हुस्न
जिसका दुश्वार यकीं होता था
और पूछा था बड़े नाज के साथ
कोई इतना भी हंसी होता है?
इसमें आईने की खूबी तो नहीं
हुस्न जब था तो नजर आया था
पा चुकी थी तुम्हें दुनिया लेकिन
तुमने अपने को कहां पाया था?
और जब अपने को पाया तुमने
जाने आईने को क्यों तोड़ दिया?
हादसा यह भी नहीं है लेकिन
देखना अपने को क्यों छोड़ दिया?
शक्ल एक बार जरा देख तो लो
देखो अब कैसी नजर आती हो
आज सुंदर हो, आईने से बड़ी दोस्ती है। आज युवा हो, आईने से बड़ा प्रेम है। कल बूढ़े हो जाओगे तब आईने पर बड़ा क्रोध आएगा। आईने का कोई कसूर नहीं है। जिंदगी का यह ढंग है।
जिंदगी एक बहाव है, बहती हुई चीज है। यहां कुछ भी थिर नहीं है। यहां थिर की आकांक्षा भ्रांति है। इसके पहले कि मिट्टी का घड़ा मिट्टी में गिर जाए...
काचि माटी के घइलिया, भरि लै पनिहार।
पानी परत गल जावही, ठाड़ी पछिताए।।
और फिर बहुत पछतावा होगा। कुछ कर न लिया, जब दिन थे। कुछ कर न लिया, जब घड़ी थी। कुछ कर न लिया, जब ऊर्जा थी। कुछ कर न लिया, जब शक्ति थी। कुछ उड़ान न भर ली जब पंख थे। कुछ पुकार न लिया, जब वाणी थी। जब हृदय ऊर्जा से आपूर था तब परमात्मा को न पुकारा; तब मंदिर की खोज नहीं की। तब बाजारों में ठीकरे इकट्ठे करते रहे।
जस धुआं के धरोहरा, जस बालू के रेत।
जैसे कि कभी आकाश में चिमनी से उठते धुएं में ऐसा लगता है जैसे मीनार बन गई--ऊंची मीनार, कुतुबमीनार।
जस धुआं के धरोहरा, जस बालू के रेत।
--या रेत के कोई घर बनाते हैं बच्चे।
हवा लगे सब मिटि गए, जस करतब प्रेत।।
जैसे कि कोई जादूगर खेल दिखाता हो या कोई प्रेत तुम्हारे मन के भय ने ही खड़ा कर लिया हो और करतब दिखाता हो।
कभी देखा न? रात के अंधेरे में अपना ही टंगा हुआ लंगोट रस्सी पर--ऐसा लगता है कि आ गए! दोनों हाथ लिए खड़े हैं। खुद ही टांगा है लंगोट, मगर छाती धक से हो जाती है। ऐसी ही यह जिंदगी है।
जस धुआं के धरोहरा, जस बालू के रेत।
हवा लगे सब मिटि गए, जस करतब प्रेत।।
ओछे जल कै नदिया हो, बहै अगम अपार।
इस छोटी सी ओछी नदी में क्यों समय खराब कर रहे हो? इसके पास ही, बिलकुल पास ही--बहै अगम अपार।
उहां नाव नहिं बेरा हो...
वहां नाव भी नहीं लगती उस अपार में। वहां कोई बेड़ा भी नहीं है।
...कस उतरब पार।।
और तुम इस छोटी सी नदी में ही जिंदगी खराब कर रहे हो। उस अगम में जाना ही होगा। आज नहीं कल यह नदी भी उस अगम में गिर जाएगी। वहां धन काम नहीं आएगा, पद काम नहीं आएगा।
उहां नाव नहिं बेरा हो, कस उतरब पार।।
यहां की सीखी कोई कला हाथ नहीं आएगी। कुछ उस जगत में उतरने की कला सीख लो। कुछ ध्यान सीख लो, कुछ प्रेम सीख लो, कुछ भक्ति सीख लो।
धरमदास गुरु समरथ हो...
--किसी समर्थ गुरु को खोज लो।
...जाको अदल अपार।
जिसका शासन अपार पर भी चलता है। किसी ऐसे को पकड़ लो जिसकी गति असीम में भी हो गई है। उसी का संग-साथ मिल जाए तो शायद तुम भी अपार को पार कर जाओ।
साहेब कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन निवार।।
धरमदास कहते हैं, मैं तो धन्य हो गया। मुझे तो गुरु मिल गए। तुम भी खोज लो।
साहेब कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन निवार।।

आज इतना ही।

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