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बुधवार, 15 अगस्त 2018

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन--माधव जन्म तुम्हारे लेखे!

प्रश्न-सार

॰ शिष्यों का चोरी-छिपे दूसरे गुरु को सुनने जाना क्या है--जिज्ञासा, अवज्ञा या और अधिक खोज?
॰ आपकी बातें सीधी और साफ होने के बावजूद भी शिक्षाशास्त्रियों तथा राजनीतिज्ञों की समझ में क्यों नहीं आतीं?
॰ भगवान, मैं कितना भाग्यवान हूं कि मुझे आप मिले!
॰ सभी भक्त अपने-अपने धर्मगुरु की प्रशंसा में अतिशयोक्ति क्यों करते हैं?
पहला प्रश्नः यदि समर्पित शिष्य चुपचाप चोरी-छिपे किसी दूसरे बुद्धपुरुष को सुनने जाएं तो क्या वह मात्र जिज्ञासा है या अवज्ञा है या और अधिक की खोज है?
॰ कृष्ण मोहम्मद! ऐसे व्यक्ति दया के पात्र हैं। उन्होंने जाना ही नहीं प्रेम क्या है। और प्रेम को बिना जाने कोई समर्पण नहीं है। और जो समर्पित नहीं है, वह शिष्य नहीं है। शिष्य होने का ढोंग एक बात है, शिष्य होना बड़ी दूसरी बात।

शिष्य तो वही होता है, जो अपने सिर को काट कर जमीन पर रख दे; जो अपने को पोंछ ले, मिटा ले। अहंकार जरा सा भी बचा हो तो शिष्यत्व कहां! जो ऐसा झुके कि उठे नहीं, वही शिष्य है। शिष्य को कहां फुरसत! शिष्य को अपने गुरु में सब मिल गया। शिष्य को अपने गुरु में सारे बुद्धपुरुष मिल गए--अतीत के, वर्तमान के, भविष्य के। उसने सार-संपदा पा ली। अब कहां जाना? अब क्यों जाना? अब किसलिए जाना?
तुम्हारी प्यास बुझ गई हो तो तुम झरने नहीं खोजते फिरोगे, कुएं नहीं खोदते फिरोगे। प्यास न बुझी हो तो अनिवार्यतया झरने खोजने पड़ेंगे, कुएं खोदने पड़ेंगे।
शिष्य और विद्यार्थी का यही फर्क है। विद्यार्थी का अर्थ हैः जो ज्ञान बटोर रहा है। जहां से मिल जाए! कहीं से भी मिल जाए! विद्यार्थी अपने अहंकार को ज्ञान से भर लेने में उत्सुक है। जितना ज्यादा जान लेगा, उतना ज्यादा होगा। जानकारी उसका लक्ष्य है।...तो ऐसा ही नहीं है कि बुद्धपुरुषों को सुनने जाएगा; जो बुद्धपुरुष नहीं हैं, उनको भी सुनने चला जाएगा। कहीं भी कुछ हो, विद्यार्थी तो सिर्फ ज्ञान बटोर रहा है। अज्ञानी से भी मिलता हो तो उसको भी बटोर लेना है ज्ञानी से ही थोड़े! ज्ञान और अज्ञान का विद्यार्थी को क्या प्रयोजन! कहीं से कुछ सूचनाएं मिल जाएं, कुछ तथ्य मिल जाएं, थोड़ी संपत्ति ज्ञान की और बढ़ जाए...। उस ज्ञान की संपदा की तलाश में लोग खोजते हैं, भटकते हैं।
और मजा ऐसा है कि ज्ञान बटोरने से नहीं मिलता। ज्ञान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा यही जानकारी है।
शिष्य वह है, जो अपनी जानकारी छोड़ देता है; जो कहता हैः अब मुझे जानना ही नहीं--अब मुझे होना है। होने के लिए एक काफी है। जानने के लिए अनेक भी काफी नहीं हैं!
बुद्ध और महावीर एक साथ हुए; एक ही समय में हुए; एक ही प्रदेश में हुए। कभी-कभी ऐसा हुआ कि एक गांव में बुद्ध गुजरे, दूसरे दिन महावीर गुजरे। कभी ऐसा हुआ कि एक ही गांव में दोनों ठहरे भी; चैमासा एक ही गांव में हुआ। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक ही धर्मशाला के आधे हिस्से में बुद्ध ठहरे, आधे में महावीर ठहरे।
यह सवाल तब भी उठता था। यह सवाल पुराना है। यह कृष्ण मोहम्मद का नया सवाल नहीं है। बुद्ध का कोई शिष्य महावीर को सुनने गया कि महावीर का कोई शिष्य बुद्ध को सुनने गया, तो दूसरे शिष्यों के मन में स्वभावतः प्रश्न उठा कि बुद्ध का जो शिष्य महावीर को सुनने गया है, क्या उसे बुद्ध से नहीं मिल रहा है? बुद्ध तो बरसा रहे हैं। औरों को मिल रहा है; उसे नहीं मिल रहा है? कहीं चूक उससे हो रही है। जो महावीर का शिष्य है, उसे महावीर से नहीं मिल रहा है। महावीर तो बरसा रहे हैं। लेकिन उसके पात्र में नहीं समाता, नहीं आता। उसके द्वार बंद हैं। तो बजाय द्वार खोलने के, वह यही सोचता है कि शायद महावीर के पास नहीं है, बुद्ध के पास मिल जाए; बुद्ध के पास नहीं है, मक्खली गोशाल के पास मिल जाए; मक्खली गोशाल के पास नहीं है, अजित केशकंबल के पास मिल जाए! यहां जाऊं, वहां जाऊं--कहीं से बटोर लूं!
और मजा यह है कि उसे पाने की कला नहीं आती। तो बुद्ध के पास भी चूकेगा और महावीर के पास भी चूकेगा और अजित केशकंबल के पास भी चूकेगा। सदियों-सदियों तक चूकेगा। क्योंकि पाने का बहुत संबंध बुद्ध और महावीर से नहीं है।
ऐसा समझो कि एक अंधा आदमी है। उसे दिखाई नहीं पड़ता, तो वह कहता है; यह दीया रोशनी नहीं देता, मैं दूसरा दीया तलाशूंगा। मैं और अच्छा दीया खरीदूंगा। मैं ऐसा दीया लाऊंगा, जिसमें मुझे दिखाई पड़ना शुरू हो जाए।
वह दूसरा दीया ले आता है। लेकिन अंधे आदमी को क्या फर्क पड़ता है! यह दीया हो कि वह दीया हो--सब दीये बराबर हैं! अंधा आदमी अंधेरे में रहता है। फिर इस दीये से भी थक जाता है तो और दीया खोजता है। मगर एक बात उसे खयाल नहीं आती कि मैं अपनी आंख का इलाज करूं, उपचार करूं।
बुद्ध में भी मिल जाएगा, महावीर में भी मिल जाएगा, कृष्ण में भी मिल जाएगा, क्राइस्ट में भी मिल जाएगा। हजारों दीये जले हैं। सभी दीयों में एक ही रोशनी है। मगर अंधे को किसी में न मिलेगा। पर अंधे का अहंकार यह भी मानने के लिए राजी नहीं होता कि मेरी आंखों की कोई खराबी है, इसलिए नहीं दिखाई पड़ता। अंधे का अहंकार यही कहता है, इस दीये में रोशनी न होगी, कोई और दीया तलाशूं; इस कुएं में पानी नहीं है, किसी और कुएं को खोजूं। और मेरे कंठ को पीना नहीं आता, यह बात अहंकार स्वीकार नहीं करता। अहंकार दोष अपने पर नहीं लेता।
तो कृष्ण मोहम्मद, वे दया के पात्र हैं! जो इस तरह भटकते हैं, उन्हें भटकने से कुछ भी न मिलेगा। भटकने से हो सकता है, कुछ कूड़ा-कर्कट इकट्ठा कर लें, कुछ जानकारियां इकट्ठी कर लें। वे जानकारियां ज्ञान के मार्ग में और बाधा बन जाएंगी।
और फिर, एक सदगुरु का एक ढंग होता है, दूसरे सदगुरु का दूसरा ढंग होता है। इस तरह के लोग बिगूचन में पड़ जाते हैं। इस तरह के लोग न यहां के होते हैं, न वहां के। न घर के, न घाट के--धोबी के गधे हो जाते हैं। आधे में लटक जाते हैं! विपरीत बातें सुन लेते हैं। और मुश्किल बढ़ जाती है, घटती नहीं। क्योंकि एक ने ऐसा कहा, दूसरे ने ऐसा कहा। और दोनों ठीक ही कहते होंगे। अपने-अपने रास्ते पर बात ठीक ही होगी।
लेकिन इस तरह के आदमी की हालत वही हो जाती है, जैसे कोई बीमार होम्योपैथ के पास जाए, आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाए, ऐलोपैथिक डाक्टर के पास जाए, नैचरोपैथिक डाक्टर के पास जाए, हकीम के पास जाए और सबकी बातें सुन ले! और उन सबकी बातें बीमारी को तो हटाएंगी नहीं; इस बीमार के शरीर को ही बीमार नहीं, इसके मन को भी बीमार कर देंगी। यह अब और मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि वे अलग-अलग मार्ग हैं। उन सबकी अलग-अलग दृष्टियां हैं। अलग-अलग बिंदु से देखा गया सत्य है।
तुम्हारे पास आंख नहीं है। इसलिए तुम एक भी बिंदु को नहीं समझ पा रहे हो। सारे बिंदुओं को तो कैसे समझ पाओगे! तुम सिर्फ उलझन में पड़ जाओगे। तुम्हारी गांठ और उलझ जाएगी। ग्रंथि खुलेगी नहीं--ग्रंथियां ही ग्रंथियां हो जाएंगी। फिर ऐसी मुसीबत होगी कि तुम यह करोगे, तो भीतर से एक स्वर कहेगाः यह गलत। और जो स्वर कह रहा है गलत, वह करोगे, तो दूसरा स्वर कहेगाः यह गलत!
मेरे पास कृष्णमूर्ति को मानने वाले कोई व्यक्ति कभी आ जाते हैं। मैं उनसे पूछता हूं कि यहां आने की जरूरत क्या! वे कहते हैंः लेकिन कृष्णमूर्ति के पास रह कर बीस वर्षों से हम सुनते हैं, अभी कुछ हुआ नहीं। तो मैं कहता हूं कि यह बात साफ हो गई कि कुछ नहीं हुआ? तो ध्यान करो। वे कहते हैंः लेकिन ध्यान से क्या होगा? कृष्णमूर्ति तो कहते हैं ध्यान करने से कुछ न होगा।
अब यह उलझन हो गई! कृष्णमूर्ति जो कहते हैं, उससे हुआ नहीं। अगर मैं कुछ कहता हूं तो उसमें कृष्णमूर्ति बाधा बनेंगे, क्योंकि कृष्णमूर्ति कहते हैं, ध्यान से क्या होगा?
मेरे पास कोई है। ध्यान कर रहा है और ध्यान से नहीं हो रहा। और कृष्णमूर्ति के पास जाएगा और उनसे कहेगा कि मैं वहां हूं और ध्यान करता हूं, ध्यान से कुछ नहीं हो रहा। वे कहते हैं, ध्यान से कभी कुछ हुआ ही नहीं!
तब तुम जो मुझे सुनते रहे हो, बार-बार, निरंतर--तुम्हारे मन में भीतर खयाल उठेगाः बिना ध्यान के कैसे हो सकता है? और ध्यान से कुछ हुआ नहीं! नहीं तो तुम जाते क्यों? जाने का प्रयोजन क्या था?
लेकिन अब एक और झंझट हो गई, अब ध्यान करोगे तो कृष्णमूर्ति बाधा बनेंगे। और कृष्णमूर्ति की मान कर चलोगे तो मैं बाधा बनूंगा। अब तुम दो तरफ खींचे जाओगे।
यह तो मैं सरल उदाहरण ले रहा हूं। अगर तुमने दस-पच्चीस मार्गों की बातें जान लीं तो तुम पच्चीस तरफ खींचे जाओगे। तुम वैसे ही मुर्दा हो, और मर जाओगे।
पूछा है तुमनेः ‘यदि समर्पित शिष्य चुपचाप चोरी-छिपे किसी दूसरे बुद्धपुरुष को सुनने जाएं...’
तो पहली तो बातः जो दूसरे को सुनने जाएं वे शिष्य नहीं हैं, विद्यार्थी होंगे। विद्यार्थियों को आज्ञा है; जहां उनकी मर्जी हो जाएं; जिसको सुनना हो सुनें। विद्यार्थियों में कुछ ऐसा मूल्यवान नहीं है, जिसके लिए चिंता करने की कोई जरूरत हो। विद्यार्थी ही हैं।
मुझे बचपन में एक खयाल आता है--मेरे गांव में वह शब्द चलता है। पता नहीं, तुम्हें पता है या नहीं। बड़े बच्चे जब खेलते हैं और कोई छोटा बच्चा भी बीच में आ जाता है, ऊधम करने लगता है कि मैं भी सम्मिलित होऊंगा...तो मेरे गांव में उसे सम्मिलित कर लिया जाता था। और उसका एक खास नाम थाः दूध की दुहनियां। उसकी कोई फिकर नहीं करता था! उसको उछलने-कूदने दो, उसको खयाल रहने दो कि वह सम्मिलित है। लेकिन वह सम्मिलित नहीं है। जो खेलने वाले हैं, वे जानते हैं कि वह हिस्सा नहीं है। मगर उसको हटाना मुश्किल है। वह रोता है, शोरगुल मचाता है, पंचायत खड़ी करता है। तो उसको स्वीकार कर लिया। लेकिन एक कोडवर्ड थाः दूध की दुहनियां! ठीक है। अभी दुधमुंहा बच्चा है, खेलने दो। इसको उछलने-कूदने दो। वह नाहक ही उछल-कूद रहा है और बड़ा प्रसन्न हो रहा है। खेल का वह हिस्सा है ही नहीं। उसकी कोई गणना नहीं है खेल में। उससे न हार होगी, न जीत होगी। न उसके उछलने-कूदने का कोई परिणाम होगा।
जो विद्यार्थी है, वह दूध की दुहनियां है! वह आए, जाए, जहां सुनना हो, जिसको सुनना हो, जैसा करना हो, करे। लेकिन शिष्य वह नहीं है। शिष्य का जाना-आना समाप्त हुआ। जिसका आना-जाना समाप्त हुआ, वही शिष्य है।...समर्पित भी वह नहीं है। समर्पण का अर्थ ही होता है, बात समाप्त हो गई। मुझे मेरा सत्य मिल गया। मुझे वे आंखें मिल गईं, जिनके द्वारा मैं देखना चाहूंगा। मुझे वे हाथ मिल गए, जिन हाथों के द्वारा मैं चलना चाहूंगा। मेरे लिए सारा संसार खाली हो गया।
समर्पण का क्या अर्थ होता है? यह व्यक्ति मेरा गुरु और इस व्यक्ति के अतिरिक्त मेरा कोई गुरु नहींः समर्पण का यह अर्थ होता है। इसका यह अर्थ नहीं होता कि दूसरे गुरु नहीं हैं। दूसरे गुरु हैं। वे किन्हीं दूसरे समर्पित लोगों के गुरु होंगे। जब तक तुम किसी के प्रति समर्पित नहीं हो, तब तक वह व्यक्ति तुम्हारे लिए गुरु नहीं है।
खयाल रखना, गुरु कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी के ऊपर छाप लगी है गुरु होने की। गुरु तो शिष्य और ज्ञानी के बीच के संबंध का नाम है।
समझो, एक गुरु के पास हजारों शिष्य हैं। वे सब शिष्य छोड़ कर चले गए, अकेला गुरु रह गया। तब भी तुम उसे गुरु कहोगे? तब वह गुरु नहीं है। ज्ञानी होगा, परम ज्ञानी होगा; मगर गुरु नहीं है। गुरु तो होता है वह किसी शिष्य के संदर्भ में।
कृष्णमूर्ति किसी के गुरु होंगे। रमण किसी के गुरु होंगे। रामकृष्ण किसी के गुरु होंगे। ‘किसी’ के होंगे। गुरु होना कोई ऐसा गुण नहीं है कि जैसे सोना सोना है, ऐसा गुरु गुरु है--कि चाहे कोई छोड़ कर चला जाए तो भी सोना तो सोना रहेगा। गुरु गुरु नहीं रह जाएगा।
ऐसा ही समझो कि कोई पत्नी है। अब पत्नी होना कोई गुणधर्म नहीं है। यह पति के संदर्भ में है। अगर पति न रहा तो पत्नी न रही। फिर वह स्त्री होगी, पत्नी नहीं होगी। पुरुष होगा, पति नहीं होगा। ये संबंध हैं।
गुरु एक अंतर्संबंध है। शिष्य समर्पित होकर गुरु को जन्म देता है। उसके समर्पण में दो घटनाएं घटती हैं। एक तरफ शिष्य घटता है, दूसरी तरफ गुरु घटता है। उसके समर्पण के दो छोर हैं। एक तरफ वह स्वयं है--मिट गया, शून्य हुआ। और दूसरी तरफ कोई है, पूर्ण हुआ--जिसको वह अपने भीतर आमंत्रित करता है।
समर्पण कीमिया हैं।
तो जो ऐसा करते हों, वे न तो शिष्य हैं, न समर्पित हैं।
और फिर चोरी-छिपे करने की तो कोई जरूरत ही नहीं है। चोरी-छिपे इसलिए करते हैं कि हैं तो विद्यार्थी, लेकिन दिखलाना चाहते हैं कि शिष्य हैं! क्योंकि शिष्य होने की जो गरिमा है वह भी अहंकार छोड़ना नहीं चाहता। यह मान कर मन में कष्ट होता है कि मैं और विद्यार्थी!...तो चोरी-छिपे करते हैं।
कुछ हर्जा नहीं है। जो करना हो सीधे-सीधे करना चाहिए। चोरी-छिपे करने की क्या जरूरत है? चोरी-छिपे तो और उलटा पाप हुआ! चोरी-छिपे तो यह मतलब हुआ कि तुम मुझसे छिपाते हो। मुझसे छिपाना है, तो मुझसे सारे संबंध टूट गए। मेरे सामने खुलोगे तो संबंध गहन होंगे। मेरे साथ छिपाओगे तो कैसे संबंध गहन होंगे!
कृष्णप्रिया को जाना था कृष्णमूर्ति को सुनने। कोई हर्जा की बात नहीं है। मेरे मन में कृष्णमूर्ति का अपार सम्मान है--उतना ही जितना बुद्ध का, उतना ही जितना कृष्ण का, उतना ही जितना कबीर का। गई तो ठीक किया। लेकिन बता कर गई कि बीमार है और अस्पताल में भर्ती होने जा रही है।
अब यह हद हो गई! कृष्णमूर्ति के पास जाने में कोई हर्जा नहीं था। लेकिन यह मुझसे झूठ इस तरह बोलना, इससे हानि हो गई। कृष्णमूर्ति के पास जाने से कुछ हानि नहीं हो गई थी। अच्छा था। शुभ था। किसी भी सतपुरुष के पास थोड़ी देर बैठना शुभ है। लेकिन जो मेरे पास रह कर इतना झूठ बोलती हो, जो मेरे पास नहीं हो सकती, वह कृष्णमूर्ति के पास कैसे हो सकेगी! जो मेरे पास वर्षों रह कर झूठ बोलती हो, वह एक घंटे भर के लिए कृष्णमूर्ति के पास जाकर सच कैसे हो सकेगी? असंभव है।
कृष्णमूर्ति से तो जोड़ बनेगा नहीं, मुझसे जोड़ टूट गया। लाभ नहीं हुआ, हानि हो गई। चोरी-छुपे इसलिए गई कि ताकि यहां भी खयाल रहे कि वह मेरी शिष्या है; जाने की कहीं कोई जरूरत नहीं है। इसलिए अस्पताल का बहाना करके गई।
और भी दो-चार लोग गए। सबके अलग-अलग कारण होंगे। तुमने पूछा है कि जो इस तरह के लोग हैं, वे जिज्ञासा से जाते हैं, अवज्ञा से या और अधिक की खोज से? अलग-अलग लोगों के अलग-अलग कारण होंगे।
जो विद्यार्थी हैं, वे जिज्ञासा और कुतूहल से जाएंगे। वे बचकाने हैं। क्योंकि जो दीया यहां जला है, वही दीया कृष्णमूर्ति में जला है। अगर कुछ भेद होंगे, तो वे मिट्टी के दीये में होंगे, रोशनी में नहीं हैं। अगर यहां रोशनी नहीं दिखी, वहां भी रोशनी नहीं दिखेगी। रोशनी देखने की कला आनी चाहिए, तो कहीं भी दिखेगी। वहां भी दिखेगी, यहां भी दिखेगी। और मजा तो यह है कि जिसे रोशनी देखने की कला आती है, उसे उनमें भी दिखाई पड़ती है रोशनी जो बिलकुल बुझे मालूम होते हैं।
इसलिए बुद्ध ने कहाः जिस दिन मैं बुद्ध हुआ, मेरे लिए सारा जगत बुद्ध हो गया। जिस दिन मैंने जाना कि मैं कौन हूं, उसी दिन मैंने सबको पहचान लिया कि कौन हैं। उस दिन मुझे सबके भीतर छिपा हुआ सत्य दिखाई पड़ गया।
जिसको देखना आता है, उसे तो बुझे दीयों में भी रोशनी दिखाई पड़ेगी। उसे तुममें भी रोशनी दिखाई पड़ेगी। तुम्हारी तो बात ही छोड़ दो, उसे वृक्षों में, पत्थर-पहाड़ों में परमात्मा दिखाई पड़ेगा। उसके लिए सारा जगत परमात्मा से भर गया।
तो कोई जिज्ञासा से गए होंगे। वे विद्यार्थी हैं। जैसे स्वामी योग चिन्मय गए। वे विद्यार्थी हैं। उनकी जिज्ञासा पंडित होने की जिज्ञासा है। ज्ञान घटित नहीं होगा इस जिज्ञासा से। उन्हें शिष्य होने का कुछ भी पता नहीं है। शायद शिष्य होने से पहले गुरु होने की धारणा है। शिष्य भी शायद इसीलिए बने हैं कि किसी तरह गुरु हो जाएं! तो जितना ज्यादा इकट्ठा कर लें, जहां से इकट्ठा कर लें, जिस तरह से भी जो कुछ जानकारी पकड़ में आ जाए, सबको बांध कर रख लेना है--वह काम पड़ेगी! तिजोड़ी भर लेना है!
और मजा यह है कि जो खाली हो जाते हैं, उन्हें भरना नहीं पड़ती है--तिजोड़ी भर जाती है। उस शून्य में पूर्ण अपने से उतर आता है।
फिर कोई अवज्ञा से भी गए होंगे। क्योंकि मेरे पास रहते हो, तो सदा मैं मीठा ही मीठा नहीं होता। हो ही नहीं सकता। कल तुमने धनी धरमदास के वचन देखेः अति कडुवा खट्टा घना...तो जो सत्य मैं तुमसे कह रहा हूं वह कई बार बहुत कड़वा होता है। तुम नाराज भी होते हो। कई बार चोट मैं सीधी करता हूं। तुम तिलमिला भी जाते हो। तुम मुझसे बदला भी लेना चाहते हो। बदला लेने का तुम्हारे पास कोई उपाय भी नहीं है।
इस तरह तुम बदला ले सकते हो। यह अवज्ञा से भी कोई जा सकता है। और अगर मुझे तुम्हें बदलना है तो मुझे चोट करनी ही पड़ेगी। अब कोई मूर्तिकार अगर अनगढ़ पत्थर को मूर्ति बनाना चाहता है तो छैनी-हथौड़ा उठाना ही पड़ेगा। तुम अनगढ़ पत्थर हो। तुमसे बहुत से टुकड़े पत्थर के तोड़ डालने हैं। पीड़ा भी होगी, क्योंकि उन टुकड़ों को तुमने अपनी आत्मा समझा है; यद्यपि वे तुम्हारी आत्मा नहीं हैं। उनके टूटने पर ही तुम मुक्त होगे। उनके टूटने पर ही तुम्हारी आत्मा प्रकट होगी। मगर अभी तो तुमने उन्हें अपनी आत्मा समझा है। अभी तो मैं तुमसे जो भी छीनता हूं, तुम्हें लगता है कि बड़ा कष्ट हो रहा है। मुझे घटाया जा रहा है, मुझे छोटा किया जा रहा है, मुझे काटा जा रहा है।
जब कोहिनूर हीरा मिला तो आज जितना बड़ा है, उससे तीन गुना बड़ा था। लेकिन जब तुम्हें मिलता अगर तो तुम पहचानते भी नहीं। जिसको मिला था, वह पहचाना भी नहीं था। उसने बच्चों को खेलने को दे दिया था। पत्थर समझ कर! चमकदार पत्थर! आज दुनिया का सबसे बड़ा हीरा है। हालांकि उसका वजन तीन गुना कम हो गया। क्योंकि निखारा गया, काटा गया। पहलू रखे गए उस पर। कारीगर की छैनी चलती रही। जितनी छैनी चली है उतनी चमक आई है। वजन कम हुआ है, चमक बढ़ी है। मूल्य बढ़ा है। तब हीरा नहीं था, तब अनगढ़ पत्थर था। अब हीरा है।
तुम अनगढ़ पत्थर की तरह मेरे पास आए हो। आए ही इसलिए हो कि अनगढ़ पत्थर हो। खदान से सीधे निकाले गए हो। मैं तुम्हें काटूंगा, छाटूंगा, तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करूंगा। पीड़ा भी होगी, कष्ट भी होगा। तुम्हारी बहुत दिन की पोषित मान्यताएं टूटेंगी। तुम्हारे बहुत दिन के माने हुए विचार खंडित होंगे। तुम तिलमिलाओगे, तुम जलोगे, तुम मुझसे रुष्ट होओगे, नाराज होओगे। तुम्हारे-मेरे बीच एक संघर्ष चलेगा।
लेकिन अगर समर्पण है तो तुम उस संघर्ष को आनंद भाव से स्वीकार करोगे। तुम मुझे शत्रु नहीं मानोगे। तुम मुझे सर्जन मानोगे कि मैं अगर काट रहा हूं और तुम्हें पीड़ा भी दे रहा हूं, तो तुम्हारे हित के लिए दे रहा हूं।
इसीलिए केवल शिष्य पर ही काम किया जा सकता है, विद्यार्थियों पर नहीं। शिष्य का मतलब हैः वह आपरेशन की टेबल पर लेटने को तैयार है। इतना भरोसा करता है कि तुम बेहोश करके जब उसका पेट काटोगे तो उसे मार ही नहीं डालोगे। इतनी उसकी श्रद्धा है, कि तुम्हारे हाथों में अपना जीवन सौंप देता है।
गुरु सर्जन है। अब तुम उससे लड़ने लगोगे कि यह मेरा खून निकाल दिया, कि यह मेरी चमड़ी काट दी, कि क्या मुझे मार ही डालोगे, मैं तो वैसे ही पीड़ा से भरा आया हूं और तुम और पीड़ा दे रहे हो!--तो फिर सर्जन काम नहीं कर पाएगा।
तो बहुत हैं, जिनके मन में अवज्ञा भी आती होगी। ज्यादा नहीं हैं। कोई पांच-सात लोग गए थे। उसमें कुछ विद्यार्थी हैं, कुछ जिनके मन में अवज्ञा है। कुछ ऐसे भी हैं जिनके मन में लोभ है कि यहां तो इतना मिल रहा है, थोड़ा और कहीं से मिल जाए।
मगर लोभी भी शिष्य नहीं है। लोभी का भी संबंध गुरु से बनता नहीं है। यह नाता लोभ का नहीं है, प्रेम का है। जहां लोभ है, वहां प्रेम नहीं। जहां प्रेम है, वहां लोभ नहीं।
तो अलग-अलग ढंग से गए होंगे। कोई कुछ कह कर गया, कोई बिना कुछ कहे गया, कोई चुपचाप भाग गया। और कुछ भी बुरा न था। गए सो ठीक ही किया। गए तो अच्छा ही किया तुम्हारे बाबत कुछ खबर दे दी।
मेरे लिए यह सब सार्थक है। क्योंकि मैं जो बड़ा काम लेने जा रहा हूं, उसमें मुझे उपयोगी होंगी ये सब बातें कि किन-किन को छोड़ दूं, किन-किन को विदा कर दूं; कौन हैं, जिनको और गहराई में ले जाना संभव नहीं होगा; कौन हैं, जो परिधि पर ही रखने ठीक हैं, जिनको केंद्र तक लाने की कोई आवश्यकता नहीं है। तो अच्छा ही है। मुझे इससे सुविधा होती है। काम में आसानी होती है।
कृष्णमूर्ति और मेरे काम में बुनियादी फर्क है। कृष्णमूर्ति किसी को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं करते। कृष्णमूर्ति का संबंध केवल बौद्धिक है; आत्मिक नहीं है, हार्दिक नहीं है। कृष्णमूर्ति ने कह दी बात, बात समाप्त हो गई। मानना हो मान लो, न मानना हो न मानो। जो तुम्हें करना हो करो। कृष्णमूर्ति तुम्हारी जिम्मेवारी नहीं लेते, मैं तुम्हारी जिम्मेवारी लेता हूं। कृष्णमूर्ति तुम्हारे साथ तटस्थ हैं, उनका कुछ लेना-देना नहीं है। मैं तटस्थ नहीं हूं, मैं तुमसे प्रतिबद्ध हूं। तुम्हारे भीतर मैंने अपने को नियोजित किया है। मैंने अपने को तुम्हारे साथ दांव पर लगाया है। कृष्णमूर्ति ने एक बात कह दी--चलना हो चलो, न चलना हो न चलो। मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर चल रहा हूं। मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी यात्रा के सारे कष्ट उठा रहा हूं।
तो यह अच्छा ही है, मुझे इस तरह पता चलता रहे कि कौन-कौन व्यर्थ हैं, कौन-कौन इस योग्य नहीं हैं कि मैं उनको बहुत प्रतिबद्धता दूं; कौन-कौन इस योग्य हैं कि उन्हें किनारे पर रखा जाए; और कौन-कौन इस योग्य हैं कि उन्हें अंतस्तल में लिया जाए।
तय मंजिलें हुई हैं यूं इश्के आरजू की
कुछ मैंने जुस्तजू की, कुछ उसने जुस्तजू की
यह जो यात्रा है, गुरु और शिष्य की आधी-आधी है।
कुछ मैंने जुस्तजू की, कुछ उसने जुस्तजू की
कुछ मैं चलूं, कुछ तुम चलो। कुछ तुम चलो, कुछ मैं चलूं। तो यह यात्रा पूरी होने वाली है।
जो उच्छृंखल हैं, जिनका कोई प्रेम के आकाश के प्रति समर्पण नहीं हैं, जो अभी अपनी अहंता से भरे हैं...। और अहंकार है तो वहीं क्रोध है, अवज्ञा है। और अहंकार है तो वहीं लोभ है। थोड़ा और जानने को कहीं से मिल जाए, क्या पता कुछ हीरा हाथ लग जाए! या जो कुतूहल से भरे हैं, बचकाने हैं...। वह भी अहंकार है। क्योंकि प्रौढ़ व्यक्ति वही है, जिसका अहंकार विदा हो गया हो।
शिष्य तो वही है, जो कहेः माधव, जन्म तुम्हारे लेखे। वह कहे कि अब यह जीवन तुम्हारा, यह जन्म तुम्हारा। अब तुम जैसा चाहो बनाओ, जैसा चाहो मिटाओ। मैं तुम्हारे हाथों में मिट्टी की तरह हूं; घड़ा बनाओ, मूर्ति बनाओ, न बनाओ।
माधव, जन्म तुम्हारे लेखे!--वही शिष्य है।
अब मिट्टी कभी मेरे हाथ से छलांग लगा कर किसी और के हाथ में चली जाए और कहे कि थोड़ा वहां भी देखें, शायद वहां कुछ हो जाए फिर किसी और हाथ में चली जाए--तो यह घड़ा कभी बन नहीं पाएगा। मैं कुछ बनाऊंगा, दूसरा कुछ और बनाएगा, तीसरा कुछ और बनाएगा। यह मिट्टी मिट्टी ही रह जाएगी। तुम मिट्टी के लोंदे ही रहोगे।
और मुझे खबर हैः कौन क्या कर रहा है यहां! कौन कैसे चल रहा है! ध्यान रखना, तुम जो भी कर रहे हो, उससे तुम्हारा भविष्य निर्मित हो रहा है!
अनजान तुम बने रहे, ये और बात है
ऐसा तो क्या है तुमको हमारी खबर न हो!
ध्यान रखना, अनजान भला मैं बना रहूं, तुमसे कुछ कहूं भी न--तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि तुमने कब मुझे खो दिया। तुम्हें पता भी नहीं होने दूंगा, क्योंकि तुम्हें कोई अकारण कष्ट थोड़े ही देने हैं! चुपचाप हाथ सरका लूंगा। देखूंगा कि हाथ गलत आदमी को दे दिया था--उसको दे दिया था, जिसको हाथ का कोई समादर नहीं था। चुपचाप हाथ सरका लूंगा। तुम्हें कानोंकान पता भी नहीं चलेगा। शायद तुम्हें जिंदगी भर पता नहीं चलेगा कि हाथ कभी का हट गया है।
मैं तो उन्हीं के साथ जुड़ा हूं, जो मुझसे कह सकेंः
आरजू तेरी बरकरार रहे,
दिल का क्या है, रहा, रहा न रहा!
जो सब दांव पर लगाने को तैयार हैं।
जीना भी आ गया मुझे, मरना भी आ गया।
पहचानने लगा हूं तुम्हारी नजर को मैं
इस नजर को पहचानना शुरू करो। ऐसे भी बहुत देर हो गई है। अब और बच्चों जैसे व्यवहार मत करो।
समर्पण का अर्थ होता है, शिष्य होने का अर्थ होता हैः अब जाने को कोई जगह न रही; मिल गया मंदिर। न मिला हो तो खोजो! मैं तुम्हें रोकता नहीं, मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूं। अगर यह मंदिर तुम्हारा मंदिर नहीं है तो निश्चित ही तुम खोजो। मैं तुम्हें खुद ही धक्के दूंगा कि तुम जाओ और खोजो।
लेकिन तब यहां लौट कर आने की जरूरत नहीं है। जब यह मंदिर तुम्हारा नहीं है, तो इस मंदिर के तुम नहीं हो।
मगर तुम बेईमान हो! तुम दो नावों में पैर रखना चाहते हो। तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। दो नावों में कोई यात्रा नहीं कर सकता।
और ध्यान रखना, मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम इसी नाव में सवार हो जाओ। मैं सिर्फ इतना कह रहा हूंः किसी एक नाव में सवार हो जाओ। मुझे कोई निस्पृह नहीं है कि तुम इसी नाव में सवार हो जाओ। तुम उस किनारे पहुंच जाओ, यह लक्ष्य है।
तुम कृष्णमूर्ति का सहारा लेकर पहुंचे, शुभ...। तुम गुरजिएफ का सहारा लेकर पहुंचे, शुभ...। पहुंच जाओ। मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं। उस किनारे पहुंच जाओ। मगर एक नाव में ही पहुंच सकते हो। तुम चाहो कि सब नावों में सवार हो जाओ, कि एक नाव को हाथ से पकड़े हैं, एक नाव पर पैर रखे हुए हैं, एक पर लेटे हुए हैं--तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। ये नावें सब अलग ढंग से चलेंगी। इनकी गति अलग-अलग है। कोई पाल से चलती है, कोई पतवार से चलती है। किसी में मोटर का इंजन लगा है। ये सब अलग-अलग हैं। इनके ढंग अलग-अलग हैं। ये सब उस तरफ पहुंचा देती हैं, यह सच है।
और उस तरफ पहुंचना गंतव्य है। आम थोड़े ही गिनने हैं, आम खाने हैं। लेकिन तुम किसी के तो पूरे हो जाओ। तुम्हारे किसी के भी पूरे हो जाने में तुम मुक्त हो जाओगे।
ऐसे आधे-आधे, बंटे-बंटे चलोगे, तुम खंड-खंड हो जाओगे।
जीने को इस जहां में काफी है यह सहारा
तुझ से मेरा तआल्लुक, निस्बत तेरी गली से
कोई तो एक गली तुम्हारी हो।...तुझ से मेरा तआल्लुक, निस्बत तेरी गली से।
इतना सहारा काफी है। लेकिन अगर तुमने इस तरह की बेईमानियां कीं, तो तुम कुछ किसी और को नुकसान नहीं पहुंचाते हो, ध्यान रखना।
इसलिए मैंने कहा, कृष्ण मोहम्मद, ऐसे लोगों पर सिर्फ दया की जा सकती है। क्योंकि वे अपने को नुकसान पहुंचा रहे हैं, किसी और को नहीं।

दूसरा प्रश्नः आपकी बातें इतनी सीधी और साफ और करुणापूर्ण हैं कि आश्चर्य है कि संसार के लोगों को समझ में क्यों नहीं आतीं--विशेषकर शिक्षा जगत के महारथियों एवं राजनीतिज्ञों को! क्या वे बिलकुल ही अंधे हैं?
॰ पहली बातः शिक्षा का सारा प्रयोजन एक है--और वह है कि तुम्हें अतीत से न टूटने दिया जाए। शिक्षा का सारा न्यस्त स्वार्थ एक है, कि तुम्हें परंपरा से मुक्त न होने दिया जाए। शिक्षा परंपरा की सेवा में नियोजित है। और मैं जो कह रहा हूं वह परंपरा नहीं है। मैं जो कह रहा हूं वह अतीत नहीं है; वर्तमान है। शिक्षा का वर्तमान से कोई संबंध नहीं है।
शिक्षा पीछे की तरफ देखती है। शिक्षा की आंखें चेंथी पर लगी हैं; वह पीछे की तरफ देखती है। जो पहले हो गया है, उसको ही पढ़ाए जाती है, उसको ही समझाए जाती है। जो आज हो रहा है, उससे शिक्षा का कभी कोई संबंध नहीं होता। जब यह भी अतीत हो जाएगा, तब शिक्षा इसको भी पढ़ाएगी, ध्यान रखना। कभी तुम्हारे शिक्षाशास्त्री मुझे पढ़ाएंगे, लेकिन वे तब पढ़ाएंगे जब मैं जा चुका, जब अतीत हो गया। जब मैं काम का न रहा।
शिक्षाशास्त्री तभी पकड़ता है किसी चीज को जब वह राख हो जाती है। जब उसमें से अंगारा खो जाता है। कबीर जब जिंदा थे तो शिक्षाशास्त्री कबीर से कोई संबंध नहीं जोड़ सका; अब कबीर पर कितनी पीएच डी लिखी जाती हैं, तुम देखते हो!
जितने शोध ग्रंथ कबीर पर लिखे गए उतने किसी पर नहीं लिखे गए। गंवार कबीर पर इतने शोध ग्रंथ! अगर कबीर ने नौकरी की आकांक्षा की होती किसी विश्वविद्यालय में तो चपरासी की भी जगह न मिलती; आचार्य के पद की तो बात ही अलग। कबीर को ये विश्वविद्यालय विद्यार्थी की तरह भी प्रवेश देने को राजी होते, यह भी संदिग्ध है। बे-पढ़े-लिखे कबीर को कौन विश्वविद्यालय में घुसने देता! और आज तुम्हारे तथाकथित पंडित और आचार्यगण, और शोधकर्ता, अपनी जिंदगी कबीर में गंवाते हैं--कि कबीर का क्या मतलब है, कबीर का क्या अर्थ है। कबीर की उलटबांसियों को सुलट कर रहे हैं, समझाने की कोशिश में लगे हैं। कबीर भी अपनी कब्र में खूब हंसते होंगे कि यह भी खूब मजा हुआ।
जीसस को जिन लोगों ने सूली दी, वे पंडित थे, रबाई, पढ़े-लिखे लोग, सुसंस्कृत। और अब वे ही जीसस पर शोध करते हैं; दो हजार साल हो गए, उसी काम में लगे हैं। वे ही लोग, उसी तरह के लोग।
कारण समझो शिक्षा का संबंध अतीत से है। शिक्षा मरे की शिक्षा है, जीवंत की नहीं। शिक्षा केवल मरे को ही अंगीकार करती है। शिक्षा पोस्टमार्टम है, शव-परीक्षा है। तुम जैसे नहीं पूछते न कि आपका शरीर इतना सुंदर है, लेकिन डाक्टर आपकी शव-परीक्षा क्यों नहीं करते? यह प्रश्न बेहूदा मालूम होगा कि इतना सुंदर प्यारा शरीर, और हम डाक्टरों को देखते हैं कि मुर्दों को चीर-फाड़ रहे हैं; ऐसे सुंदर आदमी के रहते हुए, आपकी चीर-फाड़ क्यों नहीं करते, आपकी शव-परीक्षा क्यों नहीं करते?
जैसे यह प्रश्न गलत होगा, क्योंकि शव-परीक्षा होती ही मुर्दे की है, जीवित की नहीं होती--वैसे ही शिक्षा मुर्दे की है। शिक्षा एक शव-परीक्षा है, पोस्टमार्टम। जब कोई चीज मर जाती है, इतिहास का हिस्सा हो जाती है, जब व्यक्ति तो जा चुका होता है, सिर्फ उसके चरण-चिह्न रह जाते हैं रेत पर समय की--बुद्ध के हों, कि नानक के, कि धनी धरमदास के--फिर शिक्षाशास्त्री एकदम उत्सुक हो जाता है। वह जल्दी से इसको आत्मसात कर लेना चाहता है। वह इसको परंपरा का हिस्सा बना लेना चाहता है।
वर्तमान में होती है बगावत; और शिक्षा में बगावत नहीं है। शिक्षा में विद्रोह का कोई तत्व नहीं है। इसीलिए तो शिक्षा दो कौड़ी की है। जिस दिन शिक्षा में विद्रोह का तत्व होगा, उस दिन शिक्षा का मूल्य होगा; उस दिन असली शिक्षा होगी पृथ्वी पर। उस दिन शिक्षा केवल तुम्हें आजीविका कमाने में कुशल नहीं बनाएगी, उस दिन शिक्षा तुम्हें जीवन भी देगी। अभी केवल रोटी-रोजी देती है और जीवन तो छीन लेती है। रोटी-रोजी जरूरी है; लेकिन जीसस ने जैसा कहा है कि रोटी के ही सहारे तो कोई नहीं जी सकता--कुछ और भी चाहिए। वह ‘और’ अभी शिक्षा से नहीं मिलता। अभी उस और को मिलने के सब उपाय नष्ट कर दिए जाते हैं। अभी विश्वविद्यालय से अपनी बुद्धि को बचा कर लौट आना बड़ा मुश्किल है; नष्ट हो ही जाती है।
शिक्षा की ईजाद ही इसलिए की गई थी, ताकि पुरानी पीढ़ी अपनी जानकारी को नई पीढ़ी को दे जाए। शिक्षा का प्रयोजन ही शुरू में यही था। वही अब भी है। बाप ने जो जाना है वह अपने बेटे को देना चाहता है। फिर जानकारियां इतनी हो गईं कि बाप इस काम को खुद नहीं कर सकता था, नहीं तो और काम न कर सके--तो फिर नौकर, मध्यस्थ रखे गए, वे ही शिक्षक हैं। शिक्षक बाप की नौकरी में हैं--बेटे को पढ़ाने को।
खयाल रखना इस बात को, इसमें सारा रहस्य छिपा हुआ है। शिक्षक बाप की नौकरी में है--बेटे को पढ़ाने को। शिक्षक बेटे की सेवा में नहीं है, बाप की सेवा में है। इसलिए जो बाप के हित में है, वह बेटे को पढ़ाया जाता है। जो बाप के हित में है, वह बेटे को सिखाया जाता है। जो बाप निर्णय करता है, वह बेटे तक पहुंचाया जाता है।
इसलिए रूस में एक तरह की शिक्षा है, क्योंकि वहां बाप दूसरी बात तय कर रहे हैंः कम्युनिज्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं पहुंचना चाहिए बच्चों तक, ईश्वर का नाम नहीं पहुंचना चाहिए। यह बाप ने तय किया है, तो बेटे तक ईश्वर का नाम नहीं पहुंचता।
हिंदुस्तान में बाप तय करता है कि धार्मिक शिक्षा होनी चाहिए तो बेटे तक धार्मिक शिक्षा पहुंचती है। यह बाप नियंता है। बाप ने जो अनुभव किया है, जो ज्ञान की संपदा जुटाई है, वह चाहता हैः मेरे बेटे पर आरोपित हो जाए; मैं तो मर जाऊंगा लेकिन मेरी अस्मिता मेरे बेटे में चले। वह बेटे के कंधे पर जीना चाहता है।
मैं जो कह रहा हूं वह अंगार है, बगावत है, विद्रोह है। वह बाप के पक्ष में नहीं है, वह बेटे के पक्ष में है। वह अतीत के पक्ष में नहीं है, भविष्य के पक्ष में है। वह जो होने वाला है, उसकी सेवा में रत होनी चाहिए शिक्षा, न कि जो हो चुका है। क्योंकि जो हो चुका वह हो चुका; अब नहीं होगा, अब उससे कुछ लेना-देना नहीं है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पिता के प्रति सम्मान नहीं होना चाहिए। पिता के प्रति निश्चित सम्मान होना चाहिए। असल में तो तुम्हारा भविष्य जितना सुंदर होगा, उतना ही तुम्हारा पिता के प्रति सम्मान भी अधिक होगा; क्योंकि पिता ने ही तो तुम्हें जीवन दिया, तुम्हें स्वतंत्रता दी, तुम्हें सुरभि दी।
खलील जिब्रान का वचन हैः अपने बच्चों को प्रेम देना, स्वतंत्रता देना लेकिन अपना ज्ञान नहीं। क्योंकि ज्ञान तो तुम्हारा पुराना पड़ चुका। बच्चे दूसरी ही दुनिया में जीएंगे; वहां यह ज्ञान काम न आएगा। वहां नया ज्ञान काम आएगा। और यह बात रोज-रोज ज्यादा महत्वपूर्ण होती गई है।
आज से तीन हजार साल पहले बाप और बेटे की जानकारी में कोई फर्क नहीं होते थे। इसलिए शिक्षा बिलकुल कारगर थी, क्योंकि जो बाप ने जाना था वही बेटे को जानना था।
समझें, एक बाप जूता सीता रहा जिंदगी भर, तो बेटे को जूता सिखाना, जोड़ना, जूता बनाना सिखा जाता था। इसलिए बहुत समय तक गुरुओं की जरूरत ही नहीं थीं, शिक्षकों की कोई जरूरत नहीं थीं। हर बाप...बढ़ई अपने बेटे को बढ़ईगिरी सिखा देता था; दुकानदार अपने बेटे को दुकानदारी सिखा देता था; क्षत्रिय अपने बेटे को युद्ध में लड़ना सिखा देता था; ब्राह्मण अपने बेटे को पौरोहित्य सिखा देता था। अपने-अपने बेटों को अपने-अपने लोग सिखा लेते थे। परंपरा से बात चलती चली जाती थी।
फिर धीरे-धीरे ज्ञान का संग्रह बढ़ता चला गया। फिर संग्रह इतना हो गया कि हर एक बाप अलग-अलग अपने बेटे को शिक्षा दे, यह संभव नहीं रहा। तो फिर हमें स्कूल निर्मित करने पड़े, पाठशाला बनानी पड़ी। फिर उस पाठशाला के द्वारा हम सिखाते रहे, बापों ने जो जाना था। वह जरूरी था सिखाना अतीत में, क्योंकि अगर वह न सिखाया जाए तो बच्चों को फिर अ ब स से शुरू करना पड़ेगा, उससे बहुत नुकसान होगा। इसलिए तो पशु-पक्षी विकसित नहीं हो पाए, क्योंकि उनके पास शिक्षा का कोई जाल नहीं है।
तो हर बाप जहां से शुरू किया था, हर बेटे को भी वहीं से शुरू करना होता है। मनुष्य की यही खूबी हैः जहां बाप ने अंत किया बेटा वहां से शुरू करता है, इसलिए विकास होता है। बाप की सीढ़ी का उपयोग कर लेता है बेटा।
शिक्षा का बड़ा बहुमूल्य दान रहा अतीत में। लेकिन अब धीरे-धीरे शिक्षा सहयोगी की जगह बाधक हो रही है, क्योंकि रोज नई घटनाएं घट रही हैं। ज्ञान इतनी तीव्रता से फूट रहा है, इतना विस्फोट हो रहा है...। वैज्ञानिक कहते हैं कि पिछले पांच हजार सालों में जितने ज्ञान का विकास हुआ था, उतना पिछले पचास सालों में हुआ है। और पिछले पचास सालों में जितना विकास हुआ है, उतना पिछले पांच सालों में हुआ है। और पिछले पांच सालों में जितना विकास हुआ है, उतना पिछले पांच महीनों में हुआ है। यह गति इतनी तीव्रता से हो रही है कि हमारे शिक्षा-संस्थान करीब-करीब व्यर्थ हो गए हैं।
अब समझो इस बात कोः अगर तुम स्कूल में जाते हो पढ़ने, मनोविज्ञान पढ़ने जाते हो, तो तुम्हारे प्रोफेसर ने जब मनोविज्ञान पढ़ा था तीस साल पहले, वह मनोविज्ञान गलत हो चुका। वह वही पढ़ा रहा है। उसका अब कोई काम ही नहीं रहा। वह आउट आॅफ डेट है, कचरा है।
जब मैं मनोविज्ञान पढ़ने विश्वविद्यालय में गया, और मैंने देखा कि मेरे प्रोफेसर मैक्डूगल पढ़ा रहे हैं; मैक्डूगल उन्होंने पढ़ा था, अब तो मैक्डूगल का नाम भी किसी अर्थ का नहीं है। तो पचास साल पुरानी बात हो गई। जब मैंने उनसे खड़े होकर कहा कि आप यह क्या पढ़ाते हैं? मैक्डूगल का तो आज कुछ अर्थ ही नहीं है! तो स्वभावतः वे मुझसे नाराज हो गए। मेरे उनके बीच संबंध बनना मुश्किल हो गया।
यह तुम जान कर हैरान होओगे कि आज अगर विद्यार्थी थोड़ा भी होशियार हो तो गुरु से ज्यादा जानेगा; थोड़ा भी होशियार हो, कोई बहुत बड़ी प्रतिभा की जरूरत नहीं है, थोड़ी प्रतिभा हो, तो गुरु से ज्यादा जान सकता है। क्योंकि गुरु बंधा है, जो उसने पढ़ा था। विज्ञान पढ़ा था उसने तीस साल पहले। इन तीस सालों में विज्ञान की सब अवस्था बदल गई, सब जमीन बदल गई। अब न्यूटन का कोई मूल्य नहीं है; आइंस्टीन के बाद न्यूटन का क्या मूल्य है? न्यूटन तो सिर्फ ऐतिहासिक नाम रह गया।
आज तो इतनी तेजी से परिवर्तन हो रहा है, इतनी तेजी से नई जानकारियां और नया ज्ञान फूट रहा है कि बहुत मुश्किल है कि गुरु, शिक्षक इसके साथ तादात्म्य रख सकें। पश्चिम में विचार किया जा रहा है कि हम नये ढंग से शिक्षा दें।
शिक्षा की संभावना भविष्य में यह है कि शिक्षक विदा हो जाएगा; उसका कोई मूल्य नहीं रह जाएगा, या उसका मूल्य बहुत गौण हो जाएगा। उसकी जगह कंप्यूटर होंगे; क्योंकि आदमी को सीखने में बहुत वक्त लगता है, कंप्यूटर जल्दी सीख लेते हैं। एक मिनट में सारी बाइबिल कंठस्थ करवाई जा सकती है कंप्यूटर को। तो ज्ञान इतनी तेजी से घट रहा है कि कंप्यूटर ज्ञान को सीखेगा और कंप्यूटर सिखाएगा विद्यार्थियों को; तभी हम तालमेल रख सकेंगे, नहीं तो सब तालमेल टूटा जा रहा है।
टेलीविजन का उपयोग होगा। अब भूगोल पढ़ानी पुरानी ढंग से--टांगे हैं नक्शा--पागल हो गए हो? टेलीविजन मौजूद है, तुम नक्शा टांगे हुए हो! तुम समझा रहे हो कि लंदन कैसा है नक्शे से--जब कि टेलीविजन पर लंदन पूरा का पूरा दिखाया जा सकता है! और जो बात देखी जाती है, वह कभी भूलती नहीं। याद करने की जरूरत नहीं है। सारी दुनिया का नक्शा! फिजूल है। टेलीविजन काम कर देगा। और भविष्य में टेलीविजन की भी जरूरत नहीं होगी, दुनिया इतने करीब आ गई है कि घंटे भर में तो लंदन पहुंचा जा सकेगा। ले गए विद्यार्थियों को, लंदन दिखा दिया, बात खतम कर दी। नाहक समय खराब करना! और तब वे भूलेंगे नहीं।
जो बात नहीं हो सकती थी पहले, अब हो सकती है। तकनीक विकसित हुए हैं। और तकनीक इतने विकसित हुए हैं कि तकनीक भविष्य उन्मुखी हैं। आदमी के माध्यम की अब बहुत ज्यादा जरूरत नहीं रही।
तुम पूछते हो कि ‘शिक्षा महारथी...’
पहले तो महारथी इत्यादि शिक्षा में कहां होते हैं! बैलगाड़ियां चला रहे हैं लोग, रथ वगैरह हैं कहां! कोचवान कहो। असल में जो कुछ नहीं हो पाता, वह शिक्षक हो जाता है। पहले तो वह भी कोशिश करता है कि कांस्टेबल हो जाएं, कि चलो इंस्पेक्टर हो जाएं। जब कहीं जगह नहीं मिलती, तब वह सोचता है कि चलो अभी स्कूल में शिक्षक ही हो जाएं, अपने भाग्य में नहीं कांस्टेबल होना। क्योंकि मजा तो कांस्टेबल के हाथ में है। ऊपरी लाभ तो कांस्टेबल के हाथ में है।
शिक्षक तो सबसे दयनीय जीव है। जब कोई आदमी कहता है मैं शिक्षक हूं, तब जरा उसकी शक्ल देखो! वह ऐसे कह रहा हैः क्या करें, मजबूरी है! जन्मों-जन्मों के करम भोग रहे हैं। शिक्षक हैं! आदमी डरता है यह कहने में कि मैं शिक्षक हूं। जब कोई आदमी कहता है, कलेक्टर हूं, तो उसके चेहरे पर रौनक होती है। शिक्षक हूं--सब रौनक विदा हो जाती है!
दीन-हीन है शिक्षक। और उसके पास संपदा क्या है? संपदा--कोरा जानकारी का संग्रह है। कीड़ा है किताबों का; किताबें खाता रहा है। जिंदगी नहीं जानी है; किताबों से उसकी जानकारी है। जीवन नहीं देखा है; किताबों में छपी जीवन की तस्वीरें देखी हैं। उसका ज्ञान उधार है। प्रेम नहीं किया है; प्रेम की कविताएं पढ़ी हैं। कोई स्वांतः सुखाय अनुभव नहीं हुए हैं; दूसरे जो कह गए हैं, उसी को सुन-सुन कर दोहराता रहा है। तोता है।
तोतों को बगावत की बातें ठीक नहीं लगतीं। तोते को तो वही अच्छा लगता है जो वह दोहरा सकता है। तो अगर हरे राम, हरे राम, हरे राम कह सकता है तो वह हरे राम, हरे राम, हरे राम कहता है। अब तुम आज नया मंत्र सिखाओ, तोता नाराज होता है। वह कहता है, इतना समय खराब किया हरे राम सीखने में, अब तुम आ गए नया मंत्र लेकर! मैं तो अपना पुराना ही दोहराऊंगा।
शिक्षक नये को सीखने में उत्सुकता नहीं दिखाता, और जिंदगी रोज नई है। इसलिए शिक्षक का जिंदगी से कोई संबंध नहीं होता। जिंदगी के असली शिक्षक होते हैं, कवि, चित्रकार, संगीतज्ञ--जो जीते हैं! मगर उनको कौन शिक्षक मानता है! वे ही नये के उद्गाता हैं। उनसे ही नया अवतरित होता है। परमात्मा उनका ही सहारा लेता है; तोतों का सहारा नहीं लेता।
तुमने पूछा हैः ‘आपकी बातें इतनी सीधी-साफ और करुणापूर्ण हैं कि आश्चर्य है, संसार के लोगों को समझ में क्यों नहीं आतीं?’
सीधी-साफ बात समझ में कभी नहीं आती। समझ में वही बात आती है, जो तुम्हें बहुत बार समझायी गई। सीधी-साफ होने से संबंध नहीं है समझ का। जो तुम्हें इतनी बार समझाई गई है कि तुम्हारी खोपड़ी में जड़ जमा कर बैठ गई है, वही समझ में आती है। वह कितनी ही उलटी हो, वह कितनी ही व्यर्थ हो, वह कितनी ही गलत हो, असंगत हो, लेकिन अगर बहुत बार दोहराई गई तो तुम्हारी समझ में आती है।
समझ का तुम मतलब क्या लेते हो? समझ का मतलब इतना ही होता है कि जो मैं जानता हूं उससे मेल खाए तो समझ में आती है। उससे मेल न खाए तो तुम नाराज होते हो; तो तुम कहते हो कि फिर मेरी जानकारी का क्या होगा? फिर मेरे अब तक के संग्रह किए ज्ञान का क्या होगा? उससे अड़चन पैदा होती है।
तुम वही सुनते हो जो तुम्हारा साथ देता है। इसलिए तुम देखते हो, जब कोई बात ऐसी कही जाती है जो तुम्हें जंचती है, तुम्हारा सिर हिल जाता है कि बिलकुल ठीक। क्यों? तुम्हें पता है सत्य क्या है? तुम्हें कुछ पता नहीं है, लेकिन जो तुमसे मेल खाता है वह सत्य होना चाहिए। और जो तुमसे मेल नहीं खाता वह कैसे सत्य हो सकता है! कभी-कभी बड़ी सीधी-सीधी बातें समझ में नहीं आतीं।
अब जैसे उदाहरण के लिएः सदियों से आदमी मानता रहा है कि सुबह सूरज ऊगता है और सांझ डूबता है। अब वैज्ञानिक ने खोजकर बात रख दी कि सूरज न डूबता है, न ऊगता है। लेकिन फिर भी भाषा नहीं बदलती--सूर्यास्त, सूर्योदय चलता है। चलेगा। दिखता नहीं, कि कभी रुकेगा यह। अब भी तुम इसी भाषा में सोचते होः सूरज ऊगा। क्योंकि इतनी सदियों तक यह बात मन में बिठाई गई कि सूरज ऊगा कि सूरज डूबा, कि आज सुन भी लिया, जान भी लिया, मान भी लिया कि सूरज नहीं ऊगता, डूबता, सदा अपनी जगह है। जमीन घूमती है सूरज के आसपास, सूरज नहीं घूमता जमीन के आसपास--यह सुन लिया, मान लिया मगर सब व्यावहारिक अर्थों में तुम यही मानते हो कि सूरज ऊगा, कि सूरज देखो सिर पर चढ़ आया। अभी भी तुम वही भाषा बोल रहे हो। तुम वही भाषा बोलते रहोगे।
वैज्ञानिक कहते हैं, जमीन गोल है। लेकिन कामचलाऊ अर्थों में तुम अब भी चपटी मान कर ही चलते हो। पढ़ लेते हो, सुन लेते हो, मगर सदियों का संस्कार! कभी-कभी सीधी-सीधी बातें, सच्ची-सच्ची बातें भी नहीं उतरतीं, क्योंकि एक जाल है संस्कारों का, वह उनके विपरीत पड़ा हुआ है।
अब जैसे तुमसे कल मैंने कहा--जब कबीर ने धनी धरमदास को कहा कि इन मूर्तियों में क्या है, पत्थर है!--तो चोट लगी होगी धरमदास को; भयंकर चोट लगी होगी। इन्हीं पत्थरों की पूजा करता रहा, इन्हीं को भगवत्ता माना। और आज यह एक अजीब आदमी आकर खड़ा हो गया! न तो यह ब्राह्मण है, न इसका पक्का पता है कि हिंदू है कि मुसलमान है। जुलाहा है। इसको पता भी क्या ब्रह्मज्ञान का! कपड़े बुनता रहा है, और तत्वज्ञान की बातें कर रहा है। और फिर इतने करोड़ों-करोड़ों लोग जो पत्थरों को पूज रहे हैं, सब नासमझ हैं?
अब कबीर की बात बिलकुल सीधी-सादी है कि यह पत्थर है। पत्थर तो है ही। यह किसको पता नहीं है! मगर जब एक बार तुमने पत्थर को प्रतिमा मान लिया और बहुत दिन तक मानते रहे, तो पत्थर नहीं रह जाता, प्रतिमा ही हो गई। तुम्हारे भाव में एक संस्कार बैठ गया। संस्कार इतना जड़ हो जाता है कि सीधी-सादी बात कही कबीर ने और बड़ी करुणापूर्ण बात कही, क्योंकि जब तक इस पत्थर को भगवान समझोगे, असली भगवान को कैसे खोजोगे?
करुणा है, और सत्य भी है कि यह पत्थर है, तुमने ही बनाया है। तुम्हीं बाजार से खरीद लाए। सब तुम्हें मालूम है कि मकराने से, खदान से निकाला गया संगमरमर है कि फलां-फलां कारीगर ने यह मूर्ति बनाई, इतना पैसा देकर मूर्ति खरीद लाए हैं। फिर फलां-फलां पंडित पुजारी को बुला कर, यज्ञ, हवन करके इसे स्थापित कर दिया है। है तो पत्थर ही। अभी भी तोड़ोगे तो पत्थर ही पाओगे। इस पत्थर को तोड़ कर तुम इसके भीतर हृदय धड़कता हुआ नहीं पाओगे, और न खून की धार बहेगी।
लेकिन आदमी बड़े होशियार हैं, बड़े चालबाज हैं। एक पत्थर होता है जो भाप पी जाता है और जब गरमी पड़ती है, तो वह भाप पानी की तरह पत्थर में से निकलने लगती है। उसकी मूर्तियां बना ली हैं लोगों ने और वे कहते हैं कि भगवान को पसीना आ रहा है।
पंजाब में महावीर की एक मूर्ति है। हजारों लोग इकट्ठे होते हैं--जब पसीना आता है भगवान को--देखने। कैसे-कैसे पागल हो! लेकिन हमारा मन मानना चाहता है कि भगवान को पसीना आ रहा है। वह पत्थर तुम कहीं से भी उठा लाओ, घर में रख लो लाकर, वह भाप पी जाता है हवा में से। उसमें छिद्र हैं छोटे। फिर जब गरमी पड़ती है, वह भाप पसीना बन कर बहने लगती है। अब तुमने मान रखा है। मान रखा है तो सच! फिर कभी-कभी सदियों तक एक बात अगर मानी गई हो और अचानक कोई उससे विपरीत बात कहे, तो कैसे भरोसा करोगे?
अभी मैं पढ़ रहा था कल रातः शिकागो में, एक छोटे से बच्चे ने--दस साल की उम्र थी उसकी, स्कूल जा रहा था, रास्ते पर एक बिल्ली देखी, जिसकी दो पूंछ थीं। वह बड़ा हैरान हुआ। उसने अपनी आंखें मलीं। निश्चित ही दो पूंछ थीं। उसने बड़े गौर से देखा, मगर तब तक बिल्ली छलांग लगा कर पास के मकान के पार चली गई।
वह स्कूल गया, उसने जाकर कहा कि हद हो गई, आज मैंने एक बिल्ली देखी थी जिसकी दो पूंछ थीं। सारे लड़के हंसे कि तुम पागल हो गए हो, बिल्ली को कहीं दो पूंछ होती हैं! मगर उसने कहा कि मैं कसम खाकर कहता हूं कि मैंने देखी है, और मैंने बड़े गौर से देखी है। मगर कौन माने? सारे बच्चों ने शिक्षक से कहा कि यह बड़ा झूठ बोल रहा है; यह कहता है दो पूंछ वाली बिल्ली! शिक्षक ने भी उसको डांटा और कहा कि सच-सच कहो, दो पूंछ की बिल्ली होती ही नहीं। तुम झूठ बोल रहे हो।
उस बच्चे ने कहाः लेकिन मैंने देखी है। वह अपनी जिद पर अड़ा रहा तो शिक्षक ने उठा कर बेंत उसकी पिटाई कर दी। घुटने टिकवा दिए। और कहा, जब तक क्षमा नहीं मांगेगा...झूठ बोल रहा है, और अकड़ रहा है फिर भी!
वह विद्यार्थी उस दिन घर लौटा, रात घर से भाग गया वह उस बिल्ली की तलाश में, कि वह बिल्ली किसी तरह पकड़ में आ जाए तो उनको जाकर दिखा दूं। अब बिल्ली को पकड़ना इतना आसान थोड़े ही है। रात भर खोजता रहा। सुबह-सुबह उसे फिर वह एक मुंडेर पर बिल्ली दिखाई पड़ी--वही बिल्ली, दो पूंछ; मगर पकड़े कैसे!
फिर जाकर उसने स्कूल में कहा कि मैं क्षमा मांगता हूं, आप चाहे मारें और चाहे पीटें, मैंने फिर देखी है बिल्ली। तब तो लोगों ने समझा यह पागल हो गया; पहले लोग समझते हैं, झूठ बोला; अब समझा कि बिलकुल पागल हो गया। पिटाई से भी नहीं मानता, तो पागल ही हो गया है।
आठवें दिन...वह बच्चा घूमता ही रहा गांव में। आठवें दिन...लौटा नहीं दो तीन दिन तक। परेशान हो गए घर के लोग, सब जगह खोजा गया। उसने एक झाड़ से टंग कर आत्महत्या कर ली। यह बड़ी हैरानी की बात हुई। सारे बच्चों को भी अपराध भाव लगा स्कूल में कि हमने भी इसमें थोड़ा हाथ बंटाया। पहले हमने उसको झूठ कहा, फिर हमने उसको पागल कहा। कौन जाने! शिक्षक को भी अपराध भाव हुआ। स्कूल बंद किया गया उसके शोक में। उसकी अरथी में सब लोग सम्मिलित हुए और जब उसे कब्र में उतारा जा रहा था तो सबने वह बिल्ली देखी। वह मरघट पर बैठी थी जिसकी दो पूंछें थीं। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी।
मामला ऐसा है कि जो तुम मानते रहे हो, उससे अन्यथा तुम स्वीकार करने को राजी नहीं होते। तुमने अगर पत्थर में भगवान देखा है तो तुम उससे अन्यथा मानने को राजी नहीं होते। फिर कबीर कहता है कि मैंने देखा कि पत्थर में पत्थर है, वहां कुछ भी नहीं भगवान इत्यादि। तो पहले तो तुम कहते हो झूठा है। पहले तो तुम कहते हो, उपद्रवी है। फिर अगर यह नहीं मानता, अपनी जिद पर अड़ा रहता है, तुम इसे सताते भी हो, मारते भी हो, पत्थर भी फेंकते हो, अपमानित करते हो। फिर भी अगर जिद पर रहता है तो तुम समझ लेते हो पागल है। और फिर भी अगर जिद पर टिका ही रहता है, तो जब मर जाता है, तो तुम कहते हो, फकीर है, बड़ा पहुंचा हुआ है, पूजा कर लो। मगर इसकी मानते कभी नहीं। पहले झूठ कहा, फिर पागल कहा, फिर पहुंचा हुआ कहा; मगर हर हालत में तुमने इसको अपने से दूर रखा।
पूजा भी तुम्हारा दूर रखने का एक उपाय है।
पूजा भी तुम्हारा अस्वीकार है। तुम यह कहते हो कि भले महाराज, तुम्हारी पूजा कर देते हैं, हमें ज्यादा न सताओ। आप ठीक ही कहते होंगे; जब आप कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। थक जाते हो तुम, तो तुम कहते हो हम आपके चरण छूते हैं, मगर चुप रहो, शांति से बैठो। हम आपकी सदा याद करेंगे, लेकिन हमें परेशान न करो, उद्विग्न न करो। यह दो पूंछों की बिल्लियों की बात न करो। हम जैसा देखते रहे हैं, वैसा ही हमें देखने दो। हमें सांत्वना दो। हमें और सताओ मत।
खयाल रखना, सत्य की खोज और सांत्वना की खोज अलग-अलग खोजें हैं। जो सांत्वना खोजता है, वह सत्य नहीं खोजता। उसे अगर झूठ से सांत्वना मिल जाए तो वह झूठ से ही राजी हो जाता है। जो सत्य खोजता है, वह सांत्वना नहीं खोजता। अगर सारे झूठ टूट जाएं और उनके साथ उसकी सारी सांत्वना नष्ट हो जाए, तो भी वह तैयार होता है।
मैं तुमसे सीधी-सादी बातें ही कह रहा हूं; लेकिन इन बातों में सत्य का रंग है। इन बातों में सत्य का रस है। और तुमने असत्य के साथ बहुत सी सांत्वनाएं बना रखी हैं। तुम्हारी सांत्वनाएं टूटती हैं।
फ्रेड्रिक नीत्शे ने कहा हैः और सब कुछ करो आदमी के साथ, उसके झूठ मत तोड़ना, अन्यथा वह तुम्हें कभी क्षमा न करेगा। फ्रेड्रिक नीत्शे ने यह भी कहा है, और महत्वपूर्ण है कि आदमी झूठ के बिना नहीं जी सकता। आदमी इतना कमजोर है कि उसे झूठ चाहिए ही चाहिए। उसे कुछ न कुछ झूठ चाहिए। वह झूठों में बड़ा रस लेता है।
तुम चले गए ज्योतिषी के पास, जन्म-कुंडली दिखा दी, और उसने कुछ झूठ कहे, और तुम बड़ा रस लेते हो। और वह जानता है किन झूठों में तुम रस लोगे। वह कहता है कि अभी तक तो बड़ी तकलीफ रही। सभी को रही है, इसलिए कोई झंझट की बात नहीं है। किसी से भी कहो, सभी को रही है। अभी तक तो बड़ी तकलीफ रही है, जीवन में बड़ा संकट रहा है, संघर्ष रहा है! किसको नहीं रहा है! हाथ में पैसा आता है, लेकिन टिकता नहीं। किसका टिकता है! बेईमान जीत जाते हैं, ईमानदार हारता है। सभी मानते हैं, क्योंकि सभी हारे हुए हैं। ईमानदार होना चाहिए, तभी तो हारे हुए हैं। लेकिन भविष्य बड़ा उज्ज्वल है; चित्त प्रसन्न होता है। पांच रुपये देने गए थे, दस दे आते हो। भविष्य बड़ा उज्ज्वल है। शीघ्र ही सब ठीक होने वाला है। शुभ मुहूर्त आ रहा है।
आदमी झूठ से जीता है। तुम उस डाक्टर के पास जाना पसंद करते हो जो तुमसे कहता हैः कोई फिकर नहीं, यह बीमारी साधारण है, अभी इलाज से ठीक हो जाएगी। तुम उस डाक्टर के पास जाना पसंद नहीं करते, जो पहले तुम्हारी बीमारी का पूरा ब्योरा प्रस्तुत करता है और छाती दहलवा देता है। तुम उस डाक्टर से जरा बचते हो।
तुम झूठ से राजी हो। हम झूठ में पगे हैं। हम एक दूसरे से झूठ बोल रहे हैं। पत्नी पति से झूठ बोल रही है। पति पत्नी से झूठ बोल रहा है। मित्र मित्रों से झूठ बोल रहे हैं। तुम एक-दूसरे की प्रशंसा कर रहे हो, जो कि झूठ है।
फ्रायड ने कहा हैः अगर लोग सच-सच कहना शुरू कर दें तो दुनिया में चार दोस्त भी नहीं बचेंगे; सब दुश्मन हो जाएंगे।
तुम जरा सोचो, तुम अगर वही कह दो जो तुम सोचते हो अपने दोस्त के बाबत, तो दोस्ती बचेगी? दोस्ती गई उसी वक्त। फिर तुम शक्ल न देखोगे एक-दूसरे की। घर में बैठे हो, और कोई आ जाता है, द्वार पर दस्तक देता है, भीतर तो कहते हो, यह कमबख्त कहां से आ गया! आज का दिन खराब किया। लेकिन देख कर बिलकुल बाग-बाग हो जाते हो, एकदम खिल जाते हो और कहते होः धन्यभाग, कितनी प्रतीक्षा थी! पधारो! पग धरो! पलक-पावड़े बिछाते हो। और भीतर सोच रहे हो कि यह दुष्ट कहां से आ गया, और कब टलेगा, पता नहीं। सत्य तुम कहते कहां हो! और तुम यह मत सोचना कि तुम्हीं झूठ बोल रहे हो, वह भी झूठ बोल रहा है। यह जिंदगी झूठ से चलती मालूम पड़ती है। यहां सब नाते-रिश्ते झूठ के हैं।
यहां झूठ करीब-करीब ऐसा ही है, जैसे मशीन में तेल डालने से मशीन ठीक से चलती है और तेल न डालो तो, तो गड़बड़ खड़ी हो जाती है; आवाज आने लगती है, कर्कश हो जाती है। झूठ तेल है; संबंधों के बीच थोड़ी स्निग्धता बनी रहती है। घर आए और रास्ते से एक फूल खरीद लाए पत्नी के लिए। एक झूठ है। क्योंकि पत्नी की तुम्हें दिन भर याद नहीं आई। सच तो यह है कि दफ्तर में तुम ज्यादा देर रुकते हो कि जितनी देर तक पत्नी से छुटकारा है, बेहतर। मगर जब घर आते हो तो एक फूल खरीद लाए, कि आइस्क्रीम खरीद लाए। यह झूठ है। पत्नी भी निशिं्चत अनुभव करती है, जब तुम दफ्तर चले जाते हो, तब वह भी आराम से बैठती है कि झंझट टली। मगर जब शाम तुम घर आते हो तो दरवाजे के सामने खड़ी मिलती है, कि दिन भर से प्रतीक्षा कर रही थी। यह सब झूठ पर चल रहा है।
इसलिए अड़चन है।
मैं जो कह रहा हूं, वे सीधे-सादे सत्य हैं। तुम्हारे झूठों को तोड़ते हैं। तुम्हारे झूठों के लिए उनमें कोई स्थान नहीं है। सिर्फ हिम्मतवर उनसे राजी होंगे। सिर्फ साहसी उनके साथ चलेंगे।
...तो शिक्षा जगत के महारथी, संसार के तथाकथित समझदार, उनको मेरी बातें समझ में न आएंगी। और राजनीतिज्ञ तो इस जगत में सबसे रुग्ण चित्त का व्यक्ति है--सबसे ज्यादा बीमार। महत्वाकांक्षा बीमारी है। और राजनीति सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा है। अगर बुद्ध सही हैं तो राजनीतिज्ञ पागल है। अगर राजनीतिज्ञ सही हैं तो सब बुद्ध पागल हैं।
बुद्ध राज्य को छोड़ कर चले गए थे। तुमने बहुत बार यह सुना कि बुद्ध राज्य को छोड़ कर चले गए थे। तुमने कभी यह भी सोचा कि राज्य को छोड़ने में राजनीति भी छूट गई थी? वह तुमने नहीं सोचा। एक बौद्धों का ग्रंथ नहीं कहता और न हिंदुओं का और न जैनों का--कि महावीर राजनीति भी छोड़ कर चले गए थे। राज्य ही छोड़ कर गए थे तो राजनीति छूट जाएगी। राजनीति का मतलब ही क्या रहा? राज्य छोड़ कर गए थे, यह तो कहते हैं; लेकिन राजनीति! राजनीति छोड़ कर गए थे। असल में राज्य इसलिए छोड़ा था कि राजनीति का कचरापन दिखाई पड़ गया था। राज्य में बैठे रहते तो राजनीति चलानी पड़ती।
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूंः राज्य नहीं था जो छोड़ा उन्होंने। असल में राजनीति छोड़ी थी इसलिए राज्य छूटा।
तो जो लोग राजनीति की यात्रा कर रहे हैं और दिल्ली की तरफ चलते रहते हैं, चलते रहते हैं--और चलते रहो, चलते रहो तो एक न एक दिन पहुंच ही जाते हो। बस लंबे समय तक चलते रहना काफी है। पहुंच ही जाओगे। दिल्ली बहुत दूर है नहीं। चित्त मूढ़ता से भरा हो तो तुम दिल्ली पहुंच कर रहोगे। बीच में थकना मत, हारना मत। जिद्दी और जड़बुद्धि होनी चाहिए। समझदार आदमी बीच में ही सोचेगा कि कहां मैं जा रहा हूं, क्या रखा है? हजार बार सवाल उठेगा कि मैं कर क्या रहा हूं अपने जीवन के साथ! बुद्धिहीनता चाहिए दिल्ली पहुंचने के लिए, कि कभी यह सवाल न उठे, बस सींग नीचे झुकाए और घुस गए! जैसे बैल घुस जाता है भीड़ में, फिर वह देखता ही नहीं कि अब क्या हो रहा है। इस तरह चलते रहे, चलते रहे तो पहुंच ही जाओगे।
लेकिन राजनीति अंधापन है। राजनीति का अर्थ हैः मैं कैसे दूसरों का मालिक हो जाऊं! धर्म का अर्थ हैः मैं अपना ही मालिक हो जाऊं तो बहुत और कोई मालकियत नहीं है।
इसलिए कबीर ने कहा धरमदास को--धनी धरमदास। जब सब धन छोड़ दिया तो धनी।
जब सब रातनीति चली जाती है तो नीति का जन्म होता है। जब तक राजनीति है तब तक अनीति है। राजनैतिक नैतिक नहीं हो सकता। यह शब्द बड़ा झूठा है। राजनीति--इससे ऐसा लगता है कि राज्य की कोई नीति होती है। कोई नीति नहीं होती।
राजनीति अनीति है, लेकिन राजनीति होशियार है, वह अच्छे शब्द चुनती है। राजनीति सिर्फ बेईमानी है; सिर्फ महत्वाकांक्षा का ज्वर है। येन-केन-प्रकारेण पहुंच जाना है। सीधे हो तो सीधे, उलटे हो तो उलटे। कैसे पहुंचे हो, यह कोई नहीं पूछता। अगर पहुंच गए तो कोई नहीं पूछता, कैसे पहुंचे हो। अगर न पहुंचे तो सभी लोग कहते हैं कि अरे, नहीं पहुंचे इसलिए कि बेईमान थे; नहीं पहुंचे इसलिए कि धोखेबाज थे; नहीं पहुंचे इसलिए कि चरित्र नहीं था। पहुंच गए तो चरित्र भी हो जाता है, ईमानदारी भी हो जाती है।
तुमने पुराना वचन सुना है? वह धर्म की उदघोषणा है। सत्यमेव जयते--कि सत्य सदा जीतता है। राजनीति की उदघोषणा क्या है? जो जीत जाए, वह सत्य। उलटा। सत्य सदा जीतता है, ऐसा नहीं--जो जीत जाए, वह सत्य। जिसकी लाठी उसकी भैंस। एक बार तुम पद में पहुंच गए तो सब ठीक है। तुमने जो किया वह सब क्षमा। तुमने जो किया सब अच्छा। क्योंकि इतिहास तुम बनाओगे, अखबार तुम छपवाओगे, अब तुम्हारी ताकत से सब चलेगा।
तुम देखते हो न, एक आदमी जब ताकत में पहुंच जाता है, तो लोग कैसे बदल जाते हैं! मोरारजी भाई देसाई के खिलाफ ब्लिट्ज सदा लिखता था, सदा। जब एकदफा मोरारजी भाई ताकत में पहुंच गए तो ब्लिट्ज देखते हो क्या सिद्ध करने की कोशिश कर रहा है। ब्लिट्ज यह सिद्ध करने की कोशिश कर रहा है कि मोरारजी महात्मा हैं। एकदम बदल गई बात। अब महात्मा हो गए! अब अवतारी पुरुष हैं, यह सिद्ध करने की कोशिश चल रही है। परमात्मा की शक्ति उनके पीछे है, अब यह सिद्ध करने की कोशिश चल रही है। अब वे महायोगी हैं, यह सिद्ध करने की कोशिश चल रही है।
जिसके हाथ में लाठी हो जाती है, सभी लोग कहने लगते हैं कि भैंस आपकी है। कहना ही पड़ता है। जब लाठी छूट जाती है तब देखो, भैंस भी नहीं कहती कि मैं आपकी हूं। समझा क्या है?
राजनीति इस जगत का सबसे ज्यादा रुग्ण आयाम है। इसलिए राजनीतिज्ञ तो मेरी बात नहीं समझ सकता। मेरी बात तो वे ही समझेंगे जिनकी महत्वाकांक्षा का ज्वर टूट रहा है; जो जाग रहे हैं। राजनीति तो गहरी से गहरी नींद है, मूच्र्छा है--कोमा। आदमी पड़ा है बिलकुल मूच्र्छित होकर। जिनके भीतर थोड़ा जागरण है, वे मेरी बात समझेंगे।
बात निश्चित ही सीधी-साफ है; जो भी समझना चाहे समझ सकता है। लेकिन राजनीतिज्ञ नहीं समझना चाहता, क्योंकि अभी महत्वाकांक्षा का ज्वर है; अभी वह ऐसी दवा नहीं चाहता, जिससे ज्वर कम हो जाए। ध्यान से तो ज्वर चला जाएगा। ध्यान से तो शांति आ जाएगी। फिर कौन फिकर करता है कहां जाने की! मगन हो जाता है अपने ही भीतर आदमी, फिर कहां जाना है! फिर किसको पाना है! फिर कोई दौड़ नहीं है। फिर कोई मंजिल नहीं है।
और शिक्षा शास्त्री भी नहीं समझेगा, क्योंकि वह सेवा में अतीत के है। केवल वे ही समझेंगे जिन्हें एक बात दिखाई पड़नी शुरू हो गई कि अब तक हम जिस ढंग से जीए हैं, वह जीना गलत है। अब तक हम जिस ढंग से जीए हैं, वह जीना नहीं है, मरने से बदतर है। अब तक हम जिस ढंग से जीए हैं, वहां हमने सिवाय कांटों के और कुछ नहीं पाया, फूल नहीं खिले हैं।
जिसको यह पीड़ा बहुत सघन हो जाएगी, वही इन सीधे-सादे सत्यों को समझेगा। और समझते ही क्रांति घट जाती है। ये सत्य ऐसे हैं कि तुमने समझे कि इन्होंने तुम्हें बदला।
जीसस का प्रसिद्ध वचन हैः सत्य मुक्तिदायी है। समझ लो--और मुक्ति घट जाती है। एक दफा सत्य का बोध हो जाए, वह बोध ही तुम्हें बदलता है। फिर बदलने के लिए कोई अलग से चेष्टा करने की जरूरत नहीं होती।

तीसरा प्रश्नः भगवान! मैं कितना भाग्यवान हूं कि मुझे आप मिले!
॰ इस पर रुक मत जाना। इस भाग्य को और महाभाग्य बनाओ। मैं मिला, इसे यात्रा का प्राथमिक बिंदु समझो।
मेरे से मिलना सार्थक उसी दिन समझना जिस दिन अपने से मिलना हो जाए। जब तक तुम अपने से न मिल जाओ, मुझसे मिले या न मिले, इसका बहुत दूरगामी परिणाम नहीं होगा। मैं हूं कि तुम्हें तुमसे मिला दूं। मैं हूं कि तुम्हें तुमसे जुड़ा दूं।
यह अनुग्रह का भाव मूल्यवान है। यह अनुग्रह का भाव तुम्हें आगे ले जाने के लिए पंख बनेगा। मगर स्मरण रहे कि आगे जाना है। कई बार हम जल्दी रुक जाते हैं। कई बार हम बीच के पड़ाव को मंजिल समझ लेते हैं। कई बार हम कहते हैं कि इतना तो आनंद है, अब क्या करना!
नहीं, और बहुत आनंद हैं। और बहुत ऊंचाइयां हैं। ऊंचाइयों पर ऊंचाइयां हैं। अंतहीन ऊंचाइयां हैं। एक शिखर के बाद और बड़ा शिखर है।
मैं तुम्हारा प्रस्थान बिंदु हूं। तुम्हारी यात्रा का अंतिम पड़ाव नहीं। अंतिम पड़ाव तो परमात्मा है।
तो आनंदित होओ मेरे साथ। अनुग्रह से भरो। लेकिन इससे रुकावट न आए। अनुग्रह शैथिल्य न बने। ऐसा न हो कि ठीक है, अब मिलन तो हो गया गुरु से, अब क्या करना है! नहीं मिलन हुआ है इसलिए अब कुछ करना है। नहीं मिलन हुआ होता तो क्या करते, करने को क्या था! अब एक झलक मिली है रोशनी की, यह रोशनी भीतर जल जाए। यह रोशनी रोएं-रोएं में समा जाए।
जब तक तुम ऐसे ही न हो जाओ जैसा मैं हूं, तब तक रुकना मत। तुम्हारे भीतर इतनी संभावनाएं पड़ी हैं, कि एक बार तुम सजग होकर उन संभावनाओं को पकड़ने लगो, तो तुम्हारी संपदा का कोई अंत नहीं, तुम्हारे साम्राज्य का कोई अंत नहीं।
शुभ है अनुग्रह का भाव। फिर अनुग्रह अनुग्रह के भी बड़े भेद होते हैं। यह स्वामी अगेह भारती का अनुग्रह है। स्वामी योग चिन्मय ने कुछ दिन पहले एक पत्र लिखा कि ‘मैं आपका बड़ा अनुगृहीत हूं कि आश्रम में मुझे मुफ्त रहने का इंतजाम है, मुफ्त में भोजन की व्यवस्था है, मुफ्त प्रवचन सुन सकता हूं, मुफ्त ध्यान कर सकता हूं। मैं बड़ा अनुगृहीत हूं।’
एक यह भी अनुग्रह है! यह दो कौड़ी का अनुग्रह हुआ। मुफ्त रहना, मुफ्त भोजन--यह मुझसे तुम्हारा नाता है? यह मेरे प्रति अनुग्रह हुआ? तो कहीं अगर तुम्हें और अच्छा भोजन मिल जाए और रहने को कहीं और अच्छी जगह मिल जाए, तो फिर क्या करोगे? फिर तुम कहोगे कि, जयराम जी! अब वहां अनुग्रह की और ज्यादा सुविधा है।
यह अनुग्रह हुआ? अनुग्रह को छोटी बातों पर मत टिकाना, क्षुद्र पर मत टिकाना, नहीं तो अनुग्रह भी क्षुद्र हो जाता है। अनुग्रह को विराट पर टिकाना, तो अनुग्रह तुम्हें विराट बनाएगा।
धन्यवाद भी गलत चीजों के लिए दे सकते हो। धन्यवाद हमेशा ही ठीक नहीं होता। अगर गलत चीजों के लिए दिया गया तो गलत हो जाता है। अब यह कोई धन्यवाद हुआ? सोचा होगा, अनुग्रह प्रकट करना है। अनुग्रह बड़ी ऊंची चीज है! सोचा होगा कि अनुग्रह का भाव भक्त की दशा है। क्योंकि उन दिनों मैं अनुग्रह के भाव की बात कर रहा था--जब उन्होंने यह पत्र लिखा--कि भक्त में अनुग्रह का भाव होता है। शिष्य में परम अनुग्रह का भाव होता है। सोचा होगा कि अनुग्रह तो प्रकट करना ही चाहिए। तो खोजा होगा, सोचा होगा, विचारा होगा कि कैसे प्रकट करें अनुग्रह। फिर उन्होंने यह अनुग्रह का भाव निकाला। अनुग्रह दो कौड़ी का हो गया, मिट्टी में गिर गया।
धन्यवाद, किस बात का? बस इसी बात का धन्यवाद होना चाहिए कि मैं तुम्हें मिल गया हूं।
अब इससे ऊर्जा लो, इससे संकेत लो और अपने से मिलने की यात्रा पर निकल जाओ।
मेरे प्रति उऋण होने की यही सुविधा है एकमात्र, कि तुम स्वयं को जान लो। जिस दिन तुम स्वयं को जानोगे, उस दिन मैं भी धन्यभागी होऊंगा।
जिन्होंने मुझसे अपने को जोड़ा है, मेरी अभीप्सा है कि वे सभी, इस जीवन में जान कर ही विदा हों। कोई कारण नहीं है कि रुकें। जिन्होंने मुझे अपने भीतर हृदय में जगह दी है, उन सबका जीवन यह अंतिम हो सकता है। रुकोगे तो तुम अपने कारण रुकोगे; मेरी तरफ से कोई...कोई रुकावट नहीं है। मैं तुम्हें जल्दी से जल्दी धक्का देना चाहता हूं। तुम छलांग ले लो।
अनुग्रह स्वाभाविक है, क्योंकि मेरे कारण तुम्हें अपनी याद आनी शुरू हुई है। मेरे कारण तुम्हें अपनी सुध आनी शुरू हुई है।
तेरा गम, तेरा तसव्वुर, तेरी बातें, तेरी याद
इतनी दौलत मेरे दामन में कहां थी पहले!
स्वाभाविक है कि अनुग्रह का परम भाव गुरु के प्रति उठे।
रात बीती, तेरी यादें भी दबे पांव चलीं
एक एक कर के उतर आए, सितारे दिल में
ये शब्द, जो मैं तुमसे कह रहा हूं, अगर तुम इन्हें ले जा सको अपने हृदय तक तो एक-एक सितारा बन जाएगा। एक-एक शब्द एक-एक फूल बन जाएगा। एक-एक शब्द एक-एक अनुभूति बन जाएगा।
इस तेरी तमन्ना ने, कुछ ऐसा नवाजा है
मांगी ही नहीं जाती अब कोई दुआ हम से
ऐसा हो जाता है। जब तुम गहरे प्रेम में होते हो तो कुछ मांगने को नहीं रह जाता। जब गहरा प्रेम होता है तो मांग खो जाती है। जब गहरा प्रेम होता है, तो ऐसी तृप्ति होती है कि कुछ और मांगने को सूझता भी नहीं। मांगने की जरूरत भी नहीं है। लेकिन खोजने की जरूरत समाप्त नहीं होती। मुझसे तुम्हारा प्रेम, एक महायात्रा का प्रारंभ है; एक तीर्थयात्रा का प्रारंभ है।
इसका रोना नहीं, क्यों तुमने किया दिल बरबाद
इसका गम है कि बहुत देर में बरबाद किया
और मैं तुम्हें बरबाद भी करूंगा। मैं तुम्हें मिटाऊंगा भी। क्योंकि तुम्हें बिना मिटाए तुम्हें जन्म नहीं दिया जा सकता। तुम्हारी मृत्यु पर ही तुम्हारा पुनर्जन्म है। तुम जैसे हो ऐसे मिटोगे, तो ही तुम जैसे होना चाहिए वैसे हो सकोगे।
तुम्हें तोड़ा जाएगा। इसलिए बहुत बार तुम नाराज भी हो जाओगे। उस समय यह अनुग्रह काम आएगा। इस अनुग्रह को संपदा समझना; यह तब तुम्हारे काम आएगी, जब कठिन दिन आएंगे और मैं तुम्हें तोडूंगा। और जब मैं तुम्हें काटूंगा, तब अगर अनुग्रह का भाव रहा, तो तुम झुके रहोगे। तब तुम श्रद्धा से भरे रहोगे। तुम कहोगे कि जो हो रहा है, ठीक ही होता होगा--चाहे मुझे पीड़ा होती हो, चाहे मुझे दुख होता हो, चाहे मुझे घाव लगते हों--लेकिन जो हो रहा है, वह ठीक ही हो रहा होगा।
और मैं तुमसे यह कहता हूं कि एक दिन तुम यह जरूर कहोगेः
इसका रोना नहीं है, क्यों तुमने किया दिल बरबाद
इसका गम है कि बहुत देर में बरबाद किया

आखिरी प्रश्नः सभी धर्म अपने-अपने धर्मगुरु की प्रशंसा में अतिशयोक्ति क्यों करते हैं?
॰ वह अतिशयोक्ति दूसरों को मालूम होती है। और दूसरों को मालूम हो, यह स्वाभाविक है। लेकिन जिन्होंने प्रेम किया है वे अतिशयोक्ति नहीं करते। उनकी तो अड़चन दूसरी है। उनकी अड़चन यह है कि कोई शब्द योग्य नहीं मालूम होता जिससे वे अपने गुरु की चर्चा कर सकें। सब शब्द छोटे मालूम पड़ते हैं।
जिसने बुद्ध को चाहा उसके लिए सारी भाषा ओछी मालूम पड़ती है--किन शब्दों में बुद्ध का गुणगान करें! हां, जिन्होंने बुद्ध को नहीं चाहा, उनको लगता है, यह तो बड़ी अतिशयोक्ति हो रही है। ये भक्त बुद्ध के, बुद्ध को भगवान कह रहे हैं! यह तो बड़ी अतिशयोक्ति हो रही है। भगवान तो वह, जिसने दुनिया बनाई। बुद्ध ने दुनिया बनाई? ये तो कल नहीं थे, आज हैं, कल फिर नहीं हो जाएंगे। भगवान तो सबका नियंता है। ये बुद्ध सबके नियंता हैं? भगवान तो वह है, जिसके इशारे से पत्ते हिलते हैं, जिसके बिना इशारे के पत्ते नहीं हिलते। इन बुद्ध का इशारा मान कर कोई पत्ता हिलेगा? इनके, बुद्ध के इशारे से दुनिया चल रही है? बुद्ध को तो बीमारी भी लगती है, इनके इशारे से क्या खाक होता होगा! ये तो बूढ़े भी हो गए। इनका तो मरने का दिन भी करीब आ गया।
वह जो दूर खड़े होकर देख रहा है, वह सोचता है यह अतिशयोक्ति हो गई। बुद्ध को भगवान नहीं कहा जा सकता। हां कहो, महात्मा बहुत से बहुत।
और मजा यह है कि अगर भक्त बुद्ध को महात्मा कहे, तो भी जो दूर खड़ा है, उसको तब भी बात नहीं जंचती; वह कहता है, महात्मा! अगर वह कृष्ण को महात्मा मानता है तो बुद्ध को नहीं मान सकता, क्योंकि उसके महात्मा की कसौटियां अलग हैं। अगर वह महावीर को महात्मा मानता है तो बुद्ध को नहीं मान सकता, क्योंकि महावीर नग्न हैं, नग्न होना कसौटी है महात्मा की--दिगंबर। ये बुद्ध तो कपड़े पहने बैठे हैं! यह कौन सी बात हुई महात्मा की? हां, साधु पुरुष कहो तो ठीक है। लेकिन साधु पुरुष कहो, तो भी जो दूर खड़ा है, उसको नहीं जंचता, क्योंकि उसे हजार बातें दिखाई पड़ती हैं जो उसकी साधु की मान्यता में नहीं आतीं।
अब समझो, ईसाई है कोई, उसको बुद्ध साधु नहीं मालूम पड़ते, क्योंकि साधु का मतलब हैः मदर टेरेसा; जाओ, मरीजों के पैर दबाओ। साधु का मतलब होता हैः स्कूल खोलो, गैर-पढ़े लिखे को पढ़ाओ। साधु का मतलब होता हैः गरीब हैं, उनकी सेवा करो। ये बुद्ध तो अपने झाड़ के नीचे बैठे हैं!
तुम सुनते हो, इस देश में भी हम सेवा शब्द का उपयोग करते हैं, लेकिन यहां सेवा का बड़ा ही उलटा मतलब है। यहां लोग कहते हैं...जैनों से पूछो, वे कहते हैं, कहां जा रहे हो? वे कहते हैं, जरा साधु महाराज की सेवा करने जा रहे हैं। यहां साधु महाराज की सेवा की जाती है! इस देश में यह धारणा ही नहीं थी कभी कि साधु महाराज किसी की सेवा करें। वह तो ईसाई धारणा लाए। साधु वह, जो सेवा करे। इधर तो साधु वह था, जो सेवा ले।
अब बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। तुम्हारे साधु जंचते नहीं। बुद्ध बैठे हैं झाड़ के नीचे! साधु हैं जीसस, जिन्होंने अपने प्राण दे दिए जगत की सेवा में। बुद्ध ने क्या दिया?
जो दूर खड़ा है, जिसके लगाव कहीं और हैं, उसे हर चीज अतिशयोक्ति मालूम पड़ेगी। और जो प्रेम में पड़ा है, उसे भगवान कह कर भी अतिशयोक्ति मालूम नहीं होगी। उसे तो यह लगता है, भगवान शब्द भी छोटा है। क्यों? क्योंकि उसे बुद्ध में वह ज्योति दिखाई पड़ी है, जो शाश्वत है। बुद्ध की देह को भगवान नहीं कह रहा है वह, दीये को भगवान नहीं कह रहा है--दीये में जो ज्योति है, उसको भगवान कह रहा है। और वह ज्योति तो समर्पित शिष्य को दिखाई पड़ती है, औरों को तो दिखाई नहीं पड़ती। वह तो प्रेमी को दिखाई पड़ती है। और तो यही कहेंगे कि अरे, प्रेम में अंधे हो गए हो, इसलिए दिखाई पड़ रही है। ठीक, और भी ठीक ही कहते हैं।
प्रेम एक तरह का अंधापन लाता है और एक तरह की आंख भी लाता है।
तुम ऐसा समझो कि धर्मगुरुओं के संबंध में लोगों ने जो अतिशयोक्ति की है, वह वैसी ही अतिशयोक्ति है जैसी प्रेमी सदा से करते रहे हैं। लेकिन प्रेमियों में तुम एतराज नहीं उठाते। मजनू से पूछो लैला के संबंध में, क्या कहता है। तुम एतराज नहीं उठाते। तुम यह नहीं कहते कि यह अतिशयोक्ति हो गई।
इन शब्दों को सुनो। प्रेमी अपनी प्रेयसी से कह रहा है--
ऐ हमारंग, हमानूर, हमा-सोजो-गुदाज
बज्मे-महताब से आने की जरूरत क्या थी
तू जहां थी उसी जन्नत में निखरता तेरा रूप
इस जहन्नुम को बसाने की, जरूरत क्या थी
ये खदो-खाल, ये ख्वाबों से तराशा हुआ जिस्म
और दिल जिस पे खदो-खाल की नर्मी भी निसार
खार ही खार, शरारे ही शरारे हैं यहां
और थम-थम के उठा पांव बहारों की बहार
तश्नगी जहर भी पी जाती है अमृत की तरह
जाने किस जाम पे रुक जाए निगाहे-मासूम
डूबते देखा है जिन आंखों में मयखाना भी
प्यास उन आंखों की बुझे या न बुझे क्या मालूम
हैं सभी हुस्न-परस्त, अहले नजर, साहबे-दिल
कोई घर में कोई महफिल में सजाएगा तुझे
तू फकत जिस्म नहीं, शेर भी है, गीत भी है
कौन अश्कों की घनी छांव में गाएगा तुझे
तुझसे इक दर्द का रिश्ता भी है, बस प्यार नहीं
अपने आंचल पर मुझे अश्क बहा लेने दे
तू जहां जाती है जा, रोकने वाला मैं कौन
रस्ते-रस्ते में मगर शमअ जला लेने दे
ऐ हमारंग--ऐ साकार रंग! हमानूर--ऐ साकार ज्योति! हमा-सोजो-गुदाज--साकार कोमलता और तपिश!
ऐ हमारंग, हमानूर, हमा-सोजो-गुदाज
बज्मे-महताब से आने की जरूरत क्या थी
चंद्रसभा से तुझे यहां आने की जरूरत नहीं थी। तू चांद पर ही रहती, वहीं के योग्य थी।
बज्मे-महताब से आने की जरूरत क्या थी
तू जहां थी उसी जन्नत में निखरता तेरा रूप
इस जहन्नुम को बसाने की, जरूरत क्या थी
जब कोई किसी के प्रेम में पड़ता है, तो उसे लगता है, जिसके प्रेम में मैं पड़ा वह स्वर्गीय है। इस साधारण से जगत में उतरने की जरूरत नहीं थी।
ये खदो-खाल--ये गाल, और यह तिल! यह ख्वाबों से तराशा हुआ जिस्म! जैसे सपनों से सजाया गया हो, ऐसी तेरी देह है।
और दिल जिस पे खदो-खाल की नर्मी भी निसार
खार ही खार, शरारे ही शरारे हैं यहां
यहां इस जमीन पर कांटे ही कांटे हैं, अंगारे ही अंगारे हैं।
खार ही खार, शरारे ही शरारे हैं यहां
और थम-थम के उठा पांव, बहारों की बहार
संभलकर चलना, बहारों की बहार--वसंतों का वसंत सम्हल कर चलना, यहां बहुत कांटे हैं, और बहुत अंगारे हैं।
तश्नगी जहर भी पी जाती है अमृत की तरह
प्यास हो, गहरी प्यास हो, तो जहर भी अमृत की तरह मालूम होता है।
तश्नगी जहर भी पी जाती है अमृत की तरह
जाने किस जाम पर रुक जाए निगाहे मासूम
डूबते देखा है जिन आंखों में मयखाना भी
प्यास उन आंखों की बुझे या न बुझे क्या मालूम!
जब तुम किसी की आंख में प्रेम से देखते हो तो आंखें नहीं दिखतीं, मयखाना दिखता है। शराब ही शराब के चश्मे बहते हुए दिखते हैं। प्रेमी की आंख में झांक कर तुम बेहोश होने लगते हो, तुम बेखुद होने लगते हो।
हैं सभी हुस्न परस्त, अहले-नजर, साहबे दिल
कोई घर में कोई महफिल में सजाएगा तुझे
तू फकत जिस्म नहीं...प्रेमी कहता है कि तू सिर्फ शरीर नहीं है।
तू फकत जिस्म नहीं, शेर भी है, गीत भी है
--तू एक नज्म है, एक गीत है, काव्य है।
कौन अश्कों की घनी छांव में गाएगा तुझे।
--कौन होगा धन्यभागी, जो आंसुओं की छाया में तेरे गीत को गुनगुनाएगा।
तू फकत जिस्म नहीं, शेर भी है, गीत भी है
कौन अश्कों की घनी छांव में गाएगा तुझे
तुझसे इक दर्द का रिश्ता भी है, बस प्यार नहीं
अपने आंचल पर मुझे अश्क बहा लेने दे
--और नहीं मांगता ज्यादा कुछ, तेरे आंचल पर मेरे दो बूंद आंसू के गिर जाएं, बस इतना धन्यभाग!
तुझसे इक दर्द का रिश्ता भी है, बस प्यार नहीं
अपने आंचल पर मुझे, अश्क बहा लेने दे
तू जहां जाती है जा, रोकने वाला मैं कौन
रस्ते रस्ते में मगर शमअ जला लेने दे
--तू जहां जाए, हर रास्ते पर मैं शमा जलाता रहूं। तेरा रास्ता दीयों की ज्योति से भरा हो।
तुम प्रेमियों पर नाराज नहीं होते। तुम यह न कहोगे, इस प्रेमी ने कुछ गलत बात कही। तुम यह न कहोगे, अतिशयोक्ति की। तुम कहोगे कि प्रेमी तो अतिशयोक्तियां करते ही हैं। प्रेम अतिशयोक्ति है। और अगर तुम प्रेमियों को क्षमा कर देते हो, तो तुम शिष्यों को भी क्षमा करो, क्योंकि शिष्य का प्रेम और भी बड़ा प्रेम है।
प्रेमियों को क्या प्रेम का पता है! प्रेमियों के हाथ में तो बस साधारण सा जगत का प्रेम लगा है। शिष्य के हाथ में पारलौकिक प्रेम लग जाता है। उसे अपने गुरु में सब दिखाई पड़ता है। तुम उसे क्षमा करो। तुम उस पर एतराज मत उठाओ। वह धन्यभागी है।
और मैं तुमसे क्यों कहता हूं उसे क्षमा करो! क्योंकि उसे तुम क्षमा करोगे, तो शायद किसी दिन तुम्हें भी तुम्हारा गुरु मिल जाए। अगर तुम उसे क्षमा न करोगे तो तुम्हें तुम्हारा गुरु कभी नहीं मिलेगा। उसको क्षमा करने में तुम्हारा द्वार खुलता है। उसको क्षमा करने में तुम्हारी कठोरता पिघलती है।
जिन्होंने कृष्ण को भगवान कहा, उन्होंने जाना था ऐसा, उनके प्रेम में ऐसा अनुभव हुआ था उन्हें। जैनों ने नहीं कहा, जैनों ने कृष्ण को नरक में डाल दिया। उन्होंने प्रेम नहीं किया कृष्ण को तो नरक में डाल दिया। डालना ही पड़ा, क्योंकि उनकी अपनी कसौटी थी--अहिंसा। और कृष्ण ने हिंसा करवा दी, महायुद्ध करवा दिया। अर्जुन तो जैन होने को बिलकुल तैयार था, जैन मुनि हो गया होता वह। कृष्ण ने सब खराब कर दिया। एक मुनि से जगत वंचित हो गया। और युद्ध करवाया सो अलग, और लाखों लोग मरे सो अलग। तो नरक में डाल दिया है।
महावीर जैनों को भगवान दिखे, लेकिन हिंदुओं ने अपने शास्त्रों में उनका उल्लेख भी नहीं किया, कहीं नाम का भी उल्लेख नहीं किया--क्यों? उन्हें जंचे ही नहीं!
कम से कम कृष्ण जैनियों को थोड़े तो जंचे। नरक तो भेजा, उत्सुकता तो ली! हिंदुओं ने इतनी उत्सुकता भी न ली महावीर में। होगा कोई पागल, हो गया नग्न। छोड़ो भी, बात ही न उठाओ। भूल ही जाओ। ऐसे आदमियों के इतिहास में रहने की जरूरत ही नहीं है।
जिन्होंने बुद्ध को चाहा, उन्होंने बुद्ध को भगवान कहा। तुम नाराज मत होओ। तुम शिकायत न करो। क्योंकि शिकायत तुमने की तो खतरा है। अगर तुम मजनू से नाराज हुए, और फरहाद से नाराज हुए, तो याद रखना, तुम किसी के प्रेम में कभी न पड़ पाओगे। क्योंकि जब तुम प्रेम में पड़ोगे तभी तुम्हें लगेगा मैं भी वही गलती कर रहा हूं। नहीं, यह गलती मैं कैसे कर सकता हूं! यह गलती तो पहले मजनू कर चुका, यह फरहाद कर चुका। मैं तो सदा इसके खिलाफत में रहा हूं। यह मुझसे नहीं होगा।
तुम अपने को कठोर कर लोगे। तो कहीं ऐसा न हो कि कभी किसी ऐसे व्यक्ति के पास तुम आ जाओ, जहां तुम्हें भी भगवान दिख सकता था, जहां से झरोखा खुल सकता था, जहां से हवा का एक झोंका आता और तुम्हें ताजा कर जाता--कहीं तुम अपने द्वार-दरवाजे बंद किए न बैठे रह जाओ! इसलिए कहता हूं कि क्षमा कर दो; इसलिए नहीं कि तुम्हारे क्षमा करने या न करने से भक्तों को कुछ फर्क पड़ता है। भक्तों को क्या फर्क पड़ता है!
जिन्हें बुद्ध में भगवान दिखा, दिखा। सारी दुनिया कहे कि कुछ नहीं है, कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे कहने न कहने से भक्तों को कोई फर्क नहीं पड़ता। जिनमें पड़ जाए, वे भक्त ही नहीं हैं। लेकिन तुम्हारे कहने से तुम्हारे जीवन में फर्क पड़ेगा। तुम भक्तों पर दया करो, क्योंकि यही उपाय है ताकि तुम अपने पर दया कर सको। अतिशयोक्ति मत कहो। भक्तों को शब्द नहीं मिले हैं अपने गुरुओं का वर्णन करने के लिए। इसलिए तो वे कहते हैंः ‘गुरुब्र्रह्मा।’

आज इतना ही।


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