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शनिवार, 25 अगस्त 2018

एक नया द्वार-(प्रवचन-03)

तीसरा--प्रवचन-(चित्त की सरलता)

  इंदौर, दिनांक 6 मई, 1967, सायंकाल
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक अंधेरी रात में सौ ऊंटों का काफिला एक सराय में आकर ठहरा। कोई आधी रात बीत गई थी। काफिले के लोग थके हुए थे और उनका ठहर जाना जरूरी था। एक छोटी सी सराय में वे मेहमान गए। जब काफिले के लोग अपने ऊंटों को बांधने गए, उन्होंने खूंटियां गाड़ीं, रस्सियां बांधी, तो पाया कि सौ ऊंट हैं और केवल निन्यानवें को बांधने की व्यवस्था है। एक खूंटी और एक ऊंट की रस्सी कहीं राह में खो गई थी। उस ऊंट को खुला हुआ छोड़ना खतरनाक था। रात में वह कहीं भटक भी सकता था। तो वे सराय के मालिक के पास गए और उन्होंने कहा, हमारी एक खूंटी और रस्सियां खो गई हैं, निन्यानवें ऊंट बांध दिए गए, एक ऊंट बिना बंधा है। हम क्या करें? आपके पास खूंटी और रस्सी हो तो दे दें।

वह सराय बड़ी छोटी थी और उनके पास कोई भी सामान नहीं था। लेकिन उस बू.ढ़े आदमी ने कहाः तुम एक काम करो। जाओ, खूंटी गाड़ दो, रस्सी बांध दो और ऊंट को कहो कि बैठ जाओ। लेकिन उन लोगों ने कहाः वह तो हम समझे, लेकिन खूंटी कहां है, रस्सी कहां है? उस बू.ढ़े आदमी ने कहाः झूठी खूंटी ठोंक दो, लेकिन ठोकना जरूर। और झूठी रस्सी गले में बांध दो, लेकिन बांधना जरूर।
ऊंट को प्रतीत हो जाए कि खूंटी गाड़ दी गई है और रस्सी बांध दी गई है। तब तुम उससे कहना, बैठो और आराम करो। उन्हें हंसी आई यह बात जान कर, क्योंकि झूठी खूंटी और झूठी रस्सी से कहीं ऊंट बांधे गए थे? लेकिन मजबूरी थी, कोई रास्ता भी न था।
आधी रात बीत गई और अब सोने का इंतजाम करना था। उस बू.ढ़े आदमी की सलाह पर उन्हें काम करना पड़ा और वे गए और उन्होंने हथौड़ियों से उस खूंटी को ठोंका, जो कि थी ही नहीं और उन्होंने ऊंट के गले में हाथ डाला और उसको रस्सी से बांधा जो कि मौजूद नहीं थी। और उन्होंने ऊंट से कहाः बैठ जाओ। और सारे ऊंट बैठ गए थे, वह ऊंट भी बैठ गया और सो गया। वे लोग बड़े हैरान हुए। सोचा कि कोई मंत्र मालूम पड़ता है, इस बू.ढ़े आदमी के पास है।
फिर सुबह हुई और काफिला अपनी यात्रा पर निकलने को तैयार होने लगा। काफिले के मालिक ने सभी ऊंटों की खूंटियां निकाल लीं और रस्सियां खोल दीं, लेकिन सौवां ऊंट उठने को राजी नहीं हुआ। वे बड़े परेशान हुए। उसकी न तो खूंटी थी और न रस्सी थी, लेकिन वह ऊंट उठने को राजी नहीं था। उन्होंने जाकर उस बू.ढ़े को कहा कि तुमने कौन-सा मंत्र कर दिया है? कृपा करो, अपना मंत्र वापस ले लो, हमारे ऊंट को उठाओ। उस बू.ढ़े आदमी ने कहाः जाओ रस्सी खोलो और खूंटी उखाड़ो। उन्होंने कहाः लेकिन कौन सी खूंटी उखाड़ें, कौन सी रस्सी खोलें? उस बू.ढ़े आदमी ने कहाः जो रस्सी रात बांधी थी, उसे ही खोलो और जो खूंटी रात गाड़ी थी उसे ही उखाड़ो। उन्हें जाकर मजबूरी में यही करना पड़ा। वह खूंटी उखाड़नी पड़ी, जो कि गड़ी नहीं थी और ऊंट के गले से वे रस्सियां खोलनी पड़ीं जो कि बंधी नहीं थीं। रस्सियों के खुलते, खूंटी के उखड़ते ऊंट उठ कर खड़ा हो गया और चलने को राजी हो गया। उन्होंने उस बूढ़े से कहाः तुमने कोई मंत्र किया था? उस बू.ढ़े ने कहाः नहीं। लेकिन ऊंट के मन को यह खयाल हो जाए कि खूंटी है और रस्सी बंधी है, तो काम पूरा हो जाता है।
खूंटी नहीं बांधती और न रस्सी बांधती है, मन बांध लेता है।
कल मैंने कुछ थोड़ी-सी बातें आपसे कहीं। मनुष्य का मन भी उन खूंटियों में बंधा है जो हैं ही नहीं और मनुष्य के मन पर भी वे रस्सियां बंधी हैं जो बिलकुल झूठी हैं, जिनका कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन निरंतर-निरंतर शिक्षा से, निरंतर-निरंतर पुनरुक्ति से कोई भी रस्सी सच्ची हो जाती है और कोई भी खूंटी वास्तविक बन जाती है। और मन उनसे बंध जाए तो अमुक्त हो जाता है, परतंत्र हो जाता है। और ऐसे हजार-हजार विश्वासों में हमने अपने को बांधा है। सत्य की खोज में उन खूंटियों को उखाड़ देना होगा, और उन रस्सियों को भी, जो कि केवल कल्पना से निर्मित हैं। हमारी धारणा ही, हमारे विश्वास, हमारी मान्यताएं अत्यंत काल्पनिक और झूठी हैं। और जो व्यक्ति उन्हीं मान्यताओं और कल्पनाओं में घिरा रहता है वह उस ऊंट की तरह है जो अस्तित्वहीन खूंटी से, और जिन रस्सियों का कोई होना नहीं है, उनसे बंधा था। मैं आपसे कहूं, यह पहली शर्त है, यह पहली भूमिका है कि हम अपने मन को सब भांति से स्वतंत्र कर लें--परंपरा से, धारणा से, समाज से, भीड़ से, समूह से।
क्या इसका यह अर्थ है कि हमें कुछ तोड़ना पड़ेगा? क्या इसका यह अर्थ है कि हमें सच में कोई जंजीरें तोड़नी पड़ेंगी। जंजीरें होतीं तो तोड़नी पड़तीं। केवल हमारी मान्यता में उनका होना है। हमारे विश्वास में उनकी ताकत है। हमारा विचार जग जाए तो न कोई बंधन है न कोई परतंत्रता है। किसने आपको हिंदू की तरह बांधा हुआ है? किसने आपको मुसलमान की तरह बांधा हुआ है? किसने मुझे ईसाई की तरह बांध लिया है? मेरी कल्पना और मेरी धारणा ने। कौन मुझे बांधे हुए है? एक भारतीय की तरह मुझे कौन बांधे हुए है और एक पाकिस्तानी की तरह मुझे कौन बांधे हुए है? मेरी धारणा। अन्यथा जमीन कहीं भी कटी हुई नहीं है और आदमी कहीं भी विभाजित नहीं है और चेतना और चेतना के बीच में कोई दीवाल नहीं है। लेकिन हमारी मान्यताएं हैं, हमारे विश्वास हैं। इनसे स्वतंत्र हो जाना जरूरी है।
इनसे स्वतंत्र वही हो सकता है जिसे इस बात का अहसास हो कि जो भी मेरा ज्ञान है वह उधार है, बासा है, दूसरों से लिया गया है, बॉरोड है। जो भी मैं ईश्वर के संबंध में जानता हूं या सत्य के, या आत्मा के, इस सबका सब मेरा अपना नहीं है। किसी और का है, वही बांधने वाला बन जाता है। और जो अपना है, वह मुक्त कर देता है। स्वयं का बोध मुक्तिदायी है, दूसरों का ज्ञान का बंधन है। यह मैंने कल आपसे कहा। आज दूसरी सी.ढ़ी के संबंध में आपसे बात करूंगा।
स्वतंत्रता पहली सी.ढ़ी है। मन सब भांति स्वतंत्र होना चाहिए। क्योंकि जो बंधा है कहीं, वह खोज के लिए मुक्त नहीं है और जिसने कोई धारण कर ली है सत्य की, वह सत्य को जानने में समर्थ नहीं हो सकेगा। सत्य के निकट जाने के लिए मन धारणा-शून्य होना चाहिए। मन की कोई धाराणा नहीं होनी चाहिए, तो ही उस निर्दोष, इनोसेंस की हालत में हम सत्य की खोज में अग्रसर होते हैं। और तभी, उस निष्पक्ष चित्त की दशा में...क्योंकि जो पक्ष से बंधा है, जिसका कोई पक्षपात है, जिसकी कोई प्रेजुडिस है, जिसका कोई मत है, जिसका कोई दर्शन है, जिसकी कोई फिलोसफी है, जिसका कोई धर्म है, जो कहीं बंधा है, किसी भी पक्ष में, वह सत्य को जानने से डरता है। वह यह चाहता है कि मेरा पक्ष ही सत्य सिद्ध हो जाए। वह यह नहीं चाहता कि मैं सत्य को जानूं। क्योंकि हो सकता है, सत्य को जानने में, मेरे पक्ष को मुझे खोना पड़े। पक्ष को न खोऊं, यह सत्य को जानने में बाधा बन जाता है। फिर हम आंख बंद कर के जीने लगते हैं, और जिसे हम सत्य मानते रहे हैं, उसी को सत्य दोहराएं चले जाते हैं। इसलिए पहली शर्त है, सभी पक्षपात से मन मुक्त हो।
दूसरी शर्त क्या है? दूसरी शर्त है, चित्त सरल हो। लेकिन सरलता का क्या अर्थ है? क्या कोई आदमी दो बार भोजन न करे और एक बार भोजन करे तो सरल हो जाएगा? सरलता एक बार भोजन करने से पैदा हो जाएगी? या कि कोई आदमी उपवास करे तो सरल हो जाएगा? या कि कोई आदमी वस्त्र छोड़ दे और एक लंगोटी लगा ले तो सरल हो जाएगा? या कि नग्न खड़ा हो जाए तो सरल हो जाएगा?
सरलता का संबंध न तो भोजन से है और न वस्त्रों से है। सरलता का संबंध और गहरा है; चित्त से है, मन से है। और मन को न बदले और कपड़ों को बदल ले तो सरल तो नहीं होता, और भी जटिल हो जाता है। और भी कॉम्प्लेक्सिटी पैदा हो जाती है। भीतर तो मन जटिल होता है, बाहर वस्त्र बदले जाते हैं। वस्त्र दूसरों को धोखा दें, यह तो ठीक है, वस्त्र खुद को भी धोखा देने लगते हैं। दूसरों को दिया गया धोखा खुद पर लौट आता है और ऐसा प्रतीत होता है, सब ठीक हो गया है, सब सरल और शांत हो गया है। लेकिन चित्त के रास्ते बड़े जटिल हैं।
एक संन्यासी के पास मैं था। उन्होंने मुझसे कहाः मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। एक बार मैंने सुना, दो बार मैंने सुना, तीन बार मैंने सुना। मैं हैरान हुआ। मैंने उनसे पूछाः यह लात आपने कब मारी? उन्होंने कहाः कोई तीस वर्ष हो गए। मैंने कहाः अगर बुरा न मानें तो एक बात मैं निवेदन करूं, लात ठीक से लग नहीं पाई अन्यथा तीस वर्षों तक इसकी याद न हो सकती थी। लाखों रुपयों पर लात मार दी है, यह बात तीस वर्षों तक याद रखने की कौन-सी जरूरत है? इस बोझ को सिर पर ढोने का कौन सा कारण है? इस खयाल को पकड़े रहने की क्या आवश्यकता है? लात ठीक से लग नहीं पाई। लाखों रुपए तो छूट गए, लेकिन मन सरल नहीं हुआ। मन और जटिल हो गया। जब लाखों रुपए पास में रहे होंगे तब भी लगता रहा होगा, मेरे पास लाखों रुपए हैं। मैं कुछ हूं। वह स्वयं बड़ा होने का, कुछ होने का खयाल रहा। फिर लाखों रुपयों पर लात मार दी। ऊपर से दिखा कि क्रांति हो गई, सब बदल गया, लेकिन भीतर तब से यह लग रहा है कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी है, मैं कुछ हूं। जब लाखों रुपए थे तब लगता था, मेरे पास लाखों रुपए हैं, मैं कुछ हूं। और अब यह लग रहा है तीस वर्षों से कि मैं कुछ हूं क्योंकि मैंने लाखों रुपये पर लात मार दी। बात वहीं की वहीं है। तीस वर्ष फिजूल हो गए, उनका कोई अर्थ नहीं हुआ। और धोखा, आत्मवंचना पैदा हो गई। चित्त जहां के तहां।
चित्त के रास्ते बहुत अनूठे हैं। आप बहुत अच्छे वस्त्र पहन कर निकलते हैं सड़कों पर और चाहते हैं कि लोग देखें कि मैंने कैसे वस्त्र पहने हुए हैं। यह भी हो सकता है, एक दिन आप वस्त्र छोड़ दें और नग्न होकर रास्तों पर निकलें और फिर भी आपका मन कहे कि लोग देख लें कि मैं नंगा हो गया हूं--कोई फर्क नहीं पड़ा। बात वहीं के वहीं है। वह एक्जीबीशन, वह प्रदर्शन जो वस्त्रों का था, अब नग्नता का हो गया। अंतर कहां है? कल आपने दिखाया होगा लोगों को कि देखो मेरा मकान सबसे बड़ा है। इसकी चोटी को और कोई मकान नहीं छूता है इस गांव में। फिर आज फकीर हो गए, और कहने लगे कि मेरा त्याग सबसे बड़ा है। क्या फर्क पड़ा? कौन सा भेद पड़ा? चित्त वहीं के वहीं है। चित्त इस भांति सरल नहीं होता है। चित्त की सरलता कोई और ही बात है। न तो कपड़ों के बदलने से, न तो धन के छोड़ देने से, न घर को छोड़ देने से, न गांव को छोड़ देने से, न भाग जाने से, कोई चित्त सरल नहीं होता। ये सब तो एस्केप, सब पलायन है।
जीवन को छोड़ कर भाग जाने से कभी कोई सरल हुआ है? बल्कि इस छोड़ ने से एक नये प्रकार का अहंकार और मन को, और मन को पकड़ लेता है। दो संन्यासी मिल नहीं सकते आपस में। कौन किसको नमस्कार करेगा? और कौन कहां बैठेगा? दो साधु मिल नहीं सकते आपस में। कौन किससे बड़ा है, कौन किससे छोटा? ये चित्त सरल कैसे हुए? यह कैसी सरलता है? यह कैसी सिम्प्लीसिटी है? ऊपर से सरलता ओ.ढ़ ली जा सकती है। सरलता का अभ्यास कर लिया जा सकता है, लेकिन हृदय इससे सरल नहीं होता। बल्कि जो लोग सरलता को जितना ओ.ढ़ लेते हैं, उतने ही जटिल हो जाते हैं, उतने ही कठिन हो जाते है,उतना ही जीवन और उलझ जाता है। जीवन सुलझता नहीं।
एक संन्यासी का आगमन एक राजधानी में होने को था। नग्न फकीर था, दूर-दूर तक उसकी कीर्ति और प्रशंसा थी, दूर-दूर तक उसकी सुगंध फैल गई थी। राजधानी में वह आया। राजधानी के सम्राट ने उसके स्वागत का आयोजन किया। आयोजन के पीछे एक कारण था। संन्यासी और सम्राट बचपन में एक ही स्कूल में प.ढ़े थे। शायद सम्राट तो इसे याद रखे था, हो सकता है संन्यासी इसे भूल भी गया हो। सम्राट ने यह सोच कर कि आता है मेरा मित्र--तपस्वी है, त्यागी है, संन्यासी है, उसका स्वागत करूं--सारी राजधानी को सजाया गया। सारी राजधानी में दीवाली, दीये, सारे गांव में रोशनी की गई। रास्तों पर कालीन डाल दिए गए और सुगंधियां कर दी गई और सारे गांव को कहा गया कि जलसा मनाओ। मेरा एक परम मित्र त्यागी हो कर आ रहा है, उसका मैं स्वागत करता हूं। संन्यासी रास्ते में था, राहगीरों ने उसे खबर दी कि तुम जिस राजधानी की तरफ जा रहे हो, वह सजाई जा रही है। रास्तों पर बहुमूल्य कालीन बिछाए जा रहे हैं, गांवों को रंग-रौनक दी जा रही है। वह सम्राट अपनी दौलत तुम्हें दिखाना चाहता है। वह तुम्हें दिखाना चाहता है कि तुम क्या हो? एक नंगे फकीर! और मैं क्या हूं? सारी जमीन का मालिक! संन्यासी हंसा और उसने कहाः कोई फिक्र नहीं। अगर वह अपनी दौलत दिखाना चाहता है तो हम भी देख लेंगे।
सांझ होते-होते संन्यासी आया। सम्राट नगर द्वार पर गया। लोग देख कर हैरान हुए। नग्न संन्यासी, घुटनों तक कीचड़ से भरे हुए पैर! बड़ी आश्चर्य की बात थी, वर्षा के दिन न थे। रास्ते सूखे पड़े थे, पानी की कठिनाई थी। कीचड़ कहां मिल गई? घुटने तक पैर कीचड़ से कैसे भर गए? महल में पहुंच कर सम्राट ने उससे पूछाः कोई तकलीफ हुई है मार्ग में, पैर कीचड़ से भरे क्यों हैं? वह संन्यासी बोलाः तुम क्या समझते हो, अपने आपको? अगर तुम अपनी दौलत दिखाना चाहते हो रास्ते पर कालीन बिछा कर, तो हम भी संन्यासी हैं। हम कीचड़ भरे पैर से चल सकते हैं। हम भी फकीर हैं, क्या समझा है तूने हमें? हम दो कौड़ी नहीं समझते तुम्हारे इन कीमती कालीनों को।हम कीचड़ भरे पैर से चल सकते हैं। वह सम्राट हंसने लगा; उस संन्यासी को गले लगा लिया और उसने कहाः मैं तो सोचता था, तुम बदल गए होगे, लेकिन कोई फर्क नहीं हुआ, हम एक ही जगह खड़े हैं। मेरा अहंकार है तो तुम्हारा अपना भी, अपना अहंकार है।
चित्त ऐसे सरल नहीं होता। फिर कैसे चित्त सरल होता है? फिर चित्त कैसे सरल होता है? कुछ और रास्ता है, उसकी मैं आपसे बात करूं। इसके पहले कि उसकी मैं आपसे बात करूं, इस संबंध में थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा कि चित्त इतना जटिल क्यों हो गया है? तो शायद हम यह भी समझ जाएं कि चित्त सरल कैसे हो सकता है। यह चित्त इतना जटिल क्यों हो गया है? कौन से कारण हैं इसके पीछे?
दो कारण हैं--पहला कारण, आदर्शों के कारण चित्त जटिल हो गया है। बच्चा पैदा भी नहीं हो पाता कि हम आदर्श का जहर उसे पिलाना शुरू कर देते हैं। हम बच्चे से कहने लगते हैं, राम जैसे बनो, कृष्ण जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो, महावीर जैसे बनो। और अगर पुरानी तस्वीरें झूठी पड़ गई हैं, या पुरानी पड़ गई हैं तो नई तस्वीरें खोज लेते हैं, विवेकानंद जैसे बनो, गांधी जैसे बनो। लेकिन एक बात तय है, किसी जैसे बनो। और बड़े आश्चर्य की बात है आज तक जमीन पर एक जैसा दूसरा आदमी पैदा नहीं हुआ और न कभी होगा। लेकिन हम सिखाते हैं, किसी जैसे बनो।
यह शिक्षा एकदम झूठी और खतरनाक है क्योंकि जो आदमी दूसरों जैसे बनने की कोशिश में पड़ जाता है, उसकी सारी सरलता नष्ट हो जाती है, चित्त जटिल हो जाता है। जटिल हो जाना स्वाभाविक है। उलझ जाना स्वाभाविक है। हर मनुष्य खुद होने को पैदा हुआ है। किसी और जैसा होने को कोई पैदा नहीं हुआ है। और कोई लाख कोशिश करे तो किसी जैसा न कोई हो सकता है, न होने की कोई संभावना है। और अब नहीं हो पाता कोई दूसरे जैसा तो इस चेष्टा में कि मैं किसी और जैसा हो जाऊं, दो बातें हो जाती हैं। किसी और जैसा होना तो मुश्किल है, असंभव है। लेकिन इस दौड़ में, इस कोशिश में, इस प्रयत्न में मैं जो हो सकता था, वह होने से भी वंचित हो जाता हूं। चित्त उलझ जाता है, सारी चीजें गड़बड़ हो जाती हैं। लेकिन आज तक किसी ने किसी से नहीं कहा कि तुम अपने जैसे होना, किसी और जैसे नहीं। अगर कोई मनुष्य अपने ही जैसे होने के खयाल से अनुप्रेरित हो जाए तो उसके जीवन की आधी से ज्यादा जटिलता एकदम विलीन हो जाएगी। लेकिन हमें यह सिखाया जाता रहा है।
और हमें यह इस कारण सिखाया जाता रहा है कि हम यह सोचते हैं कि कोई टाईप, कोई पैर्टन, कोई ढांचा होता है आदमी का, उसमें हरेक को ढाल दो। आदमी मशीन नहीं है। राम हुए होंगे राम, लेकिन कोई दूसरा आदमी राम के ढांचे में नहीं ढाला जा सका। आदमी इतना जीवंत है कि सब ढांचे गलत हैं। किसी ढांचे में किसी आदमी के प्राणों को नहीं ढाला जा सकता। और अगर ढालने की कोशिश होगी तो राम तो पैदा न होंगे, रामलीला के राम पैदा हो जाएंगे। रामलीला के राम बहुत खतरनाक हैं क्योंकि बिलकुल झूठे हैं। सारी जमीन पर पाखंड पैदा हुआ इसीलिए कि हम आदमियों से कह रहे हैं कि तुम किसी और जैसे हो जाओ। यह कैसे हो सकता है? और इसके होने की जरूरत क्या है? राम खूब हैं अकेले, कृष्ण खूब हैं अकेले, लेकिन दूसरा कोई आदमी कैसे हो सकता है? क्राइस्ट को मरे दो हजार वर्ष हुए। कोई दूसरा क्राइस्ट पैदा होता है? कितने लोग कोशिश करते हैं, कोई दूसरा आदमी कभी दुबारा दिखाई पड़ता है? लेकिन यह भ्रम हमारा नहीं टूटता और आदमी को हम यह जहर पिलाए जाते हैं कि किसी जैसा हो जाओ। इसी वजह से मनुष्य की बगिया उजाड़ हो गई है। चित्त जटिल हो गए, उन्होंने सरलता खो दी।
आदमी तभी सरल हो सकता है जब खुद जैसे होने की स्वतंत्रता उसे उपलब्ध हो। खुद जैसा हो कर ही वह सरल हो सकता है, और किसी हालत में सरल नहीं हो सकता। और न केवल यह शिक्षा है कि राम जैसे हो जाओ, एक ही साथ कई शिक्षाएं हैं। एक ही आदमी राम जैसे होने की भी कोशिश कर रहा है, गांधी जैसे होने की भी कोशिश कर रहा है,क्राइस्ट जैसे होने की भी कोशिश कर रहा है। वह आदमी अगर पागल नहीं हो जाएगा तो और क्या होगा? एक-एक आदमी कितनी कोशिश में लगा है!
हर आदमी अद्वितीय है, बेजोड़ है, उस जैसा कोई भी नहीं है। आदमी को तो छोड़ दें, एक दरख्त पर एक जैसे दो पत्ते भी खोजने कठिन हैं। एक दरख्त को छोड़ दें, पूरी जमीन पर एक कंकड़ जैसा दूसरा कंकड़ खोजना कठिन है। हर चीज अद्वितीय है। जड़ चीजें, जिन्हें हम कहते हैं, वे भी अद्वितीय हैं, तो मनुष्य की चेतना और आत्मा तो अद्वितीय होगी ही। लेकिन आदर्शवादी अद्वितीय को नहीं मानते मनुष्य की। वे मानते हैं, आदमी को कॉपी होना चाहिए किसी की। खुद नहीं होना चाहिए, कॉर्बन कॉपी होना चाहिए। कोई आदमी कॉर्बन कॉपी नहीं हो सकता। और जब नहीं हो पाता है तो चित्त उलझ जाता है। और अगर हो जाता है, तो होने का मतलब यह है कि वह अभिनय करना सीख जाता है। अभिनेता हो जाता है। और यह भी हो सकता है कि किसी अभिनेता से राम खुद हार जाएं। हो सकता है रामलीला का राम इतना बेचूक पाठ करे कि खुद राम को शक हो जाए कि मैं असली हूं या यह असली है। क्योंकि असली आदमी से तो भूल-चूकें भी होती हैं, लेकिन नकली आदमी भूल-चूक करता ही नहीं है। भूल-चूक का कोई सवाल ही नहीं है। नकली आदमी गणित के हिसाब से चलता है।
एक बार ऐसा हुआ। चार्ली चैप्लिन का नाम आपने सुना होगा--एक हंसोड़ अभिनेता। उसकी कोई वर्षगांठ थी। सारी दुनिया में उसकी ख्याति थी। सारे लोग, न मालूम कितने लोग उससे प्रेम करते थे। उसके मित्रों ने, एक उसके जन्म दिन पर एक कंम्पीटीशन, एक प्रतियोगिता का आयोजन किया। सारे योरोप में यह खबर भेजी गई कि जो लोग भी चार्ली चैप्लिन का पार्ट करना चाहें, वह प्रतियोगिता में भाग ले सकते हैं। सारे मुल्कों में अलग-अलग प्रतियोगिताएं हुई। कुछ अभिनेताओं ने पार्ट किया चार्ली चैप्लिन का, नकल की। छः अभिनेता चुने गए और लंदन में उनका अंतिम निर्णायक अभिनय हुआ। चार्ली चैप्लिन ने सोचा अपने मन में कि मैं भी किसी दूसरे नाम से चोरी के दरवाजे से, पीछे से प्रतियोगिता में सम्मिलित क्यों न हो जाऊं! क्योंकि मुझे तो प्रथम पुरस्कार मिल ही जाएगा। मैं खुद ही चार्ली चैप्लिन हूं। अगर मैं नहीं कर सका अपना पार्ट--अपना पार्ट करने का सवाल ही नहीं है, तो मुझे तो प्रथम पुरस्कार मिल ही जाएगा। वह झूठे नाम से फार्म भर कर पीछे के दरवाजे से प्रतियोगिता में सम्मिलित हो गया। उसके मित्रों को भी पता नहीं की चार्ली चैप्लिन भी सम्मिलित हो गया है। प्रतियोगिता हुई, चार्ली चैप्लिन हैरान हो गया। उसे दूसरा पुरस्कार मिला। पहला पुरस्कार कोई और ले गया। वह तो बाद में बात खुली कि चार्ली चैप्लिन खुद भी सम्मिलित था। तब तो लोग दंग रह गए। उस अभिनेता पर दंग रह गए जिसको प्रथम पुरस्कार मिला।
मैने आपसे कहाः हो सकता है कि महावीर का अभिनय करने वाला कोई आदमी पुरस्कार ले जाए, महावीर हार जाएं। इसमें कोई बड़ी कठिनाई नहीं है। अभिनेता सच्चे आदमी से ज्यादा धोखे का सिद्ध हो सकता है। क्योकि सच्चे आदमी से भूल-चूक भी होती है। सच्चा आदमी जीता है। जहां जिंदगी है वहां भूल-चूक हो सकती है। लेकिन झूठा आदमी जीता ही नहीं है, उससे भूल-चूक का कोई सवाल ही नहीं है। वह हमेशा ही ठीक होता है। क्योंकि गणित के हिसाब से चलता है, मशीन की तरह चलता है। वह आदमी नहीं होता है, उसमें चेतना नहीं होती है।
तो यह भी हो सकता है कि कोई आदमी सफल हो जाए, लेकिन वह सफलता खतरनाक है क्योंकि वह अपनी आत्मा को खोकर ही सफल हो सकता है। जितना अभिनय हो जाएगा, उतनी ही आत्मा खो जाएगी। क्योंकि मैं अभिनय करूंगा किसी और का और मेरी आत्मा मेरी ही हो सकती है, किसी और की नहीं हो सकती। मैं लाख उपाय करूं, तो भी मेरी आत्मा मेरी है, और किसी और कि नहीं। लेकिन आदमी को यह सिखाया जाता रहा है सैंकड़ों वर्षों से कि तुम हो जाओ, किसी जैसे हो जाओ, किसी जैसे बनो। हम बच्चों को बचपन से यह सिखा रहे हैं कि तुम बनो किसी जैसे। कोई किसी बच्चे से नहीं कहता कि अपने जैसे बनो।
 अगर फूलों की बगिया में ऐसे उपदेशक पहुंच जाएं, और चमेली से कहने लगें कि चंपा जैसे हो जाओ, और जूही से कहने लगें, गुलाब जैसे हो जाओ तो क्या होगा? पहली तो बात यह है कि फूल इतने नासमझ नहीं हैं जितना कि आदमी है; इसलिए उस उपदेश की बात ही न सुनेंगे। पहली तो बात यह है। वह कोई सुनेंगे ही नहीं। उपदेशक चिल्लाता हुआ चला आएगा। वे उसकी कोई फिक्र न करेंगे। आदमी के सिवाय और गुरु कहीं होते ही नहीं दुनिया में। तो वे फूल इनकार कर देंगे कि हम इनको गुरु मानते ही नहीं। वह चाहे कितना ही कान फूंकें और मंत्र दें और ढोल बजाएं, फूल सुनेंगे नहीं। लेकिन हो सकता है, आदमी की सोहबत में रहते-रहते कुछ फूल बिगड़ गए हों। सोहबत का असर पड़ता है। आदमी के साथ रहते-रहते कई जानवर बिगड़ गए हैं। हो सकता है, फूल भी बिगड़ गए हों। आदमी के साथ जो जानवर रहते हैं, उनको वही बीमारियां होने लगी हैं जो आदमी को होती हैं। उन्हीं के सगे-साथी जंगलो में रहते हैं, उनको वे बीमारियां नहीं होतीं।
तो हो सकता है, फूल भी बिगड़ गए हों आदमी के साथ रहते-रहते। और कोई फूल मान ले, और राजी हो जाए, और जूही चंपा बनने लगे और चंपा गुलाब बनने लगे तो उस बगिया में क्या होगा? वह बगिया उजड़ जाएगी, उस बगिया में फूल पैदा होने बंद हो जाएंगे। क्यों? जूही गुलाब नहीं हो सकती। चंपा जूही नहीं हो सकती। लेकिन गुलाब होने की कोशिश में जूही गुलाब तो हो ही नहीं पाएगी, जूही होने से भी वंचित हो जाएगी। ताकत लग जाएगी गुलाब होने में, तो जूही होने की शक्ति शेष नहीं रह जाएगी। और तब उसके प्राण बेचैन हो जाएंगे। और तब उसके सारे प्राण कंपित हो जाएंगे और चिंता से भर जाएंगे क्योंकि जब कोई बीज वृक्ष नहीं पहुंचा पाता और उसमें फूल नहीं आ पाते तब तक बेचैनी और तनाव आवश्यक है, निश्चित है, स्वाभाविक है। यह हर आदमी इतना बेचैन है जमीन पर, क्यों? क्योंकि हर आदमी के भीतर जो बीज है वह विकसित नहीं हो पाता, उसे सुगंध पैदा नहीं हो पाती, वह बीज का बीज ही रह जाता है। तो प्राण, सारे प्राण सिकुड़ जाते हैं, किप्रल्ड हो जाते हैं, जैसे कि लकवा लग गया हो। और तब जो तड़पन पैदा होती है वह चित्त को बहुत जटिल कर जाती है। बचैन, अशांत, परेशान कर जाती है।
पहली बात है, जिस व्यक्ति को सरल होना हो उसे समस्त आदर्शों को विदा कर देना चाहिए, उसे नमस्कार कर लेना चाहिए। उसे अपने को कह देना चाहिए, मैं जो हो सकता हूं वही मैं होऊंगा। मैं जो होने को पैदा हूं, उसकी खोज करूंगा। मेरा जो स्वभाव है, मेरा जो स्वधर्म है, मैं उसे जानूंगा और पहचानूंगा, मैं वही होऊंगा। मैं कोई और नहीं हो सकता। न मुझे कोई और होने की आकांक्षा है। अगर यह बात स्पष्ट हो जाए कि मुझे किसी की नकल नहीं करनी है तो जीवन में एक अदभुत क्रांति हो जाएगी। एक सरलता आनी शुरू हो जाएगी। चित्त एकदम एक नई दिशा को पकड़ लेगा।
तो पहली बात है, आदर्श से मुक्ति--जिनके भी चित्त को सफलता की दिशा में जाना हो। जो आदर्श से बंधा है वह कभी सरल नहीं हो सकता। जितना ही आदर्श को ओ.ढ़ता जाएगा उतना ही जटिल और कठोर होता जाएगा। ये आदर्शवादी बड़े खतरनाक लोग हैं, खुद के ऊपर तो वे लोहे की जंजीरें बांध ही लेते हैं, वे दूसरे लोगों पर भी बांधते हैं। वे हर आदमी को बांध देना चाहते हैं। हर आदमी को एक पैटर्न और ढांचे में ढाल देना चाहते हैं। जैसे आदमी कोई मशीन हो। यह तो हो सकता है कि फोर्ड की सारी कारें एक जैसी हों। यह नहीं हो सकता कि आदमी एक जैसे हों। यह हो सकता है कि मशीनें एक जैसी बना दी जाएं--यही तो फर्क है मनुष्य और मशीन में! दुर्भाग्य होगा वह दिन जिस दिन सभी मनुष्य एक जैसे हो जाएंगे। उस दिन से ज्यादा अभागा कोई दिन नहीं हो सकता क्योंकि उस दिन सारे लोग मशीनें हो जाएंगे। उनकी सारी आत्मा खो जाएगी।
लेकिन यह दौड़ चलती है हजारों साल, और आदमी के प्राणों को अवशोषित करती है। सरलता की दिशा में पहला कदम है स्वयं का स्वीकार। हम कोई भी अपने को स्वीकार नहीं करते। हम महावीर को स्वीकार करते हैं, बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को। लेकिन अपने को? अपने को कोई भी स्वीकार नहीं करता है। और जो अपने को स्वीकार कर रहा है वह सरल कैसे होगा? स्वयं की स्वीकृति चाहिए, एक्सेप्टिबिलिटी चाहिए कि मैं अपने को अंगीकार करूं, स्वीकार करूं जो मैं हूं।
पर हम डरे हुए हैं। हमें डर सिखाया गया है कि अगर तुमने अपने को स्वीकार किया तो तुम पशु जैसे हो जाओगे। अगर तुमने अपने को स्वीकार क्या तो तुम्हारी सारी यात्रा बंद हो जाएगी ऊपर उठने की। तुमने अगर अपने को स्वीकार किया तो तुम गए नर्क में। क्योकि तुम्हारे भीतर तो क्रोध है, काम है, सेक्स है, घृणा है और न मालूम क्या--सारे पाप ही पाप हैं तुम्हारे भीतर। अगर तुमने अपने को स्वीकार किया तो तुम गए, डूब गए उन्हीं में। इसीलिए तो शिक्षक कहते हैं, अपने को स्वीकार करना। महावीर को स्वीकार करना, जिनमें हिंसा नहीं है। बुद्ध को स्वीकार करना, जिनमें घृणा नहीं है। क्राइस्ट को स्वीकार करना, जिनमें प्रेम है। अपने को स्वीकार मत करना। तुम में तो घृणा है, हिंसा है, क्रोध है। अगर तुमने अपने को स्वीकार किया तो तुम डूब गए। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, जो अपने को स्वीकार करेगा, वही इनसे मुक्त हो सकता है। कोई दूसरा और नहीं।
अपने को स्वीकार करने के बाद ही कोई व्यक्ति उन तत्वों से मुक्त हो सकता है जो जीवन को दुख में और पीड़ा में ले जाते हैं। जो अपने को स्वीकार नहीं करता वह कभी भी उनसे मुक्त नहीं हो सकता। क्या कारण हैं मेरे कहने के? कुछ बातें इस संबंध में समझ लेनी बहुत जरूरी हैं।
पहली बात, जो व्यक्ति अपने को स्वीकार नहीं करता वह अपना दमन करता है, सप्रेशन करता है। अगर आप अपने को स्वीकार करते और आपके भीतर क्रोध है तो आप क्या करेंगे? आप अपने क्रोध को दबाएंगे, पी जाएंगे। लेकिन दबाने से कभी क्रोध खतम नहीं होता है। दबाने से क्रोध और प्राणों में गहरे घुस जाता है। अगर आपके भीतर सेक्स है, कामना है, वासना है, आप क्या करेंगे? दबाएंगे? तो दबाने से तो सेक्स और गहरे चला जाएगा। वह चित्त की और गहरी पर्तों में प्रविष्ट हो जाएगा। वह तो प्राणों में और नीचे उतर जाएगा। जिसको आप दबाएंगे, उससे आप कभी मुक्त नहीं हो सकते हैं। क्योंकि जो बात जितनी दबाई जाती है, वह प्राणों में निकलने की उतनी ही कोशिश करने लगती है। इसलिए भले लोग दिन भर भले रहते हैं, रात सपने बहुत बुरे देखते हैं। जो दिन भर संयमी है, वह रात को भोग के सपने देखता है। जिसने दिन भर उपवास किया है वह रात भर भोजन करता है। दिन में जिसे हम दबा लेते हैं वह रात नींद में निकलना शुरू हो जाता है, नींद में डोलने लगता है। क्योंकि नींद में हमारा दबाने वाला तत्व खुद सो जाता है। तो जिसको दबाया था वह ऊपर निकल आता है। जिसने जवानी में सेक्स को दबा लिया, वह बु.ढ़ापे में परेशान होगा क्योंकि जवानी में ताकत थी दबाने की, बुढ़ापेे में ताकत कम हो जाएगी। दबा हुआ सेक्स फिर उठना शुरू होगा। और बु.ढ़ापा नर्क हो जाएगा।
जिसने दिन में दबाया वह रात परेशान हो जाएगा। इसीलिए तो साधु-संन्यासी सोने से बहुत डरते हैं, नींद से बहुत डरते हैं। कहते हैं, नींद बड़ा पाप है। जागे रहो किसी तरह, सोओ मत। क्यों? सोने से इतना भय क्या है? सोने से एक ही भय है, जिसको दिन भर दबाया है वह वापस लौट आता है। जिन स्त्रियों से दिन भर आंखे बंद की हैं वे वापस खड़ी हो जाती हैं। वे खड़ी होंगी, काम में खड़ी होंगी--होना बिलकुल जरूरी है। जिस चीज को हम धकाते हैं भीतर, वह जाएगी कहां? वह हमारे ही भीतर किसी कोने में बैठ रहेगी और मौके की तलाश करेगी, जब मौका मिल जाए तो मैं वापस लौट आऊं।
एक रात एक होटल में ऐसा हुआ। एक नया मेहमान आकर ठहरा। मैनेजर ने कहाः किसी और होटल में ठहर जाएं। होटल हमारा भरा हुआ है, एक ही कमरा खाली है लेकिन उसे देने में मुझे संकोच है। उस कमरे के नीचे जो सज्जन ठहरे हुए हैं, वे बड़े उपद्रवी मालूम होते हैं। वह ऊपर के कमरे के आदमी से जरा-जरा सी बात पर झगड़ने लगते हैं। अगर आप जरा ही जोर से चल गए तो वे झगड़ने आ जाएंगे कि आपने मेरी नींद खराब कर दी। आवाज क्यों किया आपने? तो इसलिए मैंने वह कमरा खाली ही छोड़ रखा है। कौन झंझट ले? आप कृपा करके कहीं और ठहर जाएं। लेकिन उस मेहमान ने कहा कि मुझे कोई ज्यादा काम नहीं है। मैं कमरे में मुश्किल से रात को दो-तीन घंटे सोऊंगा, सुबह मैं काम पर चला जाऊंगा। दिन भर काम करूंगा, रात आकर फिर सो जाऊंगा। कोई मौका नहीं है कि मेरा उनसे झगड़ा हो। फिर आपने मुझे सचेत कर दिया, मैं ध्यान रखूंगा, मुझे ठहर जाने दें।
वह आदमी ठहर गया। उसने दिन भर काम किया होगा अपना, रात बारह बजे लौटा। थका मांदा अपने बिस्तर पर बैठा। उसने अपना जूता खोला और पटका। जूता जोर से गिरा। तो उसे खयाल आया कि कहीं नीचे के आदमी की नींद न खुल जाए। तो उसने दूसरे जूते को आहिस्ता से रख दिया और सो गया। कोई दो घंटे के बाद नीचे के मेहमान ने आकर दरवाजा खटखटाया। वह घबड़ा कर नींद से उठा। उसने कहाः क्या हो गया? उस नीचे के मेहमान ने पूछा कि दूसरे जूते का क्या हुआ? उसने कहाः दूसरा जूता! मेरी नींद हराम कर दी। तुम्हारे पहले जूते ने नहीं, तुम्हारे दूसरे जूते ने। पहला जूता तो मैं समझ गया कि आप आ गए हैं, लेकिन तब मेरी प्रतीक्षा हो गई कि दूसरा जूता नहीं गिर रहा। दूसरे का क्या हुआ? मैंने बहुत अपने मन से हटाने की कोशिश की कि मुझे किसी के जूते से क्या लेना-देना, हुआ होगा कुछ। लेकिन जितना मैं हटाने लगा, उतनी मेरी नींद मुश्किल हो गई और आपका दूसरा जूता मुझे लटका हुआ दिखाई पड़ने लगा। घबड़ा गया। मैंने सोचा कि जाकर पूछ ही लूं, बात खत्म हो जाए। तो कृपा करके बता दीजिए कि दूसरे जूते का क्या हो गया?
दुनिया में जो लोग अपना दमन करते हैं उनकी स्थिति दूसरे जूते के लटके होने वाली हो जाती है। जिस चीज को हटाते हैं, वही सिर पर लटक जाती है। सेक्स को हटाते हैं, सेक्स के चक्कर लगाने लगते हैं। क्रोध को हटाते हैं, क्रोध ही भीतर घूमने लगता है। घृणा को हटाते हैं, घृणा ही भीतर इकट्ठी हो जाती है। हटाएंगे कहां? कोई ऐसी चीजें हैं कि उठा कर बाहर फेंक देंगे? हटाएंगे भीतर हट जाएंगी। हटाना, यानी भीतर हट जाना। भीतर, और भीतर चली जाएंगी। आपका चित्त और जटिल और विकृत हो जाएगा। ऊपर शांति होगी, भीतर क्रोध होगा। ऊपर प्रेम की बातें होंगी, भीतर घृणा होगी। ऊपर प्रार्थना-पूजा होगी, भीतर छुरा होगा। बाहर से रोज मंदिर जाएंगे, भीतर से कभी मंदिर नहीं जाएंगे। यह होगा। ऊपर कुछ, भीतर कुछ हो जाएगा। चित्त दो खंडो में टूट जाएगा, अनेक खंडो में टूट जाएगा। और चित्त जितना टूट जाएगा स्व-विरोधी खंडो में, उतना ही जटिल हो जाएगा। उतना ही उलझ जाएगा।
ऐसा चित्त चाहिए, जो खंडित न हो, अखंड हो, तो ही सरल हो सकता है। अखंड चित्त ही सरल हो सकता है। और कोई चित्त सरल नहीं होता। लेकिन आदर्शों ने और दमन ने मनुष्य के चित्त को बहुत बुरी तरह खंडित कर दिया। और भय हमें यह बताया जाता है कि अगर हमने घृणा को नहीं दबाया, अगर क्रोध को नहीं दबाया, अगर सेक्स को नहीं दबाया तो तुम पशु हो जाओगे।
हमें दो ही विकल्प दिखाई पड़ते हैं--या तो दबाओ, और या भोगो। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, एक तीसरा विकल्प भी है। न तो भोगने का सवाल है और न दमन करने का। ये दोनों एक ही चीज की दो अतियां हैं। ये एक ही चीज के दो छोर हैं। एक तीसरा विकल्प भी है। न तो भोगो, और न भागो, बल्कि जागो। चित्त में जो भी है--क्रोध है, सेक्स है, घृणा है, जो भी है--राग है, उस सब के प्रति जागना है उससे भागना नहीं है। और न उसको भोगने में अर्थ है और न भागने में। भोगने से, रोज-रोज पुनरुक्ति से मजबूत होती हैं वे ही बातें। दबाने से, भागने से प्रविष्ट होती हैं। इन दोनों से कोई अंतर नहीं पड़ता। अंतर इतना ही पड़ता है, जैसे आप सीधे खड़े हैं और एक आदमी सिर के बल खड़ा हो जाए। गृहस्थ सीधा खड़ा है, संन्यासी सिर के बल खड़े हैं। कोई फर्क नहीं है। एक आदमी स्त्री की तरफ भाग रहा है, दूसरा आदमी स्त्री की तरफ से भाग रहा है, लेकिन दोनों का चित्त स्त्री पर अटका हुआ है। एक आदमी धन की तरफ भाग रहा है, दूसरा आदमी धन की तरफ पीठ करके भाग रहा है, लेकिन दोनों का चित्त धन पर अटका हुआ है। तो एक-दूसरे का शीर्षासन करता हुआ रूप है, इससे ज्यादा कोई भी भेद नहीं है। दोनों के चित्त एक जैसे हैं--एक जैसे जटिल, एक जैसे कठिन, एक जैसे उलझे हुए। दोनों में कोई अंतर नहीं है। लेकिन एक तीसरा विकल्प है, और वही है विकल्प चित्त के ट्रांसफर्मेशन का, वही है चित्त के परिवर्तन का।
बड़े रहस्य की बात यह है कि जिस क्रोध से आप लड़-लड़ कर परेशान हो जाएं और मुक्त नहीं हो सकते, उसी क्रोध की तरफ अगर पूरी तरह सम्यक रूप से जाग जाएं, अगर राइट अवेयरनेस हो, अगर क्रोध के प्रति सम्यक बोध और होश हो, अगर उस क्रोध के प्रति पूरी तरह जागें, उसका निरीक्षण करें, उसे देखें, पहचानें, तो जैसे-जैसे जागरण ब.ढ़ेगा वैसे-वैसे क्रोध विलीन होता जाएगा। जैसे-जैसे होश ब.ढ़ेगा, वैसे-वैसे क्रोध परिवर्तित होता जाएगा। आप कहेंगे, फिर क्रोध कहां जाएगा? क्रोध ही क्षमा बन जाता है। क्षमा क्रोध का ही परिवर्तित रूप है। सेक्स कहां जाएगा? सेक्स ही ब्रह्मचर्य बन जाता है। सेक्स का ही बदला हुआ रूप है। इसलिए अगर आप महाक्रोधी हैं तो घबराएं न, आपके महाक्षमावान होने की क्षमता है। अगर चित्त में बहुत सेक्स है तो परेशान न हों। सेक्स तो एक शक्ति है अगर बहुत है, तो बहुत शुभ है, बहुत मंगल है। अगर परिवर्तित हो जाए तो उतना ही बड़ा ब्रह्मचर्य प्रगट होगा। अगर घृणा है तो घबड़ाएं नहीं, वही घृणा प्रेम बन जाती है। और उसके बदलने का सूत्र है जागरण, निरीक्षण, ओब्जर्वेशन। सप्रेशन नहीं, दमन नहीं, इंडलजेंस नहीं, भोग नहीं--ओब्जर्वेशन, निरीक्षण।
लेकिन जो लोग किसी को आदर्श मान लेते हैं वे निरीक्षण नहीं कर पाते। वे तो बदलने के लिए इतने उत्सुक होते हैं कि निरीक्षण करने के लिए उन्हें फुर्सत कहां है? वे तो क्षमा बनाना चाहते हैं जीवन में, क्रोध को हटाना चाहते हैं। और उन्हें यह पता ही नहीं कि क्रोध अगर हट जाएगा तो क्षमा कभी पैदा ही नहीं होगी। क्योंकि क्रोध की शक्ति ही क्षमा बनती है। कोई आदमी अपने घर के बाहर कूड़े-करकट का ढेर लगा ले तो गंदगी फैल जाएगी, बदबू भर जाएगी, जीना मुश्किल हो जाएगा। उसी गंदगी के ढेर से खाद बनती है। लेकिन खाद शत्रु नहीं है। अगर हम उसको खाद नहीं बना पा रहे हैं बीजों की सुगंध लाने के लिए तो हम भूल में हैं। कसूर क्रोध का नहीं है, कसूर हमारा है। कसूर सेक्स का नहीं है, कसूर हमारा है। जीवन में ये सारी शक्तियां हैं, ये सारी बीज रूप शक्तियां है। अगर हम सजग होकर इन शक्तिओं के प्रति निरीक्षक बन जाएं, साक्षी बन जाएं, तो इनमें क्रांति हो जाएगी।
आप कहेंगे...कहेंगे, निरीक्षण से क्या होगा? क्या निरीक्षण मात्र से क्रांति हो जाएगी? हमें कुछ करना नहीं पड़ेगा? मैं आपसे कहता हूं, हां, मात्र निरीक्षण से क्रांति हो जाती है और कुछ भी नहीं करना पड़ता है।
अगर किसी घर में अंधकार भरा हो और घर के लोग उस अंधकार को निकालना चाहतें हो, और कोई सदगुरु उन्हें मिल जाए और उनसे कह दे, धक्के दो, अंधकार को बाहर निकाल दो। तो वे लोग वहीं टूट कर समाप्त हो जाएंगे, अंधकार कभी नहीं निकलेगा। अंधकार को धक्के नहीं दिए जा सकते। क्यों? न अंधकार को रस्सियों में बांधा जा सकता है। न अंधकार को तलवार से काटा जा सकता है। क्यों? अंधकार है ही नहीं। केवल प्रकाश का अभाव है। अंधकार की अपनी कोई सत्ता नहीं है, अपना कोई एक्जिस्टेंस नहीं है। इसलिए अंधकार को न बांध सकते हैं, न धक्का दे सकते हैं। लेकिन एक दीया कोई जला ले, फिर अंधकार कहां चला जाता है? कहीं चला जाता है क्या? नहीं, अंधकार पाया ही नहीं जाता।
ऐसा मैंने सुना है कि एक बार अंधकार ने भगवान के पास शिकायत कर दी थी कि यह सूरज मेरे पीछे बहुत बुरी तरह पड़ा हुआ है। रोज सुबह से मेरा पीछा करता है और सांझ तक मुझे परेशान कर डालता है। तो भगवान ने सूरज को कहा कि तुम इस बेचारे अंधकार के पीछे क्यों पड़े हुए हो? इसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? सूरज ने कहा, अंधकार! मैंने आज तक अंधकार को नहीं देखा। मैं उसके पीछे कैसे पड़ूंगा? मैं पहचानता भी नहीं हूं कि अंधकार कौन है और कहां है? अगर उसने शिकायत की है तो उसे मेरे सामने बुला लें, मैं उससे क्षमा मांगू और उसे पहचान लूं ताकि दुबारा उसका पीछा न करूं।
कहतें हैं हजारों वर्ष हो गए, भगवान भी थक गए, अब तक अंधेरे को सूरज के सामने नहीं ला सके। वह मामला वैसा ही पड़ा हुआ है अपील की कोर्ट में। उसका कोई निर्णय नहीं होता। उसका कोई निर्णय नहीं होता। हो भी नहीं सकता, कभी नहीं होगा यह निर्णय। भगवान होंगे सर्वशक्तिमान, लेकिन अंधेरे को प्रकाश के सामने वे भी नहीं ला सकते। क्योंकि अंधेरा तो है ही नहीं। अंधेरे का कोई एक्जिस्टेंस नहीं है। अंधेरा तो केवल अभाव है, एब्सेंस है। अनुपस्थिति है किसी की।
मैं आपसे कहता हूं, क्रोध, काम, लोभ, इनकी अपनी कोई शक्ति नहीं है। इनका कोई पोजीटिव एक्जिस्टेंस नहीं है। हम सोए हुए हैं, इसलिए ये हैं। हम जाग जाएं, ये नहीं पाए जा सकते। जैसे प्रकाश ले आएं, अंधेरा नहीं मिलता, ऐसे ही भीतर कोई जाग जाए तो न क्रोध मिलता है, न घृणा मिलती है। जागरण आते ही जीवन में एक क्रांति हो जाती है। इसलिए दमन नहीं। दमन विकृत करता है। अनुकरण नहीं, क्योंकि अनुकरण पाखंड पैदा करता है। स्वयं का स्वीकार और स्वयं का निरीक्षण सरलता का मार्ग है। स्वयं का स्वीकार और स्वयं का निरीक्षण, स्वयं के प्रति जागा हुआ बोध। क्रोध है, घृणा है हम जागें, देखें। लेकिन हम जाग न सकेंगे अगर हम शत्रु बने हुए हैं। हम तो शत्रु बने हुए हैं। सिखाने वाले बैठे हैं, वे कहते हैं, क्रोध शत्रु है, घृणा शत्रु है, लोभ शत्रु है, ये सब रिपु हैं, फलां हैं, ढिकां हैं। हजार तरह की नासमझियां सिखाई गई हैं। शत्रु नहीं हैं, शक्तियां हैं। और जो अपनी ही शक्तिओं को शत्रु मान लेगा वह नष्ट हो जाएगा। वह अपने से ही लड़ने लगेगा और खुद टूट जाएगा, खंडित हो जाएगा।
मैं आपसे कहता हूं , अपने से न लड़ना। अपने को प्रेम करना। अपने को अस्वीकार मत करना, अपने को इंकार मत करना, अपने को अंगीकार करना, स्वीकार करना। और स्वीकार के आधार पर ही निरीक्षण हो सकेगा। निरीक्षण का क्या अर्थ है? क्या निरिक्षण का अर्थ है, मेरे चित्त में जो भी हो, मैं उसे पहले देखूं तो! क्या है वह?
 एक फकीर हिंदुस्तान से कोई चैदह सौ वर्ष पहले चीन गया था। वहां का बादशाह उसके स्वागत के लिए आया राजधानी की सीमा पर, और उस बादशाह ने उस फकीर बोधिधर्म का स्वागत किया और महल में उसे ले गया और फिर उससे एकांत में पूछा कि मेरे भीतर बहुत क्रोध है। मैं क्या करूं? इसे बहुत कोशिश करता हूं दबाने की, लेकिन यह फूट-फूट पड़ता है। और मैंने शास्त्रों में प.ढ़ा है और गुरुओं से सुना है कि जिसके भीतर क्रोध है वह नर्क की यात्रा करेगा। मैं नर्क की यात्रा नहीं करना चहता हूं। कोई भी नहीं करना चाहता नर्क की यात्रा। वह राजा भी नहीं करना चाहता था और राजाओं को नर्क की यात्रा का डर बहुत स्वाभाविक है। क्योंकि अगर राजा नर्क में नही जाएंगे तो कौन नर्क में जाएगा? वह भी राजा डरा हुआ था। उसने बोधिधर्म को कहाः बहुत क्रोध हैं मेरे भीतर और कहते हैं, क्रोध नर्क में ले जाएगा। मुझे बचाओ। बोधिधर्म ने कहाः तू ठीक आदमी के पास आ गया। कल सुबह होने से पहले मैं तेरे क्रोध को नष्ट कर दूंगा। बहुत भिक्षुओं के पास वह गया था। ऐसा कोई भी न मिला था जो यह कहता। वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहाः मैं कब आ जाऊं, ताकि आप नष्ट कर दें? उसने कहाः तुम सुबह चार बजे आ जाओ। लेकिन याद रखो, अपने साथ अपने क्रोध को भी ले आना। वह राजा बहुत हैरान हुआ कि यह क्या बात है? यह फकीर कुछ गड़बड़ मालूम होता है। जब इसने यह कहा कि मैं खत्म ही कर दूंगा तेरे क्रोध को, तभी शक हुआ था...और अब उसने यह कहा कि आ जाना सुबह चार बजे, और देखो, साथ में क्रोध को ले आना।
राजा तो चला गया। चार बजे आया भी। वह फकीर बैठा हुआ था अपने डंडे को लेकर। उसने कहाः ले आए क्रोध? कहां है? वह बोलाः आप भी कैसी बातें करते हैं। क्रोध क्या ऐसी चीज है कि मैं ले आता? वह तो मेरे साथ है। तो उसने कहाः आंख बंद करो और खोजो, कहां है। अगर मिल जाए तो मैं उसे खत्म कर दूं। उस राजा ने आंख बंद की और बहुत खोजा। कहीं क्रोध पकड़ में नहीं आया। आंख खोलता, वह फकीर कहता, और खोज लो एक दफा, दुबारा मत कहना आकर मुझसे क्योंकि मैं भी तय किए बैठा हूं कि आज खत्म कर दूंगा, मिल भर जाए! वह राजा सुबह हो गई, सूरज निकलने लगा और राजा पसीना-पसीना हो गया खोज कर भीतर। कहीं क्रोध मिलता नहीं था। उसने आंख खोली और कहाः माफ करें, क्रोध तो मिलता नहीं। उस फकीर ने कहाः जाओ जब मिलता ही नहीं तो उसको शांत कैसे किया जा सकता है? तुमने आज तक खोजा नहीं था इसलिए वह मिलता था। आज तुमने खोजा वह नहीं मिलता। अब तुम खोजते ही रहना। अब तुम खोजते ही रहना इस जीवन में कि कहां मिल जाए और जिस दिन मिल जाए। मेरे पास लाने की जरूरत नहीं। तुम्हीं को मिल जाए, तुम्हीं खत्म कर लोगे। जो नहीं खोजता, उसे मिलता है। जो खोजता है, उसे मिलता ही नहीं। दीये को जलाएं, और घर के भीतर जा कर खोजें कि अंधकार कहां है तो मिलेगा? नहीं मिलेगा। दीये को जला कर जो खोजने जाता है वह अंधकार को नहीं पाता।
अपने भीतर भी जो अपने बोध को जगा कर खोजने जाता है वह नहीं पाता। और जब जीवन में ये सारी चीजें पाई जातीं तो इनकी खोज करते-करते बोध तो जगता जाता है और ये विलीन होती चली जाती हैं। धीरे-धीरे भीतर केवल बोध रह जाता है और यह बोध का रह जाना ही, मात्र बोध का, अवेयरनेस का जग जाना ही क्रांति बन जाती है। सब कुछ बदल जाता है। जागा हुआ मनुष्य एक बिलकुल नया मनुष्य है, दूसरे तरह का मनुष्य है। उसके भीतर कोई दमन नहीं होता है। उसके प्राणों में ये सब पाप छिपते नहीं हैं। उसका जीवन भीतर से एकदम खाली हो जाता है। क्योंकि कुछ भी नहीं पाया जाता वहां। वहां केवल ज्योति रह जाती है जागने की, और उससे ही पैदा होती है सरलता।
निरीक्षण सूत्र है सरलता का। स्वयं की स्वीकृति भूमिका है निरीक्षण की। स्वयं की स्वीकृति से आता है निरीक्षण। निरीक्षण से आती है सरलता। लेकिन बहुत आंख खोल कर स्वयं को देखने और खोजने की बात है।
एक वृद्ध वैज्ञानिक अपने बच्चों को कुछ समझाता था। उनको कहता था कि विज्ञान की खोज में दो बातें जरूरी हैं। एक बात तो जरूरी है साहस, करेज। और दूसरी बात जरूरी है, निरीक्षण, ओब्जर्वेशन। तो उन बच्चों ने कहा, हमें समझाएं कि ये दोनों बातें कैसी हैं। वह वृद्ध वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में गया और वहां से एक प्याली लेकर आया। उस प्याली में बहुत कड़वा, बहुत तीखा कोई नमक का घोल भर कर लाया। उसने कहा के मेरे बच्चों, यह घोल है बहुत कड़वा, बहुत तीखा। अगर इसे एक बूंद भी जीभ पर रख लोगे तो वमन हो जाएगा, उल्टी हो जाएगी। लेकिन हमें इसकी परीक्षा करनी है कि यह क्या है और पहचानना है। और बिना जीभ पर रखे नहीं पहचान सकोगे।। तो तुम्हें साहस करना पड़ेगा इसे जीभ पर रखने का। तो मैं पहले अपनी जीभ पर रखूंगा तो तुम ठीक से निरीक्षण करना कि किस भांति जीभ डुबाता हूं, किस भांति जीभ पर रखता हूं अपनी अंगुली को। तुम ठीक से देखना। जैसा मैं करूं, ठीक से निरीक्षण कर लेना। ऐसा ही तुम्हें भी करना है।
उस वृद्ध वैज्ञानिक ने उंगली डुबाई और अपनी जीभ पर रखी। न तो उसने चेहरा बिगाड़ा, न कोई कड़वेपन का भाव उसकी आंखों में आया, न उसे कोई उल्टी हुई। फिर उसके बाद उन बच्चों ने भी यही किया। उन्होंने भी अपनी उंगली डाली और अपनी जीभ पर रखा। हरेक बच्चा घबड़ा गया और आंख से आंसू निकलने लगे। किन्हीं बच्चों को उल्टियां हो गई। लेकिन सभी बच्चों ने हिम्मत की और जीभ पर उसको रखा। जब बीस ही बच्चे रख चुके तो उस वृद्ध वैज्ञानिक ने कहाः मेरे बेटों, जहां तक साहस का संबंध है, तुम सब सफल हो गए। तुम सबने साहस किया। लेकिन जहां तक निरीक्षण का संबंध है, तुम सब असफल रहे। तुमने यह देखा ही नहीं, मैंने जो उंगली डुबाई थी, वही उंगली जीभ पर न रखी थी। जो उंगली घोल में डुबाई थी वही उंगली मैंने जीभ पर नहीं रखी थी, यह तुमने देखा ही नहीं। तो साहस में तो तुम सफल हुए, लेकिन निरीक्षण में असफल हो गए।
उसने कहाः अकेला साहस मूर्खतापूर्ण है। अकसर मूर्ख साहसी होते हैं और ऐसे मूर्ख साहसी सारी दुनिया को बड़े खतरे में डालते रहते हैं। अकेला साहस खतरनाक है। निरीक्षण, ओब्जर्वेशन चाहिए। क्या हो रहा है, उसे देखने के लिए पूरी सजगता होनी चाहिए। पूरे होश, पूरी अटेंशन से जो देखता है...।
विज्ञान में ही निरीक्षण जरूरी है, ऐसा नहीं। धर्म में तो और भी ज्यादा जरूरी है क्योंकि विज्ञान तो पदार्थों की खोज करता है, धर्म तो आत्मा की। विज्ञान में निरीक्षण जरूरी है लेकिन, धर्म में तो निरीक्षण और भी अनिवार्य है। विज्ञान बाहर के पदार्थों का निरीक्षण करता है, धर्म स्वयं के भीतर जो चित्त है, उसका।
चित्त का निरीक्षण करें। जागें, और जागें, और जागें और देखें चित्त को। देखते-देखते यह क्रांति घटित होती है और चित्त परिवर्तित हो जाता है। और परिणाम में जो उपलब्ध होता है वह है सरलता। यह दूसरा सूत्र है।
पहला सूत्र है, स्वतंत्रता।
दूसरा सूत्र है, सरलता।
तीसरा सूत्र है, शून्यता।
उसकी मैं कल रात आपसे बात करूंगा। सरलता के इस सूत्र के संबंध में, या स्वतंत्रता के कल के सूत्र के संबंध में कुछ बातें पूछने को हों तो वह सुबह आप पूछ ले सकते हैं। मेरी बातों को इतनी प्रेम और शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुग्रहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।


   इंदौर, दिनांक 6 मई, 1967, सायंकाल



























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