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शनिवार, 25 अगस्त 2018

एक नया द्वार-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(पक्षपातों से मुक्त मन)

इंदौर, दिनांक 7 मई, 1967, प्रातःकाल।
बहुत से प्रश्न मेरे पास आए हैं। थोड़े से प्रश्नों की अभी चर्चा हो सकेगी।
एक मित्र ने पूछा है, ज्ञान मुक्ति है, ऐसा कहा गया है। लेकिन मैंने कहा, अज्ञान द्वार है। इसका क्या अर्थ है?
ज्ञान निश्चय ही मुक्ति है, लेकिन वह ज्ञान नहीं है जो दूसरों से हमें उपलब्ध होता है। जो ज्ञान मन के भीतर जन्मता है, मन की चेतना में आविर्भूत होता है, वह निश्चय ही मुक्ति है। लेकिन वह ज्ञान, जो हम दूसरों से स्वीकार करते हैं, शास्त्रों से, समाज से, परंपराओं से, वह ज्ञान मुक्ति तो दूर, वह ज्ञान ही मुक्ति के मार्ग में सब से बड़ी बाधा है। इसलिए मैंने कहा कि इसके पहले कि यह ज्ञान मिल सके जो मुक्त करता है, उस ज्ञान को छोड़ देना होगा जो कि परतंत्र करता है। असल में उस ज्ञान को ज्ञान कहना ही उचित नहीं है जो हम दूसरों से उधार इकट्ठा कर लेते हैं। लेकिन हमारा सारा ज्ञान ऐसा ही है।

कोई आदमी कुआं खोदता है तो कुआं खोदने में मिट्टी और पत्थर निकाल कर बाहर कर देने होते हैं। मिट्टी और पत्थर निकालता जाता है, खोदता जाता है, थोड़ी देर नीचे जलस्रोत उपलब्ध हो जाते हैं। जल तो नीचे मौजूद था, उसे कहीं से लाना नहीं पड़ा। लेकिन मिट्टी पत्थर से बीच में उन्हें अलग कर देना पड़ा। लेकिन दूसरा आदमी हौज बनाता है। वह मिट्टी-पत्थर खरीद के लाता है, उनकी दीवाल बनाता है और कहीं से पानी लाकर उसमें भर देता है। कुएं में भी पानी होता है, हौज में भी पानी होता है, लेकिन दोनों के पानी में जमीन-आसमान का भेद है।

कुएं में से मिट्टी और पत्थर निकाल कर बाहर करना होता है। हौज में मिट्टी और पत्थर खरीद कर दीवाल बनानी पड़ती है। कुएं में से पानी अपने आप निकलता है, हौज में पानी कहीं से लाकर भरना पड़ता है। कुएं का पानी जीवित होता है। हौज का पानी बहुत जल्दी सड़ जाता है। हौज के पानी में कोई स्त्रोत नहीं होते । कुएं के पानी का प्राण समुद्रों से जुड़ा होता है नीचे, अंतर्धाराओं से जुड़ा होता है। हौज कहीं से भी जुड़ी नहीं होती। हौज एकदम उधार है। उसके पास अपनी कोई आत्मा नहीं है।। कुआं जीवित है, उसके पास अपने प्राण हैं, अपने जीवित स्त्रोत हैं।
हौज और कुएं में जो फर्क है, वही ज्ञानी और पंडित में फर्क है। ज्ञान वह है, जो कुएं की भांति चित्त से सारे ईंट-पत्थर अलग कर देने से उत्पन्न होता है, भीतर से जन्मता है। लेकिन पंडित का ज्ञान उधार है, बाहर से लाया हुआ है।।शास्त्रों से, शब्दों से, सिद्धांतों से उसने अपने ज्ञान को बनाया है। ये दोनों स्थितियां एक-दूसरे के बिलकुल विपरीत और भिन्न और विरोधी हैं। कुएं जैसा जो ज्ञान है, वह मुक्त करता है, हौज जैसा जो ज्ञान है वह परतंत्र करता है। वह मुक्त नहीं करता है।
पंडितों ने कभी सत्य जाना हो, ऐसा संभव नहीं है। उसका जानना ही बाधा बन जाता है। यह भी मनुष्यता की अस्मिता और अहंकार है कि मैं जानूंगा।
एक फकीर हुआ, अगस्तीन। कोई तीस वर्षों से परमात्मा की खोज में था। भूखा और प्यासा, रोता और चिल्लाता और प्रार्थना करता। एक क्षण का विश्राम न लेता। जीवन का कोई भरोसा नहीं है। परमात्मा को पा लेना है। तो सब भांति के उपाय उसने किए। बूढ़ा हो गया था, थक गया था, परमात्मा की कोई प्राप्ति न हुई थी। कोई दूर, परमात्मा निकट नहीं आया। बुढ़ापा निकट आ रहा था, मौत करीब आ रही थी उतने ही प्राण और चिंतित होते जाते थे। एक दिन सुबह-सुबह ही...रात भर रोकर भगवान से प्रार्थना करता रहा कि कब मुझे दर्शन दोगे? सुबह उठा और नदी के, समुद्र के किनारे घूमने चला गया। सूरज उगने को था। किनारा एकांत था समुद्र का, कोई भी वहां न था। थोड़ी दूर चलने पर एक छोटा-सा बच्चा उसे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा एक चट्टान के पास। बहुत चिंतित, बहुत परेशान वह बच्चा था। अगस्तीन ने पूछाः तू किसलिए इतना परेशान है? और इतने सुबह-सुबह इस अकेले समुद्र के किनारे क्यों चला आया? उस बच्चे ने, अपने कंधे पर एक झोली टांग रखी थी। उस झोली में से एक बर्तन निकाला, छोटा सा बर्तन, और उसने कहा, मैं परेशान हूं। मैं इस बर्तन में समुद्र को भर लेना चाहता हूं लेकिन यह समुद्र भरता ही नहीं।
उस बच्चे का यह कहना था कि मैं इस बर्तन में इस समुद्र को भर लेना चाहता हूं, लेकिन यह भरता ही नहीं है।।और जैसे अगस्तीन के सामने कोई बंद द्वार खुल गया। और वह एकदम जोर से हंसने लगा और रोने भी लगा। तो उस बच्चे ने पूछा कि आपको क्या हो गया है? अगस्तीन ने कहा कि तू ही नासमझ नहीं है जो एक छोटे से बर्तन में समुद्र को भरने निकल पड़ा है। मैं भी नासमझ हूं। मैं अपनी छोटी सी बुद्धि में परमात्मा को पकड़ने चला था। मैं अपने छोटे से मस्तिष्क में सत्य को समाने निकल पड़ा था। अगर तू नासमझ है तो मैं और भी ज्यादा नासमझ हूं। समुद्र की तो फिर भी सीमा है, और हो सकता है, और हो सकता है किसी बड़ी प्याली में समुद्र बन भी जाए।।प्याली की भी सीमा है, और समुद्र की भी सीमा है। लेकिन मेरी बुद्धि की तो सीमा है और परमात्मा की कोई सीमा नहीं। मैं तुझसे भी ज्यादा नासमझ रहा। तीस वर्ष मैं पागल था कि मैं ईश्वर को जानने चला था। ‘मैं’ ईश्वर को जानने चला था। तीस वर्ष मैंने गंवाए, रोया और पीड़ित हुआ अनेक बार परमात्मा को मैंने दोष दिया कि तू कैसा निर्दय और कठोर है कि मैं रोता हूं, मेरे आंसू तुझ तक नहीं पहुंचते। और आज मैं समझ पाया कि मेरी भूल वही थी जो तेरी भूल है। मैं परमात्मा की खोज छोड़ता हूं। मैं परमात्मा को जानने का पागलपन छोड़ता हूं।
वह नाचता हुआ वापस लौट आया अपने आश्रम में। वहां के और संन्यासियों ने कहाः क्या तुम्हें परमात्मा मिल गया जो तुम आज खुश हो? जो कि तीस वर्षों से कभी मुस्कराते नहीं देखे गए, आज नाचते हो, क्या तूने उसको पा लिया? क्या तुमने उसे जान लिया? अगस्तीन ने कहाः उसे तो मैंने नहीं पाया, लेकिन अपने को खो दिया। उसे तो मैंने नहीं जाना, लेकिन अपने जानने के पागलपन को मैं समझ गया। और जिस क्षण मैंने यह दौड़ छोड़ दी और जानने का यह भ्रम छोड़ दिया उस क्षण मैंने पाया, वह तो सामने ही था। वह तो सामने ही है। मैं भी तो वही हूं। मैंने उसे कभी खोया ही नहीं था। लेकिन उसे खोजने और जानने के पागलपन में मैं पड़ गया था और मैं इसी भूल में उसे खोए हुए था जो कि अभी खोया हुआ नहीं था।
अगस्तीन का जानने का खयाल छूटा और उसने जान लिया। अज्ञान के लिए मैंने कहा है कि यह अज्ञान हमारे अहंकार की मृत्यु बन जाएगी, अगर मैं यह ठीक से जान सकूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं और मैं यह जान सकूं कि जो असीम है वह सीमित बुद्धि से नहीं जाना जा सकेगा; और मैं यह जान सकूं कि प्याली में समुद्र भरना पागलपन है, और अपनी बुद्धि में सत्य को भर लेने का खयाल और भी बड़ा पागलपन है। अगर यह मुझे दिखाई पड़ जाए, तो मैं तो गया, मेरी सामथ्र्य तो मिट गई। मैं तो रिक्त और शून्य हो गया। और जिस क्षण कोई व्यक्ति उस स्थिति में पहुंच जाता है जहां उसे यह भी भ्रम नहीं रह जाता कि मैं जानता हूं।।अज्ञान की, न जानने की, स्टेट ऑफ नॉट नोइंग में है, जब कि उसे कुछ भी प्रतीत नहीं होता कि मैं जानता हूं, मन एकदम मौन और शांत हो जाता है। उसी शांति में जाना जाता है।
अज्ञान ज्ञान का द्वार है, अज्ञान का बोध। लेकिन हम सारे लोग अज्ञान को ढांक लेते हैं उधार ज्ञान से। अज्ञान तो भीतर बना रहता है, ज्ञान बाहर से इकट्ठा कर लाते हैं। और उस ज्ञान के ऊपर, छा जाता है हमारा अज्ञान के ऊपर। ऐसे अज्ञान को भीतर छिपा लेते हैं। आप जानते हैं, ईश्वर है? भीतर अगर झांकेंगे तो पता चलेगा, नहीं जानता हूं। लेकिन अगर बुद्धि से पूछेंगे तो बुद्धि कहेगी, हां ईश्वर तो है, किताबों में लिखा है। गुरु कहते हैं, ऋषि मुनि कहते हैं, ईश्वर है। जब तक कोई और कहता है, ईश्वर है तब तक आपके लिए ईश्वर नहीं है। जिस दिन आपके प्राण जानेंगे, उसी दिन होगा। उसके पहले नहीं हो सकता।
और आपके प्राण कब जानेंगे? आपके प्राण तभी जानेंगे जब दूसरों के जानने पर से आप अपने विश्वास को वापस लौटा लेंगे। जो आदमी दूसरों पर विश्वास करता है, वह अपने पर विश्वास नहीं करता है। खुद पर जो अविश्वास है वही दूसरों पर विश्वास बन जाता है। खुद पर जो अश्रद्धा है वही दूसरों के ऊपर श्रद्धा बन जाती है। और जो व्यक्ति किसी और को पकड़े हुए है, वह कभी भी उसको नहीं जान सकेगा जो उसके भीतर छिपा है।
दूसरों को पकड़ने के आसरे और सहारे में अपने से वंचित रह जाता है। छोड़ देना होगा।
जरथुस्त्रा अपने शिष्यों से विदा हो रहा था। उसका आखिरी दिन आ गया और उसने अपने शिष्यों से कहा कि अब मैं जाऊं, और मेरी पुकार आ गई है उस देश से जहां मुझे जाना पड़ेगा और जहां सब को जाना पड़ेगा। और तुम्हें कुछ अंतिम बात मुझसे पूछनी हो तो पूछ लो। उसके शिष्यों ने कहाः जो तुम्हें कहना था, तुमने हमसे कहा है और हम उसे प्राणों में संजोए रखेंगे। अगर तुम्हारे ही मन में कुछ कहने को हो तो तुम अंतिम समय में मुझसे कह दो। जरथुस्त्रा ने क्या कहा।।हैरान हो जाएंगे जो जरथुस्त्रा ने कहा।।जरथुस्त्रा ने कहाः बीवेयर ऑफ जरथुस्त्रा। जरथुस्त्रा ने कहाः जरथुस्त्रा से सावधान रहना। शिष्य उससे बोले, क्या अर्थ है तुम्हारा? जरथुस्त्रा ने कहाः मुझे मत पकड़ लेना नहीं तो तुम उस ज्ञान से वंचित रह जाओगे जो तुम्हारे भीतर पैदा हो सकता है। तो मैंने तुमसे बातें कहीं, और अब अंतिम बात यह कहता हूं कि मुझसे सावधान रहना और मुझे मत पक.ड़ लेना। नहीं तो मैं ही तुम्हारा शत्रु हो जाऊंगा। इसलिए जरथुस्त्रा ने कहा, बीवेयर ऑफ जरथुस्त्रा। ब.ड़ी अजीब बात कही है। कहा, मुझसे सावधान रहना, मुझको मत पक.ड़ लेना। लेकिन लोगों ने जरथुस्त्रा को पक.ड़ लिया है, महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को; और इसी वजह से खुद को पाने में असमर्थ हैं।
जो भी किसी को पक.ड़ लेगा, वह खुद को पाने में असमर्थ हो जाएगा। जो आंखे दूसरों पर टिक जाती हैं, वह अपने को नहीं जान पाती हैं, और जो ज्ञान दूसरों के ज्ञान से तृप्त हो जाता है वह उस ज्ञान को नहीं खोज पाता जो भीतर खोया हुआ है। वह ज्ञान तो जागता तभी है जब हम बाहर के सारे ज्ञान से अतृप्त हो जाते हैं और किसी ज्ञान से तृप्त नहीं होते। जीवन में खोई हुई शक्तियों के जागने का एक ही नियम है और वह नियम यह है कि जब चुनौती ख.ड़ी होती है तभी शक्तियां जागती हैं। आपसे अगर मै कहूं, दौ.िड़ए, तो आप कितनी तेज दौ.ड़ सकते हैं? आप अपनी पूरी ताकत लगा कर दौ.ड़ें तब भी आप अपनी पूरी ताकत से नहीं दौ.ड़ेंगे। लेकिन कल अगर आपके पीछे कोई बंदूक लेकर लग जाए तब आपको पता चलेगा, आप कितनी तेजी से दौ.ड़ सकते हैं। तब आप जानेंगे, जितनी तेजी से मैं दौ.ड़ा था वह पूरा दौ.ड़ना नहीं था, मेरे भीतर और ताकत थी सोई हुई। लेकिन कोई बंदूक लेकर पीछे प.ड़ गया तो उस चुनौती में, उस चैलेंज में आपके भीतर की सारी सोई हुई ताकत जाग जाती है और आप पूरी ताकत से दौ.ड़ते हैं। वह सोई हुई थी ताकत, लेकिन चुनौती उसे मिले तो वह जागेगी।
हमारे भीतर ज्ञान की शक्ति सोई हुई है, लेकिन चुनौती नहीं देते हम उन्हें। बल्कि हम सारी चुनौती को मार डालते हैं। दूसरों का ज्ञान पकड़ लेते हैं और तृप्त हो जाते हैं। चुनौती नष्ट हो जाती है, चैलेंज नष्ट हो जाता है। जो आदमी किसी के भी ज्ञान को कभी स्वीकार नहीं करता और हमेशा इस कोशिश में रहता है कि मैं किसी और के ज्ञान से तृप्त न होऊं उसके भीतर।।उसके भीतर एक खाली जगह पैदा हो जाती है, एक रिक्तता पैदा हो जाती है और उसके भीतर अज्ञान का बोध गहरा होने लगता है। वह उस रिक्तता में, उस अज्ञान की पीड़ा में ही, उस चुनौती में ही भीतर सोई हुई शक्तियां जागती हैं और कोई भी रास्ता भीतर की सोई हुई शक्तिओं के जागने का नहीं है।
लेकिन जो लोग अपने को किसी ज्ञान से भर लेते हैं उनकी सोई हुई शक्तियां सोई हुई रह जाती हैं। इसलिए मैंने कहा, ज्ञान से सावधान। किस ज्ञान की मैं बात कर रहा हूं? उस ज्ञान की, जो बाहर से आता है। और किसलिए कह रहा हूं, उस ज्ञान से सावधान? ताकि वह ज्ञान आ सके, जो कहीं से भी नहीं आता है।।भीतर से जन्मता है और विकसित होता है।
जो लोग कागज के फूल लाकर घर सजा लेते हैं, उन्हें यह खयाल भी भूल जाता है कि ऐसे फूल भी पैदा किए जा सकते हैं जो कागज के नहीं होते। और जो लोग कागज के फूलों पर विश्वास करने पर धीरे-धीरे निर्भर हो जाते हैं, असली फूलों को पैदा करने का उनका खयाल ही मिट जाता है। जो ज्ञान दूसरों से आता है वह कागज के फूलों की भांति है। वे बाजार में सस्ते मिल जाते हैं। उनके लिए कोई श्रम नहीं करना पड़ता। उन्हें पैदा करने के लिए कोई मेहनत, कोई साधना नहीं करनी पड़ती है। उन्हें सम्हालने की बहुत चिंता नहीं करनी पड़ती है। वे फूल मुर्दा होने की वजह से कभी मुर्झाते भी नहीं है। कागज के फूल घरों में जैसे सजाने की आदत है...और वह आदत दुनिया में बढ़ती चली जा रही है। कागज की जगह और प्लास्टिक के फूल बन रहे हैं, और अच्छे फूल बनेंगे। यह भी हो सकता है, आदमी ऐसे फूल बना ले जो परमात्मा के फूलों के मुकाबले भी ज्यादा सुगंध देने लगें, ज्यादा सुंदर दिखाई पड़ने लगें, ज्यादा टिकाऊ हों, एक दफे खरीद लें और जिंदगी भर काम दे जाएं। आदमी ऐसे फूल बना लेगा। इसमें क्या कठिनाई है? लेकिन फिर भी मैं आपसे कहता हूं कि वे फूल मुर्दा होंगे, वे फूल जिंदा नहीं होंगे।
ठीक जैसे हम कागज के फूल बनाते हैं, वैसे ही हमने कागज का ज्ञान इकट्ठा कर लिया है। किताबों से, कागजों से किया गया इकट्ठा ज्ञान कागजी फूलों से ज्यादा नहीं है। वह ज्ञान सस्ता भी मिल जाता है, आसानी से मिल जाता है और मजे से हम ज्ञानी हो जाते हैं। बिना ज्ञानी हुए ज्ञानी होने का आनंद आ जाता है। अहंकार तृप्त हो जाता है और यात्रा रुक जाती है। इसलिए मैंने कहा, ज्ञान से सावधान! ज्ञान से छूटना होगा ताकि सच में ज्ञान पैदा हो सके। ज्ञान मुक्ति है, लेकिन वह ज्ञान नहीं, जो हम दूसरों से पा लेते हैं। वह ज्ञान, जो भीतर से आता है, मुक्त करता है। लेकिन उसकी यात्रा में यह साहस करना होगा, इसे छोड़ने का साहस करना होगा।।इसलिए मैंने कहा।
किन्हीं मित्र ने पूछा है इसी संबंध में, कि आप कहते हैं, शब्द बाधा है, शास्त्र बाधा है, फिर भी आप तो शब्दों का उपयोग कर रहे हैं?
यह तो मैंने कहा नहीं कि शब्दों का उपयोग न करें। यह तो मैंने आपसे कहा नहीं कि शब्दों का उपयोग वर्जित कर दें, आप चुप हो जाएं। मैंने कहा कुल इतना है कि शब्दों के द्वारा सत्य हस्तांतरित नहीं होता है। मैं शब्दों का उपयोग कर रहा हूं, लेकिन इस भ्रम में नहीं हूं कि जो सत्य मुझे दिखाई पड़ता है वह मैं आपको शब्दों के द्वारा दे सकता हूं। इस भ्रम में नहीं हूं। और मेरे शब्दों को भूल से भी पकड़ना मत। उनको पकड़ने में कोई भी सत्य मिलने वाला नहीं है। फिर भी क्यों बोल रहा हूं?
मैं इसलिए नहीं बोल रहा हूं कि आपको सत्य दे सकूंगा। बल्कि केवल इसलिए बोल रहा हूं कि जो असत्य शब्दों के द्वारा आपके भीतर बैठ गया है, शब्दों के द्वारा उस असत्य को निकाला जा सकता है। कांटा कांटे को निकाल सकता है। शब्द, सत्य मान कर अगर भीतर बैठ गए हों तो शब्दों के द्वारा ही उन शब्दों को बाहर निकाला जा सकता है। लेकिन इससे आपको सत्य मिल न जाएगा। मेरे शब्द आपको सत्य नहीं दे सकते हैं। मेरे शब्दों से सत्य आपको उपलब्ध नहीं हो सकता है। लेकिन एक बात हो सकती है। अगर आपको यह भी बोध आ जाए कि शब्द व्यर्थ हैं और शब्दों की पकड़ व्यर्थ है और उसे खोजना है, जो शब्दों के बाहर है, तो आप उस यात्रा पर निकल जाएंगे जहां सत्य मिल सकता है। वह मैं या कोई और आपको नहीं देगा। वह यात्रा तो आपको ही करनी पड़ेगी।
शब्दों के द्वारा असत्य क्या है, यह कहा जा सकता है और यह भी कहा जा सकता है कि शब्दों के द्वारा असत्य पहुंचाया नहीं जा सकता। लेकिन शब्दों से सत्य नहीं दिया जा सकता। शब्द कांटो की तरह काम कर सकते हैं। लगा हुआ कांटा निकाल सकते हैं। लेकिन पहला कांटा अगर पैर में लगा हो, दूसरे कांटे से हम उस कांटे को निकाल लें तो फिर कोई इस खयाल में न पड़ जाए कि दूसरे कांटे ने बड़ी कृपा की है इसलिए अब इसको पैर में लगा लें। यह मूढ़ता हो गई। क्योंकि इस कांटे ने बड़ी कृपा की, पहले कांटे को निकाला तो चलो इसका मंदिर बनाएं, इसकी पूजा करें। यह कांटा बहुत ही अच्छा है, इसने कांटे को निकाला। हम पहले कांटे को निकाल कर दूसरे को भी फेंक देते हैं, जैसे पहले को फेंक दिया।
तो मेरे शब्द या किसी के भी शब्द एक काम कर सकते हैं कि किसी कांटे को निकाल दें। लेकिन कांटा निकल जाने के बाद उनकी कीमत उतनी ही है जितनी दूसरे कांटे की होती है, उससे ज्यादा नहीं है। वह उनको बिलकुल फेंक देने की जरूरत है। उनको रख कर, मंदिर बना कर पूजा करने की जरूरत नहीं है। उनकी इससे ज्यादा कोई उपादेयता नहीं है। अगर कोई भी शब्द आपके मन में न रह जाए तो...शायद उसका आपको अनुभव हो सके जो निः-शब्द सत्य है। मैं इसलिए नहीं बोल रहा हूं कि आपको मैं बोलने से सत्य दे दूंगा। कोई कभी किसी को बोलने से सत्य नहीं दे सका है। लेकिन हां, एक नेगेटिव, एक नकारात्मक काम शब्द कर सकते हैं। वे कांटे का काम कर सकते हैं और किन्हीं कांटों को निकाला जा सकता है। लेकिन हम बहुत पागल हैं। जो कांटे हमारे कांटे को निकालते हैं हम उन्हीं कांटों को अपने पुराने घाव में रख लेते हैं और उनकी पूजा करना शुरू कर देते हैं। महावीर की, बुद्ध की, कृष्ण की, क्राइस्ट की पूजा और क्या है? किन्हीं शब्दों को उन्होंने निकालने की कोशिश की थी, हमने उनके शब्द पकड़ लिए हैं।
बुद्ध ने जीवन भर कहाः पूजा मत करना किसी की। बुद्ध की जितनी मूर्तियां है दुनिया में उतनी और किसी की भी नहीं हैं। बुद्ध की इतनी ज्यादा मूर्तियां बनीं कि बुत-बुत शब्द का अर्थ ही मूर्ति हो गया। यह शब्द बुद्ध का ही अपभ्रंश है। बुद्ध का अर्थ ही मूर्ति हो गया। और बुद्ध ने कहा था, पूजा करना मत। तो जिसने हमसे कहा, पूजा मत करना तो हमने कहा, यह आदमी बहुत अच्छा है, इसकी पूजा करो। इसने हमको पूजा करने से छुड़ाया तो अब हम क्या करें? हम इसकी पूजा करें।
यह सारी दुनिया में हुआ है। यह आज भी हो रहा है। यह कल भी हो सकता है।

एक मित्र ने पूछा है कि आपकी किताबों के ऊपर आपके चित्र छपे हैं। आप बैठते हैं तो आपके सम्मान में माला पहनाई जाती है और आप यह स्वीकार करते हैं। तो फिर भगवान की मूर्ति पर अगर हम माला चढ़ाएं और भगवान की मूर्ति बनाएं और पूजा करें, तो हर्ज क्या है?

बड़ी ठीक बात पूछी है। आदमी बड़ा अदभुत है। बुद्ध की, महावीर की, कृष्ण की और राम की मूर्तियां बनीं, उनकी पूजा हुई। मुहम्मद ने देखा कि पूजा तो खराब हो गई; पूजा ने तो आदमी को भटका दिया तो मुहम्मद ने कहा, पूजा मत करना और मूर्ति मत बनाना। तो एक तरह के पागल थे मूर्तिपूजक। मोहम्म्द ने दूसरे लोगों को कहा कि मूर्ति बनाना मत, मूर्ति पूजना मत, मूर्ति बाधा है। दूसरे तरह के पागल दुनिया में खड़े हो गए, जो मूर्ति तोड़ने लगे और फोड़ने लगे। उन्होंने फिर यह झंडा निकाला कि हम सारी दुनिया की मूर्तियां मिटा देंगे, सारे मंदिर तोड़ डालेंगे। एक खतरा था कि लोग मूर्ति पूज रहे थे, दूसरा खतरा पैदा हो गया कि लोग मूर्ति तोड़ने लगे। ये दोनों एक ही जैसे पागल हैं। इसमें कोई भेद नहीं है। आदमी इतना अदभुत है कि वह किस चीज से क्या अर्थ निकालेगा, यह बड़ी हैरानी की बात है। तो अगर मैं किसी से कहूं कि मेरी फोटो छापिए किताब पर, तो वह पूजा शुरू कर देगा। और अगर मैं यह कहूं कि फोटो मत छापिए तब वह कहेगा कि मेरा मत यह है कि फोटो मत छापो। तो अगर कहीं फोटो छपी हो तो फाड़ दो। अब मैं क्या करू?
हमारा मन बड़ा अदभुत है। हम हर बात से कुछ न कुछ उपद्रव की बात निकालते हैं और खोजते हैं। इसलिए सवाल यह नहीं है कि फोटो छपें या न छपें, सवाल यह है कि आपका मन पूजक का मन नहीं होना चाहिए। भंजक का भी मन नहीं होना चाहिए। पूजा करने वाला उतनी ही भूल में है जितना मूर्तिभंजक क्योंकि दोनों की श्रद्धा मूर्ति पर है। मूर्ति बनाने वाले की श्रद्धा और तोड़ने वाले की श्रद्धा, दोनों की श्रद्धा मूर्ति पर है। दोनों मानते हैं कि मूर्ति बनाने से कुछ होगा। एक मानता है, तोड़ने से कुछ होगा।
न तो किताबों पर फोटो से कुछ होता है और न, न होने से कुछ होता है। ये दोनों बातें एक सी फिजूल, एक सी अर्थ की नहीं; या एक सी अर्थहीन हैं। इन दोनों बातों में से किसी बात को मूल्य देने का कोई अर्थ, कोई प्रयोजन नहीं है।
और एक बात आपसे कहूं, मेरी तो फोटो हो सकती है, आपकी फोटो हो सकती है, लेकिन परमात्मा की फोटो कैसे हो सकती है? मेरी मूर्ति हो सकती है, आपकी मूर्ति हो सकती है, लेकिन परमात्मा की मूर्ति कैसे हो सकती है? परमात्मा का कोई रूप है? परमात्मा का कोई आकार है? परमात्मा की कोई देह है? अब तक तो कोई फोटोग्राफर समर्थ नहीं हो पाया परमात्मा की फोटो निकालने में। अब तक कौन समर्थ हो पाया है? और जिन मूर्तियों को हम परमात्मा की मूर्तियां कहते हैं।।हमें यहीं भूल हो जाती है, वे सभी आदमियों की मूर्तियां हैं, परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं है। अगर आपको यह खयाल हो कि यह राम की मूर्ति है तो कोई हर्जा नहीं है, कृष्ण की है मूर्ति है तो कोई हर्जा नहीं है। लेकिन यह परमात्मा की मूर्ति है तो खतरा शुरू हो गया। ये मूर्तियां मनुष्य की हैं और मनुष्य के द्वारा बनाई गई हैं और मनुष्य ने अपने ही आधार पर, अपनी ही अनुकृति में मूर्तियां बना ली हैं। हिंदुओं की मूर्तियां देखिए, चीनियों की मूर्तियां देखिए, नीग्रो की मूर्तियां देखिए, आपको फर्क पता चल जाएगा। नीग्रो भगवान की मूर्ति जो बनाता है तो उसके ओठ मोटे हैं, बाल घुंघराले होते हैं। हिंदू तो ऐसी मूर्ति नहीं बनाता भगवान की। चीनी जो मूर्ति बनाता है उसकी हड्डियां निकली हुईं, नाक चपटी होती हैं। हिंदुस्तान में तो हम ऐसी चपटी नाक के भगवान नहीं बनाते। कोई बनाएगा तो हम कहेंगे, यह कैसे भगवान हैं, चपटी नाक वाले भगवान! अब तक तो ऐसे भगवान हमने नहीं देखे। हमारे भगवान की नाक तो बड़ी लंबी, नुकीली है। वैसी नाक होती है।
लेकिन चीनियों की नाक चपटी क्यों होती है भगवान की? कई तरह के भगवान भी हैं क्या? लेकिन चीनी अपनी अनुकृति में अपने भगवान को बनाते हैं। वह आदमी की ही मूर्ति है। हिंदु अपनी अनुकृति में बनाते हैं, नीग्रो अपनी अनुकृति में बनाते हैं, और नीग्रो के भगवान काले होते हैं, गोरे बिलकुल नहीं होते। लेकिन एक अंग्रेज अपने भगवान को काला कभी भी नहीं बना सकता है। वह तो काले आदमी को अपने रास्तों से नहीं निकलने देता तो काले भगवान को मंदिर में कैसे घुसेड़ेगा? वह तो काले भगवान आ जाएं तो अंग्रेज के होटल में नहीं घुस सकते। मंदिर की तो बात अलग है।
हम अपनी अनुकृति में भगवान बनाते हैं। भगवान की कोई मूर्ति है क्या? पुरुष ने भगवान की मूर्तियां बनाई हैं। अब तक स्त्रियों ने भगवान की मूर्तियां नहीं बनाईं नहीं तो वे दूसरे ढंग की होतीं। आपको पता है? राम को मूछें नहीं हैं, दाढ़ी नहीं है। कृष्ण को मूछें नहीं हैं। बुद्ध को, महावीर को मूछें-दाढ़ी नहीं हैं। या तो यह कोई बहुत दैवी ढंग से शेव करवाते रहे होंगे और या इनको कुछ बीमारी रही होगी कि इनको मूछें-दाढ़ी पैदा नहीं हुईं। नहीं, लेकिन यह बात नहीं है। पुरुष ने ये मूर्तियां बनाई हैं। और पुरुष के मन में स्त्री सौंदर्य की प्रतिमूर्ति है, स्त्री सौंदर्य की मूर्ति है। पुरुष के चित्त में स्त्री का सौंदर्य सब कुछ है। स्त्री को दाढ़ी-मूंछ नहीं होतीं। जब उसने अपने भगवान बनाए तो उसको सुंदर बनाने के लिए दाढ़ी-मूछ से विहीन बना दिए। पुरुष के मन में स्त्री की प्रतिमा है सौंदर्य की। सौंदर्य की जो प्रतिमा है पुरुष के मन में, वह स्त्रैण है। स्त्री उसे सुंदर मालूम पड़ती है। तो जब उसने अपने भगवान बनाए, तो उनको सुंदर बनाने के लिए दाढ़ी-मंूछ से मुक्त कर दिया।
भगवान बहुत पहले दाढ़ी-मूंछ से मुक्त हो गए। लोग तो अब धीरे-धीरे मुक्त हो रहे हैं। यह धीरे-धीरे लोगों को समझ में आया है कि जब भगवान मुक्त हो सकते हैं दाढ़ी-मूंछ से, तो हम भी मुक्त हो जाएं। तो उन्होंने भी दाढ़ी-मूंछ साफ कर दिए। यह स्त्रैण प्रतिमा है हमारे चित्त में सौंदर्य की जिसको हमने भगवान पर थोप दिया है। अगर घोड़े भगवान की मूर्ति बनाएं तो आप समझते हैं आदमी जैसी बनाएंगे? आप गलती में हैं। घोड़े जैसी बनाएंगे। अगर गधे भगवान की मूर्ति बनाएं, तो आप जैसी बनाएंगे? कोई गधा आपको इस योग्य न समझेगा कि आप भगवान हो सकते हैं। गधा अपने जैसी मूर्ति बनाएगा भगवान की। चिड़ियां बनाएंगी तो अपने जैसी बनाएंगी।
भगवान की मूर्तियां नहीं हैं ये, हमारे मन की मूर्तियां हैं जो हम बना रहे हैं। यह हम बनाते हैं। हमारा चित्त इनमें प्रतिफलित है। तो आप आदमियों के चित्र बनाएं, कोई मुझे इनकार नहीं है। आप आदमियों की मूर्तियां बनाएं, कोई इनकार नहीं है। बनानी चाहिए। कोई हर्जा नहीं है। लेकिन जब आप किसी मूर्ति को या किसी चित्र को भगवान कहने लगते हैं तब भूल शुरू हो जाती है। तब आप गलती में पड़ जाते हैं। तब वह मूर्ति और रूप आपको बांधने का कारण हो जाता है। और भगवान को तो केवल वे ही जान सकते हैं जो सब मूर्तियों, सब रूपों से ऊपर उठ जाएं।
तो मेरी किताब पर अगर कोई   न फोटो छाप दी हो तो परेशान न हों। एक ही खयाल रखें परेशान होने वाला वही आदमी है जो पूजा करने वाला है। इन दोनों में फर्क नहीं है। कोई फर्क नहीं पड़ता है, छापें या न छापें। आदमी की फोटो छापने से क्या हर्जा है? लेकिन उस फोटो को अगर कोई भगवान कहने लगे तो उससे सावधान रहना। उसकी रिपोर्ट पुलिस में करवा दें कि यह आदमी खतरनाक है। यह एक आदमी की फोटो को भगवान की फोटो कहता है। अगर कोई कहने लगे, यह फोटो तीर्थंकर की है, अवतार की है, तो उस आदमी से सावधान रहना। उसको पकड़ कर पागलखाने भेज देना, उसका इलाज करवा देना।
जब भी हम आकार में भगवान को बांधने की कोशिश करते हैं, तभी पागलपन शुरू हो जाता है। और दुनिया में ऐसे पागल भी हुए हैं जो खुद यह घोषणा कर दें कि मैं हूं भगवान। मुझको पूजो, मैं तुम्हें मुक्ति दिलवा दूंगा। ऐसे पागल भी हुए हैं।
मैंने एक घटना सुनी।।इराक में एक आदमी ने यह घोषणा कर दी कि मैं भगवान का पैगंबर हूं। मुझे भगवान ने भेजा है। मोहम्मद के बाद ही मैं ही आया हूं दुनिया में। लेकिन मुसलमान तो इस बात को मान नहीं सकते कि मोहम्म्द के बाद और कोई पैगंबर आ सकता है?
जैन इस बात को नहीं मान सकते कि महावीर के बाद और कोई तीर्थंकर आ सकता है। बौद्ध इस बात को नहीं मान सकते कि बुद्ध के बाद और कोई आ गए भगवान। सबने दरवाजे बंद कर दिए हैं, डोर क्लोज्ड हैं। उसके आगे अब कोई नहीं आ सकता। क्योंकि खतरा है एक। अगर पच्चीसवां तीर्थंकर आ जाए और कहने लगे, महावीर गलत थे तो फिर क्या करेंगे? किस तीर्थंकर को मानेंगे? और मोहम्मद के बाद कोई पैगंबर आ जाए और कह दे कुरान में फलां-फलां भूलें हैं, भगवान ने मुझे नया एडीशन लेकर भेजा है कुरान का। तो फिर क्या करिएगा? नये को मानिए या पुराने को, इसलिए सब किताबों ने दरवाजे बंद कर दिए। इसलिए अब यह फाइनल है, यह अंतिम है, अब इसके आगे कोई जरूरत नहीं है किसी के आने की।
एक आदमी ने घोषणा कर दी कि मैं पैगंबर हूं नया और मैं नई किताब को लेकर आ गया हूं, अब कुरान को पूजने की कोई जरूरत नहीं। उस आदमी को फौरन पकड़ कर जेलखाने में बंद कर दिया गया। बादशाह उससे मिलने गया दूसरे दिन सुबह। और उसने कहाः तुम बड़े पागल मालूम होते हो। यह नासमझी छोड़ दो, नहीं तो सिवाय फांसी के और कोई रास्ता नहीं है। तुम्हें मैं समझाने आया हूं, तुम अपनी भूल स्वीकार कर लो और माफी मांग लो। हम तुम्हें छोड़ देंगे। तुमने कोई ऐसा जुर्म नहीं किया है। लेकिन यह सबसे बड़ा पाप है किसी का यह कहना कि मैं पैगंबर हूं। बस, मोहम्मद के सिवाय और कोई पैगंबर नहीं है। अल्लाह के सिवाय कोई भगवान नहीं है, मोहम्मद के सिवाय कोई पैगम्बर नहीं है। कहो कि मोहम्मद पैगंबर है और क्षमा मांग लो। उस आदमी ने कहाः तुम पागल हो। मोहम्मद पैगंबर था, उससे मैं बड़ा पैगंबर हूं। उसने जो भूलें कीं उसे ठीक करने के लिए भगवान ने मुझे भेजा है। और रही फांसी की बात, तो चिंता मत करो, पैगंबरों पर मुसीबतें हमेशा आती रही हैं। यह कोई नई बात है? अरे, क्राइस्ट को सूली पर लटकाया लोगों ने, सुकरात को जहर पिलाया, मंसूर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए! यह तो हमेशा होता रहा है। यह तो पैगंबरों की परीक्षाएं भगवान लेता है। तो तुम्हें जो करना है, करो। मैं तो एलान करूंगा नई किताब का।
यह बात ही चलती थी कि सींखचों के भीतर से एक दूसरा आदमी चिल्लाया कि यह आदमी बिलकुल गलत कह रहा है।।एक और आदमी बंद था सींखचों के भीतर, वह चिल्लाया कि यह आदमी बिलकुल गलत कह रहा है। मैं खुद परमात्मा हूं। मैंने मोहम्मद के बाद किसी को भेजा ही नहीं, इसको तो मैंने देखा ही नहीं आंख से। ये सज्जन और एक महीने पहले बंद किए गए थे। इसको भगवान होने का ही खयाल पैदा हो गया है!
हमारा चित्त, हमारा अहंकार क्या-क्या रूप ले सकता है, इसका कोई हिसाब नहीं। क्या-क्या रूप ले सकता है, इसका कोई हिसाब नहीं है। मैं तीर्थंकर हूं, मैं हूं भगवान, मैं हूं ईश्वर का पुत्र, ये पागलपन की स्थितियां हैं, और कुछ भी नहीं हैं। कोई दूसरा कहे तब तो ठीक है, लेकिन मैं खुद इसकी घोषणाएं करूं तो बड़ा पागलपन हो जाता है। आप इसकी घोषणाएं करें, आप पागल हैं। अगर दुनिया किसी दिन स्वस्थ होगी तो ऐसे लोगों की हम पूजा नहीं इलाज करेंगे। इनके लिए हम मंदिर नहीं बनाएंगे, इनके लिए चिकित्सालय बनाएंगे। इनका इलाज होना चाहिए। ये परेशान, पीड़ित, अहंकार की अंतिम स्थिति में पहुंचे हुए लोग हैं।
जब किसी को सत्य का अनुभव होता है तो उसे ऐसा अनुभव नहीं होता है कि मैं परमात्मा हूं, उसे अनुभव होता है कि जो भी है, सब परमात्मा है। ‘मैं’ का तो खयाल ही मिट जाता है। ‘मैं’ का तो बिंदु ही टूट जाता है। उसे तो लगता है, सब परमात्मा है। उसे तो लगता है, जो भी है, सब परमात्मा है। उसे तो भेद नहीं रह जाता कि परमात्मा के अतिरिक्त और भी कुछ है, यह दिखाई नहीं पड़ता। उसे यह कैसे दिखाई पड़ेगा कि मैं परमात्मा हूं और तुम मेरी पूजा करो, तुमको मैं ले चलूंगा आगे, मोक्ष पहुंचा दूंगा! तो तुम कौन हो, अगर मैं परमात्मा हूं? जिसको परमात्मा का बोध होता है उसे दिखाई पड़ता है कि परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। तो वह किसकी मूर्ति बनाने को कहेगा, और किसकी पूजा करने को कहेगा?
एक बात ध्यान में रखना जरूरी है कि सत्य की कोई सीमा नहीं है, प्रभु की कोई सीमा नहीं है। तो जहां-जहां सीमा हो, वहां जानना कि मनुष्य का ईजाद है। मनुष्य की खोज, मनुष्य की खोज मनुष्य की सृष्टि है। और अगर असीम को पाना हो तो सीमाएं छोड़ देनी पड़ेंगी, सीमाओं से ऊपर उठ जाना पड़ेगा। सीमाएं बाधा हैं। उनको जो छोड़ेगा वही ऊपर उठ सकता है, और असीम के साथ एक हो सकता है।
और इस तरह के लोगों से भी सावधान, और अपने भीतर भी इस वृत्ति से सावधान रहना। अहंकार बड़े सूक्ष्म रूप लेता है और घोषणाएं करता है। ये सब अहंकार की ही स्थितियां हैं, इससे ज्यादा नहीं। यह ध्यान में रहे कि सीमित से, साकार से बंध नहीं जाना है चित्त को बांध नहीं लेना है। बस इतना ध्यान में रहे। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आप जाकर मूर्तियां तोड़ने लगें और मंदिरों में जाकर आग लगाने लगें क्योंकि यह भी सीमित की ही फिर पूजा शुरू हो गई। चाहे आग लगातें हों तो भी सीमित की ही पूजा शुरू हो गई है। आपको क्या परेशानी हो गई है? आपको सीमित से ऊपर उठना है, मूर्ति बनाने से भी उठना है, मूर्ति तोड़ने से भी उठना है। एक ऐसा मनुष्य चाहिए, एक ऐसा चित्त चाहिए जो सब भांति मूर्ति के ऊपर उठ जाए, सीमा के ऊपर उठ जाए, न वह मूर्ति बनाने वाला हो, न तोड़ने वाला हो। तो।।तो शायद, अमूर्त जो है, वह जो सबमें फैला हुआ अमूर्त और निराकार है उसकी प्रतीति और अहसास हो सकेगा। उसके संबंध में आज रात थोड़ी बात और आपसे करूंगा।
एक-दो छोटे प्रश्नों के और उत्तर।

एक मित्र ने पूछा हैः पुनरुक्ति से मूर्छा आती है, तो नाम स्मरण से भी तो मूच्र्छा आएगी?

निश्चित आएगी। और नाम स्मरण का उपयोग मूच्र्छा के लिए किया ही जाता है। आदमी बहुत दुखी और परेशान है। आदमी बहुत पीड़ित और चिंतित है। उसका चित्त बहुत बेचैन है। बहुत टेंस, तनाव से भरा हुआ है। यह जो दुख की और तनाव की स्थिति है, इससे बचने के दो उपाय उसे दिखाई पड़ते हैं। एक उपाय तो यह है कि किसी भांति इसे भूला जा सके। तो वह सिनेमा देखता है तीन घंटे तक और भूल जाता है तीन घंटे के लिए। डूब जाता है कहीं, तन्मय हो जाता है, फिल्म को देखने में भूल जाता है। तीन घंटे के बाद फिर दुख आपस लौट आता है तो वह सोचता है कि कल और सिनेमा देखेंगे। मेटनी शो भी देख लें। एक आदमी बेचैन है, परेशान है, नशा कर लेता है, शराब पी लेता है। शराब पी लेता है, जब तक बेहोश रहता है, भूला रहता है। फिर होश में आ जाता है, फिर चिंता और दुख लौट आते हैं। सेक्स है, शराब है, संगीत है।।एक आदमी संगीत सुनने में चला जाता है। सिर हिलाने लगता है, भूल जाता है।
एक घटना मुझे स्मरण में आती है। लखनऊ में नवाब था। नवाब अकसर ही पागल होते हैं। होना स्वाभाविक है क्योंकि जो पागल नहीं होता है वह नवाब होना ही नहीं चाहता है। वह भी पागल था। एक संगीतज्ञ उसके दरबार में आया। उसकी बड़ी ख्याति थी, उस संगीतज्ञ की। लेकिन वह संगीतज्ञ भी अपने ही तरह का अनूठा आदमी था। सितार बजाता था तो कोई शर्त पहले रख लेता था। उसने बड़ी अजीब शर्त लखनऊ के दरबार में रखी। उसने कहा कि मैं बजाऊंगा सितार, लेकिन सुनने वालों में से किसी का सिर नहीं हिलना चाहिए। अगर सिर हिला तो मैं फौरन बजाना बंद कर दूंगा। नवाब तो था वाजिद अली, उसने कहाः तुम बेफिकर रहो। सिर हिलने की बात कहते हो? बंद करने की कोई जरूरत नहीं, हम सिर ही अगल करवा देंगे। तुम डरते क्या हो? जो सिर हिलेगा, उसको ही हम अलग करवा देंगे। तुम अपना बजाना जारी रखना, इसकी फिकर मत करना।
लखनऊ में उसने खबर पिटवा दी कि जो लोग सुनने आएं, सोच समझ कर आएं क्योंकि जिसने भी सिर हिलाया, उसका सिर कटवा देंगे। वह सिर लिए हुए वापस नहीं लौटेगा। वैसे तो हजारों लोग आते। फिर गांव जो बहुत ही अति संयमी रहे होंगे वही थोड़े से सौ पचास लोग आए। वे बिलकुल योगासन साध कर बैठ गए होंगे सौ पचास लोग। किसी भांति हिलना खतरनाक है। भूल से भी मक्खी उड़ाने के लिए भी हिल जाओ तो झंझट हो जाएगी।
सितार शुरू हुआ। घड़ी बीती, दो घड़ी बीती, लोग मूर्तियां बने बैठे रहे। रात आधी होने को आई, सितार अपनी पूरी गहराई में आया होगा। कुछ सिर हिलने शुरू हो गए। कोई पंद्रह-बीस सिर हिलने लगे। नवाब ने आदमी लगा रखा था कि नोट कर लेना कि कौन-कौन सिर हिलते थे। सुबह होते-होते संगीत पूरा हुआ। पंद्रह आदमी पकड़ कर सामने खड़े कर दिए गए संगीतज्ञ के। और नवाब ने कहाः इनके सिर कटवा दूं? संगीतज्ञ ने कहा कि नहीं, सिर कटवाने की जरूरत नहीं। कल मैं केवल इन्हीं लोगों के सामने बजाऊंगा, और कोई नहीं आ सकता है। नवाब ने उन लोगों से पूछा कि तुम कैसे पागल हो। जब मरने का पता था तो सिर क्यों हिलाया? उन लोगों ने कहाः जब तक हमें होश था तब तक हमने नहीं हिलाया। लेकिन जब हमें होश ही नहीं रहा तो सिर के हिलाने की जिम्मेवारी हमारे ऊपर ही नहीं रही। जब तक हम थे, तब तक सिर नहीं हिला, जब हम नहीं रहे, अब फिर उसके बाबत हम कुछ कह ही नहीं सकते। जो कुछ हुआ, हुआ।
ये पंद्रह लोग डूब गए बेहोशी में। इन्हें यह भी पता नहीं रहा कि हम हैं। अगर इन्हें यह पता रहता कि हम हैं तो सिर नहीं हिल सकता था। संगीतज्ञ भी बेहोशी लाता है, शराब भी बेहोशी लाती है, सेक्स भी बेहोशी लाता है। और हजार रास्ते हैं। आदमी अपने को भुलाने का उपाय करता है कि किसी भांति जो उसके चित्त की पीड़ा है, वह भूल जाए। उन्हीं उपायों में कुछ उपाय गैर-धार्मिक हैं, कुछ उपाय धार्मिक हैं। कुछ इररिलीजियस मेथड हैं, कुछ रिलीजियस मेथड हैं।
नाम-स्मरण, मंत्र, पाठ, पूजा, प्रार्थना, भजन, इसी तरह के उपाय हैं, जो धार्मिक उपाय हैं भूलने के। खुद को भूलने के धार्मिक उपाय हैं। इनमें और इंटाक्सिकेंट में, इनमें और नशे की चीजों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। इन दोनों से एक ही का काम होता है भीतर जाकर। आदमी थोड़ी देर को अपने को भूल जाता है। और धर्म का भूलने से कोई संबंध नहीं है। धर्म का संबंध है कि आदमी पूरी तरह से अपने को जान ले और ये सारे उपाय हैं इस बात के लिए कि आदमी किसी भांति अपने को भूल जाए। ये दोनों बिलकुल विरोधी दिशाएं हैं। धर्म का संबंध सेल्फ रिमेंबरिंग से है। आदमी को आत्म स्मृति आ जाए। और इन सब उपायों का संबंध सेल्फ फॉरगेटफुलनेस से है, आदमी किसी भांति अपने को भूल जाए। भूलने के सब उपाय नशे हैं।
और किसी भी शब्द के निरंतर पुनरुक्ति से मूच्र्छा पैदा हो जाती है। कोई भी शब्द उपयोग करें, आपको मूच्र्छा पैदा हो जाएगी। यह कोई जरूरी नहीं है कि राम का ही नाम लें। राम को ज्यादा परेशान करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अगर आप कुर्सी-कुर्सी भी कहते रहें तो भी काम चल जाएगा। कोई राम के नाम पर दोष देने की जरूरत नहीं है। उन पर बेचारों पर रिस्पांसिबिलिटी थोपने का कोई कारण भी नहीं है। आप कोई भी शब्द चुन लें।।इसीलिए तो दुनियां के अलग-अलग धर्म अलग शब्द चुन लेते हैं, सभी से काम चल जाता है। ‘क्राइस्ट-क्राइस्ट’ कहते रहें, ‘अल्लाह-अल्लाह’ कहते रहें तो काम चल जाएगा। ‘ओम-ओम’ कहते रहें तो काम चल जाएगा। ‘ए बी सी डी, ए बी सी डी’ कहते रहें तो काम चल जाएगा। ‘एक दो तीन, एक दो तीन’ कहते रहें तो काम चल जाएगा। फर्क नहीं है, मेकेनिज्म दिमाग का यह काम करता है कि कोई भी शब्द को बार-बार दोहराया जाए तो तंद्रा पैदा हो जाती है, स्लीपलेसनेस पैदा हो जाती है। नींद पैदा हो जाती है। कोई भी शब्द का उपयोग कर लें। उस नींद में, उस तंद्रा मे अच्छा लगेगा। अगर रात अच्छी नींद आ जाए, सुबह अच्छा लगता है। क्योंकि निद्रा में सब कुछ भूल जाता है आदमी। सुबह ताजगी मालूम होने लगती है।
तो अगर आप किसी शब्द को दोहरा कर नींद में चले जाएं तो उसके बाद आपको अच्छा लगेगा। आप कहेंगे, देखो भगवान के नाम का कितना मजा आ रहा है, कितना आनंद आ रहा है। यह भगवान के नाम का आनंद नहीं है। भगवान का तो कोई नाम ही नहीं है। भगवान का नाम आप लेंगे कैसे? भगवान के कोई पिता नहीं हैं जो उनका नाम याद रख दें। भगवान का कोई नाम नहीं है। आप नाम लेंगे कैसे? आप ही होशियार हैं, आप ही नाम रख लेते हैं, आप ही नाम दोहराते हैं। और रिपीटीशन से, बोर्डम पैदा होती है, नींद आ जाती है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। अगर आप एक ही रिकॉर्ड को रोज-रोज लगा कर कई दफे सुनें तो रिकार्ड आपका वही काम करने लगेगा। अगर हम आपको एक फिल्म दिखाने ले जाएं आज, तो आज आप जागे रहेंगे। कल भी ले जाएं, कल आप इतने जागे न रहेंगे। परसों भी ले जाएं, तो आप इनकार करने लगेंगे कि क्षमा करिए, अब मैं नहीं जाना चाहता हूं। लेकिन अगर हम आपको महीने भर लेते चले जाएं तो क्या आप सोचते हैं कि महीने भर बाद भी आप उस फिल्म में जागे रहेंगे? आप खर्राटे लेंगे। वहीं सोएंगे मजे से। और अगर न सोएंगे तो पागल हो जाएंगे। एक महीने तक अगर वही-वही फिल्म देखनी पड़े और सो भी न सकें तो दिमाग खराब हो जाएगा कि यह क्या हो रहा है!
तो राम-राम अगर आप जपते हैं तो या तो आप सो जाएंगे; और अगर न सो पाएं तो परेशान हो जाएंगे, और पागल हो जाएंगे। दो ही रास्ते हैं। इसलिए कई साधु आपको पागल होते दिख जाते हैं, तो यह मत समझना कि भगवान के उन्माद में पागल हो रहे हैं। यह शब्दों की निरंतर पुनरुक्ति से पागलपन पैदा होता है। और या नींद आ जाती है। दोनों बातें खतरनाक हैं। विक्षिप्त हो जाएं तो भी खतरनाक है, सुषुप्ति आ जाए तो भी खतरनाक है।
फिर रास्ता क्या है? फिर मार्ग क्या है? मार्ग सोना नहीं है, मार्ग भूल जाना नहीं है, मार्ग तन्मय हो जाना नहीं है, मार्ग जागरुक होना है। होश से भरना है। खुद के आत्मस्मरण से भरना है। इसकी बात हम रात और कल सुबह करेंगे कि कैसे आत्मस्मरण से भर सकते हैं। लेकिन एक बात निश्चित समझ लें।।भूलना धर्म नहीं है।
उन मुल्कों को देखें जो राम-राम जपते भजते रहे, और दीन होते चले गए। गुलामी है तो राम-राम जपतेे रहे और गुलाम हो गए। उन कौमों की हालतें देखिए जिन्होंने भूलने की कोशिश की। वे कहां जमीन पर? उनकी हालतें क्या हैं? लेकिन जितनी हालतें बिगड़ती हैं वह और ज्यादा हाथ जोड़ कर राम-राम जपने लगते हैं कि अब भगवान कुछ कृपा करें तो अपनी ये हालतें ठीक हों। और उनको पता नहीं है कि इसी जप से ये हालतें हो गई हैं। एक विसियस सर्किल पैदा हो गया है। जिस नासमझी से परिणाम बिगड़े हैं उसी नासमझी को इलाज समझ रहे हैं और काम जारी है।
मैं आपको कहता हूं, अगर व्यक्ति अपने को भूल जाए तो उसका जीवन नष्ट हो जाता है। कौम अपने को भूल जाए तो उसका जीवन नष्ट हो जाता है। सवाल भूलने का नहीं, सवाल जागने का, पूरी तरह सचेतन, पूरी अवेयरनेस, पूरी कांसशनेस पाने का है। जितना व्यक्ति चेतन होता चला जाता है, दुख को भूलना नहीं पड़ता है, दुख मिट जाता है। दुख मिटना चाहिए, दुख भूलना नहीं चाहिए। जितना आत्म-बोध गहरा होता है, दुख मिटता है, भूलता नहीं। दुख विलीन होता है, नष्ट होता है। एक घड़ी आती है, दुख नहीं रह जाता। यह बात और है। दुख भूल जाए यह बात और है, दुख न रह जाए, यह बात और है। लेकिन भूल जाने को कोई समझ ले कि नहीं रह गया दुख तो वह गलती में है; तो वह आत्मवंचना में है। सेल्फ डिसेप्शन है।
तो मैं भूलने को नहीं कहता हूं, पूरी तरह जागने को, होश से भरने को कहता हूं। उसके संबंध में आगे बात करेंगे।
और बहुत से प्रश्न हैं, कल सुबह उस प्रश्नों पर चर्चा हो सकेगी। फिर भी हो सकता है कि बहुत से प्रश्नों के उत्तर न हो पाएं। एक मित्र ने दो पन्नों में प्रश्न लिखा है और ऊपर लिखा है, संक्षिप्त में उत्तर दे दीजिए। बड़ा मुश्किल है, दो पन्ने में प्रश्न आप लिखते हैं और मुझसे उत्तर संक्षिप्त मांगते हैं। इतनी तो कृपा करनी ही चाहिए कि जितना प्रश्न है कम से कम उतना तो उत्तर होना ही पड़ेगा!
एक बार ऐसा हुआ, गांधी जी से मिलने एक व्यक्ति गया। गांधी जी से उसने समय मांगा तो उन्होंने पूछा कि कितना चाहते हैं? तो उसने कहाः दस मिनट। वह मिलने गया, दस मिनट वह प्रश्न ही पूछता रहा। जब दस मिनट खत्म हो गए तो गांधी जी ने उससे कहा कि दस मिनट में तुमने प्रश्न ही पूछा, उत्तर के लिए क्या होगा? और गांधी ने उस मित्र को कहा कि दस मिनट जिसको प्रश्न पूछने में लग जाते हैं, जहां तक अंदाज यही है कि उसे पता नहीं है कि वह क्या पूछना चाहता है? तो तुम पहले ठीक से तय करके आओ क्योंकि मैं अभी यही नहीं समझ पाया कि तुम क्या पूछना चाहते हो? तुम पहले ठीक से तय करके आओ कि क्या पूछना चाहते हो, फिर आना। और अब दस मिनट समय मांगो तो कम से कम दो मिनट में पूछ लेना और आठ मिनट मुझे भी छोड़ना। वह आदमी गया, वह दुबारा लौट कर नहीं आया। क्योंकि जितना उसने सोचा होगा प्रश्न और लंबा होता गया होगा। यही हुआ होगा, इसलिए वह कभी नहीं लौटा।
तो यह हो सकता है कि आपके बहुत लंबे-लंबे प्रश्नों के उत्तर मैं न दे पाऊं, लेकिन एक बात अगर खयाल में रखेंगे तो मेरे उत्तर देने की कोई जरूरत नहीं है। इन तीन दिनों में अगर मेरा दृष्टि-बिंदु, मेरा एंगल ऑफ वि.जन आपको खयाल में आ जाए तो मैं क्या उत्तर दूंगा, यह आप भी सोच सकते हैं। अब जैसे, और मैं जो दूसरे उत्तर दे रहा हूं, बहुत प्रश्नों के उत्तर उनमें आ जाएंगे। लेकिन हर आदमी को ऐसा मोह होता है कि मेरे प्रश्न का उत्तर होना चाहिए। चाहे हम हजार प्रश्नों के उत्तर दे दें, उसके प्रश्न का अगर उत्तर न हो पाए तो वह बड़ा असंतुष्ट लौट जाएगा। उसके अहंकार को बड़ा धक्का लगता है कि मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं हो पाया? मेरा प्रश्न! लेकिन मैं कोशिश यह कर रहा हूं।।सीधे चाहे उन प्रश्नों के उत्तर न भी हो पाएं, लेकिन उनके उत्तर मैंने दिए हैं।
 जैसे अब एक मित्र ने पूछा है कि क्या कभी आपने ईश्वर से बातचीत की है? आपको ईश्वर से मिलना हुआ? अब मैं क्या कहूं! अगर कोई आपसे कहता हो, मेरी ईश्वर से बातचीत होती है तो समझ लेना, उसका इलाज करवाना एकदम जरूरी हो गया है। वह आदमी पागल है। ईश्वर से मिलना कैसे हो सकता है? ईश्वर कोई आदमी है कि आप गए और मिल लिए?
एक छोटी सी घटना।।और आज की सुबह की चर्चा मैं पूरी करूंगा।
एक भारतीय युवक, संन्यासी हो गया था। वह सारी दुनिया घूम कर हिंदुस्तान वापस आया। वह एक छोटी सी रियासत में मेहमान हुआ। उस रियासत का राजा सुबह ही सुबह आया और उसने उस युवा संन्यासी को कहा कि मैं ईश्वर से मिलना चाहता हूं। मिलवा सकते हैं? उस राजा ने यह प्रश्न न मालूम कितने संन्यासियों से पूछा था कि मैं ईश्वर से मिलना चाहता हूं, मिलवा सकते हैं? अब कोई कैसे मिलवाता? तो बेचारे संन्यासी उपनिषद और वेदों के वचन निकाल-निकाल कर समझाने की कोशिश करते थे, लेकिन वह कहता था कि मैं मिलना चाहता हूं। ये बातें छोड़िए। बातचीत से क्या होगा? मुझे मिलवाइए। मिलवाता कौन है? इस युवक से भी आकर वही प्रश्न पूछा, एक ही प्रश्न था उसका, हमेशा वही पूछता रहा था। उसने पूछा कि मुझे ईश्वर से मिलवा दे सकते हैं? उस संन्यासी ने कहाः अभी मिलेंगे या थोड़ी देर ठहर सकते हैं?
वह राजा थोड़ा हैरान हुआ। हालांकि पूछता यही था लेकिन यह कभी न सोचा था कि कोई ऐसा भी मिल जाएगा जो कहेगा कि अभी मिल सकते हैं या थोड़ी देर ठहर सकते हैं। यह कभी उसने सोचा भी नहीं था कि इतनी जल्दी मिलने को मैं खुद भी राजी हूं कि नहीं? उसे थोड़ा शक हुआ। उसे अपने पर तो शक नहीं हुआ कि मैं पागल हूं. जो ऐसा प्रश्न पूछता हूं। उसे इस संन्यासी पर शक हुआ कि यह पागल तो नहीं है? सोचा कि शायद यह कुछ गलत तो नहीं समझ गया? कोई ईश्वर नाम के आदमी के बाबत तो नहीं समझ गया? क्योंकि कई लोग ऐसे भी हैं कि ईश्वर नाम रख लेते हैं। उसके गांव में भी ऐसे दो-चार तो होंगे ही, जिन्होंने ईश्वर नाम रख लिया होगा। कोई पान की दुकान करते होंगे, कोई कपड़े की दुकान करते होंगे, कोई डाक्टर हो गए होंगे। कुछ न कुछ, कई ईश्वर नाम के आदमी होंगे। उसने सोचा, कुछ भूल हो गई होगी। तो उसने पूछाः स्वामी जी, आप गलती कर रहे हैं, मालूम होता है। मैं किसी ईश्वर नाम के आदमी से नहीं मिलना चाहता हूं, मैं ऊपर वाले ईश्वर से मिलने की बात कर रहा हूं।
 उस संन्यासी ने कहाः बिलकुल बेफिकर रहो। गलती मुझसे भी हो सकती थी। अगर तुम ईश्वर वाले किसी आदमी से मिलना चाहते होते, तो मुझसे भूल हो सकती थी कि कहीं तुम ऊपर वाले से तो नहीं मिलना चाह रहे हो? ऐसी भूल मुझसे नहीं हो सकती, क्योंकि मेरा धंधा ही ईश्वर से मिलाने का है। यह तो मेरा प्रोफेशन है। तुम अच्छे आ गए, हम तो इसी खोज में फिरते हैं कि कोई मिलने वाला मिल जाए तो दिखा दें। तुम सुबह-सुबह अपने आप चले आए, यह बहुत अच्छा हुआ। राजा थोड़ा घबड़ाया कि यह तो गड़बड़ है। उस राजा ने पूछाः एकांत में मिलवाइएगा कि सबके सामने? एकांत में और डर हो सकता था ऐसे पागल आदमी से। क्या करे अकेले में! संन्यासी ने कहाः मिलना तो एकांत में ही पड़ेगा। आप अपने मय दरबार के वहां नहीं जा सकते। आज तक कोई भगवान से मिलने मय मित्रों के नहीं गया है। आप अपने पत्नी-बच्चों को भी नहीं ले जा सकते। अकेले ही मिलना पड़ेगा।
राजा ने कहाः तो फिर जरा मैं सोच कर आता हूं। यह झंझट की बात है। लेकिन उस संन्यासी ने कहाः सोच कर आप बाद में आना, पहले आप एक बात तो सुन लो, कंडीशन तो सुन लो। मिल तो सकते हो, लेकिन पहले मिलने की पात्रता का सवाल है। राजा तब निश्चिंत हुआ कि पात्रता का सवाल है, तब बात समझ ली जाए। उसने कहाः क्या पात्रता है? संन्यासी ने कहाः बहुत छोटी सी बात है। एक कागज पर लिख के दे दें कि आप कौन हैं, तो यह परमात्मा तक पहुंचा दूं। फिर वे मिलने का वक्त दे देंगे, अपाइंटमेंट हो जाएगा, उस संन्यासी ने कहा। राजा ने कहाः यह तो ठीक है, मैं भी किसी से मिलता हूं तो पहले लिखवा लेता हूं , कौन हो, क्या हो? क्योंकि मिलने में खयाल रखना पड़ता है। कोई ऐरे-गैरे फालतू आदमी आ जाएं तो खिसका भी देते हैं। संन्यासी ने कहाः इसके मामले में तो बिलकुल बेफिकर रहो। तुम राजा हो, भगवान इतना तो खयाल रखता ही होगा कि राजा है, इससे मिलें। उसने अपना पता लिख दिया, अपना नाम लिख दिया कि कौन-कौन बहादुर सिंह, क्या-क्या है, उसने लिख दिया। कौन से महल में रहता है, वह लिख दिया। किस स्टेट का राजा है, वह लिख दिया, और दिया। उस संन्यासी ने कहाः यह पता तो बिलकुल झूठा मालूम पड़ता है। इसकी जांच-परख करनी पड़े, तभी मिलवाया जा सकता है। यह नाम सच्चा नहीं मालूम पड़ता।
उस राजा ने कहाः यह फिजूल की बातें कर रहे हो? मुझे पहले शक हो गया था जब तुमने भगवान से मिलाने की बात कही थी। कौन कह सकता है कि मेरा नाम झूठा है? यह पूरी बस्ती मुझे जानती है, मेरी राजधानी है। किसी को भी बुला कर पूछ लो। उसने कहाः किसी को बुलाने की पूछने की जरूरत नहीं है। तुमसे ही पूछूंगा। अगर तुम्हारा नाम बदल दिया जाए तो तुम बदल जाओगे? या तुम्हारे मां-बाप दूसरा नाम दे देते तो तुम दूसरे हो जाते? उस राजा ने कहाः नाम बदलने से क्या फर्क पड़ता था? मैं तो मैं ही रहता, चाहे नाम बदल दिया जाए। उस संन्यासी ने कहाः जब नाम बदलने से तुममें कोई फर्क नहीं पड़ता तो तुम अलग हो और नाम अलग है। तो फिर यह कहना कि यह नाम मैं हूं, एकदम गलत बात है। और उस संन्यासी ने कहाः आज तुम राजा हो, कल भिखारी हो जाओ, तो बदल जाओगे? राजा ने कहा कि नहीं, भिखारी रह कर भी मैं तो मैं ही रहूंगा। राज-पाट चला जाएगा, धन-दौलत चली जाएगी, लेकिन मैं तो मैं ही रहूंगा। उस संन्यासी ने कहाः फिर यह भी मत कहो परिचय में कि मैं राजा हूं। यह भी एसेंशियल नहीं है। यह भी जरूरी नहीं है परिचय का हिस्सा। नॉन-एसेंशियल है। भिखारी भी हो सकते हो, तब भी तुम रहोगे। अभी तुम जवान हो, कल बूढ़े हो जाओगे। तुमने अपनी उम्र क्यों लिखी है इसमें? क्या बूढ़े होकर तुम बदल जाओगे? राजा ने कहाः नहीं, बूढ़ा होकर तो मै, मैं ही रहूंगा। उम्र बदल जाएगी, शरीर बदल जाएगा, लेकिन मैं? मैं तो जो बचपन में था, वही जवानी में, वही बूढ़ापे में रहूंगा।
जब संन्यासी ने कहाः फिर यह भी गैर-जरूरी बात है। न तुम्हारे नाम से तुम्हारा कोई संबंध है, न तुम्हारे राज्य से, न तुम्हारी उम्र से, न तुम्हारे शरीर से। फिर तुम कौन हो? वह राजा बोलाः अगर यह सब मैं नहीं हूं तो फिर मैं कौन हूं, यह तो मुझे ही पता नहीं। तो उस संन्यासी ने कहाः जिसे यह भी पता नहीं है कि मैं कौन हूं, वह ईश्वर से मिलने निकल पड़ा है तो नासमझ है या नहीं? तो तुम कृपा करो, पहले यह तो पता लगा लो कि तुम कौन हो, फिर ईश्वर की फिक्र करना। ईश्वर को उस पर छोड़ दो। अभी तुम अपना ही पता लगा लो। और जाते वक्त उस संन्यासी ने कहाः एक बात तुम्हें याद दिलाए देता हूं, जिस दिन तुम यह जान लोगे कि तुम कौन हो उसी दिन तुम यह भी जान लोगे कि परमत्मा क्या है?
परमात्मा स्वयं से पृथक नहीं है कि आप उसका दर्शन कर लेंगे, हाथ मिलाएंगे, इंटरव्यू लेंगे। आपसे अलग नहीं है वह, जो आप उससे बातचीत करेंगे। नहीं, इसलिए आपके सीखे हुए डायलॉग कोई भी काम न आएंगे। और आपने सीखा हो कि हाथ जोड़ कर, घुटने टेक कर खड़े हो जाएंगे भगवान के सामने कि हे परमपिता, हे पतितपावन! यह कोई काम न आएगा। क्योंकि वहां कोई है ही नहीं आपके अलावा, जिससे आप यह बातें कर सकेंगे। परमात्मा तो सबके भीतर छिपा हुआ प्राण है। परमात्मा तो सब के भीतर छिपा हुआ जीवन है। परमात्मा तो अस्तित्व है। यह जो एक्झिस्टेंस है यही परमात्मा है। इससे अलग कोई और परमात्मा नहीं है। जो है, वही परमात्मा है। और उसे जानने के लिए, परमात्मा को खोजने के लिए नहीं जाना पड़ता, खुद को जान लेना पड़ता है।
जो स्वयं को जानता है वह सत्य को जान लेता है, सर्व को जान लेता है, वही परम परमात्मा है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

इंदौर, दिनांक 7 मई, 1967, प्रातःकाल।


  

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