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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

आंखों देखी सांच-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(छाया जगत का बोध)

15-9-1966 बिड़ला केंद्र मुम्बई ।
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा प्रारंभ करना चाहूंगा।
कहानियों से मुझे कुछ प्रेम है, इसलिए कि आदमी का जीवन भी कहानी से ज्यादा नहीं है और इसलिए उचित है कि मनुष्य के जीवन के संबंध में विचार किसी कहानी से शुरू हो।
मैंने सुना है, ईश्वर एक बार किसी देवता से बहुत नाराज हो गया। उस देवता को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया गया दंड के स्वरूप, और साथ ही सजा दी गई...देखने में सजा बहुत छोटी थी, और हमें भी लगेगा कि यह भी क्या कोई सजा है? उस देवता को भी लगा कि यह सजा नहीं है। वह प्रसन्नता से सजा को झेलने को तैयार हो गया। सजा थी कि उस देवता का, जहां भी वह चले, उठे, बैठे, उसकी कोई छाया नहीं पड़ेगी। अब यह कोई सजा न हुई, यह कोई दंड न हुआ। आपकी अगर छाया न पड़े तो इसमें कौन सी बड़ी सजा हो गई? वह देवता स्वर्ग से निकाल दिया गया। जमीन पर आया। धूप में चलता था, उसकी छाया नहीं बनती थी। सोचा इसमें क्या कठिनाई है?


लेकिन धीरे-धीरे कठिनाइयां आनी शुरू हो गई, लोगों ने देखा कि उस व्यक्ति की छाया नहीं बनती है, लोग उससे डरने लगे और दूर भागने लगे। वह जिस दूकान पर जाता उस दूकान के दरवाजे बंद हो जाते। जिस मकान पर जाता, मकान के लोग अंदर छिप जाते, द्वार बंद कर लेते। उससे कोई मिलना न चाहता, उसके पास कोई आना न चाहता, उससे लोग छूत की बीमारी की तरह बचने का प्रयास करते। और धीरे-धीरे उसे अनुभव हुआ कि यह दंड तो बड़ा है, उसका जीवन मुश्किल हो गया। उस व्यक्ति की छाया नहीं पड़ती थी। धीरे-धीरे उसे कठिनाई अनुभव हुई। उसका जीवन मुश्किल हो गया। ऐसा कोई बड़ा कसूर न था, कोई अपराध न था लेकिन जिसकी छाया न पड़ती हो, वह आदमी साधारण न मालूम होता था। लोग समझने लगे, प्रेत है, भूत है, क्या है! जिस गांव से निकलता उस गांव के लोग उसे खदेड़ कर बाहर कर देते। उसे भोजन मिलना, पानी मिलना मुश्किल हो गया। जब सारे लोग सो जाते, अंधेरे में रात में कुओं पर जाकर वह पानी पी लेता। रात्रि में चोरी से लोगों के घरों में घुस कर भोजन कर लेता। उसका जीवन एक नरक हो गया।
यह कहानी आपसे कही, बिल्कुल काल्पनिक है। कोई कहीं ईश्वर इस भांति का नहीं है कि किसी को दंड दे। न ही ऐसा कभी हुआ होगा, लेकिन किसी और प्रयोजन से यह बात मैंने आपसे कही है। यह मैंने इस ख्याल से आपसे कही है कि अगर आपकी छाया खो जाए तो आपका जीवन कष्ट में पड़ जाएगा। लेकिन अगर आपकी आत्मा ही खो जाए तो फिर कष्टों का अंत नहीं होगा। छाया खोने भर से जीवन नरक और पीड़ा बन सकता है और आत्मा ही खो जाए तो फिर कल्पना भी करनी कठिन है कि हम किन पीड़ाओं में नहीं पड़ जाएंगे।
उस व्यक्ति की छाया खो गई थी, और हम सारे लोग की आत्मा खो गई है। हमारी छाया तो बनती है..अगर ठीक से कहें तो हमारे केवल छाया ही बनती है और हमारे भीतर कुछ भी नहीं है। हम चलते हैं, उठते हैं, काम करते हैं, जीते हैं और यह सारा का सारा उपक्रम एक छाया एक शैडो से ज्यादा अर्थपूर्ण नहीं है। इसके भीतर कोई सत्व, कोई सारभूत आत्मा का न तो हमें अनुभव होता है और न हमारे जीवन में उसका प्रतिफलन होता है। और न हमारे जीवन में उसका प्रकाश फैलता है। छाया का जीवन है। इस छाया के जीवन पर हम इधर इन तीन दिनों में विचार करेंगे और इस पर भी विचार करेंगे इस पर भी विचार करेंगे कि छाया का जीवन आत्मा के जीवन में कैसे परिणत हो सकता है? यह जो शैडो लाइफ है, यह जो छाया जैसा जीवन है, यह वास्तविक और आत्मिक जीवन में कैसे बदला जा सकता है, इसके बाबत विचार करेंगे।
छाया के जीवन से मेरा क्या अर्थ है, वह मैं आपको कहूं।
बहुत समय पहले, च्वांग्त्सु नाम का एक विचारक हुआ। एक रात्रि में, एक झोपड़े के पास निकलता था। उसके भीतर..एक प्रेमी और प्रेयसी की बातें चलती थीं, उनको झोपड़े के बाहर से अचानक सुन लिया। वह प्रेयसी अपने प्रेमी को कहती थी कि तुम्हारे बिना मैं एक क्षण भी नहीं जी सकती हूं। तुम्हारा होना ही मेरा जीवन है। च्वांग्त्सु मन में सोचने लगा, किसी का जीवन किसी दूसरे के होने में कैसे हो सकता है? अगर मैं आपसे कहूं कि आपके होने में ही मेरा जीवन है, और अगर मेरा कोई जीवन होगा तो वह छाया का जीवन होगा कि क्योंकि आपके होने में मेरा जीवन कैसे हो सकता है? जो लोग भी अपने जीवन को किसी और में रख देते हैं, वे लोग छाया का जीवन जीते हैं..चाहे धन में, चाहे यश में, चाहे मित्रों में, चाहे प्रियजनों में। जो दूसरों में अपने जीवन को रख देता है उसका खुद का जीवन छाया का जीवन हो जाता है। उसका जीवन वास्तविक नहीं हो सकता। उसका जीवन झूठा होगा। जैसे कोई वृक्ष कहे किसी दूसरे वृक्ष से कि तुम्हारी जड़ें ही मेरी जड़ें हैं और अपनी जड़ों को भूल जाए, तो यह वृक्ष थोड़े ही दिनों में कुम्हला जाएगा, मुर्झा जाएगा और सूख जाएगा। क्योंकि दूसरे की जड़ें दूसरे की ही होंगी, इस वृक्ष की नहीं हो सकेंगी। च्वांग्त्सु ने लौट कर अपने शिष्यों को कहा कि आज मैंने एक अदभुत सत्य अचानक सुन लिया है। एक प्रेयसी अपने प्रेमी को कहती थी, तुम्हारे होने में मेरा जीवन है। जहां-जहां कोई व्यक्ति यह कहता हो कि फलां चीज के होने में मेरा जीवन है, वहीं जानना कि जीवन असत्य है और झूठा है। जीवन अपने होने में होता है, किसी और के होने में संभव नहीं है।
फिर और भी आश्चर्यजनक बात घटी..कुछ समय बीत जाने के बाद च्वांग्त्से एक पहाड़ के करीब से गुजरता था और उसने एक स्त्री को एक कब्र के पास बैठे हुए देखा। यह तो कोई अनहोनी बात न थी।
च्वांग्त्सु ने जाकर पूछा कि बात क्या है? उस स्त्री ने कहाः मेरे पति को मरे दो ही दिन हुए और मुझे एक नये प्रेमी के प्रेम में पड़ जाना हो गया है। तो कम से कम पति की कब्र सूख जाए, उतनी देर तक रुकना जरूरी है। इसलिए कब्र को सुखा रहे हैं। च्वांग्त्सु वापस लौटा, उसने अपने शिष्यों से कहाः आज एक और नये सत्य का अनुभव हुआ। जो लोग कहते हैं, तुम्हारे बिना न जी सकेंगे, वे तुम्हारे मरने के बाद तत्क्षण अपने जीने के लिए कोई और कारण खोज लेंगे, कोई और उपाय खोज लेंगे। अभी एक स्त्री अपने पति की कब्र को पंखा कर रही थी, क्योंकि कब्र जल्दी सूख जाए ताकि वह नये प्रेम की दुनिया में प्रवेश कर सके।
जो जीवन दूसरों पर जीता है वह उनके हट जाने पर तत्क्षण दूसरे मुद्दे, दूसरे कारण खोज लेगा। और यह भी स्मरण रखें कि ऐसा जीवन प्रतिक्षण बदलता हुआ जीवन होगा, क्योंकि छाया का जीवन स्थिर जीवन नहीं हो सकता। आप जहां जाते हैं वहां आपकी छाया चली जाती है। सुबह, मैंने सुना है, एक चींटी अपने छेद से बाहर निकली, उसने देखा, सूरज उग रहा है, उसकी बड़ी लंबी छाया बन रही है।
उसने कहाः आज तो मुझे बहुत भोजन की जरूरत पड़ेगी। बहुत भोजन की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि छाया उसकी बड़ी थी और उसने सोचा, इतनी बड़ी मेरी देह है आज मुझे भोजन की जरूरत पड़ेगी। दोपहर तक वह भोजन खोजती रही, तब तक सूरज ऊपर चढ़ गया, छाया छोटी हो गई। दोपहर उसने सोचा था, आज थोड़ा सा भी मिल जाए तो भी काम चल जाएगा। जो छाया सुबह बड़ी थी, वह दोपहर सिकुड़ कर छोटी हो गई। जो छाया बहुत बड़ी बनती थी, अंधकार में बिल्कुल नहीं बनेगी।
 छाया का जीवन प्रतिक्षण बदलता हुआ जीवन होगा, क्योंकि छाया की कोई सत्ता या अस्तित्व नहीं होता। इसलिए जो लोग छाया में जीएंगे, स्वाभाविक है कि वे रोज बदल जाए, प्रतिक्षण बदल जाए, प्रतिपल बदल जाए। उनके भीतर कोई स्थिरता का बिंदु, कोई आधार ठहरा हुआ नहीं होगा। उनमें व्यक्ति तो होगा लेकिन वे व्यक्ति नहीं होंगे। रोज-रोज बदल जाने वाली बात होगी। कल जिसे प्रेम किया है उससे आज घृणा की जा सकती है। कल जो मित्र था वह आज शत्रु हो सकता है। सुबह जिस पर हम प्रसन्न थे, सांझ उप पर नाराज हो सकते हैं। एक क्षण पहले हमारे मन में जो विचार था, एक क्षण बाद नहीं हो जाएगा। एक क्षण पहले जिस सिद्धांत के लिए अपनी जान दे देते, एक क्षण बाद उसी सिद्धांत को नष्ट करने के लिए भी जान दे सकते हैं। एक क्षण पहले कुछ थे, एक क्षण बाद कुछ हैं। जैसे पानी बदलता जाता है, वैसे ही छाया का जिनका जीवन है, उनका मन भी बदलता जाता है प्रतिक्षण। उसमें हर क्षण कुछ बदलाहट होती चली जाती है। कोई स्थिरता का बिंदु, कोई आधार उनके व्यक्तित्व के केंद्र पर नहीं होगा।
हम अपने संबंध में भी सोचें तो क्या सुबह आप वही होते हैं जो सांझ होते हैं? और क्या सांझ आप अपने भीतर उसी व्यक्ति को पाते हैं, जिससे दोपहर को मिलन हुआ था? क्या वर्ष भर पहले जो आप थे वही आज आप हैं? यह सब बहा जा रहा है। गंगा के किनारे खड़े होकर हम देखें तो लगेगा, वही गंगा है लेकिन पानी प्रतिक्षण बहा जा रहा है। एक वर्ष के बाद आप जाएंगे तो आप कहेंगे, इसी गंगा का दर्शन पिछले वर्ष किया था। लेकिन यह बात झूठी होगी। यह गंगा बह गई, वह पानी बह गया जिसका अप वर्ष भर पहले दर्शन किए थे। अब पानी दूसरा है। केवल नाम पुराना है, और कुछ भी पुराना नहीं है। न वे घाट है, न वे रेत के कण हैं, न वे जल के बिंदु हैं। वहां कुछ भी नहीं रह गया, सब बह गया। केवल नाम गंगा का पुराना है।
हम भी, नाम तो हमारा पुराना होता है। जो कल था वही आज है, जो आज है वही कल होगा। जो जन्म के समय दे दिया गया नाम, वह मृत्यु के समय तक चलेगा। नाम भर स्थिर रहेगा, और कुछ भी थिर नहीं है। भीतर सब बदलता जा रहा है। वहां व्यक्तित्व की नदी रोज बहाती चली जाती है। ऐसा जो बदलता हुआ प्रसाद है, इस प्रवाह में जो जीता है, उसको जीवन छाया का जीवन है। इस बदलते हुए प्रवाह में, हम चाहे कितना ही श्रम करें, हम चाहे कितने ही दौड़, हम कहीं पहुंच नहीं पाएंगे। कोई मंजिल, कोई गंतव्य, कोई लक्ष्य उपलब्ध नहीं हो सकेगा इसलिए कि जो छाया के पीछे दौड़ता है, उसके हाथ खाली हो रह जाते हैं, वे कभी भर नहीं पाते। और हम कोई नये व्यक्ति नहीं है। जमीन पर करोड़ों-करोड़ों लोग हमसे पहले हुए हैं और हमने मरते समय उनकी मुट्ठियां खाली देखी हैं, खुली देखी हैं। जीवन-भर जिन्होंने दौड़ कर बहुत पाने की कोशिश की होगी, आखिर में हमने पाया है कि उनके पास कुछ भी नहीं है। हम अपने पर ही विचार करेंगे तो पाएंगे कि इतने दिन हमने भी दौड़ा है..कोई दस वर्ष दौड़ा होगा, कोई पचास वर्ष, कोई साठ वर्ष, कोई सत्तर वर्ष। उपलब्धि के नाम पर, संपत्ति के नाम पर हमारे पास क्या है? क्या भीतर झांककर हम अपने को दरिद्र नहीं पाते हैं..निपट दरिद्र, जिसके पास कुछ भी न हो! क्या भीतर झांक कर हमें भय नहीं मालूम होता? क्या भीतर झांक कर हमें असुरक्षा अनुभव नहीं होती? इसीलिए तो हम भीतर झांकने से बचते हैं। इसीलिए तो कोई अपने से मिलना नहीं चाहता, इसलिए तो कोई अपने को परिचित नहीं होना चाहता। इसीलिए तो आत्म-ज्ञान पर इतने शास्त्र हैं, लेकिन आत्म-ज्ञान कोई चाहता नहीं।
मैं एक घटना आपसे कहूं..एक फकीर हुआ। कुछ थोड़े से रुपये उसके पास थे, जीवन भर में इकट्ठे कर लिए थे। मरने का दिन उसका करीब आया तो उसने लोगों से कहा, यद्यपि मैं फकीर था, भिखमंगा था, फिर भी मैंने कुछ इकट्ठा कर लिया है। और अब चूंकि मैं मरने के करीब हूं, इस सारी संपत्ति को किसी दरिद्र आदमी को दे देना चाहता हूं। तो तुम जाओ, गांव में कोई दरिद्र हो, उसे बुला लाओ। तुम उसे यह दे दो। गांव में बहुत दरिद्र थे। ऐसा कौन सा गांव है, जहां दरिद्र न हों? बहुत सैकड़ों लोग उसके झोपड़े के पास भीड़ लगाकर खड़े हो गए और उन सबने मांग की कि हम दरिद्र हैं, हमें दे दिया जाए। और उन सबने अपने-अपने दस्तावेज प्रस्तावित किए और अपनी-अपनी सिफारिशें लाए कि मैं सबसे बड़ा गरीब आदमी हूं।
लेकिन वह फकीर हंसता रहा। उसने कहा, जब सबसे बड़ा गरीब आएगा तो मैं उसे देख कर ही पहचान जाऊंगा। इसलिए तुम्हारे प्रमाण पत्रों की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि गरीब आदमी अपने को छिपा नहीं सकता। जब गरीब आदमी आएगा, तब मैं पहचान जाऊंगा और दे दूंगा। और तभी एक बहुत बड़ी भीड़, बहुत बड़ा जलूस रास्ते पर निकला और वे सारे दरिद्र लोग जो रुपया मांगने इकट्ठे हुए थे, आंखें फाड़ कर उस जुलूस को देखने लगे। राजा की सवारी थी। उस भीड़ में तो सारे लोग राजा को देखने में लग गए, उस फकीर ने अपने रुपयों की थैली उठाई और राजा के हाथी पर फेंक दी। राजा ने कहाः यह क्या है? उस फकीर ने कहाः कुछ रुपये मैंने इकट्ठे कर लिए हैं, अब मरने को हूं तो इस गांव में सबसे दरिद्र आदमी को देने का मेरे मन में ख्याल था, वह मैं तुम्हें दे देता हूं। वे सारे दरिद्र चिल्लाए कि यह क्या पागलपन है, राजा को दे रहे हो? और सोचा था दरिद्र को देने का। उस फकीर ने कहाः राजा भी अगर विचार करेगा तो पाएगा, उससे ज्यादा दरिद्र कोई भी नहीं है। और रात्रि जब राजा अपने बिस्तर पर सोने गया और सोचने लगा तो उसे ख्याल आया कि उचित ही है कि उसने मुझे सबसे बड़ा दरिद्र कहां, क्योंकि सर्वाधिक संपत्ति पाकर भी जिसका मन न भरा हो, उससे बड़ा और दरिद्र नहीं हो सकता।
असल में जो व्यक्ति जितना दरिद्र होगा उतनी ही संपत्ति की खोज करता है। संपत्ति की खोज दरिद्र का लक्षण है। जो व्यक्ति बीमार होगा, वह स्वास्थ्य की खोज करेगा। स्वास्थ्य की खोज बीमार का लक्षण है। जो व्यक्ति अंधेरे में होगा वह प्रकाश की खोज करेगा। प्रकाश की खोज अंधेरे में होने का लक्षण है। तो धन की खोज दरिद्र होने का लक्षण है। यश की खोज हीन होने का लक्षण हैं। जिसको मनोवैज्ञानिक इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स कहते हैं, वह हीनता का भाव। जिस व्यक्ति में जितनी हीनता का भाव होगा उतना ही बड़े पदों पर होने की उसमें आकांक्षा पैदा होगी। क्योंकि अपनी हीनता के भाव को भुलाने का और कोई उपाय नहीं है, सिवाय इसके कि बड़े से बड़े कुर्सियों पर, बड़े से बड़े पदों पर बैठ जाया जाए। और जिस व्यक्ति के भीतर जितनी दरिद्रता का अनुभव होगा उतना ही वह धन के पीछे पागल हो जाएगा, क्योंकि धन को इकट्ठा करके अपने को यह विश्वास दिलाया जा सकता है कि मैं दरिद्र नहीं हूं। लेकिन स्मरण रखें, चाहे कितना ही धन इकट्ठा हो जाए, दरिद्रता नहीं मिटती। और चाहे कितने ही बड़े पदों पर पहुंच जाया जाए, हीन भाव नष्ट नहीं होते। नहीं होता इसलिए कि दरिद्रता भीतर है और धन बाहर है, और दोनों का कोई संबंध नहीं है। हीन भाव भीतर है और पद बाहर है। इसलिए तो यह होता है कि एक पद मिले तो उससे बड़े पद की आकांक्षा पैदा होती है वह पद मिल जाए तो और बड़े पद की आकांक्षा पैदा हो जाती है।
बंदरों को वृक्षों पर चढ़ते अगर आपने कभी देखा हो..उनकी बेचैनी देखी हो, कूदेंगे, फांदेंगे, एक क्षण को थिर न रह सकेंगे, ऊंची से ऊंची डाल पर पहुंचने की कोशिश करेंगे, जब तक कि वृक्ष की आखिरी फुनगी पर न पहुंच जाए। इसके ऊपर जाने का फिर कोई उपाय नहीं। तब तक वे कूदेंगे, फांदेंगे, ऊपर की फुनगी पर पहुंचेंगे। डार्विन ने मनुष्य को बंदर से पैदा हुआ, ऐसा कहा है। मुझे पता नहीं कि यह कहां तक सच है, लेकिन ऊपर की कोशिश, डाल की आखिरी फुनगी पर पहुंचने की कोशिश, राष्ट्रपति बन जाने की कोशिश मनुष्य में वैसी है जैसी बंदरों में होती है। और यह ऊपर पहुंच जाने की कोशिश इस बात का सबूत है कि हमारे मन में, हम बहुत नीचे हैं, इसके बोध से पैदा होती है। हम बहुत हीन हैं, हमें सिद्ध करना है।
इसलिए दुनिया में जिन लोगों में हीनता की भावना सर्वाधिक होती है, वे लोग बड़े-बड़े काम कर गुजरते हैं। बड़े काम उनसे हो जाते हैं। बड़े काम का अर्थ, जिन्हें दुनिया बड़ा कहती है। बड़े काम, बड़े युद्ध। हिटलर, स्टैलिन या मुसोलिनी जैसे लोग बहुत हीनता के भाव से पीड़ित होते हैं। सिकंदर या चंगीज खां, तैमूरलंग जैसे लोग बहुत हीनता के भाव से पीड़ित लोग थे। इन्हें तब तक चैन न थी जब तक इन्होंने यह दिखा दिया कि लाखों लोग हमारे कब्जे में हैं, उनकी गर्दन पर हमारे हाथ हैं। जब हम उनकी गर्दन चाहें अभी मरोड़ दें, अभी खत्म कर दें। जब तक उन्हें यह विश्वास न आ गया कि हम शक्तिशाली हैं तब तक वे भागते गए। और यह विश्वास कभी नहीं आता, आखिर तक नहीं आता। इसलिए सारी दुनिया पर कब्जा हो जाए, करोड़-करोड़ लोगों के जीवन हमारे हाथ में हो जाए तो हीन-बुद्धि व्यक्ति को यह भाव पैदा होता है, ख्याल आता है कि मैं भी कुछ हो गया। अब वह यह डर छोड़ सकता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं, यह डर छोड़ा जा सकता है, क्योंकि इतने लोगों पर मेरा कब्जा है। लेकिन फिर भी भीतर डर बना रहता है। इसलिए जितना जो व्यक्ति शक्तिशाली होता जाता है, शक्ति इकट्ठी करता जाता है, उतनी ही निर्बलता उसको पकड़ने लगती है, उतनी ही उसे अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करनी होती है।
स्टैलिन तो बाद के दिनों में क्रेमलिन के बाहर भी नहीं निकल सका। ठीक उसकी शक्ल का दूसरा आदमी खोज लिया गया था जो सभाओं में जाता, जुलूस में सम्मिलित होता स्टैलिन की जगह क्योंकि डर था कि कहीं गोली न मार दी जाए। हिटलर ने भी अपना डबल खोज लिया था जो उसकी जगह सड़कों पर निकलता, सलामियां लेता। कैसा आश्चर्यजनक है! सलामियां लेने का मजा है, लेकिन वह भी दूसरे आदमी से लिवानी पड़ेगी, क्योंकि उसे मैदान में जाने का, खुले में जाने का खतरा है। गोली मारी जा सकती है, बम फेंका जा सकता है।
तो इस दुनिया में जो व्यक्ति जितनी इस भांति की शक्ति इकट्ठी करता है, उतना ही भीतर निर्बल होता है। उतनी ही भीतर निर्बलता पकड़ने लगती है, इतनी ही सुरक्षा की व्यवस्था करनी होती है। जितनी शक्ति इकट्ठी होती है उतनी सुरक्षा की व्यवस्था करनी होती है। फिर भी हमें ख्याल नहीं आता कि यह शक्ति निश्चित ही झूठी होगी, जिसमें सुरक्षा की व्यवस्था और बढ़ जाती है। अगर शक्ति वास्तविक हो तो सुरक्षा की व्यवस्था टूट जानी चाहिए..अगर शक्ति वास्तविक हो। अगर शक्ति झूठी है तो सुरक्षा की व्यवस्था करनी होगी। अगर धन वास्तविक हो तो सुरक्षा की व्यवस्था करनी होगी। अगर धन वास्तविक हो तो सुरक्षा का भय मिट जाना चाहिए। लेकिन धन वास्तविक न हो तो धन के पहरेदार रखने होते हैं। और धीरे-धीरे, वह जिसे हम धनी कहते हैं, खुद भी धन का एक पहरेदार हो जाता है, और कुछ भी नहीं। वह खुद भी अपने धन पर एक पहरा देने लगता है। वह खुद भी एक नौकर हो जाता है और धन की रक्षा करने लगता है। धन खोजा था इसलिए कि मेरी सुरक्षा होगी। आखिर में हम पाते हैं कि वह आदमी खुद भी धन की सुरक्षा कर रहा है। शक्ति खोजते हैं इसलिए कि भीतर इनसिक्योरिटी मिट जाएगी, हीनता मिट जाएगी, कमजोरी मिट जाएगी। लेकिन आखिर हम पाते हैं कि वह आदमी और भी कमजोर हो गया, और भी कंपा हुआ हो गया।
तैमूरलंग रात को सो नहीं पाता था। उसने हजारों लोगों की हत्याएं करवाई, लेकिन रात को सो नहीं सकता था। प्रतिक्षण उसे डर था कि कब कोई मेरी जान न ले ले। चंगीज खां जब भारत से बाहर आ गया, जब वह दिल्ली आया तो उसने दस हजार बच्चों के सिर भालों पर ठुकवा दिए ताकि दिल्ली जान ले कि कोई आया। बहुत लोग आए होंगे लेकिन चंगीज कभी नहीं आया। दस हजार बच्चों कि सिर, छोटे-छोटे बच्चों के सिर कटवा के भालों पर लगवा कर उसने जुलूस निकलाया, उसके पीछे चंगेज आया। लेकिन वह भी रात को सो नहीं पाता था। उसे भी अपने सिर के काटे जाने का भय पूरे वक्त सताए हुए था।
एक पागल आदमी अभी एक अस्पताल में भरती हुआ है। वह बचपन से ही पागल रहा होगा। जब भी उससे पूछा गया, वह क्या होना चाहता है? उसने कहाः मैं कब्र खोदना चाहता हूं। लोगों ने पूछाः कब्र खोदने वाला होना; यह आकांक्षा बड़ी अजीब है। फिर धीरे-धीरे वह आदमी पागल हो गया और अब वह अपना कारण बताता है। वह कहता है, मैं इसलिए कब्र खोदने वाला होना चाहता था ताकि मैं वह विश्वास पा सकूं कि मैं ही खुद तो कब्र खोदने वाला हूं, मेरी कब्र कौन खोदेगा? ये चंगीज और हिटलर और स्टैलिन और मुसोलिनी, ये लोगों की हत्या करने वाले लोग हैं। ये हत्याएं इस कारण करना चाहते हैं ताकि इन्हें यह विश्वास हो जाए कि मैं तो लाखों लोगों को मारने वाला आदमी हूं, मुझे कौन मारेगा? अपनी मृत्यु का भय आदमी को दूसरे को मारने के लिए प्रेरित करता है ताकि यह विश्वास आ जाए कि मैं, जिसने कि करोड़ लोग मार डाले, मुझे कौन मार सकेगा?
मृत्यु का भय है, कमजोरी है, हीनता है, वह मनुष्य को दौड़ाती है। और इस दौड़ में एक छाया का जीवन शुरू होता है। क्योंकि बीमारी कुछ और होती है और उपचार हम कुछ और खोजते हैं। दरिद्रता भीतर है, धन बाहर खोजते हैं। हीनता भीतर है, गौरव बाहर खोजते हैं। अंधकार भीतर है, रोशनी बाहर जलाते हैं। तो सारे उपचार बीमारी को दूर नहीं कर पाते; वरन समय बीतता जाता है और बीमारी गहरी होती चली जाती है। यह बीमारी मनुष्य को पूरा पकड़ ले तो उस जीवन को मैं छाया का जीवन कह रहा हूं। यह महत्वाकांक्षा की दौड़, यह एंबीशन मनुष्य को पूरा पकड़ ले कि वह धन इकट्ठा करें, मकान बनाए, राज्य खड़े करे, यश कमाए। धन-समृद्धि, वैभव इनको संगृहीत करे। और अगर सारा जीवन इस दौड़ में व्यतीत हो जाए तो इस तरह के जीवन को मैं छाया का जीवन कह रहा हूं। यह मनुष्य, जो वास्तविक सत्ता है, जो वास्तविक शक्ति है, जो वास्तविक संपत्ति है, जो वास्तविक संपदा है उसे जानने से वंचित रह जाएगा। जो वास्तविक गौरव है, जो वास्तविक गरिमा है, उसे जानने से वंचित रहेगा, लेकिन आखिर में पाएगा कि काम तो बहुत हुआ, लेकिन पहुंचना कहीं भी नहीं हो गया। यह शैडो, यह छाया हम सबको पकड़े हुए है। आखिर में हम पाएंगे, जब सूरज डूबने लगेगा और जीवन की संध्या आ जाएगी और अंधकार गिरने लगेगा तो हम पाएंगे, छाया ने तो साथ छोड़ दिया, हम अकेले बच रहे हैं।
जब तक जीवन का प्रकाश है तब तक उस प्रकाश में छाया बनती है। कोई बड़ा बनता है, कोई छोटा बनता है, कोई धनी होता है, कोई दरिद्र होता है, कोई बहुत आदर पाता है, कोई अनादर पाता है। लेकिन जब जीवन का प्रकाश सिकुड़ जाएगा और जीवन का सूर्य डूबने लगता है और मृत्यु का अंधकार करीब आने लगता है..तब छाया विलीन हो जाती है। छोटे और बड़े बराबर हो जाते हैं, दरिद्र और समृद्ध समान हो जाते हैं, मित्र और शत्रु सब खो जाते हैं, क्योंकि अंधकार में कोई छाया नहीं रह जाती है, अकेले हम रह जाते हैं।
मृत्यु छाया छीन लेती है। और मनुष्य का जो वास्तविक है, वही शेष रह जाता है। इससे पहले कि मनुष्य की छायाएं छीन ले, जो व्यक्ति अपने छाया के जीवन को समझ लेता है और क्रमशः आत्मा के जीवन को जाग्रत करने में संलग्न हो जाता है और वास्तविक संपदा की खोज में उसके कदम चल पड़ते हैं, वह जीवन के अर्थ को, आनंद को तो उपलब्ध होता ही है, वह जीवन के सत्य को और जीवन के सौंदर्य को जान पाता है। बहुत-बहुत संभावनाएं हैं आनंद की, बहुत संभावनाएं हैं गरिमा के अनुभव की, बहुत संभावनाएं हैं सत्य को, सौंदर्य को उपलब्ध कर लेने की, कृतार्थ और धन्य हो जाने की बहुत संभावनाएं हैं। छोटे से व्यक्ति में बहुत शक्ति है, छोटे से अणु में बहुत शक्ति है, छोटे से मनुष्य में भी बहुत शक्ति है। इस बहुत शक्ति को जाना जा सकता है। इस बहुत आनंद का द्वार खोला जा सकता है। इस बहुत संपदा के जगत में प्रवेश किया जा सकता है। उसके हम अधिकारी हो सकते हैं जिसे धर्मों ने आत्मा कहा, या परमात्मा, या क्राइस्ट ने जिसे किंग्डम ऑफ गॉड कहा। वह जो प्रभु का राज्य है, वह खोजा जा सकता है। बहुत दूर भी नहीं है, लेकिन जो छाया के पीछे दौड़ता हो, उसके लिए बहुत दूर हो जाता है। जो छाया के पीछे ही दौड़ता रहा हो उससे बहुत दूर हो जाता है।
यह दृष्टि में हमें आ जाए कि क्या छाया का जगत है तो हम आत्मा के जगत में प्रवेश पाने के अधिकारी हो सकते हैं। सर्वप्रथम यही जानना जरूरी है कि कौन-कौन सी चीजें केवल छाया है, केवल सपना हैं।
मैंने सुना, किसी आदिवासी समाज में अगर दो व्यक्ति एक-दूसरे की हत्या करते हुए मर जाए तो उन्हें एक ही कब्र में सोना पड़ता है। एक ही कब्र में कम लोग सोते हैं। एक-एक आदमी के लिए कब्र हम देते हैं। लेकिन उस समाज में वैसा नियम है। दो व्यक्ति लड़ रहे थे, छोटी सी जमीन का टुकड़ा था, उस पर लड़ाई थी। किसकी है वह जमीन, इस पर लड़ाई थी। और सारी लड़ाई इसी की है कि किसकी है जमीन। चाहे लोगों की हो, चाहे राष्ट्रों की हो, चाहे धर्मों की हो, चाहे समाजों की हो..लड़ाई इसकी है कि जमीन किसकी है। दोनों लड़े। जमीन का पता भी नहीं चला कि कौन उसका मालिक था, कौन उसका मालिक नहीं था। दोनों लड़े। दोनों की छातियों में एक-दूसरे की तलवार घुस गई। दोनों मर गए। जमीन को पता भी नहीं चला कि कौन लड़ा, कौन मरा। जिस जमीन के लिए वे लड़े थे वही जमीन उनकी कब्र बन गई। उन दोनों को एक ही साथ एक ही कब्र में लिटा दिया। जो जीवन में शत्रु थे, पड़ोस में नहीं रह सकते थे, मृत्यु में उन्हें साथ-साथ सोना पड़ा, पड़ोसी बनना पड़ा और जमीन को कोई पात नहीं चला। जिस जमीन को कोई पता नहीं चलता कि कौन मालिक है, उस जमीन के बहुत मालिक रह चुके हैं और समाप्त हो चुके हैं। उस जमीन के बहुत मालिक रहेंगे और समाप्त हो जाएंगे। लेकिन फिर भी मालिक होने का हमें ख्याल है। मालिक होने का ख्याल जरूर सपना होगा।
एक राजा संन्यासी होकर अपने राज्य को छोड़ कर भाग गया था। दूर जंगल में जाकर ध्यान करने बैठा था। ध्यान से आंख खुली तो उसे दिखाई पड़ा, सामने बहुत चमकदार पत्थर पड़ा है। बहुत कीमती होगा। न मालूम किसका गिर गया। राहगीर का गिर गया होगा। एक क्षण तो उसे ख्याल आया कि उठा लूं, लेकिन फिर उसने सोचा कि मन मेरा कैसा है। सारे राज्य को छोड़ कर आया। वहां बहुत बहुमूल्य पत्थर मेरे पास भी थे, फिर भी मेरा मन उठाने को होता है! वह यह सोचता ही था कि दोनों और से दो सवार आए। दोनों राजपूत थे, नंगी तलवारें उनके साथ लटकी थीं। दोनों की दृष्टि उस हीरे पर पड़ी। दोनों ने तलवारें टेक दीं और कहा कि पहले दृष्टि मेरी पड़ी, इसलिए मालिक मैं हो गया। दोनों ने यह कहा कि दृष्टि पहले मेरी पड़ी, इसलिए मालिक मैं हो गया। हीरा नीचे पड़ा था, वह साधु दूर बैठा देख रहा था। निपटारा कठिन था। और जब निपटारा कठिन हो तो तलवार के सिवाय और निपटारा नहीं रह जाता और आज तक दुनिया में हमेशा हम ऐसे ही निपटारा करते रहे। जीवन का झगड़ा हम मौत से हल करना चाहते हैं। जब भी जीवन में कोई झगड़ा खड़ा होता है, हम मौत को बीच में ले आते हैं। कि झगड़ा हल हो जाए। मौत झगड़े को हल नहीं करती, झगड़ा करने वालों को समाप्त कर देती है।
तलवारें उठ गई, वे लड़े। तलवारें घुस गईं, वे दोनों गिर गए। हीरा जहां पड़ा था, वहीं पड़ा रहा। थोड़ा सोचें, इनकी मालकियत का ख्याल सपना था या सत्य था? तो सत्य तो वह है कि ये थे और अब नहीं है। हीरा था, हीरा अब भी है। सत्य तो यह है कि हीरा किसी का भी नहीं था और किसी का भी नहीं है। और जिनमें यह ख्याल पैदा हुआ कि हमारा है, मालिक होने का, पजेस करने का जिसमें ख्याल पैदा हुआ वह ख्याल सपना था। वह ख्याल भी मिट जाता है, ख्याल रखने वाले लोग भी मिट जाते हैं। हीरे जहां हैं, वहीं पड़े रह जाते हैं।
कहां-कहां छाया की जीवन हमें पकड़ता है? सोचना जरूरी है कि कहां-कहां मैं सपने देखता हूं और सपनों का अनुगमन करता हूं। जो व्यक्ति सपनों के पीछे चलेगा वह सत्य को कैसे उपलब्ध होगा? जो स्वप्न का अनुगामी हो जाएगा, सत्य तक कैसे पहुंच सकता है? तो थोड़ा अपने मन को परखें और पहचानें। दिखाई पड़ना कठिन नहीं होता है कि हम कहां-कहां सपने देखते हैं। हर आदमी सपना देख रहा है। बहुत से सपने हैं, बहुत बड़े बड़े सपने हैं। और उन सारे सपनों के पीछे हम दौड़ते हैं। पहले मन में दौड़ते हैं, फिर बाहर के जगत में दौड़ते हैं। फिर सारे लोग सपने देख रहे हैं। एक-दूसरे के सपने कटते हैं, एक-दूसरे के सपने एक-दूसरे के विरोध में आते हैं तो फिर तलवारें निकल आती हैं; तो फिर संघर्ष शुरू हो जाता है, हिंसा शुरू हो जाती है। करोड़-करोड़ लोग हैं, उन सबके सपने हैं। और सबके सपने मालिक होने के हैं, सबके सपने संपत्तिशाली होने के हैं, सबके सपने यश पाने के हैं, सबके सपने प्रथम होने के हैं। तो सारी दुनिया दौड़ती है इन सपनों में। ये सपने लड़ते हैं, टकराते हैं। सभी प्रथम होना चाहते हैं संघर्ष और हिंसा, दुख पैदा होता है।
जब तक मनुष्य सपनों को न समझे, और सपनों को समझकर उनका अनुगमन क्षीण न हो जाए, तब तक मनुष्य के जीवन से हिंसा, दुख और संघर्ष नष्ट नहीं हो सकते; तब तक युद्ध नष्ट नहीं हो सकते। कोई लाख उपाय करे और शांति की बातें करे, लेकिन जब तक लोग सपनों के पीछे पागल रहेंगे, तब तक शांति असंभव है। जब आप अपने पड़ोसी से आगे निकलना चाहते हैं, तभी आप वाले युद्ध की तैयारी शुरू कर रहे हैं। जब एक छोटा बच्चा, अपने, बगल के बच्चे से आगे होना चाहता है, तभी संघर्ष और वैमनस्य की नींव रख दी गई। यह जो प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता और महत्वाकांक्षा है और सपनों को सिद्ध करने की पागल दौड़ है, यह हमें तो मिटा देगी। और जिन चीजों पर हम मालिक होना चाहते थे वह वहीं पड़ी रह जाएंगी। विचारणीय यह है कि हम मिट जाएंगे सपनों के पीछे दौड़ते-दौड़ते।
और अगर यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाए, जैसा क्राइस्ट ने कहा..क्राइस्ट का एक बहुत अदभुत वचन है। वचन है कि धन्य हैं वे लोग जो अंतिम होने को राजी हैं। क्राइस्ट का वचन मैं फिर से दोहराऊंः ‘धन्य है वे लोग, जो अंतिम होने को राजी हैं।’ अजीब लगेगा। क्योंकि हम तो जानते हैं, धन्य हैं वे लोग जो प्रथम हो जाते हैं। और क्राइस्ट कहते हैं, धन्य हैं वे लोग, जो अंतिम होने को राजी हैं। निश्चित ही वे लोग धन्य हैं जो अंतिम होने को राजी हैं। ये वे ही लोग होंगे, जिनके प्रथम होने का सपना टूट गया और जिन्होंने प्रथम होने की महत्वाकांक्षा की दौड़ छोड़ दी। और जिन्हें यह दिखाई पड़ा कि हम इस दौड़ में कुछ भी नहीं हैं। इस दौड़ में स्वयं के नष्ट हो जाने के सिवाय और कुछ भी नहीं हैं। जिन्हें यह दिखाई पड़ा, वे अंतिम होने को राजी हो जाएंगे। अंतिम खड़े रह जाएंगे। लाओत्सु ने एक अदभुत वचन ऐसा ही कहा है। लाओत्सु ने कहा है धन्य हैं वे लोग, जो हार जाते हैं। धन्य हैं वे लोग, जो हार जाते हैं, क्योंकि उन्हें फिर कोई भी जीत न सकेगा। लेकिन हम तो सारे लोग वे हैं, जो उन्हें धन्य मानते हैं, जो जीत जाते हैं। लेकिन स्मरण रखें, जो जीत जाते हैं, उन्हें हार जाना पड़ता है। हारें चाहे न वे, दिखाई चाहें वे न पड़ें, लेकिन मौत बता देती है कि उनकी सब जीत मिट्टी हो गई और सब हार भी मिट्टी हो गई। जैसे कोई लाश के पत्तों का घर बनाए, हवा का एक झोंका आए और सब मिट जाए।
क्या हमारे सब बनाए हुए घर हवा के झोंकों में इसी भांति नहीं मिट जाते हैं? जैसे कोई कागज की नाव चलाए, समुद्र में तैराए और वह डूब जाए। क्या हम सबकी सपनों की नावें ऐसे ही नहीं डूब जाती है? लेकिन फिर भी कुछ है कि हम कागज की नावें बनाते हैं और तैराते हैं। और कागज की नाव अगर किसी की आगे निकल जाए और अंडा आगे फहराए तो हम बहुत खुश होते हैं और शोर बचाते हैं। लेकिन स्मरण रखें, कागज की नाच चाहे आगे निकल जाए, चाहे पीछे रह जाए, कागज की नाव डूबने को है..आगे जो है वह भी, पीछे जो है वह भी। और चाहे ताशों का घर बड़ा हो जाए, साठ मंजिल का हो, कि सत्तर मंजिल का हो, या चाहे छोटा झोपड़ा हो, लेकिन लाश का घर गिर जाने को है।
तो एक तो वे लोग हैं जो इस दौड़ में होते हैं कि मेरे लाश का घर बड़ा हो। एक तो वे लोग हैं जो इस दौड़ में होते हैं कि मेरी कागज की नाव आगे निकल जाए। एक वे लोग भी हैं जो यह सोचते हैं कि कागज की नाव चाहे आगे जाए, चाहे पीछे, कागज की नाव डुब जाने को है। फिर उनकी आगे-पीछे की आकांक्षा विलीन हो जाती है। फिर उनके ताश का भवन बनाने का ख्याल विलीन हो जाता है। और जब यह बुद्धि, जब यह आकांक्षा और यह अभीप्सा गिर जाती है तो एक नये जीवन को बनाने का उनम ख्याल पैदा होता है जो कागज का नहीं है। और एक नये भवन के निर्माण में वे लोग है जो ताशों का नहीं है और एक ऐसी नाव को वे खोजते हैं जो डूबती नहीं है। वह नाव ही धर्म की नाव है। वह नाव ही साधना की, सत्य की खोज की है। और तब वे लोग कहीं पहुंचते हैं, कुछ पार कर पाते हैं, कुछ अनुभव कर पाते हैं। कोई संपदा, कोई संपत्ति, कोई शांति, कोई सौंदर्य उन्हें उपलब्ध हो पाता है। न केवल स्वयं के धन्य हो जाते हैं, बल्कि उनके जीवन से और लोगों को भी धन्यता की सुवास उपलब्ध होती है। उनके जीवन का संगीत, और लोगों की हृदय की वीणा को भी जगाता है। उनका जीवन और लोगों के जीवन में भी उस भांति की हूक पैदा करता है, उस भांति का भाव, उस भांति की प्यास पैदा करता है कि वे लोग भी सत्य के सागर की तलाश में निकले हैं।
दो ही तरह के लोग हैं..एक तो नावों को आगे निकालने वाले लोग, और एक वे जो नावों के डूबने या पार करने के सत्य पर विचार करते हैं। ये थोड़ी-सी बातें प्रारंभिक रूप से आज मैं आपसे कह रहा हूं। इन पर आगे दो दिनों में हम गहरे से विचार कर सकेंगे। आज तो इतना ही ख्याल चाहता हूं आपमें आए कि आप अपने भीतर छाया के जीवन को अनुभव कर सकें, देख सकें कि मेरे जीवन में क्या-क्या छाया का जीवन है। क्या-क्या है, जो सपना है? जरूरी है कि सपना पहले दिखाई पड़ जाए तो फिर सत्य की ओर आंख उठनी शुरू होती है। और यह भी स्मरण रखें कि अगर सपना दिखाई पड़ने लगे कि सपना है तो सपने के प्राण निकलने शुरू हो जाते हैं। कोई आदमी जानते हुए कि सपना है, सपना नहीं देख सकता। जब तक हम जानते नहीं तभी तक सपने की पकड़ है। अगर मुझे दिखाई पड़ जाए कि यह दौड़ बिल्कुल सपने की दौड़ है, मेरे पैर रुक जाएंगे। मैं पाऊंगा कि मैं खड़ा हो गया हूं। अगर मुझे दिखाई पड़ जाए कि नाव कागज की है, फिर उस पर बैठना, उस पर सवारी करना मुश्किल हो जाएगा। अगर मुझे दिखाई पड़ जाए कि कागज के पत्तों का भवन है जो बना रहा हूं, तो ठहर जाएंगे।
सपना सपना दिखाई पड़ने लगे, छाया छाया दिखाई पड़ने लगे, असार असार दिखाई पड़ने लगे तो चित्त की गति उन दिशाओं में जानी सहज ही बंद हो जाती है। क्योंकि चित्त सहज ही उस तरफ जाता है जहां सत्य है। जहां से सपना दिखाई पड़ने लगे, वहां से चित्त वापस लौटने लगता है। चित्त उसी तरफ आता है जहां शाश्वत है। और अगर दिखाई पड़ने लगे कि जो है वह अभी गिर जाएगा, यह हवा का झोंका गिरा देगा, चित्त उस तरफ से वापस लौटने लगता है। जब तक हम सपने को सत्य मानते हैं, तभी तक सपने की हमारे ऊपर पकड़ है। जब तक हम सपने को सत्य मानते हैं, तभी तक अपने की हम पर पकड़ है। जब तक असार हमें सार दिखाई पड़ता है, तभी तक। अन्यथा छोड़ देने में, फेंक देने में क्षण की भी देरी नहीं होती।
एक छोटी सी कहानी, और आज की चर्चा को मैं पूरा करूं।
एक बहुत बड़ा जौहरी मर गया। उसकी पत्नी ने बहुत दिनों तक कुछ पत्थरों को कीमती मान कर, समझ कर तिजोरी में छिपा रखा था। जौहरी के मर जाने पर भी वह निश्चित थी अपनी संपत्ति के लिए। बहुत संपत्ति उसके पास थी। लड़का था एक, बड़ा होगा। बहुत संपत्ति उसके पास है। कोई भय का कारण नहीं है। लड़का बड़ा हुआ और एक दिन उसने कहा कि जाओ और किसी जौहरी को दिखाओ। जो पत्थर हमारे पास हैं, बहुमूल्य हैं। थोड़ा-थोड़ा उनमें से बेचें, तुम्हारी शिक्षा और तुम्हारे जीवन के लिए व्यवस्था हो। वह अपने पति के पुराने परिचित जौहरी के पास गया अपनी पोटली लेकर। बहुत सम्हाल कर, जाकर उसने पोटली खोली और कहा कि इनमें से कुछ बेचना शुरू करें और हमें सुविधा हो। उस जौहरी ने देखा, छुआ भी नहीं, कहा पोटली बंद कर लो, अभी बाजार भाव अच्छे नहीं हैं। जब बाजार-भाव अच्छे होंगे तो जरूर बेच देंगे। और एक काम करो, तुम्हारे पति का मेरे ऊपर बहुत ऋण है। उनसे ही मैंने बहुत कुछ सीखा था। तो तुम घंटे को दुकान पर आने लगो और जो कुछ मैं जानता हूं इस जौहरी की कला में तुम सीख लो। उस लड़के ने दूसरे दिन से उस दुकान पर जाना शुरू कर दिया। एक वर्ष बीतने पर अचानक सुबह ही सुबह वह जौहरी के घर आया और उसने कहा कि अब बाजार के भाव अच्छे हैं, तुम अपनी तिजोरी खोलो, अपने पत्थर निकाल लाओ। वह मां और बेटे बड़ी खुशी से तिजोरी खोले, पोटली खोली। उस लड़के ने पोटली के पत्थर देखे, पोटली बांधी और बाहर खोली। उस लड़के ने पोटली के पत्थर देखे, पोटली बांधी और बाहर जाकर कचरे-घर में फेंक आया। मां एकदम पागल हो गई। उसने कहाः तुमने यह क्या किया? उस लड़के ने कहाः वह सब नकली कांच के टुकड़े हैं। लेकिन जब तक वह असली पत्थर थे तो तिजोरी में थे। जब तक सपना सत्य मालूम होता था तो उस पर ताला था, उसकी सुरक्षा थी और जब ये कांच के टुकड़े हो गए, सत्य न रहे तो उनका निवास घूरे पर, कचरे पर हो गया। लेकिन अगर वर्ष भर पहले उस जौहरी ने कहा होता कि कांच के टुकड़े हैं तो विश्वास न आता। विश्वास कैसे आता? यही ख्याल उठता कि शायद छीन-झपट लेने का इरादा है। कांच के टुकड़े बता कर सस्ते में खरीद ने का विचार है। शायद धोखा है कोई। इसलिए उस जौहरी ने नहीं कहा कि कांच के टुकड़े हैं। कहा कि वर्ष भर आओ, सीखो, समझो।
मैं भी आपसे नहीं कहना चाहता कि जो आपका जीवन है, वह मेरे कहने से आप मान लें कि छाया है और माया है। मैं भी आपसे कहूंगा कि कुछ सीखें, जौहरी की कला सीखें, कुछ परखना सीखें तो पहचानना कठिन नहीं होगा कि कौन से कांच के टुकड़े है और कौन से हीरे हैं। और जिस दिन आपको दिखाई पड़ना शुरू हो जाए कि कांच के टुकड़े क्या हैं, उस दिन तिजोरियों में उनको सम्हाल कर रखने का न कोई सवाल है, न प्रश्न है। उस दिन उनका आवास वहीं घूरे पर, कचरे के ढेर पर होगा। हमारे जीवन में बहुत कुछ है जो कचरे के ढेर पर होने लायक है, लेकिन उसे हम तिजोरी में सम्हाल कर रखे हैं, क्योंकि सपना सत्य मालूम होता है, कांच के टुकड़ों में हीरे होने का भ्रम है। मैं नहीं कहता। बुद्ध कहते हों, महावीर कहते हों, रामकृष्ण कहते हों, किसी के कहने को कभी मत मानना क्योंकि जौहरी धोखा दे सकते हैं। और आपके असली हीरे हो, और कोई कांच के टुकड़े बना कर, बात करफिंकवा दे, इस भ्रम में कभी नहीं पड़ना।
और इसलिए मैं कहता हूं कि नहीं पड़ना तो आप हंसते हैं, हालांकि आप सब होशियार हैं और कभी नहीं पड़ते हैं। किसी के धोखे में आप पड़ते नहीं। राम के, कृष्ण के, बुद्ध के, महावीर के धोखे में अगर आप पड़ गए होते तो इतनी तिजोरियां न होती, इतने ताले न होते, इतने उन पर पहरे न होते। कभी पड़े भी नहीं धोखे में, कोई कभी पड़ता भी नहीं। कभी कोई भूल से न पड़ जाए, इसलिए मैं प्रार्थना भी करता हूं। लेकिन कुछ परखना सीखें। सभी पत्थर हीरे नहीं हैं, बहुत कुछ कांच के टुकड़े हैं। सारा ही जीवन सत्य नहीं हैं, बहुत कुछ उसमें झूठा है और माया है। इसे पहचानें, इसे देखें। इसे देखने का उपाय है। उस उपाय की हम चर्चा करेंगे। खुद देखें, और अब आपका दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा तो पाएंगे कि जीवन में एक क्रांति शुरू हो गई है। एक ऐसी क्रांति जिसके लिए कहीं घर छोड़ कर भागना नहीं होता, वरन जहां आप हैं, वहीं दृष्टि खुलनी शुरू हो जाती है। असार असार दिखाई पड़ने लगता है तो असार छूटना शुरू? हो जाता है और सार्थक की ओर दृष्टि उठनी प्रारंभ हो जाती है।
जीवन में इससे बड़ी और कोई घटना नहीं है कि हम छाया को और आत्मा को भिन्न करने वाली रेखा को देखने में समर्थ हो जाएं। छाया को और आत्मा को भिन्न करने वाली रेखा को देखने में जो समर्थ हो जाता है, उसके जीवन में भाग्य के अभिनव द्वारा खुल जाते हैं। उस रेखा को पहचानने के लिए प्राथमिक कुछ थोड़ी सी बातें कही हैं। दो दिन में हम उनकी चर्चा करेंगे और इसमें जो भी पूछने जैसा आपको लगे उसकी हम सांझ को चर्चा करेंगे।

मेरी बातों को इतने प्रेम से और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। परमात्मा करे, छाया छूटे और आत्मा उपलब्ध हो, ऐसी ही मेरी प्रार्थना है।

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